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________________ ३३२ अनेकान्त (१) नियुक्तिकार भद्रबाहु केवली भगवान्के केवलज्ञान और केवलदर्शनका युगपत - एक साथ सद्भाव नहीं मानते-कहते हैं कि केवीके केवलदर्शन होने पर केवलज्ञान और केवलज्ञान होने पर केवलदर्शन नहीं होता; क्योंकि दो उपयोग एक साथ नहीं बनते। जैसा कि उनकी आव श्यक नियुक्तिकी निम्न गाथा (नं० ३७३) से स्पष्ट है-नाणंमि दंसणंमि अ इतो एगयरयंमि उत्रजुता । सम्वरस के वलिस्सा' जुगवं दो नित्थि उवयोगा ।। इसमें कहा गया है कि 'सभी केवलियोंके -- बाहे वे तीर्थंकर केवली हों या सामान्यकेवली आदि, ज्ञान और दर्शनमें कोई एक ही उपयोग एक समय में होता है। दो उपयोग एक साथ नहीं होते' । आवश्यक नियुक्तिकी यथा प्रकरण और यथा स्थानपर स्थित यह गाया ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़े महत्वकी है। और कितनी ही उनको सुलकाती है। इससे तीन बातें प्रकाशमें भाती हैं-- एक तो यह कि भद्रबाहु द्वितीय केवलीको शान और दर्शन उपयोग मेंसे किसी एक में ही एक समय में उपयुक्त बतक्षा कर क्रमपक्षका सर्व प्रथम समर्थन एव प्रस्थापन करते हैं। और इस लिये वे ही क्रमपचके प्रस्थापक एवं प्रधान पुरस्कर्ता हैं। दूसरी बात यह कि भद्रबाहुके पहिले एक ही मान्यता थी और वह प्रधानतया युगपतपक्षकी मान्यता थी जो दिगम्बर परम्पराके भूतबकि, कुंदकुंद भादि प्राचीन आचायोंके वाङ्मयमें और श्वे० भगवतीसूत्र [२४] तथा तत्वार्थ भाष्य [१-३१] में उपलब्ध है और जिसका कि उन्होंने (भद्र [ वर्ष ६ बाहुने) इसी गाथाके उत्तरार्धमें 'जुगवं दो नत्थि उपयोगा' कह कर खंडन किया है। और तीसरी बात यह कि नियुकि कार भद्रबाहुके पहिले या उनके समयमें केवलीके उपयोगइसका अमेद नहीं था । अन्यथा क्रमपक्ष के समर्थन एवं स्थापन और युगपत्पचके खंडनके साथ ही साथ अभेदपक्षका भी वे अवश्य खंडन करते । अतः प्रभेदपच उनके पीछे प्रस्थापित हुआ फलित होता है और जिसके प्रस्थापक सिद्धसेन दिवाकर हुए जान पड़ते हैं। यही कारण है कि सिद्धसेन क्रमपच और युगपत्पक्ष दोनोंका सम्मतिसूत्रमें जो खंडन करते हैं और अभेदवादको स्थापित करते हैं। हमारे इस कथनमें जिनभद्रगणि चमाश्रमणा की विशेषणवतीगत वे दोनों गाथायें भी सहायक होती हैं. जिनमें 'केई' शब्दके द्वारा सर्वप्रथम यगपत्पक्षका और 'अ' शब्द के द्वारा पश्चात् क्रमपक्षका और अन्त में दूसरे 'अथो' शब्द अभिपक्षका उल्लेख किया है, जो उपयोगवाद के विकासक्रमको ला देता है और उमास्वाति, निर्युतिकार भद्रबाहु तथा सिद्धसेन दिवाकरके समय का भी ठीक निर्णय करनेमें खास सहायता करता है। १ 'केवलिस विं' पाठान्तरम् २ यदि प्रशाग्नासूत्र पद ३० सू० ३१४ को क्रमपक्ष परक माना जाये तो सूत्रकार क्रमपक्ष के प्रस्थापक और नियुक्तिकार भद्रबाहु उसके सर्व प्रथम समर्थक माने जायेंगे । ३ प्रा० हरिभद्र, अभयदेव और उपाध्याय यशोविजयने क्रमपक्षका पुरस्कर्ता जिनभद्रर्गाणि क्षमाश्रमणको बतलाया है. पर जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण जब स्वयं 'राणे' कह कर क्रमपक्ष मानने वाले अपने किमी पूर्ववर्ती उल्लेख करते हैं (देखो, विशेषणवती गा० १८४ ) तब वे स्वयं क्रमपक्ष के पुरस्कर्ता कैसे हो सकते हैं ? यहां एक बात और खास ध्यान देने योग्य है और वह यह कि दिगम्बर परंपरामें अकलांकक पहिले किसी दिगम्बर आचार्यने क्रमपक्ष वा श्रभेदपचका खंडन नहीं किया । केवल युगपत् पक्षका ही निर्देश किया है ६ । पूज्यपादके बाद अकलंक ही एक ऐसे हुए हैं जिन्होंने इतरपचों क्रमपत्र और प्रभेदक का स्पष्टतया खंडन किया है are garveer सयुक्तिक समर्थन किया है। इससे ४ देखो, सम्मतिसूत्र २-४ से २-३१ तक ५. केई भांति जुगवं जागर पासह य केवली शियमा । श्ररणे एतरियं इच्छति सुश्रवसें ॥ श्ररणे ण चेव वीसुं दंसणमिच्छति जिगुवरिदस्स । जं चि य केवलणाणं तं चि य से दक्षिणं विति ॥ --विशेषणवती. १८४. १८५ ६ इस बातको श्वेताम्बरीय विद्वान् श्रद्धेय पं० सुखलार्ज भी स्वीकार करते हैं। देखो, ज्ञानविन्दु प्रस्ता० पृ० ५५ ७ देखो, अष्टशती का० १०१ की वृत्ति और राज० ६-१३-८ ८देखो, राजवार्तिक ६-४-१४, १५, १६ ६ देखो, राजवार्तिक ६-४-१२
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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