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________________ ४२ अनेकान्त प्रातिहार्य विभवैः परिष्कृतो देहतोऽपि विरतो भवानभूत् । मोचमार्गमशिषन्नरामराज्ञापि शासन फलेषणातुरः ॥ ३ ॥ 'प्रातिहार्यो और विभवोंसे - छत्र, चमर, मिहासन, भामंडल, अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, देवदुन्दुभि और दिव्यध्वनिरूर आठ प्रकार के चमत्कारों तथा समत्रसरणादि विभूतियोंसे - विभूषित होते हुए भी आप उन्होंसे नहीं किन्तु देहसे भी विरक्त रहे हैं - अपने शरीरसे भी आपको ममत्व एवं रागभाव नहीं रहा । (फिर भी तीर्थकर प्रकृतिरूप पुण्यकर्मके उदयसे) आपने मनुष्यों तथा देवोंको मोक्षमार्ग सिखलाया है-मुक्तिकी धामिके लिये सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप अमोघ उपाय बतलाया है । परन्तु आप शासन-फलकी पपणासे यातुर नहीं हुए-कभी श्रापने यह इच्छा नहीं की कि मेरे उपदेशका फल जनताकी भक्ति अथवा उसकी कार्यसिद्धि आदि के रूप में शीघ्र प्रकट होवे; और यह सब परिणति श्रापकी वीतरागता, परिमुक्तना और उच्चनाकी द्योतक है। जो शासन- फलके लिये आतुर रहते हैं वे ऐश्वर्यशाली होते हुए भी क्षुद्र संसारी जीव होते हैं। इसीसे वे प्राय: दम्भके शिकार होते हैं और उनसे सच्चा शासन बन नहीं सकता । कायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो नाऽभवंस्तव सुनेश्चिकीर्षया । नाऽसमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर ! तावकर्मचिन्त्यमीहितम् ॥ ४ ॥ [ वर्ष ६ आप प्रत्यक्षज्ञानी मुनिके मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियाँ उन्हें प्रवृत्त करने की इच्छासे नहीं हुई; (ब क्या श्रसमीक्ष्यकारित्व के रूप में हुई ?) यथावत् वस्तुस्वरूपको न जान कर समीक्ष्य कारित्व के रूप में भी वे नहीं हुई । इस तरह हे धीर, धमजिन ! आपका ईहित-चरित अचिन्त्य है-उसमें वे सब प्रवृत्तियाँ आपकी इच्छा और असमीक्ष्यकारिता के नीर्थंकर नामकर्मोदय तथा भव्य जीवों के अदृष्ट (भाग्य) - विशेषके वशम होती हैं ।' मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः । तेन नाथ ! परमाऽसि देवता श्रेयसे जिनवृष ! प्रसीद नः ॥ ५ ॥ - स्वयम्भूस्तोत्र -हे नाथ! चूँकि आप मानुषी प्रकृतिको मानव स्वभावको प्रतिक्रान्त कर गये हैं और देवताओं में भी देवता हैं—पूज्य है - इस लिये श्राप परम- उत्कृष्ट देवता हैं—पूज्यतम है। अतः हे धर्मेजिन ! आप हमारे कल्याणके लिये प्रसन्न होवें, हम प्रसन्नतापूर्वक रसायन सेवनकी तरह आपका श्राराधन करके संसार-रोग मिटाते हुए अपना पूर्ण स्वास्थ्य (मोक्ष) सिद्ध करने में समर्थ होवें । भावार्थ- 'श्रेयसे प्रसीद नः--आप हमारे कल्याणके लिये प्रसन्न होवें ' यह श्रलंकृत भाषा में भक्त की प्रार्थना है, जिसका शब्दाशय यद्यपि इतना ही है कि श्राप इस पर प्रसन्न होनें और उस प्रसन्नताका फल हमें हमारे कल्याणके रूप में प्राप्त होवे; परन्तु वीतरागदेव किसी पर प्रमन्न या प्रसन्न नहीं हुआ करते - वे तो सदा ही श्रात्मस्वरूप में मन और प्रसन्न रहते हैं, फिर उनसे ऐसी प्रार्थनाका कोई प्रयोजन नहीं । वास्तव में यह अलंकृत भाषामय - प्रार्थना एक प्रकारकी भावना है और इसका फलितार्थ यह है कि हम वीतरागदेव श्रीधर्मजिनका प्रसन्न हृदयसे प्राराधन करके उनके साथ तन्मयता प्राप्त करें और उस तन्मयताके फलस्वरूप अपना आत्मकल्याण सिद्ध करनेमें उसी प्रकार से समर्थ होतें जिस प्रकार कि रसायन के प्रसाद से प्रसन्नतापूर्वक रसायनका सेवन करनेसे--- रोग जन श्रारोग्य-लाभ करने में समर्थ होते हैं ।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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