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________________ ३६० अनेकान्त [वर्ष ६ समुद्र में शेषशय्यापर बम्नी लक्ष्मी चीके साथ भोग भोगते मखित होकर पवित्र उपदेशों द्वारा इस भारतबसुन्धराको है, कोमल गोपर पौंदते है । रसनाद्वारा रसीले व्यंजन, पवित्र कर रहे थे। स्वयं भीऋषभदेव अपने चकतनी पुत्र लाभांग श्रादिका भोग पाते हैं। चढ़ाये हुये फूल, फलों भरत और सूर्यवंशके प्रवर्तक पौत्र अर्ककीर्तिक बाहुबली या अनेक प्रगतोंके सुन्दर श्योंको प्राण इन्द्रिय और चक्षु और जयकुमारसे युद्ध में हुये घोर अपमानको टाल नहीं इन्द्रिय द्वारा उपभागमें लाते है। बगीचों में माना, बजाना, अके। श्रीमुनिसुव्रतनाथके समयमें रावण लक्ष्मणका प्रकाण्ड मार्चना भादिका मानन्द लूटते हैं। हरि-विष्णुके श्राइब हुधा जिसमें कि कतिपय अक्षौहिणियोंका विनाश बस माभूषण बहुत बढ़िया है और गायकी सवारीमें चलते हुआ। श्री नेमिनाथके तीर्थ में श्रीकृष्णका कंस और जगहै। शिवजीके स्कन्द और गणेश दो लड़के भी हैं। सिन्धसे रण हुश्रा लाखो. योबाओंका क्षय हुश्रा, द्वारिका महादेवजी बहुभाग कापनी ससुराल हिमालयपर रहते हैं। दाह हुआ, जिसमें करोड़ों यदुवंशी जलगये, खास भगवान् पार्वती उनकी प्रर्वाशिमी है। ये भगधाम् जिसपर कोष के चाचा, भाई, भतीजे, चाची, भाभी सब भस्मसात् होगये, करते उनको और उनके लड़के बचोंको मार देते है समुद्रका पानी पेट्रोल हो गया, भवितव्यको टालनेके प्रयत्न उनके सहायक सैंकड़ोंका चक्र, त्रिलोंसे कतल कर देते हैं सब फेल होगये। कौरव पाण्डवोंका भारी संग्राम हुश्रा। बन हर लेते है।कभी किसीको वरदान देते हैं। चाहे तथा अन्य भी तीर्थरोके तीर्थकाल में अनेक अनर्थ हुये वे जिमको निहाल कर देते है। कभी कभी विष्णु भगवान् रोके जा सकते थे, स्वयं तीर्थडरोंको अनेक कष्ट भोगने पड़े और शिवजीमें परस्पर मीठा भगड़ा भी होजाता है। कोई साधम आदि असख्य इन्द्र और असख्यातासख्यात दव देवोंका पक्ष लेता है और चूमरा दैत्योंकी तरफदारी करता है। जिनकी सेवामें तैयार रहते हैं उनके लिये कोई कार्य दुष्कर किन्तु भाप माने तो अपने वीतराब भापानमें मात्र नहीं है। अन्तमें यही कहना पडता है कि दोनहारको कोई मात्मोत्थ स्वाभाविक सुख मामा ऐन्द्रिक-मुख नहीं।' रोक नहीं सकता है। जबकि समवसरणमें पांचों इन्द्रियोंके भोग-उपभोगों जं जस्स जझि वेसे जेथ बिहाणेण जम्बि कालदि। की सामग्री भरपूर विद्यमान है। फल फूल सुन्दर-दश्य शादं जिणेण णियदं जम्म वा श्रहव मरयां वा ।। नाचना, माना-बाना वैसा अन्यत्र सम्भव भी नहीं है। तं तस्स तमिकाले तेण विहाणेण नम्हि कालदि। . प्रत्युत श्राप जैनोंने ऐन्द्रियिक सुख और भात्यीय सुखका को सका चालयितुं इंदो वा बह जिशिदो वा ॥ विरोधकह दिया है जबकि करोडों मनुष्य ऐन्द्रियिक और यदि जैनोंमें सृष्टिकर्तापन होता तो दयाशु जिनेश्वर अतीन्द्रिय सुखका विरोध मान रहे हैं पन्द्रियजन्य सुख तो किसी न किसी भालपर प्रसन्न होकर चाहे जिसे दूर ही हा आप वो इन्द्रियजन्य ज्ञान भी नहीं मानते हैं बड़ा बना देते। जबकि जैनोंमें चान्सलर, सेशन जज, और केवलीके परानपेक्ष अनन्त सुखपस्सी.संतोष मान कर . हाईकोर्ट जज, महामहोपाध्याय, हिनहाइनेस, चीफ कमिभर, बैठ जाते हैं। यो सर्वसुखको न मान कर अनन्तमुखको ही अरबपतिसेठ, वद्विधारी मुनि, उच्चवैद्य, डाक्टर, मन्त्रवित् - अनन्त चतुष्टयमें अपनाया। अनन्त-शक्तिका विचार यह राजा, महाराजा, अद्यमोक्षगामी, द्वादशजवेत्ता, वायुमान है कि नैयायिक या पौराणिकोंने ईश्वरको ही सर्वशक्तिमान् निर्माता, उद्भटविद्वान, प्रसिद्ध मल्ल, नामाडित अभिनेता, स्वीकार किया है। वा "कर्तुमकर्तुमन्यषाकर्व समय: । विद्याधर, ऊँचा कलाकार, डी.आई. जी., आई.जी., वृक्षोंसे मनुष्य उत्पन्न किये जा सकते है । माइली या देबीसे महान् वक्ता, लेखक, स्थपलि. अभिरूप, अर्थशास्त्रश, मणिभी मानष-शरीर उपजता है महाप्रलयमें सर्व नष्ट कर दिये .तश, उतैराका मादि नहीं है। कर्मसिद्धान्त प्रबल आते हैं पुन:श्वर नई सृष्टि रचताब्यादि सर्वशक्ति- माना गया है। “कामादिप्रभवचित्तः कर्मबन्धानुरूपतः" मान्को संभवसे असंभव और असंभव संभव करनेका (भीसमन्तभद्रः)। 'यह कर्मलिखी सोही होय मिटेगी कैसी ? पूरा अधिकार मास है। जैनों में ऐसा नहीं जबकि कठिन (पचांश)। तपस्या कर स्वयं भगवान् अनन्तवीर्य और केबलमनसे ईश्वरको सर्वशक्तिमान् मानने वालोंके यहाँ कमौकी
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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