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[किरण १०-११
केवलज्ञानकी विषय-पर्वाता..
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हे है। "विमेनि मृत्योर्न ततोस्ति मोक्षो नित्यं शिवं वाञ्छति लग जा । तब कही उसे तत्वज्ञान हुमा। नास्य लाभ:' (समन्तमद्र)-जीव मृत्युको नहीं चाहना प्रकरणमें यह कहना है कि समीचीन कल्पना या प्रत्युत मौनसे डरता है किन्तु मरण होजाता है। मोक्षको स्थापनासे असली तत्वपर पहुँच सकते हो राजमार्ग यही है। चाहता है पर नहीं होती। मनोरथ किसी भी प्रायः पूरे सातवें गुणस्थान तक मूर्तिपूजाका फटाटोप पकड़े रहो सब नहीं होते हैं। चाहनेसे होगये कार्यों में भी इच्छा उतनी तक यही मोक्षमार्ग है। किन्तु पाठ गुणस्थानमें द्रव्यकारण नहीं है जितनी कि बापने मान रक्खी। बिना पूजा या भावपूजाका यह ठगना, आद्रव्य, पाय, संदली, इच्छाके तद्वत् भव्योंके माग्यवश योगशक्ति द्वारा स्वाभाविक पूजा पोथी, कोलाहल, निममनोमविभाजनमारवा, इत्यादि उपकारी भगवान् अनन्त प्रमेयोपर शब्दोंका खोल चढ़ाकर ठाठ उसी प्रकार छोड़ देना होगा जैसे कि चक्रवती या हजारों वर्ष तक उपदेश देते रहते है उसी उपदेशको आप राजा जब केवली पयवा प्राचार्य महागनका दर्शन करने गतानुगतिक रूपसे पकड़े चले चलो। चाहे भूतचौबीसीके जाते है तो घोड़ा, हाथी, छत्र, चामर, पालको विमान में निर्वाणजी होय और भले ही वर्तमान चौबीसीके. आदीश्वर सब परिच्छद बाहर हो जाते हैं। तभी वे ठीक बर्शन महाराज होंय । सबको पूर्व मिथ्यादृष्टिन-वस्थासे सम्यग्दर्शन या कल्याणमार्ग पास कर पाते हैं। प्राप्त करनेके लिये देशना-लब्धि प्रास करना पड़ी थी। और विचारशीलो विद्यार्थियो! फेवलीके ज्ञानको लौकिक वह इन्हीं पूर्ववती भगवानकी कल्पित शब्दोंद्वारा वाच्य- शानोंसे मत मिलायो। हम पुनः पुनः यह कहते है कि वाचकभावको लिये हुये थी। प्रथम अवस्था में ही वस्तुका भगवान्का ज्ञान प्रापकी अनेक कपोलकल्पित सयानोंके साक्षात् शान किसीको भी नहीं हो सकता है। तुमही कोई शेयको नहीं जानता। न उस शानमें वैसा आकार या परम ज्योनिमेंसे निकले हो?
उल्लेख है। यो सममिये केवलशानीके पास अनन्त सुखी जितने भी मनुष्य पैदा हुये थे, हो रहे हैं,होंगे।चाहे सर्वसख नहीं अनन्त शक्ति है सर्वशक्ति नहीं है। अनन्त वे वेसठ शलाकाके पुरुष ही क्यों न हो? सबकी उत्पत्ति
दर्शनी सर्वदर्शन नहीं, तद्वत् ज्ञान भी अनन्त ज्ञान है मुत्रमार्गसेही औदारिक परमौदारिक शरीरका भी प्रापशानके साथ सर्व शब्द क्यों लगाते व्यर्थकी प्राय उपादानकारण निकट निद्य अधःस्थानसे प्राप्त हुमा ल्लतोंको पसन्द न करो। कोरी लम्बाई, चौड़ाईपर लह है। "मातपितारजवीरजसे यह उपजी मल-फुलवारी" मत होजानो।" पथ्यं नेपथ्यं बहुतरमनकोत्सवविधौ” (माषाकवि) । प्राहारक शरीर जैसे उत्तमाज माने गये इसको श्रृंगार रसपर नहीं लगाकर शान्त रसमें मिढ़ादी। शिरोभागसे उत्पन्न होता है वैसा कोई मोक्षगामी जी भी "न पथ्यं नेपथ्यं बहुतरमा केबलविदि" यदि क्वचित् मुखप्रदेश या मस्तकसे नहीं उपजा। सबको जननीके गर्मा- __ "सर्वशेनागमेशिना" "सर्वशोनादिमध्यान्त: लिल दिया। शयका प्राश्रय लेना पड़ा । बन्धुनो! इस उत्पत्तिप्रक्रियामें चोदन सर वाक्योंके संकड़ों वर्ष पहिले श्री अमास्वामी बुरा माननेकी कोई बात नहीं है। अफसोस करना व्यर्थ महाराजने "सर्वदम्य॑पर्यायषु केवलस्य" यो सर्व शम्दको ऐसा ही सदासे पुरिलापंक्तिसे होता चला पाया। द्रव्यों और पर्यायोंमें विशेषशाकान्त कर दिया है। चन्द्र
प्रद्युम्नचरित्रमें लिखा है कि एक ममुख मरकर अपनी प्रमचरित्रमें तो "अनन्तविज्ञानमनन्तवीयंता, मनन्तबीय- . अपनी पुत्रवधूके ही पुत्र ोगया । जातिस्मरण द्वारा शांत कर वमनन्तपर्यन" ऐसा कहा गया है। प्रयन्नके छयालीस वो नक वह इसी अनुतापमें गूंगा बना निठल्लाबेठा रहा अतिशयोंमें कंठोक अनन्तशान गिनाया।। "अनन्तकि मैं स्वयं अपना नाती बन गया अपनी पुत्रबहका दूध चतुष्य"।. .. पिया बादि । एक दिन भी गुरुने उसे समझाया कि अरे इसका स्पीकस्वयोकि वैष्णवोंके भगवानमें खाने, मतिमन्द । संसारकी वही नकली कल्पित प्रक्रिया है। यह पीने, नाचने, गाने, भोग भोगने, बी, लय, नातियों के जीव स्वयं अपना पुत्र हो सकता है। बन्धु, मित्र, पिता, सुख और माधि धारण करनेपर शिवजी या विष्णु पुत्र, समानुषंगिक कल्पनाएँ। उठ और धात्महितोंमें भगवान लीनिद्रव मुख मी किये। विष्णु भगवान्