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________________ ३०६ अनेकान्त [ वर्षे ६ को 'सूत्रकबठा:-- गले में सागा दाखने वाले-जैसे उपहा मूलाचार, कुन्दकुन्दाचार्यका प्रवचनसार तथा चारितसास्पद या हिकार शब्दों में उल्लेखित किया है। यदि उस पाहुबादिक, स्वामी समन्तभद्रका रत्नकरण्डश्रावकाचार, समय तक जैनियों में जनेऊका रिवाज हुआ होता अथवा उमास्वामीका तत्वार्यसूत्र, शिवार्यकी भगवती अराधना, बहनसंस्कृतिका अंग होता तो श्रीरविषेण माझोंके लिये पूज्यपादकी सर्वार्थ सिद्धि, अकलंकदेवका तत्वार्थराजवासिक ऐसे हीन पदोंका प्रयोग न करते, जिससे जनेउकी प्रथा और विद्यानन्दका तत्वार्थश्लोकवार्तिक, ये ग्रंथ खास तौरसे अथवा जनेऊ-चारकोंका ही उपहास होता हो। इसके उत्तर उस्लेखनीय है। इनमें कहीं भी मुनिधर्म अथवा श्रावकमें विद्वान लेखकने अपने लेखमें कुछ नहीं लिखा और न धर्मके धारकोंके लिये प्रतादिकी तरह यज्ञोपवीतकी कोई रविषेणाचार्यसे भी पूर्वके किसी जैनागममें यज्ञोपवीत विधि व्यवस्था नहीं है। श्रीरविषेण पमपुराण और द्वि. संस्कारके स्पष्ट विधानका कोई उल्लेखही उपस्थित किया है। जिनसेनके हरिवंशपुराणमें सैंकड़ों जैनियोंकी कथाएँ है उनमें लेखके अन्तमें यज्ञोपवीतको "जैनसंस्कृति और जैन- से किसीके यज्ञोपवीत संस्कारसे संस्कृत होनेका उल्लेख धर्मका प्रावश्यक अंग" बतखाया है। लेकिन वास्तवमें तक भी नहीं है। ऐसी हालत में यज्ञोपवीतको जैनधर्मका यज्ञोपवीत यदि जैनसंस्कृति और जैनधर्मका भावश्यक कोई आवश्यक अंग नहीं कहा जा सकता और न वह अंग होता तो कमसे कम जैनधर्मके उन पाचारादि-विषयक जैनसंस्कृतिका ही कोई आवश्यक अंग जान पड़ता। प्राचीन ग्रंथों में उसका विधान जरूर होता जो उक्त जिन- वीरसेवामन्दिर, सरसावा सेनाचार्यसे पहलेके बने हुए है। ऐसे प्रन्यों में श्रीवट्टकरका ना.१२-४-१९४४ गोत्र-विचार (लेखक-पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री) >>ee[गतकिरण नं. ८ मे आगे] (३) मनुष्योंके भेदों में गोत्रविभाग __'नेक्ष्वाकुकुलाछुत्पत्ती, काल्पनिकानां तेषां परमाअवता प्रकृति अनुयोगदारका उग्य देकर यह तो र्थतऽमत्वान , द्विब्राह्मणमाधुष्वपि उकगोत्रस्योहम पहले ही बतला भाये हैं कि जो साधुमाचार वाले दयदर्शनान् ।' मार्च मनुष्य है या जिन्होंने इनसे पूरी तरहसे मामाजिक ___इक्ष्वाकुलादिकी उत्पत्तिमें उस गोत्रका व्यापार नहीं सम्बन्ध स्थापित करके मार्यत्व प्राप्त कर लिया है उनके होता, क्योंकि वेषवाकुमादि फल काल्पनिक है वास्तव उच्च गोत्र होता है। इससे यह भी निष्कर्ष निकम में वे नहीं हैं। दूसरे वैश्य, प्राक्षण और साधुनों में भी भाता कि जो भार्य साधुमाचार वाले नहीं उनका उपच गोत्रका उदय देखा जाता। तथा म्लेच्छोंका मीच गोत्र होता । भन यहाँ इसका यद्यपि यह वाक्य गोत्रकर्मक विचारके समय पूर्वपक्ष विचार करना है कि शिक्षायोग्य साधुनाचार वाले कौनसे रूपमें पाया है पर इससे इतना तो पता चल ही जाता है मार्य पुल्प माने गये है। इस प्रमके निर्णयके लिये हम कि नब गोत्रका उदय माझया, पत्रिय, वैश्य और साधुचों पाठकोंका ध्यान अपना प्रकृतिमनुयोगद्वारके निम्न वाक्यांश में माना गया है। अतः इससे यह निष्कर्ष सहनही निकाला की ओर खींचते है जा सकता है कि इनके अतिरिक्त जो समाज विद्या
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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