SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ अनेकान्त [वष ६ कुछ भी सेवाकार्य किया है वह सब अपना कर्तव्य समझ है, अहंकारी बन जाता है और उसकी कायंगति मन्द पड़ कर किया है और कर्तब्य समझ कर ही कर रहा हूँ। फिर जाती है। अत: ऐसा न होना चाहिये। इसके खिये इतने मान-सम्मान, गुण-गान और इसने अभिनन्दन-पत्रादिके रूप में जो मान-सम्मान प्रापने अधिक प्रायोजन-समारोहकी क्या जरूरत? यह मेरी कुछ मुझे प्रदान किया है उसको सादर स्वीकर करके प्रब में समझ में नहीं पाता, और यही सब देख कर मुझे उसे अपने श्राराध्य गुरुदेव स्वामी समन्तभद्रको अर्पण पाश्चय होता है! करता है, जिनके प्रसादसे ही मैं इस रूप मान-सम्मानको जान पड़ता भाप सब सज्जनोंका हृदय अब बहुत पानेके कुछ योग्य बनाई. अन्यथा मेरी शिक्षा थोड़ी उवार हो गया है। साथ ही. भापकी रष्टि विशान्त तथा विद्या थोड़ी, पूजी थोडी और शक्ति थोड़ी। उन्हीं पूज्यवर ऊँची होगई है अथवा यो कहिये कि वह खुर्दबीन बन गई की कोई शक्ति--उनके प्रकाशकी कोई किरण -- मेरे अन्दर है, जो छोटी छोटी चीजोंको भी बड़े बड़े आकारमें देखने काम करती हुई मालूम होती है। उसीके सहारे एवं आधार लगती है, इसीसे श्राप मेरे जैसे तुच्छ सेवकको भी अपने पर मैं उन कार्योंको कर पाया हूँ जिनकी प्रशंसा करनेके हरयमें ऊँचा भासन दे रहे हैं, ऊची रष्टिये देखने लगे हैं लिये श्राप पय एकत्र हाहैं और मुझे अभिनन्दन पत्र दे और मेरे छोटे छोटे सेवाकार्य भी अब आपकी रष्टिमें बड़े रहे हैं। मेरे जीवन में ऐसे सैकड़ों प्रसंग उपस्थित हुए हैं बडे प्रथया भारी महस्वके जैचने लगे हैं। और इस तरह जब सोचते सोचते अथवा लिखते लिखते मेरी बुद्धि श्राप मेरे उस सम्मानके लिये जमा हो गये हैं जिसका मैं कुण्ठित होगई. लेखनी चल कर नहीं दी और जो लिखा पात्र नहीं। दूसरे शब्दों में यह सब आपका सौजन्य है और गया उससे अात्मसंतोष नहीं हो सका। ऐसे अवसरों पर इसके द्वारा मापने मुझे अधिक भाभारी बनाया है। मैंने शुद्ध हृदयसे स्वामी समन्तभद्रका श्राराधन किया परंतु मुझे भय है कि कहीं आपके सम्मानका यह भारी बोका है--उनका स्तवनादि करके प्रकाशकी याचना की। मेरी गतिको मन्द न करदे-बोमसे अक्सर श्रादमी दब फलत: मुमे यथेष्ट प्रकाश मिला है, मेरी अटकी हुई गाड़ी जाता है और उसकी गति मन्द पड़जाती है। हो सकता है। एक दम चल निकली है, उलझने सुलझ गई हैं और फिर इसमें आपका उहश्य मेरी गतिको कुछ तेज करनेका ही जो लिखा गया है वह बड़ा ही रुचिकर, प्रभावक तथा हो जैसा कि सभापतिमहोदय और दूसरे प्रवक्ताोंने भी प्रारमाके लिये सन्तोषप्रद हुश्रा है। इसीसे स्वामी समन्तअपने भाषणोंमें इस ओर संकेत किया है कि ऐसे सम्मानों भद्रको मैं अपना नेता, मार्गदर्शक, प्रकाशस्तम्भ और आग से प्रोत्साहन मिलता है और कार्य प्रगति करता है, परन्नु ध्य गुरुदेवके रूपमें मानता हूं। वे आजसे कोई १८०० वर्ष मेरे जैसे स्वेच्छासे स्वयंसेवककी गति अब इस वृद्धावस्था पहले विक्रमकी दूसरी शताब्दी में हो गये हैं, अत: इस में और क्या तेज़ होगी वह कुछ समझ नहीं पाता ! जब सम्मानका एक प्रकारसे सारा श्रेय उन्हींको है। तक कि किसी असाधारण टानिकका योग न भिडे। हो, वे वीरजिनेन्द्र के सच्चे सेवक थे। उन्होंने अपने समय में इससे दूसरे नवयुवकोंको प्रोत्साहन जरूर मिलेगा-वे वरके तीर्थकी हजार गुणी वृद्धि की है, जिसका उल्लेख देखेंगे समाजमें सेवकोंकी कद्र होती है और इस लिये उन बेलूर ताल्लुकेके उस कनदी शिलालेख नं. १७ में "सतीर्थमं की सेवा-भावना तीब बनेगी। सहस्रगुणं माडि समन्तभद्रस्वामिगलु सन्द" इस वाक्य मेरी तो अब श्री जिनेद्रदेवसे यही प्रार्थना कि 'आप द्वारा पाया जाता है, जो रामानुजाचार्य-मन्दिरके अहातेके के शासनाभ्यासके प्रभावसे मेरे हृदयमें इस मान-सम्मानके अन्दर सौम्य नायकी-मन्दिरकी छतके एक पत्थर पर उथ कारण हर्षका संचार न होने पावे। क्योंकि मैं हर्षको भी है और जिसमें उसके उत्कीर्ण होनेका समय भी शक शोककी तरह मारमशत्रु समझता हूँ। नीति-शासकारों ने भी सं० १०५६ दिया हुआ है। अपनी वीरजिनेन्द्रसेवाका जो अरिषड्वर्गमें उसे मात्माका अन्तरंग-शत्रु बतलाया। उल्लेख स्वयं स्वामी समन्तभद्रने अपने स्तुति विद्या' हर्षक चारमें पड़कर अक्सर मनुष्य अपनेको भूल जाता (जिनशतक) अन्धमें किया वह बवा ही मार्मिक है।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy