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________________ १६४ अनेकान्त [वर्ष६ बहुत ऊँचा है, महान है और अनुपम है-वैसा कार्य धीरे धीरे यह छोटीसी पुस्तक राष्ट्रीय नित्यपाठ बनती किसी दूसरेने नहीं किया । समुद्र में रत्न हैं, सत्र जारही है। मुख्तार साहब उन लोगों में हैं, जो जाति जानते हैं कि हैं, पर यदि यह मालूम न हो कि कहां के जीवनको अपने हृदयके रक्तसे सींचते हैं। ऐसे है, तो हजारों डुबकियां मारनेपर भी न मिलेंगे। फिर लोगों के सम्मानसे नई पीढ़ीको बल मिलता है और यह जानना ही काफी नहीं है कि यहाँ रत्न हैं, उन जातिका जीवन पुष्ट होता है, इस दृष्टिले उनका तक पहंचने और उन्हें सुरक्षितरूपमें लानेका ढंग भी सम्मान भी हमारी स्वार्थपूर्ति करता है। मालूम होना चाहिये । रिसर्च के काममें रेफरेंसजका बड़ा महत्व है और मुख्तार साहबने हर तरहका कष्ट एक बार हम कई साथी हरद्वार गये। दूसरे साथी उठाकर भी जैन साहित्य और इतिहासकी खोजका नहाने लगे, पर मैं किसी काममें लगा था, न पहुँच मार्ग बना दिया है। यह काम कितना कठिन है, हम सका । वे नहाकर मेरी प्रतीक्षा करते रहे। उनमें कुछ लोग इसका अनुमान भी ठीक ठीक नहीं कर सकते। चुलबुले युवक थे । यों ही हंसी २ में उनमें से एक तो काली सड़कोंपर मोटरमें घूमनेवाले लोग उस मनुष्य साधु बन गया और समाधि लगाकर बैठ गया और की दिक्कतोंको कैसे समझ सकते हैं, जिसे घने जंगल दूसरने उनके धागे अंगोछा बिछाकर कुल फल रख में मार्ग ढूढना पड़ा हो-बनाना पड़ा हो । दिये । बस फिर क्या था, जो यात्री आता, प्रणाम करता और पैसे चढ़ाता । मैंने श्राकर यह तमाशा एक बार मैं लाहौर में था और मुख्तार माहब भी देखा और मुझपर यह प्रभाव पड़ा कि समाज में देववहाँ पधारे थे। मैंने पूछा कि आजकल आप क्या की मृष्टि पूजासे होती है। यही हाल विद्वत्ताका है। खोज कर रहे हैं ? तो आपने बताया कि समन्तभद्र- विद्वानोंका मान-पूजा करनेसे समाज. विद्वत्ता बढ़ती साहित्यके कुछ शब्दोंका संग्रह कर रहा हूं कि कौन है। हमारे समाज में विद्वत्ताका मान नहीं हुआ, शब्द कहां २ प्रयुक्त हुआ है और किस २ अथेमें? नतीजा सामने है कि पहले जैसे विद्वानोंकी संख्या उस समय वहां मेरे मित्र श्री हरिश्चन्द्रजी जज भी कम होगही है। बैठे थे, वे बोले इससे क्या फायदा ? यह मेहनत बेकार है। मुख्तार साहबने अत्यन्त शान्तिसे इस उत्सवने हमें यही संदेश दिया किहमारा समाज उन्हें समझाया । तीसरे दिन वे बोले कि “यह अपनी यह भूल सुधारे और अपने विद्वानोंका मान कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है और अभी तक किसीने करे । यह सम्मान समारोह करके सहारनपुरके भाइयों नहीं किया है। यदि यह अधूरा रह गया, तो इसे ने ममाज में एक उपयोगी नवीन परम्पराका श्रारम्भ कोई दूसरा विद्वान कर भी न सकेगा । यह कार्य १००० किया है। मुझे आशा है कि उससे जहाँ दुसरे जीवित ग्रंथों के निर्माणसे भी अधिक मूल्यवान है।" पण्डित विद्वानों के सम्मानके आयोजन होंगे, वहां स्वर्गीय जीका कार्य एकदम मौलिक है और उस तरहका कार्य विद्वानों और महापुरुषोंकी स्मृतिरक्षाका प्रश्न भी करना बहुत कम लोगों के लिये सम्भव है। मेरी हमारे सामने स्पष्ट रूपमें आयेगा।। भावना' और पं० जुगलकिशोरजी तो मिलकर एक अन्तमें मैं आपका कृतज्ञ हूँ कि आपने मुझे यहाँ ही होगये हैं। मैंने ऐसे कारखाने देखे हैं, जहां हजारों बैठाकर मुख्तार साहबके प्रति अपनी हार्दिक भक्ति मजदूर इकट्ठहोकर, झूम झूमकर उसे पढ़ते हैं। पता प्रगट करनेका अवसर दिया। नहीं कितने तड़फते हृदयोंको उसने सान्त्वना दी है।
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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