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________________ किरण ] अज्ञान-निवृत्ति २३३ अपेक्षासे अनेकान्तमें एकान्तरूप-प्रतिनियतधर्मरूल-सिद्ध होता है (विकलादेशः नयाधीनः' इस वाक्यके आशयानुसार) इति निपम-युक्तशासनः प्रिय-हित-योग-गुणाऽनुशासनः। भरजिन! दमतीर्थनायक स्वमिव सतां प्रतिषोधनायकः ॥ १९ ॥ 'इस प्रकार हे अरजिन ! आप निरुपम युक्त शासन है--उपमारहित और प्रमाणप्रसिद्ध शासन-मन के प्रवर्तक है-,प्रिय तथा हितकारीयोगोंके-मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियोंके-और गुणोंके-सम्यग्दर्शनादिककेअनुशासक है, साथ ही दम-तीर्थक नायक हैं--कषाय तथा इन्द्रियोंकी जयके विधायक प्रवचनतीर्थ के स्वामी है। आपके समान फिर साधुजनोंको प्रतिबोध देनेके लिये और कौन समर्थ है१ कोई भी समर्थ नहीं है। श्राप ही समर्थ है। मतिगुणविभवानुरूपत स्वपि बरदागमदृष्टिरूपतः । गुणकृशमपि किश्चनोदितं मम भवनाद् दुरितासनोदितम् ।। २०॥ -स्वयंभूस्तोत्रान्तर्गत "हे वरद--अरजिन ! मैंने अपनी मति-शक्तिकी सम्पत्तिके अनुरूप-जैसी मुझे बुद्धि-शाक्त प्रान हुई है उसके अनुमार-तथा श्रागमकी दृष्टिके अनुसार--भागममें कथित गुणों के श्राधारपर--आपके विषय में कुछ थोड़ेसे गुणोंका वर्णन किया है, यह गुण-कीर्तन मेरे पापकर्मों के विनाशमें समर्थ होवे-इसके प्रसादसे मेरी मोहनीयादि पाप-कर्मतियोका क्षय होवे।' अज्ञान-निरत्ति [ले-श्री पं० माणिकचन्द जैन,न्यायाचार्य] श्रीयुत बाबू नेमीचन्दजी वकील, सहारनपुरने अज्ञानकी निवृत्ति करते ही रहते हैं, जैसे अग्नि सदा केवलज्ञानके फलविषयमें एक प्रश्न पूछा है, जिसका ही निकटवर्ती योग्य शीतका निवारण करती रहती है, उत्तर दूसरे जिज्ञासुओंके लाभार्थ प्रश्नसहित नीचे अथवा सूयें हमेशा तिरछा पचास हजार, ऊपर सौ दिया जाता है: योजन और नीचे १५०० योजन क्षेत्रके अन्धकारको प्रश्न--केवलज्ञानका फल प्रज्ञानको निवृत्ति हो मेटता रहता है। उदयकालका सूर्य हो या दोपहरका, जाना प्रथम क्षणमें तो ठीक ऊँचता है। क्योंकि उसको शक्तिपूर्वक यह तमोनिवृत्ति करनी ही पड़ेगी। बारहवें गुणस्थानके अन्त में अज्ञान है, केवलझानने एक सैकिण्डकी भी ढील कर देनेपर राक्षसीपम अंधउत्पन्न होकर उस अज्ञानकी नि-त्ति की; किन्तु द्विती- कार तत्काल आ धमकेगा। यादि क्षणोंमें केवलज्ञानोंका फल अज्ञान-निवृत्ति क्यों अज्ञान-निवृत्ति करते रहना ज्ञानका प्राण है। माना जाय १ जबकि वहाँ कोई अज्ञान अवशेष ही। इसीसे प्राचार्य महोदयने-“अज्ञाननिवृत्तिनोपानहीं है? दानोपेक्षाश्च फलम" -परीक्षामुख उत्तर-पांचों प्रमाणसानों और भले ही तीनों उपेक्षाफलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः । कुक्षानोंको मिला लिया जाय, आठों ही शान सदा पूर्वावाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ।। प्राप्तमी.
SR No.538006
Book TitleAnekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1944
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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