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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । "न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोमी स्फुटमुपरितरंतोप्येत्य यत्र प्रतिष्ठां । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समंतात् जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावं ॥११॥" भूतं भांतमभूतमेव रमसान्निर्भिद्य बंधं सुधीर्यातः किल कोप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् । आत्मात्मानुभवैपर्ट द्रव्यकर्मनोकर्मभ्यामसंस्पृष्टं जले बिसिनीपत्रवत्। अणण्णयं अनन्यकं नरनारकादिपर्यायेषु द्रव्यरूपेण तमेव स्थासकोशकुशूलघटादिपर्यायेषु मृत्तिकाद्रव्यवत् णियदं नियतमवस्थितं निस्तरंगोत्तरंगावस्थासु समुद्रवत् अविसेसं अविशेषमभिन्नं ज्ञानदर्शनादिभेदरहितं गुरुत्वस्निग्धत्वपूर्ण ज्ञानघन स्वभाव आत्माको जान श्रद्धान करना, पर्यायबुद्धि न रहना यह उपदेश है। यहां कोई ऐसा प्रश्न करे कि ऐसा आत्मा प्रत्यक्ष तो दीखता नहीं है और विना देखे श्रद्धान करना झूठा श्रद्धान है । उसको उत्तर देते हैं—देखे हुएका ही श्रद्धान करना यह तो नास्तिकमत है । जिनमतमें प्रत्यक्ष परोक्ष दोनोंही प्रमाण माने गये हैं सो आगमप्रमाण परोक्ष है उसका भेद शुद्धनय है। इस शुद्धनयकी दृष्टिकर शुद्ध आत्माका श्रद्धान करना, केवल व्यवहार-प्रत्यक्षका ही एकांत न करलेना । यहां इस शुद्धनयको मुख्यकर कलशरूप काव्य "न हि विदधति” इत्यादि कहते हैं । उसका अर्थ-टीकाकार उपदेश करते हैं कि हे जगतके प्राणियो! तुम उस सम्यक्त्व स्वभावका अनुभव करो जिसमें ये बद्धस्पृष्ट आदि भाव प्रगटपनेसे इस स्वभावके ऊपर तरते हैं तो भी प्रतिष्ठा नहीं पाते । क्योंकि द्रव्यस्वभाव नित्य है एकरूप है और ये भाव अनित्य हैं अनेकरूप हैं । पर्याय है वह द्रव्य स्वभावमें प्रवेश नहीं करती ऊपर ही रहती है । यह शुद्धस्वभाव सब अवस्थाओंमें प्रकाशमान है। ऐसे स्वभावको मोहरहित होके अनुभव करो क्योंकि मोहकर्मके उदयसे उत्पन्न मिथ्यात्वरूप अज्ञान जबतक रहता है तबतक यह अनुभव यथार्थ नहीं होता । भावार्थ-शुद्धनयका विषयरूप आत्माका अनुभव करो यह उपदेश है । आगे इसी अर्थका कलशरूप काव्य "भूतं” इत्यादि कहते हैं कि ऐसा अनुभव करनेपर आत्मदेव प्रगट प्रतिभासमान होता है ॥ अर्थ-जो कोई सुबुद्धि सम्यग्दृष्टि भूत (पहले हुआ ), भांत (वर्तमान) और अभूत (आगामी होनेवाला) ऐसे तीनों कालके कर्मों के बंधको अपने
आत्मासे तत्काल (शीघ्र) जुदा करके तथा उस कर्मके उदयके निमित्तसे हुए मिथ्यात्वरूप अज्ञानको अपने बल (पुरुषार्थ ) से अलगकर अंतरंगमें अभ्यास करै देखै तो यह आत्मा, अपने अनुभवकर ही जानने योग्य जिसकी प्रगट महिमा है ऐसा व्यक्त अनुभव गोचर निश्चल शाश्वत ( नित्य ) कर्म कलंक कर्दम (कीचड़) से रहित ऐसा आप स्तुति करनेयोग्य देव विराजमान होरहा है ॥ भावार्थ-शुद्ध नयकी दृष्टिकर देखा जाय तो सब कर्मोंसे रहित चैतन्यमात्र देव अविनाशी आत्मा अंतरंगमें आप विराज रहा है । यह प्राणी पर्यायबुद्धि बहिरात्मा इसको बाहर ढूंढता है सो बड़ा अज्ञान