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समयसारः ।
३९ पेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ । यथा वापां सप्तार्चिःप्रत्ययोष्णसमाहितत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकांततः शीतस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं तथात्मनः कर्मप्रत्ययमोहसमाहितत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकांततः स्वयं बोधबीजस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ । हमेको खलु सुद्धो इत्यादि सूत्रमेकं । एवं दंडकान्विहायाष्टाविंशतिसूत्रैः सप्तभिरंतरस्थलैर्जीवाधिकारसमुदायपातनिका। तद्यथा-अथ प्रथमगाथायामबद्धस्पृष्टमनन्यकं नियतमविशेषसंयुक्तं संसारावस्थायामपि शुद्धनयेन बिसिनीपत्रमृत्तिकावार्द्धिसुवर्णोष्णरहितजलवत्पंचविशेषणविशिष्टं शुद्धात्मानं कथयति;-जो पस्सदि यः कर्त्ता पश्यति जानाति । कोअप्पाणं शुद्धात्मानं । कथंभूतं । अवद्धजाता है । परद्रव्योंसे तथा उनके भावोंसे अथवा उनके निमित्तसे हुए अपने विभावोंसे अपने आत्माको जान इसका अनुभव करे तब परद्रव्यके भावोंवरूप नहीं परिणमता । . उस समय कर्म नहीं बंधते, संसारसे निवृत्ति होजाती है। इसलिये पर्यायार्थिकरूप व्यवहारनयको गौणकर अभूतार्थ ( असत्यार्थ) कहकर शुद्धनिश्चयनयको सत्यार्थ कह आलंबन दिया है । वस्तुस्वरूपकी प्राप्ति होनेके वाद उसका भी आलंबन (सहायता) नहीं रहता। इस कथनसे ऐसा नहीं समझलेना कि शुद्धनयको जो सत्यार्थ कहा है इसकारण वह अशुद्धनय सर्वथा असत्यार्थ ही है । ऐसा माननेसे वेदांतमतवाले संसारको सर्वथा अवस्तु मानते हैं उनकी सर्वथा एकांत पक्ष आजायगी तब मिथ्यात्व आजायगा उस समय इस शुद्धनयका भी आलंबन उन वेदांतियोंकी तरह मिथ्यादृष्टि होजायगा । इसलिये सभी नयोंको कथंचित्रीतिसे सत्यार्थपनेका श्रद्धान करनेपर ही सम्यग्दृष्टि होता है । इसतरह स्याद्वादको समझ जिनमतका सेवन करना, मुख्य गौण कथन सुनके सर्वथा एकांतपक्ष न पकड़ लेना। इसीप्रकार इस गाथासूत्रका व्याख्यान टीकाकारने किया है कि आत्मा व्यवहारनयकी दृष्टिमें जो बद्धस्पृष्ट आदिरूप दीखता है वह इस दृष्टि में तो सत्यार्थ ही है परंतु शुद्धनयकी दृष्टि में बद्धस्पृष्ट आदिरूप असत्यार्थ है । इस कथनमें स्याद्वाद बतलाया है ऐसा जानना ॥ यहां ऐसा जानना कि जो ये नय हैं वे श्रुतज्ञानप्रमाणके अंश है । वह श्रुतज्ञान वस्तुको परोक्ष बतलाता है और ये नय भी परोक्ष ही बतलाती हैं । बद्ध स्पृष्ट आदि पांच भावोंसे रहित आत्मा शुद्ध द्रव्यार्थिकनयका विषय चैतन्यशक्तिमात्र है वह शक्ति तो परोक्ष ही है और उसकी व्यक्तियां कर्मसंयोगसे मति श्रुत आदि ज्ञानरूप हैं वे कथंचित् अनुभव गोचर हैं उनको प्रत्यक्षरूप भी कहते हैं । तथा संपूर्णज्ञान जो केवलज्ञान वह छद्मस्थके ( अल्पज्ञानीके) प्रत्यक्ष नहीं है तो भी यह शुद्धनय आत्माका केवलज्ञानरूप परोक्ष बतलाती है। जबतक इसनयको नहीं जाने तबतक आत्माके पूर्णरूपका ज्ञान श्रद्धान नहीं होता । इसलिये . श्रीगुरुने इस शुद्धनयको प्रगटकर दिखलाया है कि बद्धस्पृष्ट आदि पांच भावोंसे रहित