Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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विनयश्रुत - गुरुजनों के चित्तानुवर्ती होने की विधि
६
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विनीत अविनीत के गुण दोष अणासवा थूलवया कुसीला, मिउं पि चंडं पकरंति सीसा। चित्ताणुया लहु दक्खोववेया, पसायए ते हु दुरासयं पि॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - अणासवा - अनाश्रवाः - गुरु आज्ञा न मानने वाले, थूलवया - बिना विचारे बोलने वाले, कुसीला - कुत्सित आचार वाले, मिउं पि - मृदुस्वभाव वाले गुरु को भी, चंडं - क्रोधी, पकरंति - बना देते हैं, सीसा - शिष्य, चित्ताणुया - चित्तानुगाः - चित्त के अनुसार चलने वाले, लहु - शीघ्र, दक्खोववेया - दाक्ष्योपपेताः - कार्य दक्षता से सम्पन्न, पसायए - प्रसन्न करते हैं, ते - वे विनीत शिष्य, हु - अवश्य ही, दुरासयं पि - अति क्रोधी गुरु को भी। ___ भावार्थ - गुरु की आज्ञा को न मानने वाले, कठोर वचन कहने वाले तथा दुष्ट आचार वाले अविनीत शिष्य शान्त स्वभाव वाले गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं, किन्तु जो गुरु के चित्त के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले और शीघ्र ही बिना विलम्ब गुरु का कार्य करने वाले हैं, वे विनीत शिष्य निश्चय ही उग्र स्वभाव वाले गुरु को भी प्रसन्न कर लेते हैं।
विवेचन - इस गाथा में अविनीत और विनीत शिष्य के आचरणों का गुरुजनों के चित्त पर जो प्रभाव पड़ता है उसका दिग्दर्शन कराया गया है। - शास्त्रकार का विनीत शिष्य के लिए यह उपदेश है कि वह अपने गुरुजनों के चित्त को सदा प्रसन्न रखने का प्रयत्न करे, अपनी सारी चर्या को वह उनके चित्त के अनुकूल रखे और भूल कर भी ऐसा कोई प्रतिकूल आचरण न करे जिससे कि उसके गुरुजनों के अन्तःकरण में किसी प्रकार का आघात पहुंचे। इसीमें इसके शिष्य भाव की सार्थकता है। विनीत शिष्य के विशुद्ध आचरणों का प्रभाव गुरुजनों के अतिरिक्त उसके निकटवर्ती अन्य व्यक्तियों पर भी पड़ता है। उसके कारण अन्य व्यक्तियों के जीवन में भी आशातीत परिवर्तन हो जाता है, इसलिए अविनीतता का परित्याग करके विनयशील बनना ही मुमुक्षु के जीवन का प्रधान लक्ष्य होना चाहिए। - गुरुजनों के चित्तानुवर्ती होने की विधि
णापुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा णालीयं वए। कोहं असच्चं कुग्विजा, धारिजा पियमप्पियं॥१४॥
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