Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
भव-प्रपञ्च : जन दार्शनिक व्याख्या
उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा का गहराई से अनुशीलन-परिशीलन करने से यह स्पष्ट होता है कि इस कथा में जीव की प्रात्म-कथा है । छह द्रव्यों में जीव-द्रव्य चेतन है और पाँच द्रव्य अचेतन/जड़ हैं। चार्वाक दर्शन ने पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु से चैतन्य की उत्पत्ति/अभिव्यक्ति मानी है, पर, जैन दार्शनिकों ने उनके मन्तव्य का खण्डन करके आत्मा के सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र अस्तित्व को सिद्ध किया है । जैन दर्शन में आत्मा का स्वरूप क्या है ? वह इस कथा में स्पष्ट रूप से उजागर हुआ है।
जैन मनीषियों ने चैतन्य गुण की व्यक्तता की अपेक्षा से संसारी प्रात्मा के दो भेद किए हैं-त्रस और स्थावर। त्रस प्रात्मा में चैतन्य व्यक्त होता है और स्थावर प्रात्मा में चैतन्य अव्यक्त रहता है। प्राचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि जिनके अस नामकर्म का उदय होता है, वे 'वस आत्माएं हैं, और, जो स्थिर रहती हैं, और जिन आत्माओं में गमन करने की शक्ति का अभाव होता है, वे, 'स्थावर आत्माएं हैं। जिनके स्थावर नामकर्म का उदय होता है, वे 'स्थावर जीव' कहलाते हैं।
- अस आत्मा के द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पंचेन्द्रिय-ये चार भेद हैं । उत्तराध्ययन में अग्नि और वायु को भी त्रस मानकर त्रस आत्मा के छह भेद बतलाये हैं। उत्तराध्ययन में स्थावर आत्मा के पृथ्वी, जल, और वनस्पति, ये तीन भेद बताए गये हैं। प्राचार्य उमास्वाति ने पृथ्वीकायिक, अपकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक-ये स्थावर आत्मा के पांच भेद बताये हैं।
इन्द्रियों की अपेक्षा से संसारी आत्मा के भेद-प्रभेद किए गए हैं । इन्द्रिय प्रात्मा का लिंग है। स्पर्श आदि पाँच इन्द्रियां मानी गयी हैं। अतः इन्द्रियों की अपेक्षा संसारी आत्मा के पांच भेद हैं । जिनके एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है-उसे एकेन्द्रिय जीव कहते हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, और वनस्पति-ये एकेन्द्रिय जीव के पांच प्रकार हैं। पांचों प्रकार के एकेन्द्रिय जीव बादर और सूक्ष्म की अपेक्षा से
१. संसारिणस्त्रसस्थावरा:-तत्त्वार्थ सूत्र २/१२ २. सनामकर्मोदयवशीकृतास्त्रसा:-सर्वार्थसिद्धि २/१२ ३. (क) सर्वार्थसिद्धि २/१२ (ख) तत्त्वार्थवार्तिक २/१२; ३/५ ४. द्वीन्द्रियादयश्च त्रसा:-तत्त्वार्थ सूत्र २/१४ ५. उत्तराध्ययन ३६/६९-७२ ६. उत्तराध्ययन ३६/७० ७ तत्त्वार्थ सूत्र २/१३ . ८. वनस्पत्यन्तानामेकम्-तत्त्वार्थसूत्र २/२२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org