Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रतासो फिञ्च-'इत्थीसु' स्त्रीपु 'सत्तेय' सक्तश्च 'पुढो' पृथक पृथक् तदीयहासावलोकनादो 'बाले' वाल:-सदसद्विवेकरहितो भवतीति, वनितामुखविलोकनं न द्रव्यमन्तरेण संभवतीनि एतदर्थम् 'परिग्गह' परिग्रहं परिग्रहं चापि पकुव्बमाणे' प्रकुर्वाण:-पापं कर्मसंचिनोति |८|| मूलम्-वैराणुगिद्धे णिचयं करेइ, इओ चुए स इदमदुग्गं ।
तम्हा उमेहावी समीक्ख धैम्मं, चैरे मुंणी सव्वउ विप्पमुक्क।९। छाया-वैरानुगृद्धो निचयं करोति, इत:च्युतः स इदमर्थदुर्गम् ।
तस्मात्तु मेधावी समीक्ष्य धर्म, चरेन्मुनिः सर्वतो विषमुक्तः ॥२॥ पार्श्वस्थ एवं कुशीलों के धर्मका सेवन करता है। मम्पक अनुष्ठान से हीन होने से संसार सागर के कीचड़ में फंस कर दुखी होता है। - इसके अतिरिक्त जो स्त्रीके हास्य, अवलोकन आदि में आसक्त होता है, वह सत् असत् के रिवेक से विकल अज्ञानी होता है निका ' सेवन या मुखावलोकन अर्थ के विना नहीं होता, इस कारण जो परि. ग्रह का संचय करता है, वह वस्तुतः पापकर्म का संचय करता है। 'वेराणु गिद्धे' इत्यादि।
शब्दार्थ---'वेराणुगिद्धे- वैरानुगृद्धः' जो पुरुष प्राणियों के साथ वैर करता है 'णिचयं करेइ-निचयं करोति' वह पापकर्म की वृद्धि करता है 'इओ चुए स इहमदुग्गं-इतश्च्युतः स इहमर्थदुर्गम्' वह मरकर नरक आदि दुःखदायी स्थानों में जन्म लेना है 'तम्हा उ मेहावी मुणीછે. તે પાર્થરથ અને કુશલેના ધર્મનું સેવન કરે છે, સમ્યફ અનુષ્ઠાનથી રહિત હેવાથી સંસાર રૂપી સાગરના કાદવમાં ફસાઈ જઈને દુઃખી બને છે.
આ સિવાય જે સ્ત્રીના હસ્ય, અવલોકન વિગેરે ચેષ્ટાઓમાં આસક્ત થાય છે, તે સત્ અસત્ વિગેરેના વિવેકથી રહિત અજ્ઞાની હોય છે સ્ત્રીનું સેવન અથવા મુખનું અવલેહન અર્થ-ધન વિના થઈ શકતું નથી. તે કારણે જે પરિગ્રહને સંચય કરે છે, તે ખરી રીતે પાપકર્મને જ સંચય કરી રહેલ છે. ૮ 'वेराणुगिद्धे' त्या
शा- 'वेराणुगिद्धे-वैरानुगृद्ध'२ ५३५ प्राणियोनी साथै ३२ ४२ छ, णिचय करे इ-निचयं करोति' ते ५५ मन पधारे। १ ४३ है. 'इओ चुए स इहमदृदुग्गम्-इतच्युतः स 'इमर्थदुर्गम्' भरीने १२४ (व१३ ५ ५