Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सत्ररुतागले ___ अन्वयार्थः-यः घातिकर्मचतुष्टयान्तकत्वेन (वितिगिच्छाए) विचिकित्सायाः संशयविपर्ययमिथ्याज्ञानरूपायाः (अंतए) अन्तको विनाशको भवति (से) स: (अणेळिसं) अनीश-अनन्यसदृशं धर्म (जाणइ) जानाति । यः अनीशस्य हाता भवति स एव (अणेलिसस्स) अनीशस्य अनन्यसशस्य धर्मस्य (अक्खाया) आख्याता कथयिता भवति । एतादृशः (से) सः महापुरुषः (तहि तर्हि) तत्र तत्र बौद्धादिदर्शने (ण होइ) न भवति, अनीशस्याज्ञायकत्वादिति ॥२।। 'अंनए' इत्यादि ।
शब्दार्थ-जो चारों प्रकार के घातिया कर्म का नाश करने वाले होने से 'वितिगिच्छाए-विचिकित्सायाः' मियाज्ञान रूप संशयविपर्यय का 'अंतए-अन्तका' नाशकरने वाले होते हैं 'से-सा वह 'अणेलिसं -अनीदृशम् अनन्य साधारण ऐसे धर्म को 'जाणइ-जानाति जानते हैं 'अणेलियस्स-अनीदृशस्य जो पुरुष सबसे अधिक वस्तुतत्वका 'अक्खाया-आख्याता' कथन करने वाले हैं ऐसा 'से-सः' वह पुरुष 'तहिं तहिं-तत्र तत्र' ऊन ऊस बौद्धादि दर्शनों में 'ण होइन भवति' नहीं होता है । २॥
अन्वयार्थ जो चारों घातिकर्मों का अन्त करने वाला होने के कारण चिचिकित्सा अर्थात् संशय, विपर्यास रूप मिथ्याज्ञान का अन्न करने वाला है, वह अनन्यसदृश-अनुपस-धर्म को जानता है। जो अनन्यसदृश धर्म को जानता है, वही अनन्यसदृश धर्म का प्रतिपादक होता है। ऐमा पुरुष बौद्ध आदि अन्य दर्शनों में नहीं होता ॥२॥
अंतए' त्यादि
શબ્દાર્થ-જેઓ ચારે પ્રકારના ઘનિયા કમેને નાશ કરનારા હેવાથી 'वितिगिच्छाए-विचिकित्स.या.' भिथ्याज्ञान ३५ संशय विषय यन 'अंतएअन्तक.' नाशवाणा डाय छे. 'से-सः' ते 'अणेलिस-अनीदृशम्' अनन्य साधा२६५ मेवा भने 'जाणइ-जानाति' नये छे. 'अणेलियस्स-अनीदृशस्य' मे १३५ सहुथी बयारे १२तुतत्पनु 'अक्खाग-आख्याता' ४थन ४२वावाणा छे. मेवे 'से-सः' ते ५३५ "तहि तहि-तत्र तत्र' ते ते मौद्ध विगैरेना शनामा ‘ण होइ-न भवति' उता नथी ॥२॥
અન્વયાર્થ—જે ચારે ઘાતિયા કર્મોના અંત કરવાવાળા હેવાથી વિચિકિત્સા અર્થાત સંશય વિપર્યાય ૫ મિથ્યાજ્ઞાનનો અંત કરવાવાળા છે. તે અનન્ય સદેશ-અનુપમ ધર્મને જાણે છે. જે અનન્ય સદશ ધર્મને જાણે છે. તેજ અનન્ય સદશ ધર્મના પ્રતિપાદક હોય છે, એ પુરૂષ બૌદ્ધ વિગેરે અન્ય દશકમાં તે નથી, મારા