Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 549
________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.शु. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणम् मनुष्याणामेव भवति । किन्तु 'अमणुर से मु' अमनुष्येषु मनुष्यमिन्नेषुः प्राणिषु 'जो तहा' नो तथा-मनुष्यवदन्ययोनौ कृतकृत्यत्वं न भवति तत्र धर्माराधनावसरस्यैवासद्भावात् , अतो मनुष्य एत्र सिद्धिगतिभाग् भवतीति 'मे' मया 'सूर्य' श्रुतम्-भगवन्मुखात् श्रवणगोचरीकृतमतो नान्यथा भवत्यतः संयमपालने त्वया न-प्रमदितव्यमिति भावः ॥१६॥ मूलम्-अंतं करति दुक्खाणं इहमेगेसिं आहियं । आघायं पुण एंगेसि दुल्लभयं सैमुस्सए ॥१७॥ छाया--अन्तं कुर्वन्ति दुःखाना है केपामाख्यातम् । आख्यातं पुनरेकेषां दुर्लभोऽयं समुच्छ्रयः ॥१७॥ हो सकते, क्योंकि उनकी धर्माराधना का अवसर ही नहीं मिलता। इस कारण मनुष्य ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है। ऐसा मैंने भगवान के मुखसे सुना है अतः यह कथन अन्यथा नहीं हो सकता। आशय यह है कि इस कारण तुम्हें संयम का पालन करने में प्रमाद नहीं करना चाहिए ॥१६॥ __ अंतं करंति दुक्खाणं' इत्यादि । . शब्दार्थ-'एगेसिं-एकेषां किसी अन्य तीर्थकों का 'आहियंआख्यातम्' कथन है की देव ही अशेष दुःखों का अन्त करते हैं परंतु ऐसा संभावित नही है कारणकी 'इल-इह' इस जिन प्रवचन में तीर्थ कर आदिकों का कथन है की मनुष्य ही 'दुक्खाणं-दुःखानाम्' शारी તેમને ધમરાધનાને અવસર જ મલ નથી. તે કારણે મનુષ્ય જ સિદ્ધિ મેળવી શકે છે. આ પ્રમાણે મેં ભગવાનના મુખથી સાંભળ્યું છે, તેથી આ કથન અન્યથા–અસત્ય થઈ શકતું નથી. કહેવાનો આશય એ છે કે–આ કારણથી તમારે સંયમનું પાલન કરવામાં પ્રમાદ કર ન જોઈએ. ૧દા 'अतं करति दुक्खाण' त्याह . शहा---'एगेसि-एकेषाम्' / अन्य मतदातुं 'आहिय-आख्यातम्' કહેવું છે કે દેવ જ અશેષ દુઓને અંત કરે છે. પરંતુ એવું સંભવતું नथी. ४१२९५ है 'इह-इह' मा छन प्रवयनमा तीर्थ ४२ विगैरेनु रहेछ, ४-मनुष्य ८ 'दुक्खाणं-दुखानाम्' शा.२, भने मानसिमाना 'अंत सू० ६८

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