Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. १६ विधिनिषेधस्वरूपनिरूपणम् ५६५ मेवेति-आवेदितं भवति । अथवा-अथ शब्द आनन्तर्यार्थकः, तथा च-पंचदशाध्ययनानन्तरमित्यर्थः संपद्यते। अथ अनन्तर पञ्चदशाध्ययनानन्तरं 'भगवं' भगवान् समुत्पन्न केवलज्ञानकेवलदर्शनः 'आह' उक्तवान्-द्वादशविधपरिषदि । किमाह ? तदेव दर्शयति-यः कोऽपि निः 'एवं' एवम्-पूर्वोक्तपञ्चदशाध्ययनार्थसंपन्नः सन् 'दंते' दान्त:-इन्द्रिय नोइन्द्रियदमनात् 'दविए' द्रविकः, द्रवासंयमः, स अस्पास्तीति द्रवी, द्रवी एव द्रविका संयमवान् 'दविए' ति द्रव्यः द्रव्यभूतः मोक्षगमनयोग्यतावत्वात , अथवा-रागद्वेषादि सकलमलरहितत्वात् शुद्ध द्रव्यस्वरूपः अपनीतमलपरिशुद्धस्वर्णवत् । तथा-'चोसट्टकाए' व्युत्सृष्टकायः व्यु मंगल 'वुज्झेज्ज' इत्यादि के द्वारा किया जा चुका है। इस प्रकार आदि
और अन्त मंगल रूप होने से सम्पूर्ण श्रुतस्कंध भी मंगल रूप ही है, ऐसा सूचित किया गया है।
अथवा 'अर्थ' शब्द अनन्तर' के अर्थ में है। इसका आशय है पन्द्रहवें अध्ययन के अनन्तर ।।
पन्द्रहवें अध्यय के अनन्तर सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् ले बारह प्रकार की परिषदा में इस प्रकार कहा-पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में प्रति पादित विधि निषेध रूप अर्थों से सम्पन्न मुनि इन्द्रियों और मन को दमन करने के कारण 'दथिए' द्रविक कहलाता है। द्रव का अर्थ है संघम । संयमवान को द्रवी या द्रविक कहते हैं। अथवा 'दाखिएका अर्थ 'द्रव्य है जिसका तात्पर्य है मोक्षगमन के योग्य होने के कारण द्रव्य, 'बुन्झज्ज' या6ि बा ४२वामा मात छ. २मा शत माति मन मन्त મંગલરૂ૫ હેવાથી સંપૂર્ણ શ્રુતસ્કંધ પણ મંગલ રૂપ જ છે એવું સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે.
અથવા “અથ' શબ્દ અનન્તર-પછી એ અર્થમાં છે. તેને આશય એ છે કે-પંદરમાં અધ્યયન પછી.
પંદરમાં અધ્યયન પછી સર્વજ્ઞ અને સર્વદશી એવા ભગવાને બાર પ્રકારની પરિષદમાં આ પ્રમાણે કહ્યું છે, પૂર્વોક્ત પંદર અધ્યયનેમાં પ્રતિપદન કરેલ વિધી નિષેધ રૂપ અર્થોથી યુક્ત મુનિ ઇદ્રિ અને મનનું દમન ४२वाथी 'दविए' द्रवि उपाय छे. पनी म सयम, सयभवानने द्रवी अथवा द्रवि४ ४ छे. या 'दविए' नाम द्र०य से प्रभारी छ. तेनु તાત્પર્ય એ છે કે–મક્ષ ગમનને ગ્યા હોવાથી દ્રવ્ય, અથવા રાગ દ્વેષ વિગેરે સઘળા મળેથી રહિત હોવાથી નિર્મળ સેનાની જેમ શુદ્ધ દ્રવ્ય વરૂપ