Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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परं
सूर्यकृतसूत्रे
इच्छाराहित्यात्, यतः संयमयत्नत्वाद, दान्त इन्द्रिय नोइन्द्रियदमनशीलखाद, दृढः अनुकूलपतिकूलोपसगैर विचलनीवात्, भारतमैथुनः भोगेच्छारहितत्वात् । arasgaासको भवेत् स एव मोक्षाभिमुखो मन्तुिमर्हतीति भावः ॥११॥ मूलम् - जीवारे व ण लीएजा छिक्सोए अणाविले | अणाले सेवा देते संधि पत्ते अलि ॥१२॥ छाया - नीवार व न लीयेत छिन्नस्रोता अनाविकः । अनाकुलः सदा दान्तः संधि प्राप्तोऽनीहराम् ॥ १२॥ मोदन न करके अपनी सेवा का आस्वादन न करे, इच्छा रहित होने के कारण निस्पृह हो, संगम में बनावाद हो, इन्द्रियों का और मन का दमन करने वाला हो, अनुकूल और प्रतिकूल परीषह और उपसर्गो से चलायमान न होने के कारण दृढ हो तथा भोग की इच्छा से रहित होने के कारण मैथुन त्यागी हो । जो ऐसा अनुशासक होता है, वही मोक्षाभिमुख हो सकता है || ११||
'णीवारेव ण लीएज्जा' इत्यादि ।
शब्दार्थ - मैथुन को त्याग करने वाला मुनि 'णीवारेच - नीवार इव' जाल में बांधने के लिए उसमें डाले हुए धान्य में कपोत आदि प्राणियों के जैसे 'पण लीएज्जा-न लीयेत' स्त्रीसंग में लीन न हो अर्थात् साधु स्त्री सेवन न करे 'छिन्नसोए-छिन्नस्रोता।' जिसने विषयभोग रूप आश्रवद्वार को काट डाला है, अत एव 'अणाविले - अनाविल:' रागપેાતાની સેવાતુ આસ્વાદન ન કરે. ઈચ્છા રહિત હાવાના કારણે નિસ્પૃહ હાય, સચરમાયતનાવનૢ હાય, ઈન્દ્રિયા અને મનનું દમન કરવા વાળા હાય, અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ પરીષહ અને ઉપસમાંથી ચલાયમાન્ ન હાવાને કારણે દૃઢ હાય, તથા ભાગની ઇચ્છ થી રહિત હાવાથી મૈથુનના ત્યાગ કરવાવાળા હાય, આવા જે ઉપદેશક હોય છે, એજ મેાક્ષમાં જવાની ઈચ્છાवाजा - भोक्षाभिमुख होई श . ॥११॥
णीवारेव ण लीएज्जा' त्याहि
शब्दार्थ--मैथुनना त्याग हरवावाणी भुनि 'णीवारेव - नीवार इव' लगभां ફસાવવા માટે તેમા નાખવામા આવેલ ધાન્યમાં કબૂતર વિગેરે પક્ષિએની प्रेम 'ण लीपज्जा - न लीयेत' खीसगभा सीन न थवु अर्थात् साधुये 'श्री' सेवन न ४२५ 'छिन्नसोए - छिन्नस्रोता.' ये विषय लोग ३५ भाव द्वारने तमेव 'अणाविले - अनाविल' रागद्वेष माहि भजथी ने 'अणाउले - अनाकूल.' સ્વસ્થ ચિત્ત मनीने 'स्रया
छेट्टी नाभ्यु छे रहित छे मेवं'