Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृताङ्गयो स लोके कीदृशो भवति तत्राहमूलम्-से हु चक्खू मणुस्साणं जे कंखाए य अंतए ।
___ अंतेण खुरो वहई चक अंतेणे लो?ई ॥१४॥ ... छाया-स हि चक्षु मनुष्याणां यः कांक्षायाश्च अन्तकः ।
__अन्तेन क्षुरो वहति चक्रमन्तेन लठति ॥१४॥ अन्वयार्थ:--(जे) यः मुनिः (कंग्वाए) काक्षायाः शब्दादिविपयाभिकापायाः (अंतए) अन्तक पर्यन्तवर्ती भवति (से) सः (ह) निश्चयेन (मणुस्साणं) मनु
तात्पर्य यह है कि जो संयम के स्वरूप का वेत्ता है वह मन यचन काय से किसी के साथ विरोध न करे। जो ऐसा करता है वही तत्वदर्शी है ॥१३॥ 'से हु चक्खू मणुस्साणं' इत्यादि।
शब्दार्थ-'जे-य:' जो मुनि 'कंखाए-काक्षायाः' शब्दादि विषय की अभिलाषा का 'अंतए-अन्तक' पर्यन्तवर्ती है 'से-सः' वही '' निश्चय से 'मणुस्साण-मनुष्याणाम्' मनुष्यों के अर्थात् प्राणियों के 'चक्खू-चक्षुः' नेत्ररूप है 'खुगे-क्षुर.' अस्तुरा 'अंलेण-अन्तेन' अंतिम भाग से 'घरई-वहति' कार्य करता है और जैसा 'चक-चकम्' रथका चक्र 'अंतेण-अन्तेन' अंतभाग से 'लोहई-लुठति' चलता है ॥१४।।
अन्वयार्थ-जो मुनि कांक्षा अर्थात् शब्द आदि विषयों की अभिलाषा से पर्यन्तवर्ती होना है उनसे दूर हो जाता है, वह निश्चयपूर्वक मनुष्यों के
तपय मे छ है--२ समना २१३५ने पापाणी छे, ते मन, વચન, અને કાયાથી કોઈની પણ સાથે વિરોધ ન કરે આ પ્રમાણે જેઓ કરે છે, એજ તત્વદશી તત્વને જાણનાર છે ૧૩ ___ 'से हु चक्खू मणुस्साण' त्याहि । ___avatथ- 'जे-यः' २ मुनि 'कंखाए-काक्षायाः' .शाह विषयी समिसापानी अतए-अन्तकः' ५न्तपत्त छ 'से-स.' ते 'हु' निश्चयथा 'मणुस्साण-मनुष्यानाम्' मनुष्याना अर्थात् प्राधियाना 'चक्खू-चक्षु. नेत्र३५ छ. 'खुगे-क्षुरः' भरत। 'अ तेण-अन्तेन' आतिम लागथी 'वहइ-वहति' आय ४२ छे. मने रेभ'चकं-चक्रम्' २थनु य 'अंतेण-अन्तेन' मत माथी 'लोट्ठइ-लुठति' यासे छे ॥१४॥
અન્વયાર્થ-જે મુનિ કાંક્ષા અર્થાત્ શબ્દ વિગેરે વિષયેની અભિલા ષાની પર્યન્તવર્તી હોય છે, તેનાથી દૂર થઈ જાય છે. તે નિશ્ચય પૂર્વક