Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृतासूत्रे
आत्मनः सकाशात् पृथग्र भवंति स मुनिर्भूतभविष्यद्वर्त्तमानकालिककर्म विनिर्मुक्तो
भूत्वा मोक्षं प्राप्नोतीति भावः ||६||
मूलम् - अकुव्वओ णवं नैत्थि कम्मं णाम विजाणइ |
विन्नाय से महावीरे 'जे ने जाई में मिजइ ॥७॥
छाया- अकुर्वतो नवं नास्ति कर्म नाम विजानाति । विज्ञाय स महावीरो यो न याति न म्रियते ॥७॥
भविष्यत् और वर्तमान काल संबंधी कर्मों से रहित होकर मोक्ष प्राप्त करता है ||६||
'अकुoar' इत्यादि ।
शब्दार्थ - 'अक्कुच्चओ अकुर्वतः पाप को नहीं करनेवाले मुनिको 'णवं - नवम्' ज्ञानावरणीय आदि नूननकर्म का बंध 'रिधनास्ति' नहीं होता है कारण की 'से-स' वे 'महावीरे - महावीरः' महा. वीर पुरुष 'कम्मं - कर्म'' - आठ प्रकार के कर्म को तथा 'नाम-नाम' कर्म निर्जराको भी 'विजाणह - विजानाति' जानते हैं और 'विन्नाय - विज्ञाय ' जानकर के 'जेण येन' जो कारण से वह मुनि 'न जायई - न जायते' संसारमें उत्पन्न नहीं होता है एवं 'न मिज्जइ-न म्रियते' मरता भी नहीं है अर्थात् जन्म, जरा और मृत्यु रहित होकर मुक्त हो जाता है | ७|
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ભવિષ્ય અને વમનકાળ સંબધી કર્મોથી રહિત થઇને મેાક્ષ પ્રાપ્ત ४रे छे. ॥६॥
'अकुव्वओ' हत्याहि
शब्दार्थ 'अकुत्रओ - अकुर्वतः ' पापा न ठेवावाजा भुनिने 'जवंनवम्' ज्ञानावरणीय विगेरे नवीन नाम' ' णत्थि - नास्ति' थतो नथी अभय 'से - सः' ते 'महावीरे - महावीरः' महावीर पु३ष 'कम्मं - कर्म' आह अहारना भने तथा 'नाम-नाम' अर्भ निर्भराने पशु 'विजाणइ - विजानाति '
ये छे तथा 'विन्नाय - विज्ञाय' लखीने 'जेण येन' मे रथी ते भुनि 'न जायई - न जायते' स'सारमां उत्पन्न थते। नथी, तथा 'न मिज्जइ- न म्रियते' भरते પશુ નથી. અર્થાત્ જન્મ, જરા, અને મૃત્યુ રહિત
થઈને મુક્ત બની
लय के
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