Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृतागसूत्रे 'पडिपुन्न' पतिपूर्ण सर्वविरत्याख्याम्-मोक्षगमनैककारणम् 'अणेलिस' अनीदृशम् -अनन्यसदृशम् निरुपम मित्यर्थः 'धम्म' धर्मम्-श्रुतचारित्ररूपम् 'अक्खाई' आख्याति-प्रतिपादयतीति । गनोवचनकारात्मनो रक्षको जितेन्द्रियः कपायना. शकः प्रतिरुद्धकर्मद्वार रवाऽनन्यसदृशं सर्वदोपरहिनं सर्वनो विशुद्धं धर्ममाख्याति, स एव च आश्वासद्वीपो भवितु महतीति भावः ॥२४॥ मूलम्-तमेव अविजाणंता, अबुद्धा बुद्धसाणिगो।
बुद्धा सौतिय मन्नंता, अंते एए ससाहिए ॥२५॥ छाया-तेगेवाऽरिजानानाः, अबुद्धा बुद्धमानिनः ।
बुद्धाः स्म इति मन्यमाना अन्ते एते समाधेः ॥२५॥ साधु शुद्ध अर्थात् समस्त दोषों से रहित, प्रतिपूर्ण अर्थात् मोक्षप्राप्ति के असाधारण कारण सर्वविरति रूप, और जिसके समान कोई अन्य धर्म नहीं हैं, ऐसे श्रुतचारित्र धर्म (निरतिचार संयम)का कथन करता है।
जो साधु मन वचन काय से आत्मा का रक्षक है, जितेन्द्रिय है, कषायों का विनाशक है, कर्मों के द्वार को रोकने वाला है, वही अनु. पम, सर्व दोषों से रहित एवं सर्वथा विशुद्ध धर्म का प्रतिपादक होता है। वही संसारी जीवों के लिए द्वीप के समान है ॥२४॥
'तमेव अधिजाणता' इत्यादि।।
शब्दार्थ-'तमेव अविजाणता-तमेवमविजानाना:' उस प्रतिपूर्ण धर्म को न जानते हुए ‘अबुद्धा बुद्धमाणिणो-अधुद्धा बुद्धमानिन।' अज्ञानी होते हुए भी अपने को ज्ञानी मानने वाले 'बुद्धा मोत्तिय मन्नंता શુદ્ધ અર્થાત્ સઘળા દેથી રહિત પ્રતિપૂર્ણ અર્થાત મોક્ષ પ્રાપ્તિના અસા વારણ કારણ સર્વવિરતિ રૂપ અને જેની બારબર બીજો કોઈ ધર્મ નથી. એવા કૃતચારિત્રધર્મ (નિરતિચાર સંયમ) નું કથન કરે છે. ___-२ साधु भन, क्यन, मने याथी मात्भाना २क्ष छ, तेन्द्रिय छे. કષાયોને નાશ કરવાવાળા છે, કમેના દ્વારને રોકવાવાળા છે, તેજ અનુપમ, સર્વ દેથી રહિત અને સર્વથા વિશુદ્ધ ધર્મનું પ્રતિપાદન કરવાવાળા હોય છે, એજ સંસારી જીને માટે દ્વીપ સરખા છે ૨૪ _ 'तमेव अविजाणंता' त्यादि।
शहा--तिमेव अविजाणंता-तमेवमविजानानाः' से परिपू यमन न MOना२। 'अबुद्धा बुद्धमाणिणो-अबुद्धा बुद्धमानिनः' अज्ञानी है। छतi 4g