Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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संमयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १४ ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम् ४५१ म्लम्-भूयाभिसंकाइ दुगुंछमाणे ण णिव्वहे संतपएण गोयं ।
किंचिमिच्छे मणुए पयासु असाहुधैमाणिण संवएजा॥२०॥ छाया-भूताभिशङ्काया जुगुप्समानो, न निर्वहेमन्त्रपदेन गोत्रम् ।।
न किञ्चिदिच्छेन्मनुजः प्रजासु, असाधुधर्मान्न संवदेत् ॥२०॥ अन्वयार्थ:-किमर्थमाशीर्वादो न वक्तव्यः ? इत्याह-(भूयाभिसंकाइ) भृताभिशङ्कया-प्राणिविनाशशङ्कया आशीर्वादः पापकर्म इति (दुगुंछमाणे, जुगुप्तमानः ___साधु को आशीर्वाद वचन नहीं बोलने में कारण कहते हैं'भूयाभि संकाइ' इत्यादि। ___ शब्दार्थ--'भूयाभिसंकाइ-भूताभिशङ्कया' साधु, प्राणियों के विनाश की आशंका ले आशीर्वाद पापकर्म है इस प्रकार से 'दुगुंछ. माणे-जुगुप्प्तमानः' घृणा करके आशीर्वाद न कहे एवं 'गोयं-गोत्रम्' वाक् संयम को 'संतपएण-मन्त्रादेन' मंत्र आदि के प्रयोग से 'ण णिबहे-न निवत् नि:स्सार न बनावे हा प्रकार 'मणुए-मनुजा' साधु पुरुष 'पथातु-प्रजासु' प्राणियों में धर्मकथा करके 'किंचि-किमपि' किसी प्रकार का पूजा सत्कार आदिको 'ण इच्छे-न इच्छेत् इच्छा न करे तथा 'असाहु धम्माणि-असाधु धर्मान्' असाधु के धर्मका 'ण संवएज्जा-न संवदेत्' उपदेश न करे ॥२०॥
अन्वयार्थ-भूतों की अभिशङ्का ले याने प्राणियों के विराधना की आशङ्का से आशीर्वाद बोलना पापकर्म है । इस प्रकार घृणा करते हुए
साधु मे माशायन न मावानु २९४ छ. 'भूयाभिसंकाई' त्यादि
शहाथ--'भूयाभिस काइ-भूताभिशङ्कया' साधु प्राणियोना विनाशनी Astथी माशी ५.५४ छ L प्रारे 'दुगुंचमाणे-जुगुप्समानः' या ४शन शायन न ४ तेम 'गोय-गोत्रम्' वा५ सयमन 'मंतपएण-मन्त्र पदेन' भत्र विगेरेना प्रयोगथा ‘ण णिव्यहे-न निर्वहेतु' नि:स्सार न मनावे मा प्ररे 'मणुए-मनुजः' साधु ५३५ ‘पयासु-प्रजासु' प्राणियोमा धमा शन किचि-किमपि' प प्रा२ना पूत सत्२ विगेरेनी 'ण इच्छे-न इच्छेत्' छ। न ४२ तथा 'असाहु धम्माणि-असाधुधर्मान्' असाधुना माना 'ण संवएज्जा-न सवदेतू' 64हेश न ४२ ॥२०॥
અવયર્થ–ભૂતોના વિનાશની અભિશંકાથી અર્થાત્ પ્રાણિયાની વિરા ધનાની આશંકાથી આશીર્વાદ કહેવા તે પાપકર્મ છે. આ રીતે ઘણા કરતા