Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम् ३४ मूलम्-जे यावि अपएं वसुमंति सत्ता,
खाय वायं अपरिक्ख कुंज्जा। तवेण वाहं सहिउत्ति नेता,
___ अण्णं जण पक्षलाइ बिंबभूयं ॥८॥ छाया-य चाऽऽत्मानं वसुमन्तं मत्या, संहगावन्तं वादमपरीक्षा कुर्यात् ।
तपसा वाऽहं सदित इवि मत्ता, ऽन्यं जनं पश्यति विश्वभूतम् ॥८॥ संयम के मार्ग में विचरण करने वाले मुनि को प्राय: गर्व आजाता है, अतः कहते हैं-'जे यावि' इत्यादि ।
शब्दार्थ-'जे थाषि-यश्चापि' जो कोई 'अप्प-आत्मालम्' अपने को "वसुमंति-वसुमन्तम्' संयमरूपसुयुक्त तथा 'संखोप-संख्यावन्तम्' जीवादिपदार्थ विषयक ज्ञानरूप संख्यावाला 'मत्ता-सत्वा' मानकर अर्थात हम ही संयमी और ज्ञानी है ऐसा अभिमान युक्त होकर 'अप रिक्ख-अपरीक्ष्य' विचार किये विनाही बायं-बादम्' अपनी बडाई 'कुज्जा-कुर्यात्' करता है तथा 'अहं-अहम्' इनही 'तवेण-तषसा' तपसे 'साहिउत्ति-साहितहाति' युक्त है ऐसा 'मत्ता-सत्वा' मानकर 'अण्णं जर्ण-अन्यं जनम्' अन्य जनको 'विष भूयं-विरूषभूतम्' जल में दृश्यमान चन्द्रकी छाया के अनुसार निरर्थक 'पस्सह-पश्यति' देखना है वह सर्वथा विवेक वर्जित है |
સંયમના માર્ગમાં વિચરણ કરવાવાળા મુનિને પ્રાયગર્વ આવી જાય છે, समतापतi 2. 'जेयावि' त्याल
शहाथ-जेयावि-यश्चापि'ने 'अप्पं-आत्मानम्' पाताने 'वसुमति वसुमन्तम्' स यम ३५ वसुयुत तथा 'संखाय-संख्यावन्तम्' या हाथ सधी ज्ञान३५ सध्यावाणी 'मत्ता-सत्वा' मानीने अर्थात् १ सयभपाणी
भने ज्ञानी छ । भलिभान युक्त ने 'अपरिक्ष-अपरीक्ष्य' पियार ४या विना 'वाय-वादम्' चातानी मोटाई 'कुज्जा-कुर्यात्' १२ तथा 'अह-अहम्' हुन 'तवेण तपसा' तपथी 'सहि उत्ति-सहित इति' युत छुसे प्रमाणे 'सत्ता-मत्वा' भानीने 'अण्ण जण-अन्यम् जनम्' मन्य बनने विभूयं बिम्बभूतम्' पाएमा माती यन्द्रनी छाया भनुसार निरर्थ 'पस्खइ-पश्यति' दुम छे. ते सथा १ त छे. ॥८॥