Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १४ ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम्
४०३ अन्वयार्थः-(जे) यः-प्रावैराग्यवान् साधु गुरुकुलनिवासी (ठाणओ य) स्थानतश्च (सुसाहुजुत्ते) सुसाधुयुक्तः-सुसाधुममाचारियुक्तो भवति (य) च-पुनः (सयणासणेय) शयनासनाभ्यां शयनासनमाश्रित्य च, तत्र शयनं-शयनस्थानप्रमार्जनपूर्वकम् आसनं प्रयत्नेन गात्रसंकोचनं पसारणमुपवेशनं च प्रमार्जन
गुरुकुलबासी के गुणों का कथन करते हैं-'जे ठाणओ' इत्यादि।
शब्दार्थ--'जे-य:' शुरु गच्छ मे विनास करने वाला साधु 'ठाणओय-स्थानतश्च स्थान से अर्थात् गुरुगच्छ में निवास करने से 'सुसाटु जुत्ते-साधुयुक्त:' उत्तप्त साधुगुण से युक्त होता है 'य-च' और 'सयणासणेघ-शषनासनाभ्याम्' शयन और आसन में सुसाधु होता है 'यादि-अपि च और भी 'समितिलु गुत्तिस पर कमे-समितिषु गुसिषु पराक्रमेत्' समिति तथा गुप्ति में पराक्रम वाला होता हैं अर्थात् संय मानुष्ठान में पराक्रमी होता है अत: 'आयपन्ने-आगतप्रज्ञः' कर्त्तव्य में विवेकगील होता है और अन्यको 'विधागरिते-व्याकुर्वन्' कथन करताहुवा 'पुढो-पृथक्पृथकू' गुरु कृपासे समिति गुप्तिका यथार्थ स्वरूप का पालनपूर्वक और उसके फल का 'वएज्जा-पदेत्' प्रतिपादन करे ।।
अन्धयार्थ-वह स्थान से सुसाधु की समाचारी से युक्त होता है। तथा शरया और आसन से भी सुसाधु की समाचारी वाला होता है। अर्थात् शयन आसन और स्थान का प्रमार्जन करके तथा यतना
हवे Y३४मा सनारना शुषोनु थन ४२वामा भाव छ-'जे ठाणओ' त्यहि
सार्थ-जे-यः' २३७भा निवास ४२वापाणेरे साधु 'ठाणओयस्थानतश्च' स्थानथी अर्थात २३४मा पिास ४२वाथी 'सुसाहुजुत्ते-सुसाधुयुतः' उत्तम मेवा साधुगुथी युक्त मने छ 'य-च' गाने 'सयणास्रणेय-शयनासना. भ्याम्' शयन मने सासनमा सुसाधु गने छ 'यावि-अपिच' तभ०४ 'समितिसु गुत्तिसु परक्षमे-समितिषु गुप्तिपु पराक्रमेतू' समिति तथा गुलिमा ५२।४ ४२. पान सम ने छ अर्थात् सयमातुमा पराभी मने छ. तथा 'आयपन्ने-आगतप्रज्ञः' तव्यमा विभने छे. सने भी 'वियागरिते-व्याकु चन्' धन ४२ता थ। 'पुढो-पृथक पृथक्' शु३५५ाथी समिति स्तिना यथाथ २१३५ पासन शन तना नु वएज्जा-वदेत्' प्रतिपाहन ४२ ॥५॥
અન્વયાર્થ–જે વૈરાગ્યવાન સાધુ ગુરૂકુળમાં નિવાસ કરે છે, તે સ્થાનથી સુસાધુની સામાચારીથી યુકત હોય છે અર્થાત્ શયન આસન અને સ્થાનનું