Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनो टीका प्र. शु. अ. १४ ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम् ___ अन्वयार्थः-गुरुकुलवासिनो धर्ममुपदिशन्ति, इत्याह-(धम्मं च) धर्म च श्रुतचारित्रलक्षणं धर्मम् (संखाइ) संख्यया-सवुद्धया स्वयं धर्म शास्वा परेभ्यः (वियागरंति) व्यागृणन्ति-उपदिशन्ति मुनयः (ते) ते-एवं विधास्ते साधवः (बुद्धा हु) बुद्धा:-त्रिकालदर्शिनः खलु-निश्चयेन (अंतकरा) अन्तकरा:-सञ्चित सकलकर्मणां विनाशकाः (भवति) भवन्ति (ते) ते-एवंविधा:- यथाऽवस्थितधर्मप्रतिपादकाः (दोहवि) द्वयोरपि-स्वपरयोः (मोयणाए) मोचनाय-कर्मपाशविमोचनाय विमोचनया वा (पारगा) पारगाः-संसारसमुद्राद् उत्तारका भवन्ति, तथा एवंभूताः साधरः (संसोधिय) संशोधितम्-पूर्वापराऽविरुद्धम् (पण्हं) प्रश्नम् (उदाहरति) उदाहरन्ति-कथयन्ति ॥१८॥ 'मोयणाए-मोचनाय' कर्मपाश से मुक्त होने के लिए 'पारमा-पारगाः' संसारसमुद्र से पार पहोंचाने वाले होते हैं तथा ऐसे साधु 'संमोधियं -संशोधितम्' पूपिरसे अविरुद्ध 'पण्हं-प्रश्नम्' प्रश्नों को 'उदाहरंतिउदाहरन्ति' कहते हैं ॥१८॥ ___ अन्वयार्थ-मुनि लोग श्रुनचारित्र रूप धर्म को सम्पम् बुद्धि से स्वयं जान कर दूसरे को उपदेश देते हैं। इस प्रकार के वे साधु महात्मा त्रिकालदर्शी और सकल सश्चित कर्म का विनाशक होते हैं। इस प्रकार यथावस्थित धर्म के प्रतिपादक वे मुनिमण अपने और दूसरे को कर्मपाश से छोड़ाने के लिये था कर्मपाशले छोड़ा कर संसार समुद्र से पार करने वाले होते हैं और इस प्रकार के साधु पूर्वापर विरोध से रहित प्रश्न का उत्तर देते हैं ॥१८॥
घाताना मन भी माना 'मायणाए-मोचनाय' उभाशया भुत थवा भाट 'पारगा-पारगाः' संसार सागरथी पार पांयाणा डाय छे. तथा सेवा • साधु 'ससोधिय -स शोधितम्' पूर्वा५२थी अवि३४ ‘पण्ह'-प्रश्नम्' प्रश्नने उदा. हरति-उदाहरन्ति' ४ छे. ॥१८॥
અન્વયાર્થ–મુનિલેક શ્રત ચારિત્ર રૂપ ધર્મને સમ્યફ બુદ્ધિથી સ્વયં જાણીને બીજાને ઉપદેશ આપે છે. આ પ્રકારના તે સાધુ મહાત્માઓ ત્રિકાલ દર્શી અને સઘળા સંચિત કર્મોનો નાશ કરવાવાળા હોય છે. આ રીતે યથાવસ્થિત ધર્મના પ્રતિપાદક તે મુનિગણ પિતાને અને બીજાને કર્મ પાશથી છોડાવવા માટે અથવા કર્મપાશથી છોડાવીને સ સાર સમુદ્રથી પાર કરવાવાળા હોય છે. અને આવા પ્રકારના સ ધું પૂર્વાપર વિધથી રહિત પ્રશ્નોના ઉત્તર આપે છે ૧૮