Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
सूत्रकृतागसत्रे ___अन्वयार्थ:-(डहरेण) दहरेण स्वापेक्षा वयसा कनिष्ठेन वालेन 'बुडूढेण' वृद्धेन-चयोऽधिकेन एम् (राणिएणाधि) रास्निकेन-रत्नाधिकेनापि दीक्षापर्यायज्येष्ठेन (समन एणं) समत्रतेन अनुशासितस्तु ममादस्खलितचरणं मति प्रेरितः सन् प्रतिबोधितोऽपि (सम्मतयं) सम्बकाया 'थिरतो' स्थिरतः-संयमपरिपालनस्थैर्येण (गाभिगन्छे) ताभिगच्छेत् तदुपदेशं न स्वीकारोति पुनः प्रमादस्खलितचरणं करोति, तदा (से) खः प्रमावस्खलनकर्ता साधु. (णिज्जंतए वावि) नीयमानोवाऽपि मोक्षमार्ग प्रति प्रेयमाणोऽपि तदारणतया सः (अपारए) अपा. रगः-न संसारसागरयारगो भवति ॥७॥ स्थिरतः' संयम के परिपालन में स्थिरताको 'णाभिगच्छे-नाभिगच्छेत्' उसके उपदेशको स्वीकार नहीं करता है और बारबार प्रमाद करता रहे तब 'से-स.' प्रमाद करने वाला साधु 'णिज्जतिएवावि-नीयमान एव' संसार समुद्र में ले जानेवाले होते हैं 'अपारए-आपरगः' संसार सागर से पार करने वाले नहीं होते हैं।७॥
अन्वयार्थ-दहर अर्थात उलर में अपने से छोटी उम्ररथाला साधु से या वयोऽधिक वृद्ध साधु से एवं दीक्षापर्याय में अपने से बडे साधु से अथवा दीक्षापर्याय श्रुल या वय में अपने से तुल्य साधु से प्रमाद स्खलनाचरण के विषय में समझाए जाने पर जो साधु क्रोधादिके वशीभूत शेकर संयम का परिपालन नहीं करता है, फिर से प्रमाद स्वलन और गलती करता ही रहता है, वह प्रमाद् गल्ता करने वाला साधु इस संसार समुद्र के प्रवाह में बहता हुआ संसार सागर का पारगामी नहीं होता है ।।७|| स्थिरता ३५ ‘णाभिगच्छे-नाभिगच्छेत्' तना अपडेशन वीरता नथी. अने. वारंवार प्रभाह ४२ते। २९ त्यारे 'से-स.' ने प्रभाह ४२वा साधु 'णिज्जतएवावि-नीयमान एव' संसार समुद्रमा पापाणे। थाय छे. अपारए-अपारगः' ससा२ सागरथी पा२ ४२वाला। थत। नथी, ॥७॥
અન્વયાર્થ-ડહર અર્થાત્ ઉમરમાં પોતાનાથી નાની ઉમરવાળા બાલ સાધુથી અથવા વયેવૃદ્ધ સાધુથી તથા દીક્ષા પર્યાયમાં પિતાનાથી મોટા સાધુ પાસેથી અથવા દીક્ષા પર્યાય શ્રત અથવા વયમાં પિતાની બરોબર એવા સાધુ ‘દ્વારા પ્રમાદ, ખલનાચરણના સંબંધમાં સમજાવવામાં આવેથી જે સાધુ ક્રોધાદિને વશ બનીને સંયમનું પરિપાલન કરતા નથી અને ફરીથી પ્રમાદ,
ખલન અને ભૂલ કરતા જ રહે આ પ્રમાદ કરવાવાળે સાધુ આ સંસાર રૂપી સમુદ્રના પ્રવાહમાં વહેતો થકે સંસારસાગરની પાર જઈ शत। नथी. ॥७॥