Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
४००
सूअकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थ:--(अणुए) सनुजः-साधुः (भणोसिए) अनुपितः स्वच्छन्द चारी सन् (गंतकर) नान्तकर-कर्मक्षयकारको न मति (इइ) इति-इत्येवम् (णच्चा) ज्ञात्या-सम्यविचार्य (भोसाणं) अवसानम् गुलमुलनिवासम् तथा (समाहि) समाधिम्-संपमानुष्ठानम् (इच्छे) इन्छेत्-वान्छेत् एवम् (हवियरस) द्रव्यस्य-भव्यस्य मोक्षगानयोग्यस्य सः यत् (वित्त) वृत्तम् चतरविवादित संयममार्गस् (ओभासमाणे) अबभासयन्-जिनधर्म प्रकाशयन् (बहिया) बहिःक्षार दिखलाते हैं-'ओसाणं' इत्यादि।
शब्दार्थ-'अणुए-मनुजः' मनुष्य 'अगोलिए-अनुपितः' गुरु कुल में निवास न करनेवाला-अर्थात स्वच्छंदाचरण करने से नकारनान्तफर' कर्म का क्षय करनेवाला ना है 'इ-हति' इस प्रकार से 'चा ज्ञात्वा' जानकार 'आपन्ने-माशुप्रज' बुद्धिमान पुरुष 'ओसाणंअवसान' शुरु भच्छ में निवास करने की तथा 'समाहि-समाधिम् लयमानुष्ठान करने की इच्छे-इच्छेत् इच्छा करे इस प्रकार करने से 'चियरस-द्रव्यस्य मुक्तिगमन योग्य साधु के जो 'वित्तं'-वृत्तं सर्वज्ञ प्रतिपादित संयममार्ग को 'मोसासमाणे-अवजालयन्' प्रगट करता हुआ 'बहिया' यहि गच्छ के बाहर 'ण णिक्कसे-न निष्कसेत्' न नीकले अर्थात् स्वच्छंदाचारी न बने ॥४॥ ___अन्वयार्थ -मनमानी विचरने वाला अनस्थित स्वच्छन्दचारी साधु कर्मका क्षय करनेवाला नहीं हो सकता। ऐसा समझ कर और विचार कर साधु गुरुकुल में निवास और संयमानुष्ठान करने की -मोखाणे' त्याह
शहाय-मणुए-मनुजः' मनुष्य 'अणासिए-अनुपितः' शु३६मा निवास ४२१वाणे मर्थात् २१२७६ माय२१ ४२पाथी 'गंतकरे-नान्तफरः' मना क्षय ४श शत नथी. 'इइ-इति' मा नभाए 'जच्चा-ज्ञात्वा' tena. 'आसुपन्नेपाशुप्रज्ञः' मुद्धिमान ५३५ ओटाण-अवमानम्' शु३४मा निवास ४२पानी 'इच्छे-इच्छेत्' ५२छ। ४२ मा प्रमाणे पाथी 'दवियस्स-द्रव्यस्य' भुमितभाभन योग्य साधुने रे 'वित्त-वृत्त' सबसे प्रतिपाहन रेस सयम भाग 'ओभासमाणे-अवमासयन्' प्रगट ४२ते। । 'वहिया-बहिः' १२७नी महार 'ण णिकसे-न निष्कसेत' न नाणे मर्थात् २९२७ हयारी न मने ॥४॥
અન્વયાર્થ–મનસ્વી પરે વિચરવાવાળે અસ્થિર બુદ્ધિવાળો અને સ્વચ્છદાચારી સાધુ કમને ક્ષય કરવામાં સમર્થ થઈ શકતો નથી. આ રીતે સમજીને અને વિચારીને સાધુ ગુરૂકુળમાં જ રહેવાની અને સંયમાનુષ્ઠાર કરવા