Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
सार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम्
यस्त्वेभिरेव गुणैर्मदत्रशादन्यं तिरस्करोति स न भवति साधुः अपितु साध्वामास
पत्र समन्तव्य इति ॥१३॥ मूलम् - एवं ण से होई समाहिपत्ते,
जै पेन्स भिक्खू विउक्कसेज्जा | अहवा वि 'जे लोभमयावलित्ते,
३५९
अन्नं जैणं खिसे बालपन्ने ॥१४॥
छाया - एवं न स भवति समाधिप्राप्तः, यः प्रज्ञावान मिक्षुयुत्कर्षे त् । अत्रापि यो लाभदावलिप्तः, अन्यं जनं खिसति बाळप्रज्ञः ॥ १४ ॥
पासित आत्मा वाला होता है। वह सुसाधु है । किन्तु इन्हीं गुणों के कारण अभिमान करके जो दूसरों का अपमान करता है । वह वास्तव में साधु नहीं है । उसे साध्वाभास ही समझना चाहिए ॥१३॥
' एवं ण से होइ ' इत्यादि ।
शब्दार्थ, - ' एवं - एवम् पूर्वोक्त प्रकार से 'से- सः' दूसरे का अपमान करनेवाला वह साधु प्रज्ञासे युक्त होने पर भी 'समाहिपत्ते - समाधिप्राप्तः ' मोक्ष मार्ग में गमन करनेवाला 'ण होइ न भवति' नहीं होता है 'जे-य:' जो 'भिक्खू - भिक्षु ।' साधु 'पण्णवं - प्रज्ञाधानू' बुद्धिमान हो करके भी 'विउक्क सेज्जा - व्युत्कर्षेत्' अभिमान करता है 'अहवा वि- अथवाऽपि ' अथवा 'जे-य:' जो साधु 'लाभमयावलित्ते - लाभमदावलिप्तः' अपने लाभके मदसे मस्त है 'बालपण्णे - बालप्रज्ञः' मूर्ख
છે, તે સુસાધુ છે, પર'તુ આજ ાને કારણે અભિમાન કરીને ખીજાએનુ જે અપમાન કરે છે. તે વાસ્તવિક રીતે સ ધુ નથી તેને સાધ્વાભાસ જ સમજવા જોઈ એ ૧૩ણા
'एव ण से होइ ' त्याहि
शब्दार्थ –'एव - एवम्' पूर्वेति अारथी 'से- सः' मीननु' अपमान उरवावाणी ते साधु अज्ञावान् होवा छतां पशु 'समाहिपत्ते- समाधिप्राप्तः ' भोक्ष भार्ग'भां अभन उरवावा 'ण होइ न भवति' थतेो नथी. 'जे-य:' ने 'भिक्खू भिक्षुः' साधु ' पण्णव - प्रज्ञावान्' मुद्धिमान होवा छतां पयु 'धिठक्क सेज्जा-व्युः त्कर्षयेत् अभिमान रैछे. 'अवा वि- अथवाऽपि' गथवा 'जे-य.' ने साधु 'लाभमयावलित्ते - लाभमदावलिप्त' पोताना सालना भद्दथी मस्त हे ते 'बाल