Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृताङ्गम , 'जे भासवं भिक्खू सुलाहवाई' इत्यादि। - शब्दार्थ-'जे भिक्खू-घः भिक्षुः' जो साधु 'भासवं-भाषावान्' भाषा के दोष एवं गुण को जानने वाला होने से सुदर भाषा बोलने घाला हो तथा 'सुसाहुवाई-सुम्माधुवादी' सुंदर मिष्ट भाषी हो 'पडि. हाणव-प्रतिभानवान् , औत्पत्यादिधुद्धि गुण से अच्छीप्रतिभाचाला हो तथा 'विसारए-विशारदः' विशारद अर्थात् अनेक प्रकार के अर्थ को प्रकाशन करने में समर्थ हो तथा 'आगाढपन्ने-आगाढप्रज्ञः' विशेष प्रकार से, प्रज्ञाशाली हो एवं 'सुभाविअप्पा-सुभाषितात्मा' धर्म की भावना से जिसका हृद्य बासित है वही साधु है परंतु में ही ज्ञानी
ऐसा अभिमान करने वाला पुरुष 'अण्णं जणं-अन्यं जनं' दूसरे को 'पण्णया-प्रज्ञया' अपनी बुद्धि की प्रतिभासे 'परिहवेज्जा-परिभवेत्' तिरस्कृत करता है ऐसा पुरुष साधु नहीं कहा जासकता है ऐसा पुरुष केवल साध्वाभास ही है ।।१३।। ___अन्वयार्थ-जो साधु भाषा का गुण दोष जानने से सुन्दरभाषा भाषी है । एवं सुसाधुवादी पूर्ण प्रतिभाशाली है और औत्पत्ति
'जे भासवं भिक्खु सुसाहुवाई' त्यात
शब्दार्थ--'जे भिखू-य. भिक्षु.' रे साधु भासवं-भापावान्' लापाना દેશે અને ગુણેને જાણવાવાળા હેવાથી સુંદર ભાષા પ્રયોગ કરનાર हाय तथा 'सुसाहुवाई-सुसाधुवादी' सु४२ भाषा मासवाणा 31य 'पडिहाणवं -प्रतिभानवान्' भोत्पत्ति विगेरे मुद्धिन! गुयाथी सु२ प्रतिमineी हाय तथा 'विसारए-विशारदः' विशा२६ अर्थात् मने प्रा२ना अथक प्रगट ४२. पामां समर्थ हाय तथा 'आगाढपन्ने-आगाढप्रज्ञः' विश५ प्ररथी प्रज्ञाशाली खाय मन 'सुभाविअप्पा-सुभावितात्मा' धमनी भावनाथी भनु ६६य पासित હોય એજ સાધુ કહેવાય છે. પરંતુ હું જ જ્ઞાની છું એ પ્રમાણેનું અભિમાન ४२वावाणी पु३५ 'अण्णं जण-अन्यम् जन' मन्यने 'अण्णया-प्रज्ञया' पातानी भुद्धिनी प्रतिमाथी परिहवेजा-परिभवेत्' तिरस्कृत ४३ तो मेव५३५ साधु કહી શકાતું નથી. એ પુરૂષ કેવળ સાવાભાસ જ કહેવાય છે. ૧૩
અન્વયાર્થ–જે સાધુ ભાષાના ગુણ દોષને જાણવાથી સુંદર ભાષા બેલનાર છે, તથા સુસાધુવાદી અને પૂર્ણ પ્રતિભાશાલી છે, અને ઔત્પત્તિકી