Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
२५५
समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १२ समवसरणस्वरूपनिरूपणम् मूलम्-अणोवसंखाइ ति ते उदाह,
अटे से ओभासइ अम्ह एवं । लैंवावसंकी ये अणागएहि,
जो किरियमाहीं अकिरियवादी ॥४॥ छाया-अनुपसंख्ययेति ते उदाहुः, अर्थः स्वोऽभासतेऽस्माकमेवम् ।
लवादशति नश्वानागतै, नोक्रिया माहुरक्रियावादिनः ॥४॥ आशय यह है कि सत्य को असस्य और असाधु को साधु मानते हुए वैनायिक प्रश्न करने पर विनय को ही मोक्षमार्ग कहते हैं ॥३॥ _ 'अणोवसंखाइ ति ते उदाहु' इत्यादि ।
शब्दार्थ-ते-ते वे विनयवादिलोग 'अणोवसंखाइ-अनुपसंरूपया' वस्तुतत्त्वका विचार किये बिना ही 'त्ति-इति' इस प्रकार 'उदाह -उदाहुः' कथन करते रहते हैं 'सट्टे-स्वोऽर्थः वे कहते हैं कि अपने प्रयोजन की सिद्धि 'अम्ह-अस्माकम्' हमको 'एवं-एवम्' विनयसे ही होती है इस प्रकार 'ओभासइ-अवभासते' हमे दिखता है तथा 'लवावसंकी -लवावशंकिन' तथा बौद्ध मतानुयायी कि जो कर्मबन्धकी शंकावाले हैं वे लोग और 'अकिरियावादी-अक्रियावादिन: अक्रियावादी 'अणागएहि-अनागतः' भूत और भविष्य के द्वारा वर्तमानकी असिद्धि मान कर 'किरिय-क्रियां' क्रिया को 'णो आहेसु-नो आहुः' निषेध करते हैं।॥४॥ અસાધુને સાધુ માનનારાઓ વૈયિક પ્રશ્ન કરવામાં આવે ત્યારે વિનયને જ મોક્ષમાર્ગ કહે છે. તેવા
'अणोवसंचाइ ति वे उदाहु' त्या
Avथ-'-' मे विनयभत मनुसरनाn at 'अणोवसंरवाइ -अनुपसंख्यया' परतुतवन विया२ ४ा विनr 'त्ति-इति' के प्रमाणे 'वाहू-उदाहु.' स्थन ४२॥ २२ छ. 'सट्टे-स्वोऽर्थः' तय। ४९ छे ४-मभा। प्रयोजनी सिद्धि 'अम्ह-अस्माकम् अमन ‘एवं-एवम्' विनयची थाय छे. श्या प्रमाणे 'ओभासइ-अवभासते' अमन भाय छे. तथा 'लवावसंकी-लवापशंगिनः' मौद्ध मतने अनुसरनाशी है ! ४मधनी 41 छ
। सने 'अकिरियावादी-अक्रियावादिनः' माठियावाही al'अणागएहि अनागते.' भूत भने भविष्य २१ पत माननी मसिद्धि मानी 'किरियं क्रियाहियानी 'जो मासु-नो आहुः निषेध ४२ छ. ॥४॥