Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनी टीका प्र श्रु. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम् ३२५ मूळम्-विलोहियं ते अणुकाहयंते, जे आत्तभावेण वियागरेजा।
अट्टाणिया होंति बहुगुणाणं, जेणाण संकाइसंवएज्जा।३। छाया-विशोधितम् ते अनुकथयन्ति, ये आत्मभावेन व्यागृणीयुः । . .
___अस्थानिका भवन्ति बहुगुणानां, ये ज्ञानशङ्कया मृषा वदेयुः ॥३॥ अन्वयार्थ:-(ते) ते जमालिमभृतयः 'विसोहियं विशोधितम्-सकलदोष 'विसोहियं ते अणुकायते' इत्यादि।
शब्दार्थ-'ते-ते' जमालि आदि निहव 'विसोहियं-विशोधितम्' दोषरहित एवं तीर्थकरादिके द्वारा प्ररूपित ऐसे ज्ञानदर्शन चारित्र रूप मोक्ष मार्ग को 'अणुकाहयंते-अतुकथयन्ति तीर्थंकर की, प्ररूपणासे विपरीत प्रतिपादन करते हैं 'जे-ये' जो 'आत्तभावेण-आत्मभावेन' अपनी रुचिके अनुसार 'वियागरेज्जा-व्यागृगीयुः' आचार्य परंपरा से विरुद्ध प्रकारसे सूत्रोंका अर्थ करते हैं ऐसे वे 'बहूगुणाणं-घहुगुणानाम' अनेक सद्गुणों का 'अट्टाणिए-अस्थानिकाः' 'होई-भवन्ति' होते हैं 'जे-ये' जो कोई जमालि आदि अपात्र ‘णाणसंकाइ-ज्ञानशङ्कया' वीतरागके ज्ञान में शंकाशील होकर 'मुसं वएज्जा-मृषा वदेयः' मिथ्याभाषणकरते हैं वे उत्तम गुणों के पात्र नहीं होते हैं ॥३॥
अन्वयार्थ-वे जमालि वगैरह सकलदोषों से रहित तीर्थंकरों 'विसोहियते अणुकाहयते' या
शार्थ -'ते-ते' पूति भाति विगैरे निवे। 'विसोहिय-विशोधितम्' हाप रहित मने ती ४२६ मे ५३२८ मेवा ज्ञान, शन, यात्रि ३५ मोक्षमा ने 'अणुकाहयते-अनुकथयन्ति' तीय ४२नी प्र३५२थी १३ प्रति. पाहन ४२ छे. 'जे-ये २२। 'गत्तभावेण-आत्मभावेन' पातानी ३या प्रमाणे 'वियागरेजा-व्यागृणीयु' मायाय ५२ ५२॥थी १ि३५ शत सूत्रानो मथ ४२ छ. मेवा तम्या बहूगुणाण-बहुगुणानाम्' भने गुऐ।ना 'अद्वाणिए होई-अस्था. निका. भवन्ति' सस्थान ३५ थाय छे. 'जे-ये' मालि विरे अपात्र ‘णाणसंकाइ-ज्ञानशङ्कया' वीतरागना ज्ञानमा शशील मनीने 'मसं. वएजा-मृषा वदेयु.' (भथ्या ला५ ४२ छे. तेभ्य। उत्तम गुना पात्र३५ બનતા નથી. ૩
અન્વયાર્થ–તે જમાલિ વિગેરે સઘળા દેષથી રહિત અર્થાત્ નિર્દોષ