Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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मयार्थबोधिनी टीका प्र. भुं. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम्
अंधे से दंडे
हाय,
ओसिए
सई पावकम्मी ॥५॥ छाया - यः क्रोधनो भत्रति जगदर्थ भाषी, व्यवशमित यस्तुदीरयेत् । अन्ध इवासौ दण्डपथं गृहीत्वाऽव्यवशमितो घृष्यते पापकर्मा ॥५॥ अन्वयार्थ -- (जे) यः पुरुषः (कोहणे) क्रोधनः (होई) भवति = क्रोधं करोति तथा ( जगहमासी ) जगदर्थभाषी - योऽन्यस्य दोपमाषणं करोति सः (जे उ) मान का फल दिखला कर अब क्रोधादि कषायों का फल कहते हैं- 'जे कोहणे' इत्यादि ।
शब्दार्थ - 'जे - प.' जो पुरुष 'कोहणे - फोधनः' क्रोधवाला 'होहभवति' होता है अर्थात् क्रोधी होता है तथा 'जगट्ट भासी जगदर्थ भाषी' दूसरे के दोषों का कथन करता है तथा 'जे उ-ये तु' जो कोई 'विओ सियं - व्यवशमितम् ' शान्त हुए कलह को 'उदीर एज्जा - उदीरयेत्' फिर से प्रकट करता है 'से- सः' ऐसा पावकम्मी पापकर्मा' पापकर्म करनेवाला 'अंधेव - अन्धइव' अन्धे के समान 'दंडप - दण्डपथम् ' लघुमार्ग को 'गहाय - गृहीत्वा' ग्रहण कर के 'अथिओसिए - अव्यवशमित' सदा कलह करनेवाला 'घासह - घृष्यते' पीडित होता हुआ दुःखका अनुभव
करता है ॥५॥
अन्वयार्थ - जो पुरुष क्रोधी होता है अर्थात् क्रोध करता है और दूसरों के दोषों का भाषण करता है और जो कोई मिथ्या दुष्कृत માનનુ ફળ ખતાવીને હવે ક્રોધાદિક કાચાનુ ફળ ખતાવે છે. 'जे कोहणे' इत्यादि
शब्दार्थ—‘जे-यः’ ने पुष 'कोहणे - क्रोधनः ' शेधवाणी 'होई - भवति' थाय छे. अर्थात् ङोधी होय है, तथा 'जगदृभासी जगदर्थ'भाषी' मीलना होषो ४ही मतावे छे. तथा 'जे उ-ये तु' ? 'विओसियां - व्यवशमितम्' शभी गयेसा उसने 'उदीरपज्जा - उदीरयेत्' इरीधी या रे छे. 'से - सः' भ ४२वावाणी ते ५३ष 'पावकम्मी- पापकर्मा' पाय वावाजा 'अधेव - अन्ध इव' भाघणानी प्रेम 'दडपह' - दण्डपथम् ' टु' श्रीने 'अधिसोसिए - अव्यवशमित' सहा उस યુક્ત થઈને દુખનેા અનુભવ કરે છે પા
भार्ग'ने 'गहाय - गृहीत्वा' अडथ उरवावाणी 'घासइ - घृष्यते' पीडा
અન્વયાય—જે પુરૂષ ક્રોધી હાય છે. અર્થાત્ ક્રોધ કરે છે. અને ખીજાના દાષાનુ ભાષણુ કરે છે, અને જે કાઈ મિથ્યા દુષ્કૃત વિગેરે દ્વારા