Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनी टीका प्र. व. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम् ३३७ पापकर्मणि गुरुदिश्यो महद्भयो लज्जां कुर्यात् । तथा जीवा जीवादिसकलपदार्थेषु एकान्तष्टिर्मवेत् । यः पुरुषः एतादृशो भवति, स एव वस्तुतोऽमायि. रूपो भवतीति भावः ॥ ६॥ मूलस्-से पलले सुहमे पुरिसजाए, जञ्चानिए चेव सुउज्जुयारे। .
वहुंषि अणुसालिए जे तहम्बा, समहु ले होइ अझंझपत्ते।७।' छाया-स पेशलः सूक्षण: पुरुषजाता, जात्यन्वितश्चैव मुऋज्वाचारः। ।
बलप्यनुशास्वमानो यस्तथाची, समः खलु स भरत्यझंझां प्राप्तः ॥७॥ अतएव साधु सर्वथा ही आचार्य आदि की आज्ञा के अनुलार व्यव हार को पापकर्म करने में सुरु आदि महान् जलों से लज्जित हो, जीव अजीच आदि लमस्त तत्वों पर श्रद्धा करे, ऐसा पुरुष ही वास्तव में आमाथी होता है ॥६॥ 'ले पेसले सुहो' इत्यादि।
शब्दार्थ-जो पुरुष संसार सागर से अत्यंत उछेग घाला हो कर 'यहुंपि-पछुअपि' अनेक बार 'अणुलासिए-अनुशास्यमान:' आचार्य
आदि के द्वारा शिक्षा पाकर श्री तहच्चा-लथाची' अपनी चित्तवृत्तिको शुद्ध रखता है अर्थात् जैसा पहले संयमपालन में चित्तवृत्तिथी. आचार्य आदि के द्वारा अनुशासित होने पर भी-शिक्षा पाने पर भी ऐसी ही चित्तवृत्ति रखता है अन्यथाभाव नहीं रखता है 'से-स' ऐसा वह पुरुष 'पेसले-पेशल' विनय आदि गुणों से युक्त और भृदु: નથી. તેથી સાધુએ સર્વદા આચાર્ય વિગેરેની આજ્ઞા પ્રમાણે જ વ્યવહાર કરે, પાપકર્મ કરવામાં ગુરૂ વિગેરે મહાન જનેથી લજજીત થવું.--જીવી જીવ વિગેરે સઘળા ત પર શ્રદ્ધા કરવી, એ પુરૂષ જ વાસ્તવિક રીતે सभायी यश छ. ॥६॥
'खे- पेसले सुहमे' त्यादि * શબ્દાર્થ-જે પુરૂષ સંસાર સાગરથી અત્યંત ઉગવાળે थईने 'बहुपि-बहुअपि' भने पा२ 'अणुसासिए-अनुशास्यमानः' माया विश्थी शिक्षा पामीर पण 'तहच्चा-तथाः' पातानी वित्तवृत्ति शुद्ध રાખે છે. અર્થાત્ પહેલાં સંયમ પાલનમાં જેવી ચિત્તવૃત્તિ હતી આચાર્ય વિગેરેથી શિક્ષા પામીને પણ એવી જ ચિત્તવૃત્તિ રાખે છે – એ 'તે ५३५ 'पेसले-पेशल:' Gनय विगैरे गुणधी युत भने भृढ लाषी हाय छे."