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नियमसार
(अनुष्टुभ् )
वाचं वाचंयमोन्द्रारणा वक्त्रवारिजवाहनाम् । वन्दे नययायत्तवाध्यसर्वस्वपद्धतिम् ॥२॥
( शालिनी) सिद्धान्तोद्घोषवं सिद्धसेनं ताजा भट्टपूर्वाकलंकम् । शब्दाब्षोन्दु पूज्यपावं च धन्दे तविधाढय बोरनन्दि व्रतीन्द्रम् ।।३।।
-.- - - - - - - - भावार्थ-लोक में भगवान बुद्ध, विष्णु, ब्रह्मा और महादेव ये ४ अत्यधिक प्रसिद्ध हैं । उन्हीं को लक्षित करके प्राचार्य कहते हैं कि जिन्होंने संसार का नाश कर दिया है जो जन्म मरण के दुखों से छूट चुके हैं वे चाहे जिस नाम के धारी हों, मैं उन्हें नमस्कार करता हूं।
(२) श्लोकार्थ-वाचंयमीन्द्राणां-मुनियों में प्रधान ऐसे जिनेंद्र भगवान का मुखकमल जिसका वाहन है । अर्थात् जो जिनेंद्र भगवान के मुखकमल से प्रवाहितप्रगट हुई है । तथा जो दोनों नयों के प्राश्रयभूत वाच्य-पदार्थ उनके सर्वस्व-संपूर्ण अर्थ को कहने को पद्धति-शैलीरूप है । ऐसी जिनवाणी को मैं नमस्कार करता है।
( ३ ) श्लोफार्थ-सिद्धांत रूपी श्रेष्ठ लक्ष्मी के पति श्री सिद्धसेन प्राचार्य को तर्क, न्याय, कमल को विकसित करने में सूर्य ऐसे भट्टाकलंक देव को शब्द शास्त्ररूपी समुद्र के वर्धन में चंद्रमा ऐसे पूज्यपाद सूरि को तथा इन विद्याओं से सहित वतियों में प्रधान ऐसे वीरनंदि आचार्य को मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ- श्री सिद्धसेन दिवाकर के सन्मति तर्क नामक सिद्धांतग्रन्थ श्री अकलंकदेव के प्रमाणसंग्रह न्यायग्रन्य पूज्यपाद स्वामी का जैनेंद्र व्याकरण और वीरनंदि प्राचार्य का प्राचारसार ग्रन्थ प्रसिद्ध है ।