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(१५) बोध कम समझ वालों को भी शीघ्र सरलता से हो सके, इसलिए कहा है। (८५-८६) .
एतेषामथ पल्यानां दसभिः कोटि कोटिभिः ।
भवेद् छाददमुद्धार संज्ञकं सागरोपमम् ॥८७॥ .
इस तरह दस कोटा कोटि पल्योपम का एक सागरोपम होता है। एक बादर उद्धार सागरोपम उसी तरह से होता है। यह सब बादर पल्योपम और सागरोपम के विषय में कहा है। (८७)
अब सूक्ष्म सम्बन्धी कहते हैं - अथैकैकस्य पूर्वोक्त बालाग्रस्य मनीषया । असंख्येयानि खण्डानि कल्पनीयानि धीधनैः ॥८८॥ यत्सूक्ष्मं पुद्गलद्रव्यं छद्मस्थश्चक्षुषेक्षते । तदसंख्यांश मानानि तानि स्युर्द्रव्य मानतः ॥८६॥ सूक्ष्मपनक जीवांगावगाढ क्षेत्रतोऽधिके । असंख्ये गुणे क्षेत्रेऽवगाहन्त इमानि च ॥६०॥ व्याचक्षतेऽथ वृद्धास्तु मानमेषां बहुश्रुताः । पर्याप्त बादरक्षोणी कायिकांगेन ‘सम्मितम् ॥६१॥ समानान्येव सर्वाणि तानि च स्युः परस्परम् । अनन्त प्रादेशिकानि प्रत्येकमखिलान्यपि ॥६२।। ततस्तैः पूर्यते प्राग्वत् पल्यः पूर्वोक्त मानकः । .. समये समये चैकं खण्डमुध्रियते ततः ॥६३॥ निःशेषं निष्ठिते चास्मिन् सूक्ष्ममुद्धार पल्यकम् । संख्येयं वर्ष कोटीभिर्मितमेतदुदाहृतम् ॥६४॥
अब सूक्ष्म पल्योपम और सागरोपम के विषय में कहते हैं - पूर्व में कहे अनुसार एक एक रोम की बुद्धिमान ने बुद्धिपूर्वक 'असंख्यात' खण्ड की कल्पना करना, इस तरह प्रत्येक रोम खण्ड है । छद्मस्थ मनुष्य को आंख द्वारा दिख सके ऐसे सूक्ष्म पुदगल द्रव्य के असंख्यातवें भाग के समान होता है और वह सूक्ष्म निगोद के जीव के शरीर से व्याप्त क्षेत्र से असंख्य गुणा अधिक क्षेत्र में अच्छी तरह समा जाते हैं । बहुश्रुत वृद्ध पुरुषों ने इसका प्रमाण पर्याप्त बादर पृथ्वी काय के अंग समान कहा है और इसमें प्रत्येक के अधिकतः अनंत प्रदेश होते हैं। इस तरह जो