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इन दो श्लोक में एक जबरी संख्या बताने के लिए कर्त्ता ने नौ अंक तथा शून्य के लिए अलग-अलग शब्दों का उपयोग किया है। इसमें अज़ब भरी रचना करने में बहुत खूबी की है जैसे 'ख' ० शून्य का संकेत है क्योंकि ख का अर्थ आकाश होता है, वह खाली शून्य है। अश्व और वाजिन् सात का संकेत है, क्योंकि सूर्य के वाजि (अश्व) सात होते हैं । रस छः होने से छः का संकेत है । अक्षिआंखें दो होने से दो का संकेत माना जाता है। आशा-दिशा दस होने से दस का संकेत है, अब्धि वार्धि (समुद्र) चार, इंन्द्रिय पांच अंक नौ का संकेत का माना जाता है। (७६-८०)
तथा निविडमाकण्ठं भ्रियते स यथा हि तत् । नाग्निर्दहति वालाग्रं सलिलं च न कोथयेत् ॥८१॥
इस कुएं को किनारे तक इस तरह दबा कर भर दें कि जिससे अग्नि इसमें रहे बाल को जला न सके, वैसे ही पानी उसे सड़ा न सके । (८१)
यथा च चक्रि सैन्येन तमाक्रम्य प्रसर्पता । न मनाक् क्रियते नीचै खं निविडतां गतात् ॥८२॥ समये समये तस्मात् बाल खण्डे समुद्धृते । कालेन यावता पल्यः स भवेन्निष्टितोऽखिलः ॥८३॥
कालस्स तावतः संज्ञा पल्योपम मिति स्मृता ।
तत्राप्युद्धार मुख्यत्वादिदमुद्धार संज्ञितम् ॥८४॥ त्रिभि विशेषकम् और उसी तरह उसके ऊपर चक्रवर्ती की सम्पूर्ण सेना कुचलती चली जाय फिर भी वे बाल किनारे से अल्पमात्र नीचे न जायें, इस तरह भरा हुआ हो । उस कुएं में से प्रत्येक समय में एक-एक केशाग्र निकालते जितने काल में यह सम्पूर्ण कुआं खाली हो जाय इतने काल का नाम 'पल्योपम' है, तथा इस काल में केशकुएं में से बाहर निकालने से केशों का उद्धार करने से इस काल को 'उद्धार पल्योपम' कहते हैं । इसका प्रमाण संख्यात् समय का है। (८२ से ८४ )
'इदं बादरमुद्धार पल्योपममुदीरितम् । प्रमाणमस्य संख्याताः समयाः कथिता जिनैः ॥८५॥
अस्मिन्न रूपे सूक्ष्मं सुबोधमबुधैरपि । अतो निरूपितं नान्यत्किञ्चिदस्य प्रयोजनम् ॥८६॥
यह सादी बात बादर पल्योपम सम्बन्धी कही है, सूक्ष्म सम्बन्धी नहीं कहा । बादर का निरूपण पहले इसलिए किया है कि इस तरह करने से सूक्ष्म का