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४६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
पिताजीकी स्कूली शिक्षा बहुत ही थोड़ी हुई है । सिलावनमें तो स्कूल था ही नहीं, अतः पढ़ने के लिये खजुरियाकी प्राइमरी पाठशाला में पैदल जाना पड़ता था, जो कि सिलावनसे ढाई मील दूर है । रास्तेमें दो नदियाँ पड़ती थीं, जो बरसात में भर जाती थीं । अतः उन्हें घेर कर सड़कसे होकर स्कूल जाना पड़ता था । पिताजीकी स्कूलमें कक्षा १ तक की शिक्षा हुई है । फिर, भाइयों तथा गाँवके लड़कों ने स्कूल जाना बन्द छूट गया । पढ़ने में वे बचपन से ही होशियार थे और कक्षा में प्रथम किताब भी मिली थी । पिताजीको इतना याद है कि सन् १९११ में स्कूलोंमें तमगे बाँटे गये थे । उस समय पिताजीकी अवस्था १० वर्ष
कर दिया तो इनका भी स्कूल जाना आने पर उन्हें पुरस्कार स्वरूप एक जार्ज पंचमके गद्दी पर बैठनेकी खुशीमें की रही होगी ।
बड़े भाई अपने मामा के यहाँसे 'तत्त्वार्थ सूत्र पढ़ना सीख आये थे । अतः पिताजी की रुचि हुई कि वे भी तत्त्वार्थसूत्र सीखें । अपने मौसीके लड़के श्री रज्जूलाल बरयाके पास उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र पढ़ना सीखा । तत्पश्चात् मबई में अपनी बहन के यहाँ 'भक्तामर' पढ़ना सीखा ।
उस समयकी एक घटना बड़ी रोचक है— पिताजी घोड़े पर सवार होकर अपनी बहनके यहाँ जा रहे थे । रास्तेमें टीकमगढ़के परिसर में एक आदमी सड़कसे कुछ दूर हटकर कराहते दिखाई पड़ा । पिताजी अपने घोड़ेसे उतरे व उसके पास गये । वह बुखारसे बेहाल था । अतः पिताजीने उसे घोड़े पर बिठाया और स्वयं लगाम पकड़ कर पैदल चलने लगे मार्ग में ही रात हो गयी । थोड़ा आगे चलने पर बाँयीं ओर से एक सर्प आया और पैरोंमें लिपटता हुआ बिना काटे चला गया। धीरे-धीरे उस आदमीको लेकर बहनके गाँव पहुँचे और उसे वहाँ सुला दिया । बुखार उतरने पर वह प्रातःकाल चला गया ।
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इन्हीं सबमें पन्द्रह-सोलह वर्षकी आयु हो गई । उस समय सादूमल, सौंरई, जिजियावन आदि गाँव के लड़के इन्दौर सर० सेठ सा० के विद्यालय में पढ़ने गये थे । खजुरिया गाँवके गड़रया मामाने जब बताया तो पिताजी अपने काकाके पीछे लग गये कि वे भी पढ़ने इन्दौर जायेंगे । छुट्टियोंमें जब लड़के गाँव लौटे तो वापसी में उन लोगोंके साथ उन्हें इन्दौर भेजा गया । लगभग एक-सवा वर्ष वहाँ पर संस्कृत, छहढाला, आदि का अध्ययन किया । उस समय विद्यालय में प्रधानाध्यापक स्व० श्री पं० मनोहरलालजी थे व स्व० श्री पं० अमोलकचन्दजी धर्माध्यापक थे । बाबू सूरजमलजी सुपरिटेण्डेण्ट थे और लाला हजारीलालजी मन्त्री थे ।
वहाँसे गर्मी की छुट्टियों में घर लौटते समय उनके पास घरसे काफी पैसे आ गये थे । शौकमें आकर उन्होंने कोट, पैण्ट, कमीज बनवाया, एक बेल्ट व मूठ लगी छड़ी खरीदी। जिस दिन इन्दौर से चलना श्रा, दर्जीने उस दिन कपड़े नहीं दिये । उन्होंने अपने साथियों से जब कहा कि अगले दिन चलेंगे, तब वे सब बड़े नाराज हुए । उन्हें छोड़कर वे सभी गाड़ी पकड़ने स्टेशन चले गये पर समयसे नहीं पहुँचने के कारण गाड़ी छूट : गयी और सब साथियोंको उल्टे पाँव वापस आना पड़ा । सबको लौटते हुए देख पिताजीने खूब तालियाँ बजाईं व मजाक उड़ाया । इस पर वे सब और कुढ़ गये और सबने तय किया कि फूलचन्द्रको साथ लेकर नहीं चलेंगे, इसलिए वे खंडवा होकर चल दिये । दैवयोग से भोपाल में पिताजी की उनसे पुनः भेंट हो गई ।
ललितपुर पहुँचने पर उन सबने एक अलग बैलगाड़ी को व पिताजीको उसमें शामिल नहीं किया । उसी बैलगाड़ी में तीन लुटेरोंने भी सांझा किया। रात हो जाने पर वे लुटेरे नियत स्थान पर उतरे । गाड़ीवानने जब पैसे माँगे तो उन्होंने लड़कों व गाड़ीवानको पीटा तथा सामान छीन लिया। उधरसे निकलने वाली सभी गाड़ियोंको वे लूटते रहे । पिताजीकी गाड़ी जब पीछेसे आई तो उसे भी लुटेरोंने रोका । पिताजी अपनी नयी अंग्रेजी पोशाक में, हाथमें चमकीली मूठ वाली छड़ी लिए गाड़ी में सो रहे थे । गाड़ीवानने भयभीत होकर
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