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जीवन-परिचय
मेरे पिताजी
मेरे श्वसुर पूज्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री मुझे अपनी बेटी के लिये वे पिता तुल्य तो हैं ही, मुझे उन्हें पिताजी कहनेमें ही आनन्द आता है; उन्हें दादाके नाम से सम्बोधित करते हैं । उनका जन्म वैशाख वदी ४ को
श्रीमती नीरजा जैन, M. Se., रुड़की
समान मानते हैं । अतः मेरे किन्तु घरके अन्य सभी सदस्य सन् १९०१ वि० सं० १९५८
हुआ था । उनके कर्मशील ८४ वर्षोंके लिये यदि एक-एक पृष्ठ भी दिया जाये तो भी कम है ।
पिताजीका जन्म बुन्देलखंडके एक गाँव सिलावनमें हुआ था जो कि ललितपुरसे १६ मील दूर है । यह गाँव ललितपुरको महरौनी, मड़ावरा और टीकमगढ़से जोड़नेवाली सड़क पर बसा हुआ है । उनके पिता सिंघई दरयावलालजी, प्रसिद्ध बरया वंशके वंशज थे और माताका नाम जानकी बाई था। इनकी सबसे बड़ी एक बहन प्राणोबाई थीं, फिर दो बड़े भाई और उनसे छोटे एक भाई हुए। छोटे भाईका नाम श्री भैयालाल है । तीन चार वर्षकी अवस्थामें ही पिताजीकी आँखें फूल गई थीं । कोई डाक्टरी इलाज तो उस समय उपलब्ध नहीं था, अतः आँखोंमें रोहे पड़ गये हैं, ऐसा समझ कर आँखों में नमक घिसा गया जिससे रोहे गल जायें और आँखों पर पट्टी बाँध दी गयी । फलस्वरूप पूरी आँखोंमें सफेद जाला छा गया । आँखोंकी ज्योति बहुत कमजोर हो गई तथा छः इन्च पर रखी हुई वस्तु ही दिखाई दे पाती थी । ऐसी विकट परिस्थितिमें गाँव की ही एक गुजर स्त्री गीजरन बाईने तीन साल तक पिताजीकी भरपूर सेवा की। उसका नित्यका कार्य था कि हाथीका नख, सफेद रत्ती व लाल चन्दन घिसकर एक विशेष अंजन तैयार करना तथा आँखोंमें लगाना । इस सेवाका ही परिणाम निकला कि आँखोंकी ज्योति पुनः लौट आई और आज ८४ वर्ष hat अवस्था में भी पिताजी अपना पढ़ने-लिखनेका कार्य ( ६-७ पृष्ठ प्रतिदिन लिखना ) स्वयं कर लेते हैं ।
पिताजीके दादा मल रूपसे पासके ही एक गाँव खजुरिया के रहनेवाले थे । वहाँ पर उनके द्वारा निर्मित पक्का मकान भी था । वहाँ पर कभी रथ चला था, जिसमें उनके माता-पिता इन्द्र-इन्द्राणी बने थे । खजुरिया में बरया वंशकी वेदी अभी भी मौजूद है । पिता साहूकारी करते थे और व्यवसाय फैलने पर सिलावनमें आकर बस गये थे । माता-पिता दोनों ही अत्यन्त सीधे स्वभाव के थे । अतः साहूकारी धीरे-धीरे घटती चली गई । सिलावनमें ही बसने पर घरमें एक चैत्यालय स्थापित किया जो कि अभी भी विद्यमान है ।
घरमें चैत्यालय तथा सड़कका गाँव होनेसे व्यापारी बैलगाड़ियों पर माल लादकर रातको मड़ावरा, महरौनी आदिसे ललितपुरको जाते हुए या वापसीमें सुबह सिलावनमें पड़ाव करते थे । उस समय बिना दर्शन किये भोजनका प्रश्न ही नहीं उठता था और रास्ते में सिलावन ही एकमात्र गाँव था, जहाँ दर्शन मिलते थे । इसलिये घर पर दर्शन करने वालोंकी भीड़ लगी रहती थी । रोज चार, छः, दस व्यक्ति बाहर से आते थे घर पर ही निवृत्त होकर पूजन इत्यादि करते थे । घर के सभी बालक इन लोगोंकी सेवामें जुटे रहते थे ।
पिताजी अन्य भाइयों सहित लोगों को पानी पिलाना, नहा-धोकर पूजनके लिये कुँएसे जल भर लाना आदि कार्य प्रतिदिन करते थे । सेवा परायणताके संस्कार बाबाजीके कारण पिताजीमें बचपन से ही बैठ गये थे ।
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