Book Title: Sammati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Abhaydevsuri
Publisher: Motisha Lalbaug Jain Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / उही अहँ नमः।। सं 250 तत्वबोधविधायिनीव्याख्या-हिन्दीविवेचनविभूषित सम्मति तर्कप्रकरण खण्ड :-1. सल्यान का. अनेकान्तवादिसष्टयो गुरवःDRA 56 Cg. Tre: SHI एकान्तवादि-सप्तांधपरुषाः गजकैक भागेषु सूर्पादिबुद्धीन, यथाऽन्धान सुध्क्सप्त सुज्ञान प्रचक्र, जयानां मिथो रोधिनाम् साम्यदशी,सदर्हः सजीयादनेकान्तवादः।। प्रकाशकःशेठ मोतीशा लालबाग,जैनचेरीटीझ ट्रस्ट. पांजरापोल कम्पाउन्ड,भुलेश्वरः मुंबइ-४. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 अहंक ___ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः / तत्त्वषोधविधायिनीव्याख्या-हिन्दीविवेचनविभूषित जसम्मति-तर्कप्रकरण' [प्रथम खण्ड] 卐 卐OOOOOIMOOOT मूल ग्रन्थकार :जैनतर्कपितामह आचार्यश्री सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी महाराज व्याख्याकारःतर्कपश्चानन-वादिमुख्य आचार्यश्री अभयदेवसूरिजी महाराज 卐 ___ मार्गदर्शक-प्रेरकः- न्यायविशारद-आचार्यश्री भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज प्रकाशक :शेठ मोतीशा लालबाग जैन ट्रस्ट पांजरापोल कम्पाउन्ड-भुलेश्वर बम्बई-४००००४ AM )- Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा विद्या या विमुक्तये वीर सं०.२५१० विक्रम सं०२०४० प्रथमावृत्ति-१००० मूल्य RSPEE80-00 | सकल अधिकार श्रमण प्रधान जैन संघ को स्वायत्त / प्राप्तिस्थान :1. मोतीशा लालबाग जैन ट्रस्ट भुलेश्वर-बम्बई-४ 2. सर सरस्वती पुस्तक भण्डार हाथीखाना, रतनपोल अहमदाबाद-१ 3. पाश्र्व प्रकाशन निशा पोल, अहमदाबाद-१ मुद्रक :गौतम आर्ट प्रिन्टर्स नेहरू गेट के बाहर, ब्यावर (राज.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Exxxxxxxxxxxxxxx * प्रकाशक की ओर से सम्राट विक्रमादित्य के प्रति बोधक प्रखरवादी श्रीमत् सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी महाराज विरचित 'सन्मतितर्क-प्रकरण' की तर्कपंचानन श्रीमद् अभयदेवसूरीश्वरजी महाराज विरचित 'तत्त्वबोधविधायिनी' नामक विशद संस्कृत व्याख्या का सारभूत हिन्दीविवेचन ( प्रथम खण्ड ) प्रगट करते हए आज हमारे आनन्द की कोई सीमा नहीं है। सन्मतितकप्रकरण और उसकी संस्कृत व्याख्या दार्शनिक चर्चाओं का महासागर है। तत्त्वपिपासुओं के लिये सुधाकुंड है। अनेकान्तवाद के रहस्य को हस्तगत करने के लिये तेजस्वी प्रकाशदीप है / एकान्तवाद की हेयता को समझने समझाने के लिये उत्तम साधन ग्रन्थ है / व्याख्याग्रन्थ की रचना को प्रायः सहस्र वर्ष बीत चुके हैं। इतने काल की अवधि में श्रीमद् वादिवेताल श्री शान्तिसूरिजी महाराज, वादीदेवसूरिजी महाराज, महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज एवं पूज्य आत्मारामजी महाराज आदि अनेक महनीय महापुरुषों ने इस व्याख्या ग्रन्थ का पर्याप्त लाभ उठाया है। किन्तु आज ऐसा युग आ गया है कि मुद्रित होने के बाद भी इस ग्रन्थरत्न का पठन-पाठन व्युच्छिन्नप्राय हो गया है / इसके दो कारण हैं-एक ओर बहुत ही अधिकृत लोगों की रुचि जितनी अन्यान्य शास्त्रों के पठन-पाठन में दिखती है उतनी ऐसे महान् ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापन में नहीं दिखाई रही है / दूसरी ओर व्याख्या ग्रन्थ ऐसा तर्क जटिल है कि वर्तमान में या तो कदाचित् कोई उसको पढना चाहे तो भी न स्वयं पढ सकता है, न उसको पढाने वाला भी सुलभ है। ___दर्शनप्रभावक ऐसे महनीय ग्रन्थों के अध्ययन की परम्परा विलुप्त न हो जाय यह सोचना 'श्री जैन शासन के अधिकृत आचार्य महाराज आदि के लिए आवश्यक है। परम सौभाग्य की बात है कि कर्मशास्त्रनिष्णात सिद्धान्तमहोदधि स्व. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज तर्कशास्त्रों के भो पठन-पाठन में स्वयं रुचि व प्रयत्नशील होने से आप के द्वारा तैयार किये गए शिष्यरत्न में से एक न्यायविशारद और अनेकों को ग्रन्थ की वाचना देने में कुशल सिद्धान्त प्रिय आचार्यदेव श्रीमद्विजय भवनभानुसूरीश्वरजी महाराज के दिल में इस ग्रन्थरत्न के अध्ययन को पुनर्जीवित करने को तमन्ना हुया और व्याख्या ग्रन्थ का अधिकृत मुमुक्षवर्ग सरलता से अध्ययन कर सके इसलिये व्याख्याग्रन्थ के ऊपर सरल विवरण निर्माण करने का शुभ निर्णय कर लिया। किन्त बहविध शासनकार्य में निरंतर निमग्न पूज्यश्री को बड़ी चाह होने पर भी समय का अवकाश नहीं मिलता था तो आखिर उन्होंने इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये अपने प्रशिष्य रत्न सिद्धान्त दिवाकर आचार्यश्री विजय जयघोषसूरिजी महाराज के अन्तेवासो मुनिश्री जयसुन्दरविजयजी महाराज को अन्तर के आर्शीवादपूर्वक सरल विवरण के निर्माणार्थ प्रेरणा की। दूसरी और हमारे श्री संघ के (शेठ मोतीशा लालबाग जैन ट्रस्ट-बम्बई के ट्रस्टीओं को ) ऐसे बडे ग्रन्थरत्न के मुद्रण प्रकाशन के Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये प्रेरणा दो / श्रुतोद्धार के ऐसे महान कार्य के अपूर्व लाभ को देखकर हमारे ट्रस्ट ने उक्त बहुमूल्य प्रेरणा का हर्ष से स्वागत किया और ट्रस्ट के ज्ञाननिधि में से हिन्दी विवरणसहित मूल और टीकाग्रन्थ के मुद्रण प्रकाशन के लिये एक योजना बनायी गयी। उसका यह शुभ नतीजा है कि आज हिन्दी विवेचन से अलंकृत मूलसहित व्याख्याग्रन्थ के संपूर्ण प्रथम खण्ड का मुद्रण-प्रकाशन करने के लिये हम सौभाग्यवंत बने हैं। दार्शनिक चर्चा के क्षेत्र में सन्मतितर्कव्याख्या ग्रन्थ का अनूठा स्थान है / जैन दर्शन में इस . ग्रन्थरत्न की दर्शन प्रभावक शास्त्रों में गिनती की गयी है। इतना ही नहीं किन्तु सम्यग्दर्शन की विशेष निर्मलता सम्पादनार्थ साधनरूप में इस शास्त्र के अध्ययन को अति आवश्यक माना गया है। अनेकान्तवादी जैनदर्शन की भिन्न भिन्न चर्चास्पद विषयों में क्या मान्यता है यह स्पष्ट जानने के लिये व्याख्याग्रन्थ का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। अधिकृत मुमुक्षु अध्येताओं को सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिये ऐसे ग्रन्थों को सुलभ बनाना इस काल में अत्यंत आवश्यक है। ऐसी आश्यकता की पूत्ति इस ग्रन्थरत्न के प्रकाशन द्वारा करने का हमें जो पुण्य अवसर मिला है वह निस्संदेह हमारे लिये असीम आनन्द का विषय है। सिद्धान्तमहोदधि कर्मसाहित्यनिष्णात सुविशालगच्छाधिपति निरंतरस्वाध्यायमग्न स्व. आचार्यदेव श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहेब के पट्टालंकार न्यायविशारद उग्रतपस्वी आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज के हम अत्यन्त ऋणी हैं जिन्होंने बहुमूल्य प्रेरणा देकर इस ग्रन्थरत्न के प्रकाशन के लिये हमें प्रोत्साहित किया। तदुपरांत, इस ग्रन्थरत्न के प्रकाशन में पू. पंन्यास श्री राजेन्द्रविजयजी गणिवर्य की भी हमें पर्याप्त प्रेरणा एवं सहायता प्राप्त हुयी है / तथा, पू. मुनिश्री जयसुन्दरविजयजी महाराजने पूज्यपाद आचार्यभगवंग के आदेशानुसार प्रथम खंड के हिन्दी विवेचन का निर्माण किया, तथा हिन्दी विवेचन सहित मूल-व्याख्याग्रन्थ (प्रथम खण्ड) के सम्पादन का भी कार्य श्रुतभक्ति के शुभभाव से किया है। हमारे पर इन सब महात्माओं के अगणित उपकार हैं जिन को हम कभी बिसर नहीं सकेंगे। गौतम आर्ट प्रिन्टर्स, ब्यावर (राजस्थान) के व्यवस्थापक श्री फतहचन्दजी जैन को धन्यवाद देना हमारा कर्तव्य है। दिलचश्पी के साथ धार्मिक ग्रन्थ के मुद्रण में उन्होंने भावपूर्वक उत्साह दिखाया है यह अनुमोदनीय है। साक्षात् या परम्परया जिन सज्जनों की ओर से इस ग्रन्थरत्न के मुद्रण एवं प्रकाशनादि में हमें प्रेरणा-आशीर्वाद एवं सहायता प्राप्त हुयी है उन सभी के प्रति हम कृतज्ञताभाव धारण करते हैं / द्वितीयादि खंडो के प्रकाशन की हमारी भावना अभंग है / आशा है कुछ ही वर्षों में हम उनके लिये भो सफल होंगे। अधिकृत मुमुक्षुवर्ग ऐसे उत्तमग्रन्थरत्न के स्वाध्याय जैन शासन की प्रभावना करके आत्मश्रेय. को प्राप्त करें यही एक शुभेच्छा। -शेठ मोतीशा लालबाग ट्रस्ट के ट्रस्टीगण एवं लालबाग उपाश्रय आराधक जैन संघ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राककथन -50 पू० आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज दुष्काल में घेवर मीले वैसा यह 'सम्मति-तर्क' टीका-हिंदी विवेचन ग्रन्थ आज तत्वबुभुक्षु जनता के करकमल में उपस्थित हो रहा है। आज की पाश्चात्य रीतरसम के प्रभाव में प्राचीन संस्कृत-प्राकृत शास्त्रों के अध्ययन में व चितन-मनन में दुःखद औदासीन्य दिख रहा है। कई भाग्यवानों को तत्त्व की जिज्ञासा होने पर भी संस्कृत, प्राकृत एवं न्यायादि दर्शन के शास्त्रों का ज्ञान न होने से भूखे तड़पते हैं, ऐसो वर्तमान परिस्थिति में यह तत्त्वपूर्ण शास्त्र प्रचलित भाषा में एक पकवान्न-थाल की भांती उपस्थित हो रहा है / दरअसल राजा विक्रमादित्य को प्रतिबोध करने वाले महाविद्वान जैनाचार्य श्री सिद्धसेनदिवाकर महाराजने जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्त स्याद्वाद-अनेकांतवाद का आश्रय कर एकांतवादी दर्शनों की समीक्षा व जैनदर्शन की सर्वोपरिता की प्रतिष्ठा करने वाले श्री संमतितर्क ( सन्मति तर्क) प्रकरण शास्त्र की रचना की। इस पर तर्कपंचानन वादी श्री अभयदेवसूरिजी महाराजने विस्तृत-व्याख्या लिखी जिसमें बौद्ध न्याय-वैशेषिक-सांख्यमीमांसकादि दर्शनों की मान्यताओं का पूर्वपक्षरूप में प्रतिपादन एवं उनका निराकरण रूप में उत्तर पक्ष का प्रतिपादन ऐसी तर्क पर तर्क, तर्क पर तर्क की शैली से किया है कि अगर कोई तार्किक बनना चाहे तो इस व्याख्या के गहरे अध्ययन से बन सकता है। इतना ही नहीं, किन्तु अन्यान्य दर्शनों का बोध एवं जैन दर्शन की तत्त्वों के बारे में सही मान्यता एवं विश्व को जैनधर्म को विशिष्ट देन स्वरूप अनेकान्तवाद का सम्यग् बोध प्राप्त होता है। इस महान शास्त्र को जैसे जैसे पढते चलते है वैसे वैसे मिथ्या दर्शन को मान्य विविध पदार्थ व सिद्धान्त कितने गलत है इसका ठीक परिचय मिलता है, व जैन तत्त्व पदार्थों का विशद बोध होता है। इससे सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, और प्राप्त सम्यग्दर्शन निर्मल होता चलता है। सम्यग्दर्शन की अधिकाधिक निर्मलता चारित्र की अधिकाधिक निर्मलता की संपादक होती है। इसीलिए तो 'ण' शास्त्र में संमति-तर्क आदि के अध्ययनार्थ आवश्यकता पड़ने पर आधा कम प्रादि साधुगोचरी-दोष के सेवन में चारित्र का भंग नहीं ऐसा विधान किया है। यह संमति-तर्क शास्त्र बढिया मनः संशोधक व तत्त्व-प्रकाशक होने से इस पंचमकाल में एक उच्च निधि समान है / मुमुक्षु भव्य जीव इसका बार बार परिशीलन करें व इस हिन्दी विवेचन के कर्ता मुनिश्री अन्यान्य तात्त्विक शास्त्रों का ऐसा सुबोध विवेचन करते रहे यही शुभेच्छा ! वि० सं० 2040 आषाढ कृ० 11 आचार्य विजय भुवनभानुसूरि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भावोन्मेष परमात्मा के असीम अनुग्रह से प्रथम बार हिन्दी विवेचन सहित सम्मतिप्रकरण के मूल और व्याख्याग्रन्थ के प्रथम खण्ड का सविवरण सम्पादन पूरा हो रहा है यह मेरे लिये आनन्दानुभूति का त्यौहार है / करिबन 3 वर्ष पहले पूज्यपाद गुरु भगवंत आचार्य श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज की प्रेरणा से इस कार्य का मंगल प्रारम्भ हआ था। उस वक्त मूल और व्याख्या के प्रथम खण्ड के तीन संस्करण विद्यमान थे। (1) वाराणसेय श्री जैन यशोविजय पाठशाला की ओर से श्री यशोविजय ग्रन्थमाला के अन्तर्गत 'सम्मत्याख्यप्रकरण' . इस नाम से सर्व प्रथम 200 पृष्ठ वाला प्रथम भाग वीर सं० 2436 में छपा था जिस में "विशेषणस्य संयोगविशेषस्य रचनालक्षणस्याऽसिद्धेः तद्वतो विशेष्यस्याप्यसिद्धिः” (प्रस्तुत संस्करण पृष्ठ 464-2) यहाँ तक व्याख्या पाठ विद्यमान था। (2) गुजरात विद्यापीठ की ओर से सम्पूर्ण व्याख्या सहित इस ग्रन्थ का प्रथम खण्ड वि० सं० 1980 में प्रगट किया गया-जिसका सम्पादन पं० सुखलाल और पं० बेचरदास के युगलं ने किया . था / इस संस्करण में पूर्व मुद्रित प्रथम खंड (अपूर्ण) का कोई उल्लेख नहीं है। . (3) अमदाबाद की जैनग्रन्थ प्रकाशक सभा की ओर से प्रताकार प्रथम खण्ड व्याख्यासहित वि० सं० 1996 में प्रगट हुआ-जिसका सम्पादन मुनिश्री शिवानन्दविजय महाराज ने किया था। इस संस्करण में पूर्व के किसी संस्करण का उल्लेख नहीं है और ग्रन्थ को देखने से यह अनुमान होता है कि मुनि श्री शिवानन्दविजयजी ने स्वतन्त्र परिश्रम से ही इसका सम्पादन किया होगा। . प्रस्तुत चौथे संस्करण में दूसरे-तीसरे संस्करण के आधार से ही मूल और व्याख्या का पुनमुद्रण किया गया है, फिर भी अध्येतावर्ग की अनुकूलता के लिये बहुत ही छोटे छोटे परिच्छेदों में ग्रन्थ को विभक्त किया गया है, किन्तु उस वक्त यह पूरा खयाल रखा है कि कहीं भी संदर्भक्षति न हो। तदुपरांत, प्रत्येक पृष्ठ के ऊपर ग्रन्थ के मुख्य विषय के शीर्षक लगाये गये हैं। पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के प्रारम्भ में सामान्यतया ननु, अथ तथा इति चेत्-उच्यते इत्यादि संकेत व्याख्याग्रन्थ में कहीं पर होते है तो कहीं नहीं भी होते-इस स्थिति में पूर्वोत्तर पक्ष की पहचान के लिये वाक्यप्रारम्भ के आद्यशब्द के लिये भिन्न टाइप का उपयोग किया गया है / तदुपरांत, जहां जहां व्याख्या में 'ऐसा पहले कह दिया है' इस प्रकार का अतिदेश किया गया है उस स्थान को देखने के लिये हिन्दी विवेचन में ही ब्रकेट में पृष्ठ और पंक्ति नम्बर दिये गये हैं, इसलिये दूसरे संस्करण में जो नीचे टिप्पणीयां दी गयी थी उनकी यहाँ आवश्यकता नहीं रही है, फिर भी अर्थ स्पष्टीकरण के लिये कुछ आवश्यक टीप्पण हमने स्वयं लिखकर रखी है जो पूर्व संस्करण में नहीं है। पाठान्तरों का उल्लेख हमने यहाँ छोड दिया है, क्योंकि हिन्दी विवेचन में अर्थसंगति के लिये जो पाठ उचित लगा उसी का यहाँ संग्रह किया गया है, फिर भी कहीं कहीं संदिग्ध पाठान्तर भी लिए गए हैं। इतना विशेष उल्लेखनीय है कि, पाठशुद्धि के लिये भूतपूर्व सम्पादकों द्वारा अत्यधिक प्रयत्न किये जाने पर भी सामग्री के अभाव में कितने ही पाठों को वैसे ही अशुद्ध छोड दिये थे, और ऐसे स्थलों में अन्य अन्य प्रतों में जो पाठान्तर थे उनका उन्होंने टिप्पणी में उल्लेख कर रखा था / अशद्ध पाठ के आधार से विवेचन कसे किया जाय ? इस समस्या को हल करने के लिये हमने अनेक स्थल में हस्तप्रतों को खोज की / लिम्बडी जैन संव के भण्डार की प्रति का भूतपूर्व सम्पादकों ने खास उपयोग किया नहीं था, किन्तु अर्थसंगत पाठ की खोज के लिये कुछ स्थान में यह प्रति हमारे लिये Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयुक्त सिद्ध हुयी है ( द्र. पृ. 322-481 इत्यादि ) / इतना होने पर भी एक-दो स्थल में ऐसे अशुद्ध पाठ थे जो हस्तप्रत के आधार से शुद्ध करना अशक्य था, वहाँ उस पाठ को वैसा ही रखना उचित समझा है। वैसे पाठों के ऊपर गहराई से ऊहापोह करके शुद्धपाठ कैसा होना चाहिये यह हमने नीचे टिप्पण में दिखाया है और उसी के अनुसार हमने उसका विवेचन किया है ( उदा० द्र० पृ० 482) यह पाठक वर्ग ध्यान में रखेंगे। अध्ययन में सरलता के लिये, व्याख्या और हिन्दी विवेचन में मूल और उत्तर विकल्पों को स्पष्टता के लिये A-B....इत्यादि अक्षरों का प्रयोग किया गया है। व्याख्याकार की शैली ऐसी है कि पूर्वपक्षी के प्रतिक्षेप में पहले वे तीन-चार विकल्प प्रस्तुत करते हैं-उसके बाद एक एक विकल्प में तीन-चार उत्तर विकल्प और उन एक एक उत्तर विकल्पों के ऊपर भी अनेक उत्तरोत्तर विकल्प प्रस्तुत करते हैं-ऐसे स्थलों में अध्ययन कर्ता को 'यह उत्तर विकल्प कौन से मूल विकल्प का है ?' यह जानने में A-B.... इत्यादि अक्षरों से बहुत ही सुविधा रहेगी। बौद्ध दार्शनिक धर्मकोत्ति के प्रमाणवात्तिक और तत्त्वसंग्रह ग्रन्थ के जितने उद्धरण इस भाग में आते हैं उनके लिये पूर्वसम्पादित संस्करण में प्रमाणवात्तिक श्लोक क्रमांकादिक का निर्देश नहीं था जो इस संस्करण में शामिल किया गया है। यद्यपि भूतपूर्व सम्पादक पंडित युगल अपने पांडित्य के लिये विख्यात रहने पर भी उनके सम्पादनादि में कुछ त्रुटियां अवश्य रह गयी है जिनका विस्तृत उल्लेख करना हम आवश्यक नहीं समझते, फिर भी सम्मति तर्कप्रकरण आद्य गाथा का उन्होंने जो अनुवाद प्रस्तुत किया है उसके लिये कुछ आवश्यक कहना पड़ेगा कि या तो आद्य गाथा के अनुवाद में उन्होंने गलती की है या तो जानबूझ कर उन्होंने व्याख्याकार' का अनुसरण न करके स्वमति कल्पित अर्थ लिख दिया है। मूल आद्य गाथा और उसका उन लोगों का किया हुआ अनुवाद इस प्रकार है - सिद्धं सिद्धत्थाणं ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं / * कुसमयविसासणं सासणं जिणाणं भवजिणाणं // 1 // अर्थः-भव-रागद्वेषना जितनार जिनो- अर्थात् अरिहंतोनुं शासन-द्वादशांग शास्त्रसिद्ध अर्थात् साना गणथोज प्रतिष्ठित छ / केमके ते अबाधित अर्थोनु स्थान प्रतिपादक छे. पासे आवेलामोने अर्थात शरणार्थीसोने ते सर्वोत्तम सुखकारक छ अने एकान्तवादरूप मिथ्या मतोन निराकरण करनारुं छे।" यहाँ हमारा कथन यह है कि 'ठाणं' पद का अन्वय सिद्धत्थाणं पद के साथ नहीं है, किन्त अण्वमसूहमूवगयाणं पद के साथ है और व्याख्याकार श्री अभयदेवसूरिजी ने 'अनुपमसूखवाले स्थान में गये हए' ऐसा अर्थ कर के जिनों का विशेषण दिखाया है / तात्पर्य, 'स्थान' शब्द का अन्वय 'उपगतानाम्' इस पद के साथ किया है (द्र. पृ. 532) और इसी अर्थ के आधार पर ही आत्मविभुत्ववाद और मुक्ति सुखवाद को खड़ा किया जा सकता है / जब कि पंडित युगल ने 'स्थान' शब्द का 'सिद्धार्थानाम्' पद के साथ अन्वय करके. अर्थ किया है, फलत: उसमें से आत्मविभुत्ववाद का उत्थान कैसे किया जाय यह प्रश्न ही बन जाता है। ऐसा होने का कारण संभवत: ऐसा है कि पंडितयुगल को ऐसा संशय हआ होगा कि-'ठाण' शब्द को 'उवगयाणं' के साथ जोडने पर 'सिद्धत्थाणं' पद का अन्वय किस के साथ करना ? किन्तु टीकाकार महर्षि ने 'सिद्धत्थाणं" पद का अन्वय 'शासन' पद के साथ ही किया है और तदनुसार हिन्दी विवेचन में इसका अर्थ स्पष्ट लिखा है ( द्र. पृ. 4 ) / पए Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ हालाँ कि, इस संस्करण के मुद्रण समय में अध्ययन कर्ता को सम्पूर्ण सुविधा रहे इस बात को ध्यान में रखकर इस संस्करण को अतिसमृद्ध करने के लिये शक्य प्रयास किया है फिर भी जैन मुनि की एक स्थल में चार मास से अधिक स्थिरता प्रायः नहीं होती यह पाठकों के खयाल में ही होगा। इस संस्करण में शामिल किये गये हिन्दी विवेचन के प्रारम्भ से लेकर मुद्रण किये जाने तक करीब 1500 से 2000 मील की पद यात्रा हो चुकी है-विहार में आवश्यकता के अनुसार सभी ग्रन्थ संनिहित नहीं रख सकते, इस स्थिति में, इस संस्करण के सम्पादन में अपूर्णता और त्रुटि का सम्भव निर्मूल तो नहीं है। फिर भी पूर्व संस्करण की अपेक्षा इस संस्करण से विद्वानों को अधिक संतोष होगा यह विश्वास है। हिन्दी विवेचन करते समय अनेक स्थलों में बहुविध कठिनता का अनुभव हुआ। क्लिष्टस्थल के स्पष्टीकरण के लिये घंटों तक सोचना पड़ता था, फिर भी स्पष्टता नहीं होती थी, आखिर परमात्मा, श्रुतदेवता, ग्रन्थकार-व्याख्याकार और गुरुभगवंत के चरणों में भाव से सिर झुका कर चिंतन करने पर यह चमत्कार होता था कि देर तक सोचने से भी जो स्पष्ट नहीं होता था वह .. तरन्त ही स्पष्ट हो जाता था, अथवा तो उसके स्पष्टीकरण के लिये आवश्यक कोई ग्रन्थ अकस्मात ही कहीं न कहीं से मेरे पास आ जाता था और उसका जिज्ञासा से अवलोकन करने पर किसी वषय में स्पष्टता मिल जाती थी। इतना होने पर भी कुछ दो-चार स्थल ऐसे भी होंगे जिस की स्पष्टता करने में मैं पूरा सफल नहीं हुआ हूं यह मजबूरी की बात है। हिन्दी विवेचन और इस भाग का सम्पादन करते समय परमकृपालु परमात्मा और श्री श्रतदेवता की करुणादृष्टि सतत मेरे पर बरसती रही होगी, अन्यथा यह कार्य मेरे लिये अशक्य ही बना रहता / एतदर्थ परमकृपालु परमात्मा और श्री श्रुतदेवता के प्रति सदैव कृतज्ञ बने रहना यह मेरा . परम कर्तव्य समझता हूँ / अथ च, सिद्धान्तमहोदधि-कर्मसाहित्यनिष्णात आचार्य भगवंत स्व. प० पू० श्रीमद विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज की कृपादृष्टि के प्रति जितना भी कृतज्ञताभाव धारण किया जाय वह कम ही रहेगा। तदुपरांत, न्यायविशारद उग्रतपस्वी प० पू० आचार्यदेव श्रीमद् विजय भवनमानुसूरीश्वरजी महाराज मेरे लिये जंगम कल्पवृक्षतुल्य है। उन्हीं की पवित्र छाया में बैठ कर इस विवेचन-सम्पादन के लिये मैं कुछ समर्थ बन सका हूँ। तर्कशास्त्र का सुचारु रूप से अभ्यास यह आपकी ही अमीदृष्टि का सत्फल है। प० पू० शान्तमूत्ति स्व. मुनिराज श्री धर्मघोषविजयजी महाराज के शिष्यरत्न, सिद्धान्तदिवाकर, सकलसंघश्रद्धेय आचार्य गुरुदेव श्री विजयजयघोषसूरिजी पटागज का वात्सल्यपर्ण सहकार इस कार्य में साद्यन्त अनवर्तमान रहा यह मेरा परम सौभाग्य है। अन्य अनेक मुनि भगवंतों का इस कार्य में अनेकविध सहयोग प्राप्त हुआ है जिसको कभी बिसर नहीं सकते। शेठ श्री मोतीशा लालबाग ट्रस्ट की ओर से ज्ञाननिधि में से इस ग्रन्थ के मुद्रणादि का सम्पूर्ण भार वहन किया गया है, तथा गौतम आर्ट प्रिन्टर्स, ब्यावर (राज.) के व्यवस्थापक फतहचंद जैन ने इस ग्रन्थ के मुद्रण में जो दिलचश्पी दिखायी है-एतदर्थ ये दोनों धन्यवाद के पात्र है। तदुपरांत लिंबडी ( सौराष्ट्र ) नगर के निवासी जैन संघ श्री आणंदजी कल्याणजी संस्था के ज्ञान भंडार से अमूल्य हस्तप्रत की सहायता मिली यह भी अनुमोदनीय है / ऐसे महान् ग्रन्थरत्न का अध्ययन-अध्यापन द्वारा अधिकृत मुमुक्षुवर्ग आत्मश्रेय सिद्ध करे यही एक शुभेच्छा / वि० सं० 2040 लि०पूना (महाराष्ट्र) जयसुन्दरविजय Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAMESSASRASTANCES प्रस्तावना महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज के विरचित द्रव्यगुणपर्याय रास आदि द्रव्यानुयोग के ग्रन्थों का जब मैं अध्ययन करता था उसी काल से सम्मतिप्रकरण ग्रन्थ के अध्ययन की लिप्सा अन्तःकरण में जग ऊठी थी चूंकि उपाध्यायजी महाराज के अनेक ग्रन्थों में सम्मतिप्रकरण ग्रन्थ मूल और व्याख्या में से अनेक अंशो का उद्धरण बार बार आते थे / यद्यपि मेरी यह गुंजाईश ही नहीं कि ऐसे बडे दिग्गज विद्वान् दिवाकरसूरिजी महाराज के ग्रन्थ और व्याख्या का विवेचन कर सकूँ। फिर भी जो कुछ हुआ है वह निःसंदेह गुरुकृपा का चमत्कार ही मानना चाहिये / स्वयं उपाध्यायजी महाराज भी श्री सीमंधरस्वामी की स्तवना में कहते हैं - जेहथी शुद्ध लहिये सकल नयनिपुण सिद्धसेनादिकृत शास्त्रभावा। तेह ए सुगुरुकरुणा प्रभो! तुज सुगुण वयण-रयणाकरि मुज नावा / / अर्थः-हे प्रभो ! आपके गुणालंकृत वचनरूपी समुद्र में तैरने के लिये हमारे पास एकमात्र सद्गुरु की करुणारुपी नौका ही हैं जिससे कि हम सकल नयवाद में निपुण श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी के बनाये हए सम्मति आदि शास्त्रों के विशुद्ध भावों के किनारे पहंच सकते हैं। . वास्तव में, चार अनुयोग में द्रव्यानुयोग की निर्विवाद प्रधानता है, और गृहस्थों के लिये भी द्रव्यानुयोग का अधिकारोचित ज्ञान सम्यग्दर्शन की निर्मलता के लिये आवश्यक माना गया है तो गृहत्याग करके साधु बनने वाले पुण्यात्माओं के लिये तो पूछना ही क्या ? उनके लिये तो द्रव्यानुयोग का सांगोपांग अध्ययन परम आवश्यक है, अन्यथा उनका चरण-करण का सार उन्होंने नहीं पाया है / महोपाध्यायजी स्वयं कहते हैं "विना द्रव्य अनुयोगविचार, चरण-करणनो नहीं को सार" (द्रव्य-गुण-पर्यायनो रास 1-2) द्रव्यानुयोग की महिमा के गुण-गान में पू० उपाध्यायजी कितना भार देकर कहते हैं-देखिये, (-द्रव्यगुणपर्यायरास टबा में, ) ___"शुद्धाहार-४२ दोषरहित आहार, इत्यादिक योग छइ ते तनु कहेता-नान्हा कहिंइ / द्रव्यअनुयोग जे स्व समय पर समय परिज्ञान ते मोटो योग कहिओ।" "ए योगि-द्रव्यानुयोगविचाररूप ज्ञानयोगई जो रंग असंग सेवारूप लागई-समुदायमध्ये ज्ञानाभ्यास करतां कदाचित् आधाकर्मादि दोष लागइ, तोहि चरित्रभंग न होइ, भावशुद्धि बलवंत छइ, तेण इ. इम पञ्चकल्पभाष्य भणिउं।" "द्रव्यादिकनी चिंताई शुक्लध्याननो पणि पार पामिइ।" Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 "चरण करणानुयोगदृष्टिं निशीथ-कल्प व्यवहार-दृष्टिवादाध्ययनइं जघन्यमध्यमोत्कृष्ट गीतार्थ जाणवा / द्रव्यानुगोष्टि ते सम्मति आदि तर्कशास्त्रपारगामी ज गीतार्थ जाणवो, तेहनी निश्राइं ज अगीतार्थनई चारित्र कहिएँ / " इस वचन संदर्भ से यह फलित होता है कि दृष्टिवाद के अभाव में सम्मति आदि तर्कशास्त्रों के द्रव्यानुयोग के ज्ञाता हो ऐसे गुरु की निश्रा में रहने पर ही अगीतार्थ में चारित्र की सम्भावना रहती है अन्यथा नहीं / निशीथचूणि आदि ग्रन्थों में भी दर्शन प्रभावक * ग्रन्थरत्नों में श्री सम्मति तर्क प्रकरण आदि ग्रन्थों का निर्देश किया गया है इसलिये आज या कल, किसी भी काल में जैन मुनिवर्ग के लिये द्रव्यानुयोग और सम्मति प्रकरण आदि ग्रन्थ का अध्ययन कितना उपादेय है यह विस्तार से कहने की आवश्यकता नहीं रहती। उपर्युक्त अवतरणों को पढने से कोई भी विद्वान् यह समझ सकेंगे। ग्रन्थकार परिचय:- . ___ इस ग्रन्थ के मूलकार दिवाकरउपाधिविभूषित आचार्य श्री सिद्धसेनसूरीश्वरजी महाराज हैं / परम्परा से यह सिद्ध है कि वे संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य के प्रतिबोधक थे। आधुनिकवर्ग में भी माना जाता है कि ये विक्रम की चौथी शताब्दी के बाद तो नहीं ही हुए, कारण, वि. सं. 414 में बौद्धों का पराजय करने वाले ताकिक मल्लवादीसूरिजी ने सम्मतिग्रन्थ के ऊपर करीब 700 श्लोकपरिमित व्याख्या बनायी थी। अतः निश्चित है कि दिवाकरसूरिजी उनके पहले ही हुए हैं। तदुपराँत, प्राचीन ऐतिहासिक प्रबन्धग्रन्थों में भी विक्रमादित्य नृप के साथ उनका धनिष्ट सम्बन्ध : दिखाया जाता है इससे भी उनका समय वीर निर्वाण की पांचवी शताब्दी ठीक ही है। सम्मति प्रकरण के अतिरिक्त उन्होंने बत्रीश बत्रीशीयों का और न्यायावतार बत्रीशी का निर्माण किया है, जो जैन शासन का अमूल्य दार्शनिक साहित्यनिधि है, निश्चित है कि ये श्वेताम्बर परम्परा के ही आचार्य श्री वृद्धवादीसूरिजी के शिष्य थे। फिर भी कई दिगम्बर विद्वान उन्हें यापनीय परम्परावाले दिखा रहे हैं / दिगम्बर अनेक आचार्यों ने सम्मतिग्रन्थ आदि का पर्याप्त सहारा लिया है, श्वेताम्बर परम्परा का शायद इससे कुछ गौरव बढ जाय ऐसे भय से उमास्वाति महाराज या दिवाकरसरिजी को यापनीय परम्परा में शामिल कर देना यह शोभास्पद नहीं है / दिवाकरसूरि महाराज जिनशासन के उत्तम प्रभावकों में गिने जाते हैं। व्याख्याकार परिचयः इस ग्रन्थ के 'तत्त्वबोधविधायिनी' व्याख्या के रचयिता हैं तर्क पंचानन आचार्य श्री अभयदेवसूरिजी महाराज / नवांगी टीकाकार से ये सर्वथा भिन्न हैं और उनके पहले हो गये हैं। इस व्याख्या के रचयिता तर्क पंचानन श्री अभयदेवसूरिजी ये चन्द्रगच्छ के आचार्य श्री प्रद्युम्नसूरिजी महा दसणगाही-दसणणाणप्पभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-संमतिमादि गेण्हतो असंथरमाणे जं अकप्पियं पडिसेवति जयणाते तत्थ सो सुद्धो अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः ( नि० पहले उद्देशक की चूणि)। [यहाँ 'सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख देखकर दिगम्बर विद्वान यह समझते हैं कि अकलंककृत सिद्धिविनिश्चय निशीथचूणि से पूराना है-किन्तु यह भ्रमणा है। वास्तव में यहाँ अकलंक से भी पूर्ववर्ती शिवार्यकृत सिद्धिविनिश्चयग्रन्थ का निर्देश है-देखिये पू० मुनिराजश्री जंबूविजय म० संपादित-स्त्रीमुक्ति-केवलिमुक्ति प्रकरण पृ० 16 ] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज के पट्टालंकार शिष्य थे / उत्तराध्ययन सूत्र के पाइय वृत्ति के निर्माता वादिवेताल श्री शान्तिसूरिजी, जिन का स्वर्गवास वि०सं०१०९६ में होने का प्रसिद्ध है, वे अभयदेवसूरि महाराज का प्रमाणशास्त्र के गुरुरूप में सबहुमान उल्लेख करते हैं। इसलिये व्याख्याकार का समय वि० सं० 650 से 1050 की सीमा में माना गया है। प्रवचनसारोद्धार के वृत्तिकार श्री सिद्धसेनसूरिजी अपनी प्रशस्ति में, पार्श्वनाथ चरित्र के रचयिता श्री माणिक्यचन्द्रसूरिजी पार्श्वनाथ चरित्र की प्रशस्ति में और प्रभावक चरित्र की प्रशस्ति में वादमहार्णव (सम्मतिव्याख्या) के कर्ता के रूप में श्री अभयदेवसूरि महाराज का सबहुमान स्मरण किया गया है / सम्मतिप्रकरण की विस्तृत प्रौढ व्याख्या आप की अगाध प्रज्ञा का उन्मेष है। प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थयुगल के कर्ता दिगम्बर आचार्य श्री प्रभाचन्द्र का समय विद्वानों में वि० सं० 1000 से 1100 के बीच में माना जाता है क्योंकि वादीवेताल श्री शान्ति सूरिजी और न्यायावतारवातिक के कर्ता आ० श्री शान्तिसूरिजी ने उसका उल्लेख नहीं किया किन्तु स्याद्वादरत्नाकर के कर्ता श्री वादिदेवसूरिजी जो वि०सं० 1143 से 1222 के बीच हुए उन्होंने अपने ग्रन्थ में अनेक स्थलों में आ. प्रभाचन्द्र का नाम लेकर खंडन किया है, आचार्य प्रभाचन्द्र की उत्तरावधि का ठोस निर्णायक प्रमाण यही है। इससे व अन्य प्रमाणों से तक पंचानन श्री अभयदेवसूरिजी, दिगम्बर श्री प्रभाचन्द्र के पूर्वकाल में ही थे यह निश्चित होता है। इससे यह कल्पना निरस्त हो जाती है कि 'आचार्य अभयदेवसूरि महाराज ने प्रमेय कमलमार्तण्डादिग्रन्थ के सहारे अपनी व्याख्या का निर्माण किया था। प्रत्युत इसी कल्पना में औचित्य है कि प्रभाचन्द्र ने अपने ग्रन्थों के निर्माण में सम्मति व्याख्या का पर्याप्त उपयोग किया है। सम्मति व्याख्या और उस ग्रन्थयुगल में जो समान पदावली हैं उनको परीक्षकदृष्टि से देखने पर भी उक्त निश्चय हो सकता है, क्योंकि कहीं कहीं जो अनुमान प्रयोग अभयदेवसूरि महाराज प्राचीन ग्रन्थों के वाक्यसंदर्भो को लेकर विस्तार से करते हैं, वहाँ आ. प्रभाचन्द्र उतने विस्तार को अनावश्यक मान कर संक्षेप कर देते हैं। दूसरी बात यह है कि स्त्रीमुक्ति और केवलिमुक्ति की चर्चा अभयदेवसूरि महाराज संक्षेप से करते हैं जब कि आ. प्रभाचन्द्र बड़े विस्तार से करते हैं / यदि सम्मति व्याख्याकार के समक्ष ग्रन्थयुगल रहता तब तो इतनी बड़ी व्याख्या में वे प्रभाचन्द्र के युक्तिसंदर्भो की विस्तार से आलोचना करना छोड नहीं देते / ग्रन्थयुगल के सम्पादक ने यह भी एक कल्पना की है कि वादिदेवसूरि महाराज ने ग्रन्थयुगल से स्याद्वादरत्नाकर में बहुत उतारा किया है / वास्तव में यह भी निर्मूल कल्पना है, क्योंकि वादिदेवसूरि महाराज की रचना का आधार मुख्यवृत्ति से अनेकान्तजयपताका और सम्मति व्याख्या ही रहा रहा है अतः ग्रन्थयुगल के साथ जो अनेक स्थलों में समानता है वह सम्मतिव्याख्यामूलक है, किन्तु नहीं कि ग्रन्थयुगलमूलक / महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने अपने अनेक ग्रन्थों में सम्मतिवृत्तिकार के व्याख्याग्रन्थ में से उद्धरण दिये हैं। अन्य भी अनेक ग्रन्थकारों ने सम्मतिव्याख्या का अनेक स्थल में आधार लिया है। व्याख्याकार अभयदेवसूरि महाराज स्वयं पांच महाव्रत के धारक एवं सम्यक पालक थे। उनको श्वेताम्बर जैन गगन को आलोकित करने वाले उज्ज्वल चन्द्र कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलग्रन्थ का परिचय: दार्शनिक ग्रन्थरत्नों में सम्मतितर्कप्रकरण एवं उसकी आ० श्री अभयदेवसूरिकृत 'तत्त्वबोधविधायिनी' व्याख्या का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। मूलग्रन्थ का नाम 'सम्मतिप्रकरण' है फिर भी सम्मतितर्क' इस नाम से यह प्रकरण अधिक प्रसिद्ध है। कारण, यह ग्रन्थ तर्कप्रकरणरूप है इसलिये 'सम्मति-तर्क प्रकरण' इस तरह की प्राचीन काल में उसकी ख्याति रही होगी, कालान्तर में 'तर्क शब्द का 'सम्मति' शब्द के साथ प्रयोग होने लगा और 'प्रकरण' शब्द अध्याहार रहने लगा तब से 'सम्मतितर्क' यह उस का संक्षिप्तरूप विख्यात हो गया। अलबत्ता 'सन्मति = अर्थात् सम्यक्त्व शद्ध मति जिससे प्राप्त होती है वसे तक सन्मतितक, इस व्यूत्पत्ति से इस शास्त्र का एक नाम 'सन्मति' भी कहीं पढने में आता है किन्तु अधिकतर प्राचीन आचार्यों ने 'सम्मति' नाम का ही विशेष उल्लेख किया है, 'सन्मति' नाम का नहीं। 'संगता मतिः यस्मात्' इस व्युत्पत्ति के आधार पर भी 'सम्मति' नाम सान्वर्थ प्रतीत होता है / मुख्यतया यह ग्रन्थ जैन दर्शन के अनेकान्तवाद से सम्बद्ध है, किन्तु एकान्त के निरसनपूर्वक ही अनेकान्त की प्रतिष्ठा शक्य होने से यहाँ मूल ग्रन्थ में संक्षेप में / न्याय-वैशेषिक-बौद्ध दर्शनों की समीक्षा भी प्रस्तुत है / तदुपरांत, मूल ग्रन्थ में द्रव्यार्थिकादि नय, सप्तभंगी, तथा ज्ञानदर्शनाभेदवाद इत्यादि जैन दर्शन के अनेक विषयों की महत्त्वपूर्ण चर्चा की गयी है / व्याख्याग्रन्थ परिचयः तत्त्वबोधविधायिनी' व्याख्या करिब 25000 श्लोकाग्र परिमित है और यह दार्शनिक चर्चाओं का भंडार है। उस काल में प्रचलित कई दार्शनिक चर्चास्पद विषयों की इसमें समीक्षा की गई हैं / अनेकान्त दर्शन की सर्वोत्कृष्टता की स्थापना यही व्याख्याकार का लक्ष्य बिन्दु है और उसमें वे सफल रहे हैं। व्याख्या की शैली प्रौढ एवं गम्भीर है। प्रस्तुत प्रथम खंड में सिर्फ एक ही मूल कारिका की व्याख्या और उसके हिन्दी विवरण को शामिल किया है / प्रथम खंड के विषयों का विहंगावलोकन इस प्रकार है - मूल कारिका के 'सिद्ध सासणं' इस अंश की व्याख्या में ज्ञान के स्वतः प्रामाण्य-परतः प्रामाण्य की चर्चा में अनभ्यास दशा में परत: प्रामाण्य की प्रतिष्ठा की गयी है। वेद की अपौरुषेयता का निराकरण, वेद के प्रामाण्य का निराकरण, ज्ञातृव्यापार के प्रामाण्य का निराकरण भी यह प्रसंगतः किया गया है। प्रसंगतः अभाव प्रमाण का भी खण्डन किया गया है। 'जिनानाम्' इस कारिकापद की व्याख्या में विस्तार से वेद की अपौरुषेयता का तथा शब्द की नित्यता का प्रतिषेध किया गया है। तदुपरांत, सर्वज्ञ न मानने वाले नास्तिक एवं मी के मत की विस्तार से आलोचना करके सर्वसिद्धि की गयी है। सर्वज्ञसिद्धि प्रस्ताव में ही 'कुसमयविसासणं' पद की व्याख्या दर्शायी गयी है। भवजिणाणं' पद की व्याख्या में परलोक की प्रतिष्ठा कर के नास्तिक का निराकरण किया गया है और अनुमान के प्रामाण्य की स्थापना की गयी है। तदुपरांत, ईश्वरकर्तृत्व की विस्तार से आलोचना की गयी है। 'ठाणमणोवमसुहंउवगयाण' इस पद की व्याख्या में विस्तार से आत्मविभुत्ववाद का खण्डन किया है और मुक्ति में सुख न मानने वाले नैयायिकमत का निराकरण किया गया है। प्रसंगतः शब्द में गुणत्व का निराकरण और द्रव्यत्व की सिद्धि की गई है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 ___व्याख्याकार की शैली ऐसी है कि वे एक दर्शन के सहारे अन्य दर्शन का खंडन करते हैं। इसके सामने किसी ने प्रश्न किया ( द्र. पृ. 128) कि आप जैन होकर भी बौद्ध की युक्तियों से मीमांसक के स्वतःप्रामाण्यवाद का खंडन क्यों करते हो? इसके उत्तर में व्याख्याकार ने सम्मति ( ३/७०-पृष्ठ 128 ) की ही गाथा तथा ग्रन्थकारकृत बत्रीशी की गाथा का उद्धरण दे कर यह रोचक समाधान किया है कि जैन दर्शन समुद्र जैसा है और वह अनेक जैनेतरदर्शन की सरिताओं का मिलन स्थान है, सभी दर्शन परस्पर सापेक्षभाव से मिलने पर सम्यग् दर्शन बन जाते हैं और परस्पर निरपेक्ष रहते हैं तभी मिथ्या दर्शन हो जाते हैं। अतः सर्वत्र बौद्धादिदर्शन के अवलम्ब से अन्य अन्य दर्शनों का खंडन करने में हमारा यही दिखाने का अभिप्राय है कि स्वतंत्र एक एक दर्शन मिथ्या है और परस्पर सापेक्ष सभी दर्शनों का समूह समीचीन दर्शन है और वही जैन दर्शन है, इसलिये कोई दोष नहीं है / आचार्य श्री का यह उत्तर जैन-जैनेतर सभी के लिये दिशा सूचक है। मुमुक्षु जिज्ञासु अधिकृत विद्वद्वर्ग इस ग्रन्थरत्न का अध्ययन करके आत्मश्रेय सिद्ध करे यही शुभेच्छा / हिन्दी विवरण में कहीं भी श्री जिनागम-सिद्धान्त के विरुद्ध अथवा मूलकार या व्याख्याकार महर्षि के आशय से विपरीत कुछ भी लिखा गया हो तो उसके लिये मिच्छामि दुक्कडम् / वि० सं० 2040 अषाढ वदि 1, शनिवार मुनि जयसुन्दर विजय जैन उपाश्रय-पुना XXXXXXXXXXXXX Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx अनन्तोपकारी सुविशुद्धब्रह्ममूर्ति कृपाभंडार सुविशालगच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज के पुनिन चरणों में कोटि कोटि वन्दना / XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX** Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी विवेचन सहित सम्मतिप्रकरणव्याख्या का * विषयानुक्रम * पृष्ठांक: विषयः पृष्ठांक विषयः 1 पुरोवचन व्याख्या मंगलाचरण 15 परतः पक्ष में ज्ञान-प्रामाण्य में भेदापत्ति 2 टीका के प्रारम्भ में आद्य मूल कारिका का 15 स्वस्वरूपनियतत्व और अन्यभावानपेक्षत्व अवतरण के बीच व्याप्तिसिद्धि 3 जिन प्रवचन की स्तुति के 3 हेतु 16 शक्तिरूप होने से प्रामाण्य स्वतः ही है 4 सम्मतिप्रकरण-आद्यगाथा , शक्ति का प्राविर्भाव कारणों से नहीं होता प्रामाण्यवादः (1) 17 विज्ञानकारण से प्रामाण्योत्पत्ति होने से 4 प्रामाण्यं स्वतः परतो वेति वादारम्भः परतः कहना स्वीकार्य मीमांसक का स्वतःप्रामाण्यपक्ष 17 प्रेरणाबुद्धि और अनुमान का स्वतः प्रामाण्य . 5 स्वतःप्रामाण्य का प्राशय (टीप्पण) 18 स्वकार्य परतः प्रामाण्यवाद प्रतिक्षेपः-- 6 परत: प्रामाण्यवादीका अभिप्राय . पूर्वपक्षः (2) 8 परतः उत्पत्तिवादप्रतिक्षेपारम्भः 18 स्वकार्य में प्रामाण्य को परापेक्षा नहीं है- पूर्वपक्षः (1) पूर्वपक्ष चालु ,, प्रामाण्य उत्पत्ति में परतः नहीं है 18 संवादी ज्ञान की अपेक्षा में चक्रकदोष पूर्वपक्ष (1) 16 कारणगुण अपेक्षा के दूसरे विकल्प को , प्रत्यक्ष से व्याप्तिग्रहण का असंभव मीमांसा 9 अनुमान से हैतु में गुणों की व्याप्ति के ग्रहण 20 कारणगुणज्ञान की अपेक्षा का कथन व्यर्थ का असंभव 20 परतः प्रामाण्यपक्ष में हेतु की असिद्धि 10 उसी अनुमान से व्याप्तिग्रहण में अन्यो- 21 स्वतः प्रामाण्यज्ञप्तिसाधनम् पूर्वपक्षः (3) न्याश्रय 21 प्रामाण्य ज्ञप्ति में भी परतः नहीं-पूर्वपक्ष 10 अन्य अनुमान से व्याप्तिग्रहण में अनवस्था 21 ज्ञान में यथावस्थितार्थपरिच्छेदरूपता की 10 व्याप्तिग्राहक अनुमान से सम्भवित तीन हेतु असिद्धि में चार विकल्प 11 कार्यहेतुक अनुमान से सम्बन्ध सिद्धि का अभाव 22 दूसरे-तीसरे-चौथे विकल्पों की समीक्षा 12 यथार्थोपलब्धि कार्य से गुणों की सिद्धि शक्य | 23 संवाद की अपेक्षा प्रामाण्यनिश्चय में अनेक ., दोषसिद्धि की समानयुक्ति से गुणसिद्धि विकल्प की अनुपपत्ति ___ का असंभव | 23 एकार्थविषयपक्ष में संवाद्य-संवादक भाव / 13 यथार्थत्व से गुणसामग्री की कल्पना में | 24 कारणशुद्धिपरिज्ञान यह उत्तरज्ञान की प्रतिबन्दी विशेषता नहीं है। 14 अर्थ तथा भावप्रकाशनरूप प्रामाण्य से रहित / 25 भिन्नविषयक ज्ञान से प्रामाण्य का अनिश्चय ज्ञानस्वरूप नहीं होता | 25 भिन्नजातीयसंवादी उत्तरज्ञान के अनेक विकल्प Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक विषयः | पृष्ठांकः . विषयः 26 अर्थक्रियाज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय कैसे | 41 शक्ति का प्राश्रय के साथ धर्म-धर्मिभाव होगा? दुर्गम है 27 अर्थ के विना भी प्रथंक्रियाज्ञान का संभव 41 शक्ति आश्रय से भिन्नाभिन्न या अनुभय 27 अर्थक्रियाज्ञान फलप्राप्तिरूप होने का कथन नहीं है प्रसार है 42 उत्तरकालीन संवादीज्ञान से अनुत्पत्ति में 28 फलज्ञान में प्रामाण्यशंका सावकाश सिद्धसाधन 26 भिन्नजातीय संवादीज्ञान के ऊपर अनेक 43 अप्रामाण्य को प्रोत्सगिक कहने की आपत्ति विकल्प 44 दोषाभाव में पर्युदास प्रतिषेध कहने में 30 अर्थक्रियाज्ञान के ऊपर समानाऽसमान परतः प्रामाण्यापत्ति कालता के विकल्प 45 आत्मलाभ के बाद स्वकार्य में स्वतःप्रवृत्ति 31 स्वतः प्रामाण्यसाधक अनुमान के हेतु में अनुपपन्न व्याप्ति की सिद्धि 45 ज्ञान की स्वातन्त्र्येण प्रवृत्ति किस कार्य में ? 32 परतः प्रामाण्यसाधक अनुमान में व्याप्ति 46 अपौरुषेयविधिवाक्यजन्य बुद्धि प्रमाण कैसे और हेतु की असिद्धि मानी जाय? 32 प्रमाणज्ञान और अप्रमाणज्ञान का तुल्यरूप 47 वेदवचन अपौरुषेय क्यों और कैसे ? ___ नहीं है। 48 अपौरुषेय वचन न प्रमाण न अप्रमाण 33 संवादज्ञान केवल अप्रामाण्यशंका का निरा 48 वेदवचन में गणदोष उभय का तुल्य अभाव करण करता है 46 अपौरुषेय वाक्य का प्रामाण्य अर्थाभिव्यंजक 34 ज्ञान में प्रामाण्यशंका करते रहने में अनिष्ट पुरुष पर अवलंबित 35 प्रेरणाजनित बुद्धि का स्वत:प्रामाण्य 50 प्रामाण्यं स्वकार्येऽपि न स्वतः-उत्तरपक्षः (2) 35 शासन स्वतः सिद्ध होने से जिनस्थापित नहीं 50 स्वकार्य में प्रामाग्य के स्वतोभाव का निराहो सकता-पूर्वपक्ष समाप्त करण उत्तरपक्ष 36 उत्पत्तौ परतः प्रामाण्यस्थापने उत्तरपक्षः (1)| 51 अर्थतथात्व का परिच्छेदक ज्ञानस्वरूपविशेष 36 प्रामाण्य परतः उत्पन्न होता है-उत्तरपक्ष के ऊपर चार विकल्प . प्रारम्भ 51 ज्ञान का स्वरूपविशेष अपूर्वार्थविज्ञानत्व 37 गुणवान नेत्रादि के साथ प्रामाण्य का अन्वय नहीं है व्यतिरेक 51 ज्ञान का स्वरूपविशेष बाधविरह भी नहीं है 37 गुणापलाप करने पर दोषापलाप को आपत्ति 52 ज्ञायमान बाधविरह को सत्य कैसे माना 38 लोकव्यवहार में सम्यग्ज्ञान को गुणप्रयुक्त जाय? माना जाता है 53 संवाद से उत्तरकालीन बाधाविरह ज्ञान की 39 प्रामाण्यरूप पक्ष में अनपेक्षत्व हेतु की सत्यता कैसे? प्रसिद्धि 53 उत्तरकालभावि बाधाविरहरूप विशेष की 40 अप्रामाण्यात्मक शक्ति में भी स्वतोभाव अपेक्षा में स्वतोभाव का अस्त आपत्ति से बाधाभावात्मक संवाद अपेक्षा : 40 शक्तियां स्वतः उत्पन्न नहीं हो सकती की सिद्धि Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक: विषयः पृष्ठांकः विषयः 54 बाध किस का? स्वरूप, प्रमेय या अर्थ- 77 प्रत्यक्ष से अनुमाननिरपेक्ष प्रवृत्तिव्यवहार क्रिया का? 78 अनुमान से स्वत: प्रवृत्तिव्यवहार की सिद्धि 55 प्रमेय का बाध-दूसरा विकल्प प्रयुक्त। 76 पूर्वपक्षव्याप्ति में हेतु की असिद्धि 55 अर्थनिया का बाध-तीसरा विकल्प अयुक्त 76 परतः प्रामाण्यसाधक अनुमान में हेतु असिद्ध 56 अदुष्टकारणजन्यत्व स्वरूपविशेष नहीं हो नहीं है सकता 80 सम्यग्ज्ञान के बाद बाधाभावरूप विशेष 57 पर्युदासन से अदुष्ट कारण गुण हो जायेंगे किस प्रकार होगा? 58 संवादित्व को स्वरूपविशेष कहने में परतः 80 बाधकामावनिश्चय पूर्वकाल में या उत्तरप्रामाण्यापत्ति काल में? 58 संवादित्व को स्वरूपविशेष कहने में परतः 81 बाधकानुपलब्धि का असम्भव प्रामाण्यापत्ति 82 बाधकानुपलब्धि के ऊपर नया विकल्प युगल 59 प्रामाण्यनिश्चयो न स्वत:-उत्तरपक्षः (3) | 82 बाधकाभावनिश्चय संवाद से अशक्य 59 संवाद की अपेक्षा दिखाने में चक्रक आदि / 83 तीन-चार ज्ञान की अपेक्षा करने में परापेक्षा दोष नहीं है का स्वीकार 59 प्रामाण्य का निश्चय स्वतः नहीं होता-उत्तरपक्ष 83 कारणदोषज्ञान की अपेक्षा में अनवस्था 60 मानसप्रत्यक्ष से प्रामाण्यग्रह अशक्य 84 दोष का जान होने का नियम नहीं है 61 अनुमान से भी प्रामाण्यग्रह का निश्चय अशक्य | 84 विस्तृत मीमांसकोक्ति का निराकरण 61 संवेदनरूप लिग से भी प्रामाण्य निश्चय अशक्य 86 प्रेरणाबुद्धिर्न प्रमाणम् .. 63 संवेदन मात्र यथार्थ होता है-इस पक्ष का | 86 प्रेरणाजनित ज्ञान दोषप्रयुक्त होने से अप्रमाण खंडन 87 वक्ता न होने से दोषाभाव होने की शंका 64 एक बार गुणों का निर्णय सर्वदा उपयोगी 87 वेद में अपौरुष्णेयत्व सिद्ध नहीं है-उत्तर नहीं होता 88 ज्ञातृव्यापारो न प्रमाणसिद्धः 66 संवाद का प्रामाण्यबोध स्वतः मानने में 88 ज्ञातृव्यापार प्रमाणसिद्ध नहीं है कोई दोष नहीं है 89 अनुमान से ज्ञातृव्यापार का ग्रहण अशक्य 67 अर्थ क्रिया के ऊपर शंका-कुशंका अनुपयोगी | 90 तादात्म्य से गम्य-गमकभाव नहीं बन सकता 68 साधनज्ञानपूर्वक अर्थक्रियाज्ञान में शंका का | 60 तदुत्पत्तिसम्बन्ध से गमकभाव नहीं बन सकता प्रभाव 61 विपक्षबाधक तर्क उभयत्र समान है 66 अर्थ के विना अर्थक्रियाज्ञान अशक्य 91 वक्तृत्व को अनियत मानने पर नियम की 71 अर्थक्रिया से साधनज्ञान का प्रामाण्यनिश्चय सिद्धि 73 परतःप्रामाण्य में अनवस्थादोष निरसन 92 ज्ञातृव्यापार का नियमसम्बन्ध कैसे प्रतीत 74 भिन्नविषयक संवाद से भी प्रामाण्यनिश्चय होगा? 76 अभ्यासदशा में प्रामाण्यानुमान के बाद 93 अनुमान से अन्वयनिश्चय अशक्य प्रवृत्ति-एक मत 64 व्यतिरेक निश्चय से ज्ञातृव्यापार के नियम 77 अभ्यासदशा में अनुमान विना भी प्रवृत्ति .का अनिश्चय दूसरा मत | 64 अनुपलम्भरूप अदर्शन के अनेक विकल्प Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांकः विषयः | पृष्ठांकः विषयः 65 दृश्यानुपलम्भ के विविध विकल्प 112 ज्ञातृव्यापार धर्मरूप है या मिरूप ? 66 कारणानुपलम्भ से ज्ञातृव्यापार का अभाव- 112 व्यापार की उत्पत्ति में अन्य व्यापार की निश्चय अशक्य ___अपेक्षा है या नहीं? 96 विरुधोपलब्धि से ज्ञातृव्यापाराभाव का 113 व्यापार को अन्य व्यापार की अपेक्षा है या अनिश्चिय नहीं? 67 अर्थप्राकट्यरूप के अभाव साधन का अनिश्चय | 114 वस्तुस्वरूप के अनिश्चय की आपत्ति अशक्य 97 कारणानुपलम्भ और व्यापकानुपलम्भ से | 114 व्यापार अर्थापत्तिगम्य होने का कथन प्रयुक्त 115 एकज्ञातव्यापार और सर्वज्ञातव्यापार अर्था६८ सत्त्व हेतु से क्षणिकत्व के साधन का असंभव पत्तिगम्य कैसे? 99 साधनाभाव का निश्चय विरुद्धोपलब्धि से / 115 अर्थप्रकाशता की अनुपपत्ति से ज्ञातव्यापार अशक्य की सिद्धि असंभव 99 अभावप्रमाण से व्यतिरेक का निश्चय दुःशक्य | 116 अर्थप्रकाशता धर्म निश्चित है या अनिश्चित ? 100 अन्यवस्तुज्ञान से व्यतिरेक निश्चय का असंभव | 116 अर्थापत्ति-अनुमान में अभेद की आपत्ति 101 साधनान्य स्वाऽभाव के ज्ञान से साधनाभाव 117 साध्यमि में अन्यथानुपपत्ति का निश्चय का निश्चय अशक्य किस प्रमाण से? 103 अज्ञात प्रमाणपञ्चकनिवृत्ति से अभावज्ञान 117 अर्थापत्तिस्थापक अर्थ और लिंग में तात्त्विक अशक्य भेद का प्रभाव 104 प्रासङ्गिकमभावप्रमाणनिराकरणम् / | 118 अर्थसंवेदनरूप लिंग से ज्ञातव्यापार की 104 मीमांसकमान्य अभाव प्रमाण मिथ्या है सिद्धि विकल्पग्रस्त 105 प्रतियोगिस्मरण से प्रभाव प्रमाण की 116 अर्थाप्रतिभासस्वभाव संवेदन संभव नहीं व्यवस्था दुर्घट 120 व्यापार और कारकसंबंध का पौर्वापर्य कैसे ? 105 अभावप्रमाणपक्ष में चक्रकावतार 120 शून्यवादादि भय से स्मतिप्रमोषाभ्युपगम 106 अभावप्रमाण से प्रतियोगिनिवृत्ति की असिद्धि 121 ज्ञानमिथ्यात्वपक्ष में परतः प्रामाण्यापत्ति 106 अभाव गृहीत होने पर प्रतियोगो का निषेध 122 रजत का संवेदन प्रत्यक्षरूप या स्मृतिरूप ? 123 शुक्ति प्रतिभासमान होने पर स्मृतिप्रमोष 107 स्वयं अनिश्चित अभावप्रमाण निरुपयोगी "दुर्घट है। 107 अभावप्रमाण के निश्चय में अनवस्थादि 123 सीप का प्रतिभास और रजत का स्मति.१०८ नियमरूप संबन्ध का अन्य कोई निश्चायक प्रमोष अयुक्त है नहीं 109 व्यापार सिद्धि के लिये नविन कल्पनाएँ 124 स्मृति को अनुभवरूप में प्रतीति में विप१०६ अजन्य भावरूप व्यापार नित्य है या अनित्य रीतख्याति प्रसंग 124 व्यापारवादी को स्वदर्शनव्याघातप्रसक्ति 110 व्यापार कालान्तरस्थायि नहीं हो सकता 110 क्षणिक अजन्य व्यापार पक्ष भी अयुक्त है 125 स्मृतिप्रमोष के स्वीकार में भी परतः प्रामाण्य का भय 111 जन्य व्यापार क्रियारूप या प्रक्रियारूप? 111 अक्रियात्मक व्यापार ज्ञानरूप है या अज्ञान 125 स्मृतिप्रमोषस्वीकार में शून्यवाद भय स्मृतिप्रमोष के ऊपर विकल्पत्रयी कैसे? रूप? Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांकः विषयः पृष्ठांकः विषयः 127 अर्थसंवेदन से ज्ञातव्यापारात्मक प्रमाण की / 141 सादृश्य से शब्द में एकत्वनिश्चय से अर्थअसिद्धि-प्रामाण्यवाद समाप्त बोध का असंभव 128 वेदापौरुषेयतावादप्रारम्भः 142 सादृश्य से होने वाले शब्दबोध में भ्रान्तता प्रापत्ति 128 'जिनानां पदप्रयोग की सार्थकता 143 गकारादि में वाचकता की अनुपपत्ति१२८ बौद्धमतावलम्बन से स्वतःप्रामाण्य के प्रती पूर्व-पक्ष समाप्त कार में अभिप्राय 144 शब्दाऽनित्यत्वस्थापन-उत्तरपक्षः 129 दोषाभावापादक अपौरुषेयत्व ही असिद्ध 144 शब्द अनित्य होने पर भी अर्थबोध की 130 पुरुषाभावग्राहक अभावप्रमाण के संभवित उपपत्ति विकल्पों का निराकरण 144 जातिविशिष्ट में ही व्याप्य व्यापकभाव संगति 130 पौरुषेयत्वाभाव विषयक ज्ञान अभावप्रमाण 146 शब्द में जाति का संभव ही न होने की शंका रूप नहीं घट सकता 146 वर्णान्तरानुसंधान की उपपत्ति 131 प्रमाणपंचकाभाव के संभवित विकल्पों का 147 अनुगताकारप्रतीति के निमित्त का प्रदर्शन निराकरण 148 गकारादिशब्द में सामान्य का समर्थन .. 132 प्रमाणपंचकारहित आत्मा से पुरुषाभाव 146 वर्णादिसंस्कारस्वरूप अभिव्यक्ति को प्रक्रिया का ज्ञान अतिव्याप्त है 146 वर्णसंस्कारपक्ष में शब्द-अनित्यत्व प्राप्ति . 133 घटाभावबोध और पुरुषाभावबोध में न्याय 150 व्यंजक वायु से वर्णस्वरूप का आविर्भाव / समान नहीं है 151 अभिव्यक्ति पक्ष में खण्डित शब्द प्रतीति 133 वादि-प्रतिवादीके या किसी के भी प्रभाव आपत्ति ज्ञानाभाव से प्रमेयाभावाभवसिद्धि अशक्य 151 उत्पत्ति-अभिव्यक्ति पक्ष में समानता का 134 अनादि वेदसत्त्व प्रभावज्ञान प्रयोजक नहीं है उद्धावन-शंका 135 अपौरुषेयत्व में पर्यु दास प्रतिषेध नहीं। 152 वर्ण में सावयवत्व और अनेकत्व की आपत्ति१३६ वेद का अनादिसत्त्व अनुमान से प्रसिद्ध उत्तर 136 कालत्व हेतु की अप्रयोजकता | 153 सकल वर्णों का एक साथ श्रवण होने की 137 अन्यथा भूतकाल का असम्भव सिद्ध नहीं आपत्ति 138 अपौरुषेयत्वसाधक कोई शब्द प्रमाण नहीं | 153 शब्द में श्रव्यस्वभाव का मर्दन और आधान 138 उपमान से अपौरुषेयत्व की प्रसिद्धि मानने में परिणामवाद की प्राप्ति 139 अर्थापत्ति से अपौरुषेयत्व की असिद्धि 154 श्रोत्रसंस्कारस्वरूप अभिव्यक्ति पक्ष की 136 पुरुषाभावनिश्चय में कोई प्रमाण नहीं है समीक्षा 140 अतीन्द्रियार्थप्रतिपादन अपौरुषेयत्वसाधक | 154 श्रोत्रसंस्कारवादी का विस्तृत अभिप्राय नहीं है-वेदापौरुषेयवाद समाप्त 154 एक साथ सकलवर्णश्रवणापत्ति का प्रतिकार 155 व्यंजक का स्वभाव विचित्र होता है 140 शब्दनित्यत्वसिद्धिपूर्वपक्षः 155 इन्द्रियसंस्काराधायक व्यंजकों में वैचित्र्य 141 अनित्यपक्ष में शब्द के परार्थोच्चारण का नहीं है-उत्तर पक्ष असंभव / 156 उभयसंस्कारस्वरूप अभिव्यक्ति की अनुपपत्ति Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्धव्यभिचारी है पृष्ठांक विषयः | पृष्ठांकः विषयः 156 शब्दएकत्वप्रत्यभिज्ञा में बाधाभाव की आशंका 172 अबाधितत्व अनुमान के प्रामाण्य का मूल 157 गकारादिवर्ण में भेदप्रतीति निर्बाध है नहीं है उत्तरपक्ष 174 कर्ता का प्रस्मरण अनुमानप्रमाणरूप नहीं 158 गकारादि में भेदप्रतिभास उपचरित नहीं हो सकता 156 व्यंजकध्वनियों के धर्मों का शब्द में उपचार | 174 वेद में कर्तृ सामान्य का स्मरण निर्बाध है होने की शंका | 175 वेदकर्तृ स्मरण मिथ्या होने पर कर्तृ-अस्म१५६ अमूर्त का मूर्त में प्रतिबिम्ब सम्भव नहीं रण भी मिथ्या होगा . 159 महत्त्वादिधर्मभेदप्रतिभास यथार्थ होने से | 175 कतृस्मरण की छिन्नमूलता का कथन असत्य गादिभेद सिद्धि | 176 अभावविशिष्ट कर्तृ-अस्मण हेतु निर्दोष नहीं 160 परार्थोच्चारण से शब्दनित्यत्व कल्पना 177 कर्तृ स्मरणयोग्यत्वविशिष्ट हेतु होने की असंगत ___आशंका 161 सदृशत्वेन गादि का ग्रहण असंगत नहीं / 178 स्मरणयोग्यघटित हेतु अन्य आगम में संदि१६१ शब्दपौद्गलिकत्व के विरुद्ध अनेक आपत्ति मीमांसक 176 कर्ता के स्मरणपूर्वक ही प्रवृत्ति होने का 162 मीमांसक मतं में भी उन समस्त दोषों का ___नियम नहीं है प्रवेश तदवस्थ-उत्तरपक्ष 179 शासन में अपौरुषेयत्व का असंभव होने से 163 सादृश्य से अर्थबोधपक्ष में दी गयी प्रापत्तियों . जिनकर्तकता-सिद्धि का प्रतिकार 163 अपौरुषेयवादी वर्णादि चार में से किसको 180 सर्वज्ञवादप्रारम्भः नित्य मानेगा? | 180 सर्वज्ञ की सत्ता में नास्तिकों का विवाद१६४ पुरुषस्वातंत्र्य निषेधमात्र में अभिप्राय होने की शंका | 181 अनुपलब्धि हेतु की असिद्धि का निराकरण 165 वर्ण नित्य-अपौरुणेय होने पर लोकायत- 182 सर्वज्ञ का उपलम्भ अनुमान से अशक्य शास्त्रप्रामाण्य आपत्ति 102 धर्मीसम्बन्ध का ज्ञान प्रत्यक्ष-अनुमान से 165 वैदिक और लौकिक शब्दों में अन्तर नहीं है .. अशक्य 166 अनुमान से वेद में पौरुषेयत्वसिद्धि 183 सर्वज्ञसिद्धि में असिद्ध-विरुद्ध-अनैकान्तिक 166 अप्रामाण्याभावरूप विशेषता अकिचित्कर दोषत्रयो 167 अनैकान्तिक दोष उत्तरपक्षी के हेतु में 184 सर्वपदार्थ में ज्ञानप्रत्यक्षत्वंसाध्यक अनुमान 168 उत्तरपक्षी के हेतु में विरुद्धादिदोषाभाव नहीं का निराकरण 168 हेतु में प्रकरणसमत्व का आपादान पूर्वपक्ष 184 प्रमेयत्व हेतु का तीन विकल्प से विघटन 166 वेदाध्ययनवाच्यत्व हेतु की समीक्षा उत्तरपक्ष | 185 शब्दप्रमाण से सर्वज्ञ को सिद्धि अशक्य 170 तथाभूतपुरुष से अन्य सर्वज्ञादि कोई पुरुष / 186 उपमानाधिप्रमाण से सर्वज्ञ सिद्धि अशक्य .. असम्भाव्य नहीं है / 187 सर्वज्ञाभावसूचक प्रमाण क्या है ? 171 अपौरुणेयत्व की सिद्धि दुष्कर-दुष्कर 1 88 निवर्तमान प्रत्यक्ष सर्वज्ञाभावसाधक नहीं 172 अपौरुणेयत्व में अभावप्रमाण का असंभव / 189 सर्वज्ञाभाव अनुमानगम्य नहीं है - पूर्वपक्ष Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांकः विषयः पृष्ठांकः विषयः 160 विपक्षीभूत सर्वज्ञ से वक्तृत्व हेतु को निवृत्ति / 206 असर्वज्ञता-वक्तृत्व के कार्य-कारणभाव की असिद्ध असिद्धि प्रन्यत्र तुल्य 161 स्वकीय अनुपलम्म से विपक्षव्यावृत्तिनिश्चय 207 धूम में अग्निव्यभिचार न होने को शंका प्रशक्य का उत्तर 161 सर्वज्ञामाव साधक हेतु में आश्रयसिद्धि दोष 208 असर्वज्ञ और भाषाव्यवहार के प्रतिबन्ध 192 सर्वज्ञ वेदवचन से प्रसिद्ध है की सिद्धि 192 उपमानप्रमाण से सर्वज्ञाभाव की सिद्धि दुष्कर | 208 प्रसिद्ध धूमहेतुक अनुमान के अभाव की 193 अनुमान में अन्तर्भूत अर्थापत्ति स्वतन्त्र प्रापत्ति प्रमाण ही नहीं है | 209 प्रसंगसाधन से सर्वज्ञाभाव सिद्धि का समर्थन 194 विपक्षबाधकप्रमाण से अन्यथानुपपत्ति का 206 धर्मादिग्राहकतया अभिमत प्रत्यक्ष के ऊपर बोध चार विकल्प 165 लिंग और 'साध्य के विना अनुपपन्न अर्थ' 210 सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष प्रभ्यासजनित नहीं है दोनों में विशेषाभाव 211 चक्षु आदि से अतीन्द्रिय अर्थदर्शन का असंभव 165 दृष्टान्तधर्मी और साध्यधर्मों के भेद से 211 सर्वज्ञ का ज्ञान शब्दजन्य नहीं है भेद प्रसिद्ध | 212 अनुमान से सर्वज्ञता प्राप्ति का असंभव 196 हेतु भेद से अनुमानप्रमाणभेद की आपत्ति | 212 सर्वज्ञज्ञान में विपर्यास की आपत्ति 167 अभावप्रमाण से सर्वज्ञ का प्रतिरोध अशक्य 213 रागादि ज्ञानावारक नहीं है। 197 अन्यविज्ञानस्वरूप प्रभावप्रमाण का असंभव 213 सर्वज्ञज्ञान की तीन विकल्पों से अनुपपत्ति 198 सर्वज्ञत्वाभावरूप अन्यज्ञान से सर्वज्ञाभाव 214 एक साथ सर्वपदार्थग्रहण की सदोषता .. की सिद्धि अशक्य | 214 सकलपदार्थसंवेदन की शक्तिमत्ता असंगत 198 सर्वज्ञवादी कथन की अयुक्तता का हेतु- 215 मुख्य उपयोगी सर्वपदार्थ ज्ञान का असंभव नास्तिक 215 समाधिमग्न सर्वज्ञ का वचनप्रयोग असंभव 199 सर्वज्ञवादी की ओर से अनिमित्तत्व का 216 स्वरूपमात्र के प्रत्यक्ष से सर्वज्ञता का असंभव प्रतिक्षेप 217 अतीतत्व और अनागतत्व को अनुपपत्ति 200 नास्तिक द्वारा सर्वज्ञवादिकथित दूषणों का | 218 स्वरूपतः पदार्थों का अतीतत्वादि मानने में प्रतिकार . आपत्ति 201 सर्वज्ञाभावप्रतिपादक प्रसंग-विपर्यय 218 'यह सर्वज्ञ है' ऐसा कैसे जाना जाय ? 202 श्लोकवात्तिककार के अभिप्राय का समर्थन 219 सर्वज्ञ 'असद' रूप से व्यवहारयोग्यसर्वज्ञ२०३ धूम से अग्नि के अनुमान में समान दोषा विरोधी पूर्वपक्ष समाप्त रोपण 203 धूम में विपक्ष व्यावृत्ति के संदेह का समर्थन 220 सर्वज्ञसद्भावावेदनम्-उत्तरपक्षः। 204 प्रात्मीय अनुपलम्भ से धूम को विपक्षव्या- 220 सर्वज्ञसत्तासिद्धि निर्बाध है-उत्तरपक्ष प्रारंभ वृत्ति प्रसिद्ध 220 प्रसिद्ध अनुमान में व्याप्तिग्रह अशक्यता का 205 वक्तृत्व में वचनेच्छाहेतुकत्व की आशंका समान दोष ___ अनुचित | 221 एक ज्ञान का प्रतिभासद्वय में अन्वंय प्रसिद्ध Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 पृष्ठांकः विषयः | पृष्ठांकः विषयः 222 सविकल्पज्ञान से कार्यकारणभाव का अवगम | 238 वचन की संवादिता ज्ञानविशेष का कार्य प्रशक्य असिद्ध 223 कार्यकारणभावग्रह में प्रत्यक्षान्यनिमित्त की 238 संवादिज्ञान के विरह में संवादिवचन का आवश्यकता असंभव 223 कारणता पूर्वक्षणवृत्तितारूप नहीं किन्तु 236 अनुगत एक सामान्य के अस्वीकार में आपत्ति शक्तिरूप है शंका-समाधान 224 अनुमान में कार्यकारणभावग्रह की अशक्ति 240 तिर्यक्सामान्यवादी को विशिष्टधूमसामान्य 224 प्रसिद्धानुमानवत् सर्वज्ञानुमान में भी व्याप्ति के अबोध की आपत्ति ग्रह का संभव 241 ज्ञानविशेष-वचनविशेष के कारणकार्यभाव 225 पक्षधर्मताविरहदोष का निराकरण ग्रहण में शंका 226 असिद्धि आदि तीने दोष का निराकरण | 242 क्षयोपशमविशेष से कारण-कार्यभावग्रहण 226 प्रमेयत्वहेतुक अनुमान में साध्यविकल्प | 242 कार्यकारणभाव दोनों से अतिरिक्त नहीं अयुक्त है | 243 क्षयोपशमविशेष से कार्यकारणभाव का ग्रहण 227 प्रमेयत्वहेतुवत् धूमहेतु में भी समान विकल्प | 244 प्रत्यक्ष ही व्याप्तिसंबंध का प्रकाशक है 228 धमसामान्य की कल्पना में चक्क दूषण 245 नेत्रजन्यत्वादि चार विकल्प का निराकरण 226 प्रसंगसाधन में प्रतिपादित युक्तियों का 245 सर्ववस्तुविषयक उपदेशज्ञान का संभव 246 चक्षुजन्यज्ञान में प्रतीन्द्रियविषयता का समर्थन 226 प्रत्यक्षत्व और सत्संप्रयोगजत्व की व्याप्ति 246 अस्पष्ट ज्ञान से सर्वज्ञता नहीं मानी जाती असिद्ध | 247 भावनाबल से ज्ञानवैशद्य का समर्थन 230 किचिज्ज्ञता और वक्तृत्व की व्याप्ति प्रसिद्ध 248 भित्ति आदि के आवारकत्व की भंगापत्ति 231 धर्मादि के अप्रत्यक्ष में तीन विकल्प 248 सर्वज्ञज्ञान में अस्पष्टत्वापत्ति का निरसन 232 तीनों विकल्प की अयुक्तता 246 रागादि के निर्मूल क्षय की प्राशंका का उत्तर 233 नेत्र से अतीन्द्रियार्थदर्शन की सोदाहरण | 250 रागादि नित्य और प्राकस्मिक नहीं है उपपत्ति 250 रागादि के प्रतिपक्षी उपाय का ज्ञान असंभवित 233 विषयमर्यादाभंग को आपत्ति का प्रतिकार | 251 लंघनवत् सीमित ज्ञान शक्ति की प्राशंका 234 धूमहेतुक अनुमान उच्छेद प्रतिबन्दी का का उत्तर प्रतिकार 251 प्रतिशयित लंघन क्रिया में अभ्यास कैसे 235 प्रत्यक्षानुपलम्भ से धूम में अग्निजन्यत्वसिद्धि / उपयोगी? - 235 गधे में कुम्भकारनिरूपित कार्यता आपत्ति 252 जलतापवत् सीमितज्ञान की शंका का उत्तर का निराकरण 253 कफधातु के उदाहरण से नियमभंग शंका 236 धूम में अनग्निजन्यता का तीन विकल्प से का उत्तर प्रतिकार | 253 मिथ्याज्ञान के क्षयानंतर पुनरुद्गम का 236 धूम में अदृश्यहेतुकत्व का निराकरण असंभव 237 धम में अग्निजन्यत्व का समर्थन 254 सर्वज्ञज्ञान में प्रत्यक्षत्व कैसे ? उत्तर 237 असर्वज्ञता के साथ वक्तृत्व का सम्बन्ध 255 व्युत्पत्तिनिमित्त को सर्वज्ञ प्रत्यक्ष में उपपत्ति परिहार Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांकः विषयः | पृष्ठांकः विषयः 255 अनंतपदार्थ होने पर भी सर्वज्ञता को उपपत्ति | 271 असिद्ध-अनैकान्ति-विरोध का परिहार 256 विरुद्धार्थग्राहकता में आपत्ति का प्रभाव 272 धर्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञान की सिद्धि 256 संवेदन अपरिसमाप्ति दोष का निरसन | 273 प्रतिज्ञा-निगमनवाक्य प्रयोग की आवश्य२५७ परकोयरागसंवेदन से सरागता की आपत्ति कता क्यों? नहीं 274 उपसंहारवाक्य से प्रयोजन सिद्धि 257 पदार्थ-इयत्ता का अवधारण सुलभ है 275 हेतु की त्रिरूपता के बोध की उपपत्ति 258 सर्वज्ञत्वादि हेत्वर्थपरिकल्पनाओं का निरसन 276 'समयविसासण' शब्द से व्याप्तिविशिष्ट हेतु . 258 सर्वज्ञतासाधक प्रमेयत्व हेतु में उपन्यस्त का उपसंहार - दोष का निरसन 277 व्याप्ति का ग्रहण साध्यधर्मी और दृष्टान्त२५९ एक भाव के पूर्णदर्शन से सर्वज्ञता .. धर्मों में 260 पदार्थों में अन्योन्यसंबन्धिता परिकल्पित नहीं | 277 पक्षबाध और कालात्ययापदिष्टता का 261 लौकिक प्रत्यक्ष से कतिपय अर्थग्रहण . निरसन 261 नित्यसमाधिदशा में भी वचनोच्चार का संभव 278 अर्हत् भगवान ही सर्वज्ञ कैसे ? शंका 262 प्रतीतकाल का असत्त्व प्रसिद्ध है | 276 वचनविशेषत्व हेतु से सर्वज्ञ विशेष की सिद्धि 262 पदार्थों में कालवत् स्वरूपतः अतीतत्वादि का 280 दृष्टान्त के विना भी व्याप्ति का निश्चय असंभव | 280 'कुसमयविसासणं' का दूसरा अर्थ 263 पदार्थों में स्वतः अतीतत्वादि का भी संभव | | 280 ईश्वरे सहजरागादिविरहनिराकरणम् 263 सर्वज्ञज्ञान में अतीतादि का प्रतिभास अशक्य- 281 अनादि सहजसिद्ध ऐश्वर्यवादी की प्राशंका .: शंका | 281 आशंका के उत्तर में 'भवजिणाणं' पद की 264 अतीतादिकाल के प्रतिभास की उपपत्ति व्याख्या 265 सर्वज्ञज्ञान में अतीतकालसम्बन्धिता की | 282 सर्वज्ञबाद समाप्त ... ... . . अनापत्ति | 282 चार्वाकेण सह परलोके विवादः 265 सर्वज्ञरूप में सर्वज्ञ की प्रतीति अशक्य नहीं 282 परलोक के प्रतिक्षेप में चार्वाक का पूर्वपक्ष 266 सर्वज्ञव्यवहारप्रवृत्ति प्रमाणभूत है / 283 चार्वाकमत केवल दूसरेमत की कसौटी में 267 'कुसमयविसासणं' पद की सार्थकता : तत्पर 267 वचनविशेषरूप हेतु के उपन्यास का प्रयोजन | 283 परलोकसिद्धि में प्रत्यक्षप्रमाण का अभाव 268 'अविसंवादि' विशेषण की सार्थकता 284 परलोकसिद्धि में अनुमान प्रमाण का अभाव 269 प्रत्यक्ष और वचनविशेष में अविसंवाद का | 285 व्याप्तिग्रहण अशक्य होने से अनुमान का साम्य 1. असम्भव 269 अलिंगपूर्वकत्व विशेषण की सार्थकता 285 नास्तिकमत में अनुमान प्रप्रमाण है। 270 हेतु में अनुपदेशपूर्वकत्व विशेषण की उपपत्ति | 285 विषय के न घटने से अनुमान अप्रमाण 270 आगमार्थ के भिव्यंजक सर्वज्ञ की सत्ता 286 अविनाभाव का ग्रहण दुःशक्य सप्रयोजन | 287 अनमान में विरुद्धादि तीन दोषों की अाशंका 271 हेतु में अनन्वय-व्यतिरेकपूर्वकत्व विशेषण 288 जन्मान्तर विना इस जन्म की अनुपपत्ति यह की उपपत्ति कौन सा प्रमाण? Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांकः विषयः | पृष्ठांकः विषयः 289 प्रज्ञा-मेधादिगुण की जन्मान्तरपूर्वकता कैसे? | 308 अविनाभाव को और उसके ज्ञान को मानना 290 विलक्षण शरीर से जन्मान्तर की सिद्धि ही चाहिये दुःशक्य 308 अविनाभावसंबन्धग्रह की योगिप्रत्यक्ष से 261 आत्मतत्त्व के आधार पर परलोकसिद्धि शक्यता दुष्कर | 306 अतीन्द्रियार्थसाधकानुमान का प्रतिक्षेप२६२ आगमप्रमाण से परलोकसिद्धि अशक्य तीसरा विकल्प 262 परलोकसिद्धावुत्तरपक्षः / 309 साध्य से हेतु के अनुमान की आपत्ति-निवारण 262 परलोक सिद्धि-उत्तर पक्ष 310 विरुद्धादि दोषों का निराकरण 263 नास्तिकमत में प्रत्यक्षप्रामाण्य की अनुपपत्ति 310 अर्थान्तरबोध का निमित्त कार्यकारणा२६४ प्रत्यक्ष से अविनाभावबोध होने पर अनुमान भावादि सम्बन्ध-बौद्धमत . के प्रामाण्य की सिद्धि 311 कार्य और स्वभाव हेतु में प्रतिबन्धसाधक 264 अविसंवादिताप्रत्यक्षवत् अनुमानादि में भी प्रमाण प्रामाण्यप्रसंजिका है 312 अनुमान से निर्विघ्न परलोक सिद्धि-उपसंहार 265 प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने पर बलात अनुमान | 313 अनुमान से परलोकसिद्धि सुशक्य प्रामाण्यापत्ति | 313 केवल माता-पिता से इस जन्म की उत्पत्ति 266 हेतु में त्रैरूप्य का स्वीकार आवश्यक अयुक्त 267 तान्त्रिकलक्षणानुसारी अनुमान का प्रतिक्षेप | 313 सर्वदेश-काल के अन्तर्भाव से व्याप्तिग्रह की अशक्य शक्यता 268 अनुमान से पर्यनुयोग नास्तिक नहीं कर सकता| 314 विज्ञानधर्म और शरीरधर्मों में भेदसिद्धि 266 पर्यनुयोग में प्रसंग और विपर्यय अनुमान 315 विज्ञानधर्म विज्ञान का ही कार्य है समाविष्ट है | 316 शालक के दृष्टान्त से व्यभिचारापादन 266 नास्तिक कृत प्रसंगसाधन की समीक्षा असम्यक 300 नास्तिक कृत विपर्ययप्रयोग को समीक्षा | 317 शरीर और विज्ञान में उपादान-उपादेय 300 कार्यहेतुक परलोकसाधक अनुमान भाव प्रयुक्त 301 परलोकसाधक अनुमान का दृढीकरण | 317 शरीरवृद्धि से चैतन्यवृद्धि की बात मिथ्या 302 केवल माता पिता से जन्म मानने पर अतिप्रसंग 318 चिरपूर्ववत्ती मातापितृविज्ञान से वासना३०३ प्रज्ञादि आकारविशेष में जन्मान्तरप्रतिबद्धता प्रबोध अमान्य का प्रत्यक्षनिश्चय 319 आत्मा स्वसंवेदनप्रत्यक्ष का विषय 304 परलोक साधक अनुमान में इतरेतराश्रय / 320 शरीरादि में ज्ञातृत्व नहीं हो सकता दोष निवारण | 321 अहमाकार प्रतीति में प्रत्यक्षत्वविरोधी पूर्वपक्ष 305 व्याप्तिग्रहण में अनवस्था दोष का निवारण | | 322 आत्मा में अपरोक्षप्रतिभासविषयता की 305 व्याप्तिग्राहक प्रमाण के विषय में मतवैविध्य मीमांसा 306 अनुमान के अप्रामाण्यकथन के तीन विकल्प | 323 प्रात्मप्रत्यक्ष के लिये अलग प्रमाण की आपत्ति 307 अर्थान्तरबोध का निमित्त नियतसाहचर्य है | 324 संवेदन की संवेधता का अस्वीकार दुष्कर -नैयायिकादिमत | 324 चक्षु आदिकरण की वास्तविक प्रतीति नहीं है Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांकः विषयः | पृष्ठांकः विषयः 325 अहमाकारप्रतीति की आत्मविषयकता को | 341 बौद्धदृष्टि से विज्ञान में अर्थग्राहकता अघटित स्थापना | 341 प्रासंगिकविज्ञानवादः समाप्तः / 326 आत्मा और देह में ममत्व की समान प्रतीति | 342 जड में जडता और संवेदन में स्वसंविदितत्व -नास्तिक अनुभवसिद्ध है 327 प्रत्यक्ष केवल इन्द्रियजन्य ही नहीं होता जैन मत 343 अस्वसंविदित प्रतीति से अर्थव्यवस्था अशक्य 328 आत्मा को स्वप्रकाशता में प्रदीपदृष्टान्त की| 343 प्रतीति गृहीत न होने पर व्यवस्था अनुपपन्न यथार्थता | 344 ज्ञानान्तरवेधतापक्ष में विषयान्तरसंचार का असंभव 328 ज्ञानस्वप्रकाशवादारम्भः 345 प्रत्यक्षक्त शब्दज्ञान में स्पष्टप्रतिभास की 329 वैधHदृष्टान्त से ज्ञान में स्वप्रकाशत्वसिद्धि .. अापत्ति. 330 स्वप्रकाशता में अदृष्टता और विरोध की / 247 वैशद्यप्रतिभासव्यवहार ज्ञानक्रमानुपलक्षणबात अनुचित निमित्तक नहीं 331 विज्ञानवादीबौद्धमतारम्भः (प्रासंगिकः) | 347 सर्वज्ञज्ञान में प्रमेयत्व हेतु व्यभिचारी होने 331 नीलादि स्वप्रकाश विज्ञानमा को आपत्ति 332 भेटपक्ष में नीलादि में ग्राह्यत्व की अनपपत्ति | 348 ज्ञानस्वप्रकाशवादः समाप्तः / 333 ग्रहण किया असिद्ध होने से नीलादि में कर्मता | 348 ज्ञानाभिन्न आत्मा भी स्वसंवेदनसिद्ध है अघटित | 348 बिना व्यापार ही ज्ञान-प्रात्मा स्वसंविदित हैं 333 ग्रहणक्रिया के स्वीकार में बाधक 349 प्रात्मा की अपरोक्षता-कथन का तात्पर्य 333 कर्मकर्तृ भावप्रतीति भ्रान्त है 346 नेत्रेन्द्रियप्रत्यक्षापत्ति का प्रतिकार 334 कर्मकर्तृ भावप्रतीति भी अनुपपन्न 350 'कृशोऽहं' इत्यादि शरीरसमानाधिकरण 335 विज्ञान के पूर्वकाल में अर्थसत्ता की असिद्धि प्रतीति भ्रान्त है 336 पूर्वकाल में अर्थसत्ता की अनुमान से सिद्धि 350 देह में प्रहमाकारबुद्धि औपचारिक है दुष्कर 351 सुखादिसमानाधिकरणक अहंप्रतीति उप३३७ पूर्वकाल में सत्ता न होने में अनुपलब्धि प्रमाण .. चरित क्यों नहीं? 337 नीलादि अन्यदर्शन साधारण नहीं है | 351 अस्थिर देह स्थैर्यबुद्धि का विषय नहीं 338 अनुमान से भी अन्यदर्शनसाधारणता को 352 बौद्धमत से प्रत्यभिज्ञा में आपादित दोषों सिद्धि दुष्कर का प्रतिकार 338 प्रतिभासभेद से नीलाविभेदसिद्धि | 353 दर्शन-स्पर्शनावभासभेद से प्रत्यभिज्ञा एकत्व 336 स्व-पर दृष्ट नीलादि में ऐक्य असिद्ध पर आक्षेप 336 नीलाकार में ग्राह्यता की अनुपपत्ति 354 नीलप्रतिभास में भी समग्रविकल्पों की 340 नित्य-अनित्य भेद से ग्राह्यत्व की उपपत्ति समानता अशक्य 355 अवस्थाद्वय में अवस्थाता की अव्यापिता का 340 उन्मुखत्वस्वरूप ग्राहकत्व की अनुपपत्ति ग्रह कैसे? 341 बोधजन्य ग्रहण किया नील से भिन्न है या 356 अनुसंधानप्रतीति से एकत्वसिद्धि में अन्योअभिन्न? न्याश्रय नहीं Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांकः विषयः | पृष्ठांकः विषयः 356 भिन्न सन्तान के स्वीकार में प्रात्मसिद्धि | 369 सुषुप्ति में विज्ञानाभाव साधक प्रमाण नहीं है 357 कार्य-कारणभावमूलक एकसंतानता की | 369 सुषुप्ति में विज्ञानसाधक प्रमाण समीक्षा | | 370 'मुझे कुछ पता नहीं चला' यह स्मरण अनु३५७ उपादान-उपादेयभाव में दो विकल्प भंव-साधक है 358 बौद्धमत में उपा० उपा० भाव में चार विकल्प 371 अन्यधर्मी में प्रतिसाधन की व्याप्ति के अग्र३५६ उपादान-सहकारी कारणविभाग कैसे ? हण की शंका 359 स्वगतविशेषाधानस्वरूप उपादान के दो ३७१क्षणिकत्वप्याप्ति निश्चय की भी असिद्धि विकल्प __-समाधान 360 सकलविशेषाधान द्वितीय विकल्प के तीन दोष 372 सत्त्व और प्रतिसंधान हेतुद्वय में विशेषता 360 एक काल में अनेक संतान मानने में प्रापत्ति 372 सत्त्वहेतु और अनुसंधानहेतु में समानता 361 सकलविशेषांधानपक्ष में सहकारिकथा विलोप -अन्यमत 361 प्राग्भावमात्रस्वरूप कारणता के दो विकल्प | 373 प्रमातृनियतत्व और एककर्तृकत्व एक नहीं है 362 कल्पितधर्मों से एकत्व अखंडित रहने पर | 373 एककर्तृकत्व की प्रतिसंधान में एकात्मसिद्धि ! सिद्धि 363 समनन्तरप्रत्यय को उपादान नहीं कह सकते 374 प्रमातृनियम एककर्तृ कत्वमूलक ही सिद्ध 363 आंशिकसमानतापक्ष में आपत्ति होता है 364 दैशिक आनन्तर्य उ० उ० भाव में अघटित / 375 परलोक के शरीर में विज्ञानसंचार की उपपत्ति 364 स्वसंतति में ज्ञानस्फुरण से उपादान-नियम | 376 पूर्वोत्तरजन्म में एक अनुगत कार्मणशरीर अशक्य की सिद्धि 365 ज्ञान में ज्ञानपूर्वकता का नियम नहीं . | 377 पूर्वापरभावों में कार्य-कारणता न होने पर -नास्तिक शून्यापत्ति 365 सदृश-तादृश विवेक अल्पज्ञ नहीं कर सकता 378 भविष्यकालीन जन्मान्तर में प्रमाण -नास्तिक 378 सत्त्व अथक्रियाकारित्वरूप नहीं है 366 समानजातीय से उत्पत्ति का नियम नहीं 376 आगमसिद्धता होने पर अनुमान व्यर्थ नहीं -नास्तिक 366 उत्तरकालीन स्मृति से सुषुप्ति में विज्ञान 380 प्रात्मा और कर्मफलसम्बन्ध में आगम प्रमाण सिद्धि अशक्य नास्तिक परलोकवाद समाप्त 367 सुषुप्ति में विज्ञान मान लेने पर भी व्यापार 381 ईश्वरकत त्ववादिपूर्वपक्षः विशेषाभाव 367 जनकत्वादिधर्मों की काल्पनिकता कैसे 381 ईश्वर जगत का कर्ता है-पूर्वपक्ष -नास्तिक 381 नैयायिक के सामने कतत्वप्रतिपक्षी युक्तियाँ 368 नास्तिकप्रयुक्त दूषण जैन मत में नहीं है 382 अनुमान से ईश्वरसिद्धि अशक्य उत्तरपक्ष 382 आगम से ईश्वरसिद्धि अशक्य 368 कार्यत्वाभ्युपगमकारणधर्मानुविधानमूलक है | 383 पूर्वपक्षी की युक्तियों का आलोचन 369 विवेककौशल का अभाव अधिकाराभाव का | 383 पृथ्वी आदि में कार्यत्व असिद्ध नहीं सूचक | 384 हेतु में असिद्धिदोष की शंका का समाधान होता Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक विषयः पृष्ठांकः विषयः 385 बौद्धों के मत से भी कार्यत्व हेतु प्रसिद्ध नहीं | 408 अनेक बुद्धिमान कर्ता मानने में प्रापत्ति 386 मीमांसक के मत से भी हेतु असिद्ध नहीं 406 ईश्वर में प्रसंग-विपर्यय भी बाधक नहीं 387 चार्वाक के मत से भी हेतु असिद्ध नहीं 406 वात्तिककार के दो अनुमान 387 नैयायिक के सामने विस्तृत पूर्वपक्ष 410 अविद्धकर्ण का प्रथम अनुमान 389 नैयायिक मत में दृष्टहानि-अदृष्टकल्पना 411 प्रथम अनुमान के पक्षादि का विश्लेषण 386 पक्ष में अन्तर्भाव करके व्यभिचारनिवारण 411 अविद्धकर्ण का दूसरा अनुमान अशक्य 412 उद्योतकर और प्रशस्तमति के अनुमान 390 पूर्वपक्षी को नैयायिक का प्रत्युत्तर 412 सर्वज्ञता के विना भक्ति का पात्र कैसे ? 391 अदृष्ट और ईश्वर की कल्पना में साम्य | 413 नैयायिक के पूर्वपक्ष का उपसंहार 382 कार्यत्व देत में व्यतिरेकसंदेह से व्यभिचार |14 ईश्वरकतत्ववादसमालोचना-उत्सम्यश्व शंका का उत्तर | 414 देहादि अवयवी असिद्ध होने से प्राश्रया-सिद्धि 362 अग्निवत् ईश्वर की कल्पना अनावश्यक 415 अवयवी का विरोध स्वतन्त्रसाधन या प्रसंग३९३ कर्ता का अनुपलम्भ शरीराभावकृत साधन 394 जडवस्तु में इच्छानुवत्तित्व की प्रसिद्धि 416 अवयवी का विरोध प्रसंगसाधनात्मक है 364 कार्यत्व हेतु में सत्प्रतिपक्षतादि का निराकरण | 417 प्रतिभासभेद से भेदसिद्धि 395 विशेषविरूद्धता सद्धेतु का दूषरण नहीं है। 417 अवयव-अवयवी की.समानदेशता असिद्ध 366 विशेषविरुद्धता दूषण क्यों नहीं-उत्तर 418 अवयवी का स्वतन्त्रप्रतिभास विरोधग्रस्त 397 ईश्वर के देहाभावादि विषा का सिाद्ध | 419 स्पष्ट-अस्पष्टस्वरूपद्वय में एकता असिद्ध में प्रमाण | 420 प्रतिभासभेद विषयभेदमूलक ही होता है 397 पक्षधर्मता के बल से विशेषसिद्धि 421 अवयवी के प्रतिभास की दो विकल्प से 398 विशेषव्याप्ति के बल से विशेषसाध्य की सिद्धि अनुपपत्ति 399 शरीररूप आपादितविशेष का निराकरण / 422 अग्र-पृष्ठभागवर्ती अवयवी का प्रतिभास 400 अतीन्द्रिय अर्थ के निषेध का वास्तव उपाय अशक्य 400 असर्वज्ञत्वरूप आपादितविशेष का निराकरण | 422 स्मरण से अवयवी का ग्रहण अशक्य 401 सचेतन देह में ईश्वर के अधिष्ठान की सिद्धि 423 प्रत्यभिज्ञा ज्ञान से अवयवी को सिद्धि अशक्य 402 ईश्वर की सिद्धि में प्रागम प्रमाण / 423 ‘स एवायम्' यह प्रतीति एक नहीं है 402 स्वरूपप्रतिपादक आगम भी प्रमाण है 425 ‘एको घटः' प्रतीति से स्थूल द्रव्य की सिद्धि 403 स्वरूपार्थक आगम अप्रमाण मानने पर आपत्ति अशक्य 404 'पत्थर तैरते हैं इस प्रयोग के प्रामाण्य का | 426 अवयवी के बिना स्थूलप्रतिभास को अनुपनिषेध पत्ति-पूर्वपक्ष 404 सर्वज्ञता की साधक युक्ति 427 निरंतर उत्पन्न परमाणुवों से स्थूलादि प्रति४०५ ईश्वर की क्रीडाहेतुक प्रवृत्ति भी निर्दोष भास की उपपत्ति 406 भगवान की प्रवृत्ति करुणामूलक 427 समवाय की असिद्धि से बुद्धिमत् शब्दार्थ की 406 केवल सुखात्मक सर्गोत्पत्ति न करने में हेतु ___ अनुपपत्ति 407 ईश्वर का ज्ञान अनित्य नहीं हो सकता | 426 ज्ञान ईश्वर में व्यापकरूप से नहीं रह सकता Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांकः विषयः | पृष्ठांकः विषयः 429 अव्यापक ज्ञान मानने पर प्रात्मव्यापकता | 448 एकान्तभेद पक्ष में वैपरीत्य की उपपत्ति का भंग 446 सत्ताग्राही प्रत्यक्ष प्रमाणभूत-पूर्वपक्ष 430 प्रसंगतः समवायसमीक्षा 446 'सत्-सत्' अनुगताकारप्रतीति से सत्तासिद्धि 430 समवाय सत्पदार्थों का, असत्पदार्थों का ? 450 जाति की प्रतीति व्यक्ति से भिन्न होती है 431 सत्तासमवाय से पदार्थसत्त्व की अनुपपत्ति / 451 समानेन्द्रियग्राह्य होने पर भी जाति व्यक्ति 431 नमक के उदाहरण से समवाय का स्वतः भिन्न है सत्व अनुपपन्न 452 व्यक्ति को देखते समय जाति का भान नहीं 432 समवाय दो समवायी का होगा या असम होता-उत्तर पक्ष वायी का? 453 बाह्यार्थ के रूप जाति का भान नहीं होता 433 समवाय की सिद्धि प्रत्यक्षप्रमाण से अशक्य 453 सर्वत्र समानाकार प्रतीति की आपत्ति 433 आगमवासनाशून्य बालादि को भी समवाय मिथ्या है प्रतीत नहीं होता 454 भिन्नव्यक्ति में तुल्याकारप्रतीति का आल४३५ समवायसाधक अनुमान निर्दोष नहीं है म्बन बुद्धि है 435 समवाय का समवायी के साथ सम्बन्ध है या 454 जाति में अनेक व्यक्तिव्यापकता की अनुपनहीं? [समवायचर्चा समाप्त] पत्ति 436 ईश्वरात्मा और बुद्धि का अभेद असंगत 455 पूर्वोत्तर व्यक्ति में जाति की साधारणता 437 घटादिकार्य और स्थावरादि में वैलक्षण्य ___अनुभवबाह्य 437 ईश्वरबुद्धि में क्षणिकत्व का विकल्प असंगत 455 प्रत्यभिज्ञा से अनेकव्यक्तिवृत्तित्व का बोध 438 ईश्वरबुद्धि में अक्षणिकत्व का विकल्प असंगत अशक्य 439 कार्यत्वहेतुक अनुमान बाधित है। 456 कर्ता से जाति का अनुसन्धान अशक्य 440 कार्यत्वहेतुक को समालोचना का प्रारम्भ 457 स्मति की सहायता से अनुसन्धान अशक्य 440 कारणों में असद वस्तु का समवाय असंभव 457 प्रत्यक्ष से पूर्वरूप का अनुसन्धान अशक्य . 441 असत् वस्तु किसी का कारण भी नहीं होता 458 पूर्वरूपग्राही बुद्धि सत्पदार्थग्राही नहीं हो 442 देहादि को सत् मानने में अन्योन्याश्रय सकती 442 प्राक असत् वस्तु सत्ता समवाय से सत नहीं। 459 कार्यत्व रचनावत्त्च से भी सिद्ध नहीं हो सकती 460 संयोगपदार्थसमीक्षणम 442 'न सत्न असत' कहना परस्परव्याहत 460 नैयायिकाभिमत संयोगपदार्थ की प्रालोचना 443 नयमित प्रयोग से बचने के लिये व्यर्थ / 460 उद्योतकर कथित संयोगसाधक युक्तियाँ उपाय / 46 / उद्योतकर की युक्तियों का निरसन 444 अन्यमत में नैरात्म्य के निषेध की अनपपत्ति | 462 चैत्र और कुडल के सम्बन्ध की समीक्षा 444 नैरात्म्य के अभाव सात्मकत्वरूप है 463 विशिष्ट अवस्थावाले क्षिति बोज-जलादि से 445 सत्तापदार्थसमीक्षा ___ अंकुरजन्म 445 न्यायमत में सत्तापदार्थ की असंगति 46. संयोग का वचनप्रयोग वस्तुद्वयमूलक ही है 446 द्रव्यादिसम्बन्ध से सत्ता के सत्त्व की आपत्ति 464 कृतबुद्धिजनक कार्यत्व पृथ्वी आदि में असिद्ध 447 द्रव्यादि स्वतः सव नहीं है इस अनुमान का भंग 465 कार्यत्वहेतु की असिद्धि का समर्थन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 पृष्ठांक: विषयः | पृष्ठांक विषयः / 466 कार्यसम जात्युत्तर की आशंका | 483 इन्द्रिय और अदृश्य तत्कालीन अग्नि की 466 कार्यसमत्व की आशंका का प्रत्युत्तर कल्पना में साम्य 467 च्यापक-नित्यबुद्धिवाला एक कर्ता असिद्ध 484 कर्तृ-करणपूर्वकत्व सभी कार्य में सिद्ध नहीं है 467 पक्षधर्मता के बल से विशेष व्यक्ति का सिद्धि | 485 केवल चैतन्यमात्र से वस्तु का अधिष्ठान दुष्कर असंगत 468 विलक्षणव्यक्तिआश्रित बुद्धिमत्कारणत्व 485 कार्य शरीरद्रोही नहीं है सामान्य की सिद्धि अशक्य 486 शरीर के विरह में कार्योत्पादन का असंभव के अतिक्रम की आपत्ति का प्रति 486 शरीर के विरह में प्रयत्न का असंभव कार 469 कार्यत्वसामान्य से कारणविशेष का अनुमान 487 अंकुरादि में कर्ता के अभाव की अनुमान से - मिथ्या है ___.. सिद्धि 470 शरीर के विना कर्ता को मानने में दृष्ट 488 व्यतिरेकानुसरण की उपलब्धि की आवव्यतिक्रम श्यकता 488 व्यापार के व्यतिरेकानुसरण की अनुपलब्धि 471 शरीरसम्बन्ध के विना कर्तृत्व की अनुपपत्ति 486 समवाय सर्वदा सर्वत्र होने पर भी अनुपपत्ति 472 पूर्वपक्षी कथित बातों का क्रमशः निराकरण 460 ईश्वरज्ञानादि को अनित्य मानने पर व्यति४७३ व्युत्पन्न को भी संस्थानादि से बुद्धिमत्कारण अनुमान नहीं होता . रेकानुपलब्धि 473 केवलमि-धर्मभाव से साध्यसिद्धि अशक्य | 490 सहकारिकारणजन्य ईश्वरज्ञान मानने पर . आपत्ति 474 साधर्म्यमात्र से कर्ता का अनुमान दुःशक्य 461 सहकारिवर्ग और ईश्वरज्ञान को एक सामग्री 475 कार्यत्व केवल कारणत्व का ही ब्याप्य है 475 बद्धिमत्कारणविशेष की उपलब्धि निर्मूल है जन्यता में आपत्ति 492 ईश्वरज्ञानादि को सहकारि हेतु सहोत्पन्न 476 संयोग की तरह विभाग भी असिद्ध है। 477 सभी कार्य कर्तृ पूर्वक नहीं होते यह ठीक मानने में प्रापत्ति 493 बुद्धिमत्कारणानुमान व्यापकानुपलब्धि का 477 धर्माधर्म की कारणता सलामत है अबाधक 493 लोहलेख्यत्वानुमान से प्रत्यक्ष का बाध क्यों 478 सकल उपादानादि के ज्ञातारूप में ईश्वर प्रसिद्ध . नहीं ? 464 भावी बाधकानुपलम्भ का निश्चय अशक्य 479 शरीर के विना कर्तृत्व को अनुपपत्ति से हेतु साध्यद्रोही 465 बुद्धिमत्कारणानुमान में विपक्ष में बाधक का 480 ईश्वर का शरीर अदृश्य होने की बात प्रभाव ___ असंगत 465 विषय का अविसंवाद प्रामाण्य का मूल 480 ईश्वर के अनेक शरीर की कल्पना प्रयुक्त 496 व्यापकानुपलब्धि में पक्षधर्मत्वादि का 481 इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान सम्पूर्ण हो नहीं सकता अभाव नहीं 482 ऐन्द्रियक ज्ञान सर्वविषयक न होने में युक्ति | 496 व्यापकानुपलब्धि हेतु में साध्य के अन्वयादि 482 अंकुरादि दृश्यशरीरसम्बद्ध पुरुष से ही होने की सिद्धि की आपत्ति / 497 परमाणु आदि से कार्यत्व की निवृत्ति प्रसिद्ध Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 पृष्ठांक विषयः पृष्ठांकः विषयः 468 नित्य होने मात्र से कार्यत्व की निवृत्ति 513 मुखादि के अभाव में वक्तृत्व की अनुपपत्ति अशक्य 514 देहादि के विरह में ईश्वरसत्ता की प्रसिद्धि 466 विपक्ष में हेतु के अभाव की सिद्धि में अन्यो- | 515 कुम्हारादि में सर्वज्ञत्व की प्रसक्ति न्याश्रय 515 क्षेत्रज्ञ में सर्वज्ञ के अधिष्ठितत्व के अनुमान 499 प्रसिद्ध अनुमानों में विपक्ष में बाधक का की परीक्षा सद्भाव 516 अनवस्थादोष से पूर्वसिद्धि में अप्रामाण्य का 500 हेतु में विशेषविरुद्धता का प्रबल समर्थन ज्ञापन 500 अनीश्वरत्वादि के साथ कार्यत्व का व्यभि- 516 सर्वज्ञ की सिद्धि में प्रागम प्रमाण कैसे ? चार नहीं 517 सत्तामात्र से ईश्वराधिष्ठान की अनुपपत्ति 501 कार्यत्व हेतु में संदिग्धविपक्षव्यावृत्ति और 517 सत्तामात्र से अधिष्ठान में असर्वज्ञता ___ असिद्धि दोष 518 इन्द्रियनिरपेक्ष ज्ञानवत् मुक्ति में सुखादि की 501 गुणत्व की सिद्धि से अनित्यत्व का ध्र व प्रसक्ति व्याघात || 519 धर्म के विरह में सम्यग्ज्ञानादि का प्रभाव 502 विशेषविपर्यय का उद्भावन सार्थक नहीं है 516 अनाप्तकामत्ता से अनीश्वरत्व का पापादन 503 देहधारणादिक्रिया में देहयोग अविनाभावि है| 520 क्रीडा के लिए ईश्वरप्रवृत्ति की बात अनुचित 504 अचेतनव चेतन में भी चेतनाधिष्ठान की | 520 ईश्वर में करुणामूलक प्रवृत्ति असंगत आपत्ति | 521 ईश्वर में कर्मपरतन्त्रता की आपत्ति 504 'अचेतन' विशेषण में नैरर्थक्य की आपत्ति 522 सहकारीसंनिधान से सुखादिकर्तृत्व के ऊपर .505 सकल कार्यों को एक साथ पुनः पुनः उत्पत्ति विकल्प का प्रसंग 523 ईश्वर में स्वभावभेदोपत्ति 506 विपक्षविरोधी विशेषण के विना व्यभिचार 524 शिषिकावहनादि एक कार्य की अनेक से अनिवार्य उपपत्ति / 507 नित्यज्ञान पक्ष में एक साथ जगत्-उत्पत्ति 524 नित्यत्वादिविशेष के विरुद्ध अनुमानों का का प्रसंग औचित्य 507 अविकलकारणत्व हेतु में असिद्धिदोष की | 525 अनित्यत्व हेतु से बुद्धिमदधिष्ठितत्व की पाशंका असिद्धि 506 अविकलकारणत्व हेतु में अनैकान्तिकता 526 अनित्यत्व हेतु में असिद्ध-विरुद्धादि दोषप्रसंग दोष नहीं 527 'उत्तरकाल में प्रबुद्ध' होने की बात प्रसिद्ध है 510 बद्धि के प्राधाररूप में ईश्वर कल्पना निरर्थक ! 527 व्यवहार में ईश्वरोपदेशपूर्वकत्व की प्रसिद्धि 510 बुद्धि में गुणरूपता की सिद्धि कैसे 528 सप्तभुवन में एक व्यक्तिकर्तृ कत्व की अनु५१० ज्ञान से समवेतत्व का निश्चय अशक्य पपत्ति 511 स्व के अग्राही ज्ञान से पर का ग्रहण अशक्य | 529 परस्परातिशयवृत्तित्वहेतुक अनुमान भी 512. प्रसंगसाधन के बाद विपर्ययप्रयोग __सदोष है 512 शरीरसम्बन्धकर्तृत्व का व्यापक | 530 भवविजेताओं का शासन-यह कथन सुस्थित है 513 कारकशक्तिज्ञान स्वरूप कर्तृत्व अनुपपन्न / 530 'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' पदों की सार्थकता Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 पृष्ठांक: विषयः | पृष्ठांकः विषयः 531 सावशेषप्रघातिकर्ममूलक शासनस्थापना की | 550 क्षणिकबुद्धि पक्ष में कारण-कार्यभाव की संगति अनुपपत्ति 531 शासनस्थापना कार्य की उपपत्ति अबाधित | 551 विनश्यदवस्थावाले कारण से कार्योत्पत्ति 532 आत्मविभुत्वस्थापन-पूर्वपक्षः असंगत 532 प्रात्मविभूत्व, मुक्ति में सुखाभाव मतद्वय का 551 ज्ञान में षटक्षणस्थिति भी अनुपपन्न / निरसन 552 बुद्धिक्षणिकत्वपक्ष में कालान्तरावस्थान की . 533 आत्मा सर्वव्यापी है-वैशेषिकपूर्वपक्ष अप्रसिद्धि 533 बुद्धि में गुणात्मकतासिद्धि के लिये अनुमान | 553 बुद्धि के सम्बन्ध से आत्मचैतन्य की कल्पना 534 सामान्यविशेषवत्त्व विशेषण को सार्थकता प्रयुक्त 553 सहकारियों से उपकार की बात असंगत 534 बद्धि में क्रियारूपता का निषेधक अनुमान 554 शब्द में गुरणहेतुक द्रव्यत्व की सिद्धि 535 हेतु में असिद्धि प्रादि का निरसन 554 शब्द में स्पर्शवत्ता का समर्थन 536 आत्मविभुत्वनिरसनं-उत्तरपक्ष: 555 श्रोत का अभिघात शब्दकृत ही है / 536 प्रात्मा व्यापक नहीं है-उत्तरपक्षः 556 परिमाण से शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि 536 बुद्धि आकाश का गुण क्यों नहीं ? 557 इयत्ता के अनवबोध से परिमाण का निषेध 537 बुद्धि और आत्मा को अन्योन्यप्रतीति का असंभव अनुचित 538 बुद्धि में परोक्षात्मगुणता असंगत 557 अल्प महान् प्रतीति तीवमन्दतामूलक 538 आत्मा को प्रत्यक्ष मानने में देहपरिमाण की 558 संयोग के प्राश्रयरूप में द्रव्यत्व की सिद्धि नहीं .. सिद्धि | 559 आश्रय की गति से शब्दगुण की गति अयुक्त 536 अनुमान से प्रत्यक्ष का बाध अयुक्त 556 संख्या के सम्बन्ध से शब्द में गुणवत्ता की 540 परमाणुपाकजगुणों में कार्यत्वव्यभिचार की सिद्धि आशंका 560 एकद्रव्यत्वहेतु से द्रव्यत्व की सिद्धि अशक्य 540 दृष्टान्त में साध्य साधनविकलता न होने 560 शब्द में अनेक द्रव्यत्वसाधक प्रतिअनुमान की शंका 561 वायु का स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्ष प्रतीति-सिद्ध है 541 दृष्टा त में अन्योन्याश्रय दोषापत्ति | 561 चन्द्रसूर्यादिस्थल में हेतु साध्यद्रोही 541 शब्दो द्रव्यं क्रियावत्त्वात् 562 सत्तासम्बन्धित्वघटित हेतु में अनेक दोष 541 शब्द में द्रव्यत्वसाधक चर्चा 563 आत्मविभुत्वसाधक अन्य अनुमान का निरसन 542 जलतरंगन्याय से अनेक शब्दों की कल्पना | 564 ज्ञान प्रात्मा का विशेषगुण कैसे ? 543 शब्द में एकत्व की प्रत्यभिज्ञा निर्बाध है 564 आत्मविभत्वसाधक हेतुओं में बाध दोष 544 शब्द में क्षणिकत्वसाधक अनुमान का असंभव 565 अदृष्ट का प्राश्रय व्यापक होने का अनुमान५४५ धर्मादि में क्षणिकत्व नहीं हो सकता पूर्वपक्ष 545 धर्माधर्म में इच्छा-द्वेषनिमित्तकत्व-अभाव | 565 अदृष्ट में एकद्रव्यत्व के अनुमान का पृथक्की आपत्ति करण 546 अस्मदादिप्रत्यक्षत्वविशेषण की निरर्थकता | 566 अदृष्ट के आश्रय की व्यापकता के अनुमान 547 अदर्शनमात्र से विपक्षनिवृत्ति असिद्ध में आपत्तियां-उत्तरपक्ष 548 शब्द में गुणत्व सिद्ध करने में चक्रक दोष | 567 गुण-गुणी में कथंचिद् भेदाभेदवाद से आत्म५४९ ज्ञान में विभुद्रव्यविशेषगुणत्व की सिद्धि दुष्कर / व्यापकता असिद्ध Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांकः विषयः पृष्ठांकः विषयः 568 क्रियाहेतुगुणत्वाव-इस हेतु की समीक्षा 588 दर्शनादिव्यवहार से विपरीत कल्पना में 566 अन्यत्र वर्तमान अदृष्ट की हेतुता अनुपपन्न बाधप्रसंग 570 अचल अदृष्ट से आकर्षण को अनुपपत्ति / 586 देदमात्रव्यापी आत्मसाधक अनुमान में बाध दोष का निरसन 571 क्रिया का कारण अयस्कान्त का स्पर्शादि 560 आहार कवल के दृष्टान्त में साध्य-शून्यता गुण ही है। 591 आत्मा के गुण देह से अन्यत्र उपलब्ध नहीं होते 572 अयस्कान्त से लोहाकर्षण में अदृष्टहेतुता 562 देह में प्रात्मा को संकुचित वृत्ति मानने में का निरसन बाधक 573 अदृष्ट को पूरे प्रात्मा में मानने पर आपत्ति | 563 आत्मा में नश्वरता की आपत्ति नहीं 573 अदृष्ट में गुणत्वसाधक हेतु में संदिग्ध-साध्यद्रोह | 594 क्रियादिकम से द्रव्य नाश की प्रक्रिया का 574 अञ्चन और प्रयत्न दोनों स्थल में अन्य की निरसन कारणता समान | 565 मुक्तिस्वरूप मीमांसा 575 न्यायमत में देवदत्त शब्द के वाच्यार्थ को | 565 प्रात्मा को मुक्तावस्था कैसी है ? अनुपपत्ति | 565 विशेषगुणोच्छेदस्वरूपमुक्ति-नैयायिक 576 शरीरसंयुक्त प्रात्मप्रदेशों को 'देवदत्त' नहीं | 566 मुक्ति का हेतु तत्त्वज्ञान कह सकते 596 उपभोग से ही कर्मविनाश की उपपत्ति 576 अन्य अन्य प्रात्मप्रदेश मानने में अनवस्था | 567 तत्त्वज्ञानी की भी भोग में प्रवृत्ति युक्तियुक्त दोष | 568 नित्यनैमित्तिक अनुष्ठान का प्रयोजन 577 सर्वत्र उपलभ्यमानगुणत्व हेतु विरुद्ध या | 568 मुक्ति परमानन्दस्वरूप-वेदान्तपक्ष असिद्ध | 600 मुक्तिसुखवादिवेदान्तपक्ष का निरसन 578 आत्मा में मूर्तत्व की आपत्ति का निरसन | 601 नित्यसुखसंवेदन में प्रतिबन्ध की अनुपपत्ति 579 सक्रियता के द्वारा मूर्त्तत्व की सिद्धि दुष्कर | 602 अनित्य सुखसंवेदन को मुक्ति में अनुपपत्ति 580 सक्रियता के द्वारा अनित्यत्व की आपत्ति का 502 मुमुक्षु की प्रवृत्ति इष्टप्राप्ति के लिये या निरसन अनिष्टत्याग के लिये? 581 विभुत्व के द्वारा आत्मा में महत परिमाण 603 अनिष्टाननुषक्त इष्ट का सद्भाव नहीं होता की सिद्धि दुष्कर 604 आगम से नित्यसुख की सिद्धि अशक्य 581 आत्मविभुत्साधक पूर्वपक्षी के अनुमान की 604 दुःखाभावार्थक प्रवृत्ति मानने में मोक्षाभाव असारता की आपत्ति त्रिव्यापक आत्मा स्वसंवेदनसिद्ध 606 रमणीय विषयों से सुख विशेष की सिद्धि 582 अविभुत्वसाधक प्रमाण का अभाव नहीं 606 अभिलाषनिवृत्ति द्वारा सुखानुभव की शंका 583 हेतु में असिद्धता का उद्भावन-पूर्वपक्ष 606 भोग से इच्छा निवृत्ति अशक्य 584 देवदत्त के गुणों को अन्यत्र सत्ता असिद्ध- 607 अभिलाषतीव्रता से तीव्रसुखाभिमान की . उत्तरपक्ष शंका गलत 584 धर्माधर्म आत्मा के गुण नहीं है 607 दु.खाभाव अर्थ में भी सुख शब्द का प्रयोग५८५ धर्माधर्म स्वसंविदित ज्ञानरूप नहीं है नैयायिक 586 अचेतन धर्माधर्म का साधक प्रमाण 608 स्वप्रकाश वस्तु के आवरण की असंगति 587 प्राग्भवीय शरीरसम्बन्ध को आत्मा में सिद्धि | 606 मुमुक्षप्रवृत्ति द्वेषमूलक नहीं होती Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 $ पृष्ठांक विषयः पृष्ठांकः विषयः 610 मुमुक्षु में द्वेषसत्ता होने पर भी बन्धाभाव 628 तत्त्वज्ञान से सन्तानोच्छेद अशक्य 611 मुक्ति विशुद्धज्ञानोत्पत्तिस्वरूप भी नहीं है 630 उपभोग से सर्वकर्मक्षय अशक्य 611 ज्ञानधारा अविच्छिन्न होने की शंका का 630 सम्यग्ज्ञान से संचितकर्मक्षय की युक्तता निरसन 631 रागादि के विना उपभोग का असंभव 612 सषुप्तावस्था में ज्ञान की सिद्धि अशक्य 632 सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्ष का हेतु है 613 अभ्यास से रागादिनाश की अनुपपत्ति 633 चिदानंदरूपता भी एकान्तनित्य नहीं है 613 अनेकान्तभावना से मोक्षलाभ 633 कर्मसंतानरूप अविद्या के ध्वंस से मोक्ष 614 अनेकान्तभावना से मोक्ष की बात असंगत 634 मुक्ति में सुख की उत्पत्ति का हेतु 615 प्रात्मा में नित्यत्वादि का एकान्त 635 ज्ञानोत्पत्ति में देह की कारणता अनिवार्य 615 अद्वैतवादी अभिमत मोक्ष में असंगति ... नहीं 616 मुक्तिमीमांसायामुत्तरपक्षः 635 ज्ञान का स्वभाव सकलवस्तु प्रकाशकत्व ' 616 विशेषगुणोच्छेदरूप मुक्ति को मान्यता का / | 636 मुक्ति में प्रात्मस्वरूप प्रानन्द की उत्पत्ति निरसन-उत्तरपक्ष 637 साश्रवचित्तसन्ताननिरोध मुक्ति का स्वरूप 617 सन्तानत्वसामान्य के सम्बन्ध की अनुपपत्ति नहीं है 617 समवाय के विषय में प्रत्यक्षादि कोई प्रमाण 638 चित्तसन्तान में अन्वयी आत्मा की उपपत्ति नहीं है 636 ज्ञान-आत्मा का भेदसाधक अनुमान प्रत्यक्ष६१८ सम्बन्धरूप से समवाय का अध्यवसाय बाधित: विकलपग्रस्त 640 एकत्वविषयक प्रत्यक्ष मिथ्या नहीं है 616 इहबुद्धि और समवायबुद्धि से समवाय की 641 विरोधापादन का निवारण प्रतीति अनुपपन्न 642 बाधक के विना गौणार्थकल्पना असंगत 620 इहबुद्धि से समवायसिद्धि अशक्य 643 सुषुप्ति में ज्ञान के सद्भाव की सिद्धि 620 समवाय के अभाव में सन्तानत्व हेतु की 6.4 अनेकान्तभावनाजनित ज्ञान असम्यक न असिद्धि 646 समवायादिसम्बन्धकल्पना में अनवस्था 621 उपादान-उपादेय बुद्धिप्रवाहरूप संतानत्व 647 व्यावृत्ति सर्वथा भिन्न या असत् नहीं है हेतु में दोष 648 दृश्य-विकल्प्य का एकीकरण अशक्य 622 पूर्वापरभावापन्नक्षणप्रवाहरूप सन्तानत्व हेतु में दोष 646 सामान्य समानपरिणामरूप है 650 इतरेतराभाव की अनुपपत्ति 622 सन्तानत्व हेतु में विरोध दोष 651 भेद का अपलाप अशक्य 623 सन्तानत्व हेतु में विरोध दोष का समर्थन / 652 पराऽसत्व के विना स्वभावनयत्य का प्रभाव 624 संतानत्व हेतु में पक्षबाधा और कालात्यया पदिष्टता 652 अन्यापोह को पदार्थरूप मानने में अनव६२४ शब्दादि में परिणामवाद की सिद्धि स्थादि दोष नहीं 625 क्षणिकवाद में कारणकार्यभाव की अनुपपत्ति | 654 अनेकान्तवाद में अनवस्थादि का परिहार 626 परिणामवादस्वीकार के विना कृतकत्वादि 655 परिशिष्ट-१ व्याख्यागतसाक्षिपाठों का की अनुपपत्ति अकारादिक्रम 628 सन्तानत्वहेतुक अनुमान में सत्प्रतिपक्षता / 656 शुद्धिपत्रक Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः // श्री विजयप्रेमसूरीश्वरेभ्यो नमः श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरि विरचित जसम्मतिप्रकरण श्री अभयदेवमूरिविरचित व्याख्या * तत्त्वबोधविधायिनी * . (हिन्दी विवेचन सहित) प्रथमः काण्डः [पुरोवचन ] ओं अर्ह नमः / विक्रमीय संवत्सर प्रवर्तक दानवीर सम्राट राजा विक्रमादित्य के प्रतिबोधक समर्थ तार्किक युगपुरुष श्री सिद्धसेन दिवाकर महाराज ने जैनदर्शन के 'श्री सम्मतितकंप्रकरण' नाम के अलौकिक शास्त्र की रचना की। इस शास्त्र में विश्व में अन्यत्र अप्राप्य विशिष्ट तत्त्व-सिद्धान्तरूप अनेकान्तवाद-नयवाद• ज्ञानस्वरूप इत्यादि का युक्तिपूर्ण निरूपण किया गया है। यह शास्त्र समझने में अतिशय गहरा होने से एवं शास्त्र के कथित पदार्थों में गर्भित एकान्तवादी मतों के पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष की तर्कबद्ध विवेचना को खोज निकालना अत्यन्त कठिन होने से तर्कपंचानन श्रीमद् अभयदेवसूरिजी महाराज ने इस सम्मति नाम के प्रकरण पर तत्त्वबोधविधायिनी नाम की विशद व्याख्या का निर्माण किया है। मूल ग्रन्थ एवं व्याख्या ग्रन्थ समझने में कठिन होने से यहाँ इन दोनों का संक्षिप्त हिन्दी विवेचन किया जाता है। 'तत्त्वबोधविधायिनी' नाम की इस व्याख्या के मंगलाचरण में व्याख्याकार यह कहते हैं [ व्याख्याकार मंगलाचरण ] स्फुरद्वागंशुविध्वस्तमोहान्धतमसोदयम् / वर्धमानार्कमभ्ययं यते सम्मतिवृत्तये // 1 // ___ अर्थः-- चमकते हये वाणी के किरणों द्वारा जिन्होंने मोहरूप अन्धकार के उदय का विध्वंस कर दिया है, ऐसे वर्धमानस्वामी रूप सूर्य की पूजा कर के मैं 'सम्मति' की व्याख्या के लिये यत्न करता हूँ॥१॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण काण्ड-१ प्रज्ञावद्भियद्यपि सम्मतिटीकाः कृता सुबह्वाः / ताभ्यस्तथापि न महानुपकारः स्वल्पबुद्धीनाम् // 2 // शेमुष्युन्मेषलवं तेवामाधातुमाश्रितो यत्नः / मन्दमतिना मयाऽप्येष नात्र सम्पत्स्यते विफलः // 3 // [ टीकाप्रारम्भः ] 'इह च शारीरमानसानेकदुःखदारिद्रयोपद्रवविद्वतानां निरुपमानतिशयानन्तशिवसुखानन्यसमाऽवन्ध्यकारणसम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मकपरमरत्नत्रयजिघृक्षया प्रतिगम्भीरजिनवचनमहोदधिमवतरितुकामानां तदवतरणोपायमविदुषां भव्यसत्त्वानां तद्दर्शनेन तेषां महानुपकार: प्रवत्तताम् / तत्पूर्वकश्चात्मोपकारः' इति मन्वानः प्राचार्यो दुष्षमाऽरसमाश्यामासमयोद्भूतसमस्तजनताहादसंतमसविध्वंसकत्वेनाऽवाप्तयथार्थाभिधानः सिद्धसेनदिवाकरः तदुपायभूतसम्मत्याख्यप्रकरणकरणे प्रवर्त्तमानः “शिष्टाः क्वचिदभीष्टे वस्तनि प्रवर्त्तमाना अभीष्टदेवताविशेषस्तवविधानपूरस्सरं प्रवर्तन्ते" इति तत्समयपरिपालनपरस्तद्विधानोदभूतप्रकृष्टशुभभावानल्पज्वलदनलनिर्दग्धप्रचुरतरविलष्टकर्माविर्भूतविशिष्टपरिणतिप्रभवां प्रस्तुतप्रकरणपरिसमाप्ति चाकलयन् 'अर्हतामहत्ता शासनपूर्विका, पूजितपूजकश्च लोकः, विनयमूलश्च स्वर्गापवर्गादिसुखसुमनःसमूहानंदामृतरसोदग्रस्वरूपप्राप्तिस्वभाव. फलप्रदानप्रत्यलो धर्मकल्पद्रुमः' इति प्रदर्शनपरभुवनगुरुभिरप्यवाप्तामलकेवलज्ञानसंपद्भिस्तीर्थकृद्भिः : शासनार्थाभिव्यक्तिकरणसमये विहितस्तवत्वात 'शासनमतिशयतः स्तवाहम्' इति निश्चिन्वन् 'असाधारणगुणोत्कीर्तनस्वरूप एव च पारमार्थिकस्तवः' इति च संप्रधार्य शासनस्याभीष्टदेवताविशेषस्य प्रधानभूतसिद्धत्व-कुसमयविशासित्वाहत्प्रणीतत्वादिगुणप्रकाशनद्वारेण स्तवाभिधायिकां गाथामाह-- अर्थः-यद्यपि बुद्धिमानों के द्वारा सम्मति ग्रन्थ की अनेक व्याख्याएँ बनायी गयी हैं जिसमें अर्थ का अति बहु विस्तार से प्रतिपादन है, फिर भी अति अल्प बुद्धिवालों के लिये उनसे महान् उपकार (महदंश में) नहीं हो सकता / / 2 / / [क्योंकि, वे व्याख्याएँ विशिष्ट निपुणमति से समझी जाय ऐसे गम्भीर विवेचनरूप हैं।] अर्थः- वैसे, अति अल्पबुद्धिवालों में कुछ भी बुद्धिविशेष का प्रकटीकरण हो जाय इसलिये मैंने इस व्याख्या के प्रयत्न का आश्रय किया है। अलबत्ता, मैं भी मंदबुद्धि हैं, फिर भी मुझ से भी जा अधिक अल्प बुद्धि वाले लोग हैं उनको मेरी व्याख्या से प्रज्ञाविशेष का प्रकटन हो सकने के कारण मेरा यह प्रयत्न निष्फल नहीं जायेगा / / 3 // [ आद्य मूलकारिका का अवतरण ] श्री सन्मतितर्कशास्त्र की प्रथम गाथा की व्याख्या के प्रारम्भ में भूमिका बनाते हुये व्याख्याकार महर्षि कहते हैं - आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकरजी महाराज, सम्मति नाम के प्रकरण की रचना इसलिये करते हैं कि इस संसार में शारीरिक और मानसिक अनेक दुःख और दरिद्रता के उपद्रव से भव्य जीव पीड़ित हैं-ये पीड़ित भव्य लोक अनुपम और निरतिशय अर्थात् सर्वोत्कृष्ट अनंत मक्षिसुख के अनन्यसाधारण एवं अमोघ कारणभूत सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन व सम्यक चारित्र जो श्रेष्ठ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का०१-प्रामाण्यवाद रत्नत्रयी कही जाती है, इस रत्नत्रयी को प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा से उस रत्नत्रयी के धारक यानी निदर्शक अति गम्भीर जिन वचन रूप महासागर का वे अवगाहन करना चाहते हैं किन्तु उसमें अवगाहन करने के उपाय को नहीं जानते. उन भव्य जीवों को उपाय का किसी प्रकार भी दर्शन हो जाय तो उनका महान उपकार सम्पादित हो सके एवं उस उपकारपूर्वक अपनी आत्मा पर भी उपकार होगा ऐसा समझने वाले आचार्य इस सम्मति प्रकरण शास्त्र की रचना में प्रवृत्त होते हैं। * मूलकार श्री सिद्धसेन दिवाकर महाराज 'दिवाकर' इस लिये कहे जाते हैं कि इस दूषम क्षपंचमआरक स्वरूप रात्रि के कारण समस्त लोगों के हृदय में जो भारी अज्ञान व मोहरूप अन्धकार उत्पन्न हो गया है, उस अन्धकार के वे विनाशक हैं, इसलिये यथार्थरूप से 'दिवाकर' नाम प्राप्त किया है / ऐसे श्री सिद्धसेन दिवाकर महाराज जिनेन्द्रदेव के वचनस्वरूप महासागर में अवगाहन करने में उपायभूत सम्मति नाम के प्रकरण की रचना में प्रवर्त्तमान हो रहे हैं। जब 'शिष्टपुरुष कभी इष्ट वस्तु में प्रवर्त्तमान होते हैं तब पहले अपने इष्ट देवताविशेष की स्तुति पुरस्सर प्रवर्त्तमान होते हैं' इस शिष्टाचार का पालन करने में तत्पर ग्रन्थकार देख रहे हैं कि इष्ट देवता की स्तुति करने से एक उत्कृष्ट शुभ भावस्वरूप प्रचंड जलती हयी चिराग प्रकट होती है और इस जलती हयी विशाल चिराग में अतिप्रचुर क्लिष्ट कर्म भी दग्ध हो जाते हैं और इससे आत्मा में एक विशिष्ट शुभ परिणति का प्रादुर्भाव होता है जिससे प्रस्तुत प्रकरण की समाप्ति होने वाली है। तात्पर्य, प्रस्तुत प्रकरण बीच में खण्डित-अपूर्ण न रह कर समाप्ति तक पहुंचने वाला है। - अब मूल ग्रन्थ की आद्य कारिका में जिन शासन यानी जिन प्रवचन की स्तुति क्यों की गयी है-इसका अवतरण दिखाते हुये व्याख्याकार कहते हैं ___ मूलग्रन्थकार ऐसे निश्चय पर आये हैं कि शासन यानी प्रवचन अत्यंतस्तुति योग्य है / कारण त्रिभुवन गुरु, निर्मल केवलज्ञान की संपत्ति के स्वामी, श्री तोर्थंकर भगवान के द्वारा (प्रस्तुत) शासन (प्रवचन) के प्रतिपाद्य अर्थ का प्रकाशन करते समय इस शासन की स्तुति की गई है। [ द्रष्टव्यआवश्यकनियुक्ति गाथा-५६७ ] 5 यह स्तुति भी तीन बात दिखाते हुये की गयी है-[१] अरिहंतो की अर्हत्ता शासनपूर्वक होती है क्योंकि शासन की उपासना करके जिननामकर्म उपार्जित करने द्वारा वे शासन की स्थापना करते हैं। [ 2 ] 'लोग जनसमुदाय पूजित का पूजक होता है' इस न्याय से पूर्व में तीर्थंकर आदि द्वारा शासन की पूजा को देखकर तत्तत्कालीन लोग शासन की पूजा करने लगते हैं। [3 / शासन का विनय यह धर्म रूप कल्पतरु का मूल है इस वास्ते उपकारक शासन का विनय यानी स्तवना पूजा अति आवश्यक है / धर्म को यहां कल्पवृक्ष इस लिये कहा कि स्वर्ग-मोक्षादि रूप पुष्पसमूह का, आनंद स्वरूप अमृत रस का तथा उच्चतम कक्षा की प्राप्ति स्वरूप फल का प्रदान करने में धर्म ही समर्थ है- इसलिये वह कल्पवृक्ष है। मूल ग्रन्थकार मंगलाचरण में शासन को, वंदना न करके उपरोक्त रीति से शासन के अन्यत्र अप्राप्त असाधारण गुणों की स्तवना करते हैं / कारण, पारमार्थिक यानी तात्त्विक स्तवना वैसे गुणस्तवनारूप ही होती है / यह अपने दिल में सुनिश्चित रखकर शासन को ही अपने इष्ट देवताविशेष मानकर के उसके पारमार्थिक सिद्ध व, कुमत-समुच्छेदकत्व एवं अर्हत्प्रणीतत्व इत्यादि शासन * जेनमत प्रसिद्ध कालचक्र [ Cycle of Time ] में अवसर्पिणी काल के छह विभागों में से पंचम विभाग। 9 (1) तप्पुब्विया अरहया (2) पूइयपूता य (3) विषयकम्मं च / कयकिच्चो वि जह कहं कहए णमए तहा तित्थं // Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [सम्मतिप्रकरण-आद्य गाथा ] सिद्ध सिद्धत्थाणं ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं / .. कुसमयविसासणं सासणं जिणाणं भवजिणाणं // 1 // (त.वि ) अस्याश्च समुदायार्थः एतत्पातनिकयव प्रकाशितः, अवयवार्थस्तु प्रकाश्यते / 'शास्यते / जीवाऽजीवादयः पदार्था यथावस्थितत्वेनानेनेति शासनं - द्वादशांगम् / तच्च सिद्धं प्रतिष्ठितं निश्चितप्रामाण्यमिति यावत् स्वमहिम्नव, नातः प्रकरणात प्रतिष्ठाप्यम् / / [प्रामाण्यं स्वतः परतो वेति वादप्रारम्भः ] (त. वि.) अत्राहुर्मीमांसका:-अर्थतथात्वप्रकाशको ज्ञातृव्यापारः प्रमाणम्, तस्यार्थतथात्वप्रकाशकत्वं प्रामाण्यम् / तच्च स्वतः (1) उत्पत्ती, (2) स्वकार्ये यथावस्थितार्थपरिच्छेदलक्षणे, (3) स्वज्ञाने च; विज्ञानोत्पादकसामग्रीव्यतिरिक्तगुणादिसामग्रयन्तर-प्रमाणान्तर-स्वसंवेदनग्रहणानपेक्षत्वात् / अपेक्षात्रयरहितं च प्रामाण्यं स्वत उच्यते इति / अत्र च प्रयोगः "ये यद्धावं प्रत्यनपेक्षास्ते तत्स्वरूपनियताः यथाऽविकला कारणसामग्र कूरोत्पादने / अनपेक्षं च प्रामाण्यमुत्पत्ती, स्वकार्ये ज्ञप्तौ च" इति / के गुणों के प्रकाशन द्वारा शासन की स्तवना करने वाली प्रथम गाथा को इस प्रकार कहते हैं"सिद्धं सिद्धत्थाणं"..."इत्यादि मूलगाथा 1 अर्थः-(रागद्वेषात्मक) भव के विजेता, अनुपमसुखवाले स्थान को प्राप्त, जिनों का (यानी सर्वज्ञों का, शासन) (प्रमाण से) सिद्ध अर्थों का (निरूपण करनेवाला) शासन, मिथ्यामतों का विघटन करने वाला एवं सिद्ध है (यानी स्वत: प्रमाणभूत है)। [ यहाँ 'जिणाणं' पद को कर्ता में षष्ठी और 'सिद्धत्थाणं' यहाँ कर्म में षष्ठी विभक्ति लगी है और दोनों का अन्वय 'सासणं' पद के साथ है ] व्याख्या:-इस मूल गाथा का समुदायार्थ पूर्व अवतरणिका से व्यक्त किया, अब अवयवार्थ यानी पदों का अर्थ प्रकाशित किया जाता है, वह इस प्रकार है 'शासन':-अर्थात् जीव अजीव आदि पदार्थ यथार्थ स्वरूप से जिसमें प्रकाशित होते हैं वह शासन कहा जाता है और वह 'द्वादशांग' स्वरूप है। वह सिद्ध - प्रतिष्टित है अर्थात् उसका प्रामाण्य सुनिश्चित है / यह प्रामाण्य अपनी महिमा के द्वारा ही स्वतः सिद्ध है, वास्ते इसी प्रकरण से सिद्ध करने की जरूर नहीं है। यहाँ स्व का अर्थ है स्वकीय, यानी स्व के उपदेशक जिनादि, उनकी महिमा से (यानी परतः) ही शासन-प्रवचन का प्रामाण्य सुस्थित है / मीमांसक वेद का प्रामाण्य स्वतः मानता है किंतु उपदेशक की महीमा से नहीं, इसलिये अब उसके मत की परीक्षा का प्रारम्भ हो रहा है [मीमांसक का स्वतः प्रामाण्य पक्ष ] [ संदर्भ:-अब पूर्वपक्षी मीमांसक स्वतःप्रामाण्य का संक्षिप्त प्रतिपादन करेगा। उसके सामने उत्तरपक्षी परतः प्रामाण्यवाद की संक्षिप्त स्थापना करेगा / पूर्वपक्षी मीमांसक विस्तार से उसका खण्डन करेगा और अपने पक्ष की पुनः प्रतिष्ठा करेगा। उसके सामने उत्तरपक्षी विस्तार से स्वतः प्रामाण्य का खण्डन करके स्वपक्ष की प्रतिष्ठा करेगा।] * द्रष्टव्य शास्त्रवार्ता० स्त० 7- श्लो० 27 पृ. 99 पं. 1 / Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का०१-प्रामाण्यवाद अत्र पस्तः प्रामाण्यवादिनः प्रेरयन्ति-अनपेक्षत्वमसिद्धम् / तथाहि-उत्पत्तौ तावत् प्रामाण्यं विज्ञानोत्पादककारणव्यतिरिक्तगुणादिकारणान्तरसापेक्षं, तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् / तथा च प्रयोगः यच्चक्षराद्यतिरिक्तऽभावाऽभावानुविधायि तत् तत्सापेक्षं, यथाऽप्रामाण्यम् / चक्षुराद्यतिरिक्तभावाऽभावानुविधायि च प्रामाण्यमिति स्वभावहेतुः / तस्मादुत्पत्तौ परतः / तथा स्वकार्ये च सापेक्षत्वास्परतः। तथाहि-ये प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदया न ते स्वतो व्यवस्थितधर्मकाः, यथाऽप्रामाण्यादयः / प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदयं च प्रामाण्यं तत्रेति विरुद्धव्याप्तोपलब्धिः / तथा ज्ञप्तौ च सापेक्षत्वात्परतः / तथाहि-ये संदेहविपर्ययाध्यासिततनवस्ते परतो निश्चितयथावस्थितस्वरूपाः यथा स्थाग्वादयः / तथा च संदेहविपर्ययाध्यासितस्वभाव केषाञ्चित्प्रत्ययानां प्रामाण्यमिति स्वभावहेतुः / / इस विषय में मीमांसक कहते हैं-अर्थ के तात्त्विक स्वरूप के प्रकाशक ज्ञातृव्यापार को प्रमाण कहते हैं, ऐसे व्यापार में अर्थ के तात्त्विक स्वरूप का जो प्रकाशकत्व है वही प्रामाण्य है / यह प्रामाण्य (1) उत्पत्ति में कारणान्तर की अपेक्षा न रखता हुआ स्वत: सिद्ध है और (2) अपने यथावस्थित अर्थबोधरूप कार्य करने में एवं (3) अपने ज्ञान में भी स्वतः यानी स्वायत्त है / प्रामाण्य की स्वतः उत्पत्ति, स्वतः कार्यजनन एवं स्वत: स्वबोध होने का कारण यह है कि वह किसी अन्य कारण की अपेक्षा नहीं रखता किन्तु विज्ञान की उत्पादक सामग्री से ही उन तीन कार्य सम्पन्न होते हैं। परन्तु उस सामग्री भिन्न किसी गुणादि सामग्री अथवा किसी प्रामाणान्तर अथवा स्वसंवेदन के लिये अन्य बोध की अपेक्षा नहीं रखता है / इन तीन अपेक्षाओं से रहित जो प्रामाण्य, वही स्वतः प्रामाण्य कहा जाता है / तात्पर्य, विज्ञान को उत्पन्न करने वाली जो सामग्री है उससे जैसे विज्ञान उत्पन्न होता है इसी प्रकार प्रमाण निष्ठ प्रामाण्य भी उत्पन्न होता है, एवं अर्थनिर्णय स्वरूप कार्य भी स्वतः उत्पन्न होता है, और प्रामाण्य का बोध भी स्वतः ही उत्पन्न होता है। इस सम्बन्ध में इस प्रकार अनुमान प्रयोग किया जाता है 'ये यद्भावं प्रति'....इत्यादि जो कारण जिन भावों के प्रति इतरानपेक्ष होते हैं, वे उन भावों के प्रति केवल अपने स्वरूप के साथ ही नियत होते हैं, अर्थात् उस सामग्री के अलावा किसी अन्य से संबद्ध नहीं होते है। जैसे, अंकुर मीमांसक के इस प्रतिपादन में यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि उसने इन्द्रिय अथवा अर्थप्रकाशस्वरूप विज्ञान को प्रमाण न कह कर ज्ञातृव्यापार को प्रमाण कहा है। यह व्यापार उसके मत में विज्ञानोत्पादक ज्ञातृगतक्रियात्मक है / तथा प्रामाण्य को भी विज्ञान का धर्म न बताकर उस व्यापार का ही धर्म बताया है / उसको उत्पत्ति में स्वतः कहने का यह आशय है कि वह व्यापार वक्तगुणादि की अपेक्षा नहीं करता है, अतः उसका धर्म प्रामाण्य भी गुणादि पर निर्भर नहीं है / मीमांसक का कहना है कि यथावस्थित अर्थबोध यानी अर्थप्रकाश यह प्रामाण्य फल हैं और उसमें भी प्रामाण्य को अन्य किसी प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती। तथा, भटमीमांसक मत में प्रामाण्य का ज्ञान भी स्वतः यानी ज्ञान ग्राहक, ज्ञाततालिंगक अनुमिति से होता है / तात्पर्य यह है कि मीमांसक मत में जो ज्ञानग्राही होता है वही प्रामाण्यग्राही भी होता है। प्रभाकर के मत में ज्ञान स्वयं स्व का और स्वगत प्रामाण्य का ग्राहक है। मुरारिमिश्र आदि प्रामाण्य का ज्ञान, स्वसंवेदन को यानी स्वाश्रयज्ञान को ग्रहण करने वाले अनुव्यवसाय से होने का मानते हैं। प्रस्तुत में मुख्य रूप से प्रभाकर और भट मत की समीक्षा है / व्याख्याकार आगे जा कर यह दिखायेंगे कि ज्ञातृव्यापार स्वयं ही एक असिद्ध वस्तु है इसलिये प्रामाण्य उसका धर्म नहीं है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 के उत्पादन में जो संपूर्ण कारण सामग्री अपेक्षित है वह उससे अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ के साथ नियम से सम्बद्ध नहीं है / इसी प्रकार ज्ञातृव्यापार निष्ठ प्रामाण्य स्व की उत्पत्ति आदि में ज्ञान की सम्पूर्ण सामग्री के स्वरूप से नियमत: संबद्ध है तब उससे अतिरिक्त किसी अन्य गुणांदि सामग्री से नियमतः संबद्ध नहीं है। इसलिये कहा जाता है कि प्रामाण्य उत्पत्ति में स्वत: है। वैसे यथावस्थित अर्थनिर्णयरूप कार्य में और अपनी ज्ञप्ति में भी स्वतः है। [परतः प्रामाण्यवादी का अभिप्राय ] इस विषय में जो (बौद्धमतवाले) विद्वान् प्रामाण्य को उत्पत्ति में परतः परकी अपेक्षावाला अर्थात् परावलम्बी मानते हैं वे इस प्रकार प्रतिवाद प्रस्तुत करते हैं-* __प्रामाण्य में अनपेक्षत्व असिद्ध है / अर्थात् 'प्रामाण्य के लिए प्रामाण्याश्रय ज्ञान की उत्पादक सामग्री से अतिरिक्त कारण आदि की अपेक्षा नहीं है-यह बात असिद्ध है। सामग्री के अलावा अन्य . कारणों की अपेक्षा का होना सिद्ध है / वह इस प्रकार- .. (1) प्रामाण्य अपनी उत्पत्ति के लिये स्वाश्रयज्ञान के जो उत्पादक कारण है उनसे भिन्न गुणादि कारणों की अपेक्षा रखता है क्योंकि प्रामाण्य यह गुणादि सामग्री के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण करने वाला है। जैसे-गुणादि सामग्री रहती है तो प्रामाण्य उत्पन्न होता है, यदि नहीं रहती तो प्रामाण्य की उत्पत्ति भी नहीं होती है / अनुमान प्रयोग इस प्रकार है-जो चक्षु आदि से अतिरिक्त वस्तु के भाव या अभाव को अनुसरण करने के स्वभाव वाला होता है वह उस वस्तु की अपेक्षा करता है, जैसे-अप्रामाण्य / तात्पर्य यह है कि पीलिया [=काचकामल] दोष से दूषित नेत्र वाले को श्वेत वस्तु भी पीली दिखाई पड़ती है उसमें नेत्र के अलावा पित्त दोष कारणभूत है। यहाँ पित्त दोष रहने पर पीतदर्शन होता है, न रहने पर नहीं होता है-यही भाव-अभाव का अनुसरण हुआ। अतः पीतदर्शन (भ्रमज्ञान) पित्त दोष को सापेक्ष है। यद्यपि यह तो अप्रमाण ज्ञान की बात हुयी किन्तु जैसे अप्रामाण्य को विद्यमान ज्ञानसामग्री से अधिक दोष की अपेक्षा है वैसे प्रामाण्य को विद्यमान ज्ञान सामग्री से अधिक गुण की अपेक्षा होती है। इस स्वभावहेतुक अनुमान से प्रामाण्य उत्पत्ति में परसापेक्ष सिद्ध होता है। (2) प्रामाण्य अपने कार्य में भी परसापेक्ष है। जैसे, जिनको अन्य बुद्धि के उदय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है वे अपने कार्यधर्म की स्वतः व्यवस्था यानी संपादन नहीं कर सकते। जैसे कि अप्रामाण्य आदि / आशय यह है कि अप्रामाण्य का कार्य है अर्थ का अयथार्थ परिच्छेद, इस कार्य में उसको अन्य विसंवादी बुद्धि के उदय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, इसलिये वह स्वतः स्वकार्य संपादक नहीं है। प्रामाण्य भी यथावस्थित अर्थपरिच्छेदरूप अपने कार्य में अन्य संवादीबुद्धि के उदय की प्रतीक्षा करता है इसलिये वह भी स्वतः स्वकार्यसंपादक नहीं है। प्रस्तुत अनुमान प्रयोग में हेतु का प्रकार विरुद्ध व्याप्तोपलब्धि है। वह इस प्रकार साध्यधर्म के विरुद्ध धर्म जो होता है उसका यहाँ विरुद्ध पद से उल्लेख किया है। इस विरुद्ध धर्म से जो व्याप्त हो उसकी प्रतीति विरुद्ध व्याप्त उपलब्धि कही जाती है। प्रस्तुत में स्वतः प्रामाण्यवादी के मत में साध्य है, "स्वतः अर्थात् कारणान्तर-ज्ञानान्तर निरपेक्ष स्वकार्यरूप धर्म का व्यवस्था * बौद्धमत के आधार पर स्वतः प्रामाण्य के निरसन में अन्तर्गत अभिप्राय के लिये द्रष्टव्य-पृ. 1286.6 / Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का०१-प्रामाण्यवाद पकत्व-"। इसका विरुद्ध धर्म है-'कारणान्तर निरपेक्ष-ज्ञानान्तर निरपेक्ष स्वकार्यरूप धर्म व्यवस्थापकत्व का अभाव', इसका व्याप्त है 'प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदयकत्व', अर्थात् कारणान्तर-ज्ञानान्तर की प्रतीक्षापूर्वक व्यवस्थापकत्व / इस विरुद्ध व्याप्त धर्म की प्रस्तुत में होने वाली उपलब्धि=प्रतीति हो यहाँ विरुद्धव्याप्तोपलब्धि है / इसका साध्य है प्रामाण्य में परसापेक्षत्व / . तात्पर्य, प्रमाणज्ञान का कार्य है वस्तु का यथार्थ परिच्छेद-प्रकाश / यह कार्य प्रमाणज्ञानोत्पादक कारणमात्र से नहीं होता किन्तु संवादिज्ञान के उदयरूप कारणान्तर से होता है / स्वतः प्रामाण्यवादियों के अनुसार अर्थ का यथार्थ प्रकाशरूप कार्य कारणान्तर की अपेक्षा नहीं रखता इस लिये यह कार्य स्वत: है। इस कार्य का स्वतोभाव यह स्वतःप्रामाण्यवादियों का साध्य है। इससे विरुद्ध है परतोभाव पर से कार्योत्पत्ति / इससे व्याप्त धर्म है अर्थ के यथार्थ प्रकाश के लिये अन्य कारणों की अपेक्षा। इस विरुद्ध व्याप्त धर्म की उपलब्धि है विरुद्धव्याप्तोपलब्धि / इससे स्वतःप्रामाण्यवादी का साध्य धर्म बाधित हो जाता है। __[3] इसी प्रकार प्रामाण्य, ज्ञप्ति में भी सापेक्ष होने से परतः है। अर्थात् , प्रामाण्य अपने निर्णय के लिए भी अन्य कारणों की अपेक्षा करता है इस लिये परतः है। इस विषय में अनुमान प्रयोग इस प्रकार है-जिन पदार्थों का स्वरूप संशय या भ्रम से ग्रस्त होता है उनका यथावस्थित स्वरूप अन्य कारणों के द्वारा निश्चित होता है / इस विषय में स्थाणु आदि दृष्टान्त है / दूर से देखने पर स्थाणु के विषय में यह स्थाणु है या पुरुष है' इस प्रकार का संशय हो जाता है अथवा सी को यह परुष है' ऐसा भ्रम ही हो जाता है। ऐसी संशयग्रस्त या भ्रमापन्न दशा में स्थाणु के यथार्थ स्वरूप का निश्चय स्थाणु के स्वरूपमात्र से नहीं होता किन्तु स्थाणु के निकट गमन एवं निपुण निरीक्षण से होता है / इसी प्रकार कुछ ज्ञानों का प्रामाण्य भी संदेहग्रस्त या भ्रमापन्न रहता है / यहां स्वभावहेतु साधक है, कुछ ज्ञानों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे संशय-भ्रम ग्रस्त होते हैं / यह स्वभाव, ज्ञान के प्रामाण्य की ज्ञप्ति परतः होने में साधक है इस लिए स्वभाव हेतु रूप हुआ। . स्वतः प्रामाण्यवादियों के अनुसार प्रमाणज्ञान का प्रामाण्य अपनी उत्पत्ति में, अपने कार्य में व अपनी ज्ञप्ति में स्वतः है, अर्थात् इन तीनों के लिये अन्य कारणों की अपेक्षा नहीं रखता। जो ज्ञान के उत्पादक हैं, उन्हीं से ये तीन-ज्ञाननिष्ठ प्रामाण्य की उत्पत्ति, यथावस्थित पदार्थबोध रूप कार्य व प्रामाण्य की ज्ञप्ति उत्पन्न हो जाती है, तीनों में अन्य कारणों की अपेक्षा नहीं होती। (1) उत्पत्ति में,-प्रमाणज्ञान के उत्पादक कारणों से जैसे वह प्रमाण ज्ञान उत्पन्न होता है वैसे उसमें प्रामाण्य भी उत्पन्न हो जाता है. (2) कार्य में, ज्ञान जैसे अपने स्वरूप से ही पदार्थपरिच्छेदरूप कार्य करता है वैसे प्रामाण्य उसी ज्ञान स्वरूप से ही यथार्थ पदार्थपरिच्छेदरूप कार्य को करता है. किन्तु इस कार्यजनन में अन्य कारण की अपेक्षा नहीं करता। (3) ज्ञप्ति में. जैसे ज्ञान स्वत:प्रकाश्य मत में ज्ञान की ज्ञप्ति स्वतः होती है किन्तु इसके लिये कोई दूसरा ज्ञान करना होता नहींउदाहरणार्थ, घटज्ञान से घट का स्वरूप प्रकाशित हुआ उसी समय घटज्ञान का स्वरूप भी प्रकाशित हुआ किन्तु घटज्ञान को जानने के लिये कोई नया ज्ञान लाना नहीं पडता, अर्थात् घटज्ञान से भिन्न अन्य कारण की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती। अनुभव ऐसा ही है कि जिस समय घटज्ञान-'अयं घट:' बोध होता है उसी समय 'घटमहं जानामि-घटं पश्यामि-घटज्ञानवान् अहं' ऐसा घटज्ञान का भी बोध होता है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 [ (1) परत उत्पत्तिवादप्रतिक्षेपारम्भः-पूर्वपक्षः] अत्र यत्तावदुक्तं-'प्रामाण्यं विज्ञानोत्पादककारणव्यतिरिक्तगुणादिकारणसव्यपेक्षमुत्पत्तौ'तदसत् , तेषामसत्त्वात् / तदसत्त्वं च प्रमाणतोऽनुपलब्धेः। तथाहि-न तावत्प्रत्यक्षं चक्षुरादीन्द्रियगतान् गुणान् ग्रहीतु समर्थम् , अतीन्द्रियत्वेनेन्द्रियाणां तद्गुणानामपि प्रतिपत्तुमशक्तेः / अथानुमानमिन्द्रियगुणान् प्रतिपद्यते-तदप्यसम्यक अनुमानस्य प्रतिबद्धलिडलिवयबरेलोनारपYषणमात्रा प्रतिबन्धक किं A प्रत्यक्षेणेन्द्रियगतगुणैः सह गृह्यते लिंगस्य, B आहोस्विदनुमानेनेति वक्तव्यम् / तत्र यदि प्रत्यक्षमिन्द्रियाश्रितगुणैः सह लिङ्गसम्बन्धग्राहकमभ्युपगम्यते, तदयुक्तम् , इन्द्रियगुणानामप्रत्यक्षत्वे तद्गतसम्बन्धस्याप्यप्रत्यक्षत्वात् / * 'द्विष्ठसंबंधसंवित्तिर्नेकरूपप्रवेदनात्' इति वचनात् / दीपक का प्रकाश जिस प्रकार घटादि को प्रकाशित करता है इसी प्रकार दीपक को भी प्रकाशित करता है। दोपक से जैसे घटज्ञान होता है इसी प्रकार स्व का भी ज्ञान होता है, दीपक को देखने के लिये अन्य दीपक नहीं लाना पड़ता इसी प्रकार वस्तु के प्रकाशक ज्ञान को प्रकाशित करने के लिए किसी अन्य प्रकाशक ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती। इस प्रकार जैसे ज्ञान अपनी ज्ञप्ति में स्वतः है वैसे ज्ञानगत प्रामाण्य भी अपनी ज्ञप्ति में अर्थात अपने ज्ञान के लिये स्वत: है, ज्ञान का से अतिरिक्त कारण की अपेक्षा नहीं रखता / अर्थात् जैसे ज्ञान का अनुभव वस्तु के अनुभव के साथ ही हो जाता है वैसे स्वतःप्रामाण्यवादो के मत में ज्ञानप्रामाण्य का अनुभव भी वस्तु के अनुभव के साथ ही हो जाता है / सारांश, 'अयं घटः' इस अनुभव के साथ उसके प्रामाण्य का भी अनुभव एक : साथ ही होता है / इसलिये प्रामाण्य अपने ज्ञान के विषय में भी स्वत: है / यह स्वतः प्रामाण्यवादियों का अभिप्राय है / परतः प्रामाण्यवादी इनके विरुद्ध हैं। [(1) प्रामाण्य उत्पत्ति में परतः नहीं है-पूर्वपक्ष ] स्वतःप्रामाण्यवादी:-आपने जो कहा-'प्रामाण्य यह ज्ञान के उत्पादक कारणों से भिन्न गुण आदि कारण की अपेक्षा उत्पत्ति के लिए रखता है'-यह कथन अयुक्त है / जिन गुणों की आप अपेक्षा कहते हैं वे गुण विद्यमान नहीं है-असत् हैं / जो असत् हैं उनकी अपेक्षा नहीं हो सकती / वे गुण असत् इसलिये हैं कि वे किसी प्रमाण से प्रतीत नहीं है / यह इस प्रकार-अगर आप 'गुण' करके इन्द्रियगत गुणों को पुरस्कृत करते हो तब चक्षु आदि इन्द्रियगत गुणों को जानने में प्रत्यक्ष प्रमाण समर्थ नहीं है। क्योंकि-चक्षु आदि इन्द्रिय अतीन्द्रिय हैं इसलिये उनके आश्रित गुण भी अतीन्द्रिय होने से इन्द्रियों द्वारा उनका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। अगर आप कहें, 'अनुमान इन्द्रियों के गुणों को ग्रहण करेगा' तो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रतिबन्ध अर्थात् व्याप्ति से युक्त हेतु के निश्चय के बल पर अनुमान का उत्थान होता है। प्रकृत स्थल में इन्द्रिय गुणों का अनुमान करने के लिये जब हेतु का प्रयोग करते हैं तब इन्द्रिय के गुणों के साथ हेतु की व्याप्ति का निर्णय आवश्यक है किन्तु किसी भी प्रमाण से व्याप्ति संबंध निश्चित नहीं हो सकता। [प्रत्यक्ष से व्याप्तिग्रहण का असंभव ] यह इस प्रकार-A इन्द्रियगत गुणों के साथ हेतु का व्याप्ति नामक संबंध प्रत्यक्ष से निश्चित * 'द्वयस्वरूपग्रहणे सति सम्बन्धवेदनम्' इत्युत्तरार्धम् / Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का०१- प्रामाण्यवाद _B अथानुमानेन प्रकृतसंबंधः प्रतीयते / तदप्ययुक्तम् , यतस्तदप्यनुमानं किं C गृहीतसम्बन्धलिंगप्रभवम् D उताऽगहीतसंबंधलिंगसमुत्थम् ? तत्र D यद्यगृहीतसम्बन्धलिंगप्रभवम् तदा कि E प्रमाणमुता F ऽप्रमाणम् ? F यद्यप्रमाणम् , नातः सम्बन्धप्रतीतिः। अथ E प्रमाणं, तदपि न प्रत्यक्षम् , अनुमानस्य बाह्यार्थविषयत्वेन प्रत्यक्षत्वानभ्युपगमात् / कि तु अनुमानम् , तच्चानवगतसम्बन्धं न प्रवर्तते इत्यादि वक्तव्यम् / c अथावगतसंबन्धं, तस्यापि सम्बन्धः किं G तेनैवानुमानेन गृह्यत H उतान्येन ? G यदि तेनैव गृह्यते इत्यभ्युपगमः, स न युक्तः, इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात् / तथाहिगहीतप्रतिबन्धं तत् स्वसाध्यप्रतिबन्धग्रहणाय प्रवर्तते, तत्प्रवृत्तौ च स्वोत्पादकप्रतिबन्धग्रहः इत्यन्योन्यसंश्रयो व्यक्त. / / अथान्येनानुमानेन प्रतिबन्धग्रहाभ्युपगमः, सोऽपि न युक्तः, अनवस्थाप्रसंगात् / तथाहि-तदप्यनुमानमनुमानप्रतिबन्धग्राहकमनुमानान्तराद गृहीतप्रतिबंधमुदयमासादयति तदप्यन्यतोऽनुमानाद् गृहीतप्रतिबन्धमित्यनवस्था। होता है ? B अथवा अनुमान से निश्चित होता है ? यह आपको कहना होगा / A यदि आप मानते हैं कि-'इन्द्रियगत गुणों के साथ हेतु के व्याप्ति संबंध का ग्राहक प्रत्यक्ष है'-तो यह युक्त नहीं है क्योंकिअतीन्द्रिय इन्द्रियों के गुण प्रत्यक्ष न होने से उन गुणों का संबंध भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। 'द्विष्ठसंबंधसंवित्तिर्नेकरूपप्रवेदनात्' यह एक प्राचीन वचन है जिसके अनुसार 'संबंध दो पदार्थों में रहता है उसका ज्ञान एक पदार्थ के अनुभव से नहीं हो सकता'। दोनों पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान हो तब संबंध का ज्ञान हो सकता है। [ अनुमान से हेतु में गुणों की व्याप्तिग्रहण का असंभव ] ___B अब यदि आप इन्द्रियगत गुणों और हेतु के व्याप्ति संबंध का निश्चय अनुमान से मानते हैं तो वह भी युक्त नहीं। क्योंकि जिस अनुमान से आप यह निश्चय करते हैं वह अनुमान भी C निश्चित संबंध वाले हेतु से उत्पन्न होता है ? या D अनिश्चित संबंध वाले हेतु से उत्पन्न होता है ? D यदि अनुमान इस प्रकार के लिंग से उत्पन्न है जिसका साध्य के साथ संबंध निश्चित नहीं है तो में कि यह अनुमान E प्रमाण है अथवा F अप्रमाण ! यदि आप उसको F अप्रमाण कहते हैं तो उससे लिंगसंबंध का निश्चय नहीं हो सकता। यदि आप उसको E प्रमाण कहते हैं तो अनुमान प्रस्तुत होने से वह प्रत्यक्ष प्रमाणरूप नहीं हो सकता। क्योंकि अनुमान बाह्यार्थ विषयक अर्थात् परोक्षविषयक होता है / परोक्षविषयक होने से उसको प्रत्यक्षरूप में स्वीकार नहीं कर सकते / एवं प्रत्यक्ष पक्ष में जो दोष कहे हैं-जैसे कि-अतीन्द्रिय इन्द्रियों के अतीन्द्रियगुण के साक्षात्कार की आपत्ति इत्यादि, वे यहां प्रमाण को प्रत्यक्षरूप मान लेने से सावकाश होंगे। इसलिये अगृहीत सम्बन्ध लिङ्गक ज्ञान को प्रत्यक्षप्रमाणरूप नहीं किन्तु अनुमानप्रमाणरूप लेना होगा। किन्तु ऐसा अनुमान बन नहीं सकता, क्योंकि जब व्याप्ति संबंध का ज्ञान ही नहीं है तब बिना व्याप्तिज्ञान अनुमान की प्रवृत्ति कैसे हो सकतो है ? (अथावगतसम्बन्ध ...) C अगर कहें कि इन्द्रियगुण साधक प्रथम अनुमान की व्याप्ति का साधक द्वितीय अनुमान ऐसे ही लिंग से उत्पन्न है जिसमें अपने साध्य को व्याप्ति निश्चित है / तो यहां भी प्रश्न है कि द्वितीय अनुमान के लिंग में अपने साध्य की व्याप्ति का निश्चय G उसी द्वितीय अनुमान से होगा या H अन्य अनुमान से ? G अगर कहें उसी द्वितोय अनुमान से होता हैतो ऐसा कहना युक्त नहीं है-क्योंकि इसमें अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त होगा। यह इस प्रकार Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 किं च, तदनुमानं स्वभावहेतुप्रभावितं, कार्यहेतुसमुत्थं, अनुपलब्धिलिंगप्रभवं वा प्रतिबन्धग्राहक स्यात् ? अन्यस्य साध्यनिश्चायकत्वेन सौगतैरनभ्युपगमात् / तदुक्तम्-'त्रिरूपाणि च त्रिण्येव लिगानि अनुपलब्धिः, स्वभावः, कार्य च' इति / 'त्रिरूपाल्लिगाल्लिगिविज्ञानमनुमानम् [न्याबिंदु सू०११-१२]' इति च / तत्र स्वभावहेतुः प्रत्यक्षगृहीतेऽर्थे व्यवहारमात्रप्रवर्तनफलः यथा शिशपात्वादिवृक्षादिव्यवहारप्रवर्तनफलः / न च अक्षाश्रितगुणलिंगसम्बन्धः प्रत्यक्षतः प्रतिपन्नो, येन स्वभावहेतुप्रभवमनुमानं तत्सम्बन्धव्यवहारमारचयति / [उसी अनुमान से व्याप्तिग्रहण में अन्योन्याश्रय ] ( तथाहि-गृहीतप्रतिबन्धं तत् ) (1) यहाँ मूल अनुमान 'इन्द्रियं गुणवत् स्वकार्याऽसाधारणकारणत्वात् यथा कुठारः ( तीक्ष्णतादिगुणवान् )-गुणवत्ता इसमें व्यापक है और स्वकार्याऽसाधारणकारणत्व व्याप्य है / इन दोनों की व्याप्ति का ज्ञान द्वितीय अनुमान से करना है / (2) वह इस प्रकार-'स्वकार्याऽसाधारणकारत्वं गुणव्याप्यम् असाधारणकारणवृत्तित्वात्' / अब इस द्वितीय अनुमान के लिंग में व्याप्ति संबन्ध अगर उसी द्वितीयानुमान से ही निश्चित होगा तो इस प्रकार अन्योन्याश्रय होगा कि अपने लिंग का सम्बन्ध निश्चित होने पर वह द्वितीय अनुमान अपने साध्यभूत प्रथम अनुमान की व्याप्ति के ग्रहण में प्रवृत्त होगा, और वह द्वितीय अनुमान प्रवृत्त होगा तभी अपने उत्पादक लिंग के व्याप्ति सम्बन्ध का ग्रहण होगा। स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय है। [ अन्य अनुमान से व्याप्तिग्रहण में अनवस्था ] ... H यदि कहें, इस द्वितीय अनुमान की व्याप्ति का ज्ञान अन्य अनुमान के द्वारा होता है, तो यह भी युक्त नहीं है। क्योंकि इस रीति से मानने पर अनवस्था आ जाती है। यह इस प्रकारयह पूर्वोक्त अनुमान की व्याप्ति का ग्राहक तृतीय अनुमान भी अपनी व्याप्ति के ज्ञान के विना नहीं हो सकता और इस व्याप्ति ज्ञान के लिए भी अन्य अनुमान की आवश्यकता होगी। तथा वह अन्य अनुमान भी अपने हेतु और साध्य को व्याप्ति को जानने के लिये अन्य अनुमान की अपेक्षा करेगा। इस प्रकार अनवस्था होगी। 1 [व्याप्ति ग्राहक अनुमान के संभवित तीन हेतु ] इसके अतिरिक्त यह भी सोचना चाहिये कि जिस अनुमान को आप प्रथम अनुमान की व्याप्ति का ग्राहक कहते हो वह अनुमान क्या (1) स्वभाव हेतु से उत्पन्न है ? (2) कार्य हेतु से उत्पन्न है ? अथवा (3) अनुपलब्धि हेतु से उत्पन्न है ? इन तीनों से भिन्न किसी लिंग को बौद्ध लोग साध्य का साधक नहीं मानते हैं। कहा भी है - 'त्रिरूपाणि च त्रिण्येव लिंगानि / अनुपलब्धिः, स्वभावः, कार्य च' इति 'त्रिरूपाल्लिगाल्लिगिविज्ञानमनुमानम्' / [ धर्मकीत्ति कृत न्यायबिंदु सूत्र 11-12 ] इति च / पक्षसत्त्व-सपक्षसत्त्व-विपक्षासत्त्वरूपाणि / Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड का०-१ प्रामाण्यवाद नापि कार्यहेतुसमुत्थम्, अक्षाश्रितगुणलिंगसम्बन्धग्राहकत्वेन तत् प्रभवति, कार्यहेतोः सिद्ध कार्यकारणभावे कारणप्रतिपत्तिहेतुत्वेनाऽभ्युपगमात् / कार्यकारणभावस्य च सिद्धि : प्रत्यक्ष-अनुपलम्भप्रमाणसम्पाद्या। न च लोचनादिगतगणाश्रितलिंगसम्बन्धग्राहकत्वेन प्रत्यक्षप्रवृत्ति: येन तत्कार्यत्वेन कस्यचिल्लिगस्य प्रत्यक्षतः प्रतिपत्तिः स्यात् / तन्न कार्यहेतोरपि प्रतिबन्धप्रतिपत्तिः। __अनुपलब्धेस्त्वेवंविधे विषये प्रवृत्तिरेव न सम्भवति, तस्या अभावसाधकत्वेन व्यापाराभ्युपगमात् / न चायल्लिगमभ्युपगम्यत इत्युक्तम् / न च प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तानां प्रामाण्योत्पादकत्वम् / .. अथ कार्येण यथार्थोपलब्ध्यात्मकेन तेषामधिगमः / तदप्ययुक्तम् , यथार्थत्वाऽयथार्थत्वे विहाय यदि कार्यस्य उपलब्ध्याख्यस्य स्वरूप निश्चितं भवेत्तटा यथार्थत्वलक्षण: कार्यस्य विशेषः पूर्वस्माकारणकलापादनिष्पद्यमा पद्यमानो गुणाख्यं स्वोत्पत्तो कारणान्तरं परिकल्पयति / यदा त यथार्थवोपलब्धिः स्वोत्पादककारणकलापानुमापिका तदा कथमुत्पादकव्यतिरेकेण गुणसद्भावः ? अयथार्थत्वं तूपलब्धेः कार्यस्य विशेषः पूर्वस्मात्कारणसमुदायादनुपपपद्यमानः स्वोत्पत्तौ सामग्रचन्तरं परिकल्पयति / प्रत एव परतोऽप्रामाण्यमुच्यते / तस्योत्पत्तौ दोषापेक्षत्वात् / न चेन्द्रियनर्मल्यादि गुणत्वेन वक्तु शक्यम्, नेमल्यं हि तत्स्वरूपमेव, न पुनरौपाधिको गणः। तथाव्यपदेशस्तु दोषाभावनिबन्धनः। तथाहिकामलादिदोषाऽसत्त्वान्निर्मलमिन्द्रियमुच्यते, तत्सत्त्वे सदोषम / मनसोऽपि मिद्धाद्यभावः स्वरूपम् , तत्सद्धावस्तु दोषः। विषयस्यापि निश्चलत्वादिः स्वभावः चलत्वादिकस्तु दोषः / प्रमातुरपि क्षुदाद्यभावः स्वरूपम्, तत्सद्भावस्तु दोषः / तदुक्तम् ‘इयती च सामग्री प्रमाणोत्पादिका' / तदुत्पद्यमानमपि स्वोत्पादककारणव्यतिरिक्तगुणानपेक्षत्वात् स्वत उच्यते / इन तीनों में जो स्वभाव हेतु है वह प्रत्यक्ष से जिस अर्थ की प्रतीति होती है उसमें केवल व्यवहार को प्रवृत्ति करता है, अन्य कोई कार्य नहीं करता / जैसे कि, शिंशपा आदि को वृक्षादि सिद्ध करने के लिये 'अयं वृक्षः शिंशपात्वात्' इस प्रकार शिशपात्व आदि जब हेतुरूप से प्रयुक्त किया जाता है तो वह स्वभावहेतु होता है जिससे शिंशपा में वृक्ष का व्यवहार सिद्ध किया जाता है / प्रत्यक्ष अर्थ में स्वभाव हेतु की प्रवृत्ति होती है। किन्तु यहां इन्द्रियों के गुण अतीन्द्रिय होने से उनके साथ हेतु का व्याप्ति संबंध प्रत्यक्ष से निश्चित नहीं हो सकता। इसलिये स्वभाव हेतु से उत्पन्न अनुमान इन्द्रियगुणों के साथ हेतु के संबन्ध का व्यवहार प्रकाशित नहीं कर सकता। [कायहेतुक अनुमान से सम्बन्ध सिद्धि का अभाव ] (2) कार्य हेतु से जो अनुमान उत्पन्न होता है वह भी इन्द्रिय गुणों के साथ हेतु के व्याप्ति . सम्बन्ध के प्रकाशन में समर्थ नहीं हो सकता। कार्य-कारण भाव सिद्ध होने पर कारण के अनुमान में कार्य को हेतुरूप से पुरस्कृत किया जाता है। जैसे कि 'वह्निमान् धूमात्' इसमें कार्य धूम यह हेतु रूप से पुरस्कृत किया है। यह आपको भी स्वीकार्य है। कार्य-कारणभाव की सिद्धि प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ (अर्थात् अन्वय और व्यतिरेक ) प्रमाण से निश्चित होती है। अतीन्द्रिय चक्षु आदि में रहने वाले अतीन्द्रिय गुणों के साथ लिंगसंबंधग्राहक के रूप में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं हो सकती जिससे यह कह सके कि इसके कार्यरूप में किसी लिंग का प्रत्यक्ष होता है। इसलिए कार्यहेतु के द्वारा भी व्याप्ति का निश्चय नहीं हो सकता। अनुपलब्धि की तो इस प्रकार के विषय में प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती। क्योंकि आप अनुपलब्धि को अभावसाधकरूप से उपयुक्त मानते हैं। परन्तु इन्द्रियगत Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 गुणों के साथ हेतु का सम्बन्ध अभावस्वरूप नहीं है। इन तीनों से अतिरिक्त किसो हेतु को आप स्वीकार नहीं करते और आपके मतानुसार प्रत्यक्ष प्रमाण और अनुमान प्रमाण से अतिरिक्त कोई भी प्रमाण नहीं है। अत: इन्द्रियगत गुणों का ज्ञान नहीं हो सकता। जो किसी भी देश-काल में प्रमाण द्वारा प्रतीत नहीं होता है उसका सत् रूप से व्यवहार नहीं होता है, जैसे खरगोश का सींग / आपके द्वारा स्वीकृत इन्द्रियगत गुण प्रमाण के द्वारा किसी देश-काल में प्रतीत नहीं होते इसलिये ज्ञान के उत्पादक कारणों से भिन्न गुण आदि सामग्री प्रामाण्य की उत्पादक है यह कैसे माना जाय ? [ यथार्थोपलब्धि कार्य से गुणों की सिद्धि अशक्य ] यदि आप कहें-'अर्थ की यथार्थ प्रतीति इन्द्रियगत गुणों का कार्य है, इस कार्य से इन्द्रियगत गुणों का अनुमान होता है'-तो यह भी युक्त नहीं, क्योंकि यहां प्रश्न होगा कि प्रतीति जो कार्य है वह यथार्थ होती है वा अयथार्थ ? यथार्थ और अयथार्थ भाव को छोडकर प्रतीति का अन्य कोई सामान्य स्वरूप प्रसिद्ध नहीं है / यदि प्रतीति का यथार्थभाव और अयथार्थभाव के अलावा अन्य कोई सामान्यस्वरूप निश्चित हो तब कार्य का यथार्थभावरूप विशेषस्वरूप को उत्पन्न होने के लिये पूर्ववर्ती विज्ञान सामान्य के कारणों के समूहमात्र से उत्पन्न न होने के कारण, इन्द्रियगत गुण नामक अन्य कारण की अपेक्षा होती और तभी यथार्थभाव की अन्यथा अनुपपत्ति से उसका अनमान भी हो सकता परन्त सामान्यतः यथार्थभाव को छोडकर प्रतीति यानी विज्ञान का अन्य कोई स्वरूप है ही नहीं, इसलिए अपने उत्पादक कारणों से प्रतीति जब भी होती है तब यथार्थ ही होती है / हाँ, अगर दोषात्मक विशेष कारण आ जाय तब प्रतीति अयथार्थ होगी। इसलिए दोषात्मक : विशेष कारण के अभाव में अपने उत्पादक कारणों से यथार्थ प्रतीति ही उत्पन्न होने की वजह से यथार्थ उपलब्धि स्वरूप कार्यहेतु से ज्ञानोत्पादक कारणों ति हो सकती है। इस दशा में उत्पादक कारणसमूह से अतिरिक्त गुणों की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। प्रतोतिस्वरूप कार्य का अयथार्थत्व तो विशेष धर्म है / इसलिए वह पूर्ववर्ती कारणों के समूह से नहीं उत्पन्न हो सकता, अतः इस अयर्थोपलब्धिरूप कार्यहेतु विशेष से दोषादि अन्य कारण का अनुमान हो सकता है / यही कारण है-प्रतीति की अयथार्थता ज्ञान के सामान्य कारणों से नहीं उत्पन्न होती, किन्तु विशेष कारण की अपेक्षा रखती है / अतः अयथार्थ उपलब्धि अपनी उत्पत्ति के लिए सामान्य कारणों से अतिरिक्त दोषादि सामग्री की अपेक्षा रखती है / अत: इससे अयथार्थ उपलब्धि स्थल में दोषादि का अनुमान होता है। इसलिए अप्रमाण्य को परतः अर्थात् परं की अपेक्षा से उत्पन्न होने का कहा जाता है / कारण अप्रामाप्य उत्पत्ति में दोषापेक्ष है। [ दोषसिद्धि की समानयुक्ति से गुणसिद्धि का असंभव ] यदि आप कहें-'अप्रामाण्य में कारणभूत दोषादि के समान प्रामाण्य में इन्द्रियों का निर्मलभाव आदि गुण अपेक्षित हैं / उसके द्वारा ज्ञान का यथार्थभाव उत्पन्न होता है / यहां यह विवेक कर सकते हैं कि इन्द्रिय यह ज्ञान को उत्पत्ति में कारण हैं और उनका निर्मलभाव प्रामाण्य की उत्पत्ति में कारण है। अतः अप्रामाण्य के समान प्रामाण्य को भी परत: अर्थात् 'गुण' से उत्पन्न होने वाला मानना चाहिये'-तो यह कयन युक्त नहीं / इन्द्रियों का निर्मलभावस्वरूप गुण तो इन्द्रियों का स्वरूप ही है किन्तु किसी उपाधि से उत्पन्न होने वाला नहीं। जब निर्मलभाव इन्द्रिय का गुण हैऐसा व्यवहार करते हैं तब यह व्यवहार दोषाभाव को लेकर होता है। अर्थात् वहां दोषाभाव ही Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड का०-१ प्रामाण्यवाद नाप्येतद्वक्तव्यम्-"तज्जनकानां स्वरूपमयथार्थोपलब्ध्या समधिगतम् , यथार्थत्वं तु पूर्वस्मात्कार्यावगतात्कारकस्वरूपादनिष्पद्यमानं किमिति गणाख्यं सामग्रयन्तरं न कल्पयति" / प्रक्रियाया विपर्ययेणापि कल्पयितु शक्यत्वात् / यतो न लोकः प्रायशो विपर्ययज्ञानात् स्वरूपस्थं कारणमप्यनुमिनोति किंतु सम्यग् ज्ञानात् / तथाविधे च कारकानुमानेऽशक्यप्रतिषेधा पूर्वोक्तप्रक्रिया / नापि तृतीयं यथार्थत्वाऽयथार्थत्वे विहाय कार्यमस्तीत्युक्तम् / अपि चार्थतथाभावप्रकाशनरूपं प्रामाण्यम / तस्य चक्षरादिकारणसामग्रीतो विज्ञानोत्पत्तावप्यनुत्पत्त्यभ्युपगमे विज्ञानस्य कि स्वरूपं भवद्भिरपरमभ्युपगम्यत इति वक्तव्यम् / न च तद्रूपव्यतिरेकेण विज्ञानस्वरूपं भवन्मतेन सम्भवति, येन प्रामाण्यं तत्र विज्ञानोत्पत्तावप्यनुत्पन्नमुत्तरकाल तत्रैवोत्पत्तिमदभ्युपगम्येत, भित्ताविव चित्रम् / गुणस्वरूप है। इसकी उपपत्ति इस प्रकार है-कामल ( नेत्रगोलक पर पित्त का आवरण ) आदि दोषों के न रहने पर. इन्द्रिय निर्मल कही जाती है। तात्पर्य, दोषों का अभाव यह इन्द्रियों का स्वरूप हो है। यदि कामल आदि दोष हो तभी इन्द्रिय दोषयुक्त कही जाती है, अन्यथा दोष के अभाव में इन्द्रिय गणयुक्त इन्द्रिय कर के नहीं है-मात्र इन्द्रिय है वैसा ही कहा जाता है / मिद्ध अर्थात् निद्रा का अथवा इसके तुल्य अन्य जडतादि दोषों का अभाव मन का शुद्ध स्वरूप है / निद्रा आदि का सद्भाव मन का दोष है। ज्ञान के विषय का निश्चल याने स्थिर भाव आदि यह स्वभाव है। परन्तु चंचल भाव आदि दोष है / क्योंकि वस्तु अतीव कम्पमान होती है तब उसका यथार्थबोध नहीं हो सकता। भूख आदि का अभाव यह प्रमाता यानी प्रमाण ज्ञान करने वाले आत्मा का स्वरूप है। परन्तु भूख आदि का सद्भाव दोष रूप है। कहा भी है "प्रमाणों की उत्पादक सामग्री इतनी ही होती है।" इसलिये प्रामाण्य जब उत्पन्न होता है तब अपने उत्पादक जो ज्ञानसामान्य के कारण हैं उनके अलावा गुणों को कारणरूप में अपेक्षा नहीं करता इसलिये प्रामाण्य स्वतः कहा जाता है / [ यथार्थत्व से गुणसामग्री कल्पना में प्रतिबन्दी ] यह भी आप नहीं कह सकते मात्र ज्ञान के उत्पादक कारणों का स्वरूप तो अयथार्थ ज्ञान से अनुमित हो जाता है, क्योंकि ज्ञान सामान्य की सामग्री अयथार्थ ज्ञान की जनक होती है। अगर कोई विशेष कारण ( गुण) इसमें प्रविष्ट हो जाय तब ज्ञान यथार्थ उत्पन्न होगा। इसलिये ज्ञान का यथार्थभाव अयथार्थापलब्धिरूप सामान्य कार्य से अनुमित कारणसमूहमात्र से उत्पन्न नहीं हो सकता। तब उसके लिये अर्थात् वह अपनी उत्पत्ति के लिये गुण नामक अन्य सामग्री का अनुमान क्यों नहीं करायेगा ? . ऐसा कहना इसलिये शक्य नहीं है कि-यहाँ इस प्रक्रिया को विपरीतरूप से होने की कल्पना भी कर सकते हैं / तात्पर्य यह है कि-गुणों के अनुमान के लिये जिस प्रक्रिया की आपने कल्पना की है उससे विपरीत रूपको भी प्रक्रिया का कहना की जा सकती है। यह इस प्रकार-जसे आपने ज्ञानसामान्य की सामग्रा से सहजरूप से अयथार्थ ज्ञान उत्पन्न होने की एवं गुणादि कारण विशेष के प्रहकार से यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होने की प्रक्रिया को कल्पना की है, वैसे उसके विपरीतरूप में यह कहा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 किं च यदि स्वसामग्रीतो विज्ञानोत्पत्तावपि न प्रामाण्यं समुत्पद्यते, किंतु तद्व्यतिरिक्तसामग्रीतः पश्चाद् भवति, तदा विरुद्धधर्माध्यासात् कारणभेदाच्च भेदः स्यात् / अन्यथा 'अयमेव भेदो भेदहेतु र्वा, यदुत विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्च, स चेन्न भेदको विश्वमेकं स्यात्' [भामती] इति वचः परिप्लवेत / तस्माद्यत एव गुणविकलसामग्रीलक्षणात्कारणाद्विज्ञानमुत्पद्यते तत एव जा सकता है कि ज्ञानसामग्रो से सहजरूप से यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है एव दोषादि कारण विशेष. के सहकार से अयथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है। इस विपरीत प्रक्रिया के समर्थन में लोक में दिखाई भी पड़ता है कि प्रायः लोग पारमार्थिक / वाले कारण का अनमान विपरीत याने अयथार्थ ज्ञान से नहीं करते हैं. किन्तु सम्यग यानी यथार्थज्ञान से ही करते हैं / जब इस प्रकार सम्यग ज्ञान से ही कारणानुमान अर्थात् स्वरूपस्थ कारणों का अनुमान लोकसिद्ध है, तब जिस स्वत:प्रामाण्य की उत्पत्ति की प्रक्रिया का प्रतिपादन पहले किया गया है उसका इनकार नहीं कर सकते। यह तो पहले भी कहा जा चुका है कि यथार्थभाव और अयथार्थभाव को छोड़ कर तीसरा कोई कार्य नहीं। अर्थात् ज्ञाननिष्ठ यथार्थत्व या अयथार्थत्व को छोड़ कर तीसरा कोई धर्म है ही नहीं जिसमें ज्ञानसामग्री सामान्य को प्रयोजक कहा जाय एवं साथ-साथ इस सामग्री में गुण या दोष अन्तनिविष्ट होने से उनको ज्ञान में क्रमशः यथार्थता या अथार्थता उत्पन्न होने में प्रयोजन कहा जा सके। दर असल निर्मल इन्द्रियादि ज्ञानसामान्य को सामग्री से यथार्थ ज्ञान हो उत्पन्न होता है इसलिये यथार्थता यानी प्रामाण्य स्वत: है और दोष का सामग्री में प्रवेश होने पर ज्ञान अयथार्थ उत्पन्न होता है / निष्कर्ष यह है कि कार्यलिंगक अनुमान पक्ष में यथार्थोपलब्धि द्वारा इन्द्रियगत गुणों का अनुमान नहीं हो सकता। , [अर्थ तथा भाव प्रकाशनरूप प्रामाण्य से विरहित ज्ञानस्वरूप नहीं होता ] (अपि चार्थतथा०) इसके अतिरिक्त, पदार्थ के तात्त्विक स्त्र रूप के प्रकाशन अर्थात् प्रकाशकत्व को प्रामाण्य कहा जाता है। चक्षु आदि के कारणों की सामग्री से ज्ञान उत्पन्न होने पर भी यदि अर्थ तथा भाव प्रकाशन यानी तात्विक (यथार्थ) प्रकाशकत्व की अनुत्पत्ति मानते हैं तो यह बताईये कि विज्ञान का उससे अन्य क्या स्वरूप आप मानते हैं ? आपके मत में अर्थ के तथाभाव यानी पारमार्थिक स्वरूप के प्रकाशन को छोडकर विज्ञान का ऐसा कोई अन्य स्वरूप नहीं हो सकता जिसको ज्ञान की उत्पत्ति होने पर भी तत्काल अनुत्पन्न और उत्तरकाल में उत्पन्न होता है ऐसा कहा जा सके / इसलिये इस प्रकार का पश्चाद् उत्पन्न होने वाला प्रामाण्य मानना अयक्त है। पूर्वकाल में पदार्थ में जो विद्यमान न हो और उत्तरकाल में उस पदार्थ में दिखाई दे वहाँ पदार्थ का मूलस्वरूप उससे रहित माना जाता है। जैसे, भित्ति पहले चित्र से रहित होती है। उसमें बाद में चित्र की रचना की गयी तो भित्ति सचित्र दिखाई देती है। इसलिये भित्ति को मूलत: चित्र से रहित मानी जाती है और सचमुच ऐसी अचित्र भित्ति भी होती है। परन्तु वस्तु के तात्त्विक स्वरूप के प्रकाशन को छोड कर विज्ञान का स्वरूप कोई दिखाई नहीं देता और होता भी नहीं है / तब यह फलित होता है कि जब विज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थ तथा भाव प्रकाशन युक्त ही उत्पन्न होता है और वही प्रमाणज्ञान निष्ठ प्रामाण्य है / तात्पर्य, ज्ञान उत्पन्न होने के बाद उसमें कोई प्रामाण्य नाम का धर्म उत्पन्न होता है ऐसा नहीं दिखाई देता। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-प्रामाण्यवाद 15 प्रामाण्यमपीति गुणवच्चक्षुरादिभावाभावानुविधायित्वादित्य सिद्धो हेतुः / अत एवोत्पत्तौ सामग्यन्तरानपेक्षत्वं नाऽसिद्धम् / अनपेक्षत्वविरुद्धस्य सापेक्षत्वस्य विपक्षे सद्भावात् ततो व्यावर्त्तमानो हेतुः स्वसाध्येन व्याप्यते इति विरुद्धानकान्तिकत्वयोरप्यभाव इति भवत्यतो हेतोः स्वसाध्यसिद्धिः।। [ परतः पक्ष में ज्ञान और प्रामाण्य में भेदापत्ति ] अपरं च, यह भी ज्ञातव्य है कि यदि ज्ञान अपने उत्पादक कारणों से उत्पन्न होने पर भी उसमें प्रामाण्य उत्पन्न नहीं होता किन्तु ज्ञानोत्पादक सामग्री से भिन्न सामग्री द्वारा बाद में उत्पन्न हो तब ज्ञान और प्रामाण्य यानी प्रामाण्ययुक्त ज्ञान अर्थात् प्रमाण्यज्ञान में भेद मानना पड़ेगा। (i) जिन पदार्थों में विरुद्ध धर्म का संबंध होता है उनका भेद होता है। जैसे, शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श परस्पर विरुद्ध धर्म हैं इसलिये इन विरुद्ध धर्म से अध्यासित शीतजल और उष्ण तेज का भेद होता है / अथवा ( ii ) जिनके उत्पादक कारणों में भेद होता है उनके कार्य में भी भेद हो जाता है / जैसे, घट का कारण मिट्टी है और वस्त्र के कारण तन्तु हैं, इसलिये घट और वस्त्र में भेद है। प्रस्तुत में आपने जब प्रामाण्यशून्य विज्ञान की पहले उत्पत्ति मानी तब इसका अर्थ यह हुआ कि केवल विज्ञान अर्थतथाभावप्रकाशनस्वरूप नहीं है और प्रामाण्य अर्थतथाभावप्रकाशन स्वरूप है / इस प्रकार दोनों में उक्त स्वरूप व स्वरूपाभाव नामक-दो विरुद्ध धर्मों का अध्यास हुआ। इससे विज्ञान और प्रामाण्य में भेद प्रसक्त होगा / तात्पर्य, ज्ञान और प्रामाण्य में भेद होना चाहिये। यह विरुद्ध धर्माध्यास प्रयुक्त भेद की आपत्ति हुई। / अब, कारणभेद से भेद आपत्ति इस प्रकार है-आपके मतानुसार ज्ञान के कारण चक्षु आदि इन्द्रिय हैं और प्रामाण्य के कारण गुण आदि हैं, इस प्रकार कारणों का भेद होने से भी ज्ञान और प्रामाण्य में भेद की आपत्ति आएगी। यदि आप भेद की आपत्ति होने पर भेद नहीं मानेगे तो इस विषय में जो प्रसिद्ध वचन है वह मिथ्या सिद्ध होगा। प्रसिद्ध वचन इस प्रकार है ( 'अयमेव भेदो भेदहेतुर्वा' इत्यादि ) "यही भेद है कि जो विरोधी धर्म का सम्बन्ध है और यही भेद का प्रयोजक है जो इनके कारणों का भेद है / यदि विरुद्ध धर्मों का सम्बन्ध या कारणभेद होने पर भी वस्तु में भेद न होता हो तो समस्त संसार एक हो जाना चाहिये-अर्थात् भिन्न भिन्न पदार्थात्मक न होना चाहिये।" [स्वस्वरूपनियतत्व और अन्यभावानपेक्षत्व के बीच व्याप्ति सिद्धि ] ____ फलित यह होता है कि गुणरहित जिस सामग्रीरूप कारण से ज्ञान उत्पन्न होता है उसी कारण से प्रामाण्य भी उत्पन्न होता है इसलिये आपने प्रामाण्य की उत्पत्ति को परत: सिद्ध करने के लिये जो हेतु दिया था कि 'प्रामाण्य गुणयुक्त चक्षु आदि इन्द्रियों के भावाभाव का अनुसरण करने वाला होता है'-वह हेतु अब असिद्ध हो जाता है क्योंकि विज्ञान से अतिरिक्त प्रामाण्य के प्रति विज्ञान कारण से अतिरिक्त कोई कारण ही नहीं है। इसोलिये हमने जो उत्पत्ति में प्रामाण्य को स्वतः सिद्ध करने के लिये अन्य सामग्री की अपेक्षा के अभाव को हेतुरूप में प्रस्तुत किया था वह हेतु अब असिद्ध नहीं रहता / जिनकी उत्पत्ति स्वतः नहीं होतो है उन परतः होती है उन विपक्षों में निरपेक्षता नहीं रहती किन्तु सापेक्षता रहती है / इस प्रकार विपक्ष में न रहने वाला हमारा अनपेक्षत्व हेतु स्वस्वरूप Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अर्थतथात्वपरिच्छेदरूपा च शक्तिः प्रामाण्यम् / शक्तयश्च सर्वभावानां स्वत एव भवन्ति, नोत्पादककारणकलापाधीनाः / तदुक्तम्-'स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् / नहि स्वतोऽसती शक्तिः कर्त मन्येन पार्यते // 1 // [ श्लो० वा० स०-२-४७ ] एतच्च नैव सत्कार्यदर्शनसमाश्रयणादभिधीयते किंतु य कार्यधर्मः कारणकलापेऽस्ति स एव कारणकलापादुपजायमाने कार्ये तत एवोदयमासादयति यथा मृत्पिण्डे विद्यमाना रूपादयो घटेऽपि मृत्पिण्डादुपजायमाने मृत्पिण्डादिरूपद्वारेणोपजायन्ते। ये पुनः कार्यधर्माः कारणेष्वविद्यमाना न ते कारणेभ्यः कार्ये उदयमासादयति तत एव प्रादुर्भवन्ति किंतु स्वतः, यथा घटस्यैवोदकाहरणशक्तिः / तथा विज्ञानेऽप्यर्थतथात्वपरिच्छेदशक्तिः चक्षुरादिषु विज्ञानकारणेष्वविद्यमाना न तत एव भवति किंतु स्वत एव प्रादुर्भवति / किंचोक्तम्-'आत्मलाभे हि भावानां कारणापेक्षिता भवेत् / लब्धात्मनां स्वकार्येषु प्रवृत्तिः स्वयमेव तु // 1 // ' [ श्लो० वा० सू०-२-४८ ] तथाहि-मृत्पिडदण्डचनादि घटो जन्मन्यपेक्षते / उदकाहरणे तस्य तदपेक्षा न विद्यते // 2 // [ तत्त्वसंग्रहे-२८५० ] इति / / नियतत्व रूप (देखीये पृष्ठ 4-50 12) अपने साध्य के साथ व्याप्ति वाला सिद्ध हो जाता है अर्थात् साध्य 'स्वस्वरूपनियतत्व' यह व्यापक और हेतु 'अन्यभावानपेक्षत्व' यह व्याप्य सिद्ध होता है। सिद्ध व्याप्तिक होने से ही हमारे हेतु में न विरुद्धता नामक हेत्वाभास है और न अनैकान्तिकत्व नामक हेत्वाभास है / इसलिये निर्दोष हेतु के द्वारा हमारे साध्य की सिद्धि निर्बाध हो जाती है / [शक्तिरूप होने से प्रामाण्य स्वतः ही है ] इसके अतिरिक्त प्रामाण्य इस प्रकार भी स्वतःसिद्ध है: - यह दिखाई पड़ता है-प्रामाण्य यह विज्ञान की शक्ति है और विज्ञान की यह शक्ति अर्थतथात्वपरिच्छेदरूप है अर्थात् पदार्थ के तात्त्विकभाव के प्रकाशनरूप है / यह शक्ति विज्ञानोत्पत्ति के साथ साथ संबद्ध हो जाती है। क्योंकि सर्व पदाथ की शक्तियाँ स्वतः ही होती है, किन्तु वे पदार्थ के साथ अपने सम्बन्ध में पदार्थ के उत्पादक कारणों के समूह की अपेक्षा नहीं करती। 'स्वतः सर्व.........' इस श्लोकवात्तिक की कारिका में भी यही कहा गया है कि-'समस्त प्रमाणों में प्रामाण्य का सम्बन्ध स्वतः होता है यह समझ लेना चाहिये। क्योंकि पदार्थ में जो शक्ति स्वतः विद्यमान नहीं है उसको वहाँ उत्पन्न करने में अन्य कोई भी समर्थ नहीं है। [शक्ति का आविर्भाव कारणों से नहीं होता ] इस वस्तु का यानी शक्तियों की उत्पत्ति के स्वतस्त्व का कथन सत्कार्यवाद का आश्रय करके नहीं करते हैं क्योंकि हम यह नहीं मानते कि प्रामाण्यशक्ति की अभिव्यक्ति होती है। किन्तु, शक्ति का आविर्भाव स्वतः होता है यह कहने का हमारा अभिप्राय यह है-जो कार्यधर्म कारणसमूह में रहता है वही कार्यधर्म, कारणसमूह से कार्योत्पत्ति होने पर उसी कारणधर्म से कार्य में अभिव्यक्त हो जाता है। जैसे, मिट्टी के पिण्ड में जो रूप आदि रहते हैं वे रूप आदि, मिट्टी के पिण्ड से घटोत्पत्ति होने पर घड़े में भी मिट्टी के रूपादि द्वारा उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिये वे परतः उत्पन्न हैं। किन्तु कार्यों का जो धर्म कारणों में विद्यमान नहीं है वे कारणों के द्वारा कार्य का उदय होने पर कारणों से ही अभिव्यक्त नहीं होते हैं किन्तु स्वतः ही अभिव्यक्त होते हैं, जैसे, उसी घट में जल लाने की शक्ति / घट में रूपादि धर्म कारणगुण से उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार उसी घट में जलाहरण शक्ति कारणगुण से उत्पन्न नहीं Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड का० १-प्रामाण्यवाद प्रथ-चक्षुरादेविज्ञानकारणादुपजायमानत्वात्प्रामाण्यं परत उपजायते इति यद्यभिधीयते-तदभ्युपगम्यत एव / प्रेरणाबुद्धेरपि अपौरुषेयविधिवाक्यप्रभवायाः प्रामाण्योत्पत्त्यभ्युपगमात् / तथाऽनुमानबुद्धिरपि गृहीताऽविनाभावानन्यापेक्षलिंगादुपजायमाना तत एव गहीतप्रामाण्योपजायत इति सर्वत्र विज्ञानकारणकलापव्यतिरिक्तकारणान्तरानपेक्षमुपजायमानं प्रामाण्यं स्वत उत्पद्यत इति नोत्पत्तौ परत:प्रामाण्यम्। होती क्योंकि कारणभूत मिट्टीपिंड में जलाहरण शक्ति है ही नहीं। इसलिये यह मानना होगा कि घट में यह शक्ति स्वतः आविर्भूत होती है। इस प्रकार ज्ञान में जो पदार्थ के तात्त्विक स्वरूप को प्रकाशित करने की शक्ति है वह ज्ञान के उत्पादक कारण चक्षु आदि में विद्यमान नहीं होने से वह चक्षु आदि से उत्पन्न नहीं मान सकते किन्तु स्वतः ही प्रादुर्भूत होती है-ऐसा सिद्ध होता है / यह केवल हमारा ही प्रतिपादन है ऐसा नहीं है किन्तु इस विषय में कहा भी है कि-'आत्मलाभे हि०.......' इत्यादि / अर्थ:-"पदार्थों को अपने स्वरूपलाभ अर्थात् अपनी उत्पत्ति के लिये कारण की अपेक्षा होती है किन्तु पदार्थ जब उत्पन्न हो जाते हैं तब अपने कार्यों में उनकी प्रवृत्ति स्वयं ही होती है। जैसे कि-"घट अपनी उत्पत्ति के लिये मिट्री के पिण्ड, दण्ड और चक्र आदि की अपेक्षा करता है, परन्तु जल लाने के अपने कार्य में उसको मिट्टी के पिण्ड आदि की अपेक्षा नहीं रहती।" [विज्ञानकारण से प्रामाण्योत्पत्ति होने से परतः कहना स्वीकार्य ] यदि आप ज्ञान के कारण चक्षु आदि से प्रामाण्य उत्पन्न होता है इसलिये प्रामाण्य को परतः उत्पन्न अर्थात् पर की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाला कहते हैं तो इस वस्तु का तो हम स्वीकार ही करते हैं / जिसको आप पर की अपेक्षा से कहते हैं वह वस्तुतः स्व की अपेक्षा से है। जिन कारणों से ज्ञान उत्पन्न होता है उन्हीं कारणों से अतिरिक्त किसी भी कारण से ज्ञान का प्रामाण्य उत्पन्न नहीं होता है-यही प्रामाण्य का स्वतोभाव है / धर्म की परतः उत्पत्ति का तात्पर्यार्थ यही है कि जहाँ मात्र धर्मी के कारणों द्वारा ही उस धर्म की उत्पत्ति नहीं होती है किन्तु धर्मी के कारणों से अतिरिक्त कारण की धर्म की उत्पत्ति में अपेक्षा रहती है, अर्थात् उस धर्म की उत्पत्ति अतिरिक्त कारण द्वारा होती है / आप प्रामाण्य को परतः उत्पन्न इस लिये कहते हैं कि प्रामाण्य अपने स्वतन्त्र कारणों से उत्पन्न नहीं किन्तु विज्ञान के कारणों से उत्पन्न होता है, किन्तु हम इसी को स्वतः उत्पत्ति कहते हैं-केवल नाम के बदल देने से वस्तु का स्वरूप नहीं पलट जाता / [प्रेरणाबुद्धि और अनुमान का स्वतः प्रामाण्य ] (प्रेरणाबृद्धे रपि०.......इत्यादि) यही बात अपौरुषेय वाक्य के प्रामाण्य में लागू होती है, क्योंकि अपौरुषेय अर्थात् किसी पुरुष के द्वारा नहीं उच्चरित ऐसे वाक्य से उत्पन्न होने वाली प्रेरणा अर्थात् विधि-निषेध जनित नोदना स्वरूप बुद्धि में भी प्रामाण्य इसी प्रकार अपौरुषेय वाक्यों से ही उत्पन्न होता है / विधिवाक्य से जैसे विधि का ज्ञान उत्पन्न होता है वैसे ही विधिज्ञाननिष्ठ प्रामाण्य भी उत्पन्न होता है। इसलिये विविज्ञान का प्रामाण्य भी स्वतः उत्पन्न माना गया है। इसी प्रकार Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 [ (2) स्वकार्ये परतः प्रामाण्यवादप्रतिक्षेपः-पूर्वपक्षः] नापि स्वकार्येऽर्थतथाभावपरिच्छेदलक्षणे प्रवर्त्तमानं प्रमाणं स्वोत्पादककारणव्यतिरिक्तनिमित्तापेक्षं प्रवर्तत इत्यभिधातुं शक्यम् / यतस्तन्निमित्तान्तरमपेक्ष्य स्वकार्ये प्रवर्त्तमानं कि A संवादप्रत्ययमपेक्ष्य प्रवर्तते, B आहोस्वित् स्वोत्पादककारणगुणानपेक्ष्य प्रवर्तत इति विकल्पद्वयम् / तत्र यद्याद्यो विकल्पोऽभ्युपगम्यते तदा चक्रकलक्षणं दूषणमापतति / तथाहि-प्रमाणस्य स्वकार्ये प्रवृत्ती सत्यामर्थक्रियाथिनां प्रवत्तिः, प्रवत्तौ चार्थक्रियाज्ञानोत्पत्तिलक्षणः संवादः, तं च संवादमपेक्ष्य प्रमाणं स्वकार्येऽर्थतथाभावपरिच्छेद लक्षणे प्रवर्तते इति यावत्प्रमाणस्य स्वकार्ये न प्रवृत्तिन तावदर्थक्रियाथिनां प्रवृत्तिः, तामन्तरेण नार्थक्रियाज्ञानसंवादः, तत्सद्भावं विना प्रम रणस्य तदपेक्षस्य स्वकार्ये न प्रवृत्तिरिति स्पष्टं चक्नकलक्षणं दूषणमिति / अनुमानरूप ज्ञान भो, जिस लिंग यानी हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव अर्थात् व्याप्ति प्रतीत हो चुकी है उसी लिंग द्वारा उत्पन्न होता है और इसमें हेतु को किसी अन्य के सहकार की अपेक्षा नहीं है / उस अनुमानज्ञान का प्रामाण्य भी उसी लिंग से उत्पन्न होता है। इस प्रकार समस्त ज्ञानों में प्रामाण्य भी ज्ञान की उत्पत्ति के कारणों से ही उत्पन्न होता है। प्रामाण्य की उत्पत्ति के कारण, ज्ञान की उत्पत्ति के कारणों से भिन्न नहीं है। सारांश, सर्वत्र विज्ञान के कारण समूह को छोड़कर अन्य किसी कारण को सापेक्ष होने वाला प्रामाण्य स्वतः उत्पन्न होता है ऐसा कहा जाता है / इस प्रकार प्रामाण्य उत्पत्ति में परत: यानी पर की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाला नहीं है / [(2) स्वकार्य में प्रामाण्य को परापेक्षा नहीं है-पूर्वपक्ष चालु ] जो प्रामाण्ययुक्त प्रमाणज्ञान का कार्य है-अर्थतथाभावपरिच्छेद, अर्थात् वस्तु के तात्त्विक स्वरूप का प्रकाश, इस कार्य में जब प्रमाण ज्ञान प्रवत्ति करता है तब वह अपने उत्पादक कारणों से भिन्न किसी अन्य निमित्त कारण की अपेक्षा करता है-ऐसा भी नहीं कह सकते। कारण, अगर कहें-प्रमाण अपने कार्य में प्रवर्त्तमान होने के लिये किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा करता है तो यह बताइये कि कौन से निमित्त की अपेक्षा रख कर प्रमाण ज्ञान अपने कार्य में प्रवक्त होता है? क्या A संवादीज्ञान की अपेक्षा रखकर ? या B अपने उत्पादक कारण गुण की अपेक्षा रखकर प्रवृत्त होता है ? ये दो विकल्प प्रस्तुत हो सकते हैं। [संवादिज्ञान की अपेक्षा में चक्रक दोष ] इनमें से यदि A प्रथम विकल्प को स्वीकार किया जाय तो चक्रक नाम का दोष प्राप्त होता है / दोष का स्वरूप इस प्रकार है-प्रमाण अर्थतथाभावपरिच्छेदस्वरूप अपने कार्य में जब प्रवृत्त हो जायगा तभी अर्थक्रिया के अभिलाषियों की प्रवृत्ति होगी। उदाहरणार्थ-घट के प्रमाणज्ञान से घट को यथार्थता का निर्णय होने पर ही घटार्थी की घट में प्रवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति होने पर संवाद संपन्न होगा अर्थात् प्रमाणज्ञान निर्दिष्ट विषय की प्राप्तिस्वरूप अर्थक्रिया का ज्ञान उत्पन्न होगा, तथा, यह संवाद संपन्न होने पर ही प्रमाण अर्थ तथा भाव परिच्छेदस्वरूप अपने कार्य में प्रवृत्त होगा। इसलिये जब तक यथार्थ वस्तुपरिच्छेदरूप अपने कार्य में प्रमाण प्रवृत्त नहीं होगा तब तक अर्थक्रिया के अर्थात् प्रमाण निर्दिष्ट विषय की प्राप्ति के अभिलाषीयों की प्रवृत्ति नहीं होगी, इस Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड का०-१ प्रामाण्यवाद न च भाविनं संवादप्रत्ययमपेक्ष्य प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तत इति शक्यमभिधातुम् , भाविनोऽसत्त्वेन विज्ञानस्य स्वकार्ये प्रवर्त्तमानस्य सहकारित्वाऽसम्भवात् / __B अथ द्वितीयः / तत्रापि कि C गहीताः स्वोत्पादककारणगुणाः सन्तः प्रमाणस्य स्वकार्ये प्रवर्त्तमानस्य सहकारित्वं प्रपद्यन्ते D आहोस्विदगृहीताः इत्यत्रापि विकल्पद्वयम् / तत्र D यद्यगृहीता इति पक्षः, स न युक्तः / प्रगृहीतानां सत्त्वस्यैवाऽसिद्धेः सहकारित्वं दूरोत्सारितमेव / अथ C द्वितीयः, सोपि न युक्तः, अनवस्थाप्रसंगात् / तथाहि-गृहीतस्वकारणगुणापेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तते, स्वकारणगुणज्ञानमपि स्वकारणगुणज्ञानापेक्षं प्रमाणकारणगुणपरिच्छेदलक्षणे स्वकार्ये प्रवर्तते, तदपि स्वकारणगुणज्ञानापेक्षमित्यनवस्थासमवतारो दुनिवार इति / अथ प्रमाणकारणगुणज्ञानं स्वकारणगुणज्ञानाऽनपेक्षमेव प्रमाणकारणगुणपरिच्छेदलक्षणे स्वकार्ये प्रवर्त्तते, तहि प्रमाणमपि स्वकारणगुणज्ञानाऽनपेक्षमेवार्थपरिच्छेदलक्षणे स्वकार्ये प्रवत्तिष्यत इति व्यर्थ प्रमाणस्य स्वकारणगुणज्ञानापेक्षणमिति न स्वकार्ये प्रवर्त्तमानं प्रमाणमन्यापेक्षम् / प्रवत्ति के विना 'अर्थक्रियाज्ञान' रूप संवाद नहीं होगा, संवाद के विना संवाद की अपेक्षा रखने वाला प्रमाण अपने कार्य में प्रवृत्त नहीं होगा इस-प्रकार चक्रक नाम का दोष स्पष्ट लग जाता है / ___ यदि आप इस दोष को हठाने के लिये कहते हैं-प्रमाण जब यर्थार्थवस्तुबोधरूप अपने कार्य में प्रवृत्त होता है तब वर्तमान अथवा भूतकालीन नहीं किन्तु भावी संवाद ज्ञान की अपेक्षा करता है इसलिये इस की पूर्ववत्तिता अपेक्षित नहीं है, इसलिये चक्रक दोष नहीं लगता / तो यह कथन युक्त नहीं है क्योंकि भावी पदार्थ विद्यमान न होने से प्रमाणज्ञान को अपने कार्य में प्रवृत्त होने में वह सहकारी नहीं बन सकता। . [ कारणगुण अपेक्षा के दूसरे विकल्प की मीमांसा ] B यदि आप दूसरे विकल्प को स्वीकार करते हैं अर्थात् प्रमाण अपने कार्य में उत्पादक कारणों के गुणों की अपेक्षा रख कर प्रवृत्त होता है-इस प्रकार कहते हैं, तब इस पक्ष में भी नये दो विकल्प उपस्थित होते हैं-C जब उत्पादक कारणों के गुण, प्रमाण को अपने कार्य में प्रवृत्त होने में प्रमाण के सहकारी बनते हैं तब वे ज्ञात रहते हैं ? या D अज्ञात ही रहते हैं ? D यदि आप कारणों के गुणों को अज्ञात होते हुए भी सहकारी कहते हैं तो यह पक्ष युक्त नहीं है / जो अज्ञात हैं उनकी सत्ता ही सिद्ध नहीं, अतः जब वे स्वयं ही असिद्ध हैं तब उनके सहकारी बनने की बात ही कहाँ ? अर्थात् वे सहकारी नहीं हो सकते / C यदि आप दूसरे ( वस्तुत: पहले ) पक्ष का अभ्युपगम करके कहें'कारणों के गुण ज्ञात होते हैं, और इसलिये अपने कार्य में प्रवर्त्तमान प्रमाण के सहकारी हो जाते है-तो यह द्वितीय पक्ष भी युक्त नहीं है / क्योंकि, इस पक्ष को मानने पर अनवस्था की आपत्ति खड़ी होती है / अनवस्था इस प्रकार है-अपने ( यानी प्रमाण के ) कारणगत गुण ज्ञात होने के बाद उनकी अपेक्षा से प्रमाण अपने कार्य में प्रवृत्त होगा और कारणगुणविषयक ज्ञान भी प्रमाण रूप होने से वह अपने उत्पादक कारण गुणों के ज्ञात रहने पर ही स्वकार्य में अर्थात् प्रमाणोत्पादककारणगुणयथार्थपरिच्छेद में प्रवृत्त होगा। वह भी कारणगुणज्ञानोत्पादककारण के गुण का ज्ञान होने पर ही स्वकार्य में प्रवृत्त होगा। इस प्रकार अनवस्था के अवतार को नहीं रोका जा सकता। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 सम्मतिप्रकरण काण्ड-१ तदुक्तम्--जातेऽपि यदि विज्ञाने तावन्नार्थोऽवधार्यते / यावत्कारणशुद्धत्वं, न प्रमाणान्तराद् गतम् // तत्र ज्ञानान्तरोत्पादः प्रतीक्ष्यः कारणान्तरात् / यावद्धि न परिच्छिन्ना शुद्धिस्तावदसत्समा // तस्यापि कारणशुद्धेर्न ज्ञानस्य प्रमाणता / तस्याप्येवमितीच्छंस्तु न क्वचिद् व्यवतिष्ठते // इति / / श्लो० वा० सू० 2-46 तः 51 ] तेन 'ये प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदयाः' इति प्रयोगे हेतोरसिद्धिः / तस्मात् स्वसामग्रीत उपजायमानं प्रमाणमर्थयाथात्म्यपरिच्छेदशक्तियुक्तमेवोपजायत इति स्वकार्यऽपि प्रवृत्तिः स्वतः इति स्थितम् / [ कारणगुणज्ञान की अपेक्षा का कथन व्यर्थ है ] अब यदि आप इस अनवस्था को दूर करने के लिये कहते हैं-'प्रमाण के कारणगुणों का ज्ञान अपने कारणगुणों के ज्ञान की अपेक्षा विना ही अपने प्रमाणकारणगुणयथार्थपरिच्छेद रूप कार्य में प्रवृत्त होता है। तब जो बात आप प्रमाणकारणगुणों के ज्ञान के लिये कहते हैं वही बात प्रमाण को भी लागू हो सकती है / अर्थात् यह कह सकते हैं कि इस प्रकार प्रमाण भी अपने कारणगुणों के ज्ञान की अपेक्षा विना ही अर्थतथाभावपरिच्छेद रूप अपने कार्य में प्रवृत्त हो सकता है। तब प्रमाण की स्वकार्य में प्रवृत्ति के लिये अपने कारणों के गुणों के ज्ञान की अपेक्षा करना व्यर्थ है। फलतः, प्रमाण की अपने कार्य में प्रवृत्ति होने के लिये अन्य की अपेक्षा नहीं रहती। 'जातेऽपि यदि०'....इत्यादि तीन श्लोकों में यही बात कही गई है जिसका सारांश यह है कि ज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर भी अन्य प्रमाण से कारणों की शुद्धि (यानी दोषाभाव या गुण) प्रतीत न हो वहाँ तक अगर पदार्थ का निश्चय नहीं होता है तो इस दशा में उन प्रमाणकारणों से अतिरिक्त कारणों द्वारा ( शुद्धिविषयक ) एक अन्य ज्ञान के जन्म की प्रतीक्षा करनी होगी क्योंकिजब तक कारणों की शुद्धि निश्चित नहीं है तब तक वह शुद्धि असत् (यानी शशसींग) तुल्य है / उस (शुद्धि विषयक) ज्ञान का भी प्रमाण भाव तब तक निश्चित नहीं होगा, जब तक उस शुद्धिविषयक ज्ञान के कारणों की भी शुद्धि का निश्चय नहीं है। इस प्रकार अन्य ज्ञानों का प्रमाणभाव भी अन्य अन्य ज्ञान को अपेक्षा करता है ऐसा मानने पर परतः प्रामाण्यवादी के मत में प्रथम ज्ञान का ही प्रामाण्य सिद्ध नहीं हो सकेगा। क्योंकि-अन्य अन्य ज्ञान की अपेक्षा का कहीं भी अन्त ही नहीं आयेगा। [परतः प्रामाण्य पक्ष में हेतु की असिद्धि ] इससे यह निष्कर्ष आया-आपने जो 'ये प्रतीक्षित-प्रत्ययान्तरोदयाः न ते स्वतो व्यवस्थितधर्मकाः यथाऽप्रामाण्यादयः' इस अनुमान का प्रयोग किया था उस प्रयोग में 'ज्ञानान्तरोदयप्रतीक्षा' हेतु असिद्ध है / इसलिये, प्रमाण जब अपनी सामग्री से उत्पन्न होता है तब अर्थतथाभावपरिच्छेद' रूप अपने कार्य की शक्ति से युक्त ही उत्पन्न होता है इसलिये प्रमाण अपने कार्य में भी स्वतः प्रवृत्त होता है, अन्य की अपेक्षा से नहीं / अब तक, प्रामाण्य की उत्पत्ति और प्रामाण्य का कार्य ये दोनों * प्रयोगः पृ० ५-पं. 5 मध्ये / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० 1 प्रामाण्यवाद [ (3) स्वतःप्रामाण्यज्ञप्तिसाधनम्-पूर्वपक्षः ] नापि प्रमाणं प्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षम / तद्धयपेक्षमाणं कि A स्वकारणगुणानपेक्षते, B आहोस्वित् संवादमिति विकल्पद्वयम् / A तत्र यदि स्वकारणगुणानपेक्षत इति पक्षः स्वीक्रियते, सोऽसङ्गतः, स्वकारणगुणानां प्रत्यक्षतत्पूर्वकानुमानाऽग्राह्यत्वेनाऽसत्त्वस्य प्रागेवळ प्रतिपादनात् / अथाऽभिधीयते. 'यो यः कार्यविशेषः स स गुणवत्कारणविशेषपूर्वको यथा प्रासादादिविशेषः, कार्यविशेषश्च यथावस्थितार्थपरिच्छेदः इति स्वभावहेतुरिति'-एतदसम्बद्धं, परिच्छेदस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वाऽसिद्धेः / ___तथाहि-परिच्छेदस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वं किं A1 शुद्धकारकजन्यत्वेन, A 2 उत संवादित्वेन, पाहोस्विद् A 3 बाधारहितत्वेन, उतस्विद् 4 4 अर्थतथात्वेनेति विकल्पाः / तत्र A 1 यदि गुणवत्कारणजन्यत्वेनेति पक्षः, स न युक्तः, इतरेतराश्रयप्रसङ्गात् / तथाहि-गुणवत्कारणजन्यत्वेन परिच्छेदस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वम्, तत्परिच्छेदत्वाच्च गुणवत्कारणजन्यत्वमिति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम्। स्वतः है इसकी चर्चा हुई / अब प्रामाण्य की ज्ञप्ति भी स्वतः है अर्थात् परतः नहीं है-इसका विचार किया जाता है: [(3) प्रामाण्य ज्ञप्ति में भी परतः नहीं है-पूर्व पक्ष ] प्रामाण्य के निश्चय के लिये भी प्रमाण अन्य किसी की अपेक्षा नहीं करता। यदि वह अपेक्षा करता है तो क्या [A] अपने कारणों के गुणों की अपेक्षा करता है ? अथवा [B] संवाद की अपेक्षा करता है ? A इनमें से यदि आप 'कारणों के गुणों की अपेक्षा करता है' इस पक्ष का स्वीकार करते हैं तो यह पक्ष असंगत है / क्योंकि हम पहले कह चुके हैं कि प्रमाण के कारणों के गुण न प्रत्यक्ष से प्रतीत हो सकते हैं और न प्रत्यक्षमूलक अनुमान से, इसलिये वे असत् हैं / अब यदि आप कहें-"जो जो विशेष कार्य होता है वह वह गुणवान कारण विशेष से उत्पन्न होता है, जैसे कोई विशिष्ट राजभवन, इसी प्रकार पदार्थ का यथार्थबोध भी कार्यविशेष है / इस प्रकार यहाँ स्वभाव हेतु अनुमान प्रयोजक होता है / जो जो कार्यविशेष है वह वह गुणवत्कारण निष्पन्न स्वभाव वाला होता है, तब प्रमाण यह कार्य विशेष होने से गुणवत्कारणनिष्पन्न होना चाहिये ।"-तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि ज्ञान में यथावस्थितअर्थपरिच्छेदरूपता असिद्ध है / [ ज्ञान में यथावस्थितार्थपरिच्छेदरूपता की असिद्धि में चार विकल्प] असिद्ध इस प्रकार:-ज्ञान में यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदरूपता किस आधार पर कहते हैं ? A (1) क्या ज्ञान शुद्ध यानी गुणवान् कारणों से उत्पन्न है इसलिये ? अथवा A (2) संवादी है इसलिये ? अथवा A (3) बाध से वर्जित है इसलिये ? अथवा A (4) पदार्थ का स्वरूप ज्ञानानुरूप है इसलिये ? ये चार विकल्प हो सकते हैं / इनमें से A (1) यदि पहले विकल्प में ज्ञान गुणवान् कारणों से उत्पन्न होने के कारण यथार्थ प्रकाशक है यह पक्ष माना जाय तो इसमें अन्योन्याश्रय दोष की आपत्ति है, वह इस प्रकारः-ज्ञान गुणवान कारणों से उत्पन्न है यह सिद्ध होने पर ज्ञान वस्तु के यथार्थ स्वरूप का प्रकाशक है यह सिद्ध होगा और वस्तु के यथार्थस्वरूप का प्रकाशकत्व सिद्ध होने पर ज्ञान की गुणवान कारणों से उत्पत्ति सिद्ध होती है / इस प्रकार अन्योन्याश्रय स्पष्ट है। के द्रष्टव्य पृ०८-पं. 3 / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 अथ A2 संवादित्वेन ज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वं विज्ञायते, एतदप्यचार, चक्रकप्रसंगस्यात्र पक्षे दुनिवारत्वात् / तथाहि, न यावद्विज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेद लक्षणो विशेषः सिद्धयति न तावत्तत्पूविका प्रवत्तिः संवादाथिनां, यावच्च न प्रवत्तिन तावदर्थक्रियासंवादः, यावच्च न संवादो न तावद्विज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वसिद्धिरिति चक्रकप्रसंग: प्रागेव* प्रतिपादितः / अथ A3 बाधारहितत्वेन विज्ञानस्य यथार्थपरिच्छेदत्वमध्यवसीयते, तदप्यसङ्गतम् , स्वाभ्युपगमविरोधात् / तदुभ्यपगमविरोधश्च बाधाविरहस्य तुच्छस्वभावस्य सत्त्वेन ज्ञापकत्वेन वाऽनङ्गीकरणात् / पर्यु दासवृत्त्या तदन्यज्ञानलक्षणस्य तु विज्ञानपरिच्छेद विशेषाऽविषयत्वेन तद्वयवस्थापक- . स्वानुपपत्तेः। (44) अथार्थतथात्वेन यथावस्थितार्थपरिच्छेद लक्षणो विशेषो विज्ञानस्य व्यवस्थाप्यते, सोऽपि न युक्तः, इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात् / तथाहि-सिद्धेऽर्थतथाभावे तद्विज्ञानस्यार्थतथाभावपरिच्छेदत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्चार्थतथाभावसिद्धिरिति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम् / तन्न कारणगुणापेक्षा प्रामाण्यज्ञप्तिः / (A2) अगर दूसरे विकल्प में ज्ञान संवादी होने के कारण तात्त्विक स्वरूप का प्रकाशक है ऐसा समझते हैं, तो यह भी युक्त नहीं है, क्योंकि इस पक्ष में चक्रक दोष की आपत्ति दुनिवार है / यह इस प्रकार-जब तक ज्ञान में वस्तु के यथार्थप्रकाशकत्वस्वरूप विशेष सिद्ध नहीं होता तब तक संवादार्थिओं की यथार्थपरिच्छेदपूर्वक होने वाली प्रवृत्ति नहीं हो सकती और जब तक प्रवृत्ति नहीं होती तब तक अर्थक्रिया से अर्थात् प्रमाण के द्वारा उत्पन्न होने वाले यथार्थपरिच्छेदरूप कार्य से संवाद नहीं हो सकता और जब तक संवाद नहीं होता तब तक ज्ञान में यथावस्थित अर्थप्रकाशकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती / इस रीति से चक्रक की आपत्ति पहले ही दी जा चुकी है / (A3) अब यदि आप कहते हैं कि-बाध से रहित होने के कारण, ज्ञान का यथार्थपरिदत्व निश्चित होता है, तो यह भी अयक्त है, क्योंकि अपने मत के साथ विरोध होगा। विरोध इस प्रकार-आप बाधाभाव को तुच्छ मानते हैं, उसका न सत् रूप से स्वीकार करते हैं, न ज्ञापक रूप से / यदि आप बाधाभाव को पर्युदास प्रतिषेधरूप मान कर अभाव रूप नहीं किन्तु सद्रूप अर्थात् उससे भिन्न वस्तु के ज्ञानरूप मानते हैं तो इस प्रकार का बाधाभाव हो तो सकता है परन्तु वह ज्ञान के यथार्थ प्रकाशकत्व को विषय नहीं करता है, अर्थात बाधाभावज्ञान का विषय कोई भिन्न ही है, इसलिए वह ज्ञान के यथार्थप्रकाशकत्व के विषय में उदासीन होने से उसका व्यवस्थापक नहीं बन सकता। .. (A4) यदि आप कहते हैं कि-'अर्थतथात्व यानी वस्तु के ज्ञानानुरूपस्वरूप से ही ज्ञान का यथावस्थितार्थपरिच्छेदरूप विशेष धर्म निश्चित होता है तो यह पक्ष भी युक्त नहीं है, क्योंकि इसमें अन्योन्याश्रय दोष को आपत्ति होगी। वह इस प्रकार-वस्तु का अर्थतथात्व सिद्ध हो जा वस्तु का ज्ञान यथावस्थितार्थपरिच्छेदस्वरूप होने का सिद्ध होगा। और वस्तु का ज्ञान यथार्थपरिच्छेदस्वरूप होने का सिद्ध होने पर वस्तु के तथाभाव स्वरूप की सिद्धि होगी। इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष स्पष्ट लगता है। इसलिये इन चार अवान्तर विकल्पों वाला आद्य पक्ष असिद्ध है, अर्थात प्रामाण्य का निश्चय अपने कारणों के गुणों की अपेक्षा नहीं रखता है। ॐ द्रष्टव्य पृ.१८-.५ / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का०१-प्रामाण्यवाद (B) अथ संवादापेक्षः प्रामाण्य विनिश्चयः, सोऽपि न युक्तः, यतः B 1 संवादकं ज्ञानं कि समानजातीयमभ्युपगम्यते ? B 2 पाहोस्विद् भिन्नजातीयम् ? इति पुनरपि विकल्पद्वयम् / ___BI तत्र यदि समानजातीयं संवादकमभ्युपगम्यते, तदाऽत्रापि वक्तव्यम् Bla किमेकसंतानप्रभवं ? BIb भिन्नसंतानप्रभवं वा ? BIb यदि भिन्नसंतानप्रभवं समानजातीयं ज्ञानान्तरं संवादकमित्यभ्युपगमः, अयमप्यनुपपन्नः, अतिप्रसंगात् , अतिप्रसंगश्च देवदत्तघटविज्ञानं प्रति यज्ञदत्तघटान्तरविज्ञानस्यापि संवादकत्वप्रसक्तेः / अथ Bla समानसन्तानप्रभवं समानजातीयं ज्ञानान्तरं संवादकमभ्युपगम्यते, तदाऽत्रापि वक्तव्यम् , कि तत् Blac पूर्वप्रमाणाभिमतविज्ञानगृहीतार्थविषयम् ? Blad उत भिन्नविषयम् ? इति / __Blac तत्र यद्येकार्थविषयमिति पक्षः, सोऽनुपपन्नः, एकार्थविषयत्वे संवाद्य-संवादकयोरविशेषात् तथाहि-एकविषयत्वे सति यथा प्राक्तनमुत्तरकालभाविनो विज्ञानस्यैकसन्तानप्रभवस्य समानजातीयस्य न संवादकं तथोत्तरकालभाव्यपि न स्यात् / किं च, तदुत्तरकालभावि समानजातीयमेकविषयं कुतः प्रमाणत्वेन सिद्धम्-येन प्रथमस्य प्रामाण्यं निश्चाययति ? 'तदुत्तरकालभाविनोऽन्यस्मात् तथाविधादेव' इति चेत् ? हि तस्याप्यन्यस्मात् तथाविधादेवेत्यनवस्था। अथ 'उत्तरकालभाविनस्तथाविधस्य प्रथमप्रमाणात् प्रामाण्यनिश्चयः'-तहि प्रथमस्योत्तरकालभाविनः प्रमाणात् तन्निश्चयः, उत्तरकालभा- विनोऽपि प्रथमप्रमाणादिति तदेवेतरेतराश्रयत्वम् / [संवाद की अपेक्षा प्रामाण्यनिश्चय में अनेक विकल्प ] (B) यदि दूसरे विकल्प में आप कहें-प्रामाण्य का निश्चय संवाद की अपेक्षा से होता है तो यह भी युक्त नहीं है, क्योंकि यहां भी दो विकल्प हैं B1 संवादी ज्ञान सजातीय है अथवा B2 भिन्नजातीय है ? ___B1 यदि आप संवादी ज्ञान को सजातीय मानते हैं तब यह बताईये कि वह सजातीय ज्ञान क्या Bla उसी ज्ञान संतान में होने वाला है BIb अथवा उस ज्ञान सन्तान से भिन्न सन्तानों में उत्पन्न होने वाला है ? प्रश्न का तात्पर्य यह है कि सौगतमत में ज्ञान का संतान अथवा प्रवाह हो जाता कहा जाता है / इसलिये उसके प्रति प्रश्न है जो सजातोयज्ञान संवादी है वह क्या Bla एक संतान में अर्थात् एक ज्ञानप्रवाहरूप जीव में उत्पन्न हआ है ? अथवा Blb भिन्न भिन्न ज्ञानसंतानरूप भिन्न भिन्न जीव में उत्पन्न हुआ है ? Bib यदि भिन्न संतानों में अर्थात् भिन्न जीवों में उत्पन्न होने वाले सजातीय (सजातीय विषयक) ज्ञान को संवादी कहें तो यह पक्ष संगत नहीं है, क्योंकि अतिप्रसंग होगा अर्थात् अनिष्ट अर्थ की आपत्ति होगी। अतिप्रसंग इस प्रकार - देवदत्त के घटज्ञान का संवादी यज्ञदत्तीय अन्य घट का ज्ञान भी हो जायगा। Bla यदि इस आपत्ति से बचने के लिये एक सन्तान में उत्पन्न होने वाले सजातीय ज्ञान को संवादी माना जाय तो यहाँ भी यह बताना जरूरी है कि वह संवादी ज्ञान क्या Blac प्रमाणरूप से स्वीकृत पूर्वकालीन विज्ञान से गृहीत अर्थ को विषय करता है ? Blad अथवा भिन्न अर्थ को विषय करता है ? [ एकार्थविषय पक्ष में संवाद्य-संवादक भाव की अनुपपत्ति ] Blac यदि आप कहें- वह सजातीय अन्यज्ञान पूर्वकालीन ज्ञान के अर्थ को ही विषय करता Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 अथ प्रथमोत्तरयोरेकविषयत्व-समानजातीयत्वकसंतानत्वाऽविशेषेऽप्यस्त्यन्यो विशेषः, यतो विशेषाद् उत्तरं प्रथमस्य प्रामाण्यं निश्चाययति, न पुनः प्रथममुत्तरस्य / स च विशेषः उत्तरस्य कारणशुद्धिपरिज्ञानानन्तरभावित्वम् / ननु कारणशुद्धिपरिज्ञानमर्थक्रियापरिज्ञानमन्तरेण न सम्भवति, तत्र च चनकदोषः प्राकट प्रतिपादित इति नार्थक्रियाज्ञानसम्भवः / सम्भवे वा तत एव प्रामाण्य. निश्चयस्य संजातत्वाद् व्यर्थमुत्तरकालभाविनः कारणशुद्धिज्ञानविशेषसमन्वितस्य पूर्वप्रामाण्यावगमहेतुत्वकल्पनम् / तन्न समानजातीयमेकप्तानप्रभवमेकार्थमुत्तरज्ञानं पूर्वज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकम् / है, अर्थात् दोनों ज्ञान का विषय एक ही है- तो यह पक्ष अयुक्त है, क्योंकि यदि दोनों ज्ञानों का विषय एक ही अर्थ है तो 'कौन संवाद्य ज्ञान और कौन संवादकज्ञान ?' यह भेद नहीं हो सकेगा। अर्थात् अमुकज्ञान में संवाद्यता और अमुकज्ञान में संवादकता स्थापन करने के लिये कोई वैशिष्ट्य नहीं है / यह इस प्रकार-दोनों ज्ञानों का एक ही विषय होने पर जैसे पूर्वकाल का ज्ञान उत्तरकाल में होने वाले एक ही संतान में उत्पन्न एवं सजातीय ज्ञान का संवादक नहीं होता, इसी प्रकार उत्तर काल में होने वाले ज्ञान को भी पूर्वकाल के ज्ञान का संवादक नहीं होना चाहिये। इसके अतिरिक्त, वह उत्तरकाल में होने वाला सजातीय और एकविषयक ज्ञान प्रमाणरूप से सिद्ध ही कहाँ है कि जिससे वह पूर्ववर्ती ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय करा सके ? तात्पर्य, स्वयं प्रमाणरूप से असिद्ध ज्ञान दूसरे के प्रामाण्य का निर्णायक नहीं हो सकता। यदि आप उस उत्तरकालवर्ती ज्ञान का प्रामाण्य उससे भी उत्तरकालभावि ज्ञान से निश्चित है ऐसा कहते हैं. : हैं, तो अनवस्था होगी क्योंकि उस उत्तरकाल भावि ज्ञान का प्रामाण्य निश्चित करने के लिये उससे भी उत्तरकालभावी प्रमाणभूत ज्ञान की आवश्यकता होगी / इस आवश्यकता के प्रवाह का कहीं अंत नहीं होगा। तात्पर्य, उत्तरकाल का प्रमाणज्ञान पूर्ववर्ती ज्ञान के प्रामाण्य को सिद्ध करेगा और उत्तरकालीन ज्ञान का प्रामाण्य अन्य उत्तरकालीन सजातीय और एक विषयवाले ज्ञान से सिद्ध होगा तो उसके प्रामाण्य का निश्चय भी अन्य उत्तरकालभावि ज्ञान से होगा। इसलिये अनवस्था आ जायेगी। [ अथोत्तरकालभाविनः० ] इस अनवस्था को दूर करने के लिये यदि आप कहें "उत्तरकालभावी ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय अन्य उत्तरकालभावी ज्ञान के द्वारा नहीं मानते, किन्तु प्रथम यानी पूर्वकालभावी प्रमाण से होता है / " तो वही अन्योन्याश्रय दोष लगेगा क्योंकि प्रथमज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय उत्तरकालभावी प्रामाण से होगा और उत्तरकालभावी ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय पूर्वकालभावी ज्ञान से होगा। [ कारणशुद्धिपरिज्ञान यह उत्तरज्ञान की विशेषता नहीं है ] यदि कहा जाय कि- अलबत्ता प्रथमज्ञान और उत्तर ज्ञान में एकविषयत्व एवं समानजातीयत्व तथा एकविज्ञानसंतानअन्तर्गतत्वस्वरूप अवैशिष्ट्य यानी समानता है किन्तु इन समानताओं के होने पर भी उत्तरज्ञान में एक वैशिष्ट्य यह है कि जिस के कारण वह पूर्वज्ञान के प्रामाण्य को निश्चित करा सकता है, परंतु पूर्वज्ञान उत्तरज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय नहीं करा सकता। यह वैशिष्ट्य इस प्रकार है- उत्तरज्ञान कारणों की शुद्धि के ज्ञान अनन्तर उत्पन्न होता है, * द्रष्टव्य पृ. २२-पं.१ / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड का०-१ प्रामाण्यवाद Blad अथ 'भिन्नार्थं तद् ज्ञानं पूर्वज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकम् ,' तदप्ययुक्तम् ; एवं सति शुक्तिकायां रजतज्ञानस्य तथाभूतं शुक्तिकाज्ञानं प्रामाण्यनिश्चायकं स्यात् / तन्न समानजातीयमुत्तरज्ञानं पूर्वज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चायकम। ____B2 अथ भिन्नजातीयं प्रामाण्यनिश्चायकमिति पक्षः, तत्रापि वक्तव्यम्-B2a किमर्थक्रिया. ज्ञानं ? B2b उतान्यद् ? B2b तत्रान्यदिति न वक्तव्यम, घटज्ञानस्यापि पटज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकत्वप्रसङ्गात् / B2a अथार्थक्रियाज्ञानं संवादकमित्यभ्युपगमः, अयमपि न युक्तः, अर्थक्रियाज्ञानस्यैव प्रामाण्यनिश्चयाभावे प्रवृत्याद्यभावतः चक्रकदोषेणाऽसम्भवात् / अथ 'प्रामाण्यनिश्चयाभावेऽपि संशयादपि प्रवृत्तिसम्भवान्नार्थक्रियाज्ञानस्याऽसम्भवः'-तहि प्रामाण्यनिश्चयो व्यर्थः / तथाहि-प्रामाण्यनिश्चयमन्तरेण प्रवृत्तः 'विसंवादभाग मा भूवम्' इत्यर्थक्रियार्थी प्रामाण्यनिश्चयमन्वेषते, सा च प्रवृत्तिस्तन्निश्चयमन्तरेणापि संजातेति व्यर्थः प्रामाण्यनिश्चयप्रयासः। जबकि पूर्वज्ञान कारणशुद्धि ज्ञानपूर्वक नहीं है / इस वैशिष्ठ्य के कारण उत्तरज्ञान ही संवादक यानी पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक बन सकता है। किन्तु इस पर यह कह सकते हैं कि चक्रकदोष के लगने से कारण शुद्धिज्ञान का सम्भव ही नहीं है / यह इस प्रकार, कारण-शुद्धिज्ञान अर्थक्रियाज्ञान के विना नहीं हो सकता और अर्थक्रियाज्ञान संवादकज्ञान के विना नहीं होगा, एवं संवादकज्ञान कारणशुद्धि के ज्ञान के विना नहीं होगा। इस प्रकार अर्थक्रियाज्ञान की अपेक्षा करने में चक्रक दोष लग जाता है। इस प्रकार प्रतिपादन पहले भी हो चुका है। चक्रकदोष के कारण अर्थक्रियाज्ञान का संभव नहीं है। यदि मान लिया जाय कि किसी तरह अर्थक्रियाज्ञान हो सकता है, तो उसी के द्वारा प्रामाण्य का निश्चय भी हो जाने से कारणशुद्धि परिज्ञानविशिष्ट उत्तरकालभावी संवादक ज्ञान व्यर्थ हो जायगा / अर्थात् कारणशुद्धि के ज्ञानविशेष से युक्त संवादकज्ञान को पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय करने के लिये हेतु के रूप में मानना व्यर्थ हो जाता है / निष्कर्ष यह है कि सजातीय व एक विज्ञान संतान में उत्पन्न और एकार्थविषयक उत्तरवर्तीज्ञान पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय नहीं करा * सकता। [भिन्नविषयक ज्ञान से प्रामाण्य का अनिश्चय ] Blad यदि आप यह कहें कि 'एकअर्थवाला ज्ञान नहीं किन्तु भिन्न अर्थवाला उत्तरवर्ती ज्ञान पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक है'-तो यह भी युक्त नहीं है / यदि केवल भिन्नविषयक होने मात्र से उत्तरज्ञान पूर्वज्ञान के प्रामाण्य को निश्चित कर सकता है तो जब शुक्ति में पहले रजत का ज्ञान, बाद में प्रमाणभूत शुक्तिज्ञान होगा, वहां शुक्तिज्ञान भी पूर्व रजतज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक हो जाना चाहिये / क्योंकि वहां दसरा शक्तिज्ञान रजतज्ञान का उत्तरवर्ती है और भिन्नविषयक भी है एवं सजातीय भी है। तात्पर्य, कोई भी सजातीय उत्तरज्ञान चाहे वह एकार्थ हो या भिन्नार्थक, पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय नहीं करा सकता। [भिन्नजातीय संवादी उत्तरज्ञान के अनेक विकल्प] यदि आप सजातीय उत्तरवर्ती संवादीज्ञान को नहीं, किंतु B2 भिन्नजातीय संवादी उत्तरज्ञान को पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक कहते हैं तो उस उत्तरज्ञान के विषय में भी यह जिज्ञासा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 कि च, अर्थक्रियाज्ञानस्यापि प्रामाण्यनिश्चायकत्वेनाऽभ्युपगम्यमानस्य कुतः प्रामाण्यनिश्चयः ? 'तदन्यार्थक्रियाज्ञानात्' इति चेत् ? अनवस्था / 'पूर्वप्रमाणात्' इति चेत् ? अन्योन्याश्रयदोषः प्राक् प्रदशितोऽत्रापि / अथार्थक्रियाज्ञानस्य स्वत एव प्रामाण्यनिश्चयः, प्रथमस्य तथाभावे प्रदेषः किनिबन्धन: ? / तदुक्तम्यथैव प्रथमं ज्ञानं तत्संवादमपेक्षते / संवादेनापि संवादः पुनर्मु ग्यस्तथैव हि // [ ] कस्यचित्तु यदीष्येत स्वत एव प्रमाणता। प्रथमस्य तथाभावे प्रद्वेषः केन हेतुना // [ श्लो० वा० सू० 2 श्लो० 76 ] संवादस्याथ पूर्वेण संवादित्वात् प्रमाणता। अन्योन्याश्रयभावेन न प्रामाण्यं प्रकल्पते // [ ] इति / होती है कि वह भिन्नजातीय संवादी उत्तरज्ञान क्या B2a अर्थक्रिया का ज्ञान है अथवा B2b उससे भिन्न कोई ज्ञान है ? अर्थक्रियाज्ञान से B2b भिन्न कोई ज्ञान पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक हैऐसा नहीं कह सकते क्योंकि तब तो घटज्ञान भी पटज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक हो जाना चाहिये / B2a यदि अर्थक्रिया के ज्ञान को पूर्वज्ञान का संवादी यानी प्रामाण्य का निश्चायक माना जाय तो यह मान्यता भी युक्त नहीं है क्योंकि अर्थक्रिया के ज्ञान में ही प्रामाण्य का निश्चय जब नहीं है तो प्रवृत्ति आदि का संभव कैसे हो सकता है, और प्रवृत्ति के असंभव से संवादकज्ञान भी नहीं हो सकेगा क्योंकि चक्रकदोष की आपत्ति है। इसलिये अर्थक्रियाज्ञान पूर्वज्ञान के संवादक होने का संभव नहीं है। अतः यह पक्ष भी युक्त नहीं है। यदि कहा जाय कि-"अर्थक्रियाज्ञान पूर्वज्ञान का सवादक न होता हुआ प्रवर्तक नहीं है यह कहना उचित नहीं क्योंकि प्रवृत्ति संशय-निश्चय साधारण ज्ञान से होती है, अतः अर्थक्रियाज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय न हो तब भी संदेह से प्रवृत्ति हो सकती है, और इस कारण अर्थक्रियाज्ञान के प्रामाण्य का संदेह भी प्रवृत्ति द्वारा पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय करा सकता है"-तो यह उचित नहीं, क्योंकि तब तो प्रामाण्य का निश्चय व्यर्थ हो जाता है / तात्पर्य, प्रामाण्य का निश्चय होना ही चाहिये यह कोई आवश्यक नहीं रहा क्योंकि उसके संदेह से भी प्रवृत्ति मान ली गयी है / इसका तथ्य यह है कि-जब कोई अर्थक्रिया का अभिलाषी प्रामाण्य निश्चित न होने पर भी प्रवृत्ति कर देता है तो भी 'मुझे विसंवाद न हो' अर्थात् 'मेरी ज्ञानानुसारिणी प्रवृत्ति निष्फल न हो' इसके लिये उस ज्ञान के प्रामाण्यनिश्चय की अपेक्षा करता है। परन्तु आपके मतानुसार प्रवृत्ति प्रामाण्य के निश्चय विना भी हो गयी, इसलिये अब प्रामाण्य के निश्चय का यत्न व्यर्थ हो जाता है। [अर्थक्रियाज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय कैसे होगा ? ] इसके अतिरिक्त आप प्रामाण्य निश्चय में अर्थक्रियाज्ञान को कारण कहते हैं तो यह बताइये कि उस ज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय किससे होता है ? अगर कहें-'दूसरे अर्थक्रिया के ज्ञान से प्रामाण्य निश्चित हो सकता है'-तो इसमें अनवस्था होगी / अगर कहें-अर्थक्रिया के ज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय पूर्वकालवर्तीज्ञान से होगा, तो यहाँ भी पूर्व प्रदर्शित [पृ०२४ पं०२३] अन्योन्याश्रय दोष लगेगा / इस Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०-१ प्रामाण्यवाद 27 अथापि स्याद्-अर्थक्रियाज्ञानमर्थाभावे न दृष्टमिति न तत्स्वप्रामाण्य निश्चयेऽन्यापेक्षम् , साधनज्ञानं तु अर्थाभावेऽपि दृष्ट मिति तत् प्रामाण्यनिश्चयेऽर्थक्रियाज्ञानापेक्षमिति / एतदप्यसंगतम्अर्थक्रियाज्ञानस्याऽपि अर्थमन्तरेण संभवात् , न च स्वप्नजाग्रदृशावस्थयोः कश्चिद्विशेषः प्रतिपादयितु शक्यः / अथ अर्थक्रियाज्ञानं फलावाप्तिरूपत्वान्न स्वप्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षम् , साधनविनि सि पुनर्जानम् नार्थक्रियावाप्तिरूपं भवति, तत स्वप्रामाण्य निश्चयेऽन्यापेक्षम्। तथाहि-जलावभासिनि ज्ञाने समुत्पन्ने पानावगाहनार्थिनः 'किमेतज्ज्ञानावभासि जलमभिमतं फलं साधयिष्यति उत न' इति जाताशंकाः तत्प्रामाण्यविचारं प्रत्याद्रियन्ते, पानावगहानार्थावाप्तिज्ञाने तु समुत्पन्नेऽवाप्तफलत्वान्न तत्प्रामाण्यविचारणाय मनः प्रणिदधति / नैतत् सारम्-'अवाप्तफलत्वात्' इत्यस्यानुत्तरत्वात् / अनवस्था और अन्योन्याश्रय को दूर करने के लिये अर्थक्रिया ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय स्वतः अर्थात् अन्य हेतु के विना अपने आप होगा ऐसा अगर माना जाय तब तो प्रथम ज्ञान के ही प्रामाण्य के निश्चय को भी स्वतः मानने में द्वेष किस कारण से ? इसी विषय में कहा भी गया है 'जिस प्रकार प्रथम ज्ञान अपने संवाद की अपेक्षा करता है, संवाद को भी इसी प्रकार अन्य संवाद खोजना होगा / यदि किसी एक को स्वतः प्रमाण माना जाय तब तो पूर्वज्ञान के स्वत: प्रमाण होने में आपको द्वेष किस कारण ? / / पूर्वज्ञान के साथ संवादी होने से उत्तरकालवर्ती संवाद प्रमाणभूत है ऐसा कह सकते हैं किन्तु यह नहीं बन सकता, क्योंकि अन्योन्याश्रय दोष होने से अपने प्रामाण्य का निश्चय कराने में समर्थ नहीं है'। [ अर्थ के विना भी अर्थक्रियाज्ञान का संभव ] ____ अब यदि आप कहें-अर्थ के अभाव में अर्थक्रियाज्ञान होता है वैसा नहीं देखा जाता, मतलब, अर्थ के होने पर ही अर्थक्रियाज्ञान होता है, अर्थात् वह ज्ञान कभी स्वविषयव्यभिचारी होता ही नहीं है, इसलिए अर्थक्रियाज्ञान अपने प्रामाण्य का निश्चय कराने में अन्य की अपेक्षा नहीं रखता। जब कि अर्थ-क्रिया का कारणभूत पूर्वज्ञान अर्थ के अभाव में भी देखा जाता है, इसलिये वह प्रामाण्यनिश्चय के लिये अर्थक्रियाज्ञान की अपेक्षा करता है / तो यह युक्त नहीं है, क्योंकि अर्थक्रिया का ज्ञान भी अर्थ के बिना स्वप्नदशा में होता है ऐसा देखा जाता है / आप कहें-“वह ज्ञान तो स्वप्नदशा का और हम जाग्रत् दशा की बात करते हैं कि अर्थ विना अर्थक्रियाज्ञान नहीं होता है"-तो यह भी युक्त नहीं क्योंकि स्वप्नदशा में और जाग्रतुदशा में होने वाले ज्ञान के स्वरूप में किसी भी प्रकार के भेद का प्रतिपादन शवय नहीं है क्योंकि स्वप्न दशा में भी जाग्रत् दशा के समान समस्त व्यवहार सच्चा ही प्रतीत होता है / इसलिये स्वप्नदशा का ध्यान रखा जाय तो यह नहीं कह सकते कि अर्थ के विना अर्थक्रियाज्ञान नहीं होता / फलतः अर्थक्रियाज्ञान स्वतः प्रमाणभूत नहीं किन्तु स्वप्रामाण्य निश्चय में अन्य सापेक्ष है यह कहना होगा। [ अर्थक्रियाज्ञान फलप्राप्तिरूप होने का कथन असार है ] ____यदि यहाँ कहा जाय कि-अर्थक्रियाज्ञान पूर्वज्ञान के फल की प्राप्तिस्वरूप [ यानी फलानुभूतिरूप ] है और फल प्राप्त होने पर किसी को उस फलज्ञान में प्रामाण्य की शंका ही नहीं होती है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 तथाहि-यथा ते विचारकत्वाज्जलज्ञानावभासिनो जलस्य किं सत्त्वम् उत्ताऽसत्त्वम् ? इति विचारणायां प्रवृत्ताः, तथा फलज्ञाननिर्भासिनोऽप्यर्थस्य सत्त्वाऽसत्त्वविचारणायां प्रवर्तन्ते, अन्यथा तदप्रवृत्तौ तदवभासिनोऽर्थस्याऽसत्त्वाशंकया तज्ज्ञानस्याऽवस्तुविषयत्वेनाऽप्रमाणतया शंक्यमानस्य न तज्जलावभासिप्रवर्तकज्ञानप्रामाण्यव्यवस्थापकत्वम् / ततश्चान्यस्य तत्समानरूपतया प्रामाण्यनिश्चयाभावात् कथं अर्थक्रियार्था प्रवत्तिनिश्चितप्रामाण्याद ज्ञानाद इत्यभ्युपगमः शोभनः ? किं च भिन्नजातीयं B2 संवादकज्ञानं पूर्वस्य प्रामाण्यनिश्चायकमभ्युपगम्यमानमेकार्थम् B2c ? B2d भिन्नार्थ वा ? B2c यद्येकार्थमित्यभ्युपगमः स न युक्तः, भवन्मतेनाऽबटमानत्वात् / तथाहि-रूपज्ञानाद भिन्नजातीयं स्पर्शादिज्ञानं, तत्र च स्पर्शादिकमाभाति न रूपम, रूपज्ञाने तु रूपम, न स्पर्शादिकमाभाति, रूपस्पर्शयोश्च परस्परं भेदः, न चावयवी रूपस्पर्शज्ञानयोरेको विषयतयाऽभ्युपगम्यते येनैकविषयं भिन्नजातीयं पूर्वज्ञानप्रामाण्यव्यवस्थापकं भवेत् / अपि च एकविषयत्वेऽपि कि B2ca येन स्वरूपेण व्यवस्थाप्ये ज्ञाने सोऽर्थः प्रतिभाति, कि तेनैव व्यवस्थापके ? B2cb उतान्येन ? तत्र यदि तेनेवेत्यभ्युपगम: स न युक्तः, व्यवस्थापकस्य तावद्धर्मार्थविषयत्वेन स्मतिवदप्रमाणत्वेन व्यवस्थापकत्वाऽसंभवात् / अथ B2cb रूपान्तरेण सोऽर्थः तत्र विज्ञाने प्रतिभाति, नन्वेवं संवाद्य-संवादकयोरेकविषयत्वं न स्यादिति B2d द्वितीय एव पक्षोऽभ्युगतः स्यात , स चाऽयुक्तः, सर्वस्याऽपि भिन्नविषयायैकसंतानप्रभवस्य विजातीयस्य प्रामाण्यव्यवस्थापकत्वप्रसंगात / इसलिए इसके प्रामाण्य का निश्चय स्वत: सिद्ध होता है, अर्थात् अर्थक्रियाज्ञान अपने प्रामाण्य के निश्चय के लिये अन्य की अपेक्षा नहीं करता है। परन्तु विवादास्पद पूर्वज्ञान तो तृप्ति आदि अर्थक्रिया के साधनभूत जल आदि का निर्भासी है, वह फलावाप्तिरूप अर्थात् तृप्ति आदि अर्थक्रिया की प्राप्तिरूप नहीं है / अतः वह अपने प्रामाण्य के निश्चय के लिये अन्य की अपेक्षा करता है, अतः वह ज्ञान स्वतः प्रमाणभूत नहीं है। यह इस प्रकार-[ जलावभासिनि.... ] जब जलावभासक ज्ञान उत्पन्न होता है तब जलपानार्थी या स्नानावगाहनार्थी लोग को शायद शंका होती है कि हमारे ज्ञान में भासित होने वाला जल हमारे वांछित फल की सिद्धि करे वैसा होगा या नहीं? इस शंका के कारण वे जलज्ञान के प्रामाण्य पर विचार की ओर आकृष्ट होते हैं / जबकि अर्थक्रिया के ज्ञान की स्थिति इससे विपरीत है, जैसे कि जलपान का अथवा स्नानावगाहन का ज्ञान जब हो गया तब तो उसका फल मिल ही गया है अर्थात् वह अवाप्त फल हो ही गया, अब फल प्राप्त हो जाने के कारण फलज्ञान प्रामाण्य का विचार करने के लिये मन लगाना नहीं पडता"-किन्तु यह कथन भी यूक्त नहीं है क्योंकि 'अवाप्तफलता होने से' यह उत्तर कोई उत्तर नहीं है। [फलज्ञान में प्रामाण्य की शंका को अपकाश ] अवाप्तफलता का उत्तर असत् होने का कारण यह है कि-मनुष्य विचारक होने से जब जलज्ञान होता है तब विचार करने लगता है कि इस जलज्ञान में भासमान जल का वास्तव में सदभाव है या भाव? इसी प्रकार यहाँ भी विचारक मनुष्य किसी प्राप्तव्य अर्थ अर्थात् ज्ञानोत्तर प्रवृत्ति के फल का जब ज्ञान होता है तब विचार करने लगता है कि इस फलज्ञान में भासमान अर्थ सत् है या असत् ? यदि वे इस प्रकार के विचार में प्रवृत्ति नहीं करेंगे तब फलज्ञान में भासमान अर्थ के असत् होने की शंका होगी। और उस शंका के कारण फलज्ञान में 'शायद यह वस्तु के विना उत्पन्न हो गया हो अतः हो सकता है वह प्रमाण न हो' इस प्रकार की शंका हो सकती है। ऐसी दशा में संशयग्रस्त Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड का०-१ प्रामाण्यवाद फलज्ञान भी प्रवर्तक जलज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय नहीं करा सकेगा। फलतः साधननिर्भासीज्ञान से अन्य फलज्ञान भी प्रथमज्ञान से समान होने के कारण, अर्थात् तृप्ति आदि फल का ज्ञान भी तृप्ति आदि के साधनभूत जलज्ञान के समान होने से, किसी में भी प्रामाण्य का निश्चय नहीं हो सकता। इस दशा में यह कैसे मान सकते हैं कि 'अर्थक्रिया अर्थात् फल के लिये प्रवृत्ति निश्चित प्रामाण्यवाले ज्ञान से ही होती है ?' तात्पर्य, यह आपका अभ्युपगम सुचारु नहीं है। [ भिन्नजातीय संवादीज्ञान के उपर अनेक विकल्प ] इसके अतिरिक्त B2 भिन्नजाति के संवादकज्ञान को जो पर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक मानते हैं वह क्या एकार्थक=B2c एकविषयवाला होता है ? या भिन्नार्थक=B2d भिन्नविषयवाला? यह भी विचार करने योग्य है। यहाँ एकार्थ भिन्नार्थ का तात्पर्य यह है कि पूर्वज्ञान में जो अर्थ प्रकाशित होता है वह अर्थ अगर संवादीज्ञान में प्रकाशित हो तो वह एकार्थ यानी एकविषयवाला कहा जायगा और यदि पूर्वज्ञान में प्रकाशित अर्थ से भिन्न अर्थ संवादीज्ञान में प्रकाशित हो तो वह भिन्नार्थक यानी भिन्नविषयवाला कहा जायगा / B2c यदि आप संवादीज्ञान को एकार्थक मानते हैं तो वह युक्त नहीं है, क्योंकि आपके मतानुसार वह संगत नहीं हो सकता। असंगति इस प्रकार-स्पर्श आदि का ज्ञान रूपज्ञान से भिन्न जाति का है क्योंकि वहाँ स्पर्श आदि की प्रतीति होती है, रूप की नहीं, रूपज्ञान में रूप प्रतीत होता है स्पर्श आदि नहीं। रूप और स्पर्श के दो ज्ञान हैं इसलिए रूप एवं स्पर्श का भेद सिद्ध होता है / फलत: भिन्नजातीय संवादी उत्तरज्ञान एकार्थक न होने से पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का व्यवस्थापक नहीं हो सकता / अगर आप मानें कि-'रूप व स्पर्श दोनों भिन्न होने पर भी उनका आश्रयभूत अवयवी एक ही है और वही पूर्वोत्तरज्ञान का विषय होने से पूर्वोत्तरज्ञान एकार्थ हो गये, अतः संवादी उत्तरज्ञान पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का व्यवस्थापक हो सकेगा'-तो इस प्रकार मानना असंभव है क्योंकि पूर्वकालीन रूपज्ञान व उत्तरकालीन स्पर्शज्ञान का विषयभूत कोई एक अवयवी क्षणिकवाद पक्ष में स्वीकार्य ही नहीं है जिससे भिन्नजातीय उत्तरज्ञान पूर्वज्ञान के साथ एकविषयवाला होकर उसके प्रामाण्य का व्यवस्थापक बन सके, अर्थात् भिन्नजाति का उत्तरज्ञान पूर्वज्ञान के प्रामाण्य को निश्चित करने में कारण हो सके। (अपि च, एकविषयत्वेऽपि) फिर भी म न लिया जाय कि दोनों ज्ञान एकार्थक-एकविषयक हैं तो भी व्यवस्थाप्य पूर्वज्ञान में जिसरूप से अर्थ प्रतीत होता है, क्या B2ca उसीरूप से व्यवस्थापक उत्तरज्ञान में वह अर्थ भासित होता है ? या किसी B2cb अन्यरूप से? यह सोचना चाहिये / B2ca यदि कहें--पूर्वज्ञान में प्रतीत होने वाले रूप से ही वह उत्तरज्ञान में प्रतीत होता है और इसलिए वह पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक हो सकता है-तो यह युक्त नहीं है क्योंकि व्यवस्थाप्य ज्ञान में जितने धर्म विषयभूत होते हैं वे सभी व्यवस्थापक ज्ञान के भी विषय हैं इसलिए व्यवस्थापकज्ञान स्मृति के समान हो जाता है अत: स्मति वत् वह प्रमाण नहीं है। स्मतिज्ञान अनुभव के यावद्विषयों का ग्राहक होने से गृहीतार्थ ग्राहक है, अतः स्मृति को अनुभववत् प्रमाण नहीं माना जाता / प्रस्तुत में उत्तरज्ञान भी वैसा ही है, इस लिये प्रमाणरूप नहीं होगा। जब वह स्वयं प्रमाणभूत नहीं तब वह पूर्व ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक नहीं बनेगा। (अथ रूपान्तरेण............ ) B2cb अब यदि आप संवादीज्ञान में अर्थ को अन्य स्वरूप से प्रतीत होना मानते हैं तो संवाद्य और संवादक ज्ञान का एक विषय नहीं रहता / इस दशा में भिन्नरूप Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 तथा कि तत् B2E समानकालममर्थक्रियाज्ञानं पूर्वज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकम् ? आहोस्विद् B2F भिन्नकालम् ? यदि B2E समानकालं, कि B2Ea साधननिर्भासिज्ञानग्राहि ? उत B2Eb तदग्राहि ? इति पुनरपि विकल्पद्वयम् / यदि B2Ea तद्नाहि, तदसत् , ज्ञानान्तरस्य चक्षुरादिज्ञानेष्वप्रतिभासनात् , प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेन चक्षुरादिज्ञानानामभ्युपगमात् / अथ B2Eb तदग्राहि, न तहि तज्ज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकम् , तदग्रहे तद्गतधर्माणामप्यग्रहात् / ___B2F अथ भिन्नकालं, तदप्ययुक्तम् पूर्वज्ञानस्य क्षणिकत्वेन नाशादुत्तरकालभाविविज्ञानेऽप्रतिभासनात् , भासने चोत्तरविज्ञानस्याऽसद्विषयत्वेनाऽप्रामाण्यप्रसक्तितस्तद्ग्राहकत्वेन न तत्प्रामाण्यनिश्चायकत्वम् / तदग्राहकं तु भिन्नकालं सुतरां न तनिश्चायकमिति न भिन्नकालमप्येकसन्तानजं भिन्नजातीयं प्रामाण्यनिश्चायकमिति न संवादापेक्षः पूर्वप्रामाण्यनिश्चयः / तेन ज्ञप्तावपि 'ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षाः' इति प्रयोगे हेतो सिद्धिः। व्याप्तिस्तु साध्यविपक्षाऽतन्नियतत्वव्यापकात् सापेक्षत्वान्निवर्तमानमनपेक्षत्वं तन्नियतत्वेन व्याप्यते इति प्रमाणसिद्धैव / का प्रकाशक ज्ञान पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय कराता है यह B2d द्वितीय विकल्प मान लेना पडेगा- परन्तु वह भी युक्त नहीं है, यदि इस प्रकार माना जाय तो जो-जो भी एकविज्ञानसंततिपतित एवं विजातीय और पहले ज्ञान की अपेक्षा भिन्न विषयक होगा उन सभी को संवादी यानी पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक मानना पड़ेगा। [ अर्थक्रियाज्ञान के ऊपर समानाऽसमानकालता का विकल्प ] भिन्नरूप प्रकाशक ज्ञान को प्रामाण्य निश्चायक मान भी लिया जाय तब भी यह प्रश्न होगाजिस भिन्नजातीय संवादी अर्थक्रियाज्ञान को आप पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक मानते हैं, क्या वह पूर्वज्ञान का B2e समान कालीन है ? या B2f भिन्नकालीन है ? समानकालीन मानने पर भी दो विकल्प खड़े होते हैं कि वह व्यवस्थापक अर्थक्रिया ज्ञान अर्थक्रिया के साधन का प्रकाशक जो पूर्वज्ञान है B2ea उसका ग्राहक है B2eb या नहीं ? इन सब विकल्पों का तात्पर्य यह है कि- जल से होने वाली तृप्ति जलरूप अर्थ की क्रिया है, उस अर्थक्रिया के ज्ञान का व्यवस्थाप्य जलज्ञान है और जल तृप्ति का साधन होने से जलज्ञान साधननिर्भासीज्ञान हुआ, दोनों परस्पर भिन्न जातीय हैं / अब जो तृप्ति का ज्ञान जलज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक बनेगा B2E वह समकालीन होता हुआ या B2F भिन्नकालीन होता हआ ? प्रश्न का भाव यह है कि जब तप्तिज्ञान होता है तब वह ज्ञान जिस काल में जल का ज्ञान हआ है उसी काल में होने के कारण पूर्ववर्ती जलज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक है अथवा भिन्नकाल में होने के कारण तृप्तिज्ञान पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक है ? ___ यदि B2E समानकालीन होने के कारण प्रामाण्य का निश्चायक है ऐसा कहते हो तब भी यहाँ और दो विकल्प उपस्थित होते हैं- B2Ea अर्थक्रियाज्ञान साधननिर्भासी ज्ञान का ग्राहक है B2Eb या B2Ea यदि कहा जाय-अर्थक्रिया का ज्ञान साधनानभीसी ज्ञान का ग्राहक है-तो यह युक्त नहीं है, क्योंकि चक्षु आदि इन्द्रियों से जन्य ज्ञान में किसी अन्य ज्ञान का ग्रहण नहीं होता है / चक्षु आदि इन्द्रियों से जन्य ज्ञान को अपने अपने रूपादि विषयों का ही ग्राहक माना गया है। B2Eb अब यदि आप अर्थक्रिया ज्ञान को साधननिर्भासी ज्ञान का ग्राहक नहीं मानते, तो जब धर्मी साधननिर्भासी ज्ञान ही गृहीत नहीं हुआ तब उसके प्रामाण्यस्वरूप धर्म का ग्रहण कैसे होगा? क्योंकि धर्म के आश्रय का Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड का०-१ प्रामाण्यवाद ग्रहण न होने पर धर्म का ग्रहण भी नहीं हो सकता। तात्पर्य, समानकालीन अर्थक्रियाज्ञान व्यवस्थाप्यज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक नहीं हो सकता। _B2F अगर कहें- भिन्नकालीन अर्थक्रियाज्ञान पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक होगा तो [ यहाँ भी दो विकल्प खड़े होते हैं कि- B2Fa वह उत्तरज्ञान पूर्वज्ञान का ग्राहक है B2Fb या नहीं ? अगर कहें- B2Fa उत्तरज्ञान पूर्वज्ञान का ग्राहक है तो ] यह ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वज्ञान क्षणिक है इसलिये उत्पत्तिक्षणोत्तर नष्ट हो जाने से उत्तरक्षणभावी ज्ञान में उसका ग्रहण नहीं हो सकता। कारण, प्रत्यक्ष में विषय समानकालीन होकर ही कारण होता है / यदि उत्तरक्षणोत्पन्न ज्ञान नष्ट हो गये हुये पूर्वज्ञान को भी विषय करेगा तब तो उत्तरविज्ञान को असद्वस्तुविषयक मानना पड़ेगा और इस हालत में उस उत्तरविज्ञान में अप्रामाण्य की आपत्ति होगी। इस कारण, उत्तरकालीन अर्थक्रियाविज्ञान पूर्वकालीन साधननिर्भासिज्ञान का ग्राहक होने पर भी स्वयं अप्रमाण होने से पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक नहीं हो सकता। ( B2Fb दूसरे विकल्प में ) भिन्नकालीन ज्ञान पर्ववर्तीज्ञान का ग्राहक नहीं है तब वह सुतरां पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक नहीं हो सकता। क्योंकि जब धर्मी पूर्वज्ञान स्वयं ही गृहीत नहीं है तो इसका धर्म 'प्रामाण्य' कैसे गृहीत हो सकता है ? इन समग्र विकल्पों के परामर्श से यह फलित हुआ कि एक विज्ञानसंततिपतित एवं B2 भिन्न जातीय व F भिन्न कालीन उत्तरवर्ती अर्थक्रियाज्ञान पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक किसी भी हालत में नहीं हो सकता। इसलिये पूर्ववर्ती ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय संवाद की अपेक्षा से नहीं हो सकता। इस कारण यह फलित होता है कि प्रामाण्य की ज्ञप्ति के संबंध में जो यह प्रयोग किया था कि- 'ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षाः ते तत्स्वरूपनियताः' इत्यादि, अर्थात् जो जिस भाव के प्रति निरपेक्ष है वह तत्स्वरूप में नियत होता है। तात्पर्य, जो अर्थात् प्रामाण्य जिस भाव अर्थात् उत्पत्ति-ज्ञप्ति-कार्य इन भावों के प्रति निरपेक्ष है अर्थात् अन्य को अपेक्षा न रखने वाला है वह तत्स्वरूपनियत है अर्थात् नियमतः स्वतः होने वाले हैं।'-[पृ० 5 पं. 20] इस प्रयोग में हेतु अन्यानपेक्षत्व असिद्ध नहीं है, क्योंकि उपरोक्त विवरण से यह सिद्ध हो गया कि प्रामाण्य की ज्ञप्ति में कारणगुण एवं संवाद इत्यादि की अपेक्षा नहीं है / [स्वतः प्रामाण्य साधक अनुमान के हेतु में व्याप्ति की सिद्धि ] ( व्याप्तिस्तु............० ) 'जो अनपेक्ष है वह तत्स्वरूपनियत है' इस व्याप्ति पर आधारित यह अनुमान जो होता है कि 'प्रामाण्यं तत्स्वरूपनियतं अनपेक्षत्वात्' 'इसमें व्याप्ति का भी प्रामाण्य सिद्ध है, जैसे कि- साध्यविपक्ष अतन्नियतत्व का व्यापक जो सापेक्षत्व है उसके साथ कभी भी न रहने वाला जो अनपेक्षत्व हेतु है वह अपने साध्य तन्नियतत्व के साथ पूर्णतया व्याप्त है यानी अविनाभावी है- यह सिद्ध होता है / उदाहरणार्थ- 'वह्निमान् धूमात्' यहाँ साध्यविपक्ष जलह्रद में से घूम निवर्तमान है इसलिये वह साध्य वह्नि से व्याप्त होता है / इसी प्रकार 'तन्नियतं अनपेक्षत्वात्' इस अनुमान में भी साध्यविपक्ष अतन्नियत में से अनपेक्षत्व निवर्तमान है इसलिये वह अनपेक्षत्व साध्य तन्नियतत्व से व्याप्त है-यह प्रमाण सिद्ध ही है / Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 यतश्च न पूर्वोक्तेन प्रकारेण परतः प्रामाण्यनिश्चयः सम्भवति, ततो ये संदेहविपर्ययविषयीकृतात्मतत्त्वाः' इति प्रयोगे व्याप्त्यसिद्धिः। हेतोश्चासिद्धता, सर्वप्राणभृतां प्रामाण्ये संदेह-विपर्ययाभावात् / तथाहि ज्ञाने समुत्पन्ने सर्वेषां 'अयमर्थः' इति निश्चयो भवति / न च प्रामाण्यस्य संदेहे विपर्यये वा सत्येष युक्तः / तदुक्तम् -- * “प्रामाण्यग्रहणात् पूर्व स्वरूपेणैव संस्थितम् / निरपेक्षं स्वकार्ये च" [श्लो• वा० सू० 2 श्लो० 83 ], इति / स्वार्थनिश्चयो हि प्रमाणकार्यम्, न च तत् प्रमाणान्तरं प्रहणं चापेक्षते इति गम्यते। न चैतत संशय-विपर्ययविषयत्वे सम्भवतीति / अथ प्रमाणाऽप्रमाणयोरुत्पत्तौ तुल्यं रूपमिति न संवाद-विसंवादावन्तरेण तयोः प्रामाण्याप्रामा- . ण्यनिश्चयः, तदसत , अप्रमाणे तदुत्तरकालमवश्यभाविनौ बाधक कारणदोषप्रत्ययौ तेन तत्राऽप्रामाण्यनिश्चयः, प्रमाणे तु तयोरभावात कुतोऽप्रामाण्यशंका ? अथ तत्तल्यरूपे तयोर्दर्शनात तत्रापि तदाशंका, साऽपि न युक्ता; त्रि-चतुरज्ञानापेक्षामात्रतस्तत्र तस्या निवृत्तेः / न च तदपेक्षातः स्वतःप्रामाण्यव्याहतिः अनवस्था वेत्याशंकनीयम् , संवादकज्ञानस्याऽप्रामाण्याशंकाव्यवच्छेदे एव व्यापारात् अपरज्ञानानपेक्षणाच्च / [ परतः प्रामाण्य साधक अनुमान में व्याप्ति और हेतु की असिद्धि ] परतः प्रामाण्यवादी को यह भी ध्यान में रहे कि पूर्वप्रदर्शित रीति से प्रामाण्य के निश्चय में पर की अपेक्षा का संभव ही नहीं है / इस कारण, परतः प्रामाण्यवादी की ओर से पूर्व में किये गये 'ये संदेहविपर्ययविषयीकृतात्मतत्त्वा (विपर्ययाध्यासिततनवः) ते परतो निश्चितयथावस्थितस्वरूपाः' इस प्रयोग में व्याप्ति असिद्ध है / एवं हेतु भी असिद्ध है / यह इस प्रकार:-प्रस्तुत प्रयोग में व्याप्ति यह है कि 'जहाँ जहाँ वस्तुस्वरूप संदेह व भ्रम से ग्रस्त होता है वहां वहां यथार्थ स्वरूप के निर्णय में परसापेक्षता होती है।' किंतु यह व्याप्ति सिद्ध नहीं हो सकती क्योंकि प्रामाण्य के निश्चय में संवादादिसापेक्षता ही सिद्ध नहीं है / एवं हेतु 'संदेह-भ्रम-ग्रस्तता' प्रामाण्यरूप पक्ष में असिद्ध है। क्योंकि किसी भी प्राणी को प्रामाण्य के विषय में संदेह और भ्रम होता नहीं है / (तथाहि.....) प्रामाण्य में किसी को भी संदेह और भ्रम नहीं होता यह इस प्रकार-जब ज्ञान उत्पन्न होता है तब सभी को यह निश्चय हो जाता है कि 'यह अमूक अर्थ है' / यदि प्रामाण्य के विषय में संदेह या भ्रम होता तो यह निश्चय नहीं होना चाहिये / कहा भी है-('प्रामाण्यग्रहणात्'....इत्यादि कारिका का अर्थः-) प्रमाण का प्रामाण्य गृहीत होने के पहले ही स्वरूप से अवस्थित है / वह अपने कार्य करने में किसी अन्य की अपेक्षा नहीं करता। प्रमाण का कार्य है 'स्वार्थ' अर्थात विषय का निश्चय / इसमें वह किसी अन्य प्रमाण की एवं स्वग्रहण की अपेक्षा नहीं करता, अर्थात् प्रमाण उत्पन्न होते ही स्वविषय का निश्चय हो जाता है। यदि इस प्रमाणज्ञान के विषय में संदेह या भ्रम संभवित होता तो अपने विषय का निश्चय निरपेक्षरूप से नहीं कर पाता। [प्रमाणज्ञान और अप्रमाणज्ञान का तुल्यरूप नहीं है ] यदि आप कहते हैं-'प्रमाणभूतज्ञान और अप्रमाणभूतज्ञान का स्वरूप उत्पत्ति में समान है। तात्पर्य, उत्पत्तिकाल में दोनों ज्ञान सामान्यरूप से गृहीत होता है, किन्तु ( विशेष रूप से अर्थात् ) प्रमाण रूप से या अप्रमाणरूप से गृहीत नहीं होता है इसलिए अगर इसका ग्रहण करना हो तो संवाद या विसंवाद की अपेक्षा अवश्य रहेगी / इस के बिना उन दोनों के प्रामाण्य-अप्रामाण्य का निश्चय नहीं * 'गृह्यते प्रत्ययान्तरः' इति चतुर्थः पादः / Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड का०-१ प्रामाण्यवाद 33 तथाहि-अनुत्पन्ने बाधके ज्ञाने परत्र बाध्यमानप्रत्ययसाधादप्रमाण्याशंका, तस्यां सत्यां तृतीयज्ञानापेक्षा, तच्चोत्पन्नं यदि प्रथमज्ञानसंवादि, तदा तेन न प्रथमज्ञानप्रामाण्यनिश्चयः क्रियते किंतु द्वितीयज्ञानेन यत् तस्याऽप्रामाण्यमाशंकितं तदेव तेनाऽपाक्रियते / प्रथमस्य तु स्वत एव प्रामाण्यमिति एवं तृतीयेऽपि कथंचित् संशयोत्पत्तौ चतुर्थज्ञानापेक्षायामयमेव न्यायः / तदुक्तम् एवं त्रिचतुरज्ञानजन्मनो नाधिका मतिः / प्रार्थ्यते तावतैवैकं स्वतः प्रामाण्यमश्नुते // इति [ श्लो०वा०सू०२, श्लो० 61] यत्र च दुष्टं कारणम् , यत्र च बाधकप्रत्ययः स एव मिथ्याप्रत्ययः, इत्यस्याप्ययमेव विषयः। चतुर्थज्ञानापेक्षा त्वभ्युपगमवादत उक्ता न तु तदपेक्षाऽपि भावतो विद्यते। हो सकता'- तो यह कथन युक्त नहीं है / जब अप्रमाणज्ञान उत्पन्न होता है तब उत्पत्ति के बाद बाधकज्ञान अथवा ज्ञान के उत्पादक कारणों में रहे हुए दोष का ज्ञान अवश्य होता है। इस से अप्रामाण्य का निश्चय होता है- परन्तु प्रमाणभूत ज्ञान में न बाधक ज्ञान होता है न कारण के दोष का ज्ञान होता है / इसलिये यहाँ कैसे अप्रामाण्य की शंका हो सकेगी? ( अथ तत्तल्यरूपे.... ) यदि आप कहते हैं-'अप्रमाणभूत ज्ञान के समान प्रमाणभूत ज्ञान में स्वरूपतः तुल्यता यानी ज्ञानसामान्यरूपता होने से उसमें भी बाधक प्रत्यय व कारण दोष प्रत्यय इन दोनों का उद्भव दिखाई पड़ता है अत: वहाँ भी अप्रामाण्य की शंका हो सकती है'- किन्तु यह शंका भी अयुक्त है अर्थात् बाधक नहीं है, क्योंकि उसी विषय में तीन चार ज्ञानों का सहारा लेकर प्रमाता को अप्रामाण्य की शंका दूर हो जाती है। निष्कर्ष, इसलिये प्रामाण्य का निश्चय स्वतः होता है / ( न च तदपेक्षातः.... 0 ) अगर आप कहें- “तीन चार ज्ञानों की अपेक्षा रख कर अप्रामाण्य की शंका * दूर करने द्वारा यदि प्रामाण्य का निश्चय मानते हैं तब तो प्रामाण्य स्वत: नहीं हुआ। तात्पर्य, प्रामाण्य का स्वतोभाव व्याहत हो गया, बाधित हो गया / अथवा यहाँ अगर आप कहें कि तीन-चार ज्ञानों की अपेक्षा मात्र सामान्यत: प्रादुर्भुत अप्रामाण्य की शंका दूर करने के लिये ही है इससे प्रामाण्य के स्वतस्त्व में कोई हानि नहीं है, तो भी उन ज्ञानों में भी अप्रामाण्य की आशंका के होने पर अन्य तीन चार ज्ञानों की अपेक्षा करने से अनवस्था तो अवश्य होगी।"-तो यह कथन युक्त नहीं है / जो ज्ञान संवाद कराते हैं वे केवल अप्रामाण्य की आशंका को दूर करते हैं। प्रामाण्य के निश्चय के लिये उनकी अपेक्षा नहीं होती। इस तथ्य को स्पष्टता इस प्रकार है [संवाद ज्ञान केवल अप्रामाण्य शंका का निराकरण करता है ] मानों कि किसी ज्ञान उत्पन्न होने पर उसका कोई बाधक ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ फिर भी उस ज्ञान में बाधित ज्ञानों के साथ सादृश्य होने के कारण अप्रामाण्य की शंका हुई, तब ऐसी शंका होने पर तृतीय ज्ञान की अपेक्षा रहती है और वह उत्पन्न हुआ। अब यदि वह तृतीयज्ञान प्रथम ज्ञान का संवादी हो, तो प्रथम ज्ञान के अप्रामाण्य की शंका दूर हो जाती है। यहाँ यह ध्यान में रखने योग्य है कि प्रथम ज्ञान ने जिस अर्थ को प्रकाशित किया है उसी को वह भी प्रकाशित करता है तब भी वह ततीय ज्ञान प्रथम ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक नहीं है, किन्तु द्वितीय ज्ञान से प्रथम ज्ञान में जिस अप्रामाण्य की शंका हुई थी उसका निवर्तक है / 'जैसे अप्रामाण्य शंका का वह निवर्तक है वैसे प्रामाण्य का निश्चायक क्यों नहीं ?' ऐसी अगर शंका की जाय तब उत्तर यह है कि प्रथम ज्ञान के प्रामाण्य का Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 अथ तृतीयज्ञानं द्वितीयज्ञानसंवादि तदा प्रथमस्याऽप्रामाण्यनिश्चयः, स तु तत्कृतोऽभ्युपगम्यत एव / किंतु द्वितीयस्य यदप्रामाण्यमाशंकितं तत् तेनाऽपाक्रियते, न पुनस्तस्य द्वितीयप्रामाण्यनिश्चायकत्वे व्यापारः / यत्र त्वभ्यस्ते विषयेऽर्थतथात्वशंका नोपजायते तत्र बलादुत्पद्यमाना शंका तत्कतुरनर्थकारिणीत्यावेदितं वार्तिककृता प्राशंकेत हि यो मोहादजातमपि बाधकम् / स सर्वव्यवहारेषु संशयात्मा क्षयं व्रजेत् // न चैतदभिशापमात्रम् , यतोऽशंकनीयेऽपि विषयेऽभिशंकिनां सर्वत्रार्थाऽनर्थप्राप्तिपरिहाराथिनामिष्टानिष्ट प्राप्तिपरिहारसमर्थप्रवृत्त्यादिव्यवहाराऽसंभवाद् न्यायप्राप्त एव क्षयः, स्वोत्प्रेक्षितनिमित्तनिबन्धनाया प्राशंकायाः सर्वत्र भावात् / निश्चय स्वत: ही हो जाता है। इसी प्रकार तृतीय ज्ञान में भी यदि किसी कारण से संशय उत्पन्न हो जाय और चतुर्थ ज्ञान की अपेक्षा करनी पड़े तो वहां भी युक्ति का प्रकार यही है / कहा भी है-एवं त्रिचतुर....० इत्यादि, तात्पर्य-तीन चार ज्ञानों की उत्पत्ति से अधिक ज्ञान की आकांक्षा नहीं होती है / इतने से ही पूर्वज्ञान में स्वतः प्रामाण्य व्याप्त हो जाता है / अर्थात् अप्रामाण्यशंका से अबाध्य बन जाता है। जहाँ पर ज्ञान के कारण दूषित होता है और जहाँ बाधक ज्ञान होता है वही ज्ञान मिथ्या ज्ञान है। इसका भी यही विषय है अर्थात् बाधक प्रत्यय क्या करता है ? यही कि जैसे पूर्व में संवादी प्रत्यय अप्रामाण्य की शंका का निवर्तक होता है वैसे वहां भी बाधक प्रत्यय अप्रार शंका की निवृत्ति करके अप्रामाण्य का निर्णय करता है किन्तु प्रामाण्य को छूता नहीं है। (चतुर्थ....) यहां जो चतुर्थज्ञान की अपेक्षा कही गयी है वह भी अभ्युपगमवाद से कही गयी है अर्थात् अर्थज्ञान को सुदृढ करने की अपेक्षा से चतुर्थ ज्ञान की अपेक्षा मान ली जाय तो भी प्रामाण्य के स्वतोभाव का निषेध नहीं हो सकता-- इस दृष्टि से उसको कहा गया है। परमार्थ से तो चतुर्थ ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती है। यदि तृतीय ज्ञान द्वितीय ज्ञान का संवादी हो, [ यह वहां बनता है जहां प्रथम ज्ञान अप्रामाण्यज्ञानास्कंदित हुआ और द्वितीयज्ञान अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दित हुआ वहाँ प्रवृत्त्यादि के बाद तृतीय ज्ञान संवादी उत्पन्न होता हो ] तब प्रथम ज्ञान के अप्रामाण्य का निश्चय होता है अर्थात् प्रथम ज्ञान में हुए अप्रामाण्य संदेह का निश्चय होता है और वह अप्रामाण्यनिश्चय संवादि तृतीय ज्ञान के द्वारा उत्पन्न हुआ है यह तो स्वीकार लिया जाता है परन्तु दूसरे ज्ञान में यदि अप्रामाण्य की शंका हुई हो, तो उसके निवारणार्थ भी तृतीय ज्ञान की आवश्यकता है, यानी उस शंका को तृतीय ज्ञान दूर करता है किन्तु यह ध्यान रखें कि द्वितीय ज्ञान के प्रामाण्य को निश्चित करने में तृतीय ज्ञान का कोई व्यापार नहीं है। __(यत्र त्वभ्यस्ते....) जहां विषय अभ्यस्त यानी परिचित रहता है वहां ज्ञान में विषय के यथार्थ स्वरूप की शंका नहीं होती। यदि वहां भी हठ से शंका की जाय तो वह शंका करने वाले का ही अनिष्ट करती है। इस तत्त्व को वात्तिककारने भी प्रकट किया है- (आशंकेत....इत्यादि) जो मूढताअज्ञानता के कारण बाधक की प्रतीति न होने पर भी ज्ञान के अयथार्थ होने की शंका करते चलता है वह संशयात्मा समस्त व्यवहारों में नाश पाता है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०-१प्रामाण्यवाद प्रेरगाजनिता तु बुद्धिरपौरुषेयत्वेन दोषरहितात् प्रेरणालक्षणाच्छन्दादुपजायमाना लिंगाऽऽप्तो. क्ताक्षबुद्धिवत् प्रमाणं सर्वत्र स्वतः / तदुक्तम्-- चोदनाजनिता बुद्धिः प्रमाणं दोषजितैः / कारणैर्जन्यमानत्वाल्लिगाऽऽप्तोक्ताऽक्षबुद्धिवत् // [श्लो० वा० सू० 2 श्लो० 148] इति / तस्मात् 'स्वतः प्रामाण्यम् , अप्रामाण्यं परत इति व्यवस्थितम् / ' प्रतः सर्वप्रमाणानां स्वतः सिद्धत्वाद् युक्तमुक्तम्-'स्वतः सिद्धं शासनं नातः प्रकरणात प्रामाण्येन प्रतिष्ठाप्यम्' [ पृ० 450 6 ] इदं त्वयुक्तम्- 'जिनानाम्' इति / जिनानामसत्त्वेन शासनस्य तत्कृतत्वानुपपत्तेः, उपपत्तावपि परतः प्रामाण्यस्य निषिद्धत्वात् / इति / यह केवल शाप नहीं है किन्तु हकीकत है, क्योंकि जो विषय शंका करने योग्य नहीं है, उस विषय में भी जो लोग शंका करते हैं, वे समस्त विषयों में इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के त्याग के लिये प्रवृत्ति और निवत्तिरूप व्यवहार नहीं कर सकते हैं। इस कारण इस प्रकार के लोगों का नाश युक्तियुक्त है / अशंकनीय विषयों में शंका न करने का कारण यह है कि स्वमतिकल्पित निमित्तों से की जाने वाली शंका तो सभी पदार्थों में हो सकती है / [प्रेरणाजनित बुद्धि का स्वतः प्रामाण्य ] जो बुद्धि वैदिक विधिवाक्य से उत्पन्न होती है वह विधिवाक्य पुरुषरचित नहीं होने से स्वतः प्रमाण है। जैसे कि हेतुजन्य अनुमिति, आप्त पुरुष के वचन से जन्य शब्दबोध और इन्द्रियों से जन्य प्रत्यक्ष ज्ञान अपने अपने विषयों में स्वतः प्रमाणभूत होते हैं / उसका प्रामाण्य निश्चित करने के लिये किसी अन्य कारण की अपेक्षा नहीं रहती / मीमांसा श्लोक वात्तिक में कहा गया है कि जो बुद्धि विधिवाक्य से उत्पन्न होती है वह दोषरहित कारणों से उत्पन्न होने के कारण प्रमाण है, जैसे कि हेतु से उत्पन्न, आप्तवचन से उत्पन्न और इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान / दोषरहित धूम आदि हेतु से होने वाला अग्नि आदि का अनुमिति ज्ञान प्रमाण होता है / किसी आप्तपुरुष के वचन को सुन कर जो ज्ञान होता है वह भी दोषरहित वचन से उत्पन्न हुआ है इसलिये प्रमाण होता है / दोषरहित चक्षु आदि से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह भी प्रमाण होता है / इन ज्ञानों के समान निर्दोष विधिवाक्य से उत्पन्न ज्ञान भी प्रमाण है। विधिवाक्य किसी पुरुष से उत्पन्न नहीं, किन्तु अपौरुषेय हैं नित्य हैं, इसलिये पुरुष के साथ संबंध रखने वाले दोषों से युक्त पुरुष से उत्पन्न नहीं है। अतः विधिवाक्यजन्य बोध अप्रामाण्य की संभावना से रहित है / कारणों के निर्दोष होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रमाण होता है। विधि वाक्य भी एक निर्दोष कार है इस लिये उसके द्वारा उत्पन्न होने वाला ज्ञान भी प्रमाण है। [शासन स्वतः सिद्ध होने से जिनस्थापित नहीं हो सकता-पूर्वपक्ष समाप्त ] इसलिये सिद्ध हुआ कि प्रामाण्य स्वतः होता है और अप्रामाण्य पर की अपेक्षा से होता है, इस रीति से समस्त प्रमाणों का प्रामाण्य स्वतः सिद्ध है, इसलिये उचित ही कहा गया है कि-'शासन स्वतः सिद्ध है, इस प्रकरण के द्वारा उसकी प्रामाण्यरूप से प्रतिष्ठा करने की आवश्यकता नहीं है / (इदं त्वयुक्तम् ....) शासन स्वतः प्रमाण है यह प्रतिपादन युक्तियुक्त होने पर भी आपने जो Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 [ (1) उत्पत्तौ परतः प्रामाण्यस्थापने उत्तरपक्षः ] अत्र प्रतिविधीयते यत्तावदुक्तम् 'अर्थतथाभावप्रकाशको ज्ञातृव्यापारः प्रमाणम्'-[पृ०४ पं०८] तदयुक्तम् , पराभ्युपगतज्ञातृव्यापारस्य प्रमाणत्वेन निषेत्स्यमानत्वात् / यदप्यन्यदभ्यधायि तस्य यथार्थप्रकाशकत्वं प्रामाण्यम् , तच्चोत्पत्तौ स्वतः, विज्ञानकारणचक्षुरादिव्यतिरिक्तगुणानपेक्षत्वात्'-[पृ० 4 ] तत्र प्रामाण्यस्योत्पत्तिरविद्यमानस्यात्मलाभः, सा चेन्नितका "देश-काल-स्वभावनियमो न स्यात" इत्यन्यत्र प्रतिपादितम् / किंच, गुणवच्चक्षुरादिसद्भावे सति यथावस्थितार्थप्रतिपत्तिष्टा, तदभावे न दृष्टा इति तद्धेतुका व्यवस्थाप्यते, अन्वय-व्यतिरेकनिबन्धनत्वादन्यत्रापि हेतुफल मावस्य, अन्यथा दोषवच्चक्षुराद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायिनी मिथ्याप्रतिपत्तिरपि स्वतः स्यात् / तथाभ्युपगमे "वस्तुत्वाद् द्विविधस्याऽत्र संभवो दुष्टकारणात्" [ श्लो० वा० सू० 2 श्लो० 54 ] इति वचो व्याहतमनुषज्येत / 'जिनानां शासनम्' अर्थात् 'जिनों के द्वारा स्थापित किया गया शासन' ऐसा कहा वह युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि 'जिन' जैसी किसी व्यक्ति का सद्भाव यानी सत्ता ही नहीं है वे असत् हैं, इसलिये जिनों के द्वारा रचित कोई शासन है यह बात संगत नहीं हो सकती। [ तात्पर्य, प्रमाणभूत आगम शास्त्रों का कोई प्रवक्ता नहीं होता, और प्रमाणभूत आगम केवल वेद ही हैं। ] यदि संगत हो तो भी शासन में पर की अपेक्षा प्रामाण्य नहीं हो सकता क्योंकि परतः प्रामाण्य का विस्तार से निषेध किया जा चुका है। [ स्वतः प्रामाण्यवाद पूर्वपक्ष समाप्त ] [ (1) प्रामाण्य परतः उत्पन्न होता है-उत्तरपक्ष प्रारंभ ] इस विषय में अब प्रतिकार किया जाता है-आपने जो कहा कि 'ज्ञाता का अर्थ के यथास्थित स्वरूप का प्रकाशक व्यापार प्रमाण होता है' यह युक्त नहीं है, क्योंकि परपक्षियों ने जो ज्ञाता के व्पापार को प्रमाणरूप माना है उसका निषेध स्वतोभाव के खण्डन के बाद किया जाने वाला है। इसके अतिरिक्त, स्वतः प्रामाण्यवादी ने जो कहा कि 'अर्थ के यथास्थितस्वरूप का प्रकाशन वह प्रामाण्य है और वह उत्पत्ति में स्वतः है, क्योंकि चक्षु आदि इन्द्रिय से भिन्न किसी गुण की अपेक्षा नहीं करता, इसलिये प्रामाण्य स्वत: उत्पन्न होने वाला कहा जाता है। (तत्र प्रमाण्यस्यो०....) वहाँ यह सोचना जरूरी है कि-'प्रामाण्य की उत्पत्ति' में उत्पत्ति क्या है ? 'जो पहले विद्यमान नहीं है उसका अस्तित्व में आना' यही उत्पत्ति है / अगर यह उत्पत्ति निर्हेतुक यानी विना कारणसामग्री के हो जाती तब तो देशकालस्वभाव का नियम नहीं बन सकता। अर्थात् कार्योत्पत्ति अमुक ही देश में, अमुक ही काल में व अमुक ही स्वभाववाली नहीं बन सकती। उदाहरणार्थ, मिट्टी का पिंड घटस्वरूप बन जाने पर घट का अस्तित्व दिखाई देता है तो घट की उत्पत्ति कही जाती है / अब यह नियत घट की उत्पत्ति यदि विना कारण हो तब उसके उपादान भूत मिट्टीमय पिंड देश में ही उत्पन्न होना, अमुक ही दिन में उत्पन्न होना, अमुक ही दिन में जलाहरणादि स्वभावयुक्त उत्पन्न होना-ऐसा नियत भाव नहीं बन सकता इस बात का उपपादन अन्य स्थल में किया गया है। ___ तात्पर्य यह है कि कारणों से अजन्य ऐसे परमाणु आकाश आदि विद्यमान नित्य पदार्थ किसी एक ही (उपादान) देश व एक ही काल में नहीं रहता है / एवं उनका स्वभाव भी नियत नहीं होता है, यानी कारणजन्य पदार्थों के समान तत्तत्कारणाधीन तत्तत्स्वभाव वाला नहीं होता है / योद प्रामाण्य Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड का०-१ प्रामाण्यवाद यदपि 'अत्यक्षाऽक्षाश्रितगुणसद्भावे प्रत्यक्षाऽप्रवृत्तेः तत्पूर्वकानुमानस्याऽपि तद्ग्राहकत्वेनाऽव्यापारात चक्षुरादिगतगुणानामसत्त्वात् तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वं प्रामाण्यस्योत्पत्तावयुक्तं' [ पृ०८ ] इत्युक्तम; तदसंगतम् , अप्रामाण्योत्पत्तावप्यस्य दोषस्य समानत्वात / तथाहि-"अतीन्द्रियलोचनाद्याश्रिता दोषाः कि प्रत्यक्षेण प्रतीयन्ते ? उतानुमानेन ? न तावत प्रत्यक्षेण, इन्द्रियादीनामतीन्द्रियत्वेन तद्गतदोषाणामप्यतीन्द्रियत्वे तेषु प्रत्यक्षस्याऽप्रवृत्तेः / नाप्यनुमानेन, अनुमानस्य गृहीतप्रतिबन्धलिंगप्रभवत्वाभ्युपगमात , लिंगप्रतिबन्धग्राहकस्य च प्रत्यक्षस्यानुमानस्य चात्र विषयेऽसम्भवात् , प्रमाणाऽन्तरस्य चात्रानन्तर्भूतस्याऽसत्त्वेन प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्"-इत्यादि सर्वमप्रामाण्योत्पत्तिकारणभूतेषु लोचनाद्याश्रितेषु दोषेष्वपि समानमिति तेषामप्यसत्त्वात् तदन्वयव्यतिरेकानुविधानस्याऽसिद्धत्वादप्रामाण्यमप्युत्पत्तौ स्वतः स्यात् / की उत्पत्ति का कोई हेतु न हो तो आकाश के समान उसके देश-काल आदि का नियम भी नहीं होना चाहिये। [ गुणवान् नेत्रादि के साथ प्रामाण्य का अन्वय-व्यतिरेक ] ( किंच गुणव०....) इसके अतिरिक्त, 'गुणयुक्त चक्षु आदि इन्द्रिय होने पर विषय का यथार्थ प्रत्यक्ष देखा गया है, गुणयुक्त चक्षु आदि इन्द्रिय न होने पर यथार्थ प्रत्यक्ष नहीं देखा गया है।' इस प्रकार के अन्वंय-व्यतिरेक से यथार्थ प्रत्यक्ष यह गुणयुक्त इन्द्रिय हेतुक सिद्ध होता है अर्थात् यथार्थ प्रत्यक्ष व गुणयुक्त इन्द्रिय का हेतु-हेतुमद्भाव सिद्ध होता है / अन्य स्थान में भी जहाँ हेतु-हेतुमद्राव होता है वहां वह भी अन्वय और व्यतिरेक के अधीन ही होता है / अर्थात् जिन दोनों के बीच में पौवापर्यरूप से अन्वय-व्यतिरेक उपलब्ध होता है, तात्पर्य, 'एक के होने पर दूसरे का उत्पन्न होना और उसके न होने पर दूसरे का उत्पन्न न होना' ऐसी परिस्थिति मिलती है वहाँ उन दोनों के बीच में हेतु-हेतुमद्भाव अर्थात् कार्यकारणभाव होता है। अन्यथा, अन्वय-व्यतिरेक होने पर भी हेतु-हेतुमद्भाव न माना जाय तो वस्तु निर्हेतुक अर्थात् स्वतः सिद्ध हो जाएगी। फलतः मिथ्या प्रतीति व दोषयुक्त चक्ष आदि इन्द्रिय इन दोनों के बीच में अन्वय-व्यतिरेक होने पर मिथ्या प्रतीति को भी स्वतः मानना पडेगा। फलतः अप्रामाप्य भी स्वतः सिद्ध होगा। यह भी यदि मान लिया जायेगा तो यह जो आपका वचन है 'वस्तुत्वाद....०' इत्यादि, इसका व्याघात होगा। आशय यह है कि-"मिथ्या ज्ञान भी एक वस्तु है, वह दोषयुक्त कारणों से (भ्रम और संशय इन) दो प्रकार से उत्पन्न होता है।"-इस वचन का व्याघात हो जायेगा। [ गुणापलाप करने पर दोषापलाप की आपत्ति ] (यदपि 'अत्यक्षा०....) यह भी जो आप कह गये हैं-"इन्द्रियों में रहने वाले अतीन्द्रिय गुणों की सत्ता के विषय में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं हो सकती और जब प्रत्यक्ष होना अशक्य है तब प्रत्यक्ष पूर्वक होने वाले अनुमान की भी इन्द्रियाश्रित अतीन्द्रियगुणों के ग्रहण में प्रवत्ति नहीं हो सकती। इसलिये प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों से इन्द्रियों के गुणों का ज्ञान नहीं हो सकने के कारण इन्द्रिय के परपक्षमान्य गुण असत् हैं। इस लिये प्रामाण्य की उत्पत्ति व इन्द्रिय के गुण इन दोनों के बीच अन्वय-व्यतिरेक मानना युक्त नहीं है" यह पूरा कथन यूक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि आपने प्रामाण्य की उत्पत्ति के विषय में जिस दोष का उद्भावन किया है वह दोष अप्रामाण्य की उत्पत्ति के विषय Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 यदपि 'अथ कार्येण यथार्थोपलब्ध्यात्मकेन तेषामधिगमः' [ पृ० 11507 ] इत्यादि 'यतो न लोकः प्रायशो विपर्ययज्ञानादुत्पादकं कारणमात्रमनुमिनोति किंतु सम्यग्ज्ञानात्' [ पृ० 13 पं० 3 ] इत्यन्तमभ्यधायि; तदप्यसंगतम् , यतो यदि लोकव्यवहारसमाश्रयणेन प्रामाण्याऽप्रामाण्ये व्यवस्थाप्येते तदाऽप्रामाण्यवत् प्रामाण्यमपि परतो व्यवस्थापनीयम् / तथाहि-लोको यथा मिथ्याज्ञानं दोषवच्चक्षुरादिप्रभवमभिदधाति तथा सम्यग्ज्ञानमपि गुणवच्चक्षुरादिसमुत्थमिति तदभिप्रायादप्रामाण्यवत् प्रामाण्यमप्युत्पत्तौ परतः कथं न स्यात् ? तथाहि-तिमिरादिदोषावष्टब्धचक्षुष्को विशिष्टौषधोपयोगावाप्ताक्षिनर्मल्यगुणः केनचित् सुहृदा कीदृक्षे भवतो लोचने वर्त्तते' इति पृष्टः सन् प्राह-'प्राक् सदोषे अभूतामिदानीं समासादितगुणे संजाते' इति / न च नैर्मल्यं दोषाभावमेव लोको व्यपदिशति इति शक्यमभिधातुम, तिमिरादेरपि गृणाभावरूपत्वव्यपदेशप्राप्तेः, तथा च अप्रामाण्यमपि प्रामाण्यवत् स्वतः स्यात् / में भी समानरूप से लागू होता है। समानता इस प्रकार:-'जिन दोषों को आप अतीन्द्रिय नेत्रादि . इन्द्रिय में आश्रित मानते हैं वे प्रत्यक्ष से प्रतीत होते हैं या अनुमान से ? प्रत्यक्ष से उनकी प्रतीति नहीं हो सकती क्योंकि इन्द्रिय अतीन्द्रिय होने से उनमें रहने वाले दोष भी अतीन्द्रिय हैं इसलिये उनमें प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। अनुमान से भी इन दोषों का ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि अनुमान उस लिंग से उत्पन्न होता है जिसका साध्य के साथ व्याप्ति संबंध ज्ञात होता है, किन्तु प्रस्तुत विषय में ऐसा कोई प्रत्यक्ष या अनुमान संभवित नहीं है जो हेतुगत व्याप्ति का ग्राहक हो सके / एवं प्रत्यक्ष व अनुमान में अन्तर्भाव न हो सके ऐसा कोई अन्य प्रमाण नहीं है जिससे भी हेतुगत व्याप्ति का ज्ञान तथा इन्द्रियों के अतीन्द्रिय दोषों का ज्ञान हो सके ) ऐसा कोई अतिरिक्त तीसरा प्रमाण नहीं है यह बात आगे स्पष्ट की जाने वाली है / '- ( इत्यादि सर्वमप्रामाण्य० ) इत्यादि जो कुछ प्रामाण्य के स्वतस्त्व पक्ष में कारणरूप से भासमान इन्द्रियगत गुणों की अकिंचित्करता सिद्ध करने के लिए कहा है वह सब अप्रामाण्य की उत्पत्ति में कारणभूत लोचनादि आश्रित दोषों के विषय में भी समान है। इस प्रकार दोष भी असत् सिद्ध हो जाने से अप्रामाण्य एवं दोष के बीच अन्वयव्यतिरेक सिद्ध नहीं होंगे। इसलिए अप्रामाण्य भी उत्पत्ति में स्वतः हो जाएगा। [ लोकव्यवहार में सम्यग्ज्ञान को गुणप्रयुक्त माना जाता है ] इसके अतिरिक्त, आपने 'यदि यथार्थज्ञान रूप कार्य से गुण का ज्ञान होता है'....यहाँ से लेकर 'लोग प्रायः उत्पत्ति के कारण का अनुमान भ्रान्त ज्ञान से नहीं किन्तु यथार्थ ज्ञान से करते हैं' यहाँ तक जो कहा है वह भी युक्त नहीं है / इसका कारण यह है कि-लोकव्यवहार का आश्रय लेकर यदि प्रामाण्य और अप्रामाण्य की व्यवस्था की जाय तो अप्रामाण्य के समान प्रामाण्य की प्रतिष्ठा भी पर की अपेक्षा से करनी चाहिये / यह इस प्रकार-लोग तो जिस प्रकार मिथ्या ज्ञान को दोषयुक्त चक्षु आदि से उत्पन्न होने वाला कहते हैं इस प्रकार सम्यग् ज्ञान को भी गुणयुक्त चक्षु आदि से उत्पन्न कहते हैं / इसलिये लोगों के अभिप्राय के अनुसार अप्रामाण्य के समान ही प्रामाण्य भी उत्पत्ति में परतः यानी परसापेक्ष क्यों नहीं सिद्ध होगा? इसकी अधिक स्पष्टता इस प्रकार है-तिमिर आदि दोषों से युक्त नेत्रवाला मनुष्य किसी विशिष्ट औषध के उपयोग से नेत्रों में निर्मलता स्वरूप गुण को प्राप्त Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड का० १-प्रामाण्यवाद 39 यदप्यभ्यधायि 'न च तृतीयं कार्यमस्ति' [ पृ० 13-60 4 ] इति; तदप्यसम्यक् , तृतीयकार्याभावेऽपि पूर्वोक्तन्यायेन प्रामाण्यस्योत्पत्तौ परतः सिद्धत्वात् / यच्च 'अपि चार्थतथाभावप्रकाशनलक्षणं प्र.माण्यं....' [ पृ० 1 -पं० 6 ] इत्यादि....'विश्वमेकं स्यादिति वचः परिप्लवेत' [ पृ० 14. पं०३ ] इतिपर्यवसानमभिहितम् , तदपि अविदितपराभिप्रायेण / यतो न परस्यायमभ्युपगमः'विज्ञानस्य चक्षुरादिसामग्रीतः उत्पत्तावप्यर्थतथाभावप्रकाशनलक्षणस्य प्रामाण्यस्य नैर्मल्यादिसामग्र्यन्तरात् पश्चादुत्पत्तिः', किंतु, गुणवच्चक्षुरादिसामग्रीतः उपजायमानं विज्ञानमागृहितप्रामाण्यस्वरूपमेवोपजायत इति / ज्ञानवत् तदव्यतिरिक्तस्वभावं प्रामाण्यमपि परत इति गुणवच्चक्षुरादिसामग्र्यपेक्षत्वात् उत्पत्तौ प्रामाण्यस्यानपेक्षत्वलक्षणस्वभाव हेतुरसिद्धोऽनपेक्षत्वस्वरूप इति 'तस्माद्यत एव गुणविकलसामग्रीलक्षणात्' [ पृ० 14-50 4 ] इत्याद्ययुक्तमभिहितम् / 'अर्थतथात्वपरिच्छेदरूपा च शक्तिः प्रामाण्यं, शक्तयश्च सर्वभावानां स्वत एव भवन्ति' इत्यादि [पृ० 16-1] यदभिधानं तदप्यसमीचीनम् / एवमभिधानेऽयथावस्थितार्थपरिच्छेदशक्त रप्यप्रामाण्यरूपाया असत्याः केनचित् कर्तुमशक्तेः तदपि स्वतः स्यात् / कर लेता है तब कोई मित्र उसे पूछता है 'आपके नेत्र कैसे हैं ?' तब वह उत्तर में कहता है 'पहले मेरे नेत्र दूषित थे, अब वे गुण संपन्न हो गये हैं।' इसलिये यह कहना शक्य नहीं है कि-'लोग केवल दोषों के अभाव को ही निर्मलता कहते हैं क्योंकि ऐसा कहने पर तो तिमिर आदि दोषों को भी गुणों के अभावरूप में कहना होगा। सारांश, लोक दृष्टि में दोष के समान गुण भी स्वतंत्र रूप से प्रसिद्ध हैं, फिर भी गुणों की उपेक्षा करके प्रामाण्य को आप स्वत: मानते हैं, तो दोषों की उपेक्षा करके अप्रामाण्य को भी स्वतः मानना होगा। इसके अतिरिक्त आपने जो कहा है-'यथार्थोपलब्धि व अयथार्थ उपलब्धि को छोड कर ज्ञान का तीसरा कोई कार्य नहीं है'-वह भी समीचीन नहीं है / क्योंकि तीसरा कार्य भले न हो तो भी पहले कही गयी युक्ति के अनुसार प्रामाण्य उत्पत्ति में पर की अपेक्षा करता है यह सिद्ध हो चुका है। (यच्च ‘अपि....) तथा आपने 'वस्तु के यथास्थितभाव का प्रकाशनरूप प्रामाण्य'........यहां से लेकर 'समस्त संसार एक हो जायेगा-यह वचन खण्डित हो जायेगा'....यहां तक जो कहा है वह सब प्रतिवादी के अभिप्राय को बिना समझे ही कहा है। क्योंकि प्रतिवादी यह नहीं मानते कि चक्षु आदि सामग्री से ज्ञान पहले उत्पन्न होता है और उसमें वस्तु के यथार्थस्वरूप प्रकाशनात्मक प्रामाण्य, निर्मलता आदि अन्य सामग्री से बाद में उत्पन्न होता है। प्रतिवादी तो यह मानते हैं कि गुणसहितचक्षु आदि सामग्री से जब ज्ञान उत्पन्न होता है तब आग्रहीत यानी उपजात प्रामाण्यस्वरूप वाला ही उत्पन्न होता है। [प्रामाण्यरूप पक्ष में अनपेक्षाव हेतु की असिद्धि ] फलतः जैसे ज्ञान उत्पत्ति में परापेक्ष है उसी प्रकार ज्ञान से अभिन्न स्वभाव वाला प्रामाण्य भी परापेक्ष सिद्ध हुआ। इस प्रकार प्रामाप्य उत्पत्ति में गुणयुक्त चक्षु आदि सामग्री की अपेक्षा रखता है इसलिये आपने जो 'अपेक्षा रहित होने से' इसको हेतुरूप में कहा था वह आपका अनपेक्षत्व यानी 'निरपेक्षभाव' रूप स्वभाव हेतु असिद्ध हुआ। इसलिये आपने जो 'गुण से अतिरिक्त जिस Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 यदपि 'एतच्च नैव सत्कार्यदर्शनसमाश्रयणादभिधीयते' [ पृ० 16-3 ] इत्यादि 'तदपेक्षा न विद्यते' [ पृ० 16-11 ] इतिपर्यन्तमभिहितम् , तदपि प्रलापमात्रम् , यतोऽनेन न्यायेनाऽप्रामाण्यमपि प्रामाण्यवत् स्वत एव स्यात् / तदपि ही विपरीतार्थपरिच्छेदशक्तिलक्षणं न तिमिरादिदोषसङ्गतिमत्सु लोचनादिषु अस्तीति / अपि च, ज्ञानरूपतामात्मन्यसतीमाविर्भावयन्तीन्द्रियादयो न पुनर्यथावस्थितार्थपरिच्छेदशक्तिमिति न किंचिनिमित्तमुत्पश्यामः / कुतश्चैतदैश्वयं शक्तिभिः प्राप्तं यत इमाः स्वत एवोदयं प्रत्यासादितमहात्म्या न पुनस्तदाधाराभिमता भावविशेषा इति ? न च तास्तेभ्यः प्राप्तव्यतिरेकाः यतः स्वाधाराभिमतभावकारणेभ्यो भावस्योत्पत्तावपि न तेभ्य एवोत्पत्तिमनुभवेयुः। व्यतिरेके स्वाश्रयस्ततोऽभवन्त्यो न सम्बन्धमाप्नुयुः, भिन्नानां कार्य-कारणभावव्यतिरेकेणापरस्य सम्बन्धस्याभावात् , आश्रयाश्रयिसम्बन्धस्यापि जन्यजनकभावाभावेऽतिप्रसंगतो निषेत्स्यमानत्वात् / धर्मत्वाच्छक्तेराश्रय इत्यप्ययुक्तम् , असति पारतन्त्र्ये परमार्थतस्तदयोगात् / पारतन्त्र्यमपि न सतः, सर्व निराशंसत्वात् , असतोऽपि व्योमकुसुमस्येव न, तत्त्वादेव / अनिमित्ताश्च न देश-कालद्रव्यनियमं प्रतिपद्येरन् / तद्धि किंचित् क्वचिदुपलीयेत नवा यद्' ' यत्र कथञ्चिद् आयत्तमनायत्त वा / सर्वप्रतिबन्धविवेकिन्यश्चेच्छक्तयो, नेमाः कस्यचित् कदाचिद् विरमेयुरिति प्रतिनियतशक्तियोगिता भावानां प्रमाणप्रमिता न स्यात / माता सामग्री से विज्ञान उत्पन्न होता है उसी सामग्री से प्रामाण्य भी उत्पन्न होता है, अतः प्रामाण्य उत्पत्ति में स्वतः है' इत्यादि जो कहा था वह अब अयक्त सिद्ध होता है। (अर्थतथात्वपरिच्छेद.... ) इसी प्रकार आपने जो कहा था कि “वस्तु की यथार्थता के ज्ञानरूप जो शक्ति है वही प्रामाण्य है और सब भावों की शक्तियां स्वतः ही होती है इसलिये भी प्रामाण्य स्वतः है"-यह कथन भी युक्त नहीं है क्योंकि यदि इस प्रकार कहा जाय तो अयथार्थरूप से अर्थ के प्रकाशन की शक्ति जिसको अप्रामाण्य कहा जाता है, उसके भी असत् होने पर उसको कोई उत्पन्न नहीं कर सकेगा इसलिये वह भी स्वतः होनी चाहिये। [ अप्रामाण्यात्मक शक्ति में भी स्वतोभाव आपत्ति ] ____ आपने जो “सत्कार्यवाद को मानकर यह हम नहीं कहते....” यहां से लेकर (जलाहरणादि में घट को ) उसकी यानी दंड की अपेक्षा नहीं है'....यहां तक कहा था वह भी केवल प्रलाप है-अर्थहीन वचन है, क्योंकि यदि आपकी इस युक्ति को माना जाय तब अप्रामाण्य भी प्रामाण्य के समान स्वतः ही हो जाना चाहिये क्योंकि विज्ञान निष्ठ अर्थतथाभावपरिच्छेदशक्तिरूप प्रामाण्य जैसे ज्ञानोत्पत्ति के पूर्व नेत्रादि कारणों में विद्यमान नहीं है वैसे ही विपरीतार्थपरिच्छेदशक्तिरूप अप्रामाण्य भी तिमिर आदि दोषयुक्त नेत्रादि कारणों में ज्ञानोत्पत्ति के पूर्व विद्यमान नहीं है इसलिये उसको भी स्वतः मानना पड़ेगा / इसके अतिरिक्त, 'इन्द्रिय आदि अपने भीतर में अविद्यमान ज्ञानरूपता को उत्पन्न करते हैं परन्तु अर्थतथाभावपरिच्छेदशक्तिरूप प्रामाण्य को उत्पन्न नहीं करते,' इस पक्षपात में कोई निमित्त नहीं दिखाई देता। [शक्तियां स्वतः उत्पन्न नहीं हो सकती ] यह भी विचारणीय है कि उपर्युक्त स्थिति में शक्तियों ने यह ऐश्वर्य कहां से प्राप्त कर लिया जिससे ये शक्तियां तो स्वतः-अपने आप उत्पन्न होने की महीमावाली है और उनके आधारभूत Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद 41 व्यतिरेकाऽव्यतिरेकपक्षस्तु शक्तीनां विरोधाऽनवस्थोभयपक्षोक्तदोषादिपरिहाराद् विनाऽनुद्घोष्यः / अनुभयपक्षस्तु न युक्तः, परस्परपरिहारस्थितरूपाणामेकनिषेधस्यापरविधाननान्तरीयकत्वात् न च विहितस्य पुनस्तस्यैव निषेधः, विधि-प्रतिषेधयोरेकत्र विरोधात् / ज्ञानादि भावविशेष बेचारे स्वतः उत्पन्न नहीं हो सकते / एवं ऐसा भी नहीं कह सकते हैं-कि ये शक्तियां अपने आधारभूत भावों से भिन्न हैं, जिससे अपने आधारभूत भावों के कारणों से भाव के उत्पन्न होने पर भी उन्हीं कारणों से वे शक्तियां स्वयं उत्पन्न न हो सके / ( व्यतिरेके स्वाश्रयै.... ) याद इन शक्तियों को आधारभूतभावों से भिन्न माना जाय तो उन से उत्पन्न न होने के कारण इन शक्तियों का. अपने आधारभूत भावों के साथ संबंध नहीं होना चाहिये। जो पदार्थ भिन्न होते हैं उनमें कार्यकारणभाव को छोडकर कोई अन्य संबंध नहीं होता। अलबत्ता आश्रय-आश्रयिभाव संबंध हो सकता है, किन्तु यह भी यदि कार्य-कारण भाव न होने पर हो तो अतिप्रसंग होने से ऐसे आश्रय-आश्रयिभाव का निषेध किया जाने वाला है। [ शक्ति का आश्रय के साथ धर्म-धर्मिभाव दुर्गम है ] (धर्मत्वाच्छक्ते....) अब यदि आप कहें-'शक्ति धर्म है इसलिये उसका आधारभूत धर्मी यह आश्रय भी है, क्योंकि विना धर्मी धर्म नहीं रह सकता। तात्पर्य, कार्य-कारणभाव न होने पर भी आश्रय-आश्रयिभाव हो सकता है'-तो यह कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि धर्म धर्मी का परतंत्र होता है, अतः परतन्त्रता न होने पर तात्त्विक दृष्टि से शक्ति धर्मरूप नहीं हो सकती। अगर कहेंपरतन्त्रता जैसी कोई वस्तु ही नहीं है, क्योंकि अगर वह हो तब सत् की है या असत् की ? सत् पदार्थ की परतन्त्रता नहीं हो सकती क्योंकि जो सत् है वह किसी की भी अपेक्षा से रहित होता है और जो असत् है वह गगनकुसूमवत असत होने के कारण ही किसी की अपेक्षा से रहित होता है। ( अनिमित्ताश्चेमा:....) फिर यदि ये शक्तियां बिना निमित्त कारण होती हो तो वे देश-काल और द्रव्य के नियम का पालन नहीं करेगी। तात्पर्य, वे शक्तियां नियतरूप से अमुक ही देश में रहने वाली, अमुक काल में ही रहने वाली एवं अमुक ही आश्रयद्रव्य में रहने वाली हो ऐसा नियम नहीं बन सकेगा। जो सत् पदार्थ निनिमित्तक होता है वह किसी अमुक ही देश-काल या द्रव्य के साथ ही संबन्ध रखने वाला हो ऐसा नियम नहीं बन सकता / जो सर्वथा असत् होते हैं उनमें भी अमुक ही देश-काल और द्रव्य के साथ संबन्ध हो ऐसा नियम भी नहीं हो सकता / (तद्धि किंचित्....) तो यहां शक्ति के बारे में दो विकल्प हो सकते हैं, शक्ति किसी अन्य को आयत्त है या अनायत्त ? अगर आयत्त हो तो उसमें उसकी लीनता होनी चाहिये और अनायत्त हो तब उसमें उसकी लीनता नहीं हो सकती। अब यदि शक्तियां सब प्रकार के नियत संबन्ध से मुक्त हो तो वे किसी भी पदार्थ में से कभी भी व्यावत्त नहीं होनी चाहिये / फलतः सर्व भाव, नियत यानी अमुक अमुक शक्ति वाले अवश्य होते हैं यह जो प्रमाणसिद्ध है वह नहीं बन सकेगा। [शक्ति आश्रय से भिन्नाभिन्न या अनुभय नहीं है ] शक्ति अपने आश्रय से व्यतिरिक्त है या अव्यतिरिक्त, इन दो पक्ष की सदोषता देखकर यदि व्यतिरिक्त-अव्यतिरिक्त यह उभय पक्ष का स्वीकार किया जाय तो वह तो प्रस्तुत करने की स्थिति में भी आप नहीं है, क्योंकि व्यतिरिक्त और अव्यतिरिक्त इन दोनों का परस्पर विरोध है / अगर, Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ये त्वाः-'उत्तरकालभाविनः संवादप्रत्ययान्न जन्म प्रतिपद्यते शक्तिलक्षणं प्रामाण्यमिति स्वत उच्यते, न पुनर्विज्ञानकारणान्नोपजायत इति' ।-तेऽपि न सम्यक् प्रचक्षते, सिद्धसाध्यतादोषात् / . अप्रामाण्यमपि चैवं स्वतः स्यात् / न हि तदप्युत्पन्ने ज्ञाने विसंवादप्रत्ययादुत्तरकालभाविनः तत्रोत्पद्यते इति कस्यचिदभ्युपगमः। यदा च गुणवत्कारणजन्यता प्रामाण्यस्य शक्तिरूपस्य प्राक्तनन्यायादवस्थिता, तदा कथमौत्सगिकत्वम, तस्य दुष्टकारणप्रभवेषु मिथ्याप्रत्ययेष्वभावात् / परस्परव्यवच्छेदरूपाणामेकत्राऽसंभवात् / तस्माद् "गुणेभ्यो दोषाणामभावस्तदभावादप्रामाण्यद्वयाऽसत्त्वेनोत्सर्गोऽनपोहित एवास्ते"-[ द्रष्टव्य-श्लो० वा० 2-65 ] इति वचः परिफल्गुप्रायम् / व्यतिरेक-अव्यतिरेक को व्यतिरेक सहित अव्य तिरेक नहीं किंतु एक विजातीय सम्बन्धविशेष रूप माना जाय तो यह प्रश्न होगा कि यह विजातीय सम्बन्ध उसके आश्रय से भिन्न है या अभिन्न ? इसके लिये भी अगर विजातीय सम्बन्ध माना जाय तो इस रीति से अनवस्था दोष की आपत्ति होगी। अगर व्यतिरेकसहित अव्यतिरेकरूप सम्बन्ध माना जायगा तो उभयपक्षोक्त दोष सहज आपन्न होगा। जब तक इन दोषों का परिहार न किया जाय तब तक शक्ति और भावों का भेदाभेद है इस पक्ष की घोषणा नहीं करनी चाहिये। ( अनुभयपक्षस्तु.... ) इस विषय में जो अनुभय पक्ष है अर्थात् भेद और अभेद का निषेधरूप पक्ष है वह भी युक्त नहीं है / इस पक्ष के अनुसार आश्रय के साथ शक्ति का भेद भी नहीं है और अभेद भी नहीं है / तात्पर्य, शक्ति अपने आश्रय से न भिन्न है, न अभिन्न है इस प्रकार का अनुभय पक्ष युक्त नहीं है। क्योंकि एक दूसरे को छोड कर रहने के स्वभाव वाले जो पदार्थ होते हैं, उदाहरणार्थ प्रकाश और अन्धकार, वहाँ यदि एक का निषेध हो तो दूसरे का विधान अवश्य होता है। भेद और अभेद परस्पर को छोड कर रहने के स्वभाव वाले हैं, यदि भेद है तो अभेद या भेदाभाव नहीं हो सकता / यदि भेद नहीं है तो अभेद का विधान हो जाता है। इसलिये जिसका विधान किया जाता है, उसका निषेध नहीं किया जा सकता। क्योंकि एक ही पदार्थ के सम्बन्ध में विधान और निषेध इन दोनों का विरोध है, इसलिये अनुभयपक्ष युक्त नहीं है। [ उत्तरकालोन संवादी ज्ञान से अनुत्पत्ति में सिद्धसाधन ] जो लोग कहते हैं-"शक्तिरूप प्रामाण्य उत्तरकाल भावि संवादी ज्ञान से उत्पन्न नहीं होता है, इसी कारण प्रामाप्य को स्वतः कहा जाता है, नहीं कि विज्ञान के कारणों से प्रामाण्य उत्पन्न नहीं होता है इसलिये।"-उन लोगों का यह कथन भी युक्त नहीं है। क्योंकि इस कथन में सिद्ध-साध्यता का दोष आता है / कारण, प्रामाण्य के स्वतस्त्व का यह स्वरूप प्रतिवादी भी मानता है। वे भी कहते हैं कि उत्तरभावी संवादी ज्ञान से उत्पन्न नहीं होता है अब ऐसा मानने वाले प्रतिवादी के सामने यही सिद्ध करने का प्रयास करना यह सिद्धसाध्यतारूप दोष है / ( अप्रामाण्यमपि.... ) इसके अतिरिक्त यदि इसी रीति से यानी संवादी ज्ञान से उत्पन्न न होने के कारण प्रामाण्य को स्वतः कहा जायेगा तो अप्रामाण्य को भी स्वत: मानना पड़ेगा क्योंकि वह भी उत्तरकालभावी बाधकज्ञान से उत्पन्न नहीं होता / अप्रामाण्य के विषय में भी 'पहले ज्ञान उत्पन्न होता है, बाद में उसमें उत्तरकालभावी बाधक यानी विसंवादी ज्ञान से अप्रामाण्य उत्पन्न होता है' इस प्रकार कोई मानता नहीं है। (यदा च गुण.....) फिर जब पहले कहे हेतु के द्वारा शक्तिरूप प्रामाण्य गुणवान कारणों से जन्य सिद्ध हो चुका है तब उसको औत्सगिक अर्थात् उत्सर्ग से ज्ञानसामान्य से उत्पन्न कैसे कहा जा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद इतश्चैतद् वचोऽयुक्तम्-विपर्ययेणाप्यस्योद्घोषयितु शक्यत्वात् / तथाहि-दोषेभ्यो गुणानामभावस्तदभावात्प्रामाण्यद्वयाऽसत्त्वेनाऽप्रामाण्यमौत्सगिकमास्त इति ब्रु वतो न वक्त्रं वक्रीभवति / भ्या दोषाणामभाव इति न तुच्छरूपो दोषाभावो गुणव्यापारनिष्पाद्यः, तत्र व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्त विकल्पद्वारेण कारकव्यापारस्याऽसम्भवात् , भवद्भिरनभ्युपगमाच्च / तुच्छामावस्याभ्युपगमे वा, भावान्तरविनिर्मुक्तो, भावोऽत्रानुपलम्भवत् / प्रभावः सम्मतस्तस्य हेतोः किं न समुद्भवः // ' इति वचो न शोभेत / ___ तस्मात् पर्यु दासवृत्त्या प्रतियोगिगुरणात्मक एव दोषाऽभावोऽभिप्रेतः / ततश्च गुणेभ्यो दोषाभाव इति ब्रुवता गुणेभ्यो गुणा इत्युक्तं भवति / न च गुणेभ्यो गुणाः कारणानामात्मभूता उपजायन्त इति, स्वात्मनि क्रियाविरोधात् स्वकारणेभ्यो गुणोत्पत्तिसद्भावाच्च / तदभावादप्रामाण्यद्वयाऽसत्त्वमपि प्रामाण्यमभिधीयते / ततश्च गुणेभ्यः प्रामाण्यमुत्पद्यत इति अभ्युपगमात् परतः प्रामाण्यमुत्पद्यत इति प्राप्तम् // सकता है ? अर्थात् औत्सगिक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि दोषयुक्त कारणों से जन्य मिथ्याज्ञानों में प्रामाण्य नहीं होता है / (परस्परव्यवच्छेद....) प्रामाण्य और अप्रामाण्य परस्पर के निषेधरूप हैं। वे दोनों एक धर्मी ज्ञान में नहीं रह सकते / इसलिये श्लोकवात्तिक में यह जो कहा गया है कि-'गुणों से दोषों का अभाव होता है, अर्थात् जहां गुण रहते हैं वहां प्रतिपक्षी दोष नहीं रह सकते / फलत: दोषों के अभाव से दो प्रकार का अप्रामाण्य अर्थात् संदेह और भ्रम भी नहीं रह सकता / इसलिये जो उत्सर्ग है अर्थात् ज्ञानमात्र में प्रामाण्य होने का औत्सर्गिक नियम है वह निरपवाद है ।'-यह कथन सर्वथा असार है क्योंकि पूर्वोत्तरीति से प्रमाणज्ञान गुणवत्कारणजन्य होता है-यह सिद्ध हो चुका है। [अप्रामाण्य को औत्सर्गिक कहने की आपत्ति ] पूर्वोक्त वचन असार होने का यह भी एक कारण है कि जो कुछ उसमें कहा गया है उसके विपरीत स्वरूप को भी घोषित किया जा सकता है-“जैसे कि, दोषों से गुणों का अभाव होता है, गुणों के न रहने से दो प्रकार का प्रामाण्य (प्रत्यक्ष का और अनमान का प्रामाण्य) नहीं रहता, और इसके कारण अप्रामाण्य औत्सर्गिक रूप से रह जाता है, अर्थात् ज्ञानसामान्य के साथ संलग्न अप्रामाण्य दुनिवार होता है"-कोई इस प्रकार बोले तो उसका मुंह टेढा यानी वक्र नहीं होगा। इसके अतिरिक्त, गुणों से दोषों का अभाव उत्पन्न होता है-यह आपका कथन है-परन्तु दोषों का अभाव तुच्छ होने से वह गुणों के व्यापार से उत्पन्न नहीं हो सकता / जैसे कि वंध्यापुत्र, आकाशकुसुम आदि तुच्छ स्वरूप के हैं, उनकी उत्पत्ति किसी भी कारण के व्यापार से नहीं होती। तुच्छ में कारकों का व्यापार भिन्न और अभिन्न विकल्पों के द्वारा किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होता। यदि तुच्छ स्वरूप दोषाभाव को गुणों के व्यापार से उत्पन्न होने वाला कहा जाय तो उस दोषाभाव से गुणों का व्यापार भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो उसका दोषाभाव के साथ संबंध न होने से उससे वह उत्पाद्य कसे कहा जाय? अगर कारणगुणों का व्यापार दोषाभाव से अभिन्न है तब वह व्यापार दोषाभाव के समान तुच्छ हो जायगा। अतः दोनों अवस्थाओं में गुणों के व्यापार का संभव नहीं हो सकता / यह भी ध्यान देने योग्य है कि आप दोषाभाव को तुच्छ स्वरूप नहीं मानते / यदि दोषाभाव को तुच्छ स्वरूप माने तो आपका यह वचन कि Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ततश्च स्वार्थावबोधशक्तिरूपप्रामाण्यात्मलाभे चेत् कारणापेक्षा, काऽन्या स्वकार्यप्रवृत्तिर्या स्वयमेव स्यात् ? तेनाऽयुक्तमुक्तम् , 'लब्धात्मनां स्वकार्येषु प्रवृत्तिः स्वयमेव तु' // [ पृ. १६-पं. 6 ] इति / घटस्य जलोद्वहनव्यापारात् पूर्व रूपान्तरेण स्वहेतोरुत्पत्तेयुक्तं मृदादिकारणनिरपेक्षस्य स्वकार्ये प्रवृत्तिरित्यतो विसदृशमुदाहरणम् / उत्पत्त्यनंतरमेव च विज्ञानस्य नाशोपगमात् कुतो लब्धात्मनः प्रवृत्तिः स्वयमेव ? तदुक्तम् - [ श्लो० वा० सू० 4-55 56 ] न हि तत्क्षणमप्यास्ते जायते वाऽप्रमात्मकम् / येनार्थग्रहणे पश्चाद् व्याप्रियेतेन्द्रियादिवत् // 1 // तेन जन्मैव विषये बुद्धापार उच्यते / तदेव च प्रमारूपं, तद्वती करणं च धीः // 2 / / इति / भावान्तरविनिमुक्तो भावोऽत्रानुपलम्भवत् / अभाव: सम्मतस्तस्य हेतोः किं न समुद्भवः / / जिसका तात्पर्य है - “जो भाव अन्य भाव से रहित होता है वही उस भाव का अभाव माना जाता है / इसमें अनुपलभ दृष्टान्त है, और जब वह अभाव भावात्मक है तब उसकी हेत से उत्पत्ति क्यों न होगी ?"-यह वचन शोभास्पद नहीं रहेगा। यहां अनुपलम्भ दृष्टान्त इस प्रकार है-किसी स्थान में जब घट का अनुपलम्भ होता है तब वहां पट आदि प्रतीत होने पर ही होता है। पट आदि की प्रतीति न हो तो घट का अनपलम्भ नहीं प्रतीत होता / पट आदि का ज्ञान ही घट के के अनुपलम्भ काल में प्रतीत होता है। इस प्रकार जब एक भावपदार्थ अन्य भावपदार्थ से रहित होता है तो वह अभाव कहा जाता है / अभाव शब्द से कहे जाने पर भी उसका स्वरूप भावात्मक होता है। भावात्मक होने के कारण उस अभाव की उत्पत्ति भी हेतुओं से होनी चाहिये, फलतः दोषाभाव तुच्छ अभाव नहीं किन्तु भावात्मक है। [ दोषाभाव में पयु दास प्रतिषेध कहने में परतः प्रामाण्य आपत्ति ] ( तस्मात् पर्युदास....) निष्कर्ष यह कि दोषाभाव शब्द से जो दोष का निषेध होता है वह पर्युदास प्रतिषेध रूप है [अभाव दो रीति से अभिव्यक्त किया जाता है 1. पर्यु दास प्रतिषेध से 2, प्रसज्य प्रतिषेध से / उदाहरणार्थ, 'घट: पटो न' ( =घट यह पट नहीं है ) यह पर्युदास प्रतिषेध है और यहां एक भाव का दूसरे भाव में तादात्म्य होने का निषेध किया जाता है / 'आकाश में कुसुम नहीं है' यह प्रसज्य प्रतिषेध है और यहां एक भाव में दूसरे भाव के अस्तित्व का निषेध किया गया है / अब प्रस्तुत ] में विज्ञान सामग्री के अन्तर्गत जो गुण हैं वही दोषाभावरूप हैं, अब दोषों का प्रतियोगी यानी विरोधी जो गुण हैं उन से वह दोषाभाव अभिन्न है। तो जब आप कहते हैं-गुणों से दोषों का अभाव होता है तो इस का अभिप्राय यही हआ कि गुणों से गुण उत्पन्न होते हैं, अथोत् गुणों से हा कारणाभिन्न गुण उत्पन्न होते हैं-किन्तु यह मानना युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि कोई भी कारक अपने स्वरूप में क्रिया को नहीं उत्पन्न कर सकता। कुठार अपने से भिन्न काष्ट का तो छेदन कर सकता है किन्तु खुद का छेदन यानी दो टूकड़े नहीं कर सकता। दूसरी बात यह है कि गुणों की उत्पत्ति गुण के उत्पादक कारणों से ही होती है, गुणों से नहीं, जब आप कहते हैं दोषों के अभाव के कारण दो प्रकार का अप्रामाण्य नहीं रहता, तब 'नहीं' को पर्यु दास प्रतिषेध मानने पर अप्रामाण्य द्वय का अभाव ही प्रामाण्य होगा-तब उसका अर्थ होगाप्रामाण्य गुणों से उत्पन्न होता है, इससे यह सिद्ध होगा कि प्रामाण्य की उत्पत्ति पर की अपेक्षा से होती है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद तस्माज्जन्मव्यतिरेकेण बद्धापाराभावात् तत्र च ज्ञानानां सगुणेषु कारणेष्वपेक्षावचनात् कुतः स्वातन्त्र्येण प्रवृत्तिरिति ? ! कि तज्ज्ञानस्य कार्य यत्र लब्धात्मनः प्रवृत्तिः स्वयमेवोच्यते ? 'स्वार्थपरिच्छेद'श्चेत् ? न, ज्ञानपर्यायत्वात तस्यात्मानमेव करोतीत्युक्तं स्यात् , तच्चाऽयुक्तम् / 'प्रमाणमेतदित्यनन्तरं निश्चय'श्चेत ? न, भ्रान्तिकारणसद्धावेन क्वचिदनिश्चयाद विपर्ययदर्शनाच्च / तस्माद् जन्मापेक्षया गुणवच्चक्षुरादिकारणप्रभवं प्रामाण्यं परतः सिद्धमिति / / 'अथ चक्षरादिज्ञानकारण' [ पृ. 17 पं. 1 ] इत्याद्ययुक्ततया स्थितम् / / [ आत्मलाभ के बाद स्वकार्य में स्वतः प्रवृत्ति अनुपपन्न ] इस प्रकार जब अपने स्वरूप के और अर्थ के प्रकाशन की जो शक्ति है वही प्रामाण्य है और उस प्रामाण्य की उत्पत्ति में कारणों की अपेक्षा है तो उसकी वह कौनसी अन्य कार्यप्रवृत्ति होगी जो अपने आप हो जायेगी !! इसी कारण से आपका यह वचन भी-जब भाव पदार्थ उत्पन्न हो जाते हैं तब उनकी अपने कार्यों में स्वयं ही प्रवृत्ति होती है - अयुक्त सिद्ध होता है। जो घट का दृष्टान्त दिया गया है वह भी विसदृश होने से असंगत है, घट स्वयं जल को धारण करता है यह ठीक है किन्तु उसके पहले घट की उत्पत्ति अपने कारणों से भिन्नरूप के साथ हो जाती है, एवं घट अन्य क्षणों में अविनष्ट ( स्थिर ) रहता है, इसलिये उत्पत्ति के बाद घट की जो जलधारण में प्रवृत्ति होती है उस में चक्र आदि कारणों की अपेक्षा नहीं रहती। किन्तु विज्ञान पक्ष में ऐसी बात नहीं है क्योंकि उत्पत्ति के बाद तुरन्त ही ज्ञान का नाश माना जाता है। इस दशा में ज्ञान अपनी उत्पत्ति के बाद ही नष्ट हो जाने से अपने कार्य में प्रवृत्ति कैसे कर सकता है ? कहा भी है:. नहि तत्क्षण........इत्यादि- इसका अर्थ-वह ज्ञान अप्रमारूप में उत्पन्न नहीं होता है और क्षण भर भी टीकता नहीं है जिससे वह चक्ष आदि इन्द्रिय के समान उत्पत्ति के बाद अर्थ प्रकाशन में प्रवृत्ति कर सके / इसलिये यह फलित होता है कि ज्ञान की उत्पत्ति ही अर्थ प्रकाशन की प्रवृत्तिरूप है और वही ज्ञान प्रमास्वरूप भी है / एवं तनिष्ठप्रामाण्यवाली बुद्धि ही करण है। [ ज्ञान की स्वातन्त्र्येण प्रवृत्ति किस कार्य में ? ] जब, बुद्धि यानी ज्ञान की जो उत्पत्ति है वही बुद्धि का व्यापार है, उत्पत्ति से अतिरिक्त कोई व्यापार नहीं है और यह ज्ञानोत्पत्ति कैसे होती है ? तो कहते हैं-ज्ञान अपनी उत्पत्ति के लिये गूणयुक्त कारणों की अपेक्षा रखते हैं, तो फिर ज्ञान की प्रवृत्ति स्वतंत्र कैसे मानी जाय ? तात्पर्य यह है कि गुणयुक्त कारणों से ज्ञान की उत्पत्ति यही ज्ञान की प्रवृत्ति है, अब आप चाहते हैं ज्ञान की स्वतंत्ररूप से प्रवत्ति होती है तो आप यह बताईये की ज्ञान की प्रवृत्ति किस कार्य में होती है ? अर्थात् ज्ञान का वह कौनसा कार्य है जिसमें उत्पत्ति के बाद ज्ञान की प्रवत्ति स्वयं होती है ? अगर कहें-अपने स्वरूप का और विषय का प्रकाशन रूप कार्य है-तो यह कहना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि अपने स्वरूप और विषय का प्रकाशन तो ज्ञान का ही दूसरा नाम है। तब तो फलित यह होगा-'ज्ञान प्रकाशन को करता है अर्थात् खुद को ही करता है।' यह तो युक्त नहीं है क्योंकि कोई भी अर्थ अपने आप को उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि आप कहे-ज्ञान का कार्य ज्ञान के बाद उत्पन्न होने वाला यह ज्ञान प्रमाण है' इस प्रकार का प्रामाण्यनिश्चय है, अब कोई आक्षेप नहीं रहेगा कि Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अपौरुषेयविधिवाक्यप्रभवायास्तु बुद्धेः स्वतः प्रामाण्योत्पत्त्यभ्युपगमो न युक्तः। अपौरुषेयत्वस्य प्रतिपादयिष्यमाणतद्ग्राहकप्रमाणाऽविषयत्वेनाऽसत्त्वात् / सत्त्वेऽपि भवन्नीत्या तस्यैव गुणत्वात तथाभूतप्रेरणाप्रभवायाः बुद्धः कथं न परतः प्रामाण्यम् ? किंच, अपौरुषेयत्वे प्रेरणावचसो, गुणवत्पुरुषप्रणीतलौकिकवाक्येषु तत्त्वेन निश्चितप्रामाण्यं, गुणाश्रयपुरुषप्रणीतत्वव्यावृत्त्या तत् तत्र न स्यात् / तथा च-[श्लो० वा० सू० 2-184] "प्रेरणाजनिता बुद्धिः प्रमाणं दोषवजितैः / कारणैर्जन्यमानत्वाल्लिगाप्तोक्ताक्षबुद्धिवत् // " इत्ययं श्लोक एवं पठितव्यःप्रेरणाजनिता बुद्धिरप्रमा गुणजितैः / कारणैर्जन्यमानत्वालिंगाप्तोक्तबुद्धिवत् // स्वतः प्रामाण्यपक्ष में प्रामाण्य का निश्चय कैसे होगा? क्योंकि ज्ञान कारण है और प्रामाण्य का निश्चय कार्य है, दोनों में भेद है इसलिए कार्य-कारण भाव हो सकता है / परन्तु यह कहना भी अयुक्त है, क्योंकि सर्वदा प्रमाण के ही उत्पादक कारणों का सांनिध्य हो ऐसा नियम नहीं है, कभी कभी भ्रान्ति के उत्पादक कारण भी उपस्थित रहते हैं और तब प्रामाण्य का निश्चय होना असंभव है / इतना ही नहीं कभी विपर्यय भी देखा जाता है, अर्थात् भ्रमात्मक ज्ञान भी. उत्पन्न होता है / (अथवा 'प्रमाणमेतद्' यह निश्चय होने के बदले 'अप्रमाणमेतद्' ऐसा भी निश्चय देखा जाता है।) निष्कर्षः-आपने जो 'ज्ञान के कारण चक्ष आदि से....' [ पृ. 17 ] इत्यादि कहा है वह अयुक्त है और इसलिये यह सिद्ध होता है कि गुणयुक्त चक्षु आदि कारणों से उत्पन्न होने वाला प्रामाण्य अपनी उत्पत्ति की अपेक्षा से स्वतः नहीं उत्पन्न होता किन्तु परतः यानी पर की अपेक्षा से उत्पन्न होता है। [अपौरुषेयविधिवाक्यजन्य बुद्धि प्रमाण कैसे मानी जाय ? ] . 'अपौरुषेय वेदवचन से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उस ज्ञान में प्रामाण्य की उत्पत्ति स्वतः होती है' यह कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि 'वचन अपौरुषेय होता है' ऐसा निर्णय करने वाला कोई प्रमाण संभावित नहीं है जिसका वह विषय बने-यह बात आगे बतायी जायेगी। फलतः वाक्य में अपौरुषेयत्व की सत्ता ही असिद्ध है / कदाचित् प्रतिवादी के कथनानुसार अपौरुषेयत्व मान भी लिया जाय तो वह भी आपके मत के अनुसार गुणरूप होने से अपौरुषेय वैदिक वाक्य गुणयुक्त ही सिद्ध होगा। अब उन वाक्यों से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को प्रमाण कहा जायगा तो उस ज्ञान का प्रामाण्य पर यानी अपौ. रुषेयत्व गुण की अपेक्षा से ही उत्पन्न हुआ-ऐसा मानने में क्या आपत्ति है ? कुछ भी नहीं। (किंच अपौरुषेयत्वे........) उपरांत, यह भी ज्ञातव्य है-वास्तव में वेदवाक्य पौरुषेय ही है / फिर भी अगर आपौरुषेयत्व का आग्रह हो तब वे प्रमाणरूप नहीं हो सकेंगे / कारण, लौकिक वाक्यों में इस प्रकार जब निश्चय होता है कि 'इन वाक्यों का प्रवक्ता कोई गुणवान् पुरुष है' तब उन वाक्य में उससे प्रामाण्य का निर्णय होता है / वेद वाक्य अपौरुषेय होने पर जब वहाँ कोई रचयिता ही नहीं है तो गुणवान् रचयिता पूरुष तो सर्वथा नहीं है यह फलित होता है, तब गुणवत्पुरुष प्रणीतत्व न होने के कारण उन अपौरुषेय वाक्यों में प्रामाप्य भी कैसे माना जा सकता है ? अब तो, आप को 'प्रेरणाजनिता बुद्धि....' इत्यादि निम्नलिखित श्लोक भी दूसरी रीति से ही पढना होगा। प्रेरणाजनिता बुद्धि: प्रमाणं दोषवजितैः / कारणैर्जन्यमानत्वात् लिंगाप्तोक्ताक्षबुद्धिवत् / / . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का-१-प्रामाण्यवाद 47 अर्थ:-वेदवाक्य से उत्पन्न बुद्धि दोषरहित वेदवाक्यादिकारणों से उत्पन्न हुई है इसलिये प्रमाण है जैसे, हेतु के द्वारा, आप्तवचन के द्वारा और इन्द्रिय के द्वारा उत्पन्न होने वाली बुद्धि प्रमाण होती है। इस श्लोक को कुछ परिवर्तन के साथ इस रीति से पढना चाहियेप्रेरणाजनिता बुद्धिरप्रमा गुणजितैः / कारणैर्जन्यमानत्वादलिंगाप्तोक्तबुद्धिवत् // अर्थः-वेदवाक्यों से उत्पन्न होने वाली बुद्धि गुणरहित वेदवाक्यों से उत्पन्न होने के कारण अप्रमाण है / जैसे, असद् हेतु और अनाप्त वचन से उत्पन्न बुद्धि अप्रमाण होती है / - [ वेद वचन अपौरुषेय क्यों और कैसे ? ] [उपरोक्त कथन का तात्पर्य कुछ विस्तार से ज्ञातव्य है-मीमांसक वादी मानते हैं—प्रामाण्य स्वतः हैं, एवं वेद नित्य अर्थात कर्त-अजन्य अनादिसिद्ध हैं। कत-अजन्य होने से वेदवाक्य में दोषवत्पुरुषजन्यत्व का संभव नहीं है, इसलिये वेदवाक्य सर्वथा यथार्थ है यानी प्रमाण हैं। अपौरुषेय मानने का हेतु यह है कि-वाक्यों में पुरुष के संसर्ग से दोष उत्पन्न होता है, क्योंकि पुरुष अगर संदेह या भ्रम से अथवा वञ्चनबुद्धि से युक्त हो तब उसके संदेहादिप्रयुक्त वाक्य से प्रमाणभूत बोध के उदय का संभव नहीं है / वेदवाक्य में जब उसका कोई प्रवक्ता ही नहीं है तब उस वाक्य में पुरुष के संबन्ध से उत्पन्न होने वाले दोष की संभावना ही नहीं रहती। अतः उन निर्दोष वाक्य से उत्पन्न ज्ञान प्रमाण ही होगा। जैसे कि निर्दोष यानी सद् हेतु से उत्पन्न अनुमान और निर्दोष इन्द्रिय से उत्पन्न प्रत्यक्ष ज्ञान जन्मकाल में ही प्रमाणरूप यानी स्वभाव से ही प्रमाणरूप में उत्पन्न होता है / उदाहरणार्थ:-सूर्य किरणों में कोई ऐसा पदार्थ मिलाजुला नहीं है जिससे उनमें विकार उत्पन्न हो, अतः दोषरहित उन किरणों से वस्तु का शुद्ध रूप में प्रकाशन होता है। इससे विपरीत, जब तृणकाष्ठ आदि भींगे रहते हैं तो उनसे उत्पन्न अग्नि धूम से मिला हुआ उत्पन्न होता है, इसलिये उसके किरण भी धूमिल होने के कारण दोषयुक्त होने से वस्तु को शुद्ध रूप में प्रकाशित नहीं कर सकते / . मीमासकों का कहना है कि वेद वचन सूर्य किरण तुल्य हैं अर्थात् स्वतः निर्दोष हैं। इसलिये उनसे उत्पन्न बोध प्रमाणरूप होता है। इस के विरोध में-परतः प्रामाण्य वादी कहते हैं-जिन हेतुओं से आप वेदवाक्य जन्यबोध के प्रामाण्य को स्वतः सिद्ध मानते हैं, उन हेतुओं को कुछ बदल कर कहने से वेदवाक्यों द्वारा उत्पन्न होने वाला ज्ञान अप्रमाणरूप से सिद्ध होता है / मीमांसक कहते हैं-पुरुष संसर्ग से दोष उत्पन्न होते हैं, वेदवाक्यों का पुरुष के साथ कोई संबन्ध नहीं है इस लिये वेदवाक्य निर्दोष है / ठीक इस के विपरीत भी कहा जा सकता है कि-वाक्यों में पुरुष संसर्ग से गुण उत्पन्न होते हैं जैसे, विद्वान् पुरुष स्वयं सत्य ज्ञान युक्त होता है इसलिये उसके वाक्य प्रमाण होते हैं / किंतु जो पुरुष गुणों से रहित है उस के वाक्य में अप्रामाण्य उत्पन्न होता है। दोषयुक्त हेत से यदि अनमिति होगी तो वह भी अप्रमाणरूप में ही उत्पन्न होती है। दूर से धूलिपटल को देख कर किसी को धूम का भ्रम हो जाय तो वह धूम से अग्नि का भ्रान्त अनुमान करता, है, असद् हेतु प्रयोज्य वह अनुमान यथार्थ नहीं होता एवं चक्षु आदि इन्द्रियों में निर्मलता न हो, कुछ रोग हो तब सीप भी रजतरूप में दीखाई पडती है-किन्तु वहाँ रजत ज्ञान मिथ्या होता है / तात्पर्य, गुणरहित हेतु से उत्पन्न होने के कारण अनुमान भ्रान्तिरूप होता है और गुणरहित इन्द्रियों से उत्पन्न होने के कारण प्रत्यक्ष ज्ञान भी भ्रान्तिरूप होता है / इस प्रकार Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 __ अथ प्रेरणावाक्यस्याऽपौरुषेयत्वे पुरुषप्रणीतत्वाश्रया यथा गुणा व्यावृत्तास्तथा तदाश्रिता दोषा अपि / ततश्च तव्यावृत्तावप्रामाण्यस्यापि प्रेरणाया व्यावृत्तत्वात् स्वतः सिद्धमुत्पत्तौ प्रामाण्यम् / नन्वेवं सति गुणदोषाश्रयपुरुषप्रणीतत्वव्यावृत्तौ प्रेरणाया प्रामाण्याऽप्रामाण्ययोावृत्तत्वात् प्रेरणाजनिता बुद्धिः प्रामाण्याऽप्रामाण्यरहिता प्राप्नोति / ततश्च प्रेरणाजनिता बुद्धिर्न प्रमाणं न चाऽप्रमा / गुणदोषविनिमुक्तकारणेभ्यः समुद्भवात् // इत्येवमपि प्राक्तनः श्लोकः पठितव्यः / अत एव यथा-[ द्रष्टव्य श्लो० वा० सू०२-६८ ] "दोषाः सन्ति न सन्तीति, पौरुषेयेषु चिन्त्यते / वेदे कर्तु रभावात्तु दोषाऽऽशंकैव नास्ति नः" // ___ इत्ययं श्लोकः एवंपठितस्तथैवमपि पठनीय:"गुणाः सन्ति न सन्तीति, पौरुषेयेषु चिन्त्यते / वेदेकतु रभावात्तु गुणाऽऽशंकैव नास्ति नः // " प्रामाण्य की उत्पत्ति में गुण कारण हैं और गुण पुरुषसंबंध से उत्पन्न होते हैं / प्रस्तुत में-वेदवाक्यों के साथ गुणवत्पुरुष का संबंध न होने से वे भी गुणहीन हैं / फलतः गुणहीन वेदवाक्य से जो ज्ञान उत्पन्न होगा वह भी अप्रमाण होगा।] [अपौरुषेय वचन न प्रमाण-न अप्रमाण] मीमांसक की ओर से यदि यह कहा जाय-वैदिक विधिवाक्य अपौरुषेय होने से उनमें पुरुष की रचना से संबद्ध गुण जैसे निवृत्त हैं इसी प्रकार दोष भी निवत्त हैं। वाक्य में दोष भी पुरुष के संबंध से उत्पन्न होता है, अतः वेदवाक्यों में दोष न रहने पर अप्रामाण्य नहीं रहेगा। इस लिये उससे जो ज्ञान उत्पन्न होगा वह उत्पत्ति में भी स्वतः प्रामाण्य से युक्त होगा। किन्तु यह कथन युक्त नहीं है-कारण, इस दशा में जब वेदवाक्य गुणवान् एवं दोषवान् पुरुष के साथ असंबद्ध हैं तो उन वेदवाक्य में अप्रामाण्य की भाँति प्रामाण्य भी नहीं रहेगा. फल जन्य बोध प्रामाण्य-अप्रामाण्य उभय से शुन्य होना चाहिये। इसलिए आपने वेदवाक्य से उत्पन्न ज्ञान को प्रमाणभूत सिद्ध करने के लिये जो पहले श्लोक पढा था 'प्रेरणाजनिता....' इत्यादि, उसको फिर से एक अन्य रीति से पढना चाहिये-- ___ "प्रेरणाजनिता बुद्धिः न प्रमाणं न चाऽप्रमा। गुणदोषविनिर्मुक्तकारणेभ्यः समुद्भवात् / / __ अर्थः-गुण और दोष उभय से रहित कारणों द्वारा उत्पन्न होने से वैदिक विधिवाक्य से उत्पन्न ज्ञान न तो प्रमाण है, न तो अप्रमाण है [ वेदवचन में गुणदोष उभय का तुल्य अभाव ] वेदवाक्यों से जन्य बुद्धि को स्वतः प्रमाण सिद्ध करने के लिये मीमांसक ने जो श्लोक पढा है - 'दोषाः सन्ति न सन्ती'ति पौरुषेयेषु चिन्त्यते / वेदे कर्तुरभावात्तु दोषाऽऽशंकैव नास्ति नः / / ___ अर्थः-पुरुषरचितवाक्यों के विषय में यह चिन्ता की जाती है कि उनमें दोष हैं वा नहीं ? परन्तु वेद का कोई कर्ता ही नहीं है इसलिए हमें दोषों की आशंका होने का अवसर ही नहीं है / ___ इस श्लोक को भी इस रूप से पढना चाहिये - गुणाः सन्ति न सन्तीति पौरुषेयेषु चिन्त्यते / वेदे कर्तुरभावात्तु गुणाऽऽशंकै नास्ति नः // Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-प्रामाण्यवाद न च यत्रापि गुणाः प्रामाण्यहेतुत्वेनाऽऽशंक्यन्ते तत्रापि गुणेभ्यो दोषाभाव इत्यादि वक्तव्यम्, विहितोत्तरत्वात् / अपि च अपौरुषेयत्वेऽपि प्रेरणायाः न स्वतः स्वविषयप्रतीतिजनकव्यापारः, सदा संनिहितत्वेन ततोऽनवरतप्रतीतिप्रसंगात् / किंतु, पुरुषाभिव्यक्तार्थप्रतिपादकसमयाविर्भूतविशिष्टसंस्कारसव्यपेक्षायाः / ते च पुरुषाः सर्वे रागादिदोषाभिभूता एव भवताऽभ्युपगताः। तत्कृतश्च संस्कारो न यथार्थः, अन्यथा पौरुषेयमपि वचो यथार्थ स्यात् / अतोऽपौरुषेयत्वाभ्युपगमेऽपि समयकर्तृ पुरुषदोषकृताप्रामाण्यसद्भावात् प्रेरणायामपौरुषेयत्वाभ्युपगमो गजस्नानमनुकरोति / तदुक्तम्-[प्र०वा०२-२३१] असंस्कार्यतया पुभिः सर्वथा स्यान्निरर्थता / संस्कारोपगमे व्यक्तं गजस्नानमिदं भवेत् // अर्थः- पुरुषरचितवाक्यों में यह चिन्ता की जाती है-कि उनमें गुण हैं या नहीं? परन्तु वेद का कोई कर्ता ही नहीं है / अतः उनमें गुणों की आशंका होने का अवसर ही नहीं है। 'जहाँ पर शंका होती हो कि गुण ये प्रामाण्य के कारणरूप में कार्य करते हैं वहां गुणों से दोषों का अभाव ही अर्थात्प्राप्त होता है'- इत्यादि जो पहले मीमांसकों ने कहा है वह भी युक्त नहीं है क्योंकि इसका उत्तर पहले दे दिया गया है / ('दोषाभाव' में प्रसज्यप्रतिषेध अभिप्रेत है या पर्युदास ? दोनों स्थिति में अन्ततः प्रामाण्य गुणप्रयुक्त ही सिद्ध होता है-यह पहले पृ० 44 में कह दिया है।) [अपौरुषेय वाक्य का प्रामाण्य अर्थाभिव्यंजक पुरुष पर अवलंबित ] यह भी ज्ञातव्य है कि-वेदवाक्य यदि अपौरुषेय हैं तो भी वह अपने विषय का स्वत: ज्ञान उत्पन्न करने का व्यापार नहीं करता। क्योंकि वह नित्य एवं सदा निकट वर्ती है, इसलिये यदि वह स्वयं ज्ञानोत्पत्ति व्यापार में संलग्न होगा तब सतत ही ज्ञानोत्पत्ति होती रहनी चाहिये, परन्तु नहीं होती है / इससे यह सूचित होता है कि वेदवाक्य स्वतः स्वप्रतीतिजनक व्यापार वाले नहीं, किन्तु पुरुषाभिव्यक्त अर्थप्रतिपादक जो संकेत, उससे जन्य जो अर्थबोधसंस्कार, उसकी सहायता से प्रेरणावाक्य अपने विषय की प्रतीति को उत्पन्न करता है / तात्पर्य, शब्दों का किस अर्थ के साथ वाच्य-वाचक भाव संबन्ध है-इस संकेत को अध्यापक पुरुष प्रकट करते हैं। जो लोग इस संकेत को जानते हैं उनको 'इस शब्द से यह अर्थ समझना' ऐसे संस्कार रूढ हो जाते हैं, तब उन्हें वेदवाक्य पढकर अर्थबोध होता है, इस प्रकार वेदवाक्य नित्य हो, अपौरुषेय हो, तब भी उनके अर्थ को जानने के लिये पुरुष की अनिवार्य आवश्यकता है / अब मीमांसक मतानुसार में सभी पुरुष रागादि दोष व्याकुल ही होते हैं, इसलिये पुरुष संकेत से जो संस्कार रूढ होगा वह यथार्थ नहीं हो सकता। अगर पुरुषसंकेत द्वारा उत्पन्न संस्कार भी यथार्थ हो नब तो पूरुष प्रतिपादित वचन भी यथार्थ होना चाहिये। इस प्रकार वेद को अपौरुषेय मानने पर भी संकेत कारक पुरुषों में दोष संभवित होने से पुरुषसंकेत से उत्पन्न ज्ञान में अप्रामाण्य उत्पन्न होना संभावित है / फलत: वेदवाक्य को अपौरुषेय स्कीकार करना यह तो हाथी के स्नान तुल्य व्यर्थ है। हाथी नदी में स्नान करता है तब उसके शरीर पर संलग्न धूलि दूर तो हो जाती है किन्तु स्नान करके बाहर आने पर तुरन्त ही संढ से अपने शरीर पर धलीप्रक्षेप करने लगता है-इससे उसका स्नान व्यर्थ होता है / ठीक इस तरह मीमांसकों ने वेदवाक्यों को दोषअसंपृक्त रखने के लिये अपौपुरुषेय माना, किन्तु उनके अर्थ को समझने के लिये फिर पुरुष की अपेक्षा खडी हुई / अब पुरुष सदोष होने के कारण वेदवाक्यजन्य ज्ञान में अप्रामाण्य आ पड़ा। इस प्रकार वेदवाक्यों को अपौरुषेय मानना व्यर्थ परिश्रम ही हुआ। कहा भी है-[ प्रमाणवात्तिक 2-231 ] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदप्यभाषि-'तथानुमानबुद्धिरपि गृहीताविनाभावानन्यापेक्षे'त्यादि, [ पृ० १७-पं० 2 ] तदप्यचारु; अविनाभावनिश्चयस्यैव गुणत्वात् , तदनिश्चयस्य विपरीतनिश्चयस्य च दोषत्वात् / तदेवमुत्पत्तौ प्रामाण्यं गुणापेक्षत्वात् परतः इति स्थितम् / [ (2) प्रामाण्यं स्वकार्येऽपि न स्वतः-उत्तरपक्षः ] यदप्युक्तम्-'नापि स्वकार्ये प्रवर्त्तमानं प्रमाणं निमित्तान्तरापेक्षम्' इति, तदप्यसंगतम् / यतो यदि कार्योत्पादनसामग्रोव्यतिरिक्तनिमित्तानपेक्षं प्रमाणमित्युच्यते तदा सिद्धसाधनम् / अथ 'सामपरये कदेशलक्षणं प्रमाणं निमित्तान्तरानपेक्षम्'-तदप्यचारु; एकस्य जनकत्वाऽसम्भवात् / 'न ह्य के किंचिज्जनकं, सामग्री वै जनिका' इति न्यायस्यान्यत्र व्यवस्थापितत्वात् / असंस्कार्यतया पुंभिः, सर्वथा स्यान्निरर्थता / संस्कारोपगमे व्यक्तं गजस्नानमिदं भवेत् / / .. अर्थ:-वेदवाक्य यदि पुरुष द्वारा संस्कारयोग्य न हो अर्थात् संकेत का अविषय हो तब वे निरर्थक हो जायेंगे / अर्थात् किस वेदपद का क्या अर्थ है यह कोई पुरुष नहीं बतायेगा तो वेदवाक्य अर्थ हीन हो जायेंगे / यदि वेदवाक्यों में पुरुषों का संस्कार यानी संकेत-सूचन माना जाय तो वेदवाक्य अपौरुषेय मानना गजस्नान समान व्यर्थ है। _ 'अनुमानबुद्धि भी व्याप्तिज्ञान सापेक्ष एवं अन्य निरपेक्ष लिंग से उत्पन्न होती है'....इत्यादि जो मीमांसक ने कहा है वह भी सून्दर नहीं, क्योंकि यहां व्याप्ति का निश्चय ही गुण है, व्याप्तिनिश्चय का अभाव और विपरीतनिश्चय यानी व्याप्ति आदि का भ्रान्तनिश्चय दोष है / इस प्रकार प्रामाण्य उत्पत्ति में गुणों की अपेक्षा करता है इसलिये पर की अपेक्षा से उत्पन्न होता है-यह सिद्ध हो गया। (१-उत्पत्ति में प्रामाण्य के स्वतोभाव का निषेध पक्ष समाप्त ) [(2) स्वकार्य में प्रामाण्य के स्वतोभाव का निराकरण-उत्तर पच ] यह जो कहा गया है-'प्रमाण जब अपने कार्य में प्रवृत्ति करता है तब किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा नहीं करता'- वह भी युक्त नहीं, क्योंकि यहां यदि आपका तात्पर्य यह हो कि 'प्रमाण जब कार्य को उत्पन्न करता है तब कार्य को उत्पन्न करने में जो कुछ सामग्री अपेक्षित होती है, प्रमाण उसीकी अपेक्षा करता है अन्य की नहीं करता है। अर्थात् कार्योत्पादक सामग्री से भिन्न किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं करता' तो इसमें सिद्धसाधन दोष है। परतः प्रमाणकार्यवादी भी यही मानता है। उसके मतानुसार भी प्रमाण कार्योत्पादकसामग्री की ही अपेक्षा करता है, तदन्य किसी की नहीं / ___यदि आप कहें-'प्रमाण के अर्थतथात्वपरिच्छेदरूप कार्य की उत्पत्ति में जिस सामग्री की अपेक्षा है, प्रमाण भी उस सामग्री का एक अंश ही है। यह अंशरूप प्रमाण किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा नहीं करता है।'-तो यह कथन भी युक्त नहीं, क्योंकि 'कोई एक अर्थ किसी कार्य का कारण नहीं हो सकता।' इस तथ्य का समर्थन 'न ह्य कं किञ्चिज्जनक, सामग्री वै जनिका' इस न्याय से अन्यत्र किया गया है / उस न्याय का भाव यह है कि एक ही अर्थ कार्य का उत्पादक नहीं होता है किन्तु सामग्री कार्य को उत्पन्न करती है। तब कैसे कहा जाय कि प्रमाण अन्य निमित्त की अपेक्षा नहीं करता है ? Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१.प्रामाण्यवाद किं च, नार्थपरिच्छेदमात्रं प्रमाणकार्यम् , अप्रमाणेऽपि तस्य भावात् / कि तहि ? अर्थतथात्वपरिच्छेदः / स च न ज्ञानस्वरूपकार्यः, भ्रान्तज्ञानेऽपि स्वरूपस्य भावात् तत्रापि सम्यगर्थपरिच्छेदः स्यात् / अथ स्वरूपविशेष कार्यो यथावस्थितार्थपरिच्छेद इति नातिप्रसंगः, तहि स स्वरूपविशेषो वक्तव्यः, किं (1) अपूर्वार्थविज्ञानत्वम् , उत (2) निश्चितत्वम् , आहोस्विद् (3) बाधारहितत्वम् , उतस्विद् (4) अदुष्ट कारणारब्धत्वं, किं वा (5) संवादित्वमिति ? तत्र (1) यद्यपूर्वार्थविज्ञानत्वं विशेषः, स न युक्तः, मिरिकज्ञानेऽपि तस्य भावात (2) अथ निश्चितत्त्रं, सोऽप्ययुक्तः, परोक्षज्ञानवादिनो भवतोऽभिप्रायेणाऽसंभवात् / (3) अथ बाधरहितत्वं विशेषः सोऽपि न युक्तः / यतो बाधाविरहस्तत्कालभावी A विशेषः उत्तरकालभावी B वा ? न A तावत्तत्कालभावी, मिथ्याज्ञानेऽपि तत्कालभाविनो बाधाविरहस्य भावात। B अथोत्तर इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य है कि प्रमाण का कार्य केवल अर्थ का ज्ञान नहीं, क्योंकि अर्थज्ञान तो अप्रमाण से भी होता है। तो प्रमाण का कार्य क्या है ? इसका उत्तर यह है कि अर्थतथात्वपरिच्छेद अर्थात् अर्थ के सत्यस्वरूप का प्रकाशन / अगर यह कार्य ज्ञान के स्वरूपमात्र से हो जाता तब तो ज्ञान का स्वरूप भ्रान्तज्ञान में भी होने से उससे भी वस्तु के सत्य स्वरूप का प्रकाशन हो जाना चाहिये। [ अर्थतथाल्व का परिच्छेदक ज्ञानस्वरूपविशेष के ऊपर चार विकल्प ] - अगर कहा जाय-'ज्ञान के सामान्य स्वरूप से नहीं किन्तु स्वरूपविशेष से अर्थ के यथास्थित रूप का प्रकाशन होता है, यह स्वरूपविशेष भ्रम ज्ञान में न रहने से उसमें सत्यस्वरूपप्रकाशकत्व का अतिप्रसंग नहीं होगा।' तब यह बताईये, यह स्वरूपविशेष क्या है ? प्रमाण का वह स्वरूप विशेष (1) क्या अपूर्वअर्थविज्ञानत्व है ? (2) अथवा निश्चितत्व है (3) या बाधरहितत्व है (4) किं वा दोषरहितकारणजन्यत्व है (5) या संवादित्व है ? [ ज्ञान का स्वरूपविशेष अपूर्वार्थविज्ञानत्व नहीं है ] इसमें में से यदि (1) अपूर्वार्थविज्ञानत्व को विज्ञान का स्वरूप विशेष कहते हैं तो वह अयुक्त है क्योंकि तिमिर दोषयुक्त नेत्र वाले पुरुष के ज्ञान में भी ऐसा अपूर्वार्थज्ञानत्वात्मक स्वरूपविशेष विद्यमान है किन्तु वहां सम्यग् अर्थपरिच्छेदकत्व नहीं है। (2) अगर निश्चितत्व को विज्ञान का स्वरूप विशेष कहते हैं तो यह भी अयक्त है क्योंकि परोक्षज्ञानवादी मीमांसक ज्ञान को ज्ञातता अनुमान से ग्राह्य मानते हैं इसलिये उनके अभिप्राय से ज्ञानमात्र परोक्ष होने से किसी भी ज्ञान में स्वतोनिश्चितत्व होने का संभव ही नहीं है / [ ज्ञान का स्वरूपविशेष वाधविरह भी नहीं है ] (3) अगर बाधारहितत्व को विज्ञान का स्वरूप विशेष कहते हैं तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञान में बाधारहितत्व यह A तत्कालभावी यानी स्व (विज्ञान) समानकालभावी बाधाविरहरूप है या B उत्तरकालभावी यानी विज्ञानोत्तरकालभावी बाधाविरह रूप है ? A स्वकालभावी बाधा तिमिराख्यः स वै दोषश्चतुर्थपटलं गतः / रुण द्धि सर्वतो दृष्टि लिंगनाशमतः परम् / / इति माधवकरः / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 कालभावी, तत्रापि वक्तव्यम-कि B1 ज्ञातः स विशेषः उताऽज्ञातः B2? तत्र B2 नाऽज्ञातः, अज्ञातस्य सत्त्वेनाऽप्यसिद्धत्वात् / अथ B1 ज्ञातोऽसौ विशेषः, तत्रापि वक्तव्यम्-उत्तरकालभावी बाधाविरहः कि Bla पूर्वज्ञानेन ज्ञायते, B1b आहोस्विदुत्तरकालभाविना? / _Bla तत्र न तावत् पूर्वज्ञानेनोत्तरकालभावी बाधाविरहो ज्ञातु शक्यः, तद्धि स्वसमानकालं सन्निहितं नीलादिकमवभासयतु, न पुनरुत्तरकालमप्यत्र बाधकप्रत्ययो न प्रतिष्यत इत्यवगमयितु शक्नोति, पूर्वमनुत्पन्नबाधकानामप्युत्तरकालबाध्यत्वदर्शनात् / B2b अथोत्तरज्ञानेन ज्ञायते, ज्ञायताम्, किंतूत्तरकालभावी बाधाविरहः कथं पूर्वज्ञानस्य विनष्टस्य विशेषः ? भिन्नकालस्य विनष्टं प्रति विशेषत्वाऽयोगात्। किंच ज्ञायमानत्वेऽपि केशोण्डकादेरसत्यत्वदर्शनाद , बाधाऽभावस्य ज्ञायमानत्वेऽपि कथं सत्यत्वम् ? तज्ज्ञानस्य सत्यत्वादिति चेत् ? तस्य कुतः सत्यत्वम् ? न प्रमेयसत्यत्वात् , इतरेतराश्रयदोषविरह को नहीं ले सकते, क्योंकि यह तो मिथ्याज्ञान में भी होता है, कारण-मिथ्याज्ञान का उदय बाधकज्ञान से असंस्पृष्ट ही होता है, अतः वह तत्कालभावी बाधाविरह से रहित ही हुआ। अगर आप कहें-B उत्तरकालभावी बाधाविरह विज्ञान का स्वरूप विशेष है, तो यह विकल्प भी मिथ्या है। क्योंकि यहां प्रश्न होगा-वह उत्तरकालभावी बाधाविरह B1 ज्ञात होता हआ विज्ञान का स्वरूप विशेष बनता है या B2 अज्ञात ही रहता हुआ? B2 अज्ञात रहता हुआ वह बाधाविरह स्वरूप विशेष नहीं माना जा सकता क्योंकि जो अज्ञात है उसके वहाँ होने पर भी वह सत रूप से भी असिद्ध है, क्योंकि जब अज्ञात ही है तब आप कैसे कह सकते हैं कि वह सत् है ? और जब वह सत् रूप से सिद्ध नहीं है तब विज्ञान का स्वरूपविशेष कैसे हो सकता है ? अब अगर कहें B1 ज्ञात होकर बाधाविरह विज्ञान का स्वरूप विशेष बनता है तब यह बताना होगा कि वह उत्तरकालभावी बाधाविरह Bla पूर्वज्ञान से ज्ञात होता है ? या B1b उत्तरकालभावी ज्ञान से ज्ञात होता है ? यहाँ प्रथम विकल्प मानना अशक्य है, क्योंकि पूर्वज्ञान से उत्तरकालभावी बाधाविरह का बोध होना शक्य नहीं है / कारण, ज्ञान अपने समानकालीन एवं साँन्निध्यवर्ती नील-पीतादि पदार्थ का बोध करा सकता है-यह तो स्वीकार्य है किंतु ज्ञान यह नहीं जान सकता कि उत्तरकाल में भी यहाँ कोई बाधक ज्ञान नहीं उत्पन्न होगा। क्योंकि ऐसा देखने में आता है कि पूर्वकाल में बाधक न भी उत्पन्न हो और वहाँ ज्ञान बाधित न भी हो, किन्तु उत्तरकाल में बाधक ज्ञान उत्पन्न होता है और उससे पूर्वज्ञान बाधित भी होता है। अगर आप कहें-पूर्वज्ञान से नहीं सही, किन्तु उत्तरज्ञान से उत्तरकालभावी बाधाविरह ज्ञात होगा-तब इसमें हमारा कोई विरोध तो नहीं है, भले बाधाविरह इस प्रकार ज्ञात हो, किन्तु प्रश्न यह है कि उत्तरकालभावी बधाविरह ज्ञात होता हुआ भी विनष्ट पूर्वज्ञान का स्वरूपविशेष कैसे हो सकता है ? क्योंकि, विनष्ट पदार्थ से भिन्न उत्तरकालवर्ती वस्तु उस विनष्ट पदार्थ का विशेष धर्म नहीं बन सकता। यह एक दोष है / [ज्ञायमान बाधविरह को सत्य कैसे माना जाय ? ] इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह है कि बाधाविरह ज्ञात होता हुआ ही कार्य करता हो तब भी वह सत्य है या असत्य यह शंका बनी रहेगी। क्योंकि केशोण्डुक (चक्षु के समक्ष कभी कभी दिखाई Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद प्रसंगात् / 'अपरबाधाभावज्ञानादिति चेत् तत्राप्यपरबाधाभावज्ञानादित्यनवस्था। अथ संवादादुत्तरकालभावी बाधाविरहः सत्यत्वेन ज्ञायते, तहि संवादस्याप्यपरसंवादज्ञानात्सत्यत्वसिद्धिः, तस्याप्यपरसंवादज्ञानादित्यनवस्था। किं च, यदि संवादप्रत्ययादुत्तरकालभावी बाधाभावो ज्ञायमानो विशेषः पूर्वज्ञानस्याभ्युपगम्यते, तहि ज्ञायमानस्व विशेषापेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये यथावस्थितार्थपरिच्छेदलक्षणे प्रवर्तत इति कथमनपेक्षत्वात्तत्र स्वतः प्रामाण्यम् / अपि च 'बाधाविरहस्य भवदभ्युपगमेन पर्यु दासवृत्त्या संवादरूपत्वम् , बाधावजितं च ज्ञानं स्वकार्ये अन्यानपेक्षं प्रवर्तते' इति ब्रुवता संवादापेक्षं तत्तत्र प्रवर्तत इत्युक्तं भवति / पड़ते हुए केशतुल्य आभासिक तन्तु) ज्ञात तो होता है फिर भी वह असत्य ही माना जाता है। इस प्रकार 'बाधाविरह ज्ञात होता हुआ भी सत्य नहीं है किन्त असत्य ही है यह असंदिग्ध यानी निश्चितरूप से कैसे कह सकते हैं ? पदार्थ की सत्यता से या तो (1) उसके सत्यज्ञान से या (ii) सत्यसंवाद से सिद्ध हो सकती है ? अब इनमें से अगर कहें-बाधाविरह का ज्ञान सत्य है इसलिये वह बाधाविरह भी सत्य ही है, तब यहाँ भी प्रश्न होगा कि 'यह ज्ञान सत्य है' यह भी कैसे कह सकते हैं ? ज्ञान में सत्यत्व सिद्ध होने का संभवत: दो तरीका है-(१) प्रमेय=विषय सत्य होने से (2) अपर बाधाभाव के ज्ञान से / इनमें से प्रथम विकल्प में अन्योन्याश्रय दोष है क्योंकि विषय 'बाधाविरह' सत्य होने पर उसका ज्ञान सत्य होगा और ज्ञान सत्य होने पर इसका विषय 'बाधाविरह' सत्य सिद्ध होगा / इस अन्योन्याश्रय दोष से विषय सत्यत्व (प्रमेयसत्यत्व) के आधार पर ज्ञान की सत्यता घोषित नहीं की जा सकती। दूसरे में, अपरबाधाभावज्ञान से पूर्व बाधाविरह के ज्ञान की सत्यता कही जाय तो यह भी नहीं बन सकता क्योंकि यहाँ फिर से यह प्रश्न होगा कि वह अपरबाधाभावज्ञान भी सत्य है यह कैसे माने ? अगर कहें 'उसकी सत्यता अन्य कोई बाधाभाव ज्ञान से सिद्ध करेंगे तब तो ऐसे चलने में अनवस्था दोष प्रसक्ति होगी। [संवाद से उत्तरकालीन बाधाविरह ज्ञान की सत्यता कैसे ?] ( अथ संवादादुत्तर०.... ) यदि यह कहा जाय कि-उत्तरकालभावी बाधाविरह की सत्यता संवाद से सिद्ध होगी-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि संवाद भी सत्य सिद्ध हुए विना बाधाविरह की सत्यता सिद्ध नहीं कर सकता / एवं संवाद की सत्यता स्वतः सिद्ध तो है नहीं, इस लिए अन्य संवाद से सिद्ध करनी होगी, किंतु ऐसा करने में फिर और संवाद अपेक्षित होगा, उसकी सत्यता के लिये फिर अन्य संवाद की अपेक्षा-इस प्रकार अनवस्था होगी। [ उत्तरकालभावि बाधाविरहरूप विशेष की अपेक्षा में स्वतोभाव का अस्त ] (किं च यदि संवाद०....) अगर आप कहें-"अनवस्था दोष के कारण, अपर संवाद से प्रस्तुत संवाद की सत्यता मत सिद्ध हो, एवं उससे उत्तरकालभावी बाधाविरह की सत्यता सिद्ध होकर इसके द्वारा पूर्व ज्ञान का प्रामाण्य मत सिद्ध हो, किन्तु उत्तरकालभावी बाधाविरह प्रस्तुत संवादप्रत्यय से ही ज्ञात हो सकता है और वही ऐसा बाधविरह पूर्वज्ञान का स्वरूपविशेष मानते हैं और इस विशेषवाला पूर्वविज्ञान अपने यथावस्थित अर्थ प्रकाशन रूप कार्य में प्रवृत्त होता है"-तब तो यह आया कि Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 कि च, कि विज्ञानस्य A स्वरूपं बाध्यते, B आहोस्वित्प्रमेयम् , C उतार्थक्रिया ? इति विकल्पत्रयम् / A तत्र यदि विज्ञानस्य स्वरूपं बाध्यते इति पक्षः, स न युक्तः, विकल्पद्वयाऽनतिवृत्तेः / तथाहिविज्ञानं बाध्यमानं कि A1 स्वसत्ताकाले बाध्यते उत A2 उत्तरकालम? तत्र यदि A1 स्वसत्ताकाले बाध्यते इति पक्षः, स न युक्तः, तदा विज्ञानस्य परिस्फुटरूपेण प्रतिभासनात् / न च विज्ञानस्य परिस्फुटप्रतिभासिनोऽभावस्तदैवेति वक्तु शक्यम्, सत्याभिमतविज्ञानस्याप्यभावप्रसङ्गात् / A2 अथोत्तरकालं बाध्यत इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः, उत्तरकालं तस्य स्वत एव नाशाभ्युपगमाद् न तत्र बाधकव्यापारः सफलः, 'दैवरक्ताः हि किंशुकाः' / पूर्वज्ञान अपने अर्थयथावस्थितज्ञान स्वरूप कार्य में इस विशेष के सहकार से ही प्रवृत्त हुआ और इसके द्वारा अपने में प्रामाण्य का साधक हुआ-ऐसी दशा में उसमें स्वतः प्रामाण्य कहाँ रहा? . [पर्यदासनञ् से बाधाभावात्मक संवाद अपेक्षा की सिद्धि ] ( अपि च बाधा०....) अपरंच, इस प्रकार भी स्वतः प्रामाण्य सिद्ध नहीं हो सकता है- पूर्व विज्ञान अपने यथावस्थित अर्थप्रकाशनरूप कार्य में जिस बाधाभाव से प्रवर्त्तमान आपको अभिप्रेत है वह बाधाभाव तो पर्यु दासप्रतिषेध का ग्रहण करने से संवादरूप ही है, क्योंकि बाधाभाव में प्रसज्य प्रतिषेध लेने से तो मात्र 'सत्तानिषेध' यानी 'बाध का न होना' ही सिद्ध होता है जब कि पर्युदास प्रतिषेध लेने पर बाधाभाव को भावात्मक संवादरूप से गृहीत किया जा सकता है। तो जब यह कहते हैं कि ज्ञान बाधारहित होने पर जो अपने सत्यार्थप्रकाशन-कार्य में प्रवृत्त होता है वह किसी की अपेक्षा विना ही अर्थात् स्वतः ही प्रवृत्त हुआ-वह आपका कहना अयुक्त है क्योंकि इसका अर्थ तो यही हुआ कि वह स्वकीय अर्थक्रिया के लिये बाधाभाव के रूप में संवाद पर ही आधार रखता है / तब तो आपने संवादापेक्ष यानी परापेक्ष ही अर्थक्रियाकारित्व यानी परतः प्रामाण्य ही मान लिया / [ बाध किसका ? स्वरूप, प्रमेय या अर्थक्रिया का ? ] यह भी ज्ञातव्य है कि आप बाधविरहात्मक स्वरूपविशेष से ज्ञान की अपने कार्य में स्वतः प्रवृत्ति मानते हैं-उसमें तीन विकल्प हैं-बाधाभाव किस लिये अपेक्षित है? क्या बाध रहे तो A. विज्ञान का स्वरूप बाधित हो जाता है ? या B. विज्ञान का प्रमेय बाधित होता है ? अथवा C. विज्ञान की अर्थक्रिया बाधित होती है ? (1) अगर बाध से विज्ञान का स्वरूप बाधित होता है-यह प्रथम पक्ष अंगीकार करें तो यह उचित नहीं है क्योंकि इसमें दो विकल्प इस प्रकार अनिवार्य हैं-A1 बाध से बाधित होता हआ विज्ञान क्या अपने सत्ताकाल में बाधित होता है ? A2 या अपने उत्तरकाल में बाधित होता है ? A1 प्रथम विकल्प ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योंकि विज्ञान अपने सत्ताकाल में तो स्पष्ट रूप से संवेदित होता है, वास्ते जिस काल में विज्ञान का स्पष्ट रूप से संवेदन हो रहा है उसी काल में बहाँ बाध से ध्य है-ऐसा नहीं कह सकते / तात्पर्य स्पष्टरूप से भासमान संवेदन का उसी काल में इनकार नहीं किया जा सकता / क्योंकि ऐसा इनकार करने में भले इससे असद् विज्ञान का अभाव यानी असिद्धि हो किन्तु सत्य विज्ञान के भी अभाव की आपत्ति सिर पर आ गिरेगी। ___A2 (अथोत्तरकालं....) अगर आप कहें-संभवित बाधक से विज्ञान का स्वरूप अपने उत्तरकाल में बाधित होता है, तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि सर्वक्षणिकवाद में विज्ञान उत्तरकाल में स्वतः Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० 1 प्रामाण्यवाद B अथ प्रमेयं बाध्यत इत्यभ्युपगमः, सोऽप्ययुक्तः; यतः B1 प्रमेयं बाध्यमानं कि प्रतिभासमानरूपेण बाध्यते, B2 उताऽप्रतिभासमानरूपसहचारिणा स्पर्शादिलक्षणेनेति विकल्पनाद्वयम् / B1तत्र यदि प्रतिभासमानेन रूपेण बाध्यत इति मतम् , तदयुक्तम् , प्रतिभासमानस्य रूपस्याऽसत्त्वाऽसंभवात् / प्रन्यथा सम्यगज्ञानावभासिनोऽप्यसत्त्वप्रसङ्गः। B2 अथाऽप्रतिभासमानेन रूपेरण बाध्यत इति मतम् , तदप्ययुक्तम् , अप्रतिभासमानस्य प्रतिभासमानरूपादन्यत्वात् / न चान्यस्याभावेऽन्यस्याभावः, अतिप्रसंगात् / ____C अथार्थक्रिया बाध्यते, ननु सापि C1 किमुत्पन्ना बाध्यते, C2 उतानुत्पन्ना ? C1 यद्युत्पन्ना, न हि बाध्यते; तस्याः सत्त्वात् / C2 अथानुत्पन्ना, साऽपि न बाध्या, अनुत्पन्नत्वादेव / कि च, अर्थ ही नष्ट हो जाने का मानते हैं, जो नष्ट है उस पर बाधक की प्रवृत्ति क्या कर सकती है ? अर्थात् वह सफल नहीं हो सकती / जैसे कि कहा गया है- 'दैवरक्ता हि किंशुकाः' / अर्थात् किंशुक यानी पलाश के पुष्प निसर्गतः रक्तवर्णवाले होते हैं, इसलिये अब इसको फिर से रक्तवर्ण चढाने की जरूर नहीं है। अब कोई प्रयत्न करे भी तो वह व्यर्थ जाता है / [प्रमेय का बाध-दूसरा विकल्प अयुक्त है ] _B अगर कहें-संभवित बाधक से विज्ञान का स्वरूप नहीं किन्तु विज्ञान का प्रमेय यानी विषय बाधित होता है तो वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि यहाँ दो प्रश्न हैं-B1, बाधित होने वाला विषय जिस रूप से भासित होता है क्या उसी रूप में बाधित होता है ? B2 या अप्रतिभासमानस्वरूप के सहचारी ऐसे स्पर्शादि धर्मरूपेण बाधित होता है ? उदा०-शुक्ति में रजतज्ञान हुआ, वहाँ विषय रजत यह क्या प्रतिभासमान रजतत्व रूप से बाधित होता है ? या अप्रतिभासमान रजतगत स्पर्शादिरूप से (या अप्रतिभासमान शुक्तित्व सहचारी स्पर्शादि रूप से) बाधित होता है ? ऐसे दो प्रश्न हैं / B1 अब इनमें से अगर प्रतिभासमानरूप से विषय बाधित होता है यह पक्ष लिया जाय तो वह अयुक्त है चूंकि जो रूप प्रतिभासमान है उसका असत्त्व असंभवित है / अर्थात् प्रतिभासमानरूप असत् नहीं हो सकता। कारण, जो असत् होता है उसका आकाशपूष्पवत् प्रतिभास ही नहीं हो सकता, अगर प्रतिभास मान है तो इसी से वह सत् सिद्ध होता है / अगर असत् वस्तु का भी प्रतिभास होता, यानी प्रतिभासमान वस्तु असत् होती तब तो सम्यग् ज्ञान में भासमान वस्तु भी असत् होने की आपत्ति आयेगी। B2 यदि प्रतिभासमानरूप से विषय बाधित होता है-यह पक्ष लिया जाय तो वह भी ठीक नहीं है क्योंकि जो रूप अप्रतिभासमान है वह प्रतिभासमान रूप से भिन्न है. और इस भिन्नरूप विषय बाधित होता हो अर्थात् विषय का अभाव कहा जाता हो तब अन्य के अभाव में अन्य का अभाव ही फलित हुआ, और इसमें तो अतिप्रसंग आयेगा। उदा०-रजत का ज्ञान रजतत्वरूप से भी बाधित होगा अर्थात् रजत में अप्रतिभासमान शुक्तित्वरूप से बाध मानने में शुक्तित्व के अभाव से रजतत्व के अभाव की आपत्ति होगी क्योंकि आपने अन्य के अभाव से अन्य के अभाव होने का विधान अंगीकार किया है। निष्कर्ष-अप्रतिभासमान रूप से भी प्रमेय बाधित नहीं हो सकता। [अर्थक्रिया का बाध-तीसरा विकल्प अयुक्त ] _____बाध ज्ञान से जैसे विज्ञानस्वरूप एवं प्रमेय बाधित नहीं हो सकता वैसे अर्थक्रिया भी बाधित नहीं हो सकती / अगर कहें कि अर्थक्रिया बाधित होती है तो यह बताईये कि C1 वह अर्थ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 क्रियाऽपि पदार्थादन्या, ततश्च तस्या प्रभावे कथमन्यस्याऽसत्त्वम् ? अतिप्रसंगादेव। व्यवच्छेद्याऽसंभवे च बाधावजितमिति विशेषणस्याप्ययुक्तत्वात् , न बाधाविरहोऽपि विज्ञानस्य विशेषः / (४)अथाऽदुष्टकारणारब्धत्वं विशेषः, सोऽपि न युक्तः, यतस्तस्याप्यज्ञातस्य विशेषत्वमसिद्धम् / ज्ञातत्वे वा कुतोऽदुष्टकारणारब्धत्वं ज्ञायते ? 'अन्यस्माददुष्टकारणारब्धाद्विज्ञानादिति चेत् ? अनवस्था। 'संवादाद्' इति चेत् ? ननु संवादप्रत्ययस्याप्यदुष्टकारणारब्धत्वं विशेषोऽन्यस्माददुष्टकारणारब्धात संवादप्रत्ययाद्विज्ञायत इति सैवाऽनवस्था भवतः सम्पद्यत इति / किं च, ज्ञानसव्यपेक्षमदुष्टकारणारब्धत्वविशेषमपेक्ष्य स्वकार्ये ज्ञानं प्रवर्त्तमानं कथं न तत्तत्र परतः प्रवृत्तं भवति! क्रिया क्या उत्पन्न होने पर बाधित होती है अथवा C2 अनुत्पन्न ही बाधित होती है ? C1 उत्पन्न होने पर बाधित होने की बात अयुक्त है क्योंकि जब वह उत्पन्न ही हो गयी तब इसको क्या बाधित होना है ? अर्थक्रिया का तात्पर्य है कार्य, उसका बाधित होने का मतलब है उसकी उत्पत्ति रुक जाना, जब वह उत्पन्न हो ही गया तब उत्पत्ति में क्या रुकावट होने वाली है ? C2 अगर कहें-अनुत्पन्न अर्थक्रिया बाधित होती है तो यह भी अशक्य है क्योंकि जो उत्पन्न ही नहीं हुयी, अर्थात् उत्पत्ति के पूर्व असत् है उसका क्या बाध होगा? फिर बाधज्ञानकाल में उसकी रुकावट होने की बात भी कहाँ ? यह भी ध्यान देने लायक है कि पुरोवर्तीरूप में भासमान विज्ञान रूप पदार्थ की अर्थक्रिया भी उससे भिन्न है / अब आप कहते हैं कि बाध के ज्ञान से बाध्य होने वाली अर्थक्रिया है, तो यहाँ निष्कर्ष यह आया कि अर्थक्रिया बाधित होने पर पदार्थ बाधित हो जायेगा। यह कैसे बन सकता है ? क्योंकि एक के अभाव में अन्य का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता अन्यथा वही अतिप्रसंग दोष आ पडेगा। (व्यवच्छेद्या....) इस रीति से विज्ञानस्वरूप, प्रमेय और अर्थक्रिया तीनों में कोई भी बाध्य नहीं हो सकता, तब बाधरहित इस विशेषण से व्यवच्छेद्य क्या है, अर्थात् कौन बाध्य है यह निश्चय न कर सकने से 'बाधरहित' यह विशेषण अयुक्त है / तात्पर्य, बाधविरह को भी विज्ञान का स्वरूपविशेष नहीं कह सकते / [ अदुष्टकारण जन्यत्व स्वरूपविशेष नहीं हो सकता ] (4) अगर कहें, 'अदुष्टकारणारब्धत्व अर्थात् दोषरहितकारणज यत्व यही विज्ञान का स्वरूपविशेष है'-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह अज्ञात रहने पर उसमें विशेषकता ही असिद्ध है। यदि कहें-ज्ञात होता हुआ वह विशेषण बनता है, तो वह निर्दोष कारणजन्यत्व ज्ञात कैसे हुआ ? अगर कहें-निर्दोषकारणजन्य किसी दूसरे विज्ञान से यह ज्ञात होता है कि 'वह विज्ञान निर्दोषकारणजन्य है, तब तो अनवस्था चलेगी। अगर तो अवस्था चलगा। अगर कह-सवाद यह भी एक बा प है-ज्ञानरूप है, वह भी जब तक निर्दोषकारणजन्यत्वरूप विशेष वाला ज्ञात न हो वहां तक प्रस्तुत विज्ञान का निर्दोषकारणजन्यत्व कैसे ज्ञात होगा ? और उसके लिये अन्य संवाद की आवश्यकता मानने पर आपको अनवस्था दोष लगेगा। ( किंच ज्ञानसव्यपेक्ष.... ) इसके अतिरिक्त, जब निर्दोष कारणों से उत्पत्तिरूप स्वरूपविशेष भी ज्ञात हो करके ही अपना कार्य करेगा तब वह भी ज्ञानसापेक्ष हुआ और उस विशेष की अपेक्षा करके ज्ञान अपने यथार्थपरिच्छेदरूप कार्य में प्रवत्त होगा तो इस प्रकार प्रमाण अपने कार्य में परतः ही प्रवृत्त हुआ-इस बात का अब इनकार कैसे करेंगे! Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-प्रामाण्यवाद तथा, कारणदोषाभावः पर्युदासवृत्त्या भवदभिप्रायेण गुणः / ततश्चाऽदुष्टकारणारब्धमिति वदता गुणवत्कारणारब्धमित्युक्त भवति / "कारणगुणाश्च प्रमाणेन स्वकार्ये प्रवर्त्तमानेनापेक्ष्यमाणनिश्चायकप्रमाणापेक्षा अपेक्ष्यन्ते, तदपि प्रमाणं स्वकारणगुणनिश्चायकं स्वकारणगुणनिश्चयापेक्षं स्वकार्ये प्रवर्तत इत्यनवस्थादूषणम्,-जातेऽपि यदि विज्ञाने, तावन्नार्थोऽवधार्यते." [ पृ० 19-20 ] इत्यादिना ग्रन्थेन परपक्षे प्रासज्यमानं 'स्ववधाय कृत्योत्थापन' भवतः प्रसक्तम् / अथाऽदुष्टकारणजनितत्वनिश्चयमन्तरेणापि ज्ञानं स्वार्थनिश्चये स्वकार्ये प्रवत्तिष्यते, तदसत् ; संशयादिविषयीकृतस्य प्रमाणस्य स्वार्थनिश्चायकत्वाऽसंभवात्, अन्यथाऽप्रमारणस्यापि स्वार्थनिश्चायकत्वं स्यात् / तन्नाऽदुष्ट कारणारब्धत्वमपि विशेषो भवन्नीत्या संभवति / [पयुदासनञ् से अदुष्टकारण गुण हो जायेंगे ] यहाँ जो दोषरहितकारणजन्यत्व को स्वरूपविशेष कहा गया उसमें जो कारणगत दोषाभाव विवक्षित है वह आपके मत से पर्यु दास वृत्ति से गुणस्वरूप भावात्मक पदार्थ में पर्यवसित होगा। फलतः दोषरहित कारणों से उत्पत्ति होने का जो कथन है उससे गुणवान् कारणों से उत्पत्ति होने की बात ही सूचित होती है / एवं च-"प्रमाण को अपने कार्य में प्रवृत्त होने के लिये जिन कारणगुणों की अपेक्षा है वे अज्ञात रह कर प्रमाण को अपने कार्य में प्रवृत्त होने के लिये सहायक नहीं बनते किन्तु यथार्थरूप से ज्ञात हो कर के अपेक्षित होते हैं। इसलिये कारणगुण का ज्ञान प्रमाणभूत होने के लिये किसी और निश्चायक प्रमाण की अपेक्षा रखेंगे। वे भी प्रमाणकारणगुण अपने कारणगुणसापेक्ष मानना होगा / फलत: उन कारणगुणों का भी प्रमाणात्मक ज्ञान होने में उनके भी कारणगुणों का निश्चय अपेक्षित होगा / फलतः प्रत्येक प्रमाण अपने कार्य में तभी प्रवृत्त होगा जब अपने अपने कारणगुणों का निश्चय होगा। इस निश्चय के लिये अपने कारणगुण एव उसके निश्चय की अपेक्षा रहेगीइस प्रकार अनवस्था चलेगी।" इस प्रकार का जो अनवस्था दूषण “जातेऽपि यदि विज्ञाने तावन्नार्थोऽवधार्यते०" ( ज्ञान उत्पन्न होने पर भी तब तक अर्थ निश्चित नहीं होता० ) इत्यादि कारिका के उल्लेख से परतः प्रामाण्यवादी के पक्ष पर स्वतःप्रामाण्यवादी की ओर से आरोपित किया जाता था, यह तो अपने सिर ही आ पडा जो कि अपने ही वध के लिये * कृत्या का उत्थापन तुल्य हुआ। तात्पर्य, शत्रुवध के लिये उत्थापित कृत्यासंज्ञक मंत्रमय शक्ति का उत्थापन अपने ही वध के लिये फलित हुआ। ___अगर कहा जाय-"ज्ञान की अदुष्ट कारण से उत्पत्ति होने के कारण स्वकार्य में प्रवृत्ति होती है, एवं वहाँ दोषाभाव को पर्यु दासप्रतिषेधरूप में कारणगुण का ग्रहण करना होता है किन्तु इस में अनवस्था चलती है इसलिये अब हमारा कहना है कि अदुष्ट कारण से उत्पत्ति के निश्चय विना ही ज्ञान स्वकीय यथावस्थित विषय के निश्चयरूप स्वकार्य में प्रवृत्त होता है तो कोई अनवस्था आदि आपत्ति नहीं है"-तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रमाणज्ञान में प्रामाण्य का संशय और भ्रम होता है वहाँ स्वविषय का यथास्थित निश्चय असंभव है, किन्तु आपके हिसाब से वह संभवित * प्राचीनकाल में कुछ लोग शत्रु का विनाश करने के लिये कृत्या नाम की देवी की आराधना करते थे / आराधना के बाद वह जब प्रकट होती थी तब आराधक की इच्छानुसार उसके शत्रु का नाश कर देती थी। परन्तु उसकी आराधना में अगर कहीं कुछ गलती हो गयी तो वह प्रकट हो कर उसके आराधक का ही नाश कर देती थी। इसी को अपने वध के लिये कृत्या उत्थापन कहा गया है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 (5) अथ संवादित्वं विशेषः, सोऽभ्युपगम्यत एव, किन्तु संवादप्रत्ययोत्पत्तिनिश्चयमन्तरेण स न ज्ञातु शक्यत इति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्, तदपेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तत इति तत्तत्र परतः स्यात् / प्रत एव निरपेक्षत्वस्याऽसिद्धत्वात्पूर्वोक्तन्यायेन 'ये प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदयाः,.......इति प्रयोगे [ पृ० 5-505] नाऽसिद्धो हेतुः। एतेनैव यदुक्त तत्राऽपूर्वार्थविज्ञानं, निश्चितं बाधवजितम् / अदुष्टकारणारब्ध, प्रमाणं लोकसम्मतम् // इति, तदपि निरस्तम्॥ ___ यच्चोक्तम्-'यदि संवादापेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तते तदा चक्रकप्रसंगः' [पृ० 18-A ] तदसंगतम्, 'यथावस्थितपरिच्छेदस्वभावमेतत्प्रमाणम्' इत्येवंनिश्चयलक्षणे स्वकार्ये यथा संवादापेक्ष प्रमाणं प्रवर्तते न च चक्रकदोषः, तथा प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् / यदपि 'अथ गृहीताः कारणगुणाः' [पृ० 19 1 इत्याद्यभिधानम् तदपि परसमयानभिज्ञतां भवतः ख्यापयति, कारणगुणग्रहणापेक्ष प्रमाण स्वकार्ये प्रवर्तत इति परस्यानभ्युपगमात् / यच्चोक्तम्-'उपजायमानं प्रमाणमर्थपरिच्छेदशक्तियुक्तम्..... [ पृ० 20 ] इति, तत्राऽविसंवादित्वमेव अर्थतथात्वपरिच्छेदशक्तिः, तच्च परतो ज्ञायते, तदपेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तते इति तत्तत्र परतः स्थितम् / / होगा, क्योंकि इस प्रमाण की अदुष्ट कारणों से उत्पत्ति का निर्णय तो अपेक्षित है नहीं, अन्यथा ऐसी अपेक्षा किये विना भी कोई ज्ञान स्वविषय का यथार्थ निश्चायक होकर प्रमाणरूप बनता हो तो अप्रमाण ज्ञान भी स्वविषय का यथार्थ निश्चायक हो जायगा। फलतः आपके हिसाब से निर्दोष कारणों से उत्पत्ति यह ज्ञान का स्वरूपविशेष होना असंभव है। [संवादित्व को स्वरूपविशेष कहने में परतःप्रामाण्यापत्ति ]. [5] अब यदि संवादित्व को ज्ञान का स्वरूपविशेष कहेंगे, तो यह तो हमें स्वीकृत ही है, किंत कठिनाई यह है कि जब तक संवादज्ञान की उत्पत्ति का निश्चय नहीं होगा त प्रस्तुत ज्ञान का संवादित्व यानी संवादसमर्थितत्वरूप स्वरूपविशेष ज्ञात नहीं हो सकता / यह वस्तु आगे स्पष्ट की जाने वाली है। अब यहाँ अगर प्रमाण को संवादसमर्थित बनाने के लिये संवाद ज्ञान की उत्पत्ति होना मान लेंगे तब तो प्रमाण उसका सापेक्ष रह कर अर्थ का यथार्थपरिच्छेदरूप अपने कार्य में प्रवर्त्तमान हुआ और उसमें उसका प्रामाण्य परतः हुआ। इसीलिये प्रामाण्य में निरपेक्षत्व यानी स्वतस्त्व सिद्ध न हो सकने से पूर्वोक्त प्रयोग में सापेक्षत्व हेतु असिद्ध नहीं है / वह प्रयोग इस प्रकार था-"ये प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदया: न ते स्वतोव्यवस्थितधर्मका यथाऽप्रामाण्यादयः" जो अन्यकारण के उदय को सापेक्ष हैं वे अपने धर्म की स्वतः व्यवस्था नहीं कर सकता। जैसे अप्रामाण्य अपनी उत्पत्ति में दोषरूप कारण की उत्पत्ति को सापेक्ष है-इसलिये वह स्वतः व्यवस्थित धर्म वाला नहीं है" / इस प्रयोग में कारणान्तरोदयसापेक्षता हेतु असिद्ध नहीं है / (एतेनैव यदुक्तं....) इसी प्रतिपादन से आपका यह कथन भी खण्डित हो जाता है जिसमें कहा गया है कि तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवजितम् / अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् // अर्थः-जो निर्णयात्मक ज्ञान नुतनार्थग्राही एवं बाधरहित तथा अदुष्टकारणजन्य हो वही ज्ञान प्रमाणरूप में लोकस्वीकृत होता है।" Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद 59 [३-प्रामाण्यनिश्चयो न स्वतः-उत्तरपक्षः ] 'नापि प्रामाण्यं स्वनिश्चयेऽन्यापेक्ष' [पृ०२१] इत्युक्त यत् तदप्यसत, यतो निश्चयः तत्र भवन् कि A निनिमित्तः उत B सनिमित्तः इति कल्पनाद्वयम् / A तत्र न तावन्निनिमित्तः, प्रतिनियतदेशकालस्वभावाभावप्रसङ्गात् / B सनिमित्तत्वेऽपि कि B1 स्वनिमित्त उत B2स्वव्यतिरिक्तनिमित्तः ? न तावत् B1स्वनिमित्तः, स्वसंविदितप्रमाणानभ्युपगमात् मीमांसकस्य / B2अथ स्वव्यतिरिक्तनिमित्तः, तत्रापि वक्तव्यम्-तन्निमित्तं किं B2a प्रत्यक्षम्, B2b उतानुमानम् ? अन्यस्य तन्निश्चायकस्याऽसम्भवात् / तत्र यदि प्रत्यक्षं, तदयुक्त, प्रत्यक्षस्य तत्र व्यापाराऽयोगात् / तद्धीन्द्रियसंयुक्त विषये तव्यापारादुदयमासादयत् प्रत्यक्षव्यपदेशं लभते / न चेन्द्रियाणामपिरोक्षतालक्षणेन फलेन तत्संवेदनरूपेण वा सम्प्रयोगः, येन तयोर्यथार्थत्वस्वभावं प्रामाण्यमिन्द्रियव्यापारजनितेन प्रत्यक्षेण निश्चीयते। [संवाद की अपेक्षा दिखाने में चक्रक आदि दोष नहीं है ] यह जो कहा गया कि-प्रमाण अगर संवाद की अपेक्षा रख कर अपने कार्य में प्रवृत्ति करता है तो चक्रक दोष की आपत्ति होगी-यह कथन भी युक्त नहीं है। क्योंकि पहले वस्तु का बोध होता है, संवाद मीलने पर 'यह बोध यथावस्थितार्थपरिच्छेदस्वरूप प्रमाणात्मक ज्ञान है' यह निश्चय होता है / ऐसा निश्चय ही प्रमाण का कार्य है। इस वस्तु स्थिति का इनकार नहीं किया जा सकता। हाँ, प्रमाण के ऐसे स्वकार्य में संवाद की अपेक्षा किस प्रकार है एवं इसमें चक्रक दोष कैसे नहीं लगता? इसका प्रतिपादन आगे करेंगे। (यदपि अथ गृहीताः....) एवं 'अथ गृहीताः कारणगुणा:....अर्थात् कारण के गुण गृहीत होने पर प्रमाण के कार्य में सहकारी बनते हैं या गहीत न होने पर भी सहकारी बनते हैं'........इत्यादि जो कहा गया था वह आपका कथन आपकी परशास्त्र-अनभिज्ञता का सूचक है। अर्थात् , प्रतिवादी का सिद्धान्त न जानते हुए आप ऐसा कह गये हैं, क्योंकि प्रतिवादी ने 'प्रमाण अपने कार्य में कारणगुण के ज्ञान की अपेक्षा रख कर प्रवृत्त होता है' ऐसा नहीं माना है। ( यच्चोक्त, उपजायमानं....) यह भी जो आपने कहा था-प्रमाण उत्पन्न होता हुआ अर्थपरिच्छेद शक्ति संपन्न होता है-वह ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ अर्थतथात्वपरिच्छेद की शक्ति क्या है ? यही कि अविसंवादित्व, अर्थात् विसंवाद न होना, और यह तो पर की अपेक्षा से ही जाना जा सकता है। इस वास्ते अविसंवादित्व रूप अर्थतथात्वपरिच्छेद शक्ति स्वतः ज्ञात नहीं होगी। एवं प्रमाण अपने कार्य में जब ऐसे अविसंवादित्व की अपेक्षा करता है तब फलित यह हुआ कि प्रमाण स्वकार्य में परतः यानी परावलम्बी है। [ प्रमाण की स्वकार्य में स्वतः प्रवृत्ति के पक्ष का खण्डन समाप्त ] [३-प्रामाण्य का निश्चय स्वतः नहीं होता-उत्तरपक्ष ] यह जो आपने कहा था कि 'प्रामाण्य अपने निश्चय में भी अन्य की अपेक्षा नहीं करता' यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वहां दो प्रकार के विकल्प खडे होते हैं A-प्रामाण्य का निश्चय कारणनिरपेक्ष उत्पन्न होता है या B कारणसापेक्ष ? A कारणनिरपेक्ष उत्पन्न होता है यह नहीं मान सकते, क्योंकि इसमें 'नियतदेश-नियतकाल में एवं नियतस्वभावयुक्त उत्पन्न होना' यह नहीं बन सकेगा / अर्थात् , Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नापि मनोव्यापारजेन प्रत्यक्षेण, एवंविधस्यानुभवस्याभावात् / नापि तयोरुत्पादकस्य ज्ञातृव्यापाराख्यस्य यथार्थत्वनिश्चायकत्वं प्रामाण्यं बाह्यन्द्रियजन्येन मनोजन्येन वा प्रत्यक्षेण निश्चीयते, तेन सहेन्द्रियाणां सम्बन्धाभावात् / न चेन्द्रियाऽसम्बद्धे विषये ज्ञानमुपजायमानं प्रत्यक्षव्यपदेशमासादयतीत्युक्तम् / प्रामाण्य जब विना कारण ही उत्पन्न होगा तब तो जिस किसी भी देश-काल में और जैसा-तैसा अनियतस्वभाववाला उत्पन्न होना चाहिये / B यदि दसरा विकल्प ले कर प्रामाण्यनिश्चय निमित्तसापेक्ष मान लिया जाय तब यह प्रश्न होगा कि वह निमित्त कौन सा है ? B1 क्या वह स्वयं ही निमित्त है या B1 कोई अन्यनिमित्त है ? वहां स्वनिमित्तक निश्चय नहीं बन सकता / क्योंकि मीमांसक मत में प्रमाण ज्ञान को स्वसंविदित-स्वसंवेद्य नहीं किन्त ज्ञाततालिंगक अनमिति ग्राह्य माना गया है। यदि आप प्रमाण निश्चय को स्वनिमित्तक कहते हैं तो इसका तात्पर्य यही हुआ कि प्रमाण स्वसंवेद्य है / अब अगर स्वान्यनिमित्तक कहें-तब यह बताईये कि प्रामाण्यनिश्चय का वह अन्यनिमित्त कौन है, B2a प्रत्यक्ष अथवा B2b अनुमान ? तीसरा कोई प्रामाण्यनिश्चय का निमित्त यानी प्रामाण्यनिश्चायक नहीं हो सकता / यहाँ आप प्रत्यक्ष B2a को प्रमाण का निश्चायक मानें तो यह नहीं बन सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष की प्रामाण्य के निश्चय में प्रवृत्ति न तो इन्द्रियव्यापार द्वारा शक्य है, न मनोव्यापार द्वारा शक्य है / इन्द्रियसनिकृष्ट विषय में इन्द्रिय व्यापार जन्य ज्ञान ही 'प्रत्यक्ष' संज्ञा को प्राप्त करता है। किन्तु, इन्द्रिय से जो विषय का प्रत्यक्षरूप ज्ञान होता है उससे विषय ज्ञात होने से उसमें ज्ञातता उत्पन्न होती है / / है और यह ज्ञातता अपरोक्षतास्वरूप है। अब मीमांसकों का कहना है कि इस ज्ञातता से जैसे ज्ञान गृहीत (अनुमित) होता है वैसे उस ज्ञान का प्रामाण्य भी उससे गृहीत होता है, इस प्रकार प्रामाण्यनिर्णय के लिये अन्य सामग्री की अपेक्षा न रहने से प्रामाण्य स्वतः निर्णीत कहा जाता है। किन्तु यह नहीं बन सकता, क्योंकि इन्द्रिय का विषयनिष्ठ अपरोक्षता-ज्ञातता के साथ संप्रयोग यानी संनिकर्ष नहीं बन सकता / कारण, 'अर्थाऽपरोक्षता' रूप पदार्थ अर्थाऽपरोक्षज्ञान से घटित है और वह ज्ञान बाह्य न्द्रियसंनिकृष्ट नहीं है। एवं जैसे ज्ञान का भान ज्ञातता से होता है, वैसे अनुव्यवसायात्मक संवेदन से भी होने का माना जाता है। ज्ञातता के समान, जैसे इस संवेदन से ज्ञान का भान उसी प्रकार इसके साथ साथ ज्ञान निष्ठ प्रामाण्य का भी भान हो जाता है-इसलिये प्रामाण्य स्वतोग्राह्य है ऐसा यदि कहा जाय तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि संवेदन के साथ बाह्य न्द्रिय संनिकर्ष न हो सकने से इसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, जिससे कि दोनों विकल्पों में ज्ञातता एवं संवेदन में यथार्थत्वस्वरूप प्रामाण्य इन्द्रिय व्यापार जन्य प्रत्यक्ष से निश्चित किया जा सके। [मानस प्रत्यक्ष से प्रामाण्यग्रह अशक्य ] मनोव्यापार से उत्पन्न होने वाले प्रत्यक्ष से अर्थात् मानस प्रत्यक्ष से भी प्रामाण्य का निश्चय नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान सुखादि का जैसा आन्तरसंवेदन होता है वैसा अर्थापरोक्षता और तत्संवेदन में प्रामाण्य, का आन्तर संवेदन नहीं होता है। (नापि तयोरुत्पादकस्य....) अगर यह कहें'इन इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष एवं मानस प्रत्यक्ष से प्रामाण्य भले प्रत्यक्ष ग्राह्य न हो किन्तु इन उत्पादक ज्ञाता के व्यापार में रहा हआ यथार्थता निश्चायकत्वरूप रूप प्रामाण्य इन्द्रियजन्य अथवा मनोजन्य प्रत्यक्ष से ग्राह्य होगा'-तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि ज्ञाता के व्यापार के साथ बाह्य न्द्रिय का संबंध शक्य नहीं है / एवं मन से ज्ञातृव्यापार का जैसे अनुभव है वैसे ज्ञातृव्यापार गत प्रामाण्य Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद B2b नाप्यनुमानतः प्रामाण्य निश्चयः, पूर्वोक्तस्य फलद्वयस्य यथावस्थितार्थत्वलक्षणप्रामाण्यनिश्चये लिंगाभावात् / ज्ञातृव्यापारस्य पूर्वोक्तफलद्वयस्वभावकालिंगसम्भवेऽपि न यथार्थनिश्चायकत्वलक्षणप्रामाण्यनिश्चायकत्वम् / यतल्लिगं संवेदनाख्यं, यथार्थत्वविशिष्टं तन्निश्चये व्याप्रियेत, निविशेषणं वा ? प्रथमपक्षे तस्य यथार्थत्वविशेषणग्रहणे प्रमाणं वक्तव्यं. तच्च न संभवतीति प्रतिपादितम् / निविशेषणस्य फलस्य प्रामाण्यप्रतिपादकत्वे मिथ्याज्ञानफलमपि प्रामाण्यनिश्चायकं स्यादित्यतिप्रसंगः / तत्रतत्स्यात्-पूर्वोक्त फलद्वयमर्थसंवेदनार्थप्रकटतालक्षणमनुभवान्निश्चीयते, यथा तस्य स्वतः पूर्वोक्तस्वरूपनिश्चयः तथा यथार्थत्वस्याऽपि / यथाहि तत्संवेद्यमानं नीलसंवेदनतया संवेद्यते, तथा का अनुभव नहीं होता / सारांश, प्रत्यक्ष से प्रामाण्य का निश्चय नहीं हो सकता है, क्योंकि इन्द्रिय से असम्बद्ध विषय से उत्पन्न होते हए ज्ञान को प्रत्यक्ष संज्ञा ही प्राप्त नहीं होती-यह पहले कह दिया है। [ अनुमान से भी प्रामाण्य का निश्चय असंभव ] अब अगर कहें-प्रामाण्य के निश्चय का निमित्त प्रत्यक्ष भले न हो किन्तु अनुमान हो सकता है अर्थात् अनुमान से प्रामाण्य का निश्चय करेंगे-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यथावस्थितार्थत्व अर्थाऽपरोक्षता एवं तत्संवेदन इन दोनों में से एक भी लिंग रूप नहीं है। कारण, ज्ञातव्यापार के स्वभाव या कार्यरूप में ये दोनों में से कोई भी नहीं दिखाई पड़ता जो प्रामाण्य के अनुमान का साधक हो सके। [ B2b संवेदनरूप लिंग से प्रामाण्यनिश्चय असंभव ] __ अगर आप कहें “यथार्थत्व निश्चय स्वरूप प्रामाण्य का अनुमान करने के लिए लिङ्ग क्या नहीं है ? लिङ्ग मिलता है, वह यह कि ज्ञाता के व्यापार स्वरूप प्रमाणज्ञान के जो दो फल (कार्य) है विज्ञान-संवेदन एवं अर्थप्राकट्य, वे ही कार्यात्मक लिङ्ग बनकर कारणभूत यथार्थत्व स्वरूप प्रामाण्य का अनुमान करा सकते हैं, जैसे कार्यधूम से कारण वह्नि का अनुमान" तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि यहां जो संवेदन रूप लिङ्ग लिया गया, उस पर सवाल यह है कि यह संवेदन (1) क्या यथार्थत्व विशिष्ट होकर ही अनुमिति रूप निश्चय में प्रवृत्त होगा? या (2) यथार्थत्व विशेषण विना ही अनुमापक होगा? तात्पर्य, क्या यथार्थ ही संवेदन प्रामाण्य का निश्चायक है ? या जैसा तैसा भी संवेदन प्रामाण्यानुमापक है ? ( प्रथमपक्षे )....पहले पक्ष में हेतु ने जो 'यथार्थत्व' विशेषण ग्रहण किया, अर्थात् यथार्थ संवेदन ही हेतु बना, इसमें प्रमाण बताना चाहिए। किस प्रमाण से आप कहते हैं, कि हेतु 'संवेदन' यथार्थ ही है, अयथार्थ नहीं ? यह प्रमाण संभवित नहीं हैं, वयोंकि इसमें अन्त में अनवस्था आती है, यह पहले व हा जा चुका है। अगर ऐसा कहें-यथार्थत्व विशेषण विना ही तत्संवेदन स्वरूप फल (कार्य) यह हेतु बन कर कारणभूत विज्ञान के प्रामाण्य का प्रतिपादक यानी अनुमापक होता है तब तो यह आया कि शायद वह संवेदन मिथ्याज्ञान भी हो सकता है, फिर भी उससे इस तरह प्रामाण्य का प्रतिपादन माना जायगा तो किसी भी मिथ्याज्ञान के अयथार्थ फल से उसके जनक पूर्व मिथ्याज्ञान में भी प्रामाण्य का निश्चय हो सकेगा। इस प्रकार 'हेतु यथार्थत्वविशेषण विना ही हेतु बनकर प्रामाण्य का निश्चायक है' इस दूसरे पक्ष में अतिप्रसंग की आपत्ति है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यथार्थत्वविशिष्टस्यैव तस्य संवित्तिः। न हि नीलसंवेदनादन्या यथार्थत्वसंवित्तिः-यद्येवम्, शुक्तिकायां रजतज्ञानेऽपि अर्थसंवेदनस्वभावत्वाद्यथार्थत्वप्रसक्तिः। स्मृतिप्रमोषादयस्तु निषेत्स्यन्ते इति नानुमानादपि तत्प्रामाण्यनिश्चयः। यहाँ यह बचाव कर सकते हैं कि-पहले दो फल जो कहे गए, एक अर्थसंवेदन व दूसरा अर्थ प्रकटता यानी अर्थनिष्ट ज्ञातता वे दोनों अनुभव से निश्चित होते हैं, तो जैसे उनका पूर्वोक्त स्वरूप अर्थात् संवेदनरूपत्वादि स्वरूप स्वतः निश्चित होता है, उस प्रकार उसका यथार्थत्व-स्वरूप भी स्वत: निश्चित हो जाता है। जिस प्रकार बाह्य नील का संवेदन जब भी होता है तभी नील संवेदन रूप से ही संवेदन होता है अर्थात् 'इदं नील-यह नील है' ऐसे अनुभव के अन्तर्गत ही 'इदं नीलं पश्यामिमैं इस नील को देख रहा हूँ'-यह अनुभव शामिल है ठीक उसी प्रकार नील संवेदन का अनुभव यथार्थत्व विशिष्ट ही होता है अर्थात् ऐसा अनुभव होता है कि 'इदं नीलं प्रमिणोमि मैं इस नील को ठीक ही देख रहा हं !' फलतः ऐसे स्वत: निश्चित प्रामाण्य वाले संवेदन से ही विज्ञान-प्रामाण्य का अनुमान होता है। __ (न हि नीलसंवेदनादन्या....) प्र०-नील संवेदन भले ही स्वतः संवेद्य होने से उसके होते ही उसका संवेदन हुआ किन्तु तद्गत यथार्थत्व का संवेदन कैसे हुआ ? उ०-जैसे नील संवेदन का संवेदन नीलसंवेदन से कोई भिन्न नहीं, इस प्रकार यथार्थ नीलसंवेदन के यथार्थत्व का संवेदन भी नील संवेदन से कोई भिन्न संवेदन नहीं है। अत: नील संवेदन जो संवेद्य हुआ वह यथार्थ रूप में ही संवेद्य हुआ यह कह सकते हैं / इस प्रकार निर्विशेषण अर्थात् यथार्थत्व विशेषण रहित अर्थ संवेदन स्वरूप फल यह अनुमिति में हेतु बनकर विज्ञान के प्रामाण्य का अनुमापक हो सकता है। अब यहाँ इस बचाव का खण्डन बताते हैं: (यद्यवेम् शुक्तिकायां....) अगर आप इस प्रकार सभी संवेदन को यथार्थत्व विशिष्ट ही मानते हैं, तब तो शुक्तिका (मोती की सीप) को देखकर कदाचित् 'इदं रजतम्-यह रजत है-यह चांदी है' ऐसा जो ज्ञान होता है वह भी अर्थ का संवेदन होने के नाते यथार्थ ही संवेदन होने की आपत्ति आएगी, क्योंकि आप संवेदनमात्र को यथार्थत्व विशिष्ट ही संवेदन मानते हैं। अगर आप कहें-"हां यह यथार्थ ही है, क्योंकि 'इदं यह' इस अंश में तो संवेदन यथार्थ है ही, कारण वस्तु 'यह' यानी पुरोवर्ती है ही, और पूरोवर्ती रूप में देख रहे हैं, और 'रजतम्' इस अंश में पूरोवर्तो के चाकचिक्य-चकचकाट को देखकर रजत का स्मरण हुआ है, और स्मरण में कोई अयथार्थता नहीं। यहाँ आप इतना पूछ सकते हैं प्र०-अगर वह रजत का स्मरण हो तब तो उसमें 'तद् रजतं'='वह चांदी' ऐसा 'तद्=वह' का उल्लेख होना चाहिए, क्योंकि स्मरण में 'तद् वह' का उल्लेख होता ही है, उदाहरणार्थ-बाजार में मिले किसी आदमी को घर पर याद करते हैं तो 'वह आदमी', इस प्रकार 'वह' के उल्लेख के साथ ही याद करते हैं। उ०-आपकी बात सही है किन्तु, यहां इतना विशेष है कि शुक्ति में होने वाले रजत-ज्ञान में 'स्मृति प्रमोष' होता है, अर्थात् स्मरणत्व अंश चुराया जाता है, मतलब, वह ध्यान में नहीं आता। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० 1 प्रामाण्यवाद किं च, प्रत्यक्षानुमानयोः प्रामाण्यनिश्चयनिमित्तत्वेऽभ्युपगम्यमाने स्वतः प्रामाण्यनिश्चयव्याहतिप्रसङ्गः, तन्नान्यनिमित्तोऽपि प्रामाण्यनिश्चयः / यदुक्तम् 'नापि प्रामाण्यं स्वनिश्चयेऽन्यापेक्षं, तयपेक्षमाणं किं कारणगुणानपेक्षते'....इत्यादि[प. 21] तदनभ्युपगमोपालम्भमात्रम् / न ह्यस्मदभ्युपगमः यदुत ज्ञानात प्रामाण्यं विज्ञायते. कारणगरणानां संवादप्रत्ययमन्तरेण ज्ञातमशक्यत्वात् / संवदाप्रत्ययात्तु कारणगुणपरिज्ञानाभ्युपगमे तत एव प्रामाण्यन्निश्चयम्यापि सिद्धत्वात व्यर्थं गुणनिश्चयपरिकल्पनम्; प्रामाण्यनिश्चयोत्तरकालं गुणज्ञानस्य भावात्तनिश्चयस्य प्रामाण्यनिश्चयेऽनुपयोगाच्च / इसलिए वहाँ 'तत् = वह' का उल्लेख नहीं होता है। इस प्रकार शुक्तिका में होने वाला 'इदं रजतं' ज्ञान दोनों अंश में यथार्थ है। ___ अथवा स्मरण में आये रजत की पुरोवर्ती शुक्ति के साथ जो भिन्नता है, जो भेद है, उस भेद का ग्रह यानी ज्ञान नहीं होता है, किन्तु भेदाग्रह रहता है इस लिए याद आये रजत एवं पूरोवर्ती अर्थ एकरूप में ही भासते हैं। . सारांश वहां 'इदं' पदार्थ तो है ही, एवं उससे वहां याद आता हुआ रजत भी जगत् में कहीं है ही, विशेष इतना कि मात्र पूरोवर्ती से उसकी भिन्नता का यानी उसके भेद का ज्ञान नहीं होता है इतना ही, जिससे समान विभक्ति से 'इदं रजतं' यह उल्लेख होता है। फलतः शुक्तिका में होता हुआ 'यह रजत है' यह ज्ञान भी इस प्रकार दोनों अंश में यथार्थ ही है।"-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि [संवेदनमात्र यथार्थ ही-होता है' इस मत का खण्डनः-] ('स्मृतिप्रमोषादयस्तु....) शुक्तिका में रजतभ्रम को यथार्थ सिद्ध करने का यह आपका प्रयास नियुक्तिक व लोकानुभवविरुद्ध है, शुक्तिका में होने वाले रजतज्ञान को लोक तो भ्रम यानी अयथाथ ही मानते हैं / निर्युक्तिक इसलिए कि जो आपने स्मृति-प्रमोष व रजत-भेदाग्रह का उपन्यास किया उनका आगे खण्डन किया जाने वाला है। फलतः वहां रजत स्मरण है ही नहीं, अगर होता तो 'वह रजत' इस रूप में 'वह' के उल्लेख के साथ ही स्मरण का संवेदन होता। अतः वहां अयथार्थ रजतज्ञान ही प्राप्त होने से 'सभी संवेदन यथार्थ व विशिष्ट ही संवेदन होता है' यह आपका प्रतिपादन गलत है। इस प्रकार संवेदन अप्रामाण भी होता है इसलिए संवेदनमात्र से प्रामाण्य का अनुमान नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार अनुमान से भी विज्ञान के प्रमाण्य को सिद्धि नहीं हो सकती। (किञ्च प्रत्यक्षानुमानयो........ ) यह भी एक बात है कि प्रामाण्य के निर्णय में अगर प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाण को निमित्त मानेंगे, तो 'प्रामाण्य का निश्चय स्वतः होता है' इस सिद्धान्त के व्याघात यानी भङ्ग की आपत्ति आएगी, क्योंकि विज्ञान तो उत्पन्न हो गया, वह भी स्वत: संवेद्य, किन्तु उसके प्रामाण्य का निश्चय साथ ही न होने से जब बाद में प्रत्यक्ष या अनुमान से करना है तब वहां प्रामाण्य-निर्णय स्वतः कहां रहा ? और प्रत्यक्ष अनुमान पूर्वोक्तानुसार प्रामाण्य-निश्चय कराने में पंगु है / इस लिए फलित यह होता है कि आप के मत में प्रामाण्य का निश्चय B2 अन्य निमित्त से भी नहीं हो सकता। . (यदुक्तम् नापि प्रामाण्य....) अब जो पहले आपत्ति दी गई थी कि-प्रामाण्य अन्य सापेक्ष भी नहीं है, क्योंकि अगर वह अन्य की अपेक्षा करता है तो....इत्यादि, वह तो जो हम प्रामाण्य ज्ञान को Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नाप्येकदा संवादाद् गुणान् निश्चित्य अन्यदा संवादमन्तरेणापि गुणनिश्चयादेव तत्प्रभवस्य ज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चय इति वक्तु शक्यम् ; अत्यन्तपरोक्षेषु चक्षुरादिषु कालान्तरेऽपि निश्चितप्रामाण्यस्वकार्यदर्शनमन्तरेण गुणानुवृत्तेनिश्चेतुमशक्यत्वात् / न च क्षणक्षयिषु भावेषु गुणानुवृत्तिरेकरूपव सम्भवति, अपरापरसहकारिभेदेन भिन्नरूपत्वात् / कारणगुण सापेक्ष मानते ही नहीं है उनके प्रति व्यर्थ का उपालम्भ है / ('नह्यस्मदभ्युपगमो....') क्योंकि हमारा ऐसा मत नहीं है, कि 'प्रामाण्य-निर्णय विज्ञान के कारणगुण के ज्ञान पर आधारित है। 'कारणगुणज्ञान से प्रामाण्य निर्णीत होता है, यह हमें स्वीकार्य ही नहीं है / यह न मानने का कारण यह है कि विज्ञान के कारण के गुणों का ज्ञान इतना सहज सरल नहीं है कि वह ऐसे ही हो जाए। इसके लिये तो संवादक ज्ञान की ओर देखना पडता है, संवादक ज्ञान के बिना कारण के गुण जानना शक्य नहीं है / इसका कारण स्पष्ट है-प्रत्यक्ष-विज्ञान का कारण है इन्द्रिय और इन्द्रियों के गुण अतीन्द्रिय होते हैं, प्रत्यक्ष दृश्य नहीं / अतः वे तो तभी ज्ञात होते हैं कि जब संवादक ज्ञान हो / उदाहरणार्थ चक्षु से दूर रजत को देखा, बाद में निकट गए, वह हाथ में लिया और वह ठीक रजत ही मालुम पड़ा, यह संवादक ज्ञान हुआ / इससे अनुमान करेंगे कि हमारी चक्षु गुणयुक्त यानी निर्मल हैं वास्ते ठीक रजत को देखा / इस प्रकार चक्षु का निर्मलता गुण संवादक ज्ञान से प्रतीत हुआ। (संवादप्रत्ययात्तु") अब अगर कारण गुणों का ज्ञान संवादक ज्ञान से होना मान लें, तब तो यह आया कि संवादक ज्ञान से कारणगुणज्ञान हुआ व कारणगुण-ज्ञान से प्रामाण्य का निर्णय मानना हुआ। ऐसा मानने की अपेक्षा तो यही मानना उचित है कि प्रामाण्य.का निश्चय संवादक ज्ञान से ही सिद्ध होता है। बीच में कारणगुण के निश्चय की कल्पना करना व्यर्थ है। जब कारणगुण ज्ञान के लिये संवादक ज्ञान तक तो जाना ही पड़ता है, तो वहीं संवादक ज्ञान प्रामाण्य का निर्णय करा देगा फिर व्यर्थं कारणगुणों का ज्ञान क्यों करना ? ('प्रामाण्यनिश्चयोत्तरकालं....) अगर आप का आग्रह है कि संवादक ज्ञान से कारण गुणों का ज्ञान होता ही है, तब तो यह समझ लें कि उसका कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि संवादक ज्ञान होते ही प्रामाण्य का निश्चय तो हो ही गया, अब इसके बाद कारणगुणों का ज्ञान होगा तो प्रामाण्यनिश्चय के पश्चाद् उत्पन्न होने वाले ऐसे कारणगुणों के ज्ञान का, प्रामाण्यनिश्चय करने में कोई उपयोग न रहा। [ एक बार गुणों का निर्णय सर्वदा उपयोगी नहीं होता] ( 'नाप्येकदा संवाद....) यहां आप कह सकते हैं कि-'कारण गुण ज्ञान का उपयोग इस प्रकार है,-एकबार संवादक ज्ञान से चक्षुनैर्मल्यादि कारणगुणों का निश्चय कर लिया, तो इससे पता चला कि कारणभूत हमारी चक्षु गुणयुक्त यानी निर्मल है / अब बाद में दूसरी बार जब किसी वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान करेंगे वहां वह कारण गुण निश्चय ही प्रामाण्य का निश्चय करा देगा, वहां प्रामाण्यनिश्चय के किसी संवादक ज्ञान की कोई अपेक्षा नहीं रहेगी।'-किन्तु ( अत्यन्तपरोक्षेषु.... ) यह आपका कथन विचारपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि नेत्रादि इन्द्रिय अत्यन्त परोक्ष है, अतीन्द्रिय हैं, तब उनमें एक नैर्मल्यादि गुण का निर्णय कर भी लिया, तब भी कालान्तर में उन गुणों की अनुवृत्ति चलती ही रहेगी-यह निश्चय कैसे कर सकते हैं ? अतीन्द्रिय गुणों का निर्णय प्रत्यक्ष रूप से तो होता नहीं, अतः जब भी वह कारणगुण Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1 प्रामाण्यवाद 65 संवादप्रत्ययाच्चार्थक्रियाज्ञानलक्षणात् प्रामाण्यनिश्चयोऽभ्युपगम्यत एव, “प्रमारणमविसंवादिज्ञानम्" [प्र.वा.१-३] इति प्रमाणलक्षणाभिधानात् / न च संवादित्वलक्षणं प्रामाण्यं स्वत एव ज्ञायत इति शक्यमभिधातुम् / यतः संवादित्वं संवादप्रत्ययजननशक्तिः प्रमाणस्य, न च कार्यदर्शनमन्तरेण कारणशक्तिनिश्चेतु शक्या। यदाह-'नह्यप्रत्यक्षे कार्ये कारणभावगतिः' इति / तस्मादुत्तरसंवादप्रत्ययात पूर्वस्य प्रामाण्यं व्यवस्थाप्यते / न च संवादप्रत्ययाव पूर्वस्य प्रामाण्यावगमे संवादप्रत्ययस्यापरसंवादात् प्रामाण्यावगम इत्यनवस्थाप्रसङ्गात् प्रामाण्यावगमाभाव इति वक्तु युक्तं, संवादप्रत्ययस्य संवादरूपत्वेनापरसंवादापेक्षाभावतोऽनवस्थानवतारात् / का निर्णय करना होगा तब प्रामाण्य निर्णयात्मक उनके कार्य के दर्शन के बिना वह होगा ही नहीं, प्रामाण्य निश्चय स्वरूप उनका कार्य देखकर के ही अनुमान से कारणगुण निर्णय करना होगा / फलतः पहले कारणगुण निर्णय का कोई उपयोग रहा नहीं यह सिद्ध होता है / तथा हमारे *क्षणिकवाद में तो गुणों की स्थिर अनुवृत्ति बन ही नहीं सकती, क्योंकि जब सभी भाव क्षणक्षयी हैं तब चक्षु आदि के एक बार निश्चय किये गए गण भी क्षणक्षयी होने से दूसरे क्षण में ही नष्ट भ्रष्ट हो गये, नये क्षण में जो गण उत्पन्न होंगे वे उन गणों से सर्वथा भिन्न ही हैं क्योंकि उनके सहकारी आदि कारण सामग्री सर्वथा भिन्न है / अतः पूर्वक्षणवृत्ति गुणों की उत्तरक्षण में अनुवृत्ति होने का कोई संभव ही नहीं है / अतः पूर्व में किये गये कारणों का निर्णय भी उत्तरकाल में उपयोगी नहीं रहा / ___ फलित यह होता है कि प्रामाण्य का निश्चय कारणगुण ज्ञान से नहीं होता। 'प्रामाण्य का निश्चय संवादक ज्ञान से होता है' इस दूसरे पक्ष का तो हम स्वीकार करते हैं। यहां संवादक ज्ञान अर्थक्रियाज्ञान स्वरूप है, अर्थक्रिया का तात्पर्य है पदार्थजननक्रिया, पदार्थोत्पत्ति-कार्योत्पत्ति / प्रस्तुत में, विज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् जो उसकी अर्थक्रिया का संवेदन होता है यह है विज्ञान की 'अर्थ क्रिया का ज्ञान, विज्ञान के कार्य की जो उत्पत्ति, उसका ज्ञान है संवादक प्रतीति / क्योंकि उससे विज्ञान के विषय का संवाद मिलता है / और इस अर्थक्रियाज्ञान स्वरूप संवादक प्रतीति से प्रामाण्य का निश्चय होना हम मानते हैं / प्रमाण का लक्षण भी यही कहा गया है कि "जो अ-विसंवादी ज्ञान है वह प्रमाण होता है मतलब जिसमें विसंवाद नहीं, संवाद मिलता है वह प्रमाण है। इस लक्षण के अनुसार विज्ञान यह प्रमाण इसलिए है कि बाद में उसकी संवादक प्रतीति मिलती है। और जो संवादि संवेदन मिला इसीसे प्रामाण्य निश्चित हो गया अतः यह परतः प्रामाण्य निर्णय हुआ। ... (न च संवादित्वलक्षणम्) यदि यह कहा जाय कि 'संवादित्व स्वरूप ही प्रामाण्य है और वह स्वतः ही ज्ञात होता है, क्योंकि संवादित्व यह संवाद सापेक्ष है एवम् विज्ञान स्वतःसंवेद्य होने से विज्ञानसंवेदन रूप संवाद भी स्वतः हुआ तो तत्स्वरूप प्रामाण्य भी स्वतःसंवेद्य हुआ ही न ?'-इस प्रकार कहना ठीक नहीं, क्योंकि प्रमाणविज्ञान का प्रामाण्य आप संवादित्वरूप बता रहे हैं और संवादित्व क्या है ? प्रमाण ज्ञान में जो संवाद उत्पन्न करने की शक्ति है अर्थात् संवादजननशक्ति यही संवादित्व है / प्रमाण में रही हुई यह शक्ति उसके कार्य संवाद को देखे बिना 'वह प्रमाण में है' यह कैसे जान सकते हैं ? कारण में रही हुई कार्यशक्ति तभी जानी जाती है कि जब बाद में उसका कार्य * यह ध्यान में रहे कि व्याख्याकार स्वतः प्रामाण्यवाद का खण्डन बौद्ध के मुह से करवा रहे हैं-यह अंत में सष्ट कर देंगे। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च प्रथमस्यापि संवादापेक्षा मा भूदिति वक्तव्यम् , यतस्तस्य संवादजनकत्वमेव प्रामाण्यम् , तदभावे तस्य तदेव न स्यात / अर्थक्रियाज्ञानं तु साक्षादविसंवादि, अर्थक्रियालम्बनत्वात् , तस्य स्वविषये संवेदनमेव प्रामाण्यम् / तच्च स्वतःसिद्धमिति नान्यापेक्षा। तेन 'कस्यचित्तु यदीष्येत' [पृ. 26 ] इत्यादि परस्य प्रलापमात्रम् / देखा जाता है / ऐसा कहा भी है कि-'न हि अप्रत्यक्ष कार्ये कारणभावगति:, अर्थात् जब तक कार्य प्रत्यक्ष नहीं होता है तब तक कारण में कारणता का ज्ञान नहीं होता। इसलिये मानना होगा कि प्रमाण में संवादजनन शक्ति जानने के पहले संवाद रूप कार्य को देखना होगा, बाद में उस शक्ति का एवं तत्स्वरूप प्रामाण्य का ज्ञान होगा। इसके उपर अगर यह कहें-'हाँ ! आप संवाद से प्रामाण्य का ज्ञान कर लेंगे, किन्तु यह ज्ञातव्य है कि वह संवाद भी प्रमाणभूत ही उपयुक्त होगा और इसका प्रामाण्य इसमें ही हई तत्संवादजननशक्ति रूप है. वह भी उसके कार्य के संवाद दर्शन विना नहीं हो सकता। अगर संवाद की संवादजननशक्ति को ज्ञात करने के लिये उसके संवादरूप कार्य के दर्शन तक जायगे, तब तो इस प्रकार अनवस्था दोष की आपत्ति आयेगी, और इससे फलित यह हआ कि प्रामाण्य का ज्ञान ही नहीं हो सकेगा।'-इस प्रकार कहना ठीक नहीं है क्योंकि (संवादप्रत्ययस्य....) संवादक ज्ञान स्वयं संवाद स्वरूप होने से उसका प्रामाण्य निश्चित करने के लिये दूसरे संवादी ज्ञान की कोई अपेक्षा नहीं रहती, इसलिए यहां अनवस्था दोष की आपत्ति का अवतार ही नहीं है / इस पर आप पूछ सकते हैं [संवाद का प्रामाण्यवोध स्वतः मानने में कोई दोष नहीं है ] प्र०-तब तो पहले विज्ञान को भी संवाद की अपेक्षा मत हो, वह भी संवादक ज्ञान के समान स्वतः ही प्रमाणभूत होगा, एवं इसका प्रामाण्य स्वतः ही निर्णीत हो जायेगा। उ०-यह नहीं कह सकते, क्योंकि हम कह आये हैं कि विज्ञान का प्रामाण्य क्या है ? संवादजननशक्ति अर्थात् संवादजनकत्व यही उसका प्रामाण्य है। अगर उसमें भ्रांतिरूप होने से संवादजनकत्व नहीं है तब तो उसमें प्रामाण्य ही नहीं हो सकता, यह तो मूल ज्ञान की स्थिति है / अब संवाद को देखें तो समझा जाता है कि संवाद अर्थक्रियाज्ञान स्वरूप है, उदाहरणार्थ रास्ते पर दूर में देखा, बाद में वहाँ जा कर उसको हाथ में लिया तो ठीक रजत ही मालुम पड़ा, तो यह रजत ज्ञान संवादरूप हुआ, वही प्रथम प्रमाण ज्ञान से उत्पन्न होने के नाते उसका अर्थक्रिया ज्ञान है, और इस संवादज्ञान ज्ञान तो साक्षात् अविसंवादी है क्योंकि वह तो अर्थक्रियास्वरूप रजतप्राप्ति के आलंबन से उत्पन्न हुआ है इसलिये अब इसमें 'यह रजत ज्ञान प्रमाण होगा या नहीं ?' इस शंका को कोई अवसर ही नहीं है। सारांश संवादज्ञान स्वत प्रमाण है, उसका अपने विषय का संवेदन वही अपना प्रामाण्य है और संवाद का यह प्रामाण्य स्वतः सिद्ध है। उसमें और किसी की अपेक्षा नहीं है। (तेन कस्यचित्तु यदीष्येत....) इससे जो पहेले कहा गया था कि 'कस्यचित्तु यदीष्येत' इत्यादि, यह तो परवादी का प्रलाप मात्र है क्योंकि विज्ञान का प्रामाण्य संवादक ज्ञान से निश्चित होता है और संवादक ज्ञान यानी अर्थक्रिया ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः ज्ञात है। इस पर परवादी कह - सकता है कि Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद 67 न चार्थक्रियाज्ञानस्याप्यवस्तुवृत्तिशंकायामन्यप्रमाणापेक्षयाऽनवस्थाऽवतार इति वक्तव्यम्, अर्थनियाज्ञानस्यार्थक्रियानुभवस्वभावत्वेनार्थक्रियामात्राणिनां भिन्नार्थक्रियात एतज्ज्ञानमुत्पन्नम्, उत तद्वयतिरेकेणेत्येवंभूतायाश्चिन्ताया निष्प्रयोजनत्वात् / तथा हि-यथार्थक्रिया किमवयवव्यतिरिक्तेनावयविनाऽर्थेन निष्पादिता, उताऽव्यतिरिक्तेन, पाहोस्विदुभयरूपेण, अथानुभयरूपेण, किं वा त्रिगुणात्मकेन, परमाणुसमूहात्मकेन वा, अथ ज्ञानरूपेण, आहोस्वित्संवृतिरूपेणेत्यादिचिन्ताऽर्थक्रियामात्राणिनां निष्प्रयोजना, निष्पन्नत्वाद्वाञ्छितफलस्य; तथेयमपि कि वस्तुसत्यामर्थक्रियायां तत्संवेदनज्ञानमुपजायते, आहोस्विदवस्तुसत्यामिति / तृड्दाहविच्छेदादिकं हि फलमभिवाच्छितम् , तच्चाभिनिष्पन्न, तद्वियोगज्ञानस्य स्वसंविदितस्योदये इति तच्चिन्ताया निष्फलत्वम् , अवस्तुनि ज्ञानद्वयाऽसम्भवात् च / --- प्र०-ऐसी शंका क्यों न हो कि अर्थक्रिया ज्ञान ही शायद असद् वस्तु का हुआ है, अब इस शंका के निवारण के लिए अन्य संवादक प्रमाण की अपेक्षा रहेगी, एवं इस प्रकार क्या अनवस्था का अवतार सुलभ नहीं? उ०:-ऐसा मत कहिये, क्योंकि अर्थक्रिया ज्ञान यह अर्थक्रिया अर्थात् कार्य का अनुभवस्वरूप है और जो पुरुष अर्थक्रिया मात्र का अर्थी है उसको 'यह ज्ञान किसी भिन्नअर्थक्रिया से उत्पन्न हुआ या अभिन्न अर्थक्रिया से हुआ' इस प्रकार की चिन्ता करना निष्प्रयोजन है-फिजुल है / उदाहरणार्थ, जलार्थी मनुष्य को दूर से 'यह जल है ऐसा लगता है' इस प्रकार ज्ञान हआ। अब वह पास में जाकर जल हाथ में लेता है तो उसे जल प्राप्ति रूप अर्थक्रिया का ज्ञान होता है / अब क्या वहाँ वह चिन्ता करेगा कि 'यह जो अब जलप्राप्ति स्वरूप अर्थक्रिया का ज्ञान हो रहा है यह सचमुच जल का ज्ञान है ? या किसी जल भिन्न पदार्थ का ज्ञान है ?' नहीं, ऐसी चिन्ता-शंका करने का कोई प्रयोजन नहीं, जब जल हाथ में ही आ गया / इसलिए मानना होगा कि अर्थक्रिया ज्ञान स्वानुभव स्वरूप होने से स्वतः प्रमाण रूप से ही प्रतीत होता है किन्तु इसमें 'यह मिथ्याज्ञान है या सत्य-यथार्थ ज्ञान है। ऐसी शंका को कोई अवसर ही नहीं जिससे पुनः उसके संवादक ज्ञान की अपेक्षा एवं तदनुसारी अनवस्था की आपत्ति हो। [ अर्थक्रिया के ऊपर शंका-कुशंका अनुपयोगी ] अर्थक्रिया ज्ञान स्वानुभवरूप होने से उसकी यथार्थता स्वसंविदित ही है ऐसा अगर नहीं मानेंगे तो कई प्रकार की फिजुल चिन्ता-शंका उपस्थित हो सकती है / उदाहरणार्थ (तथाहि-यथार्थक्रिया किमवयव.... ) जैसे कि यह अर्थक्रिया स्वरूप जलप्राप्ति जो हुई वह क्या अवयव जल से भिन्न किसी अवयवी से निष्पन्न हुई या सचमुच अवयवों से अभिन्न अवयवी जल से निष्पन्न जल प्राप्ति हुई अथवा अवयव-अवयवी उभयरूप जल से निष्पन्न हुई ? या दोनों से भिन्न अनुभय रूप किसी पदार्थ से निष्पन्न हुई ? अथवा जल-जलेतर कोई पदार्थ नहीं किन्तु वया सत्त्व-रजस्-तम इस त्रिगुणात्मक किसी पदार्थ से हुई ? या अलग जल अवयवी जैसा कोई पदार्थ नहीं किन्तु क्या परमाणु समूहात्मक जल से निष्पन्न जल प्राप्ति है ? अथवा बाह्य कोई पदार्थ ही सत् नहीं किन्तु क्या ज्ञानस्वरूप जल से निष्पन्न जलप्राप्ति रूप अथक्रिया है ? या आन्तर विज्ञान भी कोई Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यत्र हि साधनज्ञानपूर्वकमर्थक्रियाज्ञानमुत्पद्यते तत्राऽवस्तुशंका नैवाऽस्ति / न ह्यनग्नावग्निज्ञाने संजाते प्रवृत्तस्य दाहपाकाद्यर्थक्रियाज्ञान ज्ञानमर्थ क्रियाऽभावेऽपि दृष्टमिति जाग्रदर्थक्रियाज्ञानमपि तथाऽऽशंकाविषयः / तस्य तद्विपरीतत्वात् / तथाहि, स्वप्नार्थक्रियाज्ञानम् अप्रवृत्तिपूर्व व्याकुलमस्थिरं च, तद्विपरीतं तज्जाग्रद्दशाभावि, कुतस्तेन व्यभिचारः! नाप्रसिद्धमेतत् / न च स्वप्नार्थक्रिया पारमार्थिक सत् पदार्थ नहीं किन्तु क्या संवृति स्वरूप आभास-ज्ञान मात्र से अर्थक्रिया यानी जल प्राप्ति निष्पन्न हुई ? किन्तु इन प्रकार की चिन्ताओं का अर्थक्रिया के अर्थात् जल प्राप्ति आदि के अर्थी को कोई प्रयोजन नहीं होता / प्रयोजन न होने का कारण यह है कि उसके वाञ्छित फल सिद्ध हो गया है, जल प्राप्ति हो गई है। (तथयेमपि किं वस्तु०.... ) जिस प्रकार जलार्थी को जलज्ञान के अनन्तर जलप्राप्ति स्वरूप अर्थक्रिया से निस्बत है और किसी शंका-कुशंका से नहीं, इस प्रकार यहां भी विज्ञान के बाद जो अर्थक्रिया का संवेदन होता है इसमें भी क्या वह अर्थक्रिया सचमुच वस्तुसत् यानी वास्तविक होने पर उसका संवेदन हुआ ? या उससे भिन्न अर्थात् अवस्तुभूत होने पर संवेदन हुआ ? ऐसी शंका नहीं होती है। (तृड्दाहविच्छेदादि.... ) देखिये, जलार्थी जल के पास जलपान करके तृप्त हुआ तब उसकी तृषा छिप गई, इष्ट-वाँछित जो था वह सिद्ध हो गया, तब उसको तृषाशान्ति का संवेदन स्वानुभवं सिद्ध है / अब क्या वह चिन्ता करेगा कि यह तृषा शान्ति रूप अर्थत्रिया का ज्ञान सद्वस्तु में हुआ है या असद् वस्तु में ? नहीं, इस चिन्ता का कोई फल नहीं। प्र०-जहां शंका होती है वहां भाव-अभाव दोनों का ज्ञान होने से उसे निश्चय तो करना पडता है कि क्या वह ज्ञान वस्तु में हुआ है या अवस्तु में ? उ०-( अवस्तुनि ज्ञानद्वया.... ) अर्थक्रिया यह अगर सही पदार्थ न होती अर्थात् अवस्तु यानी मिथ्या वस्तु ही होती तो उसमें प्रमाण-अप्रमाण दोनों प्रकार का ज्ञान नहीं हो सकता / जल प्राप्ति व इससे तृषाशान्ति हो गई तब वहां कौन चिन्ता करने बैटता है कि यह ज्ञान सचमुच जल प्राप्ति व तृषा शान्ति में हुआ या किसी मिथ्या वस्तु में हुआ ? 'अवस्तुनि ज्ञानद्वयाऽसंभवात्' ! अर्थात् जो वस्तु आकाशकुसुमवत् मिथ्या है -असत् है-अलीक है उसके विषय में दो प्रकार का ज्ञान यानी विधि-निषध उभय कोटि का संशयात्मक ज्ञान नहीं हो सकता, जैसे कि यहां आकाशकुसुम है या नहीं ? अथवा यह आकाशकुसुम है या नहीं ? इस प्रकार का संदेह नहीं हो सकता। वैसे ही अर्थक्रिया अगर असत् ही है तो उसके विषय में यह शंका नहीं हो सकती कि 'वह है या नहीं !' प्र०-भले वैसी शंका नहीं, किन्तु अर्थक्रिया स्वयं वस्तुसत् है या असत् ? ऐसी शंका तो हो सकती है न ? उ०-नहीं, जहां अर्थक्रिया ज्ञान साधनज्ञान पूर्वक ही होता है वहां अवस्तु की.शंका कदापि नहीं होती / उदाहरणार्थ-दूर से हमें अग्नि का ज्ञान हुआ 'वह ज्ञान प्रमाण है या अप्रमाण' यह शंका हो Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद यदि चार्थक्रियाज्ञानमप्यर्थमन्तरेण जाग्रदृशायां भवेत , कतरदन्यज्ञानमर्थाऽव्यभिचारि स्याद् यद्वलेनार्थव्यवस्था क्रियेत ? परतः प्रामाण्यवादिनो बौद्धस्य प्रतिकलमाचरामीत्यभिप्रायवता तस्यानुकूलमेवाचरितम् / स हि 'निरालम्बनाः सर्वे प्रत्ययाः, प्रत्ययत्वात् स्वप्नप्रत्ययवत्' इत्यभ्युपगच्छत्येव, भवता तु जाग्रदृशा-स्वप्नदशयोरभेदं प्रतिपादयता तत्साहाय्यमेवाचरितम् , न हि तद्व्यतिरिक्तः सकती है, किन्तु बाद में हम पास गए व दाह-पाकादि देख कर- यह दाह-पाकादि विशिष्ट वस्तु अग्नि ही है ऐसा अर्थक्रिया ज्ञान हुआ, वहां अब शंका नहीं होगी कि शायद यह अग्नि है या अनग्नि ? क्योंकि यहां दाह-पाकादि का निर्णय उसके साधनभूत अग्निज्ञान पूर्वक हुआ है / अगर साधन ज्ञान पूर्वक अर्थक्रिया ज्ञान होते हुए भी शंका हो सकती कि यह अग्नि है या नहीं? तब तो फलित यह होगा कि शायद अनग्नि से भी दाह-पाकादि हो सके / किन्तु ऐसा कभी देखा नहीं कि अनग्नि को अग्नि समझ कर उसमें कोई प्रवृत्त हुआ तो उसको दाह-पाकादि अर्थक्रिया का ज्ञान होता हो ! यह बात एक ग्रामीण अनपढ गोवालन तक सुविदित है कि अनग्नि से कभी दाह-पाकादि होता नहीं है। प्र०-( न च स्वप्नार्थक्रिया.... ) अगर अर्थक्रिया अवस्तुभूत होने पर अर्थक्रिया ज्ञान नहीं ही होता हो तब स्वप्न में अर्थक्रिया न होने पर भी क्यों अर्थक्रिया ज्ञान दिखाई पडता है ? वैसे ही जाग्रत् अवस्था में भी अर्थक्रिया के अभाव में भी अर्थक्रिया ज्ञान संभवित क्यों नहीं ? उ०-( तस्य तद्विपरीतत्वात्.... ) जाग्रत् अवस्था का अर्थक्रिया ज्ञान स्वप्नावस्था के अर्थक्रिया ज्ञान से विपरीत है / यह इस प्रकार, स्वप्न में होने वाला अर्थक्रिया ज्ञान (1) प्रवृत्ति पूर्वक नहीं होता है एवं (2) व्याकुल होता है, और (3) अस्थिर होता है; जब कि जाग्रद् दशा का अर्थक्रियाज्ञान इससे विपरीत अर्थात् प्रवृत्ति पूर्वक अव्याकुल व स्थिर होता है। उदाहरणार्थ, स्वप्न में मोदक देखा, मोदकार्थी बन कर मोदक खाया व तृप्ति हुई, इस सब स्वाप्निक अर्थक्रिया ज्ञान में (1) सचमुच प्रवृत्ति कहां हुई है ? स्वप्न वाला पुरुष तो वैसे ही निद्रा में निश्चेष्ट पडा है। मोदक के प्रति सचमच उसकी जाने की प्रवृत्ति. सचमच मोदक ग्रहण की एवं सचमुच भक्षण की कोई प्रवति है ही नहीं। अभी स्वप्न में तृप्ति तक की अर्थक्रिया का ज्ञान प्रवृत्ति पूर्वक नहीं हुआ है, (2) यह स्वाप्निक मोदकज्ञान व्याकुलज्ञान है, स्वस्थ चित का ज्ञान नहीं ? इसलिए तो दो मोदक खाने की शक्तिवाला पुरुष स्वप्न में कभी 20-20 मोदक खा लेने का देखता है। (3) स्वाप्निक मोदकतृप्ति का अर्थक्रियाज्ञान अस्थिर होता है, जागने के बाद वह तप्ति गायब हो जाती है और पुरुष भूखा ही ऊठता है / इनसे विपरीत, जाग्रद्दशा का अर्थक्रिया ज्ञान, जैसे कि मोदकतृप्तिज्ञान, प्रवृत्तिपूर्वक होता है, अव्याकुल यानी स्वस्थ चित्त का होता है एवं स्थिर होता है, तृप्ति कई समय तक बनी रहती है। ( कुतस्तेन व्यभिचार.... ) इसलिए स्वप्न में जब सचमुच तृप्ति का ज्ञान ही नहीं, सचमुच अर्थक्रियाज्ञान ही नहीं, तब इसके दृष्टान्त से जाग्रद् दशा के अर्थक्रियाज्ञान में व्यभिचार कैसे लगा सकते हैं, कि बिना अर्थक्रिया ही अर्थक्रियाज्ञान होता है ? (यदि चार्थक्रियाज्ञान०....) अजाग्रद् दशा में अगर अर्थक्रिया के बिना भी अर्थक्रियाज्ञान होता हो ( जैसे कि जलपान बिना भी तृषा शान्ति, अग्नि प्रवृति बिना भी दाहपाकादि होता हो) तब ऐसा कौन सा ज्ञान होगा जो अर्थ का व्यभिचारी न हो। सब ज्ञान में अर्थव्यभिचार की शंका हो सकती है तब ऐसा कौनसा अर्थ का अव्यभिचारी प्रमाणात्मक ज्ञान होगा कि जिस के बल पर प्रमेय अर्थ की व्यवस्था कर सकेंगे ? Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 प्रत्ययोऽस्ति यस्यार्थसंसर्गः। न चावस्थाद्वयतुल्यताप्रतिपादनं त्वया क्रियमाणं प्रकृतोपयोगि / तथाहिसांव्यावहारिकस्य प्रमाणस्य लक्षणमिदमभिधीयते 'प्रमाणमविसंवादिज्ञानं' इति / तच्च सांव्यवहारिक जाग्रहशाज्ञानमेव, तत्रैव सर्वव्यवहाराणां लोके परमार्थतः सिद्धत्वात् / स्वाप्नप्रत्ययानां तु निविषयतया लोके प्रसिद्धानां प्रमाणतया व्यवहाराभावात् किं स्वतः प्रामाण्यमुत परत इति चिन्तायाः अनवसरत्वात् / तच्च जाग्रज्ज्ञाने द्वितीयदर्शनात कि प्रमाणं किं वाऽप्रमाणम् ? तथा कि स्वतः प्रमाणं किं वा परतः ? इति चिन्तायाः पूर्वोक्तलक्षणे 'जाग्रत्प्रत्ययत्वे सती'ति विशेषणाभिधाने स्वप्नप्रत्ययेन व्यभिचारचोदनप्रस्तावानभिज्ञतां परस्य सूचयति / फलतः कोई भी ज्ञान अर्थ का निश्चित अव्यभिचारी न होने से अर्थ की व्यवस्था ही न हो सकने से अर्थमात्र का लोप हो जाएगा। इस प्रकार परतः प्रामाण्यवादी बौद्ध के प्रति प्रतिकूल आचरण अर्थात् स्वतः प्रामाण्य का समर्थन करने का अभिप्राय रखने वाले आप के द्वारा बौद्धं के अनुकूल . ही आचरण कर दिया गया। यह इस प्रकार, ( स हि निरालम्बना.... ) आपने अर्थ व्यवस्था लप्त कर दी तो बौद्ध भी यही मानता है कि बाह्य अर्थ जैसा कुछ है ही नहीं; क्यों कि यह अनुमान होता है कि 'सर्वे प्रत्ययाः निरालम्बनाः, प्रत्ययत्वात् स्वप्नप्रत्ययवत् = अर्थात् जैसे स्वप्न ज्ञान बाह्यार्थ बिना ही निरालंबन होता है वैसे ही सभी ज्ञान निरालम्बन, बाह्य किसी विषय के बिना ही होते हैं, क्यों कि वे ज्ञानस्वरूप है।' ( भवता तु जाग्रद्दशा........ ) आपने स्वप्न दशा में अर्थव्यभिचारी ज्ञान का दृष्टान्त लेकर : जाग्रत् दशा के अर्थक्रिया ज्ञान भी अर्थव्यभिचारी होने की शंका ऊठा कर अर्थक्रिया ज्ञान की दृष्टि से जाग्रद् दशा व स्वप्न दशा में अभेद बता कर बाह्यार्थमात्र के विलोपक बौद्ध को सहायता ही कर दी। ( न हि तद्व्यतिरिक्तः प्रत्ययो.... ) आप यह नहीं कह सकते कि 'हम जिस अर्थक्रियाज्ञान में अप्रामाण्य शंका की संभावना करते हैं वह विलक्षण है क्योंकि जाग्रद् दशा स्वप्न दशा के अर्थक्रिया कोई ऐसा अलग विलक्षण ज्ञान ही नहीं हो सकता जिसमें अर्थसंसर्ग हो। एवं आपके द्वारा जाग्रदशा व स्वप्न दशा इन दोनों अवस्थाओं की अर्थव्यभिचारी ज्ञान से तुल्यता बताने का प्रयत्न प्रस्तुत में उपयुक्त भी नहीं है / क्योंकि प्रस्तुत है अर्थक्रियाज्ञान के प्रमाण्य में स्वतः या परत: संवेद्यता का निर्णय / इसमें दोनों अवस्थाओं की तुल्यता बताने का क्या उपयोग है ? ( तथा हि सांव्यावहारिकस्य ) यह इस प्रकार-सांव्यावहारिक प्रमाण का यह लक्षण कहा जाता है कि 'प्रमाणंम् अविसंवादि ज्ञानम्' अर्थात् जिसमें अर्थ के साथ विसंवाद न होता हो ऐसा ज्ञान प्रमाण है, ऐसा सांव्यावहारिक ज्ञान जाग्रत दशा वाला ही ज्ञान होता है। क्योंकि लोक में सब व्यवहार जाग्रतदशा के ज्ञान को लेकर ही वास्तव में प्रसिद्ध है यानी चलते हैं, किन्तु स्वाप्निक ज्ञान को लेकर नहीं, (उदाहरणार्थ-स्वप्न से अपने घर में मोदकों का घड़ा देखकर कोई लोगों को भोजन का निमन्त्रण नहीं देता है ) कारण यह है कि लोग मानते हैं कि स्वप्नअवस्था का ज्ञान सद्विषय शून्य होने के कारण वह प्रमाणभूत है ऐसा व्यवहार नहीं होता है। और इसीलिए स्वाप्निक ज्ञान में 'यह स्वत: प्रमाण है या परत: प्रमाण है ?' ऐसी चिन्ता का कोई अवसर ही नहीं है / तब जाग्रत दशा को अर्थक्रिया ज्ञान में यह स्वतः प्रमाण नहीं, परत: प्रमाण है, यह स्वाप्निक ज्ञान की तुलना से कैसे कह सकते ? Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद 71 अपि च, अर्थक्रियाधिगतिलक्षणफलविशेषहेतुर्ज्ञानं प्रमाणमिति लक्षणे तत्फलं नैव प्रमाणलक्षणानुगतमिति कथं तस्यापि प्रामाण्यमवसीयते इति चोद्यानुपपत्तिः / यथाङ्कुरहेतुर्बीजमिति बीजलक्षणे नाकुरस्यापि बीजरूपताप्रसक्तिस्ततो न विदुषामेवं प्रश्नः-कथमंकुरे बीजरूपता निश्चीयते ? इति / यथा चाङकुरदर्शनाद् बीजस्य बीजरूपता निश्चीयते, तथात्राप्यर्थक्रियाफलदर्शनात्साधनज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चयः / न चार्थक्रियाज्ञानस्याप्यन्यतः प्रामाण्यनिश्चयादनवस्था, अर्थक्रियाज्ञानस्य तद्रूपतया स्वत एव सिद्धत्वात् / तदुक्तं-'स्वरूपस्य स्वतो गतिः' इति / (तच्च जाग्रज्ज्ञाने....इति चिन्तायाः....पूर्वोक्तलक्षणे....सूचयति) जब स्वाप्निक ज्ञान प्रमाणभूत ही नहीं है एवं इसमें स्वतः प्रमाण या परतः प्रमाण इस चिन्ता का कोई अवसर ही नहीं, तब जाग्रदशा के ज्ञान में उसके बाद दूसरे अर्थक्रिया दर्शन होने से यह चिन्ता खड़ी होती है कि तब 'पूर्व ज्ञान प्रमाण है या अप्नमाण ?' 'अगर प्रमाणभूत है तो स्वतः प्रमाण है या परतः प्रमाण' ऐसी चिन्ता होने पर इसका निर्णय करने के लिये हम स्वाप्निक ज्ञान की ओर क्यों देखें ? हम तो पूर्वोक्त लक्षण में जाग्रद् दशापन्न ज्ञानत्व को विशेषणविधया जोड़ देंगे। अर्थात् 'जो जाग्रद् दशापन्न अविसंवादि ज्ञान है वह प्रमाण है' ऐसा लक्षण बनाएंगे, तब इसमें स्वप्न ज्ञान को लेकर व्यभिचार बताना यह परवादी की प्रस्ताव की अनभिज्ञता सूचित करता है / तब सांव्यावहारिक जाग्रद् दशापन्न ज्ञान का प्रकरण प्रस्तुत है वहां स्वाप्निक ज्ञान को ले आना अप्रस्तुत ही है। : और भी बात है कि, 'जब अर्थक्रिया के अधिगम स्वरूप फलविशेष में हेतुभूत ज्ञान प्रमाण है' ऐसा प्रमाण का लक्षण करेंगे तब पहला ज्ञान तो बाद में होने वाले अर्थक्रिया ज्ञान का हेतु होने से प्रमाण लक्षण से लक्षित हआ, किन्तु उसका फल अर्थक्रियाज्ञान प्रमाण लक्षण से लक्षित कहाँ हुआ ? वह तो तब हो कि जब वह हेतु बनकर किसी और अर्थक्रियाज्ञानरूप फल को उत्पन्न करे / जब इसमें प्रमाण का लक्षण नहीं आया तब इसके प्रामाण्य का निर्णय कैसे करेंगे ? यह प्रश्न खडा होगा, किन्तु यह प्रश्न उपपन्न नहीं-युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि• (यथाङकुरहेतु/ज...) जिस प्रकार बीज का लक्षण बनाया कि- अंकुर का हेतु है वह बीज है, तो वहां यह कोई आपत्ति नहीं दी जाती है कि 'अंकुर में भी बीजरूपता हो,' इसलिए विद्वानों के प्रति ऐसा प्रश्न नहीं किया जाता है कि बीज में तो बीजरूपता अंकुर बीज में तो बीजरूपता अंकुरजनन से निश्चित हुई किन्तु अंकुर में बीजरूपता का कैसे निर्णय करेंगे ? ( यथा चाङकुरदर्शनाद्....) कारण यह है कि, जिस प्रकार अंकुर को देखकर उसके हेतुभूत बीज में बीजरूपता निश्चित होती है, किन्तु अंकुर में कोई बीजरूपता का विचार नहीं करता है, ठीक इसी प्रकार यहां भी अर्थक्रिया स्वरूप फल को देख कर उसके साधनभूत पूर्व प्रमाण ज्ञान में प्रमाणरूपता यानी प्रामाण्य निश्चित होता है किन्तु अर्थक्रियाज्ञान में प्रमाणरूपता का विचार नहीं होता है। ( न चार्थक्रियाज्ञान०....) अगर कहें 'अर्थक्रियाज्ञान में प्रामाण्य तो होता ही है तब कोई प्रामाण्य का निश्चय करने को जाय तो अनवस्था होगी', तो यह भी कहना ठीक नहीं क्योंकि अर्थक्रिया ज्ञान प्रमाणज्ञान के फलरूप होने से प्रमाणरूपता उस में स्वतः सिद्ध है। तात्पर्य, उसका प्रामाण्य स्वतः सिद्ध है, प्रामाण्य सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं, जैसे, अंकुर बीज के फलस्वरूप होने से Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च स्वरूपे ज्ञानस्य भ्रान्तयः सम्भवन्ति, स्वरूपाभावे स्वसंवित्तरप्यभेदेनाऽभावप्रसङ्गात् / व्यतिरिक्तविषयमेव हि प्रमाणमधिकृत्योक्त-'प्रमाणमविसंवादिज्ञानं, अर्थक्रियास्थितिरविसंवादनम्'इति तथा 'प्रामाण्यं व्यवहारेणार्थक्रियालक्षणेन' इति च / तस्माद्यत्प्रमाणस्यात्मभूतमर्थक्रियालक्षणपुरुषार्थाभिधानं फलं यदर्थोऽयं प्रेक्षावतां प्रयासः तेन स्वतःसिद्धेन फलान्तरं प्रत्यनङ्गीकृतसाधनान्तरास्मतया 'प्रमारगमविसंवादिज्ञानं' इति प्रमाणलक्षणविरहिणा साधननिर्भासिज्ञानस्यानुत्क्रान्तरूपफलप्रापणशक्तिस्वरूपस्य प्रामाण्याधिगमेऽनवस्थाप्रेरणा क्रियमाणा परस्याऽप्तंगतैव लक्ष्यते। ही स्वतः सिद्ध है, वहां प्रश्न नहीं होता है कि वह कौन से दूसरे अंकुर में हेतु बन कर बीजरूप बनता है? (तदुक्तम्-स्वरूपस्य स्वतो गति....) ऐसा कहा भी है कि ‘स्वरूप में स्वतः गति होती है, उसका स्वतः ज्ञान होता है' उदाहरणार्थ, जल या अग्नि को देखा उसका तो जलत्व अग्नित्व रूप से स्वतः ही ज्ञात होता है, उसके संबन्ध में भ्रान्ति होने की कोई संभावना नहीं, शक्यता नहीं। ___ इसी प्रकार अर्थक्रियाज्ञान का स्वरूप स्वतः ही ज्ञात होता है, उसमें भ्रान्ति का कोई संभव नहीं / स्वरूप में भ्रान्ति का अर्थ यह है कि वस्त में अपना स्वरूप नहीं है, और वस्तु में स्वरूप ही न होने से वस्तु में स्वरूप जो अभेदेन अर्थात् अभिन्नतया भासमान होता है उसका अभेदेन बोध भी नहीं हो सकेगा। व्यतिरिक्तविषयमेव हि प्रमाणं....इत्यादि जो बात कही गई वह अपने से भिन्न पदार्थ विषयक प्रमाण को लेकर ही कही गई है नहीं कि अर्थ शून्य केवल विज्ञानवाद के हिसाब से, क्योंकि उसमें प्रमाणज्ञानोत्तर यथार्थता का संवाद मिलने का कोई अवसर ही नहीं है। जबकि प्रमाण के लक्षण इस प्रकार मिलते हैं, (1) प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्-जिस ज्ञान के अनन्तर उसके विषय में विसंवाद नहीं होता है वह ज्ञान प्रमाण है / यहां अविसंवादन अर्थात् विसंवाद न होना, यह क्या चीज है ? 'अर्थक्रिया स्थितिः अविसंवादनम्' अर्थक्रिया यानी ज्ञान के विषय की प्राप्ति की स्थिति यह विसंवाद न होना है। (2) 'प्रामाण्यं व्यवहारेण अर्थक्रियालक्षणेन' यह भी लक्षण यही कहता है कि अर्थक्रिया स्वरूप व्यवहार से प्रामाण्य निश्चित होता है अर्थात् जिस ज्ञान के अनन्तर उसके विषय की प्राप्ति रूप व्यवहार होता है वह प्रमाण है, इत्यादि प्रमाण लक्षणों से सूचित होता है कि-. (तस्माद् यत् प्रमाणस्यात्मभूतम्....) इस लिए जो जो प्रमाण का अर्थक्रिया यानी इष्ट प्राप्ति र्थ नाम का फल है जो कि स्वात्मभत है और जिसके लिए प्रक्षावान पुरुषों का प्रयास होता है वह फल स्वत: सिद्ध निश्चय रूप होता है / ऐसा स्वतःसिद्ध अर्थक्रियास्वरूप फल आगे किसी और फल के प्रति उक्त युक्ति से कारणान्तर रूप (कारणरूप) होता नहीं है फिर भी वह स्वत: सिद्ध प्रमाण है यह सुनिश्चित है। इसलिए अब जो परवादी का कहना है कि 'अर्थक्रियाज्ञान रूप फल के प्रमाण का जो अविसंवादी ज्ञान वह प्रमाण है' इस लक्षण से रहित हुआ और उसके द्वारा साधन दर्शक प्रथम ज्ञान का प्रामाण्य निश्चित होना मानेंगे तो अनवस्था आएगी, क्योंकि वह अर्थक्रियाज्ञान क्यों पूर्व ज्ञान का प्रामाण्यदर्शक बनता है, इसीलिए कि अगर पूर्व ज्ञान में अनुत्क्रान्त यानी अनुल्लंघनीय स्वरूप का फल प्राप्त कराने की शक्ति न होती तो इससे संवादरूप उत्तर ज्ञानफल स्वरूप पैदा ही नहीं हो Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद 73 अत एवेदमपि निरस्तं यदुक्तं-'अनिश्चितप्रामाण्यादपि साधनज्ञानात् प्रवृत्तावर्थक्रियाज्ञानोत्पत्ताववाप्तफला अपि प्रेक्षावन्तो यथा साधनज्ञानप्रामाण्यविचारणायां मनः प्ररिणदधति, अन्यथा तत्समानरूपापरसाधनज्ञानप्रामाण्यनिश्चयपूविकाऽन्यदा प्रवृत्तिर्न स्यात्,-तथाऽर्थक्रियाज्ञानस्यापि प्रामाण्यविचारणायां प्रेक्षावत्तयैव ते प्राद्रियन्ते, अन्यथाऽसिद्धप्रामाण्यादर्थक्रियाज्ञानात्पूर्वस्य प्रामाण्यनिश्चय एव न स्यादिति / 'अवाप्तफलत्वमनर्थकमिति'-तदप्ययक्तं, अर्थक्रियाज्ञानस्य स्वत एव प्रामाण्य, साधनज्ञानस्य तु तज्जनकत्वेन प्रामाण्यमिति प्रतिपादितत्वात् [ पृ. 71 पं. 5 ] / यदभ्यधायि-'यदि संवादात्पूर्वस्य प्रामाण्यं निश्चीयते तदा-श्रोत्रधीरप्रमाणं स्यादितराभिरसंगतेः' [ श्लो० वा०२-७७ ] इति-तदप्ययुक्तम्--गीतादिविषयायाः श्रोत्रबद्धरर्थक्रियानुभवरूपत्वेन स्वत एव प्रामाण्यसिद्धेः। तथा चित्रगतरूपबढेरपि स्वत एव प्रामाण्यसिद्धिः. अर्थक्रियानुभवरूपत्वात् / गन्धस्पर्शरसबुद्धीनां त्वर्थक्रियानुभवरूपत्वं सुप्रसिद्धमेव / सकता / पूर्व के साधन निर्मासि ज्ञान में ऐसी फल प्रापण शक्ति है इसीलिए तो फल दर्शन से पूर्वज्ञान की यह शक्ति ज्ञात होती है, फलतः प्रामाण्य ज्ञात होता है। जब ऐसा स्वीकार करेंगे तब फलरूप अर्थक्रिया ज्ञान में भी ऐसी फलान्तर प्रापण शक्ति हो तभी वह प्रमाणभत हो सकता है, इसके लिए इसका फल देखना होगा जिससे इसका फलप्रापणशक्तिरूप प्रामाण्य निश्चित हो, इस प्रकार परवादा के द्वारा प्रेरित अनवस्था असंगत है, क्योंकि संवादरूप फल-अर्थक्रिया का ज्ञान स्वतःसिद्ध प्रमाण है / . इसीलिये, पहले जो कहा था कि-"जिस प्रकार प्रेक्षावान पुरुष प्रवर्तक ज्ञान का प्रामाण्य * निश्चित न रहने पर भी उस ज्ञान से अगर प्रवृत्ति करते हैं और उन्हें अगर कार्य-क्रिया ज्ञान उत्पन्न होता है तब तो वे फलप्राप्तिवाले हो गए, फिर भी प्रेक्षावान होने के कारण जिस प्रकार साधनभूत प्रवर्तकज्ञान के प्रामाण्य की विचारणा में मन लगाते हैं कि लाओ देखने दो कि मेरा साधनज्ञान सच्चा ही था या नहीं ? (अन्यथा तत्समानरूपापरसाधन....) अगर ऐसी प्रामाण्य खोज न करे और समझता रहे कि पहले “साधनज्ञान सच्चा है या जूठा' यह तलाश किये बिना ही प्रवृत्ति की थी और वह सफल हुई थी, तब तो उसके समान अपर साधनज्ञान का भी प्रामाण्य निश्चित किये बिना ही प्रवृत्ति कर लेता, किन्तु दरअसल साधनज्ञान के प्रामाण्य निश्चिय पूर्वक ही प्रवृत्ति होती है, वह न बनता / तो जिस प्रकार साधन ज्ञान के प्रामाण्य का विचार प्रेक्षावान पुरुष करते हैं उसी प्रकार अर्थक्रिया ज्ञान के प्रामाण्य का विचार करने में भी प्रेक्षावत्ता के कारण प्रयत्न करते हैं, अन्यथा जिसका प्रामाण्य निश्चित नहीं है वैसे अर्थक्रिया ज्ञान से पूर्वज्ञान का प्रामाण्य कैसे निश्चित हो सके ? निश्चित न कर सकने से अर्थक्रिया ज्ञान के प्रामाण्य की खोज करना जरूरी है"- वह सब निरस्त हो जाता है। तथा पहले जो कहा कि-'अवाप्तफलत्व' यानी 'अर्थक्रिया ज्ञान में तो फल प्राप्त हो जा यह कहना निरर्थक है, जैसे साधन ज्ञान के बाद में प्रामाण्य विचारणा आवश्यक है वैसे अर्थक्रिया ज्ञान में भी वह आवश्यक है।' इत्यादि, ( तदप्ययुक्तम्, अर्थक्रिया.... ) वह भी अयुक्त है, क्योंकि अर्थक्रिया ज्ञान स्वतः ही प्रमाण है. उसका प्रामाण्य स्वतः निश्चित रहता है, जबकि साधन ज्ञान का प्रामाण्य संवादी अर्थक्रिया ज्ञान का उत्पादक होने से प्रमाणभूत है-यह पहले कहा जा चुका है। * अक्षरश इदं नोक्तं किंतु पृ० 27 मध्येऽर्थत उक्तमित्यवधेयम् / Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 : __CG-GAMIOyaralarda यदप्युक्तम्-[ पृ० 28-6 ] 'किमेकविषयं, भिन्नविषयं वा संवादज्ञानं पूर्वस्य प्रामाण्यनिश्चायकमि'त्यादि, तत्रैकसंघातत्तिनो विषयद्वयस्य रूपस्पर्शादिलक्षणस्यैकसामग्रचधीनतया परस्परमव्यभिचारात, स्पर्शादिज्ञानं जाग्रदवस्थायामभिवांछितस्पर्शादिव्यतिरेकेणाऽसम्भव स्वविषयाभावेऽप्याशंक्यमान-रूपज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चाययतीति (न ?) तत्संगतमेव (म् ?) / प्रत एव रूपाद्यर्थाविनाभावित्वाद् ध्वनीनां तद्विशेषशंकायां कस्याश्चिद्वीणादिरूपप्रतिपत्तौ तद्विशेषशंकाव्या नसंवादादपि प्रामाण्यनिश्चयः सिद्धो भवति / पहले जो कहा गया कि-यदि संवाद से पूर्व ज्ञान का प्रामाण्य निश्चित किया जाता है, तब तो श्रोत्रेन्द्रिय से होने वाली बुद्धि अप्रमाण हो जाएगी क्योंकि बाद में होने वाली अन्य श्रोत्र बुद्धियों के साथ इसका संबंध ही नहीं हो पाता। तो वे इसका प्रामाण्य कैसे निश्चित कर सके ? रक्तादि रूप अवस्थित रहता है तो प्रथम बद्धि के बाद होने वाली बद्धि खोज कर सकती है कि यह वही रूप है या अन्य / किन्तु शब्द तो सुनते ही नष्ट हो गया, इसकी बुद्धि की यथार्थता कैसे निश्चित कर सकेंगे? यह न हो सकने से श्रोत्रबुद्धि प्रमाण रूप से नहीं ग्रहण कर सकते हैं। ( तदप्ययुक्तम् गीतादि.... ) यह कथन भी युक्त नहीं, क्योंकि गीत आदि शब्दों की श्रोत्रबुद्धि स्वयं अर्थक्रिया के अनुभव रूप होने से उसका प्रामाण्य स्वतः सिद्ध है। रास्ते में देखा, 'वह रजत है किन्तु वहां तो जाकर उसे हाथ उसे हाथ में ऊठाकर देखना पड़ता है कि वह सचमुच रजत है या नहीं ? जब कि गीत-शब्द सुनने के बाद देखना नहीं पड़ता कि वे सचमुच गीत-शब्द है या नहीं ? वे तो सुनते ही उसी रूप में होने का निश्चित हो जाता है / इस लिए श्रोत्रबुद्धि स्वतः प्रमाण है / (तथा चित्रगतबद्धरपि....) इसी प्रकार किसी चित्र में आलेखित रूप की बुद्धि का भी प्रामाण्य स्वतःसिद्ध है / क्योंकि वह बुद्धि भी स्वयं अर्थक्रिया के अनुभवरूप होती है / गन्ध, स्पर्श व रस की बुद्धियां स्वयं अर्थक्रियानुभव रूप है यह सुप्रसिद्ध है। जैसे कि नासिका के साथ गन्ध का सम्बन्ध होते ही यह सुगन्ध है या दुर्गन्ध इसका पता लग जाता है / यह भी जो पहले कहा गया कि-पूर्व ज्ञान का संवादकज्ञान क्या एक ही विषय का हो कर पूर्वज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक है या भिन्न विषय का ? इत्यादि, वहां भी यह समझने योग्य है कि एक संघात अर्थात अवयवी में रहे हए रूप स्पर्श स्वरूप दो विषय एक सामग्री के अधीन होने से परस्पर में अव्यभिचरित है, जैसे कि मुलायम रक्ततन्तु से बने हुए वस्त्र में रक्त रूप व मुलायम स्पर्श एक दूसरे को व्याप्त हो कर ही रहते हैं, इसलिये जाग्रत अवस्था में अभिवांछित यानी अनुभूयमान स्पर्श-रूपादि के अभाव में उसका संभव ही नहीं है, अतः वह स्पर्शज्ञान यद्यपि रूपविषयक नहीं किन्तु रूप भिन्न स्पर्श विषयक है फिर भी यानी रूपविषयता न होने पर भी जिसमें प्रामाण्य आशंकित है ऐसे रूपज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय [ अविनाभाव के कारण ] करा देता है / अतः भिन्नविषयक ज्ञान से भी प्रामाण्य निश्चय होने की बात सर्वथा संगत ही है। _ (अत एव रूपाद्यविनाभाविनां ध्वनीनां....) प्रामाण्य एकान्तेन एकविषयक संवादक ज्ञान से ही निश्चित हो ऐसा है, नहीं किन्तु कहीं भिन्न विषयक संवाद से भी प्रामाण्य का निश्चय करना पड़ता है / इसीलिए रूपादि के साथ ही संबंध रखने वाले ध्वनियों में अलबत्ता ध्वनि सुनकर यह ध्वनि है ऐसा प्रमाणभूत ज्ञान हो जाता है तो वहां ध्वनिज्ञान का स्वतः प्रामाण्य हुआ, तथापि वहाँ 'कौनसे वाद्य Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद 75 यच्चोक्त-[पृ. 30-2] कि संवादज्ञानं साधनज्ञानविषयं तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयति उत भिन्नविषयं'-इत्यादि, तदप्यविदितपराभिप्रायस्याभिधानम् , न हि संवादज्ञानं तद्ग्राहकत्वेन तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयति किंतु तत्कार्यविशेषत्वेन, यथा धूमोऽग्निमिति पराभ्युपगमः / ___यच्च संवादज्ञानात्साधनज्ञानप्रामाण्यनिश्चये चक्रकदूषणमभ्यधायि, [पृ. २२-१]-तदप्यसंगतम् / यदि हि प्रथममेव संवादज्ञानात् साधनज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्तेत तदा स्यादेतद् दूषणम् , यदा तु वह्निरूपदर्शने सत्येकदा शीतपीडितोऽन्यार्थं तद्देशमुपसर्पस्तत्स्पर्शमनुभवति, कृपालुना वा केनचित्तद्देश वह रानयने, तदाऽसौ वह्निरूपदर्शन-स्पर्शनज्ञानयोः सम्बन्धमवगच्छति-एवंस्वरूपो भावः एवम्भूतप्रयोजननिर्वर्तक इति,-सोऽवगतसम्बन्धोऽन्यदाऽनभ्यासदशायामनुमानात् ममाऽयं रूपप्रतिभासा5भिमताऽर्थक्रियासाधनः, एवंरूपप्रतिभासत्वात , पूर्वोत्पन्नवंरूपप्रतिभासवत्-इत्यस्मात्साधननि सिज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्तते इति कुतश्चक्रकचोद्यावतारः ? ! विशेष की ध्वनि है-वीणा की या मृदंग की ?' ऐसी शंका पड़ने पर वहां जाकर वाद्य को देखना पड़ता है और देखकर 'यह वीणा है' ऐसा उसके रूप-रंग विशेष से निर्णय करना पड़ता है, यह निर्णय होने पर शंका निवृत्त हो जाने से पूर्व ध्वनि ज्ञान वीणासंबंधी होने के प्रामाण्य का निश्चय होता है, यहाँ संवादक वीणा का रूपदर्शन हआ। इसलिए कह सकते हैं कि कभी भिन्न विषयक संवाद से भी प्रामाण्य निर्णय सिद्ध होता है। तथा. यह जो कहा गया कि क्या संवादक ज्ञान जो साधन ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक होता है वह क्या साधन ज्ञान के ही विषय को लेकर प्रवृत्त होता है या इससे भिन्न विषय को लेकर" इत्यादि-यह कथन भी सामने वालों का अभिप्राय विना समझे ही किया गया है, क्योंकि सामने वाले का अभिप्राय यह नहीं कि संवादक ज्ञान पूर्व ज्ञान के विषय का ग्राहक है इसलिए उसका प्रामाण्य निश्चित करता है / ऐसा हो तब तो प्रश्न हो सकता है कि संवादक ज्ञान पूर्वज्ञान के विषय को विषय करने वाला होता है ? या इससे भिन्न विषय का होता हआ उसके प्रामाण्य का निश्चायक है ?-किन्तु यह बात नहीं है। पर का अभिप्राय यह है कि संवादकज्ञान पूर्वज्ञान का कार्यविशेष होने से उसका प्रामाण्य निश्चित कराता है। जैसे अग्नि के बाद में उत्पन्न होने वाला धूम अग्नि का कार्यविशेष होने से वह अग्नि का निर्णय कराता है / तथा, जो संवादज्ञान से साधन ज्ञान के प्रामाण्य का निर्णय करने में चक्रक दृषण दिया गया था वह भी असङ्गत है / क्योंकि पहले से ही यदि संवाद ज्ञान से साधन ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय करके ही मनुष्य प्रति करता हो तब तो यह दूषण लगता। क्योंकि पहले संवाद ज्ञान, बाद में प्रामाण्य ज्ञान, बाद में प्रवृत्ति और प्रवृत्ति से वस्तु का संवाद ज्ञान....इस प्रकार चक्रक लगता / किन्तु ऐसी स्थिति नहीं है / उदाहरणार्थ, कोई शीत से पीडित नर, जिसने पहले अग्निरूप को देखा है वह अग्नि से भिन्न किसी अन्य प्रयोजन से जंगल में गया, वहाँ आग का दर्शन होता है, एवं निकट जाने पर आग की गरमी का स्पर्शानभव भी होता है अथवा किसी कृपाल सज्जन के द्वारा उसी देश में आग लाने पर अग्नि के रूपदर्शन के साथ गरमी का स्पार्शन ज्ञान होता है, तब इन दोनों के बीच के संबंध का ज्ञान होता है कि इस प्रकार का रूप वाला पदार्थ इस प्रकार के शीतापनयनादि प्रयोजन का साधक है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 'अभ्यासदशायामपि साधनज्ञानस्यानुमानात प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्तते इत्येके / न च तदृशायामन्वयव्यतिरेकव्यापारस्याऽसंवेदनान्नानुमानव्यापार इत्यभिधात शक्यम् , अनुपलक्ष्यमाणस्यापि तद्वचापारस्याऽभ्युपगमनीयत्वात् , अकस्माद् धमदर्शनात् परोक्षाग्निप्रतिपत्ताविव, अन्यथा गृहीतविस्मतप्रतिबन्धस्यापि तदृशनादकस्मात तत्प्रतिपत्तिः स्यातान चाध्यक्षव साधनज्ञानस्य फलसाधनश कथमध्यक्षेऽनुमानप्रवृत्तिः ? इति चोद्यम् , दृश्यमानप्रदेशपरोक्षाग्निसंगतेरिव तज्जननशक्तेर प्रत्यक्षत्वेन अनुमानप्रवृत्तिमन्तरेण निश्चेतुमशक्यत्वात् / तदुक्तम्दृष्टावेव दृष्टेष संवित्सामर्थ्यभाविनः / स्मरणादभिलाषेण व्यवहार: प्रवर्तते // [ 1 इति / त ( सोऽवगत सम्बन्धोऽन्यदा.... ) अब ऐसा सम्बन्ध जानने वाला पूरुष जहां तक अभ्यास नहीं हुआ वहां तक कहीं गया व ऐसे रूपवाला पदार्थ देखा तो उसको अनमान होता है कि-'यह दिखाई देता पदार्थ मेरी इष्ट अर्थक्रिया का साधन है, क्योंकि यह उसी प्रकार दृश्यमान रूप वाला पदार्थ है जैसे पूर्वोत्पन्न इस प्रकार रूपवाला पदार्थ इष्ट अर्थक्रिया का साधन था, वैसा यह भी साधन होगा।'इस प्रकार के अनुमान से प्रथम जो साधननिर्भासी प्रवर्तक ज्ञान हआ था उसके अर्थक्रिया कारित्व का निर्णय होने से उसके प्रामाण्य का निर्णय होता है व निर्णय कर प्रवृत्ति करता है, तब बताईये यहां चक्रक दोष को कहाँ अवकाश है ? [अभ्यास दशा में प्रामाण्यानुमान के बाद प्रवृत्ति-एक मत ] जैसे अनभ्यास दशा में चक्रक का अवतार नहीं है, उसी प्रकार अभ्यासदशा में भी वह नहीं है। यद्यपि यहाँ दो वर्ग का अलग अलग मन्तव्य है फिर भी दोनों चक्रक दोष को नहीं मानते हैं। प्रथमवर्ग का कहना है कि अभ्यासदशा में भी साधनज्ञान का प्रामाण्य अनुमान से निश्चित कर के प्रवृत्ति होती है इस लिये यहां चक्रक अवसरप्राप्त नहीं है। प्रवत्ति के आधार पर प्रामाण्य का निश्चय करना होता तब चक्रक की संभावना की जा सकती, किन्तु ऐसा नहीं है / यहाँ कोई भी यह नहीं कह सकता कि-'अन्वय-व्यतिरेक व्यापार यानी व्याप्ति का संवेदन न होने से अनुमान का व्यापार यहाँ नहीं मान सकते'-क्योंकि व्याप्ति उपलक्षित न होने पर भी जैसे अकस्मात धर्मदर्शन के बाद परोक्ष अग्नि का अनुमान जहां हो जाता है वहां अन्वय-व्यतिरेक का अनुसंधान मान लिया जाता है, उसी प्रकार यहाँ भी वह मान लेना होगा। अगर व्याप्ति आदि के अनुसंधान विना भी अनुमान माना जाय तब तो जिस को व्याप्ति का अत्यंत विस्मरण हो गया है उस को भी धूमादि को देख कर अग्नि आदि का ज्ञान हो जायगा। यह भी नहीं कह सकते कि-'साधन ज्ञान की फलजननशक्ति प्रत्यक्ष ही है अर्थात् उसका ज्ञान प्रत्यक्ष से ही हो जायगा फिर अनुमानव्यापार वहां मानने की क्या जरूर?'-क्योंकि जैसे दृश्यमान पर्वतादि में अग्निसंबंध परोक्ष होता है, प्रत्यक्ष-अग्राह्य है, इसलिये वहां अनुमान व्यापार के बिना उसका निर्णय नहीं हो सकता, उसी प्रकार वह फलजनन की शक्ति भी परोक्ष होने से उसका निर्णय अनुमानव्यापार के बिना नहीं हो सकता, निर्णय करने के लिये अनुमान का व्यापार आवश्यक ही है। कहा भी है-"अर्थसंवेदन के प्रभाव से [ अन्वय व्यतिरेक का ] स्मरण होता है और उससे उसकी दृष्टि अर्थात् प्रामाण्य का अनुमान होता है और तभी इच्छा होने पर दृष्ट-अनुभूत पदार्थों का व्यवहार होता है।" Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1 प्रामाण्यवाद अपरे तु मन्यन्ते 'अभ्यासावस्थायामनुमानमन्तरेणापि प्रवृत्तिः सम्भवति / अथ अनुमाने सति प्रवृत्तिर्दृष्टा, तदभावे न दृष्टा इत्यनुमानका सा, नन्वेवं सत्यभ्यासदशायां विकल्पस्वरूपानुमानव्यतिरेकेणापि प्रत्यक्षात प्रवत्तिर्दश्यते इति तदा तत्कार्या सा कस्मान्न भवति ? तथाहि-प्रतिपादोद्धा. (? पदोद्गा)रं न विकल्परूपानुमानव्यापारः संवेद्यते अथ च प्रतिभासमाने वस्तुनि प्रवृत्तिः सम्पद्यते इति। अथादावनुमानात प्रवृत्तिदृष्टेति तदन्तरेण सा पश्चात कथं भवति ? नन्वेवमादौ पर्यालोचनाद् व्यवहारो दृष्टः पश्चात पर्यालोचनमन्तरेण कथं पुरःस्थितवस्तुदर्शनमात्राद् भवति इति वाच्यम् ! यदि पुनरनुमानव्यतिरेकेण सर्वदा प्रवृत्तिर्न भवतीति प्रवर्तकमनुमानमेवेत्यभ्युपगमः, तथा सति प्रत्यक्षेण लिंगग्रहणाभावात् तत्राप्यनुमानमेव तनिश्चयव्यवहारकारणम् , तदप्यपरलिंगनिश्चयव्यतिरेकेण नोदयमासादयतीत्यनवस्थाप्रसंगतोऽनुमानस्यैवाप्रवृत्तेन क्वचित् प्रवृत्तिलक्षणो व्यवहार इत्यभ्यासावस्थायां प्रत्यक्षं स्वत एव व्यवहारकृद् अभ्युपेयम् / यहां कोई भी एक दूसरे पर अवलम्बित न होने से चक्रक दोष को अवकाश नहीं है / [अभ्यासदशा में अनुमान विना ही प्रवृत्ति-दूसरा मत ] दूसरे वर्ग का मन्तव्य यह है कि अभ्यस्त दशा में अनुमान व्यापार के बिना भी वस्तु प्रत्यक्ष होने पर उसमें प्रवृत्ति हो सकती है। यह शंका नहीं करनी चाहिये कि 'अनुमान होने पर ही प्रवृत्ति देखी जाती है, व अनुमान के अभाव में वह नहीं होती, इसलिये प्रवृत्ति अनुमान का ही कार्य है अर्थात् प्रवृत्ति अनुमान के बाद ही होगी'-क्योंकि अभ्यासदशा में विकल्पात्मक अनुमान न होने पर भी प्रत्यक्ष से प्रवृत्ति होती है यह जब देख ता है तो फिर यहां भी पूर्वपक्षी के मत में प्रवृत्ति को अनुमानकार्य क्यों नहीं माना जाता? ! यह तो स्पष्ट है कि एक एक शब्द के उच्चारण होने पर बार बार विकल्प अर्थात् अनुमान के व्यापार का कोई संवेदन नहीं होता, फिर भी उस शब्दोच्चारण से सुनने वाले को जिस जिस अर्थ का प्रतिभास होता है उस अर्थ में उसकी प्रवृति हो जाती है। [प्रत्यक्ष से अनुमाननिरपेक्ष प्रवृत्तिव्यवहार ] ___यदि यह प्रश्न किया जाय कि 'प्रारम्भ में तो प्रवृत्ति अनुमान से ही देखी जाती है तो फिर बाद में विना अनुमान प्रवृत्ति कैसे मानी जाय?'- तो इसके उत्तर में यह पूछना होगा कि प्रारंभ में सब लोग खूब सोच-विचार के प्रवृत्ति करते हैं और बाद में अभ्यासवश पुरोवर्ती वस्तु के दर्शनमात्र से प्रवृत्ति कर लेते हैं यह कैसे ? अगर ऐसा ही माना जाय कि 'अनुमान विना प्रवृत्ति होती ही नहीं है इसलिये अनुमान ही प्रवर्तक है तब तो कहीं भी प्रवृत्ति शक्य नहीं रहेगी, क्योंकि प्रत्यक्ष के प्रामाण्य के अनुमान में उपयुक्त लिंग का ग्रहण प्रत्यक्ष से अशक्य है इस लिये वहां लिंग का निश्चय और व्यवहार, उभय का उपाय अनुमान ही हो सकेगा / अब वह अनुमान भी उसके लिंगनिर्णय के विना अशक्य होगा, इस लिए उस अनुमान के लिंगनिर्णय के लिये अन्य अनुमान करना होगा, इस प्रकार अनवस्था चलती रहेगी तो अनुमान की प्रवृत्ति ही दुर्घट हो जायेगी तो प्रवृत्तिरूप व्यवहार की तो बात ही कहां? फलत: यही मानना चाहिये कि बार बार अभ्यास हो जाने पर अनुमान से प्रामाण्यनिर्णय विना भी स्वतः ही प्रत्यक्ष से प्रवृत्तिरूप व्यवहार संपन्न हो जाता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष से प्रवृत्ति होने में कोई चक्रक दोष नहीं लगता। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ऽतः स्वत एव / तथाहि-यद यतः उप अनुमानं तु तादात्म्य-तदुत्पत्तिबद्धलिंगनिश्चयबलेन स्वसाध्यादपजायमानत्वादेव तत्प्रापणशाक्तयुक्त संवादप्रत्ययोदयात प्रागेव प्रमाणाभासविवेकेन निश्चीयतेऽतः स्वत एव / तथाहि जायते तत् तत्प्रापणशक्तियुक्त, तद्यथा प्रत्यक्ष स्वार्थस्य, अनुमेयादुत्पन्नं चेदं प्रतिबद्धलिंगदर्शनद्वारायातं लिङ्गिज्ञानमिति तत्प्रापणशक्तियुक्त निश्चीयत इति / मूढं प्रति विषयदर्शनेन विषयीव्यवहारोऽत्र साध्यतेः; संकेतविषयख्यापनेन समये प्रवर्तनात् / तथाहि-प्रत्यक्षेऽप्यर्थाव्यभिचारनिबन्धन एवानेन प्रामाण्यव्यवहारः प्रतिपन्नः, अव्यभिचारश्च नान्यस्तदुत्पत्तेः, सैव च ज्ञानस्य प्रापणशक्तिरच्यते / तदुक्तम्अर्थस्याऽसम्भवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता। प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम् // [ ] इति / तस्मात मूढं प्रति परतः प्रामाण्यव्यवहारः साध्यते / अनुमाने प्रामाण्यस्य प्रतिबद्धलिंगनिश्चयानंतरं स्वसाध्याऽव्यभिचारलक्षणस्य तत उत्पन्नत्वेन प्रत्यक्षसिद्धत्वात न परतः प्रामाण्यनिश्चये चक्रकचोद्यस्यावतारः / प्रत्यक्षे तु संवादात् प्रागर्थादुत्पत्तिः अशक्यनिश्चया इति संवादापेक्षवानभ्यासदशायां तस्य प्रामाण्याध्यवसितियुक्ता। [ अनुमान से स्वतः प्रवृत्तिव्यवहार की सिद्धि ] अनुमान से प्रवृत्ति होने में भी चक्रक दोष नहीं लगता। वह इस प्रकार-अनुमान भी प्रत्यक्षवत् स्वतः ही व्यवहार प्रयोजक है, क्योंकि वह तादात्म्य और तदुत्पत्ति दो संबंध से व्याप्ति वाले लिंग के निर्णय के बल पर अपने साध्य से उत्पन्न होता है, इसलिये वह साध्य-वह्नि आदि को प्राप्त कराने की शक्ति यानी उसके व्यवहार प्रयोजक सामर्थ्य से विशिष्ट ही उत्पन्न होता है एवं प्रमाणाभास रूप ज्ञान से विभिन्नरूप में स्वत: निश्चित रहता है इस लिये वहाँ संवादीज्ञान के उदय की प्रतीक्षा नहीं करनी पडती, संवादीज्ञान के उदय से पूर्व ही वह प्रमाणरूप से निश्चित रहता है इसलिये अनुमान से स्वत: ही प्रवृत्ति हो जाती है। यह नियम है कि जो जिस वस्तु से उत्पन्न होता है वह उस वस्तु की प्रापणशक्ति से युक्त होता है, जैसे प्रत्यक्ष जिस वस्तु से उत्पन्न होता है उस वस्तु की प्रापणशक्ति वाला ही वह होता है। उसी प्रकार व्याप्ति वाले लिंग के दर्शन द्वारा अपने साध्य से साध्यज्ञान अर्थात् अनुमान उत्पन्न होता है इस लिये वह भी साध्य को प्राप्त कराने की शक्तिवाला निश्चित होता है / जो इस विषय में अनभिज्ञ है उसको प्रथम विषय ज्ञात कराया जाता है और फिर तद्विषयक व्यवहार दिखाया जाता है। चकि योग्य समय पर विषय में प्रवृत्ति संकेत के विषय को व्यक्त करने के बाद ही हो सकती है। जैसे कि प्रत्यक्ष में भी प्रामाण्य का व्यवहार अर्थ के अव्यभिचार पर ही अवलम्बित है, और यहाँ अव्यभिचार तदुत्पत्ति से भिन्न नहीं है और इसी को ज्ञान की प्रापणशक्ति कहते हैं / कहा भी है "विषय का असम्भव होने पर प्रत्यक्ष होने का सम्भव ही नहीं है इस लिये जैसे प्रत्यक्ष में प्रमाणता होती है उसी रीति से व्याप्यत्वस्वभाव भी अनुमेय अर्थ के विना असम्भवित होने से अनुमान का प्रामाण्य अक्षुण्ण होता है-इस प्रकार अनुमान को प्रत्यक्षवत् व्यवहार हेतु मानने में अर्थाविनाभावित्व और उसका प्रामाण्य दोनों समान है।" उपरोक्त रीति से, अनभिज्ञ के प्रति परत: प्रामाण्य व्यवहार सिद्ध किया जाता है। अनुमान में साध्याविनाभावित्व असिद्ध भी नहीं है क्योंकि व्याप्तिविशिष्ट लिंग निश्चय के बाद साध्य से ही अनुमानोत्पत्ति होने से स्वसाध्याव्यभिचार रूप प्रामाण्य प्रत्यक्ष से सिद्ध है-इस लिये परतः प्रामाण्य Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद 79 अत उत्पत्ती, स्वकार्ये, जप्तौ च सापेक्षत्वस्य प्रतिपादितत्वाद् 'ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षाः' इति प्रयोगे हेतोरसिद्धिः। यतश्च संदेहविपर्ययविषयप्रत्ययप्रामाण्यस्य परतो निश्चयो व्यवस्थितोऽतः 'ये संदेह-विपर्ययाध्यासिततनवः' इति प्रयोगे न व्याप्त्यसिद्धिः। यदप्युक्तम्-'सर्वप्राणभृतां प्रामाण्यं प्रति संदेहविपर्ययाभावादसिद्धो हेतुः' [ पृ. 32-2] इत्यादि-तदप्यसत्, यतः प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रमाणाऽप्रमाणचिन्तायामधिक्रियन्ते नेतरे। ते च कासांचिद् ज्ञानव्यक्तिनां विसंवाददर्शनाज्जाताशंका न ज्ञानमात्रात 'एवमेवायमर्थः' इति निश्चिन्वन्ति, नापि तज्ज्ञानस्य प्रामाण्यमध्यवस्यन्ति, अन्यथैषां प्रेक्षाक्त्तैव हीयत इति संदेहविषये कथं न संदेहः ? तथा कामलादिदोषप्रभवे ज्ञाने विपर्ययरूपताऽप्यस्तीति तबलाद् विपर्ययकल्पनाऽन्यज्ञानेऽपि संगतैवेति प्रकृते प्रयोगे नासिद्धो हेतुरिति भवत्यतो हेतोः परतःप्रामाण्यसिद्धिः। के निश्चय में कहीं भी चक्रकदूषण का अवतार नहीं है। किन्तु प्रत्यक्ष में विलक्षणता यह है कि'वह अर्थ से उत्पन्न हुआ है' यह निश्चय संवाद के पूर्व करना शक्य ही नहीं है इस लिये अनभ्यास दशा में प्रामाण्य का अधिगम संवाद सापेक्ष ही मानना युक्तिसंगत है। .. [पूर्वपक्षव्याप्ति में हेतु की असिद्धि ] उपरोक्त प्रतिपादन का अब यह निष्कर्ष फलित होता है कि प्रामाण्य अपनी उत्पत्ति, अपना कार्य और अपना निश्चय, तीनों में परसापेक्ष है, अतः स्वतः प्रामाण्यवादी ने यह जो अनुमान प्रयोग किया था कि 'ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षाः ते तत्स्वरूपनियताः'....इत्यादि, उसमें अनपेक्षत्व हेतु असिद्ध है। और हमने यह भी सिद्ध किया कि-संदेह और विपर्यय से ग्रस्त जो ज्ञान होता है उसके प्रामाण्य का निश्चय स्वतः नहीं किन्तु परत:=पर सापेक्ष होता है इसलिये परतःप्रामाण्य पक्ष की सिद्धि में जो अनुमान प्रयोग हमने किया था कि-'ये संदेहविपर्ययाध्यासिततनवः ते परतो निश्चितयथावस्थितस्वरूपाः'-इसमें व्याप्ति असिद्ध नहीं है / ... ( यदप्युक्तम्,-सर्वप्राणभृतां.... ) यह जो कहा गया कि-'सर्व जीवों को प्रामाण्य निश्चित करने में संदेह-विपर्यास नहीं होता है अतः हेतु असिद्ध है'....इत्यादि,-यह भी कहना मिथ्या है, क्योंकि जो प्रेक्षापूर्वकारी अर्थात् सोच-समझकर कार्य करने वाले होते हैं वे ही 'अपना ज्ञान प्रमाणभूत है या अप्रमाण' उसकी चिन्ता करने के अधिकारी हैं, और उनको यह चिन्ता सहज होती ही है, दूसरे अप्रेक्षापूर्वकारी जीवों को ऐसी चिन्ता करने का अधिकार ही नहीं। तो सब जीवों के लिए ऐसा नियम कैसे बनाया जाय कि उनको अपने ज्ञान को प्रामाण्य के विषय में चिन्ता ही नहीं होती है कि यह ज्ञान प्रमाण है या संदेह या विपर्यास यानी भ्रमरूप है ? _ [परतः प्रामाण्यसाधक अनुमान में हेतु असिद्ध नहीं है ] वे प्रेक्षापूर्वकारी पुरुष कुछ कुछ ज्ञान व्यक्तिओं का बाद में विसंवाद देखकर, नया कोई ज्ञान होने पर शंकाशील हो जाते हैं कि 'यह ज्ञान संवादी होगा या विसंवादी' अथवा 'प्रमाण होगा या अप्रमाण ?' इसलिये विचारक लोक प्रत्यक्षादिज्ञान होते ही 'यह पदार्थ जैसा दीखता है वैसा ही है ऐसा निर्णय नहीं बाँध लेते हैं, एवं उस ज्ञान को निश्चित रूप से प्रमाण भी नहीं मान लेते हैं / अन्यथा 'यह ज्ञान भ्रान्त है या अभ्रान्त ?' ऐसी जांच किये बिना ही उसको प्रमाण मान लिया जायगा Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदपि-[ पृ. 32-7 ] 'प्रमाणतदाभासयोस्तुल्यं रूपम्' इत्याद्याशंक्य 'अप्रमाणे अवश्यंभावी बाधकप्रत्ययः, कारणदोषज्ञानं च' इत्यादिना परिहतम् , तदपि न चारु, यतो बाध-कारणदोषज्ञानं मिथ्याप्रत्ययेऽवश्यं भावि, सम्यक्प्रत्यये तदभावो विशेषः प्रदर्शितः, स तु कि A बाधकाऽग्रहणे, B तदभावनिश्चये वा ? A पूर्वस्मिन् पक्षे भ्रान्तदृशस्तद्भावेऽपि तदग्रहणं दृष्टं कश्चित् कालं, एवमत्रापि तदग्रहणं स्यात् / तत्रैतत् स्यात्-भ्रान्तदृशः कञ्चित् कालं तदग्रहेऽपि कालान्तरे बाधकग्रहणम् , सम्यग्दृष्टौ तु कालान्तरेऽपि तदग्रहः, नन्वेतत् सर्वविदां विषयः, नार्वाग्दृशां व्यवहारिणामस्मादृशाम् / . _B बाधकामावनिश्चयोऽपि सम्यग्ज्ञाने B1 किं प्रवृत्तेः प्राग्भवति उत B2 प्रवृत्त्युत्तरकालम् ? यदि पूवः पक्षः स न युक्तः भ्रान्तज्ञानेऽपि तस्य संभवात् प्रभाणत्वप्रसक्तिः स्यात् / अथ प्रवृत्त्युत्तरकालं बाधकाभावनिश्चयः, सोऽपि न युक्तः, बाधकाऽभावनिश्चयमन्तरेणैव प्रवृत्तेरुत्पन्नत्वेन तन्निश्चयस्याकिंचित्करत्वात् / न च बाधकाभावनिश्चये प्रवृत्त्युत्तरकालभाविनि किचिनिमित्तमस्ति / अनुपलब्धिनिमित्तमिति चेत् ? न, तस्या असम्भवात् / तब उनकी प्रेक्षावत्ता यानी बुद्धिमता में क्षति अवश्य होगी। इसलिये अगर संदेहास्पद ज्ञान होगा तो उसमें संदेह क्यों नहीं होगा ? अवश्य होगा। ( तथा कामलादिदोषप्रभवे.... ) तथा दूसरी बात यह है कि कमलारोग में नेत्र पर पीत्त का आवरण रूप दोष से जो ज्ञान होता है वह विपरीत होता है, इसलिये उसके आधार पर अन्य अन्य ज्ञान में विपर्यय की कल्पना का होना भी युक्ति से संगत है। सारांश, ज्ञान में प्रथमत: प्रामाण्य न मान ले कर प्रेक्षापूर्वक ही ज्ञान में प्रामाण्य निश्चित किया जाता है, इसलिये प्रस्तुत प्रयोग में हेतु असिद्ध नहीं है, इस कारण प्रामाण्य परत: सिद्ध होता है। [सम्यग्ज्ञान के बाद बाधाभावरूप विशेष किस प्रकार होगा ? ] "प्रमाण और अप्रमाण दोनों उत्पत्ति में तुल्यरूप वाले होते हैं इसलिये संवाद के बिना प्रामाण्य का निश्चय अशक्य है" इस आशंका को ऊठाकर जो यह परिहार किया गया था कि -'अप्रमाण ज्ञान के बाद बाधक प्रत्यय का और कारण दोष ज्ञान का उदय अवश्य होने से अप्रामाण्य निश्चय हो जायगा, प्रमाण की उत्पत्ति के बाद दोनों में से एक का भी उदय न होने से वहाँ अप्रामाण्य शंका निरवकाश है।'-यह परिहार भी सुन्दर नहीं है क्योंकि मिथ्याज्ञान के बाद बाध और कारण दोषज्ञान अवश्यंभावी हैं और प्रमाणज्ञान में उनका अभावरूप जो विशेष दिखाया गया है उसके ऊपर दो विकल्प हैं / A एक यह कि बाधक का ग्रहण न होने पर उसका अभाव मान लिया गया है या B दूसरा, बाधक के अभाव का ठोस निश्चय कर के उसके अभाव को विशेष रूप में दिखाया जाता है ? A प्रथम पक्ष में यह जानना जरूरी है कि भ्रान्त पुरुषों को बाधक होने पर भी कुछ समय तक उसका बोध नहीं होता है यह देखा गया है तो प्रस्तुत में भी उसी प्रकार बाधक का अग्रहण हो सकता है / ऐसी स्थिति में यह होगा कि अगर वह भ्रान्त दर्शन होगा तब कुछ काल तक बाधक का ग्रह न होने पर भी कालान्तर में बाधक ग्रह होगा। अगर वह सम्यग बोध रूप होगा तो बाधकग्रह क में भी नहीं होगा। किन्तु इस प्रकार कालान्तर में बाधक का ग्रह होगा या नहीं यह तो सर्वज्ञ का विषय है-हमारे जसे अल्पज्ञ व्यवहत्ताओं का विषय नहीं है। [बाधकामावनिश्चय पूर्वकाल में या उत्तरकाल में ? ] B बाधकाभावनिश्चय रूप दूसरे विकल्प में, वह बाधकाभावनिश्चय B1 सम्यग्ज्ञान के Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद 81 तथाहि-बाधकानुपलब्धिः किं प्रवृत्तेः प्राग्भाविनी बाधकामावनिश्चयस्य प्रवृत्त्युत्तरकालभाविनो निमित्तम् , अथ प्रवृत्त्युत्तर कालभाविनी ? इति विकल्पद्वयम् / तत्र यदि पूर्वः पक्षः, स न युक्त', पूर्वकालाया बाधकानुपलब्धेः प्रवृत्त्युत्तरकालभाविबाधकाभावनिश्चयनिमित्तत्वाऽसंभवात् / न ह्यन्यकाला अनुपलब्धिरन्यकालमभावनिश्चयं विदधाति, अतिप्रसंगात / नापि प्रवृत्त्युत्तरकालभाविनी बाधकानुपलब्धिस्तन्निश्चयनिमित्त, प्राक् प्रवृत्तेः 'उत्तरकालं बाधकोपलब्धिर्न भविष्यति' इति अर्वाग्दशिना निश्चेतुमशक्यत्वेन तस्या प्रसिद्धत्वात् / नापि प्रवृत्त्युत्तरकालभाविन्यनुपलब्धिस्तदैव निश्चीयमाना तत्कालभाविवाधकाभावनिश्चयस्य निमित्तं भविष्यतीति वक्तुं शक्यं, तत्कालभाविनो निश्चयस्याऽकिंचित्करत्वप्रतिपादनात् / किं च बाधकानुपलब्धिः सर्वसम्बन्धिनी कि तन्निश्चयहेतुः, उताऽऽत्मसंबंधिनी ? इति पुनरपि पक्षद्वयम् / यदि सर्वसम्बन्धिनीति पक्षः, स न युक्तः, तस्या असिद्धत्वात् / नहि 'सर्वे प्रमातारो बाधकं बाद प्रवृत्ति होने के पहले ही होता है या B2 उत्तरकाल में ? B1 पहले ही होता है यह कहना अयुक्त है क्योंकि प्रवृत्ति के पहले बाधकाभाव का निश्चय तो भ्रान्तज्ञान के संबंध में हो सकता है तो भ्रान्तज्ञान में प्रामाण्य की आपत्ति होगी / B2 यदि सम्यग्ज्ञानस्थल में प्रवृत्ति के उत्तरकाल में बाधकाभावनिश्चय का होना कहा जाय तो वह भी अयुक्त है क्योंकि प्रवृत्ति तो बाधकाभावनिश्चय के बिना भी हो गयी, उसके बाद चाहे वह बाधकाभाव निश्चय होता है तो भी निकम्मा है। तथा यह भी ज्ञातव्य है कि सम्यग्ज्ञानजनित सफल प्रवृत्ति के बाद 'बाधक नहीं है' ऐसा निश्चय करने वाला कोई निमित्त भी नहीं है। बाधक की अनुपलब्धि को निमित्त नहीं मान सकते क्योंकि उसका सम्भव नहीं है। [ वाधकानुपलब्धि का असम्भव ] बाधकानपलब्धि का असम्भव इस प्रकार है-यहां दो विकल्प ऊठ सकते हैं-/१) क्या प्रवृत्ति के पहले होने वाली अनुपलब्धि प्रवृत्ति के उत्तरकाल में होने वाले बाधकामावनिश्चय में निमित्त कारण है ? (2) या प्रवृत्ति के बाद में होने वाली अनुपलब्धि उस निश्चय में निमित्त कारण है ? वहाँ अगर प्रथम पक्ष लिया जाय तो वह ठीक नहीं है क्योंकि प्रवृत्ति के पूर्वकाल में होने वाली अनुपलब्धि, प्रवृत्ति के उत्तरकालभावी निश्चय का निमित्त बने यह संभवित नहीं है / कारण, अन्यकालीन अनुपलब्धि अन्यकाल में अभावनिश्चय नहीं करा सकती क्योंकि इसमें अतिप्रसंग दोष हैआज तो अनुपलब्धि है और दो तीन वर्ष के बाद अभाव का निश्चय होने की आपत्ति होगी। ( नाति प्रवृत्त्युत्तर० ....) दूसरा विकल्प भी नहीं बन सकता कि-'प्रवृत्ति के उत्तरकाल में होने वाली अनुपलब्धि उत्तरकालभावी अभावनिश्चय में निमित्त कारण बने'-क्योंकि जो वर्तमानकालीन विषय का ही प्रत्यक्ष कर सकता है उसको प्रवृत्ति के पहले यह निश्चय कैसे होगा कि 'प्रवृत्ति के बाद बाधक की उपलब्धि नहीं रहेगी' ? ऐसा निश्चय शक्य नहीं है इसलिये वह अनुपलब्धि असिद्ध होने से बाधकाभावनिश्चय का निमित्त नहीं हो सकती / (नापि प्रवृत्त्यु०....) यह भी कहना शक्य नहीं है कि 'प्रवृत्ति के उत्तरकाल में होने वाली अनुपलब्धि उस काल में ही निश्चित हो कर उसी काल में बाधाकाभावनिश्चय कराने में निमित्त हो सकेगी'-क्योंकि प्रवृत्ति के उत्तरकाल में होने वाला अभावनिश्चय अकिंचित्कर है, उसका कोई उ.योग या फल नहीं है यह तो पहले कह दिया है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नोपलभन्ते' इति प्रर्वागदशिना निश्चेतु शक्यम् / अथात्मसंबधिनीत्यभ्युपगमः, सोऽप्ययुक्तः, प्रात्मसंबधिन्या अनुपलब्धेः परचेतोवृत्तिविशेषैरनेकान्तिकत्वात् / तन्न बाधाभावनिश्चयेऽनुपलब्धिनिमित्तम् / नापि संवादो निमित्तं, भवदभ्युपगमेनानवस्थाप्रसंगस्य प्रतिपादितत्वात् / न च बाधाभावो विशेषः सम्यक्प्रत्ययस्य सम्भवतीति प्रागेव प्रतिपादितम् [पृ 56-2] / कारणदोषाऽभावेऽप्ययमेव न्यायो वक्तव्य इति नाऽसावपि तस्य विशेषः / किं च कारणदोष-बाधकामावयोर्भवदभ्युपगमेन कारणगुण-संवादकप्रत्ययरूपत्वस्य प्रतिपादनात तन्निश्चये तस्य विशेषेऽभ्युपगम्यमाने परतः प्रामाण्यनिश्चयोऽभ्युपगत एव स्यात् , न च सोऽपि युक्तः, अनवस्थादोषस्य भवदभिप्रायेण प्राक् प्रतिपादितत्वात् / ___ यदप्युक्तम्-‘एवं चित्रतुरज्ञान'[पृ. 33] इत्यादि, तत्रैकस्य ज्ञानस्य प्रामाण्यं, पुनरप्रामाण्यं, पुनः प्रामाण्यमित्यवस्थात्रयदर्शनाद् बाधके, तबाधकादौ वाऽवस्थात्रयमाशंकमानस्य कथं परीक्षकस्य नाऽपरापेक्षा येनानवस्था न स्यात् ?! यदप्युक्तम् 'अपेक्षातः' [पृ. 32-10) इत्यादि तदप्यसंगतं, यतो [ बाधकानुपलब्धि के ऊपर नया विकल्पयुग्म ] बाधकाभावनिश्चय के निमित्त कारणरूप में स्वीकृत बाधकानुपलब्धि पर पुनः दो पक्ष ऊठा सकते हैं-(१) क्या वह अनुपलब्धि सर्वसम्बन्धिनी यानी सभी को होने वाली लेते हो या (2) मात्र आत्मसंबंधिनी अर्थात् केवल अपने से ही संबंध रखने वाली ? अगर सर्वसंबंधि अनुपलब्धि का पक्ष किया जाय तो वह अयुक्त है क्योंकि ऐसी अनुपलब्धि ही असिद्ध है / 'सभी प्रमाताओं को यानी किसी भी प्रमाता को बाधक का उपलम्भ नहीं होता' ऐसा निश्चय केवलवर्तमानदर्शी पुरुष नहीं कर सकता। (अथात्मसंबंधि०....) अगर-आत्मसंबंधि अनुपलब्धि निमित्त बनेगी, यह दूसरा पक्ष माना जाय तो वह भी ठीक नहीं है क्योंकि परकीय चित्तवृत्ति में आत्मीय अनुपलब्धि अनैकान्तिक दोषयुक्त है / आशय यह है कि अन्य अन्य पुरुष की चित्तवृत्ति में माया-कपट हो फिर भी हमें उसका उपलम्भ नहीं होता, उसकी अनुपलब्धि होने पर भी माया-कपट के अभाव का निश्चय नहीं हो जाता / तात्पर्य, अनुपलब्धि बाधाभाव का निश्चय करने के लिये निमित्त नहीं बन सकती। [वाधकाभावनिश्चय संवाद से शक्य नहीं है ] ' संवाद भी बाधकाभावनिश्चय का निमित्त नहीं बन सकता, क्योंकि आपके अभिप्राय से तो यहाँ अनवस्था दोष लगने का प्रतिपादन पहले हो चुका है। यह भी पहले कह दिया है कि बाधाभाव सम्यक् बोध का ऐसा कोई स्वरूप विशेष नहीं है जिससे अर्थतथात्वपरिच्छेद उसका कार्य हो सके। 'बाधाभाव सम्यक बोध का विशेष नहीं बन सकता इस बात की सिद्धि जिन में युक्तियों का उपन्यास किया है वे सभी युक्तिओं का उपन्यास 'कारण दोष का अभाव भी सम्यग् बोध का विशेष नहीं है'-इस बात की सिद्धि में करना है, अर्थात् कारणदोष का अभाव भी सत्य बोध का विशेष नहीं बन सकता। ____यह भी ज्ञातव्य है कि आप के पूर्वोक्त अभिप्राय से तो कारणदोष के अभाव का ज्ञान कारण गुणज्ञानरूप है और बाधक के अभाव का ज्ञान संवादविषयक ज्ञानरूप है। अतः प्रामाण्य के निश्चय में यदि बाधाभाव को विशेषरूप में अपेक्षित माना जाय तो फलस्वरूप संवादकज्ञान की ही अपेक्षा सिद्ध होने से आपने परतः प्रामाण्यनिश्चय को ही स्वीकार लिया और वह आपके लिये उचित नहीं है क्योंकि आपने ही पहले उसमें अनवस्था दोष का प्रतिपादन किया है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद नाऽयं छलव्यवहारः प्रस्तुतः येन कतिपयप्रत्ययमात्रं निरूप्यते / न हि प्रमाणमन्तरेण बाधकाशंकानिवृत्तिः, न चाशंकाव्यावर्तकं प्रमाणं भवदभिप्रायेण सम्भवतीत्युक्तम् / ___ तथा कारणदोषज्ञानेऽपि पूर्वेण जाताशंकस्य कारणदोषज्ञानान्तरापेक्षायां कथमनवस्थानिवृत्तिः ? -'कारणदोषज्ञानस्य तत्कारणदोषग्राहकज्ञानाभावमात्रतःप्रमाणत्वान्नाऽत्रानवस्था। यदाह __ यदा स्वतः प्रमाणत्वं तदान्यन्नैव मृग्यते। - निवर्तते हि मिथ्यात्वं दोषाज्ञानादयत्नतः // [ श्लो० वा० सू० 2 श्लो० 52 ]' -एतच्चानुद्घोष्यम् , प्रागेव विहितोत्तरत्वात् / [ तीन-चार ज्ञान की अपेक्षा करने में परापेक्षा का स्वीकार ] यह जो आपने कहा था कि-"पूर्व ज्ञान में अप्रामाण्य की शंका वाला दूसरा ज्ञान हो जाय तो तीसरे ज्ञान की अपेक्षा रहती है और वह तीसरा ज्ञान यदि प्रथम के साथ संवादी हो तब दूसरे ज्ञान से आशंकित अप्रामाण्य की शंका को दूर कर देता है और प्रथम ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः सिद्ध होता है / अगर तीसरा ज्ञान भी आशंकित हो जाय तो चौथे ज्ञान से वह दूर हो जाती है / इस प्रकार तीनचार ज्ञान से अधिक की अपेक्षा नहीं रहती"-यह भी ठीक नहीं, क्योंकि इसमें अप्रामाण्यशंका न होने तक प्रथम ज्ञान का प्रामाण्य, फिर अप्रमाण्यशंका होने पर अप्रामाण्य और तीसरे ज्ञान से शंका दूर होने पर पुन: प्रामाण्य, ऐसी तीन अवस्थाएँ देखी जाती है। इस लिये बाधक के विषय में परीक्षक को अन्य अन्य ज्ञान की अपेक्षा अवश्य होगी। अथवा बाधक आदि में भी उसी प्रकार तीन अवस्था के दर्शन से पुनः पुनः शंका करने वाले परीक्षक को अन्य अन्य ज्ञान की अपेक्षा होने पर अनवस्था दोष क्यों नहीं लगेगा? ! यह भी जो कहा था कि-'संवाद की अपेक्षा मानने पर स्वत: प्रामाण्य का व्याघात और अनवस्था नहीं है क्योंकि संवाद केवल अप्रामाण्य शंका निवर्त्तन में ही उपयुक्त है' इत्यादि वह भी संगत नहीं है क्योंकि यह बुद्धिमान् विद्वानों के बीच चर्चा हो रही है, कोई छल व्यवहार प्रस्तुत नहीं है जिससे केवल अमुक अमुक ही ज्ञान के प्रामाण्य का विचार किया जाय और संवादकज्ञानों के प्रामाण्य का विचार छोड दिया जाय / यह पहले भी कह दिया है कि प्रमाण के विना बाधकशंका का निवर्त्तन अशक्य है और आप के अभिप्राय से बाधकशंका का निवर्तक प्रमाण सम्भवयुक्त नहीं है। [ कारणदोषज्ञान की अपेक्षा में अनवस्था ] यह भी एक प्रश्न है-मिथ्याज्ञान के बाद जो उसके कारणों में दोषावगाही ज्ञान होगा वह प्रमाण है या नहीं ऐसी अगर भूतपूर्व मिथ्याज्ञान साधर्म्य देखकर जिसको शंका हो जायगी उसके निवारण के लिये उस ज्ञान के कारणों के दोषों का अन्वेषण करने पर अन्य अन्य कारणदोषज्ञान को अपेक्षा होती चलेगी तो इस प्रकार अनवस्था दोष क्यों नहीं लगेगा? इसके समाधान में स्वतः प्रमाणवादी कहें कि-"कारणदोषज्ञानोत्पत्ति के बाद उस ज्ञान के उत्पादक कारणों का दोषग्राही ज्ञान अगर उत्पन्न होगा तब तो वह कारणदोषज्ञान के अप्रामाण्य को प्रसिद्ध कर देगा किन्तु ऐसा ज्ञान उत्पन्न नहीं होगा तब तो उसके अभाव मात्र से ही कारणदोषज्ञान प्रमाणरूप से सिद्ध हो जाने से कोई अनवस्था को अवकाश ही नहीं होगा। जैसे कि श्लोकवात्तिक में कहा है Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च दोषाज्ञानाद् दोषाभावः, सत्स्वपि दोषेषु तदज्ञानस्य सम्भवात् / सम्यग्ज्ञानोत्पादनशक्तिवैपरीत्येन मिथ्याप्रत्ययोत्पादनयोग्य हि रूपं तिमिरादिनिमित्तमिन्द्रियदोषः, स चातीन्द्रियत्वात् सन्नपि नोपलक्ष्यते / न च दोषा ज्ञानेन व्याप्ताः येन तन्निवृत्त्या निवर्तेरन् / दोषाभावज्ञाने तु संवादाद्यपेक्षायां सैवाऽनवस्था प्राक् प्रतिपादिता। एतेनैतदपि निराकृतं यदुक्तं भट्टन-[ द्र० तत्त्वसंग्रहे 2861-2-3 ] तस्मात स्वतःप्रमाणत्वं सर्वत्रौत्सगिकं स्थितं / बाध-कारणदुष्टत्वज्ञानाभ्यां तदपोद्यते॥ पराधीनेऽपि चैतस्मिन्नानवस्था प्रसज्यते / प्रमाणाधीनमेतद्धि स्वतस्तच्च प्रतिष्ठितम् // प्रमाणं हि प्रमाणेन यथा नान्येन साध्यते / न सिध्यत्यप्रमाणत्वमप्रमाण ह॥ इति / "ज्ञान की जब स्वतः प्रमाणता मानते हैं तब दूसरे किसी ( संवादादि ) के अन्वेषण की जरूर नहीं है / और कारण दोष का ज्ञान न होने से अप्रामाण्य की शंका अनायास निवृत्त होती है।" ऐसे समाधान की उद्घोषणा भी व्यर्थ है क्योंकि कारणदोष ज्ञान और संवादादि की चर्चा कर के इस समाधान का प्रत्युत्तर पहले ही प्रदर्शित किया गया है। [दोष का ज्ञान होने का नियम नहीं है ] दोषज्ञान न होने मात्र से दोषों के अभाव की कल्पना कर लेना ठीक नहीं है क्योंकि. दोष होने पर भी उसका ज्ञान न हो यह संभवित है। सम्यग् ज्ञान के उत्पादन की शक्ति से विपरीत यानी मिथ्याज्ञान को उत्पन्न करने में योग्य ऐसा जो तिमिरादिरोग निमित्त इन्द्रिय का रूप यह एक ऐसा दोष है जो अतीतिन्द्रिय होने से विद्यमान होने पर भी उपलक्षित नहीं होता। कदाचित् यह तर्क किया जाय कि-'दोष रहने पर उसका ज्ञान अवश्य होता, ज्ञान नहीं होता है उसी से दोषाभाव सिद्ध होता है'-तो यह तर्क ठीक नहीं, क्योंकि दोषज्ञान दोष का व्यापक होता तब तो दोषज्ञान निवृत्ति से अर्थात् उसके अभाव से दोषों की निवृत्ति होने की शक्यता थी किन्तु दोषज्ञान दोष का व्यापक नहीं है इसलिये दोषज्ञान के अभाव से दोष के अभाव का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता / कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञान के प्रामाण्य का निर्णय दोषाभाव के निर्णय के विना नहीं हो सकता, और दोषाभावनिर्णय के लिये संवादादि की अपेक्षा ध्र व होने से अनवस्था दोष लगता है यह पहले कहा हुआ है। [विस्तृत मीमांसकोक्ति का निराकरण ] . पूर्वोक्त विवेचन से यह कथन भी निराकृत हो जाता है जो 'तस्मात् स्वतः' इत्यादि कारिका से भट्ट ने कहा है-[ ये कारिका वर्तमान में श्लोकवात्तिक में नहीं, तत्त्वसंग्रह में उपलब्ध हैं। ] "इसलिये ( परतः प्रामाण्य संभवित न होने से ) सभी ज्ञानों का उत्सर्गमार्ग से स्वतः प्रामाण्य सिद्ध होता है / केवल दो स्थानों में उसका अपवाद है-१ जहां बाध ज्ञान होता है और २जहां कारणों के दुष्टत्व यानी दोषों का ज्ञान होता है। अप्रामाण्य का ज्ञान यद्यपि परावलंबी यानी बाधज्ञानादि पर अवलम्बित है फिर भी यहाँ अनवस्था को प्रवेश नहीं है। क्योंकि बाधज्ञान प्रमाणाधीन है और प्रमाण का प्रामाण्य स्वतःसिद्ध है। प्रमाण जैसे अन्य प्रमाण से सिद्ध नहीं होता उसी प्रकार अप्रमाण्य भी अप्रमाण ज्ञान से सिद्ध नहीं होता। "कित प्रमाणज्ञान से ही सिद्ध होता है।" के निराकृतमित्यस्याने 'तथाहि' [ पृ०८६-१ ] इत्यादिना योगः / Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-प्रामाण्यवाद स्यान्मतं “यदप्यन्यानपेक्षप्रमितिभावो बाधकप्रत्ययः, तथाऽप्यबाधकतया प्रतीत एवान्यस्याऽप्रमाणतामाधातुक्षमो नान्यथेति," सोऽयमदोषः, यतः-[ द्र० तत्त्व० 2865-70 ] बाधकप्रत्ययस्तावदर्थान्यत्वावधारणम् / सोऽनपेक्षप्रमाणत्वात् पूर्वज्ञानमपोहते // तत्रापि त्वपवादस्य स्यादपेक्षा क्वचित् पुनः / जाताशंकस्य पूर्वेण * साप्यन्येन निवर्तते // बाधकान्तरमुत्पन्नं यद्यस्यान्विच्छतोऽपरम् / ततो मध्यमबाधेन पूर्वस्यैव प्रमाणता // जअथान्यदप्रयत्नेन सम्यगन्वेषणे कृते / मूलाभावान्न विज्ञानं भवेद बाधकबाधनम् // ततो निरपवादत्वात् तेनैवाद्यं बलीयसा / बाध्यते तेन तस्यैव प्रमाणत्वमपोद्यते।। एवं परोक्षकज्ञानत्रितयं नातिवर्तते। ततश्चाजातबाधेन नाशंक्यं बाधकं पुनः // इति / मीमांसक अपने प्रतिपक्षी को कहता है कि कदाचित् आप यह कहें कि-'बाधक प्रत्यय का प्रामाण्य अन्य सापेक्ष न होने पर भी जब तक वह स्वयं बाधक रहित होने का निश्चित न हो तब तक वह अपने बाध्यज्ञान के अप्रामाण्य का आधान यानी प्रतिपादन करने में समर्थ नहीं हो सकता-' किन्तु इसमें कोई दोष नहीं है क्योंकि बाधकप्रत्ययस्तावद........इत्यादि कारिकाओं में हमने इस निर्दोषता का इस तरह प्रतिपादन किया ही है कि बाधकप्रत्यय का मतलब है 'पूर्वज्ञान अपने विषय से विपरीत है' ऐसा अवधारण करने वाला ज्ञान / यह ज्ञान अपने प्रामाण्य में परावलम्बी नहीं है इस लिये उससे पूर्वज्ञान का अपोह यानी अप्रामाण्य प्रकाशित होता है। [ 2865 ] : कदाचित् इस बाधकप्रत्यय में भी पूर्वकालीन मिथ्याज्ञान के साधर्म्य से प्रमाता को शंका पड़ जाने से अपवाद की अपेक्षा हो जाय यानी उसमें अप्रामाण्य है या नहीं इसके निर्णय की आवश्यकता हो जाय तो उसकी भी निवृत्ति यानी पूत्ति अन्य अप्रामाण्यशंकानिवारक ज्ञान से हो जाती है।[२८६६] कदाचित् प्रमाता की इच्छा न होने पर भो बाधकप्रत्यय का ही अन्य बाधज्ञान उत्पन्न हो गया, तब तो वह मध्यम बाधकप्रत्यय ही बाधित हो जाने से प्रथम ज्ञान का प्रामाण्य निर्बाध रहता है। [ 2867 ] .. किन्तु जब योग्य प्रयत्न से कडी जाँच-पडताल करने पर भी मूल यानी कारण न होने से बाधकप्रत्यय का बाध करने वाला विज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ तब तो-[२८६८ ] . कोई अपवाद यानी अप्रामाण्य का प्रयोजक न होने से वह बाधकप्रत्यय बलवान हो कर आद्य ज्ञान को बाधित कर देता है इसलिये आद्यज्ञान का प्रामाण्य अपोदित हो जाता है अर्थात् वह अप्रमाण सिद्ध होता है। [ 2869 ] . इस रीति से परीक्षकपुरुष को भी तीनज्ञान से अधिक आगे जाने की जरूर नहीं रहती, अतएव बाधक के बाधक की उत्पत्ति न होने पर पुन:पुन: बाधक की शंका करनी नहीं चाहिये / [ 2870 ] तस्मात् स्वतः....यहां से लेकर नाशंक्यं बाधकं पुन........यहां तक भट्ट ने उपरोक्त रीति से जो कुछ कहा वह सब हमारे पूर्वोक्त अनवस्थादि दोष की ध्र वता आदि प्रतिपादन से निरस्त हो जाता है-वह इस प्रकार___ भट्ट ने अपने उपरोक्त ग्रन्थ से स्वतः प्रामाण्य पक्ष के व्याधात का परिहार किया है और परीक्षक को तीन ज्ञान से अधिक ज्ञान की अपेक्षा न होने से अनवस्था दोष का परिहार किया है किन्तु *'साप्यल्पेन' इति, ''अथानुरूपयत्नेन' इति च तत्त्वसंग्रहे / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तथाहि-अनेन सर्वेणाऽपि ग्रन्थेन स्वतः प्रामाण्यव्याहतिः परिहता परीक्षकज्ञानत्रितयाधिकज्ञानानपेक्षयाऽनवस्था च, एतद्वितयमपि परपक्षे प्रदशितं प्राक न्यायेन। यच्चान्यत् पूर्वपक्षे परत:प्रामाण्ये दूषणमभिहितं तच्चानभ्युपगमेन निरस्तमिति न प्रतिपदमुच्चार्य दूष्यते। . [ प्रेरणाबुद्धिर्न प्रमाणम् ] प्रेरणाबुद्धेस्तु प्रामाण्यं न साधननिर्भासिप्रत्यक्षस्येव संवादात् , तस्य तस्यामभवात् / नाप्यव्यभिचारिलिंगनिश्चयबलात् स्वसाध्यादुपजायमानत्वादनुमानस्येव / किं च प्रेरणाप्रभवस्य चेतसः प्रामाण्यसिद्धयर्थ स्वतःप्रामाण्यप्रसाधनप्रयासोऽयं भवताम, चोदनाप्रभवस्य च ज्ञानस्य न केवलं प्रामाण्यं न सिध्यति, कित्वप्रामाण्यनिश्चयोऽपि तव न्यायेन सम्पद्यते / तथाहि यद् दुष्टकारणजनितं ज्ञानं न तत् प्रमाणं, यथा तिमिराद्युपद्रवोपहतचक्षुरादिप्रभवं ज्ञानम् , दोषवत्प्रेरणावाक्यजनितं च 'अग्निहोत्रं जुहुयात्' इत्यादिवाक्यप्रभवं ज्ञानम्, इति कारणविरुद्धोहमारे पूर्वोक्त युक्तिसंदर्भ से भट्ट के पक्ष में स्वतः प्रामाण्य का व्याघात कैसे है और अनवस्था दूर करने पर भी पुनः पुनः कैसे लगी रहती है यह बता दिया है / पूर्वपक्षी ने अपने पूर्वपक्ष के प्रतिपादन में हमारे परतः प्रामाण्य पक्ष में और भी जो जो दूषण अन्य अन्य विकल्प जाल रच कर उद्भावित किया है, उन विकल्पों का अभ्युपगम न करने से ही वे दूषण टल जाते हैं इस लिये पूर्वपक्ष की पंक्ति पंक्ति का अनुवाद कर उसमें दोषोद्भावन को यहां हम छोड देते हैं। [प्रेरणाबुद्धि प्रमाण ही नहीं है ] पूर्वपक्षी ने जोयह कहाथा कि 'प्रेरणाजनिता तु बुद्धि' [पृ. 35] इत्यादि अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान और आप्तोक्ति की भाँति प्रेरणावाक्य अर्थात् वेदवाक्य जनित बुद्धि भी स्वतः प्रमाणभूत है'-यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि साधन निर्भासी प्रत्यक्ष का प्रामाण्य संवाद पर अवलम्बित है जैसे तृप्ति आदि अर्थक्रिया के साधनरूप जल का प्रत्यक्ष होने पर जब समीप में जाते हैं तो जलउपलब्धि होती है और उससे तरस भी मिट जाती है तो इस संवाद से उस प्रत्यक्ष का प्रामाण्य सिद्ध होता है / प्रेरणाबुद्धि के प्रामाण्य को सिद्ध करने के लिये कोई भी संवाद नहीं है, 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इस प्रेरणावाक्यजनित अग्निहोत्र में स्वर्गहेतुता की बुद्धि का संवादी अन्य कोई ज्ञान नहीं होता इसलिये प्रत्यक्ष की तरह उसका प्रामाण्य कसे माना जाय ? अनुमान की भाँति भी उसका प्रामाण्य नहीं मान सकते क्योंकि अनुमान अपने साध्य से अव्यभिचारी लिंगनिर्णय के बल पर खड़ा होता है / प्रस्तुत में अग्निहोत्र होम में स्वर्गहेतुता का अनुमान कराने वाला कोई अव्यभिचारी लिंग ही नहीं है। दूसरी बात यह है कि भट्टादि मीमांसकों का स्वत: प्रामाण्य प्रसिद्ध करने का समूचा प्रयास अन्त में तो प्रेरणावाक्यजनित चेतस् यानी बुद्धि के प्रामाप्य को निर्बाध सिद्ध करने के लिये ही है, किन्तु परिणाम ऐसा विपरीत है कि प्रेरणाजनित बुद्धि का प्रामाण्य सिद्ध होना तो दूर रहा, उसका अप्रामाण्य ही युक्तिसमूह से आप को प्राप्त होता है / वह युक्तिसमूह इस प्रकार है [प्रेरणाजनित ज्ञान दोषप्रयुक्त होने से अप्रमाण ] जो ज्ञान दुष्ट कारणों से उत्पन्न होता है वह प्रमाण नहीं होता, जैसे तिमिरादि दोष के उपद्रव से ग्रस्त नेत्रादिजन्य ज्ञान / 'अग्निहोत्र का होम करें' इत्यादिवाक्यजन्य ज्ञान यह दोषयुक्त प्रेरणा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० 1 वेदाप्रामाण्य 87 पलब्धिः / न चाऽसिद्धो हेतुः, भवदभिप्रायेण प्रेरणायां गुणवतो वक्तुरभावे तद्गुणैरनिराकृतैर्दोषैर्जन्यमानत्वस्य प्रेरणाप्रभवे ज्ञाने सिद्धत्वात् / __ अथ स्यादयं दोषो यदि वक्तृगुणैरेव प्रामाण्यापवादकदोषाणां निराकरणमभ्युपगम्यते, यावता वक्तुरभावेनापि निराश्रयाणां दोषारणामसद्भावोऽभ्युपगम्यत एव / तदुक्तम्-[ श्लो०वा०२, 62-63] शब्दे दोषोद्धवस्तावद वक्त्रधीन इति स्थितम् / तदभावः क्वचित तावद् गुणवद्वक्तृकत्वतः // तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसम्भवात् / यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः / / इति / भवेदप्येवं, यद्यपौरुषेयत्वं कुतश्चित् प्रमाणात सिद्धं स्यात्. तच्च न सिद्धं, तत्प्रतिपादकप्रमाणस्य निषेत्स्यमानत्वात / अत एव चेदमप्यनुदघोष्यम्-श्लो० वा० स०२-श्लो०६८ ] तत्रापवादनिमुक्तिर्ववत्रभावाल्लघीयसी। वेदे तेनाऽप्रमाणत्वं नाशंकामपि गच्छति // __ तेन गुणवतो ववतुरनभ्युपगमाद् भवद्भिः अपौरुषेयत्वस्य चासम्भवादनिराकृतैर्दोषैर्जन्यमानत्वं हेतुः प्रेरणाप्रभवस्य चेतसः सिद्धः, दोषजन्यत्व-अप्रामाण्ययोरविनाभावस्यापि मिथ्याज्ञानेऽन्यत्र वाक्य से उत्पन्न ज्ञान है / इस प्रकार यहाँ कारणविरुद्धोपलब्धि रूप हेतु प्रयोग है-प्रमाणज्ञान के कारण गुणवान् होते हैं, उससे विरुद्ध दोषयुक्त कारण यहाँ उपलब्ध हैं इसलिये कारणविरुद्धोपलब्धि हुयी / अगर यहाँ हेतु असिद्ध होने की शंका की जाय कि-'दोषवत् प्रेरणावाक्यजन्यत्व हेतु में, प्रेरणा वाक्य के दोष ही कहाँ सिद्ध हैं जिससे दोषवत्प्रेरणावाक्यजन्यत्व हेतु उपलब्ध हो सके'-तो यह हेतुअसिद्धि की शंका निर्मूल है क्योंकि मीमांसक मतानुसार प्रेरणावाक्यों का कोई गुणवान् वक्ता है ही नहीं, वाक्यान्तर्गत दोषों का निराकरण वक्ता के गुणों से होता है, किन्तु यहाँ गुणवान् वक्ता न होने से दोष का निराकरण नहीं होगा, तो यह सिद्ध होगा कि प्रेरणावाक्य जनित ज्ञान गुणों से अनिराकृत दोष वाले ऐसे वाक्य से उत्पन्न हुआ है / इस प्रकार हेतु असिद्ध नहीं है। [ वक्ता न होने से दोषाभाव होने की शंका ] / यदि यह कहा जाय कि-"यह तथाकथित दोष तब हो सकता है जब प्रामाण्य के अपवादक दोषों का निराकरण मात्र वक्ता के गुणों से ही होता है ऐसा माना जाय / किन्तु दोषों का अभाव इस प्रकार भी हो सकता है-प्रेरणावाक्य का कोई वक्ता ही नहीं है, वक्ता न होने से दोष कहां रहेंगे ? यगत गूणदाष तो वक्तागत गूणदोष से ही प्रयुक्त होता है। जब वाक्य का कोई वक्ता ही नहीं है तो तदाश्रित दोषों का वाक्य में उतर आना भी संभव नहीं है / तात्पर्य, वक्ता न होने से आश्रयहीन दोषों के अभाव को हम मानते ही हैं / कहा भी है - ___ “शब्द में दोष का उद्भव वक्ता को अधीन है यह तो सिद्ध ही है। दोष का अभाव कहीं पर वक्ता गुणवान होने से होता है। क्योंकि उसके गुणों से दूरोत्क्षिप्त दोषों का फिर शब्द में संक्रमण सम्भवित नहीं है। अथवा वक्ता ही न होने से आश्रयहीन बने हुए दोषों का (वाक्य में) सम्भव नहीं होता।" [वेद में अपौरुषेयत्व सिद्ध नहीं है-उत्तर ] किन्तु यह मीमांसक कथन युक्त नहीं है, क्योंकि वैसा तब हो सकता यदि वेदवचन में पुरुषा Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 निश्चितत्वात् तद्विरुद्धत्व-अनेकान्तिकत्वयोरप्यभाव इति भवत्यतो हेतोः प्रेरणाप्रभवे ज्ञाने प्रामाण्याभावसिद्धिः। [ ज्ञातृव्यापारः न प्रमाणसिद्धः ] किंच, प्रमाणे सिद्धे सति किं तत्प्रामाण्यं स्वतः परतो वा' ? इति चिन्ता युक्तिमती, भवदभ्युपगमेन तु तदेव न सम्भवति / तथाहि-ज्ञातृव्यापारः प्रमाणं भवताऽभ्युपगम्यते, न चासौ युक्तः, तद्ग्राहकप्रमाणाभावात् / तथाहि-प्रत्यक्ष वा तद्ग्राहक, अनुमानं, अन्यद्वा प्रमाणान्तरम् ? तत्र यदि प्रत्यक्षं तदग्राहकमभ्युपगम्येत तदात्रापि वक्तव्यम-स्वसंवेदनम्, बाह्यन्द्रियजं, मनःप्रभवं वा? न तावत् स्वसंवेदनं तद्ग्राहकम्, भवता तदग्राह्यत्वानभ्युपगमात तस्य / नापि बाह्यन्द्रियज, इन्द्रियाणां स्वसम्बद्धऽर्थ ज्ञानजनकत्वाभ्युपगमात् / न च ज्ञातृव्यापारेण सह तेषां सम्बन्धः, प्रतिनियतरूपादिविषयस्वात् ।नापि मनोजन्यं प्रत्यक्ष ज्ञातव्यापारलक्षणप्रमाणग्राहकम्, तथा प्रतीत्यभावात् अनभ्युपगमाच्च / ऽजन्यत्व किसी प्रमाण से सिद्ध रहता, किन्तु वही असिद्ध है क्योंकि वेद में अपौरुषेत्व के साधक-प्रमाण का आगे निराकरण किया जाने वाला है / इसलिये यह भी उद्घोष करने योग्य नहीं है कि 'वेदवाक्य का कोई वक्ता न होने से वहाँ अपवाद से मुक्ति सुलभ है, अतः वेद में अप्रामाण्य शंका को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि अपौरुषेयत्व का खण्डन आगे किया जायेगा। निष्कर्ष यह आया कि वेद का अपौरुषेयत्व सम्भव नहीं है और उसका कोई गुणवान् वक्ता भी नहीं है इसलिये प्रेरणावाक्यजन्य ज्ञान में अनिराकृत दोषों से जन्यमानत्व रूप हेत त वेद के अप्रामाण्य की सिद्धि के लिये कहा गया है वह सिद्ध होता है। जहाँ दोषजन्यत्व होता है वहाँ अप्रामाण्य होता है यह अविनाभावरूप नियम शुक्ति में रजत अवभासक ज्ञान में सिद्ध है-निश्चित है। इसलिये दोषजन्यत्व हेतु में न तो विरोध का उद्भावन हो सकता है, न तो व्यभिचार दोष का उद्भावन हो सकता है / इसलिये इस दोषजन्यत्व रूप हेतु से प्रेरणावाक्यजन्य ज्ञान में प्रामाण्य के अभाव की सिद्धि निष्कंटक है। [ज्ञातृव्यापार प्रमाण सिद्ध नहीं है ] 'प्रामाण्य स्वतः है या परतः' इस सम्बन्ध में स्वतःप्रामाण्यवादी के साथ जो कुछ विचार किया जाता है वह भी प्रमाण के सिद्ध होने पर ही करना युक्तियुक्त यानी सार्थक है / किन्तु महत्त्व की बात यह है कि स्वत: प्रामाण्यवादी के मतानुसार प्रमाण की सिद्धि ही सम्भव नहीं है / वह इस रीति से-पूर्वपक्षी ज्ञाता के व्यापार को प्रमाण कहते हैं किन्तु वह घटता नहीं, क्योंकि 'ज्ञातृव्यापार यह प्रमाण है' इसका ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है / प्रमाणाभाव इस प्रकार-वह कौनसा प्रमाण है जो. 'ज्ञातृव्यापार यह प्रमाण है-इसका ग्राहक हो ? A प्रत्यक्ष उसका ग्राहक है या B अनुमान अथवा C अन्य कोई प्रमाण ? ____A यदि प्रत्यक्ष को उसका ग्राहक मानते हो तो यहाँ भी आपको कहना होगा कि वह A1 स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है या A2 बहिरिन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष है अथवा A3 मनोजन्य है ? A1 स्वसंवेदनप्रत्यक्ष तो ज्ञातृव्यापार का ग्राहक नहीं है क्योंकि ज्ञातृव्यापार को आप स्वसंवेदनप्रत्यक्षग्राह्य मानते ही नहीं। क्योंकि स्वसंवेदनप्रत्यक्ष का ग्राह्य स्वमात्र है, ज्ञातृव्यापार नहीं। A2 बाह्य न्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से भी वह अग्राह्य है, क्योंकि आप भी यह मानते हैं कि इन्द्रियों से सम्बन्धित अर्थ को ही ज्ञान Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-ज्ञातृव्यापार० प्रथानुमानं तद्ग्राहकमभ्युपगम्यते, तदप्ययुक्तम्, यतोऽनुमानमपि 'ज्ञातसंबन्धस्यैकदेशदर्शनादसंनिकृष्टेऽर्थे बुद्धिः' इत्येवंलक्षणमभ्युपगम्यते। सम्बन्धश्चान्यसम्बन्धव्युदासेन नियमलक्षणोऽभ्युपगम्यते / यत उक्त-सम्बन्धो हि न तादात्म्यलक्षणो गम्यगमकभावनिबन्धनम् / ययोहि तादात्म्यं न तयोर्गम्यगमकभावः तस्य भेदनिबन्धनत्वात्, अभेदे वा साधनप्रतिपत्तिकाल एव साध्यस्यापि प्रतिपन्नस्वात् कथं गम्यगमकभावः ? अप्रतिपत्तौ वा यस्मिन् प्रतीयमाने यन्न प्रतीयते तत् ततो भिन्नम्, यथा घटे प्रतीयमानेऽप्रतीयमानः पटः, न प्रतीयते चेत् साधनप्रतीतिकाले साध्यं, तदा तत् ततो भिन्नमिति कथं तयोस्तादात्म्यम् ? किंच, यदि तादात्म्याद गम्य-गमकभावोऽभ्युपगम्यते तदा तादात्म्याऽविशेषाद् यथा प्रयत्नानन्तरीयकत्वमनित्यत्वस्य गमकम्, तथाऽनित्यत्वमपि प्रयत्नानन्तरीयकत्वस्य गमकं स्यात् / अथ प्रयत्नानन्तरीयकत्वमेवाऽनित्यत्वनियतत्वेन निश्चितम् नाऽनित्यत्वं तन्नियतत्वेन, निश्चयापेक्षश्च गम्य इन्द्रियजन्य होता है / ज्ञातृव्यापार इन्द्रियों से सम्बन्धित नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों से सम्बन्धित विषय रूप-रसादि ही है यह नियमतः सिद्ध है। A3 मनोजन्य प्रत्यक्ष भी ज्ञातृव्यापार रूप प्रमाण का ग्राहक नहीं क्योंकि न तो ऐसा अनुभव होता है, न तो कोई ऐसा मानता है कि 'ज्ञातृव्यापार यह प्रमाण है'ऐसी मुझे मानसिक प्रतीति होती है / [ अनुमान से ज्ञातृव्यापार का ग्रहण अशक्य ] अब कहा जाय कि-अनुमान से ज्ञातृव्यापार रूप प्रमाण का ग्रहण होता है-तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि अनुमान का सर्वमान्य स्वरूप यह है कि-दो पदार्थ के बीच सम्बन्धज्ञान होने पर उन सम्बन्धीयों में से एक देश यानी एक अर्थ का दर्शन होने पर अन्य असंनिकृष्ट यानी अदृश्य अर्थ का बोध होना यह अनुमान है। [ जैसे धूम और अग्नि के बीच संबन्ध ज्ञात होने पर धूम के दर्शन से अप्रत्यक्ष अग्नि का परोक्षबोध होता है / ] सम्बन्ध भी जैसा तैसा नहीं, अविनाभावरूप नियम यानी व्याप्ति नामक सम्बन्ध से अन्य संबंधों का त्याग करके मात्र नियमरूप सम्बन्ध ही यहां विवक्षित हैमाना जाता है / क्योंकि कहा है कि तादात्म्य रूप संबंध बोध्य-बोधकभाव का नियामक नहीं है / जिन दो के बीच में तादात्म्य होता है उन दो का गम्य-गमक भाव नहीं होता है क्योंकि गम्य गमक भाव भेदमूलक है / यदि गम्य-गमकभावनियामक संबंध अभेद होगा तो जिस काल में गमक यानी साधन का बोध होगा उसी वक्त गम्य यानी साध्य का भी बोध हो जाने से साध्य और साधन में गम्यगमक भाव ही कैसे हो सकेगा। एक साथ जिन का बोध होता है उनका गम्य-गमक भाव नहीं होता। जिस काल में साधन का बोध होता है उस काल में साध्य का बोध अगर नहीं होता है तो उन दोनों का भेद सिद्ध होगा। क्योंकि यह व्याप्ति है कि जिसकी प्रतीति काल में जो प्रतीत नहीं होता वह उससे भिन्न होता है। जैसे कि घट की प्रतीति काल में पट की प्रतीति नहीं होती है तो पट घट से भिन्न होता है। उसी प्रकार साधन की प्रतीतिकाल में अगर साध्य प्रतीत नहीं होता है तो साधन से साध्य का भेद सिद्ध होता है फिर उन दोनों का तादात्म्य कैसे ? 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' का अर्थ है जो प्रयत्न के विना नहीं होता है। 'प्रयत्न अन्तरा (=विना) न भवति इति प्रयत्नानन्तरीयकत्व' यह उसकी व्युत्पत्ति है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 गमकभावः इति; तहि 'यस्मिन्निश्चीयमाने यन्न निश्चीयते' इत्यादि पूर्वोक्तमेव दूषणं पुनरापतति / अपि च प्रयत्नानन्तरीयकत्वमेवाऽनित्यत्वनियतत्वेन निश्चितमिति वदता स एवाऽस्मदभ्युपगतो नियमलक्षणसम्बन्धोऽभ्युपगतो भवति / नाऽपि तदुत्पत्तिलक्षणः सम्बन्धो गम्यगमकभावनिबन्धनम्, तथाऽभ्युपगमे वक्तृत्वादेरप्यसर्वज्ञत्वं प्रति गमकत्वं स्यात् / अथ सर्वज्ञत्वे वक्तत्वादेबर्बाधकप्रमाणाभावात सर्वज्ञत्वादिभ्यो वक्तत्वादेयावृत्तिः संदिग्धेति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वान्नायं गमकस्तहि धूमस्याप्यनग्नौ बाधकप्रमाणाभावात ततो व्यावृत्तिः संदिग्धेति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादग्निं प्रति गमकत्वं न स्यात् / [तादात्म्य से गम्यगमकभाव नहीं बन सकता] यह ज्ञातव्य है कि दो वस्तु के बीच तादात्म्य होने से गम्य-गमक भाव माना जाय तो जैसे प्रयत्नजन्यत्व को अनित्यत्व का गमक माना जाता है उसी प्रकार दोनों के बीच तादात्म्य होने पर अनित्यत्व भी प्रयत्नजन्यत्व का गमक हो जाने की आपत्ति होगी। बौद्धमत में दो ही सम्बन्ध से गम्य-गमक भाव माना जाता है, तादात्म्य और तदुत्पत्ति / प्रयत्नानन्तरीयकत्व और अनित्यत्व के दुत्पत्ति यानी कारण-कार्य भाव तो है नहीं, केवल तादात्म्य है, इसलिये उपरोक्त आपत्ति अवश्य होगी। यदि कहा जाय कि-'तादात्म्य होने पर भी प्रयत्नानन्तरीयकत्व ही अनित्यत्व के नियतरूप से निश्चित है, अनित्यत्व प्रयत्नानन्तरीयकत्व के नियतरूप से निश्चित नहीं है, इसलिए अनित्यत्व प्रयत्नानन्तरीयकत्व का गमक होने की आपत्ति नहीं है, क्योंकि गम्य-गमकभाव एक का दूसरे के साथ नियतरूप से किये गये निश्चय पर अवलम्बित है।'-तो इस कथन से तादात्म्य गम्यगमकभावनियामक सम्बन्धरूप से सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि यहाँ भेद आपत्ति रूप दूषण आ पड़ता है, क्योंकि पहले कह आये हैं कि जिसका निश्चय होने पर जो अनिश्चित रहता है वह उससे भिन्न होता है / दूसरी बात यह है कि 'प्रयत्नानन्तरीकत्व अनित्यत्व के नियतरूप से निश्चित है' यह जो आपने कहा उसमें 'नियतरूप से' इसका अर्थ है 'नियम विशिष्ट रूप से' / अतः हमने जो पहले अविनाभाव रूप नियम ही गम्य-गमक भाव का नियामक संबंध सिद्ध होने का कहा था उसी का आपने भी स्वीकार कर लिया। [ तदुत्पत्तिसंबंध से गम्यगमकभाव नहीं बन सकता ] गम्य-गमक भाव को तदुत्पत्तिसंबन्धमूलक भी नहीं मान सकते क्योंकि ऐसा मानने पर वक्तृत्वादि धर्म असर्वज्ञता का गमक होने की आपत्ति होगी, क्योंकि असर्वज्ञपुरुष से वचनवाक्यों की उत्पत्ति देखी जाती है / यदि यह शंका की जाय कि- 'वक्तृत्व धर्म सर्वज्ञपुरुष में होने में कोई बाधक युक्ति या प्रमाण नहीं है और सर्वज्ञ असर्वज्ञता का विपक्ष है, इसलिये विपक्षभूत सर्वज्ञ में वक्तृत्व धर्म का अभाव है या नहीं, इस संदेह को अवकाश है / तात्पर्य, हेतु भूत वक्तृत्व धर्म की विपक्षभूत सर्वज्ञ से व्यावृत्ति संदिग्ध होने से संदिग्धव्यभिचार दोषवाला हेतु हो गया इसलिये वह असर्वज्ञता का गमक नहीं हो सकेगा'-तो ऐसी शंका के विरुद्ध यह आपत्ति आयेगी कि धूम हेतु भी अग्नि का गमक नहीं होगा, क्योंकि अग्नि के विपक्षभूत अर्थात् जहाँ अग्नि होने का निश्चित हो ऐसी सभी गृह आदि में धूम का अभाव ही हो यह निश्चय करने की सामग्री न होने से उसका भी संदेह हो सकता है क्योंकि वहाँ भी धूम की सत्ता होने में कोई बाधक प्रमाण या युक्ति नहीं है। इसलिये अग्नि के प्रति धूम की गमकता भी विलुप्त हो जायगी। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ज्ञातृव्यापार० अथ "कार्य धूमो हुतभुजः, कार्यधर्मानुवृत्तितः, स तदभावेऽपि भवन कार्यमेव न स्यात्" इत्यनग्नौ धूमस्य सद्भावबाधकं प्रमाणं विद्यत इति नासौ सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकस्तहि एतत् प्रकृतेऽपि वक्तृत्वादौ समानमिति तस्याप्यसर्वज्ञत्वं प्रति गमकत्वं स्यात्। कि च, कार्यत्वे सत्यपि वक्तृत्वादेः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेनाऽसर्वज्ञत्वं प्रत्यनियतत्वाद् यद्यगमकत्वं तहि स एवाऽस्मदभ्युपगतो नियमलक्षणः संबन्धोऽभ्युपगतो भवति / अपि च, तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणसंबन्धाभावेऽपि नियमलक्षणसंबन्धप्रसादात कृत्तिकोदय-चन्द्रोद्गमन-अद्यतनसवित्रुद्गमगहीताण्डपिपीलिकोत्सर्पण-एकाम्रफलोपलभ्यमानमधररसस्वरूपाणां हेतनां यथाक्रमं भाविशकटोदयसमानसमयसमुद्रवृद्धि-श्वस्तनभानूदय-भाविवृष्टि- तत्समानकालसिन्दूरारुणरूपस्वभावेषु साध्येषु गमकत्वं सुप्रसिद्धम् / संयोगादिलक्षणस्तु संबन्धो भवतैव साध्यप्रतिपादनांगत्वेन निरस्त इति तं प्रति न प्रयस्यते। [विपक्षबाधक तर्क उभयत्र समान है ] पूर्वपक्षी:-आपने जो कहा कि-'अग्नि के विपक्ष में धूम की सत्ता होने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है-यह मिथ्या है, क्योंकि बाधक प्रमाण यह रहा-धूम अग्नि का कार्य है क्योंकि कार्य के जो गुणधर्म होते हैं उनकी उसमें अनुवृत्ति है, अब यदि वह अग्नि के अभावस्थल में भी रहेगा तो वह उसका कार्य ही न होगा, अर्थात् उसके कार्यत्व के भंग की आपत्ति होगी। इस प्रकार का बाधक तर्क विद्यमान होने से धूम हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति यानी विपक्ष में उसका अभाव संदिग्ध नहीं रहता किन्तु निश्चित हो जाता है। उत्तरपक्षी:-ऐसा तर्क तो प्रस्तुत स्थल में भी समान ही है वक्तृत्व असर्वज्ञता का कार्य दिखाई देता है क्योंकि उसमें भी कार्यधर्म की अनुवृत्ति उपलब्ध है। यदि वह असर्वज्ञता का कार्य होने पर भी असर्वज्ञता के अभावस्थल में रहेगा तो वह उसका कार्य न हो सकेगा, अर्थात् उसके कार्यत्व के भंग की आपत्ति होगी / तो इस प्रकार वक्तृत्व भी असर्वज्ञता के गमक हो जाने की आपत्ति तदवस्थ रहती है। [ वक्तृत्व को अनियत मानने पर नियम की सिद्धि ] दूसरी बात यह है कि वक्तृत्व हेतु यह असर्वज्ञ का कार्य होने पर भी उसको विपक्षव्यावृत्ति संदिग्ध होने से असर्वज्ञत्व के प्रति नियमतः संबद्ध न होने से असर्वज्ञता का गमक नहीं बन सकता है तो उसका निष्कर्ष यह फलित हआ कि बौद्ध ने जो तदुत्पत्तिरूप संबंध गम्य-गमकभाव नियामक माना है वह अयुक्त है और हमने जो अविनाभावरूप नियम यानी व्याप्ति को गम्य-गम कभाव नियामक संबन्ध रूप में माना है वही ठीक है और आपने भी यहाँ उसका स्वीकार किया। इस बात पर भी बौद्ध को ध्यान देना जरूरी है कि जहां तादात्म्य और तदुत्पत्ति में से एक का भी सम्भव नहीं होता ऐसे कई स्थलों में नियमात्मक संबंध की कृपा से साध्य की गमकता हेतु में सुप्रसिद्ध है-वे स्थल क्रमश: इस प्रकार हैंहेतू साध्य A कृत्तिका नक्षत्र का उदय हुआ। A अब शकट नक्षत्र का उदय होगा। B चन्द्र का उदय हुआ। B इस काल में ही समुद्र में भरती आई होगी। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 एवं परोक्तसंबंधप्रत्याख्याने कृते सति / नियमो नाम संबंधः स्वमतेनोच्यतेऽधुना // कार्यकारणभावादिसंबन्धानां द्वयी गतिः / नियमाऽनियमाभ्यां स्यादनियमावतद्गता // सर्वेऽप्यनियमा ह्य ते नानुमोत्पत्तिकारणम् / नियमात केवलादेव न किंचिन्नानुमीयते // इत्यादि / ___ स च सम्बन्धः a किमन्वयनिश्चयद्वारेण प्रतीयते, उत b व्यतिरेकनिश्चयद्वारेण इति विकल्पद्वयम् / तत्र यदि प्रथमो विकल्पोऽभ्युपगभ्यते, तत्रापि वक्तव्यम्-कि al प्रत्यक्षणान्वयानश्चयः, a2 उतानु इति ? a1 न तावत् प्रत्यक्षेणान्वयनिश्चयः, अन्वयस्य हि रूपं तद्धावे तद्धावः / न च ज्ञातृव्यापारस्य प्रमाणत्वेनाभ्युपगतस्य प्रत्यक्षेण सद्भावः शक्यते ग्रहीतुम् , तद्ग्राहकत्वेन प्रत्यक्षस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात त्वयानभ्युपगमाच्च / नापि ज्ञातृव्यापारसद्भावे एवार्थप्रकाशनलक्षणस्य हेतोः सद्भावः प्रत्यक्षेण ज्ञातु शक्यः, तस्यापोन्द्रियव्यापारजेन प्रत्यक्षेण प्रतिपत्तुमशक्तेः, तदशक्तिश्च प्रक्षाणां तेन सह सम्बन्धाभावात् / नापि स्वसंवेदनलक्षणेन प्रत्यक्षेण पूर्वोक्तस्य हेतोः सद्भावः शक्यो निश्चेतुम् , भवदभिप्रायेण तत्र तस्याऽव्यापारात् / तन्न प्रत्यक्षेण साध्यसद्धावे एव हेतुसद्भावलक्षणोऽन्वयो निश्चेतु शक्यः / / / C आज सूर्योदय हुआ है। | C कल अवश्य सूर्योदय होगा। D चिटीयाँ अपने अण्डे लेकर भाग रही है। | D मेधवृष्टि होगी। E किसी एक आम्र फल का मधुर रस उपलब्ध | E उस काल में वह आम्र फल सिंदुर जैसा रक्तहुआ। वर्ण वाला होगा। उपरोक्त हेतुओं का अपने अपने साध्य के साथ कोई तादात्म्य नहीं है / एवं उन साध्यों से हेतुओं की उत्पत्ति भी नहीं हुई है। फिर भी ये हेतु अनेक आध्यों का अविनाभावि हैं, अर्थात् उन हेतुओं के होने पर साध्य के होने का अतूट नियम है, इसी नियम के प्रभाव से उन हेतुओं से अपने अपने साध्यों का आनुमानिक बोध उदित होता है। संयोग-समवाय आदि सम्बन्ध साध्य का बोध कराने में अंगभूत नहीं हो सकता है यह तो बौद्ध ने ही स्व स्वग्रन्थ में सिद्ध कर दिया है इसलिये गम्य-गमकभावनियामक संबंधता का खंडन करने के लिये पृथग् प्रयास करने की जरूर नहीं रहती। उपरोक्त रीति से बौद्धवादी कथित संबंध का निराकरण किये जाने पर [ नियमवादी कहता है कि ] अब हमारे मत से नियम नाम के सम्बन्ध की बात की जाती है / कार्य-कारणभाव आदि सभी संबंधों के बारे में दो ही विकल्प हैं कि या तो वे नियमबद्ध हो या नियम से अबद्ध हो / नियम से अबद्ध होने पर तद्गता यानी तद् की गमकता अर्थात् साध्यबोधकता नहीं हो सकती। __ नियमविकल सभी सम्बन्ध अनुमान की उत्पत्ति के कारण नहीं है और केवल नियमरूप सम्बन्ध से ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसका अनुमान न हो सके / [ ज्ञातृव्यापार का नियम संबंध कैसे प्रतीत होगा ? ] [ संदर्भ:-अनुमान से ज्ञातृव्यापार का ग्रहण नहीं हो सकता यह बात चल रही है-उसमें जिन दो का संबन्ध ज्ञात रहे तब एक के दर्शन से अन्य परोक्षअर्थ की अनुमान बुद्धि होती है यह कहा था / वह संबंध नियमरूप ही हो सकता है यह सिद्ध करने के बाद अब यह बताना है कि ज्ञातृव्यापार के साथ नियम संबंध वाला दूसरा कोई नहीं है इसलिये ज्ञातृव्यापार असिद्ध है क्योंकि,] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-ज्ञातव्यापार० 93 a2 नाप्यनुमानेन तन्निश्चयः, अनुमानस्य निश्चितान्वयहेतुप्रभवत्वाभ्युपगमात् / न च तस्यान्वयः प्रत्यक्षसमधिगम्यः पूर्वोक्तदोषप्रसंगात् / अनुमानात् तनिश्चयेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोषावनुषज्येत इति प्रागेव प्रतिपादितम् / न च प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तं प्रमाणान्तरं सम्भवति / तन्न अन्वयनिश्चयद्वारेण ज्ञातृव्यापारे साध्ये पूर्वोक्तस्य हेतोनियमलक्षणः सम्बन्धो निश्चेतु शक्यः / . वह नियमात्मक संबन्ध की प्रतीति a अन्वय के निश्चय से या b व्यतिरेक के निश्चय से होती है ये दो विकल्प विचारणीय हैं। यदि प्रथम विकल्प लिया जाय तो वहाँ भी दो प्रश्न है-a1 क्या वह अन्वय निश्चय प्रत्यक्ष से होता है अथवा a2 अनुमान से ? al प्रत्यक्ष से अन्वय का निश्चय नहीं हो सकता क्योंकि अन्वय का आकार है 'एक के होने पर ही दूसरे का होना' / प्रस्तुत में अन्वय का यह संभवित आकार है 'ज्ञातृव्यापार के होने पर ही अर्थप्रकाशनरूप हेतु का होना' / किन्तु प्रमाण प से स्वीकृत यह ज्ञातव्यापार प्रत्यक्ष से तो गहीत होता नहीं, क्योंकि 'प्रत्यक्ष से ज्ञातव्यापार का ग्रहण नहीं होता' यह निषेध पहले ही कर दिया है और प्रतिवादी ज्ञातृव्यापार को प्रत्यक्षयोग्य मानता भी नहीं है / तात्पर्य, 'ज्ञातृव्यापार के होने पर' यह अन्वय का एक अंश प्रत्यक्ष योग्य नहीं है। 'ज्ञातृव्यापार होने पर ही अर्थप्रकाशन रूप हेतु का होना' इस अन्वय का जो दूसरा अंश अर्थ शन है वह भी प्रत्यक्ष से जाना जा सके ऐसा नहीं है, क्योंकि उसमें इन्द्रिय के व्यापार की पहंच न होने से इन्द्रिय-व्यापारजन्य प्रत्यक्ष से उसकी प्रतिपत्ति अशक्य है / अशक्य इस लिये कि इन्द्रियों का अर्थप्रकाशन के साथ कोई संबंध ही नहीं है जो उसका प्रत्यक्ष करा सके / इन्द्रिजन्यप्रत्यक्ष जैसे असमर्थ है वैसे स्वसंवेदन प्रत्यक्ष यानी मानसप्रत्यक्ष भी असमर्थ है, अत: उससे भी पूर्वोक्त अर्थप्रकाशनरूप हेतु के सद्भाव का निश्चय अशक्य है। क्योंकि प्रतिवादी के अभिप्राय से, अर्थ प्रकाशन से निश्चय में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का कोई व्यापार नहीं है। उपसंहार:-'साध्य ज्ञातृव्यापार के सद्भाव में ही हेतु-अर्थ प्रकाशन का सद्भाव' इस अन्वय का निश्चय प्रत्यक्ष से नहीं हो सकता। [अनुमान से अन्वयनिश्चय अशक्य ] a2 "अनुमान से अन्वय का निश्चय होगा, अर्थात् 'ज्ञातृव्यापार होने पर ही अर्थप्रकाशनरूप हेतु का होना' यह निश्चय अनुमान से होगा"- यह भी कहना शक्य नहीं है, क्योंकि यह सर्वमान्य है कि जिस हेतु में साध्य का अन्वय पूर्व निश्चत हो उसी हेतु से अनुमान का जन्म होता है। यहाँ अर्थ प्रकाशनरूप हेत में ज्ञातव्यापार रूप साध्य का अन्वय प्रत्यक्ष से पूर्व निश्चित है यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि उस में दोष प्रसङ्ग है जो 'न तावत् प्रत्यक्षेणान्वयनिश्चयः इत्यादि से पहले बताया है। अनुमान से ज्ञातृव्यापार के साथ अर्थ काशनरूप हेतु के अन्वय का निश्चय करने जाओगे तो अनवस्था होगी क्योंकि वह अनुमान भी निश्चितान्वय वाले हेतु से ही मानना होगा और उस हेतु के अन्वय का निश्चय करने के लिये अन्य अनुमान ढढना होगा, उसके हेतु के अन्वयनिश्चय के लिये भी अन्य अनुमान....इस प्रकार अनवस्था चलेगी। यदि कहा जाय कि-'द्वितीय अनुमान के अन्वय का निश्चय अन्य अनुमान से नहीं करना है किंतु पूर्व अनुमान से ही सिद्ध हो जायगा'-तो इसमें अन्योन्याश्रय दोष लगेगा, क्योंकि प्रथम अनुमानजनक हेतु के अन्वय का निश्चय द्वितीय अनुमान से होगा और द्वितीय अनुमानजनक हेतु के अन्वय का निश्चय प्रथम अनुमान होने पर होगा, इस प्रकार अन्योन्याश्रित होने से दो में से एक भी न होगा। यह सब पहले भी कहा जा चुका है / अन्य कोई प्रमाण से अन्वय का निश्चय होने की संभावना ही नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान से Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 _b नापि व्यतिरेकनिश्चयद्वारेण, यतो व्यतिरेकः 'साध्याभावे हेतोरभाव एव' इत्येवंस्वरूपः, न च प्रकृतस्य साध्यस्याभावः प्रत्यक्षेण समधिगम्यः, तस्याभावविषयत्वविरोधात् , अनभ्युपगमात् , अभावप्रमाणवैयर्थ्यप्रसंगाच्च / नाप्यनुमानादिसद्भावग्राहकप्रमाणनिश्चयः, अत एव दोषात् / अथाऽदर्शननिश्चेय इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः, यतोऽदर्शनं किमनुपलम्भरूपं ? पाहोस्विद् प्रभावप्रमाणस्वरूपमिति वक्तव्यम् / ___ तत्र यद्याद्यः पक्षः, स न युक्तः, यतोऽत्रापि वक्तव्यम्-अनुपलम्भः किं दृश्यानुपलम्भोऽभिप्रेतः, आहोस्विद् अदृश्यानुपलम्भ इति ? तत्र यद्यदृश्यानुपलम्भः प्रकृतसाध्याभावनिश्चायकोऽभिप्रेतः तदाऽत्रापि कल्पनाद्वयम्-कि स्वसम्बन्धी अनुपलम्भस्तन्निश्चायकः, उत सर्वसम्बन्धी ? यद्यात्मसम्बन्धी तन्निश्चायकः, स न युक्तः, परचेतोवृत्तिविशेषस्तस्यानेकान्तिकत्वात् / अथ सर्वसम्बन्धी अनुपलम्भस्तनिश्चायक इत्यभ्युपगमः, अयमप्ययुक्तः, सर्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्याऽसिद्धत्वात् / अन्य कोई तीसरे प्रमाण का संभव ही नहीं है। निष्कर्ष- ज्ञातव्यापार को सिद्ध करने वाले अर्थप्रकाशनरूप हेतु का अपने साध्य के साथ नियमरूप सम्बन्ध a अन्वय निश्चय के द्वारा निश्चित नहीं हो सकता। [ व्यतिरेकनिश्चय से ज्ञातृव्यापार के नियम का अनिश्चय ] b व्यतिरेक निश्चय द्वारा भी ज्ञातृव्यापार साध्य के साथ अर्थप्रकाशन हेतु का नियम सम्बन्ध का बोध नहीं हो सकता। क्योंकि व्यतिरेक का स्वरूप है-'साध्य न होने पर हेतु का अवश्य अभाव होना' / अब सवाल यह है कि प्रस्तुत 'ज्ञातृव्यापार साध्य नहीं है'- यह कैसे जाना जाय ? प्रत्यक्ष से तो यह जानना अशक्य है, क्योंकि प्रत्यक्षज्ञान केवल भावविषयक ही होता है, अतः अभावविषयकत्व के साथ उसका विरोध है / इसलिये आप (मीमांसक) के मत में प्रत्यक्ष में अभावविषयकत्व मान्य नहीं है। अगर वह मान भी लिया जाय तो अभाव ग्रहण के लिये आपने जो एक स्वतन्त्र अभाव प्रमाण माना है वह बेकार हो जायगा क्योंकि अभाव का ग्रह प्रत्यक्ष से ही हो जायेगा फिर उसकी क्या जरूर? अनुमान से भी साध्याभाव का निश्चय अशक्य है, क्योंकि उसमें भी प्रत्यक्षपक्षत् वविरोध, अनभ्युपगम और अभावप्रमाणव्यर्थता प्रसङ्ग, ये दोष लग सकते हैं। अब यदि यह कहा जाय कि साध्य के अदर्शन से अर्थात् साध्य का दर्शन न होने से उसके विकल्प प्रयुक्त हैं, (1) वह अदर्शन क्या साध्य के अनुपलम्भरूप है या (2) वह अभाव प्रमाणस्वरूप है यह कहो ! [ अनुपलम्भरूप अदर्शन के अनेक विकल्प] अनुपलम्भ और अभावप्रमाण रूप दो विकल्प में अगर प्रथम पक्ष माना जाय तो वह तर्कसंगत नहीं-क्योंकि यहां भी बताना होगा कि-अनुपलम्भ के दो प्रकार में से आप को कौन सा ग्राह्य है-दृश्यानुपलम्भ या अदृश्यानुपलम्भ ? यदि ज्ञातृव्यापार रूप साध्य अदृश्य है इसलिये उसके अनुपलम्भ को प्रकृत ज्ञातृव्यापाररूप साध्य के अभाव का निश्चायक मानते हो तो यहां भी बताना होगा कि तत्सम्बन्धी दो कल्पना में से आपको कौनसी मान्य है-स्वसम्बन्धी अनुपलम्भ या सर्व सम्बन्धी अनुपलम्भ ?, दो कल्पना का तात्पर्य इस प्रश्न में है कि केवल अपने को साध्य का उपलम्भ नहीं है इतने से ही साध्याभाव सिद्ध है ? या सभी को साध्य का उपलम्भ नहीं होता, इसलिये उसके Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95 प्रथमखण्ड-का० १-ज्ञातृव्यापार० अथ दृश्यानुपलम्भस्तन्निश्चायक इति पक्षः, सोऽप्यसंगतः, यतो दृश्यानुपलम्भश्चतुर्धा व्यवस्थितः-स्वभावानुपलम्भः, कारणानुपलम्भः, व्यापकानुपलम्भः, विरुद्धविधिश्चेति / तत्र यदि स्वभावानुपलम्भस्तन्निश्चायकत्वेनाऽभिमतः, स न युक्तः, स्वभावानुपलब्धस्यैवंविधे विषये व्यापाराऽसम्भवात् / तथाहि-एकज्ञानसंसगिणस्तुल्ययोग्यतास्वरूपस्य भावान्तरस्याऽभावव्यवहारसाधकत्वेन पर्युदा. सवृत्या तदन्यज्ञानस्वभावोऽसावभ्युपगम्यते, न च प्रकृतस्य साध्यस्य केनचित् सहैकज्ञानसंसर्गित्वं संभक्तीति नात्र स्वभावानुपलम्भस्य व्यापारः / नाऽपि कारणानपलम्भः प्रकतसाध्याभावनिश्चायकः, यतः सिद्ध कार्यकारणभावे कारणानुपलम्मः कार्याभावनिश्चायकत्वेन प्रवर्तते, न च प्रकृतस्य साध्यस्य केनचित् सह कार्यत्वं निश्चितम् , तस्याऽदृश्यत्वेन प्रागेव प्रतिपादनात् / प्रत्यक्षानुपलम्भनिबन्धनश्च कार्यकारणभाव इति कारणानुपल अभाव की सिद्धि होती है ? यदि आत्मसम्बन्धी याने अपने को उपलम्भ नहीं होता-यह प्रथम विकल्प साध्याभाव का निर्णायक कहा जाय तो यह अयुक्त है क्योंकि उसमें व्यभिचार दोष है, वह इस प्रकारजिस वस्तु का अपने को उपलम्भ नहीं होता फिर भी दूसरे की चित्तवृत्ति को उसका उपलम्भ हो सकता है-तो वहाँ उस वस्तु का अभाव नहीं माना जाता, तब यहाँ भी केवल अपने को साध्य का उपलम्भ नहीं होता है, फिर भी दूसरे की चित्तवृत्ति में उसका उपलम्भ होता हो तो उसका इनकार नहीं हो सकता, तो यहाँ साध्य का अभाव केवल स्वसम्बन्धी अनुपलम्भ से सिद्ध नहीं हो सकता है-यही व्यभिचार हुआ। . ___ यदि दूसरा विकल्प मानकर कहा जाय कि 'सभी को साध्य का उपलम्भ नहीं होता' तो यह भी अयुक्त ही है, क्योंकि 'ज्ञातव्यापार रूप साध्य का किसी को भी उपलम्भ ही नहीं होता' यह सर्वथा असिद्ध है, क्योंकि अल्पज्ञ व्यक्ति ऐसा नहीं बता सकते। [ दृश्यानुपलम्भ के विविध विकल्प ] अब यदि प्रथम विकल्प को मानकर यह कहें कि ज्ञातृव्यापार का अनुपलम्भ यह दृश्य का अनुपलम्भ है और उससे ज्ञातृव्यापार के अभाव का निश्चय होगा, तो यह भी संगत नहीं है, क्योंकि दृश्यानुपलम्भ का चार प्रकार है-स्वभावानुपलम्भ, कारणानुपलम्भ, व्यापकानुपलम्भ, और विरुद्ध विधि यानी विरुद्धोपलब्धि / इनमें से यदि पहला स्वभावानुपलम्भ ज्ञातृव्यापार के अभाव का निश्चायक माना जाय तो वह युक्त नहीं है, क्योंकि ज्ञातव्यापार के अभाव के निर्णय में स्वभावानुपलम्भ का कुछ भी व्यापार संभवित नहीं है। वह इस प्रकार-स्वभावानपलम्भ में अनुपलम्भ शब्द में नत्र का प्रयोग पर्युदासवृत्ति से है, प्रसज्यवृत्ति से नहीं है, इसलिये स्वभावानुपलम्भ का अर्थ होता है प्रकृत साध्य से इतर का उपलम्भ - ज्ञान / ऐसा अर्थ फलित होने का कारण यह है कि जहाँ दो वस्तु एकज्ञानसंसर्गी होते हैं अर्थात् एक ही ज्ञान दोनों को विषय करने वाला होता है और इस प्रकार दोनों की एकज्ञान के विषय होने की तुल्य योग्यता होती है तब दोनों में से एक का ही उपलम्भ होने पर दूसरी वस्तु के अभाव का व्यवहार किया जाता है। जैसे भूतल और घट तुल्य योग्यता वाले होने से तथा एक ही ज्ञान के संसगि होने से जब शून्य भूतलमात्र का उपलम्भ होता है तब घट के अभाव का व्यवहार किया जाता है / प्रस्तुत में प्रकृतसाध्य का कोई एकज्ञानसंसर्गी होने की संभावना ही नहीं है, इसलिये स्वभावानुपलम्भ की प्रस्तुत में कोई गति शक्य नहीं है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 म्भोऽपि न तन्निश्चायकः / व्यापकानुपलम्भस्तु सिद्ध व्याप्य व्यापकभावे व्याप्याभावसाधकोऽभ्युपगम्यते, न च प्रकृतसाध्यव्यापकत्वेन कश्चित् पदार्थो निश्चेतु शक्यः, प्रकृतसाध्यस्यादृश्यत्वप्रतिपा. दनात् / तन्न व्यापकानुपलम्भोऽपि तन्निश्चायकः / विरुद्धोपलब्धिरप्यत्र विषये न प्रवर्तते / तथाहि-एको विरोधोऽविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावेऽभावात् सहानवस्थानलक्षणो निश्चीयते शीतोष्णयोरिव विशिष्टात् प्रत्यक्षात , न च प्रकृतं साध्यमविकलकारणं कस्यचिद् भावे निवर्तमानमुपलभ्यते तस्याऽदृश्यत्वादेव। द्वितीयस्तु परस्परपरिहारस्थितिलक्षणः, सोऽपि लक्षणस्य स्वरूपव्यवस्थापकधर्मरूपस्य दृश्यत्वाभ्युपगमनिष्ठो दृश्यत्वाभ्युपगमनिमित्तप्रमाणनिबन्धनो न प्रकृतसाध्यविषये संभवति, तन्न ततोऽपि प्रस्तुतसिद्धिः। तन्न साध्यस्याभावनिश्चयोऽनुपलम्भनिबन्धनः / [ कारणानुपलम्भ से ज्ञातृव्यापार का अभावनिश्चय अशक्य ] कारणानुपलम्भ से प्रकृत साध्य के अभाव का निश्चय माना जाय तो यह भी संभव नहीं है, क्योंकि दो वस्तु में कार्यकारणभाव सिद्ध हो वहाँ कारण के अनुपलम्भ से कार्य के अभाव का निश्चय किया जा सकता है। किंतु प्रकृत साध्य के प्रति किसी की कारणता ही निश्चित नहीं है क्योंकि वह अदृश्य है यह पहले कहा जा चुका है। यह भी समझना चाहिये कि कार्यकारणभाव तो प्रत्यक्षअनुपलम्भमूलक होता है इसलिये जब तक अनुपलम्भ अनिश्चित रहेगा तब तक कार्य-कारण भाव ही सिद्ध नहीं होगा तो कारणानपलम्भ से प्रकृत साध्य के अभाव निश्चय की बात ही कहाँ ? व्यापकान पलम्भ भो प्रकृत साध्य के अभाव का निश्चय नहीं करा सकता। उसका कारण यह है कि दो वस्तु में व्याप्यव्यापक भाव सिद्ध होने पर व्यापक की अनपलब्धि से व्याप्य का अभाव सिद्ध होता है। प्रकृत साध्य तो दृश्य नहीं अदृश्य है ऐसा कहा गया है, इसलिये उसके व्यापकरूप में किसी पदार्थ का निश्चय ही शक्य नहीं है जिसके अनुपलम्भ से उसका अभाव सिद्ध हो सके। [विरुद्धोपलब्धि से ज्ञातृव्यापाराभाव का अनिश्चय ] प्रकृत साध्य के अभाव निश्चय में विरुद्धोपलब्धि भी असफल है / जैसे, विरोध दो प्रकार का संभवित है 1 सहानवस्थानरूप, जब एक भाव की कारणसामग्री अविकल होने पर भी अन्य भाव की उपस्थिति में उसकी सदा अनुत्पत्ति या अभाव ही रहता है तब निश्चित होता है कि यहाँ सहानवस्थानरूप विरोध है जैसे कि विशिष्ट प्रत्यक्ष यानी स्पार्शन प्रत्यक्ष से, शीत स्पर्श के रहने पर उष्ण स्पर्श वहां नहीं रह सकता और उष्ण स्पर्श रहने पर शीत स्पर्श वहाँ नहीं रह सकता / प्रस्तुत में जो साध्य है वह अविकल कारणवाला होता हुआ किसी अन्य भाव की उपस्थिति में कभी न रहता हो -ऐसा देखा नहीं गया क्योंकि वह साध्य ही अदृश्य है। दूसरा परस्परपरिहार रूप विरोध है, दो पदार्थ सदा के लिये एक-दूसरे के अभाव में एक दूसरे के आक्षेपक हो जैसे गोत्व और गोत्वाभाव, तो उन दोनों का परस्परपरिहार रूप विरोध कहा जाता है। यह विरोध गो के स्वरूप का व्यवस्थापक असाधारण गोत्व धर्म के दृश्य होने पर ही अवलम्बित है तथा गोत्व को दृश्य मानने में निमित्त भूत जा प्रत्यक्ष प्रमाण, तन्मूलक है / तात्पर्य, प्रत्यक्ष प्रमाण से गोत्व जब दृश्य यानी साक्षात्कार विषयीभूत होता है तभी गोत्व और गोत्वाभाव के बीच प्रत्यक्ष प्रमाण से परस्परपरिहाररूप विरोध का निश्चय होता है / प्रस्तुत में जो प्रकृत साध्य है वह तो अदृश्य है इसलिये उसके दूसरे प्रकार का विरोधी भी Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ज्ञातृव्यापार० साधनाभावनिश्चयोऽपि नाऽदृश्यानुपलम्भनिमित्तः, उक्तदोषत्वात् / दृश्यानुपलम्भनिमित्तत्वेऽपि न स्वभावानुपलम्भस्तन्निमित्तम् , उद्दिष्टविषयाभावव्यवहारसाधकत्वेन तस्य व्यापाराभ्युपगमात् / अनुद्दिष्टविषयत्वेऽपि यत्र यत्र साध्याभावस्तत्र तत्र साधानाभाव इत्येवं न ततः साधनाभावनिश्चयः, तनिश्चयश्च नियमनिश्चयहेतुरिति न स्वभावानुपलम्भोऽपि तनियमहेतुः / नापि कारणानुपलम्भः, यतः कारणं ज्ञातृव्यापार एवार्थप्रकटतालक्षणस्य हेतोर्भवताऽभ्युपगम्यते, न चासौ प्रत्यक्षसमधिगम्य इति कुतस्तस्य सम्प्रति [ ? तं प्रति ] कारणत्वावगमः ? इति न कारणानुपलम्भोऽपि तदभावनिश्चयहेतुः / व्यापकानुपलम्भेऽप्ययमेव न्यायः, यतो व्यापकत्वमपि पूर्वोक्तहेतु प्रति ज्ञातृव्यापारस्यैवाभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथाऽन्यस्य व्यापकत्वे साध्यविपक्षाद् व्यापकनिवृत्तिद्वारेण निवर्तमानमपि साधनं न साध्यनियतं स्यात् / उपलब्ध नहीं हो सकता. जिससे उसके अभाव का निश्चय किया जा सके / निष्कर्ष यह आया कि प्रकृत साध्य के अभाव का निश्चय अनुपलम्भमूलक नहीं है / [ अर्थप्राकट्यरूप साधन के अभाव का अनिश्चय ] ___ज्ञातृव्यापार रूप साध्य के अभाव का निश्चय जैसे अनुपलम्भनिमित्तक नहीं है वैसे अर्थप्रकटता रूप साधन के अभाव का निश्चय भी अनुपलम्भमूलक होना शक्य नहीं है। यदि उसे अदृश्यानुपलम्भमूलक माना जाय तो उसमें भी स्वसम्बन्धी-सर्वसंबन्धी आदि विकल्प लागू करने पर वे ही दोष आयेंगे जो साध्याभाव के निश्चय में लगाये हैं। दृश्यानुपलम्भमूलक माना जाय तो उसमें चार विकल्प पूर्ववत् लागू करने पर पहले विकल्प में, साधनाभाव का निश्चायक स्वभावानुपलम्भ नहीं हा सकता क्योंकि उसका व्यापार पर्युदासनत्र वृत्ति से पूर्वकथित एकज्ञानसंसर्गि ऐसे भावान्तर के अभाव का व्यवहार सिद्ध करने में ही है, क्योंकि वह अन्यज्ञानस्वभाव है। कदाचित् पूर्वकथितविषयक उसका व्यापार न भी माना जाय तो भी 'जहाँ जहाँ साध्याभाव हो वहाँ वहाँ साधन का अभाव होता है' इस प्रकार के व्यतिरेक निश्चय का अंगभूत साधनाभाव का निश्चय तो उससे कथमपि शक्य नहीं है। साधनाभाव का निश्चय तो उक्त व्यतिरेक के निश्चय में अंगभूत होने से जब तक साधनाभाव का निश्चय स्वभावानुपलम्भ से नहीं होगा तब तक स्वभावानुपलम्भ यह व्यतिरेक निश्चयमूलक उक्त नियम की सिद्धि में हेतु भी नहीं बन सकता- यह तो स्पष्ट बात है। [ कारणानुपलम्भ और व्यापकानुपलम्भ से साधनाभाव का अनिश्चय ] * कारणानुपलम्भ भी साधनाभाव का निश्चायक नहीं हो सकता, क्योंकि अर्थप्रकटतारूप हेतु का जो आपने जनक माना है ज्ञातव्यापार, उसका अधिगम प्रत्यक्ष से तो संभव नहीं है फिर अर्थप्रकटता के प्रति उसकी कारणता का ग्रह कैसे किया जाय ? फलित यह होता है कारणानुपलम्भ भी साधनाभाव के निश्चय का हेतु नहीं बन सकता। व्यापकानुपलम्भ में भी यही न्याय लागू होता है। क्योंकि अर्थप्रकटता हेतु का व्यापक प्रस्तुत में साध्यभूत ज्ञातृव्यापार को ही मानना होगा। उसको छोडकर अन्य किसी को व्यापक मानने पर उस व्यापक की जहाँ जहाँ निवृत्ति (=अभाव) होगी वहाँ तो साधनाभाव की सिद्धि हो सकेगी किन्तु ज्ञातृव्यापार के अभावर थल में साधनाभाव की निवृत्ति निश्चित न हो सकेगी। फलतः व्यतिरेक निश्चय द्वारा साधन का साध्य के साथ नियम अनिश्चित ही रहेगा। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 . प्रथ यथा सत्त्वलक्षणो हेतुः क्षणिकत्वलक्षणसाध्यव्यतिरिक्तनमयोगपद्यस्वरूपपदार्थान्तरव्यापकनिवृत्तिद्वारेणाऽक्षणिकलक्षणाद् विपक्षाद् व्यावर्तमानः स्वसाध्यनियतस्तथा प्रकृतोऽपि हेतुर्भविष्यति। असम्यगेतत, यतस्तत्रापि यद्यर्थक्रियालक्षणसत्त्वव्यापके क्रम सिद्धे भवतः तदा तन्निवृत्तिद्वारेण विपक्षाद् व्यावर्त्तमानोऽपि सत्त्वलक्षणो हेतुः स्वसाध्यनियतः स्यात्, अन्यथा तत्र व्यापकवृत्त्यनिश्चये राश्यन्तरे क्षणिकाऽक्षणिकरूपे तस्याशंक्यमानत्वेन तद्वयाप्यस्यापि नैकान्ततः क्षणिकनियतत्वनिश्चयः। न च प्रकृतसाध्येऽयं न्यायः, तस्यात्यन्तपरोक्षत्वेन हेतव्यापकभावान्तराधिकरणत्वाऽसिद्धेः / तन्न व्यापकानुपलम्भनिमित्तोऽपि विपक्षे साधनाभावनिश्चयः / नापि विरुद्धोपलब्धिनिमित्तः, प्रकृतसाध्यस्यात्यन्तपरोक्षत्वेन तदप्रतिपत्तौ तदभावनियतविपक्षस्याप्यप्रतिपत्तितस्तेन सहार्थप्रकाशनलक्षणस्य हेतोः सहानवस्थानलक्षणविरोधासिद्धेः। परस्परपरि [ सच हेतु से क्षणिकत्व के साधन का असंभव ] यहाँ कोई शंका करते हैं कि-"जैसे सत्त्व हेतु का जो क्षणिकत्व साध्य है उससे अतिरिक्त सत्त्व का व्यापक, क्रम यानी क्रम से कार्यों को करना' और 'योगपद्य यानी एक साथ सर्व कार्यों का करना' ये दो अन्य पदार्थ हैं, उनकी अक्षणिक भाव से निवृत्ति भी यह कह कर बतायी जाती है कि अक्षणिकभाव क्रम से अन्य अन्य कार्यों को नहीं उत्पन्न कर सकता, क्योंकि कि तब स्वभावभेद की आपत्ति आती है, एवं एकसाथ भी सर्व कार्य नहीं कर सकता क्योंकि तब दूसरे क्षण बेकार बन जाने से सत्त्व का लक्षण अर्थक्रियाकारित्व उसमें नहीं रहेगा। इस प्रकार अक्षणिकभावरूप विपक्ष से क्रम-योगपद्य व्यापकद्वय की निवत्ति बता कर सत्त्वरूप व्याप्य की निवृत्ति सिद्ध करके क्षणिकत्व रूप अपने साध्य के साथ उसकी व्याप्यता सिद्ध की जाती है, उसी रीति से प्रकृत साध्य से इतर की निवृत्ति द्वारा अर्थप्रकटतारूप हेतु की ज्ञातव्यापार रूप साध्य के साथ नियतता क्यों नहीं दिखाई जा सकती ?"-किन्तु यह शंका समीचीन नहीं है, क्योंकि ऐसा तभी कहा जा सकता है जब क्षणिकवाद में क्षणिक पदार्थ में किसी प्रमाण से अर्थक्रिया स्वरूप सत्त्व के व्यापक क्रम और यौगपद्य निश्चित हो तब अक्षणिक भाव से उनकी निवृत्ति से सत्त्वरूप हेतु की निवृत्ति बताने द्वारा क्षणिकत्व साध्य के साथ सत्त्व हेतु के नियम की सिद्धि की जा सकती है, किन्तु क्षणिक भाव में क्रम-योगपद्य का किसी प्रमाण से निश्चय ही नहीं है। इस निश्यय के विना अर्थात् क्रम-योगपद्यरूप व्यापक का क्षणिक भाव में निश्चय किये विना भो यदि क्षणिकत्व के साथ सत्त्व का नियम पूर्वोक्त रीति से मान लिया जाय तो राश्यन्तर वादी अर्थात् पदार्थ क्षणिक नहीं है, अक्षणिक भी नहीं है किंतु तीसरे ही राशि यानी तीसरे प्रकार का अर्थात् क्षणिकाक्षणिक उभयरूप है ऐसा जो मानते हैं वे भी कहेंगे कि क्रम और योगपद्य 'क्षणिकाक्षणिक' भाव में भले अनिश्चित हो किंतु वे दोनों क्षणिकभाव में और अक्षणिकभाव में घटित न होने से वहां से निवृत्त होता हुआ उसके व्याप्य अर्थक्रियात्मक सत्त्व की भी निवृत्ति कर देने से आखिर 'क्षणिकाक्षणिक' भाव से उसकी व्याप्ति की कल्पना की जा सकती है। तो ऐसा कहने पर एकान्तक्षणिकत्व के साथ सत्त्व की व्याप्ति का भी निश्चय नहीं हो सकेगा। और सच बात तो यह है कि प्रकृत साध्य ज्ञातृव्यापार में तो उक्त कथन भी लागू नहीं हो सकता क्योंकि साध्य ही अत्यन्त परोक्ष है इसलिये हेतु का उससे अन्य कोई व्यापक भी सिद्ध नहीं है, तब उसका अधिकरण भी असिद्ध होने से विपक्षादि का निश्चय न होने पर साधन के अभाव का निश्चय दूरतरवर्ती हो जाता है / निष्कर्ष यह आया कि विपक्ष में साधन के अभाव का निश्चय व्यापकानुपलम्भ द्वारा भी शक्य नहीं है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-ज्ञातृव्यापार० हारस्थितिलक्षणस्तु विरोधोऽन्योन्यव्यवच्छेदरूपयोरर्थप्रकाशनाऽप्रकाशनयोः संभवति, न पुनरर्थप्रकाशनज्ञातृव्यापारयोः, अन्योन्यव्यवच्छेदरूपत्वाभावात् / नापि ज्ञातव्यापारनियतत्वादर्थप्रकाशनस्य साध्यविपक्षेण विरोध इति शक्यमभिधातुम् , अन्योन्याश्रयदोषप्रसक्तेः / तथाहि-सिद्धे तन्नियतत्वे तद्विपक्षविरोधसिद्धिः, तत्सिद्धेश्च तन्नियतत्वसिद्धिरिति स्पष्ट एवेतरेतराश्रयो दोषः। तन्न विरुद्धोपलब्धिनिमित्तोऽपि विपक्षे साधनाभावनिश्चय.। अथाऽदर्शनशब्देन अभावाख्यं प्रमाणं व्यतिरेकनिश्चयनिमित्तमभिधीयते, तदप्यनुपपन्नम् , तस्य तनिमित्तत्वाऽसंभवात् / तथाहि-निषेध्यविषयप्रमाणपंचकस्वरूपतयाऽऽत्मनोऽपरिणामरूपं वा तदभ्युपगम्येत, तदन्यवस्तुविषयज्ञानरूपं वा? गत्यन्तराभावात् / तदुक्तम्-[श्लो० वा० सू० ५-श्लो० 11] प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते / सात्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनि // तत्र यदि ‘निषेध्यविषयप्रमाणपंचकरूपत्वेनाऽऽत्मनोऽपरिणामलक्षणमभावाख्यप्रमाणं साधनाभावनियतसाध्याभावस्वरूपव्यतिरेकनिश्चयनिमित्तं' इत्यभ्युपगमः, स न युक्तः, तस्य समुद्रोदकपलपरिमाणेनानैकान्तिकत्वात् / [साधनाभाव का निश्चय विरुद्धोपलब्धि से अशक्य ] विरुद्धोपलब्धि से भी साधनाभाव का निश्चय संभवित नहीं, क्योंकि अर्थप्रकाशनरूप प्रकृत हेतु का ज्ञातृव्यापार रूप साध्य तो अत्यन्तपरोक्ष होने से उसका अवगम न होने पर साध्याभाव से नियत जो साध्य का विपक्ष है वह भी अनवगत ही रह जायेगा और उसके अनवगत रहने पर उसके साथ अर्थप्रकाशनरूप हेतु का सहानवस्थान रूप विरोध भी सिद्ध नहीं हो सकता / परस्परपरिहारस्थितिलक्षण विरोध तो एक दूसरे का व्यवच्छेद करने वाले अर्थ-प्रकाशन और अर्थ के बीच हो सकता है किन्त अर्थप्रकाशन और ज्ञातव्यापार परस्पर व्यवच्छेद रूप न होने से उन दोनों के बीच उसका संभव नहीं है / यह भी कहना शक्य नहीं कि-'अर्थप्रकाशन रूप हेतु ज्ञातृव्यापार रूप साध्य के साथ नियत यानी व्याप्त होने से साध्य के विपक्ष के साथ उसका विरोध होना ही चाहिये ।'-कारण, साध्य के साथ हेतु का नियम सिद्ध करने के लिये उसके निश्चायक व्यतिरेक का तो अभी विचार चल रहा है तब उसी नियम को सिद्ध जैसा मानकर यह कैसे कहा जा सकता है कि विरोध उस नियम से सिद्ध है ? ऐसा कहने पर तो अन्योन्याश्रय दोष ही लगेगा, क्योंकि उस नियम के सिद्ध होने पर साध्य का विपक्ष के साथ विरोध सिद्ध होगा और विरोध सिद्ध होने पर वह नियम सिद्ध होगा। इस प्रकार यह मानना होगा कि विपक्ष में साधन के अभाव का निश्चय जो कि नियम के निश्चय में उपयोगी है वह विरुद्धोपलब्धि के द्वारा शक्य नहीं है / [ अभाव प्रमाण से व्यतिरेक का निश्चय दुःशक्य ] अब नियमसाधक व्यतिरेकनिश्चय की सिद्धि के लिये पूर्व में कहे गये 'अदर्शननिश्चेयः' शब्द में अदर्शन शब्द से अभावनाम के प्रमाण को लेकर उसको व्यतिरेक निश्चय का निमित्त माना जाय तो यह संगत होने वाला नहीं है, क्योंकि दो विकल्प से विचार करने पर अभाव प्रमाण उसका निमित्त ही नहीं बन सकता। प्रथम विकल्प-'जिस वस्तु का निषेध करना है उसको विषय करने वाले प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाणरूप में आत्मा का परिणत नहीं होना' इसी को अभावप्रमाण कहते हैं ? या Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथान्यवस्तुविषयविज्ञानस्वरूपमभावाख्यं प्रमाणं व्यतिरेकनिश्चयनिमित्तमिति पक्षः, सोऽपि न युक्तः विकल्पानुपपत्तेः / तथाहि-कि तत् साध्यनियतसाधनस्वरूपादन्यद् वस्तु यद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानमित्युच्यते ? यदि यथोक्तसाधनस्वरूपव्यतिरिक्तं पदार्थान्तरं तदा वक्तव्यम्-तद् एकज्ञानसंसर्गि साधनेन सह उतान्यथा? इति / यदि यथोक्तसाधनेनैकज्ञानसंगि तदा तद्विषयज्ञानात सिध्यति यथोक्तसाधनस्याभावनिश्चयः प्रतिनियतविषयः, कित 'यत्र यत्र साध्याभावस्तत्र तत्रावश्यंतया साधनस्याप्य- . भावः' इत्येवंभूतो व्यतिरेकनिश्चयो न ततः सिध्यति सर्वोपसंहारेण साधनाभावनियतसाध्याभावनिश्चयश्च हेतोः साध्यनियतत्वलक्षणनियमनिश्चायक इति नेकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्तरोपलम्भादभावाख्यात प्रमाणाद् व्यतिरेकनिश्चयः / दूसरा विकल्प-उस विषय से अन्य वस्तु का ज्ञान हआ-इसको अभाव प्रमाण कहना है ? इन दो विकल्प से अतिरिक्त तीसरी कोई संभावना अभावप्रमाण में शक्य नहीं / कहा भी है- . “प्रत्यक्षादि अर्थापत्तिपर्यन्त पांच प्रमाण की किसी विषय में अनुत्पत्ति यह अभावप्रमाण का लक्षण है-यह अनुत्पत्ति विवक्षित विषय के ज्ञानरूप में आत्मा के अपरिणामरूप हो सकती है या तो उस विषय से अन्य किसी विषय के ज्ञानरूप हो सकती है / " [ श्लो० वा० 5-11 ] __इन दो विकल्प में से प्रथम विकल्प का अंगीकार करके यह कहा जाय कि-निषेध्यविषय स्पी पांच प्रमाण रूप में आत्मा का अपरिणामरूप अभावप्रमाण, साधनाभाव व्याप्यभूत साध्याभाव यानी 'जहाँ साध्याभाव है वहाँ साधनाभाव है' इस प्रकार के व्यतिरेक के निश्चय का निमित्त होगा।-तो यह यक्त नहीं है, कारण, समद्र जल का जो पल परिमाण है उसमें अभावप्रमाण का चार है। तात्पर द्र के जल का परिमाण कितने पल हैं यह हम प्रत्यक्षादि-अर्थापत्ति पर्यन्त प्रमाणों से जानते नहीं है क्योंकि उसकी संख्या विशाल है, इसलिये प्रत्यक्षादि पांचों प्रमाण से वह अगोचर है, किन्तु 'वह है ही नहीं' यह तो हम नहीं कह सकते अर्थात् वहां अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति मानी नहीं जाती। [ अन्यवस्तुज्ञान से व्यतिरेक निश्चय का असंभव ] यदि दूसरे विकल्प के अंगीकार में यह कहा जाय कि जिस वस्तु का निषेध करना है उससे अन्य वस्तु का ज्ञानरूप अभाव प्रमाण व्यतिरेक निश्चय का निमित्त बनेगा-तो यह पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि यहां जो आगे दो विकल्प दिखायेंगे उनमें से एक भी घटता नहीं है। पहा जिस विषय के ज्ञान को अन्यज्ञानरूप अभावप्रमाण कहा गया है वह विषय क्या साध्यनियतहेतुस्वरूप से अन्य कोई वस्तु है ? दूसरा विकल्प या उस हेतुस्वरूप से भिन्न अपना अभाव ही है ? रा विकल्प व्याख्याकार आगे चल कर बतायेंगे ] प्रथम विकल्प में भी दो अवान्तर विकल्प हैं(१) साध्यनियतहेतुस्वरूप से अन्य जो पदार्थ है वह हेतु के साथ एक ज्ञान संसर्गि है (2) या नहीं है ? यदि साध्यनियत हेतु के साथ एक ज्ञान संसर्गि है तो उस विषय के ज्ञान से प्रतिनियत विषय ला उक्त हेत के अभाव का निश्चय अवश्य सिद्ध होगा कित 'जहाँ जहाँ साध्य नहीं है वहाँ वहाँ हेतु नहीं है' इस प्रकार के व्यतिरेक का निश्चय सिद्ध नहीं हो सकता। साध्याभाव के जितने भी प्रसिद्ध अधिकरण हो उन सभी को उद्देश करके यदि यह निश्चय किया जा सके कि 'जहाँ जहाँ साध्याभाव है वहाँ वहाँ साधनाभाव है' तभी ऐसे निश्चय से 'हेतु साध्य का नियतचारी है' ऐसे [ यह दूसरा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ज्ञातृव्यापार० 101 अथ तदसंसर्गिपदार्थान्तरोपलम्भस्वरूपमभावाख्यं प्रमाण साध्याभावे साधनाभावनिश्चयनिमित्तम् , तदप्यसम्बद्धम् , अतिप्रसंगाद् / न हि पदार्थान्तरोपलम्भमात्रादन्यस्य तदतुल्ययोग्यतारूपस्य तेन सहैकज्ञानाऽसंसर्गिणः पदार्थान्तरस्याभावनिश्चयः, अन्यथा सह्योपलम्भाद् विन्ध्याभावनिश्चयः स्यात् / अथ तथाभूतसाधनादन्यस्तदभावः, तदविषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानं, तद् विपक्षे साधनाभावनिचयनिमित्तम् / ननु तदपि ज्ञानं कि 'यत्र यत्र साध्याभावः तत्र तत्र साधनाभावः' इत्येवं प्रवर्तते, उत 'क्वचिदेव साध्याभावे साधनाभावः' इत्येवं ? तत्र यद्याद्यः कल्पः स न युक्तः, यथोक्तसाधनविविक्तसर्वप्रदेशकालप्रत्यक्षीकरणमन्तरेण एवंभूतज्ञानोत्पत्त्यसम्भवात् / सर्वदेशप्रत्यक्षीकरणे च कालादिविप्रकृष्टानन्तप्रदेक्षप्रत्यक्षीकरणवत् स्वभावादिव्यवहितसर्वपदार्थसाक्षात्करणात स एव सर्वदशी स्यादित्यनुमानाश्रयणं सर्वज्ञाभावप्रसाधनं चानुपपन्नम् / प्रथ द्वितीयपक्षाभ्युपगमः, तदा भवति ततः प्रतिनियते प्रदेशे साध्याभावे साधनाभावनिश्चयः घटविविक्तप्रत्यक्षप्रदेशे इव घटाभावनिश्चयः-किन्तु तथाभूतात साध्याभावे साधनाभावनिश्चयान्न नियमरूप सम्बन्ध का निश्चय हो सकता है, अन्यथा नहीं। इसलिये यह फलित हुआ कि हेतु के साथ एकज्ञानसंसगि पदार्थान्तर के ज्ञानरूप अभावप्रमाण से व्यतिरेक का निश्चय नहीं हो सकता। दूसरे अवान्तर विकल्प में यह कहा जाय कि-साध्याभाव होने पर साधनाभाव का निश्चय, हेतू के साथ एक ज्ञान संबंधी न होने वाले पदार्थान्तर के उपलम्भात्मक अभाव प्रमाण से होगा-तो भी संबंधरहित प्रलापमात्र है, क्योंकि इसमें एक अतिप्रसंग दोष लगता है। जो पदार्थान्तर हेतु की तुल्य योग्यतास्वरूप वाला नहीं है और हेतू के साथ एकज्ञानसंसर्गि भी नहीं है ऐसे पदार्थान्तर के उपलम्भ मात्र से अन्य पदार्थ के अभाव का निश्चय हो जाय यह बात मानने में नहीं आती, अगर ऐसी भी बात मान ली जाय तो सह्याद्रि का उपलम्भ होने पर विन्ध्य पर्वत के अभाव का निश्चय हो जाने का अतिप्रसंग होगा, क्योंकि सह्याद्रि भी विन्ध्यपर्वत के साथ एक ज्ञान संसर्गि नहीं है एवं तुल्य योग्यतास्वरूपवाला भी नहीं है। [साधनान्य स्वाऽभाव के ज्ञान से साधनाभाव का निश्चय अशक्य ] दूसरे मुख्य विकल्प में यह कहा जाय कि जिस विषय के ज्ञान को अन्यज्ञानरूप अभाव प्रमाण कहना है वह विषय साध्यनियतहेतुस्वरूप से अन्य होता हुआ अपना अभाव ही है और इस अभाव संबंधी ज्ञान ही तदन्यज्ञान रूप है जो विपक्ष में हेतु के अभाव के निश्चय का निमित्त बनेगा-तो यहाँ दो प्रश्न हैं-(१) इस प्रकार के तदन्यज्ञान रूप अभाव प्रमाण का क्या यह आकार है-'जहाँ जहाँ साध्य नहीं है वहाँ वहाँ साधन भी नहीं है'-अथवा (2) यह आकार कि 'किसी प्रदेश में साध्य नहीं है तो वहां साधन भी नहीं है' ? इन दो कल्प में से प्रथम कल्प का स्वीकार अयुक्त है-क्योंकि एवं विध साधन रहित जितने भी प्रदेश और जो जो काल है उन सभी का प्रत्यक्ष जब तक न हो तब तक सकल साध्याभाव वाले देश काल में साधनाभाव का ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता। यदि व्यतिरेक निश्चय करने वाले को सर्वदेश-काल का प्रत्यक्ष होता है तो जैसे उसे कालादि से दरतरवर्ती अनन्त प्रदेशों का प्रत्यक्ष होता है उसी प्रकार स्वभावादि से व्यवहित परमाणु आदि समस्त अतीन्द्रिय पदार्थों का साक्षात्कार हो जाने से अनुमान का आशरा लेना ही व्यर्थ होगा एवं सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध करने का प्रयास भी निष्फल होगा। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 व्यतिरेको निश्चितो भवति / साधनाभावनियतसाध्याभावस्य सर्वोपसंहारेण निश्चये व्यतिरेको निश्चितो भवति, अन्यथा यत्रैव साध्याभावे साधनाभावो न भवति तत्रैव साधनसद्भावेऽपि न साध्यमिति न साधनं साध्यनियतं स्यादिति व्यतिरेकनिश्चयनिमित्तो न हेतोः साध्यनियमनिश्चयः स्यात् / तन्न द्वितीयोऽपि पक्षः। अथ न प्रकृतसाधनाभावज्ञानं तद्विविक्तसमस्तप्रदेशोपलम्भनिमित्तं येन पूर्वोक्तो दोषः, किन्तु तद्विषयप्रमाणपंचकनिवृत्तिनिमित्तम् / तदुक्तम्-[ श्लो० वा० सू० 5 अभाव प० श्लो० 1 ] प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते / वस्तुसत्तावबोधार्थ तत्राभावप्रमाणता // नन्वत्रापि वक्तव्यम्-कि सर्वदेश-कालावस्थितसमस्तप्रमातृसम्बन्धिनी तन्निवृत्तिस्तथाभूतसाधनाभावज्ञाननिमित्तं, उत प्रतिनियतदेशकालावस्थितात्मसम्बन्धिनी इति कल्पनाद्वयम् / यद्याद्या कल्पना सा न युक्ता, तथाभूतायास्तनिवृत्तेरसिद्धत्वात् / न चाऽसिद्धाऽपि तथाभूतज्ञाननिमित्तम् , अतिप्रसंगाव-सर्वस्यापि तथाभूतज्ञाननिमित्तं स्याव , केनचित् सह प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावात् , अनभ्युपगमाच्च / न हि परेणापि प्रमाणपंचकनिवृत्तेरसिद्धाया अभावज्ञाननिमित्तताऽभ्युपगता, कृतयत्नस्यैव प्रमाणपंचकनिवृत्तेरभावसाधनत्वप्रतिपादनात् / / गत्वा गत्वा तु तान् देशान् यद्यर्थो नोपलभ्यते / तदान्यकारणाभावादसन्नित्यवगम्यते / [श्लो. वा. सू. 5 अर्था श्लो. 38 ] इत्यभिधानात् / यदि दूसरा प्रश्नकल्प मान ले तो वहाँ जिस देश में साध्याभाव का निश्चय है उस प्रतिनियत देश में साधनाभाव का निश्चय शक्य है, जैसे घटशून्य भूतल को प्रत्यक्ष देखने पर घटाभाव का निश्चय भूतल में होता है। किंतु इस प्रकार के अभाव प्रमाण से साध्य के अभाव में साधनाभाव का निश्चय होने पर भी जिस प्रकार के व्यतिरेक का निश्चय अभिप्रेत है वह नहीं हो सकता / वह तो तभी होता यदि साधनाभावनियत साध्याभाव का सर्वोपसंहार करके अर्थात सभी देश काल के 3 र्भाव से निश्चय हो / अन्यथा जहाँ साध्याभाव रहने पर भी साधनाभाव न रहेगा वहाँ साधन के रहने पर भी साध्य न रहने से वह साधन साध्यनियत नहीं होगा। निष्कर्ष यह.आया कि हेतु-साध्य के बीच नियमात्मक संबंध के निश्चय में व्यतिरेकनिश्चय निमित्त नहीं हो सकता / इसलिये अन्वयनिश्चयवत् व्यतिरेकनिश्चय से नियमनिश्चय होने का दूसरा पक्ष भी अयुक्त है। उक्त के विरोध में प्रतिवादी कहता है कि-अर्थप्रकटतारूप प्रकृतसाधन के अभावज्ञान में साधनशून्य सर्वदेशकाल का उपलम्भ निमित्त ही नहीं है, अत: उस उपलम्भ को अशक्य बताकर पूर्व में दोष दिया गया है वह नहीं लगेगा। साधनाभावज्ञान का निमित्त तो 'प्रत्यक्षादि पाँच में से उस विषय में किसी भी प्रमाण की प्रवृत्ति का न होना' यही है। जैसे कि कहा है - जिस वस्तु के स्वरूप में वस्तु की सत्ता जानने के लिये प्रमाण पंचक प्रवृत्त नहीं होता वहाँ अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति होती है। इस कथन पर व्याख्याकार प्रतिवादी को कहते हैं कि यह बताईये कि-पूर्वोक्त साधनाभावज्ञान का निमित्तभूत प्रमाण पंचक की निवृत्ति क्या सर्वदेशकालगत समस्त प्रमातृलोक सम्बन्धी मानी जाय या केवल सीमित देशकालगतस्वमात्रसम्बन्धी मानी जाय? ये दो कल्पना Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-ज्ञातृव्यापार० 103 न चेन्द्रियादिवदज्ञाताऽपि प्रमाणपंचकनिवृत्तिरभावज्ञानं जनयिष्यतीति शक्यमभिधातुम् / प्रमाणपंचकनिवृत्तेस्तुच्छरूपत्वात् / न च तुच्छरूपाया जनकत्वम् , भावरूपताप्रसक्तेः, एवलक्षणस्य भावत्वात् / तन्न सर्वसम्बन्धिनी प्रमाणपंचकनिवत्तिविपक्षे साधनाभावनिश्चयनिबन्धनम् / नाप्यात्मसम्बन्धिनी तन्निमित्तम् , यतः साऽपि किं तादात्विकी, अतीतानागतकालभवा वा ? न पूर्वा, तस्या गंगापुलिनरेणुपरिसंख्यानेनानकान्तिकत्वात् / नोत्तरा, तादात्विकस्यात्मनस्तन्निवृत्तेरसंभवाद् असिद्धत्वाच्च / तन्न आत्मसंबन्धिन्यपि प्रमाणपंचकनिवृत्तिस्तज्ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तम् , तन्न अन्यवस्तुविज्ञानलक्षणमप्यभावाख्यं प्रमाणं व्यतिरेकनिश्चयनिमित्तम् / प्रथम कल्पना युक्त नहीं है, क्योंकि सर्वदेश काल में सभी प्रमाता को प्रकृत साधन के विषय में प्रत्यक्षादि प्रमाण पंचक की निवृत्ति है यह बात असिद्ध है। असिद्ध होने पर भी उस निवृत्ति से तथाभूत साधन के अभाव की कल्पना की जाय तो अनिष्ट प्रसंग होने वाला है क्योंकि ऐसी असिद्ध निवृत्ति तो सभी प्रमाता को सुलभ हो सकती है, उसकी प्रत्यासत्ति किसी भी प्रमाता से दूर नहीं है अतः सभी प्रमाता को तथाभूत साधन का अभावज्ञान हो जायगा। यह बात आपको भी मान्य नहा है / आशय यह है कि असिद्ध प्रमाण पंचक निवत्ति को अभाव ज्ञान का निमित्त आप भी नहीं मानते क्योंकि प्रयत्न करने पर भी प्रत्यक्षादि प्रमाणपंचक की प्रवृत्ति न हो तभी उसकी निवृत्ति को अभावसाधनरूप में बताया गया है / श्लोकवात्तिक में भी यही कहा गया है कि.. "उन देशों में बार बार जाने पर भी यदि पदार्थोपलब्धि नहीं होती तो उसका दूसरा कोई कारण न होने से वहाँ वह पदार्थ ही असत् समझा जाता है" / [ अज्ञात प्रमाणपंचकनिवृत्ति से अभावज्ञान अशक्य ] . असिद्ध प्रमाणपंचक निवृत्ति अभाव ज्ञान का निमित्त नहीं है-इसके विरुद्ध यह कहना भी शक्य नहीं है कि-'जैसे इन्द्रिय स्वयं अतीन्द्रिय होने के कारण ज्ञात न होकर भी ज्ञानजनक होती है इस प्रकार अज्ञात भी प्रमाणपंचकनिवृत्ति अभावज्ञान को उत्पन्न करेगी।'- क्योंकि इन्द्रिय तो भावात्मक वस्तु है, प्रमाणपंचकनिवृत्ति अभावात्मक तुच्छ है. तच्छ किसी का जनक नहीं हो सकता, अन्यथा वह तुच्छ न होकर भावरूप बन जायेगा क्योंकि उत्पादकतालक्षणयुक्त वस्तु भावात्मक होती है। इस का सार यह है कि विपक्ष में साधनाभाव का निश्चय प्रमाणपंचकनिवृत्तिमूलक नहीं है / एवं आत्मसंबन्धिप्रमाणपंचकनिवृत्तिमूलक भी वह नहीं हो सकती क्योंकि यहां दो विकल्प घट नहीं सकते / प्रथम विकल्प-जिस काल में साधनाभाव का निश्चय करना है, क्या उस काल में आत्मसंबंधी प्रमाणपंचकनिवृत्ति को उसका निमित्त मानेंगे या दूसरा विकल्प:-अतीत-अनागत काल संबंधी निवृत्ति को भी उसका निमित्त मानेंगे? प्रथम विकल्प की बात युक्त नहीं है क्योंकि यहां अनैकान्तिक दोष इस प्रकार लगता है कि गंगातटसंगी जितने रेणु कण हैं उनका संख्या परिमाण जानने के लिये तत्कालीन आत्मसंम्बन्धी प्रत्यक्षादि सभी प्रमाण वहां निष्फल है फिर भी वहाँ संख्या परिमाण का अभाव नहीं माना जाता। अतीतानागतकालीनवाला दूसरा विकल्प भी युक्त नहीं, क्योंकि तत्कालसंबन्धी आत्मा में अतीत अनागत काल संबन्धी प्रमाणपंचक की निवत्ति की संभावना ही नहीं हो सकती और वह सिद्ध भी कहाँ है ? इसलिये प्रमाणपंचक निवृत्ति साधनाभाव निश्चय का निमित्त नहीं बन सकती। सारे विचारों का निष्कर्ष यह है कि विज्ञानमन्यवस्तुनि०' Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [प्रासंगिकमभावप्रमाणनिराकरणम् ] यच्च-गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् / मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया / / [ श्लो० वा० सू० 5, अभाव प० श्लो० 27 ] इत्यभावप्रमाणोत्पत्तौ निमित्तप्रतिपादनम् , तत्र कि वस्त्वन्तरस्य प्रतियोगिसंसृष्टस्य ग्रहणं आहोस्विद् असंसृष्टस्य ? तत्र यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः, प्रतियोगिसंसृष्टवस्त्वन्तरस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणे प्रतियोगिनः प्रत्यक्षेण वस्त्वन्तरे ग्रहरणाद् नाऽभावाख्यप्रमाणस्य तत्र तदभावग्राहकत्वेन प्रवृत्तिः, प्रवृत्तौ वा प्रतियोगिसत्त्वेऽपि तदभावग्राहकत्वेन प्रवृत्तेविपर्यस्तत्वान्न प्रामाण्यम् / अथ प्रतियोग्यसंसृष्टवस्त्वन्तरग्रहणं तदा प्रत्यक्षेणैव प्रतियोग्यभावस्य गृहीतत्वात्तत्राभावाख्यं प्रमाणं प्रवर्तमानं व्यर्थम् / अथ प्रतियोग्यसंसृष्टतावगमो वस्त्वन्तरस्याभावप्रमाणसंपाद्यस्तहि तदप्यभावाख्यं प्रमाणं प्रतियोग्यसंसृष्टवस्त्वन्तरग्रहणे सति प्रवर्तते, तदसंसृष्टतावगमश्च पुनरप्यभावप्रमाणसंपाद्य इत्यनवस्था। तथा, प्रतियोगिनोऽपि स्मरणं कि वस्त्वन्तरसंसृष्टस्य अथाऽसंसृष्टस्य ? यदि संसृष्टस्य तदा नाऽभावप्रवृत्तिरिति पूर्ववद्वाच्यम् / अथाऽसंसृष्टस्य स्मरणं, ननु प्रत्यक्षेण वस्त्वन्तराऽसंसृष्टस्य प्रतिकारिका का अन्य वस्तु विज्ञानात्मक द्वितीय प्रकार का अभावप्रमाण 'साध्याभावे साधनाभावः' इस व्यतिरेकनिश्चय का निमित्त नहीं बन सकता। [ मीमांसक मान्य अभाव प्रमाण मिथ्या है ] अभाव प्रमाण की उत्पत्ति में वस्त्वन्तर का ग्रहण और प्रतियोगि के स्मरण को निमित्त बताते हुए जो यह कहा जाता है कि "वस्तु (अन्य वस्तु) की सत्ता गृहीत होने पर प्रतियोगी के स्मरण से इन्द्रियनिरपेक्ष 'वह नहीं है' इस प्रकार का मानस ज्ञान होता है।" यहाँ दो विकल्प संगत नहीं होते / प्रथम विकल्प यह है कि जो अन्य वस्तु का ग्रहण होता है वह प्रतियोगिविशिष्ट रूप से या दूसरा विकल्प-प्रतियोगि अविशिष्ट रूप से ? प्रथम का स्वीकार अयुक्त है क्योंकि प्रतियोगि सहित अन्य वस्तु (भृतलादि) का प्रत्यक्ष से ग्रहण होने पर अन्य वस्तु में प्रत्यक्ष से प्रतियोगी का ही ग्रहण हो गया फिर उसके अभाव को ग्रहण करने में अभावनामक प्रमाण की प्रवृत्ति कैसे ? अगर प्रवृत्ति होगी और प्रतियोगी के रहने पर भी उससे प्रतियोगी के अभाव का ग्रहण होगा तो कहना होगा कि वह अशवग्रहण मिथ्या है इसलिये उसमें प्रामाण्य ही नहीं है। दूसरे विकल्प का स्वीकार भी युक्त नहीं है क्योंकि प्रतियोगि से असंसृष्ट (=रहित) अन्य वस्तु का ग्रहण होने पर प्रत्यक्ष से ही प्रतियोगी का अभाव गृहीत हो गया फिर उसके ग्रहण में अभावनामक प्रमाण की प्रवृत्ति व्यर्थ हो जायेगी। यदि यह कहें कि-'अन्य वस्तु में प्रतियोगी की असंसृष्टता प्रत्यक्ष से कहाँ गृहीत हुई है ? वह तो पहले भी अभाव प्रमाण से ही गृहीत हुयी है'-तो इस पर भी यही कहना है कि जैसे प्रस्तुत अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति के पूर्व असंसृष्टता ग्राहक अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति हुयी वैसे उस असंसृष्टताग्राहि अभावप्रमाण की प्रवृत्ति भी अन्य अभावप्रमाण से प्रतियोगी असंसृष्ट अन्य वस्तु के ग्रहण के बाद ही होगी। वहाँ भी प्रतियोगिअसंसृष्टता का बोध अन्य अभाव प्रमाण से करना होगा इस प्रकार अनवस्था दुनिवार है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-अभावप्रमाण० 105 योगिनो ग्रहणे तथाभूतस्य तस्य स्मरणं नान्यथा, प्रत्यक्षेण च पूर्वप्रवृत्तेन वस्तत्वन्तराऽसंसृष्टप्रतियोगिग्रहणे पुनरप्यभावप्रमाणपरिकल्पनं व्यर्थम् / 'वस्त्वसंकरसिद्धिश्च तत्प्रामाण्यसमाश्रया // ' [ श्लो० वा० सू० 5, अभाव प० श्लो० 2 ] इत्यभिधानात् तदर्थं तस्य परिकल्पनम्, तच्च प्रत्यक्षेणैव कृतमिति तस्य व्यर्थता। प्रथाऽत्राप्यभावप्रमाणसंपाद्यः प्रतियोगिनोवस्त्वन्तराऽसंसष्टताग्रहस्तर्हि तथाभूतप्रतियोगिप्रहणे तथाभूतस्य तस्य स्मरणम्, तत्सद्भावे चाऽभावप्रमाणप्रवृत्तिः, तत्प्रवृत्तौ च तस्याऽसंसृष्टताग्रहः, तद्ग्रहे च स्मरणमित्येवं चक्रकचोद्यं भवन्तमनुबध्नाति / नापि वस्तुमात्रस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणमित्यभिधातु शक्यम्, तथाभ्युपगमे तस्य वस्त्वन्तरत्वासिद्धेः, प्रतियोगिनोऽपि प्रतियोगित्वस्य च, इति न प्रतियोगिनो नियतरूपस्य स्मरणमिति सुतरामभावप्रमाणोत्पत्त्यभावः / -[प्रतियोगिस्मरण से अभावप्रमाण की व्यवस्था दुर्घट ] प्रतियोगीस्मरण को निमित्त कहा गया है वहाँ भी दो विकल्प सावकाश है प्रथम विकल्पप्रतियोगी का स्परण अन्य वस्तु (भूतलादि) से संसृष्टरूप में मानना ? या दूसरा विकल्प उस से असंसृष्ट मानना ? अगर संसृष्टरूप में माना जाय तो पहले कहे गये अनुसार अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति ही अशक्य होगी / यदि असंसृष्ट का स्मरण मानें तो यहाँ यह तो मानना ही होगा कि प्रत्यक्ष से अन्य वस्तु से असंसृष्टरूप में प्रतियोगी का ग्रहण होने पर ही वैसे स्मरण को अवकाश होगा, : अन्यथा नहीं / अब स्मृति से पूर्व प्रवृत्त प्रत्यक्ष से ही प्रतियोगी में अन्य वस्तु की असंसृष्टता का ग्रहण हो गया तो फिर अभाव प्रमाण की व्यर्थ कल्पना क्यों की जाय ? श्लोक वात्तिक में-असंकीर्ण वस्तु की सिद्धि उसके ग्राहक प्रमाण के प्रामाण्य पर अवलम्बित है, ऐसा कहा गया है तो उस का तात्पर्य यह है कि भावग्राहक प्रमाण प्रत्यक्षादि भावात्मक है तो अभावग्राहक प्रमाण अभावात्मक होना चाहिये अन्यथा भाव और अभाव की संकीर्णता हो जायगी। इस से यह सिद्ध होता है कि अभावप्रमाण को कल्पना अभाव ग्रहण के लिये को गयी है किंतु पूर्वोक्त रीति से यदि उसका ग्रहण प्रत्यक्ष से ही हो गया तो फिर अभावप्रमाण की व्यर्थता स्पष्ट है। [ अभावप्रमाण पक्ष में चक्रकावतार ] प्रत्यक्ष से-प्रतियोगी में अन्यवस्तु से असंसृष्टता का ग्रहण न मान कर अभावप्रमाण से ही माना जाय तो यहाँ चत्रक दोष का अनुबंध आपको लगेगा क्योंकि अन्यवस्तु से असंसृष्ट प्रतियोगी का ग्रहण होने पर उस प्रकार का उस का स्मरण होगा, स्मरण के होने पर तन्निमित्तक अभावप्रमाण की प्रवृत्ति होगी। अभावप्रमाण की प्रवृत्ति होने पर अन्यवस्तु की असंसृष्टता का ग्रह होगा और यह ग्रह होने पर स्मरण होगा / यह कहें कि-भूतलादि अन्य वस्तु का जो ग्रहण होता है वह केवल तद्वस्तुरूप से ही होता है प्रतियोगी संसृष्ट-असंसृष्टरूप से नहीं होता-तो यह शक्य ही नहीं क्योंकि तब वह भूतलादिअन्य वस्तुरूपता ही असिद्ध हो जायेगी, एवं प्रतियोगी घटादि केवल घटादिरूप से ही गृहीत होगा तो उस का प्रतियोगित्व भी असिद्ध हो जायगा। इस का दुष्परिणाम यह होगा कि अन्य वस्तु भूतलादि में अभाव के प्रतियोगीरूप में घटादि का नियताकार स्मरण ही नहीं होगा जो अभावग्रह में अति जरूरी है / स्मरण न होने पर फिर अभावप्रमाण की उत्पत्ति का तो नितान्त अभाव हो जायेगा। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 किंच, यदि अभावाख्यं प्रमारणमभावनाहकमभ्युपगम्यते तदा तमेव प्रतिपादयतु, प्रतियोगिनस्तु निवृत्तिः कथं तेन प्रतिपादिता स्यात् ? अथाभावप्रतिपत्तौ तन्निवृत्तिप्रतिपत्तिः / ननु सापि निवृत्तिः प्रति योगिस्वरूपाऽसंस्पशिनी, ततश्च तत्प्रतिपत्तौ पुनरपि कथं प्रतियोगिनिवृत्तिसिद्धिः ? तन्निवृत्तिसिद्धेर ? [? द्धयेऽपर]तन्निवृत्तिसिद्धयभ्युपगमे अपरा तन्निवृत्तिस्तथाऽभ्युपगमनीयेत्यनवस्था। किंच अभावप्रतिपत्तौ प्रतियोगिस्वरूपं किमनुवर्तते व्यावर्त्तते वा ? अनुवृतौ कथं प्रतियोगिनोऽभावः ? व्यावृत्तौ कथं प्रतिषेधः प्रतिपादयितुशक्यः ? 'तद्विविक्तप्रतिपत्तेस्तत्प्रतिषेधः' इति चेत् ? न, तदप्रतिभासने तद्विविक्तताया एव प्रतिपत्तुमशक्तेः / 'प्रतियोगिप्रतिभासाद नायं दोषः' इति चेत् ? क्व तहि प्रतिभासः ? यदि प्रत्यक्षे, न युक्तः, तत्सद्भावसिद्धया तन्निवृत्त्यसिद्धेः। 'स्मरणे तस्य प्रतिभास' इति चेत् ? न, तत्रापि येन रूपेण प्रतिभाति न तेनाऽभावः, येन प्रतिभाति न तेन निषेधः / तदेवं यदि प्रतियोगिस्वरूपादन्योऽभावस्तथापि तत्प्रतिपत्तौ न तन्निवृत्तिसिद्धिः / अनन्यत्वेऽपि तत्प्रतिपत्तौ प्रतियोगिनः प्रतिपन्नत्वाद न निषेधः / [ अभाव प्रमाण से प्रतियोगिनिवृत्ति की असिद्धि ] नयी एक बात यह विचारणीय है कि अगर अभावनामक प्रमाण को अभाव का ग्राहक माना है तो उस से प्रतियोगी ऊल्लेख शुन्य केवल अभाव का ही प्रतिपादन होना चाहिये, फिर उससे प्रतियोगी की निवृत्ति यानी प्रतियोगी गभित अभाव का प्रतिपादन कैसे होगा? यदि कहा जाय कि अभाव का बोध होने पर बाद में उससे प्रतियोगी की निवृत्ति का बोध होता है तो यहाँ भी प्रतियोगी अस्पर्शी केवल निवृत्ति का ही बोध मानना चाहिये / तब फिर से यही प्रश्न उठेगा कि अभावप्रमाण से केवल निवृत्ति का ही बोध हो सकता है तो प्रतियोगीनिवृत्ति की सिद्धि कैसे होगी ? इस निवृत्ति की सिद्धि के लिये अगर अन्य तथाभूत निवृत्ति का अंगीकार करे तो उस की भी सिद्धि के लिये अन्य तथाभूत निवृत्ति माननी पडेगी तो अनवस्था चलेगी। [अभाव गृहीत होने पर प्रतियोगी का निषेध कैसे ? ] अभावप्रमाण वादी को यह भी प्रश्न है कि अभावप्नमाण से अभावबोध होने पर प्रतियोगी के स्वरूप की अनुवृत्ति होती है या निवृत्ति ? अगर अनुवृत्ति होती है तो फिर उसका अभाव कैसे हो सकता है ? प्रतियोगी की अनुवृत्ति होने पर तो उसका सद्रूप से बोध होने की संभावना है किंतु उसके अभाव का बोध नहीं हो सकता / अगर कहें अनुवृत्ति नहीं, निवृत्ति मानते हैं तो वहाँ प्रतियोगी का निषेध कैसे होगा ? प्रतियोगी के निषेध के लिये तो उसका भान आवश्यक है ।-'प्रतियोगी से विविक्त यानी विरहित का बोध होता है इसलिये प्रतियोगी का निषेध करते हैं'-ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि प्रतियोगी के प्रतिभास के बिना प्रतियोगी विविक्तता का ग्रहण होना अशक्य है। यदि कहा जाय कि-'उस वक्त प्रतियोगी का प्रतिभास होता है इसलिये विविक्तता के ग्रहण से निषेध शक्य है'तो इस पर प्रश्न होगा कि कौनसे विज्ञान में वहाँ प्रतियोगी का प्रतिभास होता है, प्रत्यक्ष में या स्मरण में ? यदि प्रत्यक्ष में प्रतियोगी का प्रतिभास मानें तो वह अयुक्त है, क्योंकि प्रत्यक्ष से तो उसके सद्भाव की सिद्धि होने पर उसकी निवृत्ति ही असिद्ध हो जायगी। स्मरण में प्रतियोगी का प्रतिभास माना जाय तो वह ठीक नहीं है क्योंकि जिस अतीतादि रूप से उसका प्रतिभान होता है उस रूप से तो वहाँ उसका अभाव है ही नहीं और जिस वर्तमानादिरूप से उसका भान होता है Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-अभावप्रमाण० 107 अपि च तद् अभावाख्यं प्रमाणं निश्चितं सत प्रकृताभावनिश्चयनिमित्तत्वेनाऽभ्युपगम्यते ? आहोस्विद् अनिश्चितं ? इति विकल्पद्वयम् / यद्यनिश्चितमिति पक्षः, स न युक्तः, स्वयमव्यवस्थितस्य खरविषाणादेरिव अन्यनिश्चायकत्वाऽयोगात् / इन्द्रियादेस्त्वनिश्चितस्यापि रूपादिज्ञानं प्रति कारणत्वाद् निश्चायकत्वं युक्तम् न पुनरभावप्रमाणस्य, तस्यापरज्ञानं प्रति कारणत्वाऽसम्भवात , तदसम्भवश्च प्रमाणाभावात्मकत्वेनाऽवस्तुत्वात् / वस्तुत्वेऽपि तस्यैव प्रमेयाभावनिश्चयरूपत्वेनाऽभ्युपगमाहत्वात् / नापि द्वितीयः पक्षः, यतस्तन्निश्चयोऽन्यस्मादभावाख्यात प्रमाणादभ्युपगम्येत ? प्रमेयाभावाद् वा? तत्र यदि प्रथमपक्षः स न युक्तः, अनवस्थाप्रसंगाद् / तथाहि-अभावप्रमाणस्याभावप्रमाणानिश्चितस्याभावनिश्चायकत्वम, तस्याप्यन्याभावप्रमाणाद, इत्यनवस्था। अथ प्रमेयाभावात तन्निश्चयः, सोऽपि न युक्तः इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात / तथाहि-प्रमेयाभावनिश्चयात प्रमाणाभावनिश्चयः, सोऽपि प्रमाणाभावनिश्चयाद इति इतरेतराश्रयत्वम् / नापि स्वसंवेदनात प्रमाणाभावनिश्चयः, तस्य भवताऽनभ्युपगमात् / तन्न अभावास्यं प्रमाण संभवति / सम्भवेऽपि न तत् प्रमाणचिन्ताहमिति प्रतिपादितम्, प्रतिपादयिष्यते च प्रमाणचिन्तावसरेऽत्रैव / तन्नाभावप्रमाणादपि विपक्षे साधनाभावनिश्चयः / अतो न प्रदर्शननिमित्तोऽपि प्रकृतव्यतिरेकनिश्चयः, तदभावाद न प्रकृतसाध्ये प्रकृतहेतोनियमलक्षणसंबन्धनिश्चयः / उस रूप से उसका निषेध नहीं हो सकता क्योंकि उस रूप से निषेध करने के लिये तो उस रूप से उसका प्रतिभान जरूरी है। इसप्रकार यह फलित होता है कि प्रतियोगीस्वरूप से अभाव यदि भिन्न हो तो भी उसका बोध होने पर प्रतियोगी की निवृति सिद्ध नहीं हो सकती। यदि वह अभाव प्रतियोगी स्वरूप से अभिन्न है तव तो अभाव का ग्रहण उस के प्रतियोगी के ही ग्रहणस्वरूप होने से उसका निषेध अशक्य है। [ स्वयं अनिश्चित अभावप्रमाण निरुपयोगी है ] अभावप्रमाण के अन्य भी दो विकल्प नहीं घट सकते। प्रथम विकल्प-अभावनामक प्रमाण स्वयं निश्चित होकर प्रकृत अभावनिश्चय के निमित्तरूप में माना गया है ? या दूसरा विकल्प-स्वयं अनिश्चित होकर ? स्वयं अनिश्चित होकर वह अभावनिश्चय का निमित्त बने यह प्रथम विकल्प ठीक नहीं है क्योंकि जो अपने आप में व्यवस्थित यानी निश्चित नहीं है जैसे कि गधे का सींग आदि, वह अन्य पदार्थ का निश्चायक नहीं हो सकता। यद्यपि इन्द्रियादि अतीन्द्रिय पदार्थ स्वयं अज्ञात होते हैं फिर भी वे यत: रूपादिज्ञान के कारणरूप में सिद्ध है अत: रवयं अनिश्चित होने पर भी उस की अन्यनिश्चायकता हो सकती है, किन्तु अभावप्रमाण की तो नहीं ही हो सकती। कारण, वह किसी भी प्रकार के ज्ञान का कारण बनता हो यह संभवित नहीं है। सम्भवित इसलिये नहीं है कि वह स्वयं प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाण के अभावरूप में माना गया है और अभाव तुच्छ होने से अवस्तुभूत है / अगर वह वस्तुभूत हो तो उसे ही प्रमेयाभाव के निश्चयरूप में मान लेना उचित है न कि प्रमाण पंचकनिवृत्तिरूप। [अभावप्रमाण का निश्चय करने में अनवस्थादि] अभावनामक प्रमाण स्वयं निश्चित होकर प्रकृत अभावनिश्चय का निमित्त बनता है- यह द्वितीय पक्ष भी उचित नहीं है। क्योंकि स्वयं निश्चित रहने वाला वह अभावप्रमाण अन्य कोई अभावनामक प्रमाण से निश्चित होता है या प्रमेयाभाव से? यदि प्रथम पक्ष लिया जाय तो अनवस्था Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न चान्वय-व्यतिरेकनिश्चयव्यतिरेकेणान्यतः कुतश्चित् तन्निश्चयः, नियमलक्षणस्य संबन्धस्य यथोक्तान्वयव्यतिरेकव्यतिरेकेणाऽसम्भवात् / तथाहि-य एव साधनस्य साध्यसद्भावे एव भावः अयमेव तस्य साध्ये नियमः, साध्याभावे साधनस्यावश्यंतयाऽभाव एव यः अ प्रतो यदेवान्वयव्यतिरेकयोर्यथोक्तलक्षणयोनिश्चायकं प्रमाणं तदेव नियमस्वरूपसम्बन्धनिश्चायकम्, तन्निश्चायकं च प्रकृतसाध्यसाधने हेतोर्न सम्भवतीति प्रतिपादितम् / तन्नानुमानादपि ज्ञातृव्यापारलक्षणप्रमाणसिद्धिः। अथापि स्यात-बाह्य षु कारकेषु व्यापारवत्सु फलं दृष्टम्, अन्यथा सिद्धस्वभावानां कारकाणा. मेक धात्वर्थ साध्यमनङ्गीकृत्य कः परस्परं सम्बन्धः ! अतस्तदन्तरालवत्तिनी सकलकारकनिष्पाद्या दोष का प्रसंग होने से वह युक्त नहीं है वह इस प्रकार-प्रकृताभावनिश्चायक अभावनामक प्रमाण का निश्चय अन्य अभावनामक प्रमाण से होगा। वह अन्य अभावनामक प्रमाण यदि स्वयं अनिश्चित रहेगा तो काम नहीं आयेगा इसलिये उसका निश्चायक अन्य अभावप्रमाण अनवस्था चलेगी। 'प्रमेयाभाव से अभावप्रमाण का निश्चय होगा' यह दूसरा पक्ष इतरेत राश्रयदोष प्रसंग के कारण युक्त नहीं है / इतरेतराश्रय इस प्रकार-प्रमेयाभाव के निश्चय से प्रमाणाभाव का यानी प्रत्यक्षादिप्रमाण पंचकनिवृत्तिरूप अभावप्रमाण का निश्चय होगा और इस अभावप्रमाण का निश्चय होने पर उस प्रमेयाभाव का निश्चय होगा इस प्रकार अन्योन्याश्रय हो जाता है। प्रमाणाभाव यानी अभावप्रमाण स्वयं स्वनिश्चायक है अर्थात् स्वसंवेदन से ही उसका निश्चय होता है यह तो अभाव प्रमाणवादी मीमांसक बोल भी नहीं सकता क्योंकि उसके मत में प्रमाण को स्वप्रकाश नहीं माना जाता / निष्कर्ष यह आया कि किसी भी रीति से अभावनामक प्रमाण का संभव नहीं है। कदाचित् संभव होने पर भी उपरोक्त रीति से वह असंगत होने से उसके विषय में प्रमाणचिन्ता करने लायक नहीं है-यह कुछ अंश में तो कह दिया है और आगे चल कर इसी ग्रन्थ में कहा भी जायेगा जब प्रमाण चिन्ता का अवसर आयेगा। अभी तो प्रस्तुत में यह सिद्ध हुआ कि विपक्ष में साधनाभाव का निश्चय अभाव से नहीं होता। इसी लिये 'साध्याभाव होने पर साधनाभाव होता है / यह व्यतिरेक-निश्चय अदर्शन के निमित से भी नहीं होता है यह भी सिद्ध हुआ। और व्यतिरेक निश्चय अशक्य होने पर प्रकृत साध्य और प्रकृत हेतु का नियमात्मक संबंध भी निश्चित नहीं होता है। [ अभाव प्रमाण चर्चा समाप्त ] [नियमरूप संबंध का अन्य कोई निश्चायक नहीं है ] अन्वय निश्चय और व्यतिरेकनिश्चय के अभाव में अन्य कोई ऐसा साधन नहीं है जिससे नियम का निश्चय हो, क्योंकि पूर्वकथित अन्वय-व्यतिरेक निश्चय के अभाव में नियम रूप सम्बन्ध की कोई संभावना ही नहीं है / वह इस प्रकार-'साध्य का सद्भाव होने पर ही जो साधन का सद्भाव होता है यही 'साधन का साध्य में नियतभाव' यानी नियम है। तथा 'साध्य का अभाव होने पर जो साधन का अवश्यमेव अभाव होता है' यही साध्य का साधन के साथ नियम है। इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वकथितस्वरूप वाले अन्वय-व्यतिरेक का निश्चायक जो प्रमाण है वही नियमस्वरूप सम्बन्ध का भी निश्चायक है। यह तो पहले ही कह दिया है कि प्रकृत साध्य ज्ञातृव्यापार को सिद्ध करने के लिये अर्थप्रकाशन रूप हेतु में नियमसम्बन्ध निश्चायक कोई प्रमाण नहीं है। निष्कर्ष यह है कि द्वितीय मूल विकल्प में अनुमान से भी ज्ञातृव्यापाररूप प्रमाण की सिद्धि नहीं हो सकती। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ज्ञातृव्यापार० 109 ऽभिमतफलजनिका व्यापारस्वरूपा क्रियाऽभ्युपगन्तव्या, इति प्रकृतेऽपि व्यापारसिद्धिरिति / एतदसम्बद्ध, विकल्पानुपपत्तेः / तथाहि-व्यापारोऽभ्युपगम्यमानः कि कारकजन्योऽभ्युपगम्यते आहोस्विद् अजन्य इति विकल्पद्वयम् / तत्र यद्यजन्य इति पक्षः सोऽयुक्तः, यतोऽजन्योऽपि कि भावरूपोऽभ्युपगम्यते प्राहोस्विदभावरूप: ? यद्यभावरूप इत्यभ्युपगमः, सोऽप्ययुक्तः, यतोऽभावरूपत्वे तस्याऽर्थप्रकाशलक्षणफलजनकत्वं न स्यात, तस्य फलजनकत्वविरोधात् / अविरोधे वा फलार्थिनः कारकान्वेषणं व्यर्थ स्यात्, तत एवाभिमतफलनिष्पत्तेविश्वमदरिद्रं च स्यात् / तन्नाभावरूपो व्यापारोऽभ्युपगन्तव्यः / अथ भावरूपोऽभ्युपगमविषयः, तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-किमसौ नित्यः आहोस्विद् अनित्य इति ? तत्र यदि नित्य इति पक्षः, सोऽसंगतः, नित्यभावरूपव्यापाराभ्युपगमेऽन्धादीनामप्यर्थदर्शनप्रसंगः, सुप्ताद्यभावः, सर्वसर्वज्ञताभावप्रसंगश्च / कारकान्वेषणवैयर्थ्यं तु व्यक्तम् / अथाऽनित्य इत्यभ्युपगमः, सोऽप्यलौकिकः, अजन्यस्य भावस्याऽनित्यत्वेन केनचिदनभ्युपगमात् / अथ वदेत् युपगतः, तत्रापि वक्तव्यम-कि कालान्तरस्थायी उत क्षणिकः? [व्यापार सिद्धि के लिये नविन कल्पनाएँ ] ज्ञातृव्यापार को सिद्ध करने के लिये यदि पुनः यह कहा जाय कि-'कोई भी बाह्य कारक उदासीन रहे तब तक कार्योत्पत्ति नहीं हो पाती किंतु उदासीनता को छोडकर सक्रिय (=व्यापारवंत) बने हुए बाह्य कारकों के रहते ही फलोत्पत्ति देखी जाती है। ऐसा न माने तो यह प्रश्न दुरुत्तर हो जायगा कि अपने अपने स्वभाव से सम्पन्न बाह्य कारक चक्र किसी एक 'छिद्' आदि धातु के छेदन क्रियादि अर्थ को सिद्ध करने में उद्यत होगा तब उन कारकों में परस्पर संवादी ऐसा कौन सम्बन्ध होगा जिससे एक कार्य के साथ उन कारकों का मेल बन सके ? इसलिये यही मानना होगा कि कारकों का संनिधान और छेदन क्रिया निष्पत्ति इनके बीच में सकल कारकों से उत्पन्न वांछित फल निष्पादक कुठार की दृढ़ प्रहारादि कोई एक व्यापार स्वरूप क्रिया होती है। तो इसी प्रकार प्रस्तुत में भी प्रमाणोत्पत्ति के पूर्व ज्ञाता का कोई न कोई व्यापार सिद्ध होता है।'• किंतु यह बात संबंधरहित है क्योंकि इसके उपर कोई विकल्प घटता नहीं है। जैसे किप्रथम विकल्प, बीच में जिस व्यापार की कल्पना की जाती है वह कारकों से उत्पन्न होता है या (दूसरा विकल्प) उत्पन्न ही नहीं होता? दूसरा विकल्प नहीं घट सकता, क्योंकि उसके उपर दो प्रश्न हैं-(A) वह अजन्य व्यापार भावरूप मानते हैं ? या (B) अभावरूप? अभावरूप का अंगीकार करेंगे तो वह अयुक्त है यदि वह अभावरूप होगा तो उसमें अर्थप्रकाशन स्वरूप फल की जनकता नहीं घटेगी, क्योंकि अभाव को किसी कार्य की उत्पादकता के साथ विरोध है। विरोध नहीं है यह तो नहीं कह सकते क्योंकि तब तो फलार्थी की कारकों की खोज व्यर्थ हो जायगी, कारण, सर्वत्र सुलभ अभाव से ही वांछित फल उत्पन्न हो जाने से विश्व में फिर कौन दरिद्र रहेगा। निष्कर्षअभावरूप व्यापार नहीं माना जा सकता। [अजन्य भावरूप व्यापार नित्य है या अनित्य ? ] (A) अजन्य व्यापार को यदि भावस्वरूप माना जाय तो यहाँ भी कुछ कहना है-क्या वह नित्य है या अनित्य ? अगर नित्य पक्ष माना जाय तो वह संगत नहीं है, क्योंकि कारक-व्यापार को नित्यभाव रूप मानने पर अन्ध पुरुष को भी पदार्थों का दर्शन होने की आपत्ति होगी, एवं सुषुप्ति Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 ... सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदि कालान्तरस्थायी तदा "क्षणिका हि सा न कालान्तरमवतिष्ठते" [ ] इति वचः परिप्लवेत / कारकान्वेषणं चात्रापि पक्षे फलार्थिनामसंगतम्, कियत्कालस्थाय्यजन्यभावरूपव्यापाराभ्युपगमे तत्कालं यावत् तत्फलस्यापि निष्पत्तेः आव्यापारविनाशमर्थप्रकाशलक्षणकार्यसद्धावादन्धत्वमूर्छादीनामभावः स्यात् / अथ क्षणिक इति पक्षः, सोपि न युक्तः, क्षणानन्तरं व्यापाराऽसत्त्वेनार्थप्रतिभासाभावाद् अपगतार्थप्रतिभासं सर्वं जगत् स्यात् / अथ स्वत एव द्वितीयादिक्षणेषु व्यापारोत्पत्ते यं दोषः, अजन्यत्वं तु तस्यापरकारकजन्यत्वाभावेन / नैतदस्ति, कारकानायत्तस्य देश-कालस्वरूपप्रतिनियमाभावस्वभावतायाः प्रतिपादनात् / किंच, अनवरतक्षणिकाऽजन्यव्यापाराभ्युपगमे तज्जयार्थप्रतिभासस्यापि तथैव भावात् सुप्ताद्यभावदोषस्तदवस्थः। तन्नाजन्यव्यापाराभ्युपगम: श्रेयान् / दशा का अभाव हो जायगा, तथा सभी लोग सर्वज्ञ बन जाने की आपत्ति होगी। कारकों की खोज का निरर्थकता तो स्पष्ट है क्योंकि भावरूप व्यापार से प्रमाणफलधारा सतत बहती रहेगी तो सुषुप्ति में ज्ञानाभाव कैसे होगा? अगर कहें कि अजन्य भावात्मक व्यापार अनित्य है यह हम मानते हैं-तो वह भी लोकबाह्य है, क्योंकि अजन्य भाव को कोई भी बुद्धिमान लोक अनित्य नहीं मानते / अब आप कहेंगे कि-हम अजन्यभाव को अनित्य मानते हैं तो उस पर भी दो प्रश्न हैं-C क्या वह अन्यकाल में [ कुछ क्षणों तक] रहने वाला अनित्य है ? या D सर्वथा क्षणिक है ? [ व्यापार कालान्तरस्थायी नहीं हो सकता ] C यदि अजन्य भावात्मक अनित्य व्यापार को कालान्तरस्थायी माना जाय तो आपका यह वचन निरर्थक होगा कि "वह (क्रिया) क्षणिक होने के नाते अन्य काल में अवस्थित नहीं रहती" / तथा इस पक्ष में भी फलार्थिओं द्वारा कारकों की खोज व्यर्थ हो जाने की आपत्ति दुनिवार है, क्योंकि व्यापार कारकजन्य नहीं है / तथा, कुछ समय तक जीने वाले अजन्य भावात्मक व्यापार को मानने में अन्धापन और बेहोशी का भी अभाव हो जाने की आपत्ति होगी क्योंकि जितने काल वह जीने वाला है उतने काल में तो उसके फल की निष्पत्ति निर्बाधरूप से हो जायेगी, अर्थात् व्यापार नष्ट हो जाय तब तक तो (नाश के पहले) अर्थप्रकाश स्वरूप कार्य हो ही जायगा फिर अन्धा किसको कहना, बेहोश किसको बताना ? / [क्षणिक अजन्य व्यापार पक्ष भी अयुक्त है ] (B) यदि अजन्य भावात्मक अनित्य व्यापार क्षणिक होने का पक्ष किया जाय तो वह भी अयुक्त है, क्योंकि एक ही क्षण के बाद त्वरित व्यापारध्वंस हो जाने से अर्थ का किसी को भी प्रतिभास ही नहीं होगा तो सारे जगत् में अर्थ प्रतिभास का दुष्काल पड जायेगा / यदि यह कहें कि-दूसरे क्षण में नये नये व्यापार की उत्पत्ति हो जाने से कोई दुष्काल आदि दोष नहीं होगा एवं इस उत्पत्ति के साथ पूर्वकथित अजन्यत्व को कोई विरोध होने की भी संभावना नहीं है क्योंकि नया नया व्यापार अपने आप ही उत्पन्न हो जाता है, अन्य कारकों को पराधीन जन्यता उसमें नहीं है।'तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि पहले यह कह आये हैं कि जो कारकाधीन नहीं होता उसका स्वभाव किसी देश-काल या स्वरूप के बन्धन में नहीं होता / दूसरा एक दोष यह है-नित्य नये नये व्यापार Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ज्ञातृव्यापार० 111 अथ जन्यो व्यापार इति पक्षः कक्षीक्रियते, तदाऽत्रापि विकल्पद्वयम्-किमसौ जन्यो व्यापारः क्रियात्मक उत तदनात्मक इति ? तत्र यदि प्रथमः पक्षः स न युक्तः, अत्राऽपि विकल्पद्वयानतिवृत्तेः। तथाहि-सापि किया कि स्पन्दात्मिका उत अस्पन्दात्मिका? यदि स्पन्दात्मिका तदाऽऽत्मनो निश्चलत्वाद् अन्येषां कारकाणां व्यापारसद्भावेऽपि व्यापारो न स्यात् , यदर्थोऽयं प्रयासस्तदेव त्यक्तं भवतैवमभ्यपगच्छता। अथाऽपरिस्पन्दात्मिका क्रिया व्यापारस्वभावा / न, तथाभतायाः परिस्पन्दाऽभावरूपतया फलजनकत्वायोगात , अभावस्य जनकत्वविरोधात् / न च क्रिया कारणफलापान्तरालत्तिनी परिस्पन्दस्वभावा तद्विपरीतस्वभावा वा प्रमाणगोचरचारिणी इति न तस्याः सद्व्यवहारविषयत्वमभ्युपगन्तु युक्तम् / इति न क्रियात्मको व्यापारः / नापि तदनात्मको व्यापारो अंगीक युक्तः, तत्रापि विकल्पद्वयप्रवृत्तेः। तथाहि-किमसावकियाऽऽत्मको व्यापारो बोधस्वरूपः, अबोधस्वभावो वा ? यदि बोधस्वरूपः, प्रमातृवन्न प्रमाणान्तरगम्यताऽभ्युपगन्तुयुक्ता / अथाऽबोधस्वभावः, नायमपि पक्षः, बोधात्मकज्ञातृव्यापारस्याऽबोधात्मकत्वाऽसंभवात् / न हि चिद्रूपस्याऽचिद्रूपो व्यापारो युक्तः, 'जानाति' इति च ज्ञातृव्यापारस्य बोधात्मकस्यैवाभिधानात् / तन्न अबोधस्वभावोऽपि व्यापारः / की उत्पत्ति मानने पर उससे जन्य नया नया अर्थप्रतिभास भी आप को मानना पड़ेगा, तो पूर्ववत् प्ति आदि के अभाव की आपत्ति दनिवार रहेगी। निष्कर्ष-अजन्य व्यापार का अंगीकार किसी भी तरह कल्याणकर नहीं है। - [जन्य व्यापार क्रियारूप है या अक्रियारूप ? ] व्यापार कारकजन्य है यह पक्ष माना जाय तो यहां भी दो विकल्प को अवकाश है-[१] यह जन्य व्यापार क्या क्रियात्मक है, [2] या क्रियानात्मक है ? यदि प्रथम का पक्ष किया जाय तो वह भी युक्त नहीं है क्योंकि यहाँ दो विकल्प का अतिक्रम शक्य नहीं है, [A] क्रियात्मक व्यापार पक्ष में क्रिया का स्वरूप स्पन्दात्मक हैं, [B] या अस्पन्दात्मक ? अगर कहें-[A] स्पन्दात्मक मानते हैं, तब तो अन्य कारकों के व्यापार का अस्तित्व संभव होने पर भी आत्मा निश्चल - अक्रिय होने से उसमें क्रियात्मक व्यापार की संगति नहीं होगी। क्या अच्छा किया आपने ?! ज्ञाता के व्यापार को सिद्ध करने के लिये तो यह उपक्रम किया और यहां आकर उसी का त्याग कर दिया। [B] यदि अस्पन्दात्मक क्रिया को व्यापार स्वभाव माना जाय तो यह उचित नहीं, क्योंकि व्यापार स्वभाव अस्पन्दात्मक क्रिया का अर्थ हुआ परिस्पन्दा भावरूप त्रिया / ऐसी क्रिया फलोत्पादक नहीं हो सकती क्योंकि अभाव का उत्पादकता के साथ विरोध है / क्रिया चाहे स्पन्दात्मक हो या उससे विपरीत स्वभाव वाली हो, कारणों का संनिधान और कार्योत्पत्ति के बीच किसी भी रूप में वह क्रिया प्रमाणपथ संचरणशीला यानी प्रमाण से गृहीत नहीं होती, अतः सद्रूप से व्यवहार के विषयरूप में उस क्रिया का अंगीकार युक्त नहीं है। निष्कर्ष, व्यापार क्रियारूप नहीं हो सकता। [ अक्रियात्मक व्यापार ज्ञानरूप है या अज्ञानरूप 1 ] व्यापार को अक्रियात्मक रूप में मान लेना भी युक्त नहीं है। कारण, यहाँ भी दो विकल्प सामने आयेंगे, (1) क्रियानात्मक व्यापार क्या बोधस्वरूप है या (2) अबोधस्वरूप है (1) यदि Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 किं च, असौ ज्ञातृव्यापारोमिस्वभावः, उत धर्मस्वभाव: ? इति पुनरपि कल्पनाद्वयम् / धर्मिस्वरूपत्वे ज्ञातृवन्न प्रमाणान्तरगम्यत्वमित्युक्तम् / धर्मस्वभावत्वेऽपि मिणो ज्ञातुर्व्यतिरिक्तो व्यापारः, अव्यतिरिक्तः, उभयम् , अनुभयं चेति चत्वारो विकल्पाः। न तावद् व्यतिरिक्त, तत्त्वे संबन्धाभावेन 'ज्ञातुापारः' इति व्यपदेशाऽयोगात् / अव्यतिरेके ज्ञातैव तत्स्वरूपवद् नापरो व्यापारः। उभयपक्षस्तु विरोधमपरिहृत्य नाभ्युपगमनीयः / अनुभयपक्षस्तु अन्यान्यव्यवच्छेदरूपाणामेकविधानेनापरनिषेधादयुक्तः इति प्रतिपादितम् / किं च व्यापारस्य कारकजन्यत्वाभ्युपगमे तज्जनने प्रवर्तमानानि कारकाणि किमपरव्यापारभाञ्जि प्रवर्तन्ते, उत तन्निरपेक्षाणि ? इति विकल्पद्वयम् / यद्याद्यो विकल्पः, तदा तद्वयापारजननेऽपि तेरपरव्यापारभाग्भिः प्रवत्तितव्यम् , तज्जननेऽप्यपरव्यापारयुग्भिः प्रवत्तितव्यमित्यनवस्थितेन फलजननव्यापारोद्भतिरिति तत्फलस्याप्यनुत्पत्तिप्रसाद न व्यापारपरिकल्पनं श्रेयः / अथ अपरब्यापारमन्तरेणापि फलजनकव्यापारजनने प्रवर्तन्ते इति नायं दोषः, तहि प्रकृतव्यापारमन्तरेणापि फलजनने प्रवत्तिष्यन्त इति किमनुपलभ्यमानव्यापारकल्पनप्रयासेन? वह बोधस्वरूप होगा तो प्रमाता को जैसे अन्य कोई प्रमाण का विषय नहीं मानते हैं उस प्रकार बोधात्मक व्यापार को भी अन्य प्रमाण का विषय मानना यूक्त नहीं होगा। (2) अबोधस्वभाव व्यापार का पक्ष भी युक्त नहीं है, क्योंकि ज्ञाता का व्यापार बोधात्मक ही होने से उसकी अबोधस्वरूपता का संभव नहीं है / ज्ञाता स्वयं ज्ञानमय है इसलिये उसके व्यापार को अज्ञानमय मानना अयुक्त है। 'जानता है' इस प्रकार बोधात्मक ही ज्ञातृव्यापार बोला जाता है / फलित यह होता है कि ज्ञातृव्यापार अबोधस्वरूप नहीं हो सकता। [ ज्ञातृव्यापार धर्मरूप है या धर्मिरूप 1 ] यह भी विचार करने योग्य है कि यह ज्ञातृव्यापार स्वयं मिरूप है या धर्मरूप ? मिस्वरूप होने पर तो ज्ञाता जैसे प्रमाणान्तर गम्य नहीं है वैसे व्यापार भी प्रमाणान्तर गम्य न होगा यह तो अभी ही बोधस्वभाव विकल्प में कह दिया। धर्मरूप व्यापार पक्ष में चार विकल्प हैं (1) मिरूप ज्ञाता से वह व्यापार भिन्न है, (2) या अभिन्न है, (3) अथवा भिन्नाभिन्न उभयरूप है, (4) या फिर दोनों में से एक भी नहीं? भिन्न है-यह प्रथम पक्ष ठीक नहीं है क्योंकि तब उसका धर्मी के साथ कोई संबंध न होने से 'ज्ञाता का व्यापार' इस प्रकार नहीं बोल सकेंगे। यदि अभिन्न माना जाय तो वह ज्ञातारूप ही हुआ, जैसे उस ज्ञाता का स्वरूप उससे अभिन्न होता है तो वह ज्ञातारूप ही होता है इसलिये व्यापार धर्मी से कोई अलग तत्त्व नहीं हआ। भिन्नाभिन्न उभय पक्ष विरोध का परिहार किये विना नहीं माना जा सकता क्योंकि भिन्न और अभिन्न परस्पर विरोधी होने से एकरूप नहीं हो सकता / 'भिन्न-अभिन्न दोनों में से एक भी नहीं यह चौथे विकल्प के ऊपर तो पहले भी कहा है कि जो अन्योन्य व्यवच्छेद स्वरूप होते हैं उनमें से एक का विधान करे तो दूसरे का निषेध बलाद् हो जाता है / इसलिये चौथा विकल्प अयुक्त ही है। [व्यापार की उत्पत्ति में अन्य व्यापार की अपेक्षा है या नहीं ?] व्यापार को कारकजन्य मानने के पक्ष में यह भी दो विकल्प ऊठाने योग्य हैं-[१] व्यापारोत्पत्ति में उपयुज्यमान कारक अन्य कोई व्यापार से सहकृत होकर प्रवृत्त होते हैं ? या [2] उसकी Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-ज्ञातृव्यापार० .. कि चासौ व्यापारः फलजनने प्रवर्तमानः किमपरव्यापारसव्यपेक्षः ? अथ निरपेक्षः ? इत्यत्रापि कल्पनाद्वयम् / तत्र यद्याद्या कल्पना, सा न युक्ता, अपरापरव्यापारजननक्षीणशक्तित्वेन व्यापारस्यापि फलजनकत्वाऽयोगात् / अथ व्यापारान्तरानपेक्षः एव फलजनने प्रवर्तते तहि कारकाणामपि व्यापारनिरपेक्षाणां फलजनने प्रवृत्तौ न कश्चिच्छक्तिव्याघातः सम्भाव्यते / अथ व्यापारस्य व्यापारस्वरूपत्वान्नापरव्यापारापेक्षा, कारकाणां त्वव्यापाररूपत्वात् तदपेक्षा / का पुनरियं व्यापारस्य ध्यापारस्वभावता? यदि फलजनकत्वम्, तद् विहितप्रतिक्रियम् / अथ कारकाश्रितत्वम्, तदपि भिन्नस्य तज्जन्यत्व विहाय न सम्भवतीत्युक्तम् / अथ कारकपरतन्त्रत्वम् , तदपि न, अनुत्पन्नस्याऽसत्त्वात् / नाप्युत्पन्नस्य, अन्यानपेक्षत्वात्, तथापि तत्परतन्त्रत्वे कारकाणामपि व्यापारपरतन्त्रता स्यात् / अपेक्षा किये विना ही प्रवृत्त होते हैं ? अगर प्रथम विकल्प माना जाय, तो उस द्वितीय व्यापार के उत्पादन में उपयुज्यमान कारकों अन्य कोई तृतीय व्यापार से सहकृत होकर प्रवृत्त होने चाहिये, तृतीय व्यापार के उत्पादन में भी एवं अन्य व्यापार सहकृत होकर कारकों की प्रवृत्ति होगी। इस प्रकार अनवस्था चलेगी तो प्रस्तुत फलोत्पादक व्यापार का जन्म ही न हो सकेगा। तब प्रस्तुत फल को उत्पत्ति हो न होने को आपत्ति आने से व्यापार की कल्पना में किसी का श्रेय नहीं है। यदि दूसरे विकल्प के पक्ष में कहें कि अन्य कोई व्यापार के सहकार विना ही कारकसमूह प्रस्तुत व्यापारोत्पत्ति में प्रवृत्त होंगे तो उक्त अनवस्था दोष नहीं होगा।'-तो प्रस्तुत व्यापार की अपेक्षा विना ही कारक समूह अर्थप्रकाशनरूप फल में प्रवृत्त होगा, फिर जिसका उपलम्भ ही नहीं है वैसे व्यापार की कल्पना का कष्ट क्यों उठाया जाय ?! [ व्यापार को अन्य व्यापार की अपेक्षा है या नहीं ? ] व्यापार के विषय में अन्य भी दो कल्पनाएँ सावकाश हैं, (1) फलोत्पत्ति में प्रवर्त्तने वाले व्यापार को अन्य व्यापार की अपेक्षा रहती है ? (2) या नहीं रहती है ? आद्य कल्पना का यदि स्वीकार करें तो वह अयुक्त है / कारण, उस दूसरे व्यापार को भी नये अन्य व्यापार की अपेक्षा रहेगी, उस को भी नये अन्य व्यापार की, इस प्रकार अन्त ही नहीं आयेगा तो प्रस्तुत व्यापार की' शक्ति तो अन्य अन्य नये व्यापार के उत्पादन में ही क्षीण हो जायेगी, उससे अर्थप्रकाशनरूप फल की उत्पत्ति न हो सकेगी। दूसरी कल्पना में, अन्य व्यापार की अपेक्षा माने विना ही फलोत्पत्ति में प्रवृत्ति मानी जाय तो यह भी संभावना हो सकती है कि कारकसमूह भी व्यापार की अपेक्षा किये विना ही र फलोत्पत्ति में प्रवृत्त हो सकने से उसकी भी शक्ति का व्याघात नहीं होगा। - यदि यह कहा जाय कि- 'व्यापार तो स्वयं व्यापारस्वरूप है इसलिये उसको अन्य व्यापार की अपेक्षा न होना सहज है, किंतु कारकसमूह व्यापारात्मक नहीं है इसलिये उसको व्यापार की अपेक्षा हो सकती है / '- तो इस पर प्रश्न है कि 'व्यापार की व्यापारस्वभावता' यानी क्या ? यदि व्यापारस्वभावता को फलजनकतारूप माने तो उसके प्रतिकार में 'अन्या कारकों की व्यर्थता ही जाने की आपत्ति' पहले बता चुके हैं / यदि व्यापारस्वभावता को 'कारकाश्रितता' रूप यानी कारकों से में आश्रित होना' इस स्वरूप में मानी जाय तो इस सम्बन्ध में भी पहले कारकों की शक्ति के विषय में कहा है कि- कारकों से भिन्नता होने पर यदि वे कारकजन्य नहीं होगे तो कारकों में 'आश्रित नहीं है हो सकते क्योंकि तज्जन्यत्व के सिवा और कोई सम्बन्ध बहाँ संगत नहीं होता इत्यादि। यदि व्यापार / Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथवं पर्यनुयोगः सर्वभावप्रतिनियतस्वभावव्यावर्तक इत्ययुक्तः / तथाहि-एवमपि पर्यनुयोगः सम्भवति-वह्नदाहकस्वभावत्वे आकाशस्यापि स स्यात् , इतरथा वह्ररपि स न स्यादिति / स्यादेतत् यदि प्रत्यक्षसिद्धो व्यापारस्वभावो भवेत् , स च न तथेति प्रतिपादितम् / तत एवोक्तम्स्वभावेऽध्यक्षतः सिद्धे यदि पर्यनुयुज्यते / तत्रोत्तरमिदं युक्तं न दृष्टेऽनुपपन्नता // [ तन्न व्यापारो नाम कश्चिद यथाभ्युपगतः परः। 'अथानुमानग्राह्यत्वे स्यादयं दोषः, प्रत एवार्थापत्तिसमधिगम्यता तस्याभ्युपगता' / ननु दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यते इत्यदृष्टकल्पनाऽर्थापत्तिः तत्र कः पुनरसौ भावो व्यापारव्यतिरेकेरण नोपपद्यते यो व्यापारं कल्पयति ? 'अर्थ' इति चेत् ? का पुनरस्य तेन विनाऽनुपपद्यमानता? नोत्पत्तिः, स्वहेतुतस्तस्या भावात् / स्वभावता को कारकपराधीनता रूप मानी जाय तो यह भी असंगत है क्योंकि अनुत्पन्न व्यापार असत् होने से कारकों का पराधीन नहीं हो सकता और उसे उत्पन्न मानने पर फिर अन्य की पराधीनता क्यों होगी ? उत्पत्ति के बाद भी कारकों की पराधीनता कहते हैं तो उसके विपरीत, कारकसमूह को ही व्यापारपराधीन क्यों न माना जाय ! [वस्तु स्वरूप के अनिश्चय की आपत्ति अशक्य ] पूर्वपक्षी:- व्यापारस्वभावता के ऊपर आपने जो विविध प्रश्न किये, ऐसे प्रश्न हर चीज पर करते रहेंगे तो उन प्रश्नों से सभी पदार्थों के विशिष्ट स्वभाव का निवर्तन हो जायगा, यानी किसी भी पदार्थ का कुछ भी स्वरूप ही निश्चित न हो सकेगा। इसलिये ऐसे प्रश्न अयुक्त हैं। जैसे, कोई प्रश्न करें कि क्या अग्नि दाहक स्वभाव हो सकता है ? नहीं हो सकता, क्योंकि तब तो आक दाहकस्वभाव मानना पडेगा, उसको दाहक स्वभाव न मानना हो तो अग्नि को भी दाहक स्वभाव क्यों मानें ? इत्यादि, तो अग्नि का स्वभाव अनिश्चित रहेगा। उत्तरपक्षी:- हो सकता है, यदि अग्नि के दाहकस्वभाव की भाँति व्यापारस्वभाव भी प्रत्यक्षसिद्ध होता / किंतु वह प्रत्यक्षसिद्व नहीं है यह बात तो पहले ही हो गयी है / तात्पर्य यह है कि प्रत्यक्ष से जो सिद्ध नहीं होता उसी के विषय में तथोक्त प्रश्नों को अवकाश है, जो प्रत्यक्षसिद्ध है उसके विषय में नहीं, क्योंकि कहा गया है- “स्वभाव प्रत्यक्ष सिद्ध होने पर भी उसके ऊपर प्रश्न कोई करे तो उसका यही स्पष्ट उत्तर है कि जो बात दृष्ट यानी प्रत्यक्ष सिद्ध है उसमें कोई अनुपपत्ति नहीं होती।" निष्कर्ष- अन्य वादीओं ने जैसे व्यापार को माना है वैसा कोई व्यापार है नहीं। . 1 [व्यापार अर्थापत्तिगम्य होने का कथन अयुक्त ] व्यापारवादी:- व्यापार प्रत्यक्षसिद्ध न होने से पूर्वोक्त विकल्पों की संभावना और उसमें दोषपरम्परा का प्रवेश व्यापार को यदि हम अनुमानसिद्ध मानें तब तो ठीक है किंतु इसीलिये व्यापार को हम अनुमानबोध्य न मान कर अर्थापत्तिप्रमाणबोध्य मानते हैं जिससे वे सब दोष निरवकाश बनें / उत्तरपक्षी:- अर्थापत्ति से अदृष्टभाव की कल्पना वहाँ होती है जहाँ दृष्ट या श्रुत किसी एक पदार्थ की उपपत्ति उस अदृष्ट भाव के विना शक्य न हो / प्रस्तुत में वह कौनसा भाव है जो व्यापार के अभाव में अनुपपन्न होने से व्यापार की कल्पना करनी पडै ? Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-अभावप्रमाणव्यर्थता 115 किंच, असावर्थः किम् एकज्ञातृव्यापारमन्तरेणानुपपद्यमानस्तं कल्पयति ? उत सर्वज्ञातृव्यापारमन्तरेण ? इति वक्तव्यम् / तत्र पदि सकलज्ञातव्यापारमन्तरेणेति पक्षः तदान्धानामपि रूपदर्शनं स्यात् , तद्वयापारमन्तरेणार्थाभावात् सर्वज्ञताप्रसंगश्च / अथ एकज्ञातृव्यापारमन्तरेणानुपपत्तिस्तहि यावदर्थसद्भावस्तावत् तस्यार्थदर्शनमिति सुप्ताद्यभावः। अथ अर्थधर्मोऽर्थप्रकाशतालक्षणो व्यापारमन्तरेणानुपपद्यमानः तं कल्पयति / ननु साऽप्यर्थप्रकाशताऽर्थधर्मो यद्यर्थ एव तदाऽर्थपक्षोक्तो दोषः, अथ तद्वयतिरिक्तः, तदा तस्य स्वरूपं वक्तव्यम् / 'तस्यानुभूयमानता सा' इति चेत् ? न, पर्यायमात्रमेतत् न तत्स्वरूपप्रतिपत्तिरिति स एव प्रश्नः / किं च प्रकाशोऽनुभवश्च ज्ञानमेव, तदनवगमे तत्कर्मतायाः सुतरामनवगम इत्यर्थप्रकाशता-अनुभूयमानते स्वरूपेणानवगते कथं ज्ञातृव्यापारपरिकल्पिके ? व्यापारवादी:- अर्थ ही ऐसा है जिसकी व्यापार के विना उपपत्ति नहीं। उत्तरपक्षी:- व्यापार के विना अर्थ की अनुपपत्ति का क्या मतलब है? 'व्यापार के विना अर्थ उत्पन्न नहीं होता' ऐसा आशय अयुक्त है क्योंकि अर्थ की उत्पत्ति तो अपने कारणों से ही होती है, व्यापार से नहीं। [ एकज्ञातृव्यापार और सर्वज्ञातृव्यापार अर्थापत्तिगम्य कैसे ? ] दूसरी बात- आपको यह कहना होगा कि अर्थ की अनुपपत्ति क्या एक ज्ञाता के व्यापार के विना होती है ? या सकलज्ञाताओं के व्यापार के विना ? यदि दूसरा विकल्प सकलज्ञाताओं के व्यापार के विना अर्थानुपपत्ति को मानेंगे तब तो एक आपत्ति यह होगी कि अन्ध पुरुष को भी रूप का दर्शन होगा, क्योंकि वह भी सकलज्ञाताओं में अन्तर्गत है, अत: उसके व्यापार के विना भी अर्थ अनुपपन्न ही रहेगा, फलतः अर्थ की उपपत्ति से अन्ध पुरुष का भी रूपग्रहणानुकुल व्यापार आपको मानना पड़ेगा, तो फिर अन्धपुरुष को रूपदर्शन क्यों नहीं होगा ? दसरी आपत्ति यह होगी कि सकल ज्ञाता सर्वज्ञ बन जायेंगे, क्योंकि किसी भी अर्थ की उपपत्ति ही तभी होगी जब उसमें सकलज्ञाता का व्यापार माना . जायेगा, तो फिर कोई भी अर्थ किसी भी ज्ञाता को अज्ञात न रहेगा। ____ यदि प्रथम विकल्प-एकज्ञाता के व्यापार विना अर्थ की अनुपपत्ति मानी जाय तो जब तक अर्थ की सत्ता रहेगी वहाँ तक उस एक ज्ञाता का सतत व्यापार भी मानना होगा क्योंकि उस के विना वह अनुपपन्न है / व्यापार सतत रहेगा तो तज्जन्य अर्थदर्शन भी सतत चालु रहेगा, तो वह ज्ञाता कभी सो नहीं पायेगा, उसका आराम ही हराम हो जायेगा, क्योंकि अर्थदर्शन चालु रहने पर कभी भी . नींद नहीं आती। [ अर्थप्रकाशता की अनुपपत्ति से ज्ञातृव्यापार की सिद्धि असंभव ] व्यापारवादी:- अर्थ की अनुपपत्ति से अर्थप्रकाशतारूप अर्थधर्म की अनुपपत्ति अभिप्रेत है। आशय यह है कि ज्ञातृव्यापार के विना अर्थ की प्रकाशता (यानी ज्ञानविषयता) उपपन्न न होने से ज्ञातृव्यापार की कल्पना होती है। उत्तरपक्षी:- वह अर्थप्रकाशतारूप अर्थधर्म क्या अर्थरूप ही है या उससे भिन्नस्वरूप है ? यदि अर्थरूप ही हो तब तो अर्थपक्ष में जो दोष बताया गया वह लगेगा / यदि अर्थ से भिन्नरूप अर्थप्रकाशता है तो उसका क्या स्वरूप है यह बताओ। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 किं च, अर्थप्रकाशतालक्षणोऽर्थधर्मोऽन्यथानुपपन्नत्वेनाऽनिश्चितः तं कल्पयति ? पाहोस्विद् निश्चितः ? इति / तत्र यद्याद्यः कल्पः, स न युक्तः, अतिप्रसङ्गात् / तथाहि-यद्यनिश्चितोऽपि तथात्वेन स तं परिकल्पयति तदा यथा तं परिकल्पयति तथा येन विनाऽपि स उपपद्यते तमपि किंन कल्पयति विशेषाभावात् ? अथाऽनिश्चितोऽपि तेन विनाऽनुपपद्यमानत्वेन निश्चितः स तं परिकल्पयति तहि लिंगस्यापि नियतत्वेनाऽनिश्चितस्यापि स्वसाध्यगमकत्वं स्यात् , तथा चार्थापत्तिरेव परोक्षार्थनिश्चायिका नानुमानमिति पटप्रमाणवादाभ्युपगमो विशीर्येत / अथान्यथानुपपद्यमानत्वेन निश्चितः स धर्मस्तं परिकल्पयति तदा वक्तव्यम्-क्व तस्यान्यथानुपपन्नत्वनिश्चयः ? यदि दृष्टान्तर्मिणि तदा लिंगस्यापि तत्र नियतत्वनिश्चयोऽस्तीत्यनुमानमेवार्थापत्तिः स्यात् / एवं चार्थापत्तिरनुमानेऽन्तर्भूतेति पुनरपि प्रमाणषटकाभ्युपगमो विशीर्येत / / व्यापारवादीः- अर्थप्रकाशता यह अर्थ की अनुभूयमानता (यानी अनुभवविषयतारूप) है / उत्तरपक्षी:- यह गलत है, क्योंकि अर्थप्रकाशता का स्वरूप हमने पूछा उसके उत्तर में आपने केवल पर्यायवाची शब्द ही दिया, स्वरूप का कुछ भी स्पष्टीकरण नहीं किया / इसलिये वह तो अप्रतिपन्न ही रहा। तो उसकी प्रतिपत्ति के लिये फिर से आपको वही प्रश्न करना हो अर्थप्रकाशता का क्या स्वरूप है ? दूसरी बात यह है कि प्रकाशता और अनुभूय मानता का अर्थ होगा क्रमशः प्रकाश का कर्म तथा अनुभव का कर्म / इसमें प्रकाश और अनुभव तो ज्ञानात्मक ही है / जब तक वे दोनों अज्ञात रहेंगे तब तक उसकी कर्मता तो बेशक अज्ञात ही रहेगी। तात्पर्य, अर्थप्रकाशता और अनुभूयमानता ही स्वरूप से अज्ञात रहेगी तो उसकी अन्यथा अनुपपत्ति से ज्ञातृव्यापार की कल्पना की तो बात ही कहाँ ? [ अर्थप्रकाशता धर्म निश्चित रहेगा या अनिश्चित ? ] व्यापारवादी को अन्य भी दो विकल्पों का सामना करना होगा- (1) वह अर्थप्रकातास्वरूप अर्थधर्म व्यापार के विना अनुपपद्यमान है इस प्रकार निश्चित न होने पर भी व्यापार की कल्पना करायेगा? या (2) निश्चित होने पर ही ? (1) इसमें यदि प्रथम कल्प माना जाय तो वह अयुक्त है क्योंकि इसमें यह अतिप्रसंग होगा- अगर व्यापार के विना अनुपपद्यमान है इस प्रकार निश्चित न होने पर भी अर्थधर्म व्यापार की कल्पना करायेगा तो जैसे उसकी कल्पना कराता है वैसे ही-जिसके विना वह उपपद्यमान है ऐसे घट पटादि की भी कल्पना क्यों न करायेगा? जबकि दोनों में कोई मुख्य भेद तो है नहीं। दूसरा दोष यह है कि अगर 'अर्थधर्म व्यापार के विना अनुपपद्यमान है। इस प्रकार निश्चित न होने पर भी अर्थधर्म ज्ञातृव्यापार की कल्पना करायेगा तो अनुमान में लिंग (हेतु) भी 'साध्य होने पर ही हेतु होता है' इस प्रकार साध्य के साथ नियतरूप से जब निश्चित नहीं होगा तब भी अपने साध्य का बोध उत्पन्न कर देगा। ऐसा होने पर अर्थापत्ति ही परोक्षार्थनिर्णय को उत्पन्न कर देगी, तो अनुमानप्रमाण की आवश्यकता न रहने से मीमांसक का 'छ: प्रमाण होते हैं' इस वाद का स्वीकार हत-प्रहत हो जायेगा। [अर्थापत्ति-अनुमान का भेद समाप्त होने की आपत्ति ] व्यापारवादी:- (2) दूसरा कल्प हम मान लेंगे कि 'अर्थप्रकाशतास्वरूप अर्थधर्म व्यापार के विना अनुपपद्यमान है' ऐसा निश्चित होने पर ही वह अर्थधर्म व्यापार की कल्पना कराता है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-अभावप्रमाणव्यर्थता 117 अथ साध्यमिणि तन्निश्चय इत्यनुमानात पृथगपत्तिः ? तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-कुतः प्रमागात् तस्य तन्निश्चयः ? यदि विपक्षेऽनुपलभ्भात , तन्न युक्तम् , सर्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्यासिद्धत्वप्रतिपादनात् / प्रात्मसंबंधिनस्तु अनैकान्तिकत्वादिति नान्यथानुपपद्यमानत्वनिश्चयः।। किं च प्रर्थापत्त्युपस्थापकस्यार्थानुभूयमानतालक्षणस्यार्थधर्मस्य य एव स्वप्रकल्प्यार्थाभावेऽवश्यंतयाऽनुपपद्यमानत्वनिश्चयः, स एव स्वप्रकल्प्यार्थसद्भावे एवोपपद्यमानत्वनिश्चय इत्यर्थापत्त्युपस्थापकस्यार्थस्य स्वसाध्यानुमापकस्य च लिंगस्य न कश्चिद्विशेष इत्यनुमाननिरासेऽर्थापत्तेरपि निरासः कृत एवेति नार्थापत्तेरपि ज्ञातृव्यापारलक्षणप्रमाणनिश्चायकत्वम् / उत्तरपक्षी:- यहाँ भी आपके सामने दो विकल्प है- आपको कहना होगा कि अर्थधर्म की अन्यथानुपपत्ति का निश्चय आपने कहाँ किया ? [A] दृष्टान्त के धर्मी में ? ( या [B] साध्यधी में ? ) A यदि दृष्टान्त में जिस का धर्मीरूप से निर्देश किया जाता है वहाँ अन्यथानुपपत्ति का निश्चय होने का कहेंगे तो ऐसा ही अनुमान में होता है, अर्थात् अनुमान में भी दृष्टान्तधर्मी में ही लिंग का साध्य के साथ नियतत्व का निश्चय होता है तो आपकी अर्थापत्ति अनुमानरूप ही बन गयी / अर्थात् अनुमान के गृह में अर्थापत्ति चली आयी, अनुमान से पृथक् न रही, तो फिर से एक बार आपका षट्प्रमाणवाद का स्वीकार हत-प्रहत हो जायेगा। [ साध्यधर्मि में अन्यथानुपपत्ति का निश्चय किस प्रमाण से 1] [B] यदि कहें कि- साध्य को जहाँ सिद्ध करना है उस धर्मी में अर्थधर्म की अन्यथानुपपत्ति * का निश्चय वाला दूसरा पक्ष मानेंगे, इसलिये अर्थापत्ति अनुमान से पृथग् होगी-तो यहाँ भी व्यापारवादी को उत्तर देना होगा कि साध्यधर्मी में किस प्रमाण से अन्यथानुपपत्ति का निश्चय किया ? इसके उत्तर में यह कहना युक्त नहीं है कि विपक्ष में यानी साध्यशून्य स्थल में अर्थधर्म का अनुपलम्भ होने से उसकी अन्यथानुपपत्ति का निर्णय हुआ / युक्त इसलिये नहीं है कि साध्यशून्य विपक्ष में सभी प्रमाता को अर्थधर्म के अनुपलम्भ का निश्चय होता है यह कहना शक्य न होने से वह असिद्ध है यह कहा गया है / व्यापार वादी के ही केवल विपक्ष में अनुपलम्भ से अन्यथानुपपत्ति का निश्चय नहीं माना जा सकता क्योंकि विपक्ष में अर्थधर्म की सत्ता होने पर भी किसी दोष वश उसका उपलम्भ व्यापारवादी को न होने से व्यापारवादी का अनुपलम्भ अनैकान्तिकदोष से घिरा हुआ है। [ अर्थापत्तिस्थापक अर्थ और लिंग में ताविकभेद का अभाव ] . दूसरी बात यह है कि-'अर्थापत्ति का उत्थान करने वाला अर्थानुभूयमानतास्वरूप अर्थधर्म अपने द्वारा कल्पनीय व्यापाररूप अर्थ के विना नियमत: अनुपपद्यमान है' इस प्रकार का निश्चय और दूसरी ओर, 'वह अर्थधर्म अपने द्वारा कल्पनीय व्यापाररूप अर्थ के होने पर ही उपपद्यमान है' इस रीति का निश्चय, इन दो निश्चियों में एक निश्चय व्यतिरेक मुखी है और दूसरा अन्वयमुखी है किन्तु दोनों एक ही अर्थ के निश्चायक होने से उन दोनों में कोई भेद नहीं है-दोनों एक ही है। तथा अपने साध्य को सिद्ध करने वाला लिंग भी उपरोक्त प्रकार से अन्वय-व्यतिरेक आधार पर अवलम्वित है। तो अर्थापत्ति का उत्थान करने वाला अर्थ (अर्थानभयमानता) और अपने साध्य को सिद्ध करने लिंग [ हेतु ] इन दोनों के बीच क्या अन्तर रहा ? कुछ नहीं। अत: ज्ञातृव्यापार ग्राहक अनुमान का ही जब खंडन हो चुका है तो अर्थापत्ति का भी खंडन हो ही जाता है / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 येऽपि 'संवित्त्याख्यं फलं ज्ञातृव्यापारसद्भावे सामान्यतोदृष्टं लिंगम्' आहुः, तन्मतमप्यसम्यक्, यतः संवेदनाख्यस्य लिंगस्य किम् अर्थप्रतिभासस्वभावत्वम् ? उत तद्विपरीतत्वम् ? इति कल्पनाद्वयम् / तत्रार्थप्रतिभासस्वभावत्वे किमपरेण ज्ञातृव्यापारेण कथितेनेति वक्तव्यम् / 'तदुत्पत्तिस्तेन विना न संभवति' इति चेत् ? न, इन्द्रियादेस्तदुत्पादकस्य सद्भावाद् व्यर्थ तत्परिकल्पनम् / ‘क्रियामन्तरेण कारककलापात फलाऽनिष्पत्तेः तत्कल्पना' इति चेत? नन्विन्द्रियादिसामग्रचस्य क्व व्यापारः इति वक्तव्यम / 'क्रियोत्पत्तौ इति चेत? साऽपि क्रिया क्रियान्तरमन्तरेण कथं कारककलापादुपजायत इति पुनरपि चोद्यम् / क्रियान्तरकल्पनेऽनवस्था प्राक् प्रतिपादितैव, तन्नार्थप्रतिभासस्वभावत्वेऽन्यो व्यापारः कल्पनीयः, निष्प्रयोजनत्वात / सारांश, ज्ञातृव्यापारात्मक प्रमाणस्वरूप का निश्चय अर्थापत्ति से नहीं हो सकता। [अर्थसंवेदन रूप लिंग से ज्ञातृव्यापार की सिद्धि विकल्पग्रस्त ] जिन लोगों का कहना है कि-'संवित्ति यानी अर्थसंवेदन नामक फल, ज्ञातृव्यापार की अनुमिति में 'सामान्यतोदृष्ट' संज्ञक लिंग है'। [ सामान्यरूप से जिसमें अन्वय और व्यतिरेक दोनों व्याप्ति उपलब्ध हो वह सामान्यतो दृष्ट लिंग कहा जाता है। ]-यह मत भी समीचीन नहीं है। कारण, इस मत में विरोधी दो कल्पनाएँ है-[१] संवेदन लिंग अर्थप्रतिभासस्वभाव है ? या [2] उससे विपरीत है ? यदि संवेदन स्वयं ही अर्थप्रतिभासस्वभाव हो तब उसीको प्रमाण मान लेना चाहिये, दूसरे ज्ञातृव्यापार के कथन की फिर क्या जरूर यह बताओ! व्यापारवादीः ज्ञातृव्यापार के विना संवेदन की उपपत्ति नहीं होती, इसलिये ज्ञातृव्यापार की बात कहने योग्य है। उत्तरपक्षीः-यह बात असंगत है। संवेदन के उत्पादक इन्द्रियादि हैं और वे विद्यमान हैं तब ज्ञातृव्यापार की कल्पना निरर्थक है / व्यापारवादी:-इन्द्रियादि कारकवृद निष्क्रिय होने पर संवेदन की उत्पत्ति नहीं होती है। तात्पर्य, क्रिया के विना कारकवृद से संवेदनफल की उत्पत्ति न होने से बीच में क्रियारूप व्यापार की कल्पना होती है। उत्तरपक्षीः- यदि क्रिया से फल निष्पत्ति होती है तो इन्द्रियादि सामग्री क्या निरूपयोगी है या किसी कार्य में उसका भी व्यापार है ? यह बताओ। व्यापारवादीः- इन्द्रियादि सामग्री का व्यापार क्रिया की उत्पत्ति में है इसलिये वह निरर्थक नहीं है। उत्तरपक्षीः- इसमें और एक प्रश्न होगा कि इन्द्रियादि से जैसे क्रिया के विना संवेदन की सीधे ही उत्पत्ति नहीं होती तो इन्द्रियादि से अन्य क्रिया के विना वह प्रथम क्रिया भी कैसे उत्पन्न होगी? यदि प्रथम क्रिया की उत्पत्ति के लिये दूसरी क्रिया मानेंगे तो फिर तीसरी-चौथी भी माननी होगी और इस प्रकार अनवस्था होगी यह तो पहले भी क्रिया पक्ष में कह आये हैं / सारांश, संवेदन यदि अर्थप्रतिभासरूप हो तो दूसरे कोई व्यापार की कल्पना नहीं हो सकती क्योंकि उसका कोई प्रयोजन नहीं है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-अभावप्रमाणव्यर्थता 119 अथ द्वितीया कल्पनाऽभ्युपगम्यते, सापि न युक्ता। यतोऽर्थस्य संवेदनं तद् भवज्ज्ञातृव्यापारलिंगतां समासादयति, सा च तदसंवेदनस्वभावस्य कथं संगता? शेषं तु पूर्वमेव निर्णीतमिति न पुनरुच्यते। ___कि च, अर्थप्रतिभासस्वभावं संवेदनम् , ज्ञाता, तद्वयापारश्च बोधात्मको नैतत् त्रितयं क्वचिदपि प्रतिभाति / अथ-'घटमहं जानामि' इति प्रतिपत्तिरस्ति, न चैषा निह्नोतु शक्या, नाप्यस्याः किंचिद् बाधकमुपलभ्यते, तत् कथं न त्रितयसद्भावः ? तथाहि-'अहम्' इति ज्ञातुः प्रतिभासः, 'जानामि' इति संवेदनस्य, 'घटम्' इति प्रत्यक्षस्यार्थस्य, व्यापारस्य त्वपरस्य प्रमाणान्तरतः प्रतिपत्तिरित्यभ्युपगमः ।'-अयुक्तमेतत् , यतः कल्पनोद्भूतशब्दमात्रमेतत् , न पुनरेषवस्तुत्रयप्रतिभासः / अत एवोक्तमाचार्येण-'एकमेवेदं संविद्रूपं हर्ष-विषादाद्यनेकाकारविवर्त्त समुत्पश्यामः, तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम् / किं च, व्यापारनिमित्त कारकसम्बन्धे विकल्पद्वयम्-कि पूर्व व्यापारः पश्चात् संबन्ध ? उत [ अर्थाप्रतिभासस्वभाव संवेदन संभव ही नहीं है ] दूसरी कल्पना (अर्थप्रतिभासस्वभावविपरीतस्वभाव) का यदि स्वीकार करें तो वह भी अयोग्य है / कारण, अर्थ का अप्रतिभास होते हुए यदि वह ज्ञातृव्यापार का लिंग बनता है तो उसकी लिंगरूपता अथसंवेदनस्वभावता प्रयुक्त हुई / तात्पर्य यह है कि संवेदन और प्रतिभास शब्द में तो नाम मात्र का अन्तर है, अब यदि ज्ञातृव्यापार का लिंगभूत संवेदन अर्थसंबंधी है तो वह अर्थप्रतिभासरूप ही हुआ, अर्थात् अर्थप्रतिभासस्वभाव होने से ही वह ज्ञातृव्यापार का लिंग बना तो अर्थाप्रतिभासस्वभावता यानी अर्थासंवेदनस्वभावता की कल्पना स्वीकारने पर संवेदन की लिंगरूपता ही कैसे संगत होगी? शेष बात का निर्णय तो पहले ही हो गया है कि अन्वयनिश्चय और व्यतिरेक निश्चय ज्ञातृव्यापार के संबंध में घटते नहीं है, इसलिये यहां पुनरुक्ति नहीं करेंगे। दूसरा यह भी ज्ञातव्य है कि अर्थप्रतिभासस्वभावसंवेदन, ज्ञाता और उसका बोधात्मक [प्रमाणात्मक ] व्यापार यह त्रैविध्य किसी भी अनुभव में प्रतिफलित नहीं होता, फिर संवेदनभिन्न व्यापार को कैसे माना जाय ? शंकाः-'घटमहं जानामि'-"मैं घट को जानता हूँ" यह एक निर्बाध अनुभव है, इसका अपलाप नहीं हो सकता / उसमें कोई बाधक भी उपलब्ध नहीं है / तो इसमें त्रैविध्य का सद्भाव क्यों न माना जाय ?! त्रैविध्य तो स्पष्ट ही है, जैसे- 'अहम्' यह ज्ञाता का प्रतिभास है 'जानामि' यह संवेदन का प्रतिभास हुआ, 'घटम्' यह प्रत्यक्षीभूत अर्थ का प्रतिभास है। हाँ एक व्यापार बाकी रहा, किन्तु वह भी अन्य प्रमाण से ज्ञात होता है इसलिये उसका स्वीकार किया है। तो यह कैसे कहा जाय कि-वैविध्य अनुभव में नहीं है ? ___उत्तर:-यह प्रश्न अयुक्त है, क्योंकि जिन शब्दों से आपने वैविध्य का प्रतिपादन किया वे केवल कल्पना का ही विलास है अर्थशून्य है, वास्तव में उक्त रीति से तीन वस्तु का प्रतिभास होता नहीं है। इसीलिये तो पूर्वकालीन आचार्य ने यह कहा है कि-'संवेदनरूप यह (चैतन्य) एक ही है जिसको हम कभी हर्ष में, कभी गहरे शोक में, इस प्रकार अन्य अन्य आकारों में पलटता हुआ देखते हैं। चाहे उसकी ज्ञान, ज्ञाता आदि जो कुछ भी संज्ञा करनी है वह कर लो।' Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "120 सम्मतिप्रकरण नयकीण्ड"१ पूर्व सम्बन्ध ; पश्चाद् व्यापारः ? पूर्वस्मिन् पक्षे नं व्यापारार्थः सम्बन्ध, पूर्वमेव 'ध्यापारसद्भावात् / उत्तरस्मिन् “पुनर्विकल्पद्वर्यम्-संबन्धे सति कि परस्परसापेक्षाणां स्वव्यापारकर्तृत्वम् ? उत निरपे सापेक्षत्वे स्वव्यापारकर्तृत्वानूपपत्तिः, अनेकजन्यत्वात तस्या। निरपेक्षत्वे कि मीलनेन ? ततश्च संसर्गावस्थायामपि स्वव्यापारकरणादनवरतफलसिद्धिः, न चैतद् दृष्टमिष्ट वा। तन्न युक्त व्यापारस्याऽप्रतीयमानस्य कल्पनम् / को वन्यथा संभवति फलेऽप्रतीयमानकल्पनेनाऽऽत्मानमायासयति ? अन्यथासंभवश्व इन्द्रियादिषु सत्सु फलस्य प्रागेव दर्शितः, इन्द्रियादेः तवाभ्युपगमनीयत्वात् / / इतोऽपि संवेदनाऽऽख्यं फलमपरोक्षं व्यापारानुमापकमयुक्तम्, स्वदर्शनव्याघातप्रसक्तः / तथाहिभवताशून्यवादपरतःप्रामाण्यप्रसक्तिभयात् स्मृतिप्रमोषोऽभ्युपगतः, विपरीतख्यातौ तयोरवश्यंभावित्वात् / तथाहि-" / १-तस्यामन्यदेशकालोऽर्थस्तद्देशकालयोरसन प्रतिभाति, न च उद्देशत्वाद्यसत्त्वस्यात्यन्ताऽसत्त्वस्य चासत्प्रतिभांसे कश्चिद्विशेषः यथाऽन्यदेशाद्यवस्थितमाकारं कुतश्चिद् भ्रमनिमित्ताद् ज्ञानं दर्शयति तथा अविद्यावशादत्यन्तासन्तमपि कि न दर्शयति ? तथा च कथं शून्यवादाद मुक्तिः ? [ व्यापार और कारक संबंध का पौर्वापये कैसे ?] यह जो कहा गया था कि इन्द्रियादि सामग्री अन्तर्भूतकारकों के मिलन की सार्थकता क्रियात्मक व्यापार को उत्पन्न करने में है-उस पर भी दो विकल्प हैं-[A] पहले व्यापार होता है और बाद में कारकों का अन्योन्य मिलन होता है ? अथवा [B] पहले कारकों का मिलन होने के बाद व्यापार उत्पन्न होता है ? [A] आद्य कल्प में कारकों का मिलन व्यापार के लिये नहीं हुआ, क्योंकि उसके पहले ही व्यापार तो विद्यमान है / [B] दूसरे कल्प में फिर से दो विकल्प का सामना करना होगा। १-व्यापार के लिये कारकों के मिलने पर वे सब कारक अन्योन्य की अपेक्षा से अपने व्यापार को जन्म देते हैं ? या २अन्योन्य निरपेक्ष रह कर अपने व्यापार को जन्म देते हैं ? १-अन्योन्य की अपेक्षा करने पर तो स्व यानी स्वयं व्यापार के कर्ता ही नहीं हये क्योंकि व्यापार कोई एककारक जन्य नहीं रहा किन्तु अनेक कारकजन्य हुआ। २-अन्योन्य की अपेक्षा न होने के दूसरे विकल्प में तो कारकों के मिलन का प्रयोजन ही क्या ? जब मिलन निरर्थक हुआ तो उसका मतलब यह हुआ कि अन्य कारकों की असंसर्ग दशा में भी कारक अपने व्यापार को करता है / तात्पर्य, अगर उसको अन्य की अपेक्षा नहीं है क कारक जीयेगा तब तक निरन्तर संवेदनरूप फल उत्पन्न होता रहेगा। न तो ऐसा किसी ने देखा है, 'न तो वह इच्छनीय है, इसलिये निष्कर्ष यह हुआ कि प्रतीति में न आने वाले व्यापार की कल्पना अयुक्त है / व्यापार के विना भी यदि फलोत्पत्ति का संभव हो तो अप्रतीत व्यापार की कल्पना का कष्ट कौन करेगा? / इन्द्रियादि के रहने पर व्यापार विना भी फलोत्पत्ति का संभव तो पहले बताया है, तथा व्यापारवादी को भी इन्द्रियादि अवश्य मानना है।। [शून्यवादादि भय से स्मृतिप्रमोषाभ्युपगम ] 6; यह भी एक कारण अपने ही दर्शन का व्याघातरूप है जिससे मानना होगा कि संवेदनसंज्ञक , अपरोक्ष फल से व्यापार की अनुमिति का होना अयुक्त ठहरेगा / वह इस प्रकार-शून्यवाद की आपत्ति / / Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-स्मृतिप्रमोषः 121 तथा परतःप्रामाण्यमपि मिथ्यात्वाशंकायां कस्यचिज्ज्ञानस्य बाधकाभावान्वेषणाद् वक्तव्यम् , तदन्वेषणे च सापेक्षत्वं प्रमाणानामपरिहार्य विपरीतख्यातौ / ततो न कस्यचिद् ज्ञानस्य मिथ्यात्वम्, तदभावान्नान्यदेशकालाकारार्थप्रतिभासः, नापि बाधकाभावापेक्षा। भ्रान्ताभिमतेषु तु तथाव्यपदेशः स्मृतिप्रमोषात् / यत्र तु स्मृतित्वेऽपि 'स्मरामि' इति रूपाऽप्रवेदनं कुतश्चित कारणात् तत्र स्मृतिप्रमोषोऽभिधीयते। एवं परतः प्रामाण्यस्वीकार के भय से आपने भ्रम स्थल में विपरीतख्याति न मानकर स्मृति का प्रमोष यानी स्मृतिअंश में गुप्तता मानी है। यदि विपरीतख्याति मानें तो शून्यवाद की आपत्ति और परतः प्रामाण्य की आपत्ति निर्बाध होने वाली है। वह इस प्रकार- विपरीतख्याति में अन्य देश और अन्य काल में अवस्थित रजतादि वस्तु शुक्ति देश में उस काल में न होते हुये भी दिखाई देती है यह माना जाता है। अब यह सोचना चाहिये कि भासमान वस्तु का 'उस देश-काल में असत्त्व' माने या 'अत्यन्त असत्त्व' माने, चाहे जो कुछ माने, फिर भी असत्रूप से उस वस्तु के प्रतिभास में कोई भेद नहीं होता / अगर ज्ञान अन्यदेशवर्ती वस्तु के आकार को किसी भ्रान्तिनिमित्त से उस देश में दिखाता है तो अविद्यारूप भ्रान्तिनिमित्त से अत्यन्तासत् अर्थ को भी क्यों नहीं दिखा सकता? ! इस प्रकार यदि असत् ही पदार्थ का भान अविद्या से माना जाय तो शून्यवाद की आपत्ति से छूटकारा कैसे होगा ? क्योंकि भासमान समस्त वस्तु अत्यन्त असत् होने पर भी अविद्या से उसका प्रतिभास हो सकता है। . [ज्ञानमिथ्यात्वपक्ष में परतः प्रामाण्यापत्ति ] परतः प्रामाण्य की आपत्ति भी विपरीतख्याति में संभव है / बाधक उपस्थित होने पर ज्ञान को भ्रमात्मक यानी विपरीत ख्यातिरूप माना जाता है। मान लो कि किसी ज्ञान में वह मिथ्या होने की शंका का उदय हुआ। अब इस के निराकरण के लिये बाधकाभाव का अन्वेषण करना होगा, अर्थात् उस ज्ञान के प्रामाण्य का समर्थन बाधकाभाव प्रदर्शन से करना होगा तो परत: प्रामाण्य भी कहना होगा। इस प्रकार विपरीतख्याति में बाधकाभाव के अन्वेषण में प्रमाणों की सापेक्षता अनिवार्य हो जायगी। इससे बचने के लिये मीमांसको ने यह माना है कि कोई भी ज्ञान मिथ्या नहीं होता / मिथ्या न होने से अन्यदेशकालवर्ती पदार्थ के आकार का प्रतिभास भी नहीं मानना पड़ेगा, इसलिये विपरीतख्याति और शून्यवाद की आपत्ति नहीं होगी। तथा बाधकाभाव की अपेक्षा न रहेगी, तब परतः प्रामाण्य स्वीकार की आपत्ति भी नहीं होगी। जिस ज्ञान को भ्रान्त माना जाता है वह वस्तुतः भ्रम न होने पर भी स्मृति अंश का प्रमोष होने से उसे भ्रान्त कहा जाता है वह इस प्रकार-'इदं रजतम्' यह एक शुक्तिस्थल में रजतावभासी प्रतीति है [ जिस को भ्रम माना जाता है ] इस प्रतीति में 'इदं' अंश से सामने पडै हुये शुक्ति आदि वस्तु के प्रतिभास का उल्लेख होता है, 'रजतम्' इस अंश से पूर्वानुभूत रजत के साम्य आदि किसी निमित्त से होने वाले स्मरण का अर्थात् उस स्मृति में भासमान रजत का उल्लेख होता है / यद्यपि उसका स्मृतिविषयत्व रूप से उल्लेख नहीं होता, अर्थात् रजत स्मरण का स्मरणरूप से भान उसमें नहीं होता, उसी को स्मृतिप्रमोष कहा जाता है / तात्पर्य यह है कि जहाँ "मैं याद करता हूं" इस प्रकार स्मरण की स्पष्ट प्रतीति होती है वहाँ स्मृति का अप्रमोष है यानी स्मृति अंश गुप्त नहीं रहता / किंतु जहाँ “मैं Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अस्मिन् मते 'रजतम्' इति यत् फलसंवेदनं तव कि प्रत्यक्षफलस्य सत:, किं वा स्मतेः ? यदि प्रत्यक्षफलस्य तदा यथा 'इदम्' इति प्रत्यक्षफलं प्रतिभाति तथा 'रजतम्' इत्यपि, ततश्च तुल्ये प्रतिभासे 'एकं प्रत्यक्षम्-अपरं स्मरणं' इति किंकृतो विशेषः ? अथ उक्तम् 'स्मरणस्यापि सतस्तद्रूपानवगमात् तेनाकारेणावगमः' / तत् कि 'रजतम्' इत्यत्राप्रतिपत्तिरेव? तस्यां चाभ्युपगम्यमानायां कथं स्मृतिप्रमोषः ? अन्यथा मूर्छाद्यवस्थायामपि स्यात् / अथ 'इदम्' इति तत्र प्रत्ययाभावान्नासौ / ननु 'इदम्' इत्यत्रापि वक्तव्यं-किमाभाति ? 'पुरोऽवस्थितं शुक्तिशकलं' इति चेत् ? ननु किं प्रतिभासमानत्वेन तव प्रतिभाति ? उत संनिहितत्वेन ? प्रतिभासमानत्वेन तथाभ्युपगमे न स्मतिप्रमोषः, शुक्तिकाशकले हि स्वगतधर्मविशिष्टे प्रतिभासमाने कुतो रजतस्मरणसंभावना ? न हि घटग्रहणे पटस्मरण संभवः / अथ शुक्तिका-रजतयोः साहयाद करता हूँ" इस प्रकार स्मतिरूप का प्रवेदन किसी कारण से नहीं होता वहाँ स्मृति प्रमोष कहा जाता है, यानी वहाँ स्मृति अंश गुप्त रहता है, इस लिये वह अनुभव में स्फुरित नहीं होता। [ 'रजतम्' यह संवेदन प्रत्यक्षरूप या स्मृतिरूप ?] [स्मृतिप्रमोषवादी के मत में अब स्वदर्शन व्याघातदोष होने से कैसे अपरोक्ष संवदेन नामक फल, व्यापार का अनुमापक नहीं हो सकता इसकी मीमांसा का प्रारम्भ करते पहले, स्मृतिप्रमोष होने पर 'इदं रजतम्' ज्ञान की आलोचना की जाती है-] 'इदं रजतम्' इस ज्ञान में 'रजतम्' यह जो अपरोक्ष फल संवेदन है वह प्रत्यक्षात्मक फल का संवेदन है या स्मृतिरूप का संवेदन है ? अर्थात् 'रजतम्' इस संवेदन को प्रत्यक्षरूप मानते हैं या स्मृति रूप ? यदि प्रत्यक्षफल का संवेदन माना जाय तो यह प्रश्न उठेगा कि-जैसे 'इदम्' इसरूप से प्रत्यक्षफल का प्रतिभास होता है उसी प्रकार 'रजतम्' यह भी प्रत्यक्षफल का प्रतिभास होने पर, वह कौनसा विशेष फर्क है जिससे प्रतिभास दोनों स्थल में समान होने पर भी एक 'इदं' प्रतिभास को प्रत्यक्ष माना जाता है और दूसरे 'रजतम्' प्रतिभास को स्मरण माना जाय ? प्रमोषवादी:-हमने कहा तो है कि स्मरणात्मक वह संवेदन होते हुये भी स्मृतिस्वरूप का वेदन न होने से प्रत्यक्ष जैसे आकार से ही उसका बोध होता है। उत्तरपक्षीः-यहाँ प्रश्न है कि क्या 'रजतम्' इस अंश में कोई प्रतिपत्ति यानी बोध ही नहीं है ? यदि 'नहीं है' ऐसा मानेंगे तो उस अंश में स्मृति का प्रमोष भी क्यों माना जाय ? कुछ बोध के न होने पर भी स्मृतिप्रमोष मानना हो तब तो बेहोश अवस्था में भी स्मृतिप्रमोष मानना होगा, क्योंकि उस वक्त कुछ बोध नहीं होता। प्रमोषवादी:-बेहोशी में 'इदं' इस प्रकार रजत के विषय में ज्ञान नहीं होता इस लिये स्मृति प्रमोष वहाँ नहीं मानते। उत्तरपक्षी:-यहाँ भी प्रश्न है कि 'इदं' इस अंश में भी क्या भासता है ? यह बताईये / प्रमोषवादीः-सामने पड़ा हुआ सीप का टुकड़ा। उत्तरपक्षीः-यहाँ भी दो प्रश्न है १-प्रतिभास होता है इसलिये सीप का वेदन होता है, या २-संनिहित होने से सीप का वेदन होता है ? Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-स्मृतिप्रमोषः 123 श्यात् शुक्तिप्रतिभासे रजतस्मरणम् / न, तस्य विद्यमानत्वेऽप्यकिंचित्करत्वात् / यदा ह्यसाधारणधर्माध्यासितं शुक्तिस्वरूपं प्रतिभाति तदा कथं सदृशवस्तुस्मरणम् ? अन्यथा सर्वत्र स्यात् ? सामान्यमात्रग्रहणे हि तत् कदाचिद् भवेदपि, नाऽसाधारणस्वरूपप्रतिभासे / तन्न 'इदम्' इत्यत्र शुक्तिकाशकलस्य प्रतिभासनात् तथा व्यपदेशः। ____संनिहितत्वेनाऽप्रतिभासमानस्यापि तद्विषयत्वाभ्युपगमे इन्द्रियसम्बद्धानां तद्देशत्तिनामण्वादीनामपि प्रतिभासः स्यात् / न चाऽप्रतिभासमानानामिन्द्रियादीनामिव प्रतीतिजनकानामपि तद्विषयता संगच्छते / तन्न 'इदं' इत्यत्र शुक्तिकाशकलप्रतिभासः, नापि 'रजतम्' इत्यत्र स्मृतित्वेऽपि तस्याः स्वरूपेणानवगमात् 'प्रमोषः' इत्यभ्युपगमो युक्तः / [शुक्ति प्रतिभासमान होने पर स्मृतिप्रमोष दुर्घट है] (1) प्रतिभासमान होने से यदि सीप का वेदन मानते हैं तो उससे रजतस्मृति का प्रमोष मानने की जरूर ही नहीं है। यदि उस वक्त रजत के स्मरण का सम्भव होता तब तो स्मृति का प्रमोष मानना जरूरी था किन्तु उस वक्त रजतस्मरण की कोई संभावना ही नहीं है जबकि अपने में रहे हुये धर्म से संवलित सीप का टुकड़ा ही भास रहा है। ऐसी संभावना भी नहीं कि जाती कि घट का ज्ञान हो रहा हो उस वक्त पट का स्मरण होवे / प्रमोषवादी:-सीप और रजत में इतना साम्य है कि एक सीप का प्रतिभास होने पर रजत का स्मरण हो आता है / . उत्तरपक्षी:-यह हम नहीं मानते, क्योंकि साम्य होने पर भी वह अकिंचित्कर होने से रजतस्मरण का संभव नहीं है / क्योंकि आपके मत में तो 'इदं' रूप से जब असाधारणधर्मविशिष्ट सीप का स्वरूप ही भासता है तो वहाँ सदृश वस्त के स्मरण की संभावना कैसे की जाय? अन्यथा हर चीज के वेदन करते समय उनके सदृश वस्तुओं का स्मरण होता ही रहेगा जो किसी को इष्ट या मान्य नहीं है। हाँ ! यदि सीप का वेदन विशिष्टरूप से न मान कर केवल सामान्यरूप से माना जाय तब तो सदृशवस्तु के स्मरण की संभावना ठीक है। किन्तु जब आप उसका असाधारणरूप से ही 'इदं' इस प्रकार प्रतिभास मानते हैं तो सदृशवस्तु के स्मरण की संभावना नहीं हो सकती। अतः 'इदम्' इस रूप से सीप खण्ड का प्रतिभास होता है इसलिये 'रजतम्' इस अंश में स्मृति प्रमोष का व्यपदेश और मूर्छा में 'इदं' प्रतिभास न होने से स्मृति प्रमोष नहीं होता यह कथन उचित नहीं है। [सीप का प्रतिभास और रजत का स्मृतिप्रमोष अयुक्त है] (2) यदि कहें कि प्रतिभासमान होने से नहीं किंतु वहाँ सीपखण्ड संनिहित होने से ही 'इदं' इस ज्ञान को सीपखण्डविषयक मानते हैं तो संनिहित होने के कारण उस देश में विद्यमान और इन्द्रिय से संबद्ध ऐसे अणु-धूलीकण आदि का भी प्रतिभास हो जायेगा। सच बात यह है कि जो प्रतिभासमान नहीं होता बह प्रतीति का जनक होने पर भी उसमें प्रतीतिविषयता मानना संगत नहीं है जैसे इन्द्रियादि / इन्द्रियादि प्रतीति के कारण है फिर भी उसका प्रतिभास ज्ञान में न होने से ज्ञान को तद्विषयक नहीं मानते हैं। उपरोक्त कथन का सार यह है कि-'इदं' इस रूप में सीपखण्ड का प्रतिभास होता है और 'रजतम्' इस अंश में स्मरण होने पर भी स्मृति का स्वकीयरूप से बोध न होने से स्मृति अंश में 'प्रमोष' होता है-यह आपकी मान्यता युक्त नहीं है / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ स्मृतिरप्यनुभवत्वेन प्रतिभातीति तत्प्रमोषोऽभ्युपगम्यते / नन्वेवं सैव शून्यवाद-परतः प्रामाण्यभयादनभ्युपगम्यमाना विपरीतख्यातिरापतिता। न चात्राऽप्रतिपत्तिरेव 'रजतं' इत्येवं स्मरणस्यानुभवस्य वा प्रतिभासमानाव। इदमदम्पर्यम्-अर्थसंवेदनमपरोक्षं सामान्यतो दृष्टं लिगं यदि ज्ञातव्यापारानुमापकमभ्युपगम्यते तदा स्मृतिप्रमोषे 'रजतम्' इत्यत्र संवेदनम् ? उताऽसंवेदनम् ? प्रतिभासोत्पत्तेः संवेदनेऽपि रजतमनुभूयमानतया न संवेद्यते, स्मतिप्रमोषाभावप्रसंगात , नापि स्मर्यमाणतया, प्रमोषाभ्युपगमाव, विपरीतख्यातिस्तु नाभ्युपगम्यते, तद 'रजतम्' इत्यत्र संवेदनस्याऽपरोक्षत्वाभ्युपगमाप मेऽपि प्रतिभासाभावः प्रसक्तः। कि च, स्मतिप्रमोषः पूर्वोक्तदोषद्वयभयादभ्युपगतः, तच्च तदभ्युपगमेऽपि समानम् / तथाहिसम्यग् रजतप्रतिभासेऽपि प्राशंकोत्पद्यते-'किमेष स्मतावपि स्मतिप्रमोषः, उत सम्यगनुभवः' इति सापेक्षत्वाद् बाधकाभावो [? वा] न्वेषणे परतः प्रामाण्यम्, तत्र च भवन्मतेनानवस्था प्रदर्शितैव / यत्र हि स्मृतिप्रमोषस्तत्रोत्तरकालभावी बाधकप्रत्ययः, यत्र तु तदभावस्तत्र स्मृतिप्रमोषाऽसंभव इति कथं न बाधकाभावापेक्षायां परतःप्रामाण्यदोषभयस्यावकाशः ? [स्मृति की अनुभवरूप में प्रतीति में विपरीतख्याति प्रसंग] यदि 'स्मृति का ही अनुभवरूप में भासित होना' इसको स्मृतिप्रमोष कहा जाय तब तो विपरीतख्याति जिसका शून्यवाद और परतः प्रामाण्य आपत्ति के भय से आप स्वीकार करना नहीं चाहते-वही सामने आकर खडी हो जायगी। यह भी नहीं कह सकते कि-वहाँ केवल शुक्ति का 'इदं' इस रूप से अनुभव होता है और कुछ भी अनुभव में नहीं आता-क्योंकि 'रजतं' इस प्रकार रजत का प्रतिभास वहाँ निष्प्रतिबन्ध होता है, चाहे वह प्रतिभास स्मृतिरूप हो या अनुभवरूप हो-यह बात अलग है। [ व्यापारवादी को स्वदर्शनव्याघात प्रसक्ति ] अब यह देखना है कि संवेदनात्मक फल को अपरोक्ष मानते हुये ज्ञातृव्यापार का अनुमापक मानने पर व्यापारवादी के अपने सिद्धान्त का व्याघात कैसे होता है-स्मृतिप्रमोष उपरोक्त आपत्ति के भय से मानना होगा इत्यादि पूरे कथन का तात्पर्य यह है कि संवेदनरूप फल को अपरोक्ष मानना है और उसको सामान्यतोदृष्ट लिंग बनाकर ज्ञातृव्यापार की अनुमिति को फलित करना है। किंतु इसमें स्वदर्शन व्याघात प्रसक्त होगा। स्मृतिप्रमोष में जो 'रजतम्' यह संवेदन अपरोक्ष है यह सर्वविदित होने पर उसकी मीमांसा करनी पड़ेगी कि वह वास्तव में संवेदनरूप है ? ऐसा प्रश्न इसलिये कि रजत प्रतिभास की उत्पत्ति होने से यदि वहाँ रजत का संवेदन माना जाय तो भी अनुभूयमानत्व यानी अनुभवविषयत्वरूप से वह संवेदन नहीं घटेगा क्योंकि तब तो वहां रजत का 'अनुभव' सिद्ध होने पर स्वदर्शन का व्याघात है। स्भर्यमाणरूप से वहां रजत का संवेदन भी नहीं माना जा सकता क्योंकि व्यापारवादी तो वहाँ स्मृति का प्रमोष मानता है, स्मृति का उल्लेख मानेगा तो पुनः स्वदर्शन व्याघात होगा। विपरीतख्याति मानने पर संवेदनरूपता घट सकती है किन्तु उसको मानना नहीं है / परिणाम यह हुआ कि 'रजतम्' इस संवेदन को अपरोक्ष मानने पर भी उसके प्रतिभास की अनुभूति या स्मृतिरूप से संगति न हो सकने के कारण उसका अभाव ही अन्त में प्रसक्त हुआ। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-स्मृतिप्रमोषः 125 शून्यवाददोषभयमपि स्मृतिप्रमोषाभ्युपगमेऽवश्यंभावि / तथाहि-ध्वस्तश्रीहर्षाद्याकारः अनुत्पन्नशंखचक्रवांद्याकारश्च ज्ञाने यः प्रतिभाति सोऽवश्यं ज्ञानरचितोऽसन् प्रतिभाति, रजतादिस्मृतेरप्यसन्निहितरजताकारप्रतिभासस्वभावत्वात् तत्सत्त्वं तदुत्पत्तावसंनिहितं नोपयुज्यते इति असदर्थविषयत्वे ज्ञानस्य कथं शून्यवादभयाद् भवतः स्मृतिप्रमोषवादिनो मुक्तिः ? तन्न स्मृतिप्रमोषः। ___ कश्चायं स्मृतिप्रमोषः ? कि स्मृतेरभावः ? उतान्यावभासः ? आहोस्विद् अन्याकारवेदित्वम् ? इति विकल्पाः / तत्र नासौ स्मतेरभावः, प्रतिभासाभावप्रसंगात् / अथान्यावभासोऽसौ तदाऽत्रापि वक्तव्यं-किं तत्कालोऽन्यावभासोऽसौ ? अथोत्तरकालभावी ? यदि तत्कालभावी अन्यावभासः स्मृतेः प्रमो टादिज्ञानं तत्कालभावि तस्याः प्रमोषः स्यात् / अथोत्तरकालभाव्यसौ तस्याः प्रमोषः, तदप्ययुक्तम् , अतिप्रसंगात् / यदि नामोत्तरकालमन्यावभासः समुत्पन्नः, पूर्वज्ञानस्य स्मृतिप्रमोषत्वेनाऽभ्युपगतस्य तत्त्वे किमायातम् ? अन्यथा सर्वस्य पूर्वज्ञानस्य स्मृतिप्रमोषत्वप्रसंगः। [ स्मृति प्रमोष के स्वीकार में भी परतःप्रामाण्य भय ] स्वदर्शन व्याघात उपरांत दूसरी बात यह है कि पूर्वोक्त दोषयुगल के भय से जो स्मृतिप्रमोष माना है, उसको मानने पर भी वह भय तदवस्थ ही है। वह इस प्रकार-जब कभी रजत का सच्चा प्रतिभास होगा वहां भी यह शंका संभवित है कि 'क्या यहां रजत की स्मति होने पर भी वह गुप्त है या यह सच्ची अनुभूति ही है ?' इस शंका को हठाने के लिये यदि बाधकाभाव की शोध करेंगे तो वह अपेक्षित होने से प्रामाण्य परतः हो जायगा, और इसमें तो आपके मतानुसार अनवस्था दिखाई गयी है। जहाँ स्मृतिप्रमोष होगा वहाँ उत्तरकाल में बाधकज्ञान उत्पन्न होगा, और जहाँ बाधकज्ञान का अभाव रहेगा वहाँ उस ज्ञान के सत्य होने से स्मृतिप्रमोष का संभव नहीं रहेगा-इस प्रकार बाधकाभाव की अपेक्षा रहने पर परतःप्रामाण्यदोष भय को अवकाश क्यों नहीं मिलेगा? [स्मृतिप्रमोष स्वीकार में भी शून्यवाद भय ] स्मृति प्रमोष मानने पर शून्यवाददोष के भय से भी मुक्ति नहीं है / श्री हर्षादि आकार का ध्वंस और शंखचक्रवर्ती आदि आकार की अनुत्पत्ति से विशिष्ट जो कुछ भी ज्ञान में प्रतिभासित होता है वह केवल ज्ञान से ही रचित यानी ज्ञानभिन्न कोई उसका कारण न होने से असत् ही प्रतिभासित होता है यह मानना जरूरी है, क्योंकि उसको स्मृति का विषय नहीं मान सकते / कारण, रजत स्मति से जो रजताकार प्रतिभास होगा वह असंनिहित रजत का होगा किन्तु 'इदं रजतम्' यहाँ तो असंनिहित रूप से रजतप्रतिभास होता है। इसलिये 'इदं रजतम्' इस भ्रम ज्ञान में असंनिहित रजतसत्त्व का कोई उपयोग नहीं है। तात्पर्य 'इदं रजतं' ज्ञान का विषयभूत रजत असत् है / इस प्रकार ज्ञान जब असदर्थ विषयक भी होगा तो किसी भी ज्ञान के विषय को परमार्थ सत् मानने की आवश्यकता न रहने से शून्यवाद प्रसक्त होगा। ऐसा होने पर स्मृति प्रमोषवादी को शून्यवाद के भय से भी मुक्ति कहाँ है ? सारांश, स्मृति का प्रमोष आदरणीय नहीं है। [स्मृतिप्रमोष के ऊपर विकल्पत्रयी ] स्मृतिप्रमोष के सम्बन्ध में और भी तीन विकल्प हैं-स्मृतिप्रमोष क्या ? (१)स्मृति का अभाव है ? (2) अथवा अन्यावभास यानी अन्य ज्ञानरूप है ? (3) या अन्याकारवेदन है ? Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथान्याकारवेदित्वं तस्या असौ, तदा विपरीतख्यातिः स्यात् न स्मृतिप्रमोषः। कश्चासौ विपरीत आकारस्तस्याः ? यदि स्फुटार्थावभासित्वम्, तदसौ प्रत्यक्षस्याकारः कथं स्मृतिसम्बन्धी ? तत्सम्बन्धित्वे वा तस्याः प्रत्यक्षरूपतैव स्यात् न स्मृतिरूपता / अत एव शुक्तिकायां रजतप्रतिभासस्य न स्मृतिरूपता तत्प्रतिभासेन व्यवस्थाप्यते, तस्य प्रत्यक्षरूपतया प्रतिभासनात् / नापि ब धकप्रत्ययेन तस्याः स्मतिरूपता व्यवस्थाप्यते, यतो बाधकप्रत्ययः तत्प्रतिभातस्यार्थस्याऽसद्रूपत्वमावेदयति, न पुनस्तज्ज्ञानस्य स्मतिरूपताम् / तथाहि-बाधकप्रत्यय एवं प्रवत्तते 'नेदरतजम्' / न पुनः 'रजतप्रतिभासः प्रकृतः स्मतिः' इति / तन्न स्मृतिप्रमोषरूपता भ्रान्तदृशामभ्युपगंतु युक्ता / अतो नायमपि सत्पक्षः। (1) स्मृति का अभाव यह तो स्मृति प्रमोष नहीं ही है क्योंकि तब प्रतिभास का ही अभाव आपन्न होगा / क्योंकि 'रजत' अंश में आप स्मृति के अलावा दूसरे ज्ञान को मानते नहीं। (2) अब कहिये कि वह अन्य ज्ञानात्मक है-अर्थात् 'रजतं' यह ज्ञान होता है उस वक्त स्मृतिभिन्न किसी ज्ञान का होना यह स्मृतिप्रमोष है तो यहाँ दो प्रश्न हैं [A] वह अन्यावभास 'रजतं' इस ज्ञान का समानकालीन है ? या [B] उत्तरकाल भावी है ? A, अगर समानकालभावि अन्यावभासी ज्ञान को स्मृति का प्रमोष कहा जाय तब तो 'रजतं' इस ज्ञान के काल में किसी को भी घटादिज्ञान होगा वह स्मृति का प्रमोष बन जायगा। B, उत्तरकालीन अन्यावभास स्मृति का प्रमोष है तो यह भी युक्त नहीं है क्योंकि इसमें अतिप्रसंग इस प्रकार होगा-यदि उत्तरकाल में कोई भी अन्यावभास उत्पन्न हआ तो उससे वह पूर्वकालीन ज्ञान संबंध विना ही स्मृतिप्रमोष रूप मान लेने म क्या सिद्ध हुआ ? यदि विना संबंध ही पूर्वज्ञान को स्मृतिप्रमोष कह देना है तो जिस जिस ज्ञान के उत्तरकाल में कोई अन्य ज्ञान उत्पन्न होगा वे सभी ज्ञान पूर्वकालीन ज्ञान हो जाने से स्मृति प्रमोषरूप कहना होगा-यही अतिप्रसङ्ग है / (3) तृतीय विकल्प में स्मृतिप्रमोष को अन्याकारवेदनरूप माना जाय लब तो वह स्मृति प्रमोष नहीं हआ किन्तु स्पष्टरूप से विपरीत ख्याति ही हई। वहां यह भी प्रश्न होगा कि वह अन्याकार यानी विपरीत आकार कैसा है ? यदि स्फुट अर्थावभास को ही विपरीत आकार कहेंगे तो वह प्रत्यक्ष का ही आकार हुआ क्योंकि प्रत्यक्ष के अलावा किसी भी ज्ञान में स्फुटार्थावभास नहीं होता / फिर उसे स्मृतिसंबंधी क्यों मानते हो ? अथवा वह अन्याकार स्फुटार्थावभास रूप होकर यदि स्मृति सम्बन्धी होगा तो स्फुटावभासवाली होने से स्मृति भी प्रत्यक्षरूप ही हो जायगी, स्मृतिरूप नहीं रह सकेगी। यही कारण है कि सीप में होने वाले रजतावभास में स्मृतिरूपता रजत प्रतिभास से ही सिद्ध नहीं की जा सकती क्योंकि रजतावभास वहाँ प्रत्यक्ष रूप ही प्रतीत होता है, वह स्मृतिरूपता में कैसे साक्षि होगा। __ भ्रमज्ञानोत्तरभावी बाधकज्ञान से भी 'रजतं' इस ज्ञान की स्मृतिरूपता सिद्ध नहीं होती क्योंकि बाधक प्रतीति से तो भ्रमज्ञान में भासित रजत की असद्पता ही आवेदित होती है किन्तु भ्रमज्ञान की स्मृतिरूपता का उससे आवेदन नहीं होता। वह इस प्रकार-बाधक प्रतीति 'यह रजत नहीं है' इस प्रकार ही उत्पन्न होती है, 'प्रस्तुत रजतप्रतिभास स्मृति है' इस रूप में उत्पन्न नहीं होती। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवादः 127 तन्नार्थसंवेदनस्वरूपमप्यपरोक्षं सामान्यतो हष्टं लिंगं प्राभाकररभ्युपगम्यमानं ज्ञातृव्यापारलक्षणप्रमाणानुमापमिति, मीमांसकमतेन प्रमाणस्यवासिद्धत्वात् कथं यथावस्थितार्थपरिच्छेदशक्तिस्वभावस्य प्रामाण्यस्य स्वतः सिद्धिः? न हि धमिणोऽसिद्धौ तद्धर्मस्य सिद्धियुक्ता। अतो न सर्वत्र स्वतः प्रामाण्यसिद्धिरिति स्थितम् / इसलिये भ्रान्त दृष्टिवालों का भ्रमज्ञान स्मृतिप्रमोषगभित है यह मानना ठीक नहीं है / सारांश, स्मृतिप्रमोष वाद यह कोई आदर योग्य पक्ष नहीं है / [ अर्थसंवेदन से ज्ञातव्यापारात्मक प्रमाण की असिद्धि ] उपरोक्त का सार यह निकला कि प्रभाकर के अनुगामीयों ने जो अपरोक्ष अर्थसंवेदन को सामान्य तो दृष्ट लिंगरूप से मानकर उससे ज्ञातृव्यापारस्वरूप प्रमाण की अनुमिति का होना कहा है वह नितान्त अयुक्त है। अरे ! जब मीमांसक के मत में प्रमाणरूप से अभिमत ज्ञातृव्यापार ही असिद्ध है तो यथावस्थितार्य की परिच्छेदशक्ति रूप स्वत: प्रामाण्य की सिद्धि ही कैसे? धर्मी प्रमाण ही जब सिद्ध नहीं हो सकता तो स्वतः प्रामाण्यरूप उसके धर्म की सिद्धि युक्त नहीं हो सकती। इसलिए, अन्ततः यही सिद्ध होता है कि उत्पत्ति आदि में कहीं भी स्वतः प्रामाण्य की सिद्धि नहीं है। [प्रामाण्यवाद समाप्त ] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [वेदापौरुषेयतावादप्रारम्भः] "शब्दसमुत्थस्य तु अभिधेयविषयज्ञानस्य यदि प्रामाण्यमभ्युपगम्यते तदा अपौरुषेयत्वस्याऽसंभवाद् गुणवत्पुरुषप्रणीतस्तदुत्पादकः शब्दोऽभ्युपगंतव्यः, अथ तत्प्रणीतत्वं नाऽभ्युपगम्यते तदा तत्समुत्थज्ञानस्य प्रामाण्यमपि न स्यादि"त्यभिप्रायवानाचार्यः प्राह-'जिनानाम् / रागद्वेषमोहलक्षणान् शत्रून् जितवन्त इति जिनास्तेषां 'शासन' तदभ्युपगन्तव्यमिति प्रसङ्गसाधनम् / न चात्रेदं प्रेर्यम्-"यदि-जिनशासनं जिनप्रणीत्वेन सिद्धं निश्चितप्रामाण्यमभ्युपगमनीयम्, अन्यथाप्रामाण्यस्याप्यमभ्युपगमनीयत्वात - इति प्रसंगसाधनमत्र प्रतिपाद्यत्वेनाऽभिप्रेतम्-तत्किमिति बौद्धयुक्त्याऽऽर्हतेन त्वया स्वतः प्रामाण्यनिरासोऽभिहितः ?"-यतः सर्वसमयसमूहात्मकत्वमेवाचार्येण प्रतिपादयितुमभिप्रेतम् / यद् वक्ष्यत्यस्यैव प्रकरणस्य परिसमाप्तौ, यथा भई मिच्छदसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स / जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स // [सम्मति० 3/70] . इत्यादि / अयमेवार्थो बौद्धयुक्त्युपन्यासेन सथितः / अन्यत्राप्यन्यमतोपक्षेपेणान्यमतनिरासेऽयमेवाभिप्रायो दृष्टव्यः, सर्वनयानां परस्परसापेक्षाणां सम्यग्मतत्वेन, विपरीतानां विपर्ययत्वेनाचार्यस्येष्टत्वात् / अत एवोक्तमनेनैव द्वात्रिंशिकायाम् उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः / न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरिस्विवोदधिः // [ 4/15 ] [ 'जिनानां' पदप्रयोग की सार्थकता का प्रदर्शन ] . ' प्रथम कारिका में जो 'जिनानां शासनं' यह कहा है उसकी सार्थकता के लिये व्याख्याकार महषि एक प्रसंगापादन दिखलाते हैं "अगर शब्द से उत्पन्न अभिधेयविषयक ज्ञान को प्रमाण मानना है तो उस प्रमाणज्ञान का उत्पादक शब्द अपौरुषेय यानी पुरुष प्रयत्न से अजन्य तीन काल में भी संभवित न होने से गुणवान् पुरुष के प्रयत्न से जन्य ही मानना चाहीये / " इस अभिप्राय को मनोगत रखकर आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकरजी ने 'जिनानाम् शासनं' यह प्रयोग किया है। राग-द्वेष और मोह ये तीन आत्मा के अनादिकालीन शत्र हैं, उन पर विजय पाने वाले प्रबुद्धात्मा को 'जिन' कहा जाता है। प्रमाणबोधजनक शब्दरूप 'शासन' उन्हीं का होता है यह मानना चाहीये / इस प्रकार यह प्रसंगसाधन हुआ। [बौद्धमतावलम्बन से स्वतः प्रामाण्य के प्रतीकार में अभिप्राय ] यह शंका नहीं करनी चाहीये कि-"यदि आप जिनशासन को जिनप्रणीत यानी जिनोपदिष्ट होने के कारण सिद्ध यानी सुनिश्चितप्रामाण्य विशिष्ट मानते हो और 'जिनप्रणीत न होने पर प्रामाण्य ही अस्वीकार्य हो जायगा' इस प्रकार के प्रसंगसाधन को 'जिनानां शासनं' इस प्रयोग से प्रतिपाद्य होने का अभिप्राय दिखलाते हो तो फिर आपने जो स्वतः प्रामाण्य का निराकरण, स्वयं आहत =अरिहंत के मतानुगामी होने पर भी बौद्धप्रतिपादित युक्तिओं से क्यों किया?" इस शंका के निषेध का कारण यह है कि आचार्य दिवाकरजी ने यहाँ 'सर्व दर्शनों के समूहा Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-अपौरुषेयविमर्शः 129 अथापि स्यात्-यदि प्रामाण्यापवादकदोषाभावो गुणनिमित्त एव भवेत् तदा स्यादेतत् प्रसङ्गसाधनम् , यावताऽपौरुषेयत्वेनापि तस्य सम्भवात् कथं प्रसङ्गसाधनस्यावकाशः ? असदेतत्-अपौरुषेयत्वस्याऽसिद्धत्वात् / तथाहि-किमपौरुषत्वं शासनस्य A प्रसज्यप्रतिषेधरूपमभ्युपगम्यते ? उत B पर्यु दासरूपम् ? तत्र यदि A प्रसज्यरूपं तदा किं C सदुपलम्भकप्रमाणग्राह्यम् / D उत अभावप्रमाणवेद्यम् ? यदि C सदुपलम्भकप्रमाणग्राह्यम् , तदयुक्तम्, सदुपलम्भकप्रमाणविषयस्थाभावत्वानुपपत्तेः, अभावत्वे वा न तद्विषयत्वम् , तस्य तद्विषयत्वविरोधाद् , अनभ्युपगमाच्च / त्मक ही जैन दर्शन है' यही प्रतिपादन करने का अभिप्राय रखा है। वे स्वयं ही इस सम्मतिप्रकरण की समाप्ति में कहेंगे ___ 'संविग्नजनों के लिये सुखबोध्य, मिथ्यादर्शनो के समूहात्मक, सुधानिष्यन्दतुल्य, ऐश्वर्यसमृद्ध जिनवचन का कल्याण हो !' इत्यादि...... / हमने जो बौद्धयक्ति के उपन्यास से स्वतः प्रामाण्यवाद का प्रतिवाद किया इस में भी उपरोक्त अर्थ का ही समर्थन किया गया है / अन्यत्र भी इस ग्रन्थ में जहाँ जहाँ एक मत की युक्ति से अन्यमत का खंडन किया गया है उसमें अंतनिहित आशय यही है कि परस्पर निरपेक्ष सभी नयवाद मिथ्या है और अन्योन्यसापेक्ष समूहात्मक सभी नयवाद ही जिनशासनरूप यानी प्रमाणभूत-सम्यक् हैं / आचार्य श्री को भी यही इष्ट है / जैसा कि उन्होंने ही द्वात्रिशिका ग्रन्थ में कहा है "हे नाथ ! जैसे समुद्र में सर्व सरिताओं का मिलन होता है वैसे आप में भी दृष्टिओं का मिलन हुआ है। हाँ, उन एक एक दृष्टि में आपका दर्शन नहीं होता, जैसे कि पृथक् सरिताओं में समुद्र का भी दर्शन नहीं होता।" [ ग्रन्थकार विरचित द्वात्रिंशिकाप्रकरणों में चौथी द्वा० श्लो० 15 ] [दोषाभावापादक अपौरुषेयत्व हो असिद्ध है ] यदि यह कहा जाय कि-किसी वाक्य में प्रामाण्य का अपवाद दोषप्रयुक्त होता है, दोष न रहने पर वाक्य स्वतः प्रमाण होता है / दोष का विरह गुण के होने पर ही हो ऐसा यदि कोई नियम होता तब तो आपने जो प्रसंगसाधन दिखाया है वह ठीक था किंत वाक्य को अपौरुषेय मानने पर भी दोष विरह का पूर्ण संभव है / तो आपके प्रसंगसाधन को अब कहाँ अवकाश रहेगा ? तो यह ठीक नहीं है / क्योंकि अपौरुषेय शासन ही सर्वथा असिद्ध है / वह इस प्रकार-शासन - में जो अपौरुषेयत्व अभिप्रेत है उसमें पौरुषेयत्व का प्रतिषेध [A] प्रसज्यप्रतिषेधरूप मानते हैं या [B] पर्यु दासप्रतिषेधरूप ? प्रसज्यप्रतिषेध मानने पर यह अर्थ होगा कि वेदशास्त्र पुरुष के प्रयत्न विना ही उत्पन्न है / तो यहाँ पुरुषप्रयत्नाभाव किस प्रमाण से ग्राह्य है-[C] सद् वस्तु के उपलम्भक प्रमाण से? या [D] अभाव प्रमाण से ग्राह्य है ? वेदापौरुषेयवादी मीमांसक के मत में प्रत्यक्ष से अर्थापत्ति तक पाँच सदुपलम्भक प्रमाण हैं और अभावप्रमाण अभावग्राही है / इनमें से [C] सदुपलम्भकप्रमाण से वाक्यजनक पुरुषाभाव को ग्राह्य बताना अयुक्त है, क्यों कि सदुपलम्भकप्रमाण का विषय कभी भी अभावात्मक नहीं घटता, अथवा अभाव में सदालम्भकप्रमाण की विषयता नहीं घट सकती। क्योंकि अभाव में सदुपलम्भक प्रमाण की विषयता विरुद्ध है और आप उसे मानते भी नहीं है / Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ अभावप्रमाणग्राह्यत्वाभ्युपगमेऽपि वक्तव्यम्-किमभावप्रमाणं ज्ञानविनिर्मुक्तात्मलक्षणम् ? उत अन्यज्ञानस्वरूपम् ? प्रथमपक्षेऽपि कि सर्वथा ज्ञानविनिमुक्तात्मस्वरूपम् ? आहोस्विद् निषेध्यविषयप्रमाणपंचकविनिर्मुक्तात्मलक्षणम् ? इति / प्रथमपक्षे नाऽभावपरिच्छेदकत्वम् , परिच्छेदस्य ज्ञानधर्मत्वात , सर्वथा ज्ञानविनिर्मुक्तात्मनि च तदभावात् / निषेध्यविषयप्रमाणपंचकविनिर्मुक्तास्नोऽपि नाभावव्यवस्थापकत्वम , आगमान्तरेऽपि तस्य सद्धावेन व्यभिचारात् / तदन्यज्ञानमपि यदि तदन्यसत्ताविषयं स्यात् नाभावप्रमाणं स्यात् , तस्य सद्विषयत्वविरोधात् / __ 'पौरुषेयत्वादन्यस्तदभावस्तद्विषयज्ञानं तदन्यज्ञानम् अभावप्रमाणमिति चेत् ? अत्रापि वक्तव्यम्-किमस्योत्थापकम् ? प्रमाणपंचकाभावश्चेत् ? नन्वत्रापि वक्तव्यम्-किमात्मसंबन्धी, सर्वसम्बन्धी वा प्रमाणपंचकाभावस्तदुत्थापकः ? न सर्वसम्बन्धी, तस्याऽसिद्धत्वात् / नात्मसंबन्धी, तस्यागमान्तरेऽपि सद्धावेन व्यभिचारित्वात / 'आगमान्तरे परेण पुरुषसद्भावाभ्युपर भावो नाभावप्रमाणसमुत्थापक' इति चेत् ? न , पराभ्युपगमस्य भवतोऽप्रमणत्वात् / प्रमाणत्वे. वा वेदेऽपि नाभावप्रमाणप्रवृत्तिः, परेण तत्रापि कर्त पुरुषसद्धावाभ्यपगमात,प्रवृत्ती वाऽऽगमान्तरेऽपि स्यात्, अविशेषात् / न च वेदे पुरुषाभ्युपगमः परस्य मिथ्या, अन्यत्रापि तन्मिथ्यात्वप्रसवतेः / [ पुरुषाभावग्राहक अभावप्रमाण के संभक्ति विकल्पों का निराकरण ] [D] पुरुषाभाव को अभावप्रमाणग्राह्य मानने पर कहिये कि-[E] वह अभावप्रमाण ज्ञानशून्य आत्मपरिणाम रूप है ? या [P] अन्य वस्तु के ज्ञानरूप है ? [ श्लो० वा अभावपरिच्छेद के 11 वे श्लोकानुसार ये दो विकल्प किये गये हैं ] प्रथम पक्ष [E] में भी दो विकल्प हैं-[G] सर्वथा ज्ञानशून्य आत्मस्वभाव रूप है ? या [H] जिसका निषेध अभिप्रेत है उसके विषय में प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाण ज्ञान से रहित आत्मस्वभावरूप है ? प्रथम विकल्प में [G] वैसा सर्वज्ञानशून्य आत्मपदार्थ अभाव का परिच्छेदक नहीं होगा क्योंकि परिच्छेद यह ज्ञान का धर्म है और सर्वथा ज्ञानशून्य आत्मा में परिच्छेद रूप ज्ञान धर्म का तो अभाव है। [H] निषेध्य विषयक प्रत्यक्षादि प्रमाणपंचकरहित आत्मा से भी अभाव की व्यवस्था दुर्घट है क्योंकि वेदभिन्न बौद्धादि आगम में भी कर्तृ पुरुष के विषय में प्रत्यक्षादि किसी प्रमाण की गति न होने से बौद्धागम में निषेध्य विषय प्रमाणपंचकरहित आत्मस्वरूप अभावप्रमाण है किन्तु अपौरुषेयत्व को वहाँ आप नहीं मानते हैं तो वैसा अभाव प्रमाण व्यभिचारी हुआ, अर्थात् वह वेदवाक्य में पुरुषाभाव का साधक न रहा / [F] अन्य वस्तु के ज्ञान रूप अभावप्रमाण यदि अन्य वस्तु की सत्ता को विषय करने वाला होगा तो वह अभाव प्रमाण ही नहीं होगा क्योंकि अभावप्रमाण का सविषयत्व के साथ तीव्र विरोध है / आशय यह है कि पुरुषाभाव के साधक अभावप्रमाण को किसी अन्य वस्तु के ज्ञान रूप माना जायेगा तो वह अन्य वस्तु जो भी होगी उसकी सत्ता का वह ग्राहक अवश्य होगा। ऐसा होने पर उसका अपना स्वरूप हो मिट जायगा / क्योंकि सत्ता के ग्राहक प्रमाण प्रत्यक्षादि पांच ही होते हैं-अभाव प्रमाण नहीं / [पौरुषेयत्वाभावविषयक ज्ञान अभावप्रमाणरूप घट नहीं सकता ] अपौरुषेयवादी:-अन्य ज्ञानरूप अभावप्रमाण का आशय यह है कि-पौरुषेयत्व से अन्य जो उसी का अभाव, उसको विषय करने वाला ज्ञान / तात्पर्य, पौरुषेयत्वाभावविषयक ज्ञान ही अभावप्रमाण है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-अपौरुषेयविमर्शः 131 किंच, प्रमाणपंचकाभावः किं ज्ञातोऽभावप्रमाणजनकः ? उताज्ञातः ? यदि ज्ञातः तदा न तस्यापरप्रमाणपंचकाभावाद्ज्ञप्तिः, अनवस्थाप्रसङ्गात् / नाऽपि प्रमेयाभावात् , इतरेतराश्रयदोषात् / प्रथाज्ञातस्तज्जनकः, न, समयानभिज्ञस्यापि तज्जनकत्वप्रसङ्गात् , न चाज्ञातः प्रमाणपंचकाभावोऽभावज्ञानजनकः, 'कृतयत्नस्यैव प्रमाणपंचकाभावोऽभावज्ञापकः' इत्यभिधानात् / न चेन्द्रियादेरिव अज्ञातस्यापि प्रभाणपंचकाभावस्याभावज्ञानजनकत्वम् , अभावस्य सर्वशक्तिरहितस्य जनकत्वविरोधात् / अविरोधे वा भावेऽपि 'अभाव' इति नाम कृतं स्यात् / उत्तरपक्षीः- इस प्रकार के अभाव प्रमाण का कौन उपस्थापक है यह कहो ! अपौरुषेयवादी:-प्रत्यक्षादि पांच प्रमाण का अभाव / ये कि आत्मसंबंधी प्रमाणपंचकाभाव उसका उत्थापक है ? या सर्वसंबंधी ? तात्पर्य, प्रमाणपंचक की उपलब्धि केवल आपको ही नहीं है ? या सभी को नहीं है ? 'सभी को नहीं है' यह बात तो असिद्ध है / 'केवल आपको नहीं है' इतने से वेद में पुरुषाभाव सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि इसमें अनैकान्तिक दोष है, अन्य बौद्धादि आगम के प्रणेता पुरुष के विषय में भी आपको प्रमाणपंचक की उपलब्धि नहीं है किंतु आप उसे अपौरुषेय नहीं मानते हैं। ___ अपौरुषेयवादी:--अन्य बौद्धादिवादीयों उनके आगमों को तो पुरुषप्रणीत मानते हैं इसलिये वहाँ प्रमाणपंचकाभाव कोई अभावप्रमाण का प्रयोजक नहीं होगा। - उत्तरपक्षीः--अन्यवादियों का मन्तव्य आपके लिये प्रमाणभूत न होने से आप ऐसा नहीं कह सकते / यदि आप अन्यवादी के मन्तव्य को प्रमाण मानते हैं तब तो वेद में भी अभावप्रमाण प्रवृत्ति अशक्य है क्योंकि अन्यवादी तो वेद के भी कर्ता पुरुष को मानते हैं। इस तथ्य की ओर आंख मुद कर भी आप वेद में अभावप्रमाण की प्रवृत्ति मानेंगे तो अन्य बौद्धादि आगम में भी अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति अनिवार्य होगी क्योंकि दोनों के आगम में कोई विशेष अन्तर नहीं है। ___ अपौरुषेयवादी:-- वेद पुरुषरचित होने की अन्यवादीयों की मान्यता मिथ्या है इसलिये अभावप्रमाण की प्रवृत्ति निर्बाध होगी। उत्तरपक्षीः--तब तो अन्यवादीयों की उनके आगम में पुरुषप्रणीतत्व की मान्यता में भी मिथ्यात्व का प्रसंग होगा और तब उनके आगम को भी अपौरुषेय मानने की आपत्ति होगी। [प्रमाणपंचकाभाव के संभवित विकल्पों का निराकरण ] ... यह भी विचारणीय है कि - (1) प्रमाणपंचक का अभाव प्रगट रह कर अभावप्रमाण का उपस्थापक होगा? या (2) गुप्त रह कर ? (1) यदि 'प्रगट रह कर' ऐसा कहेंगे तो उसका ज्ञान किससे होगा? अन्य प्रमाणपंचकाभाव से उसका ज्ञान नहीं मान सकेंगे क्योंकि उस अन्य प्रमाणपंचकाभाव को भी प्रगट होकर उसके ज्ञापक मानने पर अनवस्था चलती रहेगी। प्रमेय के अभाव से प्रमाणपंचकाभाव की ज्ञप्ति नहीं मानी जा सकेगी क्योंकि, प्रमेयाभाव का ज्ञान प्रमाणपंचकाभाव से और प्रमाणपंचकाभाव का ज्ञान प्रमेयाभाव से इस तरह अन्योन्याश्रय दोष लगेगा। (2) गुप्त रहकर प्रमाणपंचकाभाव अभावप्रमाण का उपस्थापक नहीं हो सकता क्योंकि [श्लोकवात्तिक 5-38 में] आपने ही पहले यह कहा है कि 'जब प्रयत्न करने पर भी पांच में से किसी Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 'न तुच्छात्तदभावात् तदभावज्ञानम्' किन्तु प्रमाणपंचकरहितादात्मन' इति चेत् ? न, आगमान्तरेऽपि तथाभूतस्यात्मन सम्भवादभावज्ञानोत्पत्तिः स्यात्। 'प्रमेयाभावोऽपि तद्धतुस्तदभावाद नागमान्तरेऽभावज्ञान'-इति चेत? न, अभावाभावः प्रमेयसद्भावः, तस्य प्रत्यक्षाद्यन्यतमप्रमाणेनाsनिश्चये कथमभावाभावप्रतिपत्तिः ? 'अभावज्ञानाभावात् तत्प्रतिपत्तिर्न सदुपलम्भप्रमाणसद्भावाद्' इति चेत् ? न, अभावज्ञानस्य प्रमेयाभावकार्यत्वात् तदभावाद् नाभावावगतिः, कार्याभावस्य कारणाभावव्यभिचारात् / अप्रतिबद्धसामर्थ्यस्याभावप्रतीतावपि नेष्टसिद्धिः। प्रमाण की प्रमेय में प्रवृत्ति न हो तभी प्रमाणपंचक का अभाव उस प्रमेय के अभाव का ज्ञापक हो सकता है।'-प्रमाणपंचकाभाव को गुप्त मानने पर यह कथन विरुद्ध होगा। ___ यह नहीं कहा जा सकता कि-जैसे इन्द्रिय गुप्त रह कर भी ज्ञानजनक होती है उसी प्रकार प्रमाणपंचकाभाव भी गुप्त रह कर अभाव ज्ञान को उत्पन्न क्यों नहों करेगा ?- क्योंकि प्रमाणपंचकाभावभावात्मक न होने से, उसमें कोई भी शक्ति ही नहीं है। शक्तिहीन अभाव में कार्यजनकता विरोधग्रस्त है / विरोध न होने पर तो वह भाव ही होना चाहिये फिर 'अभाव' शब्द तो उसके लिये नाममात्र का रहेगा। [प्रमाणपंचकरहित आत्मा से पुरुषाभाव का ज्ञान अतिव्याप्त है ] अपौरुषेयवादीः-हम यह नहीं कहते कि तुच्छतापन्न प्रमाणपंचकाभाव से पुरुषाभाव का ज्ञान होता है, किन्तु हमारा कहना है कि प्रमाणपंचकाभावविशिष्ट आत्मा से अभावज्ञान होता है। उत्तरपक्षी:-अन्य बौद्धादि आगम में भी प्रमाणपंचकाभावविशिष्ट आत्मा का सद्भाव होने से, तथाभूत आत्मा से अन्य आगमों में भी पुरुषाभाव के ज्ञान की उत्पत्ति होगी तो क्या आप उनको अपौरुषेय मानेंगे? अपौरुषेयवादीः-केवल तथाभूत आत्मा ही अभावज्ञान का हेतु नहीं है किन्तु जिस प्रमेय का अभावज्ञान करना हो उस प्रमेय का अभाव भी उसमें हेतु है। अन्य आगमों में रचयिता पुरुषात्मक प्रमेयाभाव रूप हेतु का अभाव होने से अन्य आगमों में पुरुषाभाव का यानी अपौरुषेयता का ज्ञान दुःशक्य है। उत्तरपक्षी:-यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि प्रमेयाभावरूप हेतु के अभाव का अर्थ है प्रमेय का सद्भाव / बौद्धादि के आगम रचयिता पुरुषात्मक प्रमेय का सद्भाव प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से निर्णीत नहीं है, तो आपने अन्य आगम में रचयिता पूरुषात्मक प्रमेय के अभाव के अभा कैसे कर लिया? अपौरुषेयवादीः-हमने प्रमेयाभावाभाव यानी प्रमेय का ज्ञान सदुपलम्भक किसी प्रत्यक्षादि प्रमाण के सद्भाव से नहीं किया है किन्तु 'अन्य आगम में रचयिता पुरुष का अभाव है' इस प्रकार के ज्ञान के न होने से किया है। उत्तरपक्षी:-यह गलत बात है, अन्य आगम में प्रमेयाभाव का ज्ञान तो प्रमेयाभाव का कार्य है इसलिये प्रमेयाभाव के ज्ञान के अभाव से प्रमेयाभाव यानी प्रमेय का बोध हो नहीं सकता / क्योंकि प्रमेयाभाव के ज्ञान का अभाव यह कार्याभावरूप है और प्रमेयाभाव उस Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-अपौरुषेय विमर्श। 133 क्वचित् प्रदेशे घटाभावप्रतिपत्तिस्तु न घटज्ञानाभावात् कित्वेकज्ञानसंसगिपदार्थान्तरोपलम्भात् / न च पुरुषाभावाभावप्रतिपत्तावयं न्यायः, तदेकज्ञानसंसर्गिणः कस्यचिदप्यभावात् / न पुरुष एव तदेकज्ञानसंसर्गी, पुरुषाभावाभावयोविरोधेनैकज्ञानसंसगित्वाऽसम्भवात् , सम्भवेऽपि न पुरुषोपलम्भभावात् तदभावाभावप्रतिपत्तिः, तदुपलम्भस्यैव तत्प्रतिपत्तिरूपत्वात् , अत एव विरुद्धविधिरप्यत्र न प्रवर्तत इति / 'किं च कस्याभावज्ञानाभावात् प्रमेयाभावाभावः-वादिनः ? प्रतिवादिनः ? सर्वस्य वा ? यादि वादिनोऽभावज्ञानाभावान्नागमान्तरे प्रमेयाभावः, वेदेऽपि मा भूक, तत्रापि प्रतिवादिनोऽभावज्ञानाभावस्याऽविशेषात / अथागमान्तरे वादि-प्रतिवादिनोरुभयोरप्यभावज्ञानाभावान्न प्रमेयाभावः, वेदे तु प्रतिवादिनोऽभावज्ञानाभावेऽपि वादिनोऽभावज्ञानसद्भावात् / न, वादिनो यदभावज्ञानं तत् सांकेतिकम् , नाभावबलोत्पन्न; आगमान्तरे प्रतिवादिनोऽप्रामाण्याभावज्ञानवत् / न च सांकेतिकादभावज्ञानादभावसिद्धिः, अन्यथाऽऽगमान्तरेऽपि ततोऽप्रामाण्याभावसिद्धिप्रसंगः / तन्नागमान्तरे वादिनो कार्य का कारण है, कारण होने पर भी कभी अन्य सहकारी के अभाव में कार्याभाव हो सकता है इसलिये कार्याभावरूप प्रमेयाभावज्ञानाभाव यह प्रमेयाभावरूप कारण के अभाव का व्यभिचारी होने से कारण के अभाव का यानी प्रमेयाभाव का अर्थात् प्रमेय का बोधक नहीं हो सकता। 'प्रमेयाभावज्ञानरूप काय का अभाव होने पर प्रमेयाभावरूपकारण का अभाव अवश्य होना चाहिये इस प्रकार का प्रतिबन्ध [=व्याप्ति रूप सामर्थ्य अगर कार्याभाव में होता तब तो ठीक था लेकिन उस प्रकार के सामर्थ्य से शून्य 'प्रमेयाभावज्ञान का अभाव' प्रतीत होने पर भी आपकी इष्टसिद्धि यानी प्रमेयाभावरूप कारण के अभाव की सिद्धि [ अर्थात् अन्यआगम में पुरुष की सिद्धि ] नहीं हो सकती। [ घटाभावबोध और पुरुषाभावाभावबोध में न्याय समान नहीं है ] किसी भूतलादि प्रदेश में जो घटाभाव का बोध होता है वह केवल घटज्ञान के न होने मात्र से नहीं होता किन्तु घट के होने पर उसके साथ समानज्ञान का संसर्गी यानी तुल्यवित्तिवेद्य भूतलरूप पदार्थान्तर के उपलम्भ से होता है पुरुषाभावाभाव का बोध इस न्याय से नहीं किया जा सकता, क्योंकि पुरुषाभावाभाव का कोई एकज्ञानसंसर्गि अन्य किसी पदार्थ का ही अभाव है। पुरुष ही पुरुषाभाव का एकज्ञानसंसर्गी नहीं माना जा सकता जिससे केवल पुरुष उपलब्ध होने पर पुरुषाभाव का अभाव ज्ञात हो सके / कारण, पुरुष का भाव और अभाव परस्पर विरुद्ध होने से पुरुष और पुरुषाभाव कभी एकज्ञानसंसर्गी नहीं हो सकते / कदाचित् इसका संभव मानले तो भी पुरुष के उपलम्भ से पुरुषाभावाभाव का बोध नहीं मान सकते क्योंकि पुरुष का उपलम्भ पुरुषाभावाभाव का ही उपलम्भ है, अर्थात् दोनों में ऐक्य होने से जन्य-जनक भाव नहीं है / यही कारण है कि यहाँ विरुद्ध विधि का प्रवर्तन नहीं है / परस्पर में विरोध होने पर एक के अभाव में उसके विरोधी का विधान शक्य होता है किन्तु यहाँ ऐसा कोई विरोध नहीं है। [वादि-प्रतिवादी के या किसी के भी अभावज्ञानाभाव से प्रमेयाभावाभावसिद्धि अशक्य ] यह भी विचारणीय है कि किसके अभावज्ञानाभाव से प्रमेयाभावाभाव मानेंगे? [1] वादी के ? [2] प्रतिवादी के ? [3] या सभी के ? [1] यदि वादी को यानी अपौरुषेयवेदवादी को अन्य Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ऽभावज्ञानाभावाद् गतिः / नापि प्रतिवादिनोऽभावज्ञानाभावात् तत्र तद्गतिः, वेदेऽपि तत्प्रसंगाद् / अत एव न सर्वस्याभावज्ञानाभावात / प्रसिद्धश्च सर्वस्याभावज्ञानाभावः, तन्नात्मा प्रमाणपंचकविनिमुक्तोऽभावज्ञानजनकः। अथ वेदानादिसत्त्वमभावज्ञानोत्थापकम् / नन्वत्रापि वक्तव्यम्-ज्ञातमज्ञातं वा तत् तदुत्थापकम् / न ज्ञातम् , तज्ज्ञानाऽसम्भवात् , प्रत्यक्षादेस्तज्ज्ञापकत्वेनाप्रवृत्तः, प्रवृत्तौ वा तत एव पुरुषाभावसिद्धेरभावप्रमाणवैयर्थ्यम, अनादिसत्त्वसिद्धेः पुरुषाभावज्ञाननान्तरीयकत्वात् / नाप्यज्ञातं तत् तदुत्थापकम् , अगृहीतसमयस्यापि तत्र तदुत्पत्तिप्रसंगात् केनचित् प्रत्यासत्ति-विप्रकर्षाभावात् / तन्न अनादिसत्त्वमपि तदुत्थापकमिति नाभावप्रमाणात् पुरुषाभावसिद्धिः / न चाभावप्रमाणस्य प्रामाण्यम् , प्राक् प्रतिषिद्धत्वात् प्रतिषेत्स्यमानत्वाच्च। बौद्धादि आगम में प्रमेयाभाव का निषेध यानी प्रमेय को माना जाय तो उसी प्रकार, प्रतिवादि को स्वागम से भिन्न वेदागम में अभावज्ञान का अभाव होने से वेद में भी प्रमेयाभाव नहीं होगा अर्थात् रचयिता पुरुषात्मक प्रमेय का निषेध नहीं होगा। क्योंकि वेद में प्रतिवादि को जो अभावज्ञानाभाव है वह अन्य आगम में जैसा वादी को है वैसा ही है, कोई अन्तर उसमें नहीं है। अपौरुषेयवादीः-अन्य बौद्धादि आगम में हमें वादी को और प्रतिवादी को, दोनों को रचयिता पुरुष के अभाव का ज्ञान नहीं है, इसलिये उसमें प्रमेयाभाव नहीं है, अर्थात प्रमेय-पुरुष का सद्भाव मान सकते हैं / किन्तु वेद में ऐसा नहीं है, यहाँ प्रतिवादी को अभावज्ञान का अभाव होने पर भी हमें वादी को अभावज्ञान है ही / यही दोनों में विशेष अन्तर है। उत्तरपक्षी:-यह कोई तात्त्विक अन्तर नहीं है क्योंकि वादी को जो वेद में अभावज्ञान है वह अभाव के बल से यानी वास्तव में अभाव है इस हेतु से नहीं हुआ है किन्तु सांकेतिक है, यानी वादी को अपनी परम्परा भक्ति से यह वासना बन गयी है कि वेद में रचियता पुरुष का अभाव है। जैसे कि-अन्य बौद्धादि आगम में प्रतिवादीको अप्रामाण्य के अभाव का ज्ञान अपनी पारंपरिकवासना से रहता है / इस प्रकार के सांकेतिक अभावज्ञान से वस्तु का अभाव कभी सिद्ध नहीं होता, अन्यथा प्रतिवादी के आगम में भी प्रतिवादी के अप्रामाण्याभावज्ञान से अप्रामाण्याभाव यानी प्रामाण्य सिद्ध होगा / निष्कर्ष, वादी के अभावज्ञानाभाव से प्रमेयाभावाभाव का बोध शक्य नहीं है / [2] प्रतिवादी के अभावज्ञानाभाव से भी आगम में प्रमेयाभावाभाव का बोध नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रतिवादी को वेद में अभावज्ञान न होने से वेद में भी प्रमेयाभावाभाव यानी प्रमेय रचयिता पुरुष के सद्भाव की आपत्ति होगी [3] जब वादी-प्रतिवादी के अभावज्ञानाभाव से प्रमेयाभावाभाव की सिद्धि नहीं मानी जा सकती तो सभी के अभावज्ञानाभाव से प्रमेयाभावाभाव की सिद्धि होने की संभावना ही नहीं है / दूसरी बात यह है कि सर्वसंबन्धी अभावज्ञानाभाव हो भी नहीं सकता / सारांश, प्रमाणपंचकरहित आत्मा वेद में पुरुषाभावज्ञान का जनक नहीं बन सकता। [अनादि वेदसत्व अभावज्ञान प्रयोजक नहीं है ] अपौरुषेयवादी:-'वेद की सत्ता अनादिकालीन है' यही वेदरचयिता पुरुष के अभावज्ञान का उत्थापक मान लो। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1 अपौरुषेयविमर्शः 135 अथ पर्युदासरूपमपौरुषेयत्वम् / किं तत् पौरुषेयत्वादन्यत् सत्त्वम् ? तस्यास्माभिरप्यभ्युपगमात् / नाऽनादिसत्त्वम् , तद्ग्राहकप्रमाणाभावात् / तथाहि-न तावत् तद्ग्राहक प्रत्यक्षम् , अक्षानुसारितया तथाव्यपदेशात् , अक्षाणां चानादिकालीनसंगत्यभावेन तत्सम्बद्धतत्सत्त्वेनाऽप्यसम्बन्धाद् न तत्पूर्वकप्रत्यक्षस्य तथा प्रवृत्तिः / प्रवृत्तौ वा तद्वद् अनागतकालसम्बद्धधर्मस्वरूपग्राहकत्वेनापि प्रवृत्तेन धर्मज्ञनिषेधः / तथा, "सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षमनिमित्तम , विद्यमानोपलम्भनत्वात्" [जैमि०सू०१-१-४] इति सूत्रम्, “भविष्यति न दृष्टं च, प्रत्यक्षस्य मनागपि। साम्थ्य".... [ श्लो० वा० स०२ श्लो० 115 ] इति च वात्तिकं व्याहतं स्यादिति न प्रत्यक्षात तत्सिद्धिः / उत्तरपक्षी:-यहाँ भी बताईये कि (1) अनादिसत्त्व ज्ञात होकर अभावज्ञानोत्थापक होगा ? या (2) अज्ञात रह कर भी? [1] ज्ञात रह कर अभावज्ञानोत्थापक नहीं हो सकता / कारण, वेद के अनादिसत्त्व का ज्ञान होना ही असम्भव है। प्रत्यक्षादि कोई प्रमाण उसके ज्ञापकरूप में प्रवत्त नहीं है और यदि कदाचित् प्रत्यक्षादि की प्रवृत्ति हो तब अभाव प्रमाण ही निरर्थक हो जायगा क्योंकि उससे ही पुरुष का अभाव अनुमान से सिद्ध हो जायेगा, वेद में अनादिसत्त्व यह वेदकर्तृ पुरुषाभावज्ञान रूप साध्य का नान्तरीयक यानी अविनाभावी हेतु है, इसलिये हेतु से साध्यसिद्धि दुष्कर नहीं है / [2] अज्ञात अनादि सत्त्व अभावप्रमाणजनक नहीं हो सकता, क्योंकि जिन लोगों को समय का यानी 'वेद अनादि है' इस प्रकार के पारस्परिक संकेत का ज्ञान नहीं है उन सब को भी वेद में पुरुषाभावज्ञानकी उत्पत्ति हो जायगी। कारण, वादी को जैसे प्रत्त्यासत्ति का विप्रकर्ष यानी संनिकर्ष का अभाव नहीं है वैसे सभी को भी नहीं है / अर्थात् वादी को जैसे वेद का अनादि सत्त्व अज्ञात है वैसे सभी को अज्ञात है। सारांश, अनादिसत्त्व किसी भी प्रकार अभावज्ञानोत्थापक न होने से अभावप्रमाण से वेदकर्ता , पुरुष का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता। अभावप्रमाण यह कोई वास्तव में प्रमाण भी नहीं है क्योंकि पहले उसके प्रामाण्य का खंडन किया गया है, एवं आगे भी किया जायेगा। [ प्रसज्यप्रतिषेध रूप अपौरुषेयत्व का A विकल्प समाप्त ] __[B] प्रसज्यप्रतिषेध विकल्प का त्याग कर यदि दूसरा विकल्प-अपौरुषेयत्व में पर्यु दास प्रतिषेध है-यह स्वीकार लिया जाय तो उस पर प्रश्न है-वह क्या पौरुषेयत्व से अन्य सत्त्व रूप है ? ऐसा अपौरुषेयत्व तो हम भी मानते हैं किन्तु इससे वेदप्रणेता का अभाव कैसे सिद्ध होगा? 'अपौरुषेयत्व अनादिसत्त्वरूप है ऐसा पर्युदास नहीं मान सकते क्योंकि इस प्रकार के अपौरुषेयत्व का यानी वेद में अनादिसत्त्व का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है। वह इस प्रकार-प्रत्यक्ष तो उसका ग्राहक नहीं है, क्योंकि जो इन्द्रिय यानी अक्ष का अनुसरण करे उसकी प्रत्यक्ष संज्ञा की जाती है / इन्द्रिय का अनादिकाल के साथ सम्बन्ध न होने पर अनादिकाल से सम्बद्ध वेदसत्त्व के साथ भी सम्बन्ध न घटने से इन्द्रिया नुसारी प्रत्यक्ष की वहां प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। यदि अतीतकाल में प्रवृत्ति शक्य हो तो फिर भविष्य काल से सम्बद्ध धर्म के स्वरूप को ग्रहण करने में भी उसकी प्रवृत्ति शक्य है-तो फिर आप धर्मज्ञ का निषेध नहीं कर सकेंगे / आशय यह है कि मीमांसक धर्मतत्त्व का ज्ञान केवल वेद के विधिवाक्य से ही जन्य मानते हैं / कारणभूत-भविष्यकालीन धर्मतत्त्व के साथ इन्द्रिय सम्बन्ध न होने से धर्म का कोई प्रत्यक्ष ज्ञाता [ =धर्मज्ञ ] नहीं हो सकता। जैसे कि जैमिनी सूत्र में कहा है [ सत्सम्प्रयोगे....इत्यादि ]-"इन्द्रियों का सद् विषय के साथ संबंध होने पर जिस बुद्धि का जन्म होता है वह प्रत्यक्ष है / यह धर्मज्ञान में निमित्त नहीं हो सकता क्योंकि विद्यमान वर्तमान वस्तु का ही Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 सम्मतिप्रकरण-जयकाण्ड 1 नाप्यनुमानात, तस्याभावात् / अथअतीतानागतौ कालौ वेदकारविजितौ / कालत्वात् , तद्यथा कालो वर्तमानः समीक्ष्यते / [ ] इत्यतोऽनुमानात तत्सिद्धिः। न, अस्य हेतोरागमान्तरेऽपि समानत्वात् / किंच, यथाभूतो वेदकरणाऽसमर्थपुरुषयुक्त इदानीं तत्कर्तृ पुरुषरहितः काल उपलब्धः, अतीतोऽनागतो वा तथाभूतः कालत्वात् साध्यते ? उत अन्यथाभूतः ? यति तथाभूतस्तदा सिद्धसाध्यता। अथान्यथाभूतस्तदा संनिवेशादिवदप्रयोजको हेतुः। ___ तथाहि-यथाभूतानामभिनवकूपप्रासादादीनां सन्निवेशादि बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन व्याप्तमुपलब्धं ताथाभूतानामेव जीर्णकूप-प्रासादादीनां तद् बुद्धिमत्कारणत्वप्रयोजकत्वानन्यथाभूतानाम् [ ? प्रयोजकं नान्यथाभूतानाम् यदि पुनरन्यथाभतस्याप्यतीतस्यानागतस्य कालस्य तद्रहितत्वं साधयेत् कालत्वम् , तदाऽन्यथाभूतानामपि भूधरादीनां सन्निवेशादि बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वं साधयेत् , न तस्य [ ? ततश्च] सर्वजगज्ज्ञातुः कर्तुश्चेश्वरस्य सिद्धेश्चान्यथाभूतकालभावसिद्धिरतीवाऽ [ ? द्ध रतीवाऽ ] पौरुषेयत्वसाधनं च वेदानामनवसरम् / इन्द्रिय से उपलम्भ होता है।" ऐसा अर्थवाला जैमिनी सूत्र [ 1-1-4 ] तथा उस ग्रन्थ की टीका श्लोकवात्तिक में कहा है-[ भविष्यति न दृष्टं च....इत्यादि]-"भावि धर्मरूप अर्थ के ग्रहण में प्रत्यक्ष का लेश भी सामर्थ्य देखा नहीं गया।" अब अनादिसत्त्व के विषय में यदि प्रत्यक्ष प्रवृत्ति मानेंगे तो सूत्र और वृत्ति वचन का व्याघात होगा। [वेद का अनादिसत्त्व अनुमान से सिद्ध नहीं ] अनुमान से भी वेद का अनादि सत्त्व सिद्ध नहीं है क्योंकि तत्साधक कोई अनुमान नहीं है। अपौरुषेयवादीः-इस अनुमान से अपौरुषेयत्व की सिद्धि हो सकती है-"अतीत और अनागत काल वेदकर्ता से शून्य हैं, क्योंकि वे कालात्मक हैं-जैसा कि वर्तमान काल वेदकर्ता से शून्य देखा जाता है।" उत्तरपक्षी:-इस अनुमान से अपौरुषेयत्व की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि वेद से इतर बौद्धादि आगम का भी वर्तमानकाल तो कर्त शन्य देखा जाता है इसलिये समाने हेत से हेतु से अन्य आगम में भी अतीतानागतकालीन कर्तृशून्यता सिद्ध होने की आपत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि-(१) वर्तमान में वेदरचना में असमर्थ पुरुषवाला जैसा काल वेदकर्ता रहित उपलब्ध होता है, क्या वैसा ही यानी वेदरचना में असमर्थपुरुषविशिष्ट ही अतीत-अनागत काल कर्तृ शून्यतया सिद्ध करना है ? या (2) इससे विपरीत यानी वेदरचनासमर्थपुरुष सहित काल कर्तृशून्यतया सिद्ध करना चाहते हैं ? (1) यदि वेद रचना में असमर्थपुरुषविशिष्ट काल कर्तृ शून्यतया सिद्ध करना है तो यहां जो हमारे मत से भी सिद्ध है उसी को आप साध्य बना रहे हो, अर्थात् आपका परिश्रम व्यर्थ है। (2) यदि उससे विपरीत काल में कर्तृ विरह सिद्ध करना है तो कालत्व हेतु अप्रयोजक यानी असमर्थ हो जायगा जैसे कि संनिवेशादि हेतु न्यायमत में अप्रयोजक बन जाता है। [ कालत्व हेतु की अप्रयोजकता] संनिवेश हेतु की अप्रयोजकता इस प्रकार है-संनिवेश यानी अवयवों की रचना विशेष को हेतु करके Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-वेदापौरुषेयविमशः 137 अथ तथाभूतस्यैवातीतस्यानागतस्य वा कालस्य तद्रहितत्वं साध्यते / न च सिद्धसाध्यता, अन्यथाभूतस्य कालस्याभावात् / न. 'अन्यथाभूतः कालो नास्ति' इति कुतः प्रमाणादवगतम् ? यद्यन्यतः तत एवापौरुषेयत्वसिद्धिः, किमनेन ? 'अतोऽनुमानात्' चेत् ? न, 'अन्यथाभूतकालाभावात् प्रतोऽनुमानात् तद्रहितत्वसिद्धिस्तत्सिद्धेस्तसिद्धिः' इतीतरेतराश्रयदोषप्रसंगात् / तदेवमन्यथाभूतकालस्याभावाऽसिद्धस्तथाभूतस्य तद्रहितत्वसाधने सिद्धसाधनमिति / नापि शब्दात्तत्सिद्धिः, इतरेतराश्रयदोषप्रसंगः [ ? गात, ] तदेवमन्यथा कथं वेदवचनमस्तिक [? न चैवं वेदवचनम प विधिवाक्यादपरस्य भवद्भिः प्रामाण्यमभ्युपगम्यते / अभ्युपगमे वा पौरुषेयत्वमेव स्यात् / तथाहि तत्प्रतिपादकानि वेदवचांसि श्रूयन्ते-"हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्ने" नैयायिक मधरादि में जब ईश्वर कर्तत्व सिद्ध करना चाहता है तब उसको यह कहा जाता है कि संनिवेश हेतु सकल भूधरादि में बुद्धिमत्कारपूर्वकत्व का ज्ञापक नहीं है, किन्तु नये किये गये कूपप्रासादादि में जैसे 'यह किसी का बनाया हुआ है' यह बुद्धि होती है इस प्रकार की कृतबुद्धि जिस जीर्णकूपादि में हो उसी में बुद्धिमत्पूर्वकत्व के साथ संनिवेश की व्याक्ति होने से जीर्णकूपादि में ही कर्तृत्व की सिद्धि होती है, भूधरादि में तथाप्रकार की कृतबुद्धि का उदय न होने से, संनिवेश हेतु तथा प्रकार के बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व के साथ व्याप्त न होने से भूधरादि में बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व की सिद्धि नहीं होती। अब यदि वेदकारणाऽसमर्थपुरुषयक्त काल से विपरीत काल में भी कालत्व हेतु पुरुषाभाव का साधक होगा तो कृतबुद्धि जहाँ नहीं होती ऐसे भूधरादि में अव्याप्त भी संनिवेशादि को सिद्ध कर देगा / भूधरादि में बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व सिद्ध होने पर तो जगत्कर्ता और अखिल विश्वज्ञाता ईश्वर सिद्ध हो जाने पर वेदकरणसमर्थपुरुषयुक्त कालरूप भावी की सिद्धि हो जाने से अर्थात् वेदकर्ता पुरुष ईश्वर सिद्ध हो जाने से मीमांसकों का वेद में अपौरुषेयत्व सिद्ध करने का प्रयास अतीव=अत्यंत अवसर अनुचित हो जायगा। [ अन्यथा भूतकाल का असम्भव सिद्ध नहीं है ] अपौरुषेयवादी:- वेदकरणासमर्थपुरुष विशिष्ट अतीत और अनागत काल में ही हम अपौरुषेयत्व वेद में सिद्ध करते हैं। इसमें जो सिद्धसाध्यता दोष बतलाया, वह ठीक नहीं है, क्योंकि उससे विपरीत काल की संभावना कर के आप सिद्ध साध्यता कहते हैं किंतु उससे विपरीत काल ही नहीं है / उत्तरपक्षोः-'उससे विपरीत काल नहीं है / यह आपने किस प्रमाण से जान लिया ? अगर प्रस्तुतानुमान से भिन्न किसी प्रमाण से आपने यह जाना है तो उसी प्रमाण से वेद में अतीतानागत काल में अपौरुषेयत्व सिद्ध हो जायगा, तो प्रस्तुत अनुमान का क्या प्रयोजन ? यदि कहें कि 'प्रस्तुत अनुमान से ही 'उस से विपरीत काल के अभाव का पता लगाया'- तो यह असंगत है क्योंकि उससे विपरीत काल का अभाव सिद्ध होने पर प्रस्तुत अनुमान से अतीतादिकाल में पुरुषरहितत्व सिद्ध होगा और पुरुषरहितत्व सिद्ध होने पर 'उससे विपरीत काल का अभाव' सिद्ध होगा-इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष लगेगा। तो इस प्रकार वेदकरणासमर्थपुरुष विशिष्ट अतीतादि काल से विपरीत * एतद्विषये प्रमेयकमलमार्तडे "न चाऽपौरुषेयत्वप्रतिपादक वेदवाक्यमस्ति, नापि विधिवाक्यादपरस्य परैः प्रामा___ण्य मिष्यते' [ पृ.३६६ पंक्ति 15-16 ] इति पाठः / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [ ऋग्वेद अष्ट 0 8, मं० 10, सू० 121] "तस्यैव चैतानि निःश्वसितानि" [ बृह० उ० अ० 2, ब्रा०४, सू० 10 ] “याज्ञवल्क्य इति होवाच" [ बृह० उ० अ०२, बा• 4, सू०१ ], तन्न शब्दादपि तत्सिद्धिः / नाप्युपमानात तत्सिद्धिः / यदि हि चोदनासदृशं वाक्यमपौरुषेयत्वेन किंचित् सिद्धं स्यात् तदा तत्सादृश्योपमानेन वेदस्यापौरुषेयत्वमुपमानात् सिद्धं स्यात्, न च तत्सिद्धम्, इत्युपमानादपि न तत्सिद्धिः। नाप्यर्थापत्तेः / अपौरुषेयत्वव्यतिरेकेणानुपपद्यमानस्य वेदे कस्यचिद्धर्मस्याभावात् / नाऽप्रमाण्याभावलक्षणो धर्मोऽनुपपद्यमानो वेदस्याऽपौरुषेयत्वं परिकल्पयति, प्रागमान्तरेऽपि तस्य धर्मस्य भावादपौरुषेयत्वं स्यात् / न चासो तत्र मिथ्या, वेदेऽपि तन्मिथ्यात्वप्रसंगात् / अथागमान्तरे पुरुषस्य कर्तु रभ्युपगमात् पुरुषाणां च सर्वेषामपि प्रागमादिषु रक्तत्वात् तद्वेष [ ? दोष ]जनितस्याऽ-प्रामाण्यस्य तत्र संभवाद् नाऽप्रामा याभावलक्षणो धर्मस्तत्र सत्यः, वेदे त्वप्रामाण्यजनकदोषास्पदस्य पुरुषस्य कर्तु रभावादप्रामाण्याभावलक्षणो धर्मः सत्यः। यानी वेदकरणसमर्थपुरुषविशिष्ट अतीतादि काल का अभाव जब सिद्ध नहीं है तो वेदकरणासमर्थपुरुषविशिष्ट अतीतादि काल में कालत्व हेतु से वेद रचयितापूरुषाभाव को सिद्ध करने में सिद्ध साध्यता दोष अनिवार्य है। [ अपौरुषेयत्वसाधक कोई शब्दप्रमाण नहीं है ] शब्दप्रमाण से भी अपौरुषेयत्व सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि यहाँ अन्योन्याश्रय दोष बैठा हैशब्द प्रामाण्य सिद्ध होने पर वेद का अपौरुषेयत्व सिद्ध होगा और अपौरुषेयत्व सिद्ध होने पर तत्प्रतिपादक शब्द का प्रामाण्य सिद्ध होगा / दूसरी बात यह है कि "वेद अपौरुषेय है" ऐसा कोई वेदवचन भी नहीं है। यह भी उल्लेखनीय है कि आप वेद में भी जो विधिवाक्य हैं केवल उन्हीं को प्रमाण मानते हैं, अनुवाद परक वाक्यों को प्रमाण नहीं मानते / यदि उनको भी प्रमाण मान ले तब तो वेद पौरुषेय सिद्ध होंगे / जैसे कि- वेद कर्ता के सूचक अनेक वचन उपलब्ध होते हैं 1- हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे / 2- तस्यैव चैतानि नि.श्वसितानि / 3- याज्ञवल्क्य इतिहोवाच / इन वाक्यों से हिरण्यगर्भ और याज्ञवल्क्य की वेदकर्तृता स्पष्ट सूचित हो रही है / निष्कर्षः-शब्द प्रमाण से वेद का अपौरुषेयत्व सिद्ध नहीं है। ___ [उपमान से अपौरुषेयत्व की असिद्धि ] उपमान प्रमाण से भी अपौरुषेयत्व की सिद्धि दूर है / प्रेरणावाक्य को अपौरुषेय सिद्ध करने के लिये उनके जैसा अन्य कोई वाक्य अपौरुषेय मानना चाहिये जिसके सादृश्य रूप उपमान से प्रेरणावाक्य की अपौरुषेयता सिद्ध की जाय / किन्तु ऐसा कोई भी अन्य वाक्य मीमांसक को अपौरुषेय रूप में स्वीकार्य ही नहीं है - सिद्ध भी नहीं है / इस लिये उपमान प्रमाण से भी उसकी सिद्धि नहीं है / Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-वेदापौरुषेयविमर्श: 139 कुतः पुनस्तत्र पुरुषाभावः निश्चितः ? 'अन्यतः प्रमाणादिति चेत् ? तदेवोच्यताम् , किमर्थापत्त्या ? 'अर्थापत्तितश्चेत् ? न, इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् / तथाहि-प्रर्थापत्तितः पुरुषाभावसिद्धावप्रामाण्याऽ[भाव सिद्धिः, एतत्सिद्धौ चार्थापत्तितः पुरुषाभावसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वम् / चक्रकचोद्य 'चाऽत्रापि-तथाहि, यद्यप्रामाण्याभावलक्षणो धर्मोऽनुपपद्यमानो वेदेऽपौरुषेयत्वं कल्पयति, प्रागमान्तरेऽप्यसो धर्मस्तत् कि न कल्पयति ? तत्र पुरुषदोषसम्भवादसौ धर्मो मिथ्या, तेन तत्र तन्न कल्पयति, वेदे कुत: पुरुषाभावः ? अर्थापत्तश्चेत् , तदागमान्तरे स स्याद् , इत्यादि तदेवावर्तते इति चक्रकानुपरमः। ____ नाप्यतीन्द्रियार्थप्रतिपादनलक्षणो धर्मोऽनुपपद्यमानो वेदे पुरुषाभावं कल्पयति, आगमान्तरेऽपि समानत्वात् / न चाऽप्रामाण्याभावे पुरुषाभावः सिध्यति, कार्याभावस्य कारणाभावं प्रति व्यभिचारित्वे [ अर्थापत्ति से अपौरुषेयत्व की असिद्धि ] अर्थापत्ति प्रमाण से भी अपौरुषेयत्व सिद्ध नहीं है / कारण, वेद में कोई ऐसा धर्म नहीं है जो वेद अपौरुषेय न माने तो न घट सके / अपौरुषेयवादः-अप्रामाण्याभाव यह ऐसा धर्म है जो वेद को अपौरुषेय न मानने पर नहीं घट सकता, इसलिये वह अपौरुषेयत्व की कल्पना करवाता है। उत्तरपक्षी:-यह . गलत बात है क्योंकि अन्य बौद्धादि आगम में भी अप्रामाण्याभावरूप धर्म संभवित होने से अन्य आगम को भी अपौरुषेय मानना पड़ेगा। अन्य आगम में अप्रामाण्याभावरूप धर्म मिथ्या नहीं मान सकते, अन्यथा वेद में भी अप्रामाण्याभावरूप धर्म मिथ्या मानना पडेगा। अपौरुषेयवादीः-अन्य आगमों में पुरुष को कर्ता माना है / पुरुष तो सब अपने अपने आगमों में सरागी होने से उन पुरुषों के दोषों से उनके आगमों में अप्रामाण्य का जन्म संभव होने से वहाँ अप्रामाण्याभावरूप धर्म वास्तव में सत्य नहीं है। जब कि वेद का अप्रामाण्यापादकदोषयुक्त कोई कर्ता पुरुष न होने से उसमें अप्रामाण्याभावस्वरूप धर्म सत्य है। . [पुरुषाभावनिश्चय में कोई प्रमाण नहीं ] उत्तरपक्षीः वेद में पुरुष का अभाव कैसे निश्चित किया ? यदि दूसरे किसी प्रमाण से वेद में पुरुष के अभाव का निश्चय किया है तो उस प्रमाण का ही उपन्यास करो, अर्थापत्ति की क्या जरूर? अर्थापत्ति से यदि उसका निर्णय मानेंगे तो इतरेतराश्रय दोष होगा जैसे, अर्थापत्ति से पुरुषाभाव सिद्ध होने पर वेद में अप्रामाण्याभाव सिद्ध होगा और वह सिद्ध होने पर अर्थापत्ति से पुरुषाभाव सिद्ध करेगा। इस प्रकार स्पष्ट अन्योन्याश्रय दोष है / चक्रक दोष का भी यहाँ भय होगा-जैसे, अगर अप्रामाण्य अभावरूप धर्म अनुपपन्न हो कर वेद में पुरुषाभाव की कल्पना करायेगा तो अन्य आगम में भी वह धर्म पुरुषाभाव की कल्पना करायेगा? इस प्रश्न के उतर में आपको कहना पड़ेगा कि अन्यत्र पुरुष दोष का सम्भव होने से अप्रामाण्याभावरूप धर्म मिथ्या हो गया इसलिये अन्य आगम में अप्रामाण्याभावरूप धर्म पुरुषाभाव की कल्पना नहीं करायेगा / तो इस पर पुनः यह प्रश्न आयेगा-वेद में पुरुषाभाव कैसे निश्चित किया ? तो इसके उत्तर में आप अपत्ति को प्रस्तुत करेंगे, तब फिर से यही बात आयेगी कि अन्यागम में भी अर्थापत्ति से पुरुषाभाव का निश्चय हो जायगा इत्यादि वही का वही चक्र घुमता रहेगा उसका अन्त नहीं आयेगा। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नान्यथानुपपन्नत्वाऽसंभवात् / अप्रतिबद्धाऽसमर्थस्य पुरुषस्याभावसिद्धावपि न सर्वथा पुरुषाभावसिद्धिः, पुरुषमात्रस्यापि[ ?स्याऽ ]निराकरणात् / इष्टसिद्धिश्च अप्रामाण्यकरणस्य तत्कर्तृत्वेनास्माकमप्यनिष्टत्वात् / नापि प्रामाण्यधर्मोऽन्यथानुपपद्यमानो वेदे पुरुषाभावं साधयति, आगमान्तरेऽपि तुल्यत्वात् / शेषमत्र चितितमिति न पुनरुच्यते / [शब्दनित्यत्वसिद्धिपूर्वपक्षः ] 'परार्थवाक्योच्चारणान्यथाऽनुपपत्तेस्तत्प्रतिपत्ति'रिति चेत् ? अयमर्थः-स्वार्थेनावगतसंबंधः शब्दः स्वार्थ प्रतिपादयति, अन्यथाऽगृहीतसंकेतस्यापि पुसस्ततो वाच्यार्थप्रतिपत्तिः स्यात् / स च सबधावगमः प्रमाणत्रयसंपाद्यः / तथाहि-यदैको वृद्धोऽन्यस्मै प्रतिपन्नसंगतये प्रतिपादयति'देवदत्त ! गामभ्याज एनां शुक्लां दण्डेन' इति-तदा पार्श्वस्थितोऽव्युत्पन्नसंकेतः शब्दाथी प्रत्यक्षतः प्रतिपद्यते, श्रोतुश्च तद्विषयक्षेपणादिचेष्टादर्शनाद् अनुमानतो गवादिविषयां प्रतिपत्तिमवगच्छति, तत्प्रतीत्यन्यथाऽनुपपत्त्या शब्दस्य च तत्र वाचिका शक्तिं स एव परिकल्पयति / स च प्रमाणत्रयसंपाद्योऽपि संगत्यवगमो न सकृद्वाक्यप्रयोगात् संभवति, व्याक्यात् संमुग्धार्थप्रतिपत्ताववयवशक्तेरावापोद्वापाभ्यां निश्चयात् / तदभावे नान्वय-व्यतिरेकाभ्यां वाचकशक्त्यवगमः, तदसत्त्वाद् न प्रेक्षावद्भिः परावबोधाय वाक्यमुच्चार्यम। उच्चार्यते च परावबोधाय वाक्यम. प्रतः परार्थवाक्यो थानुपपत्त्या निश्चीयते धमादिरिव गहीतसंबंधोऽर्थप्रतिपादकः शब्दो नित्यः। तदुक्तम्-"दर्शनस्य परार्थत्वान्नित्यः शब्द" इति / [ अतीन्द्रियार्थप्रतिपादन अपौरुषेयत्वसाधक नहीं है ] अपौरुषेयवादीः-वेद में ऐसे अर्थ दिखाये हैं जो अतीन्द्रिय हैं, तो 'अतीन्द्रियार्थप्रतिपादन' रूप धर्म अर्थापत्ति से पुरुषाभाव की कल्पना करायेगा क्योंकि उसके विना वह अनुपपन्न है। उत्तरपक्षी:-यह अनुचित है, क्योंकि अन्य आगम के लिये भी यही बात समानरूप से कही जा सकती है / दूसरा यह भी ज्ञातव्य है कि वेद में अप्रामाण्य न होने पर भी पुरुषाभाव सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि-अप्रामाण्य पुरुष का कार्य है, कार्याभाव होने पर कारण का अवश्य अभाव रहे यह कोई नियम न होने से कार्याभाव कारणाभाव का व्यभिचारी है अत: पुरुषाभाव के विना भाव की अनुपपत्ति का कोई संभव ही नहीं है। हाँ, जिस पुरुष का वेद के साथ कोई प्रतिबन्ध यानी संबंध ही नहीं है अथवा जो वेद की रचना में समर्थ नहीं है ऐसे पुरुष का अभाव किसी प्रमाण से सिद्ध हो सकता है किंतु सर्वथा पुरुषकर्तृत्व का अभाव किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं है / क्योंकि पुरुषमात्र का किसी भी प्रमाण से निराकरण नहीं होता / ऐसा वेद कर्ता जो अप्रामाण्योत्पत्ति का असाधारण कारण हो वह तो हमें भी इष्ट न होने से वैसे पुरुष की अभाव सिद्धि में तो हमारी भी इष्ट सिद्धि ही है। ___यह बात भी नहीं है कि वेद का प्रामाण्य पुरुषाभाव के विना न घट सकने से प्रामाण्य पुरुषाभाव को सिद्ध कर सके, क्यों कि तब अन्य आगम में भी समानरूप से प्रामाण्यद्वारक पुरुषाभाव सिद्धि होगी। 'अन्य आगम में प्रामाण्य मिथ्या है / इत्यादि चर्चा पूर्ववत् ही की जा सकती है इस लिये पुनरुक्ति करना व्यर्थ होगा। "वेदापौरुषेयत्व निराकरण समाप्त" Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्वविमर्शः 141 अथ मतम्-भूयोभूय उच्चार्यमाणः शब्दः सादृश्यादेकत्वेन निश्चीयमानोऽर्थप्रतिपत्ति विदधाति, न पुननित्यत्वात , तन्न किचिन्नित्यत्वपरिकल्पनेन प्रमाणबाधितेन / तदयुक्तम् , सादृश्येन शब्दादर्थाs. प्रतिपत्तेः / न हि सदृशतया शब्दः प्रतीयमानो वाचकत्वेनाध्यवसीयते, कित्वेकत्वेन / तथा हवं प्रतिपत्ति: 'य एव संबन्धग्रहणसमये मया प्रतिपन्नः शब्दः स एवायम्' इति / / [ अनित्यपक्ष में शब्द के परार्थोच्चारण का असंभव ] शब्द को नित्य सिद्ध करने के लिये मीमांसक अपने पक्ष की विस्तार से प्रतिष्ठा करता है शब्द का अनादिसत्त्व परार्थवाक्योच्चारण की अन्यथानुपपत्ति से गृहीत हो सकता है / कहने का भाव यह है-शब्द से अपने अर्थ का प्रतिपादन तभी होता है जब अपने अर्थ के साथ उसका संकेतरूप संबंध श्रोता को ज्ञात हो / अन्यथा जिस पुरुष को संकेतज्ञान नहीं है उसको भी शब्द से वाच्यार्थ का बोध हो जायेगा / यह संकेतज्ञान तीन प्रमाणों से संपन्न होता है-जैसे, जब कोई वृद्ध पुरुष अन्य किसी संकेतज्ञ को यह सूचन करता है-हे देवदत्त ! दंड से उस श्वेत गाय को यहाँ लाओ! इस वक्त निकट में अवस्थित संकेतज्ञान रहित पुरुष इन शब्दों का प्रत्यक्षतः श्रवण करता है और उस वाक्य के अर्थ को भी प्रत्यक्ष देखता है / तथा संकेतज्ञ श्रोता की विषयक्षेपणादि यानी धेनु-आनयनादि चेष्टा को देखने से उस वाक्य के धेनु आदि अर्थबोध का अनुमान करता है। धेनु आदि अर्थ का बोध शब्दगत प्रतिपादनशक्ति के विना अनुपपन्न हो कर अर्थापत्ति से उसकी कल्पना करवाता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान और अर्थापत्ति तीन प्रमाणों से संकेतज्ञान केवल एक वार वाक्य सुन लेने से नहीं हो जाता / किन्तु एकबार वाक्य से संमुग्धार्थ यानी शब्दसमुदाय का अर्थ ज्ञात होने पर आवाप और उद्वाप से उस शब्दसमुदाय के अवयव शब्दों के अर्थ का निश्चय होता है / आवाप-उद्वाप यानी इन शब्दों में से कौन से शब्द का धेनु अर्थ हुआ और किस शब्द का आनयन अर्थ हआ इत्यादि ऊहापोह / इस प्रकार के ऊहापोह बराबर उस वाक्य को सुन ने पर ही होता है। यदि शब्द अनित्य होगा तो उसका पुनः पुनः उच्चारण असंभव हो जाने से अन्वय और व्यतिरेक से जो 'गो' शब्द की वाचकशक्ति का बोध होना चाहिये [ जैसे कि पहले 'गो' शब्द के साथ आनयन क्रिया का प्रयोग सुनकर धेनु का आनयन किया किन्तु बाद में 'गो' के बदले 'अश्व' का प्रयोग होने पर 'गो' के बदले अश्व का आनयन हुआ किन्तु गो का आनयन नहीं हुआ-इस प्रकार के अन्वय-व्यतिरेक से गो शब्द की धेनु अर्थ में वाचकशक्ति का बोध होना चाहिये ] वह नहीं होगा और संकेतज्ञान न होने पर दूसरे को प्रबोधित करने के लिये बुद्धि मन्तों को वाक्य प्रयोग ही नहीं करना होगा। किन्तु वे दूसरे को प्रबोधित करने के लिये वाक्यप्रयोग करते हैं-यह अनेक बार किया जाने वाला वाक्यप्रयोग शब्द की नित्यता के विना अनुपपन्न होने से यह निश्चित होता है कि धूमादि की भाँति व्याप्ति जैसा संबंध [ संकेत ] ज्ञात रहने पर अग्नि आदि अर्थ का बोध कराने वाला शब्द नित्य है। कहा भी गया है कि 'वेद वाक्य का उपदेश दूसरे के लिये होता है इसलिये शब्द नित्य है।' [ सादृश्य से शब्द में एकत्वनिश्चय से अर्थबोध का असंभव ] यदि यह कहा जाय कि-'बार बार शब्द प्रयोग होने पर साम्य के कारण ऐक्यरूप से शब्द का निश्चय होता है और उसीसे अर्थ का बोध होता है। आशय यह है कि शब्द नित्य होने से अर्थ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ किं च, सादृश्यादर्थप्रतिपत्तौ भ्रान्तः शब्दादर्थप्रत्ययः स्यात् / नान्यस्मिन् गृहीतसंकेतेऽन्यस्मादर्थप्रत्ययोऽभ्रान्तः, यथा गोशब्दे गृहीतसम्बन्धेऽश्वशब्दाद् गवार्थप्रत्ययः / न च भूयोऽवयवसामान्ययोगस्वरूपं सादृश्यं शब्दे संभवति, विशिष्टवर्णात्मकत्वाच्छब्दस्य, वर्णानां च निरवयवत्वात् / न च समानस्थानकरणजन्यत्वलक्षणं सादृश्यं प्रतिपत्त शक्यम, परकीयस्थानकरणादेरतीन्द्रियत्वेन तज्जन्य (न्यत्व)स्याप्यप्रतिपत्तेः / न च गत्वादिविशिष्टानां गादीनां वाचकत्वमभ्युपगन्तु युक्तम्, गत्वादिसामान्यस्याभावात / तदभावश्च गादीनां नानात्वाऽयोगात. तदयोगश्च प्रत्यभिज्ञया गादीनामेकत्वनिश्चयात् / अत एव न सामान्यनिबन्धना गादिषु प्रत्यभिज्ञा, भेदनिबन्धनस्य सामान्यस्यैव गादिज्वभावात् , कुतस्तन्निबन्धना गादिषु प्रत्यभिज्ञा ? का बोध नहीं करवाता किन्तु साम्य के कारण एकत्वाध्यवसाय से अर्थ बोध होता है / इसलिये प्रमाण बाधित नित्यत्व की कल्पना से क्या लाभ ? !' यह बात अयुक्त है-कारण, सादृश्य शब्दहेतुक अर्थबोध का हेतु न होने से उससे. अर्थबोध नहीं माना जा सकता / जिस शब्द की साम्यरूप से प्रतीति होती है उसका ऐक्यरूप से अध्यवसाय हो सकता है, किंतु वाचक रूप से उसका अध्यवसाय होने का अनुभव नहीं है / साम्य के कारण जो बोध होगा वह इस प्रकार होगा कि-'संकेत ज्ञान के काल में जिस शब्द का बोध किया था, यह वही शब्द है।' इसमें तो एकत्व का अनुभव है-वाचकत्व का नहीं। वाचकरूप से शब्द का अनुभव न होने पर उससे अर्थबोध कैसे माना जाय ? - [सादृश्य से होने वाले शब्दबोध में भ्रान्तता आपत्ति ] यह भी सोचना चाहिये कि-यदि अर्थबोध शब्द से न होकर सादृश्य से मानेंगे तो शब्द से जो अर्थबोध होता है वह भ्रमात्मक हो जायेगा चूंकि जिसमें वाचकरूप संकेतज्ञान किया है उससे अर्थबोध न होकर अन्य से होने वाला अर्थज्ञान भ्रमभिन्न नहीं हो सकता है जैसे कि. 'गो' शब्द में संकेत ज्ञान होने के बाद अश्वशब्द से धेनुरूप अर्थ का ज्ञान भ्रमभिन्न नहीं होता। . दूसरी बात यह है कि सादृश्य का अर्थ है दो पदार्थ में अनेक समान अंशों का योग / ऐसे सादृश्य का शब्द में संभव ही नहीं है। कारण, शब्द विशिष्ट प्रकार के वर्ण रूप हैं और वर्ण स्वयं निरवयव होता है। निरवयव होने के कारण शब्द में अनेक समान अंशों का योग यानी सादृश्य का संभव नहीं हो सकता। यदि कहें कि यहां 'समान तालु आदि स्थान और समान कारण से उत्पत्ति' रूप सादृश्य विवक्षित है तो इसका शब्द में ग्रहण भी संभव नहीं है क्योंकि प्रयोग करने वाले पुरुष / का स्थान-करणादि सब अतीन्द्रिय है, इसलिये तज्जन्यत्व का ग्रहण असंभव है। यदि कहे कि-'सकेत ज्ञानकाल में जो गकारादि व्यक्ति का श्रवण किया था उस वक्त उस गकारादिगत गत्वादि जाति से विशिष्ट गकारादि में ही संकेत ज्ञान किया था इसलिये व्यवहार काल में भी गत्वादि जाति विशिष्ट ही गकारादि के श्रवण से अर्थबोध होने में कोई आपत्ति नहीं है'-तो यह मानना ठीक नहीं है, क्योंकि गत्वादि कोई जाति ही नहीं है। जाति तो अनेक व्यक्ति समवेत होती है जब कि गकारादि व्यक्तिओं की विभिन्नता असिद्ध है / असिद्धि इसलिये कि-"यह वही गकार है" ऐसी प्रत्यभिज्ञा से गकारादि का एकत्व सुनिश्चित है / यही कारण है कि वह प्रत्यभिज्ञा एक गत्वादिअवलम्बिनी भी नहीं मानी Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्वविमर्शः 143 किं च, किं गत्वादीनां वाचकत्वम् उत गादिव्यक्तिनाम् ? न तावद् गत्वादीनाम् , नित्यत्वेनास्मदभ्युपगमाश्रयणप्रसङ्गात् / नापि गादीनां वाचकत्वम् , विकल्पानुपपत्तेः / तथाहि-कि गत्वादिविशिष्टं व्यक्तिमानं वाचकम् , उत गादिव्यक्तिविशेषः ? तत्र न तावद् गादिव्यक्तिविशेषः, सामान्ययुक्तस्यापि तस्यानन्वयात् / अनन्विताच्च नार्थप्रतिभासः। नापि गादिव्यक्तिमात्रम् , यतस्तदपि व्यक्तिमात्रं कि सामान्यान्तर्भूतम् उत व्यक्त्यन्तभूतम् ? इति कल्पनाद्वयम् / यदि सामान्यान्तःपाति तदा पुनरपि नित्यस्य वाचकत्वमित्यस्मत्पक्षप्रवेशः / अथ व्यक्त्यन्तभूतमिति पक्षः तदाऽनन्वयदोषस्तदवस्थित इति / किं च, यद्यनित्यः शब्दः तदाऽऽलम्बनरहिताच्छब्दप्रतिभासमात्रादर्थप्रतिपत्तिरभ्युपगता स्यात् / तथाहि-शब्दश्रवणम् , ततः संकेतकालानुभूतस्मरणम् , ततः तत्सदृशत्वेनाध्यवसायः, न चेतावन्त कालं शब्दस्यावस्थानं भवत्परिकल्पनया, तद् वाचकशून्यात् तत्प्रतिभासादर्थप्रतिपत्तिः स्यात् / अतोऽर्थप्रतिभासाभावप्रसंगाद नानित्यत्वं शब्दस्य // जा सकती क्योंकि व्यक्तिभेद असिद्ध होने से तन्मूलक गत्वादि जाति का गकारादि में संभव ही नहीं है तो गकारादि में 'यह वही गकार है' इस प्रत्यभिज्ञा को गत्वादिजातिगतएकत्वमुलक कैसे माना जाय ? [गकारादि में वाचकता की अनुपपत्ति ] तदुपरांत, आपको यह सीधा प्रश्न है कि आप गत्वादि को वाचक मानते हैं ? या गकारादि व्यक्ति को ? गत्वादि जाति को आप वाचक नहीं मानते हैं चूंकि तब तो जाति नित्य होने से 'नित्य शब्द वाचक है' इस हमारे पक्ष में आप को चले आना पडेगा। गकारादि व्यक्ति इसलिये वाचक नहीं हैं कि उस पर लगाये जाने वाले विकल्प संगत नहीं होते। जैसे-गत्वादि जाति विशिष्ट व्यक्तिमात्र वाचक है ? या कोई विशिष्ट गकारादि व्यक्ति ? द्वितीय विकल्प में विशिष्ट गादि व्यक्ति वाचक नहीं हो सकती क्योंकि वह गत्वादिसामान्य युक्त होने पर भी उसका कोई संबंध अर्थ के साथ व्यक्ति आनन्त्य के कारण सम्भव नहीं है और संबंध के विना अर्थ का प्रतिभास शक्य नहीं है। गकारादि केवल व्यक्ति भी अर्थवाचक नहीं हो सकती चूंकि उसके ऊपर दो कल्पना होगी १-सामान्य में अन्तभूत व्यक्ति वाचक है ? २-व्यक्ति अन्तर्भूत व्यक्ति वाचक है ? इसमें प्रथम कल्पना सामान्यान्तः पाती व्यक्ति को वाचक माने तब तो सामान्यान्तर्भूत व्यक्ति सामान्यरूप होने से नित्य की ही वाचकता का घोष करने वाले हमारे मत में आप चले आये। दूसरी कल्पना-व्यक्ति में जो जाति रूप नहीं है ऐसी व्यक्ति को वाचक माने तो ऐसी व्यक्ति अनंत होने के कारण अर्थ के साथ उनके नियत सम्बन्ध की अनुपपत्ति का दोष तदवस्थ रहता है / - तदुपरांत-यदि शब्द को अनित्य यानी क्षणिक मानेंगे तो शब्द प्रतिभास काल में उसका आलम्बन शब्द तो रहेगा नहीं तो आलम्बनशून्य केवल शब्दप्रतिभास से ही अर्थबोध मानना पड़ेगा। वह इस प्रकार-सबसे पहले तो शब्द का श्रवण होगा, पश्चात् संकेतकाल में अनुभूत शब्द का स्मरण होगा, पश्चात् 'यह उसके समान है' ऐसा सादृश्याध्यवसाय होगा। इतने काल तक आप के मतानुसार शब्द का अवस्थान तो रहेगा नहीं। तो यही मानना पड़ेगा कि अर्थबोध वाचक शब्द से शुन्य शब्द प्रतिभास से ही हुआ है। यह तो हो नहीं सकता कि वाचक शब्द विना अर्थबोध हो जाय तात्पर्य, वाचक शब्द विना अर्थबोध ही नहीं होगा, इसलिये शब्द को नित्य मानना चाहिये / [ पूर्व पक्ष समाप्त ] Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 11 [शब्दानित्यत्वस्थापन-उत्तरपक्ष ] अत्र प्रतिविधीयते-यदुक्तम् ‘दर्शनस्य परार्थत्वान्नित्यः शब्दः, अनित्यत्वे पुनः पुनरुच्चारणाऽसम्भवाद् न समयग्रहः, तदभावे शब्दादर्थप्रतिपत्तिर्न स्यादिति परार्थशब्दोच्चारणान्यथानुपपनित्यः शब्दः'-तदयुक्तम् , अनित्यस्यापि धमादेरिवावगतसंबन्धस्यार्थप्रत्यायकत्वसम्भवात् शब्दस्य / न हि धूमादीनामप्येकैव व्यक्तिरग्न्यादिप्रतिपादिका किन्त्वन्यैव / न चानाश्रितसमानपरिणतीनां सर्वधूमादिव्यक्तीनामर्वाग्दृशा स्वसाध्येन सम्बन्धः शक्यो ग्रहीतुम् , असाधारणरूपेण सर्वधूमादिव्यक्तीनामदर्शनात् / . न च लिंगानुमेयसामान्ययोः तत्र संबन्धग्रहणं, शब्देऽप्यस्य न्यायस्य समानत्वात् / न च 'धूमत्वाद् मया प्रतिपन्नोऽग्निः' इति प्रतिपत्तिः किन्तु धमादिति / सा च लिंगानुमेययोः सामान्यविशिष्टव्यक्तिमात्रयोः संबन्धग्रहणे सति सामान्यविशिष्ट मान्यादग्निसामान्यस्य / यथा च-सामान्यविशिष्टस्य विशेषस्य अनुमेयत्वं वाच्यत्व वाऽभ्युपगमनीयम् अन्यथा सामान्यमात्रस्य दाहाद्यर्थक्रियाऽजनकत्वे ज्ञानाद्यर्थक्रियायाश्च सामान्यसाध्यायास्तदैव समुद्भः तेर्दाहार्थिनामनुमेयवाच्यप्रतिभासात् प्रवृत्त्यभावेन लिंगि-वाच्यप्रतिभासयोरप्रामाण्यप्रसंगः-तथा धूमशब्दयोस्तद्विशिष्टयोः तत्त्वमभ्युपगन्तव्यम् , न्यायस्य समानत्वात् / [शब्द अनित्य होने पर भी अर्थबोध की उपपत्ति ] शब्दनित्यत्ववाद का अब प्रतीकार किया जाता है-पूर्वपक्षी ने जो यह कहा-“दर्शन यानी वेद परावबोधार्थ होने से शब्द नित्य है। यदि वह अनित्य होगा तो उसका पुनरुच्चारण शक्य न होने से उसमें संकेतज्ञान न होगा। संकेतज्ञान के अभाव में शब्द से अर्थबोध नहीं होगा। इस प्रकार परार्थशब्दप्रयोग की अन्यथा अनुपपत्ति होने से शब्द नित्य सिद्ध होता है"-यह गलत है। जैसे धूमादि अनित्य होने पर भी व्याप्तिसम्बन्धज्ञाता को अग्निरूप अर्थ का बोध उत्पन्न करता है वैसे शब्द अनित्य होने पर भी अर्थबोधक हो सकता है। यह बात नहीं है कि जब जब अग्निबोध होता है तब एक ही धूमव्यक्ति हेतु होती है, किन्तु पृथक् पृथक् ही होती है। तथा, जिनकी समान परिणति का अवलम्बन नहीं किया गया है ऐसे सर्व धूमादि व्यक्तिओं का अपने साध्य के साथ व्याप्तिरूप संबंध ग्रहण वर्तमान दृष्टा के लिये शक्य नहीं है / क्योंकि वर्तमान दृष्टा को कभी समस्त धूमव्यक्तिओं का उनके असाधारणरूप से दर्शन ही नहीं होता तो उनका व्याप्तिरूप सम्बन्ध ग्रहण वह कैसे करेगा? यह नहीं कह सकते कि-'व्याप्तिरूप सम्बन्ध ग्रहण काल में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच संबंध ग्रहण नहीं होता किन्तु लिंग सामान्य का साध्य सामान्य के साथ ही ग्रहण होता है'-क्योंकि ऐसा तो शब्द के लिये भी कहा जा सकता है कि अर्थ सामान्य का शब्द सामान्य में ही संकेत ग्रह किया जाता हैशब्द व्यक्ति में नहीं। [जातिविशिष्ट में ही व्याप्य-व्यापकभावसंगति] दूसरी बात यह है कि धूम सामान्य से अग्नि सामान्य का बोध अनुभवविरुद्ध है क्योंकि-"मैंने धूमत्व से अग्नि का बोध किया" ऐसा अनुभव नहीं होता किंतु "धूम से मैंने अग्नि का बोध किया" ऐसा अनुभव होता है। यह अनुभव तभी संगत हो सकता है जब पूर्व में धूमत्व जाति विशिष्ट और अग्नित्वजातिविशिष्ट मात्र का व्याप्य-व्यापक भाव संबंध गृहीत किया हो और अभी उस संबंध के स्मरण से अग्नित्व जाति विशिष्टाग्नि का बोध होता हो / उसके बदले केवल धूमसामान्य (धूमत्व) से अग्नि सामान्य का बोध माने तो वह अनुभव संगत नहीं होगा। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्व० 145 न चानुमेयत्व-वाच्यत्वसामान्य व्यक्तिव्यतिरेकेणानुपपद्यमानं तां लक्षयतीति लक्षणया प्रवृ. त्तिर्भविष्यतीति वक्तु शक्यम् , क्रमप्रतीतेरभावात् / न हि लिंगवाचक-जनित-लिगिवाच्यप्रतिभासे प्राक् सामान्यप्रतिभासः पश्चाद् व्यक्तिप्रतिभासः-इति क्रमप्रतीत्यनुभवः / न च लक्षणा संभवतीति प्रपंचतः प्रतिपादयिष्यामः-इत्यास्तां तावत् / एवं सामान्यविशिष्टधमादिलिंगस्य गमकत्ववद गत्वादिविशिष्टगादिवाचकत्वे न किंचिन्नित्यत्वेन, तदभावेऽपि धूमादिभ्य इवार्थप्रतिपत्तिसंभवात् / ___अथ धूमादौ सामान्यस्य संभवात् पूर्वोक्तेन न्यायेन गमकत्वमस्तु, शब्दे तु न किंचित् सामान्यमस्ति यद्विशिष्टस्य शब्दस्य वाचकभावः / 'शब्दत्वं' इति चेत् ? न, गोशब्दस्य शब्दत्वविशिष्टस्य स्ववाच्ये न संबंधग्रहः, न च शब्दत्वमपि गादिषु विद्यते, गोशब्दत्व-गत्वादीनां तु सत्त्वे का कथा ? ! शब्दत्वादीनां स्वभावो वर्णान्तरग्रहणे वर्णान्तरानसंधानाभावात / यत्र सामान्यमस्ति तत्रैकग्रहणेऽपरस्यानुसंधानं दृष्टम् यथा शाबलेयग्रहणे बाहुलेयस्य, वर्णान्तरे च गादौ गृह्यमाणे न कादीनामनुसंधानम् / तन्न तत्र शब्दत्वादिसम्भवः / एतदयुक्तम् यह भी ज्ञातव्य है कि-जैसे सामान्य विशिष्ट विशेष यानी अग्नित्वविशिष्टाग्नि आदि को ही अनुमेय अथवा शब्दवाच्य मानना पड़ता है, यदि विशिष्ट को अनुमेय अथवा वाच्य न मान कर अग्नि सामान्य को ही अनुमेय अथवा वाच्य माने तो अग्नि सामान्य से दाहादिरूप अर्थक्रिया का जन्म न होने से, तथा अग्निसामान्यसाध्यज्ञानादिरूप अर्थक्रिया का तो उसी समय उद्भव होने से, तथा दाहादि के अर्थी को अग्नि का प्रतिभास न होकर केवल अग्निसामान्यरूप अनुमेय अथवा वाच्यार्थ का भान होने से, दाहादि में प्रवृत्ति न होगी और दाहादिप्रवृत्ति रूप अर्थक्रिया सिद्ध न होने से उस सामान्यरूप अनुमेय अथवा वाच्यार्थ के प्रतिभास को अप्रमाण मानने का अनिष्ट होगा-इस लिये विशिष्ट को ही अनुमेय अथवा वाच्य मानना आवश्यक है-[ यह तो साध्य और वाच्य की बात हुई-अब हेतु और वाचक की बात-] उसी प्रकार, लिंग धूम और वाचक शब्द भी सामान्य रूप से वाचक न मान कर जातिविशिष्ट रूप से ही लिंग अथवा वाचक मानना ही पड़ेगा-क्योंकि 'अन्यथा अप्रामाण्यापत्ति'रूप युक्ति दोनों ओर समान है। तात्पर्य, जातिविशिष्ट शब्द में हो संकेतज्ञान आवश्यक है, केवल जाति अथवा व्यक्ति में नहीं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-"शब्द अथवा लिंग वाच्यत्वसामान्य अथवा अनुमेयत्वसामान्य को ही उपस्थित करता है, किन्त व्यक्ति के विना सामान्य की उपपत्ति न होने से व्यक्ति को भी लक्षित करता है यानी उपस्थापित करता है, इस प्रकार लक्षणा से व्यक्ति का बोध होने पर प्रवृत्ति भी उसमें हो सकेगी"-इस कथन की अवाच्यता का कारण यह है-उक्त प्रकार की क्रमप्रतीति किसी को होती नहीं है / तात्पर्य, लिंग अथवा वाचकशब्द से प्रथम सामान्य का प्रतिभास पश्चात व्यक्ति का प्रतिभास इस प्रकार के क्रम की प्रतीति का अनुभव लिंग और वाचक के प्रतिभास में किसी को भी नहीं होता / तथा, 'यहाँ ल.णा का संभव भी नहीं है' यह विस्तार से आगे दिखाया जायेगा, अभी शांति रक्खो। उपरोक्त रीति से, यानी जैसे धूमत्वादि सामान्य विशिष्ट धूमादि लिंग अग्नित्वविशिष्ट अग्नि . का बोध कराता है उस प्रकार, गत्वादिविशिष्ट गादि शब्द को अर्थ का वाचक भी माना जा Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ____ यतः किमिदमनुसंधानं भवतोऽभिप्रेतं यद् वर्णान्तरे गृह्यमाणे वर्णान्तरस्य नास्तीति प्रतिपाद्यते ? यदि गादी वर्णान्तरे गृह्यमाणे 'अयमपि वर्णः' इत्यनुसंधानाभावः-तदयुक्तम-एवंभूतानुसंधानस्यानुभूयमानत्वेनाऽभावाऽसिद्धः / अथ गादौ वर्णान्तरे गृह्यमाणे 'अयमपि कादिः' इत्यनुसंधानाभावान्न सामान्यसद्भावस्तदाऽत्यल्पमिदमुच्यते, शाबलेयादावपि व्यक्त्यन्तरे गृह्यमाणे 'अयमपि बाहुलेयः' इत्यनुसन्धानाभावाद् गोत्वस्याप्यभावः प्रसक्तः। अथ तत्र 'गौ गौः' इत्यनुगताकारप्रत्ययस्याऽबाधितस्य सद्भावाद् न गोत्वाऽसत्त्वम्-एतद्गादिष्वपि समानम् / तत्रापि 'वर्णो....वर्ण....' इत्यनुगताकारस्याबाधितस्य प्रत्ययस्य सद्भावात् कथं न वर्णेषु वर्णत्वस्य, गादिषु गत्वादेः, शब्दे शब्दत्वस्य संभवः, निमित्तस्य समानत्वात? सकता है तो फिर नित्यत्व से क्या प्रयोजन ? शब्द नित्य न होने पर भी अनित्य धूमादि से अग्निबोध की तरह अनित्य शब्द से अर्थबोध सरलता से हो सकता है। [शब्द में जाति का संभव ही न होने की शंका] नित्यत्ववादीः-धूमादि में धमत्व सामान्य का संभव है इस लिये पूर्वोक्त रीति से वह अग्निबोधक हो सकता है। किन्तु, शब्द तो सर्वथा सामान्यशून्य है तो सामान्यविशिष्ट हो कर शब्द का वाचकभाव कैसे माना जाय ? ! शब्द में शब्दत्वरूप सामान्य होने की शंका नहीं की जा सकती। चूंकि शब्दत्वजाति से विशिष्ट गोशब्द में किसी को भी धेनुअर्थ प्रतिपादक संकेत का ग्रह नहीं होता। [ यदि शब्दत्व जात्यवच्छेदेन धेनुअर्थ का संकेत माना जाय तो शब्दत्व जाति सर्वशब्दसाधारण होने से प्रत्येक शब्द धेनु अर्थ का बोधक हो जायगा ] दूसरी बात, गकारादि वर्गों में शब्दत्व जाति की भी विद्यमानता नहीं है तो तदव्याप्य गोशब्दत्व अथवा गत्व आदि जाति होने की बात ही कहाँ ? शब्दत्वादि जाति शब्द में न होने में तर्क यह है-यदि उसमें जाति होती तो एक वर्ण के ग्रहणकाल में अन्य वर्ण का भी अनुसंधान होता, किन्तु वह नहीं होता है / जैसे कि गोत्वादि जाति धेनु आदि में विद्यमान है तो एक चित्रवर्ण वाली धेनु को देखने पर अन्य श्यामादिवर्णविशिष्ट धेनु का भी सामान्यमूलक अनुसंधान होता है / तात्पर्य, जहाँ जाति होती है वहाँ एक व्यक्ति के ग्रहण काल में अन्य व्यक्तिओं का भी तन्मूलक अनुसंधान होता है, गकारादिवर्ण का श्रवण होने पर ककारादिवर्ण का अनुसंधान प्रतीत नहीं होता इसलिये उसमें कोई शब्दत्वादि जाति का संभव नहीं है / उत्तरपक्षी:-उपरोक्त कथन अयुक्त है। [वर्णान्तरानुसंधान की उपपत्ति ] [ अयुक्त इस प्रकार-] वह कौन सा अनुसंधान आपको चाहीये जो एकवर्ण के ग्रहण काल में अन्य वर्ण का ग्रहण नहीं होने का आप कहते हैं ? गकारादि अन्य वर्ण गृहीत होने पर यह भी वर्ण है' इस प्रकार का अनुसंधान न होने की बात यदि करते हो तो यह ठीक नहीं, क्योंकि जब गकारादि वर्णान्तर का अनुभव होता है तब 'यह भी वर्ण है' इस प्रकार का अनुसंधान स्पष्टतः अनुभूत होने से उसका अभाव असिद्ध है। नित्यत्ववादीः-गकारादिवर्णान्तर का जब ग्रहण होता है तब 'यह भी ककागदि है' ऐसा अनुसंधान न होने से सामान्य की सत्ता नहीं है / उत्तरपक्षी:-यह तो आपने बहुत कम कहा, इस प्रकार के अनुसन्धान की विवक्षा करने पर Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्व० 147 तथाहि-समानाऽसमानरूपासु व्यक्तिसु क्वचित् समाना' इति प्रत्ययोऽन्वेति, अन्यत्र व्यावर्तते, यत्र च प्रत्ययानुवृत्तिस्तत्र सामान्यव्यवस्था, नान्यत्र / सा च प्रत्ययानुवृत्तिर्गादिष्वपिसमाना इति कथ न तत्र सामान्यव्यवस्था ? यदि पुनर्गादिष्वनुगताकारप्रत्ययसत्त्वेऽपि न गत्वादिसामान्यमभ्युपगम्यत तहि शाबलेयादिष्वपि न गोत्वसामान्यमभ्युपगमनीयम्, न हि तत्रापि तथाभूतप्रत्ययानुवृत्तिमन्तरेण साभान्याभ्युपगमेऽन्यद् निमित्तमुत्पश्यामः / अक्षजन्यत्वम्-अबाधितत्वादि च प्रत्ययस्योभयत्रापि विशेषः समानः। यदि चानुगताऽबाधिताऽक्षजप्रत्ययविशेषविषयत्वे सत्यपि गत्वादेरभावः, गादेरपि व्यावृत्ततथाभूतप्रत्ययविषयस्याभावः स्यात् , ततश्च कस्य दर्शनस्य परार्थत्वान्नित्यत्वं साध्येत ? अथ गादौ श्रोत्रग्राह्यत्वनिमित्तोऽनुगतः प्रत्ययो न सामान्यनिमित्तः / तदप्ययुक्तम् , श्रोत्रग्राह्यत्वस्यातीन्द्रियत्वेनानवगमे निमित्ताऽग्रहणे तद्ग्रहणनिमित्तानुगतप्रत्ययस्य गादावभावप्रसंगात् / तो गोत्व का भी सद्भाव लुप्त हो जायगा, क्यों कि जब चित्र वर्णवाली धेनु रूप अन्य व्यक्ति का ग्रहण होता है तब 'यह भी श्यामवर्ण वाली है' ऐसा अनुसंधान किसी को होता नहीं है / नित्यवादीः-धेनु में तो 'गौ....गौ....' इस प्रकार अबाधित अनुगताकार प्रतीति होती है इसलिये उसका सत्त्व सुरक्षित रहेगा। उत्तरपक्षीः-गकारादि में भी समान उत्तर है, वहाँ भी यह 'वर्ण....वर्ण....' इत्यादि अनुगताकार प्रतीति होती है जो अबाधित भी है तो वर्गों में वर्णत्व सामान्य का, गकारादि में गत्वादिसामान्य का और शब्द में शब्दत्व सामान्य का असंभव कैसे ? अनुगताकार प्रतीतिरूप निमित्त दोनों पक्ष में समान है। [ अनुगताकारप्रतीति के निमित्त का प्रदर्शन ] ... निमित्त समानता इस प्रकार है-गो-अश्व आदि अनेक प्रकार की व्यक्तिओं के समुदाय में कहीं कहीं तो 'ये सब समान है' इस प्रकार की प्रतीति होती है जैसे धेनु के समुदाय में, तथा कहीं कहीं 'ये सब समान है' ऐसी प्रतीति नहीं होती जैसे गो-अश्व-महिष आदि में / जहाँ समानाकार प्रतीति होती है वहाँ उसके निमित्तभूत सामान्य की कल्पना की जाती है, अन्यत्र नहीं की जाती / यह समानाकार प्रतीति का अन्वय गकारादि वर्ण में भी तल्य है तो उसमें सामान्य की कल्पना क्यों न की जाय ? समानाकार प्रतीति होने पर भी अगर गकारादि में सामान्य नहीं मानना है तो चित्रवर्ण वाली-श्यामवर्णवाली आदि सकल धेनु में एक गोत्व सामान्य की भी कल्पना मत करो। समानाकार प्रत्यय के अन्वय को छोड कर अन्य तो कोई निमित्त वहाँ दिखता नहीं है जो सामान्य को वहाँ मनावे / धेनु की समानाकार प्रतीति में जैसे यह विशेषता है कि वह इन्द्रियसंनिकर्ष जन्य और अबाधित होती है वैसे गकारादि की प्रतीति में भी यह विशेषता समान ही है / दूसरी बात यह है कि यदि समानाकार अबाधित इन्द्रियजन्य बुद्धि विशेष का विषय होते हुए भी वहाँ गत्वादि सामान्य को नहीं माना जायेगा तो असमानाकार अबाधित इन्द्रियजन्य बुद्धिविशेष का विषय होते हुए भी वहाँ गकारादि की सत्ता न मानने की आपत्ति होगी, कारण-अबाधित-इन्द्रियजन्य बुद्धिविशेष की विषयता दोनों ओर तुल्य होने पर भी एक ओर गकारादि की सत्ता मानी जाय और दूसरी ओर गत्वादि की सत्ता न मानी जाय इसमें केवल स्वमताग्रह ही निमित्त हो सकता है। यदि उक्त रीति से गकारादि शब्द को भी नहीं माना जायगा तो शब्द के अभाव में वेद के परार्थत्वरूप हेतु से आप किसका नित्यत्व सिद्ध करेंगे? ! Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च प्रत्यभिज्ञया गादीनामेकत्वसिद्धर्भेदनिबन्धनस्य तेषु गत्वादिसामान्यस्याभाव इति युक्तमभिधानम् , गायेकत्वग्राहिकाया लूनपुनर्जातकेशनखादिष्विव तस्या भ्रान्तत्वात् / अथ दलितपुनरुदिते नखशिखरादौ प्रत्यभिज्ञायाः बाधितत्वेन भ्रान्तत्वं न पुनर्गादौ / ननु तत्र प्रत्यभिज्ञायाः किं बाधकम् ? 'अन्तरालेऽदर्शनं' इति चेत् ? ननु गादावप्यन्तरालेऽदर्शनं समानम् / अथ दलितपुनरुदिते नखशिखरादावभावनिमित्तमन्तरालेऽदर्शनम् , न गादावभावनिमित्तम्, किं पुनरत्राऽदर्शननिमित्तमिति वक्तव्यम् / ... किमत्र वक्तव्यम् ? अभिव्यक्तेरभावः। अथ केयमभिव्यक्तिर्यदभावादन्तराले गाद्यप्रतिपत्तिः ? वर्णादिसंस्कारः / अथ कोऽयं वर्णादिसंस्कारः ? 'प्रात्म-मनःसंयोगपूर्वकप्रयत्नप्रेरितेन कोष्ठ्येन वायुना ताल्वादिसंयोग-विभागवशात् प्रतिनियतवर्णा [ गकारादिशब्द में सामान्य का समर्थन ] नित्यवादीः-गकारादिवर्ण में जो समानाकार प्रतीति होती है उसका निमित्त सामान्य नहीं है किन्तु श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्व है। उत्तरपक्षी:-यह गलत है / कारण, शब्द की श्रोत्रग्राह्यता तो अतीन्द्रिय है इसलिये प्रत्यक्ष से उसका ग्रहण ही नहीं होगा और उस निमित्त के अगृहीत रहने पर श्रोत्रग्राह्यतारूपनिमित्तग्रहमूलक यानी उसके निमित्त से होने वाली समानाकार प्रतीति भी गकारादि में नहीं होने की आपत्ति होगी। नित्यवादी:-गत्वादि सामान्य का स्वीकार व्यक्तिभेदमूलक ही है-अर्थात् व्यक्तिओं को अनेक मानने पर ही अनेक में एकाकार प्रतीति का निमित्त सामान्य को माना जा सकता है / किन्तु यहाँ गकारादि की अनेकता यानी भेद सिद्ध नहीं है अपित् 'यह वही गकार है' इस प्रत्यभिज्ञा से उनका एकत्व ही सिद्ध होता है / जब व्यक्तिभेद ही नहीं है तो तेन्मूलक गत्वादि का भी अभाव सिद्ध हुआ। उत्तरपक्षी:-ऐसा मत कहो, क्योंकि एकत्व साधक वह प्रत्यभिज्ञा तो भ्रम है उससे एकत्व सिद्ध नहीं हो सकता / जैसे बार बार काटने पर पुन: पुनः उत्पन्न होने वाले केश और नख आदि में 'यह वही नख है' इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा हो जाती है किन्तु उसका विषय तो समानाकार अन्य नखादि होने से वह भ्रान्त मानी जाती है, ऐसा ही प्रस्तुत में है। नित्यवादी:-काट देने पर भी फिर से उत्पन्न होने वाले नख और वृक्षादि के शिखर में जो एकत्व प्रत्यभिज्ञा होती है, उत्तर काल में उसका बाध होने से उस प्रत्यभिज्ञा को भ्रान्त मानना ठीक है किन्तु गकारादि में उत्तरकालीन बाध होने से उसके एकत्व की प्रत्यभिज्ञा भ्रम नहीं है। उत्तरपक्षी:-नखादि प्रत्यभिज्ञा में किस बाध का आपको दर्शन नित्यवादीः-प्रथम नख का छेद और नये नख की उत्पत्ति-दोनों के मध्य काल में नख का दर्शन नहीं होता। उत्तरपक्षीः-एक गकार के श्रवण के बाद दूसरे गकार का जब तक श्रवण नहीं होता उस मध्य काल में गकार का भी दर्शन नहीं होता यह बात दोनों पक्ष में समान है। नित्यवादीः-नख-शिखरादि का छेद होने पर जो मध्य में उसका अदर्शन होता है वहाँ तो उसका अभाव ही निमित्त होता है, गकारादि का मध्य में अदर्शन उसके अभाव के कारण नहीं है। उत्तरपक्षीः-तो फिर उसके अदर्शन का निमित्त क्या है ? Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्व० 149 द्यभिव्यञ्जकत्वेन भेदमासादयता वक्तृमुखसमीपगतैः स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्षरण, तद्देशस्य च तूलादेः प्रेरणात् कार्यानुमानेन, देशान्तरे शब्दोपलब्ध्यन्यथाऽनुपपत्त्या च प्रतीयमानेन नित्यसर्वगतस्य गकारादेवर्णस्य, श्रोत्रस्य, उभयस्य चाऽऽवारकाणां वायूनामपनयनं यथाक्रमं वर्णसंस्कारः, श्रोत्रसंस्कारः, उभयसंस्कारश्चेति चेत् ? ननु 'वर्णसंस्कारोऽभिव्यक्तिः' इत्यभ्युपगमे आवारकवायुविज्ञानजननशक्तिप्रतिघाताद् वर्णोऽपान्तराले ज्ञानं न जनयतीति अभ्युपगन्तव्यम् / सा च शक्तिवर्णस्वरूपात कथञ्चिदभिन्नाऽभ्युपगंतव्या, एकान्तभेदे ततो वर्णादनुपकारे 'तस्य शक्तिः' इति सम्बन्धानुपपत्तेः, उपकारे वा तदुपकारिका अपरा शक्तिरभ्युपगंतव्या, तस्या अपि ततो भेदेऽनवस्था, अभेदे प्रथमैव शक्तिः कथञ्चिदभिन्नाऽभ्युपगमनीया, एवं हि पारम्पर्यपरिश्रमः परिहतो भवति / तथाभ्युपगमे च तच्छक्तिप्रतिघाते वर्णस्वरूपमेव तदभिन्नमावारकेण प्रतिहतं भवति / ततश्च कथं नाऽनित्यत्वम् ? [वर्णादिसंस्कारस्वरूप अभिव्यक्ति की प्रक्रिया ] नित्यवादी:-इसमें क्या कहना ! मध्य में गकारादि के अदर्शन का निमित्त है 'अभिव्यक्ति का अभाव। उत्तरपक्षी:-जिस के अभाव से मध्य में गकारादि का बोध नहीं होता वह 'अभिव्यक्ति' क्या है ? . नित्यवादीः-वर्णादि का संस्कार / उत्तरपक्षीः-यह वर्णादि का संस्कार भी क्या है ? नित्यवादी:-अभिव्यंजक वायू से नित्य एवं सर्वदेशव्यापक गकारादि वर्ण, श्रोत्र तथा तदुभय के आवारक वायुओं का जो अपसारण किया जाता है यही क्रमशः वर्णसंस्कार, श्रोत्रसंस्कार और तदुभयसंस्कार है / अपसारण करने वाले वायु का मूल उपादान कोष्ठगत वायु है। उसको आत्म-मनो द्रव्य के संयोग से उत्पन्न प्रयत्न द्वारा प्रेरणा मिलती है यानी वह क्रियान्वित होता है। उससे वह प्रेरित होकर ओष्ट-तालु आदि स्थान में जब आता है तो उसके साथ अभिघात और बाद में विभाग होने से वह मूलतः एक होता हुआ भी स्थान भेद से विभक्त यानी भिन्न भिन्न हो जाता है अर्थात् अकार का अभिव्यंजक, ककार का, चकार का अभिव्यंजक, इस प्रकार तत्तद्वर्ण के अभिव्यंजकरूप में विभक्तता उस वायु में आ जाती है। इस अभिव्यंजक वायु की प्रतीति वक्ता के मुख समीप रहने वाले को स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्ष से होती है, दूरवर्ती सज्जनों को मुखसमीप रहे हुए रुई के आंदोलन रूप कार्य को देखकर अनुमान से होती है, तथा दूरदेशान्तर में अभिव्यंजक वायु विना शब्दोपलब्धि की अनुपपत्ति से भी उस वायु की प्रतीति होती है-इस प्रकार तीन प्रमाण से वह अभिव्यंजक वायु प्रतीतिसिद्ध है / इस वायु का धक्का लगने पर वर्ण श्रोत्र और तदुभय का आवारक वायु हठ जाने से वर्णों की अभिव्यक्ति होती है / .. [वर्णसंस्कारपक्ष में शब्द अनित्यत्व प्राप्ति ] उत्तरपक्षी- वर्ण संस्कार को यदि अभिव्यक्ति मानी जाय तो यह भी मानना होगा कि आवारक वायु से वर्ण की विज्ञानोत्पादक शक्ति का प्रतिघात होने के कारण मध्यकाल में वर्ण ज्ञानोत्पादक नहीं होता है / उस शक्ति और वर्ण दोनों का किंचिद् अभेद भी मानना होगा / कारण, यदि उस .वर्ण से उसका एकान्त भेद मानेंगे तो भिन्न शक्ति से वर्ण का कोई भला न होने से 'वर्ण की शक्ति' Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 व्यंजकेनापि शक्तिप्रतिबन्धापनयनद्वारेण विज्ञानजननशक्त्याविर्भावन वर्णस्वरूपमेवाविर्भावितं भवतीति कथं न वर्णस्य व्यंजकजन्यत्वम् ? व्यंजकावाप्तविज्ञानजननस्वरूपो वर्णो यदि तेनैव स्वरूपेणावतिष्ठते तदा सर्वदा तदवभासिज्ञानप्रसंगः, सर्वदा तज्जननस्वभावस्य भावात् , 'सहकार्यपेक्षा च नित्यस्य न भवति' इति प्रतिपादयिष्यामः। अजनने वा न तत्स्वभावतेति प्रथममाप ज्ञान न यो हि यन्न जनयति न स तज्जननस्वभावः यथा शालिबी यवांकुरमजनयन्न तज्जननस्वभावम् / न जनयति च वर्णो व्यंजकाभिमतवाय्वभिव्यक्तोऽपि सर्वदा स्वप्रतिभासिज्ञानमिति न सर्वदा तज्जननस्वभावः / तत्स्वभावाभावे चोत्तरकालं तदेवाऽनित्यत्वमिति व्यर्थमभिव्यक्तिकल्पनम् / ___ अपि च, वर्णाभिव्यक्तिपक्षे कोष्ठ्येन वायुना यावद्वेगमभिसर्पता यावान् वर्णविभागोऽपनीतावरणः कृतस्तावत एव श्रवणं स्यात् न समस्तस्य वर्णस्येति खंडशस्तस्य प्रतिपत्तिः स्यात् / अथ वर्णस्य इस प्रकार का षष्ठी विभक्ति से प्रतिपाद्य सम्बन्ध घटित नहीं होगा। यदि भिन्न शक्ति से वर्ण का कुछ उपकार माना जाय तो उपकार करने वाली शक्ति में उपकारानुकूल अन्य शक्ति माननी पड़ेगी, ये दोनों शक्तियों में एकान्त भेद होने पर नयी नयी शक्ति की कल्पना का अन्त ही नहीं आयेगा। भेद न मान कर अभेद माने तो प्रथम शक्ति को ही वर्ण से किंचिद् अभिन्न मानना होगा जिससे अनवस्था आपादक परम्परा मानने का व्यर्थ परिश्रम न करना पडे / फलित यह हुआ कि आवारक वायु से जिस शक्ति का प्रतिघात किया जाता है वह शक्ति अपने आश्रय वर्ण से यदि किंचिद् अभिन्न मानते हैं तो शक्ति के प्रतिघात से अब तदभिन्न वर्ण स्वरूप का भी कुछ प्रतिघात यानी नाश सिद्ध हो गया तो फिर वर्ण में अनित्यता का प्रसंग क्यों नहीं होगा ? [व्यंजक वायु से वर्णस्वरूप का आविर्भाव-जन्म ] यह भी सोचिये कि जब विज्ञानोत्पादन शक्ति के प्रतिबन्ध को दूर करने द्वारा व्यंजक से जब विज्ञानजननशक्ति का आविर्भाव किया जाता है तो उससे तिरोभूत वर्णस्वरूप का ही आविर्भाव हुआ तो फिर व्यंजक से वर्णस्वरूप का आविर्भाव यानी दूसरे शब्दों में जन्म ही हआ यह क्यों न माने ? नाश भी इस प्रकार मानना होगा--व्यंजक सांनिध्य में वर्ण को विज्ञानजनन स्वरूप एक बार प्राप्त हो जाने के बाद वह वर्ण यदि उसी स्वरूप में सदा अवस्थित रहेगा तो सतत उस वर्ण का अवभास होता ही रहेगा / कारण, विज्ञानजननस्वभाव सार्वदिक हो गया है। 'सहकारी कदाचित् अनुपस्थित रहने के कारण सततावभास का प्रसङ्ग नहीं होगा' यह नहीं कह सकते क्योंकि 'नित्य पदार्थ को कभी सहकारी की अपेक्षा नहीं रहती' यह आगे दिखाया जायेगा। इसलिये सततावभासापादक 'उस स्वरूप से वर्ण की अवस्थिति' को नहीं मान सकेंगे तब उस स्वरूप से वर्ण का नाश नहीं मानोगे तो कहाँ जाओगे? व्यंजक के रहने पर भी यदि वर्ण को विज्ञान जननस्वभाव नहीं मानेंगे तो प्रथम ज्ञान की भी उत्पत्ति न हो सकेगी। यह नियम है कि 'जो जिसको उत्पन्न नहीं करता वह तज्जननस्वभाव नहीं होता। जैसे शालिबीज जव के अंकुर को उत्पन्न नहीं करता तो शालिबीज जवांकुरजननस्वभाव भी नहीं होता। व्यंजकत्वेन अभिमत वायू से अभिव्यक्त वर्ण भी यदि सर्वदा स्वावभासी ज्ञान उत्पन्न नहीं करता तो वह भी ज्ञानजननस्वभाव नहीं हो सकता। ज्ञानजननस्वभाव न होने पर उत्तरकाल में वह अवश्य तद्रूप से नहीं रहेगा तो वर्ण का अनित्यव ही फलित हुआ यानी अभिव्यक्ति की कल्पना व्यर्थ हुयी। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्व० 151 निरवयवत्वादेकत्रोत्सारितावरणः सर्वत्रापनीतावरणः इति नायं दोषस्तहि निविभागत्वादेवकत्रापनीतावरणः सर्वत्र तथेति मनागपि श्रवणं न स्यात् / सर्वत्र सर्वात्मना वर्णस्य परिसमाप्तत्वात् सामस्त्येन श्रवणाभ्युपगमे वर्णस्याऽव्यापकत्वं अनेकत्वं च दुनिवारम् / यदि चैकत्राऽभिव्यक्तो निविभागत्वेन सर्वत्राभिव्यक्तस्तदा सर्वदेशावस्थितस्तस्य श्रवणं स्यात् / यदप्युच्यते-यथैवोत्पद्यमानोऽयमुत्पत्तिवादिनां पक्षे दिगादीनामविभागादविभक्तदिगादिसंबंधित्वेन स्वरूपेणाऽसर्वगतोऽपि सर्वान प्रति भवन्नपि न सर्वैरवगम्यते, किन्तु यच्छरीरसमीपवर्ती वर्ण उत्पनस्तेनैवाऽसौ गृह्यते तथाऽस्मत्पक्षेऽपि स्वतः सर्वगतोऽपि वर्णो न सर्वैर्दू रस्थैरवगम्यते किन्तु यच्छरीरसमीपस्थोऽभिव्यक्तस्तैरेवेति व्यंजकध्वनिसंनिधानाऽसंनिधानकृतं वर्णस्य श्रवणम् प्रश्रवणं च युक्तम् / एतदेवाह-[ श्लो० वा० 6/84-85 ] यथैवोत्पद्यमानोऽयं न सर्वैरवगम्यते // दिग्देशादिविभागेन सर्वान् प्रति भवन्नपि / तथैव यत्समीपस्थैदिः स्याद्यस्य संस्कृतिः // तैरेव गृह्यते शब्दो न दूरस्थैः कथंचन / इति तदपि प्रलापमात्रम् - - [ अभिव्यक्ति पक्ष में खंडित शब्द प्रतीति आपत्ति ] अभिव्यक्ति पक्ष में खंडशः बोध की भी आपत्ति होगी जैसे-कोष्ठीय वायू वेग पूर्वक जहाँ तक प्रसरेगा उतना वर्ण विभाग ही अनावृत होगा तो श्रवण भी उतने विभाग का ही होगा, संपूर्ण वर्ण का श्रवण नहीं होगा, तो खण्डित वर्ण की ही प्रतीति होगी, अखण्ड की नहीं। अभिव्यक्तिवादी:-वर्ण यह निरंश वस्तु होने से किसी एक भाग में आवरण के हठ जाने पर समस्त वर्ण ऊपर से आवरण हट जायेगा इस लिये खण्डित प्रतीति का दोष नहीं है। उत्तरपक्षी:-ओह ! तब तो किसी एक भाग में आवरण के रह जाने पर समस्त वर्ण ऊपर आवरण रह जाएगा चूंकि वर्ण स्वयं निरंश है, तो लेशमात्र भी वर्ण का श्रवण न होगा। यदि यह मानेंगे कि-'वर्ण सर्वत्र संपूर्ण रूप से परिसमाप्त यानी अभिव्याप्त है-कोई खूणा ऐसा नहीं है जहाँ वह संपूर्णतया अवस्थित न हो / इस लिये जिस जिस भाग में आवरण दूर होगा वहाँ संपूर्ण ही वर्ण की उपलब्धि होगी।'-तो इसमें वर्ण में अनेकता की आपत्ति का निवारण न होगा क्योंकि कोणे में एक एक अलग संपूर्ण वर्ण की तब उपलब्धि होगी वह वर्ण को एक मानने पर अशक्य है। यह भी नहीं कह सकते कि-"आवरण का अपसारण किसी एक में होने पर भी उस भाग में अभिव्यक्त वर्ण पुणरूप से सर्वत्र ही अभिव्यक्त हो जाता है. आंशिक रूप से किसी एक भाग में नहीं क्योंकि वर्ण का कोई अंश ही नहीं है ।"-क्योंकि ऐसा मानने पर तो बोलने वाला कहीं भी बोलेगा तो पूरे ब्रह्माण्ड में रहे हुये सर्व लोगों को वह सुनाई देने की आपत्ति आयेगी। यह भी जो आप कहना चाहते है वह सब प्रलाप तुल्य है - [उत्पत्ति-अभिव्यक्ति पक्ष में समानता का उद्भावन-शंका ] "उत्पत्तिवादीओं के पक्ष में शब्द उत्पन्न होता है तो वह यद्यपि स्वरूप से सर्वगत नहीं होता किन्तु जिन दिशाओं में वह उत्पन्न हुआ है उन दिशाओं का कोई विभाग-अंश नहीं है, दिशा सर्वत्र व्यापक हैं, तो अविभक्त दिशादिसंबंधी होने के कारण वह सर्व दिशाओं में रहे हुए श्रोताओं के लिये Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यतो यदि व्यंजका वायवो यत्रैव संनिहितास्तत्रैव वर्णसंस्कारं कुर्युस्तदा स्यादप्येतत् , किंतु तथाभ्युपगमे वर्णस्य सावयवत्वम् अनभिव्यक्तस्वरूपादभिव्यक्तस्वरूपस्य च भेदादनेकत्वं च स्यात् / सर्वात्मना तु संस्कारे यच्छरीरसमीपस्थैर्नादः स्याद् यस्य संस्कृतिः। तैर्यथा श्रयते शब्दस्तया दूरगतैर्न किम् ? / [ ] उत्पत्तिपक्षे तु अव्यापकत्वाद् यत्समीपवर्ती वर्ण उत्पन्नस्तेनैवासौ गृह्यते न दूरस्थरिति युक्तम् / 'दिग्देशाद्यविभागेन' इति चातीवाऽसंगतम् , अविभागस्य कस्यचिद् वस्तुनोऽसंभवेनानभ्युपगमात् / __किंच, व्यापकत्वेन वर्णानामेकवर्णाऽऽवरणापाये समानदेशत्वेन सर्वेषामनावृतत्वाद् युगपत सर्ववर्णश्रुतिश्च स्यात् / अथापि स्यात् प्रतिनियतवर्णश्रवणान्यथानुपपत्त्या व्यंजकभेदसिद्धेः प्रतिनियतसाधारण हो जाता है / इस प्रकार सर्व के प्रति साधारण होने पर भी वह सर्व को नहीं सुनाई देता किन्तु जिस देह के निकट वर्ण उत्पन्न हआ हो, केवल उस देही को ही वह सुनाई देता है / उसी प्रकार हमारे अभिव्यक्तिपक्ष में भी वर्ण जो कि दिकसंबंधी होने के कारण नहीं किंतु स्वतः ही सर्वगत है, फिर भी वर्ण सभी को नहीं सुनाई देता किन्तु जिस देही के निकट में वह अभिव्यक्त होता है उनको ही वह सुनाई देता है। इस प्रकार अभिव्यंजक ध्वनियों का सांनिध्य और असांनिध्य ही वर्ण के श्रवणअश्रवण का प्रयोजक है-यह युक्त है। हमारे कुमारिल भट्टने भी यही कहा है-[ उत्पत्तिपक्ष में ] उत्पन्न होता हुआ भी शब्द जैसे दिग् आदि का कोई विभाग न होने के कारण सर्व प्रति साधारण होता हुआ भी सर्व को नहीं सुनाई देता। उसी प्रकार [ अभिव्यक्ति पक्ष में ] श्रोता के समीप उत्पन्न नादों से जिसको संस्कार होता है उसको ही वह सुनाई देता है-दूर रहे हुए सभी को नहीं / [वर्ण में सावयवत्व और अनेकत्व की आपत्ति-उत्तर ] अभिव्यक्तिवादी का यह कथन प्रलापतुल्य इसलिये है कि-अभिव्यंजक वायुओं जिनके निकट में होंगे वहाँ ही वर्णसंस्कार निष्पन्न करे ऐसा होने पर तो वह कथन टीक था, किन्तु ऐसा मानने पर वर्ण को सावयव मानना पडेगा क्योंकि वर्ण व्यापक है और संस्कार समग्र वर्ण में न होकर किसी नियत अंश में ही है-यह निरंश वस्तु में नहीं हो सकता। तथा अमूक देश में वर्ण अभिव्यक्ति और अन्य देश में अनभिव्यक्ति इस प्रकार वर्णस्वरूप में भेद आपन्न होने से वर्ण अनेक हो जायेंगे तो वर्ण के एकत्ववाद का भंग होगा। किसी नियत अंश में वर्ण का संस्कार न मानकर सर्वात्मना यानी अखण्ड वर्ण में संस्कार मानेंगे तो जिस देही के निकट में रहे हये नादों से जिसका संस्कार होता है उसको जैसे शब्द सुनाई देता है वैसे दूर रहे हुए को भी क्यों नहीं सुनाई देता? [ संस्कार तो अखण्ड वर्ण में सर्वत्र होने का मानते हैं ] / उत्पत्तिपक्ष में-वर्ण व्यापक नहीं है इसलिये जिसके श्रोत्र के निकट वर्ण उत्पन्न होता है उसी को श्रवण होता है दूर रहे हुये सज्जनों को नहीं होता है-यह घट सकता है। दिग्-देश आदि का 'विभाग न होने से अविभक्तदिग् संबंधी होने के कारण वर्ण सर्व के प्रति साधारण होता है' यह जो आपने कहा वह तो अत्यन्त अयुक्त है। क्योंकि दिग् आदि किसी पदार्थ का [ जैन मत में ] संभव न होने से स्वीकार्य नहीं है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-शब्दाऽनित्यत्व० 153 व्यंजकैः प्रतिनियताऽऽवारकनिराकरणद्वारेण प्रतिनियतवर्णसंस्काराद न युगपत्सर्ववर्णश्रुतिदोषः / स्यादेतद् यदि व्यंजकानां वायूनां भेदः स्यात् , स चाऽऽवारकभेदनिबन्धनः, अन्यथा तदभेदेऽभिन्नावारकापनेतृत्वेन कुतो व्यञ्जक भेदः ? आवारकभेदोऽपि वर्णदेशभेदनिबन्धनः, अन्यथा समानदशानां यदेबैकस्यावारकं तदेवापरस्यापि इत्यावारकभेदो न स्यात् / देशभेदोऽपि वर्णानामव्यापकत्वे सति स्यात , व्यापकत्वे तु परस्परदेशपरिहारेण वर्णानामवस्थानाभावान्न देशभेदः। न चाऽव्यापकत्वं वर्णानामभ्युपगम्यते भवद्भिरिति न देशभेदः, तदभावान्नावारकभेदः, तदसत्त्वान्न व्यंजकभेद इति युगपत्सर्ववर्णश्रुतिरिति तदवस्थो दोषः। नापि "आवारकाणां न वर्णपिधायकत्वेनावारकत्वं किन्तु वर्णे दृश्यस्वभावखंडनात् / व्यंजकानामपि न तदावारकापनेतृत्वेन व्यंजकत्वं किन्तु वर्णे दृश्यस्वभावाधानात् , इति पूर्वोक्तदोषाभाव" इति वक्तु शक्यम् , यत एवमभिधाने स्ववाचैव तस्य परिणामित्वमभिहितं स्यादित्यविप्रतिपत्तिप्रसंगः। तन्न वर्णसंस्कारोऽभिव्यक्तिरिति पक्षो युक्तः / [ सकल वर्गों का एक साथ श्रवण होने की आपत्ति ] यह भी सोचिये कि- सभी वर्ण व्यापक हैं एवं समानदेशवर्ती भी हैं- तो एक वर्ण का आवरण यदि दूर होगा तो सभी क ख आदि वर्गों का आवरण दूर हो जाने से एक साथ सभी वर्गों का श्रवण होने की आपत्ति आयेगी / अब यदि यह आशंका करें कि- “एक साथ सभी वर्ण का श्रवण नहीं होता किंतु प्रतिनियत देश आदि में ही प्रतिनियत वर्णादि का श्रवण होता है, यह तभी घट सकता है जब व्यंजकों में भेद माना जाय / व्यंजकभेद इस प्रकार सिद्ध होने पर प्रतिनियत व्यंजक से प्रतिनियत वर्ण के आवारक वायु का ही अपसारण होने से प्रतिनियत वर्ण का ही संस्कार होगा और वही वर्ण सुनाई देगा। इस प्रकार एक साथ सभी वर्गों के श्रवण का दोष नहीं होगा। यह आशंका तभी हो सकती अगर व्यंजक वायुओं का भेद मूलतः सिद्ध होता / किंतु आपके कथनानुसार तो वह आवारकभेदमुलक फलित होता है, क्योंकि यदि आवारक वाय एक ही होगा तो एक ही * "व्यंजक से एक आवरण का अपसारण हो जाने पर व्यंजकभेद कैसे सिद्ध होगा? आवारकभेद भी वर्णदेशभेदमूलक ही मानना होगा, अन्यथा सभी वर्ण का यदि एक ही देश मानेंगे तो एक वर्ण का जो आवारक होगा वही अन्य वर्गों का आवारक होगा तो आवारक भेद नहीं हो सकेगा। वर्णों का देशभेद भी वर्गों के अव्यापक मानने पर ही घट सकता है। व्यापक वर्ण होने पर एक-दूसरे के देश को छोडकर वर्णों का अवस्थान होना चाहिये वह नहीं होगा, तो देशभेद नहीं मान सकेंगे / अब आप वर्णों को व्यापक तो मानते नहीं है तो देशभेद नहीं होगा, उसके न होने पर आवरणभेद न होगा, उसके न होने पर व्यंजक भेद भी नहीं माना जा सकेगा, तो एक साथ सभी वर्गों के श्रवण का दोष तदवस्थ ही रहता है। [शब्द में श्रव्य स्वभाव का मर्दैन और आधान मानने में परिणामवाद प्राप्ति ] यह भी नहीं कहा जा सकता कि- “आवारक वायु वर्गों का पिधान यानी ढक्कन बनकर उनका आवारक नहीं है किन्तु वर्ण का जो प्रत्यक्षयोग्यस्वभाव है उस का मर्दन कर देते हैं इसलिये आवारक हैं / एवं व्यंजक वायु आवरण का अपसारण करते हैं इसलिये वे व्यंजक नहीं है में प्रत्यक्षयोग्यस्वभाव का आधान करने से वे व्यंजक कहे जाते हैं। इस प्रकार कोई भी Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नापि श्रोत्रसंस्कारोऽभिव्यक्तिरिति पक्षो युक्तः / तस्मिन्नपि पक्षे सकृत् संस्कृतं श्रोत्रं सर्ववर्णान् युगपत् श्रुणुयात् / न हि अंजनादिना संस्कृतं चक्षः संनिहितं स्वविषयं किंचित् पश्यति किचिन्नेति दृष्टम् / अथ व्यंजकानां वायनां भिन्नेष कर्णमलावयवेष वर्तमानानां संस्काराधायकत्वेनापित्त्या प्रतिनियतवर्णश्रवणान्यथानुपपत्तिलक्षणया प्रतिनियतवर्णग्राहकत्वेन संस्काराधायकत्वस्य प्रतीतेनेकवर्णग्राहकत्वेन संस्कृतं श्रोत्रं सर्ववर्णान् युगपद् गृह्णाति इति।। तथाहि-वायवीयशब्दपक्षे यथा गकारादेनिष्पत्त्यर्थं प्रयत्नप्रेरितो वायुनयिं वर्णमुत्पादयति तथाऽस्मत्पक्षेऽप्यन्यवर्णग्राहकश्रोत्रसंस्कारे समर्थो नाऽन्यवर्णग्राहकश्रोत्रसंस्कारं विधास्यति / येषां तु ताल्वादिसंयोग-वियोगनिमित्तः शब्द इति पक्षः तेषां यथाऽन्यगकारादिजनकः संयोग-विभागै न्यो वर्णो जन्यते तथाऽस्मत्पक्षेऽपि नान्यवर्णग्राहकश्रोत्रसंस्काराधायकव्यंजकप्रेरकैरन्यवर्णग्राहकश्रोत्रसंस्काराधायकवायुप्रेरणं क्रियत इत्युत्पत्त्य-भिव्यक्तिपक्षयोः कार्यदर्शनान्यथानुपपत्त्या समः सामर्थ्य भेदः प्रयत्नविवक्षयोः सिद्धः। पूर्वोक्त दोष को अवकाश नहीं।"-ऐसा कहने पर तो आपने अपनी जबान से ही शब्द में स्वभाव परिवर्तनस्व रूप परिणामित्व का स्वीकार लिया, फिर तो कोई विवाद ही नहीं रहता / सारांश, / आभव्यक्ति का पक्ष असंगत है, क्यों कि अन्ततः उत्पत्ति में ही उसका पर्यवसान फलित होता है। [ श्रोत्रसंस्कारस्वरूप अभिव्यक्ति पक्ष की समीक्षा ] व्यंजक वायुओं से श्रोत्र का संस्कार होता है-यह पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं है / इस पक्ष में भी यह आपत्ति है कि एक बार श्रोत्र का संस्कार हो जाने पर सभी वर्ण एक साथ ही सुनाई देंगे। ऐसा नहीं देखा गया कि नेत्र में अंजनादि लगाने पर निकट में अवस्थित अपना एक विषय तो देखने में आवे और दूसरा न आवे। [श्रोत्रसंस्कारवादी का विस्तृत अभिप्राय ] . संस्कारवादी:-श्रोत्र संस्कार पक्ष में, भिन्न-भिन्न कर्णमूल के अवयवों में रहे हुए व्यंजक वायु श्रोत्र के संस्कार कर्ता हैं, व्यंजकवायु सर्ववर्णों का ग्रहण एक साथ हो जाय इस प्रकार के संस्कार का आधान नहीं करते किंत प्रतिनियत वर्ण का ग्रहण हो इसप्रकार के ही श्रोत्र संस्कार का आधान करते हैं, क्योंकि इसप्रकार न माने तो वर्णों का एक साथ श्रवण न होकर प्रतिनियत वर्ण का ही श्रवण होता है यह बात नहीं घटेगी। इस अर्थापत्ति से होने वाली प्रतिनियत वर्णग्रहणानुकुल श्रोत्रसंस्कार को प्रतीति से यह कहा जा सकता है कि एकवर्णग्राहकरूप में ही श्रोत्र का संस्कार होने पर सर्ववर्णों का एक साथ ग्रहण होने की आपत्ति नहीं है / [एकसाथ सकलवर्णश्रवणापत्ति का प्रतिकार ] एक साथ सभी वर्गों के ग्रहण की अनापत्ति इस प्रकार है-जो सज्जन विद्वान् शब्द को वायु परिणामरूप मानते हैं उनके मत में गकारादि उच्चारण के लिये किये गये प्रयत्न से प्रेरित वायु से जैसे अन्य ककारादि वर्णोत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार हमारे मत में भी एक वर्ण का ग्रहण कराने वाले श्रोत्रसंस्कार करने में समर्थ व्यंजक जो वाय होता है वह किसी अन्य वर्ण ग्रहण कराने वाले श्रोत्रसंस्कार को नहीं करता है / जो विद्वान् शब्द को तालु आदि स्थानों में वायु के संयोग Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-शब्दाऽनित्यत्व० 155 अतश्च यदुक्तं कैश्चित्-"समानेन्द्रियग्राह्य ध्वर्थेषु व्यंजकेषु न दृष्टो नियमः" इति-एतदयुक्तम् , अर्थापत्तदृष्टान्तानपेक्षत्वात / दृष्टश्च तैलाभ्यक्तस्य मरीचिभिः, भूमेस्तुदकसेकेन गन्धाभिव्यक्ति कथं न व्यंजकनियमः? तदुक्तम् [ श्लो० वा० सू० 6 ] व्यंजकानां हि वायूनां भिन्नावयवदेशता / [79 उत्तरार्द्धम् ] जातिभेदश्च तेनैव संस्कारो व्यवतिष्ठते / अन्यार्थ प्रेरितो वायुर्यथान्यं न करोति वः // 50 // तथान्यवर्णसंस्कारशक्तो नान्यं करिष्यति / अन्यस्ताल्वादिसंयोगै न्यो वर्णो यथैव हि // 1 // तथा ध्वन्यन्तराक्षेपो न ध्वन्यन्तरसारिभिः / तस्मादुत्पत्त्यभिव्यक्त्योः कार्यार्थापत्तितः समः // 82 // सामर्थ्यभेदः सर्वत्र स्यात् प्रयत्न-विवक्षयोः॥८३ पूर्वार्द्ध // इति / एतदसम्बद्धम्-इन्द्रियसंस्कारकाणां व्यंजकानां समानदेश-समानेन्द्रियग्राह्य ष्वर्थेषु प्रतिनियतविषयग्राहकत्वेनेन्द्रियसंस्कारकत्वस्य कदाचिददर्शनात् / नह्य जनादिना संस्कृतं चक्षुः संनिहितं स्वविषयं विभाग से शब्द की उत्पत्ति मानते हैं, उन के मत में एक गकारादि वर्ण के जनक संयोगविभागों से जैसे अन्य वर्ण की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार हमारे पक्ष में भी एक वर्ण ग्रहण कराने वाले श्रोत्र संस्कार के आधायक व्यंजक वायु का प्रेरक प्रयत्न अन्य वर्ण ग्रहण कराने वाले श्रोत्र संस्कार के आधायक व्यंजक वाय को आंदोलित नहीं करता है। इस प्रकार कार्यदर्शन की अनूपपत्ति से उत्पत्ति पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष में प्रयत्न और विवक्षा का भिन्न-भिन्न सामर्थ्य तुल्यरूप से सिद्ध होता है। [व्यंजक का स्वभाव विचित्र होता है ] उपरोक्त हेतु से, यह जो किसी ने कहा है- [वह भी युक्त नहीं है-] “एक इन्द्रिय से ग्राह्य अर्थों और व्यंजकों- इन का कोई नियम नहीं होता [कि अमुक व्यंजक से अमुक ही अर्थ का ग्रहण हो, अन्य का नहीं ]''-यह अयुक्त है-कारण, अर्थापत्ति से जो सिद्ध होता है उस में कोई भी दृष्टान्त साधक या बाधकरूप अपेक्षित नहीं होता। क्योंकि यह भी देखा जाता है कि तैलाभ्यंगन करने के बाद उसके गन्ध की अभिव्यक्ति मिरचे को छिडकने से होती है जब कि भूमि के गन्ध की अभिव्यक्ति जल के छिडकने से होती है, दोनों का गन्ध एक ही घ्राणेन्द्रिय से ग्राह्य है फिर भी अर्थ और व्यंजक का नियत भेद दिखा जाता है तो उन का नियम क्यों नहीं है ? श्लोकवात्तिक [सू० 6] में भी कहा है व्यंजक वायुओं का देश भिन्न-भिन्न अवयव हैं / तथा उनमें जातिभेद भी है, इसीसे संस्कार की व्यवस्था होती है / जैसे आपके मत में एक वर्ण के लिये प्रेरित वायु अन्य वर्ण को उत्पन्न नहीं करता। ऐसे ही अन्य वर्ण के संस्कार में समर्थ [प्रयत्न अन्य वर्ण को उत्पन्न नहीं करेगा। जैसे भिन्न तालु आदि के संयोग से भिन्न वर्ण उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार अन्य ध्वनि [नादवायु] का आक्षेपण अन्य ध्वनिजनकों से नहीं होता / अतः कार्य की अर्थापत्ति से उत्पत्ति-अभिव्यक्ति पक्ष में प्रयत्न और विवक्षा का सामर्थ्य भेद सर्वत्र समान ही है। [इन्द्रियसंस्काराधायक व्यंजकों में वैचित्र्य नहीं है-उत्तर पक्ष ] संस्कारवादी का पक्ष सम्बन्धविहीन है / इन्द्रिय संस्कार करने वाले व्यंजक वायु, समानदेशवर्ती समानेन्द्रिय से ग्राह्य अर्थों में प्रतिनियत किसी दो चार विषय का ही ग्रहण हो इस प्रकार का Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 किंचित् पश्यति, किंचिन्नेत्युपलब्धम् / तथा बाधिर्यनिराकरणद्वारेण बलातैलादिना संस्कृतं श्रोत्रं स्वग्राह्यान् गकारादीन् वर्णान विशेषेणैवोपलभमानमुपलभ्यते / एवं घ्राणादीनीन्द्रियाणि स्वव्यंजकैः संस्कृ. तानि स्वविषयग्राहकत्वेनाविशेषेण प्रवर्त्तमानानि प्रतीयन्त इति प्रकृतेऽप्ययमेव न्यायो युक्तः / किंच, इन्द्रियं संस्कुर्वद् व्यंजकं यदि यथावस्थितवर्णग्राहकत्वेनेन्द्रियसंस्कारं विदध्यात् तदा सकलनभस्तलव्यापिनी गादेः प्रतिपत्तिः स्यात, न चासो दृष्टा, प्रथाऽन्यथा न तोहवणस्वरूपप्रातभास इति न तत्स्वरूपसिद्धिः। तन्न श्रोत्रसंस्कारोऽभिव्यक्तिः / नाप्युभयसंस्कारोऽभिव्यक्तिः, प्रत्येकपक्षोक्तदोषप्रसंगात् / न चान्यप्रकारः संस्कारोऽभिव्यक्तिः संभवति, तद् अभिव्यक्तेरसंभवाद् नानभिव्यक्तिनिमित्तोऽन्तराले गादीनामनुपलम्भः, किन्तु दलितनखशिखरादिष्विवाभावनिमित्तः-इति लुनपुनर्जातनखादिष्विवापान्तरालादर्शनेन गादिप्रत्यभिज्ञाया बाध्यमानत्वादप्रामाण्यम्। अथ खंडितपुनरुदितकररुहसमूहविषयाया अपि प्रत्यभिज्ञायास्तत्सामान्यविषयत्वेन नाऽप्रामाही संस्कार इन्द्रियों पर करें, ऐसा कभी देखा नहीं गया है / अंजनादि लगाने पर नेत्रेन्द्रिय निकटवर्ती कोइ एक अपने विषय का ग्रहण करे और तत्समान अन्य का न करे ऐसा देखने में नहीं आया है / एवं वलातैलादि से संस्कृत श्रोत्र बधिरता को दूर करने द्वारा स्वग्राह्य गकारादि सभी वर्गों को विना कोई पक्षपात सुन लेता है-यह स्पष्ट दिखाई देता है / तथा, अपने अपने व्यंजकों से परिष्कृत घ्राणादि इन्द्रिय, विना किसी पक्षपात से अपने विषयों के ग्राहकरूप में प्रवर्तती हुयी दिखाई देती हैं, इसलिये प्रस्तुत में भी यही न्याय स्वीकार लेना युक्त है। दूसरी बात यह है कि-इन्द्रिय संस्कार करने वाला व्यंजकवायु अगर यथार्थरूप में वर्ण को ग्रहण करने में सशक्त ऐसे इन्द्रियसंस्कार को जन्म देगा तो समस्त ब्रह्माण्ड व्यापक गकारादि वर्ण का बोध होने लगेगा। किन्तु ऐसा कभी देखा नहीं है / तथा यदि यथार्थ रूप में वर्णग्रहणसशक्त संस्कार को जन्म नहीं देगा तो वर्णस्वरूप का अवभास ही नहीं हो सकेगा। फलत: कोई स्वरूप ही वर्ण का सिद्ध नहीं होगा। सारांश, अभिव्यक्ति श्रोत्रसंस्कार रूप भी नहीं है। . [ उभय संस्कारस्वरूप अभिव्यक्ति की अनुपपत्ति ] तथा 'वर्ण और श्रोत्र तदुभय का संस्कार अभिव्यक्ति है' यह भी नहीं हो सकता क्योंकि उभय पक्ष में प्रयुक्त दोषों का प्रवेश इस पक्ष में हो जायगा। अन्य किसी प्रकार से संस्कार स्वरूप अभिव्यक्ति का कोई संभव भी नहीं है, तो इस प्रकार किसी भी रीति से अभिव्यक्ति पक्ष उचित न होने से गकारादि का दो उच्चारण काल के मध्य में अनुपलम्भ उसकी अनभिव्यक्ति के कारण नहीं माना जा सकता। किंतु यही मान लेना चाहिये कि उस काल में उसका अभाव होता है जैसे कि नख के अग्र भाग को एक बार काट देने पर कुछ काल तक उसके अदर्शन में उसका अभाव ही निमित्त होता है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि गकारादि की पुनरुक्ति में 'यह वही गकार है' ऐसी जो प्रत्यभिज्ञा होती है वह प्रमाण नहीं किन्तु भ्रान्त है, जैसे कि मध्यकाल में न देखने के बाद पुनर्जात नख को देख कर भी यह प्रतीति होती है कि 'यह वही नख है'-किन्तु वह भ्रान्त होती है। [शब्दएकत्व प्रत्यभिज्ञा में बाधाभाव की आशंका ] नित्यवादीः- बार बार काट देने पर नये नये उगने वाले नखादि के समूह को विषय करने Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दाऽनित्यत्व० 157 ण्यम् , तस्यास्तद्विषयतयाऽबाध्यमानत्वात् / न चायं प्रकारो गादिविषयप्रत्यभिज्ञायाः सम्भवति, तथा भूतकेशादिष्विव गादिभेदविषयाबाधितप्रतिभासाभावेन तद्भेदाऽसिद्धौ ‘समानानां भावः सामान्यम्' इति कृत्वा तत्र सामान्यस्यैवाऽसम्भवात् / असदेतत् गादिष्वपि 'पूर्वोपलब्धगादेः सकाशाद् अयमल्पः, महान् , कर्कशः, मधुरो वा गादिः' ' इत्यबाधिताक्षजप्रतिभाससद्भावेन भेदनिबन्धनसामान्यसंभवस्य न्यायानुगतत्वात् / न च यथा तुरगजवस्य पुरुषेऽध्यारोपात् 'पुरुषो याति' इति प्रत्ययः व्यपदेशश्च तथा व्यंजकध्वनिगतस्याल्पककशादेर्गादावुपचारात् तथाप्रत्ययः व्यपदेशश्चेत्यभ्युपगंतु शक्यम्-तथाऽभ्युपगमे वाहीके गोप्रत्ययवद् गादिप्रत्ययस्य भ्रान्तत्वेन गादिस्वरूपाऽसिद्धिप्रसंगात् / न हि भ्रान्तप्रत्ययसंवेद्या द्विचन्द्रादयः स्वरूपसंगतिमनुभवन्ति / न चाल्पमहत्त्वप्रत्यययोन्तित्वेऽल्पमहत्त्वे एव गादिविषये अव्यवस्थितस्वरूपे न पुनर्गादिका वर्णः, तत्प्रत्ययस्याऽभ्रान्तत्वात्, न चाऽन्यविषयप्रत्ययस्य भ्रान्तत्वेऽन्यस्य तथाभावोऽतिप्रसंगादिति वक्तु युक्तम् / यतो यद्यल्पमहत्त्वादिधर्मव्यतिरिक्तस्य गादेद्वित्वरहितस्येव निशीथिनीनाथस्य प्रत्ययविषयत्व स्यात् तदैव तद् युज्येताऽपि वक्तु, न च स्वप्नेऽपि तद्धर्मानध्यासितो गादिः केनचित् प्रतीयत इति कथं तस्य महत्त्वादिधर्मरहितस्य स्वरूपव्यवस्था ? वाली प्रत्यभिज्ञा उस समुदाय में रहे हुए सामान्य नखत्व आदि को विषय करती है और वह सामान्य एक होने से ऐक्य ग्राहक प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य की उपपत्ति कर सकते हैं क्योंकि उस सामान्य को प्रत्यभिज्ञा का विषय मानने में कोई बाध नहीं है। किन्तु इस प्रकार से गकारादि प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य को उपपत्ति नहीं की जा सकतो / कारण, सामान्य से अनुविद्ध भिन्न भिन्न केशादि की जैसे अबाधित प्रतीति होती है वैसे गकारादि के भेद को विषय करने वाला कोई अबाधित अनुभव नहीं होता। अतः उनका भेद भी सिद्ध नहीं होता। जब भेद सिद्ध नहीं है तो उनमें सामान्यतत्त्व होने का भी संभव नहीं है क्योंकि व्यक्ति अनेक होते हुए समान होने पर 'समानों का भाव-सामान्य' इस प्रकार के सामान्य का उसमें संभव हो सके, किन्तु यहाँ गकारादि की अनेकता यानी भेद असिद्ध होने से उनमें सामान्य की सिद्धि नहीं होगी। तो सामान्यविषयक मानकर गकारादि की प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य का उपपादन नहीं होगा। [फलत: गकारादि को एकमात्र व्यक्तिरूप मानकर उसकी प्रत्यभिज्ञा को प्रमाण मानना ही होगा।] [गकारादि वर्ण में भेदप्रतीति निधि है--उत्तर पक्ष ] नित्यवादी का पूर्वोक्त कथन अयुक्त है। कारण, केशादि में भेदप्रतीति होती है वैसे गकारादि में भी-'पूर्व में श्रुत गकारादि से यह अल्प [ घनता वाला ] है, अथवा महान् है, या कर्कश अथवा मधुर है' इस प्रकार भेदप्रतीति इन्द्रियों से निर्बाध होती है। तो भेदमूलक सामान्य का गकारादि में सद्भाव मानना न्याययुक्त ही है। यह नहीं मान सकते कि-'जैसे अश्व के वेग का अश्वरूढ पुरुष में अध्यारोप-उपचार करने पर 'पुरुष जा रहा है ऐसी बुद्धि या व्यवहार होता है-उसी प्रकार व्यंजक ध्वनि में अन्तर्भूत अल्पत्वकर्कशत्वादि का गकारादि में अध्यारोप होने पर 'कर्कशो गकारः' इत्यादि प्रतीति और व्यवहार हो जायेगा।' यदि ऐसा मानेंगे तो-बैलवाहक में गोबुद्धि जैसे भ्रमात्मक होती है, गकारादि बुद्धि भी Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ अत एव महत्त्वादिधर्मयुक्तस्य सर्वदा प्रतीयमानत्वाद् गादेन तद्धर्मयुक्ततया प्रतीयमानस्य उपचरितप्रत्ययविषयता / तदुक्तम्-योऽह्यन्यरूपसंवेद्यः संवेद्येतान्यथाऽपि वा। स भ्रान्तो न तु तेनैव यो नित्यमुपलभ्यते // [ ] इति / तन्न व्यंजकधर्माध्यारोपादुपचरितप्रत्ययविषत्वं तथाभूतस्य गादेः, सर्वभावानामुपचरितप्रत्ययविषयत्वेन स्वरूपाभावप्रसंगाद / न च व्यंजकस्य प्रदीपादेरल्प महत्त्वभेदाद् व्यंग्यस्य घटारेल्पमहत्त्वभेदप्रतिभासो दृष्टः। अथ व्यंजकधर्मानुकारित्वं व्यंग्ये उपलभ्यते / तथाहि-एकस्वरूपमपि मुखं खड्गे प्रतिबिम्बितं दीर्घम् , आदर्श वर्तु लम् , नीलकाचे गौरमपि श्याम, व्यंजकधर्मानुकारितया प्रतिभासविषयमुपलभ्यते इति प्रकृतेऽपि तथा स्यात् / एतदप्यसंगतम्-दृष्टान्तमात्रादर्थाऽसिद्ध:, तस्य हि साध्य-साधनप्रतिबंधसाधकप्रमाणविषयतया साध्यसिद्धावपयोगो न स्वतन्त्रस्य / अन्यथा-"एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः" [ अमृतबिंदु उ० 12-15 ] इत्यादिदृष्टान्तमात्रतोऽद्वैतवादिनोऽपि पुरुषाद्वैतसिद्ध : शब्दस्वरूपस्याप्यभावात् कस्योपचाराद् महत्त्वादिप्रतिभास इत्युच्यते ? उसी तरह भ्रान्त हो जाने से उसके स्वरूप की भी सिद्धि नहीं हो सकेगी। भ्रमात्मक बुद्धि से जब चन्द्रयूगल का दर्शन होता है तो वह चन्द्र के एकत्व स्वरूप के साथ संगतिवाला नहीं होता। ___ यदि यह कहा जाय-'गकारादि संबंधी अल्पत्व-महत्त्व की बुद्धि को हम भ्रान्त कहते हैं तो गकारादि संबद्ध अल्पत्व और महत्त्व को आप अव्यवस्थितस्वरूप वाले कह सकते हैं, किन्तु गकारादि वर्ण अव्यवस्थित स्वरूप वाला नहीं मान सकते / कारण, उसकी प्रतीति अभ्रान्त है / एक विषय की प्रतीति भ्रान्त यानी बाधित होने पर अन्य विषय प्रतीति को भ्रान्त नहीं कहा जा सकता, अन्यथ एक भ्रान्तप्रतीति के उदाहरण से सभी प्रतीतियों में भ्रान्तता मानने की आपत्ति होगी।'-तो यह कथन युक्त नहीं है क्योंकि इसको तभी युक्त मान सकते हैं जब द्वित्व रहित चन्द्र जैसे पृथक् प्रतीति का विषय होता है वैसे अल्पत्व-महत्त्वादिधर्म को छोडकर पृथक ही गकारादि की प्रतीतिविषयता सिद्ध होती / अरे ! स्वप्न में भी किसी को अल्पत्वादि से विनिर्मुक्त गकारादि की.प्रतीति नहीं होती तो फिर महत्त्वादि धर्म का परित्याग कर कैसे गकारादि वर्ण की स्वरूप व्यवस्था हो सकेगी? [गकारादि में भेदप्रतिभास उपचरित नहीं है ] महत्त्वादिधर्मविरहित गकारादि कभी भी प्रतीत नहीं होते इसीलिये महत्त्वादि धर्म संलग्न तया प्रतीत होने वाले गकारादि को उपचरित यानी भ्रान्त प्रतीति का विषय नहीं माना जा सकता क्योंकि महत्त्वादिधर्मसंलग्नतया ही सर्वदा गकारादि प्रतीत होते हैं। जैसे कि कहा है-'जिस एक रूप से जो संवेद्य होता है, यदि वह विपरीतरूप से संवेद्यमान हो तो वह भ्रान्त यानी भ्रम विषय बन जाता है, किन्तु जो हरहमेश उसी रूप से संवेद्यमान होता है वह भ्रान्त नहीं होता।' सारांश, महत्त्वादिधर्म-विशिष्ट गकारादि को व्यंजकधर्म का अध्यारोप मान कर उपचरित बुद्धि यानी भ्रमबुद्धि की विषयता मानना संगत नहीं है। अन्यथा, सकल पदार्थों के स्वरूपाभाव का अतिप्रसंग होगा क्योंकि उपचरितबुद्धिविषयता सभी में मानी जा सकती है / ऐसा कभी भी नहीं देखा गया कि व्यंजक प्रदीप-प्रकाशादि अल्प-महान् आदि भिन्न भिन्न होने पर प्रकाश्य घट-पटादि में छोटे-बड़े का भेद प्रतिभासित होता हो / Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्वविमर्शः 159 मुखादीनां च छाया खड्गादौ संक्रान्ता तद्धर्मानुकारिणी प्रतिभाति न मुखादयः / न च गादाना छाया व्यंजकध्वनिसंक्रान्ता तद्धर्मानुकारिणी प्रतिभातीति शक्यम् वक्तु, शब्दस्य भवताऽमूत्तत्वनाम्यु पगमात , अमूर्तस्य च मूर्तध्वनौ छायाप्रतिबिम्बनाऽसंभवात् / मूर्तानामेव हि मुखादीनां मूत आद दिौ छायाप्रतिबिम्बनं दृष्ट, नाऽमूर्तानामात्मादीनाम् / अदृष्टे च ध्वनौ छाया प्रतिबिम्बिताऽपि न गृह्यत कथं तद्धर्मानुकारितया प्रतीतिविषयः ? न च ध्वने: शब्दप्रतिभासकाले श्रवणप्रतिपत्तिविषयत्वम् , उभयाकारप्रतिपत्तेरसंवेदनात् / तन्न व्यंजके ध्वनौ प्रतिबिम्बिता गकारादिच्छाया प्रतिभाति / नाप्यमर्ते गादौ ध्वनिच्छायाप्रतिाबम्बनं युक्तम् , प्रमूर्ते आकाशादौ घटादिच्छायाप्रतिबिम्बनानुपलब्धेः / तदयुक्तमुक्तम्-'खड्गादा दाय [व्यंजकध्वनियों के धर्मों का शब्द में उपचार होने की शंका ] उपचारवादी:-ऐसे भी व्यंग्य [=प्रकाश्य ] पदार्थ होते हैं जो व्यंजक के धर्मों का अनुकरण करते हैं / उदा० मुंह का एक ही स्वरूप खड्ग में प्रतिबिम्बत होने पर खड़गवत् लम्बा, वत्तु लाकार दर्पण में गोलाकार, तथा गौरवर्ण होते हये भी नीलवर्ण काच में श्यामवर्णवाला. इस प्रकार उन उन व्यंजकों के सदृशधर्म का अनुकरण करता हुआ उपचरितबूद्धि का विषय बनता है / तो प्रकृत में व्यंजकध्वनिओं का अल्प-महान् धर्म व्यंग्य में उपलब्ध होने में कोई असंगति नहीं है / उत्तरपक्षी:- यह बात भी असंगत है / कारण, केवल एक दो दृष्टान्त मात्र मिल जाने से पदार्थ सिद्धि नहीं होती / दृष्टान्त तो साध्य और हेतु की व्याप्ति के लिये साधक प्रमाण के विषयरूप में साध्यानुमान में उपयोगी होता है, उसका कोई स्वतन्त्र उपयोग नहीं है / अन्यथा “एक ही भूतात्मा भूत भूत में अवस्थित है" [ एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ] इस प्रकार के उपनिषद् वाक्य से प्रतिपादित चन्द्रप्रतिबिम्ब के दृष्टान्तमात्र से अद्वैतवादी का पूरुषाद्वैतवाद भी सिद्ध हो जायेगा-फिर न रहेगा शब्द, न रहेगा महत्त्वादि, तो किसके उपचार से मीमांसक महत्त्वादि प्रतिभास की बात करेगा ? [ अमूर्त का मूर्त में प्रतिबिम्ब संभव नहीं है ] खडगादिव्यंजक धर्म का अनुकरण करती हयी जो दिखाई देती है वह मुखादि की छाया [ = प्रतिबिम्ब ] होती है, मुखादि स्वयं नहीं होते / यह नहीं कहा जा सकता कि-"गकारादि की छाया का व्यंजकनादों में संक्रमण होता है तो गकारादि की छाया अल्पत्वादि धर्म का अनुकरण करती हुयी दिखाई देती है किन्तु स्वयं गकारादि अल्पत्वादिविशिष्ट नहीं होते।"- क्योंकि आपके मतानुसार शब्द को अमूर्त माना गया है। अमूर्त शब्द की मूर्त व्यंजक नादों में छाया प्रतिबिम्बत होने का कोई संभव नहीं है / मुर्त्त दर्पणादि में मूर्त मुखादि की छाया का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है किन्तु अमूर्त आत्मादि की छाया का प्रतिबिम्ब नहीं देखा गया। दूसरी बात यह है कि व्यंजकनाद भी अदृश्य होते हैं तो उसमें प्रतिबिम्बित होने पर भी छाया का ग्रहण होना शक्य नहीं है तो फिर व्यंजकधर्मों के अनुकरणकर्तारूप में छाया का दर्शन कैसे माना जाय ? [ महत्त्वादिधर्मभेदप्रतिभास यथार्थ होने से गादिभेदसिद्धि ] यह भी ध्यान देने की बात है कि जब शब्दप्रतिभास होता है उस काल में नाद श्रावण प्रत्यक्ष का विषय नहीं बनता। क्योंकि उसके प्रत्यक्ष होने पर 'नाद और शब्द' का उभयाकार संवेदन होना Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 मुखादिप्रतिभासवद् अल्प-महत्त्वादियुक्तशब्दप्रतिभासः' इति, दृष्टान्त दार्टान्तिकयोवषम्यात्। अताऽबाधितमहत्त्वादिभेदभिन्नगादिप्रतिभासाद् गादिभेदसिद्ध स्तन्निबन्धनस्य सामान्यस्य गादौ सद्भावाद् तन्निबन्धना प्रत्यभिज्ञा दलितोदितनखशिखरादिष्विव गादावभ्युपगमनीया। ___ अत एव धमादीनामिवाऽनित्यत्वेऽपि गादीनां सामान्यसद्भावतः संगत्यवगमस्य सम्भवाद् न परार्थशब्दोच्चारणान्यथानुपपत्त्या तन्नित्यत्वकल्पना युक्ता / तद गत्वादिविशिष्टस्य गादेरविवक्षितविशेषस्य स्वार्थेन संगत्यवगमेन न किंचिन्नित्यत्वेन / यथा गोत्वादिविशिष्टस्य गोव्यक्तिमात्रस्य वाच्य. त्वे न कश्चिद्दोषः, तद्वद् वाचकत्वेऽपि / तद् अर्थप्रतिपादकत्वस्य अन्यथापि सम्भवात् 'दर्शनस्य परार्थत्वाद् नित्यः शब्दः' इत्ययुक्तमभिहितम् / यत् पुनरुक्तम्-'सदृशत्वेनाऽग्रहणाद् न सादृश्यादर्थप्रतिपत्तिः' इति तत्र यदि सदृशपरिणामलक्षणं सामान्य व्यक्तेः सादृश्यमभिप्रेतं तदा तस्य यथा व्यक्तिविशेषणस्य वाचकत्वं तथा प्रतिपादितम् / अथाऽन्यथाभूतं सादृश्यमत्र विवक्षितं तदा तस्य वाचकत्वानभ्युपगमात् स एव परिहारः। यत्तूक्तम् चाहिये, वह नहीं होता / निष्कर्ष यह हुआ कि व्यंजक नादों में गकारादि की प्रतिबिम्बित छाया का भान नहीं होता। तथा, अमूर्त गकारादि में ध्वनि की छाया प्रतिबिम्बित होने से ध्वनिगते महत्त्वादि का उपचार से गकारादि में भान भी युक्त नहीं है। क्योंकि अमूर्त में किसी पदार्थ का प्रतिबिम्ब उपलब्ध नहीं होता / उदा० अमूर्त आकाशादि में घट-पटादि की छाया का प्रतिबिम्ब उपलब्ध नहीं होता / अतः यह जो कहा था कि 'खड्गादि में जैसे मुख का लम्ब-वर्तुलादि आकार प्रतिभास होता है वैसे अल्पमहत्त्वादि धर्मयुक्त शब्द का प्रतिभास होता है' यह अयुक्त कहा गया है। कारण, दृष्टान्त मूर्त का है और दार्टान्तिक तो अमूर्त का है-इस प्रकार दोनों में पूरा वैषम्य है। उपरोक्त रीति से महान्-कर्कशादि भेद से भिन्न भिन्न गकारादि का प्रतिभास निर्बाध सिद्ध होने से गकारादि का भेद भी सिद्ध होता है और तन्मुलक गत्वादि सामान्य का सद्धाव भी गकारादि में मानना पड़ेगा। फलतः, काट देने पर नये उगने वाले नखान आदि में सामान्यमुलक प्रत्यभिज्ञा की भांति गकारादि में भी ऐक्य प्रत्यभिज्ञा को सामान्यमूलक मानना पड़ेगा। [पराथोंच्चारण से शब्दनित्यत्व कल्पना असंगत ] उपरोक्त हेतु से, परार्थशब्दोच्चारण की अन्यथानुपपत्ति से शब्द में नित्यत्व की कल्पना करना ठीक नहीं है / कारण, जिस प्रकार धूमादि लिंग अनित्य होने पर भी धूम सामान्य के प्रभाव से व्याप्ति संबंध का भान होता है उसी प्रकार अनित्य गकारादि को सुनने पर गत्वादि सामान्य के प्रभाव से संकेतोपस्थिति द्वारा शाब्दबोध हो सकता है। जब गत्वादिविशिष्ट गकारादि व्यक्ति का अपने अर्थ के साथ संबंध का अवगम किसी विशेष की अपेक्षा किये विना ही शक्य है तो नित्यत्व मानने का कोई भी प्रयोजन नहीं है / दूसरी बात यह है कि गोत्वादि सामान्य से अनुविद्ध गोत्वादि मात्र को वाच्य मानने में मीमांसक को कोई दोष नहीं लगता है तो गत्वादिसामान्यानुविद्ध गकारादि शब्द व्यक्ति को वाचक मानने में भी कोई दोष नहीं है। इसलिये आपने जो यह कहा था कि 'दर्शन परार्थ होने से शब्द नित्य है' यह भी ठीक नहीं है। कारणा, शब्द अनित्य होने पर भी उससे अर्थ प्रतिपादन होने का पूरा संभव है / Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1- शब्दानित्यत्व० 161 'वर्णानां निरवयवत्वाद् न भूयोऽवयवसामान्ययोगलक्षणस्य सादृश्यस्य सम्भवः'-तदत्यन्ताऽसंगतम् , वर्णानां भाषावर्गणारूपपरिणतपुदगलपरिणामस्येव सावयवत्वात् / अथ पौद्गलिकत्वे वर्णानां महती अदृष्ट कल्पना प्रसज्यते / तथाहि-शब्दस्य श्रवणदेशाऽऽगमनम् , मूत्ति स्पर्शादिमत्त्वं चानुपलभ्यमानं परिकल्पनीयम् / तेषां च मूत्ति-स्पर्शानां सतामप्यनुद्भूतता कल्पनीया, त्वगग्राह्यत्वं च परिकल्पनीयम् / ये चान्ये सूक्ष्मा भागास्तस्य कल्प्यन्ते तेषां च शब्दकरणंवेलायां सर्वथानुपलभ्यमानानां कथं रचनाक्रमः क्रियताम् ? उपलभ्यमानत्वेऽपि की शाद् रचनाभेदाद् गकारादिवर्णभेदः ? द्रवत्वेन च विना कथं वर्णावयवानां परस्परतः संश्लेषो वर्णनिष्पादकः ? यद्यपि च कथंचित कर्ता निष्पादिता वर्णास्तथापि आगच्छतां कथं न वायना विश्लेषः ? लघूनां तदवयवानामुदकादिनिबन्धनाभावात् निबद्धानामप्यागच्छतां वृक्षाद्यभिहितानां विश्लेषो लोष्ट वत् / न चैकशब्दस्यकश्रोत्रप्रवेशे मूर्तत्वेन प्रतिबद्धत्वादन्येषां श्रोतणां तद्देशव्यवस्थितानामपि श्रवणमुपपद्यते, प्रयत्नान्तरस्यासत्त्वेन पुननिष्क्रमणाऽसंभवात् / न चैकगोशब्दापेक्षयाऽवान्तरवर्णनानात्वकल्पनायामस्ति प्रयोजनम् , एकस्मादेव गोशब्दादर्थप्रतीतेः, अतो गकारादिवर्णनानात्वमदृष्टं परिकल्पनीयम् / न चैकस्यैव गोशब्दावयविनः सर्वासु दिक्षु गमनं युज्यत इत्यनेकादृष्टपरिकल्पना स्यात् / तदुक्तम् [सदृशत्वेन गादि का ग्रहण असंगत नहीं है ] यह जो कहा था कि-'वर्गों से परस्पर सादृश्य का ग्रहण न होने से सादृश्य से अर्थबोध नहीं हा सकता इसमें दो बात है (1) यदि आप व्यक्ति के सादृश्य को समानपरिणामरूप सामान्यात्मक शन कर यह बात करते हो तो ऐसा गत्वादिसामान्य गकारादि शब्द व्यक्ति का विशेषण होकर जिस प्रकार वाचक बन सकता है उसका प्रतिपादन अभी ही हो चुका है। (2) यदि उक्त प्रकार से अन्यथाअन्यविध सादृश्य के ग्रहण न होने का कहते हैं तो हम उस प्रकार के सादृश्य का स्वीकार ही नहीं करते हैं इसलिये वह अस्वीकार ही आपकी बात का परिहार कर देता है। यह भी जो आपने कहा था-'वर्ण निरंश पदार्थ होने से अनेक अवयवों के साम्यरूप सादृश्य का वर्ण में होना संभव नहीं है'-वह भी अत्यन्त असंगत है क्योंकि औदारिकादि आठ पुद्गल वर्गणा में से एक भाषावर्गणा के रूप में परिणत पुद्गलों का स्कन्धादि परिणाम ही वर्ण है और स्कन्ध परिणाम अनेक पुद्गलनिर्मित होने से सावयव ही होता है। [शब्द पौद्गलिकत्व के विरुद्ध अनेक आपत्तियाँ-मीमांसक ] मीमांसक:- शब्द को यदि पौद्गलिक माना जाय तो बडी बडी अदृष्ट कल्पनाओं का कष्ट होगा। जैसे-अन्यत्र उत्पन्न शब्द का श्रोत्रदेशपर्यन्त आगमन तथा मूर्त्तत्व यानी सक्रियता एवं स्पर्श-रूपादि ये सब उपलब्ध न होने पर भी उनकी कल्पना करनी पडेगी। मर्त्तत्व और स्पर्शादि मान लेंगे तो विद्यमान होने पर भी उन को अदृश्य यानी अनुभूत भी मानना होगा। तथा स्पर्श को त्वगिद्रिय से अग्राह्य कहना होगा। शब्द के सूक्ष्मावयवों की कल्पना करनी होगी। सूक्ष्मावयवों को नने पर भी जब शब्दरचना की इच्छा होगी उस वक्त उनकी उपलब्धि सर्वथा न होने से उसकी रचना कैसे की जायेगी? कदाचिद उनकी उपलब्धि मान ले तो किस प्रकार के रचनाभेद से गकारादिवर्णभेद निप्पन्न होगा यह दिखाना होगा। तथा उन अवयवों में द्रवत्व न होने से वर्णनि Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 शब्दस्याऽऽगमनं तावददृष्टं परिकल्प्यते // [107 उत्तरार्द्धम्] मूत्तिस्पर्शादिमत्त्वं च तेषामभिभवः सतां / त्वगग्राह्यत्वमन्ये च सक्ष्मा भागाः प्रकल्पिताः॥ तेषामदृश्यमानानां कथं च रचनाक्रमः? कीदृशाद रचनाभेदाद्वणभेदश्च जायताम् / / 109 // द्रवत्वेन विना चैषां संश्लेषः कल्प्यतां कथम ? आगच्छतां च विश्लेषो न भवेद्वायुना कथं // ऽवयवा ह्यते निबद्धा न च केनचित् / वृक्षाद्यभिहितानां तु विश्लेषो लोष्टबद भवेत् // 111 // एकश्रोत्रप्रवेशे च नान्येषां स्यात्पुनः श्रुतिः / न चावान्तरवर्णानां नानात्वस्यास्ति कारणम् // . न चैकस्यैव सर्वासु गमनं दिक्षु युज्यते। [113 पूर्वार्द्धम् श्लो० वा० सू० 6] इति / एतद् भवत्पक्षेऽपि सर्व समानम् / तथाहि-'वायोरागमनं तावददृष्टं परिकल्प्यते' इत्याऽद्यपि वक्त शक्यत एव, केवलं वर्णस्थाने वायुशब्दः पठनीय इति कथं न भवत्पक्षेऽपि भूयस्यदृष्टपरिक च भवत्पक्षेऽयमपरः परिकल्पनागौरवदोषः सम्पद्यते-वर्णस्य पूर्वाऽपरकोटयोः सर्वत्र देशेऽनुपलभ्यमानस्य सत्त्वं परिकल्पनीयम्, तस्य चावारकाः स्तिमिता वायवः प्रमाणतोऽनुपलभ्यमानाः ष्पादक एक दूसरे अवयवों का संश्लष भी कैसे होगा? यद्यपि किसी प्रकार कर्ता ने संश्वष कर के वर्णों को बना भी लिया, किंतु दूर देश से आते समय वायु के झपाटे से वे बिखर क्यों नहीं जायेंगे ? जलादि आश्लेषक द्रव्य के विरह में केवल एक दूसरे संयोग मात्र से निबद्ध सूक्ष्म अवयवों जब दूर से आयेंगे तो बीच में वृक्षादि के साथ टकरा कर बिखर जायेंगे भी, जैसे मिट्टी का गोला / मूर्त होने के कारण जब एक शब्द एक श्रोत्र में प्रवेश करेगा तो वहाँ ही चिपक जायेगा तो अन्य श्रोताओं उस देश में होने पर भी उन को उसका श्रवण नहीं होगा। कारण, विना कोई अन्य प्रयत्न किये ऐसे ही वह फिर से बहार निकल आने का संभव नहीं। तथा जब एक ही अखंड गोशब्द की अपेक्षा 'ग-ओ' आदि अवान्तर वर्णविभाग की कल्पना में कोई प्रयोजन नहीं है, तथापि आप करेंगे तो यह गकारादि वर्णवैविध्य की अदृष्ट कल्पना होगी। तथा एक ही अवयवीरूप गोशब्द का सर्व दिशाओं में प्रसरण बुद्धिगम्य न होने से उसकी भी अदृष्टकल्पना करनी होगी। यह सब हमारे श्लोकवात्तिक कार भट्ट कुमारील ने भी कहा है - [ श्लो० वा० सूत्र 6 ] ___ "शब्द के अदृष्ट ही आगमन की कल्पना की जाती है / शब्द की मूर्त्तता, स्पर्शादिमत्ता, तथा विद्यमान (स्पर्शादि का) अभिभव, त्वगिन्द्रिय से अग्राह्यता और उनके सूक्ष्म विभागों की कल्पना की जाती है / अदृश्य उनकी रचना का क्रम कैसा होगा ? किस प्रकार के रचनाभेद से वर्णभेद होगा? द्रवत्व के विना उनके संशष की कल्पना कैसे होगी? (दर से) आते हए उनका वायू से विशेष क्यों नहीं होगा ? ये सूक्ष्म अवयव किसी से भी अबद्ध [अनाश्लिप्ट] रहते हुये आते समय वृक्षादि से अभिघात होने पर मिट्टी पिंड की भाँति क्यों न बिखर जायेगा? एक श्रोत्र में प्रविष्ट हो जाने पर दूसरे को वे नहीं सुनाई देंगे / अवान्तर वर्णों के वैविध्य का कोई कारण भी नहीं है / तथा एक ही शब्द का सर्व दिशाओं में गमन भी अयुक्त है / '' इत्यादि / [ मीमांसकमत में भी उन समस्त दोषों का प्रवेश तदवस्थ-उत्तरपक्ष ] उत्तरपक्षी:-उपरोक्त समग्र दोषपरम्परा आपके मत में समान ही हैः जैसे कि-'आपको वायु के अदृष्ट ही आगमन की कल्पना करनी होगी........' इत्यादि सब कहा जा सकता है, केवल 'शब्द' के स्थान में 'वायु' शब्द को लगा देना होगा / तो आपके मत में वेसुमार अदृष्ट कल्पना कैसे Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दानित्यत्व० 163 तदपनोदकाश्चान्ये तथाभूता एव व्यंजकाः परिकल्पनीयाः। तेषां चोभयरूपाणामपि शक्तिनानात्वं परिकल्पनीयम् / अस्मत्पक्षे तत् सर्वमपि नास्तीति कथमदृष्टपरिकल्पना गुर्वी ? पौद्गलिकत्वं च शब्दस्य अम्बरगुणप्रतिषेधप्रस्तावे प्रमाणोपपन्नं करिष्यत इत्यास्तां तावत् / यत पनर्धान्तत्वं शब्दार्थप्रत्ययस्याभिहितं तद धमाल्लिगाल्लिगिप्रत्ययेन प्रत्यक्तम् / 'गत्वादिविशिष्टस्य गादेर्वाचकत्वमयुक्तम्, गत्व देः सामान्यस्याऽसम्भवात' तदनन्तरं निराकृतम् / यत पुनरुक्तम्-'गादिव्यक्तिसात्रं गत्वादिविशिष्टं नोपपद्यते, तस्य सामान्यविशेषयोरन्यतरत्रान्तर्भाव एकत्र वाचकस्य नित्यत्वप्रसंगाद् , अन्यत्राऽनन्वयात् वाचकत्वाऽयोगात्'-एतदसारम्, व्यक्तिमात्रस्य सामान्य विशिष्टस्य पूर्व वाचकत्वव्यवस्थापनातू / ता एवं व्यक्तयोऽविवक्षिताऽसाधारणविशेषाः सामान्यविशिष्ट व्यक्तिमात्रशब्दाभिधेयाः। किंच, कि वर्णानां नित्यत्वमभ्युपगम्यते, उत वर्णक्रमस्य, पाहोस्विद् वर्णाभिव्यक्ते , किं वा तत्क्रमस्य ? तत्र न तावत् अभिव्यनित्यत्वं, तस्या निषिद्धत्वात्, अनिषेधेऽपि पुरुषप्रयत्नप्रेरितवायुनहीं है ? तदुपरांत, आपके पक्ष में तो ओर भी कल्पनाओं का गौरव दोष लब्धप्रसर है: जैसे-वर्ण की पूर्वकोटि और अपर कोटि के सत्त्व की, जो किसी भी देश में प्रत्यक्षत: उपलभ्यमान नहीं है, कल्पना करनी होगी। उसके आवारक शान्त वायु की, जो प्रमाण से उपलभ्यमान नहीं है, कल्पना करनी पडैगी / तथा उस वायु के अपसारक वायु भी प्रमाण से उपलब्ध नहीं है उनकी व्यंजकरूप में कल्पना करनी होगी। तथा, दोनों वायु समान होने पर भी उनके अलग-अलग सामर्थ्य की कल्पना करनी होगी। हमारे पक्ष में ऐसा कुछ भी नहीं है तो अदृष्ट कल्पना का गौरव कैसे होगा ? [ सादृश्य से अर्थबोधपक्ष में दी गयी आपत्तिओं का प्रतीकार] 'शब्द पौद्गलिक है' इस तथ्य की प्रमाण से उपपत्ति शब्द के आकाशगुणत्व के निराकरण के अवसर में की जायेगी-उस को अभी रहने दो। किंतु आपने यह जो कहा था 'सादृश्य से अर्थ प्रतिपत्ति मानने पर शब्द से उत्पन्न अर्थबोध भ्रमात्मक होगा' इसका तो, धूमात्म क लिंग से लिंगी अग्नि का बोध होता है किंत वह भ्रान्त नहीं होता है इसलिये-प्रत्यक्त यानी प्रत्युत्तर हो जाता है / तात्पर्य, सदृश शब्द से अर्थबोध भी भ्रान्त नहीं कहा जा सकता / तथा, 'गत्वादिविशिष्ट गकारादि को वाचक मानना अयुक्त है क्योंकि गत्वादि सामान्य का असंभव है' यह जो कहा था वह भी गत्वादि सामान्य का संभव प्रदर्शित कर देने से निराकृत हो जाता है। तथा यह जो कहा था-'गत्वादि विशिष्ट गकारादि व्यक्ति मात्र वाचक नहीं हो सकता क्योंकि यदि उसको सामान्यान्तर्भूत मानेंगे तो नित्य की ही वाचकता फलित होगी और विशेषान्तर्भूत मानेंगे तो उसका अर्थ के साथ संकेतादि अन्वय घटित नहीं होने से वाचकत्च न होगा'-यह भी सारहीन उक्ति है / क्योंकि पहले ही हमने सामान्यविशिष्ट गकारादि व्यक्ति की वाचकता का उपपादन कर दिया है / आशय यह है कि हम सामान्य-विशेष को अत्यन्त भिन्न नहीं मानते किंतु व्यक्तिअन्तर्गत असाधारण विशेष की जब विवक्षा छोड दे तब उन्हीं व्यक्तिओं को 'सामान्य विशिष्ट व्यक्तिमात्र' कहा जाता है / [ अपौरुषेयवादी वर्णादि चार में से किसको नित्य मानेगा ? ] ___ यह भी विचारणीय है-A क्या आप वर्णों को नित्य मानते हैं ? B या वर्णक्रम को? अथवा वर्णाभिव्यक्ति को? या D अभिव्यक्ति के क्रम को? Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 जन्यत्वेनाऽपौरुषेयत्वाऽसम्भवात् / नाप्यभिव्यक्तिक्रमस्य, अभिव्यक्त्यभावे तत्क्रमस्याप्यभावात्, तत्पौरुषेयत्वे तस्यापि पोरुषेयत्वात् / . अथैवं पौरुषेयत्वस्यानादिसिद्धस्य केनचिदादावकृतस्य सर्वपुरुषैः परिग्रहात पुरुषाणां स्वा. तन्त्र्याभावादपौरुषेयत्वमुच्यते / तदुक्तम्-[श्लो० वा० सू-६ श्लो० 288-290] "वक्ता न हि क्रम कश्चित् स्वातन्त्र्येण प्रपद्यते / यथैवास्य पररुक्तः तथैवैनं विवक्षति // परोऽप्येवं ततश्चास्य संबन्धवदनादिता। तेनेयं व्यवहारात स्यादकौटस्थ्येऽपि नित्यता / / यत्नतः प्रतिषेध्या नः पुरुषारणां स्वतन्त्रता।" इति / एतदसंबंद्धम् - अपौरुषेयत्वप्रतिपादकप्रमाणस्याऽसिद्धत्वात् / अथ वर्णक्रमस्याऽपौरुषेयत्वमा भ्युपगम्यते / तदप्यचारु, वर्णानां नित्यत्वेन कालकृतस्य तन्तुपटवत् व्यापकत्वेन देशकृतस्य मुक्तावलीमुक्ताफलमालावद् अस्याऽसंभवात्। C अभिव्यक्ति तो नित्य नहीं है क्योंकि वर्णसंस्कारादि किसी भी रूप में उसकी उपपत्ति न होने से उसका निषेध किया जा चुका है। यदि निषेध का स्वीकार न करे तो भी पुरुषप्रयत्न से आंदोलित वायू द्वारा उस अभिव्यक्ति का जन्म होने से, अभिव्यक्ति को मानने पर भी उस का अपौरुषेयत्व नहीं घट सकेगा। D अभिव्यक्ति के क्रम को भी नित्य नहीं कह सकते / कारण, जब D अभिव्यक्ति ही असत् है तो उसका क्रम भी असत् है और यदि अभिव्यक्ति को सत् माने तो भी वह उपरोक्त रीति से पौरुषेय होने से उसका क्रम भी पौरुषेय ही मानना पडेगा। [पुरुषस्वातंत्र्य निषेधमात्र में अभिप्राय होने की शंका ] अपौरुषेयवादी:-आपने जो अभिव्यक्ति और उसके क्रम को पौरुषेय दिखलाया उसमें हमारा विरोध नहीं है किंतु इस प्रकार की अभिव्यक्ति प्रवाह से अनादिकालीन सिद्ध है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि पहले किसी ने ऐसी अभिव्यक्ति न की हो और बाद में किसी ने उसका प्रथम प्रथम प्रारंभ किया हो। तात्पर्य, सभी सज्जनों ने पूर्वकाल में जैसी अभिव्यक्ति चली आती थी ऐसी ही अभिव्यक्ति को अपनाया। स्वतंत्ररूप से किसी ने भी वेद रचना नहीं की। इस प्रकार वेद रचना में किसी भी पुरुष का स्वातन्त्र्य न होने से हम उसे अपौरुषेय कहते हैं / जैसे कि श्लोकवात्तिक में कहा है- / "कोई भी वक्ता ने स्वतन्त्ररूप से कम नहीं बनाया / जैसा क्रम उस को पूर्वजो ने बताया वैसा ही उसने भी बोलने को चाहा / दूसरे ने भी ऐसा किया। इसलिये संबंधवत् इस की भी अनादिता हुयी / तो अभिव्यक्ति नित्य न होने पर भी उस व्यवहार से नित्यता हुयी। हम तो पुरुष की स्वतन्त्रता के प्रतिषेध में ही प्रयत्नशील हैं।" उत्तरपक्षी:-अपौरुषेयत्व का कथन संबंधशून्य है क्योंकि अब तक इस प्रकार के अपौरुषेयत्व का साधक कोई प्रमाण सिद्ध नहीं हुआ। B वर्णक्रम को अपौरुषेय अर्थात् नित्य मानते हैं' ऐसा कहे तो वह भी सुन्दर नहीं है क्योंकि वर्ण नित्य होने से 'तन्तु और उसके बाद वस्त्र' इस प्रकार के कालक्रम का, एवं व्यापक होने से, मोती की माला में 'एक बडै मोती के बाद दूसरा छोटा मोती' इस प्रकार के देशक्रम का कोई संभव नहीं है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्व० 165 अथ वर्णानामपौरुषेयत्वमङ्गीक्रियते, तदप्यसंगतम्, “य एव लौकिकाः शब्दास्त एव वैदिकाः" इत्यभिधानात वेदवल्लोकायतशास्त्रमपि प्रमाणं स्यादिति त भवतः प्रसज्यते / लौकिके च वाक्ये यो विसंवादः क्वचिदुपलभ्यते स भवन्नीत्या न प्राप्नोति / अथ लौकिक-वैदिकशब्दयोर्भेदोऽभ्युपगम्यते, तथा (? तदा) रागादिसमन्वितत्वाभ्युपगमात सर्वपुरुषाणां न तेषां यथावस्थितवेदाथपरिज्ञानम्, स्वयं वेदोऽपि न भवतां वेदार्थ प्रतिपादयति, नाऽपि वेदार्थप्रतिपादकमपौरुषेयं वेदव्याख्यानमवगतार्थ सिद्धं येन ततो वेदार्थप्रतिपत्तिः, लौकिकशब्दानुसारेण वेदशब्दार्थप्रकल्पनमपि तद्भेदाभ्युपगमेऽनुपपन्नमिति न वेदार्थप्रसिद्धिः स्यादिति न वैदिक-लौकिकशब्दयोर्भेदाभ्युपगमः श्रेया निति लौकिकवद् वैदिकस्यापि पौरुषेयत्वमभ्युपगन्तव्यम् / न च लौकिक-वैदिकशब्दयोः शब्दस्वरूपाऽविशेषे, संकेतग्रहण[स] व्यपेक्षत्वेनार्थप्रतिपादकत्वे, अनुच्चार्यमाणयोश्च पुरुषणाश्रवणे सम्यते [ ? समाने]ऽपरो विशेषो विद्यते यतो वैदिका अपौरुषेयाः लौकिकाः पौरुषेयाः स्युः / तथा, नियोगे ? यथानियोगं] चार्थप्रत्यायनमुभयोरपि / न च नित्यत्वे पुरुषेच्छावशादर्थप्रतिपादकत्वं युक्त, उपलभ्यन्ते च यत्र पुरुषैः संकेतितास्तमर्थमविगानेन प्रतिपादयन्तः, अन्यथा नियोगाद्यर्थभेदपरिकल्पनमसारं स्यात् / [ वर्ण नित्य-अपौरुषेय होने पर लोकायतशास्त्रप्रामाण्य आपत्ति] A यदि वर्गों को अपौरुषेय (नित्य) स्वीकार करते हैं तो वह भी असंगत है क्योंकि यह कहा जाता है कि "जो लौकिक शब्द हैं वे ही वैदिक शब्द हैं" तो यदि वेद की तरह लोकायत=नास्तिक के शास्त्र को भी आप नित्य अपौरुषेय मानेंगे तो उसमें कहे गये अर्थ का अनुष्ठान भी आप का कर्तव्य होगा। तथा लौकिक वाक्य भी अपौरुषेय बन जाने से उनमें जो विसंवाद कहीं पर दिखता है वह भी आप की नीति अनुसार प्राप्त नहीं होगा। [यानी किसी भी प्रकार उसकी उपपत्ति ही करनी होगी।] यदि ऐसा भेद करें कि वैदिक वाक्य अपौरुषेय हैं और लौकिक वाक्य पौरुषेय हैं तो किसी भी पुरुष को वेद के सही अर्थ का पता नहीं लगेगा क्योंकि सभी पुरुष राग-द्वेष से अभिव्याप्त होते हैं / आशय यह है कि राग-द्वेषयुक्त किसी भी पुरुष का किया हुया वेदार्थव्याख्यान विश्वसनीय नहीं होगा / तथा आपके मत में वेद स्वयं तो अपने अर्थ का प्रतिपादन करता नहीं है / तदुपरांत, वेद के सही अर्थ का प्रतिपादक अपौरुषेय कोई वेद का व्याख्यान सिद्ध नहीं है जो स्पष्टार्थ हो और जिससे वेद का सही अर्थ जान सके। तथा वैदिक-लौकिक वाक्यों का भेद मानने पर लौकिक शब्द के अर्थों का अनुसरण कर के वेद के शब्दों के अर्थ की कल्पना योग्य नहीं है। इस प्रकार सभी रीति से वेद का सही अर्थ अप्रसिद्ध ही रहेगा अतः वैदिक और लौकिक वाक्यों में भेद का स्वीकार श्रेयस्कर नहीं है इसलिये लौकिक शब्दों की तरह वैदिक शब्दों को पौरुषेय मानना ही बुद्धिसंगत है / [वैदिक और लौकिक शब्दों में कोई अंतर नहीं है ] लौकिक एवं वैदिक शब्दों में इतनी बात तो समान ही है कि दोनों शब्दों का स्वरूप तुल्य है, अर्थ का प्रतिपादन संकेतज्ञान पर अबलंबित है, यदि उनका प्रयोग न किया जाय तो किसी पुरुष को नहीं सुनाई देता / जब इतनी समानता है तो ऐसी अब कौनसी विशेषता वेद में है जिसके Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ____ अतः पौरुषेयत्वनुमानादवसीयते / तथा हि- ये नररचितरचनाऽविशिष्टाः ते पौरुषेयाः यथाऽभिनवकूप-प्रसादादिरचनाऽविशिष्टा जीर्णकूप-प्रासादादयः, नररचितवचनरचनाऽविशिष्टं च वैदिकं वचनमिति प्रयोगः। न चात्राऽऽश्रयासिद्धो हेतुः, वैदिकीनां रचनानां प्रत्यक्षतः उपलब्धेः / नाप्यप्रसिद्ध विशेषणः पक्षः, अभिनवकपप्रासादादिषु पुरुषपूर्वकत्वेऽस्य साध्यधर्मलक्षणस्य विशेषणस्य सिद्धत्वात् / न च हेतोः स्वरूपाऽसिद्धत्वम्, वैदिकोषु वचनरचनासु विशेषग्राहकप्रामाणाभावेन तस्याऽभावात् / - न चाऽप्रामाण्याभावलक्षणो विशेषस्तत्र इति शक्यमभिधातुम्, तथाभूतस्य विशेषस्य विद्यमानस्यापि पौरुषेयत्वाऽनिराकरणत्वात् / यादृशो हि विशेष उपलभ्यमानः पोरुषयत्वं निराकरोति तादृशस्य विशेषस्याऽभावादविशिष्टत्वमुच्यते, न पुनः सर्वथा विशेषाभावात्, एकान्तेनाऽविशिष्टस्य कस्यचिदभावात् / अप्रामाण्याभावलक्षणश्च विशेषो दोषवन्तमप्रामाण्यकारणं पुरुष निराकरोति, न च गुणवन्तमप्रामाण्यनिवर्तकम् / न च गुणवतः पुरुषस्याभावात अन्यस्य च तेन विशेषेण नित्तितत्वात् सिद्धमेवाऽपौरुषेयत्वं वेदे इत्यभ्युपगमनीयम्, अपौरुषेयत्वस्य निरकृतत्वाद, गुणवत्पुरुषाभावेऽप्रामाण्याभावलक्षणस्य विशेषस्याभावप्रसंगात नाऽसिद्धो नररचितवचनरचनाऽविशिष्टत्वलक्षणो हेतुः। ' कारण वैदिक शब्दों को अपौरुषेय समझा जाय और लौकिक शब्दों को पौरुषेय समझा जाय ? संकेत के अनुसार अर्थ का प्रतिपादन तो दोनों प्रकार में तुल्य है। यदि वेद नित्य हो तो उसके संकेत को नित्य मानने की अपेक्षा पुरुषेच्छा रूप अनित्य संकेत द्वारा अर्थ का प्रतिपादन मानना युक्त नहीं है / किंतु जिस शब्द में जिस अर्थ का पुरुषों ने संकेत किया है उस अर्थ को विसंवाद विना प्रतिपादन करने वाले ही शब्द उपलब्ध होते हैं इससे शब्द को भी अनित्य ही मानना चाहिये / यदि पुरुष कृत संकेतों को न माना जाय तो वैदिक शब्दों में भिन्न-भिन्न संकेत अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ की प्रतिपादकता की कल्पना निरर्थक हो जायेगी। [ अनुमान से वेद में पौरुषेयत्वसिद्धि ] इस अनुमान से भी वेद की पौरुषेयता ज्ञात होती है / जैसे-"जो पदार्थ मनुष्यरचित कृतिओं से भिन्न नहीं होते वे पुरुषरचित होते हैं, जैसे कि पुराने कुवा और महल आदि अभिनव निष्पन्न कुवामहल आदि से भिन्न नहीं है तो वे पुरुषरचित ही होते हैं। वैदिक वाक्य भी मनुष्यरचित कृति से भिन्न है अतः पौरुषेय सिद्ध होते हैं।" इस प्रयोग में हेतु के आश्रय की असिद्धि नहीं है क्योंकि वैदिक वाक्यरचना अभी भी प्रत्यक्षतः उपलब्ध हैं। पक्ष का विशेषण यानी साध्यरूप से अभिमत धर्म भी अप्रसिद्ध नहीं है / कारण, नूतननिर्मित कुवा-महलादि पुरुष प्रयत्न पूर्वक होने से साध्यधर्म पौरुषेयत्व रूप विशेषणं जगत्विदित है। पक्ष में हेतू की स्वरूपतः असिद्धि भी नहीं है क्योंकि-'पक्षभूत वैदिक वाक्य रचना में मनुष्यरचितकृति साम्य नहीं है और वह केवल जीर्णकूपादि में या बौद्धादि आगम में ही है' इस प्रकार के भेद का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है इसलिये स्वरूपासिद्धत्वदूषण का अभाव है। [अप्रामाण्याभावरूप विशेषता अकिंचित्कर है ] अपौरुषेयवादीः-वेदरचना में यह विशेषता है कि वेद में अप्रामाण्य का अंश भी नहीं है / उत्तरपक्षी:-ऐसा कहना सरल नहीं है क्योंकि यह कोई ऐसी विशेषता नहीं है कि जिसकी Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्द नित्यत्व० 167 पौरुषेयेषु प्रासादादिषु नररचितरचनाऽविशिष्टत्वदर्शनादपौरुषेयेष्वाकाशादिष्वदर्शनाच्च नानकान्तिकः / अथाऽपौरुषेयेष्वदृष्टमपि नररचितरचनाऽविशिष्टत्वं तत्र विरोधाभावादाशंक्यमानं संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनकान्तिकम् / न, अपौरुषेयेष्वपि नररचितरचनाऽविशिष्टत्वस्य भावे पौरुषेयत्वेन निश्चितेषु प्रासादादिषु सकृदपि तस्य सद्भावो न स्यात, अन्यहेतु कस्य ततः कदाचिदप्यभावात, भावे वा तद्धेतुक एवाऽसाविति नाऽपौरुषे तस्य सद्भावः शंकनीयः। * अत एव न विरुद्धः / पक्षधर्मत्वे सति विपक्ष एव वृत्तिर्यस्य स विरुद्धः, न चास्य विपक्ष वृत्तिरिति प्रतिपादितम् / नापि 1. कालात्ययापदिष्ट-२. प्रकरणसमा-३. ऽप्रयोजकत्वानि हेतोदोषाः विद्यमानता से पौरुषेयत्व का निराकरण हो जाय। हम अविशिष्टत्व-यानी विशेषाभाव इस लिये कहते हैं कि जिस प्रकार के विशेष की उपलब्धि होने पर पौरुषेयत्व का निराकरण हो जाय इस प्रकार के विशेष का अभाव है। सर्वथा अविशिष्टता तो किसी में भी नहीं होती है। आपने जो अप्रामाण्य के अभाव को विशेषरूप में उपन्यस्त किया वह तो अप्रामाण्य के हेतुभूत सदोष पुरुष के निराकरण में सशक्त है किन्तु अप्रामाण्य के निवर्तक गुणवान् पुरुष का निराकरण नहीं हो सकता। - अपौरुषेयवादीः-पुरुष कोई भी गुणवान् हो नहीं सकता इसलिये गुणवान् पुरुष की स्वतः निवृत्ति होती है, दोषवान् पुरुष पूर्वोक्त अप्रामाण्याभाव विशेष से निवृत्त होता है तो वेद में अपौरुषेयत्व सिद्ध हो गया। : उत्तरपक्षीः-ऐसा आप मत मानीये, क्योंकि अपौरुषेयत्व का तो निराकरण हो गया है / यदि वेदकर्ता गुणवान् पुरुष नहीं मानेंगे तो वेद में अप्रामाण्याभावरूप विशेष भी नहीं रह सकेगा। उससे अन्य ऐसा कोई विशेष नहीं है जिससे गुणी पुरुष की भी निवृत्ति हो। अतः पुरुषमात्रनिवर्तक कोई विशेष न होने से 'मनुष्य रचितकृति से अविशिष्टता यानी तुल्यता' यह हेतु असिद्ध नहीं है / [अनैकान्तिक दोष उत्तरपक्षी के हेतु में नहीं है ] 'नररचितरचना अविशिष्टता' इस हेतु में अनैकान्तिकदोष भी नहीं है क्योंकि पुरुषरचित महल आदि सपक्ष में हेतु दृश्यमान है एवं पुरुष-अरचित आकाशादि विपक्ष में वह अदृश्यमान है / अपौरुषेयवादी:-अपौरुषेय आकाशादि में नररचितरचनाऽविशिष्टत्व हेतु का दर्शन भले न हो किन्तु उसकी वहाँ विद्यमानता की संभावना में कोई बाधक विरोधी नहीं है इसलिये 'शायद वह हेतु वहाँ भी होगा' इस प्रकार की शंका से विपक्ष में हेतु की व्यावृत्ति =अभाव शंकित हो जाने से संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिरूप अनैकान्तिक दोष लग जायेगा। उत्तरपक्षः-वह नहीं लग सकता / कारण, अपौरुषेय आकाशादि में यदि नररचित रचना:विशिष्टत्व हेतु विद्यमान होगा तो पौरुषेयरूप में निश्चित प्रासादादि में कहीं भी नररचितरचनाऽविशिष्टत्व का सद्भाव नहीं होगा, क्योंकि पौरुषेय का अर्थ है पुरुषहेतुक, यदि नररचितरचनाऽविशिष्टत्व पुरुषहेतुक नहीं होता यानी पुरुषान्य हेतुक होता तो उसका सद्भाव कभी भी पुरुषात्मक हेतु से नहीं हो सकता / यदि नररचित रचनाऽविशिष्टत्व अपौरुषेय में रह जावे तो अपौरुषेय प्रासादादि में भी रहेगा तो प्रासादि पुरुषान्यहेतुक हो जाने से उसमें पौरुषेयत्व का सद्भाव कैसे होगा? यदि वहाँ उसका सद्भाव मानना है तब तो सिद्ध हुआ कि पुरुषकृत प्रासादादि में ही नररचित रचनाऽविशिष्टत्व रह सकता है अपौरुषेय में कदापि नहीं, इसलिये विपक्ष अपौरुषेय में हेत की शंका नहीं करनी चाहिये। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 सम्भवन्ति / तथाहि-प्रत्यक्षागमबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वं हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वमुच्यते / यत्र स्वसाध्याऽविनाभूतो हेतुमिणि प्रवर्त्तमानः स्वसाध्य व्यवस्थापयति तत्रैव प्रमाणान्तरं प्रवृत्तिमासादयत् तमेव धर्म व्यावर्त्तयति, एकस्यैकदैकत्र विधि-प्रतिषेधयोविरोधात् / तन्न बाधाऽविनाभावयोः सम्भव इति न कालात्ययापदिष्टत्वमविनाभूतस्य हेतोर्दोषः सम्भवति / 2. प्रकरणसमत्वमपि प्रतिहेतोविपरीतधर्मसाधकस्य प्रकरणचिताप्रवर्तकस्य तत्रैव धर्मिणि . सद्भाव उच्यते / न च स्वसाध्याविनाभूतहेतुसाधितधर्मणो धर्मिणो विपरीतत्वं सम्भवति, इति न विपरीतधर्माधायिनो हेत्वन्तरस्य तत्र प्रवृत्तिरिति न प्रकरणसमत्वमविनाभूतस्य हेतोर्दोषः / 3. अप्रयोजकत्वं तु पक्षधर्मान्वय-व्यतिरेकाणामन्यतमरूपाभावः, न च प्रकृते हेतौ तदभाव इति दर्शितम्। अथानुमानलक्षणयुक्तस्य प्रत्यनुमानस्याऽपौरुषेयत्वसाधकस्य सद्भावात प्रकरणसमता प्रकृतस्य हेतोः, अनुमानबाधितत्वं वा पक्षस्य दोषः / प्रत्यनुमानं च दर्शितम्-[ श्लो० वा० स० 7 श्लो० 366] वेदाध्ययनमखिलं गुर्वध्ययनपूर्वकम् / वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाऽध्ययनं यथा ॥इति॥ [ उत्तरपक्षी का हेतु में विरुद्धादि दोष का अभाव ] हेतु विपक्षवृत्ति होने की शंका दूर हो जाने के विरुद्ध भी नहीं है / जो हेतु पक्ष में विद्यमान होने के साथ सपक्ष में विद्यमान न हो कर, केवल विपक्ष में निवास नररचितरचना विशिष्टत्व हेतु विपक्षनिवासी नहीं है-यह तो कह दिया है। 1. कालात्ययापदिष्ट [ =बाध ]-2. प्रकरणसम [ -- सत्प्रतिपक्ष] और 3. अप्रयोजकत्व ये तीन दोष भी प्रस्तुत हेतु में संभव नहीं है। जैसे कि- (1) प्रत्यक्ष अथवा आगम से कर्म यानी साध्य का निर्देश बाधित होने पर किसी हेतु का प्रयोग कालात्ययापदिष्ट कहा जाता है / किन्तु ऐसा संभव नहीं है कि अपने साध्य का अविनाभावि हेतु पक्ष में प्रवृत्त हो कर जब अपने साध्य की सिद्धि का उद्यम करे उसी वक्त (पूर्व में नहीं.) दूसरा कोई प्रमाण आकर उस धर्म (=साध्य) का निवर्तन करे, क्योंकि एक ही काल में एक पक्ष में एक ही धर्म का विधि-निषेध परस्पर विरुद्ध है / इस लिये बाध और अन्य प्रमाण का अविनाभाव ये दोनों का एक काल में संभव कि अविनाभावी हेतु में कालात्ययापदिष्टता दोष का संभव नहीं है / (2) प्रस्तुत साध्य की सिद्धि के प्रकरण में चिन्ता उपस्थित करे ऐसा विपरीत साध्य का साधक प्रतिपक्षी हेतु का उसी पक्ष में अस्तित्व होना-इसको प्रकरणसम दोष कहा जाता है। किन्तु जिस धर्मी में अपने साध्य के अविनाभावि हेतु ने अपने का वैपरीत्य यानी प्रस्तुतसाध्य विरोधी साध्यवत्ता का वहाँ संभव ही नहीं है / प्रस्तुत पक्ष में भी हेतु अपने साध्य का नितान्त अविनाभावि होने से विपरीत साध्य का साधक प्रतिपक्षी हेतु की प्रवृत्ति ही नहीं है इसलिये प्रस्तुत अविनाभूत हेतु में प्रकरणसमत्व दोष भी नहीं है। (3) जिस हेतु में पक्षधर्मता तथा साध्य के साथ अन्वय अथवा व्यतिरेक इन में से किसी एक का अभाव हो उसको अप्रयोजक दोष कहा जाता है। [ अपने साध्य का दृढ प्रयोजक यानी आपादक न हो वह अप्रयोजक है ] प्रस्तुत हेतु में किसी भी एक का अभाव नहीं है यह पहले दिखाया गया है। [ हेतु में प्रकरणसमत्व का आपादन-पूर्वपक्ष ] यदि यह शंका की जाय टोनेसे . Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का.०,१-वेदापौरुषेयविमर्शः न चैतदाशंकनीयम्-'एवंविधे प्रत्यनुमानेऽभ्युपगम्यमाने कादम्बर्यादीनामप्यपौरुषेयत्वसिद्धिः'यतस्तेषु बाणादीनां कर्तृणां निश्चयः, तथाहि-कालिदासकृतत्वेन कुमारसंभवादीनि काव्यानि अविगानेन स्मर्यन्ते। ___ अथ-'वेदेऽपि कर्तृ स्मरणमस्ति, तथा च केचिद् हिरण्यगर्भ वेदानां कर्तारं स्मरन्ति, अपरे प्रष्टकादीन् ऋषीन् / 'सत्यम् , अस्ति न त्वविगीतं यथा भारतादिषु, तथा छिन्नमूलं च / स्मरणस्यानुभवो मूलं, न च वेदे कर्तृ स्मरणस्य केनचित् प्रमाणेन मूलानुभवो व्यवस्थापयितुं शक्यः यदपि कर्तृ सद्धाचप्रतिपादकं वचनं कैश्चित कृतम-"हिरण्यगर्भः समवर्तताने" [ ऋग्वेद अष्ट०८ मं० 10, सू० 121 ] इत्यादि, तदपि मन्त्रार्थवादानां श्रयमाणेऽर्थे प्रामाण्याऽयोगांद न तत्सद्भावावेदकम् / तदुक्तम्-[ श्लो० वा० 7-367 ] "भारतेऽपि भवेदेवं कर्तृस्मत्या तु बाध्यते / वेदे तु तत्स्मतिर्या तु सार्थवादनिबन्धना // एतदप्ययुक्तम्-यतः किमत्र प्रतिसाधनत्वेन विवक्षितम् ? किमध्ययनशब्दवाच्यत्वम् ? उत कर्तुरस्मरणम् ? पूर्वस्मिन् पक्षे निविशेषणो वा हेतुरपौरुषेयत्वप्रतिपादकः ? कञस्मरणविशिष्टो वा ? प्रकृत हेतु में प्रकरणसमता दोष तदवस्थ है / कारण, अनुमान के लक्षण से परिपूर्ण प्रतिपक्षी अनुमान अपौरुषेयता का साधन करने में सज्ज है / अथवा प्रतिपक्षी अनुमान से पक्ष में साध्य बाधित होने का दोष होगा। प्रतिपक्षी अनुमान, श्लोकवात्तिक ग्रन्थ में इस प्रकार दिखाया है- “संपूर्ण वेदाध्ययन पूर्व पूर्व गुरुपरम्परागताध्ययन का अनुगामी है क्योंकि वह वेद का अध्ययन है, जैसे कि आधुनिक वेदाध्ययन [ जो गुरु परम्परा से ही हो रहा है ] / " [ पूर्वपक्ष चालु ] . . शंकाः-ऐसे प्रतिपक्षी अनुमान को मान लेने पर कादम्बरी आदि ग्रन्थ में भी अपौरुषेयत्वसिद्धि की आपत्ति होगी।' 1उत्तरः-यह शंका करने लायक नहीं है क्योंकि कादम्बरी आदि के तो बाणभट्ट आदि कर्ता सुनिश्चित हैं / निर्विवादरूप से कालिदास की कृति के रूप में लोग कुमारसंभवादि काव्यों को याद करते हैं। शंका:-वेद के कर्ता को भी याद किया जाता है-उदा० कोई हिरण्यगर्भ को वेदक रूप में याद करते हैं। दूसरे विद्वान् अष्टक आदि ऋषि को याद करते हैं / / / उत्तरः-ठीक है आपकी बात, किंतु महाभारतादि के कर्ता जैसे निर्विवाद हैं वैसे वेदकर्ता निर्विवाद नहीं है / अपरंच, वेदकर्ता का स्मरण विच्छिन्न मूल है / स्मरण का मूल है अनुभव / वेदकर्ता के स्मरण का मूलभूत अनुभव किसी भी प्रमाण से स्थापित नहीं किया जा सकता। तथा 'आगे हिरण्यगर्भ हआ था' इत्यादि जो वेदकर्ता सद्भाव प्रतिपादक-वचन किसी ने बनाया है वह भी मन्त्र विभाग और अर्थवाद में पठित वाक्यों जिस अर्थ में सुनते हैं उस अर्थ में प्रमाण न होने से कर्ता के सद्भाव का आवेदक नहीं हो सकते / कहा भी है-महाभारत में अपौरुषेयता हो सकती है किन्तु उसके कर्ता का स्मरण बाध पहुंचाता है। वेद के कर्ता का जो स्मरण है वह केवल अर्थवादमूलक है / [अनुभव मूलक नहीं है] / [ पूर्वपक्ष समाप्त ] ... [ वेदाध्ययन वाच्यत्व हेतु की समालोचना-उत्तरपक्ष ] यह शंका भी अयुक्त है-आपने जो प्रतिपक्षी अनुमान में हेतु प्रयोग किया है उसमें वेदाध्ययन Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 निविशेषणस्य निश्चितकर्त केषु भारतादिष्वपि भावादनकान्तिकत्वम् / किंच, कि यथाभूतानां पुरुषाणामध्ययनपूर्वकं दृष्टं तथाभूतानामेवाध्ययनवाच्यत्वमध्ययनपूर्वकत्वं साधयति, उतान्यथाभूतानाम् ? यदि तथाभूतानां तदा सिद्धसाधनम् / अथाऽन्यथाभूतानां तदा संनिवेशादिवदप्रयोजको हेतुः। ___ अथ तथाभूतानामेव साधयति / न च सिद्धसाधनम् , सर्वपुरुषाणामतीन्द्रियार्थदर्शनशक्तिवकल्येन अतीन्द्रियार्थप्रतिपादकप्रेरणाप्रणेतृत्वासामर्थ्य नेदृशत्वात् / स्यादेतद्यदि प्रेरणायास्तथाभूतार्थप्रतिपादनेऽप्रामाण्याभावः सिद्धः स्यात, यावता गुणवद्वक्तुरभावे तद् गुणैरनिराकृतैर्दोषैरपोदितत्वात् सापवादं प्रामाण्यमित्युक्तम् / तथाभूतां च प्रेरणामतीन्द्रियदर्शनशक्तिविकला अपि कत्तुं समर्था इति कुतस्तथाभूतप्रेरणाप्रणेतृत्वाऽसामर्थ्येन सर्वपुरुषाणामीशत्वसिद्धिर्यतः सिद्धसाधनं न स्यात् ? वाच्यत्व यानी क्या ? A अध्ययनशब्दनिरूपितवाच्यता अथवा B कर्ता की स्मृति न होना ? तथा, प्रथम पक्ष में-A1 अपौरुषेयत्वसाधक हेतु A2 विशेषणशून्य ही समझना या 'कर्तृ-अस्मरण होने पर' ऐसा विशेषण लगाना है ? A1 यदि विशेषण नहीं लगायेंगे तब तो जिसके कर्ता प्रसिद्ध हैं ऐसे महा म भा अनक अध्ययन होने से अध्ययनशब्दवाच्यता हेतु रह जायेगा कितु साध्य वहाँ नहीं है तो हेतु साध्य का द्रोही [व्यभिचारी] हुआ। दूसरी बात यह है- जिस प्रकार के पुरुषों [अर्वाग्दी पुरुषों का अध्ययन गुरुपरम्परापूर्वक देखा जाता है, क्या वैसे ही पुरुषों के अध्ययन में ही अध्ययनशब्दवाच्यत्व. से अध्ययनपूर्वकत्व सिद्ध करना चाहते हो ? या उन से भिन्न [सर्वज्ञ आदि] पुरुषों के अध्ययन में भी ? प्रथम पक्ष में अर्वाग्दर्शी पुरुषों का अध्ययन अध्ययनपूर्वक ही होता है-इसको हम भी मानते हैं तो सिद्धसाधन ही हुआ / अगर दूसरे पक्ष में-अल्पप्रज्ञावाले पुरुषों से भिन्न पुरुषों के अध्ययन में भी अध्ययनपूर्वकत्व सिद्ध करना चाहते हो तो हेतु में अप्रयोजकत्व दोष उपस्थित होगा जैसे कि पहले बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व की सिद्धि में संनिवेश आदि हेतु को अप्रयोजक दिखाया गया है / तात्पर्य यह है कि तीक्ष्ण प्रज्ञावाले विद्वानों से किये गये वेदाध्ययन में वेदाध्ययनवाच्यत्व हेतु तो रहता है किंतु वहाँ वेदाध्ययनपूर्वकत्व नहीं भी होता है अत: साध्य विना हेतु रह गया। [ तथाभूतपुरुष से अन्य सर्वज्ञादि कोई पुरुष असम्भाव्य नहीं है ] अपौरुषेयवादीः- हम प्रथम पक्ष का स्वीकार करते हैं कि तथाभूत [अल्पप्रज्ञावाले] पुरुषों के अध्ययन में अध्ययनपूर्वकत्व की सिद्धि अभिप्रेत है। इसमें सिद्धसाधन की कोई बात नहीं है। कारण, तथाभूत पुरुष से अन्यथाभूत [सर्वज्ञादि] पुरुष सिद्ध नहीं है / हर मनुष्य अतीन्द्रियार्थदर्शनशक्ति से विकल ही होता है इसलिये वेदान्तर्गत अतीन्द्रियार्थप्रतिपादक प्रेरणावाक्यों के प्रणयन में असमर्थ ही होते हैं / तात्पर्य, सब तथाभूत ही हो गये, जब अन्यथाभूत कोई है ही नहीं तो सिद्धसाधन कैसे ? उत्तरपक्षीः-आपका यह कथन ठीक तभी हो सकता यदि अतीन्द्रियार्थप्रतिपादक प्रेरणावाक्यों में अप्रामाण्याभाव स्वतः सिद्ध रहता। किंतु पहले ही हमने कह दिया है कि वेदवाक्य का प्रामाण्य भी सापवाद है। आशय यह है कि वेदवाक्य का यदि कोई गुणवान् वक्ता नहीं मानेंगे तो वाक्यगत दोषों का निराकरण गुण से नहीं होगा, वे दोष रह जायेंगे और प्रामाण्य का अपवाद कर देंगे अर्थात् वेदवाक्य में अप्रामाण्य का निश्चय या संशय हो जायगा। . Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1 वेदापौरुषेयत्वविमर्श: 171 अथ न गुणवद्वक्तृकृतत्वेन चोदनायाः अप्रामाण्यनिवृत्तिः, किन्त्वपौरुषेयत्वेन, ततो नायं दोषः। रुषेयत्वं चोदनाया अवगतम् ? यद्यन्यतोऽनुमानात् तदा तत एवाऽपौरुषेयत्वसिद्धर्व्यर्थं प्रकृतमनुमानम् / 'अत एवानुमानात्' चेत् ? नन्वतोऽनुमानादपौरुषेयत्वसिद्धौ प्रेरणाया अप्रामाण्याभावः, तदभावाच्च तथाभतप्रेरणाप्रणेत यासामयेन सर्वपरुषाणामीहशत्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयदोषसद्भावः / अतः स्थितमेतत्-तथाभूतानां तथाभूताध्ययनसाधने सिद्ध साधनम् / तन्न निविशेषणो हेतुः प्राक्तनोऽपौरुषोयत्वं साधयति / ___अथ सविशेषणो हेतुः पूर्वोक्तः प्रकृतसाध्यगमकस्तदा विशेषणस्यैव केवलस्य गमकत्वाद् विशेष्योपादानमनर्थकम् / 'भवतु विशेषणस्यैव गमकत्वम् , सर्वथाऽपौरुषोयत्वसिद्ध्या नः प्रयोजनमिति चेत् ? असदेतत् , यतः कत्रस्मरणं विशेषणं किमभावाख्यं प्रमाणम् , अर्थापत्तिः, अनुमानं वा ? यद्यभावाख्यमिति पक्षः, स न युक्तः, अभावप्रमारणस्य प्रामाण्याभावात् / दूसरी बात यह है कि- जिसका प्रामाण्य सिद्ध नहीं है ऐसे प्रेरणावाक्य की रचना तो अतीन्द्रियदर्शन-शक्ति से विकल पुरुष भी करने में समर्थ हैं तो फिर 'अतीन्द्रियार्थप्रतिपादक प्रेरणावाक्य के प्रणयन में कोई भी पुरुष समर्थ न होने से 'सब पुरुष तथाभूत ही हैं-अन्यथाभूत कोई नहीं है'इसकी सिद्धि कहाँ से हो गयी जिससे सिद्धसाधनता न होने की बात आप करते हो ? [अपौरुषेयत्व की सिद्धि दुष्कर-दुष्कर ] अपौरुषेयवादी:-वैदिक प्रेरणावाक्यों में अप्रामाण्याभाव, इस लिये हम नहीं मानते कि वे गुणवान् वक्ता से उच्चारित हैं। किन्तु अपौरुषेय होने से ही वे अप्रामाण्यरहित हैं। उत्तरपक्षी:-अरे! यह प्रेरणावाक्यों का अपौरुषेयत्व कौन से प्रमाण से जान लिया ? क्या दूसरा कोई अनुमान किया? तब तो उस अनुमान से ही इष्ट अपौरुषेयत्व की सिद्धि हो जाने से प्रेरणावाक्यों को अपौरुषेय सिद्ध करने वाला प्रकृत अनुमान बेकार है / तब तो अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त हुआ-प्रकृत अनुमान से अपौरुषेयत्व सिद्ध होने पर प्रेरणा वाक्यों में अप्रामाण्यअभाव की सिद्धि और उस की सिद्धि होने पर अतीन्द्रियार्थप्रतिपादक प्रेरणावाक्य रचना में सामर्थ्य न होने से सकल पुरुषों के तथाभूतत्व यानी समानता की सिद्धि / इस से यह नि:संदेह सिद्ध होता है कि तथाभूत (अल्पज्ञ) पुरुषों के अध्ययन में तथाभूताध्ययनपूर्वकत्व की सिद्धि करने में सिद्धसाधन है। निष्कर्ष:विशेषणरहित अध्ययन शब्दवाच्यत्व हेतु से साध्यसिद्धि नहीं हो सकती। A2 यदि प्रकृत साध्य अध्ययन पूर्वकत्व की सिद्धि में अध्ययनशब्दवाच्यत्व हेतु का 'कर्ता का अस्मरणादि कोई विशेषण माना जाय तो विशेष्यअंश का उपादान ही व्यर्थ हो जायगा, क्योंकि केवल विशेषण ही साध्य की सिद्धि में समर्थ है। अपौरुषेयवादी:-व्यर्थ हो जाने दो-कोई चिन्ता नहीं है। हमारा तो यही प्रयोजन है किसर्वथा-येन केन प्रकारेण अपौरपेयत्व सिद्ध होना चाहीये। उत्तरपक्षी:-B जब वह विशेषण कर्ता का अस्मरण ही अभिप्रेत है, तो यह बताईये कि कर्ता का अस्मरण यह कौन सा प्रमाण है जिससे अपौरुषेयत्व सिद्धि की आशा रखते हैं ? क्या [1] अभावप्रमाणरूप है ? [2] अर्थापत्तिरूप है ? या [3] अनुमान ? अभावप्रमाण वाला पक्ष बिलकुल युक्त नहीं है क्योंकि अभावप्रमाण में प्रामाण्य ही असिद्ध है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 किं च, सदुपलम्भकप्रमाणपंचकनिवृत्तिनिबन्धनाऽस्य प्रवृत्तिरभ्युपगम्यते भवता, "प्रमाणपंचकं यत्र"....[ श्लो० वा० सू० ५-अभाव० श्लो०१] इत्याद्यभिधानात् / न च प्रमाणपंचकस्य वेदे पुरुषसद्भावावेदकस्य निवृत्तिः, नररचितरचनाऽविशिष्टत्वस्य पौरुष्णेयत्वप्रतिपादकत्वेनाऽनुमानस्य प्रतिपादनात् / न चाऽस्याऽप्रामाण्यमभिधातु शक्यम् / यतोऽस्याऽप्रामाप्यं किं a अभावप्रमाणबाधितत्वेन ? उत b स्वसाध्याविनाभावित्वाभावेन ? तत्र न a तावदभावप्रमारणबाधितत्वेन, चक्रकदोषप्रसंगात् / तथाहि-न यावदभावप्रमाणप्रवृत्तिर्न तावत् प्रस्तुतानुमानबाधा, यावच्च न बाधा न तावत्सदुपलम्भकप्रमाणनिवृत्तिः, यावच्च न तस्य निवृत्तिर्न तावत् तन्निबन्धना प्रभावाख्यप्रमाणप्रवृत्तिः, तदप्रवृत्तौ च नानुमानबाधेति दुरुत्तरं चक्रकम् / तन्नाभावप्रमाणबाधितत्वात्प्रस्तुतानुमानस्याऽप्रामाण्यम्। न चाऽबाधितत्वमनुमानप्रामाण्यनिबन्धनम्,- तथाऽभ्युपगमे तस्य प्रामाण्यमेव न स्यात् , तस्य निश्चतुमशक्यत्वात् / तथाहि-बाधाऽभावो नाऽनुपलम्भान्निश्चीयते, विद्यमानबाधकेष्वपि बाधानुपलम्भस्य भावात् / नाऽपि बाधकामावज्ञानात् , यतस्तदपि ज्ञानं यदि तदैव बाधकाभावं निश्चाययति तदा न तत् प्रामाण्यनिबन्धनम् , तथाभूतज्ञानस्य संभवबाधकेष्वपि भावात् / अथ सर्वदा तद्बाधकामावं [अपौरुषेयत्व में अभावप्रमाण का असंभव ] यह भी सोचिए कि आप अभावप्रमाण की प्रवृत्ति तभी मानते हैं जब सत्पदाथ-उपलम्भक प्रत्यक्षादि पाँचो प्रमाण का निवर्तन हो, आपने ही कहा है-"जहाँ प्रमाणपंचक प्रवृत्त नहीं होते........" इत्यादि / तो प्रस्तुत में वेदरचयिता पुरुष का साधक नररचितरचनाऽविशिष्टत्व हेतुक अनुमान हमने दिखा दिया है इसलिये वेद में पुरुषसद्भावसाधक प्रमाणपंचक की निवृत्ति नहीं है / हमारा यह अनुमान अप्रमाण नहीं कह सकते / किसलिये आप उसको अप्रमाण कहेंगे A क्या अभावप्रमाण से बाधित होने के कारण ? अथवा तो B हेतु अपने साध्य का अविनाभावि न होने के कारण ? A अभाव प्रमाण से बाधित होने की बात मिथ्या है क्योंकि उसमें चक्रक दोष हैं। जैसे कि चक्रक दोष इस प्रकार है-जब लग अभावप्रमाण प्रवृत्त न होगा लब लग हमारे प्रस्तुत अनुमान में बाध न होगा। जब लग वह अबाधित है तब लग सदुपलम्भकप्रमाण की निवृत्ति नहीं कह सकते / जब लग वह अनिवृत्त है तब लग प्रमाणपंचक निवृत्तिमूलक अभावप्रमाणप्रवृत्ति को अवकाश नहीं है / अभावप्रमाण की प्रवृत्ति निरवकाश होने से हमारे प्रस्तुत अनुमान को कोई बाधा नहीं होगी। इस प्रकार चक्रक का प्रसर दुनिवार है। अतः 'अभावप्रमाण से बाधित होने के कारण हमारा प्रस्तुत अनुमान 'अप्रमाण प्रमाण है' यह नहीं कहा जा सकता। [ अबाधितत्व अनुमान के प्रामाण्य का मूल नहीं है ] यह भी ध्यान देने योग्य है कि अभावप्रमाण का बाध दोषरूप तभी हो सकता यदि अनुमान का प्रामाण्य अबाधितत्व के ऊपर अवलम्बित होता, किंतु ऐसा नहीं है, कारण, अबाधितत्व को अनुमान में प्रामाण्य का प्रयोजक कहने पर, कोई भी अनुमान प्रमाण न हो सकेगा क्योंकि बाधाभाव का निश्चय ही अशक्य है। जैसे बाध का अनुपलम्भ बाधाभाव का निश्चायक नहीं हो सकता, क्योंकि बाधक की विद्यमानता में भी बाध का अनुपलम्भ हो सकता है किन्तु 'इतने मात्र से बाधाभाव का निश्चय हो जाता है' यह कहना कठिन है / बाधक के अभावज्ञान से बाधाभाव का निश्चय भी Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का-वेदापौरुषेयविमर्शः 173 निश्चाययति / तदसत् , 'न पूर्व बाधकमत्र प्रवृत्तम् , नाप्युत्तरकालं प्रवत्तिष्यते' इत्येवंभूतस्य ज्ञानस्याऽर्वाग्दृशामभावात्, भावे वा तस्यैव सर्वज्ञत्वाद् न "प्रेरणैव धर्मे प्रमाणम्" इत्यन्ययोगव्यवच्छेदेन तद्विषयतत्प्रामाण्यावधारणोपपत्तिः स्यात्-किंतु निश्चितस्वसाध्याविनाभूतलिंगप्रभवत्वम् / स्वसाध्याविनाभावनिश्चायकं च प्रकृतस्य हेतोः पौरुषोयत्वेन कार्यकारणभावनिश्चायकम् , तदेव च स्वसाध्यविपर्यये तस्य सदभावबाधकम, तस्य च प्रकृते हेतौ सत्त्वेन दशितत्वाद न तत्प्रभवस्यानुमानस्याऽप्रामाण्यम् / bअत एव स्वसाध्याविनाभाविवाभावेन तस्याऽप्रामाण्यमिति द्वितीयोऽपि पक्षो न युक्तः / तन्नाभावाख्यं कञस्मरणलक्षणं प्रमाणमपौरुषोयत्वसाधकम् , नापि पौरुष्णेयत्वबाधकम् / अथार्थापत्तिः कञस्मरणम् , तदप्यसंगतम् , अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् , तदूषणैश्चास्य पक्षस्य दूषितत्वात् / अथानुमानम् . तदप्यसंगतम् , 'अपौरुषेयो वेदः कर्चस्मरणाद' इत्येवं प्रयोगे हेतोय॑धिकरणत्वदोषात् / अथ 'अस्मर्यमाणकर्तृकत्वाद्' इति हेतुप्रयोगान्न व्यधिकरणत्वदोषस्तहि "अस्मर्यमाणकर्तृकत्वं भारतादिषु निश्चितकर्तृ केष्वपि विद्यते इत्यनैकान्तिक त्वम् / प्रथागमान्तरे परैः कर्तुः स्मरणात् ततो शक्य नहीं है, क्योंकि यह बाधकाभावज्ञान किस काल में बाधकाभाव का निश्चय करायेगा ? अनुमान काल में ही यदि वह तथाभूत निश्चय करायेगा तो इससे वह प्रामाण्य संपादक नहीं हो जायेगा, क्योंकि बाधकों का संभव रहने पर भी अनुमानकाल में बाधकाभाव ज्ञान हो सकता है-इससे अनुमान को प्रमाण कैसे मान लिया जाय ? यह कहना-'बाधकाभाव ज्ञान सर्व काल बाधकाभाव का निश्चय करता ही रहेगा'-सत्य नहीं है, क्योंकि 'पहले यहाँ कभी भी बाधक विद्यमान नहीं था, और भावि उत्तरकाल में नहीं होगा' ऐसा ज्ञान वर्तमानष्टि वाले को हो नहीं सकता। यदि हो सकता है तब तो जिसको वह हुआ वही सर्वज्ञ बन गया, तब फिर आपने जो भार देकर यह कहा है(अर्थात् ) अतीन्द्रिय धर्म विषय में प्रेरणा से अन्य प्रमाण के योग का व्यवच्छेद करते हुये 'प्रेरणा ही धर्म में प्रमाण है' इस प्रकार भार देकर प्रेरणा के धर्मविषयक प्रामाण्य का प्रतिपादन किया है वह नहीं घटेगा / इस प्रकार अबाधितत्व को प्रामाण्यसंपादक नहीं माना जा सकता किंतु-'अपने साध्य के साथ जिसका अविनाभाव सुनिश्चित है ऐसे लिंग से अनुमान की उत्पत्ति'-यही अनुमान प्रामाण्य का मूल है / हमारे प्रस्तुतानुमान में पौरुषेयत्व हेतु का अपने साध्य नररचितरचनाऽविशिष्टत्व के साथ अविनाभावनिश्चायक प्रसिद्ध है। जैसे-मनुष्य और मनुष्य रचित कार्य के समान कार्य-इनके बीच कारणकार्य भाव का निश्चायक जो अन्वय-व्यतिरेक हैं वही हेतु में साध्य-अविनाभाव के भी निश्चायक हैं। तथा इसी अन्वय-व्यतिरेक का निश्चय पौरुषेयत्वरूप साध्य न होने पर आकाशादि में नररचित रचनाविशिष्टत्व के सद्भावका बाधक भी है। यह बाधक हमारे हेत में भी (व्यभिचार शंका के निवारणार्थ) विद्यमान है इसलिये ऐसे अन्वय-व्यतिरेकावलम्बित स्वसाध्याविनाभावित्व निश्चय विशिष्ट लिंग से उत्पन्न हमारा अनुमान अप्रमाण नहीं हो सकता / अत: b अपने साध्य के साथ अविनाभाव न होने से कर्ता के अस्मरण रूप अभाव प्रमाण से हमारे अनुमान का अप्रामाण्य दिखाने वाला द्वितीय पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं है / निष्कर्ष यह कि कर्ता का अस्मरण रूप अभाव प्रमाण न तो अपौरुषेयत्व का साधक है, न पौरुषेयत्व का बाधक है। _ [2] कर्ता का अस्म रण अर्थापत्ति प्रमाण है और उससे वेद का अपौरुषेयत्व सिद्ध होता है यह दूसरा विकल्प भी असंगत है / कारण, अनुमान में अपत्ति का अन्तर्भाव हम आगे बतायेंगे Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 व्यावृत्तमस्मर्यमाणकर्तृ कत्वमपौरुणेयत्वेन व्याप्यत इति नानकान्तिकत्वम् / न, परकीयस्य कर्तु: स्मरणस्य भवता प्रमाणत्वेनाऽनभ्युपगमात् , अभ्युपगमे वा परैर्वेदेऽपि कर्तुः स्मरणात् 'प्रस्मर्यमाणकर्तृकत्वात् इति प्रतिवाद्यसिद्धो भवन् भवतोऽप्यसिद्धः स्यात् / / अथ वेदे सविगानं कर्तृ विशेषविप्रतिपत्तेः कर्तृ स्मरणमसत्यम् / तथाहि-केचिद् हिरण्यगर्भम् , अपरेऽष्टकादीन् वेदस्य कर्तृन स्मरन्तीति कर्तृ विशेषविप्रतिपत्तिः। नन्वेवं कर्तु विशेषविप्रतिपत्तेस्तद्विशेषस्मरणमेवाऽसत्यं स्यात्तत्र, न कर्तृमात्रस्मरणम् / अन्यथा कादम्बर्यादीनामपि कर्तृ विशेषविप्रतिपत्त: कर्तृ मात्रस्मरणस्याऽसत्यत्वेन तत्राप्यस्मर्यमाणकर्तृकत्वस्य सद्भावात् पुनरप्यनैकान्तिकत्वं प्रकृतहेतोः / अत: अपौरुषेयत्वसाधक अनुमान में जो दोष दिखाये जायेंगे उन से ही यह दूसरा विकल्प भी दूषित हो जाता है। [ कत्तों का अस्मरण अनुमानप्रमाणरूप नहीं हो सकता ] [3] अनुमान प्रमाण भी असंगत है। 'वेद अपौरुषेय है क्योंकि उसके कर्त्ता रूप में किसी का स्मरण नहीं है।' ऐसे अनुमान प्रयोग में हेतु और साध्य का वैयधिकरण्य दोष है, अपौषेयत्व का पक्ष वेद है, उसमें स्मरणाभाव हेतु न रहकर वह तो आत्मा में रहता है। अनुमान में हेतु-साध्य का सामानाधिकरण्य आपके मत में अवश्य होना चाहिये / 'जिसके कर्ता का स्मरण नहीं है ऐसा होने से' इस प्रकार परिष्कार युक्त हेतु का प्रयोग करने पर अब तो यह हेतु वेदरूप पक्ष में ही होने से यद्यपि . वैयधिकरण्य दोष नहीं होगा किंतु महाभारतादि जो कि निश्चितरूप से सकर्तृक है, फिर भी उसके कर्ता का स्मरण न होने से-उसमें भी वह हेतु रह जायेगा, तो वहां अपौरुषेयत्वरूप साध्य न होने से व्यभिचार दोष होगा। अपौरुषेयवादीः-अन्य बौद्धादि आगम [ अथवा महाभारत आदि में ] कर्ता का अस्मरण नहीं है किन्तु स्मरण ही है इसलिये विपक्षीभूत आगम से निवृत्तिमान 'अस्मर्यमाणकर्तृकत्व' हेतु की अपौरुषेयत्व के साथ ही,व्याप्ति सिद्ध हो जाती है / अब अनैकान्तिक दोष नहीं रहेगा। __ उत्तरपक्षी:-अन्य आगमों में अन्य दार्शनिकों को कर्ता का स्मरण होने पर भी आप उसको प्रमाण तो मानते नहीं है, इसलिये आपकी अपेक्षा तो वहां अस्मर्यमाण कर्तृ कत्व रह जाने से यह हेतु व्यभिचारी होगा ही। यदि आप अन्य दार्शनिकों के मत को प्रमाण मान लेते हैं तब तो वेद में भी उन लोगों को कर्ता का स्मरण होने से प्रतिवादीओं के लिये आपका हेतु वेदरूप पक्ष में स्वरूपासिद्ध होने पर आपके लिये भी स्वरूपासिद्ध ही होगा क्योंकि आप उनको प्रमाण मानते हैं / : [ वेद में कत सामान्य का स्मरण निर्वाध है ] अपौरुषेयवादी:-वेद के क विशेष के विषय में विविध मतभेद होने से कर्ता का स्मरण स्त है इसलिये वह मिथ्या है। जैसे-कोई कहते हैं कि वेद का कता हिरण्यगर्भ है, कोई कहते हैं कि अष्टकादि ऋषीओं ने वेद बनाये हैं। इस प्रकार कस्मिरण विवादग्रस्त है। उत्तरपक्षी:-क विशेष विवादग्रस्त है तब क विशेष के स्मरण को ही असत्य कहना चाहिये किन्तु सामान्यतः कस्मिरण [ =कोई न कोई उसका कर्ता तो जरूर है ] को असत्य नहीं कह सकते। यदि उसको भी असत्य कह देंगे तब तो कादम्बरी आदि ग्रन्थ के कर्ताविशेष में भी Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-वेदपौरुषेयविमर्शः 175 अथ वेदे कर्तृ विशेषविप्रतिपत्तिवत् कर्तृ मात्रेऽपि विप्रतिपत्तिरिति तत्र कर्तृ स्मरणमसत्यम् , कादम्बर्यादीनां तु कर्तृ विशेष एव विप्रतिपत्तिर्न कर्तृ मात्र, तेन तत्र कर्तुः स्मरणस्य विरुद्धस्य सत्यत्वाद् नाऽस्मर्यमाणकर्तृकत्वं तेषु वर्तत इति नानैकान्तिकत्वम् / ननु 'वेदे सौगताः कर्तृ मात्रं स्मरन्ति * न मीमांसकाः' इत्येवं कर्तृ मात्रेऽपि विप्रतिपत्तेर्यदि कर्तृ स्मरणं मिथ्या तदा कर्तृ स्मरणवद् अस्मर्यमाणकर्तृत्वमप्यसत्यं स्यात् . विप्रतिपत्तेरविशेषात् , तथा च पुनरप्यसिद्धो हेतुः / एतेन 'सत्यम् , वेदे कर्तृ स्मरणमस्ति न त्वविगीतं, यथा भारतादिषु' इति निरस्तम् / यदप्युक्तम्-'तथा छिन्नमूलं च वेदे कर्तृ स्मरणम् / तस्यानुभवो मूलम् , न चाऽसौ तत्र तद्विषयत्वेन विद्यते' इति, तदप्यसंगतम् / यतः कि प्रत्यक्षेण तदनुभवाभावात् तत्र तच्छिन्नमूलत्वम् , उत प्रमाणान्तरेण? तत्र यदि प्रत्यक्षेणेति पक्ष:, तदा वक्तव्यम्-किं भवत्सम्बन्धिना प्रत्यक्षेण तत्र तदनुभवाभावः ? उत सर्वसम्बन्धिना तत्र तदनुभवाभावः ? यदि भवत्सम्बन्धिना, तदाऽऽगमान्तरेऽपि तत्कर्तृ ग्राहकत्वेन भवेत्प्रत्यक्षस्याऽप्रवृत्त स्तत्कर्तृ स्मरणस्य छिन्नमूलत्वेनाऽस्मर्यमाणकर्तृकत्वस्य भावादनकान्तिकः पुनरपि हेतुः / अथ सर्वसम्बन्धिना प्रत्यक्षेणाननुभवः, असावसिद्धः, न ह्यग्दृिशा 'सर्वेषामत्र तद्ग्राहकत्वेन प्रत्यक्षं न प्रवृत्तिमत्' इति निश्चेतु शक्यमिति तत्र तत्स्मरणस्य छिन्नमूलत्वाऽसिद्धेः 'प्रस्मर्यमाणकर्तृकत्वात्' इत्यसिद्धो हेतुः। विवाद संभव होने से उसके भी सामान्यतः कस्मिरण को मिथ्या कहना होगा और प्रस्तुत हेतु 'अस्मर्यमाणकर्तृकत्व' अब कादम्बरी में भी रह जाने से फिर से एकबार व्यभिचारी हो जायेगा क्योंकि कादम्बरी आदि में आप अपौरुषेयत्व नहीं मानते / [ वेदक स्मरण मिथ्या होने पर कत-अस्मरण भी मिथ्या होगा | अपौरुषेयवादीः-वेद में कर्तृ विशेष के लिये जैसा विवाद है, कर्तृ सामान्य के लिये भी वैसा ही विवाद है, अतः वेद के कर्ता का स्मरण असत्य होना चाहिये / कादम्बरी आदि के विशिष्ट कर्ता में विवाद होने पर भी सामान्यतः कर्तामात्र मे कोई विवाद नहीं है क्योंकि उसमें तो हमारे सहित सब वादीगण कर्ता को मानते ही हैं। इस प्रकार कादम्बरी में अस्मर्यमाणकर्तृ कत्व का विरोधी कस्मिरण ही सत्य होने से उसका विरोध्य अस्मर्यमाणकर्तकत्वरूप हेतु विपक्षीभूत कादम्बरी में नहीं रहेगा तो अनैकान्तिक दोष भी नहीं रहेगा। उत्तरपक्षीः-अहो ! आपने 'वेद में बौद्धों को कस्मिरण है किन्तु मीमांसकों को नहीं है, ऐसे विवाद से कस्मिरण को यदि मिथ्या माना तो कर्ता-अस्मरण भी मिथ्या ही मानना चाहिये क्योंकि विवाद तो एक दूसरे के प्रति तुल्य है / कर्ता-अस्मरण इस प्रकार मिथ्या होने पर फिर से एक बार अस्मर्यमाणकर्तृकत्व हेतु स्वरूपाऽसिद्ध हुआ, क्योंकि वेद में भी वह नहीं रहा। इससे यह प्रलाप भी खंडित हो जाता है जो आपने कहा था कि-"वेद में कर्ता का स्मरण है यह बात सच है, किन्तु वह निर्विवाद नहीं है जैसे भारतादि में वह निर्विवाद है” इत्यादि ... / कित स्मरण की छिन्नमूलता का कथन असत्य ] * यह जो आपने कहा था-'वेद के कर्ता का स्मरण छिन्नमूल है / स्मरण का मूल अनुभव होता है, वेदकर्ता को विषय करने वाला कोई अनुभव नहीं है'."इत्यादि वह भी असंगत है / आप A कर्ता Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 र अथ प्रमाणान्तरेण तदनुभवाभावः, तत्रापि वक्तव्यम्-आगमलक्षणं किं तत् प्रमाणान्तरमभ्युपगम्यते ? उतानुमानस्वरूपम् ? अपरस्य प्रामाण्याऽसम्भवात् / तत्र यद्यागमलक्षणेन तदननुभव इति पक्षः, स न युक्तः, "हिरण्यगर्भः समवर्तताऽग्रे" [ ऋग्वेद ] इत्यादेरागमस्थ तन्त्र-तत्सद्धावाऽऽवेदकस्य संभवात् / न च मन्त्रार्थवादान स्वरूपार्थे प्रामाण्यभावः इति वक्तुं शक्यम् , यतो मन्त्रार्थवादानां स्वाभिधेयप्रतिपादनद्वारेण कार्यार्थोपयोगिता, तेषां तत्राऽप्रामाण्ये विध्यर्थाङ्गताऽपि न स्यात् / ... __ अथानुमानेन तत्र तदननुभवः, सोऽपि न युक्तः, अनुमानेन तत्र तदनुभवस्य प्रतिपादितत्वात् / 'अथानुपलम्भपूर्वकमस्मयमाणकर्तृकत्वं यद्यस्माभिहेतुत्वेनोच्येत तदा पूर्वोक्तप्रकारेणाऽसिद्धत्वानकान्तिकत्वे स्याताम् / न तु तत्कचॅनुपलम्भपूर्वकमस्मर्यमाणकर्तृकत्वं हेतुः किंतु तदभावपूर्वकम्' / नन्वत्राऽपि यदि तदभावः प्रमाणान्तरात सिद्धः तदाऽस्यानुमानस्य वैयर्थ्यम् / न च तदभावप्रतिपादकमन्यत् प्रमाणमस्तीत्युक्तम् / अस्मादेवानुमानात् तदभावसिद्धिस्तदाऽतोऽनुमानात् तदभावसिद्धौ तत्पूर्वकमस्मर्यमाणकर्तृ कत्वं सिध्यति तत्सिद्धौ चाऽतोनुमानात् तदभावसिद्धिरितीतरेतराश्रयदोषात् तदवस्थं सविशेषणस्याऽप्यस्य हेतोरसिद्धत्वम् / का प्रत्यक्षानुभव न होने से स्मरण को छिन्नमूल दिखाते हैं ? B या अन्यप्रमाण से कर्ता का अनुभव न होने से ? A प्रत्यक्ष से अनुभव न होने का पक्ष यदि माना जाय तो यहाँ भी बताईये C केवल आप को ही प्रत्यक्ष से कर्ता के अनुभव का अभाव है ? या D सभी को प्रत्यक्ष से कर्ता के अनुभव का अभाव है ? C केवल आपको ही....यह पक्ष मानते हैं तो फिर से एक बार आ व्यभिचारी हो जायगा / कारण, आपको तो अन्य बौद्धादि आगम में भी कर्ता का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है, अतः अन्य आगम के कर्ता का स्मरण भी इस प्रकार छिन्नमूल हो गया, तो अन्य आगम में भी आपका हेतु 'अस्मर्यमाणकर्तृकत्व' रह गया, किन्तु वहाँ अपौरुषेयत्व साध्य नहीं है। (D) यदि सभी को प्रत्यक्ष से कर्ता के अनुभव का अभाव वाला दूसरा पक्ष माना जाय तो इस प्रकार का अनभवाभाव ही असिद्ध है, क्योंकि 'वर्तमानदृष्टा को किसी का भी प्रत्यक्ष, क रूप में प्रवृत्त नहीं है' ऐसा निश्चय होना शक्य ही नहीं है / अतः वेद में कर्ता के प्रत्यक्ष से अनुभव का अभाव सिद्ध न होने से स्मरण का छिन्नमूलत्व ही असिद्ध है-इस प्रकार स्मर्यमाणकर्तृकत्व ही वेद में रह जाने से अस्मर्यमाण कर्तृ कत्व असिद्ध है। (B) यदि अन्यप्रमाण से कर्ता का अनुभव न होने से स्मरण छिन्नमूल होने का दूसरा पक्ष माना जाय वहाँ भी बताईये कि वह अन्य प्रमाण E आगमस्वरूप है या F अनुमानस्वरूप ? क्योंकि अन्य किसी प्रमाण का संभव नहीं है। E आगमस्वरूप प्रमाणान्तर से वेदकर्ता का अननुभव है यह पहला पक्ष'यदि माना जाय तो वह युक्त नहीं है क्योंकि “हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे" यह आगमवाक्य विद्यमान हैं जो वेदकर्ता के सदभाव का स्पष्ट आवेदक है। 'मन्त्रार्थवादवाक्य यथाश्रत अर्थ में प्रमाण नहीं हैं ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि मन्त्रार्थवाद वाक्य अपने वाच्यार्थ' के प्रतिपादन द्वारा विधिबोधितसा ध्यार्थ' में उपयोगी होते हैं / अब यदि वे अपने वाच्यार्थ में ही अप्रमाण होंगे तो विध्यर्थ के अंगभूत यानी विध्यर्थ में उपयोगी नहीं बन सकेगे। [अभावविशिष्ट कर्तृ-अस्मरण हेतु निर्दोष नहीं है ] Ti....(F) अनुमान से वेदकर्ता का असुभव नहीं है' यह पक्ष भी युक्त नहीं है। क्योंकि नररचनारचिताऽविशिष्टत्वहेतुक अनुमान से वोदकर्ता के अनुभव का प्रतिपादन पहले कर दिया है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-वेदापौरुषेय० 177 अथ मतं-“यत्र सिद्धकर्तृ केषु भावेष्वस्मर्यमाणकर्तकत्वं तत्र कर्तुः स्मरणयोग्यता नास्तीति निविशेषणस्यानैकान्तिकत्वं, वैदिकानां तु रचनानां सति पौरुषेयत्वेऽवश्यं पुरुषस्य कर्तुः तदर्थानुष्ठानसमयेऽनुष्ठातृणां स्मरणं स्यात् / ते हि अदृष्टफलेषु कर्मस्वेवं निविचिकत्साः प्रवर्त्तन्ते यदि तेषां तद्विषयः सत्यत्वनिश्चयः, तस्याप्येवम्भावो यदि तदुपदेष्टुः स्मरणम् , यथा पित्रादिप्रामाण्यवशात् स्वयमदृष्टफलेष्वपि कर्मसु तदुपदेशात् प्रवर्तन्ते 'पित्रादिभिरेतदुपदिष्टं तेनाऽनुष्ठीयते' / एवं वैदिकेष्वपि कर्मस्वनुष्ठीयमानेषु तत्र स्मरणं स्यात् / न चाभियुक्तानामपि वेदार्थानुष्ठातणां त्रैवणिकानां कर्तः स्मरणमस्ति, अतः स्मरणयोग्यस्य कर्तु रस्मरणात अपौरुषेयो वेदः / एवं चायं हेत्वर्थः-कर्तुः स्मरणयोग्यत्वेऽपि सति अस्मर्यमाणकर्त कत्वात् अपौरुषेयो वेदः / न चैवंविधस्य हेतोः सिद्धकर्त केषु भावेषु वृत्तिः, अतो नानैकान्तिकः / यत्र पौरुषेयत्वं तत्र सविशेषणो हेतुः न संभवतीति विरुद्धत्वमपि न विद्यते, विपक्षे वर्तमान: सपक्षेऽसन् विरुद्ध उच्यते, अस्य तु सविशेषणस्य प्रसिद्धपौरुषेये वस्तुन्यप्रवृत्तिः, नापि सपक्षे आकाशादावसत्त्वम् , अतःपरिशुद्धान्वयव्यतिरेकहेतुसद्भावात् कर्तृ स्मरणयोग्यत्वे सति अस्मर्यमाणकर्तृकत्वादपौरुषेयो वेदः सिध्यति / " __ अपौरुषेयवादीः-हम अनुपलम्भविशिष्ट अस्मर्यमाणकर्तृकत्व हेतु का यदि प्रयोग करें तब तो आपके कथनानुसार हेतु की असिद्धता और अनैकान्तिकता ये दो दोष प्रसक्त हो सकते हैं। किन्तु हम कर्ता के अनुपलम्भ से विशिष्ट अस्मर्यमाणकर्तृकत्व को हेतु ही नहीं बनाते, हम तो कर्ता के अभाव से विशिष्ट अस्मर्यमाणकर्तृकत्व को हेतु बनाते हैं। आशय यह है कि वेद कर्ता का अभाव है एवं उसके कर्ता का किसी को भी अनुभव मूलक स्मरण नहीं है इस लिये वेद अपौरुषेय मानते हैं / उत्तरपक्षी:-हेतु का विशेषण कर्तृ-अभाव क्या अन्य कोई प्रमाण से सिद्ध है ? यदि सिद्ध है तब तो उसी से इष्ट सिद्धि हो गयी, प्रस्तुत अनुमान तो व्यर्थ हुआ। किन्तु 'कर्ता के अभाव का साधक वैसा कोई अन्य प्रमाण है ही नहीं' यह तो कह दिया है। यदि इसी अनुमान से कर्तृ-अभाव रूप विशेषण की सिद्धि मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष लगेगा, जैसे-प्रस्तुत अनुमान से कर्ता का अभाव (रूप विशेषण) सिद्ध होगा। और प्रस्तुत अनुमान से कर्ता का अभाव सिद्ध होने पर तद्विशिष्टअस्मैर्यमाणकर्तृ कत्व रूप हेतु की सिद्धि होगी और विशिष्ट हेतु सिद्ध होने पर प्रस्तुतानुमान से कर्ता का अभाव (रूप विशेषण) सिद्ध होगा अतः हेतुसिद्धिमूलक अनुमान और कर्ता का अभाव (रूप विशेषण) इन दोनों के बीच अन्योन्याश्रय दोष हुआ। इस प्रकार अभावपूर्वकत्वविशेषण विशिष्ट हेतु में भी असिद्धि दोष तदवस्थ ही रहता है / . [कत स्मरणयोग्यत्वविशिष्ट हेतु निदोष होने की आशंका ] अब अपौरुषेयवादी अपना मन्तव्य विस्तार से प्रस्तुत करता है - परिस्थिति ऐसी है कि जिन पदार्थों का कर्त्ता सिद्ध है फिर भी उनमें अस्मर्यमाणकर्तृ कत्व रह जाता है, वहाँ तो उनके कर्ता स्मरणयोग्य ही नहीं होता है इसलिये स्मरणयोग्यताविशेषणरहित केवल अस्मर्यमाणकर्तकत्व को हेतु बनावें तो अनैकान्तिक अवश्यक होगा ही। [ तात्पर्य, स्मरणयोग्यत्वे सति अस्मर्यमाणकर्तृ कत्व हमें हेतु रूप से अभिप्रेत है / यह सविशेषण हेतु का सिद्धकर्तृक भावों में विशेषणाभावप्रयुक्त अभाव होने से अनैकान्तिक दोष नहीं रहेगा।] वैदिक रचनाओं की स्थिति कुछ भिन्न है-वैदिक रचनाएँ यदि पौरुषेय होती तो तदुक्त अर्थ के अनुष्ठानकाल में अनुष्ठाताओं को उस कर्ता पुरुष Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तदप्यसंबद्धम्-आगमान्तरेऽपि 'कर्तु: स्मरणयोग्यत्वे सत्यस्मर्यमाणकर्तृ कत्वाद्' इत्यस्य हेतोः सद्भावबाधकप्रमाणाभावेन सद्भावसंभवात संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनकान्तिकत्वस्य तदवस्थत्वात् / किंच, विपक्षविरुद्धं हि विशेषणं विपक्षान्द्यावर्त्तमानं स्वविशेष्यमादाय निवर्तते इति युक्तम् , न च पौरुषेयत्वेन सह कर्तुः स्मरणयोग्यत्वस्य सहानवस्थानलक्षणः, परस्परपरिहारस्थितलक्षणो वा विरोधः सिद्धः। सिद्धौ वा तत एव साध्यसिद्धेः 'अस्मयमाणकर्तृकत्वात्' इति विशेष्योपादानं व्यर्थम् / का स्मरण भी अवश्य होता। कारण यह है कि वेदोक्त अर्थ के अनुष्ठाता को अदृष्टफलक क्रियाओं में उनके फल के विषय में सत्यत्व का निश्चय हो तभी नि संदेह हो कर उन क्रियाओं में प्रवृत्ति करते है। फल के विषय में सत्यत्व का यानी फलाऽव्यभिचार का निर्णय तभी हो सकता है यदि उसके उपदेशक का स्मरण हो। उदा० पूत्र-परिवार आदि को अपने पिता आदि में प्रामाण्य का विश्वास रहने पर जिन क्रियाओं का फल अपने को अदृष्ट हैं ऐसी क्रियाओं में भी पिता आदि के उपदेश से प्रवृत्ति होती है 'हमारे पिता आदि ने इसका उपदेश किया है इस लिये हमारे द्वारा यह अनुष्ठान किया जा रहा है' ऐसा समझ कर / इस प्रकार वैदिक कर्मों के अनुष्ठान काल में भी यदि कोई वेद कर्ता उपदेशक होता तो उसका स्मरण अवश्य किया जाता / किंतु वेदोक्त अर्थ के अनुष्ठाता ब्राह्मण-क्षत्रिय या वैश्य विश्वसनीय होने पर भी किसी को वेद कर्ता का स्मरण नहीं है। इस प्रकार का स्मरणयोग्य होने पर भी उसका स्मरण न होने से वेद अपौरुषेय सिद्ध होते हैं। तो अब हमारे अनुमान में उक्त हेतु का अर्थ यह है कि-'कर्ता स्मरणयोग्य होने पर भी कर्ता की स्मृति न होने से' वेद अपौरुषेय हैं। जिन भावों का कर्ता सिद्ध होने पर भी उसका स्मरण नहीं हो रहा है वहाँ तो उसका कर्ता स्मरणयोग्य ही नहीं है इस लिये 'स्मरणयोग्यत्वे सति अस्मर्यमाणकर्तृ कत्व' रूप सविशेषण हेतु उन भावों में अविद्यमान होने से अनैकान्तिक दोष निरवकाश है / जो पौरुषेय होता है, उसमें यदि कर्ता का स्मरण होता है तो अस्मर्यमाणकर्तृकत्व विशेष्य नहीं रहेगा और यदि रहेगा तो उसका कर्ता स्मरणयोग्य न होने से उनमें विशेषण नहीं रहेगा, अर्थात् सविशेषण हेतु की विद्यमानता उसमें न रहने से हेतु में विरोध दोष का संभव नहीं है / विरुद्ध इसको कहते है जो विपक्ष में ही रहे और सपक्ष में न रहे / पौरुषेयरूप में प्रसिद्ध सिद्धकर्तृक भाव यहाँ विपक्ष है, उसमें यह सविशेषण हेतु रहता ही नहीं है, आकाशादि अपौरुषेय सपक्ष हैं उसमें यह सविशेषण हेतु अविद्यमान नहीं है किंतु विद्यमान है। इस प्रकार विशुद्ध अन्वय-व्यतिरेकशाली हेतु का पक्ष में सद्भाव होने से यानी 'कर्ता स्मरणयोग्य होने पर भी अस्मर्यमाणकर्तृकत्व' हेतु से वेद अपौरुषेय सिद्ध होता है। | स्मरणयोग्यत्वघटित हेतु अन्य आगम में संदिग्धव्यभिचारी है ] उत्तरपक्षी.-अपौरुषेय वादी का यह पूरा कथन संबंधविहीन है / कारण, सविशेषण हेतु में भी अनैकान्तिक दोष तदवस्थ ही है। जैसे-अन्य बौद्धादि आगम में भी 'कर्ता स्मरणयोग्य होने पर अमर्यमाणकर्तृकत्व' रूप हेतु के सद्भाव में कोई भी बाधक प्रमाण न होने से अन्य आगम में भी इस हेतु के सद्भाव की शंका का संभव है, किंतु वहाँ साध्य नहीं है, अतः हेतु की विपक्ष से निवृति संदिग्ध होने से अनैकान्तिक दोष अनिवार्य रहेगा / दूसरी बात यह है-विशेषण यदि विपक्ष का विरोधी होता तब तो विपक्ष से व्यावृत्त होता हुआ वह विशेष्य को भी विपक्ष से निवृत्त कर देता, यह ठीक है। किंतु पौरुषेय भावरूप विपक्ष के साथ स्मरणयोग्यत्वरूप विशेषण का न तो सहानवस्थानरूप विरोध सिद्ध है, न तो परस्परपरिहारस्थितिस्वरूप विरोध प्रसिद्ध है। तब उसकी विपक्ष से व्यावत्ति कैसे मानी Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-वेदापौरुषेय० 179 यदप्युक्तम्-'तदर्थानुष्ठानसमयेऽवश्यंतया त्रैवर्णिकानामनिश्चिततत्प्रामाण्यानामप्रवृत्तिप्रसंगाव सति कर्तरि तत्स्मरणं स्यात् न चाभियुक्तानामपि तदस्ति' इति, तदागमान्तरेऽपि समानं नवेति चिन्त्यतां स्वयमेव / न चायं नियमः-अनुष्ठातारोऽभिप्रेतार्थानुष्ठानसमये तत्कर्तारमनुस्मृत्यैव प्रवर्त्तन्ते, नहि पाणिन्यादिप्रणीतव्याकरणप्रतिपादितशाब्दव्यवहारानुष्ठानसमये तदनुष्ठातारोऽवश्यंतया व्याकरणप्रणेतारं पाणिन्यादिकमनुस्मत्यैव प्रवर्तन्ते इति दृष्टम् , निश्चिततत्समयानां कर्तृ स्मरणव्यतिरेकेणाऽप्यविलम्बेन 'भवति' आदिसाधुशब्दोच्चारणदर्शनात् / तत् स्थितमेतत्-सविशेषणस्यापि 'अस्मर्यमाणकर्तकत्वात्' इति हेतोर्वादिसंबन्धिनोऽनैकान्तिकत्वम्. प्रतिवादिसम्बन्धिनोऽसिद्धत्वम् , सर्वसम्बन्धिनोऽपि तदेवेति नाऽस्माद्ध तोरपौरुषेयत्वसिद्धिः। अतोऽपौरुषेयत्वप्रसाधकप्रमाणाभावाच्छाशनस्याऽपौरुषेयत्वाऽसम्भवे यदि सर्वज्ञप्रणीतत्वं नाभ्युपगम्यते तदा प्रामाण्यमपि न स्यात; तथा च 'धर्म प्रेरणा प्रमाणमेव' इत्ययोगव्यवच्छेदेनावधारणमनुपपन्नम्। अथ प्रेरणाप्रामाण्यसिद्धयर्थं सर्वज्ञः प्रेरणाप्रणेताऽभ्युपगम्यते तदा "चोदनैव च भूतम् , भवन्तम् , जाय ? कदाचित् मान लिया जाय कि विरोध सिद्ध है, तो पौरुषेयत्व के विरोधी स्मरणयोग्यत्व को ही हेतु कर देने से वेद में पौरुषेयत्व का अभाव सिद्ध हो जायगा फिर 'अस्मर्यमाणकर्तृ कत्व' विशेप्यपद का हेतु में लगाना व्यर्थ ही होगा। [ मुख्य बात तो यह है कि कर्तृ स्मरणयोग्यत्व का पौरुषेयत्व के साथ कुछ भी विरोध ही नहीं है / ऐदंयुगीन पौरुषेयभावों में पौरुषेयत्व और कर्तृ-स्मरणयोग्यत्व का सहावस्थान देखा जाता है, इस लिये दो में से एक भी प्रकार के विरोध की संभावना नहीं है। ] [कर्ता के स्मरणपूर्वक ही प्रवृत्ति होने का नियम नहीं है ] आपने जो यह कहा था-'वेद का यदि कोई कर्ता होता तो ब्राह्मणादि तीनों वर्ण के लोक वेदोक्त अर्थ के अनुष्ठान काल में उसका स्मरण अवश्य करते कि उसके विना प्रामाण्य अनिश्चित रह जाने से उन अनुष्ठानों में वे प्रवृत्ति ही नहीं करते। किंतु कर्ता के स्मरण विना भी अभियुक्त यानी प्रामाणिक विश्वसनीय लोग प्रवृत्ति करते हैं इसलिये वेद का कोई कर्ता नहीं है'-इत्यादि इस बात के ऊपर तो आप खुद ही सोच लिजी ये कि अन्य बौद्धादि आगम के विषय में भी इसी युक्ति का तुल्परूप से प्रयोग हो सकता है या नहीं ? तात्पर्य यह है कि उपरोक्त युक्ति अन्य आगम में भी तुल्यरूपेण लागू होने से वह अन्य आगम मे भी अपौरुषेय मानने की आपत्ति आयेगी। दूसरे, यह नियम भी नहीं है कि-'वाँछित अर्थ के अनुष्ठान काल में उसके कर्ता का अनुस्मरण करके ही अनुष्ठाता लोग प्रवृत्ति करे' / ऐसा कहीं देखा नहीं है कि पाणिनी आदि विरचित व्याकरण से उपदिष्ट शाब्दिक व्यवहार का जब जब पालन किया जाता है तब वे व्यवहारकर्ता पहले नियमतः पाणिनी आदि व्याकरण रचयिताओं का स्मरण करे ही, और बाद में उस व्यवहार में प्रवत्ति करें। यह तो स्पष्ट दिखाई देता है कि 'भवति' आदि शब्दों का पाणिनी आदि रचित व्याकरण की सहायता से जिसने समय-संकेत निश्चित कर लिया है वह पाणिनी आदि कर्ता का स्मरण किये विना ही, देर लगाये विना ही 'भवति' आदि शुद्ध शब्दोच्चार करते हैं। [शासन में अपौरुषेयत्व का असंभव होने से जिनकत कतासिद्धि ] उपरोक्त चर्चा से यह सिद्ध होता है कि-अस्मर्यमाणकर्तृ कत्व को विशेषण लगाने पर भी वादि के पक्ष में, हेतु अनैकान्तिक और प्रतिवादी के पक्ष में तथा सभी के पक्ष में हेतु असिद्ध दोषग्रस्त ही रहता Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 भविष्यन्तम् , सूक्ष्मम्, व्यवहितम्-एवंजातीयकमर्थमवगमयितुमलम्, नान्यत् किंचनेन्द्रियम्"-इत्याद्यभिधानमसंगतं प्राप्नोतीत्युभयतः पाशारज्जुर्मीमांसकस्य / तत् स्थितमेतद् प्राचार्येण मीमांसकापेक्षया प्रसङ्गसाधनमेतदुपन्यस्तम्-यदि सिद्ध शासनमभ्युपगम्यते भवद्भिस्तदा जिनानां तत्-जिनप्रणीतम्अभ्युपगन्तव्यमिति / [सवेज्ञवादप्रारम्भः ] अथ भवत प्रेरणाप्रामाण्यवादिनां मीमांसकानामेतत प्रसंगसाधनम.येत तदप्रामाण्यवादिनचार्वाकास्तान् प्रति स्वप्रतिपत्तौ वा भवतः किं प्रमाणं? न च प्रमाणाऽविषयस्य सद्व्यवहारविषयत्वं युक्तम् / तथा हि-'ये देशकालस्वभावविप्रकर्षवन्तः सदुपलम्भकप्रमाणविषयभावमनापन्ना भावाः न ते प्रेक्षावतां सद्व्यवहारपथावतारिणः यथा नाक पृष्ठादयस्तथात्वेनाभ्युपगमविषयाः, तथा च समस्तवस्तुविस्तारव्यापिज्ञानसंपत्समन्वितः पुरुष, इति सद्व्यवहारप्रतिषेधफलाऽनुपलब्धिः। है / अतः इस हेतु से अपौरुषेयत्व सिद्धि की आशा नहीं की जा सकती। इससे यह सिद्ध होता है कि अपौरुषेयत्व का साधक कोई प्रमाण न होने से शासन (आगम)की अपौरुषेयता का कुछ भी संभव नहीं है, अतः यदि शासन को सर्वज्ञ-उपदिष्ट न माना जाय तो उसका प्रामाण्य कथमपि स्थिर नहीं रहेगा। ऐसा होने से मीमांसक जो भार देकर यह कहना चाहते हैं कि 'धर्म के विषय में प्रेरणा प्रमाण ही है' ऐसा प्रेरणा में प्रामाण्य के अयोग का व्यवच्छेद नहीं दिखा सकते क्योंकि सर्वज्ञ प्रमाण है। अब यदि प्रेरणा का प्रामाण्य सिद्ध करने के लिये उसके रचयिता सर्वज्ञ का स्वीकार किया जाय तब आप मीमांसकों का यह वचन असंगत हो जायगा कि-"प्रेरणा ही भूत, वर्तमान, भावि, सूक्ष्म और व्यवहित ऐसे ऐसे अर्थों का बोध कराने में समर्थ है-दूसरा कोई इन्द्रियादि नहीं" [ मीमां. शाब. सू०२ में ] यह वचन असंगत हो जाने से मीमांसक दोनों ओर बन्धनरज्जु से बद्ध हो जायगा। समग्र वाद-विवाद का निष्कर्ष यह है कि 'जिनानां शासनम' ऐसे प्रयोग से आचार्य दिवाकरजी ने मीमांसकों के समक्ष प्रसंगापादन किया है-यदि शासन को आप सिद्ध यानी प्रमाणभूत मानते हैं तो उसको जिनों का यानी जिनेश्वर से विरचित है यह अवश्य मानना होगा। [सर्वज्ञ की सत्ता में नास्तिकों का विवाद-पूर्वपक्ष ]. नास्तिक:-विधिवाक्यात्मक वेद को ही प्रमाण मानने वाले मीमांसकों के प्रति 'जिनानां शासनम्' यह कह कर जो आपने प्रसंगसाधन दिखलाया वह हो सकता है, क्योंकि वेद को हम भी प्रमाण नहीं मानते हैं / किन्तु, 'शासन का प्रणेता जिन सर्वज्ञ है' इसमें भी हमारा विवाद है, तो वेद को अप्रमाण मानने वाले जो चार्वाकमतवादी हैं उनके प्रति सर्वज्ञ की सिद्धि के लिये आपके पास कौनसा प्रमाण है ? तथा आपने भी जो सर्वज्ञ का स्वीकार किया है उसके मूल में कौनसा प्रमाण है ? यदि उसमें कोई प्रमाण ही नहीं है तो उसको, सद्रूप में यानी 'वह विद्यमान है' इस रूप में व्यवहार का विषय बनाना युक्तिसंगत नहीं है / देखिये-जो पदार्थ देशविप्रकृष्ट, कालविप्रकृष्ट और स्वभावविप्रकृष्ट हैं [यानी किसी भी देश में-किसी भी काल में यत्किचित्स्वभावरूप में बुद्धि-अगोचर हैं ], तथा जो सत्पदार्थ के उपलभक प्रत्यक्षादि प्रमाण की विषयता से अनाश्लिष्ट हैं उनका बुद्धिमानों के द्वारा किये जाने वाले 'यह सत् है' इस प्रकार के सद्व्यवहाररूप मार्ग में अवतरण नहीं होता, जैसे-कि देशकालस्वभावविप्रकृष्ट रूप में सर्वमान्य नाक पृष्ठादि (स्वर्ग आदि) पदार्थ। समस्तवस्तुसमूहव्यापकज्ञानसंपत्ति से समन्वित पुरुष भी देश-काल-स्वभाव से विप्रकृष्ट एवं सदूपलम्भकप्रमाणविषयता से अनाश्लिष्ट ही हैं, Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 181 न चाऽसिद्धो हेतुः / तथाहि-सकलपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानांगनालिगितः पुरुषः प्रत्यक्षसमधिगम्यो वाऽभ्युपगम्येत, अनुमानादिसंवेद्यो वा? न तावदध्यक्षगोचरः, प्रतिनियतसंनिहितरूपादिविषयनियमितसाक्षात्करणस्वभावा हि चक्षरादिकरणव्यापारसमासादितात्मलाभाज्ञप्तयो न परस्थं संवेदनमात्रमपि तावदालम्बितुक्षमाः, किमङ्ग! पुनरनाद्यनन्तातीता-ऽनागत-वर्तमानसूक्ष्मादिस्वभावसकलपदार्थसाक्षास्कारिसंवेदन विशेषम् , तदध्यासितं वा पुरुषम् ? प्रविषये चक्षुरादिकरणप्रत्तितस्य ज्ञानस्य प्रवृत्त्यसम्भवात् / सम्भवे वाऽन्यतमकरणप्रवत्तितस्याऽपि ज्ञानस्य रूपादिसकलविषयग्राहकत्वेन संभवात् शेणेन्द्रियपरिकल्पना व्यर्था / न च सूक्ष्मादिसमस्तपदार्थग्रहणमन्तरेण प्रत्यक्षेण तत्साक्षात्करणप्रवृत्तज्ञानग्रहणम् , ग्राह्याऽग्रहणे तद्ग्राहकत्वस्यापि तद्गतस्य तेनाऽग्रहणात् / तदग्रहे च तद्धर्माध्यासितसंवेदनसमन्वितस्यापि न प्रत्यक्षतः प्रतिपत्तिः / ___ नाप्यनुमानतः सकलपदार्थज्ञप्रतिपत्तिः, अनुमानं हि निश्चितस्वसाध्यधर्म धर्मिसम्बन्धाद् हेतोरुदयमासादयत् . प्रमाणतामाप्नोति, प्रतिबन्धश्च समस्तपदार्थज्ञसत्त्वेन स्वसाध्येन हेतोः कि प्रत्यक्षेण अर्थात् वैसे पुरुष का किसी भी देश-काल में यत्किचित्स्वभावोपेत रूप में उपलम्भ नहीं होता। यह अनुपलब्धिरूप हेतु हुआ जिससे सर्वज्ञतया अभिप्रेत पुरुष में सद्व्यवहार का प्रतिषेध फलित होता है / [अनुपलब्धि हेतु की असिद्धि का निराकरण] नास्तिक:-'सर्वज्ञ सद्व्यवहारविषय नहीं है' इस साध्य की सिद्धि में हमने जो हेतु का उपन्यास किया है-वह हेतु असिद्ध भी नहीं है। वह इस प्रकार जिस पुरुष को आप सकलपदार्थ को साक्षात् करने वाले ज्ञान से आलिंगित मानते हो वह पुरुष 1. प्रत्यक्षगोचर है ? 2. या अनुमान से संवेद्य है ? 1. प्रथम विकल्प-प्रत्यक्ष गोचर नहीं कह सकते / कारण, चक्षु आदि बाह्यकरणभूत इन्द्रिय के व्यापार से उत्पन्न होने वाले विज्ञानों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे अमुक अमुक निकटवर्ती रूप आदि विषयों से नियमित यानी तन्मात्रविषयों का ही साक्षात्कार करें. अन्य का नहीं, तो ऐसे विज्ञानों * में जब परकीय ज्ञानमात्र को भी ग्रहण करने का सामर्थ्य नहीं है तो फिर अनादि-अनंत अतीत अनागत और वर्तमानकालीन सूक्ष्म व्यवहितस्वभाव वाले सकल पदार्थों को साक्षात् करने वाले संवेदन विशेष को या तथाभूतसंवेदनविशिष्ट पुरुष को ग्रहण करने का सामर्थ्य उन विज्ञानों में होने की बात ही कहाँ ? क्योंकि चक्षुआदिइन्द्रियजन्य ज्ञान की अपनी विषयमर्यादा के बाहर रहे हुये पदार्थ में ग्रहणप्रवृत्ति होने का सम्भव नहीं है। यदि चक्षु आदि कोई एक इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान में यह गुंजाइश होती तो पाँच में से किसी भी एक इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान रूपादि सकल विषयों के ग्राहकरूप में संभव होने से शेष चार इन्द्रिय की कल्पना ही व्यर्थ हो जायेगी। यह भी विचारणीय है कि सर्वज्ञग्राही प्रत्यक्ष जब तक सूक्ष्म-व्यवहित समस्त पदार्थों का ग्रहण न कर लेगा तब तक उन पदार्थों को साक्षात् करने में प्रवर्त्तमान सर्वज्ञ के ज्ञान का भी ग्रहण न हो सकेगा। क्योंकि 'सर्वज्ञ का ज्ञान समस्तज्ञेयग्राही है' ऐसा ज्ञानगत समस्तज्ञेयग्राहकता का ज्ञान हमारे लिये तब तक असम्भव है जब तक हमारा ज्ञान समस्तज्ञेयग्राही न हो / यह तो प्रसिद्ध ही है कि हमारा ज्ञान सकलज्ञेयग्राही नहीं है, इसलिये सकलज्ञेयग्राहि संवेदन से समन्वितपुरुषविशेष का ग्रहण (प्रथम विकल्प में) प्रत्यक्ष से होने का सम्भव नहीं है। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 182 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ गृह्यते, उतानुमानेन ? न तावदध्यक्षेण, अध्यक्षस्यात्यक्षज्ञानवत्सत्त्वसाक्षात्करणाक्षमत्वेन तदवगतिनिमित्तहेतुप्रतिबन्धग्रहणेऽप्यक्षमत्वात् , न शनवगतसंबन्धिना तद्गतसम्बन्धावगमो विधातु शक्यः / नाप्यनुमानेन तद्गतसम्बन्धावगमः, तथाभ्युपगमेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोषद्वयानतिवृत्तेः / न चाऽगृहीतप्रतिबन्धाद्धेतोरुपजायमानमन्मानं प्रमाणतामासादयति / तथा, धर्मिसम्बन्धावगमोऽपि न प्रत्यक्षतः, अनक्षज्ञानवत्प्रत्यक्षेऽक्षप्रभवस्याध्यक्षस्याऽप्रवृत्तः, प्रवृत्तौ वाऽध्यक्षेणैव सर्वविदः संवेदनाद् अनुमाननिबन्धनहेतुव्यापारणं व्यर्थम् / न चानुमानतोऽप्यनक्षज्ञानवतोऽवगमः, हेतु-पक्षधर्मतावगममन्तरेणानुमानस्यैव मिग्राहकस्याऽप्रवृत्तेः, न चाऽप्रतिपन्नपक्षधर्मत्वो हेतुः प्रतिनियतसाध्यप्रतिपत्तिहेतुरिति नाऽनुमानतोऽपि सर्वज्ञप्रतिपत्तिः / [सर्वज्ञ का उपलम्भ अनुमान से अशक्य ] अनुमान से भी सकलपदार्थज्ञाता का उपलम्भ शक्य नहीं है। अनुमान तभी प्रमाण बन सकता है, जब वह ऐसे हेतु से उत्पन्न हो जिसका अपने साध्यभूत धर्म के साथ (व्याप्ति रूप सम्बन्ध) और धर्मी के साथ सबन्ध होने का निश्चय हो। साध्यधर्म प्रस्तुत में सकलपदार्थज्ञाता की सत्ता है, उसके साथ हेतु का व्याप्ति सम्बन्ध किस प्रमाण से निश्चित होगा? प्रत्यक्ष से या अनुमान से ? प्रत्यक्ष से व्याप्ति का निश्चय शक्य नहीं है। कारण, साध्य अतीन्द्रियवस्तुज्ञान के सत्त्व के ग्रहण में प्रत्यक्ष समर्थ नहीं है इसलिये अतीन्द्रियवस्तुज्ञाताग्रहणमूलक व्याप्ति के ग्रहण में भी प्रत्यक्ष की क्षमता नहीं है / जिसका सम्बन्धी अज्ञात है उसके सम्बन्ध का भी ज्ञान हो नहीं सकता। अनुमान से भी हेतुनिष्ठ व्याप्तिसम्बन्ध का बोध अशक्य है क्योंकि यहाँ इतरेतराश्रय और अनवस्था दोषयुगल दुनिवार हैं-१ इतरेतराश्रयः-हेतुनिष्ठव्याप्ति का बोध जिस अनुमान से करना है उस अनुमान की कारणीभत व्याप्ति भी यदि प्रथम अनमान से गहीत होगी तो प्रथम औ अनुमान एक-दूसरे के आश्रित बन जायेंगे / २-अनवस्था:-यदि द्वितीय अनुमान कारणीभूत व्याप्ति का बोध तृतीय अनुमान से करेंगे तो तृतीय अनुमान में आवश्यक तदीयव्याप्तिज्ञान के लिये चौथा अनुमान करना पड़ेगा तो इसका कहीं भी अन्त नहीं आयेगा। यदि कहें कि-'व्याप्तिज्ञान के विना ही प्रथम अनुमान हो जायेगा इसलिये कोई दोष नहीं होगा'-तो यह समझ लो कि-व्याप्तिग्रह शून्य हेतु से होने वाला अनुमान कभी भी प्रमाणमुद्रा से अंकित नहीं होता। [धर्मी सम्बन्ध का ज्ञान प्रत्यक्ष-अनुमान से अशक्य ] सर्वज्ञसत्त्वरूप साध्य धर्म का धर्मी जो सर्वज्ञ है उसके साथ हेतु का सम्बन्धज्ञान भी आवश्यक है किन्तु प्रत्यक्ष से वह नहीं हो सकता क्योंकि अतीन्द्रियज्ञानवान के साक्षात्कार में इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष की पहुंच नहीं है। यदि इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष की वहाँ प्रवृत्ति शक्य है तो उस प्रत्यक्ष से ही सर्वज्ञ का संवेदन सिद्ध हो जाने से अनुमान के लिये हेतु का प्रयोग निरर्थक हो जायेगा / धर्मो अतीन्द्रियज्ञानवान का अनुमान से भी बोध शक्य नहीं है, क्योंकि हेतु की पक्षवृत्तिता के ज्ञान के विना धर्मिग्राहक अनुमान की प्रवृत्ति ही शक्य नहीं है और हेतु की पक्षवृत्तिता यानी अतीन्द्रियज्ञानवान में हेतु की वृत्तिता जब तक ज्ञात न हो तब तक, प्रतिनियत यानी अपने इष्ट साध्य, के अनुमान में वह हेतु कारण नहीं बन सकता / इस प्रकार यह फलित होता है कि अनुमान से भी सर्वज्ञ का ज्ञान शक्य नहीं है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १.सर्वज्ञवाद: 183 किंच, सर्वज्ञसत्तायां साध्यायां त्रयों दोषजाति हेतु तिवर्तते--असिद्ध-विरुद्धा-नैकान्तिकलक्षणाम् / तथाहि-सकलज्ञसत्त्वे साध्ये किं भावधर्मो हेतुः, उताभावधर्मः, पाहोस्विदुभयधर्मः ? तत्र यदि भावधर्मस्तदाऽसिद्धः। अथाभावधर्मस्तदा विरुद्धः, भावे साध्येऽभावधर्मस्याऽभावाऽव्यभिचारित्वेन विरुद्धत्वात् / अथोभयधर्मस्तदोभयव्यभिचारित्वेन सत्तासाधनेऽनैकान्तिकत्वमिति न सकलज्ञसत्त्वसाधने कश्चित् सम्यग् हेतुः सम्भवति / ___' अपि च यद्यनियतः कश्चित् सकलपदार्थज्ञः साध्योऽभिप्रेतस्तदा तत्कृतप्रतिनियतागमाश्रयणं नोपपन्नं भवताम् / अथ प्रतिनियत एक एवाहन सर्वज्ञोऽभ्युपगम्यते तदा तत्साधने प्रयुक्तस्य हेतोरपरसर्वज्ञस्याभावेन दृष्टान्तानुवृत्त्यसंभवादसाधारणानकान्तिकत्वादसाधकत्वम् / किंच, यत एव हेतोः प्रतिनियतोऽर्हन सर्वज्ञस्तत एव बद्धोऽपि स स्यादिति कुतः प्रतिनियतसर्वज्ञप्रणीतागमाश्रयणमुपपत्तिमत् ? ! इति न कश्चित् सर्वज्ञसाधको हेतुः / अथ सर्वे पदार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात् , अग्न्यादिवदिति तत्साधनहेतुसद्भावः / तदसत्यतोऽत्र कि सकलपदार्थसाक्षात्कार / सकलपदार्थसाक्षात्कार्यकज्ञानप्रत्यक्षत्वं सर्वपदार्थानां साध्यत्वेनाऽऽभिप्रेतम, आहोस्वित प्रतिनियत विषयानेकज्ञानप्रत्यक्षत्वमिति कल्पनाद्वयम् / यद्याद्यः पक्षः, स न युक्तः, प्रतिनियतरूपादि [सर्वज्ञ सिद्धि में असिद्ध-विरुद्ध-अनैकान्तिक दोषत्रयी ] यह भी ज्ञातव्य है-सर्वज्ञ की सत्ता को सिद्ध करने में हेतु तीन दोषजाति का उल्लंघन नहीं कर सकेंगा। १-असिद्धि, २-विरोध, ३-व्यभिचार / वह इस प्रकार-सर्वज्ञसत्तारूप साध्य के ऊपर तीन प्रकार का हेतु संभवित है-A-भावधर्मरूप, B-अभावधर्मरूप, C-उभयधर्मरूप। ये तीनों नहीं घट सकते हैं, जैसे सर्वज्ञ सत्ता को सिद्ध करने वाला भावधर्मस्वरूप कोई हेतु प्रसिद्ध नहीं है इसलिये वह असिद्ध हुआ / अभावधर्मरूप हेतु विरोधी होगा क्योंकि यहाँ साध्य भावात्मक है जब कि हेतु अभावधर्म हर हमेश अभाव का ही अविनाभावी होता है भाव का नहीं, बल्कि भाव का तो वह सदात्यागी ही होगा अतः अभावधर्मरूप हेतु विरुद्ध हो गया। यदि भावाभावउभयधर्मस्वरूप हेतु की आशंका की जाय तो यहाँ व्यभिचार दोष लगेगा क्योंकि साध्य भावात्मक है जो भाव में ही रहेगा और हेतु तो उभय धर्मरूप होने से भाव और अभाव उभयत्र रहेगा अतः साध्याभाववाले में भी रह गया। अतः यह निष्कर्ष मानना होगा कि सर्वज्ञ की सत्ता को सिद्ध करने वाला कोई वास्तविक निर्दोष हेतु नहीं है / . यह भी विचारणीय है कि आप अनियतरूप से बुद्ध महावीर भगवान आदि किसी भी एक सर्वज्ञ को सिद्ध करना चाहते हैं तो वैसे सर्वज्ञ से रचित प्रतिनियत यानी केवल जैन आगमों का हो आशरा लेना आपके लिये शोभास्पद नहीं है, आपको बृद्धादिप्रणीत आगम भी मान्य करना चाहिये / यदि प्रतिनियत ही एकमात्र अरिहंत देव का सर्वज्ञरूप में स्वीकार करके उसको साध्य बनायेंगे तो वह अनुमान सर्वज्ञसत्ता का साधक नहीं हो सकेगा, क्योंकि आपके माने हुए सर्वज्ञ से अन्य तो ऐसा कोई सर्वज्ञ है नहीं जिसको दृष्टान्त बनाकर हेतु की अनुवृत्ति यानी सपक्षवृत्तिता दिखा सके और हेतु जब सर्व सपक्ष व्यावृत्त होता है तो असाधारण-अनैकान्तिक दोष लगता है / दूसरी बात यह है कि जिस हेतु से आप अरिहंतदेव को सर्वज्ञ सिद्ध करेंगे, उसी हेतु से बुद्ध भी सर्वज्ञ सिद्ध हो सकते हैं जो आपको इष्ट नहीं है तो किसी नियत ही महावीरस्वामी आदि विरचित-प्रतिपादित आगमशास्त्र का आशरा लेना युक्तियुक्त नहीं है / कथन का तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञसत्त्व का साधक कोई भी हेतु नहीं है / Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 विषयग्राहकानेकप्रत्यय प्रत्यक्षत्वेन व्याप्तस्याग्न्यादिदृष्टान्तर्मिणि प्रमेयत्वलक्षणस्य हेतोरुपलम्भाद् हेतुविरुद्धत्व-साध्यविकलदृष्टान्तदोषद्वयाध्रातत्वात् / अथ द्वितीयः, सोऽप्यसंगतः, सिद्धसाध्यतादोषप्रसंगात्। तथा, प्रमेयत्वमपि हेतुत्वेनोपन्यस्यमानं 1. किमशेषज्ञेयव्यापिप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिलक्षणमभ्युपगम्यते 2. उत अस्मदादिप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिस्वरूपम्, 3. पाहोस्विद उभयव्यक्तिसाधारणसामान्यस्वभावम् ? इति विकल्पाः। तत्र यदि 1. प्रथमः पक्षः, स न युक्तः, विवादाध्यासितपदार्थेषु तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्याऽसिद्धत्वात् , सिद्धत्वे वा साध्यस्यपि हेतुवत् सिद्धत्वाद् व्यर्थ हेतूपादानम् , तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्य दृष्टान्तेऽग्न्यादिलक्षणेऽसिद्धेः संदिग्धान्वयश्च हेतुः स्यात् / 2. अथास्मदादिप्रमाणप्रमेयत्वं हेतुस्तदा तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्य विवादगोचरेष्वतीन्द्रियेष्वसम्भवादसिद्धो हेतुः, सिद्धौ वा ततस्तथाभूतप्रत्यक्षत्वसिद्धिरेव स्यात, तत्र चाऽविवाद इति न हेतूपन्यासः सफलः / 3. अथोभयप्रमेयत्वव्यक्तिसाधारणं प्रमेयत्वसामान्यं हेतुरिति पक्षः, सोऽप्यसंगतः, अत्यन्तविलक्षणातीन्द्रिय-इन्द्रियविषयप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिद्वयसाधारणस्य सामान्यस्याऽसम्भवात, न हि शाबलेय-कर्कव्यक्तिद्वयसाधारणमेकं गोत्वसामान्यमुपलब्धमिति प्रमेयत्वसामान्यलक्षणो हेतुरसिद्ध इति नानुमानादपि सर्वज्ञसिद्धिः / [ सर्वपदार्थ में ज्ञानप्रत्यक्षत्वसाध्यक अनुमान का निराकरण ] सर्वज्ञसिद्धि के लिये यह अनुमान लगाया जाय कि-सम्पूर्ण पदार्थ किसी पुरुष को प्रत्यक्ष हैं क्योंकि वे प्रमेय हैं जैसे अग्नि आदि- इस प्रकार सर्वज्ञ साधक हेतु का सद्भाव दिखाया जाय तो वह भी अनुचित है क्योंकि यहाँ दो कल्पना प्राप्तावकाश है-१-सर्व पदार्थ में समस्तज्ञेयसाक्षात्कारी एक ज्ञान की प्रत्यक्षता साध्यतया अभिप्रेत है ? या २-प्रतिनियत तद् तद् विषय को साक्षात् करने वाले भिन्न-भिन्न अनेक ज्ञान की प्रत्यक्षता सर्व पदार्थों में अभिमत है ? इन दो में से यदि आद्य पक्ष का स्वीकार करें तो वह युक्त नहीं है क्योंकि प्रमेयत्व हेतु सकलपदार्थ साक्षात्कारिएकज्ञानप्रत्यक्षता का व्याप्य नहीं देखा गया बल्कि अग्नि आदि दृष्टान्त धर्मी में उससे विपरीत यह देखा गया है कि प्रमेयत्व हेतु तो प्रतिनियत तद् तद् रूपादिविषयग्राहक भिन्न भिन्न अनेक ज्ञानप्रत्यक्षता का ही व्याप्य है / फलतः हेतु विरोधी साध्य का साधक होने के कारण हेतु में यहाँ विरुद्धत्व दोष लगेगा और अग्नि आदि दृष्टान्त में प्रस्तुत साध्य न रहने से साध्यवैकल्य दोष आयेगा / यदि दूसरे विकल्प में, सर्व पदार्थों में प्रतिनियत तद् तद् विषय ग्रहण करने वाले अनेक ज्ञान की प्रत्यक्षता को साध्य माना जाय तो यह मीमांसक को इष्ट होने से सिद्धसाध्यता दोष लगेगा, अत: वह दूसरा विकल्प भी असंगत है। [प्रमेयत्व हेतु का तीन विकल्प से विघटन ] सर्वज्ञसिद्धि के लिये उपन्यस्त अनुमान में जो प्रमेयत्व हेतु कहा गया है उसके उपर संभवित वकल्प हैं। प्रमेयत्व का अर्थ है प्रमाणविषयत्व. तो यहाँ प्रमाण शब्द का क्या अर्थ समझना? क्या 1. सकल ज्ञेय वस्तु का व्यापक यानी ग्राहक ऐसा कोई अतीन्द्रियअर्थग्राहीप्रमाण अभिप्रेत है? 2. अथवा हम आदि को जो प्रमाणज्ञान होता है वह अभिप्रेत है ? 3. या उक्त उभय विकल्प साधारण सामान्य प्रमाण अभिमत है ? इन तीन में से किस प्रकार के प्रमाण से निरूपित प्रमेयत्व को आप हेतु करते हैं ? Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड का० 1 सर्वज्ञसिद्धिः 185 नाऽपि शब्दात , यतः शब्दोऽपि तत्प्रतिपादकोऽभ्युपगम्यमानः कि नित्यः उताऽनित्यः ? इति कल्पनाद्वयम् / न तावद् नित्यः, सर्वज्ञबोधकस्य नित्यस्यागमस्याभावात , भावेऽपि तत्प्रतिपादकत्वेन तस्य प्रामाण्याऽसम्भवात् , कार्येऽर्थे तत्प्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वात् / अथाऽनित्यस्तत्प्रतिपादक इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः, यतोऽनित्योऽपि कि तत्प्रणीतः स तदवबोधकः, अथ पुरुषान्तरप्रणीत इति विकल्पद्वयम् / तत्र न सर्वज्ञप्रणोतः स तदवबोधक इति पक्षो युक्तः, इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात् / तथाहितत्प्रणीतत्वे तस्य प्रामाण्यम् , ततः तस्य तत्प्रतिपादकत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / नाऽपि पुरुषान्तरप्रणीतस्तदवबोधकः, तस्योन्मत्तवाक्यवदप्रमाणत्वात / तन्न शब्दादपि तस्य सिद्धिः / अगर प्रथम विकल्प का ग्रहण किया जाय तो वह अयुक्त है, कारण, जिन पदार्थों के बारे में विवाद हैं ऐसे अतीन्द्रिय पदार्थों में सकलज्ञेयव्यापक प्रमाण का प्रमेयत्व कहीं भी सिद्ध नहीं है / कदाचित् किसी प्रकार वह सिद्ध है तब तो साध्य सिद्धि उपरोक्त प्रकार के हेतु की सिद्धि में ही अन्तभूत हो जाने से सर्वज्ञसिद्धि के लिये हेतु का प्रयोग व्यर्थ है / दूसरी बात यह है कि अग्नि आदि रूप दृष्टान्त में सकलज्ञेयव्यापकप्रमाणप्रमेयत्वरूप हेतु सिद्ध न होने से साध्य के साथ हेतु की अन्वयव्याप्ति भी संदिग्ध बन जाती है। दूसरे विकल्प में, हम आदि के प्रमाणज्ञान का प्रमेयत्व हेतु बनाया जाय तो हेतु की असिद्धि हो जायेगी, क्योंकि विवादास्पद अतीन्द्रियपदार्थों में हमारे प्रमाणज्ञान का विषयत्वरूप प्रमेयत्व कभी भो सिद्ध नहीं है। अगर वह सिद्ध होता, तब तो अतीन्द्रियपदार्थों में तथाप्रकार के प्रत्यक्षत्व की-जो साध्यरूप से अभिमत है, अनायास सिद्धि हो जाने से विवाद ही समाप्त हो जाता है, अब हेतु का प्रयोग करना निष्फल है। तीसरे विकल्प में, अतीन्द्रियार्थग्राहिप्रमाणप्रमेयत्व और ऐन्द्रियकार्थग्राहिप्रमाणप्रमेयत्व एतदुभयसाधारण सामान्यप्रमेयत्व को हेतु बनाया जाय तो यह पक्ष भी असंगत है क्योंकि अतीन्द्रियविषयप्रमाणप्रमेयत्व और इन्द्रियविषयप्रमाणप्रमेयत्व ये दोनों व्यक्ति अत्यन्त विलक्षण है इसलिये तदुभय साधारण प्रमेयत्वसामान्य का कोई संभव नहीं है / शबल वर्ण धेनु और श्यामवर्ण धेनु में गोत्व सामान्य हो सकता है किन्तु अत्यन्तविलक्षण शबलवर्ण धेनु और श्वेतअश्व में साधारण हो ऐसा कोई सामान्य धर्म उपलब्ध नहीं है / अतः तीसरे विकल्प में प्रयुक्त प्रमेयत्वसामान्य हेतु असिद्ध होने से इस निष्कर्ष पर आना पड़ेगा कि अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं की जा सकती। [शब्दप्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि अशक्य ] सर्वज्ञसिद्धि के लिये शब्द भी प्रमाण नहीं है / सर्वज्ञ की सिद्धि का संपादक जिस शब्द को माना जायेगा उसके उपर दो कल्पना सावकाश है कि वह शब्द नित्य होगा या अनित्य ? नित्य शब्द से सर्वज्ञसिद्धि की आशा व्यर्थ है, कारण, सर्वज्ञ साधक कोई भी नित्य आगम प्रसिद्ध नहीं है / कदाचित् किसी के मत में सर्वज्ञ का प्रतिपादक नित्य आगम प्रसिद्ध हो तो भी उस आगम में प्रामाण्य असंभवित है / कारण, उस मत में यह व्यवस्था की गयी है कि नित्य आगमवाक्य कार्य यानी प्रयत्नसाध्य स्वर्गादि साधनभूत यज्ञादि अर्थ में ही प्रमाण है किन्तु सिद्ध नदी-पर्वत आदि अर्थ में प्रमाण नहीं है। अनित्य आगम सर्वज्ञ का प्रतिपादक हो यह पक्ष माना जाय तो वह भी युक्तिसंगत नहीं है / . कारण, यहां भी दो विकल्प सावकाश हैं-१. वह सर्वज्ञबोधक अनित्य आगम सर्वज्ञप्रणीत है या Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नाऽपि उपमानात् तत्सिद्धिः, यत उपमानोपमेययोरध्यक्षत्वे सादृश्यालम्बनं तदभ्युपगम्यते, न चोपमानभूतः कश्चित् सर्वज्ञत्वेन प्रत्यक्षतः सिद्धो येन तत्सादृश्यादन्यस्य सर्वज्ञत्वमुपमानात् साध्यते, सिद्धौ वा प्रत्यक्षत एव सर्वज्ञस्य सिद्धत्वान्नोपमानादपि तत्सिद्धिः। सर्वज्ञसद्भावमन्तरेणानुपपद्यमानस्य प्रमाणषटकविज्ञातस्यार्थस्य कस्यचिदभावाद नार्थापत्तेरपि सर्वज्ञसत्त्वसिद्धिः / न चागमप्रामाण्यलक्षणस्यार्थस्य तमन्तरेणानुपपद्यमानस्य तत्परिकल्पकत्वम् , अतीन्द्रिये स्वर्गाद्यर्थे तत्प्रणीतत्वनिश्चयमन्तरेण तस्य प्रामाण्याऽनिश्चयात् , अपौरुषेयत्वादपि तत्प्रामाण्यसम्भवात् कुतस्तस्य तमन्तरेणानुपपद्यमानता? तन्नापत्तितोऽपि तत्सिद्धिः / __ अभावास्यस्य तु प्रमाणस्याभावसाधकत्वेन व्यापाराद् न तत्सद्धावसाधकत्वम् / न चोपमानाऽर्थापत्त्यभावप्रमाणानां भवता प्रामाण्यमभ्युपगम्यत इति न तेभ्यस्तत्सिद्धिः / तदुक्तम् सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीमस्मदादिभिः। दृष्टो न चैकदेशोऽस्ति लिगं वा योऽनुमापयेत् / / न चाऽऽगमविधिः कश्चिन्नित्यः सर्वज्ञबोधकः / न च मन्त्रार्थवादानां तात्पर्यमवकल्पते / / असर्वज्ञपुरुषप्रणीत है ? प्रथम विकल्प-सर्वज्ञबोधक आगम सर्वज्ञप्रणीत है यह पक्ष इतरेतराश्रय दोष होने के कारण अनुचित है / जैसे, सर्वज्ञप्रणीत होने पर वह आगम प्रमाणभूत होगा, और प्रमाणभूत होने पर उससे सर्वज्ञ का यथार्थ प्रतिपादन किया जायगा-इस प्रकार इतरेतराश्रय दोष स्पष्ट ही है / 2. असर्वज्ञप्रणीत अनित्य आगम वाक्य सर्वज्ञ के प्रतिपादन में समर्थ नहीं है क्योंकि वह उन्मत्त वाक्य तुल्य हो जाने से अप्रमाण है / निष्कर्षः-शब्द प्रमाण से सर्वज्ञसिद्धि अशक्य है। उपमानप्रमाण से सर्वज्ञसिद्धि की आशा नहीं है / कारण, उपमानप्रमाण का विषय सादृश्य होता है और सादृश्य का भान उपमान और उपमेय दोनों को प्रत्यक्ष करने पर होता है, यहाँ कमनसीबी यह है कि ऐसा कोई सर्वज्ञपुरुष का दृष्टान्त प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं है जिसके सादृश्य द्वारा अन्य किसी पुरुष में उपमानप्रमाण से सर्वज्ञता की सिद्धि की जा सके। तथा वैचित्र्य यह वैसा कोई सर्वज्ञपुरुष दृष्टान्त प्रत्यक्ष से सिद्ध होता तब तो प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सर्वज्ञ की सिद्धि हो जाने से, उपमान से सर्वज्ञ की सिद्धि मानना नितान्त व्यर्थ है। ___ अर्थापत्ति से भी सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। कारण, प्रत्यक्षादि छह प्रमाण से ऐसा कोई अर्थ ही प्रसिद्ध नहीं है जिसकी सर्वज्ञ का सत्त्व न मानने पर उपपत्ति न हो सके / आगम का प्रामाण्य यह कोई ऐसा अर्थ नहीं है जो सर्वज्ञ के विना उपपन्न न होने से सर्वज्ञ की कल्पना का प्रयोजक हो सके। कारण यह है कि जब तक उस आगम में सर्वज्ञप्रतिपादितत्व का निश्चय संभवबाह्य है तब तक अतीन्द्रिय स्वर्गादि अर्थ के स्वीकार में वह आगम प्रमाण ही नहीं है। उपरांत, आगम का प्रामाण्य [ मीमांसकमतानुसार ] अपौरुषेयताप्रयुक्त भी होने का संभव है, अतः सर्वज्ञ के विना आगम के प्रामाण्य की अनुपपत्ति कैसे कही जाय? तात्पर्य, अर्थापत्ति सर्वज्ञसद्भाव की साधक नहीं हो सकती। अभावप्रमाण से भी सर्वज्ञसिद्धि दुःशक्य है क्योंकि वह अभाव का साधक है, किसी के सद्भाव का साधक नहीं है। दूसरी बात यह है कि उपमान-अर्थापत्ति और अभावप्रमाण को आप (जैन विद्वान्) प्रमाण ही नहीं मानते हैं, अतः उन से सर्वज्ञ की सिद्धि संभव नहीं है / श्लोकवात्तिक और तत्त्वसंग्रह आदि में कहा भी है Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-सर्वज्ञसिद्धिः 187 न चागमेन सर्वज्ञस्तदीयेऽन्योन्यसंश्रयात् / नरान्तरप्रणीतस्य प्रामाण्यं गम्यते कथम् // [ दृष्टव्यं तत्त्व सं० 3185-86, तथा श्लो० वा सू० 2-117/18 ] ततो 'ये देश-काल.' इत्यदिप्रयोगे नाऽसिद्धो हेतुः। सद्व्यवहार निषेधश्च अनुपलम्भमात्रनिमित्तोऽनेकधानेनान्यत्र प्रवत्तित इति अत्रापि तन्निमित्तसद्भावात् प्रवर्तयितुयुक्तः। . प्रथ यथाऽस्माकं तत्सद्धावाऽऽवेदकं प्रमाणं नास्ति तथा भवतां तदभावावेदकमपि नास्ति-इति सद्वयवहारवदभावव्यवहारोऽपि न प्रवत्तितव्यः / तथाहि सर्वविदोऽभावः कि प्रत्यक्षसमधिगम्यः, प्रमाणान्तरगम्यो वा ? तत्र न तावत् प्रत्यक्षसमधिगम्यः, यतः प्रत्यक्षं सर्वज्ञाभावाऽऽवेदकमभ्युपगम्यमानं कि 'सर्वत्र सर्वदा सर्वः सर्वज्ञो न' इत्येवं प्रवर्तते ? उत 'क्वचित कदाचित् कश्चित् सर्वज्ञो नास्ति' इत्येवं ? इति कल्पनाद्वयम् / तत्र यदि 'सर्वत्र सर्वदा सर्वो सर्वज्ञो न' इति प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तिस्हि न सर्वज्ञाभावः, तज्ज्ञानवत एव सर्वज्ञत्वात् / न हि सकलदेशकालव्यवस्थितपुरुषपरिषत्साक्षात्करणमन्तरेण तदाधारमसर्वज्ञत्वमवगन्त शक्यम , तत्साक्षात्करणे च कथं न तज्ज्ञानवतः सर्वज्ञत्वम् ? इति नाद्यः पक्षः। द्वितीयेऽपि पक्षे न सर्वथा सर्वज्ञाभावसिद्धिरिति न प्रत्यक्षात् सर्वज्ञाभावसिद्धिः / "इस काल में हम लोगों को सर्वज्ञ का दर्शन नहीं होता है. अथवा उसका कोई एक देश (यानी अंश अथवा पक्षधर्म) भी नहीं दिखता जो लिंग बनकर उसका अनुमान करावे / सर्वज्ञ का बोधक कोई नित्य आगम-विधिवाक्य भी नहीं है / वेदमन्त्रों में अर्थवादपरक वाक्यों का सर्वज्ञ में तात्पर्यग्रह कल्पित यानी निश्चित नहीं है। तथा (अनित्य ) आगम से सर्वज्ञसिद्धि शक्य नहीं है क्योंकि वह आगम सर्वज्ञप्रणीत मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष है और अन्य असर्वज्ञपुरुषप्रणीत मानेंगे तो उसको प्रमाण कैसे माना जाय?" . अब तक किये गये परामर्श का निष्कर्ष यही है कि नास्तिक की ओर से जो यह अनुमान प्रयोग किया गया है-"जो देश-काल-स्वभाव से विप्रकृष्ट होते हुए सद्वस्तु के उपलम्भक प्रमाण के विषयभाव से अनापन्न पदार्थ होते हैं वे बुद्धिमानों के सद्व्यवहारमार्ग के राही नहीं होते" इत्यादि, इस प्रयोग में सद्-उपलम्भकप्रमाणविषयभाव-अनापन्नता हेतु सर्वज्ञाभाव की सिद्धि में असिद्ध नहीं है / तथा यह तो सुप्रसिद्ध है कि जिस वस्तु का उपलम्भ नहीं होता उसके सद्रूप से व्यवहार का निषेध अन्यत्र अनेक बार किया गया है तो सर्वज्ञ के विषय में भी अनुपलम्भरूप निमित्त विद्यमान होने से सद्व्यवहार का निषेध उचित है / ____नास्तिक यहाँ प्रतिवादी की ओर से विस्तृत आशंका को उपस्थित करता है-प्रतिवादी आशंका करता है कि,- हमारे पास जैसे सर्वज्ञ के सद्भाव का प्रदर्शक कोई प्रमाण नहीं है, तथैव आपके पास सर्वज्ञाभाव का प्रदर्शक भी कोई प्रमाण नहीं है तो जैसे सदव्यवहारप्रवर्तन का आप निषेध करते हैं. उसी प्रकार अभावव्यवहारप्रवर्तन का भी निषेध करना चाहिये / जैसे कि सर्वज्ञ का अभाव क्या प्रत्यक्षगम्य है या प्रत्यक्षान्यप्रमाणगम्य है ? प्रत्यक्ष से तो सर्वज्ञाभाव नहीं जाना जा सकता। कारण, यदि आप प्रत्यक्ष को सर्वज्ञाभाव बोधक मानेंगे तो उसके ऊपर दो प्रश्न कल्पना सावकाश है-१. क्या'कहीं भी कभी भी कोई भी सर्वज्ञ नहीं है' इस प्रकार से प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति होती है, 2. या 'किसी जगह कोई एक काल में कोई कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं है' इस प्रकार के प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति होती है ? Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ न प्रवर्तमानं प्रत्यक्षं सर्वज्ञाभावसाधकं किन्तु निवर्तमानम् / ननु यदि निखिलदेशकालाधारसकलपुरुषपरिषदाश्रितानन्तपदार्थसंविद्वयापकम् कारणं वा तत् स्यात् तदा तन्निवर्तमानं तथाभूतं सर्वज्ञत्वं व्यावर्तयेद् नान्यथा, अतथाभूतनिवृत्तौ तन्निवृत्तेरसिद्धः तथाभ्युपगमे वा स एव सर्वज्ञ इति न तेन तन्निषेधः / कि च, प्रत्यक्षनिवृत्तियदि प्रत्यक्षमेव तदा स एव दोषः / अथ प्रत्यक्षादन्या तदाऽसौ प्रमाणं, अप्रमाणं वा? अप्रमाणत्वे नात: सर्वज्ञाभावसिद्धिः। प्रमाणत्वे नानुमानत्वम् , सर्वात्मसंबन्धिन्यास्तनिवृत्तेर्यथासंख्यमसिद्धानकान्तिकत्वदोषद्वयसद्भावात् / न च तुच्छा तन्निवृत्तिस्तदभावज्ञापिका, तुच्छायाः केनचित् सह प्रतिबन्धाभावेन सर्वसामर्थ्य विरहेण च ज्ञापकत्वाऽसम्भवात् / तन्न प्रवर्त्तमानं निवर्तमानं वा प्रत्यक्षं तदभावं साधयति / यदि प्रथम विकल्प मानें कि 'कहीं भी कभी भी कोई भी सर्वज्ञ नहीं है' इस प्रकार किसी व्यक्ति के प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति मानी जाय तब तो सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं हआ, बल्कि इस प्रकार के ज्ञानवाल व्यक्ति ही सर्वज्ञरूप में सिद्ध हुई / कारण, सर्वदेश-कालवर्ती समग्र व्यक्तिओं में रही हुयी असर्वज्ञता का, सर्वदेश-कालवर्ती समस्त पुरुषव्यक्ति का साक्षात्कार किये विना पता लगाना शक्य नहीं है / और वैसा साक्षात्कार किया जाय तब वह ज्ञानी पुरुष ही सर्वज्ञ क्यों नहीं होगा ? दूसरी कल्पना'किसी जगह कोई एक काल में कोई कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं है' ऐसा माना जाय तो इसमें किसी भी प्रकार सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होता किन्तु 'अमुक व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं है' इतना ही सिद्ध होता है। अतः प्रत्यक्ष प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं है। [ निवर्तमान प्रत्यक्ष सर्वज्ञाभावसाधक नहीं है ] यदि नास्तिक कहेगा कि-'प्रत्यक्ष इसलिये सर्वज्ञाभाव को सिद्ध नहीं करता कि वह सर्वज्ञाभावरूप विषय में प्रवत्ति करता है, किंत सर्वज्ञ के विषय में प्रत्यक्ष की प्रवत्ति नहीं अपित निवृत्ति है अतः यह निवर्तमान प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध किया जाता है'-तो इस पर प्रतिवादी आशंका कार का कहना है कि निवृत्त होने वाला प्रत्यक्ष सर्वज्ञता की व्यावृत्ति यानी निषेध तभी कर सकता है जब अखिल देश-कालवर्ती समस्तपुरुष वर्ग के आश्रित अनन्त अनन्त पदार्थ संवेदन का वह निवर्तमान प्रत्यक्ष व्यापक होता अथवा तो कारण होता, अन्यथा नहीं। यदि निवर्तमान प्रत्यक्ष उक्त प्रकार के संवेदन का व्यापक या कारण नहीं होगा तो उससे सर्वज्ञता का निषेध नहीं हो सकेगा और यदि वह निवर्तमान प्रत्यक्ष उक्त प्रकार के संवेदन का व्यापक या कारण मानेंगे तब तो तथाभूत प्रत्यक्ष करने वाली व्यक्ति ही सर्वज्ञ बन जायेगी, अत एव सर्वज्ञ का निषेध नहीं हो सकेगा। यह भी सोचिये की वह सर्वज्ञनिषेध करने वाली प्रत्यक्षनिवृत्ति क्या है ? यदि प्रत्यक्षज्ञानात्मक है तब तो सर्वज्ञ अभाव प्रतिपादक प्रत्यक्ष पक्ष में जो दोष दिया गया है वही दोष लगेगा। यदि प्रत्यक्षभिन्नज्ञानरूप है तो उसको अप्रमाण मानेंगे या प्रमाण? यदि अप्रमाण मानेंगे तो सर्वज्ञाभाव सिद्धि को आशा मत करना। अगर प्रमाण मानेंगे तो वह दोषयुगलग्रस्त होने से अनुमान प्रमाणरूप नहीं होगी क्योंकि-१. 'समस्त व्यक्ति को सर्वज्ञ का अनुमान नहीं होता' इस प्रकार की निवृत्ति असिद्ध है और 2. केवल आत्मीय यानी आप को ही सर्वज्ञ साधक अनुमान नहीं होता अत: सर्वज्ञाभाव मानेंगे तो अनेकान्तिक दोष लगेगा क्योंकि जिस विषय का आप को अनुमान नहीं होता उस वस्तु का भी सद्भाव तो प्रसिद्ध है / यदि उस निवृत्ति को तुच्छ मानेगे तो वह सर्वज्ञाभाव की बोधक नहीं होगी। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञसिद्धिः 189 प्रमाणान्तरगम्यत्वेऽपि तदभावो न तावदनुमानगम्यः, तदभावसाधकानुमानाभावात् / अथ 'विवादाध्यासितः पुरुषः सर्वज्ञो न भवति, वक्तृत्वात् . रथ्यापुरुषवत्' इत्यनुमानं तदभावसाधकम् / नन्वत्र कि प्रमाणान्तरसंवादिनोऽर्थस्य वक्तत्वं हेतुः, उत तद्विपरीतस्य, आहोस्विद् वक्तृत्वम मिति वक्तव्यम् / यदि 'प्रमाणान्तरसंवाद्यर्थस्य वक्तृत्वात्' इति हेतुस्तदा विरुद्धो हेतुः, तथाभूतवक्तृत्वस्य सर्वज्ञ एव भावात् / अथ प्रमाणान्तरविसंवादिनोऽर्थस्य वक्तृत्वात्' इति हेतुस्तदा सिद्धसाधनम्, तथाभूतस्य वक्तुरसर्वज्ञत्वेनाऽस्माभिरप्यभ्युपगमात् / अथ वक्तृत्वमात्रं हेतुः / न, तस्य साध्यविपर्ययेण सर्वज्ञत्वेनाऽनुपलब्धन सहानवस्थानलक्षणस्य, तदव्यवच्छेदस्वभावेन च परस्परपरिहारस्वरूपस्य च विरोधस्याऽभावाद् न ततो व्यावृत्तिसिद्धिरिति न स्वसाध्यनियतत्वम् , तदभावान्न स्वसाध्यसाधकत्वम् / ___ अथ सर्वज्ञो वक्ता नोपलब्ध इति ततो व्यावृत्तिसिद्धिः / न, सर्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्याऽसम्भवात्, सर्वज्ञ एव वक्तृत्वमात्मन्युपलप्स्यते सर्वज्ञान्तरेण वा तत् तत्र संवेदिष्यत इति न सम्भवः सर्वसम्ब. न्धिनोऽनुपलम्भस्य / अथ सर्वज्ञस्य कस्यचिदभावात् सर्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्य संभवः / ननु सर्वज्ञाकारण, तुच्छस्वरूप निवृत्ति को किसी भी वस्तु के साथ कोई भी सम्बन्ध न होने से उस वस्तु के विधि-निषेध करने का कोई सामर्थ्य उसमें न होने से वह सर्वज्ञाभाव की ज्ञापक नहीं हो सकती। फलित यह हुआ कि प्रथम विकल्प में प्रवर्त्तमान या निवर्तमान किसी भी प्रकार का प्रत्यक्ष सर्वज्ञाभाव को सिद्ध नहीं कर सकता। [ सर्वज्ञाभाव अनुमानगम्य नहीं है ] दूसरे विकल्प में, सर्वज्ञ का अभाव प्रत्यक्षान्य प्रमाण गम्य यदि मान लिया जाय तो भी वह प्रत्यक्षान्य प्रमाण अनुमान से गम्य नहीं माना जा सकता, कारण, सर्वज्ञाभाव का साधक कोई अनुमान अस्तित्व में नहीं है। शंकाः-विवादास्पद पुरुष व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वह वक्ता है जैसे कि शेरी में घुमनेफिरने वाला पुरुष / इस अनुमान से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध हो सकता है / उत्तरः-यहाँ वक्तृत्व हेतु के ऊपर तीन विकल्प हैं, १-प्रमाणान्तर से संवादी अर्थ का वक्तृत्व, २-प्रमाणान्तर विसंवादी अर्थ का वक्तृत्व और ३-केवल वक्तृत्व / ये तीन विकल्प में से यदि प्रथम विकल्प में यह कहा जाय कि प्रमाणान्तर से जिस वाक्य में संवाद मिलता है ऐसे वाक्य का वक्तृत्व यानी भाषकत्व हेतु है तो हेतु विरुद्ध बन जायेगा क्योंकि ऐसा भाषकत्व सर्वज्ञ के विना दूसरे का सम्भव न होने से हेतु सर्वज्ञ साधक ही बन जायगा। दूसरे विकल्प में उससे विपरीत, प्रमाणान्तरविसंवादी अर्थभाषकत्व हेतु किया जाय तब तो सिद्धसाधन दोष लगेगा, कारण-विसंवादी भाषण करने वाले पुरुष को हम कभी भी सर्वज्ञ नहीं मानते / यदि तीसरे विकल्प में केवल वक्तृत्व सामान्य को हेतु किया जाय तो वह सर्वज्ञविरोधी न होने से सर्वज्ञाभाव को सिद्ध नहा कर सकता क्योंकि साध्याभाव सर्वज्ञाभावाभाव यानी सर्वज्ञ आपको कहीं भी उपलब्ध ही नहीं है और जो अनुपलब्ध होता है उसके सहानवस्थानरूप विरोध नहीं होता / एवं जो अन्य का व्यवच्छेदकस्वभाववाला नहीं होता उसका परस्पर परिहार रूप विरोध भी नहीं माना जाता। वक्तृत्व सर्वज्ञ का व्यवच्छेदकन होने से सर्वज्ञपरिहारेण अवस्थित नहीं माना जा सकता। अत: केवल वक्तृत्व हेतु से सर्वज्ञ की निवृत्ति सिद्ध Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 भावः कुतः सिद्धः ? अन्यतः प्रमाणात् चेत् तत एव तदभावसिद्ध रस्य वैयर्थ्यम् / 'अत एवानुमानात्' इति न वक्तव्यम् , इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात् / सिद्धेऽतोनुमानात् सर्वज्ञाभावे सर्वसम्बन्ध्यनुपलम्भसंभवसामाद हेतोविपक्षतो व्यावृत्तिः स्यात् , तस्य च विपक्षाद् व्यावृत्तस्य तत्साधकत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / भवतु वा सर्वसम्बन्ध्यनुपलम्भसंभवस्तथापि सकलपुरुषचेतोवृत्तिविशेषाणामसर्वज्ञेन ज्ञातुमशक्तेरसिद्धः सर्वसम्बन्ध्यनुपलम्भ इति न ततो विपक्षव्यावृत्तिनिश्चयो वक्तृत्वस्येति कुतः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकाद् हेतोस्तदभावसिद्धिः? नापि स्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भात् तद्वयतिरेकनिश्चयः तस्य स्वपितृव्यपदेशहेतुनाऽप्यनैकान्तिकत्वात् / न चैवंभूतादपि हेतोः साध्यसिद्धिः / तथाभ्युपगमे न कश्चिद् सर्वज्ञाभावमवबुध्यते, वक्तृत्वात, रथ्यापुरुषवत' इति तदभावावगमाभावस्यापि सिद्धिः स्यात / अथान्यत्रापि हेतावयं दोषः समानः इति सर्वानुमानोच्छेदः / तदयुक्तम्-अन्यत्र विपक्षव्यावृत्तिनिमित्तस्यानुपलम्भव्यतिरेकेण बाधकप्रमाणस्य सद्भावात् / न चात्रापि तस्य सद्भावः शक्यं वक्तुम् , तदभावस्य हेतुलक्षणप्रस्तावे वक्ष्यमाणत्वात् / न होने से वक्तृत्व हेतु की अपने साध्य के साथ व्याप्ति घट नहीं सकती और व्याप्ति के बिना वक्तृत्व हेतु से सर्वज्ञाभावरूप अपने साध्य की भी सिद्धि दूर है / [विपक्षीभूत सर्वज्ञ से वक्तृत्व हेतु की निवृत्ति असिद्ध / यदि यह माना जाय कि 'सर्वज्ञ पुरुष की वक्ता के रूप में कभी उपलब्धि नहीं है अत: सर्वज्ञ के वक्तृत्व की निवृत्ति सिद्ध होती है तो यह संगत नहीं है / कारण, 'किसी को भी सर्वज्ञ पुरुष की वक्ता के रूप में उपलब्धि नहीं है ऐसा तो सम्भव ही नहीं है क्यों कि जो स्वयं सर्वज्ञ है वह अपने में वक्तत्व की उपलब्धि कर ही लेगा अथवा अन्य सर्वज्ञ पुरुष सर्वज्ञान्तर व्यक्ति में वक्तुत्व का संवेदन कर लेगा, अतः 'किसी को भी सर्वज्ञनिष्ठ वक्तृत्व का उपलम्भ नहीं होता' यह कहना असंभव है। यदि यह कहा जाय-"सर्वज्ञ कोई है ही नहीं इस लिये 'सर्वज्ञ को अपने में वक्तृत्व की उपलब्धि होगी' इत्यादि कहना व्यर्थ होने से 'सर्व को सर्वज्ञ की अनुपलब्धि' का पूर्ण संभव है"- तो यह भी ठीक नहीं, कारण-'सर्वज्ञ नहीं है' यह कैसे सिद्ध हुआ ? यदि दूसरे किसी प्रमाण से, तब तो उसी से उसका अभाव सिद्ध हो गया तो सर्वज्ञाभावसिद्धि के लिये अब वक्तृत्व की व्यावृत्ति का प्रदर्शन बेकार है। अगर कहें कि-"हमने जो अनुमान दिखाया है 'विवादास्पदव्यक्ति सर्वज्ञ नहीं है क्यों कि वक्ता है"-इसी अनुमान से सर्वज्ञाभाव सिद्ध है"-तो इसमें स्पष्ट अन्योन्याश्रय दोष खडा है-आपके इस अनुमान से सर्वज्ञाभाव सिद्ध होने पर सर्वसम्बन्धि अनुपलम्भ के संभव बल पर वक्तृत्व हेतु की विपक्ष से व्यावत्ति सिद्ध होगी और वह सिद्ध होने पर वक्तृत्व हेतु से सर्वज्ञाभाव सिद्ध होगा-इस प्रकार इतरेतराश्रय दोष निर्विवाद है / कदाचित् उदार हो कर हम सर्वसम्बन्धी अनुपलब्धि को मान लेंगे तो भी समस्तपुरुषों की चित्तवृत्ति में क्या है यह विशेषतः जानने में असर्वज्ञ व्यक्ति समर्थ नहीं है अत: सर्वसम्बन्धी सर्वज्ञानुपलब्धि की सिद्धि दूर है / इस प्रकार सर्वज्ञाभाव का विपक्षीभूत सर्वज्ञ से वक्तृत्व हेतु की निवृत्ति सिद्ध न होने से यह संदेह तो कम से कम होगा ही कि 'सर्वज्ञ में वक्तृत्व होता है या नहीं' / जब तक इस संदेह का निराकरण नहीं होगा तब तक वक्तृत्व हेतु से सर्वज्ञ का अभाव कैसे सिद्ध होगा? Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 191 प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञसिद्धिः किं च, सर्वज्ञप्रतिपादकप्रमाणाभावे तस्याऽसिद्धत्वात् तदभावसाधनायोपन्यस्यमानः सर्वोऽपि हेतुराश्रयासिद्ध इति न तस्मादभाव सद्धिः / अथ तद्ग्राहकत्वेन प्रमाणं प्रवर्तत इत्याश्रयाऽसिद्धत्वाभावस्तहि तत्साधकप्रमाणबाधितत्वात् पक्षस्य न तत्साधनाय हेतुप्रयोगसाफल्यमिति नानुमानावसेयः सर्वज्ञाभावः / अपौरुषेयत्वस्य प्राक्तनन्यायेनाऽसिद्धत्वात् सर्वज्ञप्रणीतत्वानभ्युपगमे शब्दस्य पुरुषदोषसंक्रा*न्त्याऽप्रामाण्यान्न ततोऽपि तदभावसिद्धिः / [ स्वकीय अनुपलम्भ से विपक्षव्यावृत्तिनिश्चय अशक्य ] केवल आपको 'सर्वज्ञपुरुष वक्ता नहीं होता' इस प्रकार की अनुपलब्धि हो जाय इतने मात्र से सर्वज्ञपुरुष से वक्तृत्व की निवृत्ति का निश्चय नहीं माना जा सकता क्योंकि आपको तो 'यह मेरे पिता है' इस व्यपदेश का निमित्त स्वजनकत्व भी उपलब्ध नहीं है फिर भी आपके पिता में से स्वजनकत्व की निवृत्ति को आप नहीं मानते हैं अतः केवल स्वकीय अनुपलब्धि व्यावृत्ति की व्यभिचारिणी है। जिस हेतु की विपक्षव्यावृत्ति संदिग्ध हो ऐसे हेतु से साध्यसिद्धि नहीं मानी जा सकती। फिर भी यदि वह मान ली जाय तब तो "कोई भी पुरुष सर्वज्ञाभाव का ज्ञाता नहीं है क्योंकि वक्ता है जैसे शेरी में घुमता फिरता कोई पुरुष" इस प्रकार के अनुमान प्रयोग में वक्तृत्व हेतु की सर्वज्ञाभावज्ञाता रूप विपक्ष से व्यावृत्ति निश्चित न होने पर भी साध्यसिद्धि अनायास हो जायेगी, यानी सर्वज्ञाभाव के ज्ञान का अभाव सिद्ध हो जायगा। शंकाः-यदि प्रत्येक हेतु पर सर्वसम्बन्धी और आत्मसंबन्धी अनुपलब्धि के विकल्पों का प्रहार करते रहेंगे तो धूम हेतु की विपक्ष जलहृदादि में अनुपलब्धि पर भी विकल्पयुगल प्रयुक्त दोष समानरूप से सम्भव है-इसका कट परिणाम यह होगा कि सभी अनमान धराशायी हो जायेंगे। ___ उत्तरः-यह शंका अनुचित है क्योंकि अन्यत्र धूमादिहेतुक अग्नि के अनुमान में तो विपक्षव्यावृत्तिनिर्णायक केवल अनुपलम्भ ही नहीं अपितु बाधकप्रमाण तर्कादि भी उपस्थित है / प्रस्तुत में, त सर्वज्ञ में वक्तत्व का सद्भाव माना जाय तो उसमें कोइ बाधक प्रमाण का सद्भाव आप नहीं कह सकते क्योंकि सर्वज्ञ में वक्तत्वसंबन्ध का कोई प्रमाण बाधक नहीं है यह तो हम सर्वज्ञसाधक हेतु प्रयोग में आगे चल कर दिखायेंगे / [सर्वज्ञाभावसाधक हेतु में आश्रयासिद्धि दोष ] यह भी सोचिये कि जब आपके मत में सर्वज्ञप्रतिपादक कोई प्रमाण नहीं है तो वक्तृत्व हेतु का आश्रय पक्ष सर्वज्ञ स्वयं असिद्ध होने से उसके अभाव को सिद्ध करने के लिये जो कोई हेतु आप दिखायेगे वह बेचारा आश्रयासिद्ध हो जायगा। यदि कहेंगे कि -सर्वज्ञ के ग्राहकरूप में प्रमाण की प्रवृत्ति होती है अतः हेतु का आश्रय सर्वज्ञ असिद्ध नहीं है तब तो उसी सर्वज्ञसाधकप्रमाण से आप का पक्ष यानी सर्धज्ञाभाव, बाधित होने से उसकी सिद्धि के लिये हेतुप्रयोग निष्फल है। सारांश, सर्वज्ञ का अभाव अनुमान से भी बुद्धिगम्य नहीं है। ___ शब्द से भी सर्वज्ञाभाव की सिद्धि दूर है। कारण, शब्दप्रामाण्यप्रयोजकरूप में आशंकित अपौरुषेयत्व की तो पूर्वोक्त न्याय से असिद्धि हो गयी है। अब यदि शब्दप्रतिपादक को सर्वज्ञ नहीं मानेंगे तो उन शब्दों में पुरुषदोषों का संक्रमण संभव होने से प्रामाण्य नहीं रहगा तो उन अप्रामाणिक शब्दों से सर्वज्ञाभाव की सिद्धि की आशा ही कहाँ ? ! ICTUOto Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च तदभावाभिधायकं किंचिद् वेदवाक्यं श्रूयते, केवलं तद्भावाऽऽवेदकवेदवचनोपलब्धिरविगानेन समस्ति अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रुणोत्यकर्णः / / स वेत्ति विश्वं नहि तस्य वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् / / [श्वेताश्व० 3.19] तथा हिरण्यगर्भ प्रकृत्य "सर्वज्ञः०" इत्यादि / न च स्वरूपेऽर्थे तस्याऽप्रामाण्यम् , तत्र तत्प्रामाण्यस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात / तन्न शब्दादपि तदभावसिद्धिः / नाऽप्युपमानात् तदभावावगमः, यत उपमानोपमेययोरध्यक्षत्वे सादृश्यालम्बनमुदेति, अन्यथा तस्माद् यत् स्मर्यते तत् स्यात् सादृश्येन विशेषितम् / प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् // [श्लो. वा उपमा०.३७] इत्यभिधानात् प्रत्यक्षेणोपमानोपमेययोरग्रहणे उपमेयस्मरणाऽसम्भवात् कथं स्मर्यमाणपदार्थविशिष्टं सादृश्यम् सादृश्यविशिष्टं वा स्मर्यमाणं वस्तु उपमानविषयः स्यात् ? तस्मादिदानींतनोपमानभूताशेषपुरुषप्रत्यक्षत्वम् , उपमेयाशेषान्यकालमनुष्यवर्गसाक्षात्करणं चावश्यमभ्युपगमनीयम , तदभ्युपगमे च स एव सर्वज्ञ इति कथमुपमानात् तवभावावगमो युक्तः ? अतो यदुक्तम्-[ श्लो.वा.सू. 2.113 ] 'यज्जातोयः प्रमाणस्तु यज्जातीयार्थदर्शनम् / दृष्टं सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत् // ' तन्निरस्तम् , उपमानस्योक्तन्यायेनात्र वस्तुन्यवृत्तः। [ सर्वज्ञ वेदवचन से प्रसिद्ध है ] दूसरी बात यह है कि-सर्वज्ञाभाव का प्रतिपादक तो कोई भी वेदवाक्य नहीं है, बल्कि दूसरी ओर उसके सद्भाव का उद्घोषक अनेक वेदवचन निर्विवाद उपलब्ध होते हैं। जैसे कि श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा है ''जिस को हाथ-पैर नहीं है, जो जवन एवं ग्रहोता है, तथा विना चक्षु ही देखता है, विना श्रोत्र ही सुनता है, जो समग्र विश्व को जानता है किन्तु उसको जानने वाला कोई नहीं है, ऐसे पुरुषाग्रणी को महान कहते हैं। ___ तथा हिरण्यगर्भ को उद्देश कर कहा गया है कि 'वह सर्वज्ञ है सर्वविद् है' इत्यादि। इन वेदवचनों को यथाश्रुत अर्थ में अप्रमाण नहीं कह सकते क्योंकि इनका प्रामाण्य हम आगे चल कर बताने वाले हैं / अत: फलित होता है कि शब्द प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं है / [ उपमानप्रमाण से सर्वज्ञाभाव की सिद्धि दुष्कर] उपमानप्रमाण से भी सर्वज्ञ का अभाव नहीं जाना जा सकता, कारण, उपमान और उपमेय का प्रत्यक्ष प्रसिद्ध हो तब सादृश्य के निमित्त से उपमान प्रमाण का उद्भव होता है। यदि ऐसा न माना जाय तो “गवय के प्रत्यक्ष से जिस धेनु का स्मरण होता है वही धेनु गवयमादृश्य से विशिष्टरूप में, अथवा उस धेनु से विशिष्ट सादृश्य -उपमान प्रमाण का प्रमेय (यानी ग्राह्य) होता है" इस कथनानुसार प्रत्यक्ष से उपमान और उपमेय का ग्रहण नहीं होगा तो उपमेय का स्मरण जो कि आवश्यक है उसका संभव न होने से स्मृति में उपस्थित धेनु से विशिष्ट सादृश्य अथवा सादृश्य से विशिष्ट ही Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 163 नाप्यर्थापत्तितस्तदभावावगमः, तस्याः प्रमाणत्वेऽनुमानेऽन्तर्भूतत्वात् / तथाहि-'दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यदृष्टार्थकल्पनाऽर्थापत्तिः' [ मीमां० शाबर० सू० 5 पृ० 8, पं० 17 ] / नचासावर्थोऽन्यथानुपपद्यमानत्वानवगमे अदृष्टार्थपरिकल्पनानिमित्तम्-अन्यथा स येन विनोपपद्यमानत्वेन निश्चितस्तमपि परिकल्पयेत्, येन विना नोपपद्यते तमपि वा न कल्पयेत्-अनवगतस्यान्यथानुपपन्नत्वेने अर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्यान्यथानुपपद्यमानत्वे सत्यप्यदृष्टार्थपरिकल्पकत्वाऽसंभवात् , संभवे लिंगस्यास्यनिश्चितनियमस्य परोक्षार्थानुमापकत्वं स्यादिति तदपि नार्थापत्त्युत्थापकादर्थाद् भिद्येत / स चान्यथानुपपद्यमानत्वावगमस्तस्यार्थस्य न भूयोदर्शननिमित्तः सपक्षे, अन्यथा 'लोहलेख्य वज्रम् , पार्थिवत्वात् , काष्ठवत्' इत्यत्रापि साध्यसिद्धिः स्यात् / नापि विपक्षे तस्यानुपलम्भनिमित्तोऽसौ, स्मृति-उपस्थित धेनुरूप वस्तु उपमान प्रमाण का विषय कैसे होगा? अब यदि आप उपमान प्रमाण से अपूर्ण प्रत्यक्ष वाले वर्तमान सकल अल्पज्ञपुरुष की भांति अतीत-अनागत सभी पुरुष को अपूर्णप्रत्यक्षवाले सिद्ध करना चाहते हो तो यहाँ वर्तमानकालीन सकल पुरुष उपमान हुआ और अतीतानागत सकल पुरुष उपमेय हुआ-उन सभी का यानी अतीत-वर्तमान-अनागत सकल पुरुषों का साक्षात्कार मानना आपके लिये आवश्यक हो गया / यदि यह मान लिया तब तो ऐसे साक्षात्कार का कर्ता ही सर्वज्ञ सिद्ध हुआ फिर उपमान प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव मानना कहाँ तक उचित होगा? इसलिये, अतीतअनागतकालीन लोगों के ज्ञान में वर्तमानकालीन लोगों के ज्ञान की तुल्यत को सिद्ध करने के लिये आपने श्लोक वात्तिक में जो यह कहा है कि-"वर्तमान लोगों में जिसप्रकार के प्रमाणों से जिसप्रकार का अर्थ दर्शन दिखा जाता है, अतीतानागत काल में भी वह ऐसा ही होता था"-यह आपका कथन ध्वस्त हो जाता है, क्योंकि उपरोक्त रोति से प्रस्तुत विवादास्पद विषय में उपमान प्रमाण की प्रवृत्ति ही शक्य नहीं है, कारण, वर्तमान में सकल पुरुषों के प्रत्यक्ष का संभव नहीं है। [ अनुमान में अन्तभूत अर्थापत्ति स्वतन्त्र प्रमाण ही नहीं है ] .अर्थापत्ति प्रमाण से सर्वज्ञाभाव का पता नहीं लग सकता। कारण, यदि वह प्रमाण मानी जाय तो भी उसका अनुमान में ही अन्तर्भाव हो जाता है / वह इस प्रकार - _ "देखा हुआ या सुना हुआ अर्थ अन्य प्रकार से उपपन्न न होने पर अदृष्ट अर्थ की कल्पना की जाय-यही अर्थापत्ति है" यह शाबरभाष्य का वचन है। इससे तो यह फलित होता है कि जिस अर्थ की अन्यथानुपपत्ति अज्ञात हो वह अदृष्ट-कल्पना का निमित्त नहीं बन सकता / अन्यथा, यदि अन्यथानुपपत्तिज्ञान विना भी वह अदृष्टार्थकल्पनानिमित्त होगा तो जिस के विना उसकी उपपत्ति निश्चित है उस अर्थ की भी कल्पना करा देगा क्योंकि अन्यथानुपपत्ति न हो या अज्ञात हो दोनों में कोई फर्क नहीं है / अथवा जिसके विना उसकी अनुपपत्ति है किंतु अज्ञात है उसकी भी कल्पना नहीं करायेगा क्योंकि अर्थापत्ति का उपस्थापक अर्थ, अन्यथानुपपत्ति के होने पर भी 'अन्यथा अनुपपन्न है' इस प्रकार से ज्ञात नहीं होगा तब तक वह अदृष्टार्थ की कल्पना का निमित्त बने यह संभव नहीं है। यदि संभव हो, तब अनुमान में भी, जिस लिंग का अपने साध्य के साथ नियम ज्ञात नहीं है वह भी परोक्ष अर्थ के अनुमान को जन्म देगा, इस प्रकार अनुमान और अर्थापत्ति के प्रयोजक क्रमशः लिंग और अर्थ में क्या अन्तर रहा? Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 व्यतिरेकनिश्चायकत्वेनानुपलम्भस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात् / किन्तु, विपर्यये तद्बाधकप्रमाणनिमित्तः, तच्च बाधकं प्रमाणमर्थापत्तिप्रवृत्तः प्रागेवानुपपद्यमानस्यार्थस्य तत्र प्रवृत्तिमदभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथाऽर्थापत्त्या तस्यान्यथानुपपद्यमानत्वावगमेऽभ्युपगम्यमाने यावत् तस्यान्यथानुपपद्यमानत्वं नावगतं न तावदापत्तिप्रवृत्तिः। अत एव यदुक्तम्-[ श्लो० वा० सू० ५-अर्थापत्ति० 30-33 ] अविनामाविता चात्र तदैव परिगृह्यते / न प्रागवगतेत्येवं सत्यप्येषा न कारणम् // तेन सम्बन्धवेलायां सम्बन्ध्यन्यतरो ध्रुवम् / अर्थापत्त्येव मन्तव्यः पश्चादस्त्वनुमानता // इत्यादि, तन्निरस्तम् , एवमभ्युपगमेश्र्थापत्तेरनुत्थानस्य प्रतिपादितत्वात् / स च तस्य पूर्वमन्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगमः किं दृष्टान्तर्मिप्रवृत्तप्रमाणसंपाद्यः, आहोस्थित स्वसाध्यमिप्रवृत्तप्रमाणसंपाद्य इति ? तत्र यद्याद्यः पक्षस्तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-किं तत् दृष्टान्तर्धामणि प्रवृत्तं प्रमाणं साध्यमिण्यपि साध्याऽन्यथानुपपन्नत्वं तस्यार्थस्य निश्चाययति, आहोस्वित् दृष्टान्तधर्मिण्येव ? तत्र यद्याद्यः पक्षः तदाऽर्थापत्त्युत्थापकस्याऽर्थस्य लिंगस्य वा स्वसाध्यप्रतिपादनव्यापार प्रति न कश्चिद विशेषः / अथ द्वितीयः. स न यक्तः, न हि दृष्टान्तमणि निश्चितस्वसाध्यान्यथाऽनुपप .. [विपक्षबाधकप्रमाण से अन्यथानुपपत्ति का बोध ] अर्थापत्ति के प्रस्ताव में, अर्थ की अन्यथानुपपत्ति का बोध आवश्यक है यह निश्चित हुआ, अब वह किस निमित्त से होगा यह सोचिये-सपक्ष में बार बार कल्पनीय अदृष्ट अर्थ का उस अर्थ के साथ साहचर्य निमित्त नहीं है, क्योंकि पार्थिवत्व और लोहलेख्यत्व का काष्ठादि में अनेकशः होने पर भी पार्थिवत्व हेतु से वज्र में लोहलेख्यत्वरूप साध्य की सिद्धि नहीं होती। यदि केवल अनेकशः सहचारदर्शन मात्र निमित्त होता तब तो वज्र में भी लोहलेख्यत्व की सिद्धि होने की आपत्ति होती। 'विपक्ष में अदर्शन' यह भी अन्यथानुपत्तिगमक नहीं है, कारण-विपक्ष में अभाव का निश्चय केवल अदर्शनमात्र से शक्य नहीं है यह निषेध तो पहले भी किया जा चुका है। सच बात यह है कि विपक्ष में बाधक प्रमाण का सद्भाव ही अन्यथानुपपत्ति का बोधक हो सकता है / विपक्ष में 'कल्पनीय अर्थ के विना अनुपपद्यमान अर्थ' की सत्ता में बाध करने वाले प्रमाण की प्रवृत्ति भी अर्थापत्ति प्रमाण की प्रवृत्ति के पहले ही माननी होगी / ऐसा न मानकर अर्थापत्ति से ही उसकी अनुपपद्यमानता का बोध मानेंगे तो यह अन्योन्याश्रय दोष होगा कि जहाँ तक अन्यथानुपपत्ति का बोध नहीं हुआ है वहाँ तक अर्थापत्ति की प्रवृत्ति नहीं होगी और जहाँ तक अर्थापत्ति की प्रवृत्ति नहीं होगी वहाँ तक अर्थापत्तिप्रयोजक अर्थ की अन्यथा-अनुपपत्ति का बोध नहीं होगा। फलतः अर्थापत्ति की प्रवृत्ति ही रुक जायेगी। श्लोक वात्तिक में अनुमान से अर्थापत्ति को भिन्न प्रमाण सिद्ध करने के लिये जो यह कहा गया है कि-"अर्थापत्ति से अदृष्ट अर्थ कल्पना के बाद ही, अनुपपद्यमान अर्थ के साथ उसका अविमाभाव गृहीत होता है, उसके पूर्व वह विद्यमान होने पर भी ज्ञात नहीं होता, अतः वह अनुमान उद्भावक नहीं होता है / अत. अविनाभाव संबंध के ग्रहण काल में दो में से एक संबंधी का भान अर्थापत्ति से ही मानना होगा। हाँ, तत्पश्चाद् अविनाभाव ज्ञात हो जाने पर वहाँ अनुमान हो सकता है।" इत्यादि यह भी उपरोक्त अन्योन्याश्रय दोष से ध्वस्त हो जाता है। क्योंकि यहाँ अर्थापत्ति का उत्थान असंभव है यह कहा जा चुका है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 165 द्यमानत्वोऽर्थोऽन्यत्र साध्यमिणि तथा भवति / न च तथात्वेनाऽनिश्चितः स साध्यमिणि स्वसाध्यं परिकल्पयतीति युक्तम् , अतिप्रसंगात् / ___ अथ लिंगस्य दृष्टान्तर्धामप्रवृत्तप्रमाणवशात् सर्वोपसंहारेण स्वसाध्यनियतत्वनिश्चयः,अर्थापत्त्युस्थापकस्य त्वर्थस्य स्वसाध्यमिण्येव प्रवृत्तात प्रमाणात् सर्वोपसंहारेणादृष्टार्थान्यथानुपपद्यमानत्वनिश्चयः, इति लिंगाऽर्थापत्त्युत्थापकयोर्भेदः / नास्माद् भेदादर्थापत्तेरनुमानं भेदमासादयति / अनुमानेऽपि स्वसाध्यमिण्येव विपर्ययाद्धेतुव्यावर्तकत्वेन प्रवृत्तं प्रमाणं सर्वोपसंहारेण स्वसाध्यनियतत्वनिश्चायकमभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथा 'सर्वमनेकान्तात्मकम् , सत्त्वाद्' इत्यस्य हेतोः पक्षीकृतवन्तुव्यतिरेकेण दृष्टान्तमिणोऽभावात् कथं तत्र प्रवर्त्तमानं बाधकं प्रमाणमनेकान्तात्मक त्वनियतत्वमवगमयेव सत्त्वस्य ? ! [लिंग और साध्य के विना अनुपपन्न अर्थ-दोनों में विशेषाभाव ] अर्थापत्ति के उत्थान में अन्यथानूपपत्ति का बोध प्रथम अपेक्षित है यह निश्चित हो जाने के बाद यह भी सोचना होगा कि वह बोध दृष्टान्त में दिखाये गये धर्मी के विषय में जो प्रमाण प्रवृत्त - होगा, उससे सम्पन्न होगा ? अथवा अपने साध्य का जो धर्मी है उसमें प्रवृत्त होने वाले प्रमाण से सम्पन्न होगा ? यदि अन्यथानुपपत्ति का पूर्व निश्चय दृष्टान्तर्मिप्रवृत्तप्रमाण से सम्पन्न होने का पहला विकल्प मान्य करें तो यहाँ भी दो कल्पना हैं-१- दृष्टान्तधर्मो में प्रवृत्त प्रमाण, साध्यधर्मी में भी 'यह अर्थ अमुक साध्य के विना यहाँ अनुपपन्न है' इस प्रकार का निश्चय उत्पन्न करेगा ? या २केवल दृष्टान्त धर्मी में ही वैसा निश्चय उत्पन्न करेगा ? यदि प्रथम कल्पना का स्वीकार किया जाय तो अपत्ति का उत्थापक अर्थ और अनुमान का प्रयोजक लिंग इन दोनों में अपने अपने साध्य को प्रतिपादित करने के ढंग में कोई अन्तर नहीं रहा / कारण, अन्यथानुपपत्ति का दृष्टान्त में ग्रहण और पक्ष-धर्मी में साध्य का आपादन उभयत्र समान है। दूसरी कल्पना का स्वीकार भी उचित नहीं है क्योंकि दृष्टान्त के धर्मी में साध्य के विना उपपन्न न होने वाले अर्थ का तद्रूप से निश्चय दृष्टान्त के धर्मी में साध्य की कल्पना में उपयोगी हो सकता है किन्तु साध्यधर्मी को उससे क्या लाभ हुआ? वहां तो अन्यथानुपपत्ति का बोध न होने से साध्य की कल्पना का अनुत्थान ही रहेगा / अर्थ की साध्य के विना अनुपपत्ति का साध्यधर्मी में जहां तक निश्चय न हो वहां तक उस अर्थ से साध्यधर्मी में अपने साध्य की कल्पना की जाय यह जरा भी उचित नहीं है, क्योंकि तब तो किसी भी अर्थ से किसी भी धर्मी में किसी भी प्रकार के साध्य की कल्पना कर सकने का अतिप्रसंग आयेगा। [दृष्टान्तधर्मी और साध्यधर्मी के भेद से भेद असिद्ध ] यदि दूसरे विकल्प में यह कहा जाय कि-"लिंग में जो स्वसाध्यनियतत्व अर्थात् अपने साध्य से निरूपित व्याप्ति है उसका निश्चय दृष्टा त धर्मी में प्रवर्तमान प्रमाण के बल पर सर्वोपसंहार से यानी सर्वत्र हो जाता है, प्रमाण प्रवृत्ति केवल दृष्टान्त धर्मी में होती है किन्तु व्याप्तिग्रह संनिकर्षविशेष से धूम-अग्नि के सभी अधिकरण के विषय में हो जाता है / अर्थापत्तिस्थल में कुछ अन्तर यह है कि यहाँ साध्यधर्मी में जो प्रमाण प्रवृत्त होता है, उससे अर्थापत्ति उत्थापक अर्थ का अपने साध्य अदृष्टार्थ के साथ नियतत्व सर्वोपसंहारेण अवगत होता है / इस प्रकार अर्थापत्ति में और अनुमान में क्रमशः स्वसाध्यधर्मी में प्रमाण-प्रवृत्ति और दृष्टान्तधर्मी में प्रमाणप्रवृत्ति होने का अन्तर है।"-प्रतिपक्षी कहता है कि यह अन्तर भेदापादक अन्तर नहीं है यानी इतने मात्र भेद से अर्थापत्ति से अनुमान Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च साध्यमिणि दृष्टान्तामणि च प्रवर्तमानेन प्रमाणेनाऽर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्य लिंगस्य च यथाक्रमं प्रतिबंधो गृह्यत इत्येतावन्मात्रेणाऽर्थापत्त्यनुमानयोर्भेदोऽभ्युपगंतुयुक्तः, अन्यथा पक्षधर्मत्व• सहितहेतुसमुत्थादनुमानात तद्रहितहेतुसमुत्थमनुमानं प्रमाणान्तरं स्यादिति प्रमाणषट्कवादो विशीर्येत / . 'नियमवतो लिंगात् परोक्षार्थप्रतिपत्तेर विशेषाद न ततस्तद् भिन्नम् इत्यभ्युपगमे स्वसाध्याऽविनामूता• दर्थादर्थप्रतिपत्तेरविशेषादनुमानादर्थापत्तेः कर्थ नाऽभेदः ? ! तदेव प्रमाणत्वेऽर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावाद अनुमानस्य सर्वज्ञाभावप्रतिपादकस्य निषेधात तम्निषेधे चार्थापत्तेरपि तदभावग्राहकत्वेन निषेधान्नार्थापत्तिसमधिगम्योऽपि सर्वज्ञाभावः। प्रभावाख्यं तु प्रमाणमप्रमाणत्वादेव न तदभावसाधकम् / प्रमाणत्वेऽपि किमात्मनोऽपरिणामलक्षणं तत्, आहोस्विदन्यवस्तुविज्ञानलक्षणमिति ? तत्र यद्यात्मनोऽपरिणामलक्षणं तदभावसाधकमिति पक्षः स न युक्तः, तस्य सत्त्वेनाऽभ्युपगते परचेतोवृत्तिविशेषेऽपि सद्भावेनानकान्तिकत्वात् / अथान्यविज्ञानलक्षणमिति पक्षः, सोऽप्यसंबद्धः, यतः सर्वज्ञत्वादन्यद् यदि किंचिज्जत्वं, तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञान-तदा का भेद फलित नहीं होता / कारण, अनुमान में भी यह तो मानना ही होगा कि कभी कभी अपने साध्यधर्मी में ही, साध्य व्यतिरेक द्वारा हेतु की घ्यावृत्ति दिखाने में प्रवर्त्तमान प्रमाण सर्वोपसंहारेण स्वसाध्यनियतत्व का निश्चय उत्पन्न करता है। यदि यह नहीं मानेंगे तो आपको एक अनुपपत्ति यह होगी कि-'सभी वस्तु अनेकान्तात्मक है क्योंकि सत् हैं इस तमाम वरतु प्रविष्ट हो जाने से कोई दृष्टान्तधर्मी ही बचा नहीं तो अनुमान में स्वसाध्य नियतत्व का निश्चय केवल दृष्टान्तधर्मी में ही प्रवर्त्तमान प्रमाण से होने का मानने वालों के मत में यहाँ प्रस्तुत में सत्त्व हेतु का अनेकान्तात्मकत्वरूप स्वसाध्यनियतत्व अवगत कराने वाला, विपक्ष में बाधक कौन सा प्रमाण होगा जो दृष्टान्तधर्मी में प्रवृत्त होकर साध्य का बोध करायेगा? __ [ हेतुभेद से अनुमानप्रमाणभेद की आपत्ति ] ___ यह उचित नहीं है कि अर्थापत्ति उत्थापक अर्थ का प्रतिबन्ध साध्यधर्मी में गृहीत होता है और लिंग का व्याप्तिग्रह दृष्टान्तधर्मी में होता है इतने भेद मात्र से अर्थापत्ति-अनुमान का सर्वथा भेद मान लिया जाय / क्योंकि इस तरह प्रमाणभेद मानने पर तो पक्षधर्मताविशिष्ट हेतु से उत्पन्न अनुमान और पक्षधर्मता रहित हेतु से उत्पन्न अनुमान इन दोनों का भी भेद मान कर अलग अलग प्रमाण मानने पर षट् प्रमाण संख्या का अवधारणवाद तितर बितर हो जायेगा। यदि वहाँ ऐसा तर्क किया जाय-दोनों जगह यह समानता है कि व्याप्तिविशिष्ट लिंग से ही परोक्ष अर्थ का भान होता है, अतः पक्षधर्मता से शून्य और अशून्य हेतुद्वय जनित अनुमानद्वय में भेद नहीं हो सकता"-तो अर्थापत्ति-अनुमान स्थल में भी यह तर्क समान है कि दोनों जगह स्वसाध्य के अविनाभूत पदार्थ ( चाहे वह अपत्ति उत्थापक अर्थ हो या लिंग हो) से परोक्ष अर्थ का भान होता है / जब तर्क समान है तो अर्थापत्ति और अनुमान का भी अभेद क्यों न माना जाय?। - उपरोक्त का सार यह है कि अर्थापत्ति प्रमाणरूप होने पर अनुमान प्रमाण में उसका अन्तर्भाव हो जाता है और सर्वज्ञाभाव प्रतिपादक अनुमान का निषेध पहले किया गया है अत: उसके निषेध से, सर्वज्ञाभावग्राहक अर्थापत्ति का भी निषेध फलित हो जाने से यह निष्कर्ष मानना चाहिये कि सर्वज्ञाभाव अर्थापत्तिगम्य भी नहीं है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 197 अत्रापि वक्तव्यम्-कि सकलदेशकालव्यवस्थितपुरुषाधारं किंचिज्जत्वमभ्युपगम्यते, आहोस्वित्कतिपयपुरुषव्यक्तिसमाश्रितमिति? तत्र यदि समस्तदेशकालाश्रितपुरुषाधारं किंचिज्जत्वं तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञान, तत् सर्वज्ञाभावप्रसाधकम् , तदयुक्तम् ,-सकलदेश-कालव्यवस्थितपुरुषपरिषत्साक्षात्करणव्यतिरेकेण तदावारस्य किचिज्जत्वस्य विषयोकर्तमशक्तेन तद्विषयस्य तदन्यज्ञानस्य सर्वज्ञाभावावगमनिमित्तत्व युक्तम् , सर्वदेशकालव्यवस्थिताशेषपुरुषसाक्षात्करणे च स एव सर्वदर्शी इति न तदभावाभ्युपगमः श्रेयान् / - अथ कतिपयपुरुषव्यक्तिव्यवस्थितं किंचिज्जत्वं तदन्यत् , तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानं सर्वज्ञाभावा. sऽवेदकम् तदप्ययुक्तम् , तज्ज्ञानाव तदभावावगमे कतिपयपुरुषव्यवस्थितस्यैव सर्वज्ञत्वाभावः सिध्येत् , न सर्वत्र सर्वदा सर्वपुरुषेषु, तथा च सिद्धसाधनम् , अस्माभिरपि कुत्रचित् कस्यचिद् रथ्यापुरुषादेरसर्वज्ञत्वेनाऽभ्युपगमात् / [अभावप्रमाण से सर्वज्ञ का प्रतिषेध अशक्य ] जो लोग अभावप्रमाण मानते हैं उनका वह प्रमाण वास्तव में प्रमाण ही न होने से सर्वज्ञाभावसाधक नहीं हो सकता। कदाचित् उसे प्रमाण माना जाय तो भी सर्वज्ञाभावसिद्धि के विषय में वह विकल्पसह्य नहीं है। जैसे कि-उसके ऊपर दो विकल्प है-१. आत्मा का ज्ञानरूप में अपरिणामरूप वह है या 2. अन्यवस्तु के विज्ञानस्वरूप वह है ? [ पहले, अभावप्रमाण के ये दो प्रकार होते हैं यह दिख खाया है ] यदि प्रथम विकल्प -'ज्ञानरूप में आत्मा के अपरिणाम'रूप अभावप्रमाण सर्वज्ञाभावसाधक है यह माना जाय तो वह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि इसमें अनैकान्तिक दोष का संचार है जैसे-परकीय चेतोवृत्ति के ज्ञानरूप से अपनी आत्मा का परिणमन नहीं होता फिर भी परकीय चित्तवृत्ति को आप असत् नहीं, सत् मानते हैं / [अन्यविज्ञानस्वरूप अभावप्रमाण का असंभव ] यदि दूसरे विकल्प में सर्वज्ञाभाव साधक अभावप्रमाण अन्य विज्ञानरूप माना जाय तो यह भी संबंधरहित है, क्योंकि, सर्वज्ञत्व से अन्य किंचिज्ज्ञत्व [=अल्पज्ञत्व] और तद्विषयक ज्ञान यह अन्य विज्ञान-ऐसा आपका अभिप्राय यहाँ हो तो यहाँ हमें दो विकल्प दिखाना है कि सकलदेशवर्ती सर्वकालीन पुरुषों में आश्रित किचिज्ज्ञत्व को यहाँ आप प्रस्तुत करना चाहते हैं या कुछ अल्प पूरुष व्यक्ति में आश्रित किंचिज्ज्ञत्व को? यदि प्रथम विकल्प में, सर्वदेश-कालवर्तीपुरुष समाश्रित जो किंचिज्ज्ञत्व, तद्विषयक ज्ञान यही अन्यज्ञान अभावप्रमाणरूप हुआ और इसको आप सर्वज्ञाभाव का साधक मान रहे हो तो वह युक्तिबाह्य है क्योंकि जब तक सर्वदेश-काल में रहे हुए सकल पुरुषपर्षदा का साक्षात्कार न किया जाय तब तक उनमें रहा हआ किंचिज्ज्ञत्व अपने ज्ञान को गोचर न हो सकने से ऐसा किंचिज्ज्ञत्वविषयक ज्ञानात्मक अन्य ज्ञान सर्वज्ञाभाव के बोध का निमित्त कभी नहीं हो सकता / यदि सर्वदेशकालवर्तीपुरुष के साक्षात्कार को शक्य माना जाय तब तो ऐसा साक्षात्कार करने वाला पुरुष ही सर्वज्ञ-सर्वदर्शी सिद्ध हो जाने से उसका अभाव मान लेना श्रेयस्कर नहीं है। यदि कई एक पुरुषों में रहे हुए किंचिज्ज्ञत्व का 'अन्य' शब्द से ग्रहण किया जाय और तद्विषयकज्ञानरूप तदन्यज्ञान को सर्वज्ञाभावसाधक कहा जाय-तो यह भी युक्त नहीं है, क्योंकि इस प्रकार के तदन्यज्ञान से सर्वज्ञत्वाभाव सिद्ध होने पर भी वह सर्वज्ञाभाव कई एक पुरुषों में रहा हुआ ही Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 - सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ सर्वज्ञत्वादन्यः तदभावः, तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानं, तदाऽत्रापि कि 'सर्वदा सर्वत्र सर्वः सर्वज्ञो न' इत्येवं तत् प्रवर्तते, उत 'कुत्रचित् कदाचित् कश्चित् सर्वज्ञो न' इत्येवं ? तत्र नाद्यः पक्षः, सकलदेशकालपुरुषाऽसाक्षात्करणे तदाधारस्य तदभावस्यावगंतुमशक्यत्वात् , प्रदेशाऽप्रत्यक्षीकरणे तवाधारस्य घटाभावस्येव / तत्साक्षात्करणे च तदेव सर्वज्ञत्वम , इति न तदभावसिद्धिः / अथ द्वितीयः पक्षः, तदा न सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञामावसिद्धिरिति तदेव सिद्धसाधनम् / 'प्रमाणपंचकनिवृत्तेस्तदभावज्ञानम्' इत्यादि सर्व प्रतिविहितमिति नाभावप्रमाणादपि तदभावावगमोऽभ्युपगन्तुयुक्तः / ............ इत्यादि यत् तदप्यविदितपराभिप्रायस्य सर्वज्ञवादिनोऽभिधानम् / यतो नास्माकं 'अतीन्द्रियसर्वज्ञादिपदार्थबाधकं प्रत्यक्षादिप्रमाणं स्वतन्त्र प्रवर्तते' इत्यभ्युपगमः, अतीन्द्रियेषु स्वतन्त्रस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणस्य भवदमिहितप्राक्तनदोषदुष्टत्वेन प्रवृत्त्यसम्भवात् / किंतु. प्रसंगसाधनाभिप्रायेण सर्वमेव सर्वज्ञप्रतिक्षेपप्रतिपादकं युक्तिजालमभिहितं यथार्थमभिधानमुद्वद्भिर्मीसिद्ध होगा, किंतु सर्वत्र सर्वदा सर्वपुरुषों में सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होगा। यह तो सिद्ध साधन हुआ यानी हमारी ही इष्टसिद्धि हुई क्योंकि कहीं पर किसी एक शेरी आदि में भटकते हुए पुरुषादि को हम भी सर्वज्ञ मानने के लिये तय्यार नहीं है / [ सर्वज्ञत्वाभावज्ञानरूप अन्यज्ञान से सर्वज्ञाभावसिद्धि अशक्य ] यदि तदन्यज्ञान' शब्द से, सर्वज्ञत्व से अन्य जो उसीका अभाव-तद्विषयकज्ञान को लिया जाय तो यहाँ भी पूर्ववत् दो विकल्प हैं-१. ऐसा तदन्यज्ञान 'सर्वत्र सर्वदा कोई भी सर्वज्ञ नहीं है इस रूप में प्रवृत्त मानते हैं या-२. 'कहीं पर कोई काल में कोई एक सर्वज्ञ नहीं है' इस रूप में ? प्रथम विकल्प युक्त नहीं है क्योंकि, जैसे देशविशेष का प्रत्यक्ष न होने पर तदाश्रित घटाभाव का प्रत्यक्ष नहीं होता उसी प्रकार सर्वदेशकालवर्ती सर्वपुरुष का प्रत्यक्ष न होने पर तदाश्रित सर्वज्ञत्व का अभाव भी नहीं जाना जा सकता। यदि किसी को सर्वदेशकालवर्ती पुरुषों का साक्षात्कार मान लिया जाय तब तो उसकी सर्वज्ञता सिद्ध हो जाने से उसका अभाव सिद्ध नहीं हो सकेगा। द्वितीय पक्ष भी अयक्त है क्योंकि इसमें सर्वत्र सर्वदा सर्वपूरुषों में सर्वज्ञत्व का अभाव तो सिद्ध नहीं होता किंतु कहीं पर किसी काल में कोई एक पुरुष में सर्वज्ञता का अभाव सिद्ध होता है जिसमें हमारे इष्ट की सिद्धि होने से सिद्ध साधन दोष अनिवार्य है। सर्वज्ञवादी की ओर से की गयी उपरोक्त चर्चा का सार यह है कि 'सर्वज्ञ के विषय में पांचो प्रमाण निवर्तमान होने से सर्वज्ञ के अभाव का ज्ञान होता है" ऐसा जो प्रतिवादी का कहना है का पूरे जोर से प्रतीकार कर देने से अभावप्रमाण से भी सर्वज्ञ के अभाव का बोध आदर योग्य नहीं है। ___ नास्तिक कहता है कि सर्वज्ञवादी का यह (अथ यथाऽस्माकं....से किया गया) पूरा प्रतिपादन हमारे अभिप्राय को विना समझे ही किया गया है / [ सर्वज्ञवादी कथन की अयुक्तता का हेतु-नास्तिक ] नास्तिक कहता है कि-हम यह नहीं मानते हैं कि अतीन्द्रियसर्वज्ञादिपदार्थ की सिद्धि में बाध करने वाले प्रत्यक्षादि प्रमाण की स्वतन्त्र रूप से प्रवृत्ति होती है / क्योंकि यह तो हम भी जानते हैं कि आपने Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 166 मांसकैः / अत एव तदभिप्रायप्रकाशनपरं भगवतो जैमिनेः सूत्रम्-"सतसम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षम् [ जैमिनीसूत्र 1.1.4 ] इति, यतो नानेनापि सूत्रेण स्वातन्त्र्येण प्रत्यक्षलक्षणमभ्यधायि भगवता किंतु लोकप्रसिद्धलक्षणलक्षितप्रत्यक्षानुवादेन तस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वं विधीयते / न चैतदत्रापि वक्तव्यम्-"कतरस्य प्रत्यक्षस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वं विधीयते ? अस्मदादिप्रत्यक्षस्य-सर्वज्ञप्रत्यक्षस्य वा ? अस्मदादिप्रत्यक्षस्य तदनिमित्तत्वप्रतिपादने सिद्धसाधनम् / सर्वज्ञप्रत्यक्षस्य भवन्मतेनाऽप्रसिद्धत्वाच्छशविषाणस्येव कथं तं प्रत्यनिमित्तताविधिः ? अथापि स्यात्-परेण तस्याभ्युपगतत्वात् तं प्रत्यानिमित्तत्वं तत्प्रसिद्ध्यैवोच्यते-तदयुक्तम् , परीक्षापूर्वकत्वेनाभ्युपगमस्य स्थितत्वात् , तत्पूर्वकश्चेत् परस्याभ्युपगमस्तदा भवतोऽपि तस्य सद्भावः, परीक्षायाः प्रमाणरूपत्वात् , प्रमाणसिद्धं च न परस्यैव सिद्धम् , प्रमाणसिद्धस्य सर्वैरेवाभ्युपगमनीयत्वात् / अथ प्रमाणव्यतिरेकेण परेण सर्वज्ञप्रत्यक्षमभ्युपगतं तदाऽसौ प्रमाणाभावादेव नाभ्युपगमो युक्तः। न च प्रमाणाभ्युपगतस्यास्मदादिप्रत्यक्षविलक्षणस्य सर्ववित्प्रत्यक्षस्य तं प्रत्यानिमित्तत्वं विधातुयुक्तम् , यतोऽस्मदादिप्रत्यक्षविलक्षणत्वं सर्ववित्प्रत्यक्षस्य धर्मादिग्राहकत्वेनैव, तच्चेत् प्रमाणतोऽभ्युपगतम कथं तस्य तं प्रत्यनिमित्तत्वमुपपघेत, तद्ग्राहकप्रमाणबाधितत्वात् ? किं च, अयं परस्परविरुद्धोऽपि वाक्यार्थः स्यात्-'प्रमाणतो धर्मादिग्राहकं सर्ववित्प्रत्यक्षं यत् प्रसिद्धं तद् धर्मादिग्राहकं न भवतीति / " -- जो दोष दिखायें हैं उनसे सदोष होने के कारण अतीन्द्रिय पदार्थों में स्वतन्त्र रूप से प्रत्यक्षादि प्रमाण की प्रवृत्ति का संभव नहीं है / किन्तु सर्वज्ञविरोधीयों का अभिप्राय यह है कि, सत्-असत् आदि की मीमांसा करने में निपुण, अत एव सार्थक नाम धारण करने वाले मीमांसक विद्वानों ने जो सर्वज्ञ का विरोध करने वाला युक्तिकदम्बक प्रस्तुत किया है वह सब सर्वज्ञ के अभाव का स्वतन्त्ररूप से स करने के लिये नहीं किन्तु सर्वज्ञ के साधन में आने वाली बाधायें ही प्रसंगसाधन के रूप में प्रस्तुत की गयी है / इसी अभिप्राय के यानी प्रसंगसाधनरूप अभिप्राय के प्रकाशन में तत्पर भगवान् जैमिनी का यह सूत्र भी है 'सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म प्रत्यक्षम्'-जिसका अर्थ है पुरुष की इन्द्रियों का सत्पदार्थ के साथ सम्पर्क होने पर जिस बुद्धि का जन्म होता है उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है / 'यहाँ उक्त सूत्र से स्वतन्त्ररूप से प्रत्यक्ष के लक्षण निर्माण में भगवान् सूत्रकार का तात्पर्य नहीं है किन्तु लोगों में जो प्रत्यक्ष का लक्षण प्रचलित है उसका अनुवाद मात्र किया गया है। इस प्रकार लोकप्रचलित प्रत्यक्षलक्षण का अनुवाद करके सूत्रकार को तो यही विधान करना है कि उक्त प्रकार के लक्षण वाला प्रत्यक्ष धर्मविषयक तत्त्वज्ञान में निमित्तभूत नहीं हो सकता / इसी आशय से उक्त सूत्र के अ में कहा है 'अनिमित्तं विद्यमानोपलम्भनत्वात्'-अर्थात् प्रत्यक्ष तो विद्यमान वस्तु का ही उपलम्भ . करने वाला होने से धर्मज्ञान का वह निमित्त नहीं हो सकता, क्योंकि धर्म के तत्त्वज्ञान काल में धर्म भावि में निष्पाद्य होने से स्वयं अविद्यमान होता है इसलिये उसके प्रत्यक्ष का सम्भव नहीं है / [ सर्वज्ञवादी की ओर से अनिमित्तत्व का प्रतिक्षेप ] नास्तिक यहाँ सर्वज्ञवादी की ओर से पुनः प्रस्तुत एक दीर्घ निवेदन को अनुचित दिखाता है सर्वज्ञवादी जैमिनी सूत्रकार के उक्त अभिप्राय ऊपर यह पूछना चाहते हैं कि-किस प्रत्यक्ष को आप धर्मज्ञान का अनिमित्त दिखा रहे हो ? हम आदि के प्रत्यक्ष को या सर्वज्ञ के प्रत्यक्ष को ? हमारे प्रत्यक्ष को धर्मज्ञान का अनिमित्त कहा जाय तो इसमें हमारी इष्टसिद्धि होने से सिद्धसाधन दोष Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यतो न प्रसंगसाधने आश्रयासिद्धत्वादिदूषणं क्रमते, नहि प्रमाणमूलपराभ्युपगमपूर्वकमेव प्रसंगसाधनं प्रवर्तते / किं तहि ? 'यदि' अर्थाभ्युपगमदर्शनपूर्वकम् / अत एव "प्रसंगसाधनस्य विपर्ययफलत्वम् , विपर्ययस्य च प्रतीन्द्रियपदार्थविषयप्रत्यक्ष निषेधफलत्वम् , तनिषेधे च-"कि प्रत्यक्षस्य धर्मिणो निषेधः, अथ तद्धर्मस्य प्रत्यक्षत्वस्येति ? पूर्वस्मिन पक्षे हेतूनामाश्रयासिद्धतेति प्रतिपादितम् / उत्तरत्र प्रत्यक्षत्वनिषेधे प्रमाणान्तरत्वप्रसक्तिः, विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञानलक्षणत्वात्" इति न प्रेर्यम् , यतो विशेषनिषेधे तस्य विशेषरूपत्वेन सत्त्वस्यैव प्रतिषेधः, न च धर्म्यसिद्धत्वादिदोषः, 'यदि'अर्थस्याभ्युपगतत्वात्। लगेगा। दूसरी ओर सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष तो आपके मत में अप्रसिद्ध है तो शशसिंगवत् उसके धर्मज्ञान में अनिमित्त होने का विधान कैसे हो सकता है ? __ यदि मीमांसक कहेगा कि-पर वादी को सर्वज्ञ मान्य होने से उसके प्रति परमतप्रसिद्धि द्वारा पर वादी के प्रति 'सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष धर्मज्ञान का अनिमित्त है' यह विधान कर रहे हैं-तो यह अयुक्त है / कारण, 'अभ्युपगम तो परीक्षामूलक ही होना चाहिये' यह मर्यादा है, पर वादी का अभ्युपगम यदि परीक्षापूर्वक है तो वह आपका भी परीक्षामूलक होना जरूरी है / तथा परीक्षा स्वयं प्रमाणरूप होने से यदि कोई परकीय अम्यूपगम प्रमाणसिद्ध है तो वह केवल पर के लिये नहीं किन्तु सभी के लिये प्रमाणसिद्ध होगा क्योंकि प्रमाणसिद्ध भाव सभी को माननीय होता है। यदि प्रमाण के विना ही पर वादी ने सर्वज्ञ प्रत्यक्ष को मान लिया है तब तो वह प्रमाण उचित नहीं है / यदि हमारे प्रत्यक्ष से सर्वथा विलक्षण सर्वज्ञ प्रत्यक्ष का स्वीकार प्रमाणमूलक है तब तो 'वह धर्मज्ञान का अनिमित्त है' ऐसा विधान नहीं कर सकते क्योंकि सर्वज्ञप्रत्यक्ष और हमारे प्रत्यक्ष में यही तो विलक्षणता है कि सर्वज्ञप्रत्यक्ष धर्मादि का ग्राहक है, हमारा वैसा नहीं है / ऐसे विलक्षण सर्वज्ञ प्रत्यक्ष का स्वीकार यदि प्रमाणमूलक है तो धर्मज्ञान के प्रति उसकी अनिमित्तता कैसे युक्तिसंगत कही जाय? क्योंकि धर्मादि के ग्राहक रूप में सिद्ध होने वाले सर्वज्ञप्रत्यक्ष के साधक प्रमाण से ही उसकी धर्मज्ञान-अनिमित्तता बाधित हो जाती है। दूसरी बात यह है कि "धर्मज्ञान प्रमाण से धर्मादिग्राहकरूप में प्रसिद्ध जो सर्वज्ञ प्रत्यक्ष है वह धर्मादि का ग्राहक, नहीं है" इस वाक्य का अर्थ परस्परविरुद्धार्थप्रतिपादक है अतः वह प्रमाण नहीं है। [ सर्वज्ञवादी कथन समाप्त ] [ नास्तिक द्वारा सर्वज्ञवादिकथित दृषणों का प्रतीकार ] नास्तिक ने सर्वज्ञवादी के उक्त प्रतिपादन को अवक्तव्य यानी 'न कहे जाने योग्य' इसलिये कहा है कि प्रसंग साधन जिस विषय को लेकर किया जाता है वहां वह विषय असिद्ध रहने पर भी आश्रयासिद्धि आदि दूषण लागू नहीं होते। क्योंकि यह कोई सिद्धान्त नहीं है कि प्रसंगसाधन जिस परकीय अभ्युपगम के उपर किया जाता है वह परकीयमत प्रमाणमूलक ही होना चाहीये / 'प्रमाण मूलक नहीं तो कैसा होना चाहीये' ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि 'यदि' पद का जो अर्थ है कृत्रिम स्वीकार [ इच्छा न होने पर भी क्षणभर मान लिये गये ] उसके प्रदर्शन पूर्वक होना चाहीये / अब सर्वज्ञवादी को यह भी कहने का अवसर न रहा कि-"जहाँ प्रसंग साधन किया जाता है वहां परिणामतः उसका विपर्यय ही फलित किया जाता है। प्रस्तुत में सर्वज्ञ के विषय में प्रसंग साधन करने पर उसका विपर्यय यानी सर्वज्ञाभाव फलित होगा। विपर्यय का भी फल तो यही निपजाना है कि अती Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 201 'कथं पुनरत्र प्रसंगः विपर्ययो वा क्रियते?' इति चेत? तदुच्यते-“सार्वज्ञं प्रत्यक्षं यद्यभ्युपगम्यते तवा तद् धर्मग्राहकं न भवति, विद्यमानोपलम्भनत्वात् / न चासिद्धो हेतु / तथाहि-विद्यमानोपलम्भः नमतीन्द्रियार्थजप्रत्यक्षम, सत्संप्रयोगजत्वात् / अस्याप्यसिद्धतोद्धावने एवं वक्तव्यम् विवादगोचर प्रत्यक्ष सत्संप्रयोगजम् , प्रत्यक्षत्वात्-तच्छब्दवाच्यत्वाद्वा। अस्मदादिप्रत्यक्ष सर्वत्र दृष्टान्तः / " इति प्रसंगः / विपर्ययस्त्वेवम्-"तद् धर्मग्राहक चेत न विद्यमानोपलम्भनम् , अविद्यमानत्वाद् धर्मस्य / अविद्यमानोपलम्भेनत्वे न सत्संप्रयोगजम् / असत्संप्रयोगजत्वे न प्रत्यक्षम् नापि तच्छन्दवाच्यम्"। प्रसंगसाधनाभिप्रायेणैव 'यदि' अर्थोपक्षेपेण वात्तिककृताप्यभिहितम् "यदि षभि प्रमाणैः स्यात् सर्वज्ञः केन वार्यते ? // [ 1[ श्लो०वा सू० 2-111 उ० ] एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते / ननं स चक्षुषा सर्वत्रसादीन (? सर्वान् रसादीन्) प्रतिपद्यते // न्द्रिय पदार्थों को विषय. करने वाला प्रत्यक्ष नहीं है। यहां दो प्रश्न है-१. उक्त निषेध में अतीन्द्रियपदार्थविषयकप्रत्यक्षात्मक धर्मी का निषेध अभिमत है ? या अतीन्द्रियपदार्थविषयकज्ञान में प्रत्यक्षत्वधर्म का निषेध अभिमत है ? प्रथम पक्ष में जिस हेतु से आप धर्मी का निषेध करना चाहते हो वह आश्रयासिद्ध हो जायेगा क्योंकि धर्मीस्वरूप आश्रय ही असिद्ध है। दसरे पक्ष में प्रत्यक्षत्व धर्म का निषेध करने पर अतीन्द्रियपदार्थविषयकज्ञान को अन्य प्रमाणरूप से मानने की आपत्ति आयेगी क्योंकि जैसे ब्राह्मण्य का निषेध वैश्यत्वादि में सम्मति सूचक होता है वैसे यहां प्रत्यक्षत्वरूप एक विशेष का निषेध अन्य प्रमाणरूप विशेष के विधान में फलित होगा।" सर्वज्ञवादी के इस कथन को अप्रेर्य यानी अवसरशुन्य दिखाने में नास्तिक का यह अभिप्राय है कि हम विशेष निषेध को अन्य अर्थ में सम्मतिफलक नहीं मानते किंतु उस विशेषरूप से तद् तद् वस्तु के सत्त्व का निषेध ही सम्मत है / आपने जो धीरूप आश्रय की असिद्धि का दोष दिखलाया है वह भी अनवसर है क्योंकि पहले ही हमने कह दिया है कि हम धर्मी को 'यदि' पद के अर्थरूप में ही स्वीकारते हैं। . [सर्वज्ञाभावप्रतिपादक प्रसंग और विपर्यय ] सर्वज्ञवादी को यह जानना हो कि ये प्रसंग-विपर्यय किस प्रकार कहते हो तो यह हम दिखाते हैं प्रसंगः- सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष कदाचित् मान भी लिया जाय तो वह धर्मग्राहक नहीं होता। क्योंकि वह प्रत्यक्ष विद्यमान का ही ग्राहक है / इस प्रयोग में हेतु असिद्ध नहीं है, जैसे-अतीन्द्रियार्थजन्य प्रत्यक्ष विद्यमान का ग्राहक है क्योंकि सत्पदार्थसम्पर्क से जन्य है। यहाँ भी हेतु में असिद्धि का उद्भावन किया जाय तो प्रतीकार में यह कहेंगे कि-विवादास्पद प्रत्यक्ष सत्पदार्थसम्पर्क जन्य है क्योंकि प्रत्यक्ष है, अथवा प्रत्यक्षशब्दवाच्य है इसलिये / तीनों स्थल में हमारे प्रत्यक्ष को दृष्टान्तरूप में प्रस्तुत समझना / यह.प्रसंग हुआ। विपर्ययः- यदि वह प्रत्यक्ष धर्मग्राही है तो वह विद्यमान का ग्राहक नहीं होना चाहिये क्योंकि धर्म उसकाल में विद्यमान नहीं होता [ किन्तु भावि में निष्पाद्य होता है ] / विद्यमान का उपलम्भक-ग्राहक न होने पर वह प्रत्यक्ष सत्पदार्थसंपर्कजन्य नहीं होगा और सत्पदार्थसंपर्कजन्य न होने पर वह न तो प्रत्यक्ष होगा, न तो प्रत्यक्ष शब्द से व्यवहार योग्य होगा। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यज्जातीयः प्रमाणैस्तु यज्जातीयार्थदर्शनम् / दृष्टं सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत" // [ श्लो० वा० सू० 2/113 ] पुनरप्युक्तम्येऽपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः / स्तोकस्तोकान्तरत्वेन न त्वतीन्द्रियदर्शनात् // [तत्त्व० 3159 ] यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलंघनात् / दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तितः // [ श्लो० वा० सू० 2-114 ] इत्यादि / तेनाऽत्रापि-स्वतन्त्रानुमानाभिप्रायेणाश्रयासिद्धत्वादिदूषणम्. उपमानोपन्यासबुद्ध्या वाऽशेषो. पमानोपमेयभूतपुरुषपरिषत्साक्षात्करणे उपमानं प्रवर्तते-इत्यादि दूषणाभिधानं च सर्वज्ञवादिनः स्वजात्याविष्करणमात्रकमेव / अतः 'अतीन्द्रियसर्वविदो न प्रत्यक्ष प्रवृत्तिद्वारेण निवृत्तिद्वारेण वाऽभावसाधनम्' इत्यादि सर्वमभ्युपगमवादानिरस्तम् / [ श्लोकवात्तिककार के अभिप्राय का समर्थन ] श्लोकवात्तिककार ने भी 'यदि' पदार्थ के आरोपण द्वारा प्रसंग साधन में अभिप्राय रख कर यह कहा है-- __ "यदि (वेद सहित) छह प्रमाणों से सर्ववस्तुज्ञाता कोई मौजूद हो तो उसका कौन निवारण करता है ? / [तात्पर्य, यदि सर्वज्ञ माना जाय तो वह प्रत्यक्षादि छह प्रमाणों से सर्व वस्तु का ज्ञाता होने का कदाचित् मान सकते हैं-ऐसा कहने में, आखिर हमने सर्वज्ञ को मान लिया-यह बात नहीं है, अगर माना जाय तो ऐसा माना जाय-यह अभिप्राय है ] / _ "एक ही (प्रत्यक्ष)प्रमाण वाले सर्वज्ञ की जो कल्पना करते हैं ( उनके मत में तो) वह सर्वज्ञ केवल नेत्र से ही सभी रस-गन्धादि को देख लेता होगा।"[ तात्प एक ही नेत्रादिइन्द्रिय से उसकी विषयमर्यादा का अतिक्रमण करके रसादि का ज्ञान मानना युक्तियुक्त नहीं है ] __ "वर्तमान काल में जिस जाति के प्रमाण से जिस जाति के अर्थ का दर्शन उपलब्ध होता है, कालान्तर में भी वह ऐसा ही था" [ तात्पर्य, वर्तमानकालीन प्रमाणों का जैसा स्वभाव है कतिपयार्थदर्शन, यह स्वभाव भूतकाल में भी ऐसा ही था, अन्य प्रकार का नहीं ]. और भी कहा गया है-- "( भिन्न भिन्न प्रकार की ) प्रज्ञा और बुद्धि आदि से अतिशय वाले जो मनुष्य दिखायी देते हैं वे भी अतीन्द्रिय अर्थ दर्शन से सातिशय नहीं है किन्तु ( थोडे थोडे ) अन्तर से हैं" [ अत्पर्य, कोई 25-50 हाथ दूरस्थ वस्तु को देख सकता है तो कोई हजार दो हजार हाथ दूरस्थ वस्तु को देख सकता है-यही अतिशय है ] "जहाँ भी अतिशय देखा जाता है वह अपनी विषय मर्यादा का अतिक्रमण न करता हुआ ही देखा जाता है, दूरवर्ती पदार्थ का दर्शन और सूक्ष्म वस्तु का दर्शन-इस रूप में ही देखा जाता है किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय से रूप का ग्रहण होता हो ऐसा नहीं देखा जाता है। उपरोक्त से यह फलित होता है कि सर्वज्ञवादी ने हमारे प्रसंगसाधन को स्वतन्त्र अनुमानरूप झ कर जो आश्रयासिद्धि आदि दूषण कहा है, तथा अतीत अनागत पुरुषों में वर्तमानपुरुषतुल्यता Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1 सर्वज्ञवाद: 203 यच्चानुमानेन सर्वज्ञाभावसाधने दूषणमभिहितम् , कि प्रमाणान्तरसंवाद्यर्थस्य वक्तृत्वात्' इत्यादि-तद् धूमादग्न्यनुमानेऽपि समानम् / तथाहि-तत्रापि वक्तुं शक्यते-कि साध्यमिसम्बन्धी धूमो हेतुत्वेनोपन्यस्त, उत दृष्टान्तर्मिसम्बन्धी ? तत्र यदि साध्यमिसम्बन्धी हेतुस्तदा तस्य दृष्टान्तेऽसम्भवादनन्वयदोषः। अथ दृष्टान्तर्मिसम्बन्धी सोऽसिद्धः, दृष्टान्तमिधर्मस्य साध्यमिण्यसम्भधात / अथोभयसाधारणं धमत्वसामान्यं हेतस्तदा तस्य विपक्षेऽनग्नौ विरोधासिद्धेः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेन स्वसाध्याऽगमकत्वम् / अथ विपक्षेऽनग्नौ धूमस्यानुपलम्भाद्, विरोधसिद्धेर्न संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वम् / नन्वत्रापि वक्तुं शक्यं सर्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्याऽसम्भवात् अनग्नौ देशान्तरे कालान्तरे वा केनचिद् धूमस्योपलम्भात् ।-'तदुपलब्धिमत. कस्यचिदभावात् सर्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्य सम्भव' इति चेत् ? केन पुनः प्रमाणेनानग्नौ धूमसत्त्वग्राहकपुरुषाभावो प्रतिपन्नः ? यद्यन्यतः प्रमाणात् , तत एवानग्नेधू मस्य व्यावत्तिसिद्धेय॑थं सर्वसम्बन्ध्यनुपलम्भलक्षणस्य विपक्षे धूम विरोधसाधकस्य प्रमाणस्याभिधानम् / अथ सिद्धि के लिये हमारी ओर से उपमान प्रमाण के उपन्यास की आशंका बुद्धि से जो यह कहा है कि उपमानभूत और उपमेयभूत सकल नरपर्षदा के साक्षात्कार होने पर ही उपमान प्रमाण प्रवृत्त हो सकता है-इत्यादि-इत्यादि-यह सब अपनी तुच्छ जाति का ही अनावरण करने जैसा है / तथा 'सर्वज्ञता अतीन्द्रियं होने से प्रवर्त्तमान या निवर्तमान किसी भी प्रकार के प्रत्यक्ष से उसका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता' इत्यादि यह भी जो सर्वज्ञवादी ने कहा है वह सब अभ्युपगमवाद से ही ध्वस्त हो जाता है। क्योंकि हम भी यह मानते ही हैं कि प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति या निवृत्ति से सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होता। [ धूम से अग्नि के अनुमान में समान दोषारोपण-विरोधी ] __ आगे चलकर सर्वज्ञविरोधी कहता है कि सर्वज्ञवादी की ओर से सर्वज्ञाभाव की सिद्धि में जो दूषण दिये गये हैं-"प्रमाणान्तरसंवादि अर्थ का वक्तृत्व हेतु बनायेंगे या उससे विपरीत...." इत्यादि, यह सब धूम हेतु से अग्नि-अनुमान में भी समानरूप से लागू किया जा सकता है जैसे यहां भी कहा जा सकता है-'अग्निमान् धूमात्' यहाँ साध्यधर्मीपर्वतवृत्तिधूम का हेतुरूप से उपन्यास करते हैं या दृष्टान्तधर्मी पाकशालागत धूम को हेतु करते हैं ? यदि पर्वतवृत्तिधूम को हेतु करेंगे तो दृष्टान्त -पाकशाला में वह न होने से आप अन्वय व्याप्ति को ही सिद्ध नहीं कर सकेंगे। अगर दृष्टान्त पाकशाला गत धूम को हेतु करते हैं तो साध्यधर्मी पर्वत में दृष्टान्त पाकशाला का धर्मभूत धूम का संभव न रहने से हेतु असिद्ध हो जायगा। यदि उभय साधारण धूमत्व रूप सामान्यधर्म को हेतु बनायेंगे तो अग्निशून्य विपक्ष तालाब आदि में धूमत्व का किसी वस्तु के साथ विरोध सिद्ध न होने से वहाँ तालाब आदि में धूमत्व के अस्तित्व का संदेह शक्य होने से हेतु की विपक्ष से निवृत्ति संदिग्ध हो जायेगी जिस से वह साध्यसिद्धि में दुर्बल बन जायेगा। [धृम में विपक्षव्यावृत्ति के संदेह का समर्थन ] यदि यह कहा जाय कि-'अग्निशून्य विपक्ष में धूम का उपलम्भ न होने से विरोध सिद्ध हो जाता है अतः विपक्ष से हेतु की निवृत्ति संदिग्ध नहीं रहती।'-तो यहाँ भी प्रतिवादी कह सकता हैअग्निशून्य किसी देशान्तर में कोई एक काल में किसी पुरुष को धूम की उपलब्धि शक्य होने से सभी Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तथाभूतानुपलम्भात तदभावावगमः / ननु तथाभूतपूरुषाभावे तदनुपलम्भसंभवः, तत्संभवाच्च तथाभूतपुरुषाभावसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वाद् न सर्वम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्य संभवः, संभवेऽपि तस्याऽरि द्धन विपर्यये विरोधसाधकत्वम् / __ अथात्मसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्य धूमत्वलक्षणहेतोविपक्षाद् व्यावृत्तिसाधक त्वम् / न, तस्य परचेतोवृत्तिविशेषैरनैकान्तिकत्वात / अथानुपलम्भव्यतिरिक्तं धमलक्षणस्य हतोविपर्यये बाधक प्रमाणमस्ति, न तु वक्तृत्वलक्षणस्य / किं पुनस्तदिति वक्तव्यम् ? 'अग्नि-धूमयोः कार्यकारणभावलक्षणप्रतिबन्धग्राहकमिति चेत् ? कः पुनरसौ कार्यकारणभावः, किं वा तद्ग्राहकं प्रमाणम् ? 'अग्निभावे एव धूमस्य भावस्तदभावे चाभाव एवासौ, तद्ग्राहकं च प्रम मस्य भावस्तदभावे चाभाव एवासौ, तदग्राहकं च प्रमाणे प्रत्यक्षानुपलम्भस्वभावम् / ननु किचिज्ज्ञत्वस्य तव्यापकस्य वा रागादिमत्त्वस्य भावे एव वक्तृत्वस्य भावः स्वात्मन्येव दृष्टः, तदभावे चाभाव एवोपलादावविगानेनानुपलम्भतो ज्ञात इति कथं न विपर्यये सर्वज्ञत्वे वीतरागत्वे वा वक्तृत्वलक्षणस्य हेतोबधिक कार्यकारणभावलक्षणप्रतिबन्धग्राहकं प्रत्यक्षानुपलम्भाख्यं प्रमाणं दर्शनाऽदर्शनशब्दवाच्य युक्तम् ? न च दर्शनाऽदर्शनशब्दवाच्यस्यास्मदभ्युपगतप्रमाणस्य प्रत्यक्षानुपलम्भशब्दवाच्यस्य वा भवदभिप्रेतस्य कश्चिद्विशेषः प्रकृतहेतुसाध्यप्रतिबन्धसाधन उपलभ्यते / को विपक्ष में धूम की उपलब्धि न होने का संभव नहीं है। यदि विपक्ष में धूम को उपलब्ध करने वाले पुरुष का अभाव होने से सभी को विपक्ष में अनुपलब्धि का सम्भव है-ऐसा कहा जाय तो यह प्रश्न है कि विपक्ष में धम सत्ता के ग्राहक पुरुष का अभाव आपको किस प्रमाण से उपलब्ध हआ? यदि अन्य किसी प्रमाण से उपलब्ध हआ हो तब तो उसी प्रमाण से विपक्ष में धूमनिवृत्ति भी सिद्ध हो जाने से, विपक्ष में धूमविरोध का साधक, सर्वसम्बन्धीअनुपलम्भस्वरूपप्रमाण का उपन्यास व्यर्थ है। यदि कहें कि-सर्वसम्बन्धी अनुपलम्भ से ही विपक्ष मे धुमसत्ताग्राहक पुरुष का अभाव ज्ञात कियातो इसमें अन्योन्याश्रय दोष इस प्रकार लगेगा-विपक्ष में धूमसत्ता ग्राहक पुरुषाभाव से सर्वसम्बन्धी अनुपलम्भ की सिद्धि होगी और सर्वसम्बन्धी अनुपलम्भ सिद्ध होने पर वैसे पुरुषाभाव की सिद्धि होगी। इस दोष के कारण सर्वसम्बन्धी अनुपलम्भ का कोई संभव नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि किसी प्रकार संभव मान ले, तो भी उसकी किसी प्रमाण से सिद्धि जब तक न की जाय तब तक विपक्ष में केवल संभवमात्र से सर्वसंबधी अनुपलब्धि विरोध की साधक नहीं बन सकती / [आत्मीय अनुपलम्भ से धूम की विपक्ष व्यावृत्ति असिद्ध ] सर्वसंबन्धी अनुपलम्भ पक्ष को छोड कर आप यदि यह कहें कि 'आत्मसंबंधी अनुपलम्भ यानी आपको उपलम्भ न होने के कारण धूम हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति सिद्ध की जायेगी।' तो यह लीक नहीं है क्योंकि परचित्तवृत्तिविशेष से यहाँ व्यभिचार दोष लगेगा / तात्पर्य, आपको तो परकीयचितवृत्ति का भी कभी उपलम्भ नहीं होता कितु इस अनुपलर भ से उसकी व्यावृत्ति सिद्ध नहीं होती है। यदि अनुपलम्भ को छोड कर विपक्ष में धूमात्मक हेतु की सत्ता में बाधक दूसरा कोई प्रमाण विद्यमान है कि तु वक्तृत्वहेतु के लिये वह नहीं है ऐसा कहा जाय तो वह कौन सा प्रमाण है यह आपको बोलना चाहिये / यदि अग्नि और धूम के बीच कार्य कारणभावात्मक सम्बन्ध ग्रहण कराने वाला प्रमाण ही विपक्ष बाधक होने का कहा जाय तो यह दिखाईये कि उस कार्य कारणभाव का क्या स्वरूप है और किस प्रमाण से वह गृहीत होता है ? Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का. १-सर्वज्ञवाद: 205 अथ किचिज्ज्ञत्व-रागादिमत्त्वसद्भावेऽपि स्वात्मनि न त तुकं तक्तृत्वं प्रतिपन्नम् किंतु वक्तुकामताहेतुकम् , रागादिसद्भावेऽपि वक्तुकामताऽभावेऽभावाद्वचनस्य / नम्वेवं व्यभिचारे विवक्षापि न वचने निमित्तं स्यात् तत्राप्यन्यविवक्षायाममन्यशब्ददर्शनात, अन्यथा गोत्रस्खलनादेरभावप्रसंगात् / अथार्थविवक्षाव्यभिचारेऽपि शब्दविवक्षायामव्यभिचारः / न, स्वप्नावस्थायामन्यगतचित्तस्य वा शब्दविवक्षाऽभावेऽपि वक्तृत्वसंवेदनात् न च व्यवहिता विवक्षा तस्य निमित्तमिति परिहारः, एवमभ्युपगमे प्रतिनियतकार्यकारणभावाभावप्रसंगात सर्वस्य तत्प्राप्तेः। तन्न वक्तुकामतानिमित्तमप्येकान्ततो वचनं सिद्धम् , व्यतिरेकाऽसिद्धेः। अन्वयस्तु किचिज्ज्ञत्वेन रागादिमत्वेन वा वचनस्य सिद्धो, न वक्तुकामतया। यदि यह कहा जाय कि-'अग्नि के सद्भाव में ही धूम होता है और अग्नि के अभाव में यही धुम नहीं ही होता है अग्नि-धुम का कारण-कार्य भाव है और प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ ही उस कारणकार्य भाव का ग्राहक प्रमाण है / तात्पर्य, अग्नि होने पर धूम का प्रत्यक्ष और अग्नि के अभाव में धूम का अनुपलम्भ उन दोनों के बीच कारण-कार्यभाव का उपलम्भक है।'-तो यह कुछ ठीक है किन्तु वक्तृत्व के लिये भी समान है जैसे -अल्पज्ञता अथवा तो उसका व्यापक रागादिमत्त्व जब होता है तभी तृत्व होता है यह अपनी ही आत्मा में दिखाई देता है, तथा अल्पज्ञता या रागादिमत्त्व न होने पर वक्तत्व नहीं होता यह पाषाण खण्ड आदि में निविवादरूप से वक्तत्व के अनपलम्भ से प्रसिद्ध है। तो फिर, अल्पज्ञता या रागादिमत्त्व के साथ वक्तृत्व के कारणकार्यभावात्मक संबन्ध का ग्राहक जो प्रत्यक्ष अनुपलम्भस्वरूप प्रमाण है जिस के लिये दर्शनाऽदर्शन शब्द का भी प्रयोग होता है वह प्रमाण विपक्षभूत सर्वज्ञ अथवा वीतराग में वक्तृत्व हेतु की सत्ता में बाधक क्यों न माना जाय ? हम जिस प्रभाण का दर्शनादर्शन शब्द से प्रयोग करते हैं, अथवा आप जिस प्रमाण का प्रत्यक्षानुपलम्भ शब्द से प्रयोग करते हैं उसमें कोई ऐसा पक्षपातरूप विशेष उपलब्ध नहीं है जो वक्तृत्व हेतु का अल्पज्ञता या रागादिमत्त्वरूप साध्य के साथ व्याप्तिसंबन्ध के साधन में लगाया जा सके। . [वक्तृत्व में वचनेच्छाहेतुत्व की आशंका अनुचित ] ___ यदि यह कहा जाय 'अपनी आत्मा में अल्पज्ञता और रागादिमत्ता अवश्य है, फिर भी वह वक्तत्व का हेतु नहीं है, वक्तत्व का कारण तो बोलने की इच्छा-कामना है, जब बोलने की कामना नहीं होती तब रागादि के रहने पर भी वचन का उच्चार नहीं होता है ।'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार वोलने की इच्छा [-विवक्षा] को बीच में लाकर रागादिमत्ता की हेतुता में व्यभिचार दिखाया जायेगा तो विवक्षा भी वचनोच्चार का हेतू न बन सकेगी। कारण, कभी कभी बोलने की इच्छा कुछ अन्य शब्द की होती है और शब्दोच्चार कुछ अन्य हो जाता है यह देखने में आता है। इस बात को असत्य मानगे तो गोत्र स्खलनादि-यानी गौतम आदि गौत्र के उच्चार को इच्छा होने पर स्खलना से कौण्डिन्यादि गोत्र का उच्चार हो जाता है यह सर्वजनअनुभवसिद्ध है उसका अभाव हो जायगा / यदि यह तर्क करे कि-'अर्थविवक्षा यानी अन्य कोई अर्थ के प्रतिपादन की इच्छा रहने पर अन्य ही किसी अर्थ का प्रतिपादन हो जाता है इस प्रकार का व्यभिचार हो सकत शब्द विवक्षा यानी अन्य शब्द बोलने की इच्छा हो तब अन्य शब्द का उच्चार हो जाय ऐसा व्यभिचार नहीं होता।'-यह तर्क संगत नहीं है। कारण, शब्दोच्चार की कोई इच्छा न होने पर भी आदमी स्वप्नावस्था में बकवास करता है और जब चित का ठीकाना नहीं होता उस वक्त बोलने की हो सकता है किन्त Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 __ अथ किंचिज्जत्वाद्यभावे सर्वत्र वक्तृत्वं न भवति-इत्यत्र प्रमाणाभावान्नाऽसर्वज्ञ-वक्तृत्वयोः कार्य-कारणभावलक्षणः प्रतिबन्धः सिध्यति, तहि-वह्नयभावे धूमः सर्वत्र न भवति-इत्यत्रापि प्रमाणाभावस्तुल्य इति न प्रतिबन्धग्रहः / अथाग्न्यभावेऽपि यदि धूमः स्यात् तदाऽसौ तद्धेतुक एव न भवेत्-इति सकृदप्यहेतोरग्नेस्तस्य न भावः स्यात् , दृश्यते च महानसादावग्नित इति नानग्नेधूमसद्भाव इति प्रतिबन्धसिद्धिः। ननु यथेन्धनादेरेकदा समुद्भूतोऽपि वह्निरन्यदाऽरणितो मण्यादेर्वा भवन्नुपलभ्यते, धमो वा वह्नित उपजायमानोऽपि गोपालघटिकादौ पावकोदभतधमादप्यपजायते इत्यवगमस्तथा चिदग्न्यभावेऽपि भविष्यतीति कुतः प्रतिबन्धसिद्धिः ? अथ यादृशो वह्निरिन्धनादिसामग्रीत उपजायमानो दृष्टो न तादृशोऽरणितो मण्यादेर्वा, धूमोऽपि यादृशोऽग्नित उपजायते न तादृश एव गोपालघटिकादावग्निप्रभवधूमात् / अन्यादृशात तादृशभावे तादृशत्वमहेतुकमिति न तस्य क्वचिदपि प्रतिनियमः स्यात् , अहेतोर्देश-काल-स्वभावनियमाऽयोगादिति नाग्निजन्यधूमस्य तत्सदृशस्य वाऽनग्नेर्भावः, भावे वा तादृशधूमजनकस्याग्निस्वभावतैवेति न व्यभिचारः / तदुक्तम्"अग्निस्वभावः शक्रस्य मूर्द्धा यद्यग्निरेव सः / अथानग्निस्वभावोऽसौ धूमस्तत्र कथं भवेत्" // इत्यादि / तदेतद् वक्तृत्वेऽपि समानम् - इच्छा न होने पर भी सहसा शब्दोच्चार हो जाता है इस प्रकार वचनोच्चार कामना के अभाव में भी वक्तृत्व का संवेदन सभी को प्रसिद्ध है। इस व्यभिचार का निवारण यह कह कर नहीं हो सकता कि 'वहाँ पूर्वकालीन (यानी जाग्रत् कालीन) विवक्षा ही हेतु है' क्योंकि ऐसा मान लेने पर तो विवक्षा और शब्दोच्चार के बीच नियत ढंग का कार्य कारणभाव न रहने से सभी को जाग्रद् अवस्था आदि में भी पूर्व पूर्व कालीन विवक्षा से ही शब्दोच्चार होने की आपत्ति होगी। सारांश यह कि वचन का निमित्त विवक्षा है ऐसा एकान्तनियम सिद्ध नहीं है क्योंकि 'विवक्षा के अभाव में शब्दोच्चार का भी अभाव होना चाहीये' यह व्यतिरेक सिद्ध नहीं है / तथा 'जब भी विवक्षा होती है तब शब्दोच्चार होता ही है' ऐसा अन्वय तो सिद्ध ही नहीं है बल्कि जब अल्पज्ञता या रागादिमत्ता होती है तब शब्दोच्चार होता है यह अन्वय सिद्ध ही है / [ असर्वज्ञता-चक्तृत्व के कार्य-कारणभाव की असिद्धि अन्यत्र तुल्य ] यदि यह कहा जाय कि-'अल्पज्ञतादि के अभाव में कहीं भी वक्तृत्व नहीं होता है इस तथ्य में कोई प्रमाण नहीं होने से असर्वज्ञ और वक्तृत्व का कार्यकारणभावात्मक व्याप्ति नियम सिद्ध नहीं होता है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अन्यत्र भी धूमाग्नि में यह बात समान है-जैसे, 'अग्नि के अभाव में वूम कहीं भी नहीं होता है इस बात में भी प्रमाण का न होना तुल्य है अतः धूम-अग्नि में भी व्याप्ति सिद्ध नहीं होगी। यदि यह कहा जाय कि -"अग्नि के विरह में यदि धूम रहेगा तो वह अग्निजन्य नहीं होगा, फिर तो एक बार भी अग्नि से धूम की उत्पत्ति नहीं होगी। किन्तु देखते तो हैं कि पाकशाला में अग्नि से उसकी उत्पत्ति होती है। अतः अग्नि के विरह में धूमोत्पत्ति न होने से दोनों की व्याप्ति सिद्ध है"- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इन्धनादि से एक बार अग्नि की उत्पत्ति होती हुयी देखने पर भी दूसरी बार अरणिकाष्ठ के घर्षण से अथवा सूर्यकांत मणि आदि से भी Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञसिद्धिः 207 तथाहि-यदि सर्वज्ञे वीतरागे वा वचनं स्याद , असर्वज्ञाद रागादियुक्ताद् वा कदाचिदपि न स्याद् , अहेतोः सकृदप्यसम्भवाद् , भवति च तत् ततः, अतो न सर्वज्ञे तस्य त-सदृशस्य वा सम्भवःइति प्रतिबन्धसिद्धिः / अथ देशान्तरे कालान्तरे वाऽसर्वज्ञकार्यमेव वचनं न सर्वज्ञप्रभवमिति न दर्शनाऽदर्शनप्रमाणगम्यम्, दर्शनस्येयद्वयापाराऽसम्भवाद् अदर्शनस्य च प्रागेवैवंभूतार्थग्राहकत्वेन निषिद्धत्वात् / . तहि, सर्वदाऽग्निप्रभव एव धमोऽग्न्यभावे कदाचनापि न भवतीत्यत्रापि प्रत्यक्षस्य सन्निहितवर्तमानार्थ उसकी उत्पत्ति देखने में आती है / तदुपरांत, अग्नि से धूम की एकबार उत्पत्ति होती हुयी देखने पर भी दूसरी बार गोपाल घुटिका * (लोकभाषा में हक्का) आदि में अग्निजन्य पूर्वधूम से नये धूम की उत्पत्ति देखने में आती है तो इस प्रकार अग्नि के विना भी धूमोत्पत्ति हो जायेगी / अब आप अग्नि और धूम की व्याप्ति कैसे सिद्ध करेंगे? [ धूम में अग्नि व्यभिचार न होने की आशंका का उत्तर ] __यदि यह कहा जाय-"इन्धनादि सामग्री से जिस प्रकार का अग्नि उत्पन्न होता है वैसा अग्नि अरणिकाष्ठघर्षण या मणि आदि से उत्पन्न नहीं होता। तथा, अग्नि से जिस प्रकार का धूम उत्पन्न होता है वैसा धूम गोपालघटिका आदि में अग्निजन्यधूम से उत्पन्न नहीं होता है / तात्पर्य, दोनों जगह भिन्न भिन्न जाति के अग्नि और धूम उत्पन्न होते हैं / जैसे कि-इन्धनादि से ज्वालारूप अग्नि आर काष्ठघषण से मुमुर आदिरूप उत्पन्न होता है। यदि एक प्रकार के साधन से जैसा अग्नि और धूम उत्पन्न होता है वैसा का वैसा अग्नि और धूम अन्य प्रकार के साधन से भी उत्पन्न हो सकता है तब तो यह मानना होगा कि उस अग्नि और धम का तादृश प्रकार निहतुक ही है क्योंकि उसका किसी के भी साथ नियत अन्वय-व्यतिरेक ही नहीं है। इस प्रकार, अमुक से ही अमुक प्रकार के अग्नि की या धूम की उत्पत्ति होती है-ऐसा कोई नियत भाव नहीं रहने की आपत्ति होगी। क्योंकि जो निर्हेतुक होता है उसका न ही कोई नियत देश होता है, न कोई नियत काल होता है और न उसके स्वभाव का कुछ ठीकाना होता है / अतः उक्त आपत्ति टालने के लिये यह मानना होगा कि अग्नि से जो धूम उत्पन्न होता है या उसके जैसा जो धम होता है वह अग्नि के विरह में उत्पन्न नहीं होता / यदि उसके विरह में कोई धूम उत्पन्न होता है तो उस धूम का उत्पादक, अग्निसाभाववाला नहीं होना चाहिये / इस प्रकार कार्य-कारण भाव मानने में कोई व्यभिचार को अवकाश नहीं है / जैसा कि कहा गया है - "शक्रमूर्धा यानी वल्मीक [ जिसमें से कभी धूम निकलता दिखता है ] यदि अग्निस्वभाव है तो वह अग्नि ही है (उससे भिन्न नहीं है) और यदि वह अग्निस्वभाव वाला नहीं है तब तो वहाँ घूमोत्पत्ति की शक्यता कैसे ?" __ सर्वज्ञवादी के उपरोक्त वक्तव्य के विरुद्ध विरोधीयों का कहना यह है कि वक्तृत्व के लिये भी उपरोक्त सभी तर्क किये जा सकते हैं - के तंबाकु के धूम्रान के लिये काष्ट या खोपरे के कोचले का बनाया हुया लम्बी नालयुक्त साधनविशेष जिसके निम्नभाग में वर्तुलाकृति एक जलपात्र रहता है उसको घूटिका कहते हैं और ताम्बाकु का धूम जलसंपर्क से ठण्डा होकर मुख में आता है / Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ ग्राहकत्वेनाऽप्रवृत्तेः, अनुपलम्भस्यापि तद्विविक्तप्रदेशविषयप्रत्यक्षस्वभावस्यात्र वस्तुनि व्यापाराऽसम्भवाद् न कार्यकारणभावलक्षणः प्रतिबन्धः प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनः स्यात् / . नाप्यनुमानतोऽपि प्रकृतः प्रतिबन्ध: सिद्धिमासादयति, इतरेतराश्रयाऽनवस्थादोषप्रसंगस्य प्रदाशतत्वात् ।न चाऽन्यत प्रतिबन्धप्रसाधकं प्रमाणमस्तीति प्रसिद्धानुमानस्यापि सर्वज्ञाऽभावाऽऽवेदकानुमाननिरासयुक्त्युपक्षेपमिच्छतोऽत्राभावः प्रसक्तः / अथ प्रसिद्धानुमाने साध्य-साधनयोः प्रतिबन्धः तत्प्रसाधकं च प्रमाणं किंचिदस्ति तहि स एव प्रतिबन्धः किंचिज्ज्ञत्व-वक्तृत्वयोः, तत्प्रसाधकं च तदेव प्रमाणं भविष्यतीति सिद्धः प्रतिबंधः किचिज्ज्ञत्व-वक्तृत्वयोरग्निधूमयोरिव / अत एव 'व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयको यत्र दर्श्यते तत् प्रसंगसाधनम्' इति तल्लक्षणस्य युष्मदभ्युपगमेनात्र सद्धावाद भवत्येवातोऽनमानात सर्वज्ञाभावसिद्धिः। पक्षधर्मताऽभावप्रतिपादनं च यत प्रकृतप्रसंगसाधने प्रतिपादितं तद अभ्युपगमवादानिरस्तम् / तत्र पक्षधर्मताया हेतो [ असर्वज्ञ और भाषाव्यवहार के प्रतिबन्ध की सिद्धि ] वह इस प्रकार-सर्वज्ञ अथवा वीतराग से यदि भाषोत्पत्ति होती तो वह असर्वज्ञ अथवा रागादिमान पूरुष से कभी भी नहीं होती। अकारणीभूत वस्तु से कभी भी क यहाँ असर्वज्ञादि से भाषा उत्पत्ति होती है, अत एव भाषा या तत्सदृश वस्तु सर्वज्ञ-वीतराग से उत्पन्न होने का सम्भव ही नहीं है / इस प्रकार असर्वज्ञ और वक्तृत्व का व्याप्तिसंबन्ध सिद्ध होता है / यदि यह कहा जाय कि-'देशान्तर और कालान्तर से भाषा असर्वज्ञ का ही कार्य होती है, सर्वज्ञकार्य नहीं होती ऐसा उपलम्भ दर्शनाऽदर्शनप्रमाण से तो नहीं होता, क्यों कि दर्शन का व्यापार इतना समर्थ होने का सम्भव नहीं है और अदर्शन इस प्रकार के उपलम्भ के हेतुरूप में पहले निषिद्ध हो चुका है ।'-तो यह अन्यत्र भी कहा जा सकता है कि धूम हमेशा अग्नि से ही उत्पन्न होता हैअग्नि बिना कभी उत्पन्न नहीं होता, ऐसा उपलम्भ करने में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति शक्य नहीं है क्योंकि वह केवल संनिहित वर्तमान अर्थ का ही ग्राहक होता है। अनुपलभ्भ भी जो वस्तु शून्य प्रदेश को प्रत्यक्ष करने का स्वभाव वाला होता है अत:-प्रस्तुत विषय में उसका व्यापार सम्भव नहीं है। इसलिये यह फलित होता है-धूम और अग्नि का कार्यकारणभावरूप संबन्ध के ग्रहण में प्रत्यक्षानुपलम्भ साधनभूत नहीं है। [प्रसिद्ध धूमहेतुक अनुमान के अभाव की आपत्ति ] अनुमान से भी धूम का अग्नि के साथ संबंध सिद्धि पद प्राप्त नहीं है क्योंकि प्रस्तुतानुमानप्रयोजक व्याप्ति का ग्रहण यदि पूर्वानुमान से मानेंगे तो अन्योन्याश्रय और नये अनुमान से मानसे तो अनवस्था दोष लगेगा यह पहले ही बताया है / और तो कोई व्याप्तिसाधक प्रमाण है नहीं, फलत: सर्वज्ञाभाव साधक अनुमान के खंडनार्थ युक्ति का उपन्यास करने की वांछा वाले के मत में प्रसिद्ध धूमहेतुक अग्नि अनुमान के भी उच्छेद की आपत्ति प्रसक्त हयी। यदि कहें कि-'प्रसिद्ध अग्नि-अनुमान में तो धूम और अग्नि का प्रतिबन्ध व्याप्ति संबंध, एवं उसका साधक कोई प्रमाण, दोनों मौजूद है तो वही अल्पज्ञता और वक्तृत्व का भी प्रति जायेगा और वह प्रमाण यहां भी प्रतिबन्ध का साधक हो सकेगा। तात्पर्य, जैसे धूम और अग्नि का प्रतिबन्ध सिद्ध है वैसे अल्पज्ञता और वक्तृत्व का भी प्रतिबन्ध सिद्ध हो सकता है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 209 रभावेऽपि गमकत्वस्य सिद्धत्वात् / शेषस्तु पूर्वपक्षग्रन्थोऽनभ्युपगमानिरस्त इति न प्रत्युच्चार्य दूषितः / अतोऽयुक्तमुक्तं 'सर्वज्ञवादिनां यथा तत्साधकप्रमाणाभावाद न तद्विषयःसद्व्यवहारः तथा तदभाववादिनों मीमांसकादीनां तदभावग्राहकप्रमाणाभावादेव न तदभावव्यवहारः' इति, प्रसंगसाधनस्य तदभावसाधकस्य समर्थितत्वात् / - अथ यद् अभ्यासविकलचक्षुरादिजनितं प्रत्यक्षं, तद् धर्मादिग्राहकं न भवति, इति प्रसंगसाधनात् सिध्यति, न पुनरन्यादृग्भूतम् , चोदनावदन्यादृशस्य धर्मग्राहकत्वाऽविरोधात् / ननु किं 1. तज्ज्ञानं प्रतिनियतचक्षुरादिजनितं धर्मादिग्राहकम् , 2. उताभ्यासजनितं, 3. आहोस्वित् शब्दजनितम् , 4. किंवाऽनुमानप्रभावितम् ? तत्र यदि चक्षुरादिप्रभवम् , तदयुक्तम् , चक्षुरादीनां प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेन तत्प्रभवस्य तज्ज्ञानस्य धर्मादिग्राहकत्वाऽयोगात् / अत एव “यदि षड्भिः"........इत्याद्युक्तं दूषणमत्र पक्षे। [प्रसंगसाधन से सर्वज्ञभावसिद्धि का समर्थन ] सर्वज्ञविरोधी कहता है कि सर्वज्ञाभाव के साधन में सर्वज्ञवादी ने जो जो दूषण दिखाये हैं वे सब धूम से अग्नि अनुमान में भी समान है यह उपरोक्त चर्चा से सिद्ध हुआ इतना ही नहीं अपितु वक्तृत्व हेतुक हमारे अनुमान से सर्वज्ञ का अभाव भी अब सिद्ध होता है क्योंकि प्रसंगसाधन का जो लक्षण है-'व्याप्य का स्वीकार व्यापक के स्वीकार का अविनाभावी है ऐसा जहाँ दिखाया जाता है वह प्रसंगसाधन कहा जाता है'-इस प्रकार का प्रसंगसाधन का लक्षण जो आपको स्वीकृत है वह आपके हो मतानुसार हमारे उक्त अनुमान में मौजूद है। __सर्वज्ञवादी ने हमारे प्रसंगसाधन में प्रतिपादित हेतु में जो पक्षधर्मता के अभाव दोष का उद्भावन किया है वह तो दोषरूप न होने से हम उसका स्वीकार करके ही निराकरण ला देते हैं / कारण, स्वतंत्र साधन में पक्षधर्मताऽभाव दोष बन सकता है किन्तु प्रसंग साधन में हेतु पक्षधर्म न होने पर भी व्याप्ति बल के आधार पर स्वसाध्यप्रतिपादक हो सकता है। अवशिष्ट का पूर्वपक्ष है-उसमें जिस जिस विधान पर दोषारोपण किया गया है -वे विधान हमारे न होने से ही उक्त दोषों का विध्वंस हो जाता हैं, अत उन एक एक विधान को लेकर उस पर दिये गये दूषणों को टालने का प्रयास आवश्यक नहीं है / अतः सर्वजवादी ने अपने वक्तव्य के प्रारम्भ में जो कहा था-"सर्वज्ञवादी के पास जैसे सर्वज्ञ का साधक कोई प्रमाण न होने से उसके विषय में सद्व्यवहार शक्य नहीं, उसी प्रकार सर्वज्ञविरोधी मीमांसकों के पास सर्वज्ञ के अभाव का ग्राहक कोई प्रमाण न होने से उसके बारे में अभाव व्यवहार भी नहीं हो सकता-" इत्यादि, यह सब युक्तिविकल कह दिया है / सर्वज्ञाभाव की सिद्धि में प्रतिपादित प्रसंगसाधन का सविस्तर समर्थन किया गया है। [ धर्मादिग्राहकतया अभिमत प्रत्यक्ष के ऊपर चार विकल्प] मीमांसकों ने जो यह कहा था कि-'प्रत्यक्ष धर्मादिग्रहण का अनिमित्त है क्योंकि विद्यमानोपलम्भक है' इत्यादि, उसके ऊपर सर्वज्ञवादी शंका करें कि-योगानुष्ठानादि के अभ्यास विरह में जो नेत्रादिजन्य प्रत्यक्ष होता है वही धर्मादि का अग्राहक होता है-प्रसंगसाधन से केवल इतना ही सिद्ध किया जा सकता है। किन्तु जैसे चोदना यानी विधिवाक्य से जन्य ज्ञान उपर्यक्त प्रत्यक्ष से विलक्षण होता Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथाऽभ्यासजनितं तदिति पक्षः-तथाहि-ज्ञानाभ्यासात् प्रकर्षतरतमादिप्रक्रमेण तत्प्रकर्षसम्भवे तदुत्तरोत्तराभ्याससमन्वयात् सकलभावातिशयपर्यन्तं संवेदनमवाप्यत इति / तदपि मनोरथमात्रम् , यतोऽभ्यासो हि नाम कस्यचित प्रतिनियतशिल्पकलादौ प्रतिनियतोपदेशसद्भाववतो जन्मतो जनस्य संभाव्यते न तु सर्वपदार्थविषयोपदेशसंभवः / न च सर्वपदार्थविषयानुपदेशज्ञानसंभवो येन तज्ज्ञानाभ्यासात् सकलज्ञानप्राप्तिः, तत्संभवे वा सकलपदार्थविषयज्ञानस्य सिद्धत्वात् किमभ्यासप्रयासेन ! किं च, तदभ्यासप्रवर्तकं ज्ञानं यदि चक्षरादिप्रतिनियतकरणप्रभवमप्यन्येन्द्रियविषयरसादिगोचरम् अतीन्द्रियार्थगोचरं च स्यात् तदा पदार्थशक्तेः प्रतिनियतत्वेन प्रमाणसिद्धायाः प्रभावात् प्रतिनियतकार्यकारणभावाभावप्रसक्तिसद्धावात सकलव्यवहारोच्छेद प्रसक्तिः। हुआ धर्म का ग्राहक होता है उसी प्रकार उपर्युक्त प्रत्यक्ष से विलक्षण योगी के प्रत्यक्ष से धर्मादि गृहीत होने में कोई विरोध नहीं है। सर्वज्ञविरोधी कहता है कि इस विलक्षण प्रत्यक्ष के ऊपर चार में से एक भी विकल्प घट नहीं सकता जैसे १-वह प्रत्यक्षज्ञान क्या अमुक ही प्रकार के नेत्रादि से जन्य है ? या २-अभ्यासजन्य है ? अथवा ३-शब्दजन्य है ? या ४-अनुमान के सहकार से उपकृत है ? प्रथम विकल्प-धर्मादिग्राहक ज्ञान को नेत्रादिजन्य नहीं माना जा सकता क्योंकि नेत्रादि इन्द्रिय तद् तद् रूप-रसादि विषय के ग्रहण में ही सशक्त होने का नियम सर्वविदित होने से नेत्रादिजन्य ज्ञान धर्मादि का ग्राहक नहीं हो सकता। इसीलिये तो इस विकल्प में 'यदि षड्भिः' इत्यादि कारिका से जो पूर्व में उपहास रूप दूषण कहा गया है कि एक ही प्रमाण से सर्व वस्तु का ज्ञाता जिनको मान्य है उनके पक्ष में नेत्रादि से सर्व रस गन्ध आदि का भी ग्रहण होता होगा-इत्यादि, यह नहीं टाल सकते। [ सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष अभ्यासजनित नहीं है ] . यदि यह पक्ष माना जाय कि-"धर्मादिग्राहक प्रत्यक्ष अभ्यास जनित है, जैसे कि-ज्ञानाभ्यास से बोध के प्रकर्ष में तर-तम भाव आदि का प्रक्रम यानी परम्परा से ज्ञान के उत्कर्ष का जब संभव दिखाई देता है तो उत्तरोत्तर अभ्यास के समन्वय यानी सम्यगासेवन से सकल पदार्थों की चरम सीमा को लाँघने वाला संवेदन प्रगट होता है।" तो इस पर विरोधी का कहना है कि यह निष्फल मनोरथ मात्र है। कारण, जन्म से लेकर क्रमश: अमुक अमुक शिल्प कलादि के विषय में उत्तरोत्तर तत् तत् प्रकार के उपदेश का सद्भाव यानी प्राप्ति जिस परुष को होती है उसको अमूक अमुक शिल्पकलादि के अभ्यास होने की संभावना है किन्तु सर्व पदार्थों के विषय का उपदेश आयू अल्पतादि के कारण, संभवत ही नहीं है / तथा उपदेश विना सर्व पदार्थविषयक ज्ञान का संभव भी नहीं है जिससे कि उपदेशप्रयोज्य ज्ञानाभ्यास का संभव हो, और सर्वविषयक ज्ञानाभ्यास का संभव न होने से सकलाथज्ञानप्राप्ति भी कल्पनामात्र है / यदि सर्वार्थविषयकोपदेशानुकूल ज्ञान का संभव माना जाय तब तो उसीसे सर्वार्थविषयक ज्ञान भी सिद्ध हो जाने से अभ्यास द्वारा धर्मादिग्राहक प्रत्यक्षसिद्धि का प्रयास व्यथ है / दूसरी बात यह है कि यदि वह अभ्यास प्रवर्तक ज्ञान, नेत्रादि तत् तत् इन्द्रियरूप करण से जन्य होने पर भी अन्येन्द्रिय के विषयभत गन्ध-रसादि को विषय करेगा. अथवा अतीन्द्रिय अर्थ को ग्रहण करेगा, तो 'पदार्थों की शक्ति प्रतिनियत यानी मर्यादित ही होती है। यह बात प्रमाणसिद्ध नहीं हो Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-सर्वज्ञसिद्धिः 211 प्रथाभ्याससहायानां चक्षुरादीनामपि सर्वज्ञावस्थायामतीन्द्रियदर्शनशक्तिः / न च व्यवहारोच्छेदः-अस्मदादिचक्षुरादीनामनभ्यासदशायां शक्तिप्रतिनियमाद अस्मदादय एव व्यवहारिण इति / एतदप्यसमीचीनम् , न खल्वभ्यासे सत्यप्यन्यतो वा हेतोः कस्यचिदतीन्द्रियदर्शनं चक्षुरादिभ्य उपलभ्यते, दृष्टानुसारिण्यश्च कल्पना भवन्तीति / किं च, सर्वपदार्थवेदने चक्षुरादिजनितज्ञानात् तदभ्यासः, तत्सहायं च चक्षुरादिकं सर्वज्ञावस्थायां सर्वपदार्थसाक्षात्कारि ज्ञानं जनयतीति कथमितरेतराश्रयमेतत् कल्पनागोचरचारि चतुरचेतसो भवत इति न द्वितीयोऽपि पक्षो युक्तिक्षमः। ___ अथ शब्दजनितं तज्ञानसनतु शन्दस्य तस्मीतत्वेन प्रामाण्ये सर्वपदार्थविषयज्ञानसम्भवः, तज्ज्ञानसंभवे च सर्वज्ञस्य तथाभूतशब्दप्रणेतृत्वमितीतरेतराश्रयदोषानुषङ्गः / अत एवोक्तम्-[ श्लो० वा० सू० 2-142 ] 'नर्ते तदागमत् सिध्येद् न च तेनागमो विना' / / इति / न च शब्दजनितं स्पष्टाभमिति न तज्ज्ञानवान् सकलज्ञ इत्यभ्युपगम्यते, एवं च प्रेरणाजनितज्ञानवतो धर्मज्ञत्वम् / अत एवोक्तम्"चोदना ही भूतं भवन्तं".... इत्यादि / तन्न तृतीयपक्षोऽपि युक्तिसंगतः। सकने से, मर्यादित शक्ति की महीमा से जो नियत प्रकार का कार्य-कारण भाव माना जाता है वह तूट जाने की आपत्ति आयेगी और इससे 'नेत्र से रूपज्ञान उत्पन्न होता है' इत्यादि सर्व व्यवहार उच्छेदाभिमुख हो जायेंगे। - [चक्षु आदि से अतीन्द्रिय अर्थदर्शन का असंभव ] यदि सर्वज्ञवादी की ओर से यह कहा जाय–सर्वज्ञदशा में अभ्यास की सहायता से नेत्रादि इन्द्रिय में अतीन्द्रियार्थदर्शन की शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। यहाँ 'नेत्र से रूप का ही ग्रहण होता है, रस का नहीं' इत्यादि व्यवहार के उच्छेद हो जाने की आपत्ति प्राप्त नहीं होती क्योंकि इस प्रकार के व्यवहार करने वाले तो हम लोग ही हैं और हमारी नेत्रादि इन्द्रियों को अभ्यास की सहायता न होने की दशा में उक्त शक्ति का प्रतिनियतभाव तदवस्थ ही रहता है। विरोधी : - सर्वज्ञवादी का यह कथन अनुचित है, क्योंकि यह तो निश्चय ही है कि- चाहे अभ्यासदशा हो या अन्य कोई भी हेतु हो, नेत्रादि इन्द्रिय से अतीन्द्रिय अर्थ का दर्शन किसी को भी होता हो यह देखा नहीं गया / कल्पना निरंकुश नहीं हो सकती किन्तु जैसा देखा जाय तदनुसार ही हो सकती है। दसरी बात यह है कि अन्योन्याश्रय दोष को अवकाश प्राप्त होगा जैसे, सर्वपदार्थ का ज्ञान सिद्ध होने पर उपदेश द्वारा नेत्रादिजन्य उत्तरोत्तर ज्ञान से अभ्यास सिद्ध होगा और सिद्ध अभ्यास की सहायता से नेत्रादि इन्द्रिय सर्वज्ञदशा में सकल पदार्थ को साक्षात् करने वाले ज्ञान को उत्पन्न करेगीइस प्रकार जहाँ अन्योन्याश्रय दोष है ऐसा तथ्य आप जैसे चतुर पुरुष की कल्पना का विषय कैसे हो सकता है ? निष्कर्ष अभ्यास से सकलार्थवेदि प्रत्यक्षोत्पत्ति सम्भव नहीं है। [ सर्वज्ञ का ज्ञान शब्दजन्य नहीं है ] यदि तीसरे पक्ष में, धर्मादिग्राहक प्रत्यक्षज्ञान को शब्दजन्य माना जाय तो इतरेतराश्रय दोष इस प्रकार लगेगा-सर्वज्ञ कथित होने से शब्द का प्रामाण्य सिद्ध होने पर उस शब्द से सर्वपदार्थविषयक प्रत्यक्ष ज्ञान का संभव होगा और ऐसा ज्ञान यानी सर्वज्ञता सिद्ध होने पर वह प्रमाणभूतशब्दों का उपदेशक होगा / इसी दोष का प्रतिपादन श्लोकवात्तिक में 'नर्ते तदागमात्'....इत्यादि से किया है कि Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अनुमानजनितज्ञानेन तु सर्ववित्त्वे न धर्मज्ञत्वम् , धर्मादेरतीन्द्रियत्वेन तज्ज्ञापकलिंगत्वेनाऽभ्युपगम्यमानस्यार्थस्य तेन सह संबन्धासिद्धः, असिद्धसम्बन्धस्य चाऽज्ञापकत्वान्न ततो धर्माद्यनुमानम्इत्यनुमानजनितं ज्ञानं न सकलधर्मादिपदार्थाऽऽवेदकम् / किं च, तथाभूतपदार्थज्ञानेन यदि सर्वविदभ्युपगम्यते तदास्मदादीनामपि सववित्त्वमनिवारितप्रसरम. 'भावाभावोभयरूपं जगत् , प्रमेयत्वात्' इत्यनुमानस्यास्मदादीनामपि भावात् / अस्पष्टं चानुमानमिति तज्जनितस्याप्यवैशद्यसंभवान्न तज्ज्ञानवान् सर्वज्ञो युक्तः / प्रथानुमानज्ञानं प्रागविशदमपि तदेवाऽशेषपदार्थविषयं पुनः पुनर्भाव्यमानं भावनाप्रकर्षपर्यन्ते योगिज्ञानरूपतामासादयद् वैशद्यभाग भवति, दृष्टं चाभ्यासबलाद् ज्ञानस्यानक्षजस्यापि काम-शोकभयोन्माद-चौरस्वप्नायुपप्लुतस्य वैशद्यम् / नन्वेवं तज्ज्ञानवदतीन्द्रियार्थविद्विज्ञानस्याप्युपप्लुतत्वं स्यादिति तज्ज्ञानवतः कामाधुपप्लुतपुरुषवद् विपर्यस्तत्वम्। . आगम के बिना सर्वज्ञ सिद्ध नहीं होगा और सर्वज्ञ के विना प्रमाणभूत आगम निष्पन्न नहीं होगा। दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्षज्ञान स्पष्टानुभवरूप होता है जब कि शब्दजन्यज्ञान अस्पष्ट होता है, अतः शब्दजनितज्ञानवान् पुरुष सकलार्थप्रत्यक्षकारी नहीं माना जा सकता। फलित यह हुआ कि शब्द जनित प्रत्यक्षज्ञानवान् कोई धर्मवेत्ता का सभ्भव नहीं है किन्तु प्रेरणा (=विधिवाक्य) जनित ज्ञानवान् ही धर्मवेत्ता है। अत एव शाबरभाष्य में कहा गया है कि-"प्रेरणा हि भूत, वर्तमान, भविष्यत् कालीन सर्वपदार्थों के बोधन में समर्थ है, और कोई इन्द्रियादि नहीं। सारांश, तृतीय पक्ष भी अयुक्त है। [ अनुमान से सर्वज्ञता प्राप्ति का असंभव ] चौथे विकल्प में, यदि अनुमानजय सर्वपदार्थज्ञान द्वारा सर्वज्ञता मानी जाय तो भो इससे धर्मज्ञता सिद्ध नहीं हो सकती। कारण, धर्मादि पदार्थ अतीन्द्रिय हैं, अतः उन अतीन्द्रियपदार्थों के ज्ञापक जिस पदार्थ को आप हेतु बनायेंगे उसका अपने साध्यभूत अतीन्द्रिय पदार्थों के साथ सम्बन्ध ही सिद्ध नहीं हो सकता / असिद्ध संबंध वाला हेतु साध्य का ज्ञापक न हो सकने से धर्मादि का अनुमान नहीं किया जा सकता। अत: चौथे पक्ष में अनुमानजन्यज्ञान सकल धर्मादि पदार्थ का ज्ञापक नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि अनुमानजन्यज्ञान से सर्वज्ञता मानी जाय तो हम आदि में भी सर्वज्ञता की अतिव्याप्ति का निवारण अशक्य होगा, क्योंकि "जगत् भावाभावोभय स्वरूप है क्योंकि प्रमेय है" इस अनुमान से प्रमेयत्वहेतुक भावाभावात्मक अखिल जगत् का अनुमानज्ञान सभी को हो सकता है / तीसरी बात यह है कि अनुमान स्पष्ट नहीं किन्तु अस्पष्ट होता है अतः तज्जन्यज्ञान में विशदता यानी सर्वविशेषग्राहकता का संभव न होने से अनुमानजन्यज्ञानवान् पुरुष कभी सर्वज्ञ नहीं हो सकता। __[ सर्वज्ञ ज्ञान में विपर्यास की आपत्ति ] यदि यह तर्क किया जाय कि-प्रारम्भ में तो अनुमानज्ञान अविशद ही होता है किन्तु अखिलपदार्थसंबंधी वही अनुमान पुनः पुनः जब भावित किया जाता है तब भावना चरमोत्कर्ष को प्राप्त होने से वही अनुमानज्ञान योगिज्ञानमय बन जाता है, उस समय अति विशद बन जाता है / यह कोई अदृष्ट कल्पना नहीं है क्योंकि यह देखा जाता है कि ज्ञान इन्द्रिय जन्य यद्यपि न होने पर भी अभ्यास Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-सर्वज्ञसिद्धिः 213 अथ यथा रजो-नोहाराद्यावरणावृतवृक्षादिदर्शनमविशदं तदावरणापाये वैशद्यमनुभवति एवं रागाद्यावारकाणां विज्ञानाऽवेशद्यहेतूनामपाये सर्वज्ञज्ञानं विशदतामनुभविष्यतीति / असदेतत् , रागादीनामावरणत्वाऽसिद्धेः, कुड्यादीनामेव ह्यावारकत्वं लोके प्रसिद्धं न रागादीनाम् / तथाहि-रागादिसद्भावेऽपि कुड्याद्यावारकाभावे विज्ञानमुत्पद्यमानं दृष्टम् , रागाद्यभावेऽपि कुड्याद्यावारकसद्भावे न विज्ञानोदय इत्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यां कुड्यादीनामेवाऽऽवरणत्वावगमो न रागादीनामिति न रागादय आवारका इति न तद्विगमोऽपि सर्वविद्विज्ञानस्य वैशद्यहेतुः। _किं च, सर्ववेदनं सर्वज्ञज्ञानेन किं समस्तपदार्थग्रहणमुत शक्तियुक्तत्वम् , पाहोस्वित् प्रधानभूतकतिपयपदार्थग्रहणम् ? तत्र यद्याद्यः पक्षस्तत्रापि वक्तव्यम्-कि क्रमेण तद्ग्रहणम् ? आहोस्विद् योगपयेन ? तत्र यदि क्रमेण तद्ग्रहणम् , तदयुक्तम् , प्रतीतानागतवर्तमानपदार्थानामपरिसमाप्तेस्तज्ज्ञानस्याप्यपरिसमाप्तितः सर्वज्ञताऽयोगात् / अथ युगपदनन्तातीतानागतपदार्थसाक्षात्कारि तद्वेदनमभ्युपगम्यते. तदप्यसत. परस्परविरुद्धानां शीतोष्णादीनामेकज्ञाने प्रतिभासाऽसम्भवात, सम्भवे वा न कस्यचिदर्थस्य प्रतिनियतस्य तद् ग्राहकं स्यादिति किं तज्ज्ञानेन अस्मदादिभ्योऽपि व्यवहारिभ्यो होनतर (? रेण) इति कथं सर्वज्ञः ? यानी दृढ संस्कार के बल से, कामराग, शोक, भय, उन्माद, चोरभय, स्वप्नादि से जब चित्त उपप्लुत यानी अतिभावित हो जाता है तब तद् तद् विषय का विशद ज्ञान होता है [ जैसे कामान्ध को अपनी प्रियतमा का साक्षात् आभास स्तम्भादि में होता है ] / इस तर्क के विरुद्ध हमें यह कहना है कि अभ्यास के बल से कामी पुरुष आदि को यद्यपि सोपप्लव ज्ञान का उदय होता है किन्तु वह विपर्यासमय होता है, सत्य नहीं होता। उसी प्रकार अभ्यासबल से जो अतीन्द्रियार्थज्ञाता का विज्ञान होगा वह भी सोपप्लव होने से विपर्यासमय ही होगा, सत्य नहीं होगा। [रागादि ज्ञानावारक नहीं है ] अब यदि ऐसा कहा जाय कि-जब वायुमण्डल धूलिव्याप्त हो जाता है अथवा तुहिनव्याप्त हो जाता है तब समीपवर्ती भी धूमादि का दर्शन धुंधला होता है स्पष्ट नहीं होता / किन्तु तुहिन या धूलि के बिखर जाने पर वृक्षादि का स्पष्ट दर्शन होता है-इसी प्रकार विज्ञान की अविशदता के हेतुभूत आवारक रागादि ध्वस्त हो जाने पर सर्वज्ञ का ज्ञान अत्यन्त विशदता को प्राप्त कर लेंगे-कोई दोष नहीं है। विरोधी के अभिप्राय से उपरोक्त आवरण की बात असत् है, क्योंकि रागादि की आवरणरूप में सिद्धि नहीं है। लोक में भी दिवार आदि ही आवरणरूप में सिद्ध है. रागादि नहीं। जैसेरागादि के होने पर भी दिवार आदि की आड न होने पर ज्ञानोत्पत्ति होती है किंतु रागादि के न होने पर भी दिवार आदि की आड होने पर ज्ञानोत्पत्ति नहीं होती-इस प्रकार के अन्वय-व्यतिरेक से दिवार आदि का ही आवरणरूप में भान होता है न कि रागादि का। अत: रागादि आवरणरूप न होने से उसके विनाश को सर्वज्ञज्ञान की विशदता का संपादक नहीं माना जा सकता। [ सर्वज्ञज्ञान की तीन विकल्पों से अनुपपत्ति ] सर्वज्ञज्ञान के ऊपर निम्नोक्त तीन विकल्प भी संगत नहीं हैं। विकल्प इस प्रकार के हैं Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 कि च यदि युगपत् सर्वपदार्थग्राहक तज्ज्ञानं तदैकक्षणे एव सर्वपदार्थग्रहणाद् द्वितीयक्षणेऽकिचिज्ज्ञ एव स्यात् , ततश्च किं तेन तादृशाकिचिज्ज्ञेन सर्वज्ञत्वेन ? न चानाद्यनन्तसंवेदनस्य परिसमाप्तिः, परिसमाप्तौ वा कथमनाद्यनन्तता? किंच, सकलपदार्थसाक्षात्करणे परस्थरागादिसाक्षात्करणमिति रागादिमानपि स स्याद् विट इव / अथ रागादिसंवेदनमेव नास्ति न तहि सकलपदार्थसाक्षात्करणम् / तन्न प्रथमः पक्षः। अथ शक्तियुक्तत्वेन सकलपदार्थसंवेदनं तज्ज्ञानमभ्युपगम्यते, तदपि न युक्तम् , सर्वपदार्थावेदने तच्छक्तेर्जातुमशक्तेः, कार्यदर्शनानुमेयत्वाच्छक्तीनाम् / कि च, सर्वपदार्थज्ञानपरिसमाप्तावपि 'इयदेव सर्वम्' इति कथं परिच्छेदशक्तिः ? अथ 'वेदनाऽभावादभावोऽपरस्येति सर्वसंवेदनम्' / अवेदनादभावो 1. सर्वज्ञज्ञान से जो सर्ववेदन आप मानते हैं वह समस्त पदार्थों का ग्रहणरूप है ? या-२. समस्त वस्तु को ग्रहण करने की शक्तिमत्तारूप है ? अथवा 3. मुख्य मुख्य कई एक पदार्थों का ग्रहणरूप है ? .. ___ यदि प्रथम पक्ष पर सोचा जाय तो यहाँ भी बताईये कि A क्रम से सर्ववस्तु का ग्रहण होता है या B एक साथ ही ? यदि क्रम से सर्ववस्तु का ग्रहण माने तो उसमें कोई युक्ति नहीं है। क्योंकि अतीत-अनागत और वर्तमान कालीन पदार्थों का कहीं भी अन्त न होने से क्रमशः सर्वपदार्थों को विषय करने वाले ज्ञान का भी अन्त नहीं आने से अनन्त काल की अवधि में भी सर्वपदार्थों का ग्रहण संभव नहीं है। यदि एक साथ अनन्त अतीत-अनागत पदार्थों को साक्षात् क ज्ञान मानते हो तो वह भी ठीक नहीं है कारण. शीतस्पर्श-उष्णस्पर्शादि जो परस्परविरुद्ध पदार्थ हैं उन का एक ज्ञान में एक साथ प्रतिभास संभवविरुद्ध है। यदि उसका संभव माना जाय, तो समुदितरूप से सर्ववस्तु का ज्ञान होने पर भी किसी भी प्रतिनियत अर्थ का प्रतिनियतरूप से ग्रहण करने वाला वह ज्ञान नहीं होगा, तो हम आदि व्यवहर्ता को जो कई एक पदार्थों का विशेषरूप से ज्ञान होता है-उससे भी हीन कक्षा वाले उस ज्ञान से क्या प्रयोजन ? और वह सर्वज्ञ भी कैसा ? [एक साथ सर्वपदार्थग्रहण की सदोषता ] यह भी सोचिये कि एकसाथ ही सर्वपदार्थ को ग्रहण करने वाला सर्वज्ञज्ञान होगा तो प्रथम क्षण में ही सभी पदार्थ को ग्रहण कर लेने से दूसरे क्षण में आपका सर्वज्ञ कुछ भी न जान पायेगा तो इस प्रकार के कुछ भी न जानने वाली उस सर्वज्ञता से क्या लाभ? तथा जिस संवेदन का प्रारम्भ और अन्त ही नहीं है ऐसे संवेदन की किसी भी विषय में परिसमाप्ति यानी परिपूर्णअर्थग्राहकता संभव नहीं है, यदि संभव हो तो उस संवेदन को अनादि-अनन्त कैसे कहा जायगा जो किसी एक अर्थ के ग्रहण में ही परिसमाप्त हो जाता हो ? तथा जो सर्वार्थ का साक्षात्कार करेगा वह परंपुरूषगतरागादि दोष का भी साक्षात्कार अवश्य करेगा, अतः वह भी ठग पुरुष की भाँति रागादियुक्त हो जायगा / तात्पर्य यह है कि ठग पुरुष जैसे परकीय कपट को पीछानता हआ स्वयं भी प्रच्छन्न कपटी होता है वैसे आपका सर्वज्ञ भी परकीय कपटादि राग-द्वेष को पीछानता हुआ स्वयं कपटी-रागी-द्वेषी क्यों नहीं होगा / सारांश, सर्वपदार्थग्रहण वाले प्रथम पक्ष में कोई संगति नहीं है / [ सकलपदार्थसंवेदन की शक्तिमत्ता असंगत है ] दूसरे विकल्प में, यदि यह कहा जाय कि सर्वज्ञ का ज्ञान सर्व पदार्थों को ग्रहण करने में शक्तिशाली होता है, अत एव सर्वज्ञज्ञान को सकलपदार्थसंवेदी माना जाता है'-तो यह भी अयुक्त Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञसिद्धि: 215 ऽपरस्येति कुतो निश्चयः ? 'तदपेक्षया तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वात तथाभूतानुपलब्ध्याऽभावनिश्चयः' इति चेत? एवं सति स एवेतरेतराश्रयदोष:-'सर्वज्ञत्वनिश्चये तदभावनिश्चयः, तदभावनिश्चये च सर्वज्ञ त्वनिश्चयः' इति नैकस्यापि सिद्धिः / तन्न द्वितीयोऽपि पक्षः। अथ यावदुपयोगि प्रधानभूतपदार्थजातं तावदसौ वेत्तीति तत्परिज्ञानात् सकलज्ञः, तदपि सर्वपदार्थावेदने नियमेन न संभवति, 'सकलपदार्थव्यवच्छेदेन तेषामेव प्रयोजननिर्वर्तकत्वम्' इति सकलपरिज्ञानमन्तरेणाऽशक्यसाधनमिति न तृतीयोऽपि पक्षो युक्तः / __किंच, नित्यसमाधानसंभवे विकल्पाभावात् कथं वचनम् ? वचने वा विकल्पसम्भवात् समाधानविरोधान्न समाहितत्वमिति भ्रान्तछाद्मस्थिकज्ञानयुक्तः स स्यात् / कथं वाऽतीतानागतग्रहणम् , अतीतादेः स्वरूपस्याऽसंभवात? असदाकारग्रहणे च तैमिरिकज्ञानवत प्रमाणत्वं न स्यात / अथा दिकमप्यस्ति, एवं सत्यतीतत्वादेरप्यभाव एवेति सर्वज्ञव्यवहारोच्छेदः / अथ प्रतिपाद्यापेक्षया तस्याभावः, तदप्ययुक्तम् , नहि विद्यमानमेवापेक्षया तदैवाऽविद्यमानं भवति / तस्यानुपलब्धेरविद्यमानहै। कारण, शक्तियाँ सब अपने से उत्पादित कार्यात्मक लिंग से अनुमेय होती है अतः जब तक सकल पदार्थ का संवेदनात्मक कार्यलिंग अनुपलब्ध रहे तब तक सर्वपदार्थग्रहण करने की शक्ति मान्य नहीं हो सकती / यह भी सोचिये कि कदाचित सर्वपदार्थ के ग्रहण में ज्ञान की परिसमाप्ति मान ली जाय, फिर भी उस ज्ञान से गृहीत पदार्थ “ये सब इतने ही हैं [ इन से अब कोई अधिक नहीं है ]" इस प्रकार के ज्ञान की शक्ति का निर्णय कैसे करोगे ? यहाँ यह उत्तर दिया जाय कि 'उतने ही पदार्थों का वेदन होता है, अतिरिक्त किसी भी पदार्थ का संवेदन नहीं होता अत: उसका अभाव है यह निर्णय हो जायेगा तो यहाँ फिर से प्रश्न होगा कि अतिरिक्त किसी भी अर्थ का संवेदन न होने से उसका अभाव है-यह निश्चय कैसे हुआ ? इसके उत्तर में यदि कहा जाय-जहाँ तक सर्वज्ञज्ञान का विचार है, सर्व पदार्थ 'अगर होता तो जरुर उपलब्ध होता' इस प्रकार उपलब्धिलक्षण प्राप्त ही होते हैं, फिर भी अतिरिक्त पदार्थ की उपलब्धि नहीं होती इससे उनके अभाव का निश्चय किया जायेगा'-तो यहाँ ऐसा मानने में स्पष्ट अन्योन्याश्रय दोष है-जैसे, सर्वज्ञता का निश्चय होने पर अतिरिक्त पदार्थ का अभाव सिद्ध होगा और अतिरिक्त पदार्थ का अभाव सिद्ध होने पर सर्वज्ञता का निश्चय होगा' / फलतः दोनों में से एक की भी निरपेक्षसिद्धि नहीं होगी। सारांश, दूसरा विकल्प भी असंगत है। [ मुख्य-उपयोगी सर्वपदार्थ ज्ञान का असंभव ] तीसरे विकल्प में, यदि ऐसा कहा जाय-उपयोग में आने वाले मुख्य मुख्य पदार्थों के जितने समूह है उतने को वह जानता है और उतने पदार्थ के ज्ञान मात्र से ही वह सर्वज्ञ माना जाता है। यह भी संभव नहीं है क्योंकि समस्त वस्तु समूह को जाने विना कौन से पदार्थ उपयोगी एवं मुख्य हैइसका ज्ञान संभवबाह्य है / अन्य सकल पदार्थों को एक ओर रख कर 'इतने ही पदार्थ हमारे प्रयोजन के निष्पादक हैं' यह सर्व पदार्थ के ज्ञान विना सिद्ध नहीं किया जा सकता / अतः तीसरा विकल्प भी महत्त्वशून्य है। [ समाधिमग्न सर्वज्ञ का वचनप्रयोग असंभव ] यह भी तो सोचिये कि जब आप सर्वज्ञ केवलि को सदासमाहित यानी नित्य समाधिमग्न Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 त्वमेव' इति चेत् ? तदनुपलब्धिरेवास्तु कथमविद्यमानम् ? न ह्यन्यस्याभावेऽन्यस्याप्यभावः, अतिप्रसगात् / 'तस्यासावविद्यमानत्वेन प्रतिभाति' इति चेत ? स तहि भ्रान्तः, असद्विकल्पसम्भवात तस्याऽसद्विकल्पस्य विषयीकरणात् सर्वज्ञोऽपि भ्रान्त एवेति कथं सर्ववित् ? . ___अथ विकल्पस्यापि स्वरूपेऽभ्रान्तत्वमेव, तेन तस्य वेदनं सर्वज्ञज्ञानमभ्रान्तम् / एवं तहि स्वरूपसाक्षात्करणमेव केवलं, कथमतीताद्यविद्यमानसाक्षात्करणम् ? ततश्चातीतानागतपदार्थाभावात् तत्सा. क्षात्करणाऽसंभवान्न तद्ग्रहणात् सर्वज्ञः / किं च स्वरूपमात्रवेदने तन्मात्रस्यैव विद्यमानत्वात् तद्वेदनेऽद्वैतवेदनाद् न सर्वज्ञव्यवहार, तद्भावे वा सर्वः सर्ववित् स्यात् / अथापि स्यात् सत्यस्वप्नदर्शनवदतीतानागतादिदर्शन, ततो व्यवहार इति / तदप्ययुक्तम् . सत्यस्वप्नदर्शनस्य स्वरूपमात्रवेदने न सत्याऽसत्यविभागः किन्त्वानुमानिकः सत्यस्वप्नस्वरूपसंवेदनस्य तन्मात्रपर्यवसितत्वात / मानते हैं तो समाधि उसी का नाम है जिसमें सर्व विकल्प शान्त हो जाते हैं अतः समाधिमग्न सर्वज्ञ चित्त में विकल्पों की संभावना ही नहीं है। जब विकल्पों का संभव नहीं है तो वचन प्रयोग की सभावना की तो बात ही कहां? क्योंकि चित्त में विकल्पजन्म विना वचन प्रयोग संभव नहीं होता। . यदि आप सर्वज्ञ को वक्ता मानेंगे तो उसके चित्त में विकल्प भी अवश्य होगा ही जो समाधिभाव का पूरा विरोधी है-फलतः आपका सर्वज्ञ समाधिरहित हो जायेगा। तात्पर्य, आपका वह सर्वज्ञ समाधिशून्य होने से छानस्थिक यानी आवृत अवस्था में होने वाले ज्ञान का आश्रय हो जायेगा जो ज्ञान प्रायः भ्रमात्मक ही होता है। तथा यह भी प्रश्न है कि जब अतीतादि पदार्थ नष्ट-अजात होने से उसका कोई स्वरूप ही बच नहीं पाया है तो फिर उन अतीत और भावि पदार्थों का ज्ञान ही कैसे होगा? यदि अतीत आदि के वर्तमान में असद् ही आकार का वेदन मानेंगे तो तिमिर दोषग्रस्त नेत्र वालें का ज्ञान जैसे विपरीत होने से प्रमाणभूत नहीं होता उसी प्रकार यह सर्वज्ञज्ञान भी प्रमाण नहीं होगा। यदि कहा जाय कि अतीतादि भी विद्यमान हैं-तब तो वह वर्तमानरूप हो जाने से अतीत जैसा कुछ रह तो अब अतीत-अनागत का ज्ञाता भी न रहने से सर्वज्ञ का व्यवहार भी उच्छिन्न हो जायेगा। यदि कहें कि अतीतादि विद्यमान होने पर भी उस वक्त प्रतिपाद्यरूप की अपेक्षा विद्यमान न होने से उसका अभाव भी होता है'-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जो विद्यमान होता है वह किसी भी अपेक्षा से उस काल में अविद्यमान नहीं हो सकता। यह नहीं कह सकते कि "उस वक्त उसकी उपलब्धि न होने से वह अविद्यमान है" क्योंकि जिस की उपलब्धि नहीं होती उसको अनुपलब्ध ही माना जाय, अविद्यमान भी मानने की क्या जरूर? एक वस्तु का अभाव होने पर कहीं भी दूसरी वस्तु के अभाव का व्यवहार नहीं हो सकता / अन्यथा अतिप्रसंग यह होगा कि घट न होने पर पट के अभाव का व्यवहार किया जायेगा। यह भी नहीं कह सकते कि "सर्वज्ञ को वह अतीतादि पदार्थ अविद्यमानरूप में ही भासित होता है-विद्यमानरूप से नहीं। किन्तु सर्वथा उसका भान नहीं होता ऐसा नहीं है"-यह इसलिये नहीं कह सकते कि अविद्यमान वस्तु को ग्रहण करने वाला सर्वज्ञ भ्रान्त हो जायेगा, क्योंकि असत् वस्तु का भी (भ्रमात्मक) विकल्पज्ञान होता है तो अतीतादि को अमद् विकल्प का विषय करने से वह सर्वज्ञ भ्रान्त ही हो गया, फिर तो वह सर्वज्ञ भी कैसे रहा ? [ स्वरूपमात्र के प्रत्यक्ष से सर्वज्ञता का असंभव ] यदि यह कहा जाय कि-'विकल्पज्ञान भी स्वस्वरूप के संवेदन में अभ्रान्त ही होता है, विषय Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 217 किंच, अतीतानागतकालसंबन्धित्वात् पदार्थानामतीतानागतत्वम् / तद्धि भवत् किमपरातीतानागतकालसम्बद्धादभ्युपगम्यते आहोस्वित् स्वत एव ? यद्यपरातीततानागतकालसंबन्धात् कालस्यातोतानागतत्वं तदा तस्याप्यपरातीतानागतकालसम्बन्धादतीतानागतत्वम् , तस्याप्यपरस्मादित्यनवस्था। अपातीतानागतपदार्थक्रियासंबन्धात् कालस्यातीतानागतत्वं तेनायमदोषः / ननु पदार्थक्रियाणामपि कुतोऽतीतानागतत्वम् ? यद्यपरातीततानागतपदार्थक्रियासद्भावात् तदाऽत्रापि सैवानवस्था। प्रतीतानागतकालसम्बन्धात् पदार्थक्रियाणामतीतानागतत्वं तहि कालस्याप्यतीतानागतपदार्थक्रियासम्बन्धादतीतानागतत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / तन्न प्रथमः पक्षः। संवेदन में भले ही वह भ्रान्त हो / अतः स्वस्वरूप के संवेदनरूप सर्वज्ञज्ञान अभ्रान्त ही है। फिर सर्वज्ञ का अभाव कसे होगा?'-तो इस पर यह प्रश्न खडा होगा कि जब वह सर्वज्ञज्ञान केवल अपने स्वरूप का ही साक्षात्कारि है तो वह अतीतादि जो अविद्यमान है उसके साक्षात्कार वाला कैसे होगा? निष्कर्ष यह आया कि अतीत-अनागतादि पदार्थ विद्यमान न होने से उसका साक्षात्कार भी सम्भव न होने से अतीतादि का ग्रहण शक्य नहीं है, अतः कोई सर्वज्ञ भी नहीं है। दूसरी बात यह है कि जब सर्वज्ञ का विकल्पज्ञान अपने स्वरूप का ही संवेदी है तो उसका अर्थ यह हुआ कि जिसका संवेदन होता है वह स्वरूपमात्र ही विद्यमान है, और कुछ भी नहीं। तो स्वरूपमात्र के वेदन में एकमात्र स्वरूपाद्वैत तत्त्व का ही वेदन सिद्ध होने से सर्वज्ञ का व्यवहार कैसे किया जायगा? यदि केवल स्वरूपाद्वैत का वेदन ही सर्वज्ञ व्यवहार का निमित्त हो तब तो हमआप आदि सब सर्वज्ञ हो जायेंगे। . यदि यह कहा जाय-स्वप्न में जैसे अविद्यमान भी भावि पदार्थ का संवेदन होता है उसी प्रकार सर्वज्ञ को भी अतीत-अनागत सभी वस्तु का दर्शन होता है अतः उसका सर्वज्ञरूप में व्यवहार भी होता है तो यह भी ठीक नहीं है / कारण, जो स्वप्नदर्शन सत्य होता है वह भी स्वरूपमात्र का ही यदि वेदन करता होगा तो उसके सत्य-असत्य होने का विवेक उसीसे नहीं होगा किन्तु अनुमान से करना होगा / क्योंकि सत्यस्वप्न का स्वरूप संवेदन अपने सत्यत्व-असत्यत्व का ग्राहक नहीं होता किन्तु अपने संवेदनात्मकस्वरूप के ग्रहण में ही वह पर्यवसित यानी चरितार्थ होता है / तात्पर्य, सर्वज्ञ ज्ञान स्वप्नज्ञान के उदाहरण से यदि भूतभावि अर्थ दर्शनरूप मानेंगे तो उसके सत्य या असत्य होने का निर्णय अधूरा ही रह जायेगा। [ अतीतत्व और अनागतत्व की अनुपपत्ति ] यह भी विचारने योग्य है कि-पदार्थों की भूत-भविष्यत्ता भूतकाल और भविष्यकाल पर अवलम्बित है तो काल की भूत-भविष्यत्ता किसके ऊपर अवलम्बित है ? क्या अन्य भूतकाल-भविष्यकाल पर अवलम्बित कही जाय अथवा उसको स्वावलम्बी ही मानी जाय ? प्रथम पक्षमें यदि अन्य भूत-भविष्यकाल के सम्बन्ध को काल की भूत-भविष्यत्ता का आधार माना जाय तो उस अन्य कालद्रव्य की भूत-भविष्यत्ता का आधारभूत अन्य भूत-भविष्यकाल सम्बन्ध की कल्पना करनी होगी और उसके लिये भी अपर अपर भूत-भावि काल कल्पना का कहीं अन्त ही नहीं आयेगा / यदि ऐसा कहें कि काल की भूत-भविष्यत्ता तो भूत-भावि पदार्थों की क्रिया के सम्बन्ध से ( उदा० सूर्य-चन्द्र की क्रिया के सम्बन्ध से ) होती है / अतः पूर्वोक्त अनवस्था दोष निरवकाश है / '- तो यहाँ भी प्रश्न है कि पदार्थों Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ स्वरूपत एव कालस्यातीतानागत्वं तदा पदार्थानामपि स्वत एवातीतानागतत्वमस्तु किमतीतानागतकालसंबन्धित्वेन ? तच्च पदार्थस्वरूपमस्मदादिज्ञानेऽपि प्रतिभातीति नातीतानागतपदार्थग्राहित्वेनास्मदादिभ्यः सर्वज्ञस्य विशेषः। अपि च सम्बन्धस्यान्यत्र विस्तरतो निषिद्धत्वान्न कस्यचित् केनचित सम्बन्ध इत्यतीतानागतादिसंबद्धपदार्थनाहिज्ञानमसदर्थविषयत्वेन भ्रान्तं स्यादिति न भ्रान्तज्ञानवान् सर्वज्ञः कल्पयितुं युक्तः / भवतु वा सर्वज्ञः, तथाप्यसौ तत्कालेऽप्यसर्वज्ञातुं न शक्यते, तद्ग्राह्यपदार्थाऽज्ञाने तद्ग्राहकज्ञानवतः केनचित् प्रमाणेन प्रतिपत्तुमशक्तेः / तदुक्तम्--[ श्लो० वा० सू०२/१३४-३५ ] सर्वज्ञोऽयमिति o तत् तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः। तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ? // कल्पनीयास्त सर्वज्ञा भवेयर्बहवस्तव / य एव स्यादसर्वज्ञः स सर्वज्ञं न बध्यते // __ न च तदपरिज्ञाने तत्प्रणीतत्वेनागमस्य प्रामाण्यमवगन्तु शक्यम् , तदनवगमे च तद्विहितानुष्ठाने प्रवृत्तिरप्यसंगता। तदुक्तम् - [ श्लो० वा० सू०२-१३६ ] के क्रिया की भूत भविष्यत्ता का आधार कौन है ? यदि अन्य अतीतानागतपदार्थक्रिया के सम्बन्ध से पूर्व पदार्थक्रिया में भूत-भविष्यत्ता मानी जाय तो यहाँ भी पुन: पुनः अन्य अन्य अतीतानागत पदार्थ क्रिया की अपेक्षा का अन्त नहीं आयेगा यानी अनवस्था होगी। तथा पदार्थक्रिया की भूत भविष्यत्ता का आधार भूत-भाविकालसम्बन्ध को माना जायेगा तो काल की भूत-भविष्यत्ता पदार्थक्रिया पर अवलंबित होने से खुल्लमखुल्ला इतरेतराश्रय दोष लग जायेगा / सारांश, पदार्थों की भूत-भविष्यत्ता कालसम्बन्ध से मानने का पहला पक्ष असंगत है। [स्वरूपतः पदार्थों का अतीतत्वादि मानने में आपत्ति ] , अगर दूसरे पक्ष में, काल की भूत-भविष्यत्ता को स्वरूपतः यानी स्वावलम्बी ही मान लिया जाय तो पदार्थों की भूत-भाविता भी स्वत: स्वावलम्बी ही भले हो, भूत-भाविकालसम्बन्ध द्वारा ही मानने की क्या जरूर? इस विचार का तात्पर्य यह दिखाने में है कि जब पदार्थ की भूत-भविष्यत्ता स्वरूपतः ही है तब तो पदार्थस्वरूप का ही अपर नाम हआ भूत-भविष्यत्ता और पदार्थ का स्वरूप तो हमारे ज्ञान में भी स्फुरित होता ही है तो फिर अतीतानागतकालीनपदार्थग्रहण को पुरस्कृत करके सर्वज्ञ की विशेषता यानी हमारे और सर्वज्ञ के ज्ञान का अन्तर दिखाना व्यर्थ है। दूसरी बात यह है कि किसी भी दो पदार्थों के बीच किसी भी प्रकार के संबध के सद्भाव का अन्य स्थान में विस्तार से प्रतिषेध किया गया है उसका भी सार यह है कि किसी भी पदार्थ का अन्य किसी वस्तु के साथ कोई संबन्ध नहीं है अतः अतीत और अनागत काल के साथ सम्बन्ध से विशिष्ट पदार्थों का ग्राहक ज्ञान, सम्बन्धरूप असत् पदार्थ का विषयी होने से भ्रमात्मक सिद्ध होता है / अतः वैसे भ्रान्तज्ञान वाले सर्वज्ञ की व _ [ 'यह सर्वज्ञ है' ऐसा कैसे जाना जाय ?] कोई प्रमाण न होने पर भी क्षण एक सर्वज्ञ को मान लिया जाय, फिर भी जिस काल में सर्वज्ञ को आप मानते हैं उस काल में भी असर्वज्ञपुरुषों की यह शक्ति नहीं होती कि वे सर्वज्ञ को पीछान सके / कारण, सर्वज्ञज्ञान से ग्राह्य जो सर्व पदार्थ हैं उन सब का ज्ञान किये विना उन पदार्थों के ज्ञान करने वाले पुरुष को जानने में कोई प्रमाण समर्थ नहीं है। श्लोकवात्तिक में भी कह. है Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 216 सर्वज्ञो नावबुद्धश्चेद् येनैव स्यान्न तं प्रति / तद्वाक्यानां प्रमाणत्वं मूलाज्ञानेऽन्यवाक्यवत् // तदेवं सर्वज्ञसद्भावग्राहकस्य प्रमाणस्याभावात् तत्सद्भावबाधकस्य चानेकधा प्रतिपादितत्वात् सर्वज्ञाभावव्यवहारः प्रवर्त्तयितु युक्तः / तथाहि-ये बाधकप्रमाणगोचरतामापन्नाः ते 'असद्' इति व्यवहर्तव्याः, यथा अंगुल्यने करियूथादयः, बाधकप्रमाणगोचरापन्नश्च भवदभ्युपगमविषयः सकलपदार्थसार्थसाक्षात्कारीत्यसद्व्यवहारविषयत्वं सर्वविदोश्युपगन्तव्यम् / // इति पूर्वपक्षः // “सर्वज्ञगृहीत पदार्थों के ज्ञान के अभाव में सर्वज्ञ हयात होने पर भी 'यह सर्वज्ञ है या नहीं' ऐसो जिज्ञासा वालों को कैसे यह पता चलेगा कि 'यह सर्वज्ञ है' ? (यदि इसके लिये दूसरा सर्वज्ञ माना जाय तो उस सर्वज्ञ को भी जानने के लिये दूसरे सर्वज्ञ की आवश्यकता होने पर) आपको अनेक सर्वज्ञ की कल्पना करनी होगी / क्योंकि जो स्वयं सर्वज्ञ नहीं है वह दूसरे सर्वज्ञ को नहीं जान सकता।" . सर्वज्ञ अज्ञात होने पर उसके द्वारा रचित होने के कारण उसके आगम को प्रमाण मानना शक्य नहीं है / आगम प्रामाण्य अज्ञात रहने पर उस आगम से विहित अनुष्ठान में प्रवृत्ति करना भी असंगत है / जैसा कि कहा है - "जिस को सर्वज्ञ अज्ञात है उसके वाक्यों का प्रामाण्य भी नहीं हो सकता क्योंकि उन वाक्यों का मूल ही अज्ञात है, जैसे कि अन्य साधारण मनुष्य का वाक्य / " [सर्वज्ञ 'असद्' रूप से व्यवहारयोग्य-पूर्वपक्ष पूर्ण ] पूर्वपक्ष के उपसंहार में सर्वज्ञविरोधी कहता है कि जब उपरोक्त रीति से सर्वज्ञ के सद्भाव का ग्राहक कोई प्रमाण ही नहीं है और हमने सर्वज्ञ के सद्भाव के विरोधी अनेक यक्तियां दिखाई हैं तो अब सर्वज्ञ के अभाव का व्यवहार का प्रवर्तन करना उचित ही होगा। जैसे-जिनमें बाधक प्रमाण की विषयता प्राप्त है वे 'असद्' रूप से व्यवहार के लिये उचित हैं, जैसे अंगुलि के अग्रभाग में हस्तीवृदादि / आपकी मान्यता का विषयभूत सर्वपदार्थसाक्षात्कारी सर्वज्ञ भी बाधकप्रमाणविषयताप्राप्त ही है अतः सर्वज्ञ 'असद्' रूप से व्यवहार करने लायक है यह आप को अवश्य मानना होगा। सर्वज्ञविरोधी पूर्वपक्ष समाप्त / [ सिंहावलोकन:-सर्वज्ञविरोधी पूर्वपक्ष में सर्वज्ञ प्रमाणविषय न होने से असद्व्यवहारोचित होने का प्रतिपादन किया, तदनंतर सर्वज्ञवादी की ओर से यह विस्तृत आशंका पेश की गयी कि सर्वज्ञाभाव में प्रमाण न होने से असद्व्यवहार की प्रवृत्ति अनुचित है। इसके उत्तर में सर्वज्ञविरोधी ने प्रसगसाधन का अभिप्राय प्रस्तुत करके अपना समर्थन किया। तदनंतर, पूर्वोक्त आशका में जो वक्तृत्वहेतुक सर्वज्ञताभावसाधक अनुमान का खंडन किया गया था उसके प्रतिखंडन में धूमहेतुक अग्नि अनुमान के उच्छेद की विभीषिका विस्तार से प्रस्तुत की गयी / तदनन्तर सर्वज्ञप्रत्यक्ष की धर्मादिग्राहकता का चार विकल्प से खंडन किया गया। तदनन्तर सर्वज्ञ की सर्ववेदनता का तीन विकल्प से खंडन किया गया। उसके बाद अवशिष्ट शंकाओं का उत्थान समाधान करके पू - iarयों का उ:शात समाधान करके पर्वपक्ष समाप्त किया गया है / अब उत्तर पक्ष में सर्वज्ञ की सिद्धि और बाधकों का निराकरण पढिये / ] Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [ सर्वज्ञसद्भावावेदनम्-उत्तरपक्षः] अत्र प्रतिविधीयते-यत्तावदुक्तम् 'ये देशकालस्वभावव्यवहिताः प्रमाणविषयतामनापन्ना न ते सद्व्यवहारगोचरचारिणः' इत्यादि-तदयुक्तम , सर्वविदि प्रमाणविषयत्वस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वाद् असिद्धो हेतुस्तदविषयत्वलक्षणः / यदप्यभ्यधायि-'न तावदक्षसंभवज्ञानसंवेद्यस्तद्धावः, प्रक्षाणां तविषयत्वेन तत्साक्षात्करणच्यापाराऽसम्भवात' तत सिद्धमेव साधितम। यदप्युक्तम्-'नाप्यनुमानस्य तत्र व्यापारः, तद्धि प्रतिबन्धग्रहणे पक्षधर्मताग्रहणे च हेतोः प्रवर्तते; न च प्रतिबन्धग्रहणं प्रत्यक्षतस्तत्र संभवति' इत्यादि....तद् धूमादेरग्न्यादिप्रभवत्वानुमानेऽपि समानम् / अथान्यादेः प्रत्यक्षत्वात् तत एव तत्प्रभवत्व-कार्यविशेषत्वयोधू मादौ प्रतिबन्धसिद्धिः / ननु धूमस्य किमग्निस्वरूपग्राहकप्रत्यक्षेण पावकपूर्वकत्वमवगम्यते, उत धूमस्वभावग्राहिणेति कल्पनाद्वयम् / ___ तत्र न तावदाद्यः पक्षः, पावकरूपग्राहि प्रत्यक्षं तत्स्वभावमात्रग्रहणपर्यवसितमेव न धूमरूपप्रवेदनप्रवणम् , तदप्रवेदने च न तदपेक्षया तेन वह्नः कारणत्वावगमः; न हि प्रतियोगिस्वरूपाऽग्रहणे तं प्रति कस्यचित् कारणत्वमन्यद्वा धर्मान्तरं ग्रहीतु शक्यम् , अतिप्रसङ्गात् / अथ धूमस्वरूपप्रतिपत्तिमता प्रत्यक्षेण तस्य चित्रभानु प्रति कार्यत्वस्वभावं तत्प्रभवत्वं गृह्यते / ननु तस्यापि पावकस्वरूपग्राहकत्वेनाऽप्रवृत्तेस्तदग्रहणे तदपेक्षं कार्यत्वं धूमस्य कथमवगमविषयः ? अथाग्नि-धूमद्वयस्वरूपग्राहिणा प्रत्यक्षेण तयोः कार्यकारणभावनिश्चयः / तदप्यसंगतम्-द्वयग्राहिण्यपि ज्ञाने तयोः स्वरूपमेव भाति न पुनरग्ने— मं प्रति कारणत्वम् धूमस्य वा तं प्रति कार्यत्वम् / न हि पदार्थद्वयस्य स्वस्वरूपनिष्ठस्यैक. ज्ञानप्रतिभासमात्रेण कार्यकारणभावप्रतिभासः, अन्यथा घट-पटयोरपि स्वस्वरूपनिष्ठयोरेकज्ञानप्रतिभासः क्वचिदस्तीति तयोरपि कार्यकारणभावावगमप्रसङ्गः / [ सर्वज्ञसत्तासिद्धि निर्बाध है-उत्तरपक्षप्रारम्भ / अब सर्वज्ञविरोधी युक्तिओं का प्रतिकार किया जाता है-पूर्वपक्षी ने जो यह कहा था कि देश काल और स्वभाव से विप्रकृष्ट होते हुये जो प्रमाण के विषय नहीं होतें वे सद्व्यवहारविषयोचित नहीं होते-इत्यादि....वह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि 'सर्वज्ञ प्रमाण का विषय है' यह आगे दिखाया जायेगा, अतः पूर्वपक्षी का प्रमाणाऽविषयत्व हेत प्रसिद्ध है। यह भी जो कहा था 'सर्वज्ञ का सद्भाव इन्द्रियजन्यज्ञानसंवेद्य नहीं है क्योंकि इन्द्रियों की विषयमर्यादा संकुचित होने से सर्वज्ञ को साक्षात् करने में उसकी गुजाईश नहीं है' वह तो इष्ट होने से सिद्धसाधन ही है / और भी जो कहा था 'अनुमान भी सर्वज्ञ के विषय में निष्क्रिय है, हेतु-साध्य की व्याप्ति और हेतु की पक्षधर्मता का ग्रहण होने पर अनुमान की प्रवृत्ति संभव है, व्याप्ति का ग्रहण प्रत्यक्ष से संभव नहीं है' इत्यादि ...वह सब धूम के अग्निजन्यत्व के अनूमान में समानयुक्ति वाला है। यदि तक कर कि-'अग्नि आदि तो प्रत्यक्षांसद्ध होने से धूम में अग्निजन्यत्व अथवा विशिष्ट कार्यत्व का अविनाभाव सिद्ध कर सकते हैं'-तो इस पर दो कल्पना सावकाश हैं - 1 अग्निस्वरूप का ग्राहक प्रत्यक्ष ही धूम में अग्निपूर्वकत्व का बोधक है ? या २-धूमस्वभाव का ग्राहक प्रत्यक्ष धूमगत अग्निपूर्वकत्व का ग्राहक है ? [प्रसिद्ध अनुमान में व्याप्तिग्रह अशक्यता का समान दोष ] प्रथम पक्ष युक्त नहीं है-अग्निस्वरूप का ग्राहक प्रत्यक्ष तो अग्नि के स्वभावमात्र के ग्रहण Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 221 अथ यस्य प्रतिभासानन्तरं यत्प्रतिभास एकज्ञाननिबन्धनः तयोः तंदवगम इति नायं दोषः / तदपि घटप्रतिभासानन्तरं पटप्रतिभासे क्वचिद् ज्ञाने समानम् / न च क्रमभाविपदार्थद्वयप्रतिभासमन्वय्येकं ज्ञानमिति शक्यं वक्तुम, प्रतिभासभेदस्य भेदनिबन्धनत्वात, अन्यत्रापि तदमेदव्यवस्थापित्वाद् भेदस्य, स च क्रमभाविप्रतिभासद्वयाध्यासितज्ञाने समस्तीति कथं न तस्य भेद: ? न चैकमेव ज्ञानं जन्मानन्तरक्षणादिकालमास्त इति भवतामभ्युपगमः / तदुक्तं-"क्षणिका हि सा, न कालान्तरमास्ते” इति / में तत्पर रहने से ही धूमस्वरूप के संवेदन में तत्पर हो नहीं सकता। जब धूम के संवेदन का अभाव है तब धूमनिरूपित अग्नि की कारणता का भी बोध अशक्य है। प्रतियोगी (=संबंधी) के स्वरूप का भान न रहने पर उसके प्रति किसी की कारणता का या तत्संबंधी किसी अन्य धर्म का ग्रहण शक्य नहीं है / कारण, अतिप्रसंग की संभावना है, अर्थात् किसी एक वस्तु का ज्ञान हो जाने पर विना संबंध ही सारे जगत् का बोध हो जाने की अनिष्ट आपत्ति को यहाँ आमन्त्रण है।। द्वितीय पक्ष में, धूम के स्वरूप का ग्राहक प्रत्यक्ष धूम में अग्निसापेक्ष यानी अग्निनिरूपित कार्यत्वस्वभाव का या अग्निजन्यत्वस्वभाव का ग्राहक है-यह यदि माना जाय तो यहाँ यह सोचिये कि जब धूमग्राहक प्रत्यक्ष अग्निस्वरूप के ग्रहण में प्रवृत्त ही नहीं हुआ है तो अग्नि गृहीत न होने पर अग्निनिरूपित धूमनिष्ठ कार्यता का बोध कैसे शक्य है ? ___ यदि यह कहा जाय कि-हम नया ही पक्ष मानते हैं कि धूम और अग्नि दोनों के स्वरूप को ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष उन दोनों के कार्य-कारण भाव का निश्चायक होगा-तो यह भी असंगत ही है क्योंकि दोनों का ग्राहक प्रत्यक्ष केवल उनके स्वरूप को ही प्रकाशित करता है, किन्तु धूम के प्रति अग्नि की कारणता अथवा अग्नि के प्रति धूम की कार्यता को प्रकाशित नहीं करता। अपने अपने स्वरूप में अवस्थित एक साथ एक ज्ञान के विषय बन जाने मात्र से उनके बीच कार्य-कारण भाव प्रकाशित नहीं हो जाता है / अन्यथा घट पट का भी एक ज्ञान में प्रतिभास होने से उन दोनों के बीच कार्य-कारणभावग्रह हो जायेगा। ___.. [एक ज्ञान का प्रतिभासद्वय में अन्वय असिद्ध | यदि यह कहा जाय कि -"जिस ज्ञान में एक बार एक वस्तु का प्रतिभास हुआ और उसी ज्ञान से तत्पश्चाद् दूसरी वस्तु का प्रतिभास होता है उन दो वस्तु के बीच उसी ज्ञान से कार्य-कारणभाव का भी बोध होता है, अत: कार्यकारणभाव का बोध न होने का कोई दोष नहीं है।"-तो यह घटपट के प्रतिभास में भी समान है, अर्थात् जब कोई एक ज्ञान में घट प्रतिभास के बाद पट का प्रतिभास होगा तो वहाँ घट और पट के बीच में भी कार्यकारणभाव अवगत हो जाने की आपत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि कार्य और कारण क्रमभावि वस्तु है, क्रमभावि वस्तु द्वय का प्रतिभास एक ही अन्वयी ज्ञान में होता है यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रतिभास का भेद वस्तुत: भेद का कारण होता है / यह व्यवस्था अन्य स्थान में भी कही गयी है कि सर्वत्र वस्तुभेद प्रतिभासभेदमूलक ही होता है। यहाँ जिस एक ज्ञान में आप भिन्न भिन्न वस्तु का प्रतिभासद्वय मानते हैं वह ज्ञान भी क्रमशः होने वाले दो प्रतिभास से आक्रान्त ही है तो उस ज्ञान का भी भेद क्यों न माना जाय ? तात्पर्य, उसको एक ज्ञान नहीं मान सकते / आप यह मानते भी नहीं है कि एक ही ज्ञान जन्मक्षण के बाद दूसरीतीसरी आदि क्षणों के काल में टीकता है / जैसे कि आपने कहा है कि-संविद् क्षणस्थायी होती है, Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ वह्नि-धूमस्वरूपद्वयग्राहिज्ञानद्वयानन्तरभाविस्मरणसहकारि इन्द्रियं सविकल्पज्ञानं जनयति तत्र तवयस्य पूर्वापरकालभाविनः प्रतिभासात कार्यकारणभावनिश्चयो भविष्यति / तदप्यसंगतम्, पूर्वप्रवृत्तप्रत्यक्षद्वयस्य तत्राऽव्यापाराव तदुत्तरस्मरणस्य च पदार्थमात्रग्रहणेऽप्यसामर्थ्याच्चक्षुरादीनां च तदवगमज्ञानजननेऽशक्तेः / शक्तौ वा प्रथमाक्षसंनिपातवेलायामेव तदवगमज्ञानोत्पत्तिप्रसंगाद् अकिचित्करस्य स्मरणादेरनपेक्षणीयत्वात् / परिमलस्मरणसव्यपेक्षस्य लोचनस्य 'सुरभि चंदनम्' इत्यविषये गन्धादौ ज्ञानजनकत्वस्येव तत्रापि तज्जनकत्वविरोधाद अथ तत्स्मरणसव्यपेक्षलोचनव्यापारानन्तरं 'कार्यकारणभूते एते वस्तुनो' इत्येतदाकारज्ञानसंवेदनात् कार्यकारणभावावगमः सविकल्पकप्रत्यक्षनिबन्धनो व्यवस्थाप्यते-नन्वेवं परिमलस्मरणसहकारिचक्षुर्व्यापारानन्तरभावी सुरभि मलयजम्' इति प्रत्ययः समनुभूयते इति परिमलस्यापि चक्षुर्जप्रत्ययविषयत्वं स्यात् / अन्यसंवित् काल में वह टीकती नहीं है। [ शाबर भाष्य में ऐसा पाठ उपलब्ध होता है-"क्षणिका हि सा, न बुद्धयन्तरकालमवस्थास्यते इति' पृ० 7 पं. 24 ] [सविकल्पज्ञान से कार्यकारणभाव का अवगम अशक्य ] अब यदि ऐसा कहा जाय कि-"प्रारम्भ में अग्नि और धूम का स्वरूपग्राही दो ज्ञान हो जाने के बाद उन दोनों का एक स्मृतिज्ञान होता है और इस स्मृतिज्ञान के सहकार से इन्द्रिय एक सविकल्प ज्ञान को उत्पन्न करती है-इस ज्ञान में 'अग्नि के बाद धूम उत्पन्न हुआ' इस प्रकार से अग्नि धूम का पूर्वापरकालभावित्व का प्रतिभास होता है और इस पौर्वापर्य के ज्ञान से अग्नि-धूम का कारण-कार्य भाव निश्चित होता है ।"-किंतु यह भी असंगत है / कारण, उपरोक्त रीति से फलित किये गये कारणकार्य भाव के निश्चय में, प्रारम्भिक अग्नि और धम का प्रत्यक्षद्वय का कुछ भी व्यापार संभव नहीं है, तथा उसके बाद उत्पन्न होने वाला स्मरण तो उक्त प्रत्यक्ष या उसके विषय के ग्रहण में ही समर्थ होता है अतः अन्य किसी भी पदार्थ के ग्रहण में वह स्मरण असमर्थ है तो कार्यकारणभाव निश्चय में तो सुतरां असमर्थ होगा। तथा चक्षु आदि इन्द्रिय भी तथोक्त निश्चय कराने वाले ज्ञान के उत्पादन में असमर्थ है / यदि कारणकार्यभाव निश्चायक ज्ञान में उसका सामर्थ्य माना जाय तब तो प्रथम वेला में ही इन्द्रिय के साथ अर्थ का संनिकर्ष होने पर उसके निश्चायक ज्ञान की उत्पत्ति होने का प्रसंग होगा। तो फिर स्मरण तो बिचारा अकिंचित्कर हो जाने से आवश्यक नहीं रहेगा। यह इस प्रकार कि-जैसे सुगन्धिपरिमल के स्मरण से सहकृत लोचन के संनिकर्ष के बाद, गन्धादि यह नेत्र का विषय न होने से 'यह चंदन सुगन्धि है' इस ज्ञान का जनकत्व अर्थात् स्मरणसहकृतनेत्रादि में गन्धादिज्ञानजनकत्व मानने में विरोध है, उसी प्रकार पूर्वोक्त स्मरण सहकृत इन्द्रिय में कार्यकारणभावनिश्चयजनकत्व मानने में भी विरोध ही है। यदि यह कहें कि-"अग्नि-धूम के स्मरण से सहकृत नेत्र के संनिकर्ष के बाद 'ये दोनों कारणभूत और कार्यभूत वस्तु है' इस आकार से ज्ञानरूप संवेदन होता है अतः हम यह व्यवस्था करते हैं कि 'कार्यकारणभाव का निर्णय सविकल्पप्रत्यक्षमूलक है ।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि परिमलस्मरण से सहकृत लोचन संनिकर्ष के बाद 'यह चंदन सुरभि है' इस प्रकार का ज्ञान अनुभव सिद्ध है, अतः सुगन्धि परिमल को भी नेत्रजन्य बोध का विषय मानना होगा / तात्पर्य यह है कि अग्नि-धूमस्मरण सहकृत इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान को कार्यकारणभावविषयक माना जाय तो यह आपत्ति है कि सुगन्धिपरिमलस्मरणसहकृतलोचनइन्द्रियसंनिकर्ष के बाद सुरभि चंदनम्' इस ज्ञान को भी लोचन ज य ही मानना होगा। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 223 - अथ परिमलस्य लोचनाविषयत्वाद् नायं प्रत्ययः तज्जः, किन्तु गन्धसहचरितरूपदर्शनप्रभवानुमानस्वभावः / तदेतत् प्रकृतेऽपि कार्यकारणभावे लोचनाऽविषयत्वं समानम् , प्रत्ययस्य तु तदध्यवसायिनोऽपरं निमित्तं कल्पनीयम् / तन्न प्रत्यक्षतः सविकल्पकादपि धूम-पावकयोः कार्यकारणत्वावगमः / मानसप्रत्यक्षं तु तदवगमनिमित्तं भवता नाभ्युपगम्यते। अपि च कार्य-कारणभावः सर्वदेशकालावस्थिताखिलधमपावकव्यक्तिकोडीकरणेन अवगतोऽनुमाननिमित्ततामुपगच्छति; न च प्रत्यक्षस्येयति वस्तुनि सविकल्पकस्य निर्विकल्पकस्य वा व्यापारः संभवतीत्यसकृत प्रतिपादितम् / किंच, न कारणस्य प्राग्भावित्वमात्रमेव बौद्धानामिव कारणत्वम् ,-येन तस्य कारणस्वरूपामेवात् तत्स्वरूपग्राहिणा प्रत्यक्षेण तदभिन्नस्वभावस्य कारणत्वस्याऽप्यवगमः, केवलं कार्यदर्शनादुत्तरकालं तनिश्चीयते,-किन्तु कारणस्य कार्यजननशक्तिः कारणत्वम् ; सा च शक्तिर्न प्रत्यक्षावसेया अपि तु कार्यदर्शनसमवगम्या भवता परिकल्पिता / तदुक्तम् - "शक्तयः सर्वभावानां कार्याऽर्थापत्तिगोचराः" [ श्लो० वा० सू० 5 शून्य०-२५४ ] ततः कथं प्रत्यक्षात कारणस्य कारणत्वावगमः ? [ कार्यकारणभावग्रह में प्रत्यक्षान्यनिमित्त की आवश्यकता] यदि यह कहा जाय कि "परिमल (सुगन्ध) नेत्र का विषय नहीं है अतः 'यह चंदन सुगन्धि है' इस प्रतीति को नेत्रजन्य हम नहीं कहते हैं किन्तु गन्ध (स्मरण) से संकलित रूप का दर्शन होने पर उक्त 'यह चन्दन सुरभि है' इस प्रकार का अनुमान उत्पन्न होता है / तात्पर्य, यह बोध अनुमानस्वभावरूप है, प्रत्यक्षरूप नहीं है।"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा तो कार्यकारणभाव में भी समान है-यहाँ भी कह सकते हैं कि कार्यकारणभाव नेत्र का विषय नहीं है / अतः अग्नि-धूम की प्रतीति में कारण-कार्यभाव का अध्यवसायी किसी अन्य निमित्त की कल्पना करनी होगी / अतः इतना तो सिद्ध .हो गया कि प्रत्यक्ष से, चाहे वह सविकल्प भी क्यों न हो-धूम और अग्नि के कार्य-कारणभाव का अवगम शक्य नहीं है / यह तो इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष की बात हुयी, 'मानस प्रत्यक्ष कार्यकारणभाव ग्रहण का निमित्त है' यह तो आप भी नहीं मानते हैं। यह भी विचार किया जाय कि-सर्वदेशकालवर्ती सकल धूम और अग्नि व्यक्तियों का प्रत्यक्षादि से क्रोडीकरण यानी संग्रहण द्वारा कार्यकारणभाव को यदि जान लिया हो तभी वह अनमा निमित्त यानी विषयतापन्न हो सकता है, किन्तु सविकल्प या निर्विकल्प प्रत्यक्ष की यह शक्ति ही नहीं है कि इतने बड़े धूम-अग्नि समुदाय वस्तु को क्रमशः या एक साथ वह ग्रहण करे / यह बात बार बार पहले भी कह दी गयी है। (कारणता पूर्वक्षणवृत्तितारूप नहीं किन्तु शक्तिरूप है ] दूसरी बात यह है कि-बौद्धों की भांति कारण की पूर्वक्षणवृत्तिता को ही कारणता नहीं कही जाती, यदि कारणता पूर्वक्षणवृत्तिता रूप ही होती तो कारणस्वरूप से वह अभिन्न होने के कारण, कारणस्वभावग्राहक निर्विकल्प प्रत्यक्ष से कारणाभिन्नस्वभाव कारणता का भी बोध मान लिया जाता, सिर्फ उसका निश्चयात्मक विकल्प कारण से कार्योत्पत्ति के दर्शन के उत्तरकाल में ही होता, कारणदर्शन Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ कार्यादेव कारणस्य कारणत्वावगमोऽस्तु, कि नश्छिन्नम् ? ननु कार्यात कारणस्य कारणत्वावगमेऽनुमानाच्छक्त्यवगमः, तत्र च तदपि कार्य लिंगभूतं यदि कारणशक्तिमवगमयति तदा शक्तिकार्ययोः प्रतिबन्धग्रहणमभ्युपगन्तव्यम् , स च प्रतिबन्धावगमो न प्रत्यक्षादिति प्रतिपादितम् / अनुमानातदवगमे इतरेतराश्रयानवस्थादोषावतारोऽत्रापि समानः / अर्थापत्तेस्त्वनुमानेऽन्तर्भावः प्रतिपादितः / इति न प्रसिद्धानुमानस्यापि प्रवृत्तिर्भवदभिप्रायेण / / - अथ वह्निगतधर्मानुविधानाद् धूमस्य तत्पूर्वकत्वं कुतश्चित् प्रमाणात प्रसिद्धमिति घूमत्वस्य तत्पूर्वकत्वव्याप्तिसिद्धिः / अन्यथा धमादग्न्यसिद्धः सकललोकप्रसिद्धव्यवहाराभावः, अनुमानाऽभावे प्रत्यक्षतोऽपि व्यवहाराऽसंभवात् / तर्हि वचनविशेषस्यापि यदि विशिष्ट कारणपूर्वकत्वं तत एव प्रमाणात् प्रसिद्धं विवादाध्यासिते वचने वचनविशेषत्वात साध्येत तदा कोऽपराध: ?! के साथ नहीं होता। किंतु स्वमत में कारणता यह कारणस्वरूपाभिन्न कार्यपूर्वक्षणवृत्तितारूप ही नहीं किन्तु कार्यजन्मानुकूल कारणगत शक्ति रूप है। अब आपकी तो यह चिरपरिकल्पित मान्यता है कि कोई भी शक्ति प्रत्यक्षग्राह्य नहीं है किन्तु कार्यदर्शन से ही जानी जाती है। जैसे कि श्लोकवात्तिक में कहा है-"सर्वपदार्थों की शक्ति यह कार्य से प्रयुक्त अर्थापत्ति से जानी जाती है।" [ अनुमान में कार्यकारणभाव ग्रह की अशक्ति ] शंका:-आपने जो कहा कि कार्यदर्शन के उत्तर काल में कार्यकारणभाव का निश्चय होता है तो ऐसा सही, हम यह मान लेते हैं कि कार्य से ही कारण की कारणता अवगत होती है-इसमें हमारा क्या बिगडा? उत्तरः-अरे, आप इतना भी नहीं समझ पाये कि कार्य से कारणता का बोध मानने में तो शक्तिरूप कारणता कार्यलिंगक अनुमान गम्य हुयी-अब आपको यह मानना होगा कि यदि वह लिंग भूत कार्य से शक्तिस्वरूप कारणता का अनुमान होता है तो इसमें शक्ति और कार्य के बीच व्याप्ति पूर्वगृहीत अवश्य होनी चाहीये और यह व्याप्तिग्रह प्रत्यक्ष से नहीं हो सकता यह तो हमने चिरपूर्व में कह दिया है / यदि अनुमान से व्याप्तिग्रह को मानेंगे तो व्याप्तिग्राहक अनुमान में भी व्याप्तिग्रह आवश्यक होने से नये अनुमान मानने जायेंगे तो अनवस्था होगी और पूर्वानुमान से उत्तरानुमानजन व्याप्ति का ग्रह यदि मानेगे तो अन्योन्याश्रय दोष आयेगा-यह सब बात धू म और अग्नि के व्याप्तिग्रह में समान है / तथा यहाँ अर्थापत्ति से व्याप्तिग्रह की संभावना व्यर्थ है क्योंकि अर्थापत्ति का अनुमान में ही अन्तर्भाव हो जाता है यह तो विस्तार से कह दिया है। . उपरोक्त चर्चा का सार यह है कि पूर्वपक्षी यदि व्याप्ति ग्रह की असंभावना से सर्वज्ञ साधक अनुमान प्रवृत्ति का असंभव कहने जायेगा तो धूमहेतुक अग्नि का प्रसिद्ध अनुमान भी उसके मतानुसार उच्छेदाभिमुख हो जायेगा। [प्रसिद्धानुमानवत् सर्वज्ञानुमान में भी व्याप्तिग्रह का संभव ] शंका:-धूम अग्निअन्तर्गत धर्म का अनुसरण करता हुआ दिखाई देता है अतः ऐसे किसी प्रमाण से धूम में अग्निपूर्वकत्व निश्चित किया गया है, इस प्रकार धूमत्व और अग्निपूर्वकत्व दोनों की व्याप्ति सिद्ध हो जायेगी / यदि यह नहीं मानेंगे तो धूम से अग्नि के अनुमान का भंग हो जाने Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः यदप्युक्तम् 'पक्षधर्मत्वनिश्चये सति हेतोरनुमानं प्रवर्तते, न च सर्ववित कुतश्चित् प्रमाणात सिद्धः' इत्यादि....तदप्ययुक्तम् , यतो यदि सर्वविदो मित्वं क्रियेत तदा तस्याऽसिद्धत्वात् स्यादप्यपक्षधर्मत्वलक्षणं दूषणम् , यदा तु वचनविशेषस्य धर्मित्वं तस्य विशिष्टकारणपूर्वकत्वं साध्यत्वेनोपक्षिप्त तदा तत्र तद्विशेषत्वादिलक्षणो हेतुरुपादीयमानः कथमपक्षधर्मः स्यात् ? न चाऽपक्षधर्मादपि हेतोरुपजायमान मनुमानं प्रमाणं भवताऽभ्युपगच्छता पक्षधर्मत्वाभावलक्षणं दूषणमासञ्जयितुयुक्तम् / अन्यथा, "पित्रोश्च बाह्मणत्वेन पुत्रब्राह्मणताऽनुमा / सर्वलोकप्रसिद्धा न पक्षधर्ममपेक्षते // " [ ] इत्याद्यपक्षधर्महेतुसमुत्थानुमानप्रामाण्यप्रतिपादनं भवतोऽप्ययुक्तं स्यात् / ___ यदप्यभ्यधायि-'सर्वज्ञसत्तायां साध्यायां त्रयों दोषजाति हेतु तिवर्तते' इत्यादि....तत्र स्याद / तत्सत्ता साध्यत्वेनाभ्युपगम्यते, यावता पूर्वोक्तप्रकारेण वचनविशेषस्य विशिष्टकारण से सर्वजनसाधारण में प्रसिद्ध जो यह व्यवहार है कि 'धम जहाँ होता है वहाँ अग्नि प्राप्त होता है उसका उच्छेद हो जायेगा। क्योंकि जब अनुमान संभवित नहीं रहा तो प्रत्यक्ष से भी उक्त व्यवहार की संभावना सुतरां नहीं की जा सकती। उत्तरः-ठीक है आपकी बात, किन्तु इसी प्रकार हम भी सवज्ञसिद्धि के विषय में कहेंगे कि विशिष्ट प्रकार का सत्यवचन विशिष्ट प्रकार के रागरहितपुरुषादि कारणपूर्वक सुना जाता है यह भी किसी प्रमाण से निश्चित किया गया है तो उसी प्रमाण से प्रसिद्ध विशिष्टकारणपूर्वकत्वरूप साध्य, विशेषत्वरूप हेत से हम विवादापन्न वचनों में भी सिद्ध करेंगे तो यहाँ क्या दोष है ? ! कुछ नहीं। तात्पर्य, वचनविशेषत्वरूप हेतु से आगम में सर्वज्ञरूप विशिष्टकारणपूर्वकत्व की सिद्धि होने पर सर्वज्ञसिद्धि निष्कंटक है / .. [पक्षधर्मताविरहदोष का निराकरण ] आपने जो यह कहा था कि-'हेतु में पक्षधर्मता का निश्चय हो जाने पर अनुमान का उद्भव होता है किन्तु सर्वज्ञरूप पक्ष किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं है' इत्यादि....यह ठीक नहीं है / कारण, यदि हम सर्वज्ञ का ही पक्षतया निर्देश करे तब तो अद्यावधि वह असिद्ध होने से हेतु में पक्षधर्मता का अभाव रूप दूषण सावकाश है, किन्तु, जब हम प्रसिद्ध ही वचन विशेष को (हमारे आगमिक वचन को) पक्ष करें, और उसमें विशिष्ट (यानी सर्वज्ञात्मक) कारणपूर्वकत्व साध्य करना चाहें तो अब वचनविशेषत्वरूप हेतु के उपन्यास में पक्षधर्मता का अभाव कैसे होगा? दूसरी बात यह है कि आप मीमांसक तो पक्षधर्मतारहि ने अनुमान को प्रमाण मानते हो (जैसे कि अभी आगे दिखाया जायेगा) तो फिर हमारे अनुमान में पक्षधर्मताविरह का दूषणरूप से उद्भावन करना युक्तिपूर्ण नहीं है / यदि पक्षधर्मताविरह को दोष माना जायेगा तो - "माता-पिता के ब्राह्मणत्वरूप हेतु से पुत्र में ब्राह्मणत्व का अनुमान होता है यह सर्वजन सिद्ध है, जहाँ पक्षधर्मता की कुछ अपेक्षा नहीं है" इस प्रकार के पक्षधर्मतारहित हेतु से उत्पन्न अनुमान के प्रामाण्य का जो आप प्रतिपादन समर्थन करते हैं वह यक्तिविकल हो जायेगा। क्योंकि हेतुभूस्त ब्राह्मणत्व माता-पिता अन्तर्गत है और पक्ष है पुत्र जिसमें ब्राह्मणत्व सिद्ध करना है, किन्तु मातापितृगतब्राह्मणत्व धर्म पक्ष में नहीं है, वह तो माता-पिता में है / Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 पूर्वकत्वं साध्यमित्युक्तं, तत्र चास्य दोषस्योपक्षेपोऽयुक्त एव / यदप्यभ्यधायि-'यद्यनियतः कश्चित सकलपदार्थज्ञः साध्योऽभिप्रेतः' इत्यादि....तदप्यसंगतमेव, यतो नास्माभिः प्रतिनियत एव कश्चित् सर्वज्ञोऽनुमानात साध्यते किन्त विशिष्टकारणपूर्वकत्वं विशिष्ट शब्दस्य, तच्च स्वसाध्यव्याप्ततबलात साध्यमिणि सिद्धिमासादयद् हेतुपक्षधर्मत्वबलात् प्रतिनियतसर्वज्ञपूर्वकत्वेनैव सिद्धिमासादयति / न च 'तत एव हेतोरन्यस्यापि सर्वज्ञस्य सिद्धेरन्यागमाश्रयणमपि भवतां प्रसज्यते' इति दूषणम् , अन्यागमानां दृष्टविषय एव प्रमाणविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वेनाप्रामाण्यस्य व्यवस्थापाय पि सर्वज्ञत्वसिद्धिः?। यच्चान्यदभिहितम्-'न कश्चित् सर्वज्ञप्रतिपादकः सम्यग् हेतुः संभवति'-तदप्यसंगतम् , तत्प्रतिपादकस्य सम्यग्धेतोर्वचनविशेषत्वादेः प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् / यच्चान्यदभिहितम्-'सर्वे पदार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात् , अग्न्यादिवत्' इत्यत्र 'यदि सकलपदार्थग्राहिप्रत्यक्षत्वं साध्यम्' इत्यादि.... तदप्यसंगतम्; एवं साध्यविकल्पनेऽग्न्यादेरप्यनुमानान्न सिद्धिः स्यात् / तथाहि-अत्राप्येवं वक्त शक्यते, यदि प्रतिनियतसाध्यमिधर्मो वह्निः साध्यत्वेनाऽभिप्रेतस्तदा तद्विरुद्धेन दृष्टान्तमिरिण तद्धमिधर्मेण पावकेन व्याप्तस्य धूमलक्षणस्य हेतोरसिद्धत्वाद् विरुद्धो हेतुः स्यात् साध्यविकलश्च दृष्टान्तः / अथ दृष्टान्तमिधर्मः साध्यमिणि साध्यते तदा प्रत्यक्षादिविरोधः / अथोभयगतं वह्निसामान्यं तदा सिद्धसाध्यतादोषः। [ असिद्धि आदि तीन दोष का निराकरण ] यह जो पूर्वपक्षी ने कहा था कि-'सर्वज्ञसत्ता को सिद्ध करने में हेतु को तीन दोष लग जाते हैं, असिद्ध-विरुद्ध और अनैकान्तिक'-इत्यादि....यह भी असंगत है क्योंकि इन दोषों को तब अवकाश था यदि हम सर्वज्ञ की सत्ता को ही सीधा साध्य बना दें। जब कि हम तो वचन विशेष में विशिष्टकारणपूर्वकत्व को सिद्ध करना चाहते हैं यह कह दिया है। __और भी जो आपने कहा है-अनियतरूप से हो यदि सर्वपदार्थज्ञाता साध्यरूप से अभिमत हो तब उसके बनाये हुये किसी अमुक ही आगम का स्वीकार अनुचित है....इत्यादि....यह भी सब असंगत है क्योंकि हम किसी अमुक ही व्यक्ति को सर्वज्ञ सिद्ध करने में नहीं लगे हैं किन्तु विशिष्टशब्द में विशिष्टकारणपूर्वकत्व हमारा इष्ट साध्य है / यदि अपने साध्य के साथ अविनाभावी हेतु के बल से विशिष्टशब्द में वह सिद्ध होता है तो पक्षधर्मता के बल से ही वह साध्य अमुक ही श्री महावीर आदि सर्वज्ञपूर्वकत्वरूप से सिद्ध होने वाला है-क्योंकि विशिष्टशब्द से हम हमारे आगमवचन को पक्ष बनाते हैं तो विशेषशब्दत्व हेतु से विशिष्टकारणरूप में उस आगम के उपदेशकरूप में प्रसिद्ध महावीर भगवान आदि ही सर्वज्ञरूप में अर्थतः सिद्ध होने वाले हैं। इस समाधान के ऊपर यह दूषण नहीं लगा सकते कि विशेषशब्दत्व हेतु से अन्यदीयागम प्रणेता भी सर्वज्ञरूप से सिद्ध होने के कारण आपको अन्य आगम भी प्रमाणरूप से स्वीकारना होगा।'-यह दूषण तो तब लगता यदि अन्यदीय आगम विरुद्धार्थप्रतिपादक न होते / दृष्ट विषय में ही अन्य वेदादि आगम प्रमाणविरुद्धार्थ प्रतिपादक होने से अप्रमाण हैं यह आगे सिद्ध किया जायेगा। फिर कैसे अन्य आगमप्रणेताओं में सर्वज्ञता की सिद्धि होगी? [प्रमेयत्वहेतुक अनुमान में साध्यविकल्प अयुक्त है ] यह जो आपने कहा था-सर्वज्ञ का साधक कोई निर्दोष यथार्थ हेतु नहीं है यह असंगत है Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 227 तथा 'प्रमेयत्वमपि हेतुत्वेनोपन्यस्यमानम्'....इत्यादि....यदुक्तं तद् धूमलक्षणेऽपि हेतो समानम् / तथाहि-अत्रापि कि साध्यमिधर्मो हेतुत्वेनोपात्तः, उत दृष्टान्तमिधर्मः, अथोभयगत सामान्यं ? तत्र यदि साध्यमिधर्मों हेतुः स दृष्टान्तर्धामणि नान्वेतीत्यनन्वयो हेतुदोषः। अथ दृष्टान्तधमिधर्मः, स साध्यमिण्यसिद्धः इत्यसिद्धता हेतुदोषः / अथोभयगतं सामान्यं, तदपि प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षमहानंसपर्वतप्रदेशविलक्षणव्यक्तिद्वयाश्रितं न संभवतीति हेतोरसिद्धता तदवस्थिता। क्योंकि वचनविशेषत्वरूप निर्दोष हेतु सर्वज्ञ का साधक है, यह आगे दिखाया जाने वाला है / और भी जो आपने कहा है-"सभी पदार्थ किसी पुरुष को प्रत्यक्ष है क्योंकि वे सब प्रमेयरूप हैं, जैसे अग्नि आदिइस सर्वज्ञ साधक अनुमान में अगर सकंलपदार्थग्राहकप्रत्यक्षत्व साध्यरूप से अभिमत है या तद् तद् विषय का ग्राहक अनेक ज्ञान प्रत्यक्षशब्द से अभिमत है ?"....इत्यादि, और इनमें से आद्यविकल्प का जो बाद में खण्डन किया गया है कि "यदि सकलपदार्थग्राहक प्रत्यक्ष साध्य करेंगे तो हेतु में विरोध और दृष्टान्त में साध्य की असिद्धि ये दोष लगेंगे" इत्यादि....यह सब असंगत है, क्योंकि साध्य के ऊपर इस प्रकार के विकल्प करते रहने पर तो धूम हेतुक अनुमान से अग्नि भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। जैसे देखिये, अग्नि के अनुमान में भी यह कहा जा सकता है-यदि किसी अमक ही पर्वतान्तर्गत अग्नि का साध्यधर्मी पर्वत में साध्यधर्मरूप से उपन्यास किया जाय तो दृष्टान्तरूप पाकशाला धर्मी में पर्वतीयअग्नि का विरोधी जो पाकशालीय अग्निरूप दृष्टान्तधर्मी का धर्म, उसके साथ ही जिसकी व्याप्ति प्रसिद्ध है ऐसा पाकशालान्तर्गत धूम, पर्वत में असिद्ध है इतना ही नहीं विरुद्ध भी है और पाकशाला में पर्वतीय अग्निरूप साध्य का अभाव होने से दृष्टान्त भी साध्यशन्य है ये दोष समानरूप से आयंगे / आशय यह है कि जब प्रतिनियत पर्वतीय अग्नि को ही साध्य किया जाता है तब पाकशालादि दृष्टान्तधर्मी में उसका सद्भाव नहीं होता / तथा पर्वतीय अग्नि के साथ धूमव्याप्ति सिद्ध भी नहीं रहती, किन्तु उसके विरोधी पाकशालान्तर्गत अग्नि की ही पाकशालीय धूम में व्याप्ति सिद्ध रहती है अतः पाकशालीय धूम का यदि हेतुरूप से उपन्यास हो तो वह पर्वतरूप साध्यधर्मी में पर्वतीयाग्निविरोधी पाकशालीयाग्नि का साधक होने से विरोध दोष अनिवार्य होगा। ___ यदि दृष्टान्त धर्मी पाकशालादि अन्तर्गत अग्नि को पर्वत में सिद्ध करने की चेष्टा की जाय तो प्रत्यक्षादि से उसका सीधा ही बाध यानी विरोध होगा। तथा यदि साध्यधर्मी और दृष्टान्तधर्मी उभय साधारण अग्निसामान्य को साध्य किया जाय तो सिद्धसाधन दोष होगा क्योंकि वह प्रतिवादी को इष्ट ही है। इस प्रकार अग्नि के अनुमान में भी सब दोष समान हैं। [प्रमेयत्वहेतुवत् धूमहेतु में भी समान विकल्प] तदुपरांत प्रमेयत्वहेतुक अनुमान में आपने जो ये तीन विकल्प किये थे-हेतुरूप में उपन्यास किये जाने वाला प्रमेयत्व क्या सकलज्ञेयव्यापक प्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिरूप लेते हैं....इत्यादि....वह सब धूमहेतु में भी समान है, जैसे देखिये-अग्नि के अनुभान में क्या आप साध्यधर्मी पर्वत के धर्मभूत धूम को हेतु करते हैं ? या पाकशालारूप दृष्टान्तधर्मी के धर्मभूत धूम को ? अथवा उभयसाधारण धूमसामान्य को ? यदि प्रथम विकल्प में, पर्वतीयधूम को हेतु करेंगे तो दृष्टान्तधर्मी पाकशाला में उसका अन्वय न होने से अनन्वय नाम का हेतु दोष प्रसक्त होगा / यदि पाकशाला के धूम को हेतु Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ अथ पर्वतप्रदेशाश्रिताग्नितद्धमव्यक्तेरुत्तरकालभाविप्रत्यक्षप्रतीयमानत्वेन न महानसोपलब्धधूमव्यक्त्याऽत्यन्तवैलक्षण्यमिति नोभयगतसामान्याभावः / ननु उभयगतसामान्यप्रतिपत्तौ ततोऽनुमानप्रवृत्तिः, तत्प्रवृत्तौ च तदर्थक्रियार्थिनः तत्र प्रवर्त्तमानस्य प्रत्यक्षप्रवृत्तिः, तस्यां च सत्यामत्यन्तवलक्षण्याभावस्तद्वयक्तेः, तत्सद्भावे चोभयगतसामान्यसिद्धितः तदनुमानप्रवृत्तिरिति चक्रकदूषणावकाशः / अथ कण्ठक्षीणतादिलक्षणधर्मकलापसाधान्न महानस-पर्वतप्रदेशसंगतधूमव्यक्त्योरत्यन्तवैलक्षण्यमित्युभयगतसामान्यसिद्धौ न धूमानुमाने हेत्वसिद्धतादिदोषः, तहि वाच्याविसंवादादिधर्मकलापसाधर्म्यस्य वचनविशेषव्यक्तिद्वयेऽप्यत्यन्तवलक्षण्यनिवर्तकस्य सद्भावेन कथं न तद्विशेषत्वसामान्यसंभव: ? प्रमेयत्वं तु यथा प्रकृतसाध्ये हेतुर्भवति तथा प्रतिपादयिष्यामः, प्रास्तां तावत् / करेंगे तो वह पक्ष में न रहने से असिद्धता नाम का हेतु दोष होगा। अब यदि उभयसाधारण धूम सामान्य को हेतु करेंगे तो उसकी कल्पना निम्नोक्त हेतु से असंभवग्रस्त होने से हेतु की अप्रसिद्धि का दोष तदवस्थ ही रहेगा / तथाविध धूम सामान्य की कल्पना इस लिये संभव नहीं है कि-गोत्व जैसे गो और अश्व जैसे विलक्षण व्यक्तिद्वय का आश्रित नहीं होने से तदुभय का सामान्य नहीं हो सकता, उसी प्रकार-पाकशालीय अग्निप्रदेश प्रत्यक्ष होता है और पर्वत का अग्निप्रदेश अप्रत्यक्ष होता है तो इस प्रकार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ऐसे विलक्षण व्यक्ति द्वय में कोई सामान्य धूम की कल्पना भी अनुचित है / [धूम सामान्य की कल्पना में चक्रक दूषण प्राप्ति ] यदि यह कहा जाय कि-'पर्वत में अग्निप्रदेश अनुमान के पहले भले अप्रत्यक्ष है किन्तु अनुमान के उत्तरकाल में जब अग्नि का अर्थी वहाँ जाता है तो उसे वह अग्निप्रदेश और धूमव्यक्ति की प्रत्यक्ष प्रतीति होती है अतः पाकशालान्तर्गत धूमव्यक्ति और पर्वतीय धूम व्यक्ति में कोई वैलक्षण्य न रहने से पर्वत-पाकशाला उभय साधारण धूम सामान्य की कल्पना का असंभव नहीं है तो यहाँ चक्रक दूषण का अवतार होगा, जैसे देखिये-यह तो निश्चित है कि उभयगतधूमसामान्य का अवगम होने पर ही उससे अग्नि का अनुमान प्रवृत्त होगा, अब अनुमान प्रवृत्त होने पर अग्नि साध्य अर्थक्रिया का अर्थी वहाँ जायेगा और उसके अग्निप्रत्यक्ष की प्रवृत्ति होगी। यह प्रत्यक्ष होने पर दोनों धूम व्यक्ति अत्यन्तविलक्षण नहीं है यह पता चलेगा, वैलक्षण्य का अभाव सिद्ध होने पर उभय साधारण धूमसामान्य की सिद्धि होगी। तब अंत में अनुमान की प्रवृत्ति होगी। यह एक चक्रभ्रमण हुआ, इस प्रकार फिर से चक्रभ्रमण चालु होगा। यदि इस प्रकार धूम सामान्य की सिद्धि की जाय कि पाकशाला और पर्वत उभयान्तर्गत जो धूम द्वय है उन में, कंट यानी अग्रभाग में क्षीणता यानी क्रमश. मूल से लेकर ऊर्ध्व ऊर्ध्व भाग में क्षीण होते जाना इत्यादि समानधर्मसमूह उभयसाधारण होने से अत्यन्त विभिन्नता नहीं है, अतः समान धर्मसमूह से उभयगत सामान्य सिद्ध हो जाने पर धूमहेतुक अनुमान में हेतु की असिद्धता आदि कोई दोष नहीं है-तो वचनविशेषत्व को भी सामान्य रूप से हेतु किया जा सकता है अर्थात् यह कहा जा सकता है कि दृष्टान्त में और साध्यधर्मी में जो वचन विशेष हैं, उनमें अपने प्रतिपाद्य अर्थ के साथ अविसंवाद आदि समान धर्मसमह जो अत्यन्त विभिन्नता का निवर्तक है-वह विद्यमान है तो वचनविशेषत्व रूप सामान्य को हेतु क्यों न किया जाय ? (प्रस्तुत में तो प्रमेयत्व हेतु की बात चलती है तो इसके लिये कहते हैं कि) सकलज्ञेयपदार्थ में प्रत्यक्षत्व की सिद्धि के लिये प्रमेयत्व सामान्य को हेतु किया जा सकता है यह बात अग्रिम ग्रन्थ में दिखायेंगे / यहाँ कुछ धीरज रखीये / Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 229 यत्तु 'नापि शब्दात् तत्सिद्धिः' इत्यादि प्रतिपादितं, तत् सिद्धसाध्यतादोषाघ्रातत्वान्निरस्तम् / यदप्युक्तम् 'ये देश-काल-इत्यादिप्रयोगे नाऽसिद्धो हेतुः' इति, एतदप्ययुक्तम् , अनुमानस्य तदुपलम्भस्वभावस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वेनाऽनुपलम्भलक्षणस्य हेतोः परप्रयुक्तस्याऽसिद्धत्वात् / अत एव 'सद्व्यवहारनिषेधश्चानुपलम्भनिमित्तोऽनेन' इत्याद्यसारतया स्थितम् / ____ 'अथ यथाऽस्माकं तत्सद्धावाऽऽवेदकं प्रमाणं नास्ति तथा भवतां तदभावाऽऽवेदकमपि नास्ति' इत्यादि यावत् 'प्रसंगसाधनाभिप्रायेण सर्वमेव सर्वज्ञप्रतिक्षेपप्रतिपादकं युक्तिजालमभिहितम्' इति यदुक्तं तदप्यचारु / यतः 'सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीम्'.... [श्लो० सू० 2-117] इत्यादिना तत्सद्भावोपलम्भकप्रमाणपंचकनिवृत्तिप्रतिपादनद्वारेण यद् अभावस्यप्रमाणप्रवृत्तिप्रतिपादनं तत् तदभावावेदकस्वतन्त्राभावाख्यप्रमाणाभ्युपगमव्यतिरेकेणाऽसंभवद् भवतां मिथ्यावादितां सूचयति / यदप्यवादि तथा च प्रसंगसाधनाभिप्रायेण भगवतो जैमिनेः सूत्रम्' इत्यादि, तदप्यसंगतम् , यतः प्रसंगसाधनस्य तत्पूर्वकस्य च विपर्ययस्य व्याप्यव्यापकभावसिद्धौ यत्र व्याप्याभ्युपगमो व्यापका 'शब्द से सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती' इत्यादि जो आपने कहा है वह तो हमारे लिये इष्ट होने से आपके लिये सिद्धसाध्यता दोषाक्रान्त होने से ही विध्वस्त हो जाता है / "जो देशकालस्वभाव से दूरतमवर्ती होते हुए सद् वस्तु के उपलम्भक प्रमाण के विषयभाव को प्राप्त नहीं होते हैं वे सद्व्यवहार मार्ग के राही नहीं हो सकते" इस अनुमानप्रयोग के समर्थन के उपसंहार में आपने जो कहा था कि हेतु असिद्ध नहीं है-यह बात भी अयुक्त है क्योंकि हम आगे यह दिखाने वाले हैं कि सर्वज्ञोपलम्भकस्वभाव अनुमान का सद्भाव है / अतः आपका प्रतिपादित अनुपलम्भस्वरूप हेतु असिद्ध ही है / अत एव आपने जो कहा है कि-'अनुपलम्भमात्रनिमित्त के बल से अनेक स्थान में सद्व्यवहार का निषेध किया जाता है'-इत्यादि वह सब प्रस्तुत में उपयोगी न होने से सारहीन है। [प्रसंगसाधन में प्रतिपादित युक्तियों का परिहार ] सर्वज्ञवादी की ओर से आशंका को व्यक्त करते हुये-'जैसे हमारे पास सर्वज्ञ का सद्भाव प्रदर्शक प्रमाण नहीं है वैसे उसका अभाव प्रदर्शक प्रमाण भी नहीं है'....इत्यादि....जो आपने कहा था और उसके खण्डन में फिर “सर्वज्ञ के खण्डन में जो युक्तिवृद कहा गया है वह सब प्रसंगसाधन के अभिप्राय से कहा गया है" इत्यादि....कहा गया था, वह भी अचारु-अशोभन है / कारण, आपने श्लो० वा० के 'सर्वज्ञ अभी तो देखा नहीं जाता'....इत्यादि मीमांसक मत का अवलम्बन करते हुये सर्वज्ञ के विषय में उसके सद्भाव के प्रतिपादक प्रत्यक्षादि पाँचों प्रमाण की निवृत्ति के प्रदर्शन द्वारा जो अभावनामक * प्रमाण की प्रवृत्ति का सर्वज्ञ के विषय में प्रदर्शन किया है वह सर्वज्ञाभावप्रदर्शक स्वतन्त्र अभावनामक प्रमाण को माने विना संभव ही नहीं है, जब कि आप नास्तिक प्रत्यक्ष से अतिरिक्त प्रमाण ही नहीं मानते हैं फिर अभावप्रमाण का आलम्बन करके सर्वज्ञ का प्रतिवाद करना यह आपकी मिथ्यावादिता का ही प्रदर्शन है। [प्रत्यक्षत्व और सत्संप्रयोगजत्व की व्याप्ति असिद्ध ] यह जो आपने कहा था-'भगवान् जैमिनि का जो यह सूत्र है, सत्सम्प्रयोगे....इत्यादि, वह भी प्रसंगसाधन के अभिप्राय से ही है' इत्यादि....वह भी असंगत है, क्योंकि सर्वज्ञ के विषय में प्रसंग और विपर्यय की प्रवृत्ति ही आप नहीं दिखा सके हैं-जैसे, प्रसंगसाधन की प्रवृत्ति तब होती है जब किसी दो Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 भ्युपगमनान्तरीयकः व्यापकनिवृत्तितो व्याप्यनिवृत्तिरवश्यंभाविनी च प्रदर्श्यते तत्र यथाक्रमं प्रवृत्तिः, अत्र तु प्रत्यक्षत्वस्य सत्संप्रयोगजत्वेन, तस्य च विद्यमानोपलम्भनत्वेन, तस्यापि धर्मादिकं प्रत्यानिमित्त• त्वेन क्व व्याप्यव्यापकभावावगमो येन प्रसंग-तद्विपर्यययोः प्रवृत्तिः स्यात् ? ननूक्तमेवैतत् 'स्वात्मन्येव'...., सत्यम् उक्तं न तु युक्तमुक्तम् , अयुक्तता च सर्व चक्षुरादिकरणग्रामप्रभवं प्रत्यक्षं संनिहितदेशकालपदार्थान्तरस्वभावाविप्रकृष्ट प्रतिनियतरूपादिग्राहकं सर्वत्र सर्वदा चेति न व्याप्यव्यापकभावग्राहकं प्रमाणमस्ति, विपर्ययश्चोपलभ्यते-योजनशतविप्रकृष्टस्यार्थस्य ग्राहक,संपातिगृध्रराजप्रत्यक्षं रामायण-भारतादौ भवत्प्रमाणत्वेनाऽभ्युपगते श्रूयते, तथेदानीमपि गृधवराह-पिपीलिकादीनां चक्षुः-श्रोत्र-घ्राणजस्य प्रत्यक्षस्य यथाक्रमं रूप-शब्द-गन्धादिषु देशविप्रकृष्टेषु प्रवत्तिरुपलभ्यते, तथा कालविप्रकष्टस्याप्यतीतकालसंबन्धित्वस्य पूर्वदर्शनसम्बन्धित्वस्य च स्मरणसव्यपेक्षलोचनादिजन्यप्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षग्राह्यत्वं पुरोव्यवस्थितेऽर्थे भवताऽभ्युपगम्यते / अन्यथा, [श्लो० वा० सू०४ / 233-34 ] 'देशकालादिभेदेन तदास्त्यवसरो मितेः' // 'इदानींतनमस्तित्वं न हि पूर्वधिया गतम् / ' इत्यादिवचनसंदर्भेण प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षस्याऽगृहीतार्थाधिगन्तृत्वं पूर्वापरकालसंबन्धित्वलक्षणनित्यत्वग्राहकत्वं च प्रतिपाद्यमानमसंगतं स्यात् / भाव के बीच व्यापक-व्याप्यभावरूप संबंध सिद्ध हो तब यह दिखाया जाता है कि 'व्याप्य का स्वीकार व्यापक के स्वीकार विना नहीं हो सकता' / और प्रसंगसाधन के बाद विपर्यय की प्रवृत्ति तब होती है जब 'व्यापक यदि निवृत्त होगा तो व्याप्य अवश्य निवृत्त होगा' यह दिखाया जाय / प्रस्तुत में-आपने प्रत्यक्षत्व और 'सत् वस्तु के साथ सन्निकर्ष से जन्यत्व' इन दोनों में, तथा सत्संप्रयोगजन्यत्व और विद्यमानोपलम्भनत्व इन दोनों में, और 'विद्यमानोपलम्भनत्व' तथा 'धर्मादि के प्रति अनिमित्तत्व' इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव का ज्ञान ही कहाँ दिखाया है जिस से प्रसंग और विपर्यय की प्रवृत्ति को अवकाश प्राप्त हो! [किंचिज्ज्ञता और वक्तृत्व की व्याप्ति असिद्ध ] यदि कहें कि-'किंचिज्ज्ञता यानी अल्पज्ञता अथवा रागादिमत्ता के साथ वक्तृत्व का व्याप्यव्यापकभाव हमारे ही आत्मा में दृष्ट है....इत्यादि कथन द्वारा व्याप्यव्यापकभाव तो हमने प्रदर्शित किया ही है' इत्यादि....वह आपने कहा तो है, उसका हम इनकार नहीं करते, किंतु युक्तियुक्त नहीं कहा है / वह इस प्रकार-इस बात में कोई प्रमाण नहीं है कि "नेत्रादि इन्द्रियसमूह से उत्पन्न होने वाला सभी प्रत्यक्ष ज्ञान सर्वत्र सर्वकाल में, ऐसे ही रूप-रसादि प्रतिनियत विषय को ग्रहण करते हैं जो विषय संनिहितदेश से विप्रकृष्ट यानी दूरवर्ती न हो, संनिहितकाल से विप्रकृष्ट यानी दूरवर्ती न हो तथा सैनिहित पदार्थान्तर से उस विषय का स्वभाव विप्रकृष्ट यानी आवृत न हो गया हो।'- तात्पर्य, 'प्रत्यक्षज्ञान केवल निकटदेशकालवर्ती एवं अनावृत पदार्थ को ही ग्रहण करे' इस बात में कोई प्रमाण नहीं है / बल्कि इससे विपरीत भी जानने में आया है जैसे, कि-आपके लिये प्रमाणभूत रामायण और महाभारत में 'संपाति-जटायु को सेंकडो योजन दूर रहे हुए अर्थ का प्रत्यक्ष होता था'-ऐसा सुना जाता है। तथा इस युग में भी गीध आदि पक्षी के नेत्र की दूरदेशवर्ती रूप प्रत्यक्ष में प्रवृत्ति, डुक्कर के श्रोत्र की दूरदेशवर्ती शब्द के प्रत्यक्ष में प्रवृत्ति और चिटीयों के घ्राणेन्द्रिय की दूरदेशवर्ती गन्ध के प्रत्यक्ष वत्ति उपलब्ध होती है। यह देश की बात हयी / अब काल की बात Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 231 for." अथातीतातीन्द्रियकालसंबन्धित्वं पूर्वदर्शनसम्बन्धित्वं वा वर्तमानकालसम्बन्धिनः पुरोव्यवस्थितस्यार्थस्य यदि चक्षरादिप्रभव प्रत्यभिज्ञानेन गद्यते तदा-"संबद्धं वत्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिभिः [ श्लो० वा० 4-84 इति वचन विरुद्धार्थं स्यात; तथा अतीन्द्रियकालदर्शनादेवर्तमानार्थविशेषणत्वेन ग्रहणेऽतीन्द्रियधर्मादेरपि ग्रहणप्रसंगात् प्रसंगसाधन-तद्विपर्यययोरप्रवृत्तिः स्वयमेव प्रतिपादिता स्यात / नन्वयमेवात्र दोषः कालविप्रकष्टार्थग्राहकत्वेन इन्द्रियजप्रत्यक्षस्य प्रतिपादयितमस्माभिरभिप्रत इति कस्याऽत्रोपालम्भः ? / ____अथ वर्तमानकालसंबद्ध विशेष्ये पुरोत्तिनि व्यापारवच्चक्षुस्तद्विशेषणभूतेऽतीन्द्रियेऽपि पूर्वकालदर्शनादौ प्रवर्तते, अन्यथा चक्षुापारानन्तरं 'पूर्वदृष्टं पश्यामि' इति विशेष्यालम्बनं प्रत्यभिज्ञान नोपपद्येत / नाऽग्रहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिरुपजायते दण्डाऽग्रहणे इव दण्डिबुद्धिः / न च धर्मादावयं न्यायः सम्भवतीति चेत् ? ननु धर्मादेः किमतीन्द्रियत्वाच्चक्षुरादिनाऽग्रहणम् उत अविद्यमानत्वात आहोस्वित् अविशेषणत्वात् ? अतीतकालसंबंधिता यह अतीतकाल से घटित होने के कारण कालविप्रकृष्ट है, तथा पूर्वदर्शनसंबंधिता यह भी पूर्वकालघटित होने से कालविप्रकृष्ट है, फिर भी समीपवर्ती पूर्वानुभूत वस्तु में स्मरणसहकृतनेत्रादिजन्य प्रत्यभिज्ञास्वरूप प्रत्यक्ष से आप उसका ग्रहण मानते ही हैं / यदि यह न माना जाय ताआप मीमांसकों के श्लोकवात्तिक में प्रत्यभिज्ञा की प्रामाण्य सिद्धि में जो यह कहा गया है कि "देशभेद होने से और कालभेद होने से मिति यानी प्रामाण्य अवसरप्रात है” तथा “साम्प्रतकालीनास्तित्व यह पर्वबद्धि से गहीत नहीं था ( अत: उस अर्थ में अनधिगतअर्थग्राहकता रूप प्रामाण्य सुरक्षिा इत्यादि वचन का अवलम्बन लेकर आप प्रत्यभिज्ञा रूप प्रत्यक्ष में अनधिगतार्थग्राहकता का और वस्तु में पूर्वापरकालसम्बन्धस्वरूपनित्यता का प्रतिपादन करते आये हैं-वह असंगत हो जायेगा। अगर आप इस प्रकार उपालम्भ देना चाहें कि-'नेत्रादिइन्द्रियजन्य प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षज्ञान यदि अतीत, अत एव अतीन्द्रिय कालसम्बन्ध को तथा पूर्वदर्शनसंबंधिता को वर्तमानकालसंबन्धी पुरोवर्तीपदार्थ में ग्रहण कर लेता होगा तो 'नेत्रादि अपने से संबद्ध और वर्तमानकालीन अर्थ को ही ग्रहण करता है' ऐसा श्लोकवात्तिक का वचन विरोधग्रस्त हो जायेगा। तदुपरांत, अतीन्द्रियकाल और पूर्वदर्शन का वर्तमानअर्थविशेषणतया ग्रहण मानेंगे तो अतीन्द्रियधर्मादि का भी ग्रहण शक्य हो जाने से (मीमांसक को) सर्वज्ञवाद के विरुद्ध प्रसंगसाधन और विपर्ययप्रतिपादन की प्रवृत्ति को अनवकाश स्वयं ही घोषित होगा"-तो इस पर व्याख्याकार सर्वज्ञविरोधी को कहते हैं कि हम तो यह चाहते ही हैं कि मीमांसक (या नास्तिक) को नेत्रादि इन्द्रिय को केवल विद्यमान के ग्राहक मानने में यह दोष दिया जाय, क्योंकि उसी के ग्रन्थ में प्रत्यभिज्ञा प्रामाण्य के अवसर पर इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष को कालविप्रकृष्टार्थग्राहक दिखाया गया है। फिर आप सोचिये तो सही कि यह उपालम्भ किस को दिया जाय ? हमें या मीमांसक को? [धर्मादि के अप्रत्यक्ष में तीन विकल्प] यदि यह कहा जाय-जब वर्तमानकालसम्बद्ध विशेष्यभूत पुरोवर्ती पदार्थ के साथ नेत्रसंनिकर्ष होता है तब पूर्वकालदर्शन अतीन्द्रिय होने पर भी उपरोक्त विशेष्य का विशेषण होने के कारण गृहीत हो जाता है / ऐसा यदि न माना जाय तो नेत्रसंनिकर्ष के बाद “मैं पूर्वदृष्ट को देखता हूँ इस प्रकार पुरो Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तत्र नाद्यः पक्षः, अतीन्द्रियस्याप्यतीतकालादेग्रहणाभ्युपगमात् / नाप्यविद्यमानत्वात् , भाविधर्मादेरिवातीतकालादेरविद्यमानत्वेऽपि प्रतिभासस्य भावात् / अथाऽविशेषणत्वाद्धर्मादेरप्रतिभासः, तदप्यसंगतम्-सर्वदापदार्थजनकत्वेन द्रव्य-गुण-कर्मजन्यत्वेन च धर्मादेः सर्वपदार्थविशेषणभावसंभवाद अतीतातीन्द्रियकालादेरिव तस्यापि विशेष्यग्रहणप्रवृत्तचक्षुरादिना ग्रहणसंभव इति कथं धर्म प्रत्यनिमित्तत्वप्रसंगसाधनस्य तद्विपर्ययस्य वा संभवः ? तथा, प्रश्नादि-मन्त्रादिद्वारेण संस्कृतं चक्षुर्यथा कालविप्रकृष्टपदार्थग्राहकमुपलभ्यते तथा धर्मादेरपि यदि ग्राहकं स्यात् तदा न कश्चिद् दोषः / __ अपि च, अनालोकान्धकार व्यवहितस्य मूषिकादेर्नक्तंचरवृषदंशादेश्चक्षुर्यथा ग्राहकमुपलभ्यते तथा यद्यतीन्द्रियातीताऽनागतधर्मादिपदार्थसाक्षात्कारि कस्यचित् तदेव स्यात् तदाऽत्रापि को दोषः ? न च जात्यन्तरस्यान्धकारव्यवहितरूपादिग्राहकं चक्षुदृष्टं न पुनर्मनुष्यधर्मण इति प्रतिसमाधानमत्राभिधातुयुक्तम् , मनुष्यधर्मणोऽपि निर्जीवकादेव्यविशेषादिसंस्कृतं चक्षः समद्रजलादिव्यवहितपर्वतादि. वर्ती पदार्थ को विशेष्यरूप में और पूर्वदर्शन को विशेषणरूप में ग्रहण करता हुआ प्रत्यभिज्ञान उदित होता है वह नहीं होगा, क्योंकि यह नियम है कि "विशेषण की अग्राहक बुद्धि किसी वस्तु को विशेष्यरूप में ग्रहण नहीं करती-जैसे कि दंडरूप विशेषण की अग्राहक बुद्धि दंडी को विशेष्यरूप में ग्रहण नहीं करती। [ तात्पर्य दंड का ग्रहण होने पर ही यह 'दंडी पुरुष है' इस बुद्धि का जन्म होता है। ] अब प्रस्तुत में विचार करें तो यह स्पष्ट है कि धर्मादि में इस न्याय का संभव नहीं है, अर्थात् धर्मादि किसी वस्तु के विशेषणरूप में गृहीत नहीं होता है अतः किसी भी पदार्थ को नेत्रादि से देखते समय धर्मादि का विशेषणरूप में ग्रहण शक्य नहीं है / [ अत एव सर्वज्ञ की संभावना भी समाप्त हो जाती है ] / इस पर व्याख्याकार कहते हैं कि धर्मादि का नेत्रादि से क्यों ग्रहण नहीं होता? क्या वह अतीन्द्रिय हैं इस लिये ? अथवा वे विद्यमान नहीं है इस लिये ? या फिर वे किसी का विशेषण नहीं है इसलिये? [ तीनों विकल्पों की अयुक्तता ] तीन में से पहला विकल्प अनुचित है क्योंकि कालादि पदार्थ जो अतीन्द्रिय हैं उसका नेत्रादि से ग्रहण तो आप भी मानते ही हैं / दूसरा विकल्प, धर्मादि अविद्यमान होने से अग्राह्य हैं-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे अविद्यमान होने पर भी भूतकालादि का प्रतिभास होता है वैसे अविद्यमान भी भविष्यकालीन धर्मादि का प्रतिभास हो सकता है-उसमें कोई बाधक नहीं है। तीसरे विकल्प में "धर्मादि यह किसी भी वस्तु के विशेषणभूत न होने से धर्मादि का प्रतिभास शक्य नहीं"-यह बात भी असंगत है। कारण, सर्वपदार्थ का साधारण जनक होने से तथा द्रव्य गुण और कर्म से जन्य होने के कारण यह धर्मादि प्रत्येक पदार्थ का विशेषण बन सकता है इस में कोई संदेह नहीं है / तथा अतीत अतीन्द्रिय कालआदि का जैसे अपने विशेष्य के विशेषणरूप में ग्रहण होता है उसी प्रकार अपने विशेष्य को ग्रहण करने में प्रवृत्त नेत्रादि द्वारा धर्मादि का विशेषणरूप में ग्रहण का भी पूर्ण संभव है / तब फिर धर्मादि के प्रति अनिमित्तत्व के कथन द्वारा प्रसंगसाधन और विपर्यय के प्रदर्शन का अवकाश ही कहाँ रहा? तदुपरांत यह भी कहा जा सकता है कि प्रश्नादि (अंजनविशेषया विद्यादि) तथा मन्त्रादि द्वारा नेत्र का संस्कार करने पर जैसे काल से विप्रकृष्ट पदार्थों का भी नेत्रादि से ग्रहण संभव है उसी प्रकार धर्मादि का भी नेत्रादि से ग्रहण संभव माना जाय तो कोई दोष नहीं है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का. १-सर्वज्ञवाद: 233 ग्रहणे समर्थमुपलभ्यत इति धर्मादेरपि देश-काल-स्वभावविप्रकृष्टस्य कस्यचित् पुरुषविशेषस्य पुण्यादिसंस्कृतं चक्षुरादि ग्राहक भविष्यतीति न कश्चित् दृष्टस्वभावव्यतिक्रमः। ___अथ चक्षुरादेः करणस्य प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेनान्यकरणविषयग्राहकत्वे स्वार्थातिकमो व्यवहारविलोपी स्यात् / ननु श्रूयत एव चक्षुषा शब्दश्रवणं प्राणिविशेषाणाम्-'चक्षुःश्रवसो भुजङ्गाः इति लोकप्रवादात् / 'मिथ्या स प्रवाद' इति चेत् ? नैतत् , प्रवादबाधकस्याभावात् कर्णच्छिद्रानुपलब्धेश्च / न च दन्दशूकश्चक्षुषो जात्यन्तरत्वात् इत्युत्तरमत्रोपयोगि, अन्यत्रापि प्रकृष्टपुण्यसंभारजनितप्रत्यक्षस्याऽविरोधाद् न प्रत्यक्षत्व सत्संप्रयोगजत्वादेाप्यव्यापकभावसिद्धिरिति न प्रसंग-विपर्यययोः प्रवृत्तिरिति न ततस्तत्प्रतिक्षेपः। . [ नेत्र से अतीन्द्रियार्थदर्शन की सोदाहरण उपपत्ति ] तदुपरांत यह भी देखा जाता है कि-स्वयं आलोकरहित एवं अन्धकार से आवृत ऐसे मूषक आदि को रात में घूमने वाले बिल्ली आदि की आँख देख लेती है तो इसी प्रकार अतीन्द्रिय भूत-भावी धर्मादि पदार्थ को साक्षात करने वाले किसी पुरुष की संभावना की जाय तो उसमें क्या दोष है। यदि यह तर्क किया जाय-'पशु आदि अन्य जाति के प्राणि में ही अन्धकारावत रूपादि पदार्थ को ग्रहण करने वाले नेत्र देखने में आता है किन्तु मनुष्य जाति में ऐसा नेत्र दृष्ट नहीं है अतः अतीन्द्रियदृष्टा पुरुष की संभावना नहीं हो सकती' तो यह भ्रमपूर्ण है क्योंकि निर्जीवकादि मनुष्य के द्रव्यविशेषादि से संस्कार किये गये नेत्र का यह सामर्थ्य देखा जाता है कि समद्र जलादि से व्यवहित पर्वतादि भी उनक नेत्र से गृहीत होते हैं, तो अब हम संभावना व्यक्त करें कि देश, काल और स्वभाव से दूरवत्ती धादि को किसी पुरुषविशेष के पुण्यादि से संस्कृत चक्षु ग्रहण कर लेगी तो इसमें कोई अदृष्ट कल्पना अथवा दृष्ट स्वभाव का उल्लंघन जैसा कुछ नहीं है। [विषयमर्यादाभंग की आपत्ति का प्रतीकार ] ... यदि यह तर्क दिया जाय कि "चक्ष आदि इन्द्रिय की रूपादि विषय ग्रहणशक्ति मर्यादित होने से यदि नेत्रादि इन्द्रिय घ्राणादि इन्द्रिय ग्राह्य अर्थ के ग्रहण का व्यवसाय करेगी तो उसकी अपनी आयगा और उससे 'नेत्र से रूप और श्रोत्र से शब्द ही गृहीत होता हैइत्यादि व्यवहारों का भी लोप हो जायेगा।"-यह भी तथ्यशून्य है क्योंकि प्राणिविशेष को नेत्र से शब्द का श्रवण होता है यह सुनने में आता है जैसे कि यह प्रसिद्ध लोकोक्ति है-'सर्प नेत्रश्रावी है'। अगर कहें कि वह लोकोक्ति मिथ्या है तो यह अनुचित है क्योंकि एक तो यह कि उस. उक्ति में कोई बाधक नहीं है और दूसरी बात, सर्प में कर्णछिद्र भी उपलब्ध नहीं होते / कदाचित यहाँ ऐसा समाधान किया जाय कि 'सर्प के नेत्र तो एक विलक्षण ही जाति के हैं अतः उसमें वह शब्दश्रवणशक्ति हो सकती है तो यह समाधान यहाँ निरुपयोगी है क्योंकि सर्वज्ञ के लिये भी हम कह सकते हैं कि उसका नेत्र उत्कृष्ट पुण्य सामग्री से उपाजित होने के कारण सर्वज्ञ का नेत्र भी असाधारण जाति का आलौकिक है जिससे सर्ववस्तु का ग्रहण हो सकता है / . उपरोक्त चर्चा का सार यह है कि नेत्रादिजन्य प्रत्यक्ष को धर्मादिसमस्त वस्तु ग्राहक मानने में कोई विरोध नहीं है, अत एव प्रत्यक्षत्व और सत्संप्रयोगजत्व इन दोनों के बीच व्याप्यव्यापकभाव Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ ___ एतेन "यदि षभिः प्रमाणैः स्यात् सर्वज्ञः" [ श्लो० 2-199 ] इत्यादि वात्तिककृत्प्रतिपादितं प्रसंगसाधनाभिप्रायेण युक्तिजालमखिलं निरस्तम् , व्याप्तिप्रतिषेधस्य पूर्वोक्तप्रकारेण विहितत्वात् / यच्च-"कि प्रमाणान्तरसंवाद्यर्थस्य वक्तृत्वात्....इत्यादि तद् धूमादग्न्यनुमानेऽपि समानम् / तथाहि-अत्रापि वक्तुं शक्यम्-'कि साध्यमिसंबन्धी धूमो हेतुत्वेनोपन्यस्त' इत्यादि यावत् 'सिद्धः प्रतिबन्धोऽसर्वज्ञत्ववक्तृत्वयोरग्नि-धमयोरिव" इति पर्यन्तम् तदप्ययुक्तम्, यतोऽसर्वज्ञत्व-वक्तृत्वयोरिव नाग्निधूमयोः कार्यकारणत्वप्रतिबन्धस्य तद्ग्राहकप्रमाणस्य वाऽभावः / नहि वह्नि सद्भावे धूमो दृष्टः, तदभावे च न दृष्टः इत्येतावता धूमस्याग्निकार्यत्वमुच्यते किन्तु "कार्य धूमो हुतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितः" [ प्र० वा० 3-34 पूर्वार्द्ध ] न चासो दर्शनाऽदर्शनमात्रगम्यः किन्तु विशिष्टात् प्रत्यक्षाऽनुपलम्भाख्यात् प्रमाणात् / प्रत्यक्षमेव प्रमाणं प्रत्यक्षानुपलम्भशब्दाभिधेयम् , तदेव कार्यकारणाभिमतपदार्थविषयं प्रत्यक्षम्, तद्विविक्तान्यवस्तुविषयमनपलम्भशब्दाभिधेयम / कदाचिदनपलम्भपर्वक प्रत्यक्षं तदभावसाधकम. कदाचित प्रद पक्षपुर:सरोऽनुपलम्भः / तत्राद्येन येषां कारणाभिमतानां सन्निधानात् प्रागनुपलब्धं सद् धूमादि तत्सन्निधानादुपलभ्यते तस्य तत्कार्यता व्यवस्थाप्यते / तथाहि-एतावद्भिः प्रकारधू मोऽग्निजन्यो न स्यात्-१. यद्यग्निसन्निधानात् प्रागपि तत्र देशे स्यात् , 2. अन्यतो वाऽऽगच्छेत् , 3. तदन्यहेतुको वा भवेत्-तदेतत् सर्वमनुपलम्भपुरस्सरेण प्रत्यक्षेण निरस्तम् / भी असिद्ध है / अतः प्रसंगसाधन और विपर्ययप्रदर्शन की प्रवृत्ति सर्वज्ञ के विषय में असंभव होने से सर्वज्ञ का विरोध भी मूलविहीन है। [ धूमहेतुकानुमानोच्छेद प्रतिबन्दी का प्रतिकार ] . जब उक्त रीति से अलौकिक ज्ञान वाले नेत्र की संभावना निष्कंटक है तब वात्तिककार ने जो यह 'छह प्रमाणों के समूह से कदाचित कोई सर्वज्ञ हो सकता है' इत्यादि प्रसंगसाधन के अभिप्राय से समस्त युक्तिवृद प्रस्तुत किया है वह धराशायी हो जाता है / कारण, सर्वज्ञत्व और वक्तृत्व का व्याप्यव्यापकभाव का पूर्वोक्त रीति से निराकरण कर दिया है। तदनंतर जो आपने वक्तृत्व हेतु के खंडन की धूमहेतुकअनुमानखंडन में समानता दिखाते हुए यह कहा था - "सर्वज्ञवादी यदि 'प्रमाणान्तरसंवादीअर्थवक्तृत्व यह हेतु है'-इत्यादि विकल्प ऊटा कर यदि वक्तृत्वहेतु का खंडन करना चाहे तो वह धूमहेतुक अग्निअनुमान में भी समान है, जैसे कि यहाँ कहा जा सकता है कि साध्यमि का सम्बन्धीभूत धूम का हेतुरूप में उपन्यास करते हैं? या....इत्यादि से लगाकर असर्वज्ञत्व और वक्तृत्व की व्याप्ति इस प्रकार अग्नि और धूम की व्याप्ति की तरह सिद्ध होती है....इत्यादि तक....जो प्रतिवादी ने सर्वज्ञविरोध में कहा था"-वह सब अयुक्त है। तात्पर्य यह है कि मीमांसक असर्वज्ञत्व-वक्तृत्व की बात और अग्नि-धूम की बात, इन दो में जो समानता दिखाना चाहते हैं वह इसलिये ठीक नहीं है कि असर्वज्ञत्व और वक्तृत्व के कार्यकारणभाव सम्बन्ध और उसके ग्राहक प्रमाण का जैसे अभाव है वैसे अग्नि-धूम के कार्य-कारणभावसम्बन्ध और तद्ग्राहक प्रमाण का अभाव नहीं है / अग्नि होने पर धूम दिखाई देता है और न होने पर नहीं दिखाई देता इतने मात्र से कहाँ हम धूम को अग्नि का कार्य बताते हैं ? हम तो धूम को अग्नि का कार्य इसलिये कहते हैं कि अग्निजन्य कार्य के जो धर्म होते हैं अन्वयव्यतिरेकानुविधायितादि, धूम उसका अनुवर्तन करता है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 235 एतेन 'प्रागनुपलब्धस्य रासभस्य कुम्भकारसंनिधानानन्तरमुपलभ्यमानस्य तत्कार्यता स्यादिति निरस्तम् / तथाहि-तत्रापि यदि रासभस्य तत्र प्रागसत्त्वम्, अन्यदेशादनागमनम् , अन्या:कारणत्वं च निश्चेतु शक्येत तदा स्यादेव कुम्भकारकार्यता, केवलं तदेव निश्चेतुमशक्यम् / एवं तावदनुपलम्भपुरस्सरस्य प्रत्यक्षस्य तत्साधनत्वमुक्तम् / तथा प्रत्यक्षपुरस्सरोऽनुपलम्भोऽपि तत्साधनः-येषां संनिधाने प्रवर्त्तमानं तव कार्य दृष्टं तेषु मध्ये यदैकस्याप्यभावो भवति तदा नोपलभ्यते, तत् तस्य कारणमितरत् कार्यम् / न चाग्नि-काष्ठादिसंनिधाने भवतो धूमस्यापनीते कुम्भकारादावनुपलम्भोऽस्ति, अग्न्यादौ त्वपनीते भवत्यनुपलम्भः। एवं परस्परसहितौ प्रत्यक्षानुपलम्भावभिमतेष्वेव कार्यकारणेषु निःसंदिग्धं कार्यकारणभावं साधयतः। [प्रत्यक्षानुपलम्भ से धूम में अग्निजन्यत्वसिद्धि ] 'कार्य कारणभाव केवल दर्शनाऽदर्शन गम्य है ऐसा जो आपने कहा था वह भी ठीक नहीं है क्योंकि वह विशिष्ट प्रकार के प्रत्यक्षानुपलम्भ नामक प्रमाण से उपलभ्य है। [ दर्शनादशन आर प्रत्यक्षानुपलम्भ समानार्थक नही नार्थक नहीं है ] यही प्रमाण जब कार्य और कारणरूप से अभिमत पदार्थयुगल को विषय बनाता है तब 'प्रत्यक्ष' कहा जाता है और जब दोनों से शुन्य अन्य किसी वस्तु को विषय करता है तब 'अनुपलम्भ' शब्द से कहा जाता है। ऐसा होता है कि कभी कभी प्रथम अनुपलम्भ और बाद में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति होती है और उससे कार्यकारणभाव सिद्ध होता है, तो कभी कभी प्रथम प्रत्यक्ष और बाद में अनुपलम्भ की प्रवृत्ति होने से कार्यकारणभाव सिद्ध होता है / जैसे-प्रथम कल्प द्वारा इस प्रकार व्यवस्था की जाती है-धूम के कारणरूप से अभिमत जो अग्नि आदि हैं उनका संनिधान होने के पूर्व वहाँ धूम उपलब्ध नहीं होता था यानी धूम का अनुपलम्भ था, किन्तु अग्नि आदि का संनिधान होने पर धूम का उपलम्भ (प्रत्यक्ष) होने लगता है-अतः धूम अग्नि आदि के कार्यरूप में निश्चित किया जाता है। यह भी इस प्रकार जो तोन प्रकार अभी बताये जा रहे हैं उनके बल पर ही यह कहना शक्य हो सकता है कि धूम अग्निजन्य नहीं है-१-अगर धूम अग्नि प्रज्वालन के पूर्व भी वहाँ उपस्थित होता, 2 अथवा, अन्य स्थान से धूम अग्निदेश में आ जाता, ३-अथवा, धूम का कोई अग्निभिन्न हेतु होता / किन्तु ये तीनों प्रकार अनुपलम्भ पूर्वक प्रत्यक्ष से विध्वस्त हो जाते हैं / [ गधे में कुम्भकारनिरूपित कार्यता आपत्ति का निराकरण ] पूर्वोक्त तीन प्रकार का निराकरण होने से, यह जो किसी ने कहा है वह भी ध्वस्त हो जाता है कि-'पूर्व में अनुपलब्ध गर्दभ कुभकारादि के संनिधान के बाद उपलब्ध होता है तो वह भी कुम्भकार का कार्य हो जायेगा'-यह इसलिये ध्वस्त हो जाता है कि- 'गधा वहाँ पहले नहीं ही हो सकता, अथवा वह अन्य स्थान से यहाँ नहीं आया है, अथवा गर्दभ का अन्य कोई हेतु नहीं ही है' ऐसा निश्चय किसी प्रकार किया जा सकता तब तो गधा कुम्भकार का कार्य हो सकता था ( किंतु यह निश्चय ही अशक्य है / )-इस प्रकार अनुपलम्भपूर्वक प्रत्यक्ष से कार्यकारणभावसिद्धि की बात हुयी। तदुपरांत, प्रत्यक्षपूर्वक अनुपलम्भ से भी कार्यकारण भाव की सिद्धि इस प्रकार है-जिन के संनिधान में जिस वस्तु की उपस्थिति (उत्पत्ति) देखी जाती है उन पदार्थो (कारणों) में से यदि किसी एक का भी अभाव हो जाय तब उस वस्तु की उपलब्धि यदि नहीं होती है ऐसे स्थल में जिसका अभाव तद् वस्तु की अनुपलब्धि का प्रयोजक हुआ वही उसका कारण है और जिस वस्तु की अनुपलब्धि Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 सर्वकालं चाग्निसंनिधाने भवतो धूमस्यानग्निजन्यत्वं कदाचित् सदसतोरजन्यत्वेन, अहेतुकत्वेन, अदृश्यहेतुकत्वेन वा भवेत् ? तत्र न तावत् प्रथमः पक्षः, असतो जन्यत्वात् , "सदेव न जन्यते" इति त्वदभिप्रायात् सत एव जन्यमानत्वानुपपत्तेः, कार्यत्वस्य च कादाचित्कत्वेन सिद्धत्वात् / नाप्यहेतुकत्वम् , कादाचित्कत्वेनैव, अहेतुत्वे तदयोगात् / नाप्यदृश्यहेतुकत्वम् , धूमस्याग्न्यादिसामग्रचन्वयव्यतिरेकानुविधानात् / __ अथापि स्याद्-अदृश्यस्यायं स्वभावो यदग्न्यादिसनिधान एव धूमम् , कर्पू रोर्णादिदाहकाले सुगन्धादियुक्तं च करोति नान्यदेति / तत् किमग्निमन्तरेण कदाचित् धूमोत्पत्तिष्टा येनैवमुच्यते ? नेति चेत् ? कथं नाग्निकार्यो धमस्तभावे भावात् ? धूमोत्पत्तिकाले च सर्वदा प्रतीयमानोऽग्निः काकतालीयन्यायेन व्यवस्थित इत्यलौकिकम् / अथ स एवादृश्यस्य स्वभावो यदग्निसंनिधान एव धूमं करोति, ननु यद्यग्निना नासावपक्रियते किमग्निसंनिधानादन पूर्व पश्चाद वा धर्म विदधाति ? न चाऽन्यदा करोतीति तस्य तज्जन्यस्वभावसव्यपेक्षस्य धमजनने तदेव पारम्पर्येणाग्निजन्यत्वं धमस्य। हुयी वह उस कारण का कार्य है / अग्नि-कष्ठादि सामग्री के संनिधान में उपलब्ध धूम की कुम्भकारादि के हठ जाने पर अनुपलब्धि नहीं हो जाती किन्तु अग्नि आदि के हठ जाने पर अनुपलब्धि हो जाती है, अतः धूम अग्नि का कार्य है। इस प्रकार से अन्योन्य सहकृत प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ से कार्यकारणरूप में सिषाधयिषित ( संभावित ) कार्य और कारण में निःसंदेह कार्यकारणभाव सिद्ध किया जाता है। [ धूम में अनग्निजन्यता का तीन विकल्प से प्रतिकार ] हर कोई काल में यह तो निःसंदेह देखा गया है कि धम अग्नि के संमिधान में ही होता है। तथापि धूम को कभी कभी अग्निजन्य न मानने में क्या कारण ? क्या सद् या असद् की उत्पत्ति अघटित होने से ? या धूम का कोई हेतु नहीं है इसलिये ? अथवा उसका हेतु अदृश्य है इसलिये ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है क्योंकि असत् (अनुत्पन्न) की उत्पत्ति होती है। 'जो सत् होता है वही अजन्य होता है / ऐसे आपके अभिप्राय से सत् पदार्थ में ही उत्पद्यमानत्व की अनुपपत्ति है, असत् में नहीं / धूम यह अजन्य नहीं किन्तु कार्य होता है यह तो उसके कदाचित्कत्व यानी 'किसी अमुककाल में ही रहना' इस हेतु से सर्वत्र प्रसिद्ध है। दूसरा पक्ष, धूमका कोई हेतू ही नहीं है-यह भी ठीक भी ठीक नहीं क्योंकि धूम कदाचित होता है, यदि वह अहेतुक होता तो उसमें कदाचित्कत्व नहीं घट सकता / तीसरा पक्ष-उसका हेतु अदृश्य है-यह भी असंगत है। कारण, अग्निआदि दृष्ट कारणसामग्री के साथ धूम का अन्वयव्यतिरेकानुवर्तन देखा जाता है। [ धूम में अदृश्यहेतुकत्व का निराकरण ] कदाचित् यह आशंका व्यक्त करें कि-धूमोत्पादक अदृश्य वस्तु का स्वभाव ही है ऐसा, जो अग्निआदि के संनिधानकाल में ही धूम उत्पन्न करता है एवं कपूर और उन आदि के दहनकाल में ही सुगन्धी धूम को उत्पन्न करता है। अन्य किसी काल में नहीं करता।-तो इस आशंका करने वाले का यह पूछना चाहिये कि क्या तुमने अग्नि के विरह में कहीं धूम की उत्पत्ति देखी है जिससे ऐसा कहते हो ? अगर नहीं, तो फिर धूम को अग्नि का कार्य क्यों न माना जाय जब कि अग्नि होते हुए ही धूम उत्पन्न होता है ! यह भी एक आपकी अद्भुत कल्पना है कि धूम की उत्पत्ति काल में सदैव Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञसिद्धिः 237 कि च, यथा देश-कालादिकमन्तरेण धमस्यानुत्पत्तेस्तदपेक्षा प्रतीयते तथाऽग्निमन्तरेणापि धूमस्यानुत्पत्तिदर्शनात् तदपेक्षा केन वार्यते ? तदपेक्षा च तत्कार्यतैव / यथा चाऽदृश्यभावे एव धूमस्य भावात् तज्जन्यत्वमिष्यते तथा सर्वदाऽग्निभावे एव धूमस्य भावदर्शनात तज्जन्यता कि नेष्यते ? यावतां च सन्निधाने भावो दृश्यते तावतां हेतुत्वं सर्वेषामित्यन्यादिसामग्रीजन्यत्वात् धूमस्य कुतोऽग्निव्यभिचारः ? न चायं प्रकारोऽसर्वज्ञत्व-वक्तृत्वयोः संभवति, असर्वज्ञत्वधर्मानुविधानस्य वचनेऽदर्शनात् / तथाहि-यदि सर्वज्ञत्वादन्यत् पर्युदासवृत्त्या किंचिज्जत्वमसर्वज्ञत्वमुच्यते तदा तद्धर्मानुविधानाऽदर्शनान्न तज्जन्यता वचनस्य / न हि किंचिज्जत्वतरतमभावात् वचनस्य तरतमभाव उपलभ्यते / तथा हि-किंचिज्ज्ञत्वं प्रकृष्टमत्यल्पविज्ञानेषु कृम्यादिषु, न च तेषु वचनप्रवृत्तेरुत्कर्ष उपलभ्यते / अथ प्रसज्यप्रतिषेधवृत्त्या सर्वज्ञत्वाभावोऽसर्वज्ञत्वं तत्कार्य तु वचनं, तदा ज्ञानरहिते मृतशरीरे तस्योपलम्भः स्यात् , न च कदाचनापि तत् तत्रोपलभ्यते / वहाँ प्रतीत होने वाला अग्नि बेचारा ऐसे ही काकतालीयन्याय से वहां आ बैठता है। अब यह तर्क किया जाय कि-"अदृश्य पदार्थ का स्वभाव ही ऐसा है कि अग्निसंनिधि में ही धूम उत्पन्न करता हैहम उसमें क्या करें ?"-तो आपको यह दिखाना चाहिये कि जब अग्नि का उस अदृश्य पदार्थ पर कोई प्रभाव नहीं है, तो अग्निसंनिधान के पहले या बाद में भी धूम को वह क्यों उत्पन्न नहीं कर देता ? अन्य काल में उत्पन्न नहीं करता है इससे अग्निजन्य जो धूमस्वभाव अर्थात् धूमस्वभावजनक जो अग्नि उसकी अपेक्षा से ही धूमोत्पादन करने पर तो परम्परा से भी आखिर यही फलित हुआ कि अग्नि धम को उत्पन्न करता है। [धृम में अग्निजन्यत्व का समर्थन ] यह भी सोचिये कि जब देश-कालदि के विना धूम की उत्पत्ति न होने से देशकाल की अपेक्षा प्रतीत होती है यानी मान्य है, तो फिर अग्नि के विना धूम की उत्पत्ति न होने का देखा जाता है तो अग्नि की भी धूमोत्पत्ति में अपेक्षा का निवारण कौन कर सकेगा? जैसे अदृश्य भाव के होने पर ही धूम का सद्भाव होने से आपको धूम में अदृश्यभावजन्यत्व इष्ट है तो सदैव अग्नि होने पर ही धूम के सद्भाव को देखने से धूम को अग्निजन्य भी क्यों नहीं मानते ? तथा कभी कभी अग्नि होने पर भी धूम नहीं होत है तो इतने मात्र से धम को अग्निव्यभिचारी नहीं कहा जाता क्योंकि केवल अकेला अग्नि धूम का हेतु नहीं है किन्तु आई इन्धन आदि जितने कारण के होने पर धमोत्पत्ति होती है वे सब धम के हेतु हैं / तात्पर्य अग्निविशिष्ट सामग्री धूम का हेतु होने से अकेला अग्नि म उत्पन्न न करे तो कोई दोष नहीं है / जैसे धूम और अग्नि में प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ से हमने कार्यकारणभाव सिद्ध किया उसी प्रकार असर्वज्ञत्व और वक्तृत्व के बीच कारण कार्य-भाव सिद्धि की आशा नहीं की जा सकती क्योंकि वचन में असर्वज्ञत्वरूप कारण के जो कार्य दृष्ट है उनके धर्मोका अनुविधान नहीं दिखाई देता। .. [ असर्वज्ञता का वक्तृत्व के साथ संबंध असिद्ध ] असर्वज्ञत्व और वक्तृत्व के बीच कारणकार्यभाव सिद्धि शक्य नहीं है, वह इस प्रकार-असर्वज्ञत्व शब्द में जो नत्र प्रयोग है वह पर्युदास अतिषेधवाचक मान कर असर्वज्ञत्व का किंचिज्ज्ञता यानी अल्पज्ञता अर्थ किया जाय तो अल्पज्ञता के धर्म का अनुविधान वचन में न दिखाई देने से वचन को अल्पज्ञताजन्य नहीं कहा जा सकता / यदि यहाँ अनुविधान होता तब तो अल्पज्ञता में जैसे तरतमभाव Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ज्ञानातिशयवत्सु च सकलशास्त्रव्याख्यातृषु वचनस्यातिशयभावो दृश्यते इति ज्ञानप्रकर्षतरतमा (मता)धनुविधानदर्शनात्तत्कार्यता तस्य धूमस्येवाग्न्यादिसामग्रीगतसुरभिगन्धाद्यनुविधायिनो यथोक्तप्रत्यक्षाऽनुपलम्माभ्यां व्यवस्थाप्यते / अत एव कारणगतधर्मानुविधानमेव कार्यस्य तत्कार्यतावगमनिमित्तं, न पुनरन्वयव्यतिरेकानुविधानमात्रम् / तदुक्तम्-कार्य धूमो हुतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितः॥ [प्र० वा० 3.34 ] यच्च यत्कार्यत्वेन निश्चितं तत् तदभावे न कदाचिदपि भवति, अन्यथा तद्धेतुकमेव तन्न स्यादिति सकृदपि ततो न भवेत् / भवति च यद् यत्र निश्चिताऽविसंवादं वचनं तत् तदविसंवादिज्ञानविशेषाद् इत्यात्मन्येवासकृनिश्चितमिति नान्यतस्तस्य भावः / तेन (सिद्धमिदम्) / यद् यस्यैव गुण-दोषान् नियमेनानुवर्तते / तन्नान्तरीयकं तत् स्यादतो ज्ञानोद्भवं वचः // [ ] ___ अथ यदि नामाविसंवादिज्ञानधर्मानुकरणतोऽविसंवादि बचनमेकं तत्प्रभवं यथोक्तप्रत्यक्षानुपलम्भतोऽवगतं तदन्यतो न भवति, तथाप्यन्यवचनस्य तद्धर्मानुकरणतो न तत्कार्यत्वसिद्धिरिति तस्याऽन्यतोऽपि भावसंभवात् कुतो व्यभिचारः ? न, ईदग्भूतं वचनमीक्षज्ञानतः सर्वत्र भवतीति सकृत्प्रवृत्तप्रत्यक्षतोऽवगमात्। यानी उत्कर्षापकर्ष दिखाई देता है उसी तरह वचन में भी उत्कर्षापकर्ष उपलब्ध होता-किन्तु वह उपलब्व नहीं होता है, यह इस प्रकार-अत्यंत अल्पविज्ञानवाले कृमि-कीटादि में अल्पज्ञता का प्रकर्ष उपलब्ध है किन्तु वे बिचारे एक हरफ भी नहीं निकाल सकते, अर्थात् वचन प्रवृत्ति का उत्कर्ष उनमें सदैव अनुपलब्ध है / मनुष्यादि में उससे विपर्यय भी है। यदि असर्वज्ञत्व में नत्र प्रयोग को प्रसज्यप्रतिषेधवाचक माना जाय तो असर्वज्ञत्व का अर्थ हुआ सर्वज्ञत्वाभाव, वचन को यदि उसका कार्य माना जाय तो मुर्दे में सर्वज्ञत्व का अभाव होने से वचनोपलम्भ होना चाहिये, किन्तु अफसोस ! कभी भी उसमें वचनोपलम्भ नहीं होता। [वचन की संवादिता ज्ञान विशेष का कार्य है ]. ___ असर्वज्ञत्व यह वचन का हेतु नहीं है यह तो निःसंदेह है, उपराँत, तथ्य तो उससे विपरीत यह है कि जो अतिशयित ज्ञानी पुरुष हैं वे सकल शास्त्र के व्याख्यान में निपूण देखे जाते हैं और उनका वचन भी सातिशय दिखाई देता है, इस प्रकार ज्ञानप्रकर्ष के तरतमभाव के साथ वचन का तरतमभाव दृश्यमान होने से वचन में ज्ञानकार्यता निष्कंटक सिद्ध होती है। यह ठीक उसी प्रकार जैसे कि अग्नि उत्पादक सामग्री में अगर काष्ठादि सुगन्धयुक्त होता है तो उससे उत्पन्न धूम में भी सौरभ का अनुविधान दिखाई देता है-इस प्रकार के प्रत्यक्ष और अनपलम्भ से धम को सगन्धिकाष्ठ जन्य सिद्ध कि जाता है। इतनी चर्चा से यह सिद्ध होता है कि कारणगत धर्म का अनुविधान ही कार्य में 'यह अमुके कारण से जन्य है' इस प्रकार के बोध का निमित्त है, यह नहीं कि केवल कारणरूप से अभिमत भाव का अन्वय व्यतिरेक का ही अनुविधान / जैसे कि प्रमाणवात्तिक में कहा है-धूम अग्नि का कार्य है क्योंकि धूम कार्य में (कारण अग्नि के) धर्मों का अनुविधान है / [संवादिज्ञान के विरह में संवादिवचन का असंभव ] यह तो निश्चित है कि जो जिसके कार्यरूप में सिद्ध है वह कभी भी उसके अभाव में नहीं उत्पन्न होता / यदि वह उसके विना उत्पन्न हो जाय तो वह तज्जन्य ही नहीं होगा, और तब कभी भी Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 239 - ननु सकलव्यक्त्यनुगततिर्यक्सामान्यानभ्युपगमे यावन्ति तथाभूतवचांसि तानि सर्वाणि प्रत्यक्षीकरणीयानि तथाभूतज्ञानकार्यतया, अन्यथैकस्यापि वचसस्तव्याप्ततयाऽप्रत्यक्षीकरणे तेनैव व्यभिचारी हेतुः स्यात् , न चैतावत्प्रत्यक्षीकरणसमर्थ प्रत्यक्षम् , तस्य संनिहितविषयत्वात् , न चान्येषां स्वलक्षणानामनुमानात् साध्यधर्मेण व्याप्तिग्रहरणम् , अनवस्थाप्रसंगात् / तदयुक्तम् , यतः प्रत्यक्षं तथाभूतीनसंनिधान एव तथाभूतवचनभेदात् (दान)प्रतिपद्य एषु 'प्रतथाभूतवचनव्यावृत्तं रूपमतथाभूतज्ञानव्यावृत्तज्ञानजन्यम्' इत्यवधारयति, अन्यथाऽत्रापि तथाभूतज्ञानजन्यतया न प्रत्यक्षेणावधार्येत / एवं हि तथाभूताऽतथाभूतज्ञानजन्यतया तथाभूतवचनस्य प्रतीतिः स्यात् न तथाभूतज्ञानजन्यतयैव, प्रतीयते च तथाभूतज्ञानजन्यतया तथाभूतं वचनम् / तस्मादन्यत्रान्यदा च तथाभूतज्ञानादेव तथाभूतवचनमिति कुतो व्यभिचारः ? यश्च तद्रूपमन्यतोऽवधारयितु शक्नोति तस्यैव तदनुमानम् , यथा बाष्पादिविलक्षणधूमावधारणेऽग्न्यनुमानम्। उससे उत्पन्न नहीं हो सकेगा / यहाँ प्रस्तुत में, जहाँ जो वचन अविसंवादिरूप में निश्चित होता है वह अवश्य अविसंवादीज्ञान विशेष से ही उत्पन्न होता है यह तो अपने ही आत्मा में बार बार अनुभव से निश्चित किया है / अत: अन्य किसी असर्वज्ञतादि से उसका संभव ही नहीं है / जैसे कि कहा है-"जो भाव जिस कारण के गुणदोष का अवश्यमेव अनुवर्तन करता है वह उसका अविनाभावी होता है-इस नियम से वचन भी ज्ञानजन्य है।" .. यदि यह व्यभिचार शंका की जाय कि-"किसी एक अविसंवदिवचन में अविसंवादी ज्ञानधर्म का अनुकरण देखने पर आपके द्वारा प्रदर्शित प्रत्यक्षानुपलम्भप्रमाण से उस एक वचन में ज्ञानजन्यता सिद्ध होने से वह वचन अन्य किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है यह मान लेते हैं किन्तु जिस वचन में प्रत्यक्षानुपलम्भप्रवृत्ति नहीं हुयी है उस वचन में भी कारणधर्मानुवृत्ति द्वारा अविसंवादिज्ञानजन्यत्व की सिद्धि कैसे मानी जाय ? उस वचन को तो अन्य प्रकार से भी उत्पन्न होने की संभावना की जा सकती है, तो फिर ज्ञान और वचन के कारण कार्यभाव में अव्यभिचार कैसे सिद्ध करोगे?"- इस शंका का उत्तर यह है कि-एक बार जिस प्रत्यक्ष (अनुपलम्भ) की प्रवृत्ति होती है उससे केवल इतना ही नहीं जाना जाता कि यह अंसंवादि वचन इस अविसंवादिज्ञान से जय है, किंतु यह जाना जाता है कि जहाँ कहीं भी जो कोई ऐसा अविसंवादी वचन होता है वह सब इस प्रकार के अविसंवादीज्ञान से ही होता है / [ अनुगत एक सामान्य के अस्वीकार में आपत्तिशंका-समाधान ] यदि यह शंका की जाय कि-"आपने जो कहा है, अविसंवादिवचनमात्र अविसंवादीज्ञानजन्य है-यह तो समस्त व्यक्तिओं में अनुगत एक सामान्य का स्वीकार किये विना शक्य नहीं है / और अनुगत सामान्य* को आप के जैन मत में तो माना नहीं जाता अतः आपको जितने भी अविसंवादिवचन हैं उन सभी का अविसंवादिज्ञान के कार्यरूप में प्रत्यक्ष करना होगा, यदि यह नहीं किया जायेगा तो - जिस अविसंवादि वचन का अविसंवादिज्ञानव्याप्यरूप में प्रत्यक्ष न होगा वही अविसंवादिवचन व्यभिचार स्थल बन जायेगा जहाँ अविसंवादिज्ञान जन्यता प्रत्यक्ष न की जायेगी। अब यह देखिये कि सकल *जैन मत में एक अनुगत सामान्य नहीं माना जाता किंतु सदृश परिणामरूप अनुगत सामान्य माना जाता है-यह अगले परिच्छेद में ही स्पष्ट हो जायेगा। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 किंच, तिर्यक्सामान्यवादिनोऽपि गोपालघुटिकादौ धूमसामान्यस्याग्निमन्तरेणापि दर्शनाद् व्यभिचाराशंकयाऽग्निनियतधूमसामान्यावधारणेनैव तदनुमानम् / अग्निनियतधूमसामान्यावधारणं चाग्निसंबद्धधूमव्यक्त्यवधारणपुरस्सरमेव / न च सर्वदेशादावग्निसंबद्धधमव्यक्तिविशिष्टस्य धूमसामान्यस्य केनचित् प्रमाणेनावधारणं संभवति / न च महानसादावग्निनियतधूमव्यक्तिविशिष्टं धूमसामान्यं प्रतिपन्नमन्यत्रानुयायि, व्यक्तेरनन्वयात् / यच्च धूमसामान्यमनुयायि तद् नाग्न्यव्यभिचारि, तस्मात् सामान्यव्याप्तिग्रहणवादिनामपि कथं विशिष्टधमसामान्यं सर्वत्राग्निना व्याप्त प्रतिपन्नमिति तुल्यं चोद्यम् / अथ विशिष्टधूमस्यान्यत्राग्निजन्यत्वे न किंचिद् बाधकमस्ति, 'तदेवेदम्' इति च प्रतीतेः तत्सामान्य प्रतीतमिष्यते, अस्माकमपि तदेवेदं वचनम्' इतिप्रत्ययस्योत्पत्तेस्तत् प्रतिपन्नमिति सदृशपरिणामलक्षणसामान्यवादिनो जैनस्य भवतो वा को विशेषोऽत्र वस्तुनि ? इति यत्किंचिदेतद् / तेनाऽग्निगमकत्वेन धूमस्य यो न्यायः सोऽत्रापि समान इति विशिष्टज्ञानगमकत्वं विशिष्टशब्दस्याभ्युपगंतव्यम् / अविसंवादीवचन में अविसंवादिज्ञानजन्यता को साक्षात् करने में प्रत्यक्ष समर्थ है क्या? नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष तो केवल संनिहितपदार्थग्राही होता है। यह शक्य नहीं है कि असंनिहित अविसंवादिवचन व्यक्तिरूप स्वलक्षणों में अविसंवादिज्ञानजन्यतारूप साध्यधर्म की व्याप्ति का ज्ञान अनमान से किया क्योंकि तब उस अनुमान में भी पूनः सकलव्यक्तिसाक्षात्कार की पूर्ववत् अपेक्षा खडी होगी और वहाँ भी नया अनुमान खिच लायेंगे तो इस प्रकार नये नये अनुमानों की अपेक्षा का अन्त न आने से अनवस्था दोष लगेगा।"-यह शंका भी युक्त नहीं है, क्योंकि जब अविसंवादिज्ञानवान् पुरुष की संनिधि में ही अविसंवादिवचनप्रकारों की उपलब्धि होगी तब उन अविसंवादि वचनों में "विसंवादिवचन का वैलक्षण्यरूप धर्म विसंवादिज्ञानविलक्षणज्ञानजन्य है" इस प्रकार का अवधारण भी प्रत्यक्ष से ही हो जायेगा / उसके ऊपर ऊहापोह से यह भी पता लग सकता है कि अन्य काल और अन्य देश में भी जो कोई अविसंवादी वचन होगा वह अविसंवादीज्ञानजन्य ही होना चाहिये। यदि अविसंवादिज्ञान के विरह में भी अविसंवादि वचन का संभव हो तो यहाँ जो अविसंवादिवचन अविसंवादिज्ञानजन्य होने का प्रत्यक्ष से दिखाई रहा है वह नहीं दिखाई देता। तात्पर्य यह है कि यदि अविसंवादिवचन अविसंवादिज्ञानजन्य होने की संभावना होती तब अविसंवादिवचन में उभय प्रकार की यानी अविसंवादीज्ञानजन्यता और विसंवादीज्ञानजन्यता की प्रतीति अवश्य होती, केवल अविसंवादीज्ञानजन्यतारूप में ही जो उसकी प्रतीति होती है वह नहीं होती। प्रतीति तो ऐसी ही होती है कि अविसंवादिवचन अविसंवादिज्ञानजन्य है, अत: अन्य देश-काल में भी अविसंवादीवचन अविसंवादीज्ञानजन्य ही यह सुनिश्वित होता है फिर व्यभिचार की बात कहाँ ? हाँ, यह बात ठीक है कि प्रत्यक्ष प्रतीति में "यह विसंवादिज्ञानविलक्षणता अवश्य अविसंवादिज्ञानजन्य है' इस प्रकार का अवधारण करने की शक्ति जिसमें होगी उसीको अन्य देश-कालवर्ती अविसंवादीवचन में अविसंवादिज्ञानजन्यता का अनुमान हो सकेगा, दूसरे को नहीं / उदा० बाष्पादि से विलक्षणरूप में जिसको धूम का अवधारण -दर्शन होता है उसको अग्नि का अनुमान होता है दूसरे को नहीं। [तिर्यक् सामान्यवादी को विशिष्टधूमसामान्य अबोध की आपत्ति ] तिर्यक् सामान्यवादि को यह भी सोचना होगा कि यदि धूम सामान्य से आप अग्नि का अनुमान होना मानेंगे तो गोपालघुटिका ( हुक्का ) में विना अग्नि भी धूमसामान्य का सद्भाव दिखाई देने से व्यभिचार की शंका हो जायगी और उसके निवारणार्थ आप को धूमसामान्य में Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १.सर्वज्ञसिद्धिः 241 अथ ज्ञानविशेषग्रहणे प्रवृत्तं सविकल्पकं निर्विकल्पकं ततो भिन्नमभिन्नं वा ज्ञानं न वचनविशेष प्रवर्तते, तस्य तदानीमनुत्पन्नत्वेनाऽसत्त्वात् / तदप्रवृत्तेन च ज्ञानविशेषस्वरूपमेव तेन गृह्यते न तदपेक्षया तस्य कारणत्वम् / वचनविशेषग्राहकेणाऽपि तत्स्वरूपमेव गृह्यते न पूर्व प्रति कार्यत्वम्, कारणस्यातीतत्वेताऽग्रहणात् / नाप्युभयग्राहिणा, भिन्नकालत्वेन तयोरेकज्ञाने प्रतिभासनाऽयोगात् / अत एव स्मरणमपि न तयोः कार्यकारणभावावेदकम् , अनुभवानुसारेण तस्य प्रवृत्त्युपपत्तेः, अनुभवस्य चात्र वस्तुनि निषिद्धत्वात् / असदेतत्संकोच करके केवल अग्निसंबद्धधमसामान्य के अवधारण से ही अग्नि का अनुमान मानना होगा। अब यह देखिये कि अग्निसंबद्ध धूम सामान्य का अवधारण कैसे होगा? जब अग्निसंबद्धधूमव्यक्तिओं का अवधारण किया जाय तभी होगा। किंतु यह संभव ही नहीं है कि सर्वदेश-कालवर्ती अग्निसंबद्ध धम व्यक्तिओं से विशेषित धम सामान्य का किसी प्रमाण से अवधारण कर लिया जाय / परिस्थिति यह होगी कि महानसादिदेशवर्ती अग्निनियतधूमव्यक्तिविशिष्ट धूम सामान्य अवगत होने पर भी वह तो अन्यत्र अनूगत नहीं है क्योंकि व्यक्ति का अन्यत्र अन्वय असंभव है। दूसरी ओर जिस धूमसामान्य का अन्यत्र यानी सर्वत्र अनुगम है वह तो (गोपालघूटिका स्थल में) पूर्वोक्तरीति से अग्नि का अव्यभिचारी नहीं है / तब अनुगत एक सामान्य के आधार पर व्याप्ति ग्रहण दिखाने वाले गों को यह प्रश्न समान रूप से कर सकते हैं कि विशिष्ट प्रकार के धमसामान्य की (जिसका अग्नि के साथ व्यभिचार न हो) सर्वदेशकालवर्ती अग्नि के साथ व्याप्ति का ग्रहण आप कैसे करेंगे ? यदि यह कहा जाय कि-"जो जो विशिष्ट (गोपालघुटिका से व्यावृत्त) धूम होगा वह अन्य देशकाल में भी अग्नि जन्य ही होगा इस अभ्युपगम में कोई बाधक नहीं है, और विशिष्टधूमसामान्य का अवगम तो 'तदेवेदम्- वही यह है' इस प्रतीति में होता ही है"-तो ऐसा हम वचन विशेष के संबंध में भी कह सकते हैं कि जो विशिष्ट वचनसामान्य है उसका अवगम 'तदेवेदं वचनम्' इस प्रतीति में होता ही है। हाँ, हम सदृश परिणामरूप सामान्य को उक्त प्रतीति का विषय मानते हैं आप f प तिर्यक सामान्य को, दूसरी कौन सी आपके और हमारे मत में विशेषता है ? कोई नहीं / अत: अनुगत एक सामान्य को न मानने पर आप जो आपत्ति देना चाहते हैं उसका तनिक भी मूल्य नहीं है / निष्कर्षःधूम जिस न्याय=युक्ति से अग्नि का बोधक होता है, वह न्याय हमारे मत का भी पक्षपाती ही है, अर्थात् उसी न्याय से विशिष्ट शब्द विशिष्ट ज्ञान का सूचक अनुमापक है यह अवश्य मानना चाहिये / [ज्ञानविशेष और वचनविशेष के कारण कार्यभावग्रहण में शंका ] ज्ञान विशेष और वचनविशेष के कार्यकारणभाव बोध में यदि इस प्रकार असंभव की शंका . की जाय कि-"जो ज्ञान, चाहे वह सविकल्प हो या निर्विकल्प और ग्राह्य ज्ञान से भिन्न हो या अभिन्न ऐसा जो ज्ञान ज्ञान विशेष को ग्रहण करने में तत्पर है वह वचन विशेष को स्पर्श नहीं करता, क्योंकि उस वक्त वह वचन विशेष अनुत्पन्न है / अतः वचन विशेष में अप्रवृत्त उस ज्ञान से केवल ज्ञानविशेष का स्वरूप ही आवेदित होता है किन्तु तद्गत कारणता यानी वचन विशेष (की अपेक्षा यानी उस) के प्रति उसकी कारणता उससे आवेदित नहीं होती। वचन विशेष का ग्राहक जो ज्ञान है उससे भी उस वचन का स्वरूप ही आवेदित होता है, न कि ज्ञान विशेष की कार्यता। क्योंकि कारणभूत ज्ञानविशेष उस वक्त अस्त हो गया होता है। अतः उसकी कारणता का ग्रह संभव नहीं है। अगर कहें कि Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यतः कार्यस्य न तावदसावनुत्पन्नस्यैव कार्यत्वं धर्मः, असत्त्वात् तदानीम् / नाप्युत्पन्नस्यात्यन्तभिन्नं तत् , तद्धर्मत्वादेव / तथा, कारणस्यापि कारणत्वं कार्यनिष्पत्त्यनिष्पत्त्यवस्थायां न भिन्नमेव / नापि तयोः कार्यकारणभावः संबन्धोऽन्योऽस्ति, भिन्नकालत्वादेव, संबन्धस्य च द्विष्ठत्वाभ्युपगमात् / ततस्तत्स्वरूपग्राहिणा प्रत्यक्षेण तदभिन्नस्वभावधर्मरूपं कारणत्वं कार्यत्वं च गृह्यते एव क्षयोपशमवशात् / यत्र तु स नास्ति तत्र कार्यदर्शनादपि न तन्निश्चीयते। यतो नाऽकार्य-कारणयोः कार्यकारणभावः संभवति / नाऽपि तेनाभिन्ना उत्तरकालं तयोः कार्यकारणता कत शक्या, विरोधात / नाऽपि भिन्ना, तयोः स्वरूपेणाऽकार्यकारणताप्रसंगात / नाऽपि स्वरूपेण कार्यकारणयोरर्थान्तरभूतकार्यकारणभावस्वरूपसंबन्धपरिकल्पनेन प्रयोजनम् , तद्व्यतिरेकेणापि स्वरूपेरणव कार्यकारणरूपत्वात्। उभयग्राहक ज्ञान से कार्य-कारणता का अवगम होगा तो यह भी संभव नहीं है क्योंकि उन दोनों का काल भिन्न भिन्न है अत. एक ज्ञान में उन दोनों का प्रतिभास अघटित है। यही कारण है कि स्मरण से भी उन दोनों के कारण-कार्यभाव का आवेदन नहीं हो सकता / क्योंकि स्मरण तो अनुभवमूलक ही प्रवृत्त होता है, यहाँ प्रस्तुत वस्तु में तो अनुभव की शक्यता निषिद्ध हो चुकी है। तात्पर्य किसी भी रीति से उन दोनों के कार्यकरणभाव का अवगम शक्य नहीं है।"-व्याख्याकार इस शंका को गलत बता रहे हैं। कारण निम्नोक्त है [क्षयोपशमविशेष से कारण-कार्यभावग्रहण ] __ उपरोक्त शंका गलत होने का कारण इस प्रकार है कि- कार्यत्व यह अनुत्पन्न कार्य का धर्म तो नहीं हो सकता, क्योंकि उस स्थिति में कार्य ही असत् होता है / तथा, उत्पन्न कार्य से कार्यत्व एकान्त भिन्न भी नहीं है क्योंकि वह उसका धर्म है, सर्वथा भिन्न पदार्थ (जैसे आकाश) किसी का धर्म नहीं होता है / तथा कारणत्व भी कारण से जब कार्य उत्पन्न हआ है या नहीं भी हुआ है-उस अवस्था में कारण से सर्वथा भिन्न नहीं होता क्योंकि वह कारण का धर्म है। कार्यत्व और कारणत्व इन दोनों से अतिरिक्त कोई कार्यकारणभावनामक संबध भी कार्यकारण का नहीं है। क्योंकि कारण और कार्य का काल भिन्न भिन्न होता है जब कि संबद्ध दो में रहने वाला होने से दोनों के समान काल की अपेक्षा करेगा। जब कारणत्वादि उक्त रीति से अपने आश्रय से अभिन्न है, तो कारण और कार्य के स्वरूपग्राहक प्रत्यक्ष से कारण (या कार्य) से अभिन्नस्वभाव वाले धर्मभूत कारणत्व और कार्यत्व का भी ग्रहण क्षयोपशमविशेष से गृहीत होता ही है / क्षयोपशम उसे कहते हैं जहाँ उदयागत च्छन्न ज्ञानावरण कर्म क्षीण हो जाता है और अनूदित कर्म उपशान्त-सुषुप्त हो जाता है और तब जो ज्ञानशक्ति का आविर्भाव होता है उसे क्षयोपशम कहा जाता है / ऐसा ज्ञानशक्तिविशेषरूप क्षयोपशम जहाँ नहीं होता वहां कार्य को देखने पर भी कार्यता का निर्णय नहीं हो पाता। [ कार्यकारणभाव दोनों से अतिरिक्त नहीं है ] व्याख्याकार कार्यकारणभाव को अतिरिक्त संबधरूप में नहीं मानने का हेतु दिखाते हैं कि जो अकार्यरूप और अकारणरूप होता है उनके बीच तो कार्यकारणभाव संबंध का संभव ही नहीं है / अत एव जो पूर्वकाल में अकार्यरूप और अकारणरूप है उनकी उत्तरकाल में कार्यकारणता की संभावना करनी होगी, किन्तु उस सम्बन्ध से कार्याभिन्न या कारणाभिन्न कार्य-कारणता को करना Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 243 न च भिन्नपदार्थनाहि प्रत्यक्षद्वयं द्वितीयाऽग्रहणे तदपेक्ष कार्यत्वं कारणत्वं वा ग्रहीतुमशक्तमिति वक्तुयुक्तम् , क्षयोपशमवतां धूममात्रदर्शनेऽपि वह्निजन्यतावगमस्य भावात् , अन्यथा बाष्पादिवेलक्षण्येन तस्यानवधारणात् ततोऽनलावगमाभावेन सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसंगात् / कारणाभिमतपदार्थग्रहणपरिणामाऽपरित्यागवता कार्यस्वरूपग्राहिणा च प्रत्यक्षेण कार्य कारणभावावगमे न कश्चिद् दोषः / न च कारणस्वभावावभासं प्रत्यक्षं न कार्यस्वभावावभासयक्तं प्रतिभासभेदेन भेदोपपत्तेरिति प्रेरणीयम्नित्रप्रतिभासिज्ञानस्य नीलप्रतिभासाऽपरित्यागप्रवृत्तपीतादिप्रतिभास्येकत्ववत प्रकृतज्ञानस्यापि तदविरोधात् / न च चित्रज्ञानस्याप्येकत्वमसिद्धमिति वक्तु युक्तम् , तथाभ्युपगमे नीलप्रतिभासस्यापि प्रतिपरमाणुभिन्नप्रतिभासत्वेन भिन्नत्वात् एकपरमाण्ववभासस्य चाऽसंवेदनात् प्रतिभासमात्रस्याप्यभावप्रसंगात् सर्वव्यवहाराभावः स्यात् / शक्य नहीं है, क्योंकि स्वरूपतः जो अकार्य और अकारणरूप है उसमें, अभिन्नरूप से कार्य-कारणता का आपादन विरुद्ध है। भिन्नरूप से भी कार्य-कारणता का आपादन सम्बन्ध के द्वारा अशक्य है क्योंकि तब कार्य-कारण को स्वरूप से अकार्य और अकारणरूप मानने की आपत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि जो स्वरूपतः कार्य और कारणरूप ही है उनके बीच अर्थान्तरभूत कार्यकारणभावनामक संबन्ध ल्पना का कोई प्रयोजन भी नहीं है, क्योंकि उसके विना भी वे अपने स्वरूप से ही कार्यरूप और कारणरूप है / अत: अतिरिक्त कार्यकारणभाव संबन्ध अप्रामाणिक है। [क्षयोपशमविशेष से कार्यकारणभाव का ग्रहण ] यदि ऐसा आक्षेप किया जाय कि-कार्यग्राहक और कारणग्राहक प्रत्यक्ष भिन्न भिन्न है, जब कारण ग्राहक प्रत्यक्ष से कार्य का और कार्यग्राहक प्रत्यक्ष से कारण का ग्रहण ही नहीं होता तो कारणसापेक्ष कार्यत्व का और कार्यसापेक्ष कारणत्व का किसी एक या उभय प्रत्यक्ष से भी ग्रहण होना शक्य नहीं है ।-तो यह आक्षेप अज्ञान मूलक है क्योंकि जिसका तीव्र क्षयोपशम होता है उसको केवल धूम दर्शन से भी अग्निजन्यता का बोध हो जाता है, जिसको वह क्षयोपशम नहीं रहता उसको नहीं होता है क्षयोपशम के रहने पर धूम दर्शन से यदि अग्निजन्यता के बोध का अपलाप किया जायेगा तो फिर धूम का दर्शन होने पर भी बाष्पादि से भिन्नरूप में सदैव धुम का दृढ निश्चय न होने के कारण अनि का बोध भी नहीं होगा और तब अग्नि के अर्थी का जो प्रवृत्ति आदि व्यवहार होता है उन सब का उच्छेद हो जायेगा। यह भी हम कह सकते है कि यदि एक ही प्रत्यक्ष कारणरूप से अभिमत पदार्थ के ग्रहणपरिणाम का त्याग न करता हआ कार्यस्वरूप को भी ग्रहण कर लेता है और तब उससे दोनों का कार्यकारणभाव अवधारित कर लिया जाता है-तो इसमें भी कोई दोष नहीं है। इस पर यह मत कहना कि-जो प्रत्यक्ष कारणस्वभावावभासक है वह कार्यस्वभाव का अवभासक नहीं हो सकता क्योंकि दोनों वस्तु का प्रतिभास यानी अवभास भिन्न भिन्न होने से कार्यावभासी और कारणावभासी प्रत्यक्ष भी भिन्न ही होना चाहिये / इस कथन के निषेध का कारण यह है कि जैसे एक ही चित्ररूपप्रतिभासि ज्ञान नील प्रतिभास का परित्याग न करता हुआ पीतरू पप्रतिभासी भी होता है उसी प्रकार कारण और कार्य उभय प्रतिभासी प्रस्तुत ज्ञान भी एक हो सकता है / इसमें कोई विरोध संभव नहीं है / यह कहना कि-'चित्रज्ञान में भी एकत्व असिद्ध ही है'-उचित नहीं है, कारण इस ज्ञान में यदि आप एकत्व का अपलाप करेंगे तो नील प्रतिभास भी स्थूल वस्तु विषयक होने के कारण, उस स्थूल वस्तु अन्तर्गत प्रत्येक परमाणु के भिन्न भिन्न प्रतिभास से वह नील प्रतिभास भी आपको Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 __ अतः प्रत्यक्षमेव यथोक्तप्रकारेण सर्वोपसंहारेण प्रतिबन्धग्राहकमनुमानवादिनाऽभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथा प्रसिद्धानुमानस्याप्यभावः स्यात् / अथेयतो व्यापारान् प्रत्यक्षं कर्तुमसमर्थ तस्य संनिहितविषयबलोत्पत्त्या तन्मात्रग्राहकत्वात् / तहि प्रत्यक्षेण प्रतिबन्धग्रहणाभावेऽनुमानेन तद्ग्रहणेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोषसद्भावादनुमानाऽप्रवृत्तिप्रसंगतो व्यवहारोच्छेदभयादवश्यमनुमानप्रवृत्तिनिबन्ध नाविनाभावनिश्चायकमपरमस्पष्टसर्वपदार्थविषयमहाख्यं प्रमाणान्तरमभ्युपगन्तव्यम, अन्यथा 'सर्वमुभयात्म नकं वस्तु इति कुतोऽनुमानप्रवृत्तिर्मीमांसकस्य ? ततोऽसर्वज्ञत्व-रागादिमत्त्वसाधने वक्तृत्वलक्षणस्य हेतोः प्रतिबन्धस्य तत्साधकप्रमाणस्य च प्रसिद्धानुमाने इवाभावान्न प्रसंगसाधनानुमानप्रवृत्तितः सर्वज्ञाभावसिद्धिः। विपर्ययेण वचनविशेषस्य व्याप्तत्वदर्शनाद् विपर्ययसिद्धिरेव ततो युक्ता। ___ यच्च 'सर्वज्ञज्ञानं किं चक्षुरादिजनितम्'...इत्यादि पक्षचतुष्टयमुत्थाप्य 'चक्षुरादिजन्यत्वेन चक्षुरादीनां प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेन धर्मादिग्राहकत्वाऽयोगः तज्ज्ञानस्य' दूषणमभ्यधायि, तदप्यभिन्न भिन्न अनेक प्रतिभास समुदायरूप ही मानना होगा, किन्तु यह भी आप नहीं मान सकेंगे क्योंकि एक परमाणु के प्रतिभास का संवेदन होता नहीं है / फलतः प्रतिभासमात्र शून्य हो जाने से प्रतिभासमूलक समस्त व्यवहारों का भी अभाव हो जायेगा। [प्रत्यक्ष ही व्याप्तिसंबध का प्रकाशक है ] उपरोक्त चर्चा का सार यह है कि उपरोक्त रीति से प्रत्यक्ष ही सर्व कारण व्यक्ति और सर्वकार्य व्यक्ति को अन्तर्भाव करके उन के बीच व्याप्ति संबंध को ग्रहण करता है और यह के अनुमानवादी को स्वीकारना पडे ऐसा है / अन्यथा धूम हेतु से जो अग्नि का प्रसिद्ध अनुमान है उसका भी विच्छेद हो जायेगा। यदि यह आशंका की जाय कि-"प्रत्यक्ष तो निकटवर्ती विषय के संनिकर्षबल से उत्पन्न होता है अत: वह निकटवर्ती विषय का ही ग्राहक होता है / आपने जो कहा कि वह कारणता और कार्यता आदि को ग्रहण करेगा, किन्तु इतने व्यापार करने की उसमें गुंजाइश ही कहाँ है ?"-तो यह ठीक नहीं है। कारण, यदि प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण नहीं मानेंगे तो अनुमान से आखिर उसका ग्रहण मानना होगा, किन्तु उसमें तो व्याप्तिग्रह का आवश्यकता में नया नया अनुमान मानने पर अनवस्था होगी और प्रथम अनुमान से दूसरे अनुमान की व्याप्ति का ग्रहण मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष लगेगा, इस प्रकार अनुमान से भी व्याप्तिग्रह का अप्रसंग होने से सारा आनुमानिक व्यवहार विच्छिन्न हो जाने का भय खड़ा होगा। अतः, अनुमान की प्रवृत्ति के आधारभूत अविनाभाव का निश्चायक, अस्पष्ट रूप से सभी पदार्थ को विषय करने वाला ऊह तर्क नाम का एक अन्य प्रमाण अवश्य स्वीकारना ही पड़ेगा। यदि व्याप्तिग्राहक तर्क प्रमाण नहीं मानेगे तो सभी वस्तु भावाभाव उभयात्मक होती है' इस विषय में मीमांसक की अनुमान प्रवृत्ति व्याप्तिग्रह के विना कैसे होगी? क्योंकि सर्व वस्तु का प्रत्यक्ष तो असिद्ध है तो प्रत्यक्ष से तो व्याप्ति ग्रह का संभव ही नहीं है। उपरोक्त चर्चा का तात्पर्य यह है कि अग्नि के प्रसिद्ध अनुमान में व्याप्तिसंबन्ध और उसका ग्राहक प्रमाण दोनों विद्यमान है जब कि असर्वज्ञत्व अथवा रागादिमत्ता की सिद्धि के लिये वक्तृत्वरूप हेतु में न तो व्याप्ति संबन्ध है एवं न तो कोई उसका ग्राहक प्रमाण है / अत एव प्रसंग साधनरूप अनुमान प्रवृत्ति से मीमांसक सर्वज्ञाभाव की सिद्धि की आशा नहीं कर सकता। दूसरी ओर वचनविशेष और ज्ञानविशेष की व्याप्ति देखी जाती है-सिद्ध है, अतः मीमांसकमत के वैपरीत्य की यानी सर्वज्ञ सद्भाव की ही सिद्धि किया जाना समुचित है। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 245 संगतम् , धर्मादिग्राहकत्वाऽविरोधस्य चक्षुरादिज्ञाने प्राक् प्रतिपादितत्वात् / अभ्यासपक्षे तु यद् दूषणमभ्यधायि 'न सकलपदार्थविषयः उपदेशः सम्भवति, नाऽपि समस्तविषयोऽभ्यासः' इति, तदपि न सम्यक् , “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" [ तत्त्वार्थ० 5-26 ] इति सकलपदार्थविषयस्योपदेशस्य सामान्यतः सम्भवात् / न चाऽस्याऽप्रामाण्यम् , अनुमानादिप्रमाणसंवादतः प्रामाण्यसिद्धेः। अनुमानादिप्रवनिद्वारेण चैतदर्थाभ्यासे कथं न सकलविषयाभ्याससंभवः ? : यदपि “न च समस्तपदार्थविषयमनुपदेशज्ञानं संभवति" इत्युक्तम् , तदप्यचारु, 'सर्वमनेकान्तात्मकम् , सत्त्वात्' इत्यनुमाननिबन्धनव्याप्तिप्रसाधकप्रमाणस्य सकलपदार्थविषयस्य संभवात् , अन्यथाऽनुमानाभावस्य प्रतिपादितत्वात् / न च तज्ज्ञानवत एव सर्वज्ञत्वाद् व्यर्थोऽभ्यासः, सामान्यविषयत्वेनाऽस्पष्टरूपस्यैवास्य ज्ञानस्य भावात् , अभ्यासजस्य च सकलतद्गतविशेषविषयत्वेन स्पष्टत्वान्न तदभ्यासो विफलः। __ यदपि तदभ्यासप्रवर्तकं चक्षुरादिजनितं यद्यतीन्द्रियविषयम् इत्यवादि तदपि प्रतिक्षिप्तम् , अतीन्द्रियार्थग्राहकत्वस्यान्येन्द्रियविषयग्राहकत्वस्य च प्राक् प्रतिपादनात व्यवहारोच्छेदाभावस्य च दशि [ नेत्रजन्यत्वादि चार विकल्प का निराकरण ] मीमांसक की ओर से नास्तिकों ने जो ये चार विकल्प किये थे प. 209] 'सर्वज्ञज्ञान क्या चक्षुआदि इन्द्रियजन्य हैं ? इत्यादि'....और इन में जो यह दूषणाभिधान किया था कि-'नेत्रादि इन्द्रिय प्रतिनियत रूपादि विषय मर्यादित होने से नेत्रादिजन्य सर्वज्ञज्ञान में धर्मादिग्राहकता का अयोग यानी असंभव है' यह भी संगत नहीं है / कारण, पहले यह कहा जा चुका है कि नेत्रादि इन्द्रियजन्य ज्ञान में धर्मादिग्राहकता मानने में कोई विरोध नहीं है / तदुपरांत, उसके उपर द्वितीय विकल्प में 'सर्वज्ञज्ञान अभ्यासजन्य' इस पक्ष में जो दूषणाभिधान किया है कि-"सकलपदार्थविषयक उपदेश का संभव नहीं है और समस्त वस्तुविषयक अभ्यास भी असम्भव है"-यह दूषण मिथ्या है क्योंकि "सकल सत् पदार्थ उत्पत्तिस्थिति-विनाश धर्मत्रय संकलित होता है" इस प्रकार के सामान्यतया सर्वपदार्थवस्तुविषयक उपदेश संभवास्पद है। इस उपदेश को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस उपदेश का अनुमानादि अन्य प्रमाण के साथ पूरा संवाद होने से प्रामाण्य सिद्ध ही है। इस उपदिष्ट विषय का अनुमानादि प्रवर्तन द्वारा पुनः पुनः परिशीलन यानी अभ्यास तो किया ही जाता है-फिर सर्ववस्तुविषयक अभ्यास का असंभव भी कैसे हो सकता है ? [ सर्ववस्तुविषयक उपदेशज्ञान का संभव ] यह जो आपने कहा था-'उपदेश के विना सर्ववस्तुविषयक ज्ञान का संभव नहीं है'- यह भी अच्छा नहीं है / कारण, 'सभी पदार्थ अनेकान्तात्मक हैं क्योंकि सत् हैं' इस अनुमान में मूलभूत "जो सत् होते हैं वह सब अनेकान्तमय होते हैं" इस व्याप्ति का प्रसाधक जो तर्क प्रमाण होगा वही सकलपदार्थ को विषय करने वाला होने का सम्भव है, क्योंकि यदि उस तर्क प्रमाण को सर्ववस्तुविषयक नहीं मानेंगे तो अनुमान का ही अभाव प्रसक्त होगा यह तो कहा जा चुका है। यह शंका भी नहीं कि जा सकती कि-'यदि उक्त तर्क प्रमाणज्ञान सर्वार्थविषयक होगा तो वैसे ज्ञानवाला पुरुष सर्वज्ञरूप से सिद्ध हो जाने के कारण अभ्यास से सर्वज्ञ होने की बात व्यर्थ हो जायेगी'-यह शंका तभी की जा सकती यदि तर्क प्रमाण से स्पष्टरूप से पदार्थों का संवेदन होता / तर्क प्रमाणज्ञान तो सामान्यग्राही होने के Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तत्वात् / अतीन्द्रियेऽपि च कालादौ विशेषणभूते चक्षुरादेः प्रवृत्तिप्रतिपादनाच्च इतरेतराश्रयत्वदोषस्याप्यनवकाशः पूर्वपक्षप्रतिपादितस्य / शब्दज्ञानजनितज्ञानपक्षे तु इतरेतराश्रयदोषप्रसंगापादनमप्ययुक्तम् , कारणपक्षे तदसम्भवाद, अन्यसर्वज्ञप्रणीतागमप्रभवत्वेन ज्ञानस्य कथमितरेतराश्रयत्वम् ? तदागमप्रणेतुरप्यन्यसर्वज्ञप्रणीतागमपूर्वकत्वेऽनवस्था स्याव सा चेष्यत एव, अनादित्वादागम-सर्वज्ञपर. म्परायाः। यदप्यवादि 'शब्दजनितं ज्ञानमस्पष्टाभम , तज्ज्ञानवतः कथं सकलज्ञत्वम्' इति-तदप्यसंगतम् , नहि शब्दजनितेन ज्ञानेनाऽभ्यासानासादितवैशयेन सकलज्ञोऽभ्युपगम्यते येनायं दोषः स्यात् , कि त्वभ्यासासादितसकलविशेषसाक्षात्कारित्वलक्षणनैर्मल्यवता। अत एव 'प्रेरणाजनितं ज्ञानमस्मदादीनामप्यती. तानागतसूक्ष्मादिपदार्थविषयमस्तीति सर्वज्ञत्वं स्यात्' इति यदुक्तं तदपि निरस्तम् , अभ्यासजस्य स्पष्टविज्ञानस्य सकलपदार्थविषयस्यास्मदादीनामभावात् / “लिंगजनितत्वेऽपि तज्ज्ञानस्यातीन्द्रियधर्मादि पदार्थसम्बन्धानवगमाद् लिंगस्यानवगतसाध्यसम्बन्धस्य च तस्य धर्मादिसाध्यानुमापकत्वाऽसंभवात्" ......"इत्यादि यत् , तदप्यसंगतम् , अवगतधर्माद्यतीन्द्रियसाध्यसंबन्धस्य हेतोः प्रसिद्धत्वात् / तथाहिस्वविषयग्रहणक्षमस्य ज्ञानस्य तदग्राहकत्वं विशिष्टद्रव्यसम्बन्धपूर्वकं पीतहत्पूरपुरुषज्ञानस्येव, 'सर्वमनेकान्तात्मकम्' इति सकलसामान्यविषयस्य च ज्ञानस्य तद्गताशेषविशेषाग्राहकत्वं सुप्रसिद्धमिति भवति पौद्गलिकाऽतीन्द्रियधर्मादिसिद्धिरतो हेतोः। कारण अस्पष्ट संवेदनरूप ही होता है। जब कि अभ्यास जन्य जो सर्ववस्तुज्ञान होता है वह सर्ववस्तुअन्तर्गत सकल विशेष ग्राही होने से स्पष्ट संवेदन रूप होता है। सारांश, अभ्यास नि अब कोई आपत्ति नहीं है। [चक्षुजन्यज्ञान में अतीन्द्रियविषयता का समर्थन ] , यह जो आपने कहा था-अभ्यास का प्रवर्तक ज्ञान नेत्रादिजन्य होने पर भी अगर अतीन्द्रिय विषयग्राही होगा तो व्यवहारोच्छेद हो जायेगा....इत्यादि वह सब उपरोक्त प्रतिपादन से दूरोत्क्षिप्त हो जाता है क्योंकि पहले ही हमने यह बता दिया है कि इन्द्रिय से अतीन्द्रिय पदार्थ का ग्रहण हो सकता है एवं अन्येन्द्रिय ग्राह्य विषय का भी ग्रहण शक्य है। एवं व्यवहारोच्छेद होने की भी कोई आपत्ति नहीं है यह भी दिखाया है। प्रत्यभिज्ञादिप्रत्यक्ष में, अतोन्द्रिय कालादि पदार्थ को विशेषणरूप में ग्रहण करने में नेत्रादि को प्रवृत्ति का प्रतिपादन किया है अतः पूर्वपक्ष में जो इस पर अन्योन्याश्रय दोषारोपण किया गया था वह भी निरवकाश है। शब्दज्ञान से उत्पन्न अन्योन्याश्रयदोष का प्रसंगापादन किया है वह भी अयुक्त है, क्योंकि कारणभूत शब्द का प्रणेता वही सर्वज्ञ न हो कर अन्य है ऐसा मानने पर अन्योन्याश्रय दोष की संभावना ही नहीं है। तात्पर्य यह है कि आगम के परिशीलन से जो परिपूर्ण ज्ञान उत्पन्न होगा उसके कारणभूत आगम का प्रणेता कोई अन्य ही पूर्वकालवर्ती सर्वज्ञ है, नूतन उत्पन्न परिपूर्ण ज्ञान वाला सर्वज्ञ उसका प्रणेता नहीं है तो फिर अन्योन्याश्रय कैसे ? यदि यह कहा जाय कि-'पूर्वकालीन सर्वज्ञ का ज्ञान उससे भी पूर्वकालीन सर्वज्ञप्रणीत आगम से जन्य मानेंगे तो अनवस्था आयेगी-तो यह तो हमारी मनपसंद बात है, क्यं आगम और सर्वज्ञ की परम्परा अनादि काल से चली आती है। / अस्पष्टज्ञान से सर्वज्ञता नहीं मानी जाती] यह भी जो आपने कहा है [पृ. २११५.९]-शब्द से उत्पन्न ज्ञान स्पष्ट आभा वाला नहीं होता, =TI / यात्रा से मन जान वाले ततीय पक्ष में जो Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 247 यदप्युक्तम्-'अनुमानज्ञानेन सकलज्ञत्वाभ्युपगमेऽस्मदादीनामपि तत् स्यात् , भावनाबलात् तद्वैशद्ये तु कामादिविप्लुतविशदज्ञानवत इवाऽसर्वज्ञत्वम् , तज्ज्ञानस्य तद्वद् उपप्लुतत्वप्राप्तेः' इति, तदप्यचारु, यतो भावनाबलाज्ज्ञानं वैशद्यमनुभवतीत्येतावन्मात्रेण दृष्टान्तस्योपात्तत्वाद् / न सकलदृष्टान्तधर्माणां साध्यमिण्यासञ्जनं युक्तम् , तथाऽभ्युपगमे सकलानुमानोच्छेदप्रसक्तेः / न चानुमानगृहीतस्यार्थस्य भावनाबलाद् वैशा तत्प्रतिभासिन्यभ्यासजे ज्ञानेऽनुभवतो वैपरीत्यसंभवो येन तदवभासिनो ज्ञानस्य कामाद्युपप्लुतज्ञानस्येवोपप्लुतत्वं स्यात् / तो शब्दजन्यज्ञानवान् को सकलवस्तुज्ञाता कैसे माना जाय....इत्यादि,-वह असंगत है। कारण, अभ्यास द्वारा वैशद्य यानी विशिष्टनिर्मलता जिस में संपादित नहीं की गयी है ऐसे केवल शब्दोत्पन्न ज्ञान के द्वारा हम किसी को सर्वज्ञ नहीं मान लेते हैं, किन्तु अभ्यास के माध्यम से सकल विशेषताओं का साक्षात्कार किया जा सके इस प्रकार की निर्मलता के संपादन से अलंकृत ज्ञान द्वारा ही हम किसी को सर्वज्ञ मानते हैं / जब हमारी सर्वज्ञज्ञान की मान्यता ही इस प्रकार निर्दोष है तो यह जो आपने कहा था-"शब्दजन्य ज्ञान से सर्वज्ञता मानने पर विधिवाक्य के द्वारा हम लोगों को भी अतीत, अनागत, सूक्ष्मादिपदार्थविषयक ज्ञान विद्यमान होने से हम लोग सर्वज्ञ बन जायेंगे।" है क्योंकि हम लोगों को अभ्यासजन्य सकलपदार्थविषयक स्पष्टज्ञान है ही नहीं / अनुमान के चौथे विकल्प के प्रतीकार में यह जो आपने कहा था (पृ० 212) "सर्वज्ञज्ञान : यदि लिंगजन्य माना जायेगा तो उस लिंग ज्ञान में लिंग के साथ अतीन्द्रिय धर्माधर्मादिसर्वपदार्थों का सम्बन्धबोध शक्य नहीं है, अत एव साध्य के साथ अज्ञात संबंध वाले लिंग से धर्मादि साध्य का अनुमान बोध का उद्भव भी असंभव है इत्यादि"....वह भी संगत नहीं है, क्योंकि जिस हेतु का धर्मादि अतीन्द्रियपदार्थों के साथ संबन्ध ज्ञात है ऐमा हेतु प्रसिद्ध है / जैसे, जिस पुरुष ने हृत्पूर का पान कर लिया है उसकी कुक्षि में अन्तर्गत वह हत्पुर द्रव्य यद्यपि अतीन्द्रिय है फिर भी उसका ज्ञान स्व स्व विषय को ग्रहण करने में समर्थ होता हुआ भी नशे में अपने विषय को ग्रहण नहीं करता है, इस लिंग से उस पुरुष में विशिष्ट द्रव्य (हृत्पूर) के संबन्ध का अनुमान किया जाता है उसी प्रकार मनुष्य का ज्ञान सर्ववस्तु के ग्रहण में समर्थ होता हआ भी अनेक विशेष पदार्थरूप अपने विषय को ग्रहण करता नहीं है, कारण कोई विशिष्ट द्रव्य संबन्ध होना चाहिये / यह विशिष्ट द्रव्य ही जैन मत में अद्दष्ट है / जिसका लिंग से भान होता है। यहाँ हेतु अप्रसिद्ध नहीं है क्योंकि सभी वस्तु अनेका तमय हैं' इस प्रकार सामान्यत: ज्ञान होने पर भी तत्तद् वस्तु गत सकल विशेषों की अग्राहकतारूप हेतु हम लोगों के ज्ञान में अति प्रसिद्ध है जिससे विशिष्ट द्रव्यसंबन्ध सिद्ध होता है / तो इस प्रकार हेतु के बल से पुद्गलमय (न कि गुणादिरूप) अतीन्द्रिय धर्माऽधर्मादि की सिद्धि निर्बाध है / [ भावनावल से ज्ञानवैशद्य का समर्थन ] और भी जो आपने कहा था [ पृ० 212 ]-"अनुमानजन्य ज्ञान से यदि सर्वज्ञता का स्वीकार करोगे तो हम लोग आदि भी सर्वज्ञ बन जायेंगे। यदि भावना के बल से उस ज्ञान में स्पष्टता का आधान मानेंगे तो कामविकारग्रस्त मनुष्य को कामवासना के बल से पत्नी आदि न होने पर भी जैसे उसका स्पष्ट संवेदन होता है किन्तु वह पूर्णतः भ्रान्त होता है उसी प्रकार भावना के बल से उत्पन्न ज्ञान भी उपप्लवग्रस्त होने के कारण भ्रान्त होने से सर्वज्ञता की सिद्धि नहीं हो सकेगी"-यह जो Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदप्यभ्यधायि-'रजोनीहाराद्यावरणापाये वृक्षादिदर्शनवद् रागाद्यावरणाभावे सर्वज्ञज्ञानं वैशद्यभाग भविष्यति' 'न च रागादीनामावारकत्वं सिद्धम्'..."इत्यादि तदप्यसंगतम् , कुड्यादीनामप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यामावारकत्वाऽसिद्धेः / तथाहि-सत्यस्वप्नप्रतिभासस्यार्थग्रहणे न कुड्यादीनामावारकत्वम् , निश्छिद्रापवरकमध्यस्थितेनापि भाव्यतीन्द्रियाद्यर्थस्याऽन्तरावरणा(?ण) भावे प्रमाणान्तरसंवादिन उपलम्भाव, कुड्यादीनां त्वावरणत्वे तदर्शनमसम्भव्येव स्यात् , तथाप्रतिभासेनादृष्टार्थेपि कुड्यादीनां नावारकत्वम् / यच्च प्रातिभं ज्ञानं जाग्रदवस्थायां शब्दलिंगाक्षव्यापाराभावेऽपि 'श्वो भ्राता मे आगन्ता' इत्याकारमुत्पद्यमानमुपलभ्यते तत्र कुड्यादीनां कथमावारकत्वम् ? कथं वा विज्ञानस्य नातीन्द्रियविशेषणभूतश्वस्तनकालाद्यवभासकत्वम् , अनिन्द्रियजस्य च ज्ञानस्य बाह्य-सूक्ष्मादिपदार्थसाक्षात्कारित्वं न सिद्धम् येन सर्वज्ञज्ञानस्यानक्षजत्वे बाह्यातीन्द्रियादिसकलपदार्थसाक्षात्करणं स्पष्टत्वं च न स्यात्' इत्यादि प्रेर्येत ? अत एव सकलपदार्थग्रहरणस्वभावस्य ज्ञानस्येन्द्रियादिजन्यत्वकृत एव प्रतिनियतरूपादिग्राहकत्वनियमोऽवसीयते, प्रातिभादौ तदजन्ये तस्याऽभावात् / सकलजज्ञानं चातीन्द्रियमिति कथं येऽपि सातिशया दृष्टाः" इत्यादि तथा “यत्राप्यतिशयो दृष्टः' [ श्लो० वा० 2-114 ] इत्यादि च दूषणं तत्र क्रमते ? न हि ज्ञानस्याशेषज्ञेयज्ञानस्वभावस्य कश्चित् प्रतिनियमो रूपादिकः स्वार्थः संभवति इत्यसकृदावेदितम् / कहा था वह अरुचिकर है, कारण, यह दृष्टान्त सर्वांश में उपादेय हम भी नहीं मानते हैं, केवल "भावना के बल से उत्पन्न ज्ञान स्पष्ट होता है" इतने ही अंश में उक्त दृष्टान्त प्रस्तुत है, अतः साध्य. धर्मी में दृष्टान्त अन्तर्गत सभी इष्टा-निष्ट धर्मों का आपादन करना अनुचित है। क्योंकि ऐसे आपादन को उचित मानने पर अनुमान मात्र का उच्छेद होकर रहेगा, कारण, हर कोई दृष्टान्त में अनिष्ट धर्म सुलभ रहता है। अनुमानगृहीतार्थ की स्पष्टता का जब भावना के बल से स्पष्टताप्रतिभासक अभ्यासोत्पन्न ज्ञान में अनुभव किया जाता है तो वहाँ तनिक भी उलटेपन का संभव नहीं है जिससे कामान्ध नर के सोपप्लवज्ञानवत् इस स्पष्टता भासक ज्ञान को उपप्लवग्रस्त कहा जा सके / [भित्ति आदि की अवारकता की भंगापत्ति ] यह भी जो आपने कहा है [ पृ० 21: ] "संभव है कि रजकण और धुमस आदि आवरण हठ जाने पर वृक्षादि दिखाई देता है उसी तरह रागादि आवरण के हठ जाने पर स्पष्टतालंकृत सर्वज्ञज्ञान का आविर्भाव होगा, किंतु रागादि यह आवरणभूत हैं ऐसा सिद्ध ही कहाँ है ?" इत्यादि........वह भी असंगत है, रागादि को अगर आप ज्ञानावारक नहीं मानते हैं तो भीत्ति आदि को भी क्यों मानते हैं ? भित्ति आदि में भी अन्वय-व्यतिरेक से आवरणत्व असिद्ध है। जैसे-जो स्वप्न प्रतिभास सत्य होता है, उस प्रतिभास से होने वाले दूरस्थ अर्थग्रहण में भित्ति आदि आवारकप्रतिबन्धक नहीं हो हैं / यह अनुभवसिद्ध है कि यदि स्वप्नदृष्टा छिद्ररहित कक्ष के मध्य भाग में सो गया हो तब भी उसको भावि, अतीन्द्रिय आदि प्रमाणान्तरसंवादि वस्तु का उपलम्भ बीच में आवरण होने पर भी होता है, यदि भित्ति आदि आवारक होते तो यह सत्यस्वप्न दर्शन कभी नहीं होता। जब दृष्ट अर्थों के प्रतिभास में यह बात है तो अदृष्ट अर्थ में भी भित्ति आदि की आवारकता सिद्ध नहीं होती। [ सर्वज्ञज्ञान में अस्पष्टत्वापत्ति का निरसन ] यह भी सोचिये कि जाति अवस्था में शब्द, लिंग या इन्द्रिय के निश्चेष्ट होने पर भी Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 249 अथ रागादीनामावारकत्वेऽपि कथमात्यन्तिकः क्षयः, कथं वाऽभ्यस्यमानमप्यविशदं ज्ञानं लंघनोदकतापादिवत् प्रकृष्टप्रकर्षावस्थां वैशा चाऽवाप्नोतीति ?-नैतत् प्रेर्यम् , यतो यदि रागादीनामावारकत्वादिस्वरूपं न ज्ञायेत-नित्यत्वमाकस्मिकत्वं वा तेषां स्यात वा स्वरूपाऽपरिज्ञानं नित्यत्वं वा संभाव्येत, तद्विपक्षस्य वा स्वरूपतोऽज्ञानं अनभ्यासश्च स्यात, तदैतन्न स्यादपि, यावता रागाँदीनां ज्ञानावरणहेतुत्वेनावरणस्वरूपत्वं सिद्धम् / न च तेषां नित्यत्वम् , तत्सद्भावे सर्वज्ञज्ञानस्य प्रतिपादयिष्यमाणप्रमाणनिश्चितस्याभावप्रसंगात् / नाप्याकस्मिकत्वम् , अत एव / न चैषामुत्पादको हेतु वगतः मिथ्याज्ञानस्य तज्जनकत्वेन सिद्धत्वात् / न च तस्यापि नित्यत्वम् , अन्यथाऽविकलकारणस्य मिथ्याज्ञानस्य भावे प्रबन्धप्रवृत्तरागादि "कल मेरा भाई आयेगा" इस प्रकार का प्रातिभ संज्ञक जो ज्ञान उत्पन्न होता हुआ किसी किसी को दिखाई देता है वहाँ भित्ति आदि किस प्रकार आवारक हैं? यह भी बताईये कि जब अतीन्द्रिय भावि काल का विशेषणरूप में अवभास कराने वाला विज्ञान उपलब्ध होता है तो वह असिद्ध कैसे ? एव इन्द्रिय से अजन्य जो ज्ञान होता है वह सूक्ष्मादि बाह्यार्थ का साक्षात्कार कर लेता है यह भी उपलब्ध है तो वह असिद्ध कैसे ? फिर आपको यह कहने का अवकाश ही कहाँ है-कि 'सर्वज्ञ का ज्ञान अगर इन्द्रियजन्य न होगा तो वह बाह्य एवं अतीन्द्रिय सकल अर्थों का साक्षात्कारी न होगा और स्पष्ट भी नहीं होगा।' हमने जो प्रातिभ आदि ज्ञान का उदाहरण दिखाया है उससे यह नियम फलित होता है कि ज्ञान में सकलपदार्थों को ग्रहण करने का स्वभाव रहने पर भी जब वह इन्द्रियादि से उत्पन्न होता है तो मर्यादित ही रूपादिविषय का ग्राहक होता है, क्योंकि इन्द्रियादि से अजन्य प्रातिभ ज्ञान में मर्यादा का नियम नहीं होता। तदुपरांत आपने जो सर्वज्ञज्ञान के संबंध में यह दोषोद्भावन किया है [ पृ. 202] कि "जो अतिशय वाले देखे गये हैं" इत्यादि तथा 'जहाँ भी अतिशय देखा गया है" इत्यादि....वह अतीन्द्रिय सर्वज्ञ ज्ञान के ऊपर किस प्रकार लगेगा जब कि वह ज्ञान ही अतीन्द्रिय हैं / यह तो हम बार बार कह चुके हैं कि अखिल ज्ञेय वस्तु को जानने में समर्थ स्वभाववाला जो ज्ञान होता है उसका अर्थक्षेत्र मर्यादित ही रूप-रसादि नहीं होता किन्तु सारा ब्रह्मांड होता है / [ रागादि के निमूल क्षय की आशंका का उत्तर ] ___ यदि यह प्रश्न किया जाय "रागादि को कदाचित् आवारक मान लिया जाय तब भी उसका आत्यन्तिक क्षय कैसे संभव है ? तथा, जो ज्ञान अस्पष्ट है, उसका चाहे कितना भी अभ्यास किया जाय किन्तु चरमप्रकर्षप्राप्त एवं स्पष्ट कैसे बन सकता हैं ? किसी एक खड्डा का उल्लंघन करने की शक्ति भी मर्यादित होती है, जल को कितना भी तपाया जाय तो भी वह आखिर ठंडा बन जाता है, सदा के लिये गर्म नहीं रहता अर्थात् उसका अग्नि में परिवर्तन नहीं हो जाता / इसी प्रकार अस्पष्ट स्वभाव वाला ज्ञान आखिर अस्पष्ट ही रहेगा, स्पष्ट कसे हो सकेगा ?"-यह प्रश्न करना व्यर्थ है क्योंकि रागादि का क्षय ऐसी स्थितियों में न होने की संभावना है-१-रागादि का आवरणस्वरूप ज्ञात न हो, 2-3 रागादि नित्य हो या आकस्मिक हो, ४-रागादि के हेतुओं का स्वरूप अज्ञात हो या ५-वे नित्य हो, ६-रागादि के प्रतिपक्ष का स्वरूप अज्ञात हो या ७-उसका अभ्यास अशक्य हो। ये सभी स्थितियाँ असिद्ध है / जैसे कि, १-रागादि ज्ञान का आवारक है अतः उनकी आवारकरूपता प्रसिद्ध ही है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ दोषसद्भावात् तदावृतत्वेन सर्वविद्विज्ञानस्याभावः स्यादिति स एव दोषः / आकस्मिकत्वेऽपि मिथ्याज्ञानस्य हेतुव्यतिरेकेणापि प्रवृत्तेस्तत्कार्यभूतरागादीनामपि प्रवृत्तिरिति पुनरपि सर्वज्ञज्ञानाभावः / अहेतुकस्य च मिथ्याज्ञानस्य देशकाल-पुरुषप्रतिनियमाभावोऽपि स्यादिति न चेतनाऽचेतनविभागः। न च तत्प्रतिपक्षभूतस्योपायस्याऽपरिज्ञानम् , मिथ्यात्वविपक्षत्वेन सम्यज्ज्ञानस्य निश्चितत्वात् / तदुत्कर्ष मिथ्याज्ञानस्यात्यन्तिकः क्षयः / तथाहि-यदुत्कर्षतारतम्याद् यस्यापचयतारतम्यं तस्य विपक्षप्रकर्षावस्थागमने भवत्यात्यन्तिकः क्षयः, यथोष्णस्पर्शस्य तथाभतस्य प्रकर्षगमने शीतस्पर्शस्य तथाविधस्यैव / सम्यग्ज्ञानोपचयतारतम्यानुविधायी च मिथ्याज्ञानापचयतरतमादिभावः इति तदुत्कर्षऽस्यात्यन्तिकक्षयसद्भावात् तत्कार्यभूतरागाद्यनुत्पत्तेरावरणभावः सिद्धः। रागादिविपक्षभूतवैराग्याभ्यासाद् वा रागादीनां निर्मूलतः क्षय इति कथं नावरणाभावः ? . . [रागादि नित्य और आकस्मिक नहीं है ] २-रागादि नित्य भी नहीं है, यदि वे नित्य होते तो सर्वज्ञज्ञान का ही अभाव हो जायेगा जब कि आगे दिखाये जाने वाले प्रमाण से सर्वज्ञज्ञान निश्चित है। ३-रागादि यह आकस्मिक भी नहीं है क्योंकि फिर से वही सर्वज्ञज्ञान का अभाव हो जाने की आपत्ति होगी। ४-रागादि का उत्पादक हेतु अप्रसिद्ध है ऐसा भी नहीं है क्योंकि-'रागादि का जनक मिथ्याज्ञान है' यह तो सर्वत्र प्रसिद्ध है। ५-यह मिथ्याज्ञान नित्य भी नहीं है। यदि वह नित्य होगा तो वही एकमात्र अविकल कारणरूप होने से मिथ्याज्ञान के सर्वदा रहने पर प्रवाह से उत्पन्न होने वाला रागादि दोषगण भी सदा अवस्थित रहने से ज्ञान उससे सदा ही आवृत्त रहेगा तो सर्वज्ञज्ञान के अभाव क रहेगी। मिथ्याज्ञान को आकस्मिक कहेंगे तो विना हेतु वह प्रवर्तमान रहेगा तो उसके कार्यभूत रागादि की भी प्रवृत्ति सतत रहेगी। इस प्रकार फिर से सर्वज्ञज्ञानाभाव की आपत्ति होगी / मिथ्याज्ञान यदि विना हेतु उत्पन्न होगा तो अमुक ही देश, अमुक ही काल, अमुक ही पुरुष में उसके सद्भाव का नियम न रहने से सर्वदा और सर्वत्र व्याप्त हो जायेगा तो कोई भी अचेतन नहीं रहेगा फिर जड-चेतन का विभाग भी गायब हो जायेगा। [रागादि के प्रतिपक्षी उपाय का ज्ञान संभवित है ] ६-रागादि के निवारणार्थ प्रतिपक्षी उपायभूत वस्तु का ज्ञान अशक्य भी नहीं है क्योंकि यह सुनिश्चित है कि सम्यग्ज्ञान यह मिथ्याज्ञान का प्रबल विरोधी है। अतः सम्यग्ज्ञान का जितना उत्कर्ष होगा उतना ही मिथ्याज्ञान का अपकर्ष और अन्ततः क्षय भी होगा। यह इस प्रकार-जिसके उत्कर्ष की तरतमता पर जिसके अपचय की तरतमता अवलम्बित हो, उसका विपक्ष यदि प्रकर्षप्राप्त हो जायेगा तो वह अत्यन्त क्षीण हो जायेगा। उदा० शीतस्पर्श का विरोधी उष्णस्पर्श जब प्रकर्षप्राप्त हो जाता है तो उष्णस्पर्श का विरोधी शीत स्पर्श अत्यन्त क्षीण हो जाता है। प्रस्तुत में, जब जब 'सम्यग् ज्ञान का बहु बहुतर आदि उपचय होता है उस वक्त मिथ्याज्ञान का अपचय बहु बहुतर अंश में होता हुआ दिखाई देता है अत: सम्यग्ज्ञान की चरमोत्कर्षावस्था में मिथ्याज्ञान का आत्यन्तिक क्षय अवश्यंभावी है और उसका क्षय होने पर उसके कार्यभूत रागादि की उत्पत्ति अवरुद्ध हो जाने से आवरण की निवृत्ति सिद्ध होती है / ७-अथवा यह भी अन्य उपाय है-रागादि का विरोधी वैराग्य है, अत: उसके तीव्र अभ्यास से रागादि का समूल क्षय हो जायेगा तो आवरण का अभाव क्यों सम्पन्न नहीं होगा? Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1. सर्वज्ञवादः 251 न च 'लंघनोदकतापादिवदभ्यस्यमानस्यापि सम्यग्ज्ञानवैराग्यादेन परप्रकर्षप्राप्तिरिति कुतस्तद्विषये मिथ्याज्ञानाभावाद् रागादेरात्यन्तिकोऽनुत्पत्तिलक्षणःक्षयलक्षणो वाऽभावः ?' इति वक्तु युक्तम् / यतो लंघनं हि पूर्वप्रयत्नसाध्यं यदि व्यवस्थितमेव स्यात् तदोत्तरप्रयत्नस्यापरापरलंघनातिशयोत्पत्तो ध्यापारात भवेल्लंघनस्याप्य (न ? )पेक्षितपूर्वातिशयसद्धावप्रयत्नान्तरस्य प्रकर्षावाप्तिः, न चैवं, अपरापरप्रयत्नस्य पूर्वपूर्वातिशयोत्पादने एवोपक्षीणशक्तित्वात् / : अर्थतत् स्याद-यदि तत्रापि पूर्वप्रयत्नोत्पादितोऽतिशयो न व्यवस्थितः स्यात् , तत्किमिति प्रथममेव यावल्लंघयितव्यं तावन्न लंघयति ? तत् लंघनाभ्यासापेक्षणात् पूर्वप्रयत्नाहितातिशयसद्भावेऽपि न लंघनप्रकर्षप्राप्तिरिति यथा तस्य व्यवस्थितोत्कर्षता तथा ज्ञानस्यापि भविष्यति / न, यतः श्लेष्मादिना प्राक शरीरस्य जाड्याद् यावल्लघयितव्यं न तावद व्यायामाऽनपनीतश्लेष्माऽनासादितपटुभावः कायो लंघयति, अभ्यासासादितश्लेष्मक्षयपदभावस्तु यावल्लंघयितव्यं तावल्लंघयतीत्यभ्यासः तत्र सप्रयोजनः / ज्ञानस्य तु योऽभ्याससमासादितोऽतिशयः सोऽतिशयान्तरोत्पत्तौ पुनः प्राक्तनाभ्यासापेक्षो न भवतीत्युत्तरोत्तराभ्यासानामपरापरातिशयोत्पादने व्यापाराद् न व्यवस्थितोत्कर्षतेति भवति ज्ञानस्य परप्रकर्षकाष्ठा। [लंघनवत् सीमित ज्ञानशक्ति की आशंका का उत्तर ] यदि यह आशंका की जाय-"चाहे कितना भी अभ्यास करो कि तु गर्तादि के उल्लंघन में अथवा जलताप आदि में कभी भी प्रकर्षावस्था (यानी अग्निरूपता) प्राप्त नहीं होती। इसी प्रकार सम्यग्ज्ञान अथवा वैराग्य का कितना भी गहरा अभ्यास-आसेवन किया जाय किन्तु कभी वह चरमप्रकर्ष प्राप्त नहीं हो सकता, तो फिर इस विषय में आप जो यह कहते हैं कि ज्ञानप्रकर्ष अथवा वैराग्योत्कर्ष से मिथ्याज्ञान का अभाव होगा और उसके अभाव से रागादि का, सर्वथा अनुत्पत्ति अथवा क्षय रूप आत्यन्तिक अभाव होगा यह कैसे घटेगा ?"-तो यह कहना अयुक्त है क्योंकि प्रथम प्रयत्न करने पर जो लंघन सिद्ध होता है वह अवस्थित नहीं रहता, यानी उस प्रयत्न से जो लंघनशक्ति रूप अतिशयाधान किया जाता है वह लंघन के बाद क्षीण हो जाती है। यदि वह क्षीण न होकर अवस्थित रहती तब तो अन्य अन्य लंधनातिशय की उत्पत्ति में नये नये प्रयत्न का व्यापार संभव हो जाने से पूर्वातिशय के सद्भाव से विशिष्ट अन्य अन्य प्रयत्न के अवलम्बन करने वाला लंघन चरमप्रकर्ष प्राप्त हो सकता था। तात्पर्य यह है कि नये नये प्रयत्न से पूर्व पूर्व अतिशय उपचित होने के कारण प्रकर्ष की संभावना शक्यतारूढ थी। किन्तु पूर्व पूर्व प्रयत्न से उत्पन्न अतिशय चिरस्थायी नहीं होता, अत: नये नये प्रयत्न की शक्ति उसी पूर्व पूर्व अतिशय को पुन: पुन: उत्पन्न करने में क्षीण हो जाती है-यही कारण है कि लंघनातिशय प्रकर्ष प्राप्त नहीं होता। [अतिशयितलंघन क्रिया में अभ्यास कैसे उपयोगी ?] कदाचित् आप ऐसा कहेंगे कि-"यदि यहाँ भी पूर्व पूर्व प्रयत्न से उत्पादित अतिशय चिरस्थायि न होकर अल्पजीवी होता तब तो वैसा समान अतिशय प्रथम प्रयत्न से उत्पन्न होने के कारण जितना अंतिम प्रयत्न से लम्बा कूदा जा सकता है उतना प्रथम प्रयत्न से भी क्यों नहीं कूदा जा सकता ? इससे यही सार निकलता है कि लंधनाभ्यास के अवलम्बन से पूर्व पूर्व प्रयत्न से नये नये अतिशय का आधान शक्य होने पर भी लंघन कदापि प्रकर्षावस्था प्राप्त नहीं करता। ( तात्पर्य, लंघन का Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 उदकतापे त्वतिशयेन क्रियमाणे तदाश्रयस्यैव क्षयान् नातिताप्यमानमप्युदकमग्निरूपतामासादयति / विज्ञानस्य त्वाश्रयोऽत्यभ्यस्यमानेऽपि तस्मिन् न क्षयमुपयातीति कथं तस्य व्यवस्थितोत्कर्षता? ! न च 'विज्ञानमपि प्राक्तनाभ्यासादासादितातिशयं पूर्वमेव विनष्टम् , अपराभ्यासादन्यदतिशयवदुत्पन्नमिति कथं पूर्वाभ्याससमासादितोऽतिशयो नाभ्यासान्तरापेक्षो येन व्यवस्थितोत्कर्षता तस्यापि न स्यादिति' वक्तु युक्तम् , तत्र पूर्वाभ्यासजनितसंस्कारस्योत्तरत्रानुवृत्तेः, अन्यथा शास्त्रपरावर्तनादिवैयर्थ्यप्रसंगात्। नापि 'यदुपचयतारतम्यानुविधायी यदपचयतरतमभावः तस्य तद्विपक्षप्रकर्षगमनादात्यन्तिकः क्षयः' इत्यत्र प्रयोगे श्लेष्मणा व्यभिचार उद्धावयितु शक्यः-'किल निम्बाद्यौषधोपयोगात प्रकर्षतारतम्यानुभववतस्तरतमभावापचीयमानस्पापि श्लेष्मणो नात्यन्तिकः क्षय इति'-यतस्तत्र निम्बाद्यौषधोपप्रकर्ष जैसे सीमित है ) इसी प्रकार ज्ञान में भी सीमित ही होगा, तो ज्ञान में चरमप्नकर्ष का संभव कसे माना जाय ?"-किन्तु यह कथन विचारशून्य है, प्रथम प्रयत्न से लम्बा नहीं कूदा जा सकता उसका कारण यह नहीं है कि उस समय अतिशय अनुपचित है-किन्तु कारण इस प्रकार है-आद्य प्रयत्नकाल में शरीर में तम बहलता के कारण जड़ता भरी रहती है, व्यायाम के द्वारा कफधातु का अपनयन और पटुता का संपादन जब तक नहीं किया जाता तब तक उस जडता के कारण उतना लम्बा नहीं कूदा जा सकता। व्यायामाभ्यास द्वारा जब कफ धातु के वैषम्य को दूर करके पटुता प्राप्त कर जडता को निकाल दी जाती है तब उतना लम्बा कूदा जा सकता है। सारांश, अभ्यास का प्रयोजन अतिशय का उपचय नहीं किन्तु जडता का अपाकरण है। दूसरी ओर ज्ञान के लिये बार बार प्रयत्न करने द्वारा जिस अतिशय का संपादन किया जाता है वह नये नये अतिशय के संपादन में पूर्व पूर्व अभ्यास की पुनः पुन: अपेक्षा नहीं करता है किन्तु नये नये अभ्यास द्वारा नया नया अतिशय उत्पन्न करने में सक्रिय रहता है, अतः ज्ञान के उत्कर्ष को सीमा नहीं रहती। जैसे जैसे नया नया अभ्यास जारी रहता है वैसे वैसे नये नये प्रकृष्ट प्रकृष्टतर अतिशय उत्पन्न होता जाता है। यावद् प्रकृष्टतम अतिशय उत्पन्न होने पर रागादि का आवरण सर्वथा क्षीण हो जाने पर समस्त वस्तु के संपूर्ण ज्ञान का उदय होता है / यही ज्ञान की चरम प्रकृष्टावस्था है। [ जलतापवत सीमित ज्ञान की शंका का उत्तर ] ___लंघन की बात जैसे प्रस्तुत में निरुपयोगी है उसी प्रकार जलताप की बात भी निरुपयोगी है। पानी को यदि बेहद तपाया जाय तो ताप के आश्रय पानी का विनाश ही हो जाता है, अत एव पानी को अत्यन्त तपाने पर वह अग्निस्वरूप धारण नहीं कर सकता। विज्ञान की बात इससे अलग है, विज्ञान का अधिक अधिक अभ्यास किया जाय तो उसका आश्रयभूत जीव विनष्ट नहीं हो जाता, तो जलताप के दृष्टान्त से विज्ञान का उत्कर्ष सीमित बताना कहाँ तक उचित है ? यदि यह शंका करें कि-"प्राथमिक अभ्यास से अतिशय प्राप्त करने वाला पूर्व विज्ञान तो दूसरे क्षण में नये अभ्यास के पूर्व ही नष्ट हो जाता है। नये अभ्यास से नया सातिशय विज्ञान उत्पन्न होता है। तो अब पूर्व अभ्यास से प्राप्त अतिशय, उत्कर्ष के लिये नूतनाभ्याससापेक्ष तो रहा नहीं फिर विज्ञान का उत्कर्ष भी सीमित क्यों नहीं होगा ?"-यह शंका उचित नहीं है। कारण, पूर्वविज्ञान नष्ट हो जाने पर भी आत्मा में पूर्वाभ्यासोत्पन्न संस्कार उत्तरकाल में भी अनुवर्तमान रहता है अतः उस संस्कार के उत्कर्ष की क्रमशः वृद्धि होती रहती है, यावत् चरमोत्कर्ष प्राप्त करने वाले संस्कार से उत्कृष्ट विज्ञान Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 253 योगस्यैव नोत्कर्षनिष्ठाऽऽपादयितु शक्या, तदुपयोगेऽपि श्लेष्मपुष्टिकारणानामपि तदैवाऽऽसेवनात् , अन्यथौषधोपयोगाधारस्यैव विनाशः स्यात् / चिकित्साशास्त्रस्य च धातुदोषसाम्यापादनाभिप्रायेणैव प्रवृत्तेस्तत्प्रतिपादितौषधोपयोगस्योद्रिक्तधातुदोषसाम्यविधाने एवं व्यापारो न पुनस्तस्य निमूलने, अन्यथा दोषान्तरस्यात्यन्तक्षये मरणावाप्तेरिति न श्लेष्मणा तथाभूतेनानैकान्तिको हेतुः। .. न च सम्यग्ज्ञानसात्मीभावेऽपि पुनमिथ्याज्ञानस्यापि संभवो भविष्यति तदुत्कर्ष इव सम्यगज्ञानस्येति वक्तुयुक्तम् , यतो मिथ्याज्ञाने रागादौ वा दोषदर्शनात , तद्विपक्षे च सम्यग्ज्ञान-वैराग्यलक्षणे गुणदर्शनात् तत्र पुनरभ्यासप्रवृत्तिसंभवात् प्रकृष्टेऽपि मिथ्याज्ञान-रागादावुत्पद्येते एव सम्यग्ज्ञानवैराग्ये, नैवं तयोः प्रकर्षावस्थायां दोषदर्शनं तत्र तद्विपर्यये वा गुणदर्शनं येन पुनस्तत्सात्मीभावेऽपि मिथ्याज्ञानरागादेरुत्पत्तिः संभाव्येत। . उत्पन्न हो सकता है। यदि संस्कारवाली बात न मानी जाय तो सारे जगत् में जो शास्त्रों के पुनरावर्तन का श्रम दिखाई देता है वह निरर्थक मानना होगा। संस्कार के दृढीकरण द्वारा ही पुनरावर्तन सार्थक बनता है। [ कफधातु के उदाहरण से नियमभंगशंका का उत्तर ] हमने जो यह नियम व्यक्त किया है-'जिसके उपचय की तरतमता का अनुकरण जिसके अपचय का तरतमभाव करता है, उसका विपक्ष प्रकर्षावस्था को प्राप्त हो जाने पर वह अत्यन्त क्षीण हो जाता है'-इस नियम प्रयोग में कफधातु को प्रस्तुत करके इस प्रकार व्यभिचार का उद्भावन नहीं हो सकता कि-"निम्ब आदि औषध का सेवन करने वाला जब प्रकृष्ट मात्रा में उसका अनुभव यानी सेवन करता है तब कफधातु का तारतम्य अत्यन्त अपचित हो जाता है फिर भी कफधातु का सर्वथा विनाश नहीं होता है"-इस प्रकार के व्यभिचार को तब अवकाश मीलता यदि निम्ब आदि औषध के सेवन में उत्कर्षाधान शक्य होता, किन्तु वही अशक्य है। तात्पर्य, निम्बादि औषध का उत्कृष्टतम मात्रा में उपयोग ही असंभव है, कदाचित् अधिक मात्रा में उसका उपयोग कर लिया जाय तो भी दूसरी और कफपोषक खाद्य पदार्थों का आसेवन उसी काल में जारी रहता है, अतः कफ का आत्यन्तिक नाश नहीं होता है तो भी कोई दोष नहीं है। यदि कफपोषक खाद्यवस्तु का उपयोग न करके अकेला निम्बादि औषध का सेवन किया जायगा तो परिणाम में औषधोपयोग करने वाला आधारभूत प्राणी ही मर जायेगा। चिकित्साशास्त्रों का उपदेश धातुदोष के साम्यापादन के अभिप्राय से ही प्रवृत्त है / तात्पर्य यह है कि कफ-पित्त आदि धातु विषमावस्थापन्न होने पर विकार का उद्भव होता है उसका शमन करने के लिये तीनों धातु में साम्य स्थापित करने वाले औषधों के आसेवन की ओर चिकित्साशास्त्र निर्देश करता है। अत: चिकित्साशास्त्र उपदिष्ट औषधों का उपयोग, जिस धातुदोष का उद्रेक हुआ है उसको साम्यावस्था में लाने के लिये ही होता है, उस धातुदोष को निमूल करने के लिये नहीं होता है / अन्यथा किसी एक धातुदोष का यदि आत्यन्तिक विनाश कर दिया जाय तो प्राणी को मरण प्राप्त होगा। निष्कर्ष, कफधातु के उदाहरण से उपरोक्त नियम में हेतु अनैकान्तिक दिखाना अनुचित है। [मिथ्याज्ञान के क्षयानंतर पुनरुद्गम का असंभव ] - यदि यह कहा जाय मिथ्याज्ञान के उत्कर्ष में भी जैसे सम्यग्ज्ञान का उदयारम्भ होता है Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न चानक्षजस्य ज्ञानस्य सर्ववित्संबन्धिनः कथं प्रत्यक्षशब्दवाच्यतेति वक्तु युक्तम् , यतोऽक्षजत्वं प्रत्यक्षस्य शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तमेव न पुनः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तम् , तन्निमित्तं हि तदेकार्थाश्रितमर्थसाक्षाकारित्वम् / अन्यद्धि शब्दस्य व्युत्पत्तौ निमित्तमन्यच्च प्रवृत्तौ / यथा गोशब्दस्य गमनं व्युत्पत्तौ-गोपिण्डाश्रितगोत्वं प्रवृत्तौ निमित्तं, अन्यथा यदि यदेव व्युत्पत्तिनिमित्तं तदेव प्रवृत्तावपि तदा गच्छन्त्यामेव गवि गोशब्दप्रवृत्तिः स्यात् न स्थितायाम् , महिष्यादौ च गमनपरिणामवति गोशब्दः प्रवर्तेत / तथात्रापि प्रवृत्तिनिमित्तसद्भावात् प्रत्यक्षव्यपदेशः संभवत्येव / यद्वा, यदेव व्युत्पत्तिनिमित्तं तदेव प्रवृत्तावप्यस्तु तथापि तन्छब्दवाच्यतायास्तत्र नाभावः / तथाहि-अश्नुते-सर्वपदार्थान् ज्ञानात्मना व्याप्नोतीति व्युत्पत्तिशब्दसमाश्रयणाद् प्रक्षः आत्मा। तमाउसी प्रकार सम्यग्ज्ञान आत्मसात् हो जाने पर फिर से मिथ्याज्ञान का उदय भी हो सकेगा। -यह कहना अयुक्त है। कारण, मिथ्याज्ञान और रागादिगण प्रकृष्ट होने पर भी, मिथ्याज्ञान और रागादि के अनेक दोष का बार बार दर्शन करने से, तथा उनके विपक्ष सम्यग्ज्ञान और वैराग्य के अनेक लाभ का चिन्तन करने से यहाँ इस प्रकार के अभ्यास का प्रवर्तन संभवित हो जाता है जिससे सम्यग्ज्ञान और वैराग्य का उदय होता है। सम्यग्ज्ञान और वैराग्य जब उत्कृष्ट बन जाते हैं उस काल में न तो उन दोनों के दोष का चिन्तन किया जाता है, न तो उनके विपक्ष में लाभ का चिन्तन किया जाता है, अत एव सम्यग्ज्ञान आत्मसात् हो जाने पर मिथ्याज्ञान या रागादि के उद्भव की संभावना ही नहीं रहती। [ सर्वज्ञज्ञान में प्रत्यक्षत्व कैसे ?-उत्तर ] यह शंका नहीं करनी चाहिये कि-सर्वज्ञसंबंधी ज्ञान इन्द्रियजन्य तो नहीं है फिर 'प्रत्यक्ष' शब्द से उसका संबोधन कैसे ? - कारण, इन्द्रियजन्यत्व यह प्रत्यक्षशब्द का केवल व्युत्पत्तिनिमित्त है [ अर्थात् अक्ष=इन्द्रिय का प्रतिगत यानी संबंधी हो वह प्रत्यक्ष इस प्रकार की व्युत्पत्ति में प्रत्यक्ष शब्द से आपाततः यही अर्थ भासित होता है जो इन्द्रियजन्य हो वह प्रत्यक्ष किन्तु यह ] प्रत्यक्षशब्द का प्रवृत्तिनिमित्त नहीं है / तात्पर्य, इन्द्रियजायत्व ही प्रत्यक्ष शब्द की प्रवृत्ति में निमित्तभूत यानी प्रयोजक नहीं है / किन्तु इन्द्रियजन्यत्व के साथ एकार्थआश्रित यानी उसका समानाधिकरण धर्म अर्थसाक्षात्कार ही प्रत्यक्षशब्द की प्रवृत्ति का निमित्त है। यह तो सुविदित है कि शब्द का व्युत्पत्तिनिमित्त [ यानी जिस निमित्त से वह शब्द व्युत्पन्न - निष्पन्न होता है वह ] अन्य ही होता है और शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त [ जिसके आधार पर अर्थ में उस शब्द की प्रवृत्ति होती है वह ] अलग होता है / उदा-गमन क्रिया रूप अर्थ में गम् धातु से गो शब्द बनाया जाता है अतः गमम क्रिया गो शब्द का व्युत्पत्तिनिमित्त हुआ, धेनुरूप अर्थ में आश्रित गोत्वसामान्य जिस अर्थ में विद्यमान रहता है वहाँ गो शब्द की प्रवृत्ति होती है अतः गोत्व यह गोशब्द की प्रवृत्ति का निमित्त हुआ। ऐसा न मानकर यदि जो व्युत्पत्तिनिमित्त होता है उसी को प्रवृत्ति का भी निमित्त माना जाय तब तो गमनक्रियान्वित धेनु में ही गोशब्द की प्रवृत्ति होगी, खडी रहेगी तब नहीं हो सकेगी, तथा गमन क्रिया के परिणाम से अन्वित महिषी (भैंस) में भी गो शब्द की प्रवृत्ति होगी। सारांश, जैसे व्युत्पत्तिशू य धेनु में भी प्रवृत्तिनिमित्त के बल से गोशब्दप्रवृत्ति होती है उसी प्रकार अर्थसाक्षात्काररूप प्रवृत्ति निमित्त के बल पर सर्वज्ञ के ज्ञान में 'प्रत्यक्ष' शब्द प्रयोग का पूरा संभव है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 255 श्रितं=उत्पाद्यत्वेन तं प्रतिगतं-इति प्रत्यक्षमिति व्युत्पत्तेः / अभ्युपगमवादेन चाभ्यासवशात् प्राप्तप्रकर्षण ज्ञानेन सर्वज्ञ इति प्रतिपादितम् / न त्वस्माकमयमभ्युपगमः, किंत ज्ञानाद्यावरकघातिकर्मचतुष्टयक्षयोद्भूताशेषज्ञेयव्याप्यनिन्द्रियशब्दलिंगसाक्षात्कारिज्ञानवतः सर्वज्ञत्वमभ्युपगम्यते / ___ यच्चोक्तम्-यद्यतोतानागतवर्तमानाशेषपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानेन सर्वज्ञस्तदा क्रमेणातीतानागतपदार्थवेदने पदार्थानामानन्त्याद न ज्ञानपरिसमाप्तिः इति-तदयुक्तम् , तथानभ्युपगमात्, शास्त्राथ कमेणानुभूतेऽप्यत्यन्ताभ्यासान क्रमेण संवेदनमनुभयते तद्वदत्रापि स्यात् / यदप्यभ्यधायि-अथ युगपत्सर्वपदार्थवेदकं तज्ज्ञानमभ्युपगभ्यते तदा परस्परविरुद्धानां शीतोष्णादीनामेकज्ञाने प्रतिभासाऽसंभवात् संभवेऽपि........इत्यादि-तदप्ययुक्तम् / यतः परस्परविरुद्धानां किमेकदाऽसंभवः, किंवा संभवेऽप्येकज्ञानऽप्रतिभासनं भवता प्रतिपादयितमभिप्रेतम? तत्र यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः, जलाऽनलादीनां छायाऽऽत. पादोनां चैकदा विरुद्वानामपि संभवात / अथैका विरुद्धानामसंभवः तदाऽसंभवादेव नैकत्र ज्ञाने तेषा प्रतिभासो न पुनविरुद्धत्वात् / विरुद्धानामपि तेषामेकज्ञाने प्रतिभाससंवेदनात् / [ व्युत्पत्तिनिमित्त की सर्वज्ञ प्रत्यक्ष में उपपत्ति ] ___अथवा जो व्युत्पत्तिनिमित्त है-वही प्रत्यक्षशब्द की प्रवृत्ति का निमित्त होने दो, फिर भी सर्वज्ञज्ञान में प्रत्यक्ष शब्द के प्रयोग की योग्यता का अभाव होने की आपत्ति नहीं है / जैसे-'अक्ष' शब्द में 'अश्' मूल धातु है जिसका अर्थ यह है-व्याप्त होना, 'सभी पदार्थों में ज्ञानात्मकरूप से जो व्याप्त हो जाता है' इस व्यूत्पत्तिवाले अक्ष शब्द का आश्रय करने पर 'अक्ष' शब्दार्थ हुआ आत्मा। अक्ष का आश्रित, यानी अक्ष से उत्पन्न होने के कारण अक्ष को प्रतिगत यानी सम्बद्ध हो उसी का नाम प्रति+अक्ष=प्रत्यक्ष / इस व्युत्पत्ति के आधार पर सर्वज्ञज्ञान भी प्रत्यक्षशब्द योग्य है क्योंकि सर्वज्ञ का ज्ञान सर्वज्ञ आत्मा को प्रतिगत होता है, और सर्वज्ञ आत्मा अपने ज्ञान से सारे जगत् में व्याप्त हो जाता है। यह अवश्य ध्यान देने योग्य है कि अभ्यास के माध्यम से प्रकर्षप्राप्त ज्ञान द्वारा सर्वज्ञ का जो प्रतिपादन किया है उसमें हमारा स्वरस नहीं है किन्तु केवल अभ्युपगमवाद यानी एक बार मान कर चलना इस नीति से किया है। हमारा ऐसा मत नहीं है किन्तु हमारा मत यह है-ज्ञानादिगुण के आवारक धाती कर्म (ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीय-अंतराय ये चार कम) क्षाण पर सकल ज्ञेय वस्तु का व्यापक तथा इन्द्रिय, लिंग एवं शब्द से निरपेक्ष साक्षात्कार स्वरूप ज्ञान जिसको होता है वही सर्वज्ञ है। [अनंतपदार्थ होने पर भी सर्वज्ञता की उपपत्ति ] यह जो कहा गया है-[ 10 213-6 ] अतीत-अनागत-वर्तमान सकल पदार्थ के साक्षात्कारी ज्ञान से अगर किसी को सर्वज्ञ माना जायेगा तो पदार्थ अनंत होने के कारण क्रमशः एक एक अतीतअनागत पदार्थ के वेदन में ज्ञान सदा संलग्न रहेगा तो कभी अन्त ही नहीं आयेगा....इत्यादि-वह कथन अयुक्त है क्योंकि हम सकल पदार्थ का एक साथ ही संवेदन मानते हैं, क्रमशः एक एक पदार्थ का वेदन नहीं मानते हैं / जैसे अभ्यासकाल में क्रमशः शास्त्र के एक एक पदार्थ का अवधारण किया जाता है किन्तु जब अति अभ्यास हो जाता है तब उन सब शास्त्रार्थ का एक साथ ही स्मरण आदि होता है यह अनुभव सिद्ध है उसी प्रकार सर्वज्ञज्ञान में भी एक साथ सकल पदार्थ का प्रतिभास संभव है। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 एतेन-विरुद्धार्थग्राहकस्य च तज्ज्ञानस्य न प्रतिनियतार्थग्राहकत्वं स्याद्-इत्याद्यपि निरस्तम् , छायाऽऽतापादिविरुद्धार्थग्राहिणोऽपि ज्ञानस्य प्रतिनियतार्थग्राहकत्वसंवेदनात् / यच्चोक्तम्-यदि युगपत्सर्वपदार्थग्राहकं तज्ज्ञानं तदैकक्षणे एव सर्वपदार्थवेदनात द्वितीयादिक्षणे किचिज्ज्ञ एव स स्यात् इत्यादितदप्यत्यन्ताऽसंबद्धम् , यतो यदि द्वितीयक्षणे पदार्थानां तज्ज्ञानस्य चाऽभावः स्यात् तदा स्यादप्येतत् , न चैतत्संभवति, तथाऽभ्युपगमे द्वितीयक्षणे सर्वपदार्थाभावात् सकलसंसारोच्छेदः स्यात् / यदप्यभ्यध्यायि-अनाद्यनन्तपदार्थसंवेदने तत्संवेदनस्याऽपरिसमाप्तिः.......इत्यादि तदप्ययुक्तम् , अत्यन्ताभ्यस्तशास्त्रार्थज्ञानस्येव युगपदनाद्यनन्तार्थग्राहिणस्तज्ज्ञानस्यापि परिसमाप्तिसंभवात् / अन्यथा भूत-भविष्यत्-सूक्ष्मादिपदार्थग्राहिणः प्रेरणाजनितस्यापि कथं परिसमाप्तिः ? तत्राप्यपरिसमाप्त्यभ्युपगमे "चोदना भतं भवन्तं भविष्यन्तम्"........इत्यादिवचनस्य नरर्थक्यं स्यादिति / यह जो आपने कहा है-[प०२१३ ] यदि ऐसा मानेंगे कि सर्वज्ञ का ज्ञान एक साथ ही सकलपदार्थ का वेदक है तो अन्योन्यविरुद्ध शीत और उष्णादि पदार्थों का एकसाथ प्रतिभास संभव न हो सकेगा और कदाचित संभव होगा तो भी........इत्यादि-वह सब अयूक्त कहा गया है, क्योंकि यह सोचना जरूरी है कि क्या परस्परविरुद्ध पदार्थों का एक काल में अवस्थान ही असंभव है ? या अवस्थान होने पर भी एकज्ञान में उसका प्रतिभास नहीं होता ऐसा आपका कहने का आशय है ? इसमें अगर प्रथम का स्वीकार करें तो वह युक्त नहीं है। कारण, पानी और अग्नि तथा छाया और आतप ये पदार्थ परस्पर विरुद्ध होते हए भी एक काल में स्थानभेद से अवस्थित होते ही हैं। यदि यह अवस्थान असंभव मानेंगे तो उसका अर्थ यह निकलेगा कि परस्पर विरुद्ध होने से वे पदार्थ एक ज्ञान में नहीं भासते ऐसा नहीं किन्तु एक काल में न होने से ही एक सर्वज्ञज्ञान में उन विरुद्धपदार्थों का प्रतिभास नहीं होता है / इस लिये दूसरा विकल्प भी प्रतिहत हो जाता है। तथा विरुद्ध पदार्थों का भी एक ज्ञान में प्रतिभास संवेदन होता है यह अनुभवसिद्ध होने से भी दूसरा विकल्प अयुक्त सिद्ध होता है। [विरुद्धार्थग्राहकता में आपत्ति का अभाव ]. परस्परविरुद्धार्थों का ग्रहण निर्बाध है अत एव आपने जो यह कहा है [ पृ० 213 ]-'विरुद्धार्थग्राहक सर्वज्ञज्ञान प्रतिनियत ही अर्थ का ग्राहक नहीं हो सकेगा....... इत्यादि'- यह निर्मूल हो जाता है क्योंकि एक ही ज्ञान से स्थान भेद से छाया और आतप का असंकीर्ण स्फुट अनुभव होता है अतः प्रतिनियतार्थग्राहिता संवेदनसिद्ध ही है / और भी जो आपने कहा है-[पृ० 214 ] सर्वज्ञ का ज्ञान यदि एक साथ सभी वस्तु को ग्रहण करने वाला होगा तो एक ही क्षण में सभी पदार्थ को ग्रहण कर लेगा तो दूसरे क्षण में वह किंचिद् ज्ञाता ही रहेगा........इत्यादि-वह तो अत्यन्त संबंधविहीन है। क्योंकि यदि द्वितीय क्षण में ज्ञेय पदार्थों का अथवा ज्ञान का अभाव हो जाता तब तो यह हो सकता था किन्तु वैसा कोई संभव ही नहीं है / यदि वैसा मान लिया जायेगा तो बडी आपत्ति यह आयेगी कि दूसरे क्षण सभी पदार्थों का शून्य में परिवर्तन हो जाने से सारे संसार का उच्छेद हो जायेगा। [संवेदन अपरिसमाप्ति दोष का निरसन ] यह जो आपने कहा [ पृ० 214 ]-पदार्थों का प्रवाह अनादि और अनन्त होने से उन सभी का संवेदन मानेंगे तो उस संवेदन का भी अन्त नहीं आयेगा........इत्यादि-वह भी अयुक्त है, शास्त्रार्थों का जब अत्यन्त अभ्यास पड जाता है तब जैसे एक साथ वे सभी एक ही ज्ञान में याद आ जाते हैं उसी Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञसिद्धिः 257 यदपि-'परस्थरागादिसंवेदने सरागः स्यात्' इत्यादि-तदप्यसंगतम् / न हि परस्थरागादिसंवेदनात् रागादिमान् भवति, अन्यथा श्रोत्रियद्विजस्यापि स्वप्नज्ञानेन मद्यपानादिसंवेदनाद् मद्यपानदोषः स्यात् / अथाप्यरसनेन्द्रियजं तज्ज्ञानमिति नाऽयं दोषस्तहि सर्वज्ञज्ञानमपि नेन्द्रियजमिति कथमशुचिरसास्वाददोषस्तत्रासज्येत ? न च रागादिसंवेदनाद्रागीति लोकव्यवहारः, किन्त्वंगनाकामनाघभिलाष: स्वसंविदितस्याशिष्टव्यवहारकारिणः स्वात्मस्वभावस्योत्पत्तेः / न चासौ तत्रेति कथं स रागादिमान् ! ॐ यदपि-अथ शक्तियुक्तत्वेन सर्वपदार्थवेदनम्.......इत्यादि-तदप्यचारु / यथा उपलब्धिलक्षणप्राप्ते संनिहितदेशादावनुपलब्धः 'अपरमत्र नास्ति' इति इदानींतनानामियत्तानिश्चयः तथा सर्वज्ञस्यापि स्वशक्तिपरिच्छेदात , अन्यथा घटादीनामपि क्वचित प्रदेशेऽभावनिश्चयेऽपरप्रकारासंभवात सकलव्यवहारावलोपः स्यात् / 'अथ यावदुपयोगिप्रधानपदार्थजातम्' इत्याद्यपि प्रयुक्तम् , सकलपदार्थज्ञत्वप्रतिपादनात् / प्रकार सर्वज्ञज्ञान भी एक साथ अनादि-अनन्त पदार्थों को ग्रहण कर सकता है. अतः उसका अन्त नहीं आने की कोई आपत्ति नहीं है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो आप भूत-भावि-वर्तमान-सूक्ष्म-स्थूल पदार्थों को ग्रहण करने वाले वैदिक विधिवाक्यजन्य ज्ञान की परिसमाप्ति कहाँ से मानेंगे / अगर कहेंगे कि हम उस को अपरिसमाप्त (यानी अपूर्ण) ही मानते हैं-तब तो "प्रेरणावाक्य भूत-भावि-भविष्य सभी पदार्थों का बोधक है" इत्यादि जो आप का सिद्धान्तवचन है वह अर्थशून्य प्रलाप हो जायगा / [परकीयरागसंवेदन से सरागता नहीं आपन्न होती] यह जो कहा है-अन्य की आत्मा में अन्तर्गत रागादि का संवेदन मानने पर सर्वज्ञ में सरागिता आपन्न होगी-वह तो असंगत है / कोई भी पुरुष अन्यव्यक्ति अन्तर्गत रागादि के संवेदन से सरागी नहीं माना जाता। यदि उसे भी सरागी माना जायेगा तो श्रोत्रिय ब्राह्मण को स्वप्नावस्था में अपने ज्ञान से जब मद्यपान का संवेदन कदाचित् होगा तो उसे मद्यपान का दोष अवश्य लगेगा / यहाँ बचाव करें कि-वह मद्यपानसंवेदन रसनेन्द्रियजन्य न होने से कोई दोष नहीं है, तो सर्वज्ञ का भी परकीयरागादिसंवेदन इन्द्रियजन्य नहीं है तो कैसे आप सर्वज्ञज्ञान में अशुचिरस के आस्वाद की आपत्ति दे रहे हैं ? लोक में रागादि के संवेदन मात्र से 'यह सरागी है' ऐसा व्यवहार नहीं होता, किन्तु स्त्री की कामना आदि अभिलाषा से जो स्वानुभवसिद्ध है तथा जिसके कारण अशिष्ट व्यवहार में प्रवृत्ति हो जाती है ऐसा जो अपना (कुत्सित) आत्मीय स्वभाव है वही सभी पुरुष में 'सरागिता' व्यवहार प्रयोजक है / सर्वज्ञ पुरुष का ऐसा कुत्सित स्वभाव न होने के कारण वह कैसे सरागी होगा ? [ पदार्थ-इयत्ता का अवधारण सुलभ है ] - यह जो कहा है [ पृ० 214 ]-यदि सर्वज्ञ सकलज्ञानशक्ति युक्त होने से सभी पदार्थ को जान लेता है........इत्यादि-वह भी सुन्दर नहीं है / जैसे निकटवर्ती देश आदि में उपलब्धि के योग्य होते हुये भी जो पदार्थ उपलब्ध नहीं होते तब “यहाँ और कुछ नहीं है ( इतना ही है )" ऐसा इयत्तासूचक निश्चय वर्तमान युग के मानवों को भी होता है उसी प्रकार सर्वज्ञ भी अपनी शक्ति का निर्णय कर सकता है। यदि आप इस प्रकार नहीं मानेगे तो घटाभाव आदि सर्वव्यवहार सर्वथा विलुप्त हो जायेंगे / कारण, किसी भी प्रदेश में घटाभाव के निर्णय में एक मात्र योग्यानुपलब्धि ही उपाय है, [ जिसका आप तो अपलाप कर रहे हैं ] और तो कोई उपाय घटाभाव का निर्णायक है नहीं। यह भी जो आपने कहा है [ पृ० 215 ] -सर्वज्ञ अगर जितने उपयुक्त पदार्थसमूह है उतने को जानेगा.... Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :258 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 धार। अत एव-*ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धरि / सत्येव दाह्य न ह्यग्निः क्वचिद् दृष्टो न दाहकः // [ ] इत्यत्र यदुक्तं-"कि सर्वज्ञत्वाद् अथ किचिज्ज्ञत्वाद् इति, नोभयथापि हेतुः / यदि तावत् सर्वज्ञत्वादिति हेत्वर्थः परिकल्प्यते तदा प्रतिज्ञार्थंकदेशो हेतुरसिद्ध एव, कथं हि तदेव साध्यं तदेव हेतुः ? अथ ज्ञत्वमात्रं हेतुस्तदाऽनकान्तिकः, ज्ञत्वमात्रस्य किंचिज्ज्ञत्वेनाऽप्यविरोधात्" इति-तदपि निरस्तम् , 'सामान्येन सर्वज्ञत्वात्' इत्यस्य हेतुत्वात् 'विशेषेण तज्ज्ञत्वस्य साध्यत्वात् / सामान्य-विशेषयोश्च भेदस्य कथंचित् प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् सामान्येन सर्वज्ञत्वस्य चानुमानव्यवहारिणं प्रति साधितत्वात् / एतेन 'सूक्ष्माऽन्तरितदूरार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात्' इत्यत्र प्रयोगे प्रमेयत्वहेतोर्यद् दूषणमुपन्यस्तं पूर्वपक्षवादिना, तदपि निरस्तम् सर्वसूक्ष्मान्तरितपदार्थानां व्याप्तिप्रसाधकेनानुमानप्रमाणेन वैकेन सामान्यतः प्रमेयत्वस्य प्रसाधितत्वात् / यच्च 'प्रधानपदार्थपरिज्ञानं न सकलपदार्थज्ञानमन्तरेण संभवति' इति-तत् सर्वज्ञवचनामृतलवास्वादसंभवो भवतोऽपि कथंचित् संपन्न इति लक्ष्यते / तथाहि तद्वचः-"जे एगं जाणइ"....[प्राचारांग-१-३.४.१२२ ] इत्यादि / इत्यादि-वह भी अयुक्त है, क्योंकि हम सर्वज्ञ को कुछ एक पदार्थसमूह के ज्ञाता नहीं किन्तु सर्वपदार्थों का ज्ञाता मानते हैं। [ सर्वज्ञत्वादि हेत्वर्थपरिकल्पनाओं का निरसन ] सर्वज्ञसाधकयुक्तिप्रदिपादक एक प्राचीन उक्ति है जिसमें कहना यह है कि-जो ज्ञस्वभाव है वह प्रतिबन्धक न होने पर सर्वज्ञेय के विषय में अज्ञ कैसे रहेगा ? अग्नि है और उसका कोई दाह्य पदार्थ भी है तो अग्नि उसका दाह न करे ऐसा कहीं भी नहीं देखा गया ।-इस उक्ति के उपर जो किसी ने चापल्य प्रदर्शित किया है वह भी पूर्वोक्त निवेदन से निरस्त हो जाता है / पूर्वपक्षी उस उक्ति पर यह कहना चाहता है कि-"प्रतिबन्ध के अभाव में सकलज्ञेय के ज्ञाता की सिद्धि में क्या हेतु है-सर्वज्ञत्व अथवा अल्पज्ञता ? दोनों में से एक भी हेतु नहीं हो सकता। जैसे यदि. सर्वज्ञत्व को हेतु करेंगे तो वही प्रतिज्ञात अर्थ का एक देश होने से हेतु ही असिद्ध हो जायेगा / जो साध्य है उसी को हेतु भी किया जाय यह कैसा ? यदि केवल ज्ञत्व को हेतु किया जाय तो किंचिज्ज्ञत्व के साथ उसका विरोध न होने से ज्ञत्व हेतु अनैकान्तिक हो जायेगा।"-यह पूर्वपक्षी का निवेदन इसलिये निरस्त हो जाता है कि साध्य और हेतु में कोई ऐक्य है नहीं-हेतु सामान्यतः सर्वज्ञता'रूप है और साध्य 'विशेषतः सर्वज्ञता' रूप है / यह भी आगे दिखाया जायेगा कि सामान्य और विशेष में कथंचित् भेद भी होता है / हेतु 'सामान्यतः सर्वज्ञत्व' असिद्ध नहीं है क्योंकि 'सर्वमनेकान्तरूपम्' इत्यादि रूप से पहले सामान्यतः सर्वज्ञता को अनुमान से व्यवहार करने वालों के प्रति सिद्ध किया गया है। . [ सर्वज्ञतासाधक प्रमेयत्व हेतु में उपन्यस्त दोष का निरसन ] पूर्वपक्षवादी ने-'सूक्ष्म, व्यवहित एवं दूरस्थ पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष का विषय हैं क्योंकि प्रमेय हैं'-इस [ पृ० 183 ] प्रयोग में जो प्रमेयत्व हेतु के ऊपर तीन विकल्पों से [ पृ० 184 ] दोषारोपण किया है-वह भी उपरोक्त चर्चा से निरस्त हो जाता है / कारण, सकल सूक्ष्मव्यवहित पदार्थ व्याप्ति * "दाह्य ऽग्निर्दाहको न स्यात् कथमप्रतिबन्धकः" // 462 // इति किंचिद्भिन्नोत्तरार्ध: योगबिन्दौ-। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 259 प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः तन्मतानुसारिभिः पूर्वाचार्यैरप्ययमर्थो न्यगादि एको भावस्तत्त्वतो येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः। ___ सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावस्तत्त्वतस्तेन दृष्टः // [ ] अस्यायमर्थः-न शसर्वविदा कश्चिदेकोऽपि पदार्थस्तत्त्वतो दृष्ट शक्यः, एकस्यापि पदाथस्यानु गतव्यावृत्तधर्मद्वारेण साक्षात् पारंपर्येण वा सर्वपदार्थसम्बन्धिस्वभावत्वात् / तत्स्वभावाऽवेदने च तस्याबेदनमेव परमार्थतः, ततस्तज्ज्ञानं स्वप्रतिभासमेव वेत्तीति नार्थो विदितः स्यात् , केवलं तत्राभिमानमात्रमेव लोकस्य। अथ संबन्धिस्वभावता पदार्थस्य स्वरूपमेव न भवति, यत केवलं प्रत्यक्षप्रतीतं संनिहितमात्रं स एव वस्तुस्वभावः, संबंधिता तु तत्र परिकल्पितैव पदार्थान्तरदर्शनसंभवतया / तथा चोक्तम्निष्पत्तेरपराधीनमपि कार्य स्वहेतुना / संबध्यते कल्पनया किमकार्य कथंचन // [प्र. वा. 2.26 ] साधक तर्क संज्ञक प्रमाण के विषयभूत होने से अथवा 'सर्वमनेकान्तात्मकम्' इत्यादि कोई एक अनुमान प्रमाण के विषयभूत होने से सकल पदार्थों में प्रमाणविषयत्वरूप प्रमेयत्व सामान्यतः सिद्ध हो जाता है। तात्पर्य यह है कि जब तर्क प्रमाण से सकल पदार्थ की किसी एक वाच्यत्वादि धर्म के साथ व्याप्ति सिद्ध की जाती है अथवा अनुमान प्रमाण से सकल पदार्थ में किसी एक धर्म का साधन किया जाता है तब सकलपदार्थ उस तर्क प्रमाण या अनुमान प्रमाण के विषय तो बन ही जाते हैं, इस प्रकार उनमें सामान्यतः प्रमाणविषयत्वरूप प्रमेयत्व की सिद्धि निर्बाध हो जाती है। यह जो आपने कहा है [ प० 215 ]-सकल पदार्थों को जाने विना मुख्य-मुख्य पदार्थों का ज्ञान संभव नहीं है-इससे तो ऐसा लगता है कि आप को भी सर्वज्ञ के वचनामृत का आंशिक रसास्वाद किसी प्रकार उपलब्ध हो गया है। तात्पर्य, हमारे इष्ट का ही आप अनुवाद कर बैठे हैं। जैसे कि यह एक सर्वज्ञवचन आचारांगसूत्र में उपलब्ध है-"जो एक को जान लेता है वह सभी को जान लेता है" / अर्थात् परिपूर्ण अंशों से जो एक पदार्थ जानता है वहीं परिपूर्ण अंशो से सर्व पदार्थ 'को भी जान पाता है। [एक भाव के पूर्णदर्शन से सर्वज्ञता ] केवल सर्वज्ञ का वचन ही उक्त विषय में उपलब्ध नहीं है किन्तु सर्वज्ञमतानुयायी पूर्वाचार्यों ने भी इस अर्थ का प्रतिपादन करते हुए कहा है-"जिसने किसी एक ही भाव को तत्त्वतः जान लिया है, वही सकल भाव को सर्वथा सर्वांश में देखने वाला है। जिसने सर्वांश में सकल भाव को देख लिया है वही तत्त्वतः एक भाव को देखने वाला है।"-इसका तात्पर्यार्थ यह है कि जो असर्वज्ञ है वह किसी एक भी पदार्थ को तत्त्वतः देखने में समर्थ नहीं है / कारण, अनुगत और व्यावृत्त धर्म द्वारा साक्षात् अथवा परम्परा से एक पदार्थ भी सर्व पदार्थों के साथ सम्बन्ध रखने के स्वभाव वाला होता है। जब तक इस स्वभाव का संवेदन न हो तब तक परमार्थ से देखा जाय तो उस पदार्थ का संवेदन ही नहीं हुआ है / तो फलित यह हुआ कि उस पदार्थ का ज्ञान केवल अपना प्रतिभासमात्ररूप ही है, वास्तविक सर्वांश में पदार्थ का वेदन उसमें नहीं है। फिर भी लोगों को यह जो अनुभव होता है कि "मैंने इस वस्तु को जान लिया है" वह केवल उनका अभिमान ही है / Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 इति-तदयुक्तम् , एवं हि परिकल्प्यमाने स्वरूपमात्रसंवेदनात अद्वैतमेव प्राप्तम् , ततः सर्वपदार्थाभावे व्यवहाराभावः। अथ व्यवहारोच्छेदभयात् पदार्थसद्भावोऽभ्युपगम्यते तहि सर्वपदार्थसंबन्धिताऽपि साक्षात् पारम्पर्येण च पदार्थस्वभावोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा साक्षात् पारंपर्येण वाऽन्यपदार्थजन्यजनकतालक्षणसंबन्धिताऽनभ्युपगमे तद्वयावृत्त्यनुगतिसंबन्धिताऽनभ्युपगमे च पदार्थस्वरूपस्याप्यभावः / तत्पदार्थपरिज्ञाने च तद्विशेषणभता तत्संबंधिताऽपि ज्ञातव, अन्यथा तस्य तत्परिज्ञानमेव न स्यात् / तत्परिज्ञाने च सकलपदार्थपरिज्ञानमस्मदादीनामनुमानतः, सर्वज्ञस्य य साक्षात् तज्ज्ञानेन सकलपदार्थज्ञानम्। लोकस्तु प्रत्यक्षेण कथंचित् कस्यचित् प्रतिपत्ता। तथाहि-धमस्याप्यग्निजन्यतया प्रतिपत्ती बाष्पादिव्यावृत्तधूमस्वरूपप्रतिपत्तिः, अन्यथा व्यवहाराभावः / तथा नीलादिप्रतिभासस्य बाह्यार्थसंबधितयाऽप्रतिपत्तौ बाह्यार्थाऽप्रतिपत्तिरेव स्यात् / तस्मात् संबंधितयैव पदार्थस्वरूपप्रतिपत्तिः, तच्च संबंधित्वं प्रमेयमनुमानेन प्रतीयतेऽभ्यासदशायामस्मदादिभिः, यत्र क्षयोपशमलक्षणोऽभ्यासस्तत्र तस्य प्रत्यक्षतोऽपि प्रतिपत्तिरिति कथं न प्रधानभूतपदार्थवेदने सकलपदार्थवेदनम् , एकवेदनेऽपि सकलवेदनस्य प्रतिपादितत्वात् ? [पदार्थों में अन्योन्यसंबंधिता परिकल्पित नहीं है ] यदि यह शंका की जाय-सर्वपदार्थसंबन्धितारूप स्वभाव यह पदार्थ का तात्त्विक स्वरूप ही नहीं है, जो केवल संनिहित हो और प्रत्यक्ष से प्रतीत हो वही वस्तु का स्वभाव होता है / संबंधिता तो काल्पनिक है, जब अन्य कोई वस्तु का दर्शन होता है तो उसके साथ संबन्ध की संभावना मात्र से संबंधिता की कल्पना की जाती है। जैसे कि कहा गया है-“कार्य अपनी उत्पत्ति के बाद स्वतन्त्र होता है। फिर भी उस कार्य का अपने कारण के साथ साथ किसी प्रकार कल्पना के द्वारा र दिया जाता है। किन्तु जो अकार्य है उसका किसी भी प्रकार से अन्य के साथ संबंध नहीं होता।" / प्रमाणवात्तिक 2-26 ] इस उक्ति से यह फलित होता है कि कार्य-कारण सम्बन्ध भी काल्पनिक है। यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर ज्ञान का अर्थ के साथ भी सबंधाभाव हा जा पर ज्ञान में केवल अपने स्वरूपमात्र का संवेदन ही शेष रह जायेगा तो विज्ञानाद्वैतवाद का साम्राज्य फल जायेगा और उससे सकल पदार्थ का अभाव सिद्ध होने से उन पदार्थों का सभी व्यवहार विलुप्त हो जायगा / यदि व्यवहार के उच्छेद भय से पदार्थों का अस्तित्व मानेगे तो सभी पदार्थों का साक्षात् अथवा परम्परा से अन्योन्य संबंध भी सिद्ध होने से उसको भी साक्षात् अथवा परम्परा से वस्तुस्वभावरूप ही मानना होगा। यदि आप साक्षात् अथवा परम्परा से अन्यपदार्थों के साथ जन्यजनक भावस्वरूप संबंध का अस्वीकार करेंगे, तथा अन्यपदार्थों के साथ अनुवृत्ति और व्यावृत्ति रूप संबंध का भी अस्वीकार करेंगे तो पदार्थ का उस संबंध को छोड कर अन्य कोई स्वरूप ही न होने से वस्तु में स्वरूप का अभाव ही प्रसक्त होगा। यदि पदार्थ का परिज्ञान मानना ही है तो पदार्थस्वरूप में विशेषणरूप से अन्तर्भूत अन्यपदार्थसंबंधिता का भान मानना ही होगा, उसके विना पदार्थ का ही भान नहीं हो सकेगा। जब सकलपदार्थसंबंधिता का उक्त रीति से भान स्वीकारना है तो अब यह कहा जा सकता है कि हम लोगों को सकलपदार्थों का ज्ञान अनमान से हो सकता है और सर्वज्ञ को साक्षात् सकलपदार्थसंबंधिता का ज्ञान होने से सर्वपदार्थ का ज्ञान सिद्ध होता है। . Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 261 विकल्पाभावेऽपि मन्त्राविष्टकुमारिकादिवचनवत् नित्यसमाहितस्यापि वचनसंभवाद् ‘विकल्पाभावे कथं वचनं'........इत्यादि निरस्तम् / दृश्यते चात्यन्ताभ्यस्ते विषये व्यवहारिणां विकल्पनमन्तरेणापि वचनप्रवृत्तिरिति कथं ततः सर्वज्ञस्य छाद्मस्थिकज्ञानाऽऽसञ्जनं युक्तम् ? यदप्युक्तम् प्रतीतादेरसत्त्वात् कथं तज्ज्ञानेन ग्रहणम् , ग्रहणे वाऽसदर्थनाहित्वात् तज्ज्ञानवान् भ्रान्तः स्याद्' ........इत्यादितदप्ययुक्तत् / यतः किमतीतादेरतीतादिकालसंबन्धित्वेनाऽसत्त्वम् ? उत तज्ज्ञानकालसंबन्धित्वेन ? यद्यतीतादिकालसंबन्धित्वेनेति पक्ष, स न युक्तः, वर्तमानकालसंबन्धित्वेन वर्तमानस्येव तत्कालसंबंधित्वेनातीतादेरपि सत्त्वसंभवात्। ___ अथातीतादेः कालस्याभावात् तत्संबंधिनोऽप्यभावः, तदसत्त्वं च प्रतिपादितं पूर्वपक्षवादिनाऽनवस्थेतरेतराश्रयादिदोषप्रतिपादनेन ।-सत्यम् , प्रतिपादितं न च सम्यक् / तथाहि-नास्माभिरपरातीता . [लौकिक प्रत्यक्ष से कतिपय अर्थ ग्रहण ] सभी लोगों को प्रत्यक्ष से सर्वार्थग्रहण नहीं होता, फिर भी किसी प्रकार कुछ एक अर्थों का ग्रहण होता है / जैसे-'यह बाष्पपटल नहीं है किन्तु धूम ही है' ऐसा धूमस्वरूप का बोध तभी होता है जब अग्नि से उसकी उत्पत्ति का भान हो / ऐसा नहीं मानेंगे तो बाष्पभिन्नरूप से धूमस्वरूप का निर्णय न होने से धूमादि का निःशंक व्यवहार नहीं हो सकेगा। नीलादिविषयक जो प्रतिभास होता है उसमें यदि बाह्यार्थनीलादि के संबंध का ग्रहण नहीं होगा तो बाह्यार्थ की प्रतीति ही विलुप्त हो जायेगी। इससे यह फलित होता है कि पदार्थ के स्वरूप का बोध एक या दूसरे रूप से अन्यसंबंधितागभित ही होता है / यह संबंधितारूप जो प्रमेय है उसकी प्रतीति अभ्यासकाल में हम लोगों को अनुमान से होतो है / जब अभ्यास परिपक्व हो जाता है अर्थात् क्षयोपशम खुल जाता है तब प्रत्यक्ष से भी अन्यसंबंधिता की प्रतीति हो जाती है। इस स्थिति में सर्वज्ञ को जब मुख्य मुख्य कुछ पदार्थों का वेदन मानने जायेंगे तो सर्वपदार्थ का तत्संबंधितया वेदन क्यों नहीं सिद्ध होगा, जब कि पूर्वाचार्य की उक्ति द्वारा एक वस्तु के पूर्ण वेदन में सर्ववस्तु के वेदन का प्रतिपादन हम कर चुके हैं ।[पृ० 259] ... [नित्यसमाधिदशा में भी वचनोच्चारसंभव ] यह जो आपने कहा था [ पृ० 215] समाधिदशा में विकल्प होता नहीं तो विकल्पाभाव में वचन प्रयोग कैसे होगा?....इत्यादि वह भी निरस्त हो जाता है क्योंकि मन्त्र के द्वारा संस्कृत बालिका आदि विकल्प के विरह में भी जैसे बोल देती है, उसी प्रकार नित्य समाधिमग्न रहने पर भी वचन प्रयोग संभव है। यह भी देखा जाता है-जिस विषय में परिपक्व अभ्यास हो जाता है, उस विषय में बोलने के पहले कुछ भी विकल्प न करने पर भी व्यवहारी सज्जनों की वचनप्रवृत्ति हो जाती है / अतः विकल्प के द्वारा सर्वज्ञात्मा में आवृतावस्थाकालीन ज्ञान का प्रसंजन कैसे उचित कहा जाय ? यह जो आपने कहा है [ पृ० 215 ]-"अतीतादि वस्तु (या काल) तो असत् हो गये, अब ज्ञान से उसका ग्रहण कैसे होगा? यदि ग्रहण होगा तो वह ज्ञान, असत्पदार्थग्राही होने से तथाभूतज्ञानवान् आत्मा भ्रान्तिवाला हो जायेगा।"....इत्यादि, वह भी अयुक्त है / कारण यह है कि आप अतीत पदार्थ को क्या अतीतकालसंबन्धि होने से असत् कहते हैं ? या अतीत वस्तु का ज्ञान जिस काल में किया जा रहा है उस (वर्तमान) काल का संबंधी होने से ? यदि अतीतकालसंबंधी होने से अतीत वस्तु असत् होने का पक्ष माना जाय तो वह युक्त नहीं है / कारण, वर्तमान वस्तु जैसे वर्त Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 दिकालसम्बन्धित्वादस्यातीतादित्वमभ्युपगम्यते येनाऽनवस्था स्यात् / नापि पदार्थानामतीतादित्वेन कालस्यातीतादित्वम् येनेतरेतराश्रयदोषः / किन्तु स्वरूपत एवातीतादिसमयस्यातीतादित्वम् / तथाहिअनुभूतवर्तमानत्व: समयोऽतीत इत्युच्यते, अनुभविष्यद्वर्तमानत्वश्वाऽनागतः, तत्सम्बन्धित्वात् पदार्थस्याप्यतीतानागतत्वेऽविरुद्धे / __ अथ यथातीतादेः समयस्य स्वरूपेणैवातीतादित्वं तथा पदार्थानामपि तद्भविष्यतीति व्यर्थस्तदभ्युपगमः-एतच्चात्यन्ताऽसंगतम् , न हकपदार्थधर्मस्तदन्यत्राप्यासञ्जयितुयुक्तः, अन्यथा निम्बादेस्तिक्तता गुडादावप्यासञ्जनीया स्यात् / न च साऽत्रैव प्रत्यक्ष सिद्धा इत्यन्यत्रासजनेतद्विरोध इत्युत्तरम्, प्रकृतेऽप्यस्योत्तरस्य समानत्वात / भवतु पदार्थधर्म एवातीतादित्वं तथापि नास्माकमभ्युपगमक्षतिः, विशिष्टपदार्थपरिणामस्यैवातीतादिकालत्वेनेष्टः, "परिणाम-वर्तना-दिवि-(?विधि-पराऽपरत्व [प्रशमरति-२१८ ] इत्याद्यागमात् / तथाहि-स्मरणविषयत्वं पदार्थस्यातीतत्वमुच्यते, अनुभवविषयत्वं वर्तमानत्वम् , स्थिरावस्थादर्शनलिंगबलोत्पद्यमान-कालान्तरस्थाय्ययं पदार्थः-इत्यनुमानविषयत्वं धर्मोऽनागतकालत्वमिति / मानकालसंबन्धितया सत् होती है-असत् नहीं होती, उसी प्रकार अतीत वस्तु अतीतकालसंबंधीतया सत् ही होने का संभव है, असत् क्यों? [ अतीतकाल का असत्त्व असिद्ध है / यदि यह कहा जाय-"अतीतादि काल वर्तमान में न होने से अतीतकालसंबंधी वस्तु भी वर्तमान में नहीं है / अतीतकाल का असत्त्व तो पूर्वपक्षवादी ने अनवस्था और इतरेतराश्रय दोष के प्रतिपादन [पृ. 217 ] द्वारा पहले ही घोषित किया हैं।"-तो यह ठीक है कि, पूर्वपक्षी ने अतीतकाल के असत्त्व की घोषणा की है किंतु वह संगत नहीं है / जैसे-हम लोग अन्य अन्य अतीतकाल के संबन्ध से काल को अतीत नहीं मानते हैं जिससे अनवस्था को अवकाश मीले, तथा पदार्थों के अतीतत्वादि धर्म के आधार पर काल को अतीत नहीं मानते हैं जिससे अन्योन्याश्रय दोष अवसरप्राप्त हो सके। अतीतादि समय को हम अपने स्वरूप से ही अतीत मानते हैं। जैसे-जिस समय को वर्तमानता पर्याय प्राप्त हो चुका है वह समय अतीत कहलाता है। जिस समय को वर्तमानता पर्याय प्राप्त नहीं हआ वह समय अनागत कहलाएगा। स्वरूपतः अतीत और अनागत काल के सम्बन्ध से अन्य पदार्थ को अतीत एवं अनागत मानने में कोई विरोध नहीं है। [ पदार्थों में कालवत् स्वरूपतः अतीतत्वादि का असंभव ] शंका-अतीतादि समय में यदि स्वरूपतः अतीतत्वादि मानते हैं तो पदार्थों को भी स्वरूपतः अतीतादि मान लेने से अतीतकालादि की कल्पना व्यर्थ होगी। . उत्तर-यह शंका अत्यन्त असंगत है, जो एकपदार्थ का प्रसिद्ध धर्म है उस का दूसरे पदार्थ में प्रसंजन करना उचित नहीं है / नहीं तो नीम आदि की कटुता का गुडादि द्रव्य में भी प्रसंजन किया जा सकेगा / यह उत्तर भी ठीक नहीं है कि "कटुता धर्म नीम में प्रत्यक्षसिद्ध होने से गुडादि में उसका प्रसंजन अशक्य है" क्यों कि ऐसा उत्तर कालपक्ष में भी समान ही है / काल में अतीतत्वादि धर्म सर्वजनप्रसिद्ध है अतः अन्यत्र उस का प्रसंजन नहीं हो सकता। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 263 तेन यदुच्यते 'यदि स्वत एव कालस्यातीतादित्वं, पदार्थस्यापि तत् स्वत एव स्यात्' इति परेण, तत् सिद्धं साधितम् / तदतीतादिकालस्य सत्त्वान्न तत्कालसंबन्धित्वेनातीतादेः पदार्थस्याऽसत्त्वम् , वत्तमानकालसंबन्धित्वेन त्वतीतादेरसत्त्वप्रतिपादनेऽभिमतमेव प्रतिपादितं भवति, न ह्यतीतकालसंबन्धित्वसत्त्वमेवैतज्ज्ञानकालसंबंधित्वमस्माभिरभ्युपगम्यते। न चैतत्कालसंबन्धित्वेनाऽसत्त्वे स्वकालसंबंधित्वेनाऽप्यतीतादेरसत्त्वं भवति, अन्यथैतत्कालसंबन्धित्वस्याप्यतीतादिकालसंबन्धित्वेनाऽसत्त्वात सर्वाभावः स्यादिति सकलव्यवहारोच्छेदः / __अथापि स्यात्-भवत्वतीतादेः सत्त्वम् तथापि सर्वज्ञज्ञाने न तस्य प्रतिभासः. तज्ज्ञानकाले तस्याऽसंनिहितत्वात् , संनिधाने वा तज्ज्ञानावभासिन इव वर्तमानकालसम्बन्धिनोऽतीतादेरपि वर्तमानकालसम्बन्धित्वप्राप्तेः / न हि वर्तमानस्यापि संनिहितत्वेन तत्कालज्ञानप्रतिभासित्वं मुक्त्वाऽन्यद् वत्तेमानकालसम्बन्धित्वम् , एवमतीतादेस्तज्ज्ञानावभासित्वे वर्तमानत्वमेवेति वर्तमानमात्रपदार्थज्ञानवानस्मदादिवन्न सर्वज्ञः स्यात / कि च, अतीतादेस्तज्ज्ञानकालेऽसंनिहितत्वेन तज्ज्ञानेऽप्रतिभासः, प्रतिभासे वा स्वज्ञानसबंधित्वेन तस्य ग्रहणात् तज्ज्ञानस्य विपरीतख्यातिरूपताप्रसक्तिः। दूसरी बात यह है कि यदि अतीतत्वादि को पदार्थ धर्म ही मान लिया जाय तो हमारे जैन मत में कोई हानि नहीं है क्योंकि हमारा इष्ट यही है कि अतीतादि काल यह एक प्रकार से पदार्थों का विशिष्ट परिणामरूप ही है / हमारे प्रशमरति शास्त्र में कहा भी है-"परिणाम, वर्तना, विधि और परापरत्व ये सब वस्तु के धर्मरूप है जिस को काल कहा जाता है" यह इस प्रकार-पदार्थ में 'स्मृतिविषयता' यही अतीतत्व है, 'अनुभवविषयता' यह वर्तमानत्व है, तथा पदार्थ में जो स्थिर अवस्था का दर्शन होता है उस को लिंग बना कर 'यह पदार्थ कालान्तरस्थायी है' इस प्रकार जो अनुमान उत्पन्न किया जाता है, ऐसे अनुमान की विषयतारूप धर्म ही पदार्थगत अनागतकालता है / [पदार्थों में स्वतः अतीत्वादि का भी संभव ] परवादी ने यह जो कहा है-काल का अतीतत्वादि यदि स्वत. हो सकता है तो पदार्थों का भी अतीतत्वादि स्वतः हो सकता है [ पृ० 218 ]-यह तो जो हमारे मत में चिर सिद्ध है उसी का साधन है। निष्कर्ष-अतीतादि काल का सत्त्व अबाधित होने से अतीतादिकालसंबंधितया अतीतादि पदार्थों का असत्त्व भी निधि है। यदि अतीतादि वस्तु को वर्तमानकालसंबंधितया असत कहा जाय तो यह भी हमारे इष्ट का ही प्रतिपादन है / अतः पूर्वोक्त दूसरा विकल्प इष्ट सिद्धि से ही निराकृत हो जाता है। क्योंकि अतीतकालसंबन्धित्वरूप से सत्त्व और उसका ज्ञान जिस काल में हो रहा है तत्कालसंबन्धित्व, इन दोनों को हम एकरूप नहीं मानते हैं। यहाँ अवश्य आप को ध्यान देना चाहिये कि वर्तमानकालसंबंधितया जो असत् है वह स्वकाल (अतीतादि) संबंधितया भी असत् नहीं हो जाता / अन्यथा, वर्तमानकालसंबंधिता भी अतीतादिकालसंबंधितया असत् हो जायेगी तो वर्तमानकालसंबंधी सकल पदार्थ भी असत् हो जाने से सभी प्रकार के सत् व्यवहार का उच्छेद ही हो जायेगा। इस से यह भी फलित हो जाता है कि अतीतादिविषयक सर्वज्ञज्ञान असत् नहीं है / [ सर्वज्ञज्ञान में अतीतादि का प्रतिभास अशक्य-शंका ] अगर आप शंका करेंअतीतादि काल की सत्ता किसी प्रकार सिद्ध भले हो फिर भी सर्वज्ञ के ज्ञान में उसका प्रति Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 एतदसंबद्धम्-यतो यथाऽस्मदादीनामसंनिहितकालोऽप्यर्थः सत्यस्वप्नज्ञाने प्रतिभाति, न चाऽसंनिहितस्य तस्यातीतादिकालसंबन्धिनो वर्तमानकालसम्बन्धित्वम् , नाऽपि स्वकालसंबन्धित्वेन सत्यस्वप्नज्ञाने तस्य प्रतिभासनात् तद्ग्राहिणो ज्ञानस्य विपरीतख्यातित्वम् / यत्र ह्यन्यदेशकालोऽर्थोऽन्यदेशकालसंबंधित्वेन प्रतिभाति सा विपरीतख्यातिः। प्रत्र त्वतीतादिकालसंबन्धी अतीतादिकालसंबंधित्वेनैव प्रतिभातीति न तत्प्रतिभासिनोऽर्थस्य तत्कालसंबन्धित्वेन वर्तमानत्वम् , नापि तद्ग्राहिणो विज्ञानस्य . विपरीतख्यातित्वम्-तथा सर्वज्ञज्ञानेऽपि यदा यदातीतादिकालोऽर्थोऽतीतादिकालसंबन्धित्वेन प्रतिभाति तदा कथं तस्यार्थस्य वर्तमानकालसंबन्धित्वम् ? कथं वा तज्ज्ञानस्य विपरीतख्यातित्वमिति ? - यथा वा विशिष्टमन्त्रसंस्कृतचक्षुषामंगुष्ठादिनिरीक्षणेनान्यदेशा अपि चौरादयो गृह्यमाणा न तद्देशा भवन्ति, नापि तज्ज्ञानं तद्देशादिसंबन्धित्वमनुभवति, तथा सर्वविद्विज्ञानमप्यसंनिहितकालं यथार्थभास मानना अनुचित है / कारण, ज्ञान काल में अतीतादि वस्तु संनिहित नहीं है / अथवा यदि उसे संनिहित मानेंगे तो अन्य पदार्थ जैसे तत्कालज्ञानावभासि होने से वर्तमानकालसंबंधी होते हैं उसी प्रकार अतीतादि पदार्थ भी तत्कालज्ञानावभासी मानने पर वर्तमानकाल के संबंधी भी मानने होंगे जो सिद्धान्तविरुद्ध है। वर्तमान पदार्थों में जो वर्तमानकालसंबंधिता मानी जातो है उसका अर्थ यही है कि वे पदार्थ संनिहित होने के कारण वर्तमानकालीन ज्ञान में अवभासी हैं, इससे अन्य उसका कोई अर्थ संगत नहीं है। यदि अतीतादि पदार्थों को भी वर्तमानकालीनज्ञानावभासी मानेंगे तो उन्हें वर्तमान ही मानना होगा। इस का सार यह निकलेगा कि सर्वज्ञ केवल वर्तमानकालोनपदार्थों को ही जानता है, फिर तो वह हम लोगों के तुल्य हो जाने से सर्वज्ञ ही नहीं रहेगा। दूसरा यह भी कह सकते हैं किअतीतादि के ज्ञान काल में अतीत पदार्थ संनिहित न हो सकने के कारण उस ज्ञान में उसका प्रतिभास ही शक्य नहों, अगर शक्य हो तो उस ज्ञान में अन्यथाख्याति यानो भ्रमत्व दोष की आपत्ति होगी, कारण, स्वज्ञान यानी वर्तमानकालज्ञान के संबंधिरूप में अतीतादि का ग्रहण हो रहा है / तात्पर्य यह है कि अतीतादि का ग्रहण अतीतकालसंबंधिरूप में होना चाहिए उसके बजाय वर्तमानकालसंबंधिरूप में जब माना जाता है तो वह भ्रमज्ञान ही कहा जायेगा। [अतीतादि काल के प्रतिभास की उपपत्ति ] . उपरोक्त शंका संबंधशून्य है / कारण, हम लोगों को जो अर्थ इस काल में असंनिहित है उसका भी सच्चे स्वप्नज्ञान में प्रतिभास होता है / वह अर्थ तो अनागतादिकालसंबंधि होने के कारण असंनिहित होने से वर्तमान कालसंबंधी किसी भी प्रकार नहीं होता, तथा स्वकीय अनागतादि काल के सम्बन्धीरूप से ही वह सच्चे स्वप्नज्ञान में भासित होता है अतः उस अनागतार्थग्राही ज्ञान विपरीतख्याति (=भ्रम) रूप भी नहीं होता। भ्रमरूप ज्ञान वहाँ होता है जहाँ किसी एक देश-कालवर्ती अर्थ का अन्यदेश कालसंबन्धीरूप से प्रतिभास होता है / यहाँ स्वप्न ज्ञान में तो जो अतीतादिकालसंबन्धि अर्थ है उसका अतीतादिकालसंबन्धिरूप से ही ग्रहण होता है, अतः इस ज्ञान में प्रतिभासमान अर्थ का ज्ञानकालसंबंधिता के द्वारा वर्तमानत्व आपन्न नहीं होता और इसी लिये अतीतार्थगाही सच्चा स्वप्नज्ञान विपरीतख्यातिरूप भी नहीं हो सकता। ठीक उसी प्रकार सर्वज्ञज्ञान में भी जब अतीतादिकालसंबन्धी अर्थ अतीतादिकालसंबंधितया भासित होता है तो उस अर्थ में किस प्रकार वर्तमानकालसंबंधिता का आपादन किया जा सकता है ? और उस ज्ञान को विपरीतख्यातिरूप भी कैसे कहा जाय? Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 265 मवभासयति स्वात्मना तत्कालसंबन्धित्वमननुभवदपि तदा को विरोधः ? कथं वा तस्यातीतादेरर्थस्य तज्ज्ञानकालत्वमिति ? न च सत्यस्वप्नज्ञानेऽप्यतीताद्यर्थप्रतिभासे समानमेव दूषणमिति न तदृष्टान्तद्वारेण सर्वज्ञज्ञानमतीताद्यर्थग्राहक व्यवस्थापयितयक्तम इति वक्तयक्तम , प्रविसंवादवतोऽपि विसंवादविषये विप्रतिपत्त्यभ्युपगमे स्वसंवेदनमात्रेऽपि विप्रतिपत्तिसद्भावाद् अतिसूक्ष्मेक्षिकया तस्यापि तत्स्वरूपत्वाऽसंभवात् सर्वशून्यताप्रसंगात , तनिषेधस्य च प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् / अतो न युक्तमुक्तम् 'अथ प्रतिपाद्यापेक्षया' इत्यादि......'न भ्रान्तज्ञानवान् सर्वज्ञः कल्पयितुयुक्तः' इति पर्यन्तम् / ____ यदप्युक्तम्-'भवतु वा सर्वज्ञस्तथाप्यसौ तत्कालेऽप्यसर्वज्ञातुन शक्यते'....इत्यादि, तदप्यसंगतम्-यतो यथा सकलशास्त्रार्थाऽपरिज्ञानेऽपि व्यवहारिणा 'सकलशास्त्रज्ञः' इति कश्चित् पुरुषो निश्चीयते तथा सकलपदार्थाऽपरिज्ञानेऽपि यदि केनचित् कश्चित् सर्वज्ञत्वेन निश्चीयते तदा को विरोधः ? युक्त चैतद् , अन्यथा युष्माभिरपि सकलवेदार्थाऽपरिज्ञाने कथं जैमिनिरन्यो वा वेदार्थज्ञत्वेन निश्चीयते ? तदनिश्चये च कथं तद्व्याख्यातार्थानुसरणादग्निहोत्रादावनुष्ठाने प्रवृत्तिः ? इति यत्किञ्चिदेतत् "सर्वज्ञोऽयमिति ह्य तत्" इत्यादि। [ सर्वज्ञज्ञान में अतीतकालसंबंधिता की अनापत्ति ] सर्वज्ञज्ञान में असंनिहित अर्थ के प्रतिभास की निर्दोषता में अन्य भी एक उदाहरण है-जैसे कितने ही मन्त्रवेत्ता मन्त्र से अपने नेत्र का परिष्कार करके अपने हस्त के अंगठे के नखों अन्यदेशगत चौरादि को साक्षात् देख लेते हैं, वे चौरादि उस मन्त्रवेत्ता के देश में संनिहित नहीं होते, उस वक्त मन्त्रवेत्ता का ज्ञान भी चौरादि देश संबन्धी नहीं होता फिर भी चौरादि का ज्ञान होता है / ठीक उसी प्रकार, सर्वज्ञ का ज्ञान स्वयं अतीतादि अर्थकाल का संबंधी न होने पर भी असंनिहित अतीतादि अर्थ का अवभासक हो सकता है-इस में कौनसा विरोध है ? एवं उस अतीतादि अर्थ का अन्य काल में ज्ञान में अवभास होने मात्र से अतीतादि अर्थ ज्ञानकालसंबंन्धी भी कैसे हो जायेगा? यह कहना उचित नहीं है कि-"सत्यस्वप्न ज्ञान में भो हम अतीत अर्थ का प्रतिभास ठीक नहीं मानते, अतः वहाँ भी अतीत अर्थ के प्रतिभास में वे सब दूषण तुल्य हैं जो सर्वज्ञज्ञान में हमने दिया है / अतः सत्यस्वप्नज्ञान के दृष्टान्त से सर्वज्ञज्ञान में अतीतार्थावभासकत्व का समर्थन अनुचित है"-यह कहना इसलिये अनुचित है कि जिस ज्ञान में कोई विसंवाद ही नहीं है उस ज्ञान में विसंवाद का आरोप करके उस विषय में विवाद खडा करने पर अपने सभी संवेदनों में वैसे विवाद की संभावना हो सकेगी। फिर उसका अति सूक्ष्म आलोचन करने द्वारा कहा जा सकेगा कि हम लोगों के भी सभी संवेदन में तत्तद् अर्थग्रहण स्वरूपत्व का संभव नहीं है-परिणाम यह आयेगा कि किसी भी संवेदन से किसी भी अर्थ की निर्विवाद सिद्धि असंभव हो जाने से किसी भी पदार्थ की निर्बाध सत्ता सिद्ध न होने पर शून्यवाद घुस जायेगा / शून्यवाद का स्वीकार नितान्त अनुचित है यह हम आगे दिखाने वाले हैं। इस पूरे कथन का आशय यह है कि आपने जो अतीतादि के संबंध में पहले ऐसा कहा था "प्रतिपाद्य की अपेक्षा अतीतत्वादि का अभाव मानना ठीक नहीं" [ प०२१६ ]-........इत्यादि से लेकर "भ्रान्तज्ञान वाले सर्वज्ञ की कल्पना ठीक नहीं है" इत्यादि [ पृ० 218 ]....वह सब व्यर्थ प्रलाप है। [ सर्वज्ञरूप में सर्वज्ञ की प्रतीति अशक्य नहीं है] यह जो आपने कहा था [धृ० 218 पं० ६]-"सर्वज्ञ का अस्तित्व भले हो, किन्तु “यह सर्वज्ञ है" Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तदेवं सर्वज्ञसद्भावग्राहकस्य प्रमाणस्य जत्व-प्रमेयत्व-वचनविशेषत्वादेर्दशितत्वात् तदभावप्रसाधकस्य च निरस्तत्वात् “ये बाधकप्रमाणगोचरतामापन्नास्ते 'असत्' इति व्यवहर्तव्याः" इति प्रयोगे हेतोरसिद्धत्वात् , ये सुनिश्चिताऽसंभवबाधकप्रमाणत्वे सति सदुपलम्भकप्रमाणगोचरास्ते 'सत्' इति व्यवहर्त्तव्याः, यथोभयवाद्यप्रतिपत्तिविषया घटादयः, तथाभूतश्च सर्वविद् इति भवत्यतः प्रमाणात् सर्वज्ञव्यवहारप्रवृत्तिरिति।। अथापि स्यात्-स्वविषयाविसंवादिवचनविशेषस्य तद्विषयाविसंवादिज्ञानपूर्वकत्वमात्रमेव भवता प्रसाधितम. न चैतावतानन्तार्थसाक्षात्कारिज्ञानवान सर्वज्ञः सिद्धि मासादयति. सकलसक्ष्मा सार्थसाक्षात्कारिज्ञानविशेषपूर्वकत्वे हि वचनविशेषस्य सिद्ध तज्ज्ञानवतः सर्वज्ञत्वसिद्धिः स्यात् / न च तथाभूतज्ञानपूर्वकत्वं वचनविशेषस्य सिद्धम् , अनुमानादिज्ञानादपि स्वविषयाऽविसंवादिवचनविशेषस्य संभवात् , न च तथाभूतज्ञानवान् सर्वज्ञो भवद्भिरभ्युपगम्यत इत्येतद् हृदि कृत्वाऽऽह सूरिः 'कुसमयविसासणं' इति / सम्यक् प्रमाणान्तराविसंवादित्वेन ईयन्ते परिच्छिन्ते-इति समया:-नष्ट-मुष्टि-चिन्तालाभाऽलाभ-सुखाऽसुख-जीवित-मरण-ग्रहोपराग-मन्त्रौषधशक्त्यादयः पदार्थाः, तेषां विविधम् अन्य. पदार्थकारणत्वेन कार्यत्वेन चानेकप्रकारं शासनं प्रतिपादकम् यतः शासनम् कु:=पृथ्वी तस्या इव / ऐसा तो उस काल में भी असर्वज्ञजन नहीं पीछान सकते ।"....इत्यादि, वह भी असंगत है। कारण, व्यवहारी पुरुष स्वयं सकलशास्त्रार्थ का परिज्ञाता न होने पर भी किसी पंडितपूरुष को "यह सकल शास्त्र का ज्ञाता है" इस रूप में पिछानता ही है / तो सर्व पदार्थ का ज्ञान न होने पर भी यदि कोई किसी के लिये 'यह सर्वज्ञ है' इस प्रकार निश्चय कर सकता है इसमें विरोध क्या है ? विरोध की बात तो दूर, बल्कि यही युक्तियुक्त है। अन्यथा आप मीमांसकों को यह समस्या होगी कि जो स्वयं सकल वेदार्थ का ज्ञाता नहीं तो जैमिनि ऋषि या अन्य किसी को 'यह सर्ववेदार्थज्ञाता है' इसरूप में आप कैसे निश्चय कर सकोगे ? और इस निश्चय के अभाव में, जैमिनि आदि के व्याख्या किये हुये वेदार्थ का अनुसरण करने द्वारा अग्निहोत्रादि अनुष्ठान में कैसे प्रवृत्ति करोगे? इसलिये “सर्वज्ञोऽयमिति ह्य तत्" इत्यादि श्लोकवात्तिक [ 2-134/135 ] श्लोक [पृ० 218] को प्रस्तुत कर आपने जो कुछ कहा है वह सब महत्त्वशून्य है। [ सर्वज्ञव्यवहारप्रवृत्ति प्रमाणभूत है ]. उपरोक्त संपूर्ण चर्चा के द्वारा ज्ञत्व, प्रमेयत्व और वचनविशेषत्व हेतु प्रयुक्त अनुमान प्रमाण सर्वज्ञ सद्भाव साधक यह दिखाया है, तदुपरांत सर्वज्ञअभाव के जो साधक प्रमाण पूर्वपक्षी ने उपन्यस्त किये थे वह भी सब निरस्त कर दिया है, तथा यह जो अनुमान प्रयोग किया था-'बोधकप्रमाणगोचरता को प्राप्त जो पदार्थ हैं उनका 'असत्' रूप से व्यवहार करना'-इस प्रयोग में बाधकप्रमाणगोचरत्व हेतु असिद्ध है यह भी दिखाया है। अतः हम जो यह प्रमाण उपस्थित कर रहे हैं"जिन के बारे में कोई सुनिश्चित बाधक प्रमाण का संभव नहीं है और जो सत् पदार्थ साधक प्रमाण के विषय विषय हैं उनका 'सत्' रूप से व्यवहार होना चाहिये, जैसे कि वादि-प्रतिवादी दोनों सम्मत पदार्थ घटादि / सर्वज्ञ भी 'सत्' पदार्थ साधक प्रमाण का विषय है और उसकी सत्ता में कोइ सुनिश्चित बाधक प्रमाण का संभव नहीं है"-इस अनुमान प्रमाण से सर्वज्ञ के व्यवहार की प्रवृत्ति निधि सम्पन्न होती है। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 267 अयमभिप्रायः-ज्ञत्वप्रमेयत्वादेरनेकप्रकारस्य प्रतिपादितन्यायेन सर्वज्ञसत्त्वप्रतिपादकस्य हेतोः सद्भावेऽपि तत्कृतत्वेन शासनप्रामाण्यप्रतिपादनार्थं सर्वज्ञोऽभ्युपगम्यते, तस्य चान्यतो हेतोः प्रतिपादनेऽपि तदागमप्रणेतृत्वं हेत्वन्तरात् पुनः प्रतिपादनीयं स्यादिति हेत्वन्तरमुत्सृज्य प्रतिपादनगौरवपरिहारार्थ वचनविशेषलक्षण एव हेतुस्तत्सद्भावावेदक उपन्यसनीयः, स चानेन गाथासूत्रावयवेन सूचितः / अत एव संस्कृत्य हेतुः कर्तव्यः / तथाहि-यो यद्विषयाऽविसंवालिंगानुपदेशानन्वयव्यतिरेकपूर्वको वचनविशेषः स तत्साक्षात्कारिज्ञानविशेषप्रभवः, यथाऽस्मदादिप्रवत्तितः पृथ्वीकाठिन्यादिविषयस्तथाभूतो वचन विशेषः, नष्ट-मुष्टि विशेषादिविषयाविसंवालिंगानुपदेशानन्वयव्यतिरेकपूर्वकवचनविशेषश्चायं शासनलक्षणोऽर्थ इति। [ 'कुसमयविसासणं' पद की सार्थकता ] अब व्याख्याकार आद्य मूल श्लोकान्तर्गत 'कुसमयविसासणं' इस पद की सार्थकता दिखाने के लिये भूमिका में एक शंका उपस्थित करते हैं यदि यह शंका की जाय-"जिस विषय में अविसंवादिवचन विशेष की उपलब्धि होती है केवल उन वचन के हेतु रूप में उस विषय के अविसंवादिज्ञानवत्ता की ही आप सिद्धि कर सके हैं, इतने मात्र से अनंतार्थ के साक्षात्कारि ज्ञान वाला सर्वज्ञ सिद्ध नहीं हो सकता / ऐसे सर्वज्ञ की सिद्धि तो तभी शक्य है जब कोई एक वचनविशेष में समस्त सूक्ष्मादि पदार्थसमूहसाक्षात्कारिज्ञान की कार्यता सिद्ध की जाय / कुछ एक विषय के प्रतिपादक अविसंवादि वचन विशेष तो अनुमानादि ज्ञान से भी जनित हो सकता है किन्तु वैसे अनुमानादि ज्ञान वाले पुरुष को आप सर्वज्ञ नहीं मानते हैं।" इस शंका को मनोगत रख कर मूल ग्रन्थकार ने शासन के लिये कुसमयविसासण ऐसा विशेषणप्रयोग किया है / समय शब्द में 'सम्' उपसर्ग का अर्थ है सम्यक् यानी अन्य प्रमाणों के साथ विसंवाद न हो इस रीति से, ई-धातू का अर्थ है परिच्छेद यानी निर्णय का संपादन / सम् और ई धातु से कर्म अर्थ 'समय' शब्द निष्पन्न होने से उसका अर्थ यह हुआ कि जो इस प्रकार निर्णीत किये जाय जिससे अन्य प्रमाणों के साथ विसंवाद न हो ऐसे पदार्थ / ये पदार्थ अनेक प्रकार के हैं जैसे नष्ट वस्तु, मुष्टिगत वस्तु, मनोगत चिंता, लाभ-अलाभ, सुख-दुख, जीवन-मरण, ग्रहों का उपराग, मन्त्रशक्ति औषधशक्ति इत्यादि / 'विसासण' शब्द में वि-उपसर्ग का अर्थ है विविध यानी अन्य पदार्थ के कारण रूप और कार्यरूप से इत्यादि अनेक प्रकार से, शासन यानी उन पदार्थों का उपरोक्त प्रकार से प्रतिपादन करने वाला, अतएव वह शासन कहा जाता है-जैसे कि कु यानी पृथ्वी का प्रतिपादक वचन विशेष / इस विशेषण का विशेष तात्पर्य व्याख्याकार ही दिखा रहे हैं [ वचनविशेषरूप हेतु के उपन्यास का प्रयोजन ] 'कुसमयविसासण' इसका विशेष अभिप्राय यह है पूर्व चर्चा में जो युक्तियाँ दिखाई गयी हैं उनके अनुसार सर्वज्ञ सत्ता का प्रतिपादक यद्यपि ज्ञत्व-प्रमेयत्व आदि अनेक प्रकार के हेतु विद्यमान है, तथापि यहाँ वचनविशेष रूप हेतु का ही सर्वज्ञसत्ता साधक रूप में उपन्यास करना उचित है / कारण, जैन प्रवचन स्वरूप आगम का प्रामाण्य वह सर्वज्ञप्रणीत होने के कारण ही संभव है अत एव सर्वज्ञसत्ता स्वीकार की जाती है। अब यदि वचनविशेषरूप हेतु को छोड कर अन्य ज्ञत्व आदि हेतु से उसकी सिद्धि की जायेगी तो 'सर्वज्ञ यह प्रस्तुत आगम का प्रणेता है' इसकी सिद्धि के लिये अन्य कोई हेतु ढूढना पड़ेगा। इस प्रकार दोनों के अलग अलग प्रतिपादन में गौरव होगा, इस दोष का Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न चात्राऽविसंवादित्वं वचनविशेषत्वलक्षणस्य हेतोविशेषणमसिद्धम् नष्ट-मुष्टयादीनां वचनविशेषप्रतिपादितानां प्रमाणान्तरतस्तथैवोपलब्धेविसंवादसिद्धेः / योऽपि क्वचिद् वचनविशेषस्य तत्र विसंवादो भवता परिकल्प्यते सोऽपि तदर्थस्य सम्यगपरिज्ञानात सामग्रीवैकल्यात , न पुनर्वचनविशेषस्याऽसत्यार्थत्वात् / न च सामग्रीवैकल्यादेकत्राऽसत्यार्थत्वे सर्वत्र तथात्वं परिकल्पयितुयुक्तम् . अन्यथा प्रत्यक्षस्यापि द्विचन्द्रादिविषयस्य सामग्रीवैकल्येनोपजायमानस्याऽसत्यत्वसंभवात् समग्रसामग्रीप्रभवस्याप्यसत्यत्वं स्यात्। प्रथाऽविकलसामग्रीप्रभवं प्रत्यक्षं विकलसामग्रीप्रभवात् तस्माद् विलक्षणमिति नायं दोषः, तदत्रापि समानम् / तथाहि-सम्यगज्ञाततदर्थाद् वचनाद् यद् नष्ट-मुष्टयादिविषयं विसंवादिज्ञानपरिहार करने के लिये अन्य हेतु को छोड कर वचनविशेषरूप हेतु को पकडने से एक साथ दोनों की, सर्वज्ञ की और तत्प्रणीत होने के कारण वचनविशेषस्वरूप आगम के प्रामाण्य की सिद्धि एक साथ हो जाती है / अतः इस बात की सूचना सूत्रकार ने 'कुसमयविसासण' इस गाथावयव के द्वारा प्रदत्त की है / कुसमयविसासण का अर्थ है पृथ्वी की भाँति पदार्थों का शासक यानी प्रतिपादक वचन समूह / इससे सर्वज्ञसिद्धि में यह परिष्कृत हेतु फलित किया जा सकता है किसी एक विषय का अविसंवादी ऐसा वचनविशेष जो न तो लिंगज्ञानप्रयुक्त है, न उपदेशश्रवणप्रयुक्त है और न उसके साथ किसी पदार्थ के अन्वय-व्यतिरेक दर्शन से प्रयुक्त है-ऐसा जो वचनविशेष होता है [ यह तो हेतु निर्देश हुआ, ] वह उस विषय के साक्षात्कारी ज्ञानविशेष से उच्चारित होता है। [ यह साध्य निर्देश हुआ ] जैसे, उदा० हम लोग कहते हैं 'यह पृथ्वी कठीन है' इत्यादि, तो यह वचन पृथ्वी के काठिन्य का साक्षात्कार करके ही हम बोलते हैं न कि काठिन्य के किसी लिंग को देखकर, अथवा किसी के उपदेश को सुनकर या उसके साथ अन्वय-व्यतिरेक वाले किसी अर्थ के दर्शन से / प्रस्तुत जो शासन यानी द्वादशांगी प्रवचन है वह भी नष्ट और मुष्टिगत इत्यादि अनेकविध अर्थ का प्रतिपादक है किन्तु वह वचनविशेषरूप प्रवचन किसी लिंग दर्शन से, अथवा किसी के उपदेश सुनकर, या उसके साथ अन्वयव्यतिरेक वाले किसी अन्य अर्थ को देखकर प्रयुक्त नहीं है। अतः वह तत्तद् विषय के साक्षात्कारिज्ञान से प्रयुक्त है यह सिद्ध होता है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि सर्वज्ञ प्रतिपादित होने से यह आगम प्रमाणभूत है। [ 'अविसंवादि' विशेषण की सार्थकता ] हमने जो वचनविशेष को 'अविसंवादी' ऐसा विशेषण लगाया है वह असिद्ध नहीं है / कारण, हमारे आगम में जो नष्ट और मुष्टिगत आदि पदार्थों का प्रतिपादन है वे पदार्थ अन्य प्रमाण से भी उसी प्रकार उपलब्ध होते हैं अत: अविसंवाद सिद्ध होता है। आपने जो कहीं कहीं हमारे आगम में विसंवाद होने की कल्पना की है वह भी उसके सही अर्थ को समझने की सामग्री उपलब्ध न होने के कारण उस वचन के वास्तविक अर्थज्ञान के अभावमूलक है, वचनविशेष असत्यार्थक होने के कारण नहीं / सामग्री के अभाव में किसी एक दो वचन का अर्थ असत्य प्रतिभासित होने पर भी सभी वचनों में असत्यार्थता की कल्पना उचित नहीं है / यदि ऐसी कल्पना उचित मानी जायेगी तो किसी एक प्रत्यक्ष में चन्द्रयुगल का असत्य प्रत्यक्षदर्शन पूर्ण सामग्री के अभाव में उत्पन्न होता है इस कारण संपूर्ण सामग्री होने पर जो प्रत्यक्षदर्शन होगा उसको भी असत्य ही मानना पड़ेगा। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञसिद्धिः 269 मुत्पद्यते तत् सम्यगवगततदर्थवचनोद्भवाद् विलक्षणमेव / यथा च विशिष्टसामग्रीप्रभवस्य प्रत्यक्षस्य न क्वचिद् व्यभिचारः इति तस्याऽविसंवादित्वं तथावगतसम्यगर्थवचनोद्भवस्यापि नष्ट-मुष्टयादिविषयविज्ञानस्येति सिद्धमत्राऽविसंवादित्वलक्षणं विशेषणं प्रकृतहेतोः / नायलिंगपूर्वकत्वं विशेषणमसिद्धम् , नष्ट-मुष्ट्यादीनामस्मदादीन्द्रियाऽविषयत्वेन तल्लिगत्वेनाभिमतस्याप्यर्थस्यास्मदाद्यक्षाऽविषयत्वान्न तत्प्रतिपत्तिः, प्रतिपत्तौ वाऽस्मदादीनामपि तल्लिगदर्शनाद् वचनविशेषमन्तरेणाऽपि ग्रहोपरागादिप्रतिपत्तिः स्यात् / न हि साध्यव्याप्तलिंगनिश्चयेऽग्न्यादिप्रतिपत्तौ वचन विशेषापेक्षा दृष्टा, न भवति चास्मदादीनां वचनविशेषमन्तरेण कदाचनाऽपि प्रतिनियतदिक्प्रमाण-फलाद्यविनाभूत ग्रहोपरागादिप्रतिपत्तिरिति तथाभूतवचनप्रणेतुरतीन्द्रियार्थविषयं ज्ञानमलिंगमभ्युपगन्तव्यमियलिंगपूर्वकत्वमपि विशेषणं प्रकृतहेतो सिद्धम् / नाप्ययमुपदेशपरम्परयाऽतीन्द्रियार्थदर्शनाऽभावेऽपि प्रमाणभूतः प्रबन्धेनानुवर्तत इत्यनुपदेशपूर्वकत्वविशेषणाऽसिद्धिरिति वक्तुं युक्तम्, उपदेशपरम्पराप्रभवत्वे नष्ट-मुष्ट्यादिप्रतिपादकवचनविशेषस्य वक्तुरज्ञान-दुष्टाभिप्राय वचनाकौशलदोषैः श्रोतुर्वा मन्दबुद्धित्व- विपर्यस्तबुद्धित्व-गृहीतविस्मरणैः प्रतिपुरुषं हीयमानस्यानादौ काले मूलतचिरोच्छेद एव स्यात् / तथाहि -इदानीमपि केचिद् __ . [ प्रत्यक्ष और वचनविशेष में अविसंवाद का साम्य ] यदि यह कहा जाय-संपूर्णसामग्रीजन्य प्रत्यक्ष और अपूर्णसामग्रीजन्य प्रत्यक्ष दोनों अन्योन्यविलक्षण ही है, अतः सभी प्रत्यक्ष को असत्य मानना नहीं पड़ेगा-तो यह बात वचनविशेष में भी समान ही है, जैसे-जिस वचन का वास्तव अर्थ अज्ञात है उस वचन से जो नष्ट-मुष्टि आदि विषयक विसंवादी ज्ञान उत्पन्न होता है, तथा जिसका वास्तव अर्थ ज्ञात है ऐसे वचन से जो नष्ट-मुष्टि आदि विषयक ज्ञान उत्पन्न होता है ये दोनों अन्योन्य विलक्षण होने से सभी वचन विशेष में असत्यता की आपत्ति नहीं है / जिस रीति से, विशिष्ट-परिपूर्णसामग्रीजन्य प्रत्यक्ष का कभी विषय के साथ व्यभिचार न होने से उसको अविसंवादी माना जाता है, उसी प्रकार जिसका वास्तव अर्थ समझने में आ गया है ऐसे वचन से उत्पन्न नष्ट-मुष्टि आदि विषयक विज्ञान भी व्यभिचार न होने से अविसंवादी माने जायेंगे, तो इस प्रकार वचनविशेषहेतु का अविसंवादिता विशेषण सार्थक सिद्ध होता है। [ अलिंगपूर्वकत्व विशेषण की सार्थकता ] वचन विशेष में जो अलिंगपूर्वकत्व विशेषण लगाया है वह असिद्ध नहीं है / नष्ट-मुष्टि आदि वस्तुएं हम लोगों के लिये इन्द्रियगोचर नहीं है, अत एव कोई भी अर्थ उसका लिंग मान लिया जाय, वह भी हम लोगों के लिये इन्द्रियगोचर न होने से हम लोगों को उसका भान नहीं होगा। यदि भान होता तब तो उस लिंग को देख कर ही आगमवचन के विना भी हम लोगों को सूर्य-चन्द्रग्रहणादि का भान हो जाता जैसे कि, जब साध्य का अविनाभावि धूम लिंग का निर्णय होता है तो अग्नि आदि के बोध में वचन विशेष की अपेक्षा नहीं रह जाती। किन्त यह तो सनिश्चित है-आगम वचन के विना हम लोगों को कभी भी अमुक सुनिश्चित दिशा में, अमुक प्रमाण में, अमुक फल का अविनाभावि सूर्य-चन्द्रग्रहण होगा ऐसा भान नहीं होता / अतः ऐसे आगमवचन के प्रणेता का अतीन्द्रिय अर्थ विषयक ज्ञान, विना लिंग के उत्पन्न होता है यह मानना पड़ेगा। अतः अलिंगपूर्वकत्व ऐसा प्रकृत हेतु का विशेषण असिद्ध नहीं है / Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ज्योतिःशास्त्रादिकमज्ञानदोषादन्यथोपदिशन्त उपलभ्यन्ते, अन्ये समवगच्छन्तोऽपि दुष्टाभिप्रायतया, अन्ये वचनदोषादव्यक्तमन्यथा चेति। तथा श्रोतारोऽपि केचिद् मन्दबुद्धित्वदोषादुक्तमपि यथावन्नावधारयति / अन्ये विपर्यस्तबुद्धयः सम्यगुपदिष्टमप्यन्यथाऽवधारयन्ति / केचित् पुनः सम्यक् परिज्ञातमपि विस्मरन्तीत्येवमादिभिः कारणैः प्रतिपुरुषं हीयमानस्यैतावन्तं कालं यावदागमनमेव न स्याच्चिरोच्छिन्नत्वेन, आगच्छति च, तस्मादन्तराऽन्तरा विच्छिन्नः सूक्ष्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानवता केनचिदभिव्यक्तः इयन्तं कालं यावदागच्छतीत्यभ्युपगमनीयमिति नानुपदेशपूर्वकत्वविशेषणाऽसिद्धिः / नाप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां नष्ट-मुष्टयादिकं ज्ञात्वा तद्विषयवचनविशेषप्रवर्तनं कस्यचित् संभवति येनाऽनन्वय-व्यतिरेकपूर्वकत्वविशेषणाऽसिद्धिः स्यात् / यतो नान्वय-व्यतिरेकाभ्यां ग्रहोपरागौषघशक्त्यादयो ज्ञातुं शक्यन्ते, प्रावृट्समये शिलीन्ध्रो दववद् ग्रहोपरागादीनां दिक्-प्रमाण फलकालादिष नियमाभावात / द्रव्यशक्तिपरिज्ञानाभ्युपगमेऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां यावन्ति जगात [ हेतु में अनुपदेशपूर्वकत्व विशेषण की उपपत्ति ] ऐसा कहना कि-"अतीन्द्रियार्थदर्शन न होने पर भी प्रमाणभूत वचन विशेष की उपदेश परम्परा चिरकाल से प्रवाहित होती रही है, अत: आपने जो हेतु में अनुपदेशपूर्वकत्व विशेषण लगाया है वह असिद्ध है"-उचित ही नहीं है / कारण, नष्ट-मुष्टि आदि पदार्थ के प्रतिपादक वचनविशेष को यदि उपदेश परम्परा जन्य मानेंगे तो काल अनादि होने से ऐसे वचन का मूलतः उच्छेद कब का हो चुका होता / क्योंकि वक्ता (उपदेशकों) का अज्ञान, अथवा उनकी प्रतारणबुद्धि एवं वचनप्रयोग में अकौशल इत्यादि दोषवृन्द, तथा श्रोताओं की मन्दबुद्धि अथवा विपरीतबुद्धि एवं ग्रहण करने के बाद विस्मरण हो जाना इत्यादि दोषों के कारण दिन प्रति दिन वचनों का ह्रास होता ही रहता है / जैसे कि-वर्तमानयुग में कितने ही ऐसे उपलब्ध हो रहे हैं जो ज्योतिषशास्त्र के समीचीन ज्ञान न होने के दोष से विपरीत उपदेश कर रहे हैं। कई ऐसे भी है जो ठीक तरह से जानते तो है फिर भी दूसरे को ठगने की बृद्धि से विपरीत उपदेश करते हैं। तो कई ऐसे भी है जो वचन दोष के कारण समझ में न आवे ऐसा अथवा तो विपरीत उपदेश करते हैं / यह तो वक्ता की बात हुयी, अब श्रोताओं में भी देखिये - [ आगमार्थ के अभिव्यंजक सर्वज्ञ की सत्ता सप्रयोजन ] श्रोतावर्ग भी ऐसा होता है कि कितने तो बुद्धिमंदता के दोष, से उपदिष्ट अर्थ का सम्यग् अवधारण ही नहीं करते / दूसरे कुछ ऐसे होते हैं-जो बुद्धि विपर्यास के कारण सच्चे उपदेश का भी विपरीत अवधारण कर बैठते हैं। कितने तो ठीक तरह से अवधारण करते हैं किन्तु कालान्तर में भूल जाते हैं।....इत्यादि उक्त प्रकार के कारणों से दिन-प्रतिदिन नयी नयी पिढी में जिन वचनों का ह्रास होता जा रहा है ऐसे आगम का इतने काल तक अनुवर्तन ही कैसे संभव है जब कि वह चिर अतीत में नष्ट हो जाने की पूरी संभावना है। देखा तो यह जाता है कि उपरोक्त स्थिति में भी आगमवचन का प्रवाह चालु है / अतः यह मानना चाहिये कि बीच बीच में उसका विच्छेद तो हुआ होगा किन्तु पुन: पुनः पदार्थों को साक्षात् करने के ज्ञान वाले सत्पुरुषों ने उसकी अभिव्यक्ति की होगी जिससे कि वह इतने काल तक प्रवाहित होता आया है / इस प्रकार वचनविशेष में अनुपदेशपूर्वकत्वरूप विशेषण की भी असिद्धि नहीं है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 271 तान्येकत्र मोलयित्वैकस्य रस-कल्कादिभेदेन, कर्षादिमात्राभेदेन, बाल-मध्यमाद्यवस्थाभेदेन, मूल-पत्राअवयवभेदेन प्रक्षेपोद्धाराभ्यामेकोऽपि योगो युगसहस्रणाऽपि न ज्ञातु पार्यते किमुतानेक इति कुतस्ताभ्यामौषधशत्त-यवगमः ? तेन नानन्वय-व्यतिरेकपूर्वकत्वविशेषणस्याऽसिद्धिः। . नाऽपि नष्ट-मुष्ट्यादिविषयवचनविशेषस्याऽपौरुषेयत्वाद् विशिष्टज्ञानपूर्वकत्वस्याऽसिद्धरसिद्धः प्रकृतो हेतुः, अपौरुषेयस्य वचनस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात् / नाप्यसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वेऽपि प्रकृतवचनविशेषस्य संभवादनकान्तिकः, सविशेषणस्य हेतोविपक्षे सत्त्वस्य प्रतिषिद्धत्वात् / अत एव न विरुद्धः, विपक्ष एव वर्तमानो विरुद्धः, न चास्य पूर्वोक्तप्रकारेणावगतस्वसाध्यप्रतिबन्धस्य विपक्षे वृत्तिसंभवः / ___अथ भवतु ग्रहोपरागाभिधायकस्य वचनस्य तत्पूर्वकत्वसिद्धिरतो हेतोः तत्र तस्य संवादात् , धर्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वसिद्धिस्तु कथं, तत्र तस्य संवादाभावात् ? न, तत्रापि तस्य संवादात् / तथाहि-ज्यतिःशास्त्रादेर्ग्रहोपरागादिकं विशिष्टवर्ण-प्रमाण-दिग्विभागादिविशिष्टं प्रतिपद्य [ हेतु में अनन्वय-व्यतिरेकपूर्वकत्व विशेषण की उपपत्ति ] यह भी संभव नहीं है कि अन्वय और व्यतिरेक से कोई पुरुष नष्ट-मुष्टि आदि पदार्थ को जानकर वचनविशेष का प्रतिपादन करे / अत एव हेतु में अनन्वयव्यतिरेकपूर्वकत्व विशेषण लगाया है वह असिद्ध नहीं है / चन्द्र सूर्य का ग्रहण और औषधों की विचित्र शक्तियाँ अन्वय-व्यतिरेक से अवगत नहीं की जा सकती। यह तभी हो सकता अगर ग्रहण आदि में अमक ही दिशा में, अमक ही प्रमाण में, अमुक ही काल में और अमुक हो फलसंपादन करने का नियम होता जैसे कि शिलीन्ध्र यानी वनस्पतिविशेष में वर्षाकाल में ही उत्पत्ति का नियम उपलब्ध है / औषधद्रव्यों कि शक्ति का ज्ञान अन्वय व्यतिरेक से मानने में भी सफलता नहीं मिलेगी कि विश्व में जितने द्रव्य हैं वे सब एकत्रित किये जाय और उसका अन्योन्य मिश्रण और पृथक्करण किया जाय तो हजारों युग बीत जाने पर भी रस और कल्कादि भेद से, कर्षादि तोल-माप के भेद से, बालोचित-मध्यमोचित आदि अवस्थाभेद से तथा मूल-पत्रादि अवयवभेद से किसी एक योग (मिश्रण) का भी पूरी जानकारी पाना कठिनतम है-दुर्लभ है तो फिर अनेक योगों की तो बात ही कहाँ ? तब कैसे अन्वय-व्यतिरेक द्वारा खषधों को शक्ति जानी जा सकेगी? इसका निष्कर्ष यही है कि अनन्वयव्यतिरेकपूर्वकत्व यह हेतु का विशेषण असिद्ध नहीं है। _ [ हेतु में असिद्ध-अनैकान्तिकता-विरोध का परिहार ] हमारे हेतु को यह कह कर असिद्ध नहीं बताया जा सकता कि-नष्ट-मुष्टि आदि पदार्थ संबंधी वचनविशेष अपौरुषेय है अत पुरुष के विशिष्टज्ञानपूर्वकत्वरूप साध्य ही अप्रसिद्ध है-यह कथन अनुचित होने का कारण तो स्पष्ट ही है कि अपौरुषेय वचन की संभावना का हम पहले ही निषेध कर आये हैं। यह भी शंका नहीं की जा सकती कि "प्रकृत वचन विशेष का उपदेश असाक्षात्कारि यानी परोक्षज्ञान से भी संभव होने से हेतु में अनैकान्तिकता दोष होगा"-यह शंका इसलिये व्यर्थ है कि हमने जो हेतु के विशेषण लगाये हैं उसी से हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति सिद्ध हो जाती है। अतः जब अनैकान्तिक दोष का गन्ध भी नहीं है तो विरुद्ध दोष सुतरां निषिद्ध हो जाता है क्योंकि हेतु केवल विपक्ष में ही रहे तभी विरुद्ध दोष को संभावना है, वचनविशेष हेतु का पूर्वोक्त रीति से स्वसाध्य के साथ अविनाभाव जब सुनिश्चित है तब विपक्ष में उसकी वृत्तिता का कोई संभव ही नहीं है / Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 मानः प्रतिनियतानां प्रतिनियतदेशत्तिनां प्राणिनां प्रतिनियतकाले प्रतिनियतकर्मफलसंसूचकत्वेन प्रतिपद्यते। उक्तं च तत्र-नक्षत्र-ग्रहपञ्जरमहनिशं लोककर्मविक्षिप्तम् / भ्रमति शुभाशुभमखिलं प्रकाशयत् पूर्वजन्मकृतम् // [ ] अतो ज्योतिःशास्त्रं ग्रहोपरागादिकमिव धर्माधर्मावपि प्रमाणान्तरसंवादतोऽवगमयति तेन ग्रहोपरागादिवचनविशेषस्य धर्माऽधर्मसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वमपि सिद्धम् / तत्सिद्धौ सकलपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वमपि सिद्धिमासादयति / न हि धर्माऽधर्मयोः सुख-दुःखकारणत्वसाक्षात्करणं सहकारिकारणाशेषपदार्थ-तदाधारभूतसमस्तप्राणिगणसाक्षात्करणमन्तरेण संभवति / सर्वपदार्थानां परस्परप्रतिबन्धादेकपदार्थसर्वधर्मप्रतिपत्तिश्च सकलपदार्थप्रतिपत्तिनान्तरीयका प्राक् प्रतिपादिता / अतो भवति सकलपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वसिद्धिरतो हेतोर्वचनविशेषस्य, तत्स्द्धिौ च तत्प्रणेतुः सूक्ष्मान्तरितदूरानन्तार्थसाक्षात्कार्यतीन्द्रियज्ञानसम्पत्समन्वितस्य कथं न सिद्धिः ? [ धर्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञान की सिद्धि ] यदि यह शंका की जाय-ग्रहोपरागादि में तत्प्रतिपादक वचनविशेष संवादी होने से उस वचन विशेष हेतु से अपने कारणीभूत साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व की सिद्धि मानी जा सकती है / किन्तु धर्मादि पदार्थ प्रतिपादक वचनविशेष में संवाद की उपलब्धि न होने से धर्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व की सिद्धि उसमें कैसे मानी जाय ?-यह शंका अनुचित है क्योंकि धर्मादिपदार्थप्रतिपादक वचन विशेष में भी संवाद उपलब्ध है, जैसे-ज्योतिषशास्त्र से चन्द्र-सूर्यग्रहणादि की अमुकविशिष्टवर्ण--अमुकप्रमाण अमुक दिशाविभागादिविशिष्टरूप में प्रतिपत्ति जिस विद्वान् को होती है उस विद्वान् को अमुकदेशनिवासी अमुक अमुक जीवगण को अमक निश्चित काल में अमक ही प्रकार का कर्मफल मिलने की सूचना भी उसी ज्योतिषशास्त्र से प्राप्त होती है। जैसे कि कहा है - “पूर्वजन्म में किये हुए सकल शुभाशुभ कर्म को प्रकाशित करने वाला नक्षत्र और ग्रहों का समुदाय लोगों के कर्म से प्रेरित होकर दिन-रात भ्रमण करता है।" इससे यह सिद्ध होता है कि ज्योतिष शास्त्र जैसे ग्रहोपरामादि को प्रकाशित करता है उसी प्रकार प्रमाणान्तर से संवादी ऐसे शुभाशुभ धर्माधर्मादि को भी प्रकाशित करता ही है। तो अब धर्माधर्मादिप्रकाशक ज्योतिषशास्त्रीय वचनविशेष में भी पूर्वोक्त रीति से धमधिर्मसाक्षात्कारिज्ञानजन्यत्व निर्बाध सिद्ध होता है / जब धर्माधर्मसाक्षात्कारिज्ञान सिद्ध होता है तो सकल पदार्थसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व की सिद्धि भी सरलता से हो जाती है। कारण, 'धर्म सुख का कारण और अधर्म दुःख का कारण है' इत्यादि का साक्षात्कार तभी संभव है जब उनके सहकारिकारणभूत सब पदार्थ एवं धर्माधर्म के आश्रयभूत (यानी उसके फलभोग करने वाले) सकलजीवसमूह का भी साक्षात्कार किया जाय / पहले ‘एको भावः'... इत्यादि से यह कहा जा चुका है कि सभी पदार्थ अन्योन्यसंबद्ध होने के कारण किसी एक धर्मादि पदार्थ के सभी गुण-धर्मों की प्रतीति तभी हो सकेगी जब सर्व पदार्थ की साक्षात् प्रतीति की जाय। निष्कर्ष यह है कि अब वचनविशेषरूप हेतु में सर्वपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानजन्यत्व की सिद्धि निर्बाध है / जब अतिशयित ज्ञान जन्य वचनविशेष सिद्ध हुआ तो उन वचनविशेष यानी आगमों के प्रणेतारूप में सूक्ष्म, अन्तरित, दूरवर्ती अनन्त पदार्थों को साक्षात् करने वाली ज्ञानसंपदा से अलंकृत सर्वज्ञ भगवान् को सिद्धि क्यों नहीं होगी? Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 273 नाप्येतद् वक्तव्यम्-साध्योक्ति-तदावृत्तिवचनयोरनभिधानाद न्यूनता नामात्र साधनदोषः, प्रतिज्ञावचनेन प्रयोजनाभावात् / अथ विषयनिर्देशार्थ प्रतिज्ञावचनम् / ननु स एव किमर्थः ? साधर्म्यवत्प्रयोगादिप्रतिपत्त्यर्थः / तथाहि असति साध्यनिर्देशे 'यो वचनविशेषः स साक्षाकास्मिानपूर्वकः' इत्युक्ते किमयं *साधर्म्यवान प्रयोग उत वैधर्म्यवानिति न ज्ञायेत / उभयं ह्यात्राशंक्येत-वचन विशेषत्वेन साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वे साध्ये साधर्म्यवान , असाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वेन वचनाऽविशेषत्वे साध्ये वैधर्म्यवानिति / हेतु-विरुद्ध-प्रनकान्तिकप्रतीतिश्च न स्यात् / प्रतिज्ञापूर्वके तु प्रयोगे शब्दविशेष: साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकः, शब्दविशेषत्वाद् इति हेतुभावः प्रतीयते, असाक्षास्कारिज्ञानपूर्वको वचनविशेषत्वाद इति विरुद्धता, चक्षुरादिकरणजनितज्ञानपूर्वको वचनविशेषत्वादि... त्यनैकान्तिकत्वम् / हेतोश्च त्रैरूप्यं न गम्येत, तस्य साध्यापेक्षया व्यवस्थितेः / सति प्रतिज्ञानिर्देशेऽवयवे समुदायोपचारात् साध्यधर्मी इति 'पक्षः' इति, तत्र प्रवृत्तस्य वचनविशेषत्वस्य पक्षधर्मत्वम् , साध्यधर्मसामान्येन समानोऽर्थः सपक्ष इति तत्र वर्तमानस्य सपक्षे सत्त्वम् , न सपक्षोऽसपक्ष इत्यसपक्षेऽप्यसत्त्वं प्रतीयते। [प्रतिज्ञा-निगमनवाक्य प्रयोग की आवश्यकता क्यों ? ] .. यह मत बोलना कि 'साध्यनिर्देश और तदावृत्ति यानी उसकी पुनरावृत्ति करने वाला निगमन का वचन, इन दोनों का प्रतिपादन आपने सर्वज्ञ साधक अनुमान में किया नहीं है अतः न्यूनता यानी अपूर्णता दोष से आपका हेतु दूषित है।'-ऐसा बोलने का निषेध इसलिये करते हैं कि प्रतिज्ञा वाक्य के प्रतिपादन का कोई प्रयोजन नहीं है / ___ शंका:-विषय यानी साध्य के स्पष्ट निर्देश के लिये ( अर्थात् प्रतिवादी को स्पष्टतया साध्य बोधनार्थ) प्रतिज्ञा वाक्य आवश्यक है। . उत्तर-में यह प्रति प्रश्न है कि साध्यनिर्देश की भी वया जरूर है ? यदि यहाँ ऐसा कहा जाय- साधर्म्यवत् आदि के स्पष्ट भान के लिये उसकी जरूर है / तात्पर्य यह है कि साध्यनिर्देश पृथक न करके केवल इतना ही कहा जाय "जो वचनविशेष होता है वह साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक होता है" तो यह प्रयोग साधर्म्यवान् यानी व्यापक की सिद्धि के लिये किया गया है, या वैधर्म्यवान् यानी व्याप्याभाव की सिद्धि के लिये किया गया है, इसका पता नहीं चलेगा। कारण, यहाँ दोनों की संभावना हो सकती है-वंचनविशेषत्व रूप व्याप्य से साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व रूप व्यापक को साध्य करने पर साधर्म्यवान् प्रयोग संभवित है और व्यापक के व्यतिरेक यानी साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व के व्यतिरेक से वचन विशेषत्वरूप व्याप्य के अभाव को साध्य करने पर वैधर्म्यवान् प्रयोग संभवित है। प्रतिज्ञावाक्य के विना इन दोनों में से कौन साध्य अभिप्रेत है यह नहीं जाना जा सकता / दूसरी बात, इसमें यह हेतु है, अथवा (संभवतः) यह हेत विरुद्ध है अथवा (संभवतः) यह हेत अनैकान्तिक है-ऐसी प्रतीति नहीं होगी यदि प्रतिज्ञावचन नहीं कहा जायेगा। प्रतिज्ञावाक्य प्रयोग करने पर, यह प्रतीतियाँ हो सकेगी-जैसे, यह *परार्थानुमान के दो भेद धर्मकीत्तिकृत न्यायबिंदु में उपलब्ध है यथा-'साधर्म्यवद् वैधर्म्यवच्चेति' [ 3-5 ] Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तविदमनालोचिताभिधानम् , तथाहि-'यो वचनविशेषः स साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकः' इत्येतावन्मात्रमभिधाय नैव कश्चिदास्ते किन्तु हेतोमण्युपसंहारं करोति / तत्र यदि वचनविशेषश्चायं नष्टमुण्ट्यादिविषयो वचनसंदर्भ इति व यात् तदा साधर्म्यवत्प्रयोगप्रतीतिः, प्रथाऽसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकश्चे [श्वायमित्यभिदध्यात् तदा वैधयंवत इति संबंधवचनपूर्वकात् पक्षधर्मत्ववचनात् प्रयोगद्वयावगतिः विवक्षितसाध्यावगतिश्च / हेतु-विरुद्ध-अनैकान्तिका अपि पक्षधर्मवचनमात्रेण न प्रतीयन्ते यदा तु संबंधवचनमपि क्रियते तदा कथमप्रतीतिः? तथाहि यो वचनविशेषः स साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक इत्युक्ते हेतुरवगम्यते विधीयमानेनानद्यमानस्य व्याप्तेः / यो वचनविशेषः सोऽसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वक इत्युक्ते विरुद्धः, विपर्ययव्याप्तेः / यो वचनविशेषः स चक्षुरादिजनितज्ञानपूर्वक इति अनैकान्तिकाध्यवसाय:, व्यभिचारात् / शब्दविशेष साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक है क्योंकि उसमें शब्दविशेषत्व है' इस प्रयोग में शब्दविशेषत्व हेतु की स्पष्ट प्रतीति होती है, तथा 'यह शब्दविशेष असाक्षात्कारिज्ञानपूर्वक है क्योंकि उसमें वचनविशेषत्त्व है। इस प्रकार (संभवतः) विरुद्ध दोष की प्रतीति भी शक्य है, तथा 'यह शब्दविशेष नेत्रादिइन्द्रियजन्यज्ञानपूर्वक है क्योंकि उसमें वचनविशेषत्व है' इस प्रकार ( ) हेतु विपक्षवृत्ति होने से अनैकान्तिक दोष का भी स्पष्ट प्रतिभास हो सकता है। तीसरी बात, प्रतिज्ञा वाक्य के विना हेतु के जो तीनरूप होते हैं उनकी भी प्रतीति नहीं होगी, कारण, हेतु का त्रैरूप्य संपूर्णतया साध्य के ऊपर निर्भर है-पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष में असत्त्व ये तीन हेतु के रूप कहे जाते हैं, पक्ष उसे कहते है जहाँ साध्यसिद्धि आकांक्षित है अतः प्रथमरूप साध्यावलम्बी हुआ, सपक्ष उसे कहते हैं जहाँ साध्य निःसंदेह सिद्ध हो, अतः द्वितीयरूप भी साध्यावलम्बी हुआ, तथा जहाँ साध्य का अभाव नि शंक हो वह विपक्ष होता है अत: तृतीयरूप भी साध्यावलम्बी हुआ अत: साध्यनिर्देश विना हेतु के तीनरूप की प्रतीति नहीं होगी। प्रतिज्ञा का निर्देश करने पर उसमें जो साध्य का निर्देश किया जायेगा उससे साध्यवान् यानी पक्ष का निर्देश फलित होगा क्योंकि अवयव में समुदाय का उपचार किया जाता है। अत: साध्यधर्मी अर्थात पक्ष को स्पष्ट प्रतीति होगी। तथा उसमें प्रतिपादित वचनविशेषत्वरूप हेतु में पक्षधर्मत्व की प्रतीति हो सकेगी। तदुपरांत, साध्यधर्म का समानता से पक्ष का समान धर्मी सपक्ष होता है अतः उसमें हेतु विद्यमान होने पर सपक्षसत्त्व की प्रतीत होगी। तथा जो सपक्ष नहीं होता वह असपक्ष यानी विपक्ष होता है, उसमें हेतुसत्ता न होने पर विपक्ष-असत्त्व भी प्रतात होगा। प्रतिज्ञा वाक्य के इतने लाभ हैं। [ उपसंहार वाक्य से प्रयोजन की सिद्धि ] . पूर्वपक्षी ने जो विस्तृत प्रतिपादन किया है वह विना सोचे ही सब बोल दिया है, जैसे देखिये - 'जो वचनविशेष होता है वह साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक होता है' इतना ही बोलकर कोई रुक नहीं जाता किन्तु धमि में हेत का उपसंहार भी किया जाता है। अब इस उपसंहार वाक्य में अगर ऐसा कहें कि 'यह नष्ट-मुष्टि आदि विषयक वचनसंदर्भ भी वचनविशेषरूप ही है' तो यहां साधर्म्यवान् प्रयोग (यानी व्यापक की सिद्धि का प्रयोग) ध्यान में आ जाता है। उसके बदले 'यह वचन संदर्भ असाक्षात्कारिज्ञानपूर्वक है' ऐसा उपसंहार वाक्य बोला जाय तो वैधर्म्यवान् प्रयोग ध्यान में आ जाता है / इस प्रकार व्याप्तिसंबंधप्रतिपादकवाक्यसहित पक्षधर्मत्व के वचन से उक्त साधर्म्यवान् अथवा वैधर्म्यवान् दो प्रयोगों का तथा आकांक्षितसाध्य का स्पष्ट भान हो जाता है / अत: उसके लिये Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 275 तथा, त्रैरूप्यमपि हेतोर्गम्यत एव, यतो व्याप्तिदर्शनकाले व्यापको धर्मः साध्यतयाऽवगम्यते, यत्र तु व्याप्यो धर्मो विवादास्पदीभूते धर्मिण्युपसंहियते स समुदायैकदेशतया पक्ष इति तत्रोपसंहृतस्य व्याप्यधर्मस्य पक्षधर्मत्वावगतिः / सा च व्याप्तिर्यत्र धमिण्युपदर्श्यते स साध्यधर्मसामान्येन समानोऽथः सपक्षः प्रतीयत इति सपक्षे सत्त्वमप्यवगम्यते / सामर्थ्याच्च व्यापकनिवृत्ती व्याप्यनिवृत्तिर्यत्रावसीयते त्वमपि निश्चीयत इति नार्थः प्रतिज्ञावचनेन / तदाह-धर्मकीतिः-यदि प्रतीतिरन्यथा न स्यात् सर्व शोभेत, दृष्टा च पक्षधर्मसम्बन्धवचनमात्रात् प्रतिज्ञावचनमन्तरेणाऽपि प्रतीतिरिति कस्तस्योपयोगः ?" [ ] यदा च प्रतिज्ञावचनं नैरर्थक्यमनुभवति तदा तदावृत्तिवचनस्य निगमनलक्षणस्य सुतरामनुपयोग इति न प्रतिज्ञाद्यवचनमपि प्रकृतसाधनस्य न्यूनतादोषः / केवलं तत्प्रतिपाद्यस्यार्थस्य स्वसाध्याप्रतिज्ञावाक्य अनावश्यक है / हेतु की, विरुद्ध हेतु की तथा अनैकान्तिक हेतु की प्रतीति यदि केवल पक्षधर्मत्व का ही उल्लेख करे तब तो नहीं होगी किन्त यदि व्याप्तिवाक्य का उल्लेख करे तब क्यों वह प्रतीति नहीं होगी ? जैसे देखिये-'जो वचनविशेष होता है वह साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक होता है' ऐसा कहने पर हेतु का स्पष्ट भान होता है क्योंकि यहाँ साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व का विधान किया जा रहा है, जिसका विधान होता है वही साध्य होता है, तथा वचनविशेष का अनुवाद किया जा रहा है, जिसका अनुवाद किया जाता है वह व्याप्य यानी हेतु होता है क्योंकि साध्य के साथ हेतु की व्याप्ति अवश्य होती है / तदुपरांत यदि ऐसा कहा जाय कि 'जो वचनविशेष होता है वह असाक्षात्कारिज्ञानपूर्वक होता है'-तो यहाँ विपरीत व्याप्तिप्रदर्शन होने से विरुद्ध हेतु की प्रतीति स्पष्ट होगी। तथा 'जो वचनविशेष होता है वह नेत्रादिजन्यज्ञानपूर्वक होता है' ऐसा कहने पर हेतु में विपक्षवृत्तिता यानी व्यभिचार होने से अनैकान्तिकता भी प्रतीत हो जायेगी। [ हेतु की त्रिरूपता के बोध की भी उपपत्ति ] तीसरी बात, हेतु की त्रिरूपता प्रतिज्ञावाक्य के विना ही ज्ञात की जा सकती है / क्योंकि जब व्याप्ति का प्रदर्शन किया जाता है तो व्यापक धर्म का साध्यरूप में बोध होता है। तथा विवादग्रस्त धर्मी में जब व्याप्य धर्म का उपसंहार दिखाया जाता है तो वह उपसंहार में समुदितरूप से व्याप्यधर्म और धर्मी का निर्देश होता है उसके एक देशभूत धर्मी का पक्षरूप भान से होता है और उसमें जिसका उपसंहार किया जाता है उस व्याप्य धर्म की पक्षधर्भता भी अवबुद्ध हो जाती है / व्याप्ति का प्रदर्शन किसी दृष्टान्त में ही किया जाता है, तो जिस दृष्टान्त धर्मी में व्याप्ति दिखायी जाती है वह धर्मी साध्यधर्म की समानता से पक्षसदृश अर्थरूप से प्रतीत होता है यही सपक्ष की प्रतीति हुयी तथा यहाँ सपक्ष में हेतु के सत्त्व की भी प्रतीति साथ साथ हो जाती है। क्षयोपशम के सामर्थ्य से यहाँ ऊहापोह द्वारा 'जिस धर्मी में व्यापक यहां नहीं है तो व्याप्य भी नहीं हैं' ऐसा ज्ञान किया जाता है वही धर्मी असपक्ष यानी विपक्षरूप से प्रतीत होता है और यहाँ विपक्ष में साध्य का असत्त्व भी साथ साथ प्रतीत हो जाता है / निष्कर्षः-प्रतिज्ञावाक्य का कोई प्रयोजन नहीं है / जैसे कि धर्मकीत्ति आचार्य का कथन है-"अगर (प्रतिज्ञा वाक्य के विना) प्रतीति न होती तब तो सब कुछ शोभायुक्त है, (किन्तु) तज्ञा वाक्य के विना भी पक्षधर्म और सम्बन्ध के उल्लेख से ही प्रतीति देखी गयी है फिर उसका क्या उपयोग है ?" Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 विनाभूतस्य हेतोः साध्यमिण्युपसंहारमात्रादेव सिद्धत्वादादापन्नस्य स्वशब्देन पुनरभिधानं निग्रहस्थानमिति प्रतिज्ञादिवचनं वादकथायां क्रियमाणं तद्वक्तुनिग्रहमापादयति / उपनयवचनं तु हेतोः पक्षधर्मत्वप्रतिपादनादेव लब्धमिति तस्यापि ततः पृथक् प्रतिपादने पुनरुक्ततालक्षण एव दोष इति इति न तदनभिधानेऽपि न्यूनं साधनवाक्यम् , ततः सर्वदोषरहितत्वात् साधनवाक्यस्य भवत्यत: प्रकृतसाध्यसिद्धिः। __ स्वसाध्याऽविनाभतश्च हेतुः साध्यमिण्युपदर्शयितव्यो वादकथायामित्यभिप्रायवताचार्येण गाथासूत्रावयवेन तथाभूतहेतुप्रदर्शनं कृतमिति / तथाहि-'समयविशासनम्'-इत्यनेन गाथासूत्रावयववचनेन स्वसाध्यव्याप्तस्य हेतोः साध्यमिण्युपसंहारः सूचितः। हेतोश्च स्वसाध्यव्याप्तिः प्रमाणत: सर्वोपसंहारेण प्रदर्शनोया। तच्च प्रमाणं व्याप्तिप्रसाधकं कदाचित् साध्यमिण्येव प्रवृत्तं तां तस्य साधयति, कदाचित् दृष्टान्तामणि। यत्र हि सर्वमनेकान्तात्मकम् , सत्त्वात्' इत्यादी प्रयोगे न दृष्टान्तर्मिसद्भावः तत्र व्याप्तिप्रसाधक प्रमाणं प्रवर्त्तमानं साध्यमिण्येव सर्वोपसंहारेण हेतोः स्वसाध्यव्याप्तिं प्रसाधयति / यत्र तु प्रकृतप्रयोगादौ दृष्टान्तमिणोऽपि सत्त्वं तत्र दृष्टान्तर्धामण्यपि प्रवृत्तं तत् प्रमाणं सर्वोपसंहारेणैव तस्याः प्रसाधकमभ्युपगंतव्यमन्यथा दृष्टान्तामणि हेतोः स्वसाध्यव्याप्तावपि साध्यमिणि तस्य तदव्याप्ती पूर्वोक्त चर्चा से यह भी फलित होता है कि जब प्रतिज्ञावचन निरर्थक सिद्ध होता है तो साध्य का पुनरावर्तन करने वाला निगमनवचन तो सर्वथा निरुपयोगी हो गया, अत: प्रतिज्ञा आदि वाक्य प्रयोग न किया जाय तो हमारे कथित साधन को कोई दोष लागू नहीं होता / कारण यह है कि प्रतिज्ञादि वाक्य का प्रतिपाद्य जो अर्थ है वह तो अपने स्वसाध्य-अविनाभावि हेतु का पक्ष में उपसंहार दिखाने वाले वाक्य से ही सिद्ध हो जाता है तब जो अर्थत: सिद्ध हो उसकी स्ववाचक शब्द से पुनरुक्ति करना निग्रहस्थान यानी वाद में पराजय हेतू होने से वादसंज्ञक कथा में यदि प्रतिज्ञादिवाक्य का प्रयोग किया जायेगा तो प्रयोक्ता निग्रहप्राप्त हो जायेगा। उपनयवाक्य भी निरुपयोगी है। हे धर्मता दिखा देने से ही उपनयवाक्य का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, अतः पृथक रूप से उपनयवाक्य प्रयोग करने पर पुनरुक्ति दोष होने से उसके अकथन में साधनवाक्य की कोई न्यूनता नहीं है / इस प्रकार सर्वदोषशुन्य इस वचनविशेषत्वरूप साधनवाक्य से निराबाध प्रकृत साध्य साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्व की सिद्धि हो जाती है / [ 'समयविसासण' शब्द से व्याप्तिविशिष्ट हेतु का उपसंहार ] वादकथा में साध्यमि पक्ष में स्वसाध्य का अविनाभावि हेतु दिखाना चाहिये-इस अभिप्राय से सूत्रकार सूरिजी ने गाथासूत्र के अवयव से तथाप्रकार के हेतु का उपदर्शन कराया है / जैसे देखिये'समयविशासन' इस गाथासूत्र के अवयव वचन से साध्यमि वचनविशेष में साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक त्वरूप साध्य का अविनाभावि वचन विशेषत्वरूप हेत का उपसंहार सूचित किया है। हेतु की अपने साध्य के साथ व्याप्ति यानी अविनाभाविता सकल हेतु और साध्य के उपसंहार दिखाने वाले प्रमाण से प्रदर्शित करनी चाहिये / यह व्याप्ति प्रदर्शक प्रमाण की प्रवृत्ति दो स्थान में होती है-१-कभी कभी साध्यधर्मी पक्ष में ही व्याप्तिसाधक प्रमाण प्रवृत्त होता है, २-तो कभी दृष्टान्तभूत धर्मी में वह प्रवृत्त होता है / यह अब दिखाया जाता है Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 277 न ततस्तत्र तत्प्रतिपत्तिः स्यात् , दृष्टान्तमिण्येव तेन तस्य व्याप्तत्वात् , बहिर्व्याप्तविद्यमानाया अपि साध्यमिणि साध्यप्रतिपत्तावनुपयोगात् सादृश्यमात्रस्याकिंचित्करत्वात् , अन्यथा 'शुक्लं सुवर्णम् / सत्त्वाव-रजतवत्' इत्यत्रापि शुक्लत्वप्रतिपत्तिः स्यात् / अथात्र पक्षस्य प्रत्यक्षबाधनम् , प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानंतरप्रयुक्तत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वं वा दोषः। तदयुक्तम्-बाधाऽविनाभावयोविरोधात / तथाहि-सत्येव साध्यमिणि साध्ये हेतुवर्तत इति तस्य तदविनाभावः, तत्प्रतिपादितसाध्यधर्माभावश्च प्रमाणतो बाधा, साध्यधर्मभावाऽभावयोश्चकत्र धर्मिण्येकदा विरोध इति नैतहोषादस्य साधनस्य दुष्टत्वं किन्तु साध्यमिणि साध्यधर्माऽविनाभूतत्वेनाऽनिश्चयः / अतो दृष्टान्तमणि प्रवृत्तेन प्रमाणेन व्याप्त्या हेतोः स्वसाध्याऽविनाभावो निश्चेयः। निश्चिताऽविनाभावो यत्र मिण्यपलभ्यते तत्र स्वसाध्यमविद्यमानप्रमाणान्तरबाधनं निश्चाययति, यथाव सर्वज्ञमात्रलक्षणे साध्ये वचनविशेषलक्षणे साध्यमिणि तद्विशेषत्वलक्षणो हेतुः। प्रतिबन्धप्रसाधकं चास्य हेतोः प्रागेव दृष्टान्तमणि प्रमाण प्रदशितमित्यभिप्रायवतैवाचार्येणापि 'कुसमयविसासणं' इति सूत्रे 'कुः' इत्यनेन दृष्टान्तसूचनं विहितम् , न च पक्षवचनाद्युपक्षेपः सूचितः। [ व्याप्ति का ग्रहण साध्यधर्मी और दृष्टान्तधर्मी में ] __ जहाँ किसी की दृष्टान्तरूप से संभावना ही नहीं है जैसे कि 'सभी वस्तु अनेकान्तमय है क्योंकि सत् हैं' इत्यादि प्रयोग में, यहाँ जो व्याप्तिसाधक प्रमाण प्रवृत्त होता है वह तर्करूप होता है और वह साध्यधर्मी में ही 'जो कुछ सत् होगा वह अनेकान्तरूप ही हो सकता है, अन्यथा वह 'सत्'रूप नहीं हो सकता' इस प्रकार सभी साध्य और हेतु के उल्लेख से प्रवृत्त हो कर सत्त्व की अनेकान्तात्मकत्व के साथ व्याप्ति सिद्ध कर देता है इसीको अन्तर्व्याप्ति कहा जाता है। जहाँ दृष्टान्तधर्मी की भी विद्यमानता है जैसे कि वचनविशेषत्व हेतू स्थल में हम लोगों का पथ्वी में कटिनतादि प्रतिपादक वचन, वहाँ साध्य धर्मी एवं दृष्टान्तमि दोनों में प्रवर्त्तमान तर्कादि प्रमाण सर्व हेतु-साध्य के उल्लेख से व्याप्ति का प्रसाधक होता है-यह मानना चाहिये / ऐसा न मानकर केवल दृष्टान्त में ही उस प्रमाण की प्रवृत्ति .मानेंगे तो दृष्टान्तधर्मी में अभिमत साध्य के साथ हेतु की व्याप्ति सिद्ध होने पर भी साध्यधर्मी में हेतु की व्याप्ति सिद्ध न होने से पक्ष में उस हेतु से साध्यसिद्धि न हो सकेगी। क्योंकि हेतु केवल दृष्टान्तधर्मी में ही अपने साध्य के साथ व्याप्तिवाला सिद्ध हुआ है / केवल दृष्टान्त में ही गृहीत होने वाली व्याप्ति बहिर्व्याप्तिरूप होने से दृष्टान्त में वह विद्यमान होने पर भी साध्यधर्मी पक्ष में साध्य ग्रहण के लिये उसका कोई उपयोग नहीं है / ऐसा नहीं है कि केवल दृष्टान्त की सदृशता से ही पक्ष में साध्य सिद्धि हो जाय। केवल सादृश्य को अकिंचित्कर न मानेंगे तो "सवर्ण सफेद है क्योंकि है जैसे कि रजत" इस परार्थानुमान प्रयोग से स्वर्ण में भी सत्त्व के सादृश्यमात्र से सपे.दाई का अनुमान प्रमाणभूत हो जायेगा। [ पक्षवाध और कालात्ययापदिष्टता का निरसन ] यदि ऐसा कहा जाय-सफेदाई का सुवर्णरूप पक्ष में प्रत्यक्ष से बाध है अर्थात् पक्ष प्रत्यक्ष बाधित है / अथवा प्रत्यक्ष से बाधित साध्य के निर्देश करने के बाद सत्त्व हेतु का प्रयोग करने से हेतु कालात्ययापदिष्ट दोष वाला है ।-तो यह अयुक्त है। क्योंकि साध्य का बाध और साध्य के साथ हेतु का अविनाभाव परस्पर विरुद्ध है / जैसे देखिये-साध्य के साथ हेतु के अविनाभाव का अर्थ है 'साध्य के Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ननु भवत्वस्माद्धेतोर्यथोक्तप्रकारेण सर्वज्ञमात्रसिद्धिर्न पुनस्तद्विशेषसिद्धिः / तथाहि-यथा नष्टमुष्टयादिविषयवचनविशेषस्याहतसर्वज्ञप्रणीतत्वं वचनविशेषत्वात् सिद्धचति तथा बुद्धादिसर्वज्ञपूर्वकत्वमपि तत एव सेत्स्यतीति कुतस्तद्विशेषसिद्धिः ? न च नष्ट-मुष्ट्यादिप्रतिपादको वचनविशेषोऽहंच्छासन एवेति वक्तुयुक्तम् , बुद्धशासनादिष्वपि तस्योपलम्भादित्याशंक्याह सूरिः-'सिद्धत्थाणं' इति / अस्यायमभिप्रायः-प्रत्यक्षाऽनुमानादिप्रमाणविषयत्वेन प्रतिपादिताःशासनेन ये ते तद्विषयत्वेनैव होने पर ही हेतु की सत्ता का होना', और बाध का अर्थ है-पक्ष में प्रतिपादित साध्यधर्म का अभाव होना / अविनाभाव में 'साध्य के होने पर' इस प्रकार साध्य का सद्भाव सूचित होता है और बाध म साध्याभाव सूचित होता है-अतः बाध और अविनाभाव परस्पर विरुद्ध है / अतः सादृश्यमात्र मूलक विनाभाव मानने पर बाध दोष अकिंचित्कर बन जाता है। अर्थात् , साध्यधर्म का सद्भाव और उसका अभाव एक धर्मी में समान काल में परस्पर विरुद्ध होने से बाध दोष से सादृश्यमूलक अविनाभाववाले प्रकृत साधन को दूषित नहीं माना जा सकता। केवल इतना होगा कि साध्यमि में सत्त्व हेतु का शुक्लत्व के साथ अविनाभावित्व का निर्णय प्रतिबद्ध हो जायेगा / अब यह सोचिये कि अगर केवल बहिर्व्याप्तिमात्र से ही हेतु को साध्य का साधक मान लिया। अग्नि के साथ अविनाभावित्व का निर्णय भी प्रतिबद्ध हो जायेगा क्योंकि वहाँ भी प्रत्यक्ष से धूमाभाव दृष्ट है / अतः इस प्रकार कहीं भी केवल बहिर्व्याप्ति मानने पर अनुमान से साध्य का निश्चय न हो सकेगा। इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिये कि दृष्टान्तमि में प्रवृत्त प्रमाण से भी व्यापकरूप से सकल हेतु साध्य के उपसंहार से हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित होना चाहिये। व्यापकरूप से जिस हेतु में अविनाभाव निश्चित किया गया है, वैसा हेतु किसी भी धर्मी में उपलब्ध होगा वहां अन्य प्रमाण के बाध को हठाकर अपने साध्य का निर्णय करा देगा। जैसे कि यहाँ प्रस्तुत में सर्वज्ञमात्र सिद्ध करना है तो वचनविशेषस्वरूप साध्यधर्मी में वचनविशेषरूप हेतु प्रयुक्त है। वचनविशेषत्वरूप हेतु की साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वरूप साध्य के साथ व्याप्ति को सिद्ध करने वाला प्रमाण तो पहले ही हम लोगों के पृथ्वीकठीनताप्रतिपादकवचनरूप दृष्टान्तधर्मी में दिखा दिया हैइस अभिप्राय रखने वाले आचार्य 'कुसमयविसासणं' इस सूत्रावयव में 'कु' शब्द से पृथ्वी का दृष्टान्तरूप से सूचन कर चुके हैं। पक्षादि के वचन प्रयोग का उपयोग न होने से उसका सूचन नहीं किया। [अर्हत् भगवान् ही सर्वज्ञ कैसे ?-शंका ] ___ यदि यह शंका हो-'वचन विशेषत्व हेतु से पूर्वोक्त कथनानुसार सामान्यतः सर्वज्ञ की सिद्धि तो हो सकती है किन्तु व्यक्तिगतरूप से आपके इष्टदेवस्वरूप अर्हत् भगवान् ही सर्वज्ञ हैं, दूसरे बुद्धादि नहीं-ऐसा सिद्ध नहीं होता। जैसे देखिये-आप जैसे वचनविशेषत्वरूप हेतु से नष्ट-मुष्टि आदि विषयक वचनविशेष में अर्हत् सर्वज्ञ प्रतिपादितत्व सिद्ध करते हैं वैसे ही वचन विशेषत्व हेतु से बुद्धादिसर्वज्ञपूर्वकत्व भी सिद्ध हो सकेगा, तो विशेषरूप से अमुक ही पुरुषविशेष सर्वज्ञतया आप सिद्ध करना चाहते हैं वह कैसे होगा? यह नहीं कह सकते कि-यत: नष्ट -मुष्टि आदि ज्ञापक वचनविशेष अर्हत् शासन में ही उपलब्ध होता है अत एव अर्हत् भगवान् की सर्वज्ञतया सिद्धि होगी-ऐसा इसलिये नहीं कह सकते कि बुद्धादिशासन में भी नष्ट-मुष्टि आदि ज्ञापक वचन विशेष उपलब्ध होता है ।'-तो इस आशंका को दूर करने के लिये सूत्रकार सूरिदेव ने प्रथम गाथासूत्र में 'सिद्धत्थाणं ऐसा कहा है / Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 279 तैनिश्चिता इति सिद्धाः, ते च 'अर्यन्ते' इति 'अर्थाः' उच्यन्ते / तेषां शासनं प्रतिपादकमर्हच्छासनमेव न बुद्धादिशासनम् / अतो वचनविशेषत्वलक्षणस्य हेतोस्तेष्वसिद्धत्वात् कुतस्तेषामपि सर्वज्ञत्वं येन विशेषसर्वज्ञत्वसिद्धिर्न स्यात् ? यथा चागमान्तरेण प्रत्यक्षादिविषयत्वेन प्रतिपादितानामर्थानां तद्विषयत्वं न संभवति तथाऽत्रैव यथास्थानं प्रतिपादयिष्यते। . अथवा 'सिद्धार्थानाम्' इत्यनेन हेतुसंसूचनं विहितमाचार्येण, सिद्धाः प्रमाणान्तरसंवादतो निश्चिताः येऽर्था नष्ट-मुष्ट्यादयः तेषां शासन-प्रतिपादकं यतो द्वादशांगं प्रवचनमतो जिनानां कार्यत्वेन संबंधि / तेनायं प्रयोगार्थः सचितः, प्रयोगश्च प्रमाणान्तरसंवादियथोक्तनष्ट-मुष्टयादिसूक्ष्मान्तरितद्रार्थप्रतिपादकत्वान्यथाऽनुपपत्तेजिनप्रणीतं शासनम् / अत्र च सूक्ष्माद्यर्थप्रतिपादकत्वाऽन्यथानुपपत्तिलक्षणस्य हेतोजिनप्रणीतत्वलक्षणेन स्वसाध्येन व्याप्तिः साध्यमिण्येव निश्चितेति तन्निश्चायकप्रमारणविषयस्येह दृष्टान्तस्य प्रदर्शनमाचार्येण न विहितम् , तदर्थस्य तद्व्यतिरेकेणैव सिद्धत्वात् / यथा चार्थापत्तेः साध्यमिण्येव व्याप्तिनिश्चयाद् दृष्टान्तव्यतिरेकेणाऽपि तदुत्थापकादर्थादुपजायमानायाः सर्वज्ञप्रतिक्षेपवादिभिर्मीमांसकः प्रामाण्यमभ्यपगम्यते तथा प्रकतादन्यथानपपत्तिल क्षणाद्धेतोरुपजायमानस्याऽस्याऽनुमानस्य तत् किं नेष्यते ? प्रतिपादितश्चार्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भाव: प्रागिति भवत्यतो हेतोः प्रकृतसाध्यसिद्धिः / अत एव पूर्वाचाहंतुलक्षणप्रणेतृभिरेकलक्षणो हेतुः, 'सिद्धार्थानाम्' इस का तात्पर्य यह है-सिद्ध यानी निश्चित, अर्थात् शासन के द्वारा जो प्रत्यक्षअनुमानादि प्रमाण के विषयरूप में प्रतिपादित किये गये हैं, उन प्रमाण के विषयरूप में ही वे निश्चित किये जाने से सिद्ध कहलाते हैं / अर्थ शब्द 'ऋ' धातु से कर्म में थ प्रत्यय से बना है-'अर्यन्ते' यानी जो जाने जाते हैं वे 'अर्थ' / सिद्ध हैं ऐसे जो अर्थ, उन्हें (कर्मधारय समास होने से) सिद्धार्थ कहते हैं। सिद्ध अर्थों का शासन और कोई बुद्धादि का नहीं नहीं है किन्तु अर्हत् भगवान् का ही है / कहने का उद्देश यह है कि वचनविशेषत्वरूप हेतु बुद्धादि वचन में असिद्ध है तो फिर बुद्धादि सर्वज्ञ कैसे सिद्ध होंगे जिस से आप कहते हैं कि अर्हत् भगवान् की विशेषतः सर्वज्ञतया सिद्धि नहीं हो सकती ? अन्य बुद्धादि आगम में प्रत्यक्षादिप्रमाण के विषयरूप में प्रतिपादित जो पदार्थ हैं उनमें वस्तुत: प्रत्यक्षादिप्रमाण विषयता का संभव नहीं है यह इसी प्रकरण में उचित अवसर पर दिखाया जायेगा। [वचनविशेषत्व हेतु से सर्वज्ञविशेष की सिद्धि ] अथवा 'सिद्धार्थानाम्' इस अवयव से सूरिराज ने हेतु का सूचन किया है / सिद्ध यानी प्रमाणान्तर से सुनिश्चित जो अर्थ नष्ट-मुष्टि आदि, उनका शासन यानी उनका प्रतिपादन करने वाला बारह अंगरूप प्रवचन, वह कार्यत्वरूप संबंध से जिनों का ही है / यह प्रयोग का अर्थकथन है-इससे यह प्रयोग निर्गलित होता है- "शासन यह जिनरचित है (यानी बुद्धादि रचित नहीं है,) क्योंकि प्रमाणान्तरसंवादि नष्ट-मुष्टि आदि पूर्वोक्त सूक्ष्म-अन्तरित-दूरवर्ती पदार्थों की ज्ञापकता अन्यथा अनुपपन्न है।" इस प्रयोग में सूक्ष्माद्यर्थप्रतिपादकत्व की अन्यथाऽनुपंपत्तिरूप हेतु को जिनप्रणीतत्वरूप साध्य के साथ व्याप्ति साध्यधर्मी यानी पक्ष में ही सुनिश्चित है अतः उसके निश्चायक प्रमाण के विषयरूप में दृष्टान्त का उपन्यास जरूरी नहीं है अत एव आचार्यजीने भी उसका प्रदर्शन नहीं किया है। कारण, दृष्टान्त का प्रयोजन उसके विना ही सिद्ध है। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं / नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्" // [ ] इत्यादिवचनसंदर्भेण प्रतिपादित इति मन्वानेन आचार्येणापि न दृष्टान्तसूचनं विहितमत्र प्रयोगे। 'कुसमयविशासन' इति चात्र व्याख्याने बद्धादिशासनानामसर्वज्ञप्रणीतत्वप्रतिपादकत्वेन व्याख्येयम्-तथाहि कुत्सिताः प्रमाणबाधितैकान्तस्वरूपार्थप्रतिपादकत्वेन, समयाः कपिलादिसिद्धान्ताः, तेषाम् “सन्ति पंच महन्भया' [ सूत्रकृ० 1-1-1-7 ] इत्यादि वचनसंदर्भेण दृष्टेष्टविषये विरोधाधुद्भावकत्वेन 'विशासनम' विध्वंसकं यतः प्रतो द्वादशांगमेव 'जिनानां शासनमि'ति भवत्यतो विशेषणात् सर्वज्ञविशेषसिद्धिरिति स्थितमेतत्--जिनशासनं तत्त्वादेव सिद्धं निश्चितप्रामाण्यमिति / [ ईश्वरे सहजरागादिविरहनिराकरणम् ] प्रत्र ईश्वरकृतजगद्वादिनः प्राहुः-युक्तमुक्त 'सर्वज्ञप्रणीतं शासनम् , तत्प्रणीतत्वाच्च तत् प्रमाणम्' इति / इदं त्वयुक्तम्-'रागद्वेषादिकान शत्रन जितवन्तः इति जिनाः' / सामान्ययोगिन एवेश्वर इस पर्वा [ दृष्टान्त के विना भी व्याप्ति का निश्चय ] दृष्टान्तोपन्यास विना व्याप्ति का निश्चय कैसे होगा यह शंका निरर्थक है क्योंकि सर्वज्ञविरोधी मीमांसकवादिगण जैसे दृष्टान्त के विना भी साध्यधर्मी में ही व्याप्ति का निश्चय मान कर अर्थापत्ति के उत्थापक उस व्याप्तिमान् अर्थ से उत्थित अर्थापत्ति को प्रमाण मानते हैं, उसी प्रकार प्रस्तुत में भी दृष्टान्त के विना ही अन्यथानुपपत्ति विशिष्ट हेतु से मान का प्रामाण्य क्यों नहीं मानते ? अर्थापत्ति का तो अनुमान में ही अन्तर्भाव है यह पहले कह चुके हैं अतः अर्थापत्ति को प्रमाणमानने वाले वादी के समक्ष हमारे उक्त सूक्ष्माद्यर्थप्रतिपादकत्वान्यथानुपत्ति हेतु से शासन में जिनप्रणीतत्व साध्य की सिद्धि अनिवार्य है / दृष्टान्त को अनावश्यक समझ कर ही पूर्वाचार्य ऋषिओं ने हेतु का लक्षण कहते समय अन्यथानु० इत्यादि कारिका के वचनसंदर्भ से एक ही लक्षण हेतु का कहा है-जैसे, जिस भाव में अन्यथानुपपत्ति है उसमें (पक्षसत्त्वादि) तीनरूप रहे या न रहे तो भी क्या और जिस भाव में अन्यथानपपत्ति नहा है वहाँ भी तीन रूप के रहने न रहने से क्या (लाभ) ?चार्य के मत के साथ पूर्णतः सम्मत सूत्रकार आचार्यने भी उक्त अनुमान प्रयोग मे दृष्टान्त का सूचन नहीं किया है। ['कुसमयविसासण' का दूसरा अर्थ] . ___ 'सिद्धार्थानाम्' इस विशेषण का जो अन्य अर्थ किया गया है, उस में 'कुसमयविसासणं' शब्द का अर्थ बहुत कुछ आ जाता है अतः 'कुसमयविसासणं' का इस पक्ष में दूसरा अर्थ लगाना जरूरी है वह अर्थ इस प्रकार है कि बुद्धादिशासन सर्वज्ञरचित नहीं है / जैसे देखिये 'कु' यानी कुत्सित अर्थात् गर्हणीय, गर्हणीय इसलिये कि प्रमाण से बाधित जो एकान्तभित अर्थ उनका प्रतिपादक हैं। ऐसे कुत्सित 'समय' यानी कपिल (सांख्यदर्शन प्रणेता) आदि रचित सिद्धान्त 'कुसमय' हैं / द्वादशांग जैन प्रवचन उन कुसमयों का 'विसासण' यानी विध्वंसन करने वाला है, क्योंकि-सूत्रकृतांग में "महाभूत पाँच हैं"....इत्यादिवचनसमूह से कपिलादि के सिद्धान्तों में दृष्टविरोध और इष्टहानि आदि दोषों का उद्भावन किया गया है। इससे यह फलित होता है कि द्वादशाँम प्रवचन जिनोपदिष्ट ही है / अतः इस विशेषण से 'जिन ही सर्वज्ञ है' यह बात सिद्ध हो जाती है। तदुपरांत, द्वादशांगरूप जिनशासन जिनोक्त होने से ही सिद्ध यानी निश्चितप्रामाण्यवाला फलित होता है। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सहजैश्वर्यवादः 281 व्यतिरिक्ता एतल्लक्षणयोगिनः, न पुनः शासनादिसर्वजगत्स्रष्टा ईश्वरः। तथा च पतञ्जलिः ‘क्लेश-कर्म-विपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः" / [ यो० सू० 1-24 ] अनेन सूत्रण रागादिलक्षणक्लेशशत्रुरहितत्वं सहजमीश्वरस्य प्रतिपादितम् , न पुनर्विपक्षभावनाद्यभ्यासव्यापारात् क्लेशादिक्षयस्तस्य, येन 'रागादीन स्वव्यापारेण जितवन्तः' इति वचः सार्थक तद्विषयत्वेन स्यात् / तथा चान्यरप्युक्तम्'ज्ञानेमप्रतिधं यस्य ऐश्वयं च जगत्पतेः / वैराग्यं चैव धर्मश्च सह सिद्धं चतुष्टयम्"।। [महाभा.वन./३०] इत्याशंक्याह-'भवजिणाणं' इति / भवन्ति नारक-तिर्यग-नराऽमरपर्यायत्वेनोत्पद्यन्ते प्राणिनोऽस्मिन्निति भवः संसारः, तद्धेतुत्वाद् रागादयोऽत्र 'भव'शब्देनोपचाराद् विवक्षिताः तं जितवन्त इति जिनाः। उपचाराश्रयणेच प्रयोजनम-न विकलकारणे रागादावध्वस्ते तत्कार्यस्य संसारस्य जयः शक्यो विधातुमिति प्रतिपादनम् / भवकारणभूतरागादिजये चोपायः प्रतिपादित: प्राक् , तदुपायेन च विपक्षरागादिजयद्वारेण तत्कार्यभूतस्य भवस्य जयः संभवति नान्यथेति / न ह्य पायव्यतिरेकेणोपेय [ अनादि सहज सिद्ध ऐश्वर्यवादी की आशंका ] जगत् का रचयिता ईश्वर है- इसमें विश्वास करने वाले वादीयों यहाँ एक आशंका व्यक्त करते हैं-आपने जो कहा--'शासन सर्वज्ञप्रतिपादित है और सर्वज्ञकथित होने के कारण ही वह प्रमाणभूत है'-- यह बात तो ठीक है: किन्तु यह जो आपने कहा-'राग-द्वेषादिशत्रुओं को जित लेने वाले जिन हैं' यह बात गलत है / कारण, यह सर्वज्ञ का लक्षण तो केवल सामान्य योगीवृद, जो कि ईश्वर से भिन्न हैं उसी में घट सकता है, शासन और तदितर समूचे जगत् का सर्जनहार जो ईश्वर है वह सर्वज्ञ होते हुए भी उममें उपरोक्त लक्षण नहीं है [ तात्पर्य यह है कि ईश्वरकर्तृत्व वादी ईश्वर को अनादिसिद्ध सर्वज्ञ मानते हैं न कि पहले कभी वह राग-द्वेषाक्रान्त था और बाद में साधना से वीतराग-सर्वज्ञ बना हो ऐसा / अतः अनादिकाल से रागमुक्त होने के कारण वह रागादिविजेता नहीं है, फिर भी सर्वज्ञ तो उसे. मानना है / ] जैसे कि पातञ्जल योगसूत्र में कहा है कि-"जो क्लेश, कर्म-उनके विपाक और विविध आशय वासना से सर्वथा [सभी काल में ] अस्पृष्ट है ऐसा कोई विशिष्ट पुरुष ही ईश्वर है / " इस सूत्रकथन के अनुसार ईश्वर में राग-द्वेषादिस्वरूप क्लेशात्मक शत्रु का सहज [ त्रैकालिक ] विरह सूचित होता है / इस में ऐसा नहीं कहा है कि रागादि के विपक्ष नीरागता आदि शुभ भावनाओं के अभ्यास के प्रयोग से ईश्वर ने क्लेशादि का क्षय किया, अतः आपका (ईश्वर के बारे में) यह वचन सार्थक नहीं है कि रागादि को अपने पुरुषार्थ से जितने वाले जिन [सर्वज्ञ] हैं / अन्य विद्वानों ने भी ऐसा दिखाया है। जैसे कि महाभारतकार ने कहा है-"जिस जगदीश का ज्ञान, ऐश्वर्य, वैराग्य और धर्म अप्रतिघ यानी अस्खलित है-[यानी] ये चारों सहज सिद्ध हैं"। . [ आशंका के उत्तर में 'भवजिणाणं' पद की व्याख्या ] ईश्वरवादीयों की इस आशंका का निराकरण करने हेतु सम्मतिशास्त्रकार ने 'भवजिणाणं' यह विशेषण (प्रथम कारिका में) प्रयुक्त किया है / भव शब्द का अर्थ है संसार, जहाँ प्राणिवर्ग नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार प्रकार के पर्यायों को धारण करते हुए जन्म पा रहे हैं / यद्यपि यहाँ उपचार का आश्रय लेकर 'भव' शब्द से राग-द्वेषादि शत्रु विवक्षित किये गये हैं क्यों कि नारकादिभव Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 सिद्धिः, अन्यथोपेयस्य निर्हेतुकत्वेन देश-काल-स्वभावप्रतिनियमो न स्यादितिसर्वप्राणिनामीश्वरत्वम् , न वा कस्यचित् स्यात् / प्रतिपादितश्चायमर्थः-[प्र. वा० 3/35 / नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात् / अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसम्भव ॥-इत्यादिना ग्रन्थेन धर्मकीत्तिना। तन्न रागादिक्लेशविगमः स्वभावत एवेश्वरस्येति युक्तम् / [चार्वाकेण सह परलोके विवादः] अत्र बृहस्पतिमतानुसारिणः-स्वभावसंसिद्धज्ञानादिधर्मकलापाध्यासितस्य स्थाणोरभावप्रतिपादनं जैनेन कुर्वताऽस्माकं साहाय्यमनुष्ठितमिति मन्वानाः प्राहुः-युक्तमुक्तं यत् 'स्वभावसंसिद्धज्ञानादिसम्पत्समन्वितस्येश्वरस्याभावः' / 'नारक-तिर्यग्नराऽमररूपपरिणतिस्वभावतयोत्पद्यन्ते प्राणिनोऽस्मिनिति' एतच्चाऽयुक्तमभिहितम् , परलोकसद्भावे प्रमाणाभावात् / तथाहि-परलोकसद्भावावेदकं प्रमाणं प्रत्यक्षम् अनुमानम् आगमो वा जैनेनाभ्युपगमनीयः, अन्यस्य प्रमाणत्वेन तेनाऽनिष्टः। . के प्रधान हेतु ही रागादिगण है / इस शत्रुगण को जीत लेने वाले जिन कहे जाते हैं। उपचार का आश्रय यहाँ यह दिखाने के लिये किया है कि संसार के उग्र कारणभूत रागादि का ध्वंस जब तक नहीं होता वहाँ तक उसके कार्यस्वरूप संसार यानी भव के ऊपर विजय पाना शक्य नहीं है। संसार के कारणीभूत रागादि के विजय का उपाय तो पहले दिखाया है, उस उपाय से प्रतिपक्षी रागादिगण का विजय करने द्वारा ही संसार को जिता जा सकता है, अन्यथा कभी उसका पराजय शक्य नहीं है। प्रसिद्ध ही बात है यह कि उपेय-प्राप्तव्य की सिद्धि कभी उपाय के विना नहीं होती। अगर विना उपाय भी उपेय सिद्ध हो जावे तब तो वह हेतुरहित हो जाने से, अमुक ही देश में-अमुक ही काल मेंअमुक ही स्वभाव वाली वस्तु उत्पन्न हो यह जो दृढ नियम देखा जाता है वह तूट जायेगा। उसका नतीजा यह होगा कि सभी जीव विना हेतु ही ऐश्वर्यभाग हो जायेंगे, अथवा तो कोई भी जीव ऐश्वर्यशाली नहीं रहेगा क्योंकि ऐश्वर्य को सहज सिद्ध मानने वाले उसको हेतुरहित मानते हैं। बौद्ध ग्रन्थकार धर्मकीत्ति का भी यही कहना है कि "हेतुरहित वस्तु को अन्य किसी की अपेक्षा न होने पर या तो उसको नित्य सत्त्व होगा या नित्य असत्त्व होगा। कारण, भावों की कादाचिकता का सम्भव अपेक्षाधीन है।” निष्कर्षः-रागादि क्लेशों का विनाश यानी अभाव, ईश्वर को सहज ही होता है-यह बात अयुक्त है। [ सर्वज्ञवादः समाप्तः [ परलोक के प्रतिक्षेप में चार्वाक का पूर्वपक्ष ] नास्तिक मत के प्रवर्तक बृहस्पतिनामक विद्वान के अनुगामीयों यहाँ-'स्वभाव से सिद्ध सहज ज्ञानादि चतुष्टय से अलंकृत ऐसा कोई पुरुषविशेष ईश्वर है ही नहीं- इस प्रकार निरूपण करने वाले जैनों ने हमारी सहायता की है ऐसा समझ कर अपनी बात कहते हैं कि 'स्वभाव से सिद्ध ज्ञानादि सम्पत्ति से युक्त कोई ईश्वर नहीं है'- यह ठीक ही कहा गया है। किन्तु यह जो आपने कहा-नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव के पर्यायों को धारण करते हुए यहाँ प्राणिसमूह जन्म लेते हैं....इत्यादि, वह नितान्त गलत कथन है चूंकि परलोक के अस्तित्व में कोई भी प्रमाण मौजूद नहीं है / वह इस प्रकारपरलोक के अस्तित्व को दिखाने वाला अगर कोई प्रमाण जैन के पास होगा तो वह प्रत्यक्ष-अनुमान Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१ परलोकवाद: 283 न चात्रैतद् वक्तव्यम् भवतोऽपि कि तत्प्रतिक्षेपकं प्रमाणम् ?-यतो नास्माभिस्तत्प्रतिक्षेपकप्रमाणात तदभावः प्रतिपाद्यते किंतु परोपन्यस्तप्रमाणपर्यनुयोगमात्रमेव क्रियते / अत एव 'सर्वत्र पर्यनुयोगपराण्येव सूत्राणि बृहस्पतेः" [ ] इति चार्वाकरभिहितम् / स च परोपन्यस्तप्रमाणपर्यनुयोगः तदभ्युपगमस्य प्रश्नादिद्वारेण विचारणा न पुनः स्वसिद्धप्रमाणोपन्यासः येन 'अतीन्द्रियार्थप्रतिक्षेपकत्वेन प्रवर्तमानं प्रमाणमाश्रयासिद्धत्वादिदोषदुष्टत्वेन कथं प्रवर्तते' इत्यस्मान् प्रति भवताऽपि पर्यनुयोगः क्रियेत। अत एव परलोकसाधकप्रमाणाभ्युपगमं परेण ग्राहयित्वा तदभ्युपगमस्यानेन प्रकारेण विचारः क्रियते-तत्र न तावत् परलोकप्रतिपादकत्वेन चक्षुरादिकरणव्यापारसमासादितात्मलाभं सन्निहितप्रतिनियतरूपादिविषयत्वात् प्रत्यक्षं प्रवर्तते / नाप्यतीन्द्रियं योगिप्रत्यक्षं तत्र प्रवर्तत इति वक्तु शक्यम् , परलोकादिवत् तस्याप्यसिद्धेः।। या आगम ही होगा, क्योंकि स्वतन्त्र उपमानादि अन्य किसी को वे प्रमाण ही नहीं मानते हैं / [चार्वाकमत केवल दूसरे मत की कसौटी में तत्पर ] [यहाँजैन की ओर से बीच में एक आशंका को प्रस्तुत कर के नास्तिक उसका खंडन प्रस्तुत करता है-] 'आपके पास भी परलोक निषेध के लिये क्या प्रमाण है ?' ऐसा प्रश्न नास्तिक के प्रति करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि हम परलोक के निषेधक प्रमाण को ढूंढ कर परलोक के अभाव का प्रतिपादन करने में कटिबद्ध नहीं है किन्तु तटस्थ बनकर सीर्फ आपने परलोकसिद्धि में जो प्रत्यक्षादि प्रमाण का उपन्यास किया है उसकी कसौटी ही हमें करनी है / इसीलिये तो चार्वाकों ने कहा है कि "बृहस्पति के सभी सूत्रवचन दूसरों के सिद्धान्त में पर्यनुयोगपरक ही हैं।" दूसरे लोगों ने जिन प्रमाणों का उपन्यास किया है उनमें पर्यनुयोग करने का तात्पर्य भी यही है कि उनकी मान्यताओं के ऊपर प्रश्नादि करने द्वारा कुछ विचारणा की जाय, नहीं कि हमारे मत से जो कुछ सिद्ध यानी अभ्युपगत हो उसके लिये प्रमाणों का उपन्यास किया जाय ! अत: आप हमारे प्रति ऐसा पर्यनुयोग नहीं कर सकते कि "चार्वाक की ओर से अतीन्द्रिय परलोकादि अर्थ के निषेधमें जिस प्रमाण का प्रयोग किया जाता है उसमें आश्रयासिद्धि आदि दोष है क्योंकि उसके मत से वे अतीन्द्रिय अर्थ सिद्ध ही नहीं है तो उसमें निषेधक प्रमाण की प्रवृत्ति यानी उपन्यास कैसे किया जा सकता है........” इत्यादि-ऐसा पर्यनुयोग तभी सावकाश होता अगर हम प्रमाणविन्यास में तत्पर होते / [ परलोक सिद्धि में प्रत्यक्ष प्रमाण का अभाव ] चार्वाकवादी का अपनी ओर से किसी प्रमाण का विन्यास करने का कोई संकल्प न होने से ही हम नास्तिक लोग पहले दूसरे वादी की ओर से परलोकसाधक किसी प्रमाण का स्वीकार करवाने के बाद ही, अर्थात् दूसरे वादी वैसे प्रमाण का उपन्यास करे तभी हम इस प्रकार विचार करते हैं कि-जैन आदि लोगों ने जो तीन प्रमाण माने है उसमें से प्रत्यक्षप्रमाण की परलोक के प्रतिपादन में कोई गुंजाईश नहीं है / कारण, उसका जन्म नेत्रादि बाह्य करण-इन्द्रिय की कुछ हिलचाल-सक्रियता या व्यापार से होता है, अतएव प्रत्यक्ष केवल संनिहित यानी अपने से संबद्ध अमुक अमुक रूपरसादि विषय को ही स्पर्श करता है, परलोक को नहीं, क्योंकि वह इन्द्रियों से सम्बद्ध नहीं है / कदा Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नाप्यनुमानं प्रत्यक्षपूर्वकं तत्र प्रवृत्तिमासादयति, प्रत्यक्षाऽप्रवृत्तौ तत्पूर्वकस्यानुमानस्यापि तत्राप्रवृत्तः। अथ यद्यपि प्रत्यक्षावगतप्रतिबन्ध लगप्रभवमनुमानं न तत्र प्रवर्तते तथापि सामान्यतोदृष्टं तत्र प्रतिष्यति / तदपि न युक्तम् , यतस्तदपि सामान्यतोदृष्टमवगतप्रतिबन्धलिंगोद्भवम् , आहोस्वित् अनवगतप्रतिबन्धलिंगसमुत्थम् ? यद्यनवगतप्रतिबन्धलिंगोद्भवमिति पक्षः, स न युक्तः, तथाभूलिंगप्रभवस्य स्वविषयव्यभिचारेण अश्वदर्शनानन्तरोदभूतराज्यावाप्तिविकल्पस्येवाऽप्रमाणत्वात् / अथ प्रतिपन्नसम्बन्धलिंगप्रभवं तत् तत्र प्रवर्तते इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः, प्रतिबन्धावगमस्यैव तत्र लिंगस्याऽसम्भवात् / तथाहि-प्रत्यक्षस्य तत्र लिंगसम्बन्धावगमनिमित्तस्याभावेऽनुमानं लिंगसम्बन्धग्राहकमभ्युपगन्तव्यम् / तत्र यदि तदेव परलोकसद्धावावेदकमनुमानं स्वविषयाभिमतेनार्थेचित् ऐसा कहो कि-'योगीओं का प्रत्यक्ष परलोक के विषय में प्रवृत्त है'-तो यह कहना शक्य ही नहीं, क्योंकि जैसे परलोक असिद्ध है वैसे ही अतीन्द्रिय पदार्थ को ग्रहण करने वाला योगिप्रत्यक्ष भी असिद्ध यानी अविश्वसनीय है। [ परलोक सिद्धि में अनुमान प्रमाण का अभाव ] परलोकसाधक कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है अत एव अतुमान प्रमाण की भी उसमें प्रवृत्ति नहीं है क्योंकि जिसका प्रत्यक्ष हो उसी का कभी अनुमान होता है / परलोकवादी:-जिस लिंग का अपने साध्य के साथ प्रतिबन्ध यानी व्याप्ति प्रत्यक्ष से गृहीत हो ऐसे लिंग से होने वाले अनुमान की परलोक के विषय में प्रवृत्ति नहीं हो सकती यह बात ठीक है, किन्तु जहाँ प्रत्यक्ष की आवश्यकता नहीं है ऐसे 'सामान्यतोदृष्ट' नामक अनुमान की प्रवृत्ति परलोक के विषय में हो सकती है। जैसे कि 'ऋषिमुनिओं की तपश्चर्या सार्थक [=सफल ] है क्योंकि वह प्रवृत्ति है, जो प्रवृत्ति होती है उसका कुछ न कुछ फल अवश्य होता है जैसे राजसेवादि प्रवृत्ति / ' इस अनुमान में विशेष फलरूप से परलोक को साध्य नहीं बनाया है किन्तु सामान्यतः फलवत्ता को ही साध्य बनाया है और प्रवृत्ति हेतु के साथ उसकी व्याप्ति प्रसिद्ध होने से कोई दोष नहीं है। जब तपश्चर्या में सफलता सिद्ध हुयी और इहलोक में उसका कोई फल देखा नहीं जाता तो यह कल्पना अवश्य करनी पड़ेगी कि उसका फल परलोक में मिलेगा, क्योंकि उस प्रवृत्ति को निष्फल तो मान नहीं सकते। इस प्रकार सामान स्कारेण व्याप्ति का ग्रहण होने पर विशेष फलरूप में परलोक की सिद्धि में सामान्यतोहाट अनुमान की प्रवृत्ति हो सकती है। चार्वाकः यह बात भी अयुक्त है, यहाँ भी दो प्रश्न है कि वह सामान्यतोदृष्ट अनुमान (A) साध्य के साथ जिसकी व्याप्ति गृहीत है ऐसे लिंग से जन्म लेता है ? (B) या व्याप्ति गृहीत न हो ऐसे भी लिंग से उत्पन्न होता है ? (B) यदि व्याप्तिग्रहणशून्य लिंग से सामान्यतोदृष्ट अनुमान की उत्पति वाला दूसरा पक्ष माना जाय तो वह अयुक्त है, क्योंकि वैसे लिंग से उत्पन्न होने वाले अनुमान का अपने विषय के साथ व्यभिचार यानी विसंवाद होने से वह प्रमाण नहीं है, जैसे कि अश्व को स्वप्नादि में देखने के बाद किसी को ऐसा विकल्प होता है कि मुझे राज्य प्राप्ति होगी, किन्तु उसे राज्यप्राप्ति नहीं होती है तो विसंवाद के कारण उसका अश्वदर्शनजन्य राज्यप्राप्ति का विकल्प प्रमाण नहीं होता। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 285 नात्मोत्पादकलिंगसम्बन्धग्राहकं तदेतरेतराश्रयत्वदोषः / अथानुमानान्तराद् गृहीतप्रतिबन्धाल्लिगादुपजायमानं तद्विषयं तदभ्युपगम्यते तदाऽनवस्था। तथा, सर्वमप्यनुमानमस्मान् प्रत्यसिद्धम् / तथाहि बृहस्पतिसूत्रम्-"अनुमानमप्रमारणम्" ] इति / अनेन प्रतिज्ञाप्रतिपादनं कृतम्, अनिश्चितार्थप्रतिपादकत्वाद[त्]सिद्धप्रमाणाभासवदिति हेतुदृष्टान्तावभ्यूह्यो। विषयविचारेण वाऽनुमानप्रामाण्यमयुक्तम्-धर्म-धम्र्यु भयस्वतन्त्रसाधने सिद्धसाध्यता यतः अतो विशेषण-विशेष्यभावः साध्यः / प्रमेयविशेषविषयां प्रमां कुर्वत् प्रमाणं प्रमाणतामश्नुते / इतरेतरावच्छिन्नश्च समुदायोऽत्र प्रमेयः, तदपेक्षया च पक्षधर्मत्वादीनामन्यतमस्यापि रूपस्याऽप्रसिद्धिः। नहि समुदायधर्मता हेतोः, नापि समुदायेनाऽन्वयो व्यतिरेको वा, धमिमात्रापेक्षया पक्षधर्मत्वे साध्यधर्मापेक्षया च व्याप्तौ गौणतेति / उक्तं च, "प्रमाणस्याऽगौणत्वादनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभः" [ ] इति / धर्मि-धर्मताग्रहणेऽपि न गौणतापरिहारः, प्रतीयमानापेक्षया गौण-मुख्यव्यवहारस्य चिन्त्यत्वात् , समुदायश्च प्रतीयते। [व्याप्तिग्रहण अशक्य होने से अनुमान का असम्भव ] (A) यदि यह कहा जाय कि-'जिस लिंग की अपने साध्य के साथ व्याप्ति गृहीत है वैसे लिंग से उत्पन्न अनुमान की परलोक सिद्धि में प्रवृत्ति होगी'-तो यह पक्ष भी युक्त नहीं है / कारण, उस लिंग की अपने साध्य के साथ व्याप्ति गृहीत होने का सम्भव ही नहीं / वह इस प्रकार: लिंग की परलोकादिफलवत्तारूप अपने साध्य के साथ व्याप्ति के ग्रहण में प्रत्यक्षरूप निमित्त तो है नहीं, अतः अनुमान को ही व्याप्ति का ग्राहक स्वीकारना पडेगा / अब यदि ऐसा कहें कि जो परलोकसाधक मुख्य अनुमान है वही अपने साध्यरूप में अभिमत परलोकस्वरूप अर्थ के साथ, अपने उत्पादक लिंग की व्याप्ति को ग्रहण करायेगा तो इसमें स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय दोष लगेगा, क्योंकि मुख्य अनुमान से व्याप्तिग्रहण का और व्याप्तिग्रह होने पर मुख्य अनुमान का उद्भव होगा। इसके परिहार के लिये यदि व्याप्तिग्रह का उद्भव दूसरे कोई अनुमान से मानेंगे तो उस दूसरे अनुमान की उद्भावक व्याप्ति का ग्रह तोसरे किसी अनुमान से मानना होगा, फिर चौथा ......पाँचवा....इस प्रकार कहीं अन्त न आने से अनवस्था दोष लग जायेगा। [नास्तिक मत में अनुमान अप्रमाण है। परलोक विषय में अनुमान का असम्भव तो है, उपरांत दूसरी बात यह है कि हमारे नास्तिकबिरादरों के प्रति कोई भी अनुमान ही असिद्ध यानी अविश्वास्य है। बृहस्पतिविरचित सूत्र में भी कहा गया है कि 'अनुमान प्रमाणभूत नहीं है' / सूत्र में यह प्रतिज्ञा के तौर पर कहा गया है, अतः उसमें हेतु और दृष्टान्त स्वयं जान लेना चाहिये जो क्रमश: इस प्रकार है-हेतु:- 'क्योंकि अनुमान अनिश्चित अर्थ का प्रतिपादक है / ' दृष्टान्त:-जैसे कि प्रमाणाभासरूप में प्रसिद्ध दीपकलिका में ऐक्य का प्रतिभास। [विषय के न घटने से अनुमान अप्रमाण ] * अनुमान के विषय का विचार करे तो भी यह प्रतीत होता है कि अनुमान का प्रामाण्य असंगत है / अनुमान का विषय होता है धमि और धर्म / अब यदि अनुमान से धर्म और धर्म की स्वतन्त्ररूप से Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ ___ एकदेशाश्रयणेनाऽपि त्रैरूप्यमयुक्तम् , व्याप्त्यसिद्धेः / नहि सत्तामात्रेणाऽविनाभावो गमक अपि त्ववगतः, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् / स च सकलसपक्ष-विपक्षाऽप्रत्यक्षीकरणे दुर्विज्ञानोऽसर्वविदा। न चात्र भूयोदर्शनं शरणम्, सहस्रशोऽपि दृष्टसाहचर्यस्य व्यभिचारात् / अत एव न दर्शनाऽदर्शनमपि / पृथक् पृथक् सिद्धि अभिप्रेत हो तब तो स्पष्टरूप से सिद्धसाध्यता दोष लगेगा क्योंकि धर्मि पर्वत और धर्म अग्नि दोनों प्रसिद्ध ही है, इसलिये धर्म और धर्म के विशेषण-विशेष्यभाव घटित समुदायरूप प्रमेयविशेष को ही साध्य करना होगा [ द्रष्टव्य न्यायबिंदु परि० 2- सू० 6 की टीका ] अन्यथा वह प्रमाण नहीं होगा क्योंकि प्रमाण का प्रामाण्य प्रमेयविशेष को विषय करने वाली प्रमा को उत्पन्न करने पर ही निर्भर होता है। [ तात्पर्य यह है कि 'सर्वं ज्ञानं धर्मिणि प्रमाणम्' इस प्रवाद के अनुसार भ्रमज्ञानसहित सभी ज्ञान धर्मिमात्र में तो प्रमाण ही होता है अत: धर्मविशेष को विषय करने पर ही वास्तव में ज्ञान प्रमाण कहा जाता है। यहाँ परस्पर संश्लिष्ट ऐसे पर्वत और अग्नि साध्य करते है, अर्थात् अग्निविशिष्ट पर्वत आपका साध्य है। इस साध्य की अपेक्षा धूम लिग में पक्षधमत्व आ एक भी रूप नहीं घट सकेगा क्योंकि धूम तो पर्वत में वृत्ति है जो कि समुदायात्मक पक्ष का ही एक अंश है अतः वह पक्षभूत नहीं है / अग्नियुक्त पर्वतरूप साध्य का कोई सपक्ष भी प्रसिद्ध नहीं है / धूम यद्यपि पर्वत का धर्म है किन्तु अग्निविशिष्ट पर्वत रूप समुदाय जो कि पक्ष है उसका धर्म तो नहीं है क्योंकि अग्निविशिष्ट पर्वत का निश्चय नहीं है / न उस ससुदाय के साथ उसकी अन्वयव्याप्ति या व्यतिरेक व्याप्ति सिद्ध है / यदि हेतु में पक्षधर्मता की प्रसिद्धि के लिये समुदाय में रूढ पक्षशब्द का पक्षकदेशरूप केवल धर्म में उपचार करके धूम हेतु में पर्वतरूप धर्मी की अपेक्षा पक्षधर्मता का उपपादन किया जाय तो यह औपचारिक यानी गौण पक्षधर्मता हयी, वास्तविक नहीं। एवं व्याप्ति की प्रसिद्धि के लिये अग्निविशिष्टपर्वतरूप समुदाय के एक देशभूत अग्निरूप साध्य के साथ ही धूम की व्याप्ति मानी जाय तो यह भी औपचारिक यानी गौण व्याप्ति हयी, वास्तविक न हुयी / अतः औपचारिक पक्षधर्मता और व्याप्ति से होने वाला अनुमान भी गौण ही होगा, वास्तव नहीं होगा। कहा भी है "प्रमाण गौणस्वरूप न होने के कारण अनुमान से अर्थ का निश्चय दुर्लभ है / " तात्पर निश्चय गौण नहीं वास्तव होता है, अनुमान वास्तव नहीं किन्तु उपरोक्त रीति से गौण है अत: उससे वास्तव अर्थनिश्चय अशक्य है। यदि ऐसा कहें कि-'अनुमान से पर्वत और अग्नि में धर्मि-धर्मभाव का ग्रहण किया जाता है'तो यह कहने पर भी गौणता अटल र प्रतीति हो उसके आधार पर की जाती है / प्रस्तुत में अग्निविशिष्ट पर्वत रूप समुदाय की प्रतीति होती है अतः वही मुख्य है, उसकी अपेक्षा धर्मि-धर्मभाव के ग्रहण को गौण ही मानना होगा। [ अविनाभाव का ग्रहण दुःशक्य ] यदि केवल एक देशरूप पर्वतादि धर्मी को ही वास्तव पक्ष मान कर के पक्षधर्मता आदि तीनरूपों की उसी से उपपत्ति करे तो भी वह युक्त नहीं है, क्योंकि केवल साध्यधर्म के साथ हेतु की व्याप्ति अनुपपन्न है / तात्पर्य यह है कि व्याप्ति का अर्थ है हेतु में साध्य का अविनाभाव / यह अविनाभाव साध्य में अज्ञात पडा रहे इतने मात्र से तो कभी अनुमान होता नहीं, अतः ज्ञात अविनाभाव की आवश्यकता माननी होगी अन्यथा जिस को व्याप्तिग्रह कभी नहीं हुआ ऐसे पुरुष को भी धूम देखकर Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 287 तदुक्तम् - "गोमानित्येव म]न भाव्यमश्ववताऽपि किम" [प्र० वा० 3/25 ] इति / देश-कालावस्थाभेदेन च भावानां नानात्वावगमादनाश्वासः / तदुक्तम्-'अवस्था-देश-कालानाम्" [ वाक्य 1-32 ] इत्यादि / आह च-"अविनाभावसम्बन्धस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात्" [ . यच्च-'सामान्यस्य तद्विषयस्याऽभावात् , स्वार्थ-परार्थभेदाऽसम्भवात, विरुद्धानुमान-विरोधयोः सर्वत्र सम्भवात् , क्वचिच्च विरुद्धाऽव्यभिचारिणः' इत्यादि दूषणजालं-तदनुद्घोषणीयमेव, यतोऽनिश्चितार्थप्रतिपादकत्वात् "अनुमानमप्रमाणम्" इत्यनुमानाऽप्रमाणताप्रतिपादने कृते शेषदूषणजालस्य मृतमारणकल्पत्वात् / ततोऽनुमानस्याऽप्रमाणत्वादतीन्द्रियपरलोकसद्भावप्रतिपादने कुतस्तस्य प्रवृत्तिः / अग्नि का अनुमान हो जायेगा / अब यह जो अविनाभाव है उसका ज्ञान कैसे होगा ? अविनाभाव का मतलब यह है कि जहाँ जहाँ धूम हो उन सभी सपक्षों में अग्नि का होना और अग्नि जहाँ न हो वैसे विपक्षों में धूम का न रहना। ऐसे अविनाभाव के ज्ञान के लिये सभी सपक्षों का और विपक्षों का प्रत्यक्ष होना अनिवार्य बन गया, किन्तु असर्वज्ञ पुरुष के लिए वह सम्भव न होने से उसके लिये अविनाभाव दुर्जेय बन गया। यदि ऐसा कहें कि-'सकल सपक्ष-विपक्षों का प्रत्यक्ष न होने पर भी अग्नि और धूम को बार बार एक स्थान में देखने से अविनाभाव का ज्ञान हो जायेगा'-तो यह अनेकबार दर्शन शरण्य नहीं है, चूकि हजारों बार देखा हो कि पार्थिवत्व और लोहलेख्यत्व एकत्र रहता है फिर भी वज्र में लोहलेख्यत्व नहीं रहता है। [ अथवा कहीं अग्नि के रहने पर भी धूम नहीं होता है ] / यदि ऐसा कहा जाय कि-'अनेकशः दर्शन नहीं किन्तु, धूम को देखने पर अग्नि को भी देखना और अग्नि को न देखने पर धूम को नहीं देखना. इसप्रकार के दर्शन और अदर्शन से अविनाभाव का निश्चय करेंगे'-तो यह भी अयुक्त होने में वही युक्ति है कि पार्थिवत्व होने पर लोहलेख्यत्व देखते हैं और लोहलेख्यत्व न देखने पर पार्थिवत्व नहीं देखते हैं फिर भी वज्र में उसका भंग हो जाता है, अतः अविनाभावग्रह दुर्जेय है। जैसा कि प्रमाणवात्तिक में कहा गया है कि-'क्या कोई पुरुष गो-स्वामी है इसलिये वह अश्व-स्वामी भी होना चाहिये ? [ ऐसा कोई नियम है ? ] इत्यादि। दूसरी बात यह है कि जिन दो वस्तु के बीच अविनाभाव की कल्पना की जाती है उसमें पूर्ण आस्था रख नहीं सकते क्योंकि भावों में देशभेद से कालभेद से और अवस्थाभेद से वैचित्र्य का होना प्रसिद्ध है-जैसेः एक ही बीज इस देश में उपजाऊ भूमि के कारण बहु फलप्रद होता है, वही बीज उषर देश में कम फलप्रद होता है इत्यादि / वाक्यपदीय ग्रन्थ में कहा गया है कि-"पदार्थों की शक्ति अवस्था, देश और काल के भेद से भिन्न भिन्न प्रकार की होती है, अतः अनुमान से उसका पता लगाना अति कठिन है।" यह भी कहा गया है कि-"अविनाभाव सम्बन्ध का ग्रहण अशक्य होने से [ अनुमान कठिन है / ]" [ अनुमान में विरुद्धादि तीन दोषों की आशंका ] शंकाः-नास्तिक ने जो अनुमान दिखाया है कि "अनुमान अप्रमाण है क्योंकि अनिश्चितार्थप्रतिपादक है" इत्यादि, यह अनुमान मिथ्या है क्योंकि अनुमान मात्र के उच्छेद के लिये नास्तिक ने ऐसी प्रतिक्रिया दिखायी है कि-"अनुमान का विषय [ अग्निविशेष को मानेंगे तो उसके साथ व्याप्तिग्रह * अवस्था देश-कालानां भेदाद् भिन्नासु शक्तिषु / भावानामनुमानेन प्रतीतिरतिदुर्लभा / / इति / Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथेदमेव जन्म पूर्वजन्मान्तरमन्तरेण न युक्तमिति जन्मान्तरलक्षणस्य परलोकस्य सिद्धिरिष्यते। तत् किमियमर्थापत्तिः, अथानुमानं वा ? न तावदापत्तिः तल्लक्षणाभावात् , 'दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यते' [ मीमांसा० 1.1-5 भाष्य ] इति हि तस्या लक्षणं विचक्षणैरिष्यते / न तु जन्मान्तरमन्तरेण नोपपत्तिमदिदं जन्मेति सिद्धम् , मातापितृसामग्रीमात्रकेण तस्योपपत्तेः, तन्मात्रहेतुकत्वे चान्यपरिकल्पनायामतिप्रसंगात् / शक्य न होने से अनुमान का उत्थान नहीं होगा और ] यदि सामान्य को मानेंगे तो वह असंगत है क्योंकि अग्नित्व की सिद्धि से अर्थी का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा और अग्नित्व सर्वदिग्वर्ती होने से अर्थी की नियतदिग्अभिमुख प्रवृत्ति नहीं होगी। स्वार्थ और परार्थ ये भेद भी नहीं घट सकते क्योंकि दोनों त्रैरूप्य से उत्पन्न होते हैं, और इसी लिये धूलिपटल से होने वाले अग्नि के मिथ्याज्ञान वत् अप्रमाण है। तदुपरांत सभी अनुमान में प्रायः विरुद्ध और अनुमानविरोध तथा विरुद्धाव्यभिचारी ये तीन दोष उभर आते हैं, विरुद्ध यानी अपने इष्ट साध्य का विधात करने वाला-जैसे:-नैयायिक शब्द में कृतकत्व हेतु से अनित्यत्व को सिद्ध करना चाहता है किन्तु कृतकत्व हेतु शब्द में अम्बरगुणत्व का निषेधक भी है अत: नैयायिक के इष्ट का विरोधी है / तथा सभी अनुमान में अनुमानविरोध भी इसप्रकार होता है-विवक्षित साध्यधर्म धर्मी का विशेषण नहीं हो सकता क्योंकि वह मिधर्मसमुदाय के एकदेशरूप है जैसे कि धर्मी का स्वरूप / इस अनुमान से सभी अनुमान हत-प्रहत हो जाता है / तदुपरांत किसी अनुमान में विरुद्धाऽव्यभिचारी दोष भी इस प्रकार लगता है-विरुद्ध यानी प्रस्तुत साध्य का विरोधी और अव्यभिचारी यानी अपने साध्य का अविनाभावी ऐसे प्रतिपक्षी हेतु का प्रयोग करने से अनुमान सत्प्रतिपक्षित हो जाता है-जैसे: शब्द में एक ओर कोई कृतकत्व हेतु से अनित्यत्व सिद्ध करना चाहे तो अनित्यत्वरूप प्रस्तत साध्य का विरोधी नित्यत्व का अव्यभिचारी ऐ हेतु प्रयुक्त करने से पहला अनुमान प्रतिबद्ध हो जाता है"। -नास्तिकों की दिखायी हुई इस प्रतिक्रिया से 'अनुमानमप्रमाणम्' यह अनुमान भी प्रतिरुद्ध हो जायेगा। - समाधानः उपरोक्त शंका से हमारे द्वारा आपादित जो दूषणवद है उसकी हमारे ही अनुमान में उद्घोषण करना युक्त नहीं है, क्योंकि अनिश्चितार्थप्रतिपादकत्व हेतु से सभी 'अनुमान अप्रमाण है' इस प्रकार अनुमान के प्रामाण्य का बहिष्कार कर देने से हमारा अनुमान भी तदन्तर्गत मृततुल्य ही हो गया, जो मृत हो गया उसके ऊपर हमारे ही मत का अवलम्बन करके दूषणप्रहार करना यह तो मृत का ही मारणतुल्य यानी निष्फल है। सारांशः-अनुमान मात्र अप्रमाण है तो अतीन्द्रिय ऐसे परलोकादि के अस्तित्व की सिद्धि के लिये वह कैसे प्रवृत्त किया जा सकेगा ? नहीं किया जा सकता। [जन्मान्तर विना इस जन्म की अनुपपत्ति यह कौनसा प्रमाण ?] यदि जन्मान्तरस्वरूप परलोक की सिद्धि इस युक्ति से इष्ट हो कि यह वर्तमान जन्म पूर्व जन्मान्तर के विना अनुपपन्न है, तो यहाँ प्रश्न है कि यह अनुपपत्ति अर्थापत्तिप्रमाण है या अनुमान प्रमाण ? अर्थापत्ति का लक्षण यहाँ संगत न होने से वह अर्थापत्ति प्रमाण नहीं हो सकता। मीमांसक विद्वानों ने अर्थापत्ति का यह लक्षण किया है-'देखा हुआ या सुना हुआ अर्थ अन्यथा यानी साध्य Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 286 अथ प्रज्ञा-मेधादयो जन्मादावभ्यासपूर्वका दृष्टाः कथमतत्पूर्वका भवेयुः, न वह्निपूर्वको धूमस्तत्पूर्वकतामन्तरेण कदाचिदपि भवन्नुपलब्धः / तदप्यसत्-अविनाभावसम्बन्धस्य देश-कालव्याप्तिलक्षणस्य प्रत्यक्षेण प्रतिपत्तुमशक्तेः / संनिहितमात्रप्रतिपत्तिनिमित्तं हि प्रत्यक्षमुपलभ्यते, 'न हि सकलदेशकालयोविना वह्निमसम्भव एव धूमस्य' इति प्रत्यक्षतः प्रतीतियुक्ता, अतो न धूमोऽपि वह्निपूर्वकः सर्वत्र प्रत्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यां सिद्धः, इति कुतस्तेन दृष्टान्तेन जन्मान्तरस्वरूपपरलोकसाधनम् ? तस्मात् केचित् प्रज्ञा-मेधादयस्तथाभूताभ्यासपूर्वकाः, केचिद् माता-पितृशरीरपूर्वका इति / न च प्रज्ञादयः शरीरतो व्यतिरिच्यमानस्वभावाः संवेदनविषयतामुपयान्ति, शरीरं च तदन्वयव्यतिरेकानुवृत्तिमदेव दृष्टमिति कथमन्यथा व्यवस्थामर्हति ? / ___अथ पूर्वोपात्तादृष्टमन्तरेण कथं मातापितृविलक्षणं शरीरम् ? नन्वतेनैव व्यभिचारो दृश्यते, नहि सर्वदा कारणानुरूपमेव कार्यम् , तेन विलक्षणादपि माता-पितृशरीराद यदि प्रज्ञा-मेधादिभिविलक्षणं तदा पत्यस्य शरीरमुपजायेत, कदाचित् तदाकारानुकारि तत क एवाऽत्र विरोधः? यथा कश्चित शालूकादेव शालूकः, कश्चिद् गोमयात् ; तथा कश्चिदुपदेशाद् विकल्पः, कश्चित्तदाकारपदार्थदर्शनात् / अथ दर्शनादपि विकल्पः पूर्वविकल्पवासनामन्तरेण कथं भवेत् ? तहि गोमयादपि शालूकः कथं पदार्थ के विना उपपन्न न हो सके' / प्रस्तुत में, पूर्व जन्मान्तर के विना वर्तमान जन्म की अनुपपत्ति है यह असिद्ध है, क्योंकि माता-पिता रूप सामग्री से ही वर्तमान जन्म की उपपत्ति हो जाती है, अतः माता-पिता ही वर्तमान जन्म के हेतु बन जाते हैं, शेष जन्मान्त रादि की निरर्थक कल्पना यदि की जाय तो निरर्थक अश्वसींग आदि की भी कल्पना क्यों न की जाय ? [ प्रज्ञा-मेधादिगुण की जन्मान्तरपूर्वकता कैसे ? ] यदि यह शंका करें कि-"प्रज्ञा और मेधा इत्यादि गुण हमेशा अभ्यास से ही सम्पन्न होते हुए दिखाई देते हैं, तो जन्म के प्रारम्भ में नवजात शिशु में जो दुग्धपानादि प्रयोजक प्रज्ञा दिखाई देती है वह पूर्वजन्म के अभ्यास के विना कैसे उपपन्न होगी ? धूम में अग्निपूर्वकत्व प्रसिद्ध होने से अग्नि से उत्पन्न हुये विना ही धूम कहीं विद्यमान हो ऐसा कहीं देखा नहीं है।"- यह शंका भी अयुक्त है / कारण, धूम में अग्नि का अविनाभावरूप सम्बन्ध का अर्थ है जिन देश काल में धूम का अस्तित्व हो, उन सभी देश-काल में अग्नि भी होना चाहिये। प्रत्यक्ष से ऐसा अविनाभाव संबंध ज्ञात नहीं हो सकता. क्योंकि प्रत्यक्ष तो केवल निकटवर्ती पदार्थ ज्ञान में ही निमित्त बनता हुआ दिखाई देता है / प्रत्यक्ष से ऐसा ज्ञान शक्य नहीं है कि - सभी देश-काल में अग्नि के विना धूमोत्पत्ति संभव ही नहीं है क्योंकि दूरवर्ती देश-काल का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। जब 'धूम अग्निपूर्वक ही होता है' ऐसा सभी जगह प्रत्यक्ष और अनुपलभ यानी अन्वय-व्यतिरेक से सिद्ध नहीं है तो उसके दृष्टान्त से पूर्व जन्मरूप परलोक सिद्धि की तो बात ही कहाँ ? इससे यही फलित होता है कि कभी कभी प्रज्ञा-मेघा आदि गुण भूतपूर्व अभ्यास से जन्य होते हैं तो कभी [ जन्म के प्रारम्भ में ] वे केवल माता-पिता के देह से उत्पन्न होते हैं। तदुपरांत, प्रज्ञादि गुण शरीर से अतिरिक्त किसी अन्य तत्त्व के स्वभाव रूप में संवेदन की विषयता से आश्लिष्ट भी नहीं है / दूसरी ओर शरीर के ही अन्वय-व्यतिरेक का अनुवर्तन करने वाले वे देखे गये हैं तो उनको शरीर के पूण न मान कर देह भिन्न तत्त्व के गण कैसे प्रस्थापित किये जाय? ! Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 शालूकमन्तरेणेति एतदपि प्रष्टव्यम् / तस्मात कार्य-कारणभावमात्रमेवैतत् , तत्र च नियमाभावादविज्ञानादपि माता-पितृशरीराद विज्ञानमुपजायताम् / अथवा यथा विकल्पाद् व्यवहितादपि विकल्प उपजायते तथा व्यवहितादपि माता-पितृशरीरत ऐवेति न भेदं पश्यामः / यथा चैकमातापितृशरीरादनेकापत्योत्पत्तिस्तथैकस्मादेव ब्रह्मणः प्रजोत्पत्तिरिति न जात्यन्तरपरिग्रहः कस्यचिदिति न परलोकसिद्धिः / न हि मातापितृसम्बन्धमात्रमेव परलोकः, तथेष्टावभ्युपगमविरोधात् / प्रथानाद्यनन्त आत्मा अस्ति, तमाश्रित्य परलोकः साध्यते / नह्य कानुभवितव्यतिरेकेणाऽनुसंधानं संभवति, भिन्नानुभवितर्यनुसंधानादृष्टेः / तदयुक्तम्-“परलोकिनोऽभावात् परलोकाभावः" [ बा० सू० 17 ] इति वचनात् / / न ह्यनाद्यनन्त प्रात्मा प्रत्यक्षप्रमाणप्रसिद्धः / अनुमानेन चेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्ग:-सिद्धे आत्मन्येकरूपेणानुसंधानविकल्पस्याऽविनाभूतत्वे आत्मसिद्धिः तत्सिद्धेश्चानुसंधानस्य तदविनाभतत्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयसद्धावान्नकस्यापि सिद्धिः / न बान्नकस्यापि सिद्धिः / न चाऽसिद्धमसिद्धेन साध्यते। [विलक्षण शरीर से जन्मान्तर की सिद्धि दुःशक्य ] परलोकवादीः-पूर्वजन्म में संगृहीत पुण्यकर्म के विना केवल माता-पिता के देह से ही पुत्रदेह उत्पन्न होता है तो वह माता-पिता के देह से भिन्न जाति का क्यों होता है ? ___ नास्तिकः-अरे ! इस स्थल में ही तो 'कारण से अनुरूप कार्य की उत्पत्ति' के नियम में व्यभिचार देखा जाता है, अर्थात् वह नियम जूठा है / सभी काल में कारण के जैसा ही कार्य उत्पन्न होने का नियम नहीं है, अत. भिन्नजातीय भो माता पिता के देह से प्रज्ञा-मेधादिकृत विलक्षणता वाला, उनके पुत्र का देह उत्पन्न हो सकता है, कभी कभी माता-पिता देह के तुल्य आकृतिवाला भी हो जाय तो इसमें ऐसा क्या विरोध है ? देखते तो हैं कि कोई मेंढक अपनी जातिवाले मेंढक से उत्पन्न होता है तो कोई गोमय आदि से भी होता है। तथा. कोई विकल्प उपदेश से उत्पन्न होता है तो कोई विकल्प तत्तद् आकारवाले पदार्थ के स्वयं दर्शन से भी होता है। यदि कोई ऐसा पूछे कि पूर्व-पूर्व विकल्प की वासना के विना तदाकार विकल्प केवल दर्शनमात्र से किस तरह उत्पन्न होगा तो यह भी पूछने का वह साहस करें कि मेंढक के विना केवल गोमय से मेंढक-उत्पत्ति कैसे होती है ? / अतः सच बात तो यह है कि मेंढक मेंढक के बीच केवल साधारण कार्य-कारणभाव ही है, किन्तु मेंढक से ही मेंढक-उत्पत्ति हो ऐसा कोई नियम नहीं है अत एव विज्ञानभिन्न माता-पिता शरीर से भी विज्ञान उत्पन्न हो, कोई दोष नहीं है। अथवा उस प्रश्न के उतर में यह भी कह सकते हैं कि जैसे दूरवर्ती विकल्प से उत्तरकाल में विकल्प उत्पन्न होता है, वैसे ही, वर्तमान बालक का जैसा रूप-रंग आकार है वैसे रूपादि वाले उस बालक के पूर्वजों में जो माता-पिता हो गये, उन दूरवर्ती माता पिता से ही वर्तमान बालक देह का जन्म हुआ है, अतः माता-पिता का देह और पुत्र का देह दोनों में भेद यानी वैलक्षण्य का कोई प्रश्न नहीं रहता है / अथवा यह भी कह सकते हैं कि जैसे एक ही माता-पिता के देह से अनेक पुत्रपुत्री की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार एक ही ब्रह्म तत्त्व से समग्र प्रजा की उत्पत्ति होती है, जब उसका नाश होता है तब उसी ब्रह्म तत्त्व में उसका विलय हो जाता है-ऐसा भी सम्भव है तो अब किसी के भी जात्यन्तर यानी जन्मान्तर के परिग्रह को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है / जब Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-परलोकवादः 291 किंच, दर्शना-नुसंधानयोः पूर्वापरभाविनोः कार्य-कारणभावः प्रत्यक्षसिद्धः, तत् कुतोऽनुसंधानस्मरणादात्मसिद्धिः? अपि च, शरीरान्तर्गतस्य ज्ञानस्याऽमूर्त्तत्वेन कथं जन्मान्तरशरीरसंचारः? अथाऽन्तराभवशरीरसन्तत्या संचरणमुच्यते, तदपि परलोकान्न विशिष्यते / संचारश्च न दृष्टो जीवत इह जन्मनि, मरणसमये भविष्यतीति दुरधिगममेतत्, न परलोकसिद्धिः। अथवा सिद्धेऽपि परलोके प्रतिनियतकर्मफलसंबन्धाऽसिद्धेव्यर्थमेवानुमानेन परलोकास्तित्वसाधनम् / जात्यन्तररूपता ही असिद्ध है तो परलोक सिद्धि दूर है। ऐसा तो नहीं है कि माता-पिता का केवल सम्बन्ध ही आपको परलोक रूप में मान्य हो, क्योंकि ऐसा मानने पर तो आप को जन्मान्तर सिद्ध करना है उसमें ही विरोध आयेगा। [आत्मतत्त्व के आधार पर परलोकसिद्धि दुष्कर ] यदि यह कहा जाय -"आत्मतत्त्व अनादि-अनन्त है, उसके आधार पर परलोक सिद्ध होता है / समान दो अनुभव में जो यह अनुसंधान होता है कि-'जो मैंने पहले देखा था उसी मन्दिर को में फिर से देख रहा हूँ'- यह अनुसंधान पृथग् पृथग दो अनुभव करने वाले एक अनुभवकर्ता के विना संगत नहीं होगा / भिन्न भिन्न व्यक्ति मंदिर दर्शन का अनुभवकर्ता हो तब उपरोक्त प्रकार का अनुसंधान नहीं होता है। कभी कभी पूर्वजन्म के अनुभव और इस वर्तमान जन्म के अनुभव का भी अनुसंधान होता है और वह एक अनुभवकर्ता आत्मा के विना संगत न होने से परलोक की सिद्धि अनायास हो जाती है / " तो यह कथन भी अयुक्त है क्योंकि यह प्रसिद्ध उक्ति है कि “परलोकिन् आत्मा का अस्तित्व न होने से परलोक भी नहीं है।" कारण यह है कि जिस आत्मा को आप अनादि-अनंत मानते हैं वह प्रत्यक्षप्रमाण से तो प्रसिद्ध नहीं है / यदि पूर्वोक्त अनुमान से उसको सिद्ध करना चाहेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष लगेगा जैसे आत्मा को होने वाले एक रूप से अनुभवों का अनुसंधान करने वाला विकल्प आत्मा के अविनाभावी है ऐसा सिद्ध होने पर आत्मा की सिद्धि होगी, और आत्मा सिद्ध होने पर अनुसंधान में तदविनाभाव की सिद्धि होगी। इस अन्योन्याश्रय दोष के कारण एक की भी सिद्धि नहीं होगी क्योंकि किसी एक असिद्ध वस्तु से दूसरे असिद्ध पदार्थ की सिद्धि नहीं की जाती। दूसरी बात यह है कि दर्शन पूर्वकाल में होता है और उसका अनुसंधान उत्तरकाल में होता है, अत: उन दोनों का कारणकार्यभाव प्रत्यक्षसिद्ध है। तब अनुसंधानात्मक स्मरण से पूर्वकालीन दर्शन की सिद्धि सम्भव है किंतु आत्मसिद्धि कैसे होगी? - और भी एक प्रश्न है-ज्ञान तो शरीरान्तर्गत और अमूर्त है तो वह भावि जन्मान्तर के शरीर में कैसे चला जायेगा ? यदि कहें कि-'इस जन्म और जन्मान्तर के दो शरीर के बीच शरीर की परम्परा चालु है, उसके माध्यम से ज्ञान का संचार होगा'-तो यह भी परलोकवत् ही असिद्ध है, क्योंकि मध्यवर्ती शरीरपरम्परा कहाँ सिद्ध है ? जब आदमी जिन्दा होता है तब तो उसके ज्ञान का जन्मान्तरीय शरीर में संचार इस जन्म में तो देखा नहीं गया, और मरण के समय उसके ज्ञान का संचार दूसरे शरीर में होता है यह कौन जान सकता है ? कैसे जान सकता है ? निष्कर्षः-परलोक असिद्ध है। . कदाचित् किसी तरह परलोक सिद्ध हो जाय तो भी पूर्व जन्म में किये गये अमुक शुभाशुभ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथागमात् प्रतिनियतकर्मफलसंबन्धसिद्धिः, तथा सति परलोकास्तित्वमप्यागमादेव सिद्धमिति किमनुमानप्रयासेन ?! न चागमादपि परलोकसिद्धिः, तस्य प्रामाण्याऽसिद्धेः / न चाप्रमाणसिद्धं परलोकादिकमभ्युपगंतु युक्तम् , तदभावस्यापि तथाऽभ्युपगमप्रसंगात् / तन्न परलोकसाधकप्रमाणप्रतिपादनमकृत्वा 'भव'शब्दव्युत्पत्तिरर्थसंस्पशिन्यभिधातु युक्ता / डित्थादिशब्दव्युत्पत्तितुल्या तु यदि क्रियेत तदा नास्मभिरपि तत्प्रतिपादकप्रमाणपर्यनुयोगे मनः प्रणिधीयते--इति पूर्वपक्षः। [परलोकसिद्धावुत्तरपक्षः] ___ अत्रोच्यते यदुक्तम् 'पर्यनुयोगमात्रमस्माभिः क्रियते' इति तत्र वक्तव्यम्-पर्यनुयोगोऽपि क्रियमाणः किं प्रमाणतः क्रियते, उताऽप्रमाणतः? यदि प्रमाणतस्तदयुक्तम् , यतस्तकार्यपि प्रमाणं कि प्रत्यक्षम् उतानुमानादि ? यदि प्रत्यक्षम् , तदयुक्तम् , प्रत्यक्षस्याऽविचारकत्वेन पर्यनुयोगस्वरूपविचाररचनाऽचतुरत्वात्। न च प्रत्यक्षस्यापि प्रमाणत्वं युक्तम् , भवदभ्युपगमेन तल्लक्षणाऽसम्भवात् / तदसम्भवश्व स्वरूपव्यवस्थापकधर्मस्य लक्षणत्वात / तत्र प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यस्वरूपव्यवस्थापको धमोऽविसवादित्वलक्षणोऽभ्युपगन्तव्यः / तच्चाऽविसंवादित्वं प्रत्यक्षप्रामाण्येनाऽविनाभूतमभ्युपगम्यम् , अन्यथाभूतात् ततः कर्म का इस जन्म में यही शुभाशुभ फल है इस प्रकार के नियमगभित कर्म और फल का सम्बन्ध ही असिद्ध है, अतः अनुमान से परलोक का अस्तित्व सिद्ध किया जाय तो भी वह निरर्थक है / [आगमप्रमाण से परलोकसिद्धि अशक्य ] .. यदि कहें कि-'नियम गभित कर्म-फल के सम्बन्ध की सिद्धि आगम से हो जायेगी'-तब तो परलोक का अस्तित्व भी आगम से ही सिद्ध कर लो! क्यों अनुमान का व्यर्थ कष्ट करते हो? ! तथा, आगम से भी परलोक सिद्धि की आशा नहीं है, क्योंकि आगम का प्रामाण्य ही सिद्ध नहीं है। प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम, किसी भी प्रमाण से जब परलोक आदि सिद्ध नहीं है तो उसका सैद्धान्तिक रूप में स्वीकार करना अनुचित है, क्योंकि उसके विपरीत, परलोक के अभाव आदि का भी तब तो स्वीकार करना उचित गिना जायेगा। इस प्रकार जब-तक परलोक की सिद्धि के लिये ठोस प्रमाण पेश न किया जाय तब तक 'भव' शब्द की व्युत्पत्ति को सार्थक यानी अर्थस्पर्शी कह नहीं सकते / हाँ, यदि आप डित्थ-डवित्थ आदि शब्द जैसे व्युत्पत्तिविहीन यादृच्छिक यानी अर्थशून्य होते हैं उसी प्रकार 'भव' शब्द को भी अर्थशन्य मान ले तब तो हम भी भवशब्दार्थ परलोकादि की सिद्धि करने वाले प्रमाण के पर्यनुयोग में हमारे चित्त को सावधान नहीं करेंगे / पूर्वपक्ष समाप्त / [परलोकसिद्धि-उत्तरपक्ष ] नास्तिक मत के प्रतिवाद में अब करते हैं नास्तिक ने जो यह कहा हम तो केवल पर्यनुयोग मात्र कर रहे हैं-इसके ऊपर पूछना है कि वह प्रमाणभित्ति के अवलम्बन से करते हो या विना प्रमाण ही? अगर कहें कि प्रमाण से करते हैं तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि दिखाईये, किस प्रमाण से पर्यनुयोग करते हो प्रत्यक्ष या अनुमानादि प्रमाण से ? यदि प्रत्यक्ष से, तो वह अयुक्त बात है, क्योंकि पर्यनुयोग यह विचारस्वरूप अर्थात् उहापोहात्मक है, उसके सूत्रण का कौशल प्रत्यक्ष में नहीं है / Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 293 प्रत्यक्षप्रामाण्याऽसिद्धेः, सिद्धौ वा यतः कुतश्चिद् यत्किश्चिदनभिमतमपि सिध्येदित्यतिप्रसंगः / स चाविनाभावस्तस्य कुतश्चित् प्रमाणादवगन्तव्यः, अनवगतप्रतिबन्धादर्थान्तरप्रतिपत्तौ नालिकेरद्वीपवासिनोऽप्यनवगतप्रतिबन्धाद् धूमाद् धूमध्वजप्रतिपत्तिः स्यात् / अविनाभावावगमश्चाखिलदेश-कालव्याप्त्या प्रमाणतोऽभ्युपगमनीयः, अन्यथा यस्यामेव प्रत्यक्षव्यक्तौ संवादित्व प्रामाण्ययोरसाववगतस्तस्यामेवाऽविसंवादित्वात् तत् सिध्येत् , न व्यक्त्यन्तरे, तत्र तस्यानवगमात् / न चावगतलक्ष्यलक्षणसम्बन्धा व्यक्तिर्देश-कालान्तरमनुवर्तेते, तस्याः प्रत्यक्षव्यक्तेस्तदैव ध्वंसाद व्यक्त्यन्तराननुगमात् / अनुगमे वा व्यक्तिरूपताविरहादनुगतस्य सामान्यरूपत्वात्तस्य च भवताऽनभ्युपगमात् / अभ्युपगमे वा न सामान्यलक्षणानुमानविषयाभावप्रतिपादनेन तत्प्रतिक्षेपो युक्तः। स च प्रमाणतः प्रत्यक्ष लक्ष्य-लक्षणयोाप्त्याविनाभावावगमो यदि प्रत्यक्षादभ्युपगम्यते, तदयुक्तम्-प्रत्यक्षस्य सन्निहितस्वविषयप्रतिभासमात्र एव भवता व्यापाराभ्युपगमात् / अथैकत्र व्यक्ती प्रत्यक्षेण तयोरविसंवादित्व-प्रामाण्ययोरविनाभावावगमादन्यत्रापि ‘एवंभूतं प्रत्यक्षं प्रमाणम्' इति प्रत्यक्षेणापि लक्ष्य-लक्षणयोाप्त्या प्रतिबन्धावगमः, तान्यत्रापि 'एवंभूतं ज्ञानलक्षणं कार्यमेवम्भूत [नास्तिकमत में प्रत्यक्ष के प्रामाण्य की अनुपपत्ति ] पर्यनयोग में. प्रत्यक्ष अनावश्यक तो है ही, उपरांत विचार करें तो प्रत्यक्ष का प्रमाण्य भी नास्तिक मत में नहीं घटेगा। क्योंकि आपके मतानुसार प्रमाण का लक्षण उसमें मेल नहीं खाता। वह इस रीति से कि-लक्षण यह स्वरूप का व्यवस्थापक यानी असाधारण धर्मरूप होता है / प्रत्यक्ष को प्रमाण मानना हो तब प्रत्यक्ष में प्रामाण्यस्वरूप का व्यवस्थापक असाधारण धर्म अविसंवादित्व ही मानना होगा। अविसंवादित्व तभी स्वरूप व्यपस्थापक बनेगा जब उसको प्रत्यक्षगत प्रामाण्य का अविनाभावी माना जाय / यदि उसे प्रामाण्य का अविनाभावी नहीं मानेगे तब तो अविसंवादित्व के रहने पर भी प्रत्यक्ष में प्रामाण्य सिद्ध नहीं होगा। अविनाभावी न होने पर भी यदि उससे सिद्धि तो उसका अनिष्ट यह होगा कि जिस किसी भी वस्त से यत्किचित पदार्थ की सिद्धि इष्ट न होने पर भी होतो रहेगी-यह अतिप्रसंग होगा। अब नास्तिक को पूछिये कि इस अविनाभाव का पता किस प्रमाण से लगायेंगे ? यदि अविनाभाव =व्याप्तिरूप] संबंध, अज्ञात रहने पर भी अन्य किसी अर्थ का ज्ञान करायेगा, तब तो जिसको धूम में अग्नि का अविनाभाव अज्ञात है उस रद्वीप निवासी को भी धूम देखकर तदविनाभावी अग्नि का बोध हो जायगा / अत: अविनाभाव का ज्ञान रहना चाहिये / अब इस अविनाभाव का प्रमाणभूत ज्ञान सकल देश-काल गर्भित व्याप्ति से ही होगा अर्थात् व्यापक रूप से सकल देश-काल के समावेश से ही हो सकेगा। किसी एक दो देशखंड और कालखंड के समावेश से ही यदि अविनाभाव का ज्ञान मानेंगे तब तो जिस देश-काल स प्रत्यक्षव्यक्ति में प्रामाण्य और संवादित्व का अविनाभाव ज्ञात किया होगा उसी व्यक्ति में, उस देश-काल में ही अविसंवादित्व हेतुक प्रामाण्य का बोध होगा, अन्य प्रत्यक्ष व्यक्ति में नहीं होगा, क्योंकि उस अन्य व्यक्ति में अविनाभाव अज्ञात है, और जिस व्यक्ति में लक्ष्य [=प्रामाण्य] और लक्षण[=अविसंवादित्व] का अविनाभावसम्बन्ध ज्ञात है वह तो अन्य देश, अ य काल में विद्यमान नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यक्षव्यक्ति तो उसी काल में, उसी देश में नष्ट हो गयी, अतः उसका अन्य देश-कालीन व्यक्ति में अनुगमन असंभवित है। फिर भी यदि उसका अनुगम मानेंगे तो उसकी व्यक्तिरूपता का भंग होकर उसमें सामान्यरूपता की आपत्ति होगी, क्योंकि जो अनुगत होता है वह व्यक्ति Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ज्ञानकार्यप्रभवम्' इति तेनैव कथं न सर्वोपसंहारेण कार्यलक्षणहेतोः स्वसाध्याऽविनाभावावगमः, येन 'अनुमानमप्रमाणम् , अविनाभावसंबन्धस्य व्याप्त्या ग्रहीतुमशक्यत्वात्' इति दूषणमनुमानवादिनं प्रति भवताऽऽसज्यमानं शोमते ? ! किं च, अविसंवादित्वलक्षणो धर्मः प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्ष्यव्यवस्थापकः प्रत्यक्षप्रतिबद्धत्वेन निश्चेय: अन्यथा तत्रैव ततःप्रामाण्यलक्षणलक्ष्यव्यवस्था न स्यात् , असंबद्धस्य केनचित् सह प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावात तद्वदन्यत्रापि ततस्तद्वयवस्थाप्रसंगः। तथाभ्यपगमे च यथा संवादित्वलक्षणो धो लक्ष्यानवगमेऽपि प्रत्यक्षमिसंबन्धित्वेनाऽवगम्यते तथा धमोऽपि पर्वतैकदेशे अनलानवगतावपि प्रदेशसम्ब विशेषरूप न होकर सामान्यरूप होता है। नास्तिक मत में इस सामान्य पदार्थ का स्वीकार तो है नहीं। यदि सामान्य का स्वीकार कर लिया जाय. तब तो 'सामान्यरूप पदार्थ अघटित होने से वह अनुमान का विषय [=साध्य] नहीं बन सकता" इस प्रकार का जो नास्तिक की ओर से प्रतिपादन किया जाता है और सामान्यतोदृष्ट अनुमान का खण्डन किया गया है यह असंगत ठहरता है / [प्रत्यक्ष से अविनाभावबोध होने पर अनुमान के प्रामाण्य की सिद्धि ] जब ज्ञात अविनाभाव ही उपयोगी है तब यहाँ प्रत्यक्ष में लक्ष्य [ = प्रामाण्य] और लक्षण [= अविसंवादित्व] का व्यापकरूप से यानी सकलदेश कालावगाही अविनाभाव का ज्ञान यदि प्रत्यक्ष प्रमाण से ही माना जाय तो वह नहीं घटेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष का काम तो केवल निकटवर्ती अपने विषय का प्रतिभास कराना- इतना ही आप मानते हैं, अत: सकलदेश-कालस्पर्शी अविनाभाव का ज्ञान उससे नहीं हो सकेगा। यदि नास्तिक कहेगा कि-"किसी एक निकटवर्ती अग्नि-धूम व्यक्ति के प्रत्यक्ष से प्रामाण्य और अविसंवादित्व का अविनाभाव ज्ञात कर लेने पर अन्य अन्य प्रत्यक्षव्यक्तिओं में भी 'इस प्रकार का यानी अविसंवादी प्रत्यक्ष प्रमाणभत होता है' इस प्रकार व्यापकरूप से लक्ष्यलक्षण के अविनाभाव का-बोध प्रत्यक्ष से भी हो जायेगा तो कोई अनुपपत्ति नहीं है"-तो आस्तिक भी कहेगा कि प्रत्यक्षवत् अनुमान स्थल में भी एक स्थान में धूम देखने के बाद अग्नि के प्रत्यक्षज्ञान को देखकर ऐसा सकल-देशकालावगाही अविनाभाव का बोध हो सकता है कि-'इस प्रकार का अग्निज्ञानात्मक कार्य इस प्रकार के धूमज्ञानात्मक कार्य से उत्पन्न होता है। तो इस प्रकार कार्यस्वरूप हेतु से सर्वदेश-कालोपसंहारी अपने साध्य के साथ अविनाभाव का बोध क्यों नहीं हो सकेगा ? ! अतः आपने आनुमानवादी के सिर ऊपर जो यह दोषारोपण किया है कि 'अनुमान प्रमाण नहीं है कि व्यापकरूप से अविनाभाव का ग्रहण शक्य नहीं है'- वह शोभास्पद नहीं है / [ अविसंवादिता प्रत्यक्षवत् अनुमानादि में भी प्रामाण्यप्रसंजिका है ] __ दूसरी बात, प्रत्यक्ष में प्रामाण्यरूप लक्ष्य की व्यवस्था करना हो तो उसका व्यवस्थापक अविनाभावी अविसंवादित्वरूप धर्म प्रत्यक्ष के साथ प्रतिबद्ध यानी प्रत्यक्ष वृत्ति है यह निश्चय करना होगा / यदि प्रत्यक्ष के साथ अप्रतिबद्ध होने पर भी वह प्रत्यक्ष में प्रामाण्य व्यवस्था करेगा तब तो भ्रमादि व्यक्ति के साथ भी अप्रतिबद्ध रह कर उसमें भी प्रामाण्य स्थापित करेगा क्योंकि उसमें भी प्रत्त्यासत्ति का विप्रकर्ष यानी संबन्ध की दूरी तो है नहीं। अतः अविसंवादित्व प्रत्यक्ष के साथ प्रतिब होने पर प्रामाण्यव्यवस्था करता है यही मानना पड़ेगा और ऐसा मानने पर, यह भी सोचिये कि जैसे प्रत्यक्ष स्थल में संवादित्वरूप धर्म प्रामाप्य विशिष्ट प्रत्यक्षरूप समूदाय के साथ नहीं किन्तु Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 295 न्धितयाऽवगम्यते इति कथं-"समुदायः साध्यः तदपेक्षया च पक्षधर्मत्वं हेतोरवगन्तव्यम् , न च पक्षधमत्वाऽप्रतिपत्तौ साध्यधर्मानलविशिष्टतत्प्रदेशप्रतिपत्तिः, प्रतिपत्तौ वा पक्षधर्मत्वाद्यनुसरणं व्यर्थम् , तत्त तिपत्तेः प्रागेव तदुत्पत्तेः। समुदायस्य साध्यत्वेनोपचारात तदेकदेशर्मिधर्मत्वावगमेऽपि पक्षधम त्वावगमाददोषे उपचरितं पक्षधर्मत्वं हेतोः स्यादित्यनुमानस्य गौणत्वापत्तेः प्रमाणस्याऽगौणत्वादनुमानादर्थनिर्णयो दुर्लभः" इति चोद्यावसरः ? प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्षणेऽपि क्रियमाणेऽस्य सर्वस्य समानत्वेन प्रतिपादितत्वात् / ____ यदा चाऽविसंवादित्वलक्षण-प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्ष्ययोः सर्वोपसंहारेण व्याप्तिरभ्युपगम्यते, प्रविसंवादित्वलक्षणश्च प्रामाण्यव्यवस्थापको धर्मस्तत्राङ्गीक्रियते पूर्वोक्तन्यायेन, तदा कथमनुमानं नाभ्युप: गम्यते प्रमाणतया ? तथाहि-'यत् किंचिद् दृष्टं तस्य यत्राऽविनाभावस्तद्विदस्तस्य तद् गमकं तत्र' इत्येतावन्मात्रमेवानुमानस्यापि लक्षणम् / तच्च प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्षणमभ्युपगच्छताऽभ्युपगम्यते देवातदेकदेशभूत केवल प्रत्यक्षरूप धर्मि के संबन्धी के रूप में जाना जाता है और उस वक्त प्रामाण्य अज्ञात रहता है, ठीक उसी प्रकार अनुमान रथल में धूम भी अग्निविशिष्ट पर्वत रूप समुदाय का नहीं किन्तु तदेकदेशभूत केवल पर्वत का ही सम्बन्धी रूप में जाना जाय और अग्नि ज्ञआत रहे तो भी उसकी पक्षधर्मता को कोई हानि नहीं होती / तब फिर आपने विना सोचे जो यह पर्यनुयोग किया था कि-"साध्य तो समुदाय है, उसकी अपेक्षा ही पक्षधर्मता हेतु में अवगत करनी चाहिये / इस प्रकार की पक्षधर्मता अज्ञात रहने पर 'साध्यधर्मभूत अग्नि से विशिष्ठ पर्वतदेश' का ज्ञान नहीं हो सकता / यदि इस प्रकार का ज्ञान पहले ही हो जाय तब तो अग्नि की सिद्धि हो ही गयी फिर पक्षधर्मता आदि का अन्वेषण ही व्यर्थ हो जायेगा क्योंकि हेतु में पक्षधर्मता के ज्ञान से पर्वत में जिस अग्नि का ज्ञान करना है वह तो पहले से ही उत्पन्न है। यदि समुदाय के एकदेशरूप मि पर्वतादि में समुदायसाध्यता का उपचार करके उस धर्मि के धर्मरूप में धूम का ज्ञान करने पर इसी ज्ञान को ही पक्षधर्मता का ज्ञान कहा जाय और उसमें कोई दोष न माना जाय तब तो हेतु की ऐसी पक्षधर्मता उपचरित हुयी, वास्तव नहीं, अतः उससे होने वाला अनुमान भी गौण यानी उपचरित / / जो प्रमाण होता है वह गौण नहीं होता अत: गौण अनमान से अर्थ का निर्णय दुर्लभ है"इत्यादि पर्यनुयोग को अब कहाँ अवसर है जब कि आपने भी प्रामाण्य विशिष्ट प्रत्यक्ष रूप समुदाय को छोडकर केवल प्रत्यक्ष के साथ संबद्ध अविसंवादित्व को प्रामाण्य का व्यवस्थापक मान लिया है / अतः प्रत्यक्ष के प्रामाण्य के लक्षण की व्यवस्था करने में भी उपरोक्त सब बात समानरूप से लागू की जा सकती है यह दिखा दिया है। [प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने पर बलात् अनुमानप्रामाण्यापत्ति ] हमने जो पहले युक्तियां दिखाई है उसके अनुसार यदि आप-अविसंवादित्वरूप लक्षण और प्रत्यक्ष में प्रामाण्यरूप लक्ष्य की सर्वदेश कालगर्भित व्याप्ति को मानते हैं, तथा प्रामाण्य के लक्षण के व्यवस्थापकधर्म अविसंवादित्व को प्रत्यक्ष में अंगीकार करते हैं तब आपको पूछना है कि अनुमान को क्यों प्रमाणरूप से नहीं मानते हैं ? देखिये-अनुमान का लक्षण यह है कि “जो कुछ (धूमादि) दिखाई देता है, उसका जिस (अग्नि) के साथ अविनाभाव होता है, उस अविनाभाव के ज्ञाता को वह (धूमादि) उसका (अग्नि आदि) ज्ञापक होता है ।"-इतना ही अनुमान का लक्षण है और जो प्रत्यक्ष Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नांप्रियेण / तथा, प्रामाण्यमप्यनुमानस्याभ्युपगतमेव, यतो यदेवाऽविसंवादित्वलक्षणं प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यं अनुमानस्यापि तदेव / तदुक्तम्-[ ] ___ अर्थस्याऽसंभवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता / प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम् // इति / अर्थाऽसंभवेऽभाव: प्रत्यक्षस्य संवादस्वभावः प्रामाण्ये निमित्तम् / स च साध्यार्थाभावेऽभाविनो लिंगादुपजायमानस्यानुमानस्यापि समान इति कथं न तस्यापि प्रामाण्याभ्युपगमः ? ! कि चाऽयं चार्वाकः प्रत्यक्षेकप्रमाणवादी यदि परेभ्यः प्रत्यक्षलणमा पादयति तदा तेषां ज्ञानसम्बन्धित्वं कुतः प्रमाणादवगच्छति ? न तावत् प्रत्यक्षात् , परचेतोवृत्तीनां प्रत्यक्षतो ज्ञातुमशक्यत्वात् / किं तर्हि ? स्वात्मनि ज्ञानपूर्वको व्यापार-व्याहारौ प्रमाणतो निश्चित्य परेष्वपि तथाभूततदर्शनात् तत्सम्बन्धित्वमवबुध्यते, ततस्तेभ्यस्तत् प्रतिपादयति / तथाऽभ्युपगमे च व्यापार-व्याहारादेलिगस्य ज्ञानसम्बन्धित्वलक्षणस्वसाध्याऽव्यभिचारित्वं पक्षधर्मत्वं चाभ्युपगतं भव. तीति कथमनुमानोत्थापकस्यार्थस्य त्रैरूप्यमसिद्धम्-येन 'नास्माभिरनुमानप्रतिक्षेपः क्रियते किंतु त्रिलक्षरणं यदनुमानवादिभिलिगमभ्युपगतं तन्न लक्षणभाग भवतीति प्रतिपाद्यते" इति वचः शोभामनुभवति ? !-प्रत्यक्षलक्षणप्रतिपादनार्थ परचेतोवृत्तिपरिज्ञानाभ्युपगमे त्रिलक्षणहेत्वभ्युपगमस्यावश्यभावित्वप्रतिपादनात्। प्रामाण्य के लक्षण को मानता है वह मूर्ख हो फिर भी अनुमान के लक्षण को मानेगा ही क्योंकि प्रत्यक्षप्रामाण्य के लक्षण को संगत करने के लिये जो अविसंवादित्व के साथ प्रामाण्य के अविनाभाव को मानता है उसको प्रत्यक्ष में अविसंवादित्व प्रामाण्य का ज्ञापक बनता ही है / अनुमान के लक्षण को न मानने पर प्रत्यक्ष में प्रामाण्य का ज्ञान कैसे वह करेगा? तदुपरांत, जो प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता है उसे अनुमान भी प्रमाणरूप में मानना ही पड़ेगा क्योंकि प्रत्यक्ष में जो प्रामाण्य है आव. संवादिता रूप, वही अनुमान में भी वर्तमान है / अनुमानप्रामाण्य के समथन में एक प्राचीन वचन भी है अर्थस्याऽसंभवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता / प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम् / / इसका तात्पर्य यह है कि-अर्थ के विरह में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होता अतः अर्थाविसंवादित्व यानो संवादीस्वभाव यही प्रत्यक्ष की प्रमाणता का निमित्त यानी प्रयोजक है / तो अपने साध्य के अभाव में स्वयं भी न रहना-ऐसे स्वभाव वाले अर्थात् प्रतिबन्धविशिष्टस्वभाववाले लिंग में भी स्वसाध्यसंवादिता रूप निमित्त सुरक्षित होने से तथाविध हेतु से प्रमाणभूत अनुमान की उत्पति हो सकती है क्योंकि निमित्त दोनों पक्ष में समान है / अतः अनुमान के प्रामाण्य को क्यों न माना जाय ! [ हेतु में त्रैरूप्य का स्वीकार आवश्यक ] और एक बात-यह चार्वाक [ =नास्तिक ] कि जो केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण कहता है, वह जब प्रत्यक्ष के लक्षण न जानने वाले दूसरों के प्रति प्रत्यक्ष के लक्षण का निरूपण करता है तब जो उसे यह पता चलता है कि 'इन लोगों को (मेरे निरूपण से) ज्ञान हुआ' इस ज्ञानसंबन्धिता का पता वह कैसे लगाता है ? प्रत्यक्ष से नहीं लगा सकता क्योंकि अन्यव्यक्ति के चित्तवृत्तिओं को प्रत्यक्ष से जान लेना अशक्य हैं / तो कैसे पता लगेगा? इस रीति से कि वह अपनी आत्मा में 'चेष्टा और भाषण आदि ज्ञानपूर्वक ही है' यह निश्चय करता है और बाद में अन्य लोगों में भी उसी प्रकार के चेष्टा और भाषण को देखकर ये भी मेरे जैसे ज्ञानवाले हैं ऐसा ज्ञानवत्ता का पता लगाता है। जब Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 297 अथ नाऽस्माभिः प्रत्यक्षमपि प्रमाणत्वेनाभ्युपगम्यते येन 'तल्लक्षणप्रणयनेऽवश्यंभावी अनुमानप्रामाण्याभ्युपगमः' इत्यस्मान प्रति भवद्धिः प्रतिपाद्येत / यत्त 'प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम्' इति वचनं तव तान्त्रिकलक्षणालक्षितलोकसंव्यवहारिप्रत्यक्षापेक्षया। अत एव लक्षणलक्षितप्रत्यक्षपूर्वकानुमानस्य 'अनुमानमप्रमाणम्' इत्यादिग्रन्थसंदर्भेणाऽप्रामाण्यप्रतिपादन विधीयते, न पुनर्गोपालाद्यज्ञलोकव्यवहाररचनाचतुरस्य धूमदर्शनमात्राविर्भूतानलप्रतिपत्तिरूपस्य / नैतच्चारु-तस्यापि महानसादिदृष्टान्तधमिप्रवृत्तप्रमाणावगतस्वसाध्यप्रतिबन्धनिश्चितसाध्यमिधर्मधमबलोद्भूतत्वेन तान्त्रिकलक्षणलक्षितप्रत्यक्षपूर्वकत्वस्य वस्तुतः प्रदर्शितत्वात् / 'एतत् पक्षधर्मत्वम् इयं चास्य धूमस्य व्याप्तिः' इति सकितिकव्यवहारस्य गोपालादिमूर्खलोकाऽसंभविनोऽकिञ्चित्करत्वात् / प्रत्यक्षस्य चाविसंवादित्वं प्रामाण्यलक्षणम् , तद् यथा संभवति तथा परत: प्रामाण्यं व्यवस्थापयद्धिः 'सिद्धं' इत्येतत्पदव्याख्यायां दशितं न पुनरुच्यते / तत् स्थितमेतत् न प्रत्यक्षस्य भवदभिप्रायेण प्रामाण्यव्यवस्थापकलक्षणसम्भवः, तद्भाव वाऽनुमानस्यापि प्रामाण्यप्रसिद्धिः, इति न प्रत्यक्ष पर्यनुयोगविधायि / यह मा य है तब निर्विवाद चेष्टा-भाषणादि लिंग में अपने साध्यभूत ज्ञानसंबन्धिता की अव्यभिचारिता का और पक्षधर्मता का भी स्वीकार हो ही गया। तो फिर अनुमान के उद्भावक लिंगभूत अर्थ में सिद्धि कैसे ? नास्तिक के इस पूर्वोक्त वचन की शोभा भी कैसे रहेगी कि-"हमारी ओर से अनुमान का प्रतिक्षेप नहीं किया जाता किंतु अनुमानवादीओं ने जो तीन लक्षण वाले लिंग को माना है वह लक्षणयुक्त नहीं है यही हमारी ओर से कहा जाता है" इत्यादि, क्योंकि प्रत्यक्ष के लक्षण के निरूपणार्थ अन्य व्यक्ति की चित्तवृत्ति का ज्ञान मानते हैं तो उसमें तीन लक्षण वाले हेतु का स्वीकार हो ही जाता है / [ तान्त्रिकलक्षणानुसारी अनुमान का प्रतिक्षेप अशक्य ] यदि नास्तिक कहेगा कि-हम प्रत्यक्ष को प्रमाण ही नहीं मानते हैं फिर आपकी ओर से यह उपालम्भ कसे दिया जा सकता है कि 'प्रत्यक्ष के लक्षण का निरूपण करने पर अनुमान का प्रामाण्य अवश्यमेव मानना पड़ेगा' इत्यादि / 'प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है' ऐसा जो वचन है वह तर्कवादीओं द्वारा प्रतिपादित लक्षण से लक्षित प्रत्यक्ष की अपेक्षा नहीं है किंतु उससे भिन्न जो लोक प्रचलित व्यावहारिक प्रत्यक्ष है उसकी अपेक्षा कहा गया है। इसीलिये तो हम तर्कवादीओं के प्रतिपादित लक्षण से लक्षित प्रत्यक्ष के उत्तरभावी अनुमान का ही 'अनुमान प्रमाण नहीं है' इस प्रकार की ग्रन्थरचना द्वारा, अप्रामाण्य का प्रतिपादन करते हैं, किंतु जो ग्वाले आदि अज्ञानी लोक प्रचलित व्यवहार को चलाने में उपयोगी, एवं केवल धूम के दर्शन से उत्पन्न होने वाले अग्निबोध रूप अनुमान है उसको अप्रमाण नहीं कहते हैं / तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ग्वाले आदि को होने वाला अनुमान भी कोई ऐसे ही धूम से नहीं उत्पन्न हो जाता, किन्तु जब 'धूम साध्यमि पर्वतादिरूप पक्ष का धर्म है' इस प्रकार पक्षधर्मता का धूम में निश्चय रहे, तथा पाकशाला आदि दृष्टान्तरूप धर्मि में प्रवर्त्तमान प्रत्यक्ष प्रमाण से धूम का अपने साध्य भूत अग्नि के साथ जो अविनाभाव-उसका भी धूम में निश्चय रहे तभी ग्वाले आदि को अग्नि का अनुमान होता है / इस अनुमान में तर्कवादिओं से रचित लक्षण से लक्षित प्रत्यक्ष पूर्वकता का स्पष्ट प्रदर्शन नहीं है तो क्या है ? ग्वाले आदि मूर्ख लोगों में अगर 'यह पक्षधर्मता है और यह अग्नि के साथ धूम की Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नाप्यनुमानादिकं पर्यनुयोगकारि, अनुमानादेः प्रमाणत्वेनाऽनभ्युपगमात् / अथाऽस्माभिर्यप्यनुमानादिकं न प्रमाणतयाऽभ्युपगम्यते, तथापि परेण तत प्रमाणतयाऽभ्युपगतमिति तत्प्रसिद्धेन तेन परस्य पर्यनुयोगो विधीयते / ननु परस्य तत् प्रमाणतः प्रामाण्याभ्युपगमविषयः, अथाऽप्रमाणतः ? यदि प्रमाणतः तदा भवतोऽपि प्रमाणविषयस्तत् स्यात् / न हि प्रमाणतोऽभ्युपगमः कस्यचिद् भवति कस्यचिन्नेति युक्तम् / अथाऽप्रमाणतोऽनुमानादिकं प्रमाणतयाऽभ्युपगम्यते परेण तदाऽप्रमाणेन न तेन पर्यनुयोगो युक्तः, अप्रमाणस्य परलोकसाधनवत् तत्साधकप्रमाणपर्यनुयोगेऽप्यसामर्थ्यात् / अथ तेन प्रमाणलक्षणाऽपरिज्ञानात् तत्प्रामाण्यमभ्युपगतमिति तत्सिद्धेनैव तेन परलोकादिसाधनाभिमतप्रमाणपर्यनुयोगः क्रियते / नन्वज्ञानात् तत् परस्य प्रमाणत्वेनाभिमतम्, न चाज्ञानादन्यथात्वेनाभिमन्यमानं वस्तु तत्साध्यामर्थक्रियां निर्वतयति, अन्यथा विषत्वेनार्मिन्यमानं महौषधादिकमपि तान् मारयितुकामेन दीयमानं स्वकार्यकरणक्षमं स्यात् / व्याप्ति है' ऐसा सांकेतिक यानी पारिभाषिक व्यवहार नहीं होता है- तो उससे कोई हानि नहीं है, क्योंकि सांकेतिक व्यवहार न होने मात्र से वस्तुस्थिति नहीं बदल जाती / 'प्रत्यक्ष का लक्षण अविसंवादित्व है' यह किस रीति से संभवित है-उसका प्रतिपादन हमने परतःप्रामाण्य को व्यवस्था करते हुए 'सिद्धं' इस पद की व्याख्या में दिखा दिया है अतः उसकी पुनरावृत्ति नहीं करते हैं / निष्कर्ष यह निकला कि नास्तिक के मतानुसार तो प्रत्यक्ष में प्रामाण्यव्यवस्थापक लक्षण की संगति नहीं है / यदि संगति है ऐसा कहें तो अनुमान में भी उसकी संगति निर्बाध होने से उसकी भी प्रमाणरूप में प्रसिद्धि हो जायेगी / फलित यह हुआ कि प्रत्यक्ष प्रमाण पर्यनुयोग करने वाला नहीं है / [ अनुमान से पर्यनुयोग नास्तिक नहीं कर सकता] प्रत्यक्षवत् ही अनुमान से भी नास्तिकमत से पर्यनुयोग संगत नहीं है, क्योंकि वह अनुमानादि को प्रमाण नहीं मानता है। नास्तिक:-हालाँ कि हम अनुमानादि को प्रमाण नहीं मानते हैं, किन्तु दूसरे वादिओं ने तो उसे प्रमाण माना है / तो हम अन्यमत प्रसिद्ध अनुमानादि से दूसरे के प्रति पर्यनुयोग कर सकते हैं / आस्तिकः दूसरे वादी ने जो अनुमान को प्रमाण माना है वह प्रमाण के आधार पर या अप्रमाण के आधार पर ? यदि प्रमाणभूत आधार से उसका प्रामाण्य माना हो तो वह आपके लिये भी प्रमाण का ही विषय हुआ। कारण, अन्य के लिये वह मान्यता प्रामाणिक और आपके लिये आप्रामाणिक हो-यह ठीक नहीं है। यदि दूसरे मत में अप्रमाण के आधार से अनुमान को प्रमाण मान लिया गया हो तब तो वह अप्रमाण ही हुआ, फिर उसकी सहायता से पर्यनुयोग करना मुनासिब नहीं है / कारण, अप्रमाणभूत अनुमान परलोक की सिद्धि में जैसे असमर्थ है वैसे परलोक साधक प्रमाण, [ चाहे जो कुछ हो उस ] के ऊपर पर्यनुयोग करने में भी असमर्थ ही है / नास्तिक:-परवादी को प्रमाण के लक्षण का ज्ञान न होने से उसने अनुमान को प्रमाण मान लिया है, अत एव परमतप्रसिद्ध उस प्रमाण से परलोकादि की सिद्धि में प्रस्तुत किये गये प्रमाण के ऊपर पर्यनुयोग करते हैं। आस्तिकः-अरे ! अन्य वादी ने अज्ञान से उसको प्रमाण मान लिया है, किन्तु अज्ञान से, विपरीतरूप से मानी हुयी वस्तु अपने से साध्य अर्थक्रिया को संपन्न नहीं कर सकती। यदि वैसा Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 299 अथ नाऽस्माभिः परलोकप्रसाधकप्रमाणपर्यनुयोगोऽनुमानादिना स्वतन्त्रप्रसिद्धप्रामाण्येन पराभ्युपगमावगतप्रामाण्येन वा क्रियते। कि तहि ? यदि परलोकादिकोऽतीन्द्रियोऽर्थः परेणाभ्युपगम्यते तदा तत्प्रतिपादकं प्रमाणं वक्तव्यम् / प्रमाणनिबन्धना हि प्रमेयव्यवस्थितिः, तस्य च प्रमाणस्य तल्लक्षणाद्यसंभवेन तद्विषयस्याप्यभिमतस्याभावः-इत्येवं विचारणालक्षण. पर्यनुयोगः क्रियते / इति न स्वतन्त्रानुमानोपन्यासपक्षधर्म्यसिद्धयादिलक्षणदोषावकाशो बृहस्पतिमतानुसारिणाम् / नन्वेवमप्यनया भंग्या भवता परलोकाद्यतीन्द्रियार्थप्रसाधकप्रमाणपर्यनुयोग प्रसंगसाधनाख्यमनुमानं तद्विपर्ययस्वरूपं च स्ववाचैव प्रतिपादितं भवति / तथाहि-, 'प्रमाणनिबन्धना प्रमेयव्यवस्थितिः' इत्येवं वदता प्रमेयव्यवस्था प्रमाणनिमित्तैव प्रतिपादिता भवति / एतच्च प्रसंगसाधनम् / तच्च 'व्याप्य-व्यापकभावे सिद्धे यत्र व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरोयकः प्रदयते' इत्येवं लक्षणम् / तेन प्रमेयव्यवस्था प्रमाणप्रवृत्त्या व्याप्ता प्रमाणतो भवता प्रदर्शनीया, अन्यथा प्रमाणप्रवृत्तिमन्तरेणापि प्रमेयव्यवस्था स्यात् / ततश्च कथं परलोकादिसाधकप्रमाणपर्यनयोगेऽपि परलोकव्यवस्था न भवेत? व्याप्य-व्यापकभावग्राहकप्रमाणाभ्युपगमेचक हेतोः स्वभावहेतोर्वा परलोकादिप्रसाधकत्वेन प्रवर्त्तमानस्य प्रतिक्षेपः, व्याप्तिसाधकप्रमाणसद्भावेऽनुमानप्रवृत्तेरनायाससिद्धत्वात् ? होता तब तो अज्ञानीओं ने गलती से जिस महान् औषधादि को जहर समझ कर मारने के लिये किसी को पिला दिया हो, ऐसा महान औषध भी मारने का काम कर देने में समर्थ हो जायेगा। [पर्यनुयोग में प्रसंग और विपर्यय अनुमान समाविष्ट है ] नास्तिकः-हम जो परलोक साधक प्रमाण के लिये पर्यनयोग करते हैं वह हमारे मत में प्रसिद्ध प्रामाण्यवाले अनुमानादि से अथवा अन्य मत की मान्यता से जिसका प्रामाण्य ज्ञात किया है वैसे अनुमानादि से नहीं करते हैं। आस्तिकः-तो किससे करते हो? नास्तिक:-जब परवादी परलोकादि अतीन्द्रिय अर्थ को मानते हैं तब उसका समर्थक प्रमाण कहना-दिखाना चाहिये। क्योंकि किसी भी प्रमेय की व्यवस्था प्रमाणाधीन है / अतीन्द्रिय अर्थ में जिस प्रमाण को वे दिखाते हैं उस अनमानादि में प्रमाण के लक्षणादि का असंभव दोष आता है, अतः उसके विषय रूप में मान्य परलोकादि जैसा कछ नहीं है-इस प्रकार की जो विचारणा करते हैं-यही पर्यनुयोग है / अत: बृहस्पतिमतानुयायियों के समक्ष अपने मत से अनुमान का प्रस्तुतीकरण, और उसमें पक्षमि की असिद्धि आदि रूप किसी भी दोष का अवकाश नहीं है। आस्तिकः- अरे ! इस ढंग से तो आप अपनी ही जबान से परलोकादि अतीन्द्रिय अर्थ के प्रसाधक प्रमाण का पर्यनुयोग करते हुए प्रसंगसाधननामक अनुमान और उसके विपर्यय रूप अनुमान का प्रतिपादन कर बैठे हैं। वह कैसे यह देखिये [ नास्तिक कृत प्रसंगसाधन की समीक्षा ] "प्रमेय की व्यवस्था प्रमाणाधीन है" यह जो कहा उससे यही प्रतिपादित हुआ कि प्रमेय की व्यवस्था प्रमाणनिमित्त ही है। इसीका नाम है प्रसंगसाधन [ जिस को अन्वयानुमान भी कह Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 'प्रमाणाभावे तन्निबन्धनायाः प्रमेयव्यवस्थाया अप्यभाव' इति प्रसंगविपर्ययः / स च 'व्यापकामावे व्याप्यस्याप्यभावः' इत्येवं भूतव्यापकानुपलब्धिसमुदभूतानुमानस्वरूपः / एतदपि प्रसंगविपर्ययरूपमनुमानं प्रमाणतो व्याप्य-व्यापकभावसिद्धौ प्रवर्तत इति व्याप्तिप्रसाधकस्य प्रमाणस्य तत्प्रसादलभ्यस्य चानुमानस्य प्रामाण्ये स्ववाचैव भवता दत्तः, स्वहस्तः इति नानुमानादिप्रामाण्यप्रतिपादनेऽस्माभिः प्रयस्यते / अतो यदुक्तम्-'सर्वत्र पर्यनुयोगपराण्येव सूत्राणि बृहस्पतेः' इति तदभिधेयशून्यमिव लक्ष्यते उक्तन्यायात्। यत्तूक्तम्-'प्रत्यक्षं सन्निहितविषयत्वेन चक्षुरादिप्रभवं परलोकादिग्राहकत्वेन न प्रवर्तते'- तत्र सिद्धसाधनम् / यच्चोक्तम्-'नाप्यतीन्द्रियं योगिप्रत्यक्षं, परलोकवत्तस्याऽसिद्धः' इति, तद् विस्मरणशीलस्य भवतो वचनम् , अतीन्द्रियार्थप्रवृत्तिप्रवणस्य योगिप्रत्यक्षस्यानन्तरमेव प्रतिपादितत्वात् / यत् पुनरिदमुच्यते 'नापि प्रत्यक्षपूर्वकमनमानं तदभावे प्रवर्तते' तदसंगतम् , प्रत्यक्षेण हि सम्बन्धग्रहणपूर्व सकते हैं ] प्रसंग साधन का लक्षण यह है-दो वस्तु के बीच व्याप्य-व्यापक भाव सिद्ध होने पर कहीं पर भी व्याप्य की सत्ता व्यापक की सत्ता के विना नहीं होती-इस प्रकार दिखाया जाय / इस लिये आप की ओर से भी प्रमाण के आधार से यह दिखाना होगा कि प्रमेय को व्यवस्था प्रमाणप्रवृत्ति के प्त है। अर्थात जहाँ भी प्रमेय की व्यवस्था होती है वह प्रमाणप्रवृत्तिपूर्वक ही होती है। ऐसी व्याप्ति यदि नहीं दिखायेंगे तो प्रमाणप्रवृत्ति के विना भी प्रमेयव्यवस्था की सम्भावना रह जायेगी / जब प्रमेयव्यवस्था प्रमाणाधीन मानी जायेगी तब परलोकादि के साधक प्रमाण के पर्यनुयोग में भी यदि प्रमाण होगा तो परलोकादि की व्यवस्था क्यों नहीं होगी? तथा, जब आप प्रमेयव्यवस्था और प्रमाण की व्याप्ति दिखायेंगे तब तो व्याप्य-व्यापकभाव के ग्राहक प्रमाण को भी मानना होगा, फिर व्याप्य-व्यापकभाव के ग्राहक प्रमाण के आधार पर परलोक आदि के साधक रूप में प्रवर्त्तमान कार्य हेतु या स्वभाव हेतु का निगकरण करना कैसे उचित होगा, जब कि व्याप्ति सा प्रमाण को मानने पर अनायास ही अनुमान की प्रवृत्ति सिद्ध है ? प्रसंगसाधन की भाँति विपर्यय प्रयोग भी देखिये [ नास्तिक कृत विपर्यय प्रयोग की समीक्षा ] 'प्रमाणप्रवृत्ति नहीं होगी तो प्रमेय की व्यवस्था भी न होगी' यह प्रसंगविपर्यय [ यानी व्यतिरेकानुमान ] है / उसके स्वरूप का विश्लेषण करने पर 'व्यापक के न होने पर व्याप्य भी नहीं होता' -इस प्रकार व्यापकानुपलब्धिप्रयुक्त अनुमान ही फलित होगा। प्रसंग और विपर्यय स्वरूप में दोनों अनुमान, प्रमाण से व्याप्य-व्यापक भाव की सिद्धि होने पर ही प्रवृत्त हो सकते हैं, अतः व्याप्तिसाधक प्रमाण और उसकी कृपा से होने वाले अनुमान के प्रामाण्य को आपने अपनी जबान से ही टेका-हस्तावलम्ब दे दिया, अतः अनुमानादि के प्रामाण्य को सिद्ध करने के लिये हमें प्रयाम कराने की जरूर नहीं रहती / अत एव, आपने जो यह कहा था कि 'बृहस्पति के सूत्र सर्वत्र पर्यनुयोग प्रवण ही हैं, वह उपरोक्त रीति से विचार करने पर निरर्थक प्रलाप सा लगता है / - [ कार्यहेतुक परलोकसाधक अनुमान ] ___नास्तिक ने जो यह कहा था-'प्रत्यक्ष केवल निकटवर्ती वस्तु को विषय करने वाला होने से नेत्रादि जन्य प्रत्यक्ष परलोकादि के ग्रहण में प्रवृत्ति नहीं करता'-[ पृ० 283 पं० 8 ] वह हमारे मत Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 301 परोक्षे पावकादौ यथाऽनुमान प्रवर्तमानमुपलभ्यते स एव न्यायः परलोकसाधनेऽप्यनुमानस्य किमित्यदृष्टो दुष्टो वा ? ! तथाहि-'यत् कार्य तत् कार्या तरोदभूतम् , यथा पटादिलक्षणं कार्य, कार्य चेदं जन्म' इति भवत्यतो हेतोः परलोकसिद्धिः / तथाहि [प्र० वा० 3-35] _ "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात् / अपेक्षा तो हि भावानां कादाचित्कत्वसम्भवः।" न तावत् कार्यत्वमिहजन्मनो न सिद्धम् , अकार्यत्वे हेतु निरपेक्षस्य नित्यं सत्त्वाऽसत्त्वप्रसंगात् / अथ स्वभावत एव कादाचित्कत्वं पदार्थानां भविष्यति. नहि कार्यकारणभावपूर्वकत्वं प्रत्यक्षत उपलब्धं येन तदभावानिवर्तेत, प्रत्यक्षतः कार्यकारणभावस्यवासिद्ध: / यद्येवं, बाह्य नाप्यर्थेन सह कार्यकारणभावस्याऽसिद्धः स्वसंवेदनमात्रत्वे सति प्रद्वतम् , विचारतस्तस्याप्यभावे सर्वशून्यत्वमिति सकलव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः / तस्माद्यथा प्रत्यक्षेण बाह्यार्थप्रतिबद्धत्वमात्मनः प्रतीयते-अन्यथेहलोकस्याप्यप्रसिद्ध :, प्रत्यक्षत: तज्जन्यस्वभावत्वानवगमे तस्य तद्ग्राहकत्वाऽसम्भवात् , तथा चेहलोकसाधनार्थमंगीकर्तव्य प्रत्यक्षं स्वार्थेनात्मनः प्रतिबन्धसाधकम् तथा परलोकसाधनार्थमपि तदेव साधनमिति सिद्धः परलोकोऽनुमानतः। यथा च बाह्यार्थप्रतिबद्धत्वं प्रत्यक्षस्य कादाचित्कत्वेन साध्यते, धूमस्यापि वह्निप्रतिबद्धत्वं, तथेहजन्मनोऽपि कादाचित्कत्वेन जन्मान्तरप्रतिबद्धत्वमपि / ततोऽनल-बाह्यार्थवत् परलोकेऽपि सिद्धमनुमानम्। का ही अनुवादमात्र है / यह जो कहा था कि-'योगीयों के अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से परलोक सिद्धि दुष्कर है चूंकि परलोक की तरह अतीद्रिय वस्तु को देखने वाले योगी भी असिद्ध है' इत्यादि, [पृ० 283 पं. 9] यह कथन आपके विस्मृतिस्वभाव का द्योतन है, क्योंकि अतीन्द्रियार्थ को ग्रहण करने में तत्पर योगिप्रत्यक्ष का अचिरपूर्व में सर्वज्ञसिद्धि के प्रकरण में ही प्रतिपादन कर दिया है। ___ यह जो नास्तिक ने कहा है कि-'परलोक का प्रत्यक्ष न होने से तत्पूर्वक होने वाला अनुमान भी परलोक ग्रहण में प्रवृत्त नहीं है'-[ पृ० 284 पं० 1] वह गलत है क्योंकि प्रत्यक्ष से अविनाभाव सम्बन्ध का ग्रहण करके, परोक्ष अग्नि आदि में जैसे ( पूर्वोक्त न्याय से ) अनमान की प्रवृत्ति होती है; उसी न्याय से परलोक को सिद्ध करने में भी अनुमान की प्रवृत्ति का होना 'न देखी गयी हो' ऐसी बात नहीं है और दुष्ट भी नहीं है। अनुमान की प्रवृत्ति इस प्रकार है-जो कुछ कार्य होता है वह कार्यान्तरजन्य होता है जैसे कि वस्त्रादि कार्य तन्तुस्वरूप कार्य से / यह जन्म भी कार्य होने से जन्मान्तर जन्य होना चाहिये-इस प्रकार कार्य हेतु से जन्मा तर सिद्ध होता है। इसका विशेष समर्थन भी देखिये [परलोकसाधक अनुमान का दृढीकरण] प्रमाणवात्तिक में कहा है कि "जिसका कोई हेतु नहीं है ऐसे पदार्थ को अपनी स्थिति में किसी अन्य की अपेक्षा न होने से या तो उसकी सर्वकालीन सत्ता होगी या सदा-सर्वदा असत्ता होगी। अन्य किसी की अपेक्षा होने पर ही भावों में कादाचित्कत्व [ =कालिक मर्यादा ] का सम्भव है"वर्तमान जन्म में कार्यत्व असिद्ध तो नहीं है, यदि वह अकार्य होगा तब तो उपरोक्त प्रमाणवात्तिक ग्रन्थ वचन के अनुसार वर्तमान जन्म की सत्ता सदा रहेगी या तो उसकी सदा असत्ता रहने का अतिप्रसंग होगा। नास्तिकः-पदार्थों में कालिक मर्यादा [= अमुक ही काल में होना] अपने स्वभाव से ही Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथेहजन्मादिभूतमातापितृसामग्रीमात्रादप्युत्पत्तेः कादाचित्कत्वं युक्तमेवेहजन्मनः / नन्वेवं प्रदेशसमनन्तरप्रत्ययमात्रसामग्री विशेषादेव धूम-प्रत्यक्षसंवेदनयोः कादाचित्कत्वमिति न सिध्यति वह्निबाह्यार्थप्रतीतिरिति सकलव्यवहाराभावः। अथाकारविशेषादेवानन्यथात्वसंमविनोऽनल-बाह्यार्थसिद्धिः, तोहजन्मनोऽपि प्रज्ञा-मेधाद्याकारविशेषतः एव मातापितृव्यतिरिक्तनिजजन्मान्तरसिद्धिः / तथा, यथाकारविशेष एवायं तैमिरिकादिज्ञानव्यावृत्तः प्रत्यक्षस्य बाह्यार्थमन्तरेण न भवतीति निश्चीयते-अन्यथा बाह्यार्थासिद्धबौद्धाभिमतसंवेदनाऽद्वैतमेवेति पुनरपि व्यवहाराभावः-तथेहजन्मादिभूतप्रज्ञाविशेषाद् इहजन्मविशेषाकारो निजजन्मान्तरप्रतिबद्ध इति निश्चीयतामनुमानतः। सम्पन्न होती है / जहाँ 'कार्यकारणभाव हो वहाँ ही कालिक मर्यादा हो' ऐसा कार्यकारणभावपूर्वकत्व का, प्रत्यक्ष से कालिक मर्यादा में उपलभ्भ नहीं है जिससे यह कह सकें कि इस जन्म और पूर्व जन्म का कार्य-कारणभाव नहीं होगा तो इस जन्म में कादाचित्कत्व [-कालिक मर्यादा] भी नहीं होगा। क्योंकि कार्यकारणभाव ही यहाँ प्रत्यक्ष से असिद्ध है। प्रास्तिकः-यदि ऐसा मानेंगे तो संवेदन और बाह्यार्थ के बीच भी प्रत्यक्ष से कार्यकारणाभाव असिद्ध होने से बाह्यार्थ सिद्ध नहीं होगा तो विज्ञानाद्वैत का साम्राज्य हो जायेगा / विज्ञान के ऊपर विविध विकल्पों से विचार करने पर उसका भी अभाव ही प्रतीत होगा, तो 'सर्वं शून्यम्'-शून्यवाद प्रसक्त होगा / फलतः सकल व्यवहारों का भी उच्छेद होने का अतिप्रसंग आयेगा। इसलिये यह अवश्य मानना होगा कि संवेदन में बाह्यार्थसंबन्धिता प्रत्यक्ष से ही प्रतीत होती है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो इहलोक भी सिद्ध न हो सकेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान में इहलोक यानी बाह्यार्थ से जन्यता का प्रत्यक्ष नहीं मानेंगे तो प्रत्यक्षज्ञान में बाह्यार्थ की ग्राहकता का भी असंभव हो जायेगा। इस प्रकार जैसे इहलोक की सिद्धि के लिये 'प्रत्यक्ष ही बाह्यार्थ के साथ अपनी सम्बन्धिता का ग्राहक है' यह मानना पड़ेगा, तो परलोक की सिद्धि में भी वही साधन मौजूद है अत: अनुमान से परलोक की कर नहीं है। तात्पर्य यह है कि जैसे 'प्रत्यक्ष में बाह्यार्थप्रतिबद्धत्व प्रत्यक्षग्राह्य है' इस तथ्य की ऊपर दशित-इहलोक सिद्धि की अन्यथानुपपत्ति प्रयुक्त अनुमान से सिद्धि की जाती है उसी प्रकार कार्यहेतुक अनुमान से इस जन्म में जन्मान्तरपूर्वकत्व भी सिद्ध किया जाता है। उपरांत, कादाचित्कत्व हेतु से भी प्रत्यक्षज्ञान में बाह्यार्थसंबंधिता की सिद्धि होती है, जैसेः प्रत्यक्षज्ञान यदि बाह्यार्थ जन्य नहीं होगा तो दूसरा कोई उसका हेतु न होने से उसके सदा सत्त्व-असत्त्व की आपत्ति होगी इस से प्रत्यक्ष में बाह्यार्थ जन्यत्व यानी बाह्यार्थसंबंधिता सिद्ध होती है / तथा, धूम में भी ठीक कादाचित्कत्व हेतु से अग्निसंबंधिता उपरोक्त रीति से सिद्ध होती है। जैसे कादाचित्कत्व हेतु से उपरोक्त सिद्धि होती है, ठीक उसी प्रकार कादाचित्कत्व हेतु से उपरोक्त 'इस जन्म में परलोक संबंधिता' की भी सिद्धि की जा सकती है / जैसे वर्तमान जन्म यदि जन्मान्तरजन्य न होगा तो अन्य कोई उसका जनक न होने से वह सदा सत् या सदा ही असत् रहेगा। तो इस रीति से अग्नि संबंधिता और बाह्यार्थ संबंधिता की तरह इहलोक में परलोक संबंधिता की भी अनुमान से सिद्धि हो जाती है / [केवल मात-पिता से जन्म मानने पर अतिप्रसंग] नास्तिक:-इस जन्म को उत्पत्ति उसके प्रारम्भ में माता-पितारूप विद्यमान सामग्री मात्र से ही हुई है-इतना मान लेने पर कालिक मर्यादा [कादाचित्कत्व] की संगति बैठ जाती है. तो परलोकसिद्धि कैसे होगी? Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 303 अथ प्रत्यक्षमेव सविकल्पकं परमार्थतः प्रतिपत्तः "ततः परं पुनर्वस्तु धर्मः'...... [ श्लो० वा० सू० 4-120 ] इत्यादि मीमांसकादिप्रसिद्ध साधकं वह्नि-बाह्यार्थपूर्वकत्वस्य धूम-जाग्रत्पुरोवृत्तिस्तम्भादिप्रत्ययस्य,-अत्राभ्युपगमे परलोकवादिनः स्वपक्षमनाय ससिद्धमेव मन्यन्ते, 'न हि दृष्टेऽनुपपन्नम् इतिन्यायात् / यथैव हि निश्चयरूपा मातापित-जन्मप्रतिबद्धत्वसिद्धिस्तथैवेहजन्मसंस्कारव्यावृत्तादिहजन्मप्रज्ञाद्याकारविशेषानिजजन्मान्तरप्रतिबद्धत्वसिद्धिरपि प्रत्यक्षनिश्चिता स्यादिति न परलोकक्षतिः। न च निश्चयप्रत्ययोऽनभ्यासदशायामनुमानतामतिकामति, 'पूर्वरूपसाधात् तत् तथा प्रसाधित नानुमयतामतिपतति' इति न्यायादन्वय-व्यतिरेक पक्षधर्मताऽनुसरणस्यानभ्यासदशायामुपलब्धः, अभ्यासदशायां च पक्षधर्मत्वाद्यनुसरणस्यान्यत्राप्यसंवेदनात् सिद्धमनुमानप्रतीतत्वं परलोकस्य / परलोकवादी:-अरे ! ऐसे तो जिस प्रदेश में धूम उत्पन्न हुआ है और जिस समनन्तर [-सजातीय पूर्ववर्ती ] प्रत्यय से प्रत्यक्ष संवेदन की उत्पत्ति हयी है उस प्रदेश और समनन्तर प्रत्यय को ही क्रमशः धूम और प्रत्यक्ष संवेदन की सामग्री समझ लेने से धूम और प्रत्यक्षसंवेदन में कादाचित्कत्व की घटना हो जायेगी, तो अग्नि और बाह्यार्थ की प्रतीति कैसे सिद्ध होगी? इस प्रकार अग्नि एवं सकल बाह्यार्थ सिद्ध न होने पर तत्साध्य कोई व्यवहार भी न हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि जैसे केवल प्रदेश और समनन्तरप्रत्यय ही सामग्री नहीं है किन्तु अग्नि आदि भी सामग्री है, उसी प्रकार केवल माता-पिता ही सामग्री नहीं है किन्तु जन्मान्तर भी सामग्री अन्तर्गत है / नास्तिकः-धूम में जो विशेषाकार है उष्णत्वादि और प्रत्यक्षसंवेदन में जो विशेषाकार है नीलादि, यह विशेषाकार क्रमशः अग्नि और बाह्यार्थ के विना संभवित न होने से अग्नि और बाह्य अर्थ की सिद्धि हो सकेगी। परलोकवादीः-तो उसी प्रकार वर्तमानजन्म में जो प्रज्ञा मेधादि विशेषाकार है वह पूर्वजन्मान्तर के विना संभवित न होने से माता-पिता से अतिरिक्त अपने ही जन्मान्तर की सिद्धि निर्विवाद है / तदुपरांत, प्रत्यक्षसंवेदन का एक ऐसा आकार विशेष है जो तिमिररोगवाले के ज्ञान में नहीं होता, इस से यह निश्चय होता है कि 'तैमिरिकज्ञान भले विना बाह्यार्थ उत्पन्न हो जाता हो किन्तु यह प्रत्यक्षसंवेदन बाह्यार्थ के विना नहीं हो सकता' वरना, बाह्यार्थ सिद्ध न होने पर बौद्ध मत का विज्ञानाद्वैत ही सिद्ध होने से व्यवहाराभाव की पुन: प्रसक्ति होगी। तो प्रस्तुत में भी-इस जन्म का आदिभूत जो मात-पिता का प्रज्ञाविशेष था उससे इस जन्म के प्रज्ञाविशेष का आकार विलक्षण है इस लिये वह अपने पूर्वजन्मान्तर से जन्य यानी जन्मान्तरसम्बन्धी है यह निश्चय अनुमान से फलित हुआ, क्योंकि अल्पप्रज्ञ माता-पिता से भी अतिशयित बुद्धि वाली सन्तानोत्पत्ति देखी जाती है। [प्रज्ञादि आकारविशेष में जन्मान्तरप्रतिबद्धता का प्रत्यक्षनिश्चय ] नास्तिक:-मीमांसादर्शन के श्लोकवात्तिकग्रन्थ में जो सविकल्प प्रत्यक्ष प्रसिद्ध है कि-निर्विकल्पक ज्ञान के बाद तद्गृहीत वस्तु का जाति-नामादि धर्म से विशिष्टरूप में जिस बुद्धि से ग्रहण होता है वह सविकल्पक प्रत्यक्ष भी प्रमाण रूप से सम्मत है / [पूरा श्लोक इस प्रकार है-तत: परं पुनर्वस्तु धर्मर्जात्यादिभिर्यया / बुद्धयाऽवसीयते सापि प्रत्यक्षत्वेन सम्मता! / ] बोधकर्ता का यह सविकल्प प्रत्यक्ष ही परमार्थ से धूम में अग्निपूर्वकत्व का साधक है और जागने पर जो सामने रहे हुए स्तम्भादि की Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथेतरेतराश्रयदोषावनुमानं नास्त्येवैवं विधे विषय इत्युच्येत, नन्वेवं सति सर्वभेदाभावतो व्यवहारोच्छेद इति तदुच्छेदमनभ्युपगच्छता व्यवहाराथिनाऽवश्यमनुमानमभ्युपगन्तव्यम् / एतेन प्रत्यक्षपूर्वकत्वाऽभावेऽप्यनुमानस्य प्रामाण्यं प्रतिपादितम् / न चानुमानपूर्वकत्वेऽपोतरेतराश्रयदोषानुषंगः, तस्यैवेतरेतराश्रयदोषस्य व्यवहारप्रवृत्तितो निराकरणात् / बुद्धि होती है उसमें बाह्यार्थपूर्वकत्व का साधक है। [ तात्पर्य-वर्तमान जन्म में जन्मान्तरपूर्वकत्व का साधक ऐसा प्रत्यक्ष नहीं होने से वह असिद्ध है / ] ___ आस्तिक:-प्रत्यक्ष से धूमादि में अग्निपूर्वकत्व की सिद्धि मान ली जाय तब तो परलोकवादीवृद विना आयास ही अपने पक्ष की सिद्धि मान सकते हैं क्योंकि जो स्पष्ट दिखाई रहा हो-उसके ऊपर कोई अनुपपत्ति का विकल्प शेष नहीं रहता। जैसे ही इस जन्म में माता-पितृप्रतिबद्धत्व की प्रत्यक्ष से सिद्धि निश्चयात्मक होती है संदहेरूप नहीं, उसी प्रकार, इस वत्तमान जन्म के सभी संस्कार से नितान्त विलक्षण ऐसा जो वर्तमानभवीय प्रज्ञा-मेधादि आकारविशेष है उस के प्रत्यक्ष से ही [ अभ्यास दशा में ] अपने जन्मान्तर संबंधिता की सिद्धि का प्रत्यक्षात्मक निश्चय संभवित है अतः परलोक की सिद्धि में कोई त्रुटि नहीं है / इतना जरूर है कि यह निश्चयात्मक बोध अनभ्यास दशा में अनुमानबहिभूत नहीं होता / कारण यह है कि 'पूर्वदृष्टस्वरूप के साधर्म्य से [ अन्यत्र भी ] उसी प्रकार वह सिद्ध किया जाय तो वह अनुमेय [ अनुमान के विषय क्षेत्र से ] बहिर्भूत नहीं होता' इस न्याय से अनभ्यास दशा में अन्वय, व्यतिरेक, पक्षधर्मता का अनसरण देखा जाता है अत: परलोक को अनुमान का विषय दिखाया जाता है। तात्पर्य यह है कि अभ्यासदशा में जिसका अनमान किया जाता है वही वस्तु अभ्यास दशा में प्रत्यक्ष का विषय बन जाती है क्योंकि अभ्यस्तदशा में अन्यत्र अग्निज्ञान में भी कभी पक्षधर्मता आदि के अनसरण का संवेदन नहीं होता / उदा० प्रारम्भ में अग्नि के अनमान में मंदबुद्धि पुरुष को पक्षधर्मता आदि का अनुसंधान करना पडता है किंतु इस विषय का बार बार पुनरावर्तन हो जाने पर धूम को देखकर सत्वर ही अग्नि का ज्ञान हो जाता है यहाँ व्याप्ति स्मरणादि की जरूर नहीं रहती अत: यह ज्ञान अनमान नहीं किन्तु प्रत्यक्षरूप ही होता है। केवल अनभ्यास दशा में वह ज्ञान अनुमानात्मक होता है इस दृष्टि से परलोक अनुमान ज्ञान के विषयरूप में भी सिद्ध होता है / [ परलोक साधक अनुमान में इतरेतराश्रयदोष का निवारण ] यदि यह कहा जाय कि -"आपने जो परलोक सिद्धि में अनुमान दिखाया है, वह प्रत्यक्ष पर अवलम्बित है क्योंकि प्रत्यक्ष से जन्मान्तरप्रतिबद्धत्व का निश्चय करने पर ही अनुमान का उदय लब्धावकाश होगा / वह प्रत्यक्ष भी अनुमान पर अवलम्बित है क्योंकि अनुमान के विना उसका प्रामाण्य असिद्ध रहेगा। इस प्रकार अन्योन्य परावलंबी हो जाने से परलोक के विषय में अनुमान की प्रवृत्ति नहीं मान सकते हैं - तो यहाँ व्यवहारोच्छेद का प्रसंग होगा क्योंकि परलोकवत् सभी भेदों का [ यानी विशेषपदार्थों का ] प्रत्यक्ष और अनुमान पूर्वोक्त रीति से अन्योन्य परावलंबी होने से उनका अभाव ही सिद्ध होगा और तब उन पदार्थों के विषय में कोई भी व्यवहार नहीं किया जा सकेगा। व्यवहारोच्छेद न मान कर यदि आपको व्यवहार से प्रयोजन है तब अनमान का स्वीकार अवश्यमेव करना होगा। व्यवहारोच्छेद की आपत्ति दिखाने से यह भी ध्वनित हो जाता है कि अनुमान में कदाचित् प्रत्यक्षपूर्वकता न हो फिर भी उसे प्रमाण मानना चाहीये / तात्पर्य यह है कि सामान्यतोदृष्ट अनुमान Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-परलोकवादः यदप्युक्तम्-'अनुमानपूर्वकत्वेऽनवस्थाप्रसंगानानुमानप्रवृत्तिः'-इति, तदप्यसंगतम् , एवं हि सति प्रत्यक्षगहीतेऽप्यर्थे विप्रतिपत्तिविषये नानुमानप्रवृत्तिमन्तरेण तन्निरास इति बाह्यर्थे प्रत्यक्षस्याऽव्यापारात् पुनरप्यद्वैतापत्तेः शून्यतापत्तेर्वा व्यवहारोच्छेद इति व्यवहारबलात् सैवानवस्था परिहियते इति / अभ्युपगमवादेन चैतदुक्तम् , अन्यथा बाह्यार्थव्यवस्थापनाय प्रत्यक्ष प्रवर्तते तथा प्रदर्शितहेतोयाप्तिप्रसाधनाथ केषांचिद् मतेन निर्विकल्पम् , अन्येषां तु सविकल्पकं चक्षुरादिकरणव्यापारजन्यम् , अपरेषा मानसम् , केषांचिद् व्यावृत्तिग्रहणोपयोगि ज्ञानम , अन्येषां प्रत्यक्षानुपलम्भबलोदभूतालिंगजोहाख्य परोक्षं प्रमाणं तत्र व्याप्रियत इति कथमनुमानेन प्रतिबंधग्रहणेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोषप्रसक्तिः परलोकवादिनः प्रति भवता प्रेर्येत ? से जब स्वर्गादि परलोक सिद्ध किया जाता है तब वहाँ प्रत्यक्ष निरूपयोगी होता है और सामान्यतः फलवत्ता की सिद्धि प्रथम अनुमान से करने के बाद द्वितीय परिशेषानुमान से फलरूप में स्वर्गादि सिद्ध किया जाता है तो इस प्रकार अनुमान यह अनुमानपूर्वक भी होता है। यहाँ ऐसा नहीं कह सकते कि-'प्रथम अनुमान की प्रवृत्ति तभी हो सकती है जब द्वितीय अनुमान से स्वर्गादि प्रसिद्ध रहे [ क्योंकि उसके विना कौन प्रथम अनुमान में उद्यम करेगा ? ] और दूसरा अनुमान तभी प्रवृत्त होगा जब प्रथम अनुमान से सामान्यतः फलवत्ता सिद्ध हो / इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष लगेगा।'-ऐसा नहीं कह सकने का कारण यह है कि अदृष्ट पदार्थों की सिद्धि के लिये अनुमान का व्यवहार में भारी प्रचलन है अत एव व्यवहार प्रवृत्ति के बल से ही उस अन्योन्याश्रय दोष का निराकरण हो जाता है। [ व्याप्तिग्रहण में अनवस्था दोष का निवारण ] ___ यह जो कहा था आपने 'परलोकग्राहक अनुमान की उद्भावक व्याप्ति का ग्रहण अन्य अनुमान से करेंगे तो उस अन्य अनुमानोद्भावक व्याप्ति के ग्रहण में अन्य अनुमान करना होगा इस रीति से अनवस्था होने के कारण अनुमान की प्रवृत्ति शक्य नहीं-वह गलत है, क्योंकि प्रत्यक्ष से ज्ञात जिस अर्थ में विवाद खड़ा होगा उसका निराकरण अनुमान प्रवृत्ति के विना शक्य नहीं है और अनुमान प्रवृत्ति के विना प्रत्यक्ष की बाह्यार्थ में प्रवृत्ति सिद्ध न होने से बाह्यार्थ असिद्ध रहने पर फिर से विज्ञानाद्वैत की आपत्ति आयेगी और विज्ञान की सिद्धि भी दर्लभ हो जाने पर शुन्यवाद प्रसक्ति से सकल व्यवहार का भी उच्छेद प्रसक्त होगा जो इष्ट नहीं है, अत एव इस व्यवहार के बल से ही अनवस्थादोष का निवारण हो जाता है / [व्याप्तिग्राहक प्रमाण के विषय में मत वैविध्य ] अविनाभावसम्ब धरूप व्याप्ति का अनुमान से ग्रहण होने में अनवस्था दोष का जो व्याख्याकार ने प्रत्याख्यान किया उसके बारे में व्याख्याकार यह स्पष्टता करते हैं कि अनुमान से व्याप्तिग्रह होता है यह कुछ समय तक मान कर हमने इतरेतराश्रय-अनवस्था दोष का परिहार किया है। [ वास्तव में हम अनुमान से व्याप्तिग्रह मानते ही नहीं हैं ] यदि हम अनुमान से व्याप्तिग्रह न माने तब तो कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष जैसे बाह्यार्थ की व्यवस्था करने में प्रवर्त्तमान है वैसे ही पूर्वप्रदर्शित हेतु को अपने साध्य के साथ अविनाभाव रूप व्याप्ति के ग्रहण में, कितने वादीओं के मत में निर्वकल्प प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति मानी गयी है, दूसरे कोई वादी नेत्रादि इन्द्रिय Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदप्युक्तम् सर्वमप्यनुमानमस्मान् प्रति प्रमाणत्वेनासिद्धम्-इत्यादि, तदप्यसंगतम् / यतः किमनुमानमात्रस्याऽप्रामाण्यं भवतः प्रतिपादयितुमभिप्रेतम् 'अनुमानमप्रमाणम्' इत्यादि ग्रन्थेन ? अथ तान्त्रिकलक्षणक्षेपः ? अतीन्द्रियार्थानुमानप्रतिक्षेपो वा ? न तावदनुमानमात्रप्रतिषेधो युक्तः, लोकव्यवहारोच्छेदप्रसंगात् / यतः प्रतीयन्ति कोविदाः कस्यचिदर्थस्य दर्शने नियमतः किञ्चिदर्थान्तरं न तु सर्वस्मात् सर्वस्यावगमः / उक्तं चान्येन-'स्वगृहानिर्गतो भूयो न तदाऽऽगन्तुमर्हति' [ ] / अतः किंचिद् दृष्ट्वा कस्यचिदवगमे निमित्तं कल्पनीयम् / ___तच्च नियतसाहचर्यमविनाभावशब्दवाच्यं नैयायिकादिभिः परिकल्पितम् / तदवगमश्च प्रत्यक्षानुपलम्भसहायमानसप्रत्यक्षतः प्रतीयते। सामान्यद्वारेण प्रतिबन्धावगमाद् देशादिव्यभिचारो न बाधकः, नाऽपि व्यक्त्यानन्त्यम् , उभयत्रापि सामान्यस्यैकत्वात् / सामान्याकृष्टाशेषव्यक्ति प्रतिभानं च मानसे प्रत्यक्षे यथा शतसंख्याऽवच्छेदेन 'शतम्' इति प्रत्यये विशेषणाकृष्टानां पूर्वगृहीतानां शतसंख्याविषयपदार्थानाम् / तथाहि-'एते शतम्' इति प्रत्ययो भवत्येव / सामान्यस्य च सत्त्वमनुगताऽबाधितव्यापार जन्य सविकल्प प्रत्यक्ष को व्याप्तिग्राहक मानते हैं, तो कोई अन्य (मीमांसकादि) वादी सविकल्प मानसप्रत्यक्ष को व्याप्तिग्राहक मानते हैं. अन्य कोई वादी विपक्ष से व्यावृत्ति के ग्रहण में उपयोगी जो ज्ञान होता है उसी ज्ञान को व्याप्ति का ग्राहक दिखाते हैं। एवं अन्य वादी (जैन) के मत में, प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ की सहायता से उत्पन्न 'तर्क' संज्ञक प्रमाण जो कि लिंगजन्य नहीं होता और परोक्ष होता है, वही व्याप्तिग्राहक माना जाता है / इस प्रकार जब हम अनुमान को व्याप्तिग्राहक मानते ही नहीं तब अनमान से व्याप्तिग्रह में इतरेतराश्रय-अनवस्था दोषयुगल का प्रसंग परलोकवादी के प्रति कैसे आप (नास्तिक) कर सकते हैं ? , [ अनुमान के अप्रामाण्य कथन के ऊपर तीन विकल्प ] यह जो नास्तिक ने कहा था-हमारे प्रति कोई भी अनुमान प्रमाणरूप से सिद्ध नहीं है.... इत्यादि, वह संबंधशून्य है / कारण, यहां तीन प्रश्न लब्धावकाश है / (1) 'अनुमान अप्रमाण है' इस वचन से नास्तिक का अभिप्राय क्या प्रत्येक अनुमान को अप्रमाण ठहराने में है ? (2) या तान्त्रिकों ने जो उसका लक्षण दिखलाया है उस लक्षण का विरोध अभिप्रेत है ? (३)-या केवल जो अतीन्द्रिय अर्थ दिखाने वाले अनुमान हैं उनका विरोध अभिप्रेत है ? (1) अनुमानमात्र का निषेध करना तो नितान्त अनुचित है कि लोक. में अधिकांश व्यवहार जो अनुमान पर आधारित हैं उनका उच्छेद प्रसक्त होगा। बुद्धिमान लोग किसी एक चीज को देखने पर अवश्यमेव दुसरी कोई चीज का पता लगाते हैं, किन्तु ऐसा नहीं है कि सब / लगाते हैं, किन्तु ऐसा नहीं है कि सब चीजों को यानी जिस किसी चीज को देखकर सब चीजों का यानी जिस किसी चीज का पता लगा लें। कहा भी है 'अपने घर से बाहर गया हुआ नास्तिक वापस बार बार अपने घर नहीं लौट सकेगा।'-ऐसा इसीलिये कहा गया है कि यदि किसी एक चीज को देखने पर तत्संबद्ध अन्य किसी चीज का बोध होता ही न हो तो घर के बाहर उद्यानादि में गये हुए नास्तिक को न घर का बोध रहेगा, न वहाँ जाने के रास्ते का, चूकि वह तभी प्रत्यक्ष का विषय नहीं है / तो इस प्रकार जो एक वस्तु को देखकर अन्य सभी वस्तु का नहीं किन्तु किसी अमुक ही वस्तु का बोध होता है उसका क्या निमित्त है यह ढना पडेगा। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 307 प्रत्ययविषयत्वेन व्यवस्थापितम् / तदेवं नियतसाहचर्यमर्थान्तरं प्रतिपादयदुपलब्धं सत् प्रतिपादयति / उपलम्भश्चावश्यं क्वचित् स्थितस्य, सैव पक्षधर्मता, ततः सम्बन्धानुस्मृतौ ततः साध्यावगमः। ___ यस्तु प्रतिबन्धं नोपैति तस्यापि कथं न सर्वस्मात सर्वप्रतिपत्तिः, अभ्युपगमे वाऽप्रतिपन्नेऽपि सम्बन्ध प्रतिपत्तिप्रसंगः ? 'प्रमातृसंस्कारकारकाणां पूर्वदर्शनानामभावात्' इत्यनुत्तरम्, सम्बन्धाप्रतिपत्तौ प्रमातसंस्कारानुपपत्तेः / दर्शनजः संस्कारोऽप्यनभिव्यक्तः सत्तामात्रेण न प्रतिपत्त्युपयागा, न च स्मतिमन्तरेण तत्सद्भावोऽपि / न चानुभवप्रध्वंसनिबन्धना स्मृतिः क्वचिद्विषये, संस्कारमन्तरेण तदनुपपत्तेः प्रध्वंसस्य च निर्हेतुकत्वाऽसम्भवात् / यत्राप्यभ्यस्ते विषये वस्त्वन्तरदर्शनादव्यवधानेन वस्त्वन्तरप्रतिपत्तिस्तत्रापि प्राक्तनक्रमाश्रयणेन वस्त्वन्तरावगमः / इयांस्तु विशेषः-एकत्रानभ्यस्तत्वादन्तराले स्मृतिसंवेदनम् , अन्यत्राभ्यासाद् विद्यमानाया अप्यसंवित्तिः। [ अर्थान्तरबोध का निमित्त नियतसाहचर्य है-नैयायिकादिमत ] किसी एक चीज को देखकर दूसरी चीज के ज्ञान का निमित्त नियमभित साहचर्य है, जिस को 'अविनाभाव' शब्द से भी कहा जाता है-यह नैयायिकादि वादीओं की धारणा है / प्रत्यक्ष यानी अग्नि के होने पर धूम का दर्शन, तथा अनुपलम्भ, यानी अग्नि के न होने पर धूम का अदर्शन, इनकी सहाय से होने वाली प्रत्यक्ष प्रतीति से धूम में अग्नि के अविनाभाव का बोध होता है / यद्यपि यहाँ, पाकशाला में धूम के साथ जैसा अग्नि देखा था वैसा ही अग्नि, पर्वत में नहीं होता- इस प्रकार धूम का अग्नि के साथ देशादिकृत व्यभिचार कोई दिखा सकता है, तथा धूम और अग्नि व्यक्ति से अनन्त हैं अत: सभी धूम का सभी अग्नि के साथ माहचर्य प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, अतः अविनाभाव का ग्रह शक्य नहीं-ऐसा भी कोई कह सकता है-किन्तु ये दोनों से कोई बाध नहीं है, क्योंकि अविनाभाव का ग्रहण सामान्यतत्त्वद्वारा किया जाता है और धम व्यक्ति भले अनंत हो, सकल धुमगत धूम मगत धूमत्व सामान्य एक ही है, तथा अग्नि सकल में अग्नित्व सामान्य भी एक ही है तो यहाँ धूमत्ववान् का अग्नित्ववान् के साथ नियतसाहचर्यग्रह अविलंबेन किया जा सकता है / पाकशाला में जैसा अग्नि था वैसा पर्वत में विशिष्ट अग्नि न होने पर भी सामान्यतः वहाँ अग्नि का अभाव धूम होने पर नहीं होता, इतने से ही अनुमान सार्थक है / सकलधूम-सकल अग्नि का प्रत्यक्ष असंभव होने पर भी धूमत्व-अग्नित्व के माध्यम से उन सभी का मानस बोध हो सकता है अतः व्यक्ति-आनन्त्य भी बाधक नहीं है / सामान्यधर्म से आलिंगित सकलव्यक्ति का भान मानसप्रत्यक्ष में ठीक उसी प्रकार हो सकता है जैसे 'शत' संख्या को पुरस्कृत करके 'सो' ऐसी बुद्धि होती है उसमें एक दो-तीन........इस प्रकार के विशेषण से आलिंगित पूर्व-पूर्व गृहीत सो संख्या विशिष्ट पदार्थों का 'ये सभी मिल कर सो हैं' इस प्रकार मानस प्रत्यक्ष बोध होता है / क्योंकि ठोस गिनती के बाद देखिये कि 'ये सौ हैं' यह बोध तो होता ही है / सामान्य पदार्थ का सद्भाव भी 'यह वस्त्र है....वस्त्र है'....इस प्रकार के एकाकार [ =अनुगत] निर्बाध बोध के विषयरूप में प्रस्थापित ही है / तो इस प्रकार नियमभित साहचर्य से अर्थान्तर सूचित होता ही है और वह भी ज्ञात होने पर, अज्ञात रहने पर कभी नहीं। साहचर्य वाले धूमादि का ज्ञान यानी उपलम्भ भी 'कहीं पर वह अवस्थित है'-इस रूप से ही होता है-इस प्रकार के उपलम्भविषय को ही पक्षधर्मता कहते हैं / जब उसका उपलम्भ होता है तब तद्गत अविनाभावसंबंध का हमें स्मरण हो आता है और उस स्मरण से अग्नि आदि साध्य का ज्ञान होता है। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ केचित्तु योगिप्रत्यक्ष संबन्धग्राहकमाहुः, व्याप्तेः सकलाक्षेपेणावगमात् / तथा च यत्र यत्रे'ति देशकालविक्षिप्तानां व्यक्तीनामनवमासाऽनुपपत्तिः, [ अत एकत्र क्षणे योगित्वं प्रतिबन्धग्राहिणः ? ] / एतत् पूर्वस्मादविशिष्टम् / तद् लोके अर्थान्तरदर्शनादर्थान्तरसुदृढप्रतीतौ ताकिकारणां निमित्तचिन्तायां पक्षधर्मत्वाद्यभिधानम् / अतो न तान्त्रिकलक्षणप्रतिक्षेपोऽपि। [अविनाभाव को और उसके ज्ञान को मानना ही चाहिये] जो लोग इस प्रकार के 'अविनाभाव' स्वरूप प्रतिबन्ध यानी संबध का इनकार करते हैं उनको यह प्रश्न है कि हर किसी चीज से सभी वस्तु का भान क्यों नहीं होता? और जो लोग उसका इनकार तो नहीं करते, किन्तु अर्थान्तर के बोध में उसके ज्ञान की आवश्यकता नहीं मानते-उनके मत में संबंध अज्ञात रहने पर भी साध्य के बोध का अतिप्रसंग क्यों नहीं होगा? यदि ऐसा उत्तर दिया जाय कि'अज्ञात संबंध से साध्य के बोध में बोधकर्ता को पूर्वकालीन संस्कार होना चाहिये और उन संस्कारों का आधान करने वाला साध्यदर्शन भी पूर्व में हुआ रहना चाहीये-यह सब जिस को नहीं होता उसको अज्ञात संबंध से साध्य बोध नहीं होता।'-तो यह उत्तर जूठा है क्योंकि संबंध ग्रहण किये विना बोधकर्ता को तथाविध संस्कार ही नहीं हो सकेगा / दर्शन से कदाचित् संस्कार हो जाय तो भी उसके अनभिव्यक्त रहने पर केवल सत्ता मात्र से वह साध्यबोध में उपयोगी नहीं हो सकेगा / अभिव्यक्ति भी तभी होगी जब उसका स्मरण हो जाय / यह नहीं कह सकते कि 'किसी विषय की अनुभूति का ध्वंस ही उस विषय की स्मृति का उद्भावक है, क्योंकि ध्वंस तो सदा रहता है फिर भी स्मृति कदाचित् होती है-यह संस्कार के विना नहीं घट सकेगा / दूसरी बात यह है कि निरन्वयनाश यानी निर्हेतुक ध्वंस का संभव नहीं / कहीं कहीं ऐसा देखा जाता है कि विषय का अति अभ्यास हो जाने पर विना विलंब ही एक वस्तु के दर्शन से दूसरी वस्तु का बोध हो जाता है, किन्तु गहराई से सोचने पर वहाँ भी पूर्वोक्त क्रम से ही साध्य का बोध होता है, फर्क होता है तो इतना ही कि अभ्यास न होने पर बीच में होने वाली सम्बन्धस्मृति का संवेदन भी होता है और अति अभ्यास रहने पर बीच में स्मृति तो होती है किन्तु उसका संवेदन नहीं होता। [अविनाभावसंबधग्रह की योगिप्रत्यक्ष से शक्यता ] कितने विद्वान् यह कहते हैं कि अविनाभावसंबन्ध का ग्राहक योगीओं का प्रत्यक्ष है। योगी के प्रत्यक्ष में देश-काल की कोई सीमा न होने से सकल हेत और साध्य व्यक्ति को विषय करते उससे व्याप्तिरूप सम्बन्ध का बोध प्राप्त हो सकता है। इसलिये 'जहाँ जहाँ धूम हो....' इस व्याप्ति के ग्रह में, जिस जिस देश में और जिस जिस काल में जितनी धूम व्यक्तिओं का अवभास - बोध करना है वह अनुपपन्न नहीं है / [ इसलिये एक क्षण में प्रतिबन्धग्राही की योगिता है (?) ]-यह जो मत है वह पूर्वकथित मत से कोई अन्तर नहीं रखता क्योंकि सामान्य द्वारा जो व्याप्तिग्रह पूर्व में कहा गया है वही यहाँ योगिवचन से होने वाला है। *तात्पर्य यह है कि बौद्धादि मत में नाश को निर्हेतुक माना जाता है। किन्तु अन्य सभी वादीओं का कहना है कि ध्वंस सहेतुक ही है अतः प्रस्तुत में अनुभूतिध्वंस को स्मृतिजनक मानने वाले को उस ध्वंस के हेतु को भी मानना ही होगा तो उससे अच्छा है कि स्मृति को संस्कार का ही कार्य माना जाय / Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 309 'उत्पन्नप्रतीतीनामस्तु प्रामाण्यम् , उत्पाद्यप्रतीतीनां तु अतीन्द्रियाऽदृष्ट-परलोक-सर्वज्ञाद्यनुमानानां प्रतिक्षेप' इति चेत् ? तदसत् , यद्यनवगतसम्बन्धान प्रतिपत्तनधिकृत्यैतदुच्यते तदा धूमादिष्वपि तुल्यम् / अथ गृहीताविनाभावानामप्यतीन्द्रियपरलोकादिप्रतिभासानुत्पत्तेरेवमुच्यते / तदसत् , ये हि कार्यविशेषस्य तद्विशेषेण गहीताविनाभावास्ते तस्मात् परलोकाद्यवगच्छन्त्येव, प्रतो न ज्ञायते केन विशेषेणातीन्द्रियार्थानुमानप्रतिक्षेपः ? साहचर्याऽविशेषेऽपि व्याप्यगता नियतता प्रयोजिका न व्यापकगता, अतः समव्याप्तिकानामपि व्याप्यमुखेनैव प्रतिपत्तिः / नियतताऽवगमे चार्थान्तरप्रतिपत्तौ न बाधा. न प्रतिबन्धः, एकस्य रूपभेदानुपपत्तेः, ततो न विशेषविरुद्धसम्भवः, नाऽपि विरुद्धाऽव्यभिचारिणः, इति यदुक्तम्-विरुद्धानुमान-विरोधयोः सर्वत्र सम्भवात् क्वचिच्च विरुद्धाऽव्यभिचारिणः' इत्येतदप्यपास्तम् / अविनाभावसम्बन्धस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात् , अवस्था-देश-कालादिभेदात्' इत्यादेश्व पूर्वनीत्याऽनुमानप्रमाणत्वेऽनुपपत्तिः। . इस प्रकार तार्किक नैयायिकों ने एक अर्थ के दर्शन से होने वाली अन्य अर्थ की प्रतीति में निमित्त क्या है-इसकी विचारणा में पक्षधर्मत्वादि का प्रतिपादन किया है / अतः नास्तिक उस तान्त्रिक लक्षण का भी प्रतिकार नहीं कर सकता / तात्पर्य, दूसरा विकल्प-तान्त्रिकलक्षणलक्षित अनुमान का प्रतिक्षेप, यह विकल्प भी तुच्छ है / [ अतीन्द्रियार्थसाधकानुमान का प्रतिक्षेप-तीसरा विकल्प] नास्तिकः-जो अनुमानात्मक प्रतीतियाँ लोक में प्राचीनकाल से उत्पन्न हैं उनका प्रामाण्य भले मान्य हो, किन्तु जो अब नये सीरे से उत्पन्न करनी हैं, जैसेः अतीन्द्रिय कर्म, परलोक, सर्वज्ञ के अनुमान,-इनके प्रामाण्य का ही हम विरोध करते हैं। परलोकवादी:-यह अच्छा नहीं है, क्योंकि उत्पन्न और उत्पाद्य अनुमानों का ऐसा भेद करेंगे तो जिन बोधकर्ताओं को अभी तक अविनाभाव सम्बन्ध का बोध नहीं है उनको लक्ष्य में रख कर आप वैसा कह रहे हो तो धूम में अग्नि का अविनाभाव उन लोगों को गृहीत न होने से अग्नि का अनुमान तो उन लोगों के लिये अनुत्पन्न यानी उत्पाद्य ही रहा, तो उसको भी अप्रमाण मानने की आपत्ति होगी / यदि जिनको अविनाभाव गृहीत है ऐसे बोधकर्ताओं को ही लक्ष्य में रख कर आप यह कहते हों कि-''अविनाभाव जिनको ज्ञात है उनको भी अतीन्द्रिय परलोकादि का प्रतिभास कभी उत्पन्न नहीं होता, अतः अतीन्द्रिय परलोकादि का अनुमान अप्रमाण मानते हैं'-तो यह भी जूठा है जिन लोगों को एक कार्यविशेष [वर्तमान जन्म] का अन्य कार्यविशेष [ पूर्वजन्म ] के साथ अविनाभाव गृहीत है उनको 'जो कार्य होता है वह [ सजातीय ] कार्यान्तर जन्य होता है जैसे पटादि, यह जन्म भी एक कार्य है अतः जन्मान्तर जन्य होना चाहिये' ऐसा परलोकादि का अनुमान होता ही है। फिर यह कौनसी विशेषता है जिससे कि अतीन्द्रियार्थ के अनुमान का विरोध करना और लौकिक अनुमानों को सच्चा मान लेना ? ! [साध्य से हेतु के अनुमान की आपत्ति का निवारण ] ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि-हेतु-साध्य में साहचर्य अन्योन्य होता है तो हेतु से साध्य का अनुमान माना जाता है उसी तरह साध्य से हेतु का भी अनुमान माना जाय, क्यों नहीं माना जाता ?'-कारण यह है कि साहचर्य अन्योन्य समान होने पर भी नियत साहचर्य केवल हेतु में ही Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 परोक्षस्यार्थस्य सामान्याकारणाऽन्यतः प्रतिपत्तौ लोकप्रतीतायां बौद्धस्तु कार्यकारणभावादिलक्षणः प्रतिबन्धस्तन्निमित्तत्वेन कल्पितः / तदुक्तम् कार्यकारणभावाद वा स्वभावाद वा नियामकाद / अविनामावनियमोऽदर्शनान न दर्शनाद // तथा-अवश्यंभावनियमः कः परस्यान्यथा परैः / प्रर्थान्तरनिमित्ते वा धर्मे वाससि रागवत् // [प्र. वा० 331-32 ] इति च / तथाहि क्वचित पर्वतादिदेशे धूम उपलभ्यमानो यद्यग्निमन्तरेणैव स्यात्तदा पावकधर्मानुवृत्तितस्तस्य तत्कार्यत्वं यनिश्चितं विशिष्ट प्रत्यक्षानपलम्भाभ्यां तदेव न स्यादित्यहेतोस्तस्याऽसत्त्वात क्वचिदप्यूपलम्भो न स्यात. सर्वदा सर्वत्र सर्वाकारेण वोपलम्भः स्यात. अहेतोः सर्वदा सत्त्वात / होता है अत एव हेतु गत साहचर्य का नैयत्य ही अनुमानप्रयोजक होता है, व्यापक [-साध्य] गत साहचर्य का नैयत्य वैसा नहीं होता / यही कारण है कि जहां साध्य और हेतु अन्योन्य समान व्याप्ति वाले होते हैं वहाँ भी व्याप्यरूप से जिसका ज्ञान या प्रतिपादन किया जाय उससे ही दूसरे अर्थान्तर का बोध होता है। इस प्रकार हेतु में साध्य का नैयत्य ज्ञात रहे तो अर्थान्तर के अनुमान में न कोई बाध हो सकता है, न तो कोई प्रतिबन्ध यानी सत्प्रतिपक्षदोष हो सकता है। क्योंकि जो हेतु साध्यनियत है वह हेतु साध्य का बोध करावे और न भी करावे ऐसा स्वरूप भेद संगत नहीं है। [विरुद्ध आदि दोषों का निराकरण ] उपरोक्त रीति से जब परलोकानुमान निष्कण्टक है तब विशेषविरुद्ध दोष यानी हेतु इष्ट विधातक होना यह दोष अवसर प्राप्त नहीं है क्योंकि इष्ट परलोक को कार्यत्व हेतु से निष्कण्टक सिद्धि होती है / उसी प्रकार, परलोक सिद्धि में प्रतिबन्ध करने वाला अर्थात् उसके अभाव को सिद्ध करने वाला काई प्रति हेतु सिद्ध न होने से सत्प्रतिपक्ष यानी विरुद्धाव्यभिचारी दोष का भी यहाँ संभव नहीं है। यह कहने का अभिप्राय यह है कि नास्तिक ने जो पहले अनमान के खण्डन में यह कहा था कि सभी अनुमानों में विरुद्ध दोष, अनुमानविरोध दोष और विरुद्धाव्यभिचारी दोष सावकाश होने के कारण अनुमान प्रमाण नहीं है-यह नास्तिक का खण्डन स्वयं खण्डित हो जाता है / दूसरी बात यह है कि, हमने पूर्वोक्त रीति से अनुमान के प्रामाण्य को और अनुमान से परलोक को सिद्ध कर दिखाया है अतः नास्तिक ने जो कहा था कि अविनाभावसंबन्ध का ग्रहण शक्य नहीं है, क्योंकि हेतु और साध्य भिन्न भिन्न अवस्था में, देश में और काल में भिन्न प्रकार के होते हैं".... इत्यादि, यह सब असंगत ठहरता है। [ अर्थान्तरबोध का निमित्त कार्यकारणभावादिसम्बन्ध-बौद्धमत ] लोक में जो किसी एक अर्थ से अन्य परोक्ष अर्थ की सामान्याकार से प्रतीति का होना अनुभव सिद्ध है, बौद्धों ने उनके निमित्तरूप में कार्य-कारणभाव और स्वभाव, दो सम्बन्ध की कल्पना की है / जैसे कि प्रमाणवात्तिक में कहा है ___“कार्यकारणभाव [ अपरनाम तदुत्पत्ति ] रूप नियामक अथवा स्वभावरूप नियामक के निमित्त से अविनाभावनियम होता है। केवल [विपक्ष में] अदर्शन और [सपक्ष में] दर्शनमात्र से नहीं होता। वरना, इन दो को निमित्त न मानने पर, पर का पर के साथ [ यानी साध्य का साधन Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 311 स्वभावश्च यदि भावव्यतिरेकेण स्यात्ततो भावस्य निःस्वभावत्वापत्तेः स्वभावस्याप्यभावापत्तिः। तत्प्रतिबन्धसाधकं च प्रमाणं कार्यहेतोविशिष्टप्रत्यक्षाऽनुपलम्भशब्दवाच्यं प्रत्यक्षमेव सर्वज्ञसाधकहेतुप्रतिबन्धनिश्चयप्रस्तावे प्रदर्शितम् / स्वभावहेतोस्तु कस्यचिद् विपर्यये बाधकं प्रमाण व्याप. कानुपलब्धिस्वरूपम् , कस्यचित्तु विशिष्टं प्रत्यक्षमभ्युपगतम् / सर्वथा सामान्यद्वारेण व्यक्तीनामतद्रूपपरावृत्तव्यक्तिरूपेण वा तासां प्रतिबन्धोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथाऽप्रतिबद्धादन्यतोऽन्यप्रतिपत्तावतिप्रसंगात् / प्रतिबन्धप्रसाधकं च प्रमाणमवश्यमभ्युपगमनीयम् , अन्यथाऽगहीतप्रतिबन्धत्वादन्यतोऽन्यप्रतिपतावपि प्रसंगस्तदवस्थ एव / यत्र गृहीतप्रतिबन्धोऽसावर्थ उपलभ्यमानः साध्यसिद्धि विदधाति तद्धर्मता तस्य पक्षधर्मत्वस्वरूपा, तद्ग्राहकं च प्रमाणं प्रत्यक्षमनुमानं वा / तदुक्तं धर्मकीत्तिना"पक्षधर्मतानिश्चयः प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा" / [ ] के साथ ] कौन दूसरा अवश्यंभाव नियम होगा? अर्थान्तर [ यानी तदुत्पत्ति से अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ ] मूलक अस्वभावभूत धर्म मानने पर भी कैसे अवश्यंभाव नियम होगा ? जैसे कि राग [ DYES ] वस्त्र का न तो कार्य है, न तो स्वभाव है तो अर्थान्तरमूलक राग से वस्त्र का कहाँ अवश्यंभाव नियम है ?" ___जैसे कि देखिये-कार्यकारणभाव प्रतिबन्ध इस प्रकार है-कहीं पर्वतादि प्रदेश में दिखाई देता धूवा यदि अग्नि के विना होगा तो उसमें वह अग्निजन्यत्व ही नहीं होगा जो कि विशेषरूप से प्रत्यक्ष [अन्वय] और अनुपलम्भ [व्यतिरेक ] से धूवे में अग्निधर्म के अनुसरण को देखकर निश्चित किया गया है / इस प्रकार तो वह धूवा अहेतुक हो जाने से शशसींगवत् असत् हो जायेगा तो, या तो कहीं भी उसका उपलम्भ नहीं होगा, अथवा सभी काल में सभी प्रदेश में सर्व प्रकार से उस का उपलम्भ होगा क्योंकि अहेतुक वस्तु [ आकाशादि ] का सर्वकाल में सत्त्व होता है / कार्य हेतु का प्रतिबन्ध दिखा कर अब स्वभाव हेतु का प्रतिबन्ध दिखाते हैं-शिंशपादि स्वभाव अगर वृक्षादिभाव के विना निराधार ही होता तब तो वृक्षादिभाव में स्वभावशून्यत्व ही आ पड़ेगा / उपरांत, स्वभाव भी निराधार तो कहीं होता नहीं, अतः उसका भी अभाव प्रसक्त होगा-इससे शिशपादि स्वभाव का वक्षादिभाव के साथ अविनाभाव फलित होता है। - [ कार्य और स्वभाव हेतु में प्रतिबन्धसाधक प्रमाण ] कार्यहेतु के इस उपरोक्त प्रतिबन्ध का साधक प्रमाण प्रत्यक्ष ही है जिस के लिये 'विशिष्ट प्रकार के प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ ऐसा भी शब्द प्रयोग होता है यह बात सर्वज्ञसिद्धि करने वाले हेतु के सम्बन्ध के निश्चय-प्रकरण में दिखायी गयी है [ देखिये-पृ० 57 पं० 17] / स्वभाव हेतु के प्रतिबन्ध का साधक प्रमाण कहीं 'विपक्ष में बाधक निरूपण' है जो व्यापकानुपलब्धिरूप होता है, तो कहीं विशिष्ट प्रकार का प्रत्यक्ष ही तदुपलम्भक माना गया है। कुछ भी हो, प्रतिबन्ध को तो अवश्य मानना ही चाहिये, वह चाहे धमादि व्यक्तिओं का अग्नि आदि व्यक्ति के साथ धमत्व-अग्नित्वादि स पुरस्कारेण माना जाय, या [ जो लोग सामान्य को नहीं मानते हैं उनके मत में ] उन व्यक्तिओं के बीच अतद्रूपव्यावृत्तव्यक्तिरूप से यानी अतद्व्यावृत्तिपुरस्कारेण माना जाय [जैसे कि अधूमव्यावृत्तिरूप से धूम का, अनग्निव्यावृत्तिरूप से अग्नि के साथ / ] मानना तो पड़ेगा ही, अन्यथा प्रतिबन्धरहित एक Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अतो लोकप्रसिद्धतान्त्रिकलक्षणलक्षितानुमानयोर्भेदाभावादतीन्द्रियपरलोकाद्यर्थसाधकत्वमपि तस्यैवेति तत्प्रामाण्यानभ्युपगमे इहलोकस्यापि अभ्युपगमाभावप्रसंगः / न च किमत्र निर्विकल्पकं,मानसं. योगिप्रत्यक्षमूहो वा प्रतिबन्धनिश्चायक, प्रतिबन्धोऽपि नियतसाहचर्यलक्षणः कार्यकारणभावादिर्वा' इति चिन्तात्रोपयोगिनी, धमादग्निप्रतिपत्तिवत् प्रज्ञा-मेधादिविज्ञानकार्यविशेषानिजजन्मान्तरविज्ञानस्वभावपरलोकप्रतिपत्तिसिद्धेः / अतोऽनुमानाप्रामाण्यप्रतिपादनाय पूर्वक्षवादिना यद् युक्तिजालमुपन्यस्तं तन्निरस्तं द्रष्टव्यम् , प्रतिपदमुच्चार्य न दूष्यते ग्रन्थगौरवभयात् / यदप्युक्तम् 'परलोके प्रत्यक्षस्याऽप्रवृत्तेरर्थापत्तिरेवेयम् , इहजन्मान्यथाऽनुपपत्त्या परलोकसद्भावः' इति, तदपि न सम्यक , पूर्वानुसारेण सर्वस्य नियतप्रत्ययस्य प्रवृत्तेरनुमानत्वप्रतिपादनात् / 'अविनाभावसम्बन्धस्य ग्रहीतुमशक्यत्वान्नात्रानुमानम्' इति चेत् ? नन्वेवं तदेवाऽद्वैतं शून्यत्वं वा कस्य केन दोषाभिधानम् / तस्मात संव्यवहारकारिणा प्रत्यक्षेण ऊहेन वा प्रतिबन्धसिद्धिरिति कथं नानुमानात परलोकसिद्धिः?..... वस्तु से अन्य वस्तु के बोध का होना माना जायेगा तो सब वस्तु से सभी का बोध होता रहेगा- यह अतिप्रसंग होगा। [ अनुमान से निर्विघ्न परलोक सिद्धि-उपसंहार ] जैसे प्रतिबन्ध को मानना जरूरी है वैसे उसके साधक प्रमाण की सत्ता भी अवश्य माननो पडेगी / वरना, प्रतिबन्धग्रहण किये विना ही किसी भी एक वस्तु से किसी अन्य वस्तु के बोध को मान लेने पर जो सभी से सर्व के बोध का प्रसंग दिया गया था वह तदवस्थ रहेगा क्योंकि सभी वस्तुएं प्रतिबन्ध के ग्रहण से शून्य ही हैं। पक्षधर्मता का स्वरूप यह है कि जिस का प्रतिबन्ध ज्ञात हो ऐसा अर्थ जिस देश में उपलब्ध हो कर साध्य की सिद्धि करे उस देश को वहाँ पक्ष कहा जायेगा और उस अथ को उसका धर्म कहा जायेगा-इसी का नाम पक्षधर्मता है, [ पक्ष में धर्म हेतु का रहना ] / इस पक्षधर्मता का भी ग्राहक प्रमाण प्रत्यक्ष या अनुमान-दोनों में से कोई भी हो सकता है / जैसा कि धर्मकोत्ति ने कहा है-पक्षधर्मता का निश्चय प्रत्यक्ष से अथवा अनुमान से होता है / उपरोक्त समस्त चर्चा का सार यही है कि-लोकप्रसिद्ध अनुमान और शास्त्रकारों के बनाये हुए लक्षण वाला अनुमान, दोनों में कुछ भी भेद नहीं है। अत: अतीन्द्रिय परलोकादिरूप अर्थ का साधक भी अनुमान ही है यह निर्विवाद सिद्ध होता है। यदि परलोक सिद्धि में अनुमान को प्रमाण नहीं मानेंगे तो इहलोक के स्वीकार का भी अभाव प्रसक्त होगा। यदि यहाँ ऐसी चिता की जाय कि-"प्रतिबन्ध का निश्चायक क्या निर्विकल्प प्रत्यक्ष है, या मानस प्रत्यक्ष है, या योगीप्रत्यक्ष है अथवा तर्क ही प्रतिबन्ध का निश्चायक है ? प्रतिबन्ध भी नियत साहचर्यरूप माना जाय या कार्यकारणभावादिरूप ? क्योंकि आपने दो मत बताये किन्तु कौनसा उपादेय है यह नहीं कहा है ।"-तो इसके ऊपर व्याख्याकार का कहना है कि ऐसी चिन्ता प्रकृत में उपयोगी नहीं, निरर्थक है। प्रस्तुत में तो इतना ही दिखाना है कि जैसे धूम से अग्नि का उपलम्भ होता है वैसे ही, प्रज्ञा-मेधादि आकारं विशेष से अपने ही जन्मान्तरीय विज्ञानस्वरूप परलोक के उपलम्भ की सिद्धि सुसंभवित है / इसलिये, अनुमान को अप्रमाणसिद्ध करने हेतु पूर्वपक्षी वादी ने जो Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः यदप्युक्तम्-'माता-पितृसामग्रीमात्रेणेहजन्मसम्भवान्न तज्जन्मव्यतिरिक्तभूतपरलोकसाधनं युक्तम्' इति-तदपि प्रतिविहितमेव, समनन्तर प्रत्ययमात्रेण प्रत्ययप्रत्यक्षस्य भावात् स्वप्नादिप्रत्ययवन्न प्रत्यक्षाद् दरपीति बौद्धाभिमतपक्षसिद्धिप्रसंगानस्तत्वात / यदपि प्रत्यपादिन संनिहितमात्रविषयत्वात् प्रत्यक्षस्य देश-कालव्याप्त्या प्रतिबन्धग्रहणसामर्थ्यम्' इति, तदपि न किंचित् / एवं सति अतिसंनिहितविषयत्वेन प्रत्यक्षस्य स्वरूपमात्र एव प्रवृत्तिप्रसंग इति तदेव बौद्धाद्यभिमतं स्वसंवेदनमात्रं सर्वव्यवहारोच्छेदकारि प्रसक्तमिति प्रतिपादितत्वात् / तस्माल्लोकव्यवहारप्रवर्तनक्षमसविकल्पप्रत्यक्षबलाद् ऊहाख्यप्रमाणाद् वा देश-कालव्याप्त्या यथोक्तलक्षणस्य हेतोः प्रतिबन्धग्रहणे प्रवृत्तिरनुमान. स्येति न व्याहतिः प्रकृतस्येत्येतदपि निरस्तम् 'केचित् प्रज्ञादयः.......' [ पृ० 289-50 6 ] इत्यादि / युक्तिसमूह का निरूपण किया है वह पूरा ध्वस्त हो जाता है, यह स्वयं समझा जा सकता है, ग्रन्थ गौरव के भय से उसके एक एक युक्तिवचन को लेकर उसके दोष दिखाने का प्रयत्न नहीं करते हैं / [ अनुमान से परलोकसिद्धि सुशक्य ] नास्तिक ने जो यह कहा था-इस जन्म की अन्यथा अनुपपत्ति से परलोकसद्भाव की सिद्धि यह अर्थापत्तिरूप ही है, क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण की [ और अनुमान की भी ] परलोक में प्रवृत्ति शक्य नहीं है-इत्यादि, वह भी संगत नहीं, क्योंकि अर्थापत्ति अनुमानप्रमाण से अतिरिक्त नहीं है इस पूर्वोक्त संदर्भ के अनुसार यह कहा ही है कि जो जो नियमभित यानी अविनाभावज्ञानजनित बुद्धि का उदय होता मानस्वरूप ही है। यदि यह कहा जाय कि-परलोकात्मक वस्त के साथ किसी हेतु में अविनाभावसंबन्ध का ग्रहण शक्य नहीं है अतः अनुमान यहाँ प्रवृत्त नहीं हो सकता-तो इसके सामने यह भी कह सकते हैं कि ज्ञान में बाह्यार्थ के अविनाभावसम्बध का ग्रहण शक्य न होने से बाह्यार्थ असिद्ध है, तो इस प्रकार ज्ञानाद्वैतवाद को और आगे चलकर शून्यवाद की आपत्ति आयेगी / अतः अविनाभावसम्बन्ध के ग्रहण की अशक्यता का दोष कौन किस के ऊपर लगा रहा है यह सोचिये ! यदि शून्यवाद तक की आपत्ति से बचना हो तो यह स्वीकारना होगा कि उचित व्यवहार प्रत्यक्ष से अथवा तर्क से सम्बन्ध का ग्रह होता है / जब यह मानेंगे तो अनुमान से परलोक की सिद्धि क्यों न हो सकेगी? [केवल माता-पिता से इस जन्म की उत्पत्ति अयुक्त ] नास्तिक ने जो यह कहा था कि [ पृ० 288-4 ] "माता-पिता रूप सामग्री से ही इस जन्म की उत्पत्ति शक्य होने से उसके हेतुरूप में इस जन्म से भिन्न पूर्वजन्मरूप परलोक को सिद्ध कर दिखाना युक्त नहीं है"- इस का भी अब प्रतिकार हो जाता है क्योंकि बौद्ध का जो वांछित है-ज्ञान का प्रत्यक्ष, केवल भूतपूर्व जो समनन्तर प्रत्यय है उसीसे सम्पन्न हो जाने पर प्रत्यक्ष के आलम्बन से बाह्यार्थसिद्धि दुष्कर है जैसे स्वप्न के प्रत्यक्ष से किसी भी बाह्यार्थ की सिद्धि नहीं होती है-बौद्ध के इस पक्ष की सिद्धि का अस्त नास्तिक से नहीं होगा / तात्पर्य, जन्मान्तर के विना केवल माता पिता से इस जन्म को उत्पत्ति मान ली जाय तो बाह्यार्थ के विना भी केवल समनन्तरप्रत्यय से प्रत्यक्ष की उत्पत्ति मान लेने को आ [सर्वदेश-काल के अन्तर्भाव से व्याप्तिग्रह की शक्यता ] यह जो कहा था कि -[ पृ० 281 ] प्रत्यक्ष केवल निकटवर्ती वस्तु को विषय कर सकता Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च 'प्रज्ञामेधादयः शरीरस्वभावान्तर्गताः' इत्यादि चोद्ययुक्तम् , तदन्तर्गतत्वेऽपि परिहारसम्भवादन्वयव्यतिरेकाभ्यां तेषां मातापित्रोः पितृशरीरजन्यत्वस्य पितृशरीरं तहि हेतुभेदान्न भेदो मातापितशरीरादपत्यप्रज्ञादीनामा अयमपरो बहस्पतिमतानसारिण एव दोषोऽस्त स्यः कार्यभेदेऽपि भेदं नेच्छति / अस्माकं तु हर्षविषादाद्यनेकविरुद्धधर्माकान्तस्य विज्ञानस्यान्तर्मुखतया वेद्यस्य रूपरसगन्धस्पर्शादियुगपद्धावि-बालकुमारयौवनवृद्धावस्थाद्यनेकक्रमभाविविरुद्धधर्माध्यासिततच्छरीरादेर्बाह्यन्द्रियप्रभवविज्ञानसमधिगम्याद भेदः सिद्ध एव / विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्च पदार्थानां भेदकः स च जलानलयोरिव शरीरविज्ञानयोविद्यत एवेति कथं न तयोर्भेद: ? तद्भ दादप्यभेदे ब्रह्माद्वैतवादापत्तेस्तदवस्थ एव पृथिव्यादितत्त्वतुष्टयाभावापत्त्या व्यवहारोच्छेदः / है, अतः सर्व-देशकाल व्यापक रूप से प्रतिबन्ध के ग्रहण का सामर्थ्य उसमें नहीं है-यह तो कुछ नहीं है, तुच्छ है / यदि निकटवर्ती का ही ग्रहण मानेंगे तो कोई ऐसा कहेगा कि प्रत्यक्ष निकटवर्ती को नहीं तनिकटवर्ती वस्त को ही विषय करता है क्योंकि निकटवर्ती वस्त भी जब स्पष्ट नहीं दिखती तब हाथ में लेकर नेत्र के समीप रखनी पडती है, तभी स्पष्टदर्शन होता है / यदि ऐसा मान लिया जायेगा तो प्रत्यक्ष का अति निकट केवल अपना स्वरूप ही शेष रहेगा, और तो सभी वस्तु उससे कुछ न कुछ दूर ही है, अतः केवल अपने स्वरूपमात्र का ग्राहक प्रत्यक्ष सिद्ध होगा तो फिर से एक बार सकलव्यवहार भंजक वह बौद्धादि का इष्ट मत 'ज्ञान का अपना संवेदन मात्र सिद्ध होगा। इस आपत्ति से बचने के लिये यही मानना उचित है कि लोक व्यवहारों के प्रवर्तन में कुशल ऐसे सविकल्प प्रत्यक्ष के बल से अथवा तर्क-नामक प्रमाण से नियतसाहचर्यलक्षण वाले हेतु की सर्वदेशकालव्यापकरूप से व्याप्ति का ग्रहण होता है, जिससे अनुमान की प्रवृत्ति होती है / ऐसा जब मानेंगे तो परलोक सिद्धि में भी कोई व्याघात नहीं है, माता-पिता से अतिरिक्त जन्मान्तररूप सामग्री भी इस जन्म के हेतुरूप में सिद्ध होती है / इसलिये नास्तिक ने यह जो कहा था कि-कुछ प्रज्ञादि विशेष अभ्यासजनित होते हैं और कुछ माता-पितृदेह पूर्वक होते हैं यह निरस्त हो जाता है क्योंकि जन्मान्तर सिद्ध हो जाने पर सभी प्रज्ञादिविशेष की अभ्यासपूर्वकता में कोई संदेह नहीं रहता जिससे माता-पितृदेहपूर्वकता की कल्पना करनी पड़े। - [विज्ञानधर्म और शरीरधर्मों में भेदसिद्धि ] 'प्रज्ञा और मेधादि धर्म शरीरस्वभाव के हो अन्तर्गत हैं' यह आपादन भी असत् है, क्योंकि प्रज्ञा-मेधादि को शरीरस्वभावान्तर्भूत मानने पर भी, जन्मान्तरजन्यत्वविरोध का परिहार सम्भवित है / अन्वयव्यतिरेक से यदि प्रज्ञा-मेधादि में मातापितृशरीरजन्यत्व सिद्ध करेंगे तो अन्वय-व्यतिरेक से ही पुत्र-पुत्री के प्रज्ञा-मेधादि में अभ्यास जन्यत्व भी सिद्ध होने से मातापितृशरीर से जन्य पुत्र-पुत्री आदि के प्रज्ञा-मेधादि के प्रति हेतुभेद भी मानना होगा / अर्थात् अभ्यास को भी हेतु मानना पड़ेगा / बृहस्पति मत के अनुगामीयों पर यह एक अधिक आपत्ति खडी हुई क्योंकि वे तो कार्य भिन्नजाति का होने पर भी कारणभेद नहीं मानते है।। *यहाँ यथामुद्रित पाठ की संगति करना दुष्कर है / लिंबडी-भंडार की प्रति में 'तहि हेतुभेदो माता-पितृशरीरादपत्यप्रज्ञादीनाम्' इस प्रकार का उपलब्ध पाठ कुछ संगत प्रतीत हआ है, उसके ऊपर से हमने "तेषां मातापितृशरीरजन्यत्वे तहि हेतुभेदो माता-पितृशरीरादपत्यप्रज्ञादीनाम्" ऐसे पाठ की सम्भावना कर के हिन्दी विवरण किया है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 315 अथवा मातापितपूर्वजन्मकसामग्रीजन्यमेतत् कार्यम् एत[ ? अतो]न दोषोऽव्यतिरिक्तपक्षेऽपि विज्ञान-शरीरयोः / पूर्वमप्युक्तम्-विलक्षणादप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां माता-पितृशरीराद्विज्ञानमुपजायताम् , न हि कारणाकारमेव सकलं कार्यम्' इति-तदप्यसत् , यतो न हि कारणविलक्षणं कार्य न भवतीत्युच्यते, अपि तु तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात्तत्कार्यत्वम् / तथाहि-यद् यद्विकारान्वयव्यतिरेकानुविधायि तत् तत्कार्यमिति व्यवस्थाप्यते, यथा अगुरुकर्पू रोर्णादिदाह्यदाहकपावकगतसुरभिगन्धाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायी धूमः तत्कार्यतया व्यवस्थितः, एकसंतत्यनुपतितशास्त्रसंस्कारादिसंस्कृतप्राक्तनविज्ञानधर्मान्वयव्यतिरेकानुविधायि च प्रज्ञा-मेधाद्युत्तरविज्ञानमिति कथं न तत्कार्यमभ्युपगम्यते / तदनभ्युपगमे धूमादेरपि प्रसिद्धवह्नयादिकार्यस्य तत्कार्यत्वाऽप्रसिद्धिरिति पुनरपि सकलव्यवहारोच्छेदः / हमारे मत में, विज्ञान और शरीर का भेद सिद्ध ही है क्योंकि विज्ञान शरीरधर्म से विरुद्ध ऐसे हर्ष-विषादादि अनेक धर्म से आश्लिष्ट है तथा विज्ञान का अनुभव अन्तःकरण से [ मन से ] अन्तमुखपदार्थ के रूप में होता है, दूसरी ओर शरीर विज्ञानधर्म से विरुद्ध ऐसे सहभावि और क्रमभावि अनेक धर्मों से अध्यासित [=आश्लिष्ट] है, सहभावि यानी एक साथ रहने वाले धर्म रूप-रस स्पर्शादि है और शैशव, कुमार, यौवन और वृद्धत्व आदि अवस्था ये क्रमभावि धर्म हैं / तदुपरांत शरीर का अनुभव अन्तर्मुखरूप से नहीं किंतू बाह्य न्द्रियजन्यज्ञान से बहिर्मू खरूप से होता है। जल और अग्नि इन दोनों में जब विरुद्धधर्माध्यास के कारण और हेतुभेद के कारण भेद माना जाता है तो शरीर और विज्ञान का भी विरुद्धधर्माध्यास एवं हेतुभेद उपरोक्त रीति से मौजूद है तो उन दोनों का भेद क्यों न माना जाय ? कारणभेदादि होने पर भी यदि वस्तुभेद न मानेंगे तब तो पूर्वोक्तरीति से ब्रह्माद्वैत वाद की आपत्ति प्रसक्त होने से पृथ्वी आदि भूतचतुष्टय की वार्ता भी नामशेष हो जाने के कारण सकल व्यवहारोच्छेद का प्रसंग तदवस्थ ही रहा / - [विज्ञान विज्ञान का ही कार्य है ] विज्ञान और शरीर के भेदपक्ष का समर्थन करने के बाद अब व्याख्याकार अभेद में भी कोई दोष नहीं है यह अथवा शब्द से दिखाते हैं कि यह जन्मरूप कार्य माता-पिता एवं जन्मान्तररूप जो एक सामग्री, उससे जन्य है / यहाँ अगर विज्ञान और शरीर का अभेदपक्ष माना जाय तो भी दोष नहीं है क्योंकि सामग्री में पूर्वजन्म के अन्तर्भाव से अनायास जन्मान्तर सिद्ध हो जाता है / पहले जो यह कहा था कि-"विज्ञान का अन्वय और व्यतिरेक माता-पिता के देह के साथ दृष्ट है अत: माता-पिता का देह पुत्रशरीरगत विज्ञान से विलक्षणविज्ञान वाला होने पर भी माता-पितृ देह से ही पुत्र विज्ञान की उत्पत्ति माननी चाहिये, यह कोई नियम नहीं है कि कार्य सदा कारणानुरूप ही हो"इत्यादि, [पृ०२८९] वह ठीक नहीं है / हम ऐसा नहीं कहते कि कार्य कभी कारण से विलक्षण नहीं होता, किंतु हम तो यह कहते हैं कि जो तदत्वयव्य तिरेक का अनुसरण करे वह तत्कार्य है / जैसे देखिये-जिस वस्तु के विकार के अन्वय-व्यतिरेक का जो अनुसरण करे वह उस वस्तु का कार्य है ऐसा स्थापित किया गया है, जैसेः अगुरुद्रव्य, कपूर और ऊर्णादि द्रव्य इन दाहयोग्य द्रव्य को दग्ध कर देने वाले अग्नि में जिस प्रकार की सुगंध होती है, उसी प्रकार की सुगंध के अन्वय-व्यतिरेक को अनुसरने वाला तज्जन्य धूम भी होता है, अत: धूम को तत्तद अग्नि का कार्य माना जाता है / प्रस्तुत में देखिये कि प्रज्ञा-मेधादिरूप जो उत्तरकालीन विज्ञान है वह भी एकसंतानानुगत, शास्त्रीयसंस्कारों से परिष्कृत पूर्वकालीन Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तस्माद्यस्यैव संस्कारं नियमेनानुवर्तते / तन्नान्तरीयकं चित्तमतश्चित्तसमाश्रितम् / [ ] प्रतिपादितश्च प्रमाणतः प्रतिनियतः कार्यकारणभावः सर्वज्ञसाधने 'कुसमयविसासणं' इति पदव्याख्या कुर्वद्भिर्न पुनरिहोच्यते। योऽपि शालूकदृष्टान्तेन व्यभिचारः 'यथा गोमयादपि शालूकः, कश्चित् समानजातीयादपि शालूकादेव, तथा केचित प्रज्ञामेधादयस्तदभ्यासात , केचित् तु रसायनोपयोगात , अपरे मातापितृशुक्र-शोणितविशेषादेव' इति; सोपि न सम्यक , तत्रापि समानजातीयपूर्वाभ्याससम्भवाद् अन्यथा समानेऽपि रसायनाथुपयोगे यमलकयोः कस्यचित् क्वापि प्रज्ञा-मेधादिकमिति प्रतिनियमो न स्यात् , रसायनाधुपयोगस्य साधारणत्वादिति / न च प्रज्ञादीनां जन्मादौ रसायनाभ्यासे च विशेषः, शालक-गोमयजन्यस्य तु शालूकादेस्तदन्यस्माद्विशेषो दृश्यते / क्वचिज्जातिस्मरणं च दर्शनमिति न युक्ता दृष्टकारणादेव मातापितृशरीरात प्रज्ञा-मेधादिकार्यविशेषोत्पत्तिः / न च गोमय-शालकादेाभिचारविषयत्वेन प्रतिपादितस्यात्यन्तवैलक्षण्यम् , रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवत्पुद्गलपरिणामत्वेन द्वयोरप्यवलक्षण्यात् / विज्ञान शरीरयोश्चान्तबैहिमुखाकारविज्ञानग्राह्यतया स्वपरसंवेद्यतया स्वसंवेदन-बाह्यकरणादिजन्यप्रत्ययानुभूयमानतया च परस्पराननुयाय्यनेकविरुद्धधर्माध्यासतोऽत्यन्तवलक्षण्यस्य प्रतिपादितत्वाद् नोपादानोपादेयभावो युक्तः। विज्ञान के धर्मों के अन्वय व्यतिरेक का अनुसरण करता ही है तो विज्ञान को विज्ञान का कार्य क्यों न माना जाय ? फिर भी यदि नहीं मानना है तो धूम भी जो कि अग्नि के कार्यरूप में सुप्रसिद्ध है, उस को ‘अग्नि का कार्य' ऐसी प्रसिद्धि नहीं मिलेगी। फलतः एकबार फिर से कार्य कारण के व्यवहारों का उच्छेद प्रसक्त होगा। जैसे कि कहा है [शालूक के दृष्टान्त से व्यभिचारापादन असम्यक् ] "इसलिये जिसके ही संस्कार का चित्त नियमतः अनुसरण करता है वह उसका नान्तरीयक [पूर्व] चित्त ही है अतः चित्त [ पूर्वापर भाव से ] चित्त का ही समाश्रित है / " उपरांत, प्रतिनियत ही कारण-कार्यभाव का प्रमाण से प्रतिपादन, हसने 'कुसमयविसासण' इस मूलकारिका के पद की व्याख्या करते समय सर्वज्ञसिद्धि के प्रस्ताव में कर दिया है, अत: उसका पुनरावर्तन नहीं किया जाता। तथा नास्तिक ने जो पहले शालूक [ =मेंढक ] के दृष्टान्त से व्यभिचारापादन करते हुए कहा था [ पृ० 289 ] - 'कोई मेंढक गोबर से उत्पन्न होता है और कोई समानजातिवाले मेंढक से ही, इस प्रकार कोई प्रज्ञा-मेधादि उनके अभ्यास से निष्पन्न होते हैं तो कोई ब्राह्मी आदि रसायनों के उपयोग से, तथा कोई प्रज्ञामेधादि माता पिता की शुक्र-शोणित धातु से ही उत्पन्न होने का माना जा सकता है'-इत्यादि, वह सर्वथा असंगत है, क्योंकि रसायनोपयोगादि से प्रज्ञा-मेधादि की उत्पत्ति को जहाँ आप दिखा रहे हैं वहाँ भी पूर्वकालीन अभ्यास का पूरा सम्भव है, अत: व्यभिचार की शक्यता नहीं है। यदि कहें कि वहाँ पूर्वाभ्यास में क्या प्रमाण? तो उत्तर यह है कि पूर्वाभ्यास को नहीं मानेंगे तो दो सहोदर भाई रसायनादि का एक-सा उपयोग करते हैं फिर भी किसी एक को ही किसी विषय में प्रज्ञा-मेधादि उत्पन्न होने का विशिष्ट नियम दिखाई देता है वह कैसे ? रसायनादि का उपयोग तो दोनों के प्रति साधारण तुल्य है, यदि पूर्वाभ्यास से वहाँ प्रज्ञादि भेद नहीं मानेंगे तो कैसे संगति होगी? Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 317 यस्तु शरीरवृद्धयादेश्चैतन्यवृद्धयादिलक्षण उपादानोपादेयभावधर्मोपलम्भः प्रतिपाद्यतेऽसौ महाकायस्यापि मातंगाऽजगरादेश्चैतन्याल्पत्वेन व्यभिचारीति न तद्भावसाधकः / यस्तु शरीरविकारा यावकारापलम्भलक्षणस्तद्धर्ममावः प्रतिपाद्यतेऽसावपि सात्त्विकसत्त्वानामन्यगतचित्तानां वा छेदादिलक्षणशरीरविकारसद्भावेऽपि तच्चित्तविकारानुपलब्धरसिद्धः। दृश्यते च सहकारिविशेषादपि जल-भूम्यादिलक्षणाद् बीजोपादानस्यांकुरादेविशेष इति सहकारिकारणत्वेऽपि शरीरादेविशिष्टाहाराधुपयोगादौ यौवनावस्थायां वा शास्त्रादिसंस्कारोपात्तविशेषपूर्वज्ञानोपादानस्य विज्ञानस्य विवृद्धिलक्षणो विशेषो नाऽसंभवी। [ शरीर और विज्ञान में उपादान-उपादेयभाव अयुक्त] दूसरी बात यह है जन्मादिकाल में जो प्रज्ञादि होते हैं और रसायन के उपयोग से तथा अभ्यास से जो प्रज्ञादि होते हैं उनमें कोई जातिभेद नहीं होता, अतः प्रज्ञादि के विभिन्न कारण मानना अयुक्त है, जब कि मेंढक जो मेंढक से होता है और जो गोबर से होता है उनमें कुछ कुछ जातिभेद स्पष्ट ही दिखाई देता है, अतः उनके विभिन्न कारणों को मान सकते हैं। तदुपरांत किसी किसी का दर्शन यानी बोध पूर्वजन्मस्मरणात्मक भी होता है, वहाँ तो जन्मान्तरीय अनुभव को हेतु मानना ही होगा, अतः किसी भी प्रज्ञा-मेधादि विशेष कार्य की उ पत्ति केवल दृश्यमान माता-पिता के देह रूप कारण से ही होती है यह मानना संगत नहीं है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि व्यभिचार के स्थलरूप में प्रतिपादित जो गोबरजन्य मेंढक और मेंढकजन्यमेंढक है, उनमें भी अत्यन्त वैलक्षण्य नहीं है, चूंकि गोबर के रूप-रस-गन्ध-स्पर्श का परिणाम और मेंढक के रूपादि परिणाम ये दोनों ऐसा पुद्गलपरिणाम है जिनमें कोई विलक्षणता नहीं है, अतः गोबरत्वेन या मेंढकत्वेन विभिन्न कारणता को न मानकर जब हम वहाँ समानरूपादिपरिणामरूपेण एक ही कारणता गोबर और मेंढक में मानेंगे तो फिर कोई व्यभिचार ही नहीं है। तदुपरांत शरीर और विज्ञान में उपादान-उपादेय भाव भी नहीं घट सकता, क्योंकि शरीर का संवेदत्त बहिमु ख आकार से होता है, विज्ञान का अन्तर्मुखाकार से। तथा शरीर पररूपेण संवेदित होता है जब कि विज्ञान का संवेदन स्व रूप से होता है / विज्ञान स्वतः प्रकाश है जब कि शरीर वैसा नहीं है / शरीर बाह्येन्द्रियजन्यप्रतीति का विषय होता है जब कि विज्ञान अन्तःकरणजन्यप्रतीति का विषय होता है / इस प्रकार परस्पर का अनुगामी नहीं किंतु प्रतिगामी ऐसे अनेक विरुद्धधर्म के अध्यास से विज्ञान और शरीर में अत्यन्त विलक्षणता का प्रतिपादन पहले किया हुआ है, [ पृ० 314 ] अतः उन दोनों में उपादानोपादेयभाव असंगत है। [ शरीरवृद्धि से चैतन्यवृद्धि की बात मिथ्या ] यह जो शरीर और विज्ञान में उपादान-उपादेयभावधर्म की उपलब्धि दिखायी जाती है कि"शरीर का जैसे जैसे विकास-वर्धन होता है वैसे वैसे चैतन्य (ज्ञानादि) का भी विकास होता है, बाल शरीर लघुकाय होता है तो उसमें ज्ञानादि भी अल्प होते है, युवाशरीर मध्यमकाय होता है तो उसमें मध्यमप्रकार के ज्ञानादि होते हैं और प्रौढव्यक्ति का शरीर पूर्ण विकसित होता है तो उसका ज्ञानादि भी उत्कर्ष प्राप्त रहता है अतः शरीर ही ज्ञानादि का उपादान है"-इस प्रतिपादन में व्यभिचार स्पष्ट है क्योंकि मनुष्य का शरीर लघु होता है और हस्ती- अजगरादि महाकाय प्राणी हैं फिर भी हस्ती Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदप्युक्तम् 'अनादिमाता-पितृपरम्परायां तथाभूतस्यापि बोधस्य व्यवहितमातापितृगतस्य सद्भावात् ततो वासनाप्रबोधेन युक्त एवं प्रज्ञा-मेधादिविशेषस्य सम्भवः' इति, तदप्ययुक्तम् , अनन्तरस्यापि माता-पितृपांडित्यस्य प्रायः प्रबोधसम्भवात् , ततश्चक्षुरादिकरणजनितस्य स्वरूपसंवेदनस्य चक्षरादिज्ञानस्य वा यगपत क्रमेण चोत्पत्तौ 'मयैवोपलब्धमेतत' इति प्रत्यभिज्ञानं सन्तानान्तरतदपत्यज्ञानानामपि स्यात् , न च मातापितृज्ञानोपलब्धेस्तदपत्यादेः कस्यचित् प्रत्यभिज्ञानमुपलभ्यते / / अनेन एकस्माद् ब्रह्मणः प्रजोत्पत्तिः' प्रत्युक्ता, एकप्रभवत्वे हि सर्वप्राणिनां परस्परं प्रत्यभिज्ञाप्रसंगः / एकसन्तानोद्भूतदर्शन-स्पार्शनप्रत्यययोरिव / आदि की अपेक्षा मनुष्य की बुद्धि अधिक विकसित है यह स्पष्ट दिखाई देता है / अतः शरीर विकास से चैतन्य का विकास उपादान-उपादेयभाव का साधक नहीं है। यह जो कहा जाता है कि 'शरीर के विकार से चैतन्य में विकार दिखता है जैसे कि देह दुर्बल हो जाने पर ज्ञानशक्ति-स्मरणशक्ति दुर्बल हो जाती है, अतः यही शरीर और विज्ञान का 'उपादान-उपादेयभाव हुआ'-यह भी असिद्ध है क्योंकि जो सात्त्विक प्रकृति वाले उत्तम जीव होते हैं अथवा जिनका चित्त अन्य किसी विषय में दृढ निमग्न हो गया होता है उसको शरीरविकार होने पर भी, यानी शरीर को गहरी चोट लगने पर भी चित्त-चैतन्य में विकार की उपलब्धि नहीं होती। वे स्वस्थ रहते हैं / अतः शरीरविकार से चैतन्य विकार होता है यह असिद्ध है / तथा कार्यगत विशेषता केवल उपादानकारण की विशेषता पर भी निर्भर नहीं होती किन्तु सहकारीकरण की विशेषता पर भी निर्भर होती है। जैसेः विशिष्ट प्रकार के जल और उपजाऊ भूमि के सहकार से बीजात्मकोपादान जन्य अंकूर भी विशिष्ट प्रकार का उत्पन्न होता है। तो इसी प्रकार यौवनावस्था में अथवा तो विशिष्ट प्रकार के सहकारीकारणरूप ब्राह्मीघृतादि के आहार के सेवन से उस विज्ञान में वृद्धिस्वरूप विशेषता हो सकती है जिसका उपादान तो शास्त्रादिसंस्कार से परिष्कृत पूर्वज्ञान ही होता है / इसमें कुछ भी असंभव-सा नहीं है / [चिर पूर्ववर्ती माता-पितृविज्ञान से वासना प्रबोध अमान्य ] नास्तिक ने जो यह कहा था कि-[ पृ० 260 ] "माता-पिता की परम्परा अनादिकालीन है, अतः वर्तमानबालक में जो विशेष प्रज्ञादि हैं वैसे विशेष प्रज्ञादि, परम्परागत किसी दूर के माता-पिता में तो अवश्य रहा होगा. उसी माता-पिता के प्रज्ञादि से परम्परया वासना के प्रबोध से व के प्रज्ञामेधादि विशेष की उत्पत्ति हुयी है, वे माता-पिता चाहे कितने भी दूरवर्ती क्यों न हो ?"-ऐसा कथन भी अयुक्त है, क्योंकि जैसे दूरवर्ती माता-पिता के प्रज्ञादि का प्रबोध वर्तमान बालक में होगा वैसे प्रायः साक्षात् माता-पिता के प्रज्ञादि का भी प्रबोध उसमें संभवित है। इस प्रकार अपने निकट के या दूर के पूर्ववत्ति माता पिताओं को जो नेत्रादिइन्द्रियजन्यज्ञान, अपने स्वरूप का संवेदन, तथा नेत्रादि का ज्ञान हुए थे वे सब वासना के प्रबोध से उनके पुत्रों को भी एक साथ अथवा क्रमशः होने लगेगा, फलतः दूर के पूर्ववर्ती किसी माता-पिता की अन्य परम्परा में जो पुत्रादि उत्पन्न हैं उनको भी वासना के प्रबोध से ऐसी प्रत्यभिज्ञा होगी कि-'जो मुझे वर्तमान में ज्ञान हो रहा है वैसा ही ज्ञान मुझे पहले - भी हुआ था' / क्योंकि एक अनुभविता में वासना के प्रबोध से ऐसी प्रत्यभिज्ञा का होना प्रसिद्ध है। वास्तव में कहीं भी माता-पिता के ज्ञानोपलम्भ की प्रत्यभिज्ञा उनकी सत्तानों को होती नहीं है / अतः Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 319 यत्तूक्तम् 'आत्मनोऽदृष्टेत्मिानमाश्रित्य परलोकः' इति, तदयुक्तम् , तददृष्टयसिद्धेः / तथाहिदेहेन्द्रियविषयादिव्यतिरिक्तोऽहंप्रत्ययप्रत्यक्षोपलभ्य एव प्रात्मा। न च चक्षुरादेः करणग्रामस्यातीन्द्रियात्मविषयत्वेन ज्ञानजननाऽव्यापारात कथं तज्जन्यप्रत्यक्षज्ञानविषयः इति वक्तुयुक्तम् , स्वसंवेदनप्रत्यक्षग्राह्यत्वाभ्युपगमात् / तथाहि-उपसंहृतसकलेन्द्रियव्यापारस्यान्धकारस्थितस्य च 'अहम्' इति ज्ञानं सर्वप्राणिनामुपजायमानं स्वसंविदितमनुभूयते, तत्र च शरीराद्यनवभासेऽपि तद्व्यतिरिक्तमात्मस्वरूपं प्रतिभाति / न चैतज्ज्ञानमनुभूयमानमप्यपह्नोतु शक्यम् , अनुभूयमानस्याप्यपलापे सर्वापलापप्रसंगात् / नाप्येतन्नोपपद्यते, कादाचित्कत्वविरोधात् / नापि बाह्यन्द्रियव्यापारप्रभवम् , तद्वयापाराभावेऽप्युपजायमानत्वात् / नाऽपि शब्दलिंगादिनिमित्तोद्भूतम् , तदभावेऽप्युत्पत्तिदर्शनात् / न चेदं बाध्यत्वेनाऽप्रमाणम् , तत्र बाधकसद्धावस्यासिद्धेः / न चेदं सविकल्पकत्वेनाऽप्रमाणं, सविकल्पकस्यापि ज्ञानस्य प्रमाणत्वेन प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् / कदाचिच्च बाह्य न्द्रियव्यापारकालेऽपि यदा ‘घटमहं जानामि' इत्येवं विषयमवगच्छति तदा स्वात्मानमपि / तथाहि-तत्र यथा विषयस्यावभासः कर्मतया तथाऽत्मनोऽप्यवभासः कर्तृतया। वासना प्रबोध की बात मिथ्या है। इस प्रतिपादन के फलस्वरूप-'एक ही ब्रह्म से समग्र प्रजा की उत्पत्ति हुयी है'-यह मत भी धराशायी हो जाता है, क्योंकि जहां एक ही सन्तान से अनेक विविध ज्ञान की उत्पत्ति होती है वहाँ ऐसी प्रत्यभिज्ञा होती ही है कि 'जिसने पहले रूपानुभव किया था वही में स्पर्शानुभव कर रहा हूँ'-इस प्रकार अनुभवकर्ता में एकत्व का अनुसंधान होता है / यदि एक ही ब्रह्म से समग्र प्रजा उत्पन्न होगी तो सभी प्राणिओं को अन्योन्य के ज्ञान में एक अनुभवकर्ता के अनुसंधानरूप प्रत्यभिज्ञा होने लगेगी। [ आत्मा स्वसंवेदनप्रत्यक्ष का विषय ] नास्तिक ने जो यह कहा था-[ पृ० 260 ] 'आत्मा दृष्टि-अगोचर होने से आत्मा के आधार पर परलोक सिद्ध नहीं हो सकता'- यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'आत्मा दृष्टि-अगोचर हैं' यह बात असिद्ध है। जैसेः देह, इन्द्रिय और घटादि विषय की जो प्रतीति होती है उससे भिन्न प्रकार की ही प्रत्यक्षप्रतीति 'अहम् =मैं' इस प्रकार की होती है इस प्रत्यक्षप्रतीति का उपलभ्य यानी जो विषय है वही आत्मा है / ऐसा नहीं पूछ सकते कि-'अतीन्द्रिय आत्मा को विषय करने वाले ज्ञान के उत्पादन में नेत्रादि इन्द्रिय वन्द का कोई व्यापार सम्भव न होने से इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षप्रतीति का विषय आत्मा कैसे होगा?'-क्योंकि हम आत्मा को इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष का विषय नहीं मानते किन्तु स्वसंवेदनप्रत्यक्षग्राह्य मानते हैं, अर्थात् इन्द्रिय निरपेक्ष केवल आत्ममात्र जन्य संवेदनरूप प्रत्यक्ष का विषय मानते हैं। जैसे: प्राणिमात्र को यह स्वानुभवसिद्ध है कि ज्ञाता स्वयं गाढ अन्धकार में खडा हो, सभी इन्द्रियों का व्यापार स्थगित-सा हो गया हो उस वक्त भी 'अहम् =में' इस प्रकार के स्वसंवेदी ज्ञान का उदय होता है / उस वक्त शरीरादि का तो कुछ भी प्रतिभास न होने पर भी देहभिन्न आत्मस्वरूप का भास होता हैं / सभी को ऐसा ज्ञानोदय स्वानुभवसिद्ध होने से उसका अपलाप करना अशक्य है, क्योंकि स्पष्टरूप से जिसका अनुभव होता है उसका अपलाप करने पर सभी वस्तु के अपलाप का अतिप्रसंग होगा। उक्त ज्ञान उत्पन्न नहीं होता ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि वह सर्वदा नहीं होता रहता, कदाचित् होता है, उत्पत्ति के विना कादाचित्कत्व के होने में विरोध Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च शरीरादीनां ज्ञातृता, यथाहि शरीराद व्यतिरिक्ता घटादयः प्रतीतिकर्मतया प्रतिभान्तिघटादयः, अहं घटादीनां ज्ञाता' एवं 'मम शरीरादयः अहं शरीरादीनां ज्ञाता' इत्येव च प्रतीतिकर्मत्वेन घटादिभिस्तुल्यत्वान्न शरीरादिसंघातस्य ज्ञातता। न च ज्ञात्रप्रतिभासः, तदप्रतिभासे हि 'ममैते भावाः प्रतिभान्ति नान्यस्य' इत्येवं प्रतिभासो न स्यात् / तदवभासापह्नवे च घटादेरपि कथं प्रतीतिः ? इयांस्तु विशेषः-एकस्य प्रतीतिकर्मता, अपरस्य तत्प्रतीतिकर्तृता, न त्वनवभासः। अतो लिंगाद्यनपेक्ष आत्माऽवभासोऽप्यस्तीति कथं तस्याऽदृष्टिः ? न चास्य प्रत्ययस्य बाधारहितस्याऽपूर्वार्थविषयस्याऽक्षजविषयावभासस्येवाऽसंदिग्धरूपस्य निश्चितरूपत्वेन प्रतिभासमानस्य स्मृतिरूपता अप्रामाण्यं वा प्रतिपादयितुयुक्तम् / अतोऽस्यामपि प्रतीताववभासमानस्याऽपरोक्षतैव युक्ता न प्रमाणान्तरगम्यता। है। ऐसा भी नहीं कह सकते कि यह 'अहं' ज्ञान बहिरिन्द्रिय के व्यापार से जन्य है / / अतः अन्तर्गत आत्मविषयक नहीं हो सकता। ], क्योंकि अन्धकार में किसी भी इन्द्रिय का व्यापार न होने पर भी 'अहं' प्रतीति का जन्म होता है।-"इन्द्रिय से नहीं, किन्तु शब्दश्रवण से या लिंगादि से 'अहं' प्रतीति होती है"-ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि विना ही शब्द सुने और लिगादि के दर्शन के विना भी 'अहं' प्रतीति का जन्म होता है। यह भी नहीं कह सकते कि-"रज्जु में सपं प्रतीति के समान ही उत्तरकाल में बाधित होने के कारण यह 'अहं'प्रतीति अप्रमाण है"क्याकि 'अहं'प्रतीति होने के बाद उत्तरकाल में उसके बाधक का अस्तित्व ही असिद्ध है। बौद्धमत के अवलम्बन से यदि ऐसा कहा जाय कि यह 'अहं'प्रतीति सविकल्पक प्रत्यक्षरूप है अत एव अप्रमाण है तो यह भी अयुक्त है क्योंकि 'सविकल्पक ज्ञान प्रमाण होता है' इस तथ्य का प्रतिपादन आगे किया जाने वाला है / यह भी जान लिजीये कि आत्मा की प्रतीति जैसे स्वतन्त्र रूप में होती है वैसे जब नेत्रादि बाह्य न्द्रिय भी व्यापाररत यानी कार्यरत होती है तब 'मैं घट को जानता हूं' इस प्रकार बाह्यविषय के साथ संलग्नरूप में भी आत्मा की प्रतीति होती है- यहां घट का जैसे विषयरूप में अनुभव होता है वैसे उसीवक्त अपनी आत्मा का भिन्नरूप से अनुभव होता ही है वह इस प्रकार कि विषय घटादि का कर्मरूप से और आत्मा का बोधकर्ता रूप से अनुभव होता है / [शरीरादि में ज्ञातृत्व नहीं हो सकता ] नास्तिकः-बोधकर्ता शरीर या इन्द्रियादि को ही मान लिजीये। प्रात्मवादी:-यह नहीं मान सकते / जैसे 'घटादि मेरे हैं' अथवा "मैं घटादि का ज्ञाता हूँ" इन प्रतीतियों में घटादि देह से भिन्न एवं कर्मरूप से प्रतिभासित होते हैं, उसी प्रकार 'शरीरादि मेरा है' अथवा "मैं शरीरादि का ज्ञाता हूँ" इन प्रतीतियों में शरीरादि भी घटादिवत् ज्ञाता से भिन्न और कमरूप से प्रतिभासित होते हैं, अतः पुद्गलसंघात स्वरूप देह में बोधकर्तृत्व नहीं मान सकते। ऐसा नहीं कह सकते कि--'ज्ञाता के रूप में किसी का भान ही नहीं होता'-क्योंकि यदि ज्ञाता का भास न होता हो ता "मुझे इन वस्तुओं का प्रतिभास हो रहा है, दूसरे को नहीं" इस प्रकार का प्रतिभास, जिसमें दूसरे से भिन्नरूप में अपना भान होता है, वह नहीं होगा। यदि इतना स्पष्ट ज्ञाता का भास होने पर भी उसका अपलाप करेंगे तो ज्ञाता के साथ कर्मरूप में जो घटादि भासित होते हैं उनका भास भी कैसे संगत होगा? इतना अंतर जरूर है कि घटादि का प्रतिभास ज्ञानकर्मरूप में होता है और Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 3216 यदप्यत्राहु: प्रस्त्ययमवभासः किन्त्वस्य प्रत्यक्षता चिन्त्या / प्रत्यक्षं हीन्द्रियव्यापारजं ज्ञानम् / तथा चोक्तं भवद्धिः “इन्द्रियाणां सत्संप्रयोगे बुद्धिजन्म प्रत्यक्षम्" [ जैमि० अ० 1-1-4 ] प्रत्यक्षविषयत्वात् तदथस्य प्रत्यक्षता न तु साक्षादनिन्द्रियजत्वेन / तत्र घटादेबर्बाह्य न्द्रियज्ञानविषयत्वेन सर्वलोकप्रताता. ऽध्यक्षता, नत्वेवमात्मनः / . ' अथैवमुच्येत-नात्मनो घटादितुल्या प्रत्यक्षता, घटादेहि इन्द्रियजज्ञानविषयत्वेन सा व्यवस्थाप्यते, न त्वात्मा कस्यचित प्रमाणस्य विषयः / कथं तहि प्रत्यक्षः ? न ज्ञानविषयत्वात् प्रत्यक्षः, अपि त्वपरोक्षत्वेन प्रतिभासनात् प्रत्यक्ष उच्यते, तच्च केवलस्य घटादिप्रतीत्यन्तर्गतस्य वाऽपरसाधनं प्राक प्रतिपादितम् / एतदप्यसत् , यतः अपरसाधनमिति कोऽर्थः ? -कि चिद्रूपस्य सत्ता, आहोस्वित् स्वप्रतीतों व्यापारः? यदि चिद्रपस्य सत्तैवात्मप्रकाशनमुच्यते तदा दृष्टान्तो वक्तव्यः / न चात्राऽऽशंकनीय 'अपरोक्षे दृष्टान्तान्वेषणं न कर्तव्यम्'-यतस्तथाविधे विवादविषये सुप्रसिद्धं दृष्टान्तान्वेषणं दृश्यते / ज्ञाता का ज्ञानकर्ता के रूप में, किन्तु दोनों में से किसी का भास ही नहीं होता यह बात नहीं है / सारांश, लिंगादि की अपेक्षा के विना भी बोधकर्तृ रूप में आत्मा का स्पष्ट प्रतिभास जब होता है तो आत्मा दृष्टि-अगोचर कैसे हुआ ? इस प्रतीति को स्मृतिरूप नहीं बता सकते, [ अर्थात् पूर्व-पूर्व अनादि वासना के प्रबोध से आत्मा का यह प्रतिभास स्मृतिरूप में होता रहता है, वास्तव में वह निविषयक ही है ऐसा नहीं कह सकते, ] क्योंकि स्मृतिज्ञान गृहीतविषय का पुनः ग्राहक होता है जब कि यहां जब जब आत्मा का भास होता है तब तब अपूर्व अर्थ को ही विषय करता हो ऐसा अनुभव में आता है अतः यह आत्मप्रतीति स्मृतिरूप नहीं है / तथा, यह प्रतीति अप्रमाण भी नहीं है क्योंकि इस प्रतीति के बाद कोई 'नास्ति आत्मा' ऐसा बाधज्ञान का उदय न होने से यह प्रतीति बाधमुक्त है। 'संशयरूप होने से अप्रमाण है' ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि घटादि विषय का इन्द्रियजन्य प्रतिभास जैसे असंदिग्ध एवं निश्चयस्वरूप होता है, वैसे आत्मप्रतिभास भी संदिग्ध एवं निश्चयस्वरूप होता है। निष्कर्षः- 'अहम्' प्रतीति में भासित होने वाले आत्मा को अपरोक्ष मानना ही युक्त है, किंतु 'अहमाकार प्रतीति को अनुमानादिरूप मानकर आत्मा को अनुमानादि प्रमाणान्तर का विषय बताना' ठीक नहीं है / [ अहमाकार प्रतीति में प्रत्यक्षत्व विरोधी पूर्वपक्ष ] [संदर्भ 'यदप्यत्राहुः' इस पद का, दीर्घ पूर्वपक्ष के बाद तदप्यसंगतं' [ पृ. 327 ] इस पद के साथ अन्वय होगा ] यह जो कहा है पूर्वपक्षीः-अहमाकार भास तो होता है किंतु वह प्रत्यक्ष है या नहीं यह विचारना पड़ेगा। प्रत्यक्ष तो इन्द्रियव्यापारजन्य ज्ञान को ही कहा जाता है-जैसे कि आपके जैमिनीसूत्र में कहा है'इन्द्रियों के संबंध से प्रत्यक्षबुद्धि का जन्म होता है / ' तात्पर्य यह है कि इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष का विषय होने से ही कोई भी अर्थ प्रत्यक्ष कहा जाता है, साक्षात् यानी स्वत: अर्थात् इन्द्रिय से अजन्यज्ञान का विषय होने से कोई अर्थ प्रत्यक्ष नहीं कहा जाता। अब देखिये कि बाह्य नेत्रादि इन्द्रिय से जन्यज्ञान का विषय होने से घटादि की प्रत्यक्षता सर्वलोक में सिद्ध है, किंतु आत्मा में ऐसी प्रत्यक्षता सर्वजनसिद्ध नहीं है। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च दीपादि दृष्टान्तः, तत्र हि सजातीयालोकानपेक्षत्वेन स्वप्रतीतौ स्वप्रकाशकत्वं व्यवस्थापितं कैश्चित् न विन्द्रियाऽग्राह्यत्वम् , तदग्राह्यत्वे 'स्वप्रकाशाः प्रदीपादयः' इति चक्षुष्मतामिवान्धानामपि तत्प्रतीतिप्रसंगः, तस्मान्न स्वप्रकाशाः प्रदीपादयः। यत्तु पालोकान्तरनिरपेक्षत्वं तत् कस्यचिद्विषयस्य काचित् सामग्री प्रकाशिकेति नैकत्र दृष्टत्वेनाऽन्यत्रापि प्रसक्तिश्वोद्यते / अथ द्वितीयः पक्षः, सोऽप्ययुक्तः, अदर्शनादेव / नहि कश्चित् पदार्थः कर्तृरूपः करणरूपो वा स्वात्मनि कर्मणीव सव्यापारो दृष्टः / कथं तो नुमेयत्वेऽप्यात्मप्रतीतिः प्रमात्रन्तराभावात् ? एकस्यैव लिंगादिकरणमपेक्ष्य (1) वस्थाभेदे सति अदोषः / [ आत्मा में अपरोक्षप्रतिभासविषयता की मीमांसा ] यदि यह कहा जाय-"घटादि में जो प्रत्यक्षता है और आत्मा में जो प्रत्यक्षता है दोनों तुल्य नहीं है, घटादि में प्रत्क्षत्व की व्यवस्था इन्द्रियजन्यज्ञान विषयता के आधार पर की जाती है। जिन प्रमाणों से केवल बाह्यार्थ का ही बोध होता है ऐसे किसी भी प्रमाण का विषय आत्मा नहीं है / तो फिर वह प्रत्यक्ष कैसे ? ऐसा प्रश्न होगा, उसका उत्तर यह है कि आत्मा बाह्यविषयों के ग्राहक ज्ञान का विषय होने से प्रत्यक्ष नहीं है किंत उसका अपरोक्षरूप से प्रतिभास होता है. अत एव उसको प्रत्यक्ष जाता है / आत्मा का यह अपरोक्षरूप से प्रकाशन शुद्ध अहमाकार प्रतीति में भी होता है और 'घट को में जानता हूँ' इस प्रकार घटादि की प्रतीति में अन्तर्गत अहमाकार अपरोक्षप्रतीति में भी होता है, यह आत्मप्रकाशन अपरसाधन यानी इन्द्रियादि साधन के विना ही होने वाला है, यह बात पहले भी हो गयी है।"-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, आपने जो कहा-आत्मप्रकाशन अपरसाधन है, उसके ऊपर दो प्रश्न हैं, (1) चित्स्वरूप आत्मा की सत्ता यही अपरसाधन यानी इन्द्रियादि साधन के विना होने वाला आत्मप्रकाशन है ! या (2) अन्य की नहीं किन्तु अपनी ही प्रतीति में व्यापार का होना, इसे आप अपरसाधन कहते हैं ? प्रथम प्रश्न के उत्तर में आप ऐसा कहें कि चित्स्वरूप यानी ज्ञानात्मक प्रकाशमय आत्मा की ना यही आत्म प्रकाशन है. तो ऐसे पदार्थ की संभावना में दसरा कौन सा दृष्टान्त है ? 'जो स्वयं अपरोक्ष है उसमें दृष्टान्त को ढढने की क्या जरूर' ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि लोक में ऐसा देखा जाता है कि जब वैसा कोई पदार्थ विवादास्पद बन जाय तब प्रसिद्ध दृष्टान्त को हू ढना पड़ता है / प्रदीपादि को दृष्टान्त नहीं बना सकते, क्योंकि जो विद्वान् उसे स्वप्रकाश मानते हैं उन्होंने, दीपक को देखने के लिये नये किसी समानजातीय दीपकादि के प्रकाश की अपेक्षा नहीं होती- इसी के आधार पर दीपक को स्वप्रकाश कहा है, इन्द्रियजन्यज्ञान का अविषय होने से दीपक को कहीं भी स्वप्रकाश नहीं माना है, क्योंकि दीपक इन्द्रिजन्यज्ञान का विषय ही है। यदि प्रदीपादि को इन्द्रियअग्राह्य बताकर स्वप्रकाश मानेंगे तब तो सनेत्र पुरुषवत् अन्ध पूरुष के लिये भी प्रदीपादि स्वप्रकाश होने से अन्धे को भी दीपकादि की प्रतीति हो जाने का अनिष्ट प्रसंग खडा होगा। अतः प्रदीपादि को स्वप्रकाश नहीं कह सकते / यद्यपि 'अन्य प्रकाश की अनावश्यकता'रूप स्वप्रकाशत्व हो सकता है, किन्तु यही तो पदार्थों की विचित्रता है की भिन्न भिन्न किसी पदार्थों की प्रकाश सामग्री कुछ भिन्न * 'वस्थाभेदेन भेदे सति अदोषः' इति पूर्वमुद्रिते पाठः, लिंबडीज्ञानकोशीय प्रत्यनुसारेणात्र संशोधितः। / Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-परलोकवादः 323 किं च प्रमाणविषयत्वेऽप्यपरोक्षतेत्यस्य भाषितस्य कोऽर्थः ? 'ज्ञातृतया स्वरूपेणावभासनम्' इति चेत् ? घटादयोऽपि कि पररूपतया प्रतीतिविषयाः ? अतो यद् यस्य रूपं तत् प्रमाणविषयत्वेऽप्यवसीयते इति न ज्ञानाऽविषयता प्रमातुः / तथाहि-तस्य ज्ञातृता प्रमातृताऽऽत्मस्वरूपता, घटादेः प्रमेयता ज्ञेयता घटादिरूपता, अतो यथा तस्य स्वरूपेणावभासनाना प्रत्यक्षता, तद्वदात्मनोऽपि / अभ्युपगमनीयं चेतत् / अन्यथाऽऽत्मादिस्वसंवेदनस्य प्रत्यक्षस्यापि प्रत्यक्षादि लक्षणव्यतिरिक्तं लक्षणान्तरं वक्तव्यम् , तथा च प्रमाणेयत्ताव्याघातः, केनचित् प्रत्यक्षादिलक्षणेनात्मादिविषयस्य स्वसंवेदनस्याऽसंग्रहात्। इतोऽप्युक्तं-प्रमातृवत् फलेऽपि संवेदनाभ्युपगमप्रसंगात् / 'तथाऽभ्युपगमाददोषः' इति चेत् ? तथा चोक्तम्-“संवित्तिः संवित्तितयैव संवेद्या न संवेद्यतया" [ ] इति / एतत् प्राक् प्रतिभिन्न प्रकार की होती है, इससे यह आपादन शक्य नहीं है कि जैसे प्रदीपादि को अन्य प्रकाश की अनावश्यकता है, वैसे आत्मा को किसी भी इन्द्रियादि की आवश्यकता नहीं है / विना साधन किसी का भी प्रत्यक्ष हो ही नहीं सकता। दूसरा पक्ष 'अपनी ही प्रतीति में व्यापार का होना'-यह भी युक्त नहीं है, क्योंकि आत्मा की प्रतीति में आत्मा के किसी भी प्रकार के व्यापार का दर्शन यानी उपलम्भ नहीं होता। कर्मभूत घटादि के निर्माण में जैसे कुलालादि कर्ता सक्रिय देखा जाता है, अथवा कर्मभूत काष्ठादि के छेदन : में जैसे कुठारादि करण सक्रिय देखा जाता है वैसे आत्मा के प्रकाशनार्थ आत्मा में कोई भी पदार्थ सक्रिय नहीं दिखता। यदि ऐसा पूछा जाय कि-जब आत्मा में कोई अन्य बोधकर्ता सक्रिय नहीं दिखता है तो 'आत्मा प्रत्यक्ष नहीं किन्तु अनुमेय है' इस पक्ष में भी आत्मा की प्रतीति अन्य किसी सक्रिय कर्ता या करण के अभाव में कैसे होगी?-उत्तर यह है कि आत्मा की अनुमानात्मक प्रतीति में चैतन्यादि लिंग ही सक्रिय करण बन कर आत्मा की अनुमिति करवाता है, एक ही आत्मा में करण की अपेक्षा और कर्तृ आदि की अपेक्षा अवस्था भेद होने में कोई दोष नहीं है / . [आत्मप्रत्यक्ष के लिये अलग प्रमाण की आपत्ति ] दूसरी बात, आपने जो कहा-आत्मा प्रमाण [ ज्ञान ] का विषय नहीं है, फिर भी अपरोक्ष है-इसका क्या अर्थ ? यदि ऐसा कहें कि 'आत्मा का जो ज्ञातृत्व स्व रूप है उस स्व रूप से उसका अवभास होना'-तो हम पूछते हैं कि क्या घटादि का जो अवभास होता है वह पर रूप से होता है ? नहीं, सभी वस्तु का अपने अपने स्व रूप से ही अवभास होता है, अत: जिस पदार्थ का जैसा स्व रूप है, वह प्रमाण के विषयरूप में ही अवभासित होता है, यदि आत्मा का स्व रूप से अवभास मानते हैं तो वह भी प्रमाण के विषयरूप में ही होना चाहिये. अतः प्रमाता-बोधकर्ता को ज्ञान का अविषय दिखाना ठीक नहीं है / जैसे: ज्ञातृत्व कहिये या प्रमातृत्व, अथवा आत्मस्वरूपता कहिये सब एक ही है, तथा घटादि में प्रमेयत्व ज्ञेयत्व या घटादिरूपत्व कहिये, वह सब एक ही है, तो जैसे घटादि का स्वरूप से अवभास होने पर ही प्रत्यक्षता होती है उसी प्रकार आत्मा के भी स्वरूपावभास से ही उसमें प्रत्यक्षता आयेगी, इसका तात्पर्य यह नहीं हो सकता कि वह ज्ञान का अविषय है / आत्मा को प्रमाणविषय अवश्य मानना चाहिये, वरना आत्मा का स्वसंवेदन-रूप जो प्रत्यक्ष है वह प्रत्यक्ष होने पर भी उसमें प्रसिद्ध प्रत्यक्ष का लक्षण न घटने से, प्रसिद्ध प्रत्यक्षलक्षण से भिन्न जाति का लक्षण आप Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 क्षिप्तम् , न स्वरूपावभासे प्रमाणाऽविषयता। किंच, एवं कल्प्यमाने बोधद्वयमान्तरं स्वसंविद्रूपं च कल्पितं स्यात् / तथा चाऽयुक्तम् , एकस्मादेव विषयावभाससिद्धेः किं द्वयकल्पनया ? अथोच्यतेकल्पना ह्यनवभासमानस्य, बोधद्वये तु घटादिवदवभासोऽरतीति न कल्पना। यदीदृशाः प्रतिभासाः प्रमाणत्वेन व्यवस्थाप्यन्ते तदा 'घटमहं चक्षुषा पश्यामि' इति करणप्रतीतिरपि प्रमातृफलप्रतीतिवत् कल्पनीया / ___ याऽपि कैश्चित करणप्रतीतिः प्रत्यक्षत्वेनोक्ता साऽपि नातीव संगच्छते। तथाहि-'घटमहं चक्षुषा पश्यामि' इत्यस्यामवगतो कि गोलकस्य चक्षुष्ट्वम्, पाहोस्वित् तद्व्यतिरिक्तस्य ? गोलकस्य चक्षष्टवे न कश्चिदन्धः स्यात। तदव्यक्तिरितस्य च रश्मेरनभ्युपगमः, अभ्युपगमे वा न प्रतीतिविषयः, केवलं शब्दमात्रमुच्चारयति घटप्रतीतिकाले। एवं च प्रमातृफलविषयं शब्दोच्चारणमात्रमवसीयते, न च तयोः प्रतीतिगोचरता करणस्येव / तथाहि-इन्द्रियव्यापारे सति शरीराद् व्यवच्छिन्नस्य विषयस्यैव केवलस्यावभासनमिति न्यायविदः प्रतिपन्नाः / किं तस्यावभासनमिति पर्यनुयोगे मूकत्वं परिहारमाहः, व्यपदेष्टमशक्यत्वात् / अतः प्रमात्रवभासानुपपत्तिः। को बनाना होगा / उस लक्षणवाला प्रत्यक्ष भी एक अलग ही प्रमाण बन जाने से प्रमाण संख्या जो कि मर्यादित [ 2, 3, 4, 5 या 6 ] है उसका व्याघात होगा, क्योंकि प्रसिद्ध प्रत्यक्षादि प्रमाण के किसी भी लक्षण से आत्मादिविषयक स्वसंवेदनात्मक प्रत्यक्ष का संग्रह शक्य नहीं है / [संवेदन की संवेद्यता का अस्वीकार दुष्कर ] बोधकर्ता में प्रमाण का अविषयत्व इष्ट नहीं है इसीलिये यह अनिष्टप्रसंजन किया जाता है कि प्रमाता को यदि प्रमाण का अविषय और प्रत्यक्ष मानेंगे तो प्रमितिरूप फल [ यानी संवेदन ] को भी प्रमाण का अविषय और प्रत्यक्ष मानना पडेगा, क्योंकि उसकी प्रतीति भी इन्द्रियनिरपेक्ष ही होती है / यदि ऐसा कहा जाय-'हम संवेदन को भी वैसा ही मानते हैं तो क्या दोष है ? कहा भी है कि-संवेदन भी संवेदनरूप से ही संविदित होता है, संवेद्य (यानी ज्ञान विषय) रूप में संविदित नहीं होता।'-तो इसका निराकरण पहले ही कर दिया है, कि वस्त के स्वरूप का यदि अवभास हो तो उसे प्रमाण का अविषय नहीं कह सकते। दूसरी बात यह है कि प्रमाता और प्रमिति को यदि प्रमाणविषय नहीं मानेंगे तो प्रमाता और प्रमिति के दो अभ्यन्तर बोध की स्वतन्त्र कल्पना करनी होगी और उन बोध के स्वसंविदितत्व की कल्पना भी की जायेगी। ऐसी कल्पना युक्त नहीं है क्योंकि जब उन दोनों को प्रमाण का विषय मानेंगे तो एक ही ज्ञान से विषय रूप में घटादि, प्रमाता और प्रमिति सभी की सिद्धि हो सकती है [ वह ज्ञान चाहे प्रत्यक्ष हो या अनुमिति, यह बात अलग है ] फिर बोधद्वय की कल्पना से क्या लाभ ? यदि ऐसा कहें कि-'कल्पना उसी की करनी पड़ती है जिसका अवभास न हो, बोधद्वय का तो स्पष्ट अवभास होता है, अतः वे वास्तव ही है, कल्पित कहां हुए ?'-तो यह कहना अयुक्त है / कारण, यदि ऐसे सभी अवभासों को प्रमाणरूप में मान लेंगे तो 'मैं आँखों से घट को देखता हूँ' इस प्रतीति में आप जैसे बोधकर्ता और संवेदन की प्रतीति मानते हैं वैसे नेत्रेन्द्रिय की भी अपरोक्ष प्रतीति कल्पनारूढ हो जायेगी। [चक्षु आदि करण की वास्तविक प्रतीति नहीं है ] कुछ लोगों ने जो नेत्रादि इन्द्रिय की प्रतीति में प्रत्यक्षत्व का निरूपण किया है वह इतना Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-परलोकवाद: 325 नन्वहमितिप्रत्ययः सर्वलोकसाक्षिको नैवाऽपह्नोतु शक्यः, अनपह्नवे सविषयः निविषयो वा? निविषयता प्रत्ययानामबाधितरूपाणां कथम् ? सविषयत्वेऽपि प्रमात्रप्रतिभासे किंविषयोऽयं प्रत्ययः ? -'न प्रत्ययापह्नवः न चाऽस्य निविषयता किंतु देहादिव्यतिरिक्तो (क्त) विषयत्वेनावभासमान आत्माऽस्य न विषयः, न च ज्ञातृत्वेनावभासमान' इत्युच्यते / कस्तहि विषयः ? शरीरामात ब्रमः। तथाहि 'कृशोऽहं-स्थलोऽहं-गौरोऽहम्' इति शरीराद्यालम्बनैः प्रत्ययैरस्य समानाधिकरणताऽवसीयते। __नन्वेवं सुखादिप्रत्ययरप्यहंकारस्य समानाधिकरणता-सुख्यह-दुख्यहम् इति वा, अतो न देहविषयता / यच्चोच्यते 'गौरोऽहमित्यादिसामानाधिकरण्यदर्शनाच्छरीरालम्बनत्वम्' इति, तत्राप्येतद्विचार्यम-गौरादीनां शरीरादिव्यतिरिक्तानामनहंकारास्पदत्वं दृष्टं तद्वच्छरीरादिगतानामाप युक्तं व्यवस्थापयितुम् / तथा च वात्तिककृतोक्तम्-"न ह्यस्य द्रष्टुर्यदेतद् मम गौरं रूपं 'सोऽहम्' इति भवति प्रत्ययः, केवलं मतुब्लोपं कृत्वैवं निर्दिशति" [ न्यायवा० पृ० 341 पं० 23 ] संगत नहीं है / जैसे: 'मैं नेत्र से घट को देखता हूँ' इस बृद्धि में गोलक का नेत्ररूप से भास होता है ? या दूसरे किसी का? यह प्रश्न हैं। यदि गोलक को ही नेत्र कहा जाय तो कोई भी अन्धा नहीं कहलायेग | गोलक तो होता ही है। गोलक भिन्न नेत्ररश्मि को आप नेत्रेन्द्रिय कहते हो तो वह हमें विना कोई प्रमाण स्वीकार्य नहीं हो सकता / कदाचित् नेत्र के रश्मि होते हैं यह मान लें तो भी उनकी प्रतीति किसी को नहीं होती। अत: नेत्र की प्रतीति मानने वाले तो घटदर्शनकाल में केवल अर्थशन्य शब्द ही बोल देते हैं-'मैं नेत्र से घट को देखता हूँ। वास्तव में वहां नेत्रेन्द्रिय प्रतीति का विषय नहीं है। जैसे नेत्रेन्द्रिय के लिये केवल शब्दोच्चार ही होता है उसी तरह 'प्रमाता और फलभूत प्रमिति का अपरोक्ष अवभास होता है' ये भी केवल अर्थहीन शब्दोच्चार ही प्रतीत होता है। वास्तव में वे प्रमाता आदि नेत्रेन्द्रिय वत् प्रतीति का विषय नहीं होते / जैसे कि न्यायवेत्ता भी यही मानते हैं कि इन्द्रिय सक्रिय होने पर शरीर से व्यवच्छिन्न यानी भिन्नरूप में एकमात्र विषय का ही अवभास होता है, आत्मा या संवेदन का नहीं। इसीलिये तो 'आत्मा का अपरोक्ष अवभास क्या है' ऐसा पूछने पर वे न्यायवेत्ता भी मौन रहकर ही उसका उत्तर देते हैं, क्योंकि आत्मा के अवभास का स्पष्ट व्यपदेश =प्रतिपादन शक्य ही नहीं है / तात्पर्य कर्ता का अवभास मानना युक्तिविहीन है। [अहमाकारप्रतीति की आत्मविषयकता की स्थापना ] प्रात्मवादी:-'अहम्' आकार प्रतीति में सभी लोग साक्षि है अतः उसका निषेध अशक्य है। जब निषेध अशक्य है तो इस प्रतीति को सविषय मानेंगे या निविषय ? जो प्रतीतियां अबाधित हैं उनको निविषयक कैसे मानी जाय ? यदि सविषय मानी जाय तो यह प्रश्न है कि प्रमाता=बोधकर्ता का प्रतिभास अहमाकार प्रतीति में नहीं मानते तो इस प्रतीति का विषय क्या है ? नास्तिकः-हम इस प्रतीति का न तो निषेध ही करते हैं, न तो उसे निविषय कहते हैं, इतना ही कहना है देहादि से भिन्नतया विषयरूप में भासमान आत्मा इस प्रतीति का विषय नहीं है, बोधकर्ता के रूप में भी आत्मा यहाँ भासित नहीं होता है। आत्मवादीः-तो इस अहमाकार प्रतीति का विषय कौन ? Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 एतदेव कथम् ? 'ममेदं शरीरम्' इतिप्रत्ययोपादानात् 'ममायमात्मा' इति प्रत्ययाभावाच्च / ननु 'ममायमात्मा' इति किं न भवति प्रत्ययः ? न भवतीति ब्रमः / कथं तावमुच्यते ? केवलं शब्द उच्चार्यते, न तु प्रत्ययस्य सम्भवः। अत्रापि ममप्रत्ययप्रतिभासस्याऽदर्शनात शब्दोच्चारणमात्र केन वार्यते ? किमिदानों सुखादि. योगः शरीरस्येष्यते ? नैवम् , सुखादियोगाभावात् मिथ्याप्रत्ययोऽयं 'सुख्यहम्' इति, न त्वेतदालम्बनः / प्रतो व्यवस्थितम-ज्ञातप्रतिभासाऽदर्शनात, प्रतिभासे वा शरीरस्य ज्ञातत्वेनावभासनान्न देहादिव्यतिरिक्तस्याहंप्रत्ययविषयता, शरीरस्य च ज्ञातृत्वेनावभासमानस्यापि प्रमाणसिद्धा बुद्धियोगनिषेधान्मिथ्याप्रत्ययालम्बनता, न तु तस्याऽचैतन्येऽन्यः कश्चिद् ज्ञाता प्रत्यक्षप्रमाणविषयः सिध्यति-इत्यादि...। नास्तिकः-शरीर को ही हम इसका विषय कहते हैं। जैसेः 'मैं पतला हूँ' 'मैं स्थूल हूं' 'मैं गौरवर्ण का हूँ' ये सभी प्रतीतियाँ शरीर को ही विषय करती है, अतः इन प्रतीतियों में आत्मा का सामानाधिकरण्य शारीरिक पतलेपन आदि के साथ ही प्रतीत होने से शरीर ही आत्मा हआ / आत्मवादीः-स्थूलत्वादि बुद्धियों के साथ जैसे अहंकार की समानाधिकरणता प्रतीत होती है वैसे सुखादि बुद्धियों की समानाधिकरणता भी प्रतीत होती है-'मैं सुखी हूँ' 'मैं दुखी हूँ' इत्यादि, तो सुख-दुःखादि देहधर्म न होने से अहमाकारप्रतीति में देहविषयता नहीं घट सकती / जो आप लोग ऐसा कहते हैं कि-'मैं गौरवर्ण का हूँ' ऐसी देहधर्म समानाधिकरणतया अहमाकारप्रतीति के दर्शन से अहमाकार बुद्धि का विषय देह निश्चित होता है-यहाँ भी सोचिये कि देहभिन्न वस्तु में जो गौरादिवर्ण है वहाँ तो अहंकारविषयता नहीं देखी जाती तो देहादिगत गौरादिवर्ण को भी अहमाकार प्रतीति के विषय रूप में स्थापित करना अयुक्त है। जैसा कि न्यायवात्तिककार ने कहा है कि-इस दृष्टा को 'जो यह मेरा गौर रूप है वही मैं हूँ' ऐसी बुद्धि नहीं होती है, केवल मतुप् प्रत्यप्र का लोप करके ही उक्त रीति से निर्देश किया जाता है। [ अर्थात् 'गौरदेह वाला मैं हूँ ऐसा न कह कर 'मैं गौर हूँ' इतना संक्षिप्त निर्देश ही किया जाता है ] / ___ इस चर्चा का तात्पर्य यह है कि शरीर में जो अहंबुद्धि होती है वह उपचार से होती है, तात्त्विकरूप से नहीं। जैसेः देहभिन्न अतिनिकट रहने वाली 'कोई व्यक्ति हो और अपना प्रयोजन भी उससे सिद्ध होता हो तो वहाँ ऐसी गौण = औपचारिक प्रतीति होती है 'जो यह है वही मैं हं'-तो इसी प्रकार देह भी अतिनिकटवर्ती एवं स्वप्रयोजन साधक होने से उसमे भी 'यह देह ही मैं हूं' इत्यादि औपचारिक बुद्धि होती है। निकटवर्ती किसी अन्य व्यक्ति में 'यह मैं ही हूँ' ऐसी प्रतीति होती है यह तो दोनों को मान्य है-तो जो आत्मरूप नहीं है तथा 'अयं =यह' इस प्रकार प्रतीति का विषय है ऐसी अन्य व्यक्ति में 'मैं' इस प्रकार की प्रतीति जिस निमित्त से होती है. देह में निमित्त से अहंकार बुद्धि होती है / आत्मा के विषय में जो अहंकारबुद्धि होती है उसको औपचारिक नहीं कह सकते क्योंकि 'मैं' इस प्रकार जो आत्मबुद्धि होती है उसमें 'अयम्=यह' इस प्रकार की बुद्धि का मिश्रण प्रतिभासित नहीं होता / अतः यह सिद्ध हुआ कि बोधकर्ता देहादि से भिन्न है। [ आत्मा और देह में ममत्व की समान प्रतीति-नास्तिक ] प्रश्नः-आत्मा के बारे में 'अयम् = यह' इस प्रकार प्रतिभास नहीं होता ऐसा क्यों कहते हैं ? Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-परलोकवादः 327 तदप्यसंगतम् यतो भवतु जैमिनीयानां "सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बद्धिजन्म प्रत्यक्षम्" [ जैमि० अ० 1-1-4 ] इतिलक्षणलक्षितेन्द्रियप्रत्यक्षवादिनाम् 'अहम्' इत्यवभासप्रत्ययस्यानिन्द्रियजत्वेनात्राऽप्रत्यक्षत्वदोषो, नास्माकं जिनमतानुसारिणाम् / न ह्यस्माकमिन्द्रियजमेव प्रत्यक्षं किन्तु यद् यत्र विशद उत्तर:-इसलिये कि 'मेरा यह शरीर' इस प्रकार शरीर में 'यह' बुद्धि होती है किंतु 'मेरा यह आत्मा' ऐसी बुद्धि नहीं होती / अत: बोधकर्ता देह से भिन्न है / प्रश्नः-क्या 'मेरा यह आत्मा' ऐसी बुद्धि नहीं होती ? उत्तरः-हम कहते हैं नहीं होती। प्रश्न -तो क्यों ऐसा कहा जाता है 'यह मेरा आत्मा' ? उत्तरः-वह तो केवल अर्थशून्य ( वासना जनित ) शब्दोच्चार मात्र है, प्रतीति उस प्रकार को नहीं होती। 'अहं' प्रतीति में सर्व लोग साक्षि होने से उसका निषेध नहीं होता-यहाँ से आरम्भ कर नास्तिक ने आत्मवादी की ओर से आत्मा की सिद्धि करवायी. अब यहाँ आकर वह कहता है कि जैसे 'मेरा यह आत्मा' इस स्थल में आत्मवादी प्रतीति नहीं किंतु शब्दोच्चार मात्र मानते हैं, तो 'मेरा यह शरीर' इस स्थल में भी 'मेरा' ऐसी बुद्धि का उपलम्भ नहीं होता केवल शब्दोच्चार मात्र होता हैऐसा कहने वाले का मुह कैसे बन्द किया जा सकता है / यदि यह पूछा जाय कि-'मैं सुखी हूँ' ऐसी प्रतीति होती है, तो क्या आप शरीर में सुखादि का योग मानते हैं ?-तो उत्तर यह है कि हम शरीर में सुखादि का योग नहीं मानते हैं, अत एव 'मैं सुखी हूँ' इस बुद्धि को मिथ्या (भ्रम) मानते हैं, सुखादि शरीरविषयक बुद्धि का विषय नहीं हो सकता। इतनी चर्चा से यह सिद्ध होता है कि-बोधकर्ता के रूप में आत्मा का कोई प्रतिभास दृष्ट नहीं है, यदि बोधकर्ता के रूप में किसी का प्रतिभास होता है तो वहाँ शरीर ही बोधकर्ता के रूप में भासित होता है, अत: देह से अन्य कोई भी अहमाकार प्रतीति का विषय नहीं है। उपरांत, सुख-दुखादि का योग जैसे शरीर में नहीं है उसे बुद्धि का भी शरीर के साथ योग न होने से बोधकर्ता के रूप में यद्यपि देह का प्रतिभास होता है किन्तु वह भी मिथ्या ही है। तात्पर्य, देह में बोधकर्तृत्व मिथ्याप्रतीति का ही विषय है, यही प्रमाणसिद्ध है / निष्कर्ष:-चैतन्य यदि देहधर्म नहीं मानेंगे तो और कोई ज्ञाता प्रत्यक्षप्रमाण के विषय रूप में सिद्ध नहीं है। [प्रत्यक्ष केवल इन्द्रिय जन्य ही नहीं होता-जैन मत ] 'यदप्यत्राहुः अस्त्ययमवभासः'....इत्यादि से पूर्वपक्षी ने जो पूर्वपक्ष अद्यावधि स्थापित किया उसके खिलाफ व्याख्याकार कहते हैं कि-यह सब असंबद्ध है। क्योंकि 'सत्संप्रयोगे'........अर्थात् 'पुरुष की इन्द्रियों के साथ सद् वस्तु का संनिकर्ष होने पर जन्म लेने वाली बुद्धि प्रत्यक्ष है' इस प्रकार के लक्षण से लक्षित ही इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष को मानने वाले जैमिनीमतानुयायी मीमांसकों के मत में अहमाकार प्रतीति में प्रत्यक्षत्व की अनुपपत्ति का दोष लग सकता है, क्योंकि सत्संप्रयोगे........यह हमारा जैन Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड "FIL ज्ञानमिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं तत् तत्र प्रत्यक्षमित्यभ्युपगमात् , 'तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं' [ तत्त्वार्थ० 1-14 ] इति वाचकमुख्यवचनात् / तेन यथा प्रत्यक्षविषयत्वेन घटादे: प्रत्यक्षता तथाऽऽत्मनोऽपि स्वसंवेदनाध्यक्षतायां को विरोधः ? अत एव यदुच्यते-“घटादेभिन्नज्ञानग्राह्यत्वेन प्रत्यक्षता व्यवस्थाप्यते, प्रात्मनस्त्वपरोक्षत्वेन प्रतिभासनात प्रत्यक्षत्वम तच्च केवलस्य घटादिप्रतीत्यन्तर्गतस्य वाऽपरसाधनं प्राक् प्रतिपादितमित्यत्र अपरसाधनमिति कोऽर्थः ? किं चिद्रूपस्य सत्ता, आहोस्वित् स्वप्रतीतौ व्यापारः ? इति पक्षद्वयमुत्थाप्य प्रथमपक्षे चिद्रूपस्य सत्तैवात्मप्रकाशनं यद्युच्यते तदा दृष्टान्तो वक्तव्यः" इति तन्निरस्तम् , अध्यक्षप्रतीतेऽर्थे दृष्टान्तान्वेषणस्याऽयुक्तत्वात् / ___ अथ विवादगोचरेऽध्यक्षप्रतीतेऽपि दृष्टान्तान्वेषणं लोके सुप्रसिद्धमिति सोऽत्रापि वक्तव्यस्तदाऽस्त्येव प्रदीपादिलक्षणो दृष्टान्तोऽपि ज्ञानस्य प्रकाशं प्रति सजातीयापरानपेक्षणे साध्ये। तथाहियथा प्रदोपाद्यालोको न स्वप्रतिपत्तावालोकान्तरमपेक्षते तथा ज्ञानमपि स्वप्रतिपत्तौ न समानजातीयज्ञानापेक्षम् / एतावन्मात्रेणाऽऽलोकस्य दृष्टान्तत्वं न पुनस्तस्यापि ज्ञानत्वमासाद्यते येन 'इन्द्रियाऽग्राह्यत्वाच्चक्षुष्मतामिवान्धानामपि त प्रतीतिप्रसंगः' इति प्रेर्यते / न हि दृष्टान्ते साध्यर्मि-धर्माः सर्वऽप्यासञ्जयितु युक्ताः, अन्यथा घटेऽपि शब्दधर्माः शब्दत्वादयः प्रसज्येरनिति तस्यापि श्रोत्रग्राह्यत्वप्रसंगः / न च साधर्म्यदृष्टान्तमन्तरेण प्रमाणप्रतीतस्याप्यर्थस्याऽप्रसिद्धिरिति शक्यं वक्तुम, अन्यथा जीवच्छरीरस्यापि सात्मकत्वे साध्ये तोद्वन्तत्प्र (? तद्वत् तत्प्र) सिद्धदृष्टान्तस्याभावात प्रारणादिमत्त्वादेस्तत्सिद्धिर्न स्यात्। मतानुयायीओं का नहीं, मीमांसकों का सूत्र है / हमारे श्री जैनमत में प्रत्यक्ष केवल इन्द्रियजनित ही नहीं होता, किंतु इन्द्रिय या अनिन्द्रिय (अन्तःकरण) के निमित्त से जो ज्ञान जिस विषय का स्पष्ट ग्राहक होता है वह उस विषय का प्रत्यक्ष कहा जाता है / वाचकवर्य श्री उमास्बातिकृत तत्त्वार्थसूत्र में भी 'तद् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्' इस सूत्र से प्रत्यक्ष ज्ञान को इन्द्रिय-अनिन्द्रियजन्य दिखाया गया है। इसलिये, प्रत्यक्ष का विषय होने से घटादि में जैसे प्रत्यक्षता होती है वैसे आत्मा भी स्वसंवेदनात्मक प्रत्यक्ष का विषय है तो उस में प्रत्यक्षता मानने में क्या विरोध है ? विरोध न होने से ही आपका वह पूर्व प्रतिपादन विध्वस्त हो जाता है जो इस प्रकार था-"घटादि अपने से भिन्न ज्ञान का विषय होने से उसमें प्रत्यक्षता मानी जाती है और आत्मा में अपरोक्ष रूप से प्रतिभास के कारण प्रत्यक्षता दिखायी जाती है और वह अहमाकार प्रत्यक्ष रूप आत्मप्रकाशन केवल यानी बाह्य विषय से असंकीर्ण भी होता है और बाह्यविषय घटादि की प्रतीति से संकीर्ण भी होता है, किन्तु उस में स्वभिन्न इन्द्रियादि कोई साधनभूत न होने से वह अपरसाधन कहा जाता है ( ऐसा जो आत्मप्रत्यक्षवादी का कहना है ) उस पर प्रश्न है कि अपर साधन शब्द का क्या अर्थ है? चित्स्वरूप आत्मा की सत्ता या अपनी ही प्रतीति में सक्रियता ? इस प्रकार पक्षद्वय का उत्थान करके ( कहा था कि ) पहले पक्ष में यदि चित्स्वरूप की सत्ता को ही आत्मप्रकाशन कहते हो तब यहाँ कोई दृष्टान्त दिखाना चाहिये"इत्यादि यह सब प्रतिपादन विध्वस्त हो जाता है / कारण, प्रत्यक्षसिद्ध यानी अनुभवसिद्ध वस्तु के लिये दृष्टान्त की खोज अनावश्यक है, अयुक्त है। [ आत्मा की स्वप्रकाशता में प्रदीपदृष्टान्त की यथार्थता ] ___यदि कहें कि-जहाँ प्रत्यक्षप्रतीति के होने पर भी विषय विवादास्पद बन जाय वहाँ दृष्टान्त की खोज की जाती है यह सर्वजनप्रसिद्ध तथ्य होने से, आत्मा की स्वप्रकाशता में दृष्टान्त कहना Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवाद: 329 अथ साधर्म्यदृष्टान्ताभावेऽपि दृष्टवैधHदृष्टान्तस्य घटादेः सद्भावात् केवलव्यतिरेकिबलात् तत्र तस्सिद्धिस्तहि यत्र स्वप्रकाशकत्वं नास्ति तत्रार्थप्रकाशकत्वमपि नास्ति, यथा घटादाविति व्यतिरेकदृष्टान्तसद्भावादर्थप्रकाशकत्वलक्षणाद्धेतोः स्वप्रकाशकत्व विज्ञानस्य किमिति न सिद्धिमासादयति ? यत्तूक्तम्-'कस्यचिदर्थस्य काचित् सामग्री, तेन प्रकाशः प्रकाशान्तरनिरपेक्ष एव स्वग्राहिणि युक्तमेव, यथा हि स्वसामग्रीत उपजायमानाः प्रदीपालोकादयो न समानजातीयमालोकान्तरं स्वग्राहिणि ज्ञाने प्रतिभासमाना अपेक्षन्ते तथा स्वसामग्रीत उपजायमानं विज्ञानं ! स्वार्थप्रकाशस्वभावं स्वप्रतिपत्तौ न ज्ञानान्तरमपेक्षते, प्रतिनियतत्वात् स्वकारणायत्तजन्मनां भावशक्तीनाम् / यत्त प्रदीपालोकादिकं सजातीयालोकान्तरनिरपेक्षमपि स्वप्रतिपत्तौ ज्ञानमपेक्षते तत् तस्याऽज्ञानरूपत्वात् ज्ञानस्य च तद्विपर्ययस्वभावत्वाद् युक्तियुक्तमिति 'नैकत्र दृष्ट: स्वभावोऽन्यत्राऽऽसञ्जयितु युक्तः' इति पूर्वपक्षवचो निःसारतया व्यवस्थितम् / पडेगा-तो आत्मवादी कहता है कि ज्ञान के अपने प्रकाश में, 'सजातीय अपरज्ञान की अपेक्षा का अभाव' इस साध्य की सिद्धि के लिये दीपकादि स्वरूप दृष्टान्त दूर नहीं है / जैसे देखिये-प्रदीप का आलोक जैसे अपने बोध में अन्य प्रकाश की अपेक्षा नहीं करता तथैव ज्ञान भी अपने प्रकाश में सजातीय अनूव्यवसायादि ज्ञान की अपेक्षा नहीं करता। प्रदीप का दृष्टान्त केवल इतने ही अंश में समझना चाहिये, किन्तु दृष्टान्त का ऐसा तात्पर्य नहीं लगाना है कि 'प्रदीप अन्यालोक से निरपेक्ष हो कर स्वयं अपना प्रकाश यानी ज्ञान कर लेता है' क्यों कि ऐसा तात्पर्य है ही नहीं, प्रदीप में ज्ञानत्व का आपादन इष्ट ही नहीं है, अत एव यह जो आपने कहा था-प्रदीप इन्द्रिय से अग्राह्य होने से स्वप्रकाश नहीं कहा जाता, यदि प्रदीप को इन्द्रिय से अग्राह्य मान कर स्वप्रकाश कहेंगे तो नेत्र वाले पुरुष की तरह अन्धे को भी उस की प्रतीति होने लगेगी-इत्यादि, यह सब अस्थान प्रलाप है कि हम प्रदीप को इन्द्रियाग्राह्य कहते ही नहीं। तथा, दृष्टान्त में साध्यधर्मी के सभी धर्मों का आपादन करना उचित नहीं है / [ ज्ञान की स्वप्रकाशता के लिये प्रदीप को दृष्टान्त करने में ज्ञानधर्म ज्ञानत्व का दृष्टान्तभूत दीपक में आपादन नहीं हो सकता ] वरना, शब्द की अनित्यता सिद्ध करने में, घटरूप दृष्टान्त में शब्दगत शब्दत्वादि धर्मों के आपादन का प्रसंग अवसरप्राप्त होने से घट भी श्रोत्रेन्द्रिय का विषय बन जायेगा। यह भी नहीं कह सकते कि-"जहाँ तक साधर्म्य दृष्टान्त ( जैसे कि धूम से पर्वत में अग्नि को सिद्ध करने में पाकशाला ) न उपलब्ध हो वहाँ तक किसी भी अर्थ की सिद्धि नहीं हो सकती चाहे वह अर्थ प्रमाण से प्रतीत भी क्यों न हो?"-ऐसा इसलिये नहीं कह सकते कि-जिन्दे शरीर में भी प्राणादिमत्ता के हेत से आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकेगी क्योंकि आत्मसहितत्व रूप साध्य अन्यत्र कहीं भी प्रसिद्ध नहीं हाने से किसी भी प्रसिद्ध दृष्टान्त का यहाँ सद्भाव नहीं है / [वैधर्म्यदृष्टान्त से ज्ञान में स्वप्रकाशत्वसिद्धि ] यदि ऐसा कहें-सात्मकत्व की सिद्धि के लिये कोई अन्वयी यानी साधर्म्यवाला दृष्टान्त न होने पर भी व्यतिरेकी यानी वैधर्म्यवाला दृष्टान्त घटादि इस प्रकार हो सकता है कि जहाँ सात्मकत्व नहीं है वहाँ प्राणादिमत्त्व भी नहीं होता जैसे कि घटादि. इस प्रकार केवल व्यतिरेकव्याप्ति के बल से भी जिन्दे शरीर में सात्मकत्व सिद्ध हो सकता है तो प्रस्तुत में भी ज्ञान में स्वप्रकाशत्व सिद्धि के लिये हम ऐसा कहेंगे कि जहाँ स्वप्रकाशत्व नहीं होता वहाँ अर्थप्रकाशकत्व भी नहीं होता जैसे घटादि / तो इस Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथालोकस्य तदन्तरनिरपेक्षा प्रतिपत्तिरुपलब्धेति न तदृष्टान्तबलाद् ज्ञानस्यापि ज्ञानान्तरनिरपेक्षा प्रतीतिः, अदृष्टत्वात् , स्वात्मनि क्रियाविरोधाच्च / नन्वेवमुपलभ्यमानेऽपि वस्तुनि यद्यदृष्टत्वं विरोधश्चोच्येत तदा स्वात्मवद् घटादेरपि बाह्यस्य न ग्राहकं ज्ञानम् , अदृष्टत्वात् जडस्य प्रकाशा. योगाच्चेत्यपि वदतः सौगतस्य न वक्त्रवक्ता समुपजायते / . तथाहि-असावप्येवं वक्तुं समर्थः, जडं वस्तु न स्वतः प्रकाशते, विज्ञानवत् जडत्वहानिप्रसंगात् / नापि परतःप्रकाशमानम् , नील-सुखादिव्यतिरिक्तस्य विज्ञानस्याऽसंवेदनेनाऽसत्त्वात् / / अथ 'नीलस्य प्रकाशः' इति प्रकाशमाननीलादिव्यतिरिक्तस्तत्प्रकाशः, अन्यथा भेदेनाऽस्याऽप्रतिपत्तो संवेदनस्य तत्प्रतिभासो न स्यात् / ननु न नीलतद्वदनयोः पृथगवभासः प्रत्यक्षसंभवी, प्रकाशविविक्तस्य नीलादेरननुभवात् तद्विवेकेन च बोधस्याऽप्रतिमासनात् / न चाऽध्यक्षतो विवेकेनाऽप्रतीय. मानयोनील-तत्संविदोर्भेदो युक्तः, विवेकादर्शनस्य भेदविपर्ययाश्रयत्वात् , नील-तत्स्वरूपवत् / प्रथापि व्यतिरेकी दृष्टान्त के बल से अर्थप्रकाशकत्व को हेत कर के विज्ञान में स्वप्रकाशकत्व की सिद्धि क्यों नहीं हो सकेगी? यह जो आपने कहा था भिन्न भिन्न अर्थ की सामग्री भिन्न भिन्न प्रकार की होती है, किसी की कुछ तो किसी की कुछ, अतः प्रकाशात्मक वस्तु अन्य प्रकाश के अभाव में भी अपने भासक ज्ञान का विषय होता है, इत्यादि.......वह तो ठीक ही है / हम भी यही कहते हैं कि जैसे प्रदीप-आलोक आदि अपनी सामग्री से उत्पन्न होते हुए स्वविषयकज्ञान में दूसरे सजातीय आलोक-दीपक आदि की अपेक्षा किये विना ही प्रतिभासित होते हैं, उसी प्रकार अपनी सामग्री से उत्पन्न होने वाला विज्ञान भी अपने आप ही अपने को प्रकाशित करने के स्वभाववाला होने से स्वविषयक ज्ञान में अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं करता। इतना अन्तर यहाँ जरूर है कि प्रदीप-आलोकादि अपने प्रकाशन में सजातीय अन्य आलोक निरपेक्ष होने पर भी स्वविषयक प्रकाशन में ज्ञान की अपेक्षा करते हैं, और ज्ञान अपने प्रकाशन में अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं करता, किन्तु ऐसा इसलिये है कि प्रदीपादि स्वयं जडात्मक है और ज्ञान जडात्मक न होकर चैतन्यस्वरूप है, इस लिये उतना अंतर होना सयुक्तिक है / तात्पर्य यह हैपूर्वपक्षी ने जो ऐसा कहा था कि "प्रदीप में सजातीयालोक निरपेक्षता स्वभाव दृष्ट होने पर भी ज्ञान में सजातीय ज्ञान निरपेक्षता स्वभाव का प्रतिपादन युक्त नहीं है"-इत्यादि, यह पूर्वपक्षी का वचन सारहीन सिद्ध होता है। [स्वप्रकाशता में अदृष्टता और विरोध की बात अनुचित ] यदि यह कहा जाय कि-"आलोक का ज्ञान सजातीय अन्य आलोक निरपेक्ष होता है इस दृष्टान्त के बल से ज्ञान प्रतीति भी सजातीय अन्य ज्ञान निरपेक्ष होती है यह मानना ठीक नहीं क्योंकि किसी भी वस्तु का ज्ञान स्वतः होता हुआ नहीं देखा गया, तदुपरांत किसी भी वस्तु में स्वविषयक यानी अपने को ही लागू पडे ऐसी क्रिया नहीं होती जैसे कि कुठार से काष्ठादि की छेदन क्रिया देखी गयी है किन्तु कुठार अपना ही छेदन करे यह नहीं देखा गया" तो यह अनुचित है क्योंकि जिस पदार्थ का स्पष्ट उपलम्भ होता है, उसमें 'ऐसा कहीं नहीं देखा गया और विरोध भी है' ऐसा कहते रहेंगे तो, ज्ञान जैसे आप के मत में स्व का प्रकाशक नहीं है वैसे ही "हमारे (बौद्ध) मत में ज्ञान बाह्य घटादि विषय का भी प्रकाशक नहीं है" ऐसा कहने में बौद्ध का मुह कभी भी टेढा नहीं हो सकेगा, क्योंकि Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 331 कल्पना नील-तत्संविदोर्भेदमुल्लिखति-नीलस्यानुभवः' इति / ननु अभेदेऽपि भेदोल्लेखो दृष्टो यथा शिलापुत्रकस्य वपुः' 'नीलस्य वा स्वरूपम्' इति / अथ तत्र प्रत्यक्षारुढोऽभेदो बाधक इति न भेदोल्लेखः सत्यः, स तहि नीलसंविदोरपि प्रत्यक्षारूढोऽमेदोऽस्तीति न भेदकल्पना सत्या। तदेव नोलादिकं सुखादिकं च स्वप्रकाशवपुः प्रतिभातीति स्थितम्, तद्व्यतिरिक्तस्य प्रकाशस्याऽप्रतिभासनेनाऽभावात् / . भवतु वा व्यतिरिक्तो बोधस्तथापि न तद्ग्राहा नीलादयो युक्ताः / तथाहि तुल्यकालो वा बोधस्तेषां प्रकाशकः, भिन्न कालो वा ? तुल्यकालोऽपि परोक्षः, स्वसंविदितो वा ? न तावत् परोक्षः, एक तो ज्ञानान्य घटादि में अन्य वस्तु की प्रकाशता दृष्टिगोचर नहीं है और दूसरे, घटादि जड है अतः उसके साथ प्रकाश का कोई संबंध नहीं बैठ सकता। [ अब व्याख्याकार बौद्ध के मुंह से इस विषय का कि घटादि प्रकाशमान होने से जड नहीं किन्तु विज्ञानमय है-समर्थन प्रस्तुत करते हैं ] [ नीलादि स्वप्रकाश विज्ञानमय है-बौद्धमत] बौद्धवादी भी ऐसा कह सकता है-जड वस्तु स्वयं प्रकाशित नहीं होती, जैसे विज्ञान स्वयं प्रकाशित होता है वैसे जड वस्तु स्वयं प्रकाशित रहेगी तो उसे कोई जड नहीं कहेगा। दूसरे की सहायता से भी जड वस्तु प्रकाशित नहीं हो सकती क्योंकि नीलपदार्थ अथवा सुखादि से अमिलितरूप में विज्ञान का संवेदन कभी नहीं होता है, अत एव नीलादि यदि वस्तुभूत माने तो वे विज्ञान से भिन्न नहीं है, अतः विज्ञानभिन्न नील-सुखादि पदार्थ असत् हैं / बाह्यार्थवादी:-'नील का प्रकाश (=ज्ञान)' इस प्रकार भासमान नीलादि से भिन्नरूप में ही नीलादि का प्रकाश अनुभवारूढ है / यदि प्रकाशमय ज्ञान से नीलादि को भिन्नरूप में नहीं स्वीकारेंगे तो संवेदन का, 'नील का प्रकाश' इस तरह नीलादिभिन्नरूप में प्रतिभास ही नहीं होगा। बौद्धः-नील और नीलसंवेदन का पृथग् पृथग् प्रतिभास संभवित ही नहीं है, क्योंकि प्रकाश से भिन्नरूप में नीलादि का अनुभव नहीं होता और नीलादि से भिन्नरूप में प्रकाश का भी अनुभव नहीं होता / कहीं भी प्रत्यक्ष से नील और नीलसंवेदन के भेद की प्रतीति नहीं होती, अतः उन दोनों का भेद युक्त नहीं है / कारण, 'भेददर्शन का न होना' यह भेदविरोधी यानी अभेद पर अवलम्बित है, जैसे कि नील और नील के स्वरूप का अभेद है तभी तो उन दोनों की भेदप्रतीति नहीं होती। बाह्यवादी:-'नील का अनुभव' इस प्रकार की कल्पना नील और उसके अनुभव के भेद का स्पष्ट उल्लेख करती है उस का क्या ? बौद्धः-भेद का उल्लेख तो अभेद रहने पर भी जगह जगह देखा जाता है जैसे कि 'शिलापुत्रक का शरीर,' (बाटने के पत्थर को शिलापुत्रक कहते हैं) अथवा 'नील का स्वरूप' / यहाँ शिलापुत्रक और उसके शरीर के बीच तथा नील और उसके स्वरूप के बीच वास्तव भेद नहीं है / बाह्यवादी:-'शिलापुत्रक का देह' इत्यादि में तो प्रत्यक्षसिद्ध अभेद ही भेद का बाधक होने से यहाँ भेद का जो उल्लेख होता है वह सत्य नहीं है। बौद्धः-तो फिर नील और संवेदन का भी अभेद प्रत्यक्ष से सिद्ध है, अतः यहाँ भी भेदोल्लेखी कल्पना स य नहीं है / जो भी प्रत्यक्ष संवेदन होता है वह नीलादिमिलितरूप से ही होता है अतः Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यत: 'अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टिः प्रसिध्यति' [ ] इत्यादिना स्वसंविदितत्वं ज्ञानस्य प्रसाधयन्तः एतत्पक्षं निराकरिष्यामः / नापि ज्ञानान्तरवेद्यः, अनवस्थादिदूषणस्यात्र पक्षे प्रदर्शयिष्यमाणत्वात् / स्वसंवेदनपक्षे तु यथाऽन्तनिलीनो बोधः स्वसंविदितः प्रतिभाति तथा तत्काले स्वतन्त्रयोः प्रतिभासनात् सव्येतरगोविषाणयोरिव न वेद्य-वेदकभावः / समानकालस्यापि बोधस्य नीलं प्रति ग्राहकत्वे नीलस्यापि तं प्रति ग्राहकताप्रसंगः। 'समानकालप्रतिभासाऽविशेषेऽपि बुद्धिर्नीलादीनां ग्रहणमुपरचयतीति ग्राहिका, नीलादयस्तु ग्राह्याः'-नैतदपि युक्तम्, यतो नील-बोधव्यतिरिक्ता न ग्रहणक्रिया प्रतिभाति / तथाहि-बोधः सुखास्पदीभूतो हृदि, बहिः स्फुटमुद्भासमानतनुश्च नीलादिराभाति न त्वपरा ग्रहणक्रिया प्रतिभासविषयः। तदनवभासे च न तया व्याप्यमानतया नीलादेः कर्मता युक्ता / भवतु वा नील-बोधव्यतिरिक्ता क्रिया, तथापि कि तस्या अपि स्वतः प्रतीति:, यद्वाऽन्यत: ? तत्र यदि स्वतोग्रहणक्रिया प्रतिभाति तथा सति बोधः, नीलम, ग्रहणक्रिया चेति त्रयं स्वरूपनिमग्नमेककालं प्रतिभातीति न कतकर्म-क्रियाव्यवहृतिः / अथाऽन्यतो ग्रहण किया प्रतिभाति / ननु तत्राप्यपरा ग्रहण कियोपेया, अन्यथा तस्या ग्राह्यताऽसिद्धेः पूनस्तत्राप्यपरा कर्मतानिबन्धनं क्रियोपेयेत्यनवस्था। तन्न ग्रहणक्रियाऽपराऽस्ति, तत्स्वरूपानवभासनात् / ततश्चान्तःसंवेदनम् बहिर्नोलादिकं च स्वप्रकाशमेवेति / नीलादि और संवेदन का अभेद प्रत्यक्षसिद्ध ही है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि नीलादि और सुखादि संवेदनाभिन्न होने से स्वप्रकाशात्मक ही भासित होते हैं, क्योंकि नीलादि सुखादि से भिन्नरूप में भासित नहीं होता अतः संवेदनभिन्न नीलादि की सत्ता नहीं है / [भेदपक्ष में नीलादि में ग्राह्यत्व की अनुपपत्ति ] . अथवा, नीलादि से संवेदन का भेद मान लिया जाय तो भी नीलादि में विज्ञानग्राह्यता संगत नहीं है / जैसे देखिये-विज्ञानग्राह्यता मानने पर दो प्रश्न उठते हैं (?) समानकालीन विज्ञान नीलादि का प्रकाशक है या (2) भिन्नकालीन ? पहले विकल्प के ऊपर भी दो प्रश्न हैं-(A) समानकालीन विज्ञान परोक्ष है या (B) स्वयंप्रकाशी है ? (A) परोक्ष विज्ञान वाला विकल्प ठीक नहीं है क्योंकि आगे चलकर “परोक्ष विज्ञान स्वत: प्रत्यक्ष न होने पर उससे अर्थ के प्रकाश की सिद्धि शक्य नहीं है". इत्यादि प्रस्ताव से जब ज्ञान का स्वतः प्रकाशत्व सिद्ध किया जायेगा तब विज्ञानपरोक्षता का निराकरण किया जाने वाला है। विज्ञान को परोक्ष भी न माने और स्वयंसंविदित भो न माने किन्तु अन्य ज्ञान से वेद्य यानी अन्य ज्ञान से उसका प्रत्यक्ष मानेंगे तो वह भी अशक्य है क्योंकि इस पक्ष में अनवस्थादि दोषों का संपात दिखाया जाने वाला है। (B) यदि विज्ञान को स्वयंसंविदित मानेंगे तो निलादि और विज्ञान का वेद्य-वेदक भाव ही नहीं घटेगा, क्योंकि जैसे अन्तर्मुखरूप से स्वसंविदित ज्ञान का जिस काल में भास होता है, उसी तरह उसकाल में नीलादि भी स्वतः प्रकाशस्वरूप और बाह्य देश के संबन्धीरूप में भासित होते हैं-इस प्रकार जब दोनों प्रतिभास समानकालीन हए ता समानकाल में उत्पन्न दायें-बाये गोविषाण में जैसे वेद्य-वेदक भाव नहीं होता उसी प्रकार समानकाल में भासमान नीलादि और विज्ञान में भी वेद्य वेदक भाव नहीं घट सकता / फिर भी यदि समानकालान विज्ञान को भासमान निलादि का ग्राहक कहेंगे तो दूसरे वादी समानकालीन भासमान नीलादि को हो विज्ञान का ग्राहक कह सकेंगे-जो आपको अनिष्ट है-यह अतिप्रसंग होगा। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 333 "स्वसंवित्तिमात्रवादः साधीयान यदि तान्तनिलीनो बोधो नीलादेन बोधकः किन्तु स्वप्रकाश एवासौ, तथा सति 'नीलमहं वेद्मि' इति कर्म-कर्तृभावाभिनिवेशी प्रत्ययो न भवेत् , विषयस्य कर्म-कर्तृ भावस्याऽभावात्" / ननु विषयमन्तरेणापि प्रत्ययो दृष्ट एव यथा शुक्तिकायां रजत्तावगमः। अथ बाधकोदयात् पुनर्धान्तिरसौ, नीलादौ तु कर्मतादेर्न बाधाऽस्तीति सत्यता। नन्वत्रापि बोधनीलादेः स्वरूपाऽसंसक्तस्य द्वयस्य स्वातन्त्र्योपलम्भोऽस्ति बाधकः कर्म-कर्तृ भावोल्लेखस्य / अथ किमस्या भ्रान्तेनिबन्धनम् ? नहि भ्रान्तिरपि निर्बीजा भवति / ननु पूर्वभ्रान्तिरेवोत्तरकर्म-कर्तृ भावावगतेनिबन्धनम् , पूर्वभ्रान्तिकर्मतादेरपि अपरा पूर्वभ्रान्तिरित्यनादिन्तिपरम्परा, कर्मतादिन तत्त्वम् / [ ग्रहणक्रिया असिद्ध होने से नीलादि में कर्मता अघटित ] यदि यह कहा जाय-नीलादि और विज्ञान का प्रतिभास तुल्यकालीन होने पर भी विज्ञान से ही नीलादि की ग्रहणक्रिया का उपक्रम किया जाता है, अत: विज्ञान ही ग्राहक है, नीलादि ग्राह्य हैं। यह भी युक्तिसंगत नहीं है / कारण, नील एवं विज्ञान से व्यतिरिक्त किसी ग्रहणक्रिया का कभी अनुभव नहीं होता / जैसे देखिये, भीतर में सुख के अधिष्ठान रूप में विज्ञान का और बाहर स्पष्ट रूप से समानस्वरूप वाले नीलादि का अवभास होता है किन्तु ग्रहणक्रिया का प्रतिभास न तो भीतर होता है न बाह्य में। जब ग्रहणक्रिया का अवभास ही नहीं होता तो क्रिया से व्याप्यमानरूप में नीलादि की कर्मता भी अयुक्त है। किसी के उपर क्रिया का लागू होना- यही क्रिया की व्याप्यमानता है और जिसके ऊपर क्रिया व्याप्यमान हो वह उसका कर्म कहा जाता है / प्रस्तुत में ग्रहणक्रिया सिद्ध न होने से नीलादि को उसका कर्म यानी ग्राह्य नहीं मान सकते / [ ग्रहण क्रिया के स्वीकार में बाधक ] __नीलादि और विज्ञान से व्यतिरिक्त क्रिया का स्वीकार करने पर भी दो प्रश्न का समाधान नहीं है-(१) उसकी प्रतीति स्वत: होती है (2) या परतः ? (1) यदि ग्रहणक्रिया स्वतः प्रतिभासित होती है तो अब विज्ञान, नीलादि और क्रिया-तीनों का अपने अपने स्वरूप में अवस्थितरूप से एक ही काल में प्रतिभास होगा-तो कर्ता-कर्म और क्रिया इस रूप से किसी का भी व्यवहार कैसे होगा? (2) यदि क्रिया की प्रतीति परत: मानते हैं-तो पर यानी अन्य ग्रहणक्रिया को मानना होगा, वरना, उस प्रथम क्रिया में परत: ग्राह्यता ही सिद्ध नहीं होगी। उपरांत, दूसरी क्रिया उसका ग्राहक हुई तो ग्राह्यक्रिया ग्राहकक्रिया का कर्म तभी बनेगी जब तीसरी ग्रहणक्रिया का स्वीकार करें, क्योंकि उसके विना प्रथम-द्वितीय क्रिया में क्रमश: ग्राह्य-गाहकता नहीं हो सकेगी। इस प्रकार नयी नयी ग्रहणक्रिया की कल्पना का कहीं अन्त नहीं आयेगा। अतः विज्ञान और नील से व्यतिरिक्त कोई ग्रहणक्रिया है नहीं, क्योंकि उसका स्वरूप अवभासित नहीं होता / निष्कषः-अन्तर्मुखरूप से जो विज्ञान रूप संवेदन है और बहिर्मुखरूप से जो नीलादि है, दोनों स्वप्रकाश ही सिद्ध होते हैं / तात्पर्य, नीलादि जड नहीं किन्तु विज्ञानस्वरूप ही है। [कर्मकत भावप्रतीति भ्रान्त है ] बाह्यवादी:- यदि स्वसंवेदनमात्र का प्रतिपादन अच्छा हो तब फलित यह होगा कि अन्तर्वर्ती विज्ञान बहिर्वृत्ति नीलादि का बोधक नहीं है किन्तु नीलादि स्वयं ही प्रकाशित होते हैं। इस स्थिति Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथवा 'नीलम्' इति प्रतीतिस्तावन्मात्राध्यवसायिनी पृथक् , 'अहम्' इत्यपि मतिरन्तरल्लेखमुद्वहन्ती भिन्ना, 'वेनि' इत्यपि प्रतीतिरपरैव ततश्च परस्पराऽसंसक्तप्रतीतित्रितयं क्रमवत् प्रतिभाति न कर्म-कर्तृ भावः, तुल्यकालयोस्तस्याऽयोगात् भिन्नकालयोरप्यनवभासनान कर्मतादिगतिः कश्चित् सम्भविनी। ___ अथापि दर्शनात प्राक सन्नपि नीलात्मा न भाति तदुदये च भातीति कर्मता तस्य / नैतदपि साधीयः, यतः प्राग भावोऽर्थस्य न सिद्धः / दर्शनेन स्वकालावधेरर्थस्य ग्रहणाद् दर्शनकाले हि नीलमामाति न तु ततः प्राक , तत् कथं पूर्वभावोऽर्थस्य सिध्येत , तस्य दर्शनस्य पूर्वकाले विरहात ? न च तत्काले दर्शनं प्रागर्थसन्निधि व्यक्ति, सर्वदा तत्प्रतिभासप्रसंगात् / अथाऽन्येन दर्शनेन प्रागर्थः प्रतीयते, ननु तद्दर्शनादपि प्राक सद्भावोऽर्थस्यान्येनावसेय इत्यनवस्था। तस्मात सर्वस्य नीलादेर्दर्शनकाले प्रतिभासनान्न तत्पूर्व सत्ता सिध्यति / / में "मैं नील को जानता हैं' इस प्रकार की कर्म-कर्त भाव से अभिनिविष्ट यानी गर्भित प्रतीति न हो सकेगी, कारण, कर्मकर्तृ भाव किसी भी विषय का धर्म नहीं है। विज्ञानवादोः-नीलादि और विज्ञान में कर्म-कर्तृ भाव प्रतीत होता है इतने मात्र से कर्मकर्तृभाव वास्तविक नहीं हो जाता क्योंकि विषय के विना भी कितनी प्रतीतियाँ उत्पन्न हो जाती है जैसे सीप में रजतबुद्धि रजत के विना भी होती है / बाह्यवादी:-वहाँ तो पीछे 'यह रजत नहीं है' इस प्रकार का बाधक ज्ञान होता है अतः सीप में रजतबुद्धि भ्रान्तिस्वरूप है, किन्तु नीलादि में होने वाली कर्मत्वादि की बुद्धि तो सत्य ही है क्योंकि उसके पीछे कोई बाधक ज्ञान होता नहीं है / विज्ञानवादीः-नीलादि और विज्ञान का, दोनों का अपना अपना स्वतन्त्र बोध एक दूसरे के स्वरूप से अनुपरक्तरूप से होता है, यह स्वतन्त्रबोध ही कर्म कर्तृ भाव के उल्लेख का बाधक होगा, क्योंकि कर्म-कर्तृ भाव एक दूसरे पर अवलम्बित है / बाह्यवादी:-कोई भी भ्रान्ति दोषमूलक ही होती है तो यहाँ कर्मकर्तृ भाव का उल्लेख यदि भ्रान्त हो तो वहाँ कौन सा दोष भ्रमत्वापादक है ? विज्ञानवादी:-भ्रम का मूल पूर्वभ्रम ही होता है तो यहाँ भी पूर्वकालीन कर्म-कर्तृ भाव की भ्रान्ति ही उत्तरकालीन कर्मकर्तभाव की भ्रान्ति का कारण है। पूर्वकालीन भ्रान्ति में कर्मतादि का कारण उससे भी पूर्वकालीन भ्रान्ति है, इस प्रकार यह भ्रान्तिपरम्परा अनादि काल से चली आ रही है / अत: कर्मता, कर्तृतादि वास्तव 'तत्त्व' नहीं है / [ कर्मक भाव की प्रतीति भी अनुपपन्न ] ___ कर्म-कर्तृ भाव वास्तव न होने में दूसरा भी विकल्प है-'नीलम्' इस प्रकार केवल नीलमात्र की अवभासक एक अलग प्रतीति है। तथा, 'अहम्' इसप्रकार आन्तरिक उल्लेख को धारण करती हई 1. एक अलग प्रतीति है / और 'वेद्मि' इस प्रकार ज्ञान की एक अलग प्रतीति है / परस्पर अमिलितरूप में ये तीनों प्रतीति क्रमश: "मैं नील को जानता हूँ" इस प्रकार होती है, किन्तु कमकर्तृभाव तो कहीं प्रतीत नहीं होता, क्योंकि उन तीन प्रतीतियों को समानकालीन मानने पर कर्म-कर्तृभाव नहीं Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवाद: 335 अथापि 'पूर्वदृष्टं पश्यामि' इति व्यवसायात प्रागर्थः सिध्यति, प्रागर्थसत्तां विना दृश्यमानस्य पूर्वदृष्टेनैकत्वगतेरयोगात् / केन पुनरेकत्वं तयोर्गम्यते ? किमिदानीन्तनदर्शनेन पूर्वदर्शनेन वा ! न तावत् पूर्वदर्शनेन, तत्र तत्कालावधेरेवार्थस्य प्रतिभासनात / न हि तेन स्वप्रतिभासिनोऽर्थस्य वर्तमानकालदशनव्याप्तिरवसीयते, तत्काले साम्प्रतिकदर्शनादेरभावात / न चासत प्रतिभाति, दर्शनस्य वितथत्वप्रसंगात् / नापीदानीन्तनदर्शनेन पूर्वदर्शनादिव्याप्तिधलादेरवसीयते, तद्दर्शनकाले पूर्वदृक्कालस्यास्तमयात / न चाऽस्तमितपूर्वदर्शनादिसंस्पर्शमवतरति प्रत्यक्षम् , वितथत्वप्रसंगादेव / तस्माद् अपास्ततत्पूर्वगादियोगं सर्व वस्तु दृशा गह्यते / 'पूर्वदृष्टतां तु स्मतिरुल्लिखति' तदपास्तम् , दृष्टतोल्लेखाभावात् / न च स एवायम्' इति प्रतीतिरेका, 'सः' इति स्मृतिरूपम् , 'प्रयम्' इति तु दृशः स्वरूपम् , तत्परोक्षाऽपरोक्षाकारत्वान्नकस्वभावौ प्रत्ययौ, तत् कुतस्तत्त्वसिद्धिः ? घट सकता, कर्म कर्तृ भाव भिन्नकालीन वस्तु में ही शक्य है / यदि तीनों को भिन्नकालीन माने तो भी तीनों का स्वतन्त्र प्रतिभास होता है, कर्म या कर्ता रूप से नहीं होता, अत: कर्मता आदि का किसी भी प्रकार उपलम्भ संभव नहीं है। __ यदि ऐसा कहा जाय-दर्शन (निर्विकल्पक ज्ञान ) के पूर्वकाल में नीलादि की सत्ता होने पर भी उसका भान नहीं होता, और दर्शन का उदय होने पर ही उसका भान होता है, अतः नीलादि में दर्शननिरूपित कर्मता सिद्ध होती है। तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दर्शन से पूर्वकाल में अर्थसत्ता सिद्ध नहीं है / दर्शन से केवल अपने काल में विद्यमान ही अर्थ का ग्रहण होता है, अत: नीलादि का भान ल में ही होता है, उसके पूर्वकाल में नहीं होता, तो जब अर्थसत्ताग्राहक दर्शन ही पूर्व काल में नहीं है तो अर्थ की पूर्वकालीन सत्ता कैसे सिद्ध होगी ? ऐसा नहीं है कि इस काल का दर्शन पूर्वकालीन अर्थ के सद्भाव को व्यक्त करे-यदि ऐसा होता तब तो एक ही अर्थ का प्रतिभास सतत ही उत्तरकालीन दर्शनों से होता ही रहेगा / यदि दूसरे पूर्वकालीन दर्शन से पूर्वकालीन अर्थ की प्रतीति मानेंगे तो पूर्वकालीन दर्शन के भी पूर्वकाल में अर्थ के सद्भाव का साधक अन्य दर्शन मानना पडेगा. इस प्रकार पूर्व पूर्व अर्थसत्ता का साधक पूर्व-पूर्व दर्शन मानते रहेंगे तो कहीं भी उसका अन्त न आयेगा / इस अनवस्था दोष के कारण यही मानना पडेगा कि हर कोई नीलादि अपने दर्शन काल में ही प्रतिभासित होते हैं / ऐसा मानेंगे तब तो दर्शन के पूर्वकाल में अर्थ की सिद्ध नहीं हो सकती। [विज्ञान के पूर्वकाल में अर्थसत्ता की असिद्धि ] बाह्यवादी:-'पूर्वदृष्ट को देखता हूं' इस प्रकार के व्यवसाय ( =दर्शन ) से पूर्वकाल में अर्थसत्ता सिद्ध होती है, यदि पूर्वकाल में अर्थ न होता तो वत्तमान में दृश्यमान और पूर्वदृष्ट वस्तु के ऐक्य की प्रतीति का उदय न होता। विज्ञानवादीः-किस व्यवसाय से आप पूर्वदृष्ट और दृश्यमान के ऐक्य की बात करते हैं ? (1) वर्तमानक.लोन दर्शन से या (2) पूर्वकालीन दर्शन से ? (2) पूर्वकालीन दर्शन से ऐक्य का भान शक्य नहीं है, क्योंकि पूर्वकालीनदर्शन में पूर्वकालावधिक अर्थ का ही प्रतिभास शक्य है। पूर्वकालीनदर्शन से 'अपने में भासमान अर्थ वर्तमान काल तक रहने वाला है' इस प्रकार का अवगाहन शक्य नहीं है, क्योंकि पूर्वकाल में वर्तमानकालावगाहि दर्शन का ही अभाव है। यह भी नहीं कह सकते कि 'उत्तरकालीन दर्शन यद्यपि पूर्वकाल में असत् है तो भी उसका प्रतिभास पूर्वकालीन दर्शन में होता है।' Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 - अथानुमानात् प्रागभावोऽर्थस्य सिध्यति, प्राक् सत्तां बिना पश्चाद्दर्शनाऽयोगादिति / तदप्यसत्, यतः पश्चाद्दर्शनस्य प्राकसत्तायाः सम्बन्धो न सिद्धः, प्राक् सत्तायाः कथंचिदप्यसिद्धेः / न चाऽसिद्धया सत्तया व्याप्तं पश्चाद्दर्शनं सिध्यति, येन ततस्तत्सिद्धिः / अथ 'यदि प्रागर्थमन्तरेण दर्शनमुदयमासादयति तथा सति नियामकाभावात सर्वत्र सर्वदा सर्वाकारं तद् भवेत् / नायमपि दोषः, नियतवासनाप्रबोधेन संवेदननियमात् / तथाहि-स्वप्नावस्थायां वासनाबलाद्दर्शनस्य दर्शनस्य देशकालाकारनियमो दृष्ट इति जाग्रहशायामपि तत एवासौ युक्तः / अर्थस्य तु न सत्ता सिद्धा, नापि तद्भेदात् संवित्तिनियम इति, तन्न ततः संविद्वैचित्र्यम् . तस्मान्न कथंचिदपि नीलादेः प्राक सत्तासिद्धिः। कारण, पूर्वकालीन दर्शन असद्विषयक हो जाने पर जूठा यानी अप्रमाण हो जायेगा। (1) तथा, वर्तमानकालीन दर्शन से, 'वर्तमाननीलादि पूर्वकालीन दर्शन के भी विषय अवगाहन भी अशक्य है, क्योंकि वर्तमान दर्शन के काल में पूर्वदर्शन काल तो समाप्त हो चुका है.। प्रत्यक्षदर्शन, अस्त हो जाने वाले पूर्वदर्शनादि को विषय नहीं कर सकता / यदि विषय करेगा भी तो अस्त हो जाने से वर्तमान में असत् बने हुए पूर्वदर्शन को विषय करने से वह भी असद्विषयक यानी अप्रमाण माना जायेगा। निष्कर्ष यह आया कि हग् (=दर्शन) से सभी वस्तु का पूर्वकालीनदर्शनादिसंबंध से विनिर्मुक्तरूप से ही ग्रहण होता है / इस से 'दर्शन नहीं तो स्मृति पूर्वदृष्टता का उल्लेख करती है' इस कथन का भी निराकरण हो जाता है, क्योंकि किसी भी ज्ञान से पूर्वोक्तरीति से पूर्वदृष्टता का उल्लेख होता नहीं है / प्रत्यभिज्ञा से भी पूर्वदृष्ट और दृश्यमान का ऐक्य भासित नहीं होता, क्योंकि 'यह वही है' ऐसी प्रत्यभिज्ञा वास्तव में एक प्रतीतिरूप नहीं किन्तु स्मृति और दर्शन का मिश्रण है। "वह इस प्रकार की प्रतीति स्मरणरूप है और “यह" इस प्रकार की प्रतीति ग (दर्शन)स्वरूप है। इसमें स्मरण परोक्ष है और दर्शन अपरोक्ष है. परोक्ष और अपरोक्ष आकार परस्पर विरोधी होने से उन दो प्रतीतियों का ऐक्य-एकस्वभावत्व संभव नहीं है। तब दिखाईये, कैसे पूर्वकाल में अर्थ की सत्ता सिद्ध होगी? [ पूर्वकाल में अर्थसत्ता की अनुमान से सिद्धि दुष्कर ] यदि कहा जाय-अनुमान से पूर्वकालीन अर्थसत्ता सिद्ध है जैसे: 'अर्थ पूर्वकाल में सत् था, क्यौकि उत्तरकालीन दर्शन का विषय है' / उत्तरकाल में अर्थ का दर्शन पूर्वकाल में उसकी सत्ता के विना नहीं घट सकता / तो यह भी ठीक नहीं है / क्योंकि पश्चाद् (== उत्तरकालीन) दर्शन और पूर्वकालीन सत्ता इन दोनों के बीच व्याप्तिनामक संबंध ही सिद्ध नहीं है-इस का भी कारण यही है कि किसी भी प्रमाण से अर्थ की प्राक सत्ता सिद्ध नहीं है / पूर्वकालीन सत्ता ही जब असिद्ध है तब उसके साथ पश्चाद् दर्शन का व्याप्ति संबंध कैसे सिद्ध होगा? जब व्याप्ति असिद्ध है तब पश्चाद् दशन से पूर्वकालीन सत्ता भी कैसे सिद्ध होगी ? यदि कहें कि-'पूर्वकाल में अर्थ की सत्ता के विना ही दर्शन का उदय हो जायेगा तो फिर दर्शन के आकार आदि का किमी भी नियामक न होने से सदा के लिये सर्वत्र सभी नील-पीतादि आकारवाला दर्शन उत्पन्न होता रहेगा'-यह कोई महत्त्वपूर्ण दोष नहीं है, क्योंकि संवेदन में काल-देश और आकार का नियामक नियत प्रकार की वासना का उद्बोध ही है / जैसेः स्वप्नदशा में दर्शन के काल, देश और आकार का नियम वासना के ही प्रभाव से होता है तो जागति दशा में भी उसीसे वह नियम मानना अयुक्त नहीं है / आप अर्थ को नियामक दिखाना चाहते हैं किन्तु उसकी Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 337 अथ पूर्वसत्ताविरहे किं प्रमाणम् ? नन्वनुपलब्धिरेव प्रमाणम्-यदि नीलं पूर्वकालसम्बन्धिस्वरूपं स्यात् तेनैव रूपेणोपलभ्येत, न च तथा, दर्शनकालभुवः सर्वदा प्रतिभासनात् / यच्च येनेव रूपेण प्रतिभाति तत् तेनैव रूपेणास्ति, यथा नीलं नीलरूपतयावभासमानं तथैव सत् न पीतादिरूपतया, सर्व चोपलभ्यमानं रूपं वर्तमानकालतयैव प्रतिभाति न पूर्वादितया, तन्न पूर्व सत्ताऽर्थस्य / अथ नीलं तद्दर्शनविरतावपि परदृशि प्रतिभातीति साधारणतया ग्राह्यम् , विज्ञानं त्वसाधारणतया प्रकाशकम् / नैतदपि युक्तम् , यतो नीलस्य न साधारणतया सिद्धः प्रतिभासः, प्रत्यक्षरण स्वप्रतिभासिताया एवावगतेः / नहि नीलं परदशि प्रतिभातीत्यत्र प्रमाणमस्ति, परदृशोऽनधिगमे नीलादेस्तद्वद्यताऽनधिगतेः। ___अथानुमानेन नीलादीनां साधारणता प्रतीयते-यथैव हि स्वसन्ताने नीलदर्शनात् तदादानार्था प्रवृत्तिस्तथाऽपरसन्तानेऽपि प्रवृत्तिदर्शनात् तद्विषयं दर्शनमनुमीयते / नैतदप्यस्ति, अनुमानेन स्वपरदर्शनभृतो नीलादेरेंकताऽसिद्धेः / तद्धि सदृशव्यवहारदर्शनादुपजायमानं स्वदृष्टसदृशतां परदृष्टस्य प्रतिपादयेत् , यथाऽपरधूमदर्शनात् पूर्वसदृशं दहनमधिगन्तुमीशो न तु तमेव पूर्वदृष्टम् , सामान्येनान्वयपरिच्छेदात् / तन्नानुमानतोऽपि ग्राह्याकारस्यैकता। स्वतंत्र सत्ता ही सिद्ध नहीं है तो उसके भेद से संवेदनों का कालादिभेदनियम नहीं बन सकता। अत: संवेदन की विचित्रता का आधार अर्थ है ही नहीं। सारांश, किसी भी प्रकार से दर्शन के पूर्वकाल में नीलादि अर्थ की सत्ता सिद्ध नहीं होती। [पूर्वकाल में सत्ता न होने में अनुपलब्धि प्रमाण ] प्रश्नः-पूर्वकालीन सत्ता में कोई प्रमाण जैसे नहीं है वैसे पूर्वकाल में सत्ता का अभाव मानने में कौनसा प्रमाण है ? उत्तरः- अनुपलब्धि ही यहाँ प्रमाण है- नीलादि का स्वरूप यदि पूर्वकालसंबद्ध भी होता तो पूर्वकालसंबन्धिरूप से उसकी उपलब्धि भी होती, किन्त नहीं होती है. जब भी उसका प्रति है, 'दर्शन का वह समानकालीन है' इस रूप में ही होता है / जिस वस्तु का जिस रूप से प्रतिभास हो, उस रूप से ही उस वस्तु का सद्भाव मानना चाहिये, जैसे नील पदार्थ नीलरूप से अवभासित होता है, तो वह, नील-रूप से ही सत् माना जाता है, पीतादिरूप से नहीं। उपलब्ध होने वाली सभी वस्तु वर्तमानकालसंबंधिरूप से ही उपलब्ध होती है, पूर्वकालसंबंधीरूप से उपलब्ध नहीं होती, अतः पूर्वकाल में अर्थ की सत्ता असत् है। [ नीलादि अन्यदर्शनसाधारण नहीं है ] यदि यह कहा जाय नीलपदार्थ एक व्यक्ति के दर्शन में प्रतिभासित होने के बाद अन्य व्यक्ति के दर्शन में भी प्रतिभासित होता है, इस प्रकार नीलादि अनेक दर्शन साधारण होने से उसे ग्राह्य मानना चाहिये, तथा दर्शन तो केवल एक ही व्यक्ति को भासित होने से असाधारण हुआ अतः उसको ग्राहक शक मानना चाहिये। तो यह भी युक्त नहीं, कारण, नीलपदार्थ अनेकदर्शन साधारण है' इस प्रकार का प्रतिभास किसी को नहीं होता, अत: असिद्ध है / प्रत्यक्ष तो केवल इतना ही जान सकता है कि 'यह मेरे में प्रतिभासित है' किन्तु यह नहीं जानता कि 'यह दूसरे संविद् में भी भासता है। इस Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ननु भेदोऽप्यस्य न सिद्ध एव / प्रतिभासभेदे सति कथमसिद्धः परप्रतिभासपरिहारेण स्वप्रतिभासान् स्वप्रतिभासपरिहारेण च परप्रतिभासान् विवेकस्वभावान् व्यतिरेचयति, अन्यथा तस्याऽयोगात् ? ततः स्वपरदृष्टस्य नीलादेः प्रतिभासभेदात् व्यवहारे तुल्येऽपि भेद एव, इतरथा रोमाञ्चनिकरसदृशकार्यदर्शनात् सुखादेरपि स्व-परसन्तानभुवस्तत्त्वं भवेत् / प्रथापि सन्तान भेदात् सुखादेर्भेदः / ननु सन्तानभेदोऽपि किमन्यभेदात् ? तथा दनवस्था। अथ तस्य स्वरूपभेदाद् भेदः, सुखादेरपि तहि स एवास्तु, अन्यथा भेदाऽसिद्धः / नान्यभेदादन्यद् भिन्नम् . अतिप्रसंगात् / नीलादेरपि स्व-परप्रतिभासिनः प्रतिभासभेदोऽस्ति-इति नैकता। प्रकार 'नीलपदार्थ अन्य के दर्शन में भी प्रतिभासित होता है' इसमें कोई प्रमाण नहीं है क्योंकि ऐसा ज्ञान करने के लिये अन्यदीय दर्शन का भी बोध होना चाहिये, उसके विना नीलादि अन्य के दर्शन का वेद्य विषय है यह अज्ञात ही रहता है / [ अनुमान से भी अन्यदर्शन साधारणता की सिद्धि दुष्कर ] यदि यह कहा जाय-नीलादि में अनेकदर्शनसाधारणता अनुमान से व्यक्त होती है, वह इस प्रकार-एक व्यक्ति के सन्तान में जैसे नीलदर्शन से नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति दिखायी देती है, वैसे अन्यव्यक्ति के संतान में भी उसी नील के ग्रहणार्थ प्रवत्ति दिखायी देती है, यह उसी नील की अन्यदर्शनग्रा के विना नहीं हो सकता, अत अन्यसंतानगतदर्शन की विषयता नीलादि में सिद्ध होगी। तो यह भी ठीक नहीं है / कारण, स्वदर्शनविषयीभूत नीलादि और अन्यदर्शनविषयीभूत नीलादि में अनुमान से ऐक्य सिद्धि दुष्कर है / अनुमान तो समानरूप से नीलग्रहण में प्रवृत्ति को देखकर उत्पन्न होता है तो उससे केवल स्वदृष्ट नीलादि और परदृष्ट नीलादि में सादृश्य का प्रकाशन हो सकता है, ऐक्य का नहीं। जैसे पाकशाला में धूम-अग्नि का साहचर्य देखने के बाद पर्वतादि में नये धुम को देख कर पूर्वदृष्ट दहन का अनुमान नहीं होता किन्तु तत्सदृश नये ही अग्नि का अनुमान होता है, क्योंकि व्याप्ति का ग्रहण सामान्यधर्मपुरस्कारेण होता है। निष्कर्ष, ग्राह्याकारों में अनुमान से भी ऐक्य सिद्ध नहीं / [प्रतिभास भेद से नीलादिभेद की सिद्धि ] बाह्यवादीः स्व- परदर्शन विषयीभूत नीलादि में अभेद सिद्ध नहीं है तो भेद भी कहाँ सिद्ध है ? विज्ञानवादी:-जब दोनों का स्व-पर प्रतिभास ही भिन्न है तो नीलादि का भेद क्यों सिद्ध नहीं होगा। नीलादि का भेद सिद्ध है तभी तो पर प्रतिभास को छोड कर भिन्न स्वभाववाले स्वकीय भासों को अलग कर देता है और स्वप्रतिभास को छोड कर भिन्न स्वभाववाले पर प्रतिभासों को अलग कर देता है, यदि नीलादि में भेद नहीं होता तो स्व-पर प्रतिभासों में भेद ही नहीं हो सकेगा। इस से यह सिद्ध होता है कि स्वदृष्ट और परदृष्ट नीलादि में तुल्य व्यवहार होने पर भी प्रतिभास के भेद से भेद ही है / वरना, स्वसन्तान और पर सन्तान में रोमांच का उद्भेद आदि तुल्य कार्य के दर्शन से स्व-पर दोनों सन्तानों में होने वाले सुखादि भी अभिन्न हो जायेंगे। यदि कहें कि यहाँ तो सुखादि के आधारभूत सन्तान भिन्न भिन्न होने से ऐक्यापत्ति नहीं है तो दूसरा प्रश्न यह होगा कि सन्तानों का भेद ही कैसे सिद्ध है ? यदि दूसरे किसी दो वस्तु के भेद से सन्तान भेद सिद्ध करेंगे तो उन दो वस्तु का भेद कैसे सिद्ध हुआ-इस प्रकार प्रश्न परम्परा का अन्त नहीं आयेगा। इस अनवस्था दोष से बचने के Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 339 अथ देशैकत्वादेकत्वम् / नन देशस्यापि स्व-परदृष्टस्यानन्तरोक्तन्यायाद नैकता युक्ता / तस्माद् ग्राहकाकारवत् प्रतिपुरुषमुद्भासमानं नीलादिकमपि भिन्नमेव / तच्चैककालोपलम्भाद् ग्राहक / वत् स्वप्रकाशम् / अथ ग्राहकाकारश्चिद्रूपत्वाद् वेदको नीलाकारस्तु जडत्वाद् ग्राह्यः / अत्रोच्यतेकिमिदं बोधस्य चिद्रपत्वम? यद्यपरोक्ष स्वरूपं, नीलादेरपि तहि तदस्तीति न जडता। प्रथ नाला मन्यस्माद् भवतीति ग्राह्यम् / ननु बोधस्यापि स्वस्वरूपमिन्द्रियादेर्भवतीति ग्राह्य स्यात् / अथ यद् इन्द्रियादिकार्य न तद् वेद्यम् , नीलादिकमपि तहि नयनादिकार्यमस्तु नातु ग्राह्यम् / / ___ अथ बोधो बोधस्वरूपतया नित्यो नीलादिकस्तु प्रकाश्यरूपतयाऽनित्य इति ग्राह्यः / तदप्यसन, स्तम्भादेर्नयनादिबलादुदेति रूपमपरोक्षत्वम् , तदनित्यः स्तम्भादिर्भवतु, ग्राह्यस्तु कथम् ? न हि यद् यस्मादुत्पद्यते तत्तस्य वेद्यम् , अतिप्रसंगात् / तस्मादपरोक्षस्वरूपाः स्तम्भादयः स्वप्रकाशाः बोधस्तु नित्योऽनित्यो वा तत्काले केवलमुद्भाति, न तु वेदकः, द्वयोरपि परस्परं ग्राह्य-ग्राहकतापत्तेः / ___अथ नीलोन्मुखत्वाद् बोधो ग्राहकः / किमिदं तदुन्मुखत्वं नाम बोधस्य ? यदि नीलकाले सत्ता सा नीलस्यापि तत्काले समस्तीति नीलमपि बोधस्य वेदकं स्यात् / अथान्यदुन्मुखत्वं तत् , तहि स्वलिये अगर सन्तान भेद को स्वतः यानी अपने स्वरूप की भिन्नता से प्रयुक्त ही मान लेंगे तो सुखादिभेद को सन्तानभेद प्रयुक्त मानने की जरूर नहीं रहेगी, वह भी स्वतः ही यानी स्वरूपभेद से ही माना जायेगा। यदि स्वरूपभेद से भेद नहीं मानेंगे तो कहीं भी भेदसिद्धि न हो सकेगी। यह ठीक नहीं है कि अन्य दो वस्तु के भेद से अन्यत्र दो वस्तु का भेद माना जाय, क्योंकि यहाँ ऐसा अतिप्रसंग होगा कि घट-पट के भेद से शकट-लकूट का भेद होने लगेगा। उपरांत, स्वदर्शन में और परदर्शन में भासमान नीलादि भी प्रतिभासभेद से अनायास भिन्न हो जायेंगे तो स्वदृष्ट-परदृष्ट नीलादि में ऐक्यसिद्धि दूर है / [स्व-पर दृष्ट नीलादि में ऐक्य की असिद्धि यदि, अपने को जहाँ नीलादि दिखता है वहाँ ही दूसरे को भी दिखता है इस प्रकार दोनों का देश एक ही होने से स्वदृष्ट परदृष्ट नीलादि में एकत्व सिद्ध किया जाय तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वोक्तरीति से स्वदृष्ट देश और परदृष्ट देश का प्रतिभास भिन्न भिन्न होने से देशभेद ही सिद्ध होता है, तो देश की एकता मानना अयुक्त है / [ अथवा सदृशदर्शन से ही वहाँ देश-ऐक्य की बुद्धि होती है, वास्तव में वहाँ देश-ऐक्य असिद्ध है ] इस से यही फलित होता है कि भिन्न भिन्न व्यक्तिओं का ग्राहक आकार यानी विज्ञान जैसे भिन्न भिन्न होता है वैसे ही ग्राह्य नीलादि भी भिन्न भिन्न ही है और यह नीलादि भी विज्ञानवत् स्वप्रकाश ही है क्योंकि विज्ञान और नीलादि का एक ही काल में उपलम्भ होता है। [नीलाकार में प्राह्यता की अनुपपत्ति ] यदि ग्राहकाकार विज्ञान चित्स्वरूप होने से उसको वेदक माना जाय और नीलाकार की ग्राह्यता जडताप्रयुक्त मानी जाय तो यहाँ प्रश्न है कि विज्ञान चि स्वरूप हैं' इस का क्या मतलब ? 'अपना स्वरूप अपरोक्ष होना यह चित्स्वरूपता' मानेंगे तो नीलादि का भी स्वरूप अपरोक्ष ही है अत: उसकी जडता अयुक्तिक हुयी / यदि नीलादि की अपरोक्षता परावलम्बी विज्ञान पर आधारित) होने से उसे ग्राह्य, केवल ग्राह्य ही माना जाय तो विज्ञान को भी ग्राह्य ही कहना होगा क्योंकि विज्ञान का स्वरूप भी इन्द्रियादि पर ही अवलम्बित होता है / यदि-'जो इन्द्रिय का कार्य हो वह वेद्य (ग्राह्य) Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 सम्मतिप्रकरण नयकाण्ड-१ रूपनिमग्नं चकासत् तृतीयं स्वरूपं भवेत् / तथाहि-तस्य तदुन्मुखत्वं तद्वयापारः, स च व्यापारो यदि नोले व्याप्रियते तदा तत्राप्यपरो व्यापार इत्यनवस्था / अथ न व्याप्रियते, न तबलाद् बोधस्य ग्राहकत्वं नीलादेस्तु ग्राह्यत्वम् / अथ व्यापारस्यापरव्यापारव्यतिरेकेणापि नीलं प्रति व्यापृतिरूपता, तस्य तद्रूपत्वात् / ननु नीलस्यापि स्वं स्वरूपं विद्यते इति बोधं प्रति ग्रहणव्यापृतिः स्यात् / किंच. बोधेन यदि नीलं प्रति ग्रहणकिया जन्यते सा नीलाद् भिन्नाभिन्ना वा? भिन्ना चेव ? न तया तस्य ग्राह्यत्वम् , भिन्नत्वादेव / अथाभिन्ना तहि नीलादेनिरूपता, ज्ञानजन्यत्वावुत्तरज्ञानक्षणवत् / अथ ज्ञानस्यवंभूता शक्तिर्येन तस्य नीलं प्रति ग्राहकता, नीलादेस्तु तं प्रति ग्राह्यता। ननु बोधस्य ग्राहकत्वे नीलादेस्तु ग्राह्यत्वे सिद्ध शक्तिपरिकल्पना युक्ता, शक्तेः कार्यानुमेयत्वात् , नहीं होता' इस व्याप्ति के आधार पर विज्ञान को अवेद्य कहेंगे तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि हम नीलादि को नेत्रादि का ही कार्य मान लेते है, अब तो वह ग्राह्य कैसे होगा? [नित्य-अनित्य भेद से ग्राह्यत्व की उपपत्ति अशक्य ] यदि ऐसा कहा जाय-विज्ञान बोधस्वरूप है और नीलादि प्रकाश्य यानी बोध्यस्वरूप है, बोध. स्वरूपता निरपेक्ष होने से बोध नित्य होता है और नीलादि की बोध्यस्वरूपता बोधाधीन होने से वह नीलादि अनित्य होता है, जो अनित्य है वही ग्राह्य है। तो यह बात ठीक नहीं है, स्तम्भादि पदार्थों का अपरोक्षतास्वरूप नेत्रादि इन्द्रियों से उत्पन्न होता है तो स्तम्भादि को भले ही अनित्य मानो किन्तु इतने मात्र से वह ग्राह्य कैसे हो गया ? 'जो जिस से उत्पन्न होता हो वह उसका ग्राह्य' ऐसा कोई नियम नहीं है / वरना, मिट्टी से उत्पन्न घट मिट्टी का ग्राह्य बन जाने का अतिप्रसंग होगा। इस कारण, अपरोक्षस्वरूपवाले स्तम्भादि को स्वप्रकाश ही मानना ठीक है। बोध, जिस को आप नित्य बता रहे हो वह चाहे नित्य हो या अनित्य, (बौद्धमत में तो अनित्य ही है) किन्तु वह भी उसी काल में भासित होता है जिस काल में स्तम्भादि भासित होते हैं, अत: बोध को वेदक (=ग्राहक) बताना अयुक्त है / कारण, समान काल में भासित होने वाले दो पदार्थों में किस को ग्राहक कहें और किस को ग्राह्य-इस में कोई विनिगमना न होने से यदि ग्राह्य-ग्राहकभाव मानना ही है तो दोनों को अन्योन्य ग्राह्य-ग्राहक मानने की आपत्ति होगी। [ उन्मुखत्वस्वरूप ग्राहकत्व की अनुपपत्ति ] यदि बोध नीलादि-उन्मुख होने से ग्राहक माना जाय तो यहाँ प्रश्न है कि यह नीलादि-उन्मुखता क्या है ? 'नीलादि काल में बोध की सत्ता' यही नीलादि-उन्मुखता हो तब तो 'बोध काल में नीलादिसत्ता' रूप बोधोन्मुखता नीलादि में भी युक्ति युक्त होने से नीलादि भी बोध का ग्राहक बन जायेगा / यदि कुछ अन्यस्वरूप (यानी नीलादिग्रहणव्यापाररूप) ही उन्मुखता मानी जाय तो वह उन्मुखता भी अपने स्वरूप में अवस्थित होकर भासेगी और वह स्वप्रकाश वस्तु का तीसरा स्वरूप हुआ। [एक तो बोधस्वरूप विज्ञान दूसरा बोध्यस्वरूप नीलादि और तीसरा ग्रहणस्वरूप व्यापार] जैसे देखिये, बोध की नीलोन्मुखता यह नीलग्रहणव्यापार स्वरूप होगी, और यह व्यापार यदि नील के प्रति व्याप्रिप्रमाण (यानी सक्रिय होगा) तो व्यापार का भी अन्य व्यापार मानना होगा क्योंकि उसके बिना वह व्याप्रियमाण नहीं हो सकेगा, इस प्रकार नये नये व्यापार को मानने में अनवस्था दोष होगा। यदि वह व्याप्रियमाण न माना जाय (अर्थात् निष्क्रिय माना जाय) तो उसके बल से बोध में ग्राहकता Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 341 तदसिद्धौ तु तत्परिकल्पनमयुक्तम् , इतरेतराश्रयप्रसंगात् / तथाहि-बोधस्य शक्तिविशेषसिद्ध लं प्रति ग्राहकत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्च तच्छक्तिसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / तन्न बोधस्य नीलं प्रति ग्राहकत्वसिद्धिः / तस्माद् व्यतिरिक्तेऽपि बोधेऽभ्युपगते सहोपलम्भनियमात् स्वसंवेदनमेव युक्तम् / ___परमार्थतस्तु सुखादयो नीलादयश्चापरोक्षा इत्येतावदेव भाति, निराकारस्तु बोधः स्वप्नेऽपि नोपलभ्यते इति न तस्य सद्भाव इति कथं तस्यार्थग्राहकत्वम् ? अत एव ते प्रमाणयन्ति-इह खलु यत् प्रतिभाति तदेव सद्व्यवहृतिपथमवतरति, यथा हृदि प्रकाशमानवपुः सुखम् , न तत्काले पीडाऽनुद्भासमाना समस्ति, विज्ञप्तिरेव च नीलादिरूपतया सकलतनुभृतामामातीति स्वभावहेतुः / तदेवमर्थग्राहकत्वस्याप्यसिद्धः, जडस्य प्रकाशविरुद्धत्वाच्च नार्थग्राहकत्वमपि बौद्धदृष्ट्या युक्तम् / और नोलादे में ग्राह्यता का होना नहीं मान सकेंगे। यदि ऐसा कहें कि-'व्यापार अपर व्यापार के बिना ही नील के प्रति (स्वतः) व्याप्रियमाण है क्योंकि वह (स्वतः) व्यापार रूप ही है तो यह ठीक नहीं, क्योंकि अपने स्वरूप मात्र से कोई अन्य के प्रति ग्रहणव्यापार रूप हो सकता है तो फिर नील का भी अपना कुछ स्वरूप है उस स्वरूप से नील भी बोध के प्रति ग्रहणव्यापार रूप मानने की आपत्ति आयेगी / तात्पर्य, नीलादि में ग्राह्यता सिद्ध न हुयी। [बोधजन्य ग्रहणक्रिया नील से भिन्न है या अभिन्न ?] यह भी विचारणीय है कि-विज्ञान से अगर नील के प्रति यानी नीलाभिमुख, ग्रहणक्रिया उत्पन्न होती है तो वह नील से भिन्न है या अभिन्न ? अगर भिन्न है तो उस ग्रहणक्रिया से 'नील' ग्राह्य नहीं बनेगा क्योंकि भिन्न वस्तु का कोई ग्राह्य नहीं हो सकता। अगर ग्रहणक्रिया नीलाभिन्न है तब तो विज्ञानजन्यग्रहणक्रिया से अभिन्न नील भी विज्ञानजन्य हो जाने से अनायास नील में ज्ञानात्मकता सिद्ध हुयी क्योंकि विज्ञानजन्य उत्तरक्षण ज्ञानात्मक ही होती है। यदि विज्ञान में ऐसी शक्ति मानी जाय जिससे विज्ञान में ही नील के प्रति ग्राहकता की और नील में ही विज्ञान से निरूपित ग्राह्यता को उपपत्ति हो सके, तो यह शक्ति की कल्पना तभी ही युक्त हो सकती है जब नील और विज्ञान में क्रमशः ग्राह्यता और ग्राहकता पहले से ही सिद्ध हो, क्योंकि "शक्तयः सर्वभावानां कार्यार्थपत्तिगोचराः" इस पूर्वोक्त न्याय से हर कोई शक्ति उसके परिणाम से ही ज्ञात होती है। जब तक ग्राह्यता-ग्राहकतास्वरूप परिणाम ही असिद्ध है तब तब शक्ति की कल्पना पंगु है, अर्थात् युक्त नहीं है / कारण, इतरेतराश्रय दोष प्रसंग है --जैसे: विज्ञान में ग्राहकता की सिद्धि होने पर तत्प्रयोजक शक्ति की कल्पना की जायेगी और शक्ति की कल्पना करने पर ही नील और विज्ञान में क्रमश: ग्राह्यता-ग्राहकता सिद्ध होगी, इस प्रकार इतरेतराश्रयता स्पष्ट है। निष्कर्ष, विज्ञान में नील के प्रति ग्राहकता की असिद्धि अशक्य है। अतः नील को चाहे विज्ञान से अतिरिक्त माने तो भी दोनों का उपलम्भ-संवेदन समकाल में साथ साथ होने से विज्ञानवत् ही नीलादि भी स्वप्रकाश ही मानना युक्तियुक्त है। वास्तव में तो विज्ञान और नील में भेद भी नहीं है यह अभी दिखाते हैं [बौद्धदृष्टि से विज्ञान में अर्थवाहकता अघटित ] वास्तव में (भेद तो भासित ही नहीं होता किन्तु) 'सुखादि या नीलादि अपरोक्ष है' इतना ही भासित होता है। कहीं भी (नीलादि का अलग प्रतिभास और स्वतन्त्र यानी) निराकार अर्थात नीलादि आकार से असंसृष्ट विज्ञान का प्रतिभास स्वप्न में भी होता नहीं। अतः जब निराकार बोध Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 . अथ बहिर्देशसंबद्धस्य जडस्यापि नीलादेरनुभवान्न नीलादिप्रकाशस्य तद्ग्राहकत्वमसिद्धम् , नाप्यनुभूयमाने स्तम्भादिके जडे प्रकाशविषयत्वविरोधोद्भावनं युक्तिसंगतम् , प्रत्यक्षसिद्धस्वभावे वस्तुनि तद्विरुद्धस्वभावावेदकस्यानुमानस्य प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तकालात्ययापदिष्टत्वदोषदुष्ट. हेतुप्रभवत्वेनानुमानाभासत्वात् / न च प्रत्यक्षसिद्धे स्वभावे विरोध: सिध्यति, अन्यथा ज्ञानस्यापि ज्ञानत्वविरोधप्राप्तिः। नन्वेवं नीलादिसंवेदनस्यापि हदि स्वसंवेदनविषयतयाऽनुभवान्न स्वसंविदितत्वम-. सिद्धम् , नाऽपि स्वात्मनि क्रियाविरोधोद्भावनं युक्तियुक्तम् , अनुभूयमाने विरोधाऽसिद्धः / अस्वसंवेदनज्ञानसाधकत्वेनोपन्यस्यमानस्य च हेतोः प्रत्यक्ष निराकृतपक्षविषयत्वेन न साध्यसाधकत्वमित्यपि समानम्। यानी नीलादि से असंसृष्ट विज्ञान ही असिद्ध है तो (नीलादि उसका स्वरूप ही हुआ अतः) नीलादि अर्थ का वह ग्राहक कैसे होगा ? (अभिन्न वस्तु में ग्राह्य-ग्राहकता नहीं हो सकती / ) बौद्ध दार्शनिक इसी लिये तो प्रमाण निर्देश करते हैं कि-"यहाँ जो कुछ भी भासित होता है वही सत्रूप से व्यवहार योग्य होता है जैसे कि भीतर में भासमान स्वरूपवाला सुख ; उस काल में पीड़ा का भास नहीं होता तो वह सुखानुभव काल में सत् नहीं होती, विज्ञान हो सकल देहधारीयों को नीलादिरूप से भासित होता है ( निराकार रूप से नहीं ), अत: विज्ञान नीलादि रूप से ही यानी नीलाभिन्नरूप से ही व्यवहार योग्य है / " यह अनुमान स्वभावहेतुक है। इस प्रकार एक ओर विज्ञान में अर्थग्राहकता असिद्ध है, दूसरी ओर 'जड वस्तु का प्रकाश' यह परस्परविरुद्ध है-इसलिये बौद्ध विद्वानों की दृष्टि से विज्ञान में अर्थग्राहकता भी अयुक्त अघटित है। [ व्याख्याकार ने पहले जो कहा था कि विज्ञान यदि स्वप्रकाश नहीं मानेंगे तो-'विज्ञान घटादि बाह्यपदार्थ का ग्राहक नहीं है क्योंकि वैसा दृष्ट नहीं है और 'जड का प्रकाश' यह विरुद्ध है'ऐसा कहने वाले बौद्ध का मूह टेढा न हो सकेगा-फिर बौद्ध मत से विज्ञान का अर्थाऽग्राहकत्व कैसे है यह बौद्ध दृष्टि से दिखाना शुरु किया था-तो यहाँ आकर उसका उपसंहार किया है, अब कुछ अपनी ओर से भी कहते हैं। ] . [जड में जडता और संवेदन में स्वसंविदितत्व अनुभव सिद्ध है ] यदि ज्ञानस्वप्रकाशताविरोधी, जड में स्वप्रकाशत्व की आपत्ति के विरुद्ध ऐसा कहें कि-"नीलादि बाह्यदेश के साथ सम्बद्ध है और जड है यह सार्वजनिक अनुभव होने से नीलादि प्रकाश यानी नीलविषयक विज्ञान में नीलादि की ग्राहकता असिद्ध नहीं, अनुभवसिद्ध है / जब नीलादि अथवा स्तम्भादि बाह्यपदार्थ में जडत्व और प्रकाशविषयत्व दोनों अनुभवसिद्ध है तब जडत्व और प्रकाश विषयत्व के विरोध का उद्भावन (यानी अनुमान) युक्तिसंगत नहीं हो सकता। जिस वस्तु का [ नीलादि का ] स्वभाव | जडता और प्रकाश विषयता | प्रत्यक्षसिद्ध हो उस वस्तु में विरुद्ध स्वभावता का आपादन करने वाला अनुमान वास्तव नहीं, अनुमानाभास है। कारण, वहाँ 'साध्य [ विपरीतस्वभावता ] रूप कर्म प्रत्यक्ष बाधित है' ऐसा निर्देश करने के बाद हेतु का प्रयोग किया जाता है, अत: वह हेतु कालात्ययापदिष्ट (बाध) दोष से दुष्ट हो गया, ऐसे दुष्ट हेतु से जो अनुमान उत्पन्न होगा वह अनुमानाभास ही हुआ। जहाँ स्वभाव प्रत्यक्षसिद्ध हो वहाँ विरोध की सिद्धि ही नहीं होती, वरना ज्ञानत्वधर्म ज्ञान में प्रत्यक्षानुभवसिद्ध होने पर भी वहाँ ज्ञानत्व का विरोध प्रसक्त होगा और ज्ञान में जडता की प्रसक्ति होगी।" Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-परलोकवादः 343 किच स्वसंविदितज्ञानानभ्युपगमे 'प्रतीयतेऽयमर्थो बहिर्देशसम्बन्धितया' इत्यत्र प्रतीतेर्व्यवस्थापिकाया अप्रतीतत्वेनाऽव्यवस्थितौ व्यवस्थाप्यार्थस्य न व्यवस्थितिः स्यात, नहि स्वयमव्यवस्थित खरविषाणादि कस्यचिद् व्यवस्थापकमुपलब्धम / अथ प्रतीतेरसंविदितत्वेऽपि एकार्थसमवेतानन्तरप्रतीतिव्यवस्थापितत्वेन नाऽव्यवस्थितत्वं, तहि तदेकार्थसमवेतानन्तरप्रतीतेरप्यपरतथाभूतप्रतीत्यव्यवस्थापितत्वेनार्थव्यवस्थापनप्रतीतिव्यवस्थापकत्वमिति पुनरपि तथाभूताऽपरा प्रतीतिः प्रतीतिव्यवस्थापिकाऽभ्युपगंतव्येत्यनवस्था / अथ प्रतीतिव्यवस्थापिका प्रतीतिः स्वसंविदितत्वेन स्वयमेव व्यवस्थितेति नायं दो स्थापिकाऽपि प्रतीतिस्तथा कि नाभ्युपगम्यते न्यायस्य समानत्वात् ? अथ प्रतीतिरप्रतीताऽपि प्रतीत्यन्तरव्यवस्थापिका, तहि प्रथमप्रतीतिरप्यव्यवस्थिताऽप्यर्थव्यवस्थापिका भविष्यतीति "नाऽग्रहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" [ ] इति वचः कथं न परिप्लवेत ? 'प्रतीतोऽर्थः' इति विशेष्यप्रतिपत्तौ प्रतीतिविशेषणानवगमेऽपि विशेष्यप्रतिपत्त्यभ्युपगमात् / ज्ञानस्वप्रकाशताविरोधी ने जड में प्रकाशत्वापत्ति के विरुद्ध जैसे यह निवेदन किया, उसके समक्ष व्याख्याकार कहते हैं कि ऐसा निवेदन ज्ञान की स्वप्रकाशता में भी शक्य है जैसे-नीलादिसंवेदन का भीतर में स्वसंवेदनविषयत्वरूप से ही प्रत्क्षानुभव होता है, अतः ज्ञान में स्वप्रकाशता असिद्ध नहीं है, जब यह प्रत्यक्ष सिद्ध है तब उसमें 'स्व में क्रिया विरोध' का उद्भावन करना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जो अनुभवसिद्ध होता है वहाँ विरोध असिद्ध है। तथा, ज्ञान स्वप्रकाश नहीं है-इस अनुमान की सिद्धि के लिये आप जो हेतु लगायेंगे वह भी प्रत्यक्षबाधित पक्ष विषयक हो जाने से अपने साध्य को सिद्ध नहीं कर पायेगा यह सब उभय पक्ष में समान है / [ असंविदित प्रतीति से अर्थव्यवस्था अशक्य ] यह भी सोचिये कि-ज्ञान को यदि स्वप्रकाश नहीं मानेंगे तो 'यह अर्थ बाह्यदेश के सम्बन्धोरूप में प्रतीत होता है' ऐसी जो व्यवस्थाकारक प्रतीति है उससे व्यवस्थाप्य अर्थ को व्यवस्था ही नहीं हो सकेगी, क्योंकि आपके मत से व्यवस्थापक प्रतीति (=स्वसंविदित) न होने से स्वयं ही अव्यवस्थित है। [ जो वस्तु स्वयं ही अव्यवस्थित है वह दूसरे की व्यवस्था कैसे करेगी ? ] शससीगादि जो स्वयं ही अस्थित है उससे किसी वस्तु की व्यवस्था होती हो-ऐसा देखा नहीं है / यदि यह कहा जाय- 'प्रतीति स्वयं भले स्वसंविदित न हो किन्तु प्रतीति की एकार्थसमवेत अन्य प्रतीति, अर्थात् उस प्रतीति के आश्रय आत्मा में ही अग्रिमक्षण में जो दूसरी प्रतीति होगी ( जिसको न्यायमत में अनुव्यवसाय कहा जाता है) उसी से प्रथमजात प्रतीति की व्यवस्था हो जाने से प्रतीति में अव्यवस्थितत्व जैसी कोई बात ही नहीं है।"-तो इस कथन में अनवस्था दोष लगेगा, वह इस प्रकारएकार्थसमवेत द्वितीयक्षण वाली प्रतीति की यदि ततीयक्षणवाली अन्य एकार्थसमवेत प्रतीति से व्यवस्था नहीं मानेंगे तो उससे अर्थव्यवस्थाकारक प्रथमजात प्रतीति की व्यवस्था ही नहीं हो सकेगी। अत: द्वितीयक्षण की प्रतीति की व्यवस्था तृतीयक्ष ण की प्रतीति से, उसकी भी चतुर्थक्षण की प्रतीति से....... इस प्रकार कहीं भी अन्त नहीं आयेगा। [प्रतीति गृहीत न होने पर अर्थ व्यवस्था अनुपपन्न ] यदि प्रथमजातप्रतीतिव्यवस्थापक द्वितीय प्रतीति की व्यवस्था स्वतः ही मान लेंगे, अर्थात् द्वितीयप्रतीति को स्वसंविदित मानेंगे, तो यद्यपि अनवस्था दोष तो नहीं होगा किन्तु प्रश्न यह है Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ अपि च, यदि तदेकार्थसमवेतज्ञानान्तरग्राह्य ज्ञानमर्थग्राहकमभ्युपगम्यते तदा पूर्वपूर्वज्ञानोपलम्भनस्वभावानामुत्तरोत्तरज्ञानानामनवरतमुत्पत्तेविषयान्तरसंचारो ज्ञानानां न स्यात् , विषयान्तरसंनिधानेऽपि पूर्वज्ञानलक्षणस्य तदेकार्थसमवेतस्यान्तरंगत्वेनातिसंनिहिततरस्य विषयस्य सद्भावात् / यस्त्वाह-'विषयोपलम्भनिमित्तमात्रप्रतिपत्तौ प्रतीतिविशेषणस्यार्थस्य सिद्धत्वाद् नानवस्था'-तदेतदेव न संगच्छते, स्वसंवेदनज्ञानानभ्युपगमात , एतच्च प्रतिपादितम् / अपि च, प्रमाणसंप्लववादिना नैयायिकेन प्रत्यक्ष-शाब्दज्ञानयोरेकविषयत्वमभ्युपगतम् , तथा चाध्यक्षज्ञानवत शाब्देऽपि तस्यैवाऽन्यूनानतिरिक्तस्य विषयस्याधिगमे न प्रतिपत्तिभेदः, इत्यध्यक्षवच्छाब्दमपि स्पष्टप्रतिभासं स्यात् / अर्थकविषयत्वे सत्यपोन्द्रियसम्बन्धाभावाच्छब्दविषये प्रतिपत्तिभेदः / नन्वक्षैरपि विषयस्वरूपमुद्भासनीयम् , तच्च यदि शाब्देनाऽपि प्रदर्श्यते तथा सतीन्द्रियसम्बन्धाभावेऽपि किमिति न स्पष्टावभासः शाब्दस्य ? न हि विषयभेदमन्तरेण ज्ञानावभासभेदो युक्तः, अन्यथा ज्ञानाकि अर्थव्यवस्थाकारक प्रथमप्रतीति को ही स्वसंविदित मान लेने में क्या दोष है जब कि उसको भी स्वसंविदित मानने में युक्ति तो द्वितीयप्रतीति के समान ही है-अर्थात् अनवस्था दोष का भय तो प्रथम प्रतीति को स्वसंविदित मानने से भी टल जाता है। यदि ऐसा कहा जाय कि प्रतीति का ऐसा ही स्वभाव है कि वह स्वयं अप्रतीत होने पर भी अन्य प्रतीति की व्यवस्था कर सकती है तो इसके विरुद्ध यह भी कहा जा सकता है कि प्रतीति का ऐसा स्वभाव है कि वह स्वयं अव्यवस्थित होने पर भी अर्थव्यवस्था कर सकती है-तो ऐसी कल्पना में भी कौन बाध करेगा? यदि यहाँ इष्टापत्ति उक्त कल्पना को मान लेंगे तब तो 'विशेषण का ग्रहण न करने वाली बद्धि विशेष्य का ग्रह नहीं कर सकती' यह सर्वसम्मत वचन डूब क्यों नहीं जायेगा ! क्योंकि आप 'अर्थ प्रतीत हुआ इस बुद्धि में प्रतीतिरूप विशेषण का तो ग्रहण नहीं मानते और विशेष्यतया अर्थ का ही ग्रहण मान लेते हैं !!! [ज्ञानान्तरवेद्यतापक्ष में विषयान्तरसंचार का असंभव ] ज्ञान को ज्ञानान्तरवेद्य मानने में यह भी एक आपत्ति आती है कि. यदि अर्थग्राहक ज्ञान स्वप्रकाश न होकर एकार्थ यानी स्वाश्रय में समवेत अन्य उत्तरकालीन ज्ञान से ग्राह्य होगा तो ज्ञान विषयान्तरसंचारी न हो सकेगा, क्योंकि एक अर्थग्राहक ज्ञान को ग्रहण करने वाले उत्तरोत्तर ज्ञान की उत्पत्ति रुकेगी ही नहीं तो वहां एक अर्थ का भी पूरा ग्रहण नहीं होगा तो दूसरे-तीसरे अर्थ के ग्रहण की तो बात ही कहाँ ? यह नहीं कह सकते कि-दूसरे-तीसरे विषयों का यदि संनिधान होगा तो उत्तरोत्तरज्ञान से पूर्वपूर्वज्ञान गृहीत न होकर वे विषय ही गृहीत होंगे' क्योंकि बाह्य विषय तो बहिरंग है और पूर्वपूर्वज्ञान तो अन्तरंग होने से अत्यंत संनिहित हैं अत: उत्तरोत्तरज्ञान पूर्वपूर्वज्ञान का ही ग्रहण करता रहेगा तो अन्य विषय ग्रहणक्रम में ही नहीं आयेंगे। पूर्वपक्षीः-जब विषयोपलम्भ स्वरूप ज्ञान का जो निमित्तभूत विषय है तन्मात्र का ग्रहण होगा तो विशेषणात्मक प्रतीतिरूप अर्थ का ग्रहण सिद्ध हो ही जायेगा। अतः अनवस्था नहीं है / उत्तरपक्षी:-अरे ! यही बात तो संगत नहीं होती कि व्यवस्थापक प्रतीति जब तक अप्रतीत है वहां तक अर्थोपलम्भ ही कैसे सिद्ध होगा? प्रतीति को स्वप्रकाश माने तभी तो वह घट सकता है, और आप को ज्ञान का स्वसंवेदन मान्य नहीं है-यह बात कई बार कह चुके हैं। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1. परलोकवाद: 345 वभासभेदाद विषयभेदव्यवस्था न स्यात् / न हि बहिरपि तदवभासभेदसंवेदनव्यतिरेकेणान्यद् भेदव्यव. स्थानिबन्धनमुत्पश्यामः / अन्यच्च, प्रत्यक्षेऽपि साक्षादिन्द्रियसम्बन्धोऽस्तीति न स्वरूपेण ज्ञातुं शक्यःतस्यातीन्द्रियत्वात्-किंतु स्वरूपप्रतिभासात् कार्यात; तच्चाविकलं यदि शाब्देऽपि वस्तुस्वरूपं प्रतिभाति तदा तत एवेन्द्रियसम्बन्धस्तत्रापि कि नाभ्युपगम्यते ? अथ तत्र स्पष्टप्रतिभासाभावान्नासावानुमीयते / ननु तदभावस्तदक्षसंगतिविरहाव , तदभावश्च स्फुटप्रतिभासाभावादिति सोऽयमितरेतराश्रयदोषः / तस्माद् विषयभेदनिबन्धन एव ज्ञानप्रतिभासभेदावसायोऽभ्युपगन्तव्यः, स चैकविषयत्वे शाब्दाऽध्यक्षज्ञानयोन संगच्छते। संदर्भ:-[अब व्याख्याकार 'अपि च' इत्यादि से ज्ञान-ज्ञानान्तरवेद्यवादी नैयायिक की एक मान्यता दिखाकर उसके ऊपर आपत्ति देंगे। नैयायिक जिस रीति से उसका प्रतिकार करेगा उसमें से ही व्याख्याकार ज्ञान की स्त्रप्रकाशता को फलित करेंगे-यह अगले ही फकरे में 'तत्काल: स्पष्टत्वावभासो ज्ञानावभास'.... [ पृ. 346-4 ] इत्यादि से स्फुट हो जायेगा ] [प्रत्यक्षवत् शब्दज्ञान में स्पष्टप्रतिभास की आपत्ति ] दूसरी बात यह है कि-प्रमाणसंप्लववादी नैयायिकों ने प्रत्यक्ष-शाब्दबोध को समानविषयक माना है / तात्पर्य यह है कि एक एक प्रमेय में अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति होती है या किसी एक की ही? इसके उत्तर में न्यायभाष्य में कहा है कि दोनों प्रकार मान्य है। जैसे आत्मा के विषय में आप्तोपदेश भी प्रमाण है, इच्छादिलिंगक अनुमान भी प्रमाण है और योगसमाधिजन्य प्रत्यक्ष प्रमाण भी है / दूसरी ओर योग की स्वर्गकारणतादि में केवल आप्तोपदेश ही प्रमाण है-यहाँ अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति नहीं होती। एक प्रमेय में अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति को संप्लव कहते हैं और किसी एक ही प्रमाण की प्रवृत्ति को व्यवस्था कहते हैं / नैयायिक केवल व्यवस्थावादी नहीं किन्तु प्रमाणसम्प्लववादी है अत: नैयायिक विद्वानों ने सर्वत्र शाब्दबोध में प्रत्यक्ष की समानविषयता मान्य रखी है। अब 'तथा च'....करके व्याख्याकार कहते हैं कि जब प्रत्यक्ष ज्ञान की तरह शाब्दबोध में भी न न्यून-न अधिक ऐसे विषय का बोध मानेंगे तो आपत्ति यह है कि प्रत्यक्ष और शाब्दबोध दोनों ज्ञान में कोई भेद नहीं रहेगा, फलत: शाब्दबोध भी प्रत्यक्ष की तरह स्पष्टावभासरूप हो जायेगा। नैयायिकः-एकविषयत्व दोनों में होने पर भी शब्दजन्यज्ञान के विषय में जो अवभास होगा वह प्रत्यक्षभिन्न ही होगा क्योंकि वहाँ इन्द्रियसंनिकर्ष नहीं है। जैनः-जब इन्द्रियों का यही काम है-विषय का उद्भासन, यह कार्य जब शाब्दबोध से भी सम्पन्न होता है तो इन्द्रिय का सम्बन्ध भले न हो, शाब्दबोध को स्पष्टावभासरूप मानने में क्या बाध है ? विषयभेद के विना कहीं भी स्पष्ट-अस्पष्ट इस प्रकार का अवभा भेद युक्त नहीं है / वरना, ज्ञानावभास के भेद से जो विषयभेद की व्यवस्था यानी अनूमानादि किया जाता है वह नहीं हो सकेगा। उस अवभासभेद के विना बाह्यक्षेत्र के विषयों में भी भेदव्यवस्था करने के लिये कोई भी निमित्त नहीं दिखता है / तात्पर्य, प्रतीतिभेद से ही विषयभेद की व्यवथा सिद्ध होती है। ___ यदि इन्द्रियसंनिकर्ष को भेदक मानेंगे तो प्रत्यक्षस्थल में 'यहां इन्द्रिय का संनिकर्ष है' ऐसा साक्षात् स्वरूप से तो कोई भी नहीं जान सकता क्योंकि इन्द्रियाँ अतीन्द्रिय होने से तत्संनिकर्ष भी अतीन्द्रिय है, अतः प्रत्यक्षस्थल में विषय के स्वरूप का प्रतिभासरूप कार्य ही लिंगविधया इन्द्रियसंनिकर्ष का भान करा सकता है। अब देखिये कि जब शाब्दबोध स्थल में भी प्रत्यक्षवत् ही अविकल Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अशा अथ शाब्दे वस्तुस्वरूपावभासेऽपि न सकलतद्गतविशेषावभास इत्यस्पष्टप्रतिभासं तत् / नन्वेवं प्रत्यक्षावभासिनो विशेषस्यार्थक्रियाक्षमस्य तत्राप्रतिभासनात्तदेव भिन्नविषयत्वं शाब्दा- . sध्यक्षयोः प्रसक्तम् / अथोभयत्रापि व्यक्तिस्वरूपमेकमेव नीलादित्वं प्रतिभाति, विशदाविशदौ चाकारौ ज्ञानात्मभूतौ / नन्वेवमक्षसंबद्धे विषये प्रतिभासमाने तत्कालः स्पष्टत्वावभासो ज्ञानावभास इति प्राप्तम् , विशिष्टसामग्रीजन्यस्य ज्ञानस्य विशदत्वात् , तदवभासव्यतिरेकेण तु अक्षसंबद्धनीलप्रतिभासकालेऽन्यस्य भवदभ्युपगमेन वैशद्यप्रतिभासनिमित्तस्याऽसम्भवात् / अथ च भवत दज्ञानप्रतिभासनिमित्त एव तत्र वैशद्यप्रतिभासव्यवहारस्तथापि न स्वसंविदिततज्ज्ञानसिद्धिः, तदेकार्थसमवेतज्ञानान्तरवेद्यत्वेऽपि तद्व्यवहारस्य सम्भवात् , एककालावभासव्यवहारस्तु लघुवृत्तित्वान्मनसः क्रमानुपलक्षणनिमित्त उत्पलपत्रशतव्यतिभेदवत् / नन्वेवं सत्यगुलिपञ्चकस्यैकज्ञानावभासोऽपि क्रमावभासे सत्यपि तत एव क्रमप्रतिभासानुपलक्षणकृत इति 'सदसद्धर्मः सर्वः कस्यचिदकेज्ञानप्रत्यक्षः प्रमेयत्वात् , पञ्चाङ्गुलीवत्' इति सर्वज्ञसाधकप्रयोगे दृष्टान्तस्य साध्यविकलयानी परिपूर्ण विषयस्वरूप का भास होता है तो वहां भी स्वरूपप्रतिभासरूप काय से इन्द्रियसम्बन्ध का अनुमान क्यों नहीं हो सकेगा? नैयायिकः-वहां स्वरूपप्रतिभास होने पर भी स्पष्टावभास न होने से इन्द्रियसम्बन्ध का अनुमान नहीं हो सकता। ___ जैनः-ऐसे तो अन्योन्याश्रय दोष आयेगा क्योंकि यह प्रतिभास स्पष्टावभासरूप नहीं है यह निश्चय तो इन्द्रियसम्बन्ध का अभाव निश्चित होने पर ही होगा, और इन्द्रियसम्बन्ध का अभाव तब निश्चित होगा जब यह प्रतिभास स्पष्ट है ऐसा निश्चित होगा। अतः दो ज्ञानों में अवभासभेद का निश्चय विषयभेदमूलक ही है यह तो स्वीकारना पड़ेगा। किन्तु इसकी संगति, प्रत्यक्ष और शाब्दज्ञान को समानविषयक मानने पर नैयायिक मत में नहीं बैठ सकती। नैयायिकः-शाब्दबोध में वस्तुस्वरूप का अवभास तो होता है किन्तु वस्तुगत सकल विशेषताओं का अवभास नहीं होता है अतः शाब्दज्ञान स्पष्टप्रतिभासरूप नहीं होता। ___ जैनः तब तो शाब्दज्ञान और प्रत्यक्ष में एकविषयता कहां रही ? भिन्नविषयता की ही सिद्धि हो गयी, क्योंकि अर्थक्रिया में समर्थ ऐसा विशेष, प्रत्यक्ष में भासित होता है किन्तु शाब्दज्ञान में भासित नहीं होता। नैयायिक:-नीलादि व्यक्ति का जो नीलत्वादि स्वरूप है वह तो एकरूप में ही दोनों स्थल में भासित होता है अतः विषयभेद नहीं है। हां, ज्ञान में आकारभेद जरूर है कि प्रत्यक्ष विशदाकार यानी स्पष्टाकार होता है और शाब्दज्ञान अविशदाकार होता है। - जैनः-ऐसे तो ज्ञानावभास सिद्ध ही हो गया, क्योंकि आपके कथनानुसार इन्द्रियसंबद्ध विषय के प्रतिभास काल में ज्ञानगत स्पष्टाकारता भी भासित होती है और स्पष्टाकारता का प्रतिभास ही तो ज्ञानावभासरूप है / यदि ज्ञान भासित नहीं होगा तो विषय को देखकर 'स्पष्टाकार प्रत्यक्ष ज्ञान मुझे हो रहा है' यह कैसे कहा जा सकेगा? जो ज्ञान इन्द्रियसंनिकर्षादि विशिष्ट सामग्री से जन्य वही विशदाकार होता है, अत: ज्ञानावभास के विना इन्द्रियसंबद्ध नीलादि के प्रतिभासकाल में आपकी मान्यता के अनुसार अन्य तो कोई विशदाकारताप्रतिभास का निमित्त सम्भव नहीं। हि Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 347 ताप्रसक्तिः / तथा, समस्तसदसद्धर्मग्राहकेण सर्वविज्ज्ञानेन ज्ञानात्मा गात उत नेति ? यदि न गृह्यते तदा तस्य प्रमेयत्वे सति तेनैव प्रमेयत्वलक्षणो हेतुर्व्यभिचारी अप्रमेयत्वे तस्य भागाऽसिद्धो हेतुः / अथ सर्वज्ञज्ञानेन सर्वपदार्थग्राहिणाऽऽत्मापि गृह्यत इति नानकान्तिकः / नन्वेवं सति यथेश्वरज्ञानं ज्ञानत्वेऽप्यात्मानं स्वयं गृह्णाति. न च तत्र स्वात्मनि क्रियाविरोधः तथाऽस्मदादिज्ञानमप्येवं भविष्यतीति न कश्चिद विरोधः। किच एवमभ्यपगमे 'ज्ञानं ज्ञानान्तरग्राहाम . प्रमेयत्वात, घटवत' इत्यत्र प्रयोगे ईश्वरज्ञानस्य प्रमेयत्वे सत्यपि ज्ञानान्तरग्राह्यत्वाभावात् तेनैवानकान्तिकः 'प्रमेयत्वात्' इति हेतुः / तस्मात् ज्ञानस्य ज्ञानान्तरग्राह्यत्वेऽनेकदोषसम्भवात् स्वसंविदितं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् / [वैशद्य प्रतिभासव्यवहार ज्ञानक्रमानुपलक्षणनिमित्त नहीं ] नैयायिक:-मान लो कि वहाँ विशदाकार प्रतिभास का व्यवहार विशदज्ञान प्रतिभास के निमित्त से ही होता है, किन्तु इतने मात्र से स्वय ज्ञान सिद्ध नहीं होता। कारण, नीलादिविषयक विशदज्ञान को हम उत्तरक्षणवर्ती अन्य एकार्थसमवेत ज्ञान (अनुव्यवसाय) का ग्राह्य मानते हैं, तो इस दूसरे ज्ञान से प्रथम ज्ञान गृहीत होने के कारण तन्मूलक विशदाकारव्यवहार भी सिद्ध हो जायेगा / यदि कहें कि-'नीलादि विषय और तद्विषक ज्ञान, दोनों का अवभास एक ही काल में होने का व्यवहार देखा जाता है तो इसका क्या कारण ?'-तो उत्तर यह है कि वस्तुतः दोनों का अवभास क्रमिक होने पर भी मन की चपलवृत्ति के कारण दूसरा ज्ञान शीघ्र ही पैदा हो जाने से कालक्रम वहां लक्षित नहीं हो सकता, जैसे कि सैंकड़ों कमलपत्रों की थप्पी लगा कर किसी नौकदार हथियार से उसका छेद किया जाय तो वहाँ हर एक पत्र का क्रमश: छेदन होते हये भी सभी पत्रों का छेदन एक साथ ही हो जाने का व्यवहार होता है, बोलनेवाला बोलता भी है कि 'मैंने एक ही प्रहार से एक साथ सभी को काट डाला। जैनः-यदि ऐसा मानेंगे तो पांचों अंगुली का भी एक साथ एक ज्ञान में प्रतिभास आप नहीं मान सकेंगे, क्योंकि वहां भी कह सकते हैं कि वास्तव में वहां पांचों अंगुली का क्रमिक अवभास होने परं भी शीघ्रोत्पत्ति के कारण ही क्रमिक प्रतिभास उपलक्षित नहीं होता इसीलिये एक ज्ञान का अवभास होता है / फलतः, आपने जो सर्वज्ञ की सिद्धि के लिये अनुमान प्रयोग किया है - 'सदसत् धर्म वाले सभी पदार्थ किसी व्यक्ति के एक ही प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय हैं, क्योंकि प्रमेय हैं, जैसे कि (उदा०-) 'पांचों अंगुली' / तो इस अनुमान में दृष्टान्तभूत पांच अंगुली में एकप्रत्यक्षज्ञानविषयता उपरोक्त रीति से होने के कारण साध्य वैकल्यदोष का अनिष्ट प्राप्त होगा। [सर्वज्ञज्ञान में प्रमेयत्व हेतु व्यभिचारी होने की आपत्ति] ____ यह भी दिखाईये कि सकल सदसत् धर्मों के ग्राहक सर्वज्ञज्ञान से ज्ञान का स्वरूप गृहीत होता है या नहीं ? अगर गृहीत नहीं होता है तब तो एकज्ञान प्रत्यक्षतारूप साध्य का विपक्ष हो गया सर्वज्ञज्ञान और उसमें प्रमेयत्व हेतु रहता है तो हेतु व्यभिचारी बन जायेगा। यदि वहां प्रमेयत्व हेतु की वृत्तिता ही नहीं मानगे तो सदसत् धर्म वाले सभी पदार्थ रूप पक्ष का एक भाग जो सर्वज्ञज्ञान, उसमें हेतु की असिद्धि होने से भागासिद्धि दोष लगेगा। नयायिक:-सवज्ञ का ज्ञान तो सकलपदार्थग्राहक है अत: उससे अपना ज्ञानस्वरूप भी गृहीत Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ज्ञानस्वरूपश्चात्मा, अन्यथा भिन्नज्ञानसद्भावादाकाशस्येव तस्य ज्ञातृत्वं न स्यात् / म चाकाशव्यतिरेकेण ज्ञानमात्मन्येव समवेतमिति तस्यैव ज्ञातृत्वं नाकाशादेरिति वक्तु युक्तम् , समवायस्य निषेत्स्यमानत्वात् / ज्ञानस्य च स्वसंविदितत्वे सिद्धे आत्मनोऽपि तदव्यतिरिक्तस्य तदसिद्धमिति कथं न स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वमात्मनः ? तन्न प्रथमपक्षस्य दुष्टत्वम्। द्वितीयपक्षेऽपि यदुक्तम्-'नहि कश्चित् पदार्थः' कर्तृरूपः करणरूपो वा स्वात्मनि कर्मणीव सव्यापारो दृष्टः' इति तदप्यसंगतम् , भिन्नव्यापारव्यतिरेकेणाऽपि आत्मनः कर्तुः, प्रमारणस्य च ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वप्रतिपादनात् / एकस्यैव च लिंगादिकरणमपेक्ष्यावस्थाभेदेन यथा प्रमातृत्वं प्रमेयत्वं च भवद्भिरविरुद्धत्वेनाभ्युपगम्यते तथैकदाऽप्येकस्यात्मनोऽनेकधर्मसद्भावात् प्रमातृत्व-प्रमाणत्व-प्रमेयत्वाहोता ही है, अर्थात् सर्वज्ञज्ञान में सकलपदार्थग्राहकता अखंडित-अबाधित होने से प्रमेयत्व हेतु वहां रहे तो व्यभिचार दोष निरवकाश ही है। जैनः-इस स्थिति में तो हम भी कहेंगे कि जैसे ईश्वरज्ञान ज्ञानात्मक होने पर भी अपने आपको स्वयं जान लेता है और यहां कोई 'स्वात्मा में क्रियाविरोध' जैसा दोष नहीं है, ठीक उसी प्रकार हमारा-आपका ज्ञान भी स्वप्रकाश माना जाय तो कोई विरोध नहीं है। तदुपराँत, एक ओर आप ईश्वरज्ञान को स्वप्रकाश मानते हैं और दूसरी ओर आपने जो यह अनुमान प्रयोग किया है"ज्ञान ज्ञानान्तरवेद्य है, क्योंकि प्रमेय है जैसे घट"-इस प्रयोग में ज्ञानान्तरग्राह्यत्वरूपसाध्य से शून्य ईश्वरज्ञान में भी हेतु प्रमेयत्व रहता है तो प्रमेयत्व हेतु अनैकान्तिकदोषग्रस्त हुआ। निष्कर्ष यह फलित होता है कि ज्ञान को ज्ञानान्तरवेद्य मानने के पक्ष में अनेक दोषों का सम्भव होने से ज्ञान को स्वप्रकाश स्वसंविदित ही मान लेना चाहिये। . [ ज्ञानाभिन्न आत्मा भी स्वसंवेदनसिद्ध है ] 'आत्मा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्ध है' इसकी सिद्धि के लिये ही व्याख्याकार ने यह सब उपक्रम किया था उसके उपसंहार में कहते हैं कि एक ओर इस प्रकार ज्ञान स्वप्रकाश सिद्ध हुआ। दूसरे, आत्मा भी ज्ञान स्वरूप ही है, ज्ञान उससे भिन्न नहीं है, यदि उसको आत्मा से भिन्न मानेंगे तो ज्ञान के निमित्त से आकाश में जैसे ज्ञातृत्व सिद्ध नहीं है वैसे आत्मा में भी ज्ञातृत्व सिद्ध नहीं होगा। यदि कहें कि - 'ज्ञान आकाश में नहीं किन्तु आत्मा में ही समवाय सम्बन्ध से वृत्ति है अत: आत्मा में ही ज्ञातृत्व रह सकेगा, आकाश में नहीं'-तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि अग्रिम ग्रन्थ में समवाय का खण्डन किया जायेगा। जब पूर्वोक्त रीति से ज्ञान स्वसंविदित सिद्ध है तो ज्ञानाभिन्न आत्मा भी स्वसंविदित सिद्ध हो गया तो अब आत्मा को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष सिद्ध क्यों न कहा जाय ? तात्पर्य-पूर्वपक्षी ने जो 'आत्म-प्रकाशन अपरसाधन है' [द्र०१० 321] इसके ऊपर दो विकल्प किया था-अपरसाधन यानी क्या चित्स्वरूप की सत्ता मानते हो या अपनी प्रतीति में व्यापार रूप मानते हो? इन दो में से प्रथमपक्ष को जो अयुक्त दिखाया था वह अयुक्त दिखाना ही अयुक्त ठहरने से प्रथमपक्ष अब तो अदुष्ट यानी युक्तियुक्त सिद्ध होता है / [विना व्यापार ही ज्ञान-आत्मा स्वसंविदित हैं ] 'अपरसाधन' शब्दार्थ के ऊपर जो दूसरा विकल्प यह किया था कि 'अपनी प्रतीति में व्यापार का होना'-इस दूसरे पक्ष की आलोचना में जो यह कहा था कि-'कर्त्तारूप या कारणरूप कोई भी पदार्थ कर्म में जैसे सव्यापार दिखता है वैसे स्वात्मा में सव्यापार नहीं देखा है' [पृ०३२२-५]-वह भी Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-परलोकवादः न्यविरुद्धानि कि नाभ्युपगम्यन्ते तत्तदुर्मयोगात् तत्तत्स्वभावत्वस्य प्रमाणनिश्चितत्वेनाऽविरोधात् ! ! यच्चोक्तं-प्रमाणाऽविषयत्वेऽपरोक्षतेत्यस्य भाषितस्य कोऽर्थः-इत्यादि, तदप्यसारम् , ज्ञातृतया प्रमाणत्वेन च स्वरूपावभासनस्य प्रतिपादितत्वात / न च घटादेः स्वरूपस्य भिन्नज्ञानग्राह्यत्वात प्रमातुः प्रमाणस्य च स्वरूपं भिन्नज्ञानग्राह्य, तयोश्चिद्रपत्वेन घटादेस्तु तद्विपर्ययेण स्वरूपस्य सिद्धत्वात् / न च प्रमाण-प्रमातस्वरूपग्राहकस्य प्रत्यक्षस्य तल्लक्षणेनाऽसंग्रहः, तत्संग्राहकस्य लक्षणस्य प्रदाशत त्वात् / यदपि-'घटमहं चक्षुषा पश्यामि' इत्यनेनातिप्रसंगापादनं कृतम्-तदप्यसंगतम्, नहि चक्षुषा जडरूपस्याऽसंविदितत्वे प्रमातृ-प्रमित्योरपि चिद्रपयोरस्वसंविदितत्वं युक्तम् , अन्यस्वभावत्वानुपपत्तः। यत्तूक्तम् . 'इन्द्रियव्यापारे सति शरीराद व्यवच्छिन्नस्य विषयस्यैव केवलस्यावभासनम्' इति, तदत्यन्तमसंगतम् , विषयस्येव तदवभाससंवेदनस्यापि व्यवस्थापितत्वात् तदभावे विषयावभास एव न स्यादित्यस्य च / अतः प्रमात्रावभास उपपन्न एव / असंगत है क्योंकि अपने से भिन्न व्यापार के अभाव में भी कर्तारूप आत्मा और प्रमाणरूप ज्ञान स्वयः सविदित होने का प्रतिपादन इस तरह कर दिया है कि ज्ञान यदि स्वसंविदित नहीं मानेंगे तो अथ की व्यवस्था नहीं होगी, और ज्ञान से आत्मा भिन्न न होने से वह भी स्वसंविदित सिद्ध होता है / तथा आत्मा को प्रत्यक्ष न मान कर अनमेय मानने पर आत्मप्रतीति में, स्वात्मा में क्रिया विरोध को हठाने के लिये आपने जैसे यह माना है कि लिंगादि करण की अपेक्षा से अवस्थाभेद से एक ही व्यक्ति में प्रमातृत्व और प्रमेयत्व अविरुद्ध है-वैसे ही एककाल में भी आत्मा में अनेक धर्मा का अस्तित्व होने से भिन्न भिन्न धर्म की अपेक्षा से प्रमातत्व-प्रमाणत्व और प्रमेयत्व अविरुद्ध होने का क्यों नहीं मानते हैं ? वस्तु में भिन्न भिन्न धर्म के योग से भिन्न भिन्न प्रकार का स्वभाव होना यह तो प्रमाण से सुनिश्चित है तो इसमें विरोध क्या ? [ आत्मा की अपरोक्षता-कथन का तात्पर्य ] ___ और भी जो आपने पूछा है आत्मा प्रमाण का विषय न होने पर भी अपरोक्ष है. इस कथन का क्या अर्थ है ?-यह भी सारहीन प्रश्न है, क्योंकि आत्मा ज्ञाता होने से प्रमाणत्वरूप से अपने स्वरूप का ही अवभास होना यह अपरोक्षता होने का वहाँ ही कहा है। उसके ऊपर जो घटादि में समानता दिखायी है वह ठीक नहीं है क्योंकि घटादि का स्वरूप घटादि से भिन्न ज्ञान से ग्राह्य है, प्रमाता और प्रमाण का स्वरूप स्वभिन्नज्ञान से ग्राह्य नहीं है / कारण, प्रमाण और प्रमाता का स्वरूप चैतन्यमय है जब कि घटादि का स्वरूप उससे विपरीत, जडात्मक होने का सिद्ध है / तथा, प्रमाण और प्रमाता का स्वरूपग्राहक प्रत्यक्ष, प्रत्यक्ष के लक्षण से संगृहीत नहीं हो सकता ऐसा भी नहीं है क्योंकि हमारा जो 'इन्द्रिय-अनिन्द्रियजन्य विशद ज्ञान प्रत्यक्ष है' यह लक्षण है उससे उसका संग्रह हो जाने का बता दिया गया है / [ पृ० 328 ] [ नेत्रेन्द्रियप्रत्यक्षापत्ति का प्रतिकार ] यह जो अतिप्रसंग आपने दिखाया था-'मैं घट को नेत्र से देखता हूँ' इस प्रतीति से नेत्रेन्द्रिय का भी प्रत्यक्ष सिद्ध होगा-यह भी नहीं है क्योंकि नेत्रेन्द्रिय जडरूप होने से अस्वसंविदित होने पर Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नच 'कृशोऽहं' 'स्थूलोऽहं' इति शरीरसामानाधिकरण्येनाऽस्य प्रत्ययस्योपपत्तेस्तदालम्बनता, चक्षुरादिकरणव्यापाराभावे शरीरस्याऽग्रहणेऽपि 'अहम्' इति प्रत्ययस्य सुखादिसमानाधिकरणत्वेन परिस्फुटप्रतिभासविषयत्वेनोत्पत्तिदर्शनाद, न शरीरालम्बनत्वमस्य व्यवस्थापयितु युक्तम् / न च 'कृशोऽहँ' इति प्रत्ययस्य भ्रान्तत्वे 'ज्ञानवानहम्' इति ज्ञानसामानाधिकरण्येनोपजायमानस्यापि प्रत्ययस्य भ्रान्तत्वं यूक्तम्, अन्यथा 'अग्निर्माणवकः' इति माणवकेऽग्निप्रत्ययस्योपचरितविषयस्य भ्रान्तत्वेऽग्नावपि तत्प्रत्ययस्योपचरितत्वेन भ्रान्तत्वं स्यात् / अथ तत्र पाटव-पिंगलत्वादिलक्षणस्योपचारनिमित्तस्य सद्भावाद् भवति तत्रोपचरितः प्रत्ययः, न चात्रोपचारनिबन्धनं किंचिदस्ति / तदप्यसंगतम् , संसार्यात्मनः शरीराद्यपकृतत्वेन तदनुबद्धस्योपभोगाश्रयत्वेनोपभोगकर्तृत्वस्यात्राप्युपचारनिमित्तस्य सद्भावात् / दृष्टश्च शरीरादिव्यतिरिक्तेऽप्यत्यन्तोपकारके स्वभृत्यादावुपचरितस्तन्निमित्त: 'योऽयं भृत्यः सोऽहम्' इति प्रत्ययः। चित्स्वरूप प्रमाता और प्रमाण को भी अस्वसंविदित मानना गलत है, क्योंकि जो चित्स्वरूप है उसमें स्वसंविदितत्व से अन्य और जो जड है उसमें परसंविदितत्व से अन्य स्वभाव घटित नहीं है। यह भी जो कहा था-इन्द्रिय जब सक्रिय बनती है तब देह से भिन्न केवल घटादि विषय का ही अवभास होता है [ पृ० 324 ]-यह तो कतई ठीक नहीं, क्योंकि जैसे देहभिन्न विषय का अवभास होता है वैसे देह भिन्न प्रमाण-ज्ञान और आत्मा का भी अवभास पूर्व में सिद्ध कर दिया है और यह भी बताया है कि प्रमाण के अवभास के विना अर्थ की व्यवस्था यानी विषयावभास भी उपपन्न नहीं हो सकता। निष्कर्षः-प्रमाता का अवभास युक्तिसंगत है। ['कृशोऽहं' इत्यादि शरीरसमानाधिकरण प्रतीति भ्रान्त है ] पूर्वपक्षी:-'अहम्' इत्याकारक प्रत्यक्ष प्रतीति का विषय शरीर है, क्योंकि 'मैं स्थूल हूँ' 'मैं पतला हूँ' इन प्रतीतियों में देहस्थूलता और देहकृशता के साथ अहंत्व का सामानाधिकरण्य स्पष्ट भासित हो रहा है। उत्तरपक्षी:-यह ठीक नहीं, क्योंकि नेत्रादि इन्द्रिय निष्क्रिय होने पर. देहज्ञान नहीं होता है तब भी 'मैं सुखी हैं इत्यादि रूप से सखादि के साथ समानाधिकरणरूप से 'अहं' इत्याकारक प्रती की उत्पत्ति देखी जाती है, जिसमें देह-भिन्नात्मविषयता स्पष्ट रूप से उपलक्षित होती है / अतः अहं' बुद्धि को देहविषयक प्रस्थापित करना युक्त नहीं है। इससे यह भी सिद्ध है कि 'अहं स्थूल:' यह प्रतीति भ्रान्त है। किन्तु उसके समान ज्ञानसमानाधिकरणतया उत्पन्न होने वाली 'मैं ज्ञानवान् हूँ' इस प्रतीति को भी भ्रान्त मानना कतई उचित नहीं है। अन्यथा दूसरे स्थल में 'माणवक अग्नि है' इस प्रकार माणवक में उपचरित विषय वाली अग्नि की प्रतीति भ्रान्त है. तो शुद्ध अग्नि की प्रतीति में भी औपचारिकता का आपादन करके भ्रमत्व की आपत्ति दी जा सकेगी। [ देह में अहमाकार बुद्धि औपचारिक है ] पूर्वपक्षी:-अग्नि में जो पटुता (अग्रता) और पिंगलवर्णादि हैं तत्स्वरूप उपचार के निमित्तों का अस्तित्व माणवक में भी होने से उसमें अग्नि की उपचरित बुद्धि भ्रान्त हो सकती है। सत्य अग्नि में अग्नि की बुद्धि और देह में अहमाकार बुद्धि भ्रान्त नहीं हो सकती, क्योंकि वहाँ कोई उपचार का मूलभूत निमित्त नहीं है / Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 351 न च सुखादिसामानाधिकरण्येनोपजायमानस्यवाहप्रत्ययस्योपचरितविषयतेति वक्तु शक्यम् , अग्नावग्निप्रत्ययवदबाधितत्वेनास्खलद्रूपत्वेन चाऽस्याऽत्र मुख्यत्वात् , गौरत्वादेस्तु पुद्गलधर्मत्वेन बाह्य न्द्रियग्राह्यतयान्तर्मुखाकाराऽनिन्द्रियाहंप्रत्ययविषयत्वाऽसम्भवात् / न च गौरत्वादिरूपाश्रयभूतस्य प्रतिक्षणविशरारत्वेनाभ्युपगमविषयस्य शरीरस्य य एवाऽहं प्राग मित्रं दृष्टवान् स एवाहं वर्षपंचकादिव्यवधानेन स्पृशामि' इति स्थिरालम्बनत्वेनानुभूयमानप्रत्ययविषयत्वं युक्तम् , अन्यथा रूपविषयत्वेनानुभूयमानस्य तस्य रसाद्यालम्बनत्वं स्यात् / न च सुखादिविवत्मिकात्मालम्बनत्वे किंचिद् बाधकमुत्पश्यामः येन तद्विषयत्वेनास्य भ्रान्तत्वं स्यात् / नापि तत्र तस्य स्खलद्रूपता येन वाहीके गोप्रत्ययस्येवोपचरितत्वकल्पना युक्तिमती स्यात् / तस्मादबाधिताऽस्खलद्रूपाऽहंप्रत्ययग्राह्यत्वादात्मनो नाऽसिद्धिः। शेषस्तु पूर्वपक्षो निःसारतया न प्रतिसमाधानमहतीत्युपेक्षितः / उत्तरपक्षी:-आपकी बात में कोई संगति नहीं है। देह में भी अहमाकार बद्धि उपचार से ही होती है। कारण संसारी आत्मा को भोगादि के सम्पादन में देह अत्यधिक उपकारी है, अतः आत्मा के साथ क्षीरनीरवत् संबद्ध एवं भोगाश्रय (यानी भोग का अवच्छेदक विधया अधिकरण) देह में भोगकतृत्व के उपचार का निमित्त आत्मोपकारकत्व विद्यमान है। जो देह से भी दूरस्थ नौकरादि अपने अत्यंत उपकारक होते हैं उसमें भी स्वोपकारकत्व निमित्त से 'जो यह नौकर है वही मैं हूँ' इस प्रकार की उपचरित बुद्धि देखी जाती है तो निकटवर्ती अत्यन्तोपकारक देह में औपचारिक आत्म बुद्धि का होना युक्तियुक्त ही है / [सुखादिसमानाधिकरणक अहं प्रतीति उपचरित क्यों नहीं ? ] पूर्वपक्षीः-स्थूलतादिसमानाधिकरणतया होने वाली अहं प्रतीति को भ्रम मानने के बदले सुखसमानाधिकरणतया होने वाली अहं-प्रतीति को ही भ्रम मान कर उसमें ही उपचरितविषयता क्यों न माने? उत्तरपक्षी:-उसको भ्रम नहीं मान सकते क्योंकि अग्नि में होने वाली अग्नि की प्रतीति जैसे अबाधित और अस्खलद्रूप होती है वैसे सुखसमानाधिकरणतया होने वाली अहं प्रतीति भी अबाधित और अस्खलद्रूपं होने से वह मुख्यरूप ही है। उपचरित नहीं है / अबाधित इसलिये कि सुखादि की प्रतीति के बाद मैं सुखवाला नहीं हूं' ऐसी कोई बाधक प्रतीति नहीं होती / अस्खलद्रूप इसलिये कि सुखादि की प्रतीति और अहंप्रतीति में सामानाधिकरण्य होने में कोई अयोग्यता या बाध नहीं है, अर्थात् देह भिन्न आत्मा में सुखादि का सद्भाव सुघटित है, जब कि गौरवर्णादि तो पुद्गल ( पृथ्वी आदि ) का धर्म हैं, बाह्य न्द्रिय से ग्राह्य हैं, अत: वह गौरवर्णादि अन्तर्मुख एवं इन्द्रियाजन्य अहमाकार प्रतीति का विषय नहीं हो सकता। [अस्थिर देह स्थैर्यबुद्धि का विषय नहीं ] दूसरी बात यह है कि गौरवर्णादि रूप का आश्रय देह तो प्रतिक्षण नाशवंत होने का आप मानते हैं, तो अस्थिर देह स्थिरवस्तु के अवगाहकरूप में अनुभवारूढ निम्नोक्त बुद्धि का विषय बने यह अयुक्त है, वह बुद्धि इस प्रकार है-'मैंने ही पहले मित्र को देखा था और वही मैं आज पाँचवर्ष के बाद उसका स्पर्श करता हूं' / यदि फिर भी देह को ही आप इस बुद्धि का विषय मानेंगे तब जिस बुद्धि में रूपविषयता का अनुभव करते हैं उस बुद्धि को रसविषयक माना जा सकेगा। अहंप्रतीति का विषय Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न चात्र बौद्धमतानुसारिणैतद् वक्तु युज्यते - 'अहंप्रत्ययस्य सविकल्पकत्वेनाऽप्रत्यक्षत्वेन न तद्ग्राह्यत्वमात्मन' इति;-सविकल्पकस्यैव प्रत्यक्षस्य प्रमाणत्वेन व्यवस्थापयिष्यमाणत्वात् / प्रत्यक्षविषयत्वेऽपि विप्रतिपत्तिसम्भवेऽनुमानस्यावतारः। न च 'सिद्धे प्रात्मन एकत्वे तत्प्रतिबद्धोऽनुसंधानप्रत्ययः सिध्यति, तत्सिद्धौ च ततस्तस्यैकत्वम्' इतीतरेतराश्रयदोषावतारः, 'य एवाहं घटमद्राक्षं स एवेदानों तं स्पृशामि' इतिप्रत्ययात् प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षस्वरूपादात्मनः एकत्वसिद्धेः / ___न चात्रैतत् प्रेर्यम्-"दृष्टरूपमात्मनः स्प्रष्टरूपानुप्रवेशेन प्रतिभासते आहोस्विदननुप्रवेशेन ? यद्यनुप्रवेशेन तदा दृष्टरूपस्य स्प्रष्टरूपेऽनुप्रवेशात स्प्रष्टरूपतैवेति न दृष्टरूपता, तथा च 'अहं दृष्टा स्पृशामि' इति कुतः उभयावभासोल्लेख्येक प्रत्यभिज्ञानं यतस्तदेकत्वसिद्धिः ? अथाननुप्रवेशेन तदा दर्शनस्पर्शनावभासयोर्भेदात कुत एक प्रत्यभिज्ञानम् ? नहि प्रतिभासभेदे सत्यप्येकत्वम् , अन्यथा घटपटप्रतिभासयोरपि तत् स्यात् / अथ प्रतिभासस्यैवात्र भेदो न पुनस्तद्विषयस्यात्मनः / कुतः पुनस्तस्याभेदः ? न तावत् प्रतिभासाऽभेदात् तस्य भिन्नत्वेन व्यवस्थापितत्वात् / नापि स्वत:, स्वतोऽद्यापि विवादविषयत्वात् / अथ दर्शन-स्पर्शनावस्थाभेदेऽपि चिद्रूपस्य तदवस्थातुरभिन्नत्वान्नायं दोषः, तदप्य सुखादिपरिणामभिन्न आत्मा को माने तो कोई बाधक भी उपलब्ध नहीं है जिससे कि बाधज्ञानविषयभूत हो जाने से उस प्रतीति को भ्रम कहा जा सके। वह प्रतीति स्खलद्रूप भी नहीं है, जैसे गोवाहक में गोबुद्धि होने पर गोवाहक में गोत्व का योग स्खलित होने से यह बुद्धि स्खलद्रूप वाली होती है, ऐसा 'अहं सुखी' इस बुद्धि में नहीं है, अत: गोवाहक में गोबुद्धि उपचरितविषयक होने पर भी / 'अहंप्रतीति' को उपचरितविषयक नहीं कह सकते / इस रीति से अबाधित एवं अस्खलद्रूपवाली अहंप्रतीति का ग्राह्य आत्मा ही सिद्ध होता है, अत: आत्मा की असिद्धि नहीं है / , . पूर्वपक्षी की अवशिष्ट बातें निःसार होने से प्रतिकार योग्य नहीं है, अतः उपेक्षणीय ही हैं / [बौद्धमत से प्रत्यभिज्ञा में आपादित दोषों का प्रतिकार ] [बौद्धमत में केवल निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही प्रमाणभूत है, उसका विषय न होने से आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है अतः बौद्धवादी अब उपस्थित हो रहा है] यहां बौद्धमतानुयायीओं का यह कहना युक्त नहीं है कि "आत्मा की अहमाकार प्रतीति तो सविकल्पज्ञानरूप है और वह तो अप्रमाण है यानी प्रत्यक्षप्रमाणरूप नहीं है अतः प्रत्यक्ष के ग्राह्यरूप में आत्मसिद्धि नहीं हो सकती"-ऐसा न कह सकने का हेतु यह है कि अग्रिम व्याख्या ग्रन्थ में 'सविकल्प ही प्रत्यक्ष का प्रमाणभूत है' इस पक्ष की स्थापना की जाने वाली है / यद्यपि सविकल्पज्ञान प्रत्यक्षरूप यानी स्वयंसंविदित ही है, यह भी प्रत्यक्ष का ही विषय है फिर भी उसके विषय में विवाद सम्भव होने से वहां अनुमान का अवतार भी सावकाश है। स्थिर आत्मसिद्धि के विषय में जो प्रत्यभिज्ञा प्रमाणरूप से दिखायी गयी है उसके ऊपर बौद्ध जो यह अन्योन्याश्रय दोष का आरोपण करते हैं कि-'पूर्वप्रतीति का विषय और वर्तमान प्रतीति का विषय एक आत्मा सिद्ध हो तभी अनुसन्ध यानी प्रत्यभिज्ञा को एकत्वप्रतिबद्ध माना जा सकता है, और प्रत्यभिज्ञा में एकत्वविषयकता सिद्ध हाने पर प्रतीतिद्वय के विषयरूप में एक आत्मा की सिद्धि होगी'- यह दोष मिथ्या है क्योंकि 'जो मैंने पहले घट को देखा था वही मैं अब उसको छू रहा हूं' इस प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षरूप बुद्धि में 'वही मैं ऐसे उल्लेख से पूर्वोत्तरप्रतीति का विषयभूत एक ही आत्मा सिद्ध होता है / Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 353 संगतम् , यतो दर्शनावस्थाप्रतिभासेन तत्सम्बद्धमेवावस्थातृरूपं गृहीतं न स्पर्शनज्ञानसम्बन्धि, तत्र तदवस्थाया अनुत्पन्नत्वेनाऽप्रतिभासनात , तदप्रतिभासने च तदव्यापित्वेनावस्थातुरप्यप्रतिभासनात् / नापि स्पर्शनप्रतिभासेन दर्शनावस्थाव्याप्तिरवस्थातुरवगम्यते, स्पर्शनज्ञाने दर्शनस्य विनष्टत्वेनाऽप्रतिभासनात् , प्रतिभासने चाऽनाद्यवस्थापरम्पराप्रतिभासप्रसंगः / न च प्रागवस्थाऽप्रतिभासने तदवस्थाव्याप्तिरवस्थातुरवगन्तुं शक्या / यच्च येन रूपेण प्रतिभाति तत्तेनैव सदित्यभ्युपगन्तव्यम् , यथा नाल नीलरूपतया प्रतिभासमानं तेनैव रूपेणाभ्यपगम्यते / दर्शन-स्पर्शनजानाभ्यां च स्वसंबन्धित्वेमेवावस्थ गुह्यते इति तद्रूप एवासावभ्युपगन्तव्य इति कुतोऽवस्थातृसिद्धिः ?" [ दर्शन-स्पर्शानावभास भेद से प्रत्यभिज्ञाएकत्व पर आक्षेप ] इस संदर्भ में बौद्धों की ओर से ऐसा प्रतिपक्ष नहीं किया जा सकता [ अब यहाँ पूरे परिच्छेद में बौद्ध का प्रतिपक्ष क्या है यही दिखाते हैं ] कि-- ___ 'मैंने देखा था वही मैं अब छू रहा हूँ' इस प्रत्यभिज्ञा में आत्मा का दर्शनकर्तृत्व यह स्पर्शकर्तृत्व से अनुप्रविष्ट हो कर भास रहा है या विना अनुप्रवेश ही भास रहा है ? यदि अनुप्रविष्ट हो कर भास रहा हो तब तो दृष्टारूप में स्पर्शकर्तृत्वरूप के अनुप्रवेश से उसके दृष्टापन का विलय हो कर वह स्पर्शक रूप ही हो जायेगा, उसकी दृष्टरूपता नहीं रहेगी तो 'दृष्टा मैं स्पर्श करता हूँ' इस प्रकार की उभयरूपतावभासक प्रत्यभिज्ञा ही कैसे होगी जिस से दृष्टा और स्पर्शकर्ता के एकत्व की सिद्धि हो सके ? यदि कहें कि स्पर्शकर्तृत्वरूप के अनुप्रवेश विना ही दृष्टारूप भासित होता है, तो इस का अर्थ यही हुआ कि दर्शनावभास और स्पर्शावभास भिन्न हैं, तब प्रत्यभिज्ञा यह उभयस्वरूप एक ज्ञान नहीं किंतु दो भिन्न ज्ञान साबित हुए तो एक प्रत्यभिज्ञा कहाँ रही ? जब दोनों प्रतिभास ही भिन्न है तब भिज्ञा में एकरूपता नहीं हो सकती. अन्यथा भिन्न भिन्न घटावभास और पटावभास भी एकरूप हो जायेंगे। यदि कहें कि-यहाँ केवल प्रतिभास ही भिन्न भिन्न है किंतु दोनों का विषय दृष्टा और स्पर्श आत्मा तो अभिन्न- एक ही है-तो यहाँ प्रश्न है कि यह अभेद किस से सिद्ध है ? 'प्रतिभास के अभेद से' ऐसा तो कह नहीं सकते कि अभी तो भिन्न भिन्न प्रतिभास की स्थापना की गयी है / 'स्वतः अभेद है' ऐसा भी नहीं कह सकते कि स्वत: अभेद तो अब भी विवादास्पद है / यदि यह कहा जाय-'दर्शनावभास और स्पर्शावभास दोनों एक ही चिन्मय आत्मा की दो अवस्था है-जब ये दो अवस्थाएं है तो उसका अवस्थाता अभिन्न-एक आत्मा ही सिद्ध होगा अतः कोई भी दोष नहीं है'तो यह भी असंगत है क्योंकि दर्शनावस्था के प्रतिभास से केवल अपने से सम्बद्ध ही अवस्थातारूप यानी दृष्टा का ही ग्रहण हुआ है, स्पर्शनज्ञानसम्बन्धी अवस्थातारूप का यानी स्पर्शकर्ता का तो ग्रहण ही नहीं हुआ, क्योंकि दर्शनावस्था के समय स्पर्शनावस्था का उदय न होने से वहाँ स्पर्शनावभास तो है नहीं, जब स्पर्शनावस्था ही नहीं है तो 'दर्शनावस्था का अवस्थाता स्पर्शनावस्था में भी अनुगत यानी व्यापक है' यह भी भासित नहीं हो सकता। यदि कहें कि-'स्पर्शावभास से ही दर्शनावस्था में अनुगत-व्यापक अवस्थाता का बोध हो जायेगा'-तो यह भी अशक्य है क्योंकि स्पर्शनकाल में दर्शन तो विनष्ट हो गया है तब उसमें अनुगत अवस्थाता का प्रतिभास कैसे होगा ? यदि स्पर्शनकाल में विनष्ट दर्शन का भी अवभास माना जाय Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ यतो नीलप्रतिभासेऽप्येवं वक्तु शक्यम् - किमेकनोलज्ञानपरमाण्ववभासोऽपरतन्नीलज्ञानपरमाण्ववभासानुप्रवेशेन प्रतिभाति, b उताननुप्रवेशेन ? a यद्यनुप्रवेशेन तदैकतन्नीलज्ञानपरमाण्ववभासानामनुप्रवेशान्नीलज्ञानसंवेदनस्यैकपरमाणरूपत्वम् , तस्य चाननुभवात कुतो नीलज्ञानसंवेदनसिद्धिः? b अथाननुप्रवेशेन, तदा नीलज्ञानपरमाण्ववभासानामयःशलाकाकल्पानां प्रतिभासनात् कुतः स्थलमेकनीलज्ञानसंवेदनम् , प्रतिनीलज्ञानपरमाण्ववभासं भिन्नत्वात् ? अथ स्वसंवेदनावभासभेदे सत्यपि न तत्प्रतिभासस्य नीलज्ञानस्य भेदः / नन कतो नीलज्ञानस्याभेद: ? कि तत्स्वसंवेदनाभेदात, स्वतो वा? यदि स्वसंवेदनाभेदात् , तदयुक्तम् तद्भवस्य व्यवस्थापितत्वात् / अथ स्वत एव तदभेदः, तदप्ययुक्तम् , तस्याद्यप्यसिद्धत्वात्। तब तो पूर्व विनष्ट अनादिकालीन समस्त अवस्थापरम्परा का प्रतिभास होने लगेगा, यह अतिप्रसंग होगा। तदुपरांत पूर्वावस्था का जब तक उत्तरावस्था के अवभास में प्रतिभास न हो तब तक अवस्थाता पूर्वावस्था में अनुगत-व्यापक है यह भी नहीं जाना जा सकता / यह तो मानना ही होगा कि जा जिस रूप से स्फूरित होता है वह उसी रूप से सत् होता है, अन्यरूप से नहीं, जैसे कि नीलवस्तु नीलरूपतया भासित होती है तो उसको नील रूप से ही सत माना जाता है, पीतादिरूप से नहीं। जब ऐसा मानना ही पड़ता है तब दर्शन और स्पर्शन ज्ञान से अवस्थाता में अपना संबंध ही. केवल स्फुरित होता है अतः अवस्थाता को दर्शनसंबंधी और स्पर्शनसंबन्धी ही मान सकते हैं किन्तु दृष्टा और स्पर्शकर्ता दो अवस्थाता अभिन्नरूप से स्फुरित नहीं होता है तो एक अवस्थाता की सिद्धि ही कसे होगी ? [ बौद्ध का वक्तव्य समाप्त हुआ ] [नीलप्रतिभास में भी समग्रविकल्पों की समानता ] इस बौद्ध मत को अयुक्त दिखाने के लिये व्याख्याकार नीलप्रतिभास में बौद्ध प्रतिपादित युक्तियों की समानता का आपादन करते हुए कहते हैं कि-जो कुछ आपने प्रत्यभिज्ञा के ऊपर दर्शनावभास और स्पर्शनावभास के बारे में कहा वह सब नीलप्रतिभास में भी कहा जा सकता है, जैसे देखिये[ विज्ञानवादी बौद्ध मत में अर्थ ज्ञानभिन्न नहीं है, तथा बाह्यवादी बौद्ध एक स्थूल अवयवी द्रव्य को न मान कर परमाणुपुञ्ज को ही मानता है, उसके स्थान में विज्ञानवादी ज्ञान को ही स्थूलाकार मान लेता है, तात्पर्य-वहाँ एक नीलज्ञानात्मक संवेदन में भिन्न भिन्न नीलज्ञानात्मकपरमाणु अंश ही मिलितरूप में एक और स्थूलरूप में भासित होता है, इस संदर्भ में अब व्याख्याकार कहते हैं ] क्या स्थूल नीलज्ञानपरमाणुओं (रूप अंशों) के अवभास में एक नीलज्ञान परमाणुअवभास (स्वरूप अंश) उसी नीलज्ञानसंवेदन के अन्य नीलज्ञानपरमाणुअवभास (रूप अंश) के a अनुप्रवेशवाला ही भासित होता है या b विना ही अनुप्रवेश भासित होता है ? यदि a अनुप्रवेशवाला ही भासित होता है तब तो वह एक नीलज्ञानसंवेदनान्तर्गत विविध परमाणुअवभासों का एक दूसरे से अनुप्रवेश हो जाने से (उस नीलज्ञानसंवेदन में) केवल एक ही नीलज्ञानपरमाणुरूपता हो जायेगी। एक तो यह आपत्ति और दूसरी-नीलज्ञानसंवेदन एकज्ञानपरमाणुरूप में तो कहीं भी अनुभवारूढ नहीं है, तो अब तद्रूप नीलज्ञान संवेदन कैसे सिद्ध होगा ? यदि कहें कि वहां-b अनुप्रवेश के बिना ही सब नीलज्ञान परमाणुओं का अवभास होता है तब तो जैसे पृथक् पृथक् पूर्वापरक्रम में अवस्थित लोहशलाकाओं का भिन्न भिन्न प्रतिभास होता है, Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 355 तथा, यदि दर्शनावस्थायां स्पर्शनावस्था न प्रतिभातीति तदवस्थाव्याप्तिदर्शनज्ञानेनावस्थातुर्न ग्रहीतु शक्या, नन्वेवं तदप्रतिभासने तेन तदव्याप्तिरपि कथं ग्रहीतु शक्या? तदप्रतिभासने 'तत इदमवस्थातृरूपं व्यावृत्तम्' इत्येदपि ग्रहीतुमशक्यमेव / न च तद्विविक्तप्रतिभासादेव तदव्याप्तिगृहोतेवेति वक्तुयुक्तम् , तदप्रतिभासने तद्विविक्तस्यैवाऽग्रहणात् / न च तदव्याप्तिस्तस्य स्वरूपमेव' इति दर्शनज्ञानेन तत्स्वरूपग्राहिणा तदभिन्नस्वरूपा तदव्याप्तिरपि गृहीतवेति युक्तम् , तद्वयाप्तावप्यस्य सर्वस्य समानत्वात् / न चाऽबाधितकप्रत्ययविषयस्यात्मन एकत्वमसिद्धम् / न चास्यैकत्वाध्यवसायस्य किंचिद्वाधकमस्ति, तदबाधकत्वेन संभाव्यमानस्य प्रमाणस्य यथास्थानं निषेत्स्यमानत्वात् / उनमें 'एक और स्कूल' प्रतिभास नहीं होता उसी प्रकार पृथक पृथक नीलज्ञानपरमाणुओं का प्रतिभास ही होगा तो 'एक-स्थूल नीलज्ञानसंवेदन' होता है वह कैसे अब घटेगा जब कि प्रत्येक नीलज्ञानपरमाणुअवभास तो भिन्न भिन्न ही है ? यदि कहें कि-उन परमाणओं का स्वसंवेदनरूप अवभास भिन्न भिन्न होने पर भी अंशीभूत सकल प्रतिभासरूप नीलज्ञान तो एक ही है, उसमें भेद नहीं है तो यहाँ प्रश्न है कि 'यह नीलज्ञान एक और अभिन्न है' यही कैसे सिद्ध हुआ ? क्या अपने (अंशभूत) संवेदनों के अभेद से? या अपने आप ही? अगर संवेदनों के अभेट से उसको एक माना जाय तो वह यक्त नहीं है, क्यों कि (अंशभूत) संवेदनों का भेद तो पूर्वस्थापित ही है यानी सिद्ध ही है अतः उनके अभेद से उसका अभेद सिद्ध नहीं हो सकता / यदि अपने आप ही अभेद मानेंगे तो वह ठीक नहीं है क्योंकि नीलज्ञान स्वतः एकरूप है यह तो अब भी विवादास्पद होने से असिद्ध है। [ अवस्थाद्वय में अवस्थाता की अव्यापिता का ग्रह कैसे ? ] __यह भी सोचना चाहिये कि जब दर्शनावस्था में स्पर्शनावस्था का प्रतिभास न होने से, दर्शनज्ञान से स्पर्शनावस्था के अवस्थाता की दर्शनावस्था में व्याप्ति का ग्रह शक्य नहीं है-तो दर्शनावस्था में स्पर्शनावस्था का प्रतिभास न होने पर उस व्याप्ति का अभाव भी कैसे गृहीत हो सकता है ? [जैसे व्याप्ति के ग्रह में स्पर्शनावस्था का प्रतिभास आवश्यक है वैसे ही व्याप्ति-अभाव के ग्रह में भी स्पर्शनावस्था का प्रतिभास आवश्यक है ] स्पर्शनावस्था का प्रतिभास जब नहीं है तो इस वस्था का अवस्थाता स्पर्शावस्था के अवस्थाता से व्यावृत्त (भिन्न) है' यह भी जान लेना अशक्य ही है [ क्योंकि तद्भ दग्रह में प्रतियोगिविधया तद् का भान आवश्यक है ] यदि ऐसा कहें कि-'वहाँ दर्शनावस्था स्पर्शावस्था से विविक्त भिन्नरूप में ही भासित होती है अत एव स्पर्शावस्था के अवस्थाता की वहाँ अव्याप्ति भी अर्थतः गृहीत हो जाती है।'-तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि जब तक स्पर्शावस्था का प्रतिभास नहीं मानेगे तब तक दर्शनावस्था में तद्विविक्तता भी अगृहीत ही रहेगी। यदि यह कहा जाय-'स्पर्शावस्था के अवस्थाता की अव्याप्ति तो दर्शनावस्था के स्वरूप में ही अन्तर्गत है, जब दशनावस्थाज्ञान अपने स्वरूप को ग्रहण करता है तो तदन्तर्गत उस अव्याप्ति को भी ग्रहण कर लेता है।'-तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि हम ऐसा भी कह सकते हैं कि दर्शनावस्था के स्वरूप में स्पर्शावस्था के अवस्थाता की व्याप्ति अन्तर्गत ही है, अतः अपने स्वरूप को ग्रहण करने वाला दर्शन-ज्ञान तदन्तर्गत व्याप्ति को भी ग्रहण कर ही लेता है....इत्यादि समानरूप से कहा जा सकता है। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ भवतु वाऽनुसन्धानप्रत्ययलक्षणाद्धेतोस्तदेकत्वसिद्धिस्तथापि नेतरेतराश्रयदोषः, यतो नैकत्वप्रतिबद्धमनुसंधानमन्वयिदृष्टान्तद्वारेण निश्चीयते, येनायं दोषः स्यात् , अपि त्वनेकत्वेऽनुसंधानस्याऽसम्भवात् ततो व्यावृत्तमनुसंधानं तदेकत्वेन व्याप्यत इत्येकसन्ताने स्मरणाद्यनुसंधानदर्शनादनुमानतोऽपि तत्सिद्धिः / न च भेदे दर्शन-स्मरणादिज्ञानानामनुसंधान सम्भवति, अन्यथा देवदत्तानुभूतेऽर्थे यज्ञदत्तस्य स्मरणाद्यनुसंधानं स्यात् / अथ देवदत्त-यज्ञदत्तयोरेकसन्तानाभावान्नानुसंधानम् , यत्र त्वेकः सन्तानस्तत्र पूर्वाऽपरज्ञानयोरत्यन्तभेदेऽपि भवत्येवानुसंधानम् / नन सन्तानस्य यदि सन्तानिभ्यो भेद एकत्वं च तदा शब्दान्तरेण स एवात्माऽभिहितो यत्प्रतिबद्धमनुसन्धानम् / अथ संतानिभ्योऽभिन्नः सन्तानस्तदा पूर्वोत्तरज्ञानक्षणानां सन्तानिशब्दवाच्यानां देवदत्त-यज्ञदत्तज्ञानवदत्यन्तभेदात् तदभिन्नस्य संतानस्यापि भेद इति कुतोऽनुसन्धाननिमित्तत्वम् ? - अथैकसंततिपतितानां पूर्वोत्तरज्ञानसंतानिनां कार्य-कारणभावाद् भेदेऽप्येकसन्तानत्वं तन्निबन्धनश्चानुसन्धानप्रत्ययो युक्तः, न पूनर्देवदत्त-यज्ञदत्तज्ञानयोः कार्यकारणभावः, अतस्तन्निबन्धनसन्तानाभावनिमित्तस्तत्रानुसंधानाभाव: नन् / देवदत्तज्ञानं यज्ञदत्तेन यदा व्यापार-व्याहारादिलिंगबलादनुमीयते तदा तद् यज्ञदत्तानुमानजनकं भवतीति कार्यकारणभावनिमित्तैकसन्ताननिबन्धनानुसंधान वास्तविकता तो यह है कि दृष्टा और स्पर्शकर्ता की प्रत्यभिज्ञा में एकत्व का अबाधित रूप से भान होता है अतः उस प्रत्यभिज्ञा के विषयभूत आत्मा का एकत्व असिद्ध नहीं है। प्रत्यभिज्ञा में जो एकत्व का अध्यवसाय होता है उसका कोई भी बाधक प्रमाण नहीं है, तथा जिस जिस प्रमाण की आप उसके बाधकरूप में सम्भावना करेंगे उन सभी का अग्रिम ग्रन्थ में उचित अवसर पर निषेध भी किया जाने वाला है। [ अनुसंधानप्रतीति से एकत्वसिद्धि में अन्योन्याश्रय नहीं ] बौद्ध ने जो पहले यह कहा था कि आत्मा का एकत्व सिद्ध होने पर एकत्वाविनाभावि प्रत्यभिज्ञा-अनुसंधानप्रतीति की सिद्धि होगी और अनुसंधान की सिद्धि होने पर आत्मा के एकत्व की सिद्धि होगी-इसके ऊपर व्याख्याकार कहते हैं कि अनुसंधानप्रतीति से आत्मा के एकत्व की सिद्धि मान लेने पर भी यहाँ इतरेतराश्रय दोष निरवकाश है क्योंकि हम अन्वयिदृष्टान्त से प्रत्यभिज्ञा में एकत्व का अविनाभाव सिद्ध करना नहीं चाहते हैं कि जिस से वह दोष हो, किन्तु अगर पूर्वापरज्ञान का आश्रय एक आत्मा न होकर अनेक आत्मा मानेंगे तो यह प्रत्यभिज्ञा ही नहीं होगी इस प्रकार अनेकत्व होने पर निवर्तमान अनुसंधान का एकत्व के साथ अविनाभाव निश्चित किया जाता है / अतः एक ही ज्ञानसंतान में स्मरणादिरूप अनुसंधान के देखे जाने से अनुमान द्वारा भी एकात्मा सिद्ध होता है / यदि दृष्टा और स्मरणकर्ता भिन्न मानेंगे तो दर्शन और स्मृतिज्ञान में एककर्तृत्व का अनुसंधान ही नहीं हो सकेगा, यदि भेद में भी अनुसंधान मानेंगे तो, अनुभव देवदत्त करेगा तो यज्ञदत्त को उसका स्मरणात्मक अनुसंधान होने लगेगा। [भिन्न सन्तान के स्वीकार में आत्मसिद्धि ] यदि यहाँ बचाव किया जाय कि यज्ञदत्तज्ञानसन्तान और देवदत्तज्ञानसन्तान भिन्न होने से एक के अनुभव से दूसरे को अनुसंधान होने की आपत्ति नहीं है, जहाँ पूर्वापरज्ञानों का सन्तान एक होता है वहाँ उन ज्ञानों में अत्यंत भेद होने पर भी अनुसंधान हो सकता है तो यहाँ दो विकल्प हैं-वह संतान Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 357 प्रसक्तिः स्यात् / अथ स्वसन्ततावपादानोपादेयभावेन ज्ञानानां जन्यजनकभावः, भिन्नसंततौ तु सहकारिभावेन तद्भाव इति नाऽयं दोषः / ननु किं पुनरिदमुपादानत्वं यदभावाद् भिन्नसन्तानेऽनुसन्धानाभावः ? A यत स्वसंततिनिवृत्तौ कार्य जनयति तदपादानकारणम, यथा मत्पिण्डः स्वयं निवत्तमाना घटमुत्पादयतीति स घटोत्पत्तावपादानकारणम्- Bअथवाऽपरम, अनेकस्मात्पद्यमाने काय स्वगत विशेषाधायकं तत् , न त्वेवं निमित्तकारणम् ? ननु प्रतिक्षणविशरारुष्वेकस्वभावपौर्वापर्यावस्थितज्ञानस्वभावेषु क्षणेषपादानोपादेयभाव एव न व्यवस्थापयितुं शक्यः। तथाहि-उत्तरज्ञानं जनयत पूर्वज्ञानं कि नष्टं जनयति b उताऽनष्टम् / cउभयरूपं, d अनुभयरूपं वा? a न तावन्नष्टं. चिरतरनष्टस्येवानन्तरनष्टस्याप्यविद्यमानत्वना. होता संतीनीयों से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न एक सन्तान मानेगे तो यह शब्दान्तर से आत्मा का हा कथन हआ, जिस के एकत्व के साथ अनुसंधान गाढसंलग्न है। अगर वह संतान संतानीया से आभन्न है तब पूर्वोत्तरअनेकक्षण ही संतानी शब्द के वाच्य हए और उन सन्तानीयों में तो देवदत्तज्ञान-यज्ञदत्तज्ञान की तरह अत्यन्त भेद होने से उससे अभिन्न सन्तान भी भिन्न भिन्न हो गया, जब एक संतान ही नहीं रहा तो वह एकत्वअनुसंधान का निमित्त भी कैसे बन सकेगा? [ कार्यकारणभावमूलक एकसंतानता की समीक्षा ] पूर्वपक्षी:-एकसन्ततिपतित पूर्वोत्तरज्ञानरूप सन्तानीयों में यद्यपि भेद है, तथापि उनमें कार्यकारणभाव होता है और तन्निमित्त एकसन्तानता भी मानी जाती है, अब तो एकसन्तानमूलक अनुसंधानप्रतीति हो सकती है। यज्ञदत्त देवदत्त सन्तानों में कार्यकारणभाव न होने से तन्मूलक एकसन्तानता के अभावअनुसंधान की आपत्ति नहीं होगी। उत्तरपक्षीः-यज्ञदत्तज्ञान और देवदत्तज्ञान में भी निम्नोक्त रीति से कार्य-कारणभाव संभव है-जब देवदत्त की चेष्टा और जल्पन रूप लिंग से यज्ञदत्त को देवदत्तसंतानगत ज्ञान का अ है तब यज्ञदत्त के अनुमानज्ञान में विषयविधया देवदत्तज्ञान भी कारण बना, तो कार्य-कारणभाव यहाँ अक्षुण्ण होने से तन्मूलक एकसन्तानता के प्रभाव से अनुसंधान का प्रसंग तदवस्थ ही रहेगा। पूर्वपक्षोः देवदत्त के अपने संतान में, पूर्वापरज्ञान में जो कार्यकारणभाव होता है वह उपादान-उपादेय भाव रूप होता है। देवदत्त और यज्ञदत्त दोनों के भिन्न सन्तान में जो आपने कार्यकारणभाव दिखाया, वहाँ तो देवदत्त का ज्ञान यज्ञदत्तज्ञान में सहकारि भाव रूप से जनक है, अनुसंधान तो वहाँ ही हो सकता है जहाँ उपादानोपादेयभावात्मक कार्यकारणभाव हो। [ उपादान-उपादेयभाव में दो विकल्प] उत्तरपक्षी: जिस उपादानोपादेयभाव के अभाव से आप भिन्न संतान में अनुसंधानाभाव दिखाते हो, यहां उपादान किसको आप कहते हैं ? दो प्रकार के उपादान हो सकते हैं-(A) जो अपनी त्ति होने पर काय की उत्पत्ति करे वह उपादान कारण कहा जाता है-जैसे: मुत्पिड का सन्तान चला आ रहा है, जब वह निवृत्त होता है तब घटोत्पत्ति होती है तो वहां मृत्पिड को घट का उपादान कारण कहा जाता है। अथवा दूसरा-(B) अनेक कारणों से कार्य उत्पन्न होता है वहाँ जो कारण अपनी विशेषताओं का आधान उसके कार्य में करता हो वह उपादान कारण / जैसे Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 त्पादकत्वविरोधात् / b नाप्यनष्टम , क्षणभंगभंगप्रसंगात् / नाप्युभयरूपम, एकस्वभावस्य विरुद्धोभयरूपाऽसम्भवात् / नाप्यनुभयरूपम , अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकनिषेधस्य तदपरविधाननान्तरीयकत्वेनानुभयरूपताया अयोगात् / अथ यदि व्यापारयोगात् कारणं कार्योत्पादकमभ्युपगम्येत तदा स्यादयं दोषः-यदुत नष्टस्य व्यापाराऽसम्भवात् कथं कार्योत्पादकत्वम् , यदा तु प्राग्भावमात्रमेव कारणस्य कार्योत्पादकत्वं तदा कुत एतदोषावसरः ? नन्वेतस्मिन्नभ्युपगमे प्राग्भाविनोऽनेकस्मादुपजायमाने कार्य कुतोऽयं विभागः-इदमत्रोपादानकारणम् , इद च सहकारिकारणमिति, द्वयोरपि कार्येणानुविहितान्वय-व्यतिरेकत्वात् ? घट के कारण दंडचक्रादि अनेक हैं किन्तु घट में दंडादि की विशेषताएँ नहीं होती किन्तु मृत्पिंड की विशेषताएँ (समान वर्णादि) दिखती हैं अतः मृत्पिड घट का उपादान कारण है ।-निमित्त कारण दंडादि, दो प्रकार में से एक भी प्रकार की उपादानतावाला नहीं होता। [अब व्याख्याकार यह दिखात है कि किसी भी प्रकार की उपादानता मानी जाय, बौद्ध मत में वह नहीं घट सकती। तदनन्तर क्रमश: B और A विकल्पों की आलोचना करेंगे ] [ बौद्धमत में उपादान-उपादेयभाव में चार विकल्प] व्याख्याकार कहते हैं कि जो एक ही स्वभाव वाले और पूर्वापरभाव से अवस्थित हैं वे सब ज्ञानात्मकक्षण अगर प्रतिक्षण नश्वरस्वभाववाले हैं तो उनमें उपादान-उदादेयभाव की स्थापना ही नहीं की जा सकती। वह इस प्रकार-(a) उत्तरक्षण को जन्म देने वाला पूर्वक्षण द्वितीयक्षण में नष्ट हो कर उत्तरक्षण को उत्पन्न करता हैं या (b) नष्ट न हो कर यानी जीवित रह कर], या (c) नष्टानष्ट उभयरूप से, अथवा (d) न नष्ट हो कर और न जीवित रहकर-अनुभयरूप से ? इनमें से (1) 'नष्ट होकर' यह नहीं बन सकता क्योंकि जैसे चिर पूर्व में नष्ट होने वाला क्षण उस कार्य का उत्पादक बने इसमें विरोध है, उसी प्रकार निरन्तर नष्ट होने वाला क्षण भी उस कार्य का उत्पादक बने इस में विरोध आयेगा / (2) 'द्वतीयक्षण में जीवित रहकर' यह भी नहीं मान सकते क्योंकि तब अनेक क्षणवृत्ति उसको मानना होगा और क्षणभंगवाद ही समाप्त हो जायेगा। (3) 'उभयरूप भी नहीं कह सकते क्योंकि एक स्वभाव वाले एक क्षण में दो विरुद्ध स्वरूपों का सम्भव नहीं है। (4) 'अनुभयरूप से' यह भी नहीं कह सकते-क्योंकि जहाँ दो रूप में परस्पर व्यवच्छेदकता होती है वहाँ एकरूप के निषेध से दूसरे का विधान अर्थतः अविनाभावी यानी अवश्यंभावी होने से अनुभयरूपता यहाँ घट ही नहीं सकती। पूवपक्षी:-अगर हम व्यापार के द्वारा नष्ट कारण को कार्योत्पादक मानें तब विरोध दोष सावकाश है क्योंकि जो उत्पन्न होने के बाद दूसरे ही क्षण में नष्ट हो गया उसका उत्तरक्षणरूप कार्य के उत्पादन में कोई व्यापार सम्भवित नहीं है / किन्तु, हम तो कारण को पूर्ववृत्तिता को ही कार्योत्पादकता मानते हैं तो यहाँ विरोधदोष को अवसर ही कहाँ है ? उत्तरपक्षी:-इस मान्यता में यह प्रश्न होगा कि जब एक कार्य अनेक कारणों से उत्पन्न होता है तो वहाँ 'यह उपादान कारण' और 'यह सहकारिकारण' ऐसा विभाग ही कैसे होगा जब कि दोनों प्रकार के कारणों में पूर्ववृत्तिता अर्थात् कार्य का अनुविधान करने वाला अन्वय-व्यतिरेक तो तुल्य है ? Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 359 अथ सत्यप्यन्वय-व्यतिरेकानुविधाने एकस्योपादानत्वेन, जनकत्वमपरस्यान्यथेति / नन्वेतदेवोपादानभावेन जनकत्वं कस्यचिद रूपस्याननुगमे प्राग्भावित्वमात्रेण दरवसे यम / अथाभिहितमेवोपादानकारणत्वस्य लक्षणं तदवगमात् कथं तद् दुरवसेयम् ? सत्यम् , उक्तम् , न तु कस्यचिद्रूपस्याननुगम तत् सम्भवति, नाप्यवसातु शक्यम् / तथाहि-B यत स्वगतविशेषाधायकत्वमुपादानत्वमुक्त तत् कि(१) स्वगतकतिपयविशेषाधायकत्वमाहोस्वित् (2) सकलविशेषाधायकत्वमिति ? तत्र याद (1) प्रथम: पक्षः, स न युक्तः, सर्वज्ञज्ञाने स्वाकारार्पकस्यास्मदादिविज्ञानस्य तं प्रत्युपादानभावप्रसंगात / तथा, रूपस्यापि रूपज्ञानं प्रत्युपादानभावप्रसक्तिः, तस्यापि स्वगतकतिपयविशषाधायक त्वात , अन्यथा निराकारस्य बोधस्य सर्वान प्रत्यविशेषाद 'रूपस्येवायं ग्राहको न रसादः' इति तत प्रतिकम व्यवस्था न स्यात / रूपोपादानत्वे च ज्ञानस्य. परलोकाय दत्तो जलाञ्जलिः स्यात् / कि च, कतिपयविशेषाधायकत्वेनोपादानत्वे एकस्यैव ज्ञानक्षणस्य तत्कार्यानगत-व्यावृत्तानेकधर्मसम्बन्धित्वाभ्युपगमे विरुद्धधर्माध्यासोऽभ्युपगतो भवति, तथा च यथा यगपद्धाव्यनेकविरुद्धधर्माध्यासेऽप्येक विज्ञान तथा क्रमभाव्यनेकतद्धर्मयोगे किमित्येक नाऽभ्युपगम्येत? [ उपादान-सहकारी कारण-विभाग कैसे ? ] पूर्वपक्षी:-दोनों प्रकार के कारणों में कार्य के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान तुल्य होने पर भी एक उपादानरूप से उत्पादक होता है, दूसरा मात्र सहकारीभाव से-इतना स्पष्ट तो अन्तर है / उत्तरपक्षी:- अरे भाई ! यह 'उपादानरूप से उत्पादकत्व' जब तक उपादानत्वप्रयोजक रूपविशेष का अनुगम न हो तब तक केवल पूर्ववृत्तिता मात्र से तो दुर्गम है / तात्पर्य यह है कि जिस को आप उपादान कारण कहना चाहते हो उसमें वह कौनसी लाक्षणिकता है यह दिखाओ ! पूर्वपक्षः-उपादान कारण के दो लक्षण पूर्व में बता तो चुके हैं, उस लक्षण से उपादानता सुबोध्य है तो दुर्गम कैसे ? .. उत्तरपक्षीः-बात सही है, लक्षण तो कहा है किन्तु जब किसी स्वरूपविशेष को लक्षणरूप में दिखाया जाय तब उसका स्पष्ट अनुगम भी होना चाहिये अन्यथा न तो वहाँ लक्षण का सम्भव हो सकता है न तो उसका ज्ञान / जब उस लक्षण की समीक्षा करते हैं तब उसका काई स्वरूप ही निश्चित नहीं होता / जैसे देखिये [स्वगतविशेषाधानस्वरूप उपादान के दो विकल्प] _ 'अपने में रही हुई विशेषताओं का कार्य में आधान करना' यह उपादान का दूसरा लक्षण आपने दिखाया है, उसके ऊपर प्रश्न है-(१) क्या स्वगत कुछ ही विशेष का आधान कहते हो, या .. (2) स्वगत सकल विशेषों का आधान ? प्रथम पक्ष को मानेंगे तो वह अयुक्त है / कारण, हमारा-आप का जो ज्ञान है उसका ज्ञान सर्वज्ञ को होता है, वहाँ सर्वज्ञज्ञान को अपना ज्ञान भी कुछ आकारार्पण करता है इसलिये अपना ज्ञान सर्वज्ञज्ञान का उपादान कारण मानने का अतिप्रसंग आयेगा। तदुपरांत रूपज्ञान में रूप भी अपने कुछ आकार का आधान करता है इसलिये रूपक्षण भी रूपज्ञानक्षण के प्रति उपादान भाव को प्राप्त हो जायेगा / यदि विषय को ज्ञान में आकारार्पक नहीं मानेंगे तो ज्ञान निराकार रहेगा, निराकार ज्ञान Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 (B2) अथ सकलविशेषाधायकत्वेन, न तहि निर्विकल्पकात् सविकल्पकोत्पत्तिः / न च निविकल्पकयोरप्युपादानोपादेयत्वेनाऽभ्युपगतयोस्तद्भावः स्यात् , तथा च कुतो रूपाकारात् समनन्तरप्रत्ययात् कदाचिद् रसाद्याकारस्याप्युपादेयत्वेनाभिमतस्योत्पत्तिः ? अथ विज्ञानसन्तानबहुत्वाभ्युपगमानायं दोषः तेन सर्वस्य स्वसशस्योत्पत्तिः, तमुस्मिन् दर्शन एकस्मिन्नपि सन्ताने प्रमातृनानात्वप्रसङ्गः, तथा च गवाश्वदर्शनयोभिन्नसन्तानवतिनोरेकेन दृष्टेऽर्थेऽपरस्यानुसन्धानं न स्यात् , देवदत्तयज्ञदत्तसन्तानगतयोरिवान्येनानुभूतेऽन्यस्य। दृश्यते च-गामहं ज्ञातवान् पूर्वमश्वं जानाम्यहं पुनः / [ श्लो० वा० ५-आत्म० 122 ] कि च, सकलस्वगतविशेषाधायकत्वे सर्वात्मनोपादेयज्ञानक्षणे तस्योपयोगादनुपयुक्तस्यापरस्वभावस्याभावाद्योगिविज्ञानं रूपादिकं चैकसामग्र्यन्तर्गतं प्रति न सहकारित्वं तस्येति सहकारिकारणाभावे नोपादेयक्षणव्यतिरिक्तकार्यान्तरोत्पाद: / तो सभी विषयों के प्रति उदासीन रहेगा, अतः आकार के आधार पर जो 'यह ज्ञान रूप का ही ग्राहक है, इसका नहीं, इस प्रकार प्रत्येक कर्म यानी विषय के सम्बन्ध में तत् तत् ज्ञान की व्यवस्था होती है वह नहीं हो सकेगी। दूसरे, रूपज्ञान और रूप सर्वथा भिन्नस्वरूप होने पर भी रूप को रूपज्ञान का उपादान कारण मानेंगे तो ज्ञान के प्रति शरीर को उपादान कारण मानने वाले नास्तिक की इष्टसिद्धि होने से परलोक को जलाञ्जलि दे देने की आपत्ति आपको आयेगी। तथा यदि उपादान कारण को कुछ ही विशेषों का आधान करने वाला मानेंगे तो अपने कार्य के कुछ विशेष धर्म तो कारण में भी अनुगत रहेगा और कारणगत अन्य विशेष धर्मों, जिन का आधान कार्य में नहीं हुआ हैं, वे कार्य से व्यावृत्त रहेंगे / फलतः एक ही कारणभूत ज्ञानक्षण में कुछ तत्कार्यानुगत धर्म का सम्बन्ध रहेगा और कुछ तत्कार्यव्यावृत्तधर्म का सम्बन्ध रहेगा-इस प्रकार मानने पर तो विरुद्धधर्माध्यास भी स्वीकारना होगा इस स्थिति में हम कह सकते हैं कि जब एक साथ ही रहने वाले अनेक विरुद्ध धर्मों का अध्यास होने पर भी वह ज्ञानक्षण एक ही है तो भिन्न भिन्न काल में एक ही वस्तु में अनेक विरुद्ध धर्मों का योग मान कर वस्तु को एक और अनेक क्षणस्थायी क्यों न मानी जाय? [सकलविशेषाधान द्वितीय विकल्प के तीन दोष ] ) यदि कार्य में जो अपने सकलविशेषों का आधान करे उसको उपादान कहा जाय तो तीन दोष हैं-(१) निर्विकल्पक के सकल विशेषों का सविकल्प में आधान न होने से निर्विकल्प से सविकल्प ज्ञान की उत्पत्ति न होगी। (2) जब पूर्वापर भाव से दो निर्विकल्पकज्ञान उत्पन्न होते हैं तो उन में उपादान-उपादेयभाव सर्वमान्य है किन्तु वह अब नहीं घटेगा कि निर्विकल्पकज्ञान विशेषाकारशून्य होने से सकलविशेष के आधान का सम्भव ही नहीं है / (3) पूर्वकालीन रूपाकार समनन्तर प्रत्ययरूप उपादान से उत्तरकाल में कभी रसाद्याकार उपादेयज्ञान को उत्पत्ति आप को अभिमत है किन्तु वह भी नहीं घटेगी क्योंकि रूपाकार ज्ञान अपने सकल विशेषों में अन्तर्गत रूपाकार का हो आधान उपादेय में करेगा। [एक काल में अनेक संतान मानने में आपत्ति ] यदि दोनों दोषों के निवारणार्थ यह कहा जाय-"सविकल्पज्ञान अपने पूर्वकालीन सदृशज्ञान से, निर्विकल्पज्ञान भी अपने पूर्वकालीन सदृशज्ञान से और रसाद्याकारज्ञान भी अपने Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 361 अथ येषां कारणमेव कार्यतया परिणमति तेषां भवत्वयं दोषो, न त्वस्माकं प्राग्भावमात्र कारणत्वमभ्युपगच्छताम् / नन्वत्रापि मते a येन स्वरूपेण विज्ञानमुपादेयं विज्ञानान्तरं जनयति कि तेनव रूपमेकसामग्र्यन्तर्गतम् ? b उत स्वभावान्तरेण ? तत्र a यदि तेनैव तदा रूपमपि ज्ञानमुपादेयभूत रसादिज्ञान से ही उत्पन्न होता है। सिविकल्पज्ञान के पूर्व तो निर्विकल्पज्ञान होता है और रसाद्याकारज्ञान पूर्व तो वहाँ रूपाकारज्ञान था तो मदृशज्ञान कहाँ से आया ? ऐसी शंका करने की जरूर नहीं क्योंकि एक ही काल में अनेक विज्ञान संतान मानते हैं अत: उपरोक्त कोई दोष नहीं है / अर्थात् अनेक विज्ञान संतान की मान्यता होने से सभी ज्ञान स्वसदृशज्ञान से ही उत्पन्न होता है, यह भी मान सकते हैं।"-तो ऐसा कहने वाले के दर्शन (=मत) में एक ही देवदत्तादिसंतान में अनेक प्रमाता मानने का अतिप्रसंग आयेगा, फलतः गोदर्शन के बाद अश्वदर्शन होगा तो उन दोनों का भिन्न सन्तान मानना पड़ेगा, इसका दुष्परिणाम यह आयेगा कि-गोदर्शन और अश्वदर्शन भी भिन्नसन्तानवर्ती हो जाने से एक सन्तान में दर्शन होने पर दूसरे सन्तान को अनसंधान नहीं हो सकेगा, क्योंकि देवदत्त ने देखा हो तो यज्ञदत्त को उसका अनुसंधान नहीं होता उसी प्रकार अन्य संतान अनुभव का अनुसंधान दूसरे सन्तान को नहीं हो सकता। दिखता भी है- (श्लोकवात्तिक में कहा है-) 'पहले मैंने गाय को जाना था और अब अश्व को जान रहा हूँ। [ सकलविशेषाधान पक्ष में सहकारिकथा विलोप ] दूसरी बात यह है कि कारणगत सकल विशेषों का कार्य में आधान मानेंगे तो उपादेयज्ञानक्षण की उत्पत्ति में ही उपादानज्ञानक्षण सर्वांश उपयुक्त व्यापत हो जायेगा, उसका कोई अंश ऐसा नहीं बचेगा जो वहाँ अनुपयुक्त हो, अर्थात् उपादानक्षण में ऐसा कोई अन्य स्वभाव ही नहीं है जो वहाँ अनुपयुक्त रहा हो। इस स्थिति में योगिज्ञान के प्रति, एवं एक सामग्री अन्तर्गत रूपादि अन्य कारणों का वह उपादानज्ञानक्षण सहकारी नहीं बन सकेगा, क्योंकि वहाँ सहकारी बनने के लिये कोई अवशिष्ट अनुपयुक्त स्वभाव ही नहीं है। जब वह किसी का भी सहकारी नहीं है तो फलित यह होगा कि किसी भी कारण से केवल उपादेयक्षणात्मक कार्य की ही उत्पत्ति होती है सहकार्यरूप कार्य की कभी नहीं / तात्पर्य, सहकारीकारण की कथा नामशेष हो जायेगी। [प्राग्भावमात्रस्वरूप कारणता के ऊपर दो विकल्प ] पूर्वपक्षीः-आपने जो उपादेयक्षणभिन्न कार्य के अनुत्पाद का दोष दिखाया है वह तो उन परिणामवादियों के मत में होगा जो मानते हैं कि कारण ही कार्यात्मक परिणाम में परिणत हो जाता है, क्योंकि कारण सर्वात्मना उपादेयकार्य में परिणत हो जाने से उपादेयकार्य से भिन्न किसी भी कार्य का उत्पाद ही शक्य न होगा। हमारे मत में ऐसा नहीं है, हम तो मानते हैं कि जो केवल पूर्ववर्ती हो वही कारण है / उपादेयक्षण का वह जैसे पूर्ववर्ती है वैसे सहकार्य रूपादि का भी पूर्ववर्ती होने से दोनों कार्य एक ही क्षण से उत्पन्न हो सकेंगे। उत्तरपक्षीः-अरे, इस पक्ष में भी यह प्रश्न होगा कि a विज्ञान जिस स्वरूप से (स्वभाव से) उपादेयक्षणात्मक अन्य विज्ञान को उत्पन्न करता है, क्या उसी स्वभाव से एकसामग्री-अन्तर्गत रूपादि को उत्पन्न करेगा ? b या अन्य स्वभाव से ? a यदि उसी स्वभाव से, तब तो उत्पन्न होने वाले रूपादि Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 स्यात् , तत्स्वभावजन्यत्वात् , तदुत्तरज्ञानक्षणवत / अथ b स्वभावान्तरेण तदोपादानाभिमतं ज्ञानं द्विस्वभावमासज्यते / यथा चोपादान-सहकारिस्वभावरूपदययोगस्तथा त्रैलोक्यान्तर्गतान्यकार्यान्तरा वमपि स्वभावः, ततश्चैकत्वं ज्ञानक्षणस्य यथोपादान सहकार्यऽजनकत्वानेकविरुद्धधर्माध्यासितस्याभ्युपगम्यते तथा हर्ष-विषादाद्यनेकविवर्तात्मनस्तत्सन्तानस्याप्यभ्युपगन्तव्यम् / अथोपादान-सहकार्यजनकत्वादयो धर्मास्तत्र कल्पनाशिल्पिकल्पिताः, एकत्वं तु तस्य स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धमिति न तैस्तदपनीयत इति मतिस्तात्मनोऽप्येकत्वं सन्तानशब्दाभिधेयतया प्रसिद्धस्य स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धस्य क्रमवद्धर्ष विषादादिकार्यदर्शनाऽनुमीयमानतदपेक्षजनकत्वाऽजनकत्वधर्मापनेयं न स्यात् / तन्न स्वगतसकलधर्माधायकत्वमपादानत्वं भवदभ्युपगमेन संगतम्। ___A नापि सन्ताननिवृत्त्या कार्योत्पादकत्वस्वभावं, तथाऽभ्युपगमे ज्ञानसन्ताननिवृत्तेः परलोकाभावप्रसंग:। भी उपादेयमात्मक विज्ञानमय ही हो जायेगा क्योंकि रूपादि उसी स्वभाव से ही उत्पन्न है जिस स्वभाव से उत्तरज्ञानक्षण उत्पन्न होता है, अतः समानस्वभाव से उत्पन्न उत्तरज्ञानक्षणवत् रूपादि भी समान यानी विज्ञानरूप ही होगा। b यदि अन्य स्वभाव से रूपादि की उत्पत्ति होती है, तो उपादानरूप से मान्य विज्ञानक्षण में स्वभावद्वय प्रसक्त होगा। तदुपरांत, जैसे एक ही क्षण उपादानस्वभाव और कारिस्वभाव ये दोनों से यक्त है. वैसे सकल भमंडल अन्तर्गत अन्य जो जन्य कार्य हैं उनकी अपेक्षा उसी क्षण में अजनकत्व स्वभाव भी मानना होगा, क्योंकि उन सभी कार्यों का वह एक क्षण अजनक भी है। [ इससे क्या सिद्ध हुआ ? उ० ] इससे यह फलित होगा कि जैसे एक ही ज्ञानक्षण उपादानस्वभाव, सहकारिस्वभाव और अजनकत्व आदि परस्परविरुद्ध धर्मों से अधिष्टित. होने पर भी उसका एकत्व अक्षुण्ण है वैसे ही हर्ष-खेद आदि अनेक विवर्तस्वरूप भिन्नकालीन परस्परविरुद्ध धर्मों से अधिष्ठित जो देवदत्तादि सन्तान है उसी का भी एकत्व मानना होगा। तात्पर्य, देवदत्तसंतान में एक अनुगत आत्मा सिद्ध हुआ। [ कल्पित धर्मों से एकत्व अखंडित रहने पर एकात्मसिद्धि ] पूर्वपक्षीः- एक ज्ञानक्षण में जो उपादान-सहकारी अजनकत्वादि धर्म हैं वे सब कल्पना शिल्पी स्तव नहीं है, उन कल्पित परस्परविरुद्ध धर्मों से उस क्षण का स्वसंवेदन प्रत्यक्षसिद्ध वास्तव एकत्व खंडित नहीं हो सकता। उत्तरपक्षी:-अगर ऐसी आपकी मान्यता है तब तो यह भी मान लेना चाहिये कि पूर्वापर क्षणों में आत्मा का जो वास्तविक एकत्व है वह भी, जनकत्व और अजनकत्वादि विरोधाभासी धर्मों के योग से खण्डित नहीं होगा,-क्रमिक हर्ष खेद आदि कार्यों के देखने से हर्षादि कार्यों की अपेक्षा जनकत्व का और शेष जन्य कार्यों की अपेक्षा अजनकत्व का तो एक आत्मा में केवल अनुमान ही किया जाता है, यानी वे कल्पित ही हैं। उपरोक्त चर्चा का सार यही है कि 'स्वगत सकल धर्मों का आधायकत्व' यह उपादान का लक्षण आपकी ही अन्य मान्यता के अनुसार असंगत सिद्ध होता है। A उपादान का जो प्रथम लक्षण किया गया था-'संतान की निवृत्ति होकर कार्य की उत्पत्ति करने का स्वभाव' वह लक्षण भी असंगत है क्योंकि इस पक्ष में ज्ञानसंतान की निवृत्ति हो कर अन्य - सकालपत, वामन - - - - ... . Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 363 अथ समनन्तरप्रत्ययत्वमुपादानत्वमुच्यते। तथाहि-समः-तुल्यः, अनन्तर:अव्यवहितः प्रत्यया जनकः। न चैतद् भिन्नसन्तानादिति न तत्रानुसन्धानसम्भवः / नन्वत्रापि समत्वं कार्येरण यधुपादानत्व प्रत्ययस्य, तदा वक्तव्यम्-किं a सर्वथा समानत्वम् ? b उतैकदेशेन ? यदि a सर्वथा, तदसत-कार्य रणयोः सर्वथा तुल्यत्वे यथा कारणस्य प्राग्भावित्वं तथा कार्यस्यापि स्यात् / तथा च कार्य-कारणयोरेककालत्वान्न कार्यकारणभावः / नोककालयोः कार्यकारणभावः सव्येतरगोविषाणवत् / तथा, कारणाभिमतस्यापि स्वकारणकालता, तस्यापि स्वकारणकालतेति सकलसन्तानशून्यमिदानी समस्त जगत् स्यात् / b अथ कथंचित् समानता, तथा सति योगिज्ञानस्याप्यस्मदादिज्ञानालम्बनस्य तदाकारत्वेनकसन्तानत्वं स्यात्' इत्यादि दूषणं पूर्वोक्तमेव / अथानन्तरत्वम्पादानत्वम्, ननु क्षणिकैकान्तपक्ष सर्वजगत्क्षणानन्तरं विवक्षितक्षणे जगद् जायत इति सर्वेषामुपादानत्वमित्येकसन्तानत्वं जगतः / देशानन्तयं तत्रानुपयोगि, देशव्यवहितस्यापीहजन्ममरणचित्तस्य भाविजन्मचित्तोपादानत्वाभ्युपगमात् / प्रत्ययत्वं तु नोपादानत्वं, सहकारित्वेऽपि प्रत्ययत्वस्य भावात् / तन्न समनन्तरप्रत्ययत्वमप्युपादानत्वम् / न च प्रतिक्षणविशरारुषु भावेषु कथञ्चिदेकान्वयमन्तरेण जनकत्वमपि संगच्छते किमुतोपादानादिविभागः-इति क्षणभंगभंगप्रतिपादनावसरेऽभिधास्यामः / विसभागसंततिरूप कार्य उत्पन्न होगा तो फिर परलोक किसका माना जायेगा ? परलोक का अभाव प्रसंग आपतित होगा। [ समनन्तरप्रत्यय को उपादान नहीं कह सकते ] पूर्वपक्षी:-हम समनन्तर प्रत्यय को ही उपादान कहते हैं। जैसे देखिये, सम यानी तुल्य और अनन्तर यानी व्यवधान (=अंतर ) रहित, ऐसा जो प्रत्यय (ज्ञान), वही जनक यानी उपादान है। ऐसे उपादान में भिन्न सन्तान से तुल्यता न होने के कारण, भिन्न सन्तान का वह उपादान न होने से वहाँ भिन्न सन्तान में अनुसन्धान होने की आपत्ति नहीं होगी। उत्तरपक्षी:-अगर यहाँ प्रत्यय में कार्य के साथ तुल्यता को ही उपादानता कहते हैं तब दो प्रश्न होंगे - (a) वहाँ कार्य के साथ तुल्यता सर्वांश में मानते हैं ? या (b) किसी एक अंश से ? a सर्वांश से कारण और कार्य में तुल्यता हो ही नहीं सकती, वरना कारण में पूर्वत्तिता है तो कार्य भी सर्वथा तुल्य होने से पूर्ववर्ती मानना होगा। जब कारण-कार्य दोनों पूर्ववर्ती याने एककालीन होंगे तब उन दो में कार्य कारणभाव ही नहीं घटेगा क्योंकि समानकालीन दो वस्तु में कभी कार्यकारणभाव नहीं हो सकता, जैसे दाये-बायें गो सींग समानकालोत्पन्न और समकालवर्ती हैं तो उन दो में वह नहीं होता है / तदुपरांत, कारण भी अपने कारण का कार्य होने से, कारण और उसका कारण ये दोनों भी सर्वांश में ने से समकालीन बन जायेंगे, उस कारण का कारण भी उसका समानकालीन बन जायेगा-इस प्रकार एक संतानवर्ती और कारण-कार्यरूप से अभिमत सकल क्षणों में कालिक पूर्वापरभाव का उच्छेद हो जाने से सन्तानभाव भी न रहेगा तो समुचा जगत् सर्वसन्तान शून्य हो जायेगा। [ आंशिक समानता पक्ष में आपत्ति ] अगर सर्वांश से नहीं किन्तु कुछ अंश में ही समानता मानेंगे तो इस पक्ष में पहले ही दूषण दिखा दिया है कि, हमारे-आपके ज्ञान को विषय करने वाले योगिपुरुष के ज्ञान में हमारा-आपका Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 प्रत्र केचित तुल्येऽपि जनकत्वे स्वपरसन्तानगतयोरुपादानत्वे कारणमाहः-"स्वसन्ततो चेतितं ज्ञानं ज्ञानान्तरजनकम्, न त्वेवं परसन्ततौ, अतोऽजनकत्वव्यतिरिक्तस्योपादानकारणत्व निमित्तस्य संभवादित्थंभूतान हेतुफलभावाद् व्यवस्था।"-अस्यापि व्यवस्थानिमित्तत्वमयुक्तम्, नहि ज्ञानमसंवेदितं व्यवस्थां लभते / संवेदनं हि ज्ञानानां स्वत एवेष्यते, तच्च स्वसन्ततिपतिते इव परसंततिपतितेऽपि तुल्यम् / ज्ञानान्तरवेद्यत्वं तु न शाक्यैरभ्युपगम्यते ज्ञानस्य नियमत इति नायमप्यतिप्रसंगपरिहारः / / न च स्वसन्ततावपि स्वसंविदितज्ञानपूर्वकता ज्ञानस्य सिद्धा. मूर्छाद्यवस्थोत्तरकालभाविज्ञानस्य तथात्वानवगमाव ; यतो विज्ञानपूर्वकत्वेऽपि तत्र विप्रतिपन्ना वादिनः कुतः पुनः संविदितज्ञानपूर्वकत्वम् ? तत्रैतत् स्यात्-विज्ञानपूर्वकत्वस्यानुमानेन निश्चयात कथं विप्रतिपत्तिः ? तच्च दशितम् 'तज्जातीयात् तज्जातीयोत्पत्तिः' इति / एतदसत, प्रतज्जातीयादपि भावानामुत्पत्तिदर्शनाद् यथा धूमादेः। ज्ञान विषयविधया कारण है और दोनों में कुछ अंश में समानता भी है तो दोनों ज्ञान एकसन्तान के सभ्य बन जायेंगे। अगर केवल अनन्तरत्व को ( यानी पूर्ववत्तिता को) ही उपादानत्व कहा जाय तब तो कोई एक विवक्षित क्षण में पूर्वक्षणभावि समस्त जगत् के अनन्तर ( उत्तरक्षण में ) पूरा जगत् उत्पन्न होता है अतः पूर्वक्षणवर्ती पूरा जगत् , उत्तरक्षणवर्ती पूरे जगत् का उपादान बन जाने से सारा जगत् केवल एकसन्तानरूप बन जायेगा। [देशिक आनन्तर्य उ. उ. भाव में अघटित ] यदि कहें कि-वहाँ कालिक आनन्तर्य होने पर भी दैशिक आनन्तर्य पूरे जगत् में नहीं है अत: सारे जगत् में उपादानताप्रसंगमूलक एकसन्तानत्व की आपत्ति नहीं होगी-तो यह कथन भी उपयोगी नहीं, व्यर्थ है, क्योंकि दैशिक आनन्तर्य उपादान-उपादेय में होने का नियम ही नहीं घट सकता। कारण, जिस देश में भावि जन्म होगा, उस जन्म के चित्त के प्रति इस जन्म का चित्त जो कि भिन्न देश में है, उपादान बनता है-यह आप भी मानते हैं। केवल प्रत्ययत्व को भी उपादानत्व नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रत्ययत्व तो सहकारी कारण में भी होता है। सारांश, समनन्तरप्रत्ययत्व को उपादानत्व कहना यूक्त नहीं है। तथा, क्षणिकवादखंडन के प्रतिपादन के प्रसंग में यह भी दिखाया जायेगा कि प्रतिक्षण नश्वर स्वभाववाले पदार्थों में जब लग किसी भी प्रकार से एक अन्वयी तत्त्व न मानेगे तब तक कारणता भी संगत न हो सकेगी तो फिर उपादान-सहकारी आदि विभाग की तो बात ही कहाँ ? ! [ स्वसंतति में ज्ञानस्फुरण से उपादाननियम अशक्य ] इस संदर्भ में कुछ विद्वान विज्ञानक्षण में, स्व-परसन्तान अन्तर्गत कार्यक्षण के प्रति तुल्य जनकता होने पर भी स्वसन्तानवर्ती कार्य का ही वह उपादान है-इस में कारण बता रहे हैं "ज्ञान में ज्ञानान्तरजनकत्व का स्फुरण केवल अपनी सन्तति में ही होता है परसंतति में ऐसा स्फुरण नहीं होता। इस प्रकार अजनकत्व से भिन्न यानी स्वसंतति में स्फुरित जनकत्व स्वरूप उपादानकारणता का निमित्त सम्भवित होने से, इस प्रकार के निमित्त पर अवलंबित हेतु-फल भाव से उपादान ज्ञान की व्यवस्था हो सकती है।" * लिंबड़ी की प्रति में 'चेतितं ज्ञानान्तरजनकत्वं' ऐसा पाठ है, पाठशुद्धि के लिये विशेष शुद्ध प्रति की यहां आवश्यकता है। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः येऽप्यत्राहुः-"सदृश-तादृशभेदेन भावानां विजातीयोत्पत्त्यसम्भवादेतददूषणम्"-तेषामपि सदृशतादृशविवेको नार्वाग्दृक्प्रमातृगोचरः, कार्यनिरूपणायामपि तयोविवेको दुर्लभस्तस्मादयमपरिहारः। यैः पुनरुच्यते-"सर्वस्य समानजातीयादुपादानादत्पत्तिः, प्राद्यस्यापि धमक्षणस्योपादनत्वेन व्यवस्थापिताः काष्ठान्तर्गता अणवः"-तत्रापि सजातीयत्वं न विद्मः / रूपादीनां हि रूपादिपूर्वकत्वेन वा सजातीयत्वम, धमत्वोपलक्षितावयवपर्वकत्वेन वा ? प्राच्य विकल्प नेटानी विजातीयादत्पत्तिगोरप्यश्वादुपजायमानस्य / उत्तरविकल्पेऽपि काष्ठान्तर्गतानामवयवानां धमत्वं लौकिकं पारिभाषिक वा / परिभाषायास्तावदयमविषयः / लोकेऽपि तदाकारव्यवस्थितानामवयवानां नैव धमत्वव्यवहारः। ताकि केणाऽपि लोकप्रसिद्धव्यवहारानुसरणं युक्तं कर्तुम् / तस्मान्न सजातीयादुत्पत्तिः। व्याख्याकार कहते हैं कि स्फुरित ज्ञानान्तरजनकत्वरूप व्यवस्था का निमित्त युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि कोई भी ज्ञान असंवेदित होने पर उसकी व्यवस्था का संभव नहीं है। अत: ज्ञान का सवेदन तो मानना होगा. वह भी आप को स्वतः ही मान्य है. परत: नहीं, तो अब दखिय कि व संतति में जैसे ज्ञान स्वयंस्फुरित होगा वैसे परसंतति में भी वह स्वयं स्फुरित ही होगा, तो ज्ञानान्तरजनकत्व का स्वयं स्फुरण वहाँ भी समान है अतः उपादानत्व की वहाँ भी अतिप्रसक्ति होगी, उसका वारण नहीं हो सकेगा, क्योंकि परसंतति में ज्ञान को स्वयं स्फूरित न मान कर ज्ञानान्तर-वेद्य माना जाय तभी वहाँ अतिप्रसंग का वारण शक्य है किन्तु बौद्ध मत में ज्ञान नियमतः स्वप्रकाश ही होने का सिद्धान्त है-उसका त्याग कैसे किया जा सकेगा अतः अतिप्रसंग अनिवारित ही रहेगा। [ ज्ञान में ज्ञानपूर्वकता का नियम नहीं-नास्तिक ] .. यहाँ नास्तिक यह पूर्वपक्ष करता है कि स्वसंतति के ज्ञान में ज्ञानान्तर जनकता तो 'ज्ञान में स्वसंविदितज्ञानपूर्वकता' का नियम माना जाय तभी हो सकती है किन्तु वह नियम ही सिद्ध नहीं है क्योंकि मूर्छा या सुषुप्ति दशा समाप्त होने के बाद जो आद्यविज्ञान होता है उसमें स्वसंविदित ज्ञानपूर्वकता सिद्ध नहीं है / अरे ! वादीवृन्द में तो वहाँ ज्ञानपूर्वकता में भी विवाद है तो स्वसंविदित ज्ञानपूर्वकता की तो बात ही कहाँ ? शंकाः-ज्ञान में ज्ञानपूर्वकता का निश्चय तो अनुमान से सुलभ है फिर विवाद क्यों ? और अनुमान तो पहले भी [ पृ. 316 पं. 4] दिखाया है कि जिस जाति का कारण हो उसी जाति का काय उत्पन्न होता है अर्थात् कारण-कार्य का साजात्य ही ज्ञान में ज्ञानजन्यता का साधक है / समाधान:-आपकी शंका असार है क्योंकि भिन्नजातीय कारण से भी पदार्थों की उत्पत्ति देखी जाती है, उदा० अग्नि और धूम में साजात्य न होने पर भो कारण-कार्यभाव सिद्ध है। [सदृश-तादृश विवेक अल्पज्ञ नहीं कर सकता-नास्तिक ] जिन लोगों का कहना है कि-"जिस पदार्थ से अपर पदार्थ की उत्पत्ति होती है वह कारणभूत पदार्थ या तो कार्य से सदृश होता है जैसे कि बीज से बीज की उत्पत्ति, अथवा वह कार्य से तादृश होता है जैसे बीज से अंकूर की उत्पत्ति / इस प्रकार कोई भी पदार्थ सदृश अथवा तादृश कारण से ही उत्पन्न होता है, विसदृश अथवा विजातीय से उत्पन्न नहीं होता। अतः पूर्वोक्त किसी भी दूषण को अवकाश नहीं / तात्पर्य, धूम की उत्पत्ति में कारणभूत अग्नि धूम का 'तादृश' कारण होने से यहाँ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यच्चात्रोच्यते-''तस्यामवस्थायां विज्ञानाभावे तदवस्थातः प्रच्युतस्योत्तरकालमीदृशी संवित्तिनं भवेत् 'न मया किंचिदपि चेतितम्' स्मति_यमनुभवपूविका, अतो येनानुभवेन सता न किचिच्चेत्यते तस्यामवस्थायां तस्यावश्यं सद्भावोऽभ्युपगन्तव्यः"- एतत् सुव्याहृतम् , 'न किचिच्चेतितं मया' इति ब्र बता a वस्त्ववेदनं वोच्येत, b स्वरूपावेदनं वा? वस्त्ववेदने सकलप्रतिषेधो न युक्तः / b स्वरूपावेदनं तु स्वसंवेदनाभ्युपगमे दूरोत्सारितम् / तस्मादिदानीमेव मनोव्यापारात् तदवस्थाभावी सर्वानवगमः संवेद्यते। विजातीय से उत्पत्ति जैसा कुछ भी नहीं है।" इसके सामने नास्तिक कहता है कि उनके मत में प्रथम बात तो यह है कि किस पदार्थ का कौन सदृश' भाव है और कौन 'तादृश' भाव है यह विवेक सामान्यदर्शी पुरुषों की ज्ञानशक्ति का अगोचर है। कदाचित् कार्य को देख भेद का विवेक होने का कहा जाय तो यह भी सुलभ नहीं है क्योंकि सदृश तादृश भाव. की कोई स्पष्ट व्याख्या ही नहीं है / अतः 'विजातीय से उत्पत्ति का कोई दोष नहीं है' यह परिहार असार है। '' [ समानजातीय से उत्पत्ति का नियम नहीं-नास्तिक ] किसी का जो यह कहना है कि 'प्रत्येक पदार्थ सजातीय उपादानकारण से ही उत्पन्न होता है, धूम का भी उपादान कारण अग्नि नहीं है किन्तु काष्ठ में छिपे हुए सूक्ष्म धूमाणुसमुदाय ही है ।'किन्तु इस कथन में सजातीयता का स्पष्टीकरण नहीं होता। अत: यह प्रश्न होगा कि a समानरूपादि वाले पदार्थ से रूपादि की उत्पत्ति को सजातीयोत्पत्ति कहते हैं ? या b धूमत्व जिसमें विद्यमान वयवों से धम की उत्पत्ति को सजातीयोत्पत्ति कहते हैं ? a पर्व विकल्प में यह आपत्ति होगी कि अश्व से धेनु की उत्पत्ति कदाचित् हो जाय तो उसे विजातीयोत्पत्ति नहीं कह सकेंगे क्योंकि धेनु की उत्पत्ति समानरूपादिवाले अश्व से ही हो रही है। b दूसरे विकल्प में पुन: दो प्रश्न हैं-धूमत्व जो लोक प्रसिद्ध है उससे सजातीयता मानते हैं या आप जो कुछ धूम त्व की पारिभाषिक व्याख्या करें तदनुसार सजातीयता मानते हैं ? धूमत्व यह पारिभाषिकव्याख्या का तो विषय नहीं है क्योंकि वह सर्वजन प्रसिद्ध वस्तु है, केवल शास्त्रप्रसिद्ध नहीं है / लोक में जिसका धूमत्वरूप से व्यवहार होता है वैसा धमत्व काष्ठादि अन्तर्गत धमाण समदाय में तो कभी व्यवहृत नहीं होता अतः लौकिक धमत्व से भी सजातीयोत्पत्ति की बात असंगत है / जो कोई सर्वलोक प्रसिद्ध व्यवहार होता है उसका अनुसरण तो ताकिकों को भी करना ही चाहिये। निष्कर्ष:-'सजातीय से ही उत्पत्ति' का सिद्धान्त असार है। [ उत्तरकालीन स्मृति से सुषुप्ति में विज्ञान सिद्धि अशक्य-नास्तिक] यह जो कहा जाता है कि-यदि सुषुप्ति अवस्था में विज्ञान का सर्वथा अभाव होगा तो सुषुप्तिदशा पूर्ण हो जाने के बाद यह जो संवेदन होता है 'मुझे कुछ पता ही नहीं चला' यह नहीं हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि यह जो संवेदन होता है वह स्मरणात्मक है, अनुभवरूप नहीं है [ क्योंकि सुषुप्तिकालीन विषय का वर्तमान संवेदनरूप है। ] अतः यह स्मृति अवश्य सुषुप्ति अन्तर्गत अनुभव पूर्वक ही होनी चाहिये / इस लिये, जिस अनुभव की विद्यमानता में बाह्य किसी भी पदार्थ का पता ही नहीं चलता उस अनुभव का [ जिसको सौगत मत म आलयविज्ञान कहा जाता है-J सद्भाव सुषुप्ति अवस्था म अवश्य ही मानना चाहिये ।-इस कथन के ऊपर कटाक्ष करता हुआ नास्तिक Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 367 अस्तु वा तस्यामवस्थायां विज्ञानं, तथापि जनकत्वातिरिक्तव्यापारविशेषाभावः / समनन्तरप्रत्ययत्वे जनकत्वाऽतिरिक्तेऽभ्युपगम्यमाने तयोस्तात्त्विक भेदप्रसंगः, तथा च 'यदेवैकस्यां ज्ञानसन्ततो समनन्तरप्रत्ययत्वं तदेव परसन्तताववलम्बनत्वेन जनकत्वम्' इत्येतन्न स्यात् / अथ जनकत्वसमनन्तरत्वादयो धर्माः काल्पनिकाः, अकल्पित तु यत् स्वरूपं तत्तात्त्विक, तच्च बोधरूपम् / किमिदानी सांवृताद रूपाद भावानामुत्पत्तिः ? नेत्युच्यते, कथं वा काल्पनिकत्वम् ? अथ जनकत्वातिरिक्तस्य समनन्तरप्रत्ययत्वस्यैवमुच्यते, कथं तन्निबन्धना व्यवस्था ? तथाहि-एकस्यां सन्ततौ परसंततिगतेन विज्ञानेन तुल्येऽपि जनकत्वे समनन्तरप्रत्ययत्वेन जननविशेषमंगीकृत्यैकसंतानव्यवस्था क्रियते, यदा तु व्यवस्थानिबन्धनस्यापि सांवृतत्वं ततस्तत्कृताया व्यवस्थायाः परमार्थसत्त्वं दुर्भणमिति / अयमपि सौगतानां दोषो न जैनानाम् , यतो 'ज्ञानपूर्वकत्वं ज्ञानस्य, स्वसंवेदनं च ज्ञानस्य स्वरूपम्' इत्येतत् प्राक् प्रसाधितम् / कहता है-आपने यह बहुत ही अच्छा कहा, अर्थात् विना सोचे ही कह दिया है / अब यह सोचिये कि 'मुझे कुछ पता ही नहीं चला' ऐसा बोलने वाला क्या a सुषुप्ति अवस्था में वस्तु ( बाह्यवस्तु ) का असंवेदन ही बता रहा है या b विज्ञान के स्वरूप का असंवेदन ही बता रहा है ? a केवल वस्तु वेदन कहेंगे तो इससे सकल पदार्थ का निषेध नहीं हो सकता क्योंकि ज्ञान का तो संवेदन होगा ही। b अगर कहें-ज्ञान के स्वरूप का भी संवेदन नहीं होता है तो यह बात विसंवाद के कारण दूर भाग जायेगी, क्योंकि आप तो ज्ञान को स्वसंविदित मानते हैं और यहाँ सुषुप्ति में ज्ञान होने पर भी उसका संवेदन नहीं होता, ऐसा प्रतिपादन कर रहें हैं, अतः स्पष्ट विसंवाद है। इस चर्चा से यही सार निकलता है कि सुषुप्तिकाल में जो सर्वथा ज्ञानाभाव होता है उसका सुषुप्ति उत्तरकाल में मन के व्यापार से अनुभव होता है, स्मरण नहीं। . [ सुषुप्ति में विज्ञान मान लेने पर भी व्यापारविशेषाभाव ] - [ नास्तिक:-] अथवा सुषुप्ति अवस्था में विज्ञान को मान लिया जाय तो भी उसमें उत्तरक्षण के प्रति जनकत्व से अधिक कोई भी विशिष्ट व्यापार नहीं मानना चाहिये / [ तात्पर्यः-उपादानत्वादिरूप कोई विशेष व्यापार न होने से सजातीयोत्पत्ति पक्ष असिद्ध है ] / यदि उपादानत्व सिद्ध करने के लिये समनन्तरप्रत्ययत्व को जनकत्व से भिन्न मानेंगे तब तो जनकत्व और समनन्तरप्रत्ययत्व का वास्तविक भेद प्रसक्त होगा। इस स्थिति में यह कहना व्यथ होगा कि-'स्वकीय एक सन्तान में उत्पन्न हान वाले उत्तरक्षण के प्रति.पूर्वेक्षण में जा समनन्तरप्रत्ययत्व है वही परसततिगतोत्तरक्षण के प्रति जनकत्व है'-क्योंकि आप दोनों को भिन्न मानते हैं। [ जनकत्वादिधर्मों की काल्पनिकता कैसे ?-नास्तिक ] यदि यहाँ बौद्ध ऐसा कहें कि-'जनकत्व-समनन्तरप्रत्ययत्व आदि धर्म तो काल्पनिक हैं-उनमें भेद माने तो कोई हानि नहीं है / वस्तु का जो अकाल्पनिक स्वरूप होता है वही तात्त्विक होता है, और वह तो ज्ञानरूपता ही है।'-तो इसके उपर प्रश्न है कि क्या आप कल्पित जनकत्वादि रूप से: भाव की उत्पत्ति मानने का साहस करते हैं ? यदि नहीं, तो फिर जनकत्वादि काल्पनिक कैसे माना जाय ? अगर कहें कि-'हम जनकत्व को वास्तविक मानते हैं किन्तु समनन्तरप्रत्ययत्वादि को ही काल्पनिक मानते हैं तो फिर से यह प्रश्न होगा कि काल्पनिक समनन्तरप्रत्ययत्व से स्वसंतति में उपादानत्व की तात्त्विक व्यवस्था कैसे की जा सकेगी? जैसे देखिये-एक संतति में उत्तरक्षण के प्रति Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यच्चोक्तम् 'अतज्जातीयादपि भावानामुत्पत्तिदर्शनात , यथा धमादेः' इत्यपि न संगतम् , यतो नास्माभिरतज्जातीयोत्पत्ति भ्युपगम्यते-विलक्षणादपि पावकात् धमोत्पत्तिदर्शनाद-किन्तु कारणगतधर्मानुविधान कार्यत्वाभ्युपगमनिबन्धनम् , तच्च ज्ञानस्य प्रदर्शितं प्राक् / न च काय-विज्ञानयोरिवानलधूमयोः सर्वथा वैलक्षण्यम् , पुदगलविकारत्वेन द्वयोरपि सादृश्यात् / सर्वथा सादृश्ये च कार्यकारणभावाभावप्रसंग: एकत्वप्राप्तेः / यत्त 'सदृशताशविवेकः कार्यनिरूपणायामपि दुर्लभः' तत्र यः कार्यदर्शनादपि विवेकं नावधारयितुं क्षमस्तस्यानुमानव्यवहारेऽनधिकार एव / तदुक्तम्-"सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरति, अतस्तदवधारणे यत्नो विधेयः / " [ ] अत एव 'रूपादीनां हि रूपादिपूवकत्वन वा' इत्यादि अनभिमतोपालम्भमात्रम, कथञ्चित सादृश्यस्य कार्यकारणयोदशितत्वात , तस्य च प्रकृते प्रमाणसिद्धत्वात् / जैसे जनकता होती है वैसे परसंतति में भी विज्ञान की जनकता समान ही है, अतः उपादान-उपादेयक्षणों में एक संतान की व्यवस्था करने के लिये आप पूर्वक्षण के विज्ञान में 'समनन्तर प्रत्ययत्व' इस विशेषरूप से कारणता का अंगीकार करते हैं, किंतु यदि वह व्यवस्था का निमित्तभूत धर्म ही काल्पनिक है तो उससे की गयी व्यवस्था को पारमार्थिक सत् कहना दुष्कर है। . [ नास्तिक प्रयुक्त दृषण जैन मत में नहीं है-उत्तरपक्ष ] उपरोक्त नास्तिक के पूर्वपक्ष के प्रत्युत्तर में व्याख्याकार कहते हैं कि आपका यह सब दोषारोपण है वह बौद्ध मत के ऊपर लागू हो सकता है किन्तु जैन मत में वह निरवकाश है, क्योंकि हमने जैन प्रक्रियानुसार 'ज्ञानमात्र ज्ञानपूर्वक ही होता है' और 'ज्ञान का स्वरूप स्वसंविदित है' यह पहले सिद्ध किया हुआ है। [ पृ. 328 पं. 8 ] [ कार्यत्वाभ्युपगम कारणधर्मानुविधानमूलक है ] यह जो पूर्वपक्षी उपालम्भ देता था-असमानजातीय कारण से भी कार्य की उत्पत्ति दिखती है, उदा० अग्नि से धूम की उत्पत्ति ।-यह उपालम्भ असंगत है, क्योंकि असमानजातीय कारण से कार्योत्पत्ति का हम इनकार नहीं करते हैं, यतः विलक्षण अग्नि से विलक्षण धूम की उत्पत्ति हम भी देखते हैं / किन्तु यह तो मानना ही होगा कि कार्यत्व की उपलब्धि कारणगतधर्मों के अनुसरणमूलक है / ज्ञान शरीरधर्मों का नहीं किन्तु आत्मधर्मों का अनुसरण करता है यह तो पहले दिखा दिया है [पृ. 315/6] देह और विज्ञान में तो कुछ भी सादृश्य नहीं है अपितु अत्यन्त वैलक्षप्य ही है जब कि अग्नि और धूम में उतना वैलक्षण्य नहीं है, क्योंकि दोनों ही पुद्गल के विकार (=परिणाम) ही हैं, अतः इतना सादृश्य भी है / सम्पूर्णतया सादृश्य की अपेक्षा रखना बेकार है, क्योंकि तब कार्य और कारण दोनों एक-अभिन्न हो जाने से कारण-कार्यभाव का ही विलोप हो जायेगा। [ विवेककौशल का अभाव अधिकाराभाव का सूचक ] यह जो पूर्वपक्षी ने कहा है कि-कारणों में सादृश्य और तादृश्य का विवेक करना दुष्कर हैयहाँ कहना पड़ेगा कि जो कार्य देख कर भी वैसे विवेक के अवधारण में असमर्थ है उस महाशय को अनुमानव्यवहार में अधिकार ही प्राप्त नहीं है, क्योंकि यह सुना जाता है कि-"अच्छी तरह निरीक्षित (परीक्षित) कारण, कार्य का व्यभिचारी नहीं होता, इसलिये कारण की यथार्थ परीक्षा में यत्न करना Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-परलोकवादः यच्च सुप्त-मूर्छिताद्यवस्थासु विज्ञानाभावेन तत्पूर्वकत्वमुत्तरज्ञानस्य न सम्भवति' इत्यभ्यधायि, तदसत्; तदवस्थायां विज्ञानाभावग्राहकप्रमारणाऽसंभावात् / तथाहि-न तावत सुप्त एव तदवस्थायां विज्ञानामावं वेत्ति, तदा विज्ञानानभ्युपगमात , तदवगमे च तस्यैव ज्ञानत्वाद् न तदवस्थायां तदभावः / नापि पार्श्वस्थितोऽन्यस्तदभावं वेत्ति, कारण-व्यापक स्वभावानुपलब्धीनां विरुद्धविधेर्वाऽत्र विषयेऽव्यापारात, अन्यस्य तदभावावभासकत्वायोगात / न चाभाववत्तद्धावस्यापि तस्यामवस्थायामप्रतिपत्तिः, स्वात्मनि स्वसंविदितविज्ञानाऽविनाभूतत्वेन निश्चितस्य प्राणाऽपानशरीरोष्णताकारविशेषादेस्तदवस्थायामुपलभ्यमानलिंगस्य सद्भावेनानुमानप्रतीत्युत्पत्तः / जाग्रदवस्थायामपि परसंततिपतितचेतोवृत्तेरस्मदादिभिर्यथोक्तलिंगदर्शनोद्भूतानुमानमन्तरेणाऽप्रतिपत्तेः / ....."न किंचित् चेतितं मया' इति स्मरणादुत्तरकालभाविनस्तदवस्थायामनुभवानुमाने कि वस्त्वसंवेदनम् , स्वरूपाऽसंवेदनं वा"....इत्यादि यद् दूषणमभिहितं; तदप्यसारम् , जाग्रदवस्थाभाविस्वसंविदितगच्छतुणस्पर्शज्ञानाश्वविकल्पसमयगोदर्शनादिषत्तरकालभावि 'न मया किंचिदुपलक्षितम्' चाहिये"। कारण का विवेक प्रयत्नसाध्य है इसीलिये, पूर्वपक्षी का यह उपालम्भ भी अस्वीकारपराकृत हो जाता है कि 'रूपादि में रूपादिपूर्वकता यह साजात्य है या धूमत्वोपलक्षितावयवपूर्वकत्व'.... इत्यादि / कारण यह है कि हमने कारण आत्मा और कार्य ज्ञान का सादृश्य प्रदर्शित किया है और प्रस्तुत में उन दोनों का कारणकार्यभाव प्रमाणसिद्ध भी है। [ सुषुप्ति में विज्ञानाभाव साधक प्रमाण नहीं है ] पूर्वपक्षी का यह कहना भी ठीक नहीं है कि-"सुषुप्ति और मूर्छादि दशा में विज्ञान न होने से सुषुप्तिआदि के उत्तरकाल में होने वाले विज्ञान में ज्ञानपूर्वकता का सम्भव नहीं है" / ठीक न होने का कारण यह है कि मूर्छादि दशा में विज्ञान के अभाव का साधक किसी भी प्रमाण का सम्भव नहीं है। देखिये, सोये हुए पुरुष को निद्रावस्था में ऐसा तो अनुभव मान्य नहीं है कि 'अब मेरे में विज्ञान नहीं है'; यदि ऐसा अनुभव मान्य होगा तब तो उसी विज्ञान की सत्ता मान लेनी होगी, फलत: निद्रावस्था में ज्ञानाभाव नहीं सिद्ध होगा। निकटवर्ती अन्य किसी व्यक्ति को भी सोये हुये पुरुष में विज्ञान के अभाव का पता नहीं चल सकता, क्योंकि विज्ञान के कारण की अनुपलब्धि, व्यापक की अनुपलब्धि या स्वभावानुपलब्धि अथवा विज्ञान के विरोधी की विधि यानी उपलब्धि इन में से किसी का भी विज्ञानाभावग्रहणरूप विषय में कोई व्यापार उपलब्ध नहीं है और इन से अतिरिक्त भी विज्ञानाभावसाधक कोई प्रमाण नहीं है। [सुषुप्ति में विज्ञानसाधक प्रमाण ] यदि कहें कि-'जैसे उस दशा में विज्ञानाभावसाधक कोई नहीं है वैसे ही विज्ञान के सद्भाव की उपलब्धि भी नहीं है'-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि उस दशा में विज्ञानसत्ता की साधक अनुमान प्रतीति की उत्पत्ति सुलभ है और उस अनुमान का प्रयोजक लिंग भी है। वह इस प्रकार-आत्मा में निद्रावस्था में स्वसंविदित विज्ञान के अविनाभाविरूप में सुनिश्चित प्राण अपान वायु का संचार, तथा शरीरगत उष्णतादि ही विज्ञान के लिंगभूत हैं जो उस अवस्था में स्पष्ट उपलब्ध होते हैं। जाग्रत् अवस्था में भी उपरोक्त लिंग के दर्शन से जन्य अनुमानप्रतीति के विना परसंतानगत चित्तवृत्ति ' (विज्ञानादि ) का उपलम्भ शक्य नहीं है / Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 इति स्मरणलिंगबलोद्भूतानुमानविषयेष्वप्यस्य समानत्वात् / न च स्वसंविदितविज्ञानवादिनोऽत्रापि समानो दोष इति वक्तुयुक्तम् , “यस्य यावती मात्रा" [ ] इति स्वसंविदितज्ञानस्याभ्युपगमात् / यच्च 'समनन्तरसहकारित्वाद्यनेकधर्मयुक्तत्वमेकक्षणे ज्ञानस्यासज्यते' इति प्रतिपादितम् तदभ्युपगम्यमानत्वेनाऽदूषणम् / अतः पौर्वापर्यव्यवस्थित-हर्षविषादाद्यनेकपर्यायव्याप्येकात्मव्यतिरेकेण ज्ञानयोः स्वसन्तानेऽप्यनुसन्धाननिमित्तोपादानोपादेयभावाऽसम्भवाद् न परसन्तानवदनुसन्धानप्रत्ययः स्यात् / दृश्यते च, प्रतोऽनेकत्वव्यावृत्तादनुसन्धानप्रत्ययादपि लिंगादात्मसिद्धिः / अथापि स्याद् , गमकत्वं हि हेतोः स्वसाध्याऽविनामावग्रहणपूर्वक, तद्ग्रहणं च धर्म्यन्तरे, न चाककर्तृकत्वेन साध्यमिव्यतिरिक्ते धर्म्यन्तरे प्रतिसन्धानस्य व्याप्तिः येन प्रतिसंधानादेक: कर्ताऽनुमीयेत / अथ ब्रषे क्षणिकतासाधकस्य सत्ताख्यस्य हेतोर्यथा धर्मान्तरे व्याप्त्यग्रहणेऽपि गमकता [ 'मुझे कुछ पता नहीं चला' यह स्मरण अनुभवसाधक है ] . पूर्वपक्षी ने जो यह दूषणोल्लेख किया था-'मुझे कुछ भी पता नहीं चला' इस प्रकार के उत्तरकालभावि स्मरण से निद्रावस्था में जो अनुभव का अनुमान किया जाता है वहाँ क्या वस्तुमात्र का असंवेदन है या अपने स्वरूप का असंवेदन है ? इत्यादि....[ पृ. पं. 366/3 ]- वह तो असार ही है क्योंकि ऐसा दुषण तो अन्यत्र भी लगा सकते हैं; जैसे कि, जाग्रत् अवस्था में चलते चलते होने वाला स्वसंविदित तृणस्पर्शज्ञान, तथा अश्व के विकल्पज्ञान के समय ही होने वाला गोदर्शन, इन दोनों का उत्तरकालभावि 'मुझे कुछ पता ही नहीं चला' इस प्रकार के स्मरणात्मक लिंग के बल से जो अनुमान किया जाता है उस अनुमान का विषय वह तृणस्पर्शानुभव और गोदर्शनानुभव भी पूर्वोक्त रीति से ही विवाद का विषय बनाया जा सकता है कि उक्त अनुभव में क्या वस्तु का ही असंवेदन है या अपने स्वरूप का असंवेदन ? इत्यादि / अतः निद्रावस्था के अनुभव में आपादित दूषण यहाँ समान होने से अकिंचित्कर हो जाता है। यदि कहें कि-"आप तो स्वसंविदितज्ञानवादी हैं अतः तृणस्पर्शज्ञान और गोदर्शन स्वसंविदित ही होगा, तो आपने जो समान दोष यहाँ दिखाया वह तो आपके ही मत में एक ओर दूषण प्रकट हआ-तो उससे हमारा क्या बिगड़ा?"-तो यह कहना युक्तिपूर्ण नहीं है क्योंकि 'यस्य यावती म अर्थात् जिसकी जितनी मात्रा संवेदनयोग्य हो उतने का ही संवेदन होता है, इस न्याय से स्वसंविदितज्ञान को भी हम उतनी ही मात्रा में स्वसंविदित मानते हैं जिससे 'मुझे कुछ पता ही नहीं चला' ऐसा स्मरण उपपन्न हो सके। ऐसा जो आपने कहा था कि-'एक ही क्षण में ज्ञान में समनन्तरत्व-सहकारित्वादि अनेक धर्मों का मिश्रण प्रसक्त होता है' वह तो हम स्वीकारते ही है अतः वह कोई दूषण नहीं है। उपरोक्त रीति से यदि पूर्वापरभावव्यवस्थित हर्ष-शोक आदि पर्यायों में व्यापक एक आत्मा को नहीं माना जायेगा तो स्वसंतान के दो ज्ञान में भी अनुसंधान प्रतीतिनिमित्तभूत उपादानोपादेयभाव न घट सकने से अनुसन्धानप्रतीति नहीं होगी, जैसे कि उपादानोपादेयभाव के विरह में परसन्तानगतज्ञान के अनुसंधान की प्रतीति नहीं होती है। किन्तु, स्वसन्तानगतज्ञान की तो अनुसंधान प्रतीति होती है और यह अनुसंधान प्रतीतिअनुसंधाता के ऐक्यमूलक ही है अत: अनैक्यमूलकप्रतीति से भिन्न ऐसे अनुसंधानप्रत्यय से आत्मसिद्धि निर्बाध है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 371 तद्वदस्यापि / एतदचारु, तस्य हि क्षणिकतायां प्राक् प्रत्यक्षेण निश्चयात् निश्चयविषयेण च व्याप्तेदर्शनाद् विपक्षात् प्रच्यावितस्य बाधकप्रमाणेन साध्यमिणि यदवस्थानं तदेव स्वसाध्येन व्याप्तिग्रहणम् / अत एवाऽस्य हेतोः साध्यमिण्येव व्याप्तिनिश्चयमिच्छन्ति / ननु व्याप्ति-साध्यनिश्चययोनियमेन पौर्वापर्यमभ्युपगन्तव्यम् , व्याप्तिनिश्चयस्य साध्यप्रतिपत्यंगत्वात , अत्र तु साध्यमिणि व्याप्तिनिश्चयाभ्युपगमे साध्यप्रतिपत्तिकालोऽन्योऽभ्युगन्तव्यः, न चासावन्योऽनुभूयते, अस्त्येतत्कार्यहेतोः कस्यचित् स्वभावहेतोरपि, अस्य तु बाधकात् प्रमाणाद्विपक्षात प्रच्युतस्य यदेव साध्यमिणि स्वसाध्यव्याप्ततया ग्रहणम् तदेव साध्यग्रहणम् / न चास्यैवं द्वैरूप्यम् , यतो विपक्षाद्वयावृत्तिरेवान्वयमाक्षिपति / [अन्यधर्मी में प्रतिसंधान की व्याप्ति के अग्रहण की शंका] बौद्धवादी:-प्रतिसंधान हेतु से आप एककर्तृकत्व सिद्ध करना चाहते हैं। हेतु में साध्यबोधकता अपने साध्य के साथ अविनाभाव यानी व्याप्ति गृहीत होने पर ही हो सकती है। व्याप्तिग्रह तो प्रसिद्ध किसी अन्य धर्मी में ही होता है, नहीं कि साध्यधर्मी में / जब प्रतिसंधान हेतु की एकसन्तानीयप्रतिभासरूप साध्यधर्मी से अन्य धर्मी में एककर्तृकत्व के साथ व्याप्ति ही दृष्ट नहीं है तो प्रतिसंधान हेतु से एकसन्तानीयप्रतिभासद्वय में एक कर्ता की अनुमिति कैसे हो सकेगी? यदि शंका करें कि-'जैसे आपके मत में प्रत्येक वस्तु में क्षणिकत्व साध्य के साधक हेतू सत्त्व की व्याप्ति साध्यधर्मी से इतरधर्मी में अगृहीत होने पर भी सत्त्व हेतु से क्षणिकत्व सिद्ध किया जाता है वैसे प्रस्तुत में एकसन्तानीयप्रतिभासरूप साध्यधर्मी से अन्यत्र व्याप्ति गृहीत नहीं है तो भी साध्य सिद्ध हो सकता है।'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि हमारे मत में, व्याप्तिग्रहण के पूर्वकाल में ही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से क्षणिकत्व का निश्चय हुआ रहता है और व्याप्ति तो निश्चयविषयभूत पदार्थ के साथ ही देखी जाती है तो यहां निश्चयविषयभूतपदार्थ क्षणिकत्व का जो विपक्ष है. अक्षणिकपदार्थ उसमें सत्त्व के रहने में बाधक प्रमाण विद्यमान होने से विपक्ष से निवर्तमान सत्त्वरूप हेतू केवल साध्यधर्मी क्षणिक में ही रह सकता है यह निर्णय जो होता है यही अपने साध्य के साथ व्याप्तिग्रहणरूप है। यहाँ व्याप्तिग्रह अन्यधर्मी में होना आवश्यक न होने से हमारे आचार्य सत्त्व हेतु की व्याप्ति का निश्चय साध्यधर्मी में ही होने का मान्य करते हैं / [क्षणिकत्व व्याप्ति निश्चय की भी असिद्धि-समाधान ] जैनवादीः-व्याप्ति का निश्चय और साध्य की अनुमिति अवश्यमेव पूर्वापर भाव से होते हैं / यह तो किसी भी व्यक्ति को मानना पड़ेगा क्योंकि साध्य निश्चय में व्याप्ति का निश्चय अंगभूत मी कारणभूत है / क्षणिकत्व सिद्धि स्थल में भी यदि आप साध्यधमी में ही व्याप्ति का निश्चय मानेंगे तो साध्य के निश्चय का काल उससे अन्य ही मानना होगा, किन्तु वह 'साध्यनिश्चयकाल व्याप्ति के निश्चयकाल से अन्य है' ऐसा तो अनुभव होता नहीं है / हाँ, कार्यहेतुस्थल में और कोई कोई स्वभावहेतुस्थल में स्पष्टतया भिन्नकाल का अनुभव होता है इस लिये ऐसा नहीं कह सकते कि 'यहां भी व्याप्ति निश्चय है और साध्यनिश्चय भिन्नकाल में ही होता है केवल शीघ्रता के कारण ही अनुभव नहीं होता।' यहाँ तो बाधक प्रमाण के द्वारा विपक्ष से व्यावृत्त Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 इयांस्तु विशेषः कस्यचिद्धेतोर्व्याप्तिविषयदर्शनाय धर्मिविशेषः प्रदर्श्यते, अस्य तु 'यत् सत् तत् क्षणिकं' इतिर्धामविशेषाऽप्रदशनेऽपि धर्मिमात्राक्षेपेण व्याप्तिप्रदर्शनम् / तच्च सत्त्वं क्वचिद् व्यवस्थितमुपलभ्यमानं क्षणिकताप्रतिपत्त्यंगम् , अतः पक्षधर्मताऽप्यत्रास्ति, न चात्रैवम् / . ___ अत्राप्येनमेव न्यायं केचिदाहः / कथम् ? तत्र हि व्यापकस्य क्रमयोगपद्यस्य निवृत्त्या विपक्षात् तन्निवृत्तिः अत्रापि प्रमातृनियतताया व्यापिकाया अभावाद् विपक्षात प्रतिसंधानलक्षणस्य हेतोनिवृत्तिः / अथ तत्र बाधकप्रमाणस्य व्याप्तिः प्रत्यक्षेण निश्चीयते क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाकरणस्य प्रत्यक्षेण . निश्चयात् , अत्र तु कथम् ? अत्रापि प्रमातृनियमपूवकत्वेन स्वसन्तान एव प्रतिसंधानस्य व्याप्तिनिश्चयात् कथं न तुल्यता ? किये गये सत्त्व हेतु का जो साध्यधर्मी में साध्यधर्म क्षणिकत्व के साथ व्याप्तत्वरूप से ग्रहण होता है उसीको आप साध्य क्षणिकत्व का ग्रहण दिखाते हैं। ऐसा कोई द्वैविध्य सिद्ध नहीं है कि कोई एक .. साध्य का निश्चय व्याप्तिनिश्चय से भिन्नकालीन हो और दूसरा समानकालीन हो जिससे कि आप सत्त्वहेतु की विपक्ष से निवृत्ति को ही क्षणिकत्व अन्वय का आक्षेपक कह सकें। [ सत्त्व और प्रतिसंधान हेतुद्वय में विशेषता] सत्त्व हेतु और अनुसंधान हेतु, इन में इतना अन्तर जरूर है कि, किसी हेतु की व्याप्ति का विषय दिखाने के लिये धर्मीविशेष का प्रदर्शन किया जाता है, जो सत् है वह क्षणिक है' इस व्याप्ति का प्रदर्शन धर्मीविशेष का प्रदर्शन किये विना भी केवल धर्मीसामान्य के निर्देश मात्र से किया जाता है। इस स्थल में सत्त्वहेतु किसी धर्म में उपलब्ध होकर क्षणिकत्व के अनुमान का अंग बनता है, इसीलिये यहाँ पक्षधर्मता का सद्भाव भी है। अनुसंधान हेतु स्थल में ऐसा नहीं है क्योंकि अनुसंधान के आधारभूत एक धर्मी आत्मा की ही यहां सिद्धि की जा रही है अतः धर्मिविशेष में या सामान्यत: किसी धर्मी में हेतु का निर्देश किये विना ही अर्थात् पक्षधर्मता के विना भी अनुसंधान हेतु से आत्मा की सिद्धि की जाती है। किन्तु यह कोई ऐसा अन्तर नहीं है जो आत्मसिद्धि में बाधक बने / [ सत्त्वहेतु और अनुसंधानहेतु में समानता-अन्यमत ] कुछ विद्वान् तो ऐसा कोई अन्तर माने विना ही सत्त्व हेतु में जैसा न्याय है उसका यहां भी साम्य दिखाते हये यह कहते हैं कि जैसे विपक्षभूत अक्षणिक वस्तु में से क्रम से या यूगपद् अर्थक्रियाकारित्वरूप व्यापक की निवृत्ति से सत्त्व की निवृत्ति मानी जाती है, तो यहाँ भी विपक्षभूत भिन्न सन्तानीय प्रतिभास में से प्रमातृनियतत्वरूप व्यापक की निवृत्ति से अनुसंधानात्मक हेतु की निवृत्ति सिद्ध होती है / यदि शंका हो कि-'स्थिर वस्तु में क्रम-योगपद्य के बाधक प्रमाण की व्याप्ति ( यानी सावकाशता) प्रत्यक्षसिद्ध है क्योंकि क्षणिक में ही क्रमयोगपद्य से अर्थक्रियाकरण का प्रत्यक्ष से निश्चय होता है। अनुसंधान स्थल में ऐसा कैसे कहोगे ?'-तो इसका उत्तर यह है कि स्वसन्तान में ही प्रमातृ नियम पूर्वक ही प्रतिसंधान होता है इस व्याप्ति का निश्चय भी स्वसन्तान में प्रत्यक्ष से सिद्ध है तो भिन्नकर्तृक सन्तान में प्रमातृनियतत्व के बाधक प्रमाण की व्याप्ति प्रत्यक्षसिद्ध क्यों नहीं होगी? अर्थात् उभय स्थान में तुल्यता है / Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 373 अथ ब्र यात 'प्रमातृनियता' इत्यस्य भाषितस्य कोऽर्थः ? यदि परं भंग्यन्तरेणैककर्तृ कत्त्वं साध्यं व्यपदिश्यते तस्य प्रत्यक्षेण निश्चयाभ्युपगमे कथं बाधकप्रमाणावसेयता व्याप्तेः? नैतत् . प्रमातृनियतताग्रहणं नैककर्तृकत्वग्रहणं, सर्वे एव हि भावाः देशादिनियततयाऽवसीयमाना व्यवहारगोचरतामुपयान्ति, प्रमातुरप्यवसाय एवमेव दृश्यते-'इदानीमत्राहम्' / एवं देशाद्यसंसर्गवत् प्रमात्रन्तराऽसंसर्गोऽपि निश्चीयते / तथाहि-देशकालनिबन्धननियमवत् व्यतिरिक्तपदार्थाऽसंसर्गस्वभावनियतप्रतिभासोऽपि घटादेरिव अत्रैकत्वाऽनेकत्वनिश्चयाऽभावः / पूर्वपाक्षिकमते तस्य नानाकर्तृ केषु सन्तानान्तरेषु व्यापकस्याभावाद् विपक्षात प्रच्युतस्य प्रतिसंधानस्य क्वचिदुपलभ्यमानस्यैककर्तृत्वेन व्याप्तिः / यथा कमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाकरणदर्शने नैवं निश्चय:-'कि क्षणिकैः क्रम-योगपद्याभ्यां सा क्रियते आहोस्विदन्यथा' इति, अथ च प्रत्यक्षेण बाधकस्य व्याप्त्यवसाये पश्चाद् व्यापकानुपलब्ध्या मूलहेतोर्व्याप्ति सिद्धिः; एवमेककर्तृ कत्वानवसायेऽपि प्रमातृनियततया प्रतिसन्धानस्य स्वसन्ततौ व्याप्तिनिश्चये सत्युतरकालं विपक्षे व्यापकस्य प्रमातृनियतत्वस्याभावादेककर्तृ कत्वेन प्रतिसन्धानस्य व्याप्तिसिद्धिः / एवमनभ्युपगमे 'अहम् अन्यो वा' इति प्रमात्रनिश्चये प्रमेयाऽनिश्चयादन्धमूकं जगत् स्यात् / औपचारिकस्य प्रमातृनियततया प्रतिभासविषयत्वेऽनात्मप्रत्यक्षत्वं दोषः। . [प्रमातृनियतत्व और एककत कत्व एक नहीं है ] शंकाः-'प्रमातृनियतत्व' इस शब्द का क्या अर्थ अभिप्रेत है ? प्रकारान्तर से यदि एकककत्वरूप साध्य का ही निर्देश करना है तो उसका निश्चय तो आप प्रत्यक्ष से ही दिखा रहे हैं फिर एककर्तृ कत्व की व्याप्ति का ज्ञान बाधक प्रमाण से दिखाना कैसे संगत होगा? ___समाधान:-शंका ठीक नहीं है, प्रमातृनियतत्व का ज्ञान और एककर्तृकत्व का ज्ञान अभिन्न नहीं है। प्रमातनियतत्व का अर्थ यह है कि-जैसे सभी वस्तु देश-कालनियतरूप से ज्ञात होकर व्यवहारापन्न होती हैं उसी प्रकार प्रमाता भी देश-काल नियतरूप से ही ज्ञात हो कर व्यवहारपथ में देखा जाता है, उदा०-"मैं अब यहाँ हूँ"। जैसे सभी भाव में नियतदेशकाल से अन्य देश-काल का * असंसर्ग निश्चयगोचर होता है उसो तरह प्रतिसंधान में अन्य प्रमाता का भी असंसर्ग निश्चयगोचर होता है। जैसे देखिये-घटादि में देश-कालमूलक नैयत्य की तरह भिन्न पदार्थासंसर्गस्वभावनैयत्य का जैसे प्रतिभास होता है वैसे प्रतिसंधान में भी अन्यप्रमातृ-असंसर्गस्वभावनैयत्य का प्रत्यक्ष से ही प्रतिभास होता है / इस तरह प्रमातृनियतत्व यही एककर्तृ कत्वरूप नहीं है, क्योंकि यहाँ कर्ता के एकत्व या अनेकत्व के प्रत्यक्षनिश्चय की कोई बात नहीं है। अब हम कह सकते हैं कि पूर्वपक्षी के मत में भिन्नकर्तृक अन्य संतान में प्रमातृनियतत्वरूप व्यापक का अभाव होने से विपक्षभूत भिन्नकर्तृक अन्य संतान से निवर्तमान प्रमातृनियतत्व का व्याप्य प्रतिसंधान भी विपक्षनिवृत्त हो जाने से एककर्तृकत्व के साथ क्वचिदुपलब्ध प्रतिसंधान की व्याप्ति निविघ्न सिद्ध होती है / [ एककत कत्व की प्रतिसंधान में व्याप्ति की सिद्धि ] तात्पर्य यह है कि (यथा क्रम-)-जैसे क्रम- योगपद्य से अर्थक्रियाकरण का दर्शन होता है उस वक्त यह निश्चय नहीं होता है कि यह क्रम-योगपद्य से की जाने वाली अर्थक्रिया क्षणिकभावों से की जाती है या अक्षणिक भावों से ? ऐसा निश्चय न होने पर भी प्रत्यक्ष से विपक्ष में बाधक की व्याप्ति (प्रवृत्ति) ज्ञात होने पर पीछे व्यापकनिवृत्तिमूलक मूलहेतु की व्याप्ति सिद्ध की जाती है-ठीक उसी Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तत्रत् स्यात्-प्रस्त्ययं प्रमातृनियमनिश्चयः, स तु स्वसंततौ किमेककर्तृ कत्वकृतः उतस्विन्निमित्तान्तरकृतो युक्तः ? तच्चैकस्यां सन्ततौ हेतुफलभावलक्षणं प्राक् प्रदर्शितम् / सत्यम् , प्रदशितं न तु साधितम् / तथाहि-तत्कृतः प्रमातृनियमो नान्यकृत इति नैतावत्प्रत्यक्षस्य विषयः, न च प्रमाणान्तरस्यापि / तद्धि अस्मिन् विषये उच्यमानम् अनुमानमुच्येत, तदपि प्रत्यक्षनिषेधानिषिद्धम् / न च क्षणिकत्वव्यवस्थापने हेतु-फलभावकृतो नियम इत्यभ्युपगंतु युक्तम् , तस्योपरिष्टात् निषेत्स्यमानस्वात। न चात एव दोषादेककर्तकत्वकृतोऽपि न नियम इति वक्तु शक्यम्, स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वस्य तत्पूर्वकानुमानसिद्धत्वस्य चात्मान प्राग्व्यवस्थितत्वात् / अभ्युपगमवादेन तु क्षणिकत्वव्यवस्थापकसत्त्वहेतुतुल्यत्वमनुसन्धानप्रत्ययहेतोः प्रदर्शितम् , न तु क्षणिकत्ववदात्मैकत्वस्य प्रत्यक्षाऽसिद्धत्वम् येनानुमानात् तत्प्रसिद्धयभ्युपगमे इतरेतराश्रयदोषप्रसंगः प्रेर्येत / अतोऽध्यक्षानुमानप्रमाणसिद्धत्वात परलोकिन: 'परलोकिनोऽभावात् परलोकाभावः' इति सूत्रं निःसारतया व्यवस्थितम् / प्रकार, पहले एककर्तृकत्व का निश्चय न होने पर भी स्वसंतान में प्रमातृनियतत्व के साथ प्रतिसंधान की व्याप्ति का उक्त रीति से निश्चय हो जाने पर बाद में विपक्ष भूत भिन्नकर्तृक अन्यसन्तान से प्रमातृनियतत्वरूप व्यापक की निवृत्ति से व्याप्य प्रतिसन्धान की निवृत्ति को देखकर एककत कत्व के साथ प्रतिसन्धान की व्याप्ति निष्कंटक सिद्ध होती है। यदि उक्त प्रकार से व्याप्तिनिश्चय नहीं मानेंगे तो 'वही मैं हूँ या दूसरा कोई' इस प्रकार प्रमात का निर्णय न होने से किसी प्रमेय का भी निर्णय नहीं हो सकेगा, फलतः सारा जगत अन्ध और मूक हो जायेगा। प्रमेय का निर्णय होने से सभी में अन्धता सिद्ध होगी और निर्णयमूलक प्रतिपादन भी न हो सकने से मूकत्व प्रसक्त होगा। यदि कहें कि-'प्रमातृनियतत्वरूप से प्रतिभासमानविषय औपचारिक होता है, सत्य नहीं, अत: उससे किसी भी प्रकार की व्याप्ति का निश्चय फलित नहीं हो सकता'- तो यहाँ आत्मा के प्रत्यक्ष का ही उच्छेद हो जाने का दोष आयेगा क्योंकि उस प्रत्यक्ष का विषय आप औपचारिक कहते हैं वास्तविक नहीं। [प्रमानियम एककट कत्वमूलक ही सिद्ध होता है ] . पूर्वपक्षीः-प्रमातृनियमपूर्वकत्व के निश्चय का हम इनकार नहीं करते हैं, किन्तु यह सोचना जरूरी है कि वह प्रमातृनियम स्वसंतान में एककर्तृकत्व के प्रभाव से है या अन्य किसी निमित्त के प्रभाव से ? पहले हम इस विषय में दिखा चुके हैं कि एकसंतति में जो प्रमातृ का नियम है वह कारणकार्यभावप्रयुक्त है। उत्तरपक्षी:-ठीक बात है कि आप दिखा चुके है, किंतु उसकी सयुक्तिक सिद्धि तो नहीं की है। देखिये, प्रमातृनियम कारण-कार्यभावमूलक है अन्यमूलक नहीं है यह प्रत्यक्षप्रमाण का विषय तो है नहीं। अन्य प्रमाण का भी विषय नहीं हो सकता, क्योंकि इस विषय में अन्य प्रमाण यदि अनुमानरूप हो तो प्रत्यक्ष के निषेध से ही उसका भी निषेध हो जाता है, कारण, अनुमान प्रत्यक्ष के ऊपर आधारित है। यह नहीं कह सकते कि-'क्षणिकत्व की सिद्धि हो जाने से यह अर्थात् सिद्ध होता है कि प्रमातृनियम कारण-कार्यभावमूलक ही है'-क्योंकि अग्रिम ग्रन्थ में क्षणिकत्व का ही विस्तार से खण्डन किया जाने वाला है। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का०१-परलोकवादः 375 यदप्युच्यते-'शरीरान्तर्गतं संवेदनं कथं शरीरान्तरसंचारि, जीवतस्तावन्न शरीरान्तरसंचारो दृष्टः, परस्मिन् मरणसमये भविष्यतीति दूरन्वयमेतत्'-तदपि न युक्तम् , यतः कुमारशरीरान्तर्गताः पाण्डित्यादिविकल्पाः वृद्धावस्थाशरीरसंचारिणो दृश्यन्ते जीवत एव, चपलतादिशरीरावस्थाविशेषाः वागविकाराश्च तत् कथं न जीवतः शरीरान्तरसंचारः ? अथैकमेवेदं शरीरं बाल-कुमारादिभेदभिन्न, जन्मान्तरशरीरं तु मातापित्रन्तरशुक्रशोणितप्रभवम् शरीरान्तरप्रभवम्-एतदप्ययुक्तम् , बाल-कुमारशरीरस्यापि भेदात् , यथा च बालकुमारशरीरचपलताभेदस्तरुणादिशरीरसंचारी उपलभ्यते तथा निजजन्मान्तरशरीरप्रभवश्चपलतादिभेदः परभवभाविजन्मशरीरसंचारी भविष्यतीति न मातापितृशुक्रशोणितान्वयि जन्मादिशरीरम् अपि तु स्वसन्तानशरीरान्वयमेव वृद्धादिशरीरवत्, अन्यथा मातापितृशरीरचपलतादिविलक्षणशरीरचेष्टावन्न स्यात् / ____ यह भी नहीं कह सकते कि-"प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों प्रमाणों का अविषय होने से-प्रमातृनियम एककर्तकत्वमलक है-यह सिद्ध नहीं हो सकता"-क्योंकि आत्मा स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्ध है और प्रत्यक्षमूलकअनुमान से भी आत्मा सिद्ध है यह व्यवस्था पूर्व में प्रस्थापित की गयी है / अनुसंधानप्रतीतिहेतु में जो हमने क्षणिकत्वसाधक सत्त्व हेतु की समानता दिखायी है वह तो 'कदाचित् मान लिया जाय' इस अभ्युपगमवाद से दिखायी है अतः क्षणिकत्व हमारे मत से भी सिद्ध है ऐसा मान लेने की जरूर नहीं है / क्षणिकत्व तो प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध नहीं है जब कि प्रतिभासद्वयान्वयी एक आत्मा तो प्रत्यक्ष सिद्ध है, अत: कोई भी व्यक्ति ऐसा दोषारोपण कि-आत्म-एकत्व के अनुमान से प्रत्यक्ष की व्यवस्था होगी और आत्म-एकत्व का अनुमान प्रत्यक्षावलम्बी है अतः अन्योन्याश्रय दोष होगा-" नहीं कर सकता। उपरोक्त चर्चा का सार यही है कि परलोकगामी चैतन्य प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों प्रमाण से सिद्ध होने पर चार्वाक के इस सूत्र की-'परलोकगामी के अभाव से परलोक का भी अभाव है'. असारता तुच्छता सिद्ध होती है। [ परलोक के शरीर में विज्ञानसंचार की उपपत्ति ] __यह जो पूर्वपक्षी चार्वाक ने कहा था कि [ पृ० २९१/२]-"एकशरीरअन्तर्गत विज्ञान का परलोक में अन्यशरीर में संचार कसे घटेगा ? जब कि इस जीवन में ही एकशरीर से अन्यशरीर में चंतन्य का संचार नहीं देखा जाता और मृत्युकाल में दूसरे शरीर में चैतन्य का संचार होगा यह बात अन्वयशून्य यानी असम्बद्ध है।"....इत्यादि, यह भी युक्तिशून्य है / कारण, इस जीवन में चैतन्य का अन्य शरीर में संचार असिद्ध नहीं है, देखते तो हैं कि इसी जीवन में कुमारावस्था के देह में जो पांडित्य, आदि विकल्प थे उनका वृद्धावस्था के देह में भी संचार हो जाता है, कुमार शरीर की जो चपलतादि अवस्थाएँ थी और जिसप्रकार वाक्प्रयोग होता था वे सब वृद्धावस्था के देह में भी दिखाई देते हैं। तो 'इस जीवन में देहान्तर में संचार नहीं होता'-ऐसा कैसे कहा जाय या मान लिया जाय ? ! शंका:-इस जन्म में बाल-कुमारादिअवस्थाभेद से, भिन्न रूप में कल्पित जो देह है वह एक ही है, वास्तव में अवास्थाभेद होने पर भी देह भेद नहीं है। आप जो जन्मान्तर मानते हैं वहाँ तो दूसरे माता-पिता के शुक्र और शोणित से उत्पन्न शरीर अन्य ही है और वह अन्य शरीर से यानी माता के शरीर से जन्य है / अतः शरीरान्तर में चैतन्य का संचार कौन से दृष्टान्त से माना जाय? Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ___ अथेहजन्मबालकुमाराद्यवस्थाभेदेऽपि प्रत्यभिज्ञानादेकत्वं सिद्धम् शरीरस्य तदवस्थाव्यापकस्य, तेन न तदृष्टान्तबलादत्यन्तभिन्ने जन्मान्तरशरीरादौ ज्ञानसंचारो युक्तः / तदसत् , पूर्वोत्तरजन्मशरीरज्ञानसंचारकारिणः कार्मणशरीरस्यात एव कथंचिदेकत्व ( ? स्य) सिद्धेः / तथाहि ज्ञानं तावदिहजन्मादावन्यनिजजन्मज्ञानप्रभवं प्रसाधितम् , तस्य चेहजन्मबाल कुमाराद्यवस्थाभेदेषु तदेवेदं शरीरम्' इत्यबाधितप्रत्यभिज्ञाप्रत्ययावगतैक रूपान्वयिषु संचारदर्शनात पूर्वोत्तरजन्मावस्थास्वपि तथाभूतानुगामिरूपसमन्वितासु तस्य संचारोऽनुमीयते / न चाऽस्मदादीन्द्रियसंवेद्यरूपाद्याश्रयस्यौदारिकशरीरस्य जन्मान्तरशरीराद्यवस्थानुगमः सम्भवति, तस्य तदैव च दाहादिना ध्वंसोपलब्धः। अतो जन्मद्वयावस्थाव्यापकस्योष्मादिधर्मानुगतस्य कामणशरीरस्य विज्ञानान्तरसंचारकारिणः सद्भावः सिद्धः / पूर्वोत्तरजन्मावस्थाव्यापकस्यावस्थातुस्तदवस्थाभ्यः कथञ्चिदभेदाद मातापितृशरीरविलक्षणनिजशरीरावस्थाचपलताद्यनुविधाने उत्तरावस्थायाः कथं नावस्थातधर्मानुविधानम् ? ! तस्माद्यस्यैव संस्कारं नियमेनानुवत्तते / शरोरं पूर्वदेहस्य तत्तदन्वयि युक्तिमत् // [ .] .. उत्तरः-यह प्रश्न भी अयुक्त है, बाल-कुमारादि अवस्थाभेद से शरीर का भी भेद सिद्ध ही है 'अब मेरा शरीर पूर्व का नहीं रहा' ऐसी प्रतीति सभी को होती है / बाल-कुमारादि अवस्थावाले शरीर के चपलतादि विशेष जैसे तरुणादिअवस्थावाले देह में अनुगामी दिखाई देते हैं वैसे ही अपने एक जन्म के शरीर से उत्पन्न चपलतादिविशेष अन्यभव में होने वाले जन्म के शरीर में संचरण कर सकेगा, अतः इस जन्म के आद्य शरीर को माता-पिता के शुक्र-शोणित का अन्वयी मानना अनावश्यक है, मानना तो यही चाहिये कि वह एक सन्तानान्तर्गत पूर्वजन्म के चरम शरीर का ही अन्वयी है, जैसे इस जन्म में वृद्धावस्था का देह एक सन्तानान्तर्गत पूर्वकालीन युवाशरीर का अन्वयी होता है / यदि ऐसा न मान कर इस जन्म के शरीर को माता-पिता के शरीर का अन्वयी मानेगे तो इस जन्म के शरीर में माता-पिता के शरीर से जो विलक्षण चपलतादि देहचेष्टा देखी जाती है वह नहीं घट सकेगी। [पूर्वोत्तरजन्म में एक अनुगत कार्मणशरीर की सिद्धि ] शंकाः-इस जन्म में बाल-तरुणादि अवस्था भिन्न भिन्न होने पर भी उन अवस्थाओं में व्यापक एक शरीर की सिद्धि, 'यह वही शरीर है' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा से होती है। अत: इस जन्म के शरीरभेद के दृष्टान्त से, अत्यन्त भिन्न ऐसे जन्मान्तर के शरीर में ज्ञानादि का संचार बताना युक्तिसंगत नहीं है। उत्तर:-आपका कहना ठीक है कि प्रत्यभिज्ञा से इस जन्म का एक ही शरीर सिद्ध होता है, अतः अत्यन्त भिन्न जन्मान्तर के शरीर में ज्ञानादि संचार नहीं घट सकता। किन्तु, अब तो इसी अनुपपत्ति से पूर्वजन्म-उत्तरजन्म के शरीरों में ज्ञान का संचरण करने वाले, उन दोनों शरीर से कथंचिद् अभिन्न, ऐसे 'कार्मण' नामक शरीर की सिद्धि होती है / जैसे देखिये, इस जन्म के प्रारम्भ में उत्पन्न ज्ञान वह अपने ही पूर्वजन्म के ज्ञान से उत्पन्न होता है इस तथ्य को हम पहले ही सिद्ध कर आये हैं अत: ज्ञान का शरीरान्तर संचार तो मानना ही पड़ेगा, और उसकी उपपत्ति के लिये माध्यम के रूप में जैन प्रक्रिया के अनुसार माने गये कार्मण शरीर की अनायास सिद्धि होगी। [ अन्य दार्शनिकों ने इस स्थान में सक्ष्मशरीर या लिंग शरीर माना है। वह इस प्रकार-'यह वही शरीर है' इस प्रत्यभिज्ञा प्रतीति से सिद्ध एक ही अनुगत रूप से यानी एक Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 377 अथ 'पूर्वापरयोः प्रत्यक्षस्याऽप्रवृत्तेर्न कार्यकारणभावः अनुमानसिद्धावितरेतराश्रयदोषः' इति, तदपि प्रतिविहितम् / एवं हि सर्वशून्यत्वमायातमिति कस्य दूषणं साधनं वा केन प्रमाणेन ? इहलोकस्याप्यभावप्रसक्तेरिति प्रतिपादितत्वात् / __ अथ कार्यविशेषस्य विशिष्टकारणपूर्वकत्वसिद्धौ यथोक्तप्रकारेण भवतु पूर्वजन्मसिद्धिः, भाविपरलोकसिद्धिः कथं, भाविनि प्रमाणाभावात् ?-तत्रापि कार्यविशेषादेवेति ब्रमः / तथाहि-कार्यविशेषो विशिष्टं सत्त्वमेव / तच्च न सत्तासम्बन्धलक्षणम् , तस्य निषेत्स्यमानत्वात् / नाप्यर्थक्रियाकारित्व- . लक्षणम् , सन्ततिव्यवच्छेदे तस्याभावप्रसंगात् / तथाहिही देह से अन्वयी अर्थात् परस्पर सम्बद्ध ऐसी बाल-कुमारादि भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में ज्ञान का संचार देखा जाता है, तो इसी रीति से एक शरीर से ही अनुगत यानी परस्पर सम्बद्ध पूर्वजन्मावस्था और वर्तमानजन्मावस्था में भी ज्ञानसंचार का अनुमान हो सकता है। अब वह कौनसा एक शरीर माना जाय यह सोचना होगा, इसमें हमारी नेत्रादि इन्द्रिय से अनुभूयमान और रूपरसादि का आश्रयभूत, वर्तमानजन्म का जो शरीर है [ जिसको जैन परिभाषा में 'औदारिक' शरीर कहते हैं-] उसका जन्मान्तर के देहादि अवस्थाओं में अनुगम तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि मृत्यु के बाद उस शरीर का तो अग्नि आदि के दाह से ध्वंस हो जाता है / अत: अनुमान से यह सिद्ध होगा कि पूर्वोत्तरजन्मद्वयावस्थाओं में व्यापक तथा विज्ञान का संचरण करने वाला ( यानी विज्ञानवाहक ) कोई एक शरीर है जो उष्णतादि धर्म वाला है और जिसे जैन परिभाषा में 'कार्मणशरीर' कहा जाता है। जैसे आप (चार्वाक) पूर्वोत्तरावस्थाओं को एक अवस्थाता शरीर से अभिन्न मानकर ज्ञान का संचार मानते हैं तो उसी प्रकार पूर्वजन्मावस्था और उत्तरजन्मवस्थाओं को एक व्यापक अवस्थारूप कार्मणशरीर से हम भी कथंचिद् अभिन्न मानेंगे, अतः माता-पिता के शरीर से विलक्षण ऐसे, अपने एक जन्म के शरीररूप अवस्था में अन्तर्गत, चपलतादि धर्मों का अनुविधान जब उत्तरावस्था में देखते हैं तो पूर्वजन्म और वर्तमान जन्म की अवस्थाओं में एक ही अवस्थाता के धर्मों का अनुगमन क्यों . सिद्ध नहीं होगा ? एक प्राचीन श्लोक में भी कहा गया है कि- / ___'उक्त हेतु से, देह जिसके संस्कार का अवश्यमेव अनुसरण करता है उस पूर्वदेह का ही वह अन्वयी है यह मानना युक्तियुक्त है।' [ पूर्वापर भावों में कार्यकारणता न होने पर शून्यापत्ति ] पूर्वपक्षीः-पूर्वापर वस्तु में कार्य कारणभाव के ग्रहण में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं होती है। अनुमान प्रत्यक्षमूलक होने से, प्रत्यक्ष के अभाव में अनुमान से भी कार्यकारणभाव सिद्ध नहीं हो सकता, यदि अनुमान से यह सिद्ध किया जाय कि कार्य-कारणभाव का प्रत्यक्ष ग्रहण होता है, तो यहाँ अन्योन्याश्रय दोष होगा, अर्थात् प्रत्यक्ष से कार्यकारणभाव का ग्रहण होने पर तन्मूलक अनुमानप्रवृत्ति होगी और अनुमानप्रवृत्ति होने पर प्रत्यक्ष से कार्यकारणभाव का ग्रहण सिद्ध होगा। उत्तरपक्षीः-आपके इस कथन का प्रतिकार हो चुका है [ दे० पृ०३०१-९] / वह इस प्रकार कि कार्यकारणभाव को प्रत्यक्षसिद्ध न मानने पर बाह्यार्थ के साथ ज्ञान का सम्बन्ध सिद्ध न होने से -- सकल बाह्यार्थ की असिद्धि होगी, विचार करने पर तब ज्ञान भी असिद्ध हो जायेगा इस प्रकार सर्व Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ शब्द-बुद्धि-प्रदीपादिसन्तानानां यद्यच्छेदोऽभ्युपगम्यते तदा तत्सन्ततिचरमक्षणस्यापरक्षणाऽजननादसत्त्वम् , तदसत्त्वे च पूर्वक्षणानामर्थक्रियाऽजननादसत्त्वमिति सकलसन्तत्यभावः / अथ सन्तत्यन्तक्षणः सजातीयक्षणान्तराजननेऽपि सर्वज्ञसन्ताने स्वग्राहिज्ञानजनकत्वेन सन्निति नायं दोषः। तदसत, स्वसन्ततिपतितोपादेयक्षणाऽजनकत्वे परसन्तानत्तिस्वग्राहिज्ञानजनकत्वस्याप्यसम्भवात। न ह्य पादानकारणत्वाभावे सहकारिकारणत्वं क्वचिदप्युपलब्धम् , तत्सद्धावे वा एकसामग्रयधीनस्य रूपादे रसतस्तत्समानकालभाविनोऽव्यभिचारिणी प्रतिपत्तिर्न स्यात् / रूपक्षणस्य स्वोपादेयक्षणान्तराऽजननेऽपि रससन्ततौ सहकारिकारणत्वेन रसक्षणजनकत्वाभ्युपगमात् , तत्सद्भावेऽपि तत्समानकालभाविनो रूपादेरभावात् / तन्नोपादानकारणत्वाभावे सहकारित्वस्यापि सम्भव इति स्वसन्तत्युच्छेदाभ्युपगमेऽर्थक्रियालक्षणस्य सत्त्वस्याऽसम्भवः इति 'उत्पादव्ययध्रौव्य'लक्षणमेव सत्त्वमभ्युपगन्तव्यमिति कार्यविशेषलक्षणाद्धेतोर्यथोक्तप्रकारेणातीतकालवदनागतकालसम्बन्धित्वमप्यात्मनः सिद्धम् / शून्य' की प्रसक्ति होगी तो फिर किसके ऊपर दूषण लगायेंगे और किस की सिद्धि करेंगे? इहलोक भी तब तो सिद्ध न होने से उसका भी अभाव प्रसक्त होगा। यह पहले भी कह चुके हैं। [भविष्यकालीन जन्मान्तर में प्रमाण ] शंकाः-पूर्वोक्त रीति से कार्यविशेष में कारणविशेषपूर्वकत्व सिद्ध होता है तो इहलौकिक जन्म पूर्वजन्ममूलक सिद्ध हो सकता है, अर्थात् पूर्वजन्म का सिद्धान्त तो ठीक है। किन्तु भविष्यत्कालीन परलोक की यानी उत्तरजन्म की सिद्धि कैसे होगी? भावि भाव का ज्ञापक कोई प्रमाण तो है नहीं। : उत्तर.-हम तो कार्यविशेष हेतु से ही भावि परलोक की भी सिद्धि होने का कहते हैं। वह इस प्रकारः-कार्य-विशेष का अर्थ है विशिष्ट सत्त्व। विशिष्ट सत्त्व यानी क्या? जैन मत में विशिष्ट सत्त्व उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप ही है और वही ठीक है। नैयायिकादि दार्शनिक सत्ताजाति के सम्बन्ध को ही विशिष्ट सत्त्व कहते हैं वह युक्त नहीं है क्योंकि उसका प्रतिषेध अग्रिम ग्रन्थ में किया जाने वाला है / बौद्ध दार्शनिक कहते हैं-अर्थक्रिया का कारित्व यही विशिष्ट सत्त्व है, किन्तु यह उस के मत से ही असंगत है क्योंकि सन्तान का अत्यन्त उच्छेद जब हो जाता है तब चरम सन्तानी में वह नहीं घटता है / वह इस प्रकार:- . [सत्त्व अर्थक्रियाकारित्वरूप नहीं है ] . शब्द, ज्ञान और प्रदीपादि का सन्तान उत्तरोत्तर चलता रहता है। बौद्ध दार्शनिक यदि इन का अत्यन्त उच्छेद मानते हैं तो उन संतानों में जो अंतिमक्षण हैं उन में उत्तरक्षणजनकतारूप अर्थक्रियाकारित्व न होने से उन अन्तिमक्षणों में सत्त्व ही असिद्ध हो जायेगा। अन्तिम क्षण असत् बन जाने पर उसी न्याय से पूर्व पूर्व क्षण में भी अर्थक्रियाकारित्व के अभाव से सत्त्व का अभाव ही प्रसक्त होगा / फलत: संपूर्ण सन्तान का उच्छेद प्रसक्त होगा। पूर्वपक्षीः-संतानवर्ती अन्तिम क्षण सजातीय उत्तर क्षण का जनक भले न हो किन्तु सर्वज्ञसन्तान में जो तद्विषयक ( अन्तिमक्षणविषयक ) ज्ञान उत्पन्न होगा उसमें वह अन्तिम क्षण विषयविधया जनक बनेगा ही, अतः अर्थक्रियाकारित्व घट जाने से सन्तानोच्छेद की कोई आपत्ति नहीं है / उत्तरपक्षी:-यह बात असत् है, क्योंकि जो स्वसन्तानवर्ती उत्तरकालीन उपादेय क्षण का जनक नहीं होता वह परसन्तानगत स्वविषयकज्ञान का जनक बने यह सम्भव नहीं है। कहीं भी Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवाद: 379 यदप्युक्तम्-'यद्यागमसिद्धत्वमात्मनः, तस्य वा प्रतिनियतकर्मफलसम्बन्धस्तत्सिद्धोऽभ्युपगम्यते तदाऽनुमानवैयर्थ्यम्' इित तदपि मूर्खेश्वरचेष्टितम् , न हि व्यर्थमिति निजकारणसामग्रीबलायातं वस्तु प्रतिक्षेप्तुयुक्तम् , न हि आगमसिद्धाः पदार्था इति प्रत्यक्षस्यापि प्रतिक्षेपो युक्तः / यदपि प्रत्यक्षानुमानविषये चाऽर्थे आगमप्रामाण्यवादिभिस्तस्य प्रामाण्यमभ्युपगम्यते-“प्राम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम्" [ जैमि०१-२-१] इति, तदप्ययुक्तम्-यतो यथा प्रत्यक्षप्रतोतेऽप्यर्थे विप्रतिपत्तिविषयेऽनुमानमपि प्रवृत्तिमासादयतीति प्रतिपादितं तथा प्रत्यक्षानुमानप्रतिपन्नेऽप्यात्मलक्षणेऽर्थे तस्य वा प्रतिनियतकर्मफलसम्बन्धलक्षणे किमित्यागमस्य प्रवृत्ति भ्युपगमस्य विषयः ? न चाऽऽगमस्य तत्राऽप्रामाण्यमिति वक्तुयुक्तम् , सर्वज्ञप्रणीतत्वेन तत्प्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वात् / उपादान कारणता के विना सहकारिकारणता उपलब्ध नहीं है / यदि ऐसा न मार्नेगे तो जहाँ रूप और रस एकसामग्रीजन्य हैं वहाँ तथाविधरस से समानकालीन तथाविध रूपादि की जो व्यभिचारदोष रहित शुद्ध बुद्धि ( अनुमिति ) होती है वह नहीं हो सकेगी। तात्पर्य यह है कि किसी एक आम्रादि फल में जो रूप-रसादिक्षण सन्तति चली आती है उनकी सामग्री समान ही होने से रूपक्षण रूपक्षणोत्पत्ति में उपादान कारण बनता है और रसक्षण के प्रति सहकारी कारण। अतएव रस से समानकालीन तथाविध रूप की अनुमिति होती है, किन्तु वह अब न हो सकेगी क्योंकि रूपक्षण से सहकारिकारण विधया रसक्षण की उत्पत्ति होने पर भी स्वसंतति में उपादान कारण विधया उपादेय भूत रूपक्षण को उत्पत्ति होने का नियम तो नहीं है, अतः यह संभव है कि रूप से केवल रस उत्पन्न होगा, रूपोत्पत्ति नहीं होगी। इस स्थिति में कोई व्यक्ति रसक्षण हेतु से समानकालीन रूपक्षण की अनुमिति करने जायेगा तो व्यभिचार दोष प्रसक्त होगा, अत: उस अनुमिति का उच्छेद हो जायेगा। अत: उपादान कारणता के विना अन्तिमक्षण में सहकारिकारणता भी घट नहीं सकती। तब यदि बौद्धवादी संतानों का अत्यन्त उच्छेद मानते हैं तो सत्त्व का अर्थक्रियाकारित्वरूप लक्षण नहीं घट सकेगा। फलत: जैनमत के अनुसार उत्पत्ति-व्यय-ध्रौव्य तीन धर्मों का विशिष्ट समुदाय यही सत्त्व . का लक्षण मानना होगा / इस विशिष्ट सत्त्व रूप कार्यविशेष से ही अर्थात् तदन्तर्गत ध्रौव्य के कारण ही आत्मा की मृत्यु के उत्तरकाल में ही सत्ता सिद्ध होने से उसकी उत्तरावस्था के रूप में भाविजन्म की सिद्धि भी हो जायेगी / इस प्रकार यह सिद्ध हुआ, आत्मा अतीतकाल का जैसे सम्बन्धी है वैसे भविष्यकाल का भी सम्बन्धी है। [ आगमसिद्धता होने पर अनुमान व्यर्थ नहीं होता ] पूर्वपक्षी ने जो कहा था [ पृ० 292 ]-"आत्मा यदि आगम से ही सिद्ध है, अथवा सुकृत का शुभफल, दुष्कृत का अशुभफल इस प्रकार के प्रतिनियतकर्म-फल का आत्मा के साथ सम्बन्ध भी यदि आगमसिद्ध है तो आत्मा और कर्म-फल सम्बन्ध का अनुमान करना व्यर्थ है"-इत्यादि....वह तो मूर्खशिरोमणि की चेष्टा है / किसी वस्तु की उत्पत्ति अगर व्यर्थ निष्प्रयोजन है इतने मात्र से ही उसकी संपूर्ण कारण सामग्री के बल से उत्पन्न होने वाली उस वस्तु का प्रतिक्षेप करना युक्तियुक्त नहीं है / संपूर्ण कारण सामग्री सम्पन्न होने पर कार्य की उत्पत्ति अवश्यंभावि है, वह कार्य चाहे किसी का कोई प्रयोजन सिद्ध करे या न करे-इसका कोई महत्त्व नहीं है / यदि आगम सिद्ध वस्तु के अनुमान . को व्यर्थ कहेंगे तो आगमसिद्ध पदार्थों में प्रवृत्त होने वाले प्रत्यक्ष का भी 'व्यर्थ' कह कर प्रतिक्षेप किया जाना अयुक्त न होगा। प्रत्यक्ष और अनुमान का गोचर न हो ऐसे ही पदार्थों में आगम (वेद) Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 प्रतिनियतकर्मफलसम्बन्धप्रतिपादकश्चागमः-"बह्यारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्य" [ त० सू०. 6-16 ] इत्यादिना वाचकमुख्येन सूत्रीकृतोऽस्यैवानुमानविषयत्वं प्रतिपादयितुकामेन / यथा च कर्मफलसंबन्धोऽप्यात्मनोऽनुमानादवसीयते तथा यथास्थानमिहैव प्रतिपादयिष्यामः। आत्मस्वरूपप्रतिपादकः प्रतिनियतकर्मफलसम्बन्धप्रतिपादकश्चागमः “एगे आया" | स्थाना० 1-1] "पुट्विं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिकंताणं कडाणं कम्माणं' [ * ] इत्यादिकः सुप्रसिद्ध एव / तदेवं प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणप्रसिद्धत्वाद् नारक-निर्यग्-नरामरपर्यायानुभूतिस्वभावस्यात्मनः, न भवशब्दव्युत्पत्तिराभाबात डिस्थादिशब्दव्युत्पत्तितुल्या इति स्थितम् / / को प्रमाण मानने वाले मीमांसकों ने जो आगम के प्रामाण्य को मान कर यह कहा है कि "वेदशास्त्र का प्रयोजन क्रिया में प्रवृत्ति है अतः क्रियाप्रवर्तक न हो ऐसे अर्थवाद और मन्त्र विभाग का वेद उनके प्रतिपाद्यविषय में प्रमाणभूत नहीं है"....इत्यादि, वह भी युक्त नहीं है। कारण यह है कि प्रत्यक्षप्रतीतिगोचर पदार्थ जब विवादास्पद बन जाता है तब उस विषय में अनुमान प्रवृत्त होता है यह पहले [ पृ० 305/4 ] कह दिया है / तो ठीक उसी प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान से आत्मपदार्थ सिद्ध होने पर अथवा उसके साथ प्रतिनियत कर्म-फल सम्बन्ध की सिद्धि होने पर भी उस विषय में आगम की प्रवृत्ति स्वीकृत क्यों न की जाय ? ! 'वहाँ आगम प्रमाण ही नहीं है' यह तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि उस विषय का प्रतिपादक आगम सर्वज्ञप्रणीत होने से प्रमाणभूत है यह पहले सिद्ध किया जा चुका है। [ आत्मा और कमफलसम्बन्ध में आगम प्रमाण ] 'प्रतिनियतकर्मफल सम्बन्ध अनुमान का विषय है' यह दिखाने की इच्छा, वाले वाचकशिरोमणि आचार्य श्री उमास्वाति महाराज ने, प्रतिनियतकर्मफल सम्बन्ध का प्रतिपादन करने वाले'बाह्यारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्य' [ तत्त्वार्थ 6-16 ] अर्थ:-बहुत आरम्भ ( हिंसादि ) और परिग्रह नरक-आयुष का आश्रव है-इस आगम का सूत्रण-प्रणयन किया ही है। तदुपरांत आत्मा के साथ कर्मफल का सम्बन्ध किस प्रकार अनुमान गोचर है वह इसी ग्रन्थ में यथावसर कहेंगे / आत्मस्वरूप का प्रतिपादक सुप्रसिद्ध आगम वाक्य स्थानांग सत्र में इस प्रकार है "एगे आया"। आया=आत्मा। तथा प्रतिनियत कर्म-फल सम्बन्ध का प्रतिपादक आगम सुप्रसिद्ध है-"पूवि दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं कम्माणं” इत्यादि....अर्थात्-"भूतकाल में प्रतिक्रमण किये विना रह गये कुसंचित कृत कर्मों का भोग के विना अथवा तप से निर्जीण किये विना मोक्ष नहीं है"..इत्यादि। पूर्वोक्त चर्चा से, आत्मा प्रत्यक्ष-अनुमान और आगम प्रमाण से प्रसिद्ध है, अतः आत्मा का यह स्वभाव भी 'नारक-तिर्यंच-देव-मनुष्यादि अवस्थाओं को अनुभव करना'-प्रमाण से सिद्ध होता है। भव शब्द का यह अर्थ भी प्रमाण से सिद्ध है अतः पूर्वपक्षी ने जो कहा था-'भवशब्द का कोई प्रमाण सिद्ध अर्थ न होने से भवशब्द की व्युत्पत्ति डित्थादि अर्थशून्य शब्दों की व्युत्पत्ति से तुल्य है'यह नि:सार सिद्ध होता है। [परलोकवाद समाप्त ] * द्रष्टव्य ज्ञाताधर्मकथासूत्र-पृ० 204/1 पं० 1, तथा विपाकसूत्र पृ०३८/२-पं० 1 में "पुरा पोराणापं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं कडाणं पावाणं कम्माणं"-इत्यादि / Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 381 [ईश्वरकर्तृत्ववादिपूर्वपक्षः] अत्राहुनैयायिका:-क्लेश कर्म विपाकाशयाऽपरामष्टपुरुषाभ्युपगमे नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा' इति दूषणमभ्यधायि, तत्र तन्नित्यसत्त्वप्रतिपादने नाऽस्माकं काचित् क्षतिः प्रमाणतोनित्यज्ञानादिधर्मकलापान्वितस्य तस्याऽभ्युपगमात् / ननु युक्तमेतद्यदि तथाभूतपुरुषसद्धावप्रतिपादक किचित प्रमाणं स्यात् , तच्च नास्ति / तथाहिन प्रत्यक्ष तथाविधपुरुषसद्भावावेदकमस्मदादीनाम / 'अस्मद्विलक्षणयोगिभिस्तस्यावसाय' इत्यत्रापि न किंचित् प्रमाणमस्ति / यदा न तत्स्वरूपग्रहणे प्रत्यक्षप्रमाणप्रवृत्तिस्तदा तद्गतधर्माणां नित्यज्ञानादीनां सद्भाववात्तव न सम्भवति। ___ नानुमानमपि युक्तमेतत्स्वरूपावेदकम् , प्रत्यक्षनिषेधे तत्पूर्वकस्य तस्यापि निषेधात् / सामान्यतोदृष्टस्यापि नात्र विषये प्रवृत्तिः, लिंगस्य कस्यचित् तत्प्रतिपादकस्याभावात् , कार्यत्वस्य पृथिव्याद्याश्रितस्य केषांचिन्मतेनाऽसिद्धः / न च संस्थानवत्त्वस्य तत्साधकत्वम्,प्रासादादिसंस्थानेभ्यः पृथिव्यादिसंस्थानस्यात्यन्तवलक्षण्यात संस्थानशब्दवाच्यत्वेन चातिप्रसक्तिर्दशिता- 'वस्तुभेदप्रसिद्धस्य शब्दसाम्यादभेदिनः" [ ] इत्यादिना / तस्मानानुमानं तत्साधनायालम् / नाप्यागमः, नित्यस्यात्र दर्शनेऽनभ्युपगमात् , अभ्युपगमे वा कार्यार्थप्रतिपादकस्य सिद्धे वस्तुन्यव्यापृतेः / नापीश्वरपूर्वकस्य प्रामाण्यम् , इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात् / अनीश्वरपूर्वकस्यापि संभाव्यमानदोषत्वेन प्रमाणताऽनुपपत्तेः / तस्यान्येश्वरपूर्वकत्वे, तस्यापि सिद्धिः कुत इति वक्तव्यम् / तदसिद्धौ न [ ईश्वर जगत् का कर्ता है-पूर्वपक्ष ] ईश्वर में रागादिक्लेश का अभाव सहज नहीं है, इस प्रकार के ग्रन्थकारकृत प्रतिपादन के ऊपर जगत्कर्तृत्वादी नैयायिक लोग यहाँ 'ईश्वर ही जगत्कर्ता है' इस सिद्धान्त को स्थापित करने जा रहे हैं वे कहते हैं-परमपुरुष को क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से अस्पृष्ट ही मानना चाहिये / जैनों ने जो उसके ऊपर यह दूषण लगाया था [ पृ० 282 ] कि 'रागादि का अभाव यदि निर्हेतुक होगा तो उसका या तो नित्य सत्त्व होगा या असत्त्व ही होगा किन्तु कदाचित् सत्त्व नहीं हो सकेगा'इस में से नित्यसत्त्व के आपादन में हमारी कोई क्षति नहीं है। कारण, अनुमानादि प्रमाण से हम मानते हैं कि ईश्वर स्वयं नित्य है और नित्यज्ञान-नित्यइच्छा आदि धर्मकलाप से आश्लिष्ट ही है / [नैयायिक के सामने कर्तृत्व प्रतिपक्षी युक्तियाँ ] अब यहां नैयायिक के सामने कोई दीर्घ आशंका करता है शंका:-'ईश्वर नित्य है' इत्यादि कथन, यदि ऐसे किसी पुरुषविशेष के सद्भाव का साधक कोई प्रमाण हो तब तो युक्त हो सकता है-किन्तु ऐसा प्रमाण ही नहीं है। देखिये-नित्यज्ञानादिसमन्वित पुरुष के सद्भाव का आवेदक, अपने लोगों में से किसी का भी प्रत्यक्ष नहीं है। अपने लोगों से विलक्षण कोई योगिपुरुष के अतीन्द्रिय ज्ञान से उसका पता चले-इस बात में भी कोई प्रमाण नहीं है / जब प्रत्यक्ष प्रमाण की ईश्वर रूप धर्मी के प्रतिपादन में भी प्रवृत्ति नहीं है तो उसके नित्यत्वादि धर्मों के सद्भाव की वार्ता का भी सम्भव नहीं है। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ तस्य प्रामाण्यम् , अनेकेश्वरप्रसंगदोषश्च / 'भवतु, को दोषः ! यत एकस्यापि साधने वयमतीवोत्सुकाः किं पुनर्बहूनामिति चेत् ? न कश्चित् प्रमाणाभावं मुक्त्वा / तन्नागमतोऽपि तत्प्रतिपत्तः / एवं स्वरूपासिद्धौ कथं तस्य कारणता? अत्राहः-यदुक्तम्-न तत्र प्रत्यक्षं प्रमाणं' तदेवमेव / यदपि 'सर्वप्रकारस्यागमस्य न तत्स्वरूपावेदने व्यापृतिः' तत्रोच्यते-प्रागमाऽव्यापारेऽपि तत्स्वरूपसाधकमनुमान विद्यते / आगमस्यापि सिद्धेऽर्थे लिंगदर्शनन्यायेन यथा व्यापृतिः तथा प्रतिपादयिष्यामः / प्रत्यक्षपूर्वकानुमान निषेधे सिद्ध [ अनुमान से ईश्वरसिद्धि अशक्य ] ईश्वररूप धर्मी का आवेदक अनुमान भी नहीं हो सकता क्योंकि अनुमान की प्रवृत्ति प्रत्यक्षपूर्वक ही हो सकती है, ईश्वरग्राहक कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न होने पर अनुमान की उस में प्रति अशक्य है। यदि कहें कि-'विशेषतः ईश्वररूप व्यक्ति का साधक अनुमान न होने पर भी सामान्यतोदृष्ट अनुमान की इस विषय में प्रवृत्ति शक्य है'-तो यह भी अशक्य है क्योंकि ईश्वर का प्रतिपादक कोई भी लिंग ही नहीं है / कार्यत्व हेतु से यदि उसकी सिद्धि करेंगे तो पृथ्वी आदि में कितने वादी के मत से कार्यत्व ही असिद्ध होने से वह लिंग नहीं बन सकेगा। संस्थान ( आकार )वत्ता के आधार पर भी वहां पृथ्वी आदि में कार्यत्वसिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि कार्यभूत विशाल भवनादि में जैसा संस्थान दृष्ट है वैसा ही संस्थान पृथ्वी आदि में नहीं है / किन्तु ऐसा अत्यन्त विलक्षण है कि उसके लिये संस्थान शब्द का प्रयोग ही अनुचित है / अत एव पृथ्वी के संस्थान में वादीयों ने संस्थानशब्दवाच्यता की अतिप्रसक्ति यह कहकर दिखायी है कि जिन वस्तुओं में प्रसिद्ध भेद है उनमें भी केवल शब्द के साम्य से ही अभेद रहता है।-तात्पर्य, राजभवनादि का संस्थान और पृथ्वी आदि का संस्थान अतिविलक्षण है, केवल संस्थानशब्द का ही साम्य है। अतः संस्थानवत्ता के आधार पर पृथ्वी आदि में कार्यत्व लिंग की सत्ता सिद्ध न हो सकने से कार्यत्वलिंगक अनुमान ईश्वरसिद्धि के लिये समर्थ नहीं है / [आगम से ईश्वर सिद्धि अशक्य ] आगम से भी ईश्वर सिद्धि अशक्य है / कारण, न्यायदर्शन में आगम को नित्य नहीं माना जाता। यदि आगम को नित्य मान लिया जाय तो भी मीमांसक मतानुसार जो साध्यभूत अर्थ का प्रतिपादक है वही प्रमाण होने से ईश्वरादि सिद्ध वस्तु को सिद्धि में उसका कोई व्यापार नहीं हो सकता। यदि आगम को ईश्वरप्रोक्त होने से प्रमाण मानगे तो ईश्वर से आगम के प्रामाण्य की सिद्धि और सिद्धप्रामाण्यवाले आगम से ईश्वरसिद्धि -इस प्रकार अन्योन्य आश्रय दोष लगेगा। यदि आगम को ईश्वरप्रणीत नहीं मानते हैं तब तो उसमें दोष की सम्भावना होने से वह प्रमाणभूत नहीं हो सकता। यदि कहें कि-ईश्वरप्रतिपादक आगम वह अन्य ईश्वर से रचित हाने से अन्योन्याश्रय दोष नहीं है तो वह अन्य ईश्वर से भी कौन से प्रमाण से सिद्ध है यह दिखाना पड़ेगा। उसकी सिद्धि न होने पर आगम प्रमाणभूत नहीं रहेगा, तदुपरांत उस ईश्वर की सिद्धि के लिये अन्य ईश्वर से रचित आगम को प्रमाण कहेंगे तो ऐसे अनेक ईश्वर की कल्पना का दोष प्रसंग होगा। यदि ऐसा कहें-'अनेक ईश्वर को मानेंगे, क्या दोष है ? हम तो एक ईश्वर की सिद्धि में भी अतीव उत्सुक है, यदि एक की सिद्धि करते हुये अनेक ईश्वरों की सिद्धि हो जाय तब तो कहना ही क्या ?'-तो यहाँ दोष प्रमाणन्यता को छोड कर और कोई नहीं है / एक ईश्वर में भो प्रमाण नहीं दे सकते वे अनेक ईश्वर में क्या Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पू० 383 साधनम् , सामान्यतोदृष्टानुमानस्य तत्र व्यापाराभ्युपगमात् / नन्वनुमानप्रमाणतायामयं विचारो युक्तारम्भः, तस्यैव तु प्रामाण्यं नानुमन्यन्ते चार्वाका इति / एतच्चानुद्घोष्यम् , अनुमानप्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वात। यत्तूक्तम् -पृथिव्यादिगतस्य कार्यत्वस्याऽप्रतिपत्तेन तस्मादीश्वरावगमः-तत्र पृथिव्यादीनां बौद्धः कार्यत्वमभ्युपगतं ते कथमेवं वदेयुः ? येऽपि चार्वाकाद्याः पृथिव्यादीनां कार्यत्वं नेच्छन्ति तेषामपि विशिष्टसंस्थानयुक्तानां कथमकार्यता ? सर्व संस्थानवत् कार्यम् , तच्च पुरुषपूर्वकं दृष्टम् / येप्याहुःसंस्थानशब्दवाच्यत्वं केवलं घटादिभिः समानं पृथिव्यादीनाम् , न तत्त्वतोऽर्थः कश्चिद् द्वयोरनुगतः समानो विद्यते-तेषामपि न केवलमत्रानुगतार्थाभावः किन्तु धमादावपि पूर्वापरव्यक्तिगतो नैव कश्चिदनुगतोऽर्थः समानोऽस्ति। अथ तत्र वस्तुदर्शनायातकल्पनानिमित्तमुक्तम् , अत्र तथाभूतस्य प्रतिभासस्याभावान्नानुगतार्थकल्पना / तथाहि-कस्यचिद् घटादेः क्रियमाणस्य विशिष्टां रचनां कर्तृ पूविकां दृष्ट्वाऽदृष्टकर्तृ कस्यापि प्रमाण दिखायेंगे ? फलित यह हुआ कि आगम से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती / जब प्रत्यक्ष-अनुमान और आगम से ईश्वर स्वरूप ही असिद्ध है तो वह सारे जगत् का कारण कैसे माना जाय ? ( शंका समाप्त ) [ पूर्वपक्षी की युक्तिओं का आलोचन ] * इस शंका के उत्तर में नैयायिक कहते हैं-ईश्वर का साधक प्रत्यक्षप्रमाण नहीं है यह जो कहा है वह ठीक ही है / यह जो कहा कि नित्य या अनित्य (=ईश्वरकृत) किसी भी प्रकार के आगम का ईश्वरस्वरूपावेदन करने में कोई व्यापार नहीं है-इस का उत्तर यह है कि आगम का व्यापार न होने पर भी उसके स्वरूप को सिद्ध करने वाला अनुमान मौजूद है। उपरांत, सिद्ध अर्थों में भी लिंगदर्शनन्याय से आगम का व्यापार सावकाश है इस बात को हम आगे दिखायेंगे। 'ईश्वरसिद्धि के लिये कोई प्रत्यक्षमूलक अनुमान नहीं है'- यह तो हमारे मत से जो सिद्ध है उसका ही अनुवाद हुआ / क्योंकि, हम तो सामान्यतोदृष्ट अनुमान का ही ईश्वर सिद्धि में व्यापार मानते हैं। यदि शंका की जाय कि-सामान्यतोदृष्ट अनुमान की विचारणा का प्रारम्भ तो अनुमान प्रमाण होने पर करना ठीक है, चार्वाक (नास्तिक) लोग तो उसको प्रमाण ही नहीं मानते है-तो ऐसी शंका उद्घोषणा करने योग्य नहीं है क्योंकि आपने ही तो अनुमान को प्रमाणरूप से सिद्ध किया है / [ द्र० पृ० 293 ] [ पृथ्वी आदि में कार्यत्व असिद्ध नहीं ] शंकाकार ने जो यह कहा-पृथ्वी आदि में रहा हुआ कार्यत्व सिद्ध न होने से, उससे ईश्वर की अनुमान बुद्धि नहीं की जा सकती- यहाँ बौद्ध तो ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि वे लोग तो पृथ्वी आदि में कार्यत्व को मानते ही हैं ( चूकि सब पृथ्वी आदि क्षण क्षण नये उत्पन्न होते हैं ) / जो नास्तिक लोग पृथ्वी आदि में कार्यत्व का स्वीकार नहीं करते हैं, उनके सामने प्रश्न है कि जब पृथ्वी आदि में विशिष्ट प्रकार का संस्थान विद्यमान है तो कार्यत्व कैसे नहीं है ? जो कुछ भी संस्थानवाली वस्तुएं हैं वे सभी कार्य ही है यह नियम है और कोई भी कार्य पुरुषजनित ही होता है यह तो सुप्रसिद्ध है। जो लोग कहते हैं कि-"पृथ्वी आदि में घटादि के साथ केवल संस्थानशब्दवाच्यतारूप ही समानता है, वास्तव में उन दोनों में संस्थान जैसा कोई अनुगत समान धर्म नहीं है / घटादि में संस्थान अवश्य है, Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 घट-प्रासादादेस्तस्य रचनाविशेषस्य कर्तृ पूर्वकत्वप्रतिपत्तिः / पृथिव्यादेस्तु संस्थानं कदाचिदपि कर्तृपूर्वकं नावगतम् , नापि तादशं धर्म्यन्तरे दृष्टकर्तृक इव पटादौ, तत् पृथिव्यादिगतस्य संस्थानस्य वैलक्षण्यात् ततो न तत: कर्तृ पूर्वकत्वप्रतिपत्तिः, एवं हेतोरसिद्धत्वेन नैतत्साधनम् / अयुक्तमेतत् , यतो यद्यनवगतसम्बन्धान प्रतिपत्तृनधिकृत्य हेतोरसिद्धत्वमुच्यते तदा धूमादिष्वपि तुल्यम् / अथ गृहीताऽविनाभावानामपि कार्यत्वदर्शनात् तन्वादिषु ईश्वरादिकृतत्वप्रतिभासानुत्पत्तेरेवमुच्यते / तदसत् , ये हि कार्यत्वादेर्बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन गृहीताविनाभावास्ते तस्मादीश्वरादिपूर्वकत्वं तेषामवगच्छन्त्येव / तस्माद् व्युत्पन्नानामस्त्येव पृथिव्यादिसंस्थानवत्त्व-कार्यत्वादेहेंतोमिधर्मताऽवगमः, अच्युत्पन्नानां तु प्रसिद्धानुमाने धूमादावपि नास्ति। ___ अपि च, भवतु प्रासादादिसंस्थानेभ्यः पृथिव्यादिसंस्थानस्य लक्षण्यं. तथापि कार्यत्वं शाक्यादिभिः पृथिव्यादीनामिष्यते, कार्य च कर्तृ-करणादिपूर्वकं दृष्टम् , अतः कार्यत्वाद. बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वानुमानम् / अथ कर्तृ पूर्वकस्य कार्यत्वस्य संस्थानवत्त्वस्य च तद्वैलक्षण्यान ततः साध्यावगमः / अत एवाधिष्ठातृभावाभावानुवृत्तिमद् यत् संस्थानं तद्दर्शनात् कर्बदशिनोऽपि तत्प्रतिपत्तियुक्तेपृथ्वी आदि में नहीं है ।"-उन लोगों के मत में केवल संस्थानरूप अनुगत अर्थ का ही अभाव है, इतना ही नहीं, अपितु धूमादि में भी पूर्वापरव्यक्ति अनुगत कोई भी समान धर्म नहीं होना चाहिये / तात्पर्य, संस्थान को अनुगत न मानने पर धूमत्वादि को भी अनुगतरूप से नहीं मानने की आपत्ति होगी। [ हेतु में असिद्धि दोष की शंका का समाधान ] शंका:-धूमादि में तो पूर्वापरव्यक्ति में समानता के दर्शन बल से उत्थित कल्पना के निमित्त रूप में धूमत्वादि अनुगत धर्म को कहा जाता है / यहाँ घटादि और पृथ्वी आदि में ऐसी कोई समानता की प्रतीति नहीं होती जिसके बल से अनुगत अर्थ की कल्पना की जा सके / देखिये-वत्तमान में उत्पन्न होने वाले किसी एक घट में विशिष्ट रचना (यानी संस्थान) को साक्षात् कर्तृप्रेरित देख कर, जिस पूर्वोत्पन्न घट-भवन आदि में पूर्वदृष्ट घटादितुल्य रचनाविशेष को देखते हैं किन्तु उसके कर्ता को नहीं देखते हैं वहाँ कर्त प्रेरणा की अनुमिति की जाती है। कारण, पूर्वदृष्ट घट में कर्तपर्वकत्व को साक्षात् देखा है / पृथ्वी आदि के संस्थान में किसी ने भी कर्तृ प्रेरणा को नहीं देखा है / दूसरी ओर, अन्य पटादि धर्मी, जिस का कर्ता दृष्ट है, उसमें पृथ्वी आदि के समान संस्थान नहीं है / फलतः, पृथ्वी आदि का संस्थान सर्वथा विलक्षण होने से संस्थान के द्वारा कार्यत्व को सिद्ध कर के उससे कता की सिद्धि को अवकाश नहीं है। हेतु ही जब उक्तरीति से असिद्ध है तो ईश्वर का साधन नहीं हो सकता। समाधानः-यह शंका अयुक्त है / जिन लोगों को हेतु-साध्य का सम्बन्ध अज्ञात है वैसे लोगों को लक्ष्य में रख कर यदि हेतु को असिद्ध कहा जाय तब तो धूमादि में भी यह बात समान है। जिन लोगों को धूम-अग्नि का सम्बन्ध अज्ञात है उन लोगों को धूम में हेतुता भी अज्ञात होने से हेतु की असिद्धि ही भासेगी / यदि ऐसा कहें कि-जिन लोगों को कार्यत्व और कर्तृ पूर्वकत्व का सम्बन्ध ज्ञात है उन लोगों को भी शरीरादि में ईश्वरकृतत्व का प्रतिभास नहीं होता है अतः हेतु व्याप्यत्वासिद्ध होना चाहिये-तो यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि जिन लोगों को कार्यत्व का बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व के साथ अविनाभाव ज्ञात है वे कार्यत्व हेतु से शरीरादि में ईश्वरादिकृतत्व को जानते ही हैं / अतः यह Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्ष: 385 त्यस्य दूषणस्य कार्यत्वेऽपि समानत्वात् कथं गमकता ? यद्येवमनुमानोच्छेदप्रसंगः, धूमादिकमपि यथाविधमग्न्यादिसामग्रीभावाभावानुवृत्तिमत तथाविधमेव यदि पर्वतोपरि भवेत् , स्यात्ततो वह्नयाद्यवगमः / अथाऽधूमव्यावृत्तं तथावधमेव धमादि. तहि क र्यत्वाद्यपि तथाविधं पृथिव्यादिगतं किं नेष्यते ? अथ पृथिव्यादिगतकार्यत्वादिदर्शनात कशिनां तदप्रतिपत्तिः, एवं शिखर्यादिगतवह्नयाद्यदर्शिनां धूमादिभ्योऽपि तदप्रतिपत्तिरस्तु / न चाऽत्र शब्दसामान्यं, वस्त्वनुगमो नास्तीति वक्तु युक्तम् , धूमादावपि शब्दसामान्यस्य वक्तु शक्यत्वात / तन्न शाक्यदृष्टया कार्यत्वादेरसिद्धता। मानना ही होगा कि प्रबुद्ध लोगों को पृथ्वी आदि और संस्थानवत्त्व हेतु के बीच एवं पृथ्वी आदि और कार्यत्व हेतु के बीच धर्मीधर्मभाव का उपलम्भ होता ही है। जो लोग प्रबुद्ध नहीं है उन को तो प्रसिद्ध अग्नि अनुमानस्थल में धूमादि में भी हेतुता आदि का अवबोध नहीं होता। [बौद्धों के मत से भी कार्यत्व हेतु असिद्ध नहीं ] दूसरी बात यह है कि, पृथिवी आदि का संस्थान प्रासादादि के संस्थान से विलक्षण भले हो, फिर भी बौद्धादि के मत में पृथिवी आदि प्रत्येक वस्तु क्षणिक और सहेतुक होने से उसमें कार्यत्व तो माना ही जाता है / जब उसमें कार्यत्व सिद्ध है तो कार्यत्व हेतु से बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व का अनुमान भी हो सकेगा, क्योंकि जो भी कार्य होता है वह कर्तृ पूर्वक और करणादिपूर्वक ही होता है यह सर्वत्र देखा जाता है। शंका:-जैसा जैसा कार्यत्व और संस्थान कर्तृ जन्यवस्तु में देखा जाता है उन से नितान्त विलक्षण ही कार्य और संस्थानवत्ता पथ्वी आदि में दिखते हैं. अत: विलक्षण कार्यत्व और संस्था को हेतु बना कर सर्वत्र कर्तृ पूर्वकत्व-साध्य की सिद्धि कैसे शक्य होगी? [ तात्पर्य, यज्जातीय हेतु दृष्टान्त में है तज्जातीय हेतु पृथ्वी आदि पक्ष में न होने से हेतु असिद्ध है ] पृथ्वी आदिगत कार्यत्व और संस्थान विलक्षण होने से ही, जैसे संस्थान के अन्वय-व्यतिरेक, अधिष्ठाता यानी कर्ता के अन्वयव्यतिरेक को अनुसरते हैं, वैसे संस्थान को देखने पर, कर्त्ता न दिखायी देने पर भी उसकी आनुमानिक प्रतीति का होना युक्तियुक्त है। ( यानी अन्य प्रकार के संस्थान से कर्ता की अनुमिति युक्तयुक्त नहीं है ) / यही दूषण कार्यत्वस्थल मे भी समान है तो फिर कार्यत्व और संस्थानवत्त्व हेतु सर्वत्र कर्तृ पूर्वकत्व का बोधक कैसे होगा? सामाधानः-अगर संस्थानादि में ऐसी विलक्षणता को प्रस्तुत करेंगे तब तो अनुमान मात्र के उच्छेद का दोष प्रसंग होगा। कारण, धूमहेतुक अनुमान स्थल में भी ऐसा कहा जा सकेगा कि जैसा धूम अग्निआदिरूप सामग्री के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधायी है वैसा ही धूम अगर पर्वत की चोटी पर दिखायी देगा तब तो अग्नि का अनुमान बोध होना युक्तियक्त है, अन्यथा नहीं। यदि कहें कि 'पाकशाला में दृष्ट धूम और पर्वतगत धूम, दोनों में अधूमव्यावत्ति समान होने से उनमें कोई विलक्षणता नहीं है'-तो फिर पृथ्वी आदि और घटादि में रहे हुए कार्यत्वादि भी अकार्यव्यावृत्तिरूप से समान ही होने से कोई विलक्षणता नहीं है ऐसा क्यों नहीं मानते हैं ? यदि ऐसा कहें कि-'पृथ्वी आदि में कार्यत्व को देखने पर भी वहाँ कर्ता के बोध का उदय नहीं होता है अत: वहाँ कार्यत्व विलक्षण है'-तो ऐसे तो जिन लोगों को पर्वत में अग्नि का दर्शन नहीं होता है, उनको धूम देखने पर भी अग्नि का बोध मत मानीये / यदि यह कहा जाय कि-'पृथ्वीआदिगत कार्यत्वादि और घटादि Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नापि चार्वाक-मीमांसकदृष्ट्या, तेषामपि संस्थानवदवश्यं कार्य घटादिवत् / 'पथिव्यादि स्वावयवसंयोगैरारब्धमवश्यंतया विश्लेषाद् विनाशमनुभविष्यति' एवं विनाशाद् वा संभावितात् कार्यत्वानुमानम्, रचनास्वभावत्वाद वा / यथोक्तं भाष्यकृता-"येषामप्यनवगतोत्पत्तीनां भावानां रूपम्पलभ्यते तेषां तन्तुव्यतिषंगजनितं रूपं दृष्ट्वा तव्यतिषंगविमोचनात् तद्विनाशाद्वा विनंक्ष्यतीत्यनुमीयते" [ / ____ अनेन संस्थानवतोऽनुपलभ्यमानोत्पत्तेः समवाय्यसमवायिकारणविनाशाद् विनाशमाह / तथा पृथिव्यादेः संस्थानवतोऽदृष्ट जन्मनो रूपदर्शनाद् नाशसम्भावना भविष्यति, संभाविताच्च नाशात् कार्यत्वाऽनुमितौ कर्त प्रतिपत्तिः / यथोक्तं न्यायविद्भिः-"तत्त्वदर्शनं प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा"[ ] / कार्यत्व-विनाशित्वयोश्च समव्याप्तिकत्वादेकेनापरस्यानुमानमिष्टम "तेन यत्राप्यु स्यानुमानमिष्टम् "तेन यत्राप्युभौ धमौ" [ श्लो० वा० अनु०-६ ] इत्यत्र / अतो जैमिनीयानां न कार्यत्वादेरसिद्धता / गत कार्यत्वादि, इनमें केवल शब्द की ही समानता है, वस्तुतः दोनों एकजातीय यानी समान नहीं है'तो यह कहना ठीक नहीं है, क्यों धूमादिस्थल में भी ऐसा कहा जा सकता है कि पाकशालागत धूम और पर्वतगतधूम दोनों में शब्द साम्य ही है, वस्तुसाम्य कतई नहीं है / सारांश, बौद्ध मतानुसार पथ्वी आदि में कार्यत्वादि हेतु की असिद्धि नहीं है / .. [ मीमांसक के मत से भी हेतु असिद्ध नहीं ] चार्वाक और मीमांसा दर्शन में भी कार्यत्व हेतु की असिद्धि नहीं है। उनके मत में भी जो संस्थान ( आकारविशेष )वाला हो उसे अवश्य कार्य ही कहना होगा, जैसे घटादि कार्य / अथवा, सम्भावित विनाश से भी पथ्वी आदि में कार्यत्व का अनुमान हो सकता है, विनाश की सम्भावना इस प्रकार की जा सकती है कि जो पृथ्वी आदि अपने अवयवों के संयोग से आरब्ध है उनका विनाश अवश्यंभावि है जैसे घटादि का / यद्वा रचनाविशेषरूप स्वभाव से यानी अवयवसंनिवेश से भी कार्यत्व का अनुमान हो सकता है। जैसे कि भाष्यकार ने कहा है-उत्पत्ति अज्ञात होने पर भी जिन भावों का ( वस्त्रादि का ) रूप ( यानी सत्ता ) उपलब्ध है, उनके तन्तु व्यतिषंग (यानी तन्तुओं के ग्रथन ) से उत्पन्न स्वरूप (सत्ता) को देखकर यह अनुमान किया जाता है कि या तो वह तन्तुओं का व्यतिषंग छूट जाने से ( यानी ग्रथन शून्य हो जाने से ) नष्ट होगा अथवा तो तन्तुओं का नाश हो जाने पर नष्ट होगा।" इस भाष्यकार वचन का तात्पर्य यह है कि उत्पत्ति अज्ञात होने पर भी संस्थानवाली वस्तु या तो समवायिकारण के नाश से अथवा असम वायिकारण के नाश से अवश्य नष्ट होगी। सारांश, उत्पत्ति दृष्ट न होने पर भी संस्थान वाले पृथ्वी आदि के स्वरूप को देखकर उसके नाश की सम्भावना की जा सकेगी, उस सम्भावित विनाश से उसमें कार्यत्व का अनुमान होगा और कार्यत्व हेतु से कर्ता का बोध भी फलित होगा। जैसे कि न्यायवेत्ताओं ने कहा है- 'वस्तुस्वभाव का बोध प्रत्यक्ष से अथवा अनुमान से होता है। . कार्यत्व और विनाशित्व दोनों समव्यापक हैं, अर्थात् दोनों एक-दूसरे के व्याप्य और व्यापक हैं अतः जहाँ एक दृष्ट होगा वहाँ दूसरे का अनुमान बोधित होना इष्ट ही है, यह बात श्लोक वात्तिक के 'तेन यत्रा०' श्लोक इस [ श्लो० वा० अनु०-९ ] में कही गयी है "तेन यत्राप्युभौ धमौं व्याप्य-व्यापकसम्मतौ / तत्रापि व्याप्यतैव स्यादंगं न व्यापिता पुनः // " Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 387 नापि चार्वाकमतेऽसिद्धत्वम् , तेषां रचनावत्त्वेनावश्यंभावनी कार्यताप्रतिपत्तिरदृष्टोत्पत्तीनामपि क्षित्यादीनाम् , अन्यथा वेदरचनाया अपि कर्त दर्शनाभावाद न कार्यता / यतस्तत्राप्येतावच्छक्यं वक्तुम् न रचनात्वेन वेदरचनायाः कार्यत्वानुमानम् / कर्तृ भावभावानुविधायिनी तद्दर्शनाल्लौकिक्येव रचना तत्पूविकाऽस्तु, मा भूद वैदिकी। अथ तयोविशेषानुपलम्भाद् लौकिकीव वैदिक्यपि कर्तृ पूर्विका तर्हि प्रासादादिसंस्थानवत् पृथिव्यादिसंस्थानवत्त्वस्यापि तद्रूपताऽस्तु विशेषानुपलक्षणात् / तन्न हेतोरसिद्धता। मा भूदसिद्धत्वं तथाप्यस्मात् साध्यसिद्धिर्न युक्ता, नहि केवलात् पक्षधर्मत्वाद् व्याप्तिशून्यात् साध्यावगमः / 'ननु कि घटादौ कत-कर्म-करणपूर्वकत्वेन कार्यत्वादेाप्त्यनवगमः ?' अस्त्येवं घटगते कार्यत्वे प्रतिपत्तिस्तथापि न व्याप्तिः, सा हि सकलाक्षेपेण गृह्यते, अत्र तु व्याप्तिग्रहणकाल एव अर्थः-व्याप्यत्व ही साध्यबोध में प्रयोजक होने से जहाँ दोनों धर्म ( एक दूसरे के ) व्याप्य और व्यापक रूप में अभिमत है वहाँ भी व्याप्यता ही ( साध्य के ज्ञान का ) अंग ( प्रयोजिका ) है, भले ही उस में (साध्य की) व्यापकता हो किन्तु वह साध्य बोध की प्रयोजिका नहीं है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैमिनी के मीमांसादर्शन में, पृथ्वी आदि में कार्यत्व की असिद्धि नहीं है। .. [चार्वाक मत से भी हेतु असिद्ध नहीं ] चार्वाक दर्शन में भी कार्यत्व हेतु असिद्ध नहीं है / उनको भी अज्ञात-उत्पत्तिवाले पृथ्वी आदि में 'रचनावत्त्व' (रचना का तात्पर्य है पूर्वापरभाव से विन्यास) हेतु से अवश्यमेव कार्यता का स्वीकार करना होगा। जहां भी विशिष्ट प्रकार की रचना दिखायी देती है वहाँ कार्यत्व भी दिखता है / यदि इस बात को नहीं मानेंगे तो वेदशास्त्रों में रचनावत्त्व को देखने पर भी कर्ता न दिखायी देने से वहां कार्यत्व नहीं मान सकगे / कारण, वहाँ भी ऐसा बता सकते हैं कि वेदों में रचनात्व हेतु से कार्यत्व का अनुमान नहीं हो सकता / कारण, कर्ता के अन्वय-व्यतिरेक की अनुविधायी जो लौकिक ( शास्त्रों की ) रचना है उसी में कर्तृ पूर्वकत्व के देखे जाने से लौकिक रचना में भले ही कर्तृ पूर्वकत्व माना जाय, किन्तु वैदिक रचना में कर्तृ पूर्वकत्व मानने की जरूर नहीं है / यदि कहें कि-'लौकिक और वैदिक रचना ( आनुपूर्वीविशेष का विन्यास ) समान ही है, उन दोनों में कोई विशेषता उपलब्ध नहीं होती अतः वैदिक रचना को भी कर्तृ पूर्वक ही मानी जाय'-तो यहाँ भी कहा जा सकता है कि प्रासादादि का जैसा संस्थान है वैसा ही पृथ्वी आदि में भी है, दोनों में कोई विशेषता उपलब्ध न होने से पृथ्वी आदि का संस्थान भी कार्यत्वबोधक स्वोकार लो। इस प्रकार पृथ्वी आदि में चार्वाकमत से भी कार्यत्वहेतु की असिद्धि नहीं है। [नैयायिक के सामने विस्तृत पूर्वपक्ष] . पूर्वपक्षी:-कार्यत्व हेतु की असिद्धि मत हो, फिर भी उससे आपके इष्ट साध्य की सिद्धि युक्तिसंगत नहीं है / पक्ष में हेतु का सद्भाव सिद्ध हो जाय तो भी व्याप्तिशून्य हेतु से कभी साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती। . नैयायिकः-अरे ! क्या घटादि में कर्तृ-कर्म-करणपूर्वकत्व के साथ कार्यत्व की व्याप्ति आपको अज्ञात है ? Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड / केषांचित् कार्याणामकर्तृ पूर्वकाणां कार्यत्वदर्शनान्न सर्व कार्य कर्तृ पूर्वकं यथा वनेषु वनस्पतीनाम् / 'अथ तत्र न कर्बभावनिश्चय: किंतु कर्बग्रहणम् तच्च विद्यमानेऽपि कर्तरि भवतीति कथं साध्याभावे हेतोदर्शनम् ?' क्व पुनविद्यमानकर्तृकाणां तदप्रतिपत्तिः ? 'यथा घटादीनामनवगतोत्पत्तीनाम् / 'युक्ता तत्र कर्तुरप्रतिपत्तिः, उत्पादकालानवगमात् , तत्काले च तस्य तत्र संनिधानम् अन्यदाऽस्य संनिधानाभाषादग्रहणम् , वनगतेषु च स्थावरेषूपलभ्यमानजन्मसु कर्तृ सद्भावे तदवगमोऽवश्यंभावी, यथोपलभ्यमानजन्मनि घटादौ, अत उपलब्धिलक्षण प्राप्तस्य कर्तुस्तेष्वभावनिश्चयात् तत्र व्याप्तिग्रहणकाल एव कार्यत्वादेर्हेतोदर्शनाद् न कर्तृ पूर्वकत्वेन व्याप्तिः। ___ इतश्च, दृष्टहान्यदृष्टपरिकल्पनासम्भवात्-दृष्टानां क्षित्यादीनां कारणत्वत्यागोऽदृष्टस्य च कर्तुः कारणत्वकल्पना न युक्तिमती। अथ न क्षित्यादेः कारणत्वनिराकरणं कर्तृ कल्पनायामपि, तत्सद्भावेऽपि तस्यापरकारणत्वक्लुप्तेः / तदसत् , यतो यद् यस्यान्वय-व्यतिरेकानुविधायी तत्तस्य कारणम् , इतरत् कार्यम् / क्षित्यादीनां त्वन्वय-व्यतिरेकावनुविधत्ते तत्राकृष्टजातं वनस्पत्यादि नापरस्य, कथमतो पूर्वपक्षी:-घटनिष्ठ कायत्व में कर्तृ पूर्वकत्व दृष्ट होने पर भी उतने मात्र से व्याप्ति सिद्ध नहीं हो जाती / व्याप्ति का ग्रहण सभी देश-काल के अन्तर्भाव से किया जाता है। यहां तो आप जिस काल में कत पूर्वकत्व के साथ कार्यत्व की व्याप्ति को ग्रहण कर रहे हैं उसी काल में पृथ्वी, अंकुरादि कितने ही जन्य भावों में कर्तृ पूर्वकत्व के विना भी कार्यत्व दिखाई देता है, अत: 'कार्यमात्र कर्त पूर्वक ही होता है, यह नियम नहीं बन सकता / जैसे, जंगलों में बहुत सी वनस्पतियाँ कर्ता के विना ही ऊग निकलती है। नैयायिक:-ऐसे स्थलों में उनके कर्ता का ग्रहण नहीं होता यह बात ठीक है, किन्तु इतने मात्र से 'कर्ता ही नहीं है' ऐसा निश्चय फलित नहीं हो जाता, क्योंकि कर्ता के होने पर भी उसके अग्रहण का पूरा सम्भव है / तो फिर साध्य के अभाव में भी वहाँ हेतु कार्यत्व दिखाई देता है'-ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? पूर्वपक्षी:-'कर्ता होता है किन्तु उसका ग्रहण नहीं होता है' ऐसा कहाँ देखा ? नैयायिकः-घटादि में ही / पुरोवर्ती घटादि की उत्पत्ति किस कर्ता से कब हुयी यह हम नहीं जान सकते किन्तु उसका कर्ता होता तो जरूर है / पूर्वपक्षी:-कर्ता होने पर उसकी उपलब्धि न हो ऐसा घटादि में तो मान सकते हैं, क्योंकि उसकी उत्पत्ति का काल हम नहीं जानते है / जिस काल में उत्पत्ति हुई उस काल में वहाँ कर्ता सन्निहित था, किन्तु उस काल की अपने को माहिती नहीं थी, और अन्य काल में कर्ता का सन्निधान नहीं है अत: घटादि के कर्ता की अनुपलब्धि का सम्भव है। किंतु अरण्यगत वनस्पति के लिये ऐसा नहीं है। जंगल की स्थावर वनस्पतियों का जन्मकाल तो उपलब्ध होता है, अत: यदि वहाँ कर्ता विद्यमान हो तो उसका उपलम्भ अवश्य हो सकता है। जैसे कि जिस घटादि की उत्पत्ति को हम देखते हैं उसके कत्तों को भी अवश्य देखते है / तात्पर्य, वनस्थ वनस्पत्ति का कत्तो भी यदि सम्भवित हो तो अवश्यमेव उपलब्धिलक्षण प्राप्त यानी उपलम्भयोग्य ही हो सकता है, अत एव ऐसे कर्ता का वहाँ अभाव सुनिश्चित होने से, व्याप्तिग्रहण काल में ही साध्यशून्य वनस्पति आदि स्थल में कार्यत्व हेतु के दर्शन होने से कर्तृ पूर्वकत्व के साथ उसकी व्याप्ति सिद्ध नहीं हो सकती। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्ष: 389 व्यतिरिक्त कारणं भवेत् ? एवमपि कारणत्वकल्पनायां दोष उक्तः 'चैत्रस्य व्रणरोहणे' [ ] इत्यादिना / तस्मात् पक्षधर्मत्वेऽपि व्याप्त्यभावादगमकत्वं हेतोः / ___ अथ तेषां पक्षेऽन्तर्भावात् न तैर्व्यभिचारः, तदसत , तात्त्विकं विपक्षत्वं कथमिच्छाकल्पितेन पक्षत्वेनाऽपोद्येत ? व्याप्तौ सिद्धायां साध्य-तदभावयोरग्रहणे वादीच्छापरिकल्पितं पक्षत्वं कथ्यते / सपक्ष-विपक्षयोहतो: सदसत्त्वनिश्चयाद व्याप्तिसिद्धिः / एवमपि साध्याभावे दृष्टस्य हेतोर्व्याप्तिग्रहणकाले व्यभिचाराऽशंकायां निश्चये वा व्यभिचारविषयस्य पक्षेऽन्तर्भावेन गमकत्वकल्पने न कश्चिद्धेतुव्यभिचारी भवेत् / तस्मान्नेश्वरसिद्धौ कश्चिद् हेतुरव्यभिचार्यस्ति। [ नैयायिक मत में दृष्टहानि-अदृष्टकल्पना ] कर्तृ पूर्वकत्व की कल्पना में यह भी एक दोष, दृष्ट की हानि और अदृष्ट की कल्पना यह दोष, सम्भव होने से पूर्वोक्त व्याप्ति अप्रसिद्ध हो जाती है। अरण्यजात वनस्पति आदि के पृथ्वी-जलादि की कारणता दृष्ट है उसका परिहार करके जो कर्ता अप्रसिद्ध है उसकी कल्पना कर लेना युक्तिसंगत नहीं है। ___नैयायिक:-कर्ता की कल्पना करने पर भी हम पृथ्वी आदि की कारणता का अपलाप नहीं करते हैं, पृथ्वी आदि को कारण मानते ही है और अरण्यगत वनस्पति के पृथ्वी आदि से अतिरिक्त . एक कर्ता की कल्पना करते हैं, तो इस में दृष्ट हानि नहीं है। पूर्वपक्षी:-यह ठीक नहीं, जो (क) जिस (ख) के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधायि हो वह (ख) उसका कारण कहा जायेगा और दूसरा (क) उसका कार्य होगा, यह सिद्धान्त है। तदनुसार अरण्य में विना खेड किये ही उत्पन्न हो जाने वाले वनस्पति आदि पृथ्वी आदि के ही अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण करता है, और किसी के भी नहीं, तब पृथ्वी आदि से अधिक कर्तादि कारण कैसे हो सकता है ?! ऐसा होने पर भी यदि कर्तादि कारण की कल्पना की जायेगी तो अदृष्ट कल्पना का दोष चैत्र के घाव का संरोहण...' इत्यादि श्लोक से कहा ही है। इस कारण से, हेतु कार्यत्व में पक्षधर्मता होने पर भी व्याप्ति न होने से वह कर्ता का बोधक नहीं बन सकता। [ पक्ष में अन्तर्भाव करके व्यभिचार निवारण अशक्य ] नैयायिकः-वनस्पति आदि में कार्यत्वहेतु का व्यभिचार दिखा कर हेतु को व्याप्तिशून्य दिखाना अच्छा नहीं है, क्योंकि जहाँ जहाँ कर्ता नहीं दिखता उन सभी वनस्पति आदि का हम पक्ष में र्भाव कर लेते हैं, और पक्ष में तो साध्य को सिद्ध किया जाता है अतः पक्ष को ही व्यभिचारस्थलरूप में नहीं दिखाया जा सकता, अन्यथा धूम हेतु को भी पर्वतादि पक्ष में अग्निव्यभिचारी दिखा कर व्याप्ति शून्य कह देने पर प्रसिद्ध अनुमान का ही उच्छेद होगा। पूर्वपक्षी:-यह बात मिथ्या है, क्योंकि वनस्पति आदि स्थल में कभी किसी को कर्त्ता उपलब्ध न होने से वह तो तत्त्वभूत विपक्ष है, उसको आप अपनी इच्छानुसार कल्पना करके पक्षान्तर्भूत दिखा कर विपक्षत्व से रहित नहीं कर सकते / वादी की इच्छा से की गयी कल्पना के अनुसार पक्षता तब ही कही जा सकती है जब एक ओर हेतु में साध्य की व्याप्ति प्रसिद्ध हो, दूसरी ओर पक्षत्वेन अभिप्रेत स्थल में साध्य और उसका अभाव दोनों में से कोई भी पूर्वगृहोत न हो / व्याप्ति की सिद्धि तो Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अत्राहुः नाऽकृष्टजातैः स्थावरादिभिर्व्यभिचारः, व्याप्त्यभावो वा, साध्याभावे वर्तमानो हेतुर्व्यभिचारो उच्यते, तेषु तु कर्ऋग्रहणम् , न सकर्तृकत्वाभावनिश्चयः / ननूक्तम् 'उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वे कर्तुरभावनिश्चयस्तत्र युक्त'- नैतद् युक्तम् , उपलब्धिलक्षणप्राप्तताया: कतु स्तेष्वनभ्युपगमात् यत्तूक्तम्क्षित्याद्यन्वय-व्यतिरेकानुविधानदर्शनात तेषां, तद्व्यतिरिक्तस्य कारणत्वकल्पनेऽतिप्रसंगदोषः' इति, एतस्यां कल्पनायां धर्माधमयोरपि न कारणता भवेत् / न च तयोरकारणतैव, तयोः कारणत्वप्रसाधनात्-नहि किचिज्जगत्यस्ति यत् कस्यचिन्न सुखसाधनम् दुःखसाधनं वा / न च तत्साधनस्यादृष्टनिरपेक्षस्योत्पत्तिः। इयांस्तु विशेषः शरीरादेः प्रतिनियतादृष्टाक्षिप्तत्वं प्रायेण, सर्वोपभोग्यानां तु साधारणाऽदृष्टाक्षिप्तत्वम् / एतत् सर्ववादिभिरभ्युपगमाद् अप्रत्याख्येयम् , युक्तिश्च प्रदर्शितैव / चार्वाकैरप्येतदभ्युपगन्तव्यतान् प्रति पूर्वमेतत्सिद्धौ प्रमाणस्योक्तत्वात् / प्रमाणसिद्धं तु न कस्यचिन्न सिद्धम् / तभी हो सकती है जब सपक्ष में हेतु का सत्त्व और विपक्ष में हेतु का असत्त्व दोनों ही निश्चित रहे / यदि इस बात को न मानें, और जहाँ साध्य न होने पर भी हेतु दृष्ट है ऐसे हेतु में जिस काल में व्याप्तिग्रह किया जाता है उस वक्त किसी स्थल में व्यभिचार की शका या निश्चय प्रस्तुत किया जाय, उस वक्त यदि उस व्यभिचार स्थल का भी पक्ष में ही अन्तर्भाव करके हेतु को साध्यसाधक बताया जाय, तब तो व्यभिचारदोष का ही उच्छेद हो जाने से कोई भी हेतु व्यभिचारी नहीं कहा जा सकेगा / कारण, तप्तलोहगोलक में अग्नि धूम का व्यभिचारी है यह दिखाने पर गोलक का भी पक्ष में ही अन्तर्भाव कर लेने से अग्नि भी धूम का माधक बन जायेगा। ___निष्कर्ष:-ईश्वर की सिद्धि में कोई भी व्यभिचारी हेतु प्रसिद्ध नहीं है। [ नैयायिक के सामने पूर्वपक्ष समाप्त ] [ पूर्वपक्षो को नेयायिक का प्रत्युत्तर ] ईश्वरवादी यहाँ कहते हैं-विना खेडे ही उत्पन्न स्थावरकाय वनस्पति आदि में कोई व्यभिचार दोष नहीं है, एवं व्याप्ति भी असिद्ध नहीं है। जहाँ साध्य का अभाव रहता हो वहाँ हेतु रहे तो व्यभिचारो कहा जाता है। वनस्पत्ति आदि में यद्यपि कर्ता का ग्रहण नहीं होता फिर भी वहाँ सकर्तृकत्व के अभाव का निश्चय भी नहीं है। पूर्वपक्षोः-कर्ता उपलब्धिलक्षण प्राप्त होने पर भी उसका वहाँ ग्रहण न होने से वहाँ कर्ता के अभाव का निश्चय सिद्ध ही है- यह हमने पहले कह तो दिया है। नैयायिकः-यह बात युक्त नहीं है, वनस्पति आदि के कर्ता को हम उपलब्धिलक्षणप्राप्त मानते ही नहीं। यह भी जो कहा था-'वनस्पति आदि में पृथ्वी आदि के अन्वय व्यतिरेक का अनुविधान दिखता है अतः पथ्वी आदि से अधिक ईश्वरादि में कारणता की कल्पना करने पर अतिप्रसंग दोष होगा'-यह भी ठीक नहीं क्योंकि ऐसी दोषकल्पना करने पर तो धर्म-अधर्म ( अर्थात् पुण्य-पाप ) में भी कारणता सिद्ध नहीं हो सकेगी। 'वे कारण ही नहीं यह नहीं कह सकते, क्योंकि उनमें सकल कार्यों के प्रति कारणता सिद्ध है / जैसे-जगत् में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो किसी के सुख का या दुःख का कारण न हो / जो भो सुख-दुःख के कारण हैं उनकी उत्पत्ति ही अदृष्ट ( पुण्य-पाप ) के विना शक्य नहीं है। हाँ, इतनी विशेषता जरूर है, देह-इन्द्रियादि की उत्पत्ति उसके किसी एक उपभोक्ता के अदृष्ट से ही होती है किन्तु जो सर्वसाधारण उपभोग की वस्तु है-चन्द्रप्रकाश, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृ त्वे पूर्वपक्षः 391 अथ जगद्वैचित्र्यमदृष्टस्य कारणत्वं विना नोपपद्यते इति तत् कल्प्यते, सर्वान् उत्पत्तिमतः प्रति भूम्यादेः साधारणत्वादतोऽदृष्टाख्यविचित्रकारणकृतं कार्यवैचित्र्यम् / एवमदृष्टस्य कारणत्वकल्पनायाभीश्वरस्यापि कारणत्वप्रतिक्षेपो न युक्तः, यथा कारण गतं वैचित्र्यं विना कार्यगतं वैचित्र्यं नोपपद्यते इति तत् परिकल्प्यते तथा चेतनं कर्तारं विना कार्यस्वरूपानुपपत्तिरिति किमिति तस्य नाभ्युपगमः ? न चाकृष्टजातेषु स्थावरादिषु तस्याऽग्रहणेन प्रतिक्षेपः, अनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाददृष्टवत् / न च सर्वा कारणसामग्र्युपलब्धिलक्षणप्राप्ता। अत एव दृश्यमानेष्वपि कारणेषु कारणत्वमप्रत्यक्षम् , कार्येणैव तस्योपलम्भात् / सहकारिसत्ता दृश्यमानस्य कारणता, केषांचित् सहकारिणां दृश्यत्वेऽप्यदृष्टादेः सहकारिणः कार्येणैव प्रतिपत्तिः, एवमीश्वरस्य कारणत्वेऽपि न तत्स्वरूपग्रहणं प्रत्यक्षेणेति स्थितम् / ततोऽनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वात् कर्तु रुपलभ्यमानजन्मसु स्थावरेषु हेतोवृत्तिदर्शनाद् न व्याप्त्यभावः यतो निश्चितविपक्षवृत्तिहेतुर्व्यभिचारी। सूर्यप्रकाशादि, उसकी उत्पत्ति सर्वसाधारण अदृष्ट से होती है / सभी आस्तिकवादीयों को अदृष्ट की कारणता मान्य ही है अतः उसका प्रतिक्षेप दुःशक्य है। अदृष्ट की साधक युक्तियाँ तो बता दी गयी हैं / इसीलिये चार्वाक (नास्तिक ) वादीयों को भी यह मानना ही चाहिये, क्योंकि उनके सामने पहले ही अदृष्ट की सिद्धि में प्रमाण कह दिया है [ पृ. 246-13 ] / जो वस्तु प्रमाणसिद्ध हो वह किसी के लिये असिद्ध नहीं हो सकती। [अदृष्ट और ईश्वर की कल्पना में ] पूर्वपक्षीः-अदृष्ट की कारणता के विना जगत् का वैचित्र्य नहीं घट सकता, इस हेतु से अदृष्ट की कल्पना की जाती है / भूमि-जल इत्यादि कारण तो तभी उत्पन्न वस्तु के प्रति समान होने से कार्य का वैचित्र्य भिन्न भिन्न अदृष्टात्मक कारण से ही घट सकता है। नैयायिकः- उक्त रीति से अदृष्ट में कारणत्व की कल्पना करने पर ईश्वर में भी कारणता की कल्पना का प्रतिकार युक्त नहीं है / कार्यों का वैचित्र्य कारण के वैचित्र्य के विना नहीं घटता, इस हेतु से अदृष्ट की जैसे कल्पना की जाती है, उसी प्रकार, चेतन कर्ता के विना भी किसी कार्य का स्वरूप न घट सकने से ईश्वर का स्वीकार क्यों न किया जाय ? विना कृषि के ही उत्पन्न स्थावरकाय आदि में कर्ता का उपलम्भ न होने मात्र से उसका अस्वीकार करना ठीक नहीं, जैसे अदृष्ट उपलब्धिलक्षणप्राप्त (उपलब्धियोग्य) न होने से असका उपलम्भ नहीं होता उसी प्रकार ईश्वर कर्ता भी उपलब्धि-अयोग्य होने से उसका अनुपलम्भ बुद्धिगम्य है / जो भी कारणसामग्री हो वह उपलब्धिलक्षणप्राप्त ही होनी चाहिये ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तब अदृष्ट की मान्यता ही समाप्त हो जाती है। केवल कारण ही नहीं, कारणता भी उपलब्धिलक्षणप्राप्त नहीं है, इसी लिये तो कारणों को देखने पर भी तद्गत कारणता का प्रत्यक्ष नहीं होता है, धूमादि कार्य को देख कर ही अग्नि आदि में कारणता का उपलम्भ होता है / कारणता क्या है, इतर सहकारियों की सत्ता यानी सांनिध्य- यही कारणता है, जैसे, दंड में घट की कारणता है इसका यही अर्थ है कि दण्ड को घटोत्पादक सभी सहकारीयों का सांनिध्य प्राप्त है। (इसी को सहकरिवैकल्यप्रयुक्तकार्याभाववत्त्व भी कहते हैं / ) जब कारणता सहकारीसांनिध्यस्वरूप है तो कुछ सहकारी दृश्य रूपवाले होने पर भी अदृष्टादि सहकारी दृश्य नहीं हैं, उनकी सत्ता तो कार्य से ही अनुमित होती है / तात्पर्य, अदृश्य सहकारिगत कारणता भी अदृश्य ही होती है। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ननु निश्चितविपक्षवृत्तिर्यथा व्यभिचारी तथा संदिग्धव्यतिरेकोऽपि, उक्तेषु स्थावरेषु कत्रग्रहणं कि कत्रभावात् , आहोस्विद् विद्यमानत्वेऽपि तस्याऽग्रहणमनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वेन ? एवं संदिग्धव्यतिरेकत्वे न कश्चिद्धतुर्गमकः, धूमादेरपि सकलव्यक्त्याक्षेपेण व्याप्त्युपलम्भकाले न सर्वा वह्निव्यक्तयो दृश्याः, तासु चादृश्यासु धूमव्यक्तीनां दृश्यत्वे संदिग्धव्यतिरेकाशंका न निवत्तते-यत्र वह्न रदशने धमदर्शनं तत्र कि वह्न रदर्शनमभावात् , पाहोस्विदनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वादिति न निश्चयः / अतो धमोऽपि संदिग्धव्यतिरेकत्वान्न गमकः। / __ अथ धमः कार्य हुतभुजः, तस्य तदभावे स्वरूपानुपपत्तेरदृष्टत्वेऽप्यनलस्य सद्भावकल्पना। ननु तत् कार्यमत्रोपलभ्यमानं किमितिकारणमन्तरेण कल्प्यते ? 'अथ दृष्टशक्तेः कारणस्य कल्पनाऽस्तु, माभूद् बुद्धिमतः' / वह्नयादेवू मादीन् प्रति कथं दृष्टशक्तिता ? 'प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यामि ति चेत् ? इसी प्रकार ईश्वर की कारणता भी फलबोध्य होने से प्रत्यक्ष से ईश्वरनिष्ठ कारणतास्वरूप का ग्रहण शक्य नहीं हैं यह सिद्ध हआ। जब यह सिद्ध हआ कि ईश्वर उपलब्धिलक्षण प्राप्त नहीं है, तब, जिन की उत्पत्ति को हम देख सकते हैं उन स्थावरों में हेत का अवस्थान देखने पर, कर्तारूप साध्य को न देखने मात्र से व्याप्ति का भंग नहीं हो सकता जिससे कि स्थावरों को निश्चित विपक्षरूप मान कर उनमें रहने वाला कायंत्व हेतु व्यभिचारी कहा जा सके। [ कार्यत्व हेतु में व्यतिरेकसंदेह से व्यभिचार शंका का उत्तर ] शंकाः-विपक्ष का स्वरूपनिश्चय हो जाने पर उसमें रहने वाला हेतु जैसे व्यभिचारी होता है, उसी तरह विपक्षरूप से जो संदिग्ध हो, उसमें हेतु के रहने पर विपक्षव्यावृत्ति का संदेह हो जाने से संदिग्धव्यतिरेकवाला हेतु भी व्यभिचारी ही बन जायेगा। संदेह इस प्रकार होगां-उन स्थावरों में कर्ता का ग्रहण कर्ता न होने से नहीं होता है ? या कर्ता होने पर भी वह उपलब्धि लक्षण प्राप्त न होने से उसका ग्रहण नहीं होता? समाधानः- यदि इस प्रकार संदिग्धव्यतिरेक से व्यभिचार का आपादन किया जाय तो वह सर्वत्र सम्भवारूढ होने से कोई भी हेतु साध्यबोधक न हो सकेगा। देखिये-धूमादि में सकल-देश-काल गत व्यक्ति के अन्तर्भाव से अग्नि की व्याप्ति के उपलम्भ काल में भी सर्व अग्नि का साक्षाद् उपलम्भ तो शक्य ही नहीं है, अतः जहाँ भी अग्नि का अदर्शन और धूमव्यक्ति का दर्शन होगा वहाँ भी संदिग्धव्यतिरेक को शंका निवृत्त नहीं होगी। शंका इस प्रकार होगी, अग्नि न देखने पर भी जहाँ धूम दिखता है वहाँ क्या अग्नि नहीं होने से नहीं दिखता है ? या वह भी उपलब्धिलक्षणप्राप्त न होने से नहीं दिखता है ? कुछ भी निश्चय नहीं हो सकेगा / फलत: धूम हेतु भी संदिग्धव्यतिरेकवाला हो जाने से अग्निबोधक न हो सकेगा। [अग्निवत ईश्वर की कल्पना आवश्यक ] शंकाः-धूम से अग्नि का बोध शक्य है क्योंकि वह अग्नि का कार्य है, अतः अग्नि के विना जीव इस शरीर का प्रवर्तन-निवर्तन कार्य अन्य किसी शरीर से नहीं करता, अत: कार्य शरीर का द्रोही है यह फलित होता है। यदि ऐसा कहें कि-अपने शरीर का प्रवचन-निवर्त्तन अन्य शरीर के विना भी प्रत्यक्षतः दृष्ट होने से मान लिया जाय, किन्तु शरीरभिन्न स्थावरादि की उत्पत्ति शरीर के विना कैसे मानी जा सकेगी ?-तो यह ठीक नहीं है-हमारा लक्ष्य यही सिद्ध करने में है कि अशरीरी Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 393 बुद्धिमतोऽपि ताभ्यां कारणत्वक्लप्तौ वह्नयादिभिस्तुल्यता। यथा वह्नयादिसामग्र्या धूमादिर्जन्यमानो दृष्टः स तामन्तरेण कदाचिदपि न भवति, स्वरूपहानिप्रसंगात , तद्वत सर्वमुत्पत्तिमत् कर्तृ-करण-कर्मपूर्वकं दृष्टम् , तस्य सकृदपि तथादर्शनात तज्जन्यतास्वभावः, तस्यैवस्वभावनिश्चितावन्यतमाभावेऽपि कथं भावः ? कि च, अनुपलभ्यमानकर्त केष स्थावरेष करनपलम्भः शरीराद्यभावात, न त्वसत्त्वात् / यत्र शरीरस्य कर्तृता तत्र कुलालादेः प्रत्यक्षेणैवोपलम्भः, अत्र तु चैतन्यमात्रेणोपादानाधिष्ठानात् कथं प्रत्यक्षव्यापृतिः ? ! नाप्येतत् वक्तव्यम्-‘शरीराद्यभावातहि कर्तताऽपि न युक्ता-कार्यस्य शरीरेण सह व्यभिचारदर्शनात्-यथा स्वशरीरस्य प्रवृत्ति-निवृत्ती सर्वश्चेतनः करोति, ते च कार्यभूते, न च शरीरान्तरेण शरीरप्रवृत्ति-निवृत्तिलक्षणं कार्य चेतनः करोति तेन तस्य व्यभिचारः / अथ शरीरे एव दृष्टत्वात् नान्यत्र / तन्न, यतः कार्य शरीरेण विना करोतीति नः साध्यम् , तत् स्वशरीरगतमन्यशरीरगतं वेति नानेन किचित / धूमात्मक कार्य को स्वरूपलाभ ही अशक्य होने से, अग्नि न दिखाई देने पर भी धूम हेतु से उसके सद्भाव की कल्पना (अनुमान) कर सकते हैं। ईश्वरस्थल में ऐसा नहीं है। उत्तर:-जब धूम की तरह पृथ्वी आदि में भी कार्यत्व का स्पष्ट उपलम्भ होता है तो विना कारण (कर्ता) ही आप उसके सद्भाव को कैसे मान लेते हैं ? शंका:-जिस का प्रभाव अन्यत्र दृष्ट है ऐसे कारण की कल्पना करना संगत है, पृथ्वी आदि के पीछे किसी बुद्धिमान् कर्ता का प्रभाव कहीं भी दृष्ट नहीं है तो उसकी कल्पना क्यों करें ? .. उत्तरः-धूमादि के पीछे अग्नि का प्रभाव है यह कैसे जाना ? यदि प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ (यानी अन्वय-व्यतिरेक) से, यह कहा जाय तो बुद्धिमान् कर्ता का प्रभाव भी अन्वय-व्यतिरेक से प्रासादादि कार्य के पीछे दृष्ट ही है, अत: अग्नि आदि और पृथ्वी आदि कार्यों में कोई अन्तर नहीं है / जैसे अग्नि आदि सामग्री से धूमादि की उत्पत्ति दिखाई देती है तो धूमादि अग्नि आदि के विना कभी उत्पन्न नहीं होता यह निश्चय किया जाता है, क्यों कि अग्नि के विना धूम को स्वरूपभ्रष्ट होने को आपत्ति है, ठीक उसी प्रकार, उत्पन्न होने वाली तमाम वस्तु कर्ता-कर्म-करणादिपूर्वक ही देखी जाती है। अतः एक बार भी किसी कार्य की कर्ता-कर्म-करणादिपूर्वक उत्पत्ति को देखने पर कार्य में कर्तादिजन्यतास्वभाव निश्चित होता है / जब यह कर्तादिजन्यतास्वभाव कार्य में सुनिश्चित हुआ तो फिर कर्तादि में से एक की भी अनुपस्थिति में कैसे कार्योत्पत्ति होगी? [कर्ता का अनुपलम्भ शरीराभावकृत ] यह भी जानना जरूरी है कि अनुपलब्धकर्तावाले स्थावरों में कर्ता की अनुपलब्धि शरीरादि के अभावप्रयुक्त है, किन्तु कर्ता के अभाव से नहीं है / जहाँ शरीरी कर्ता होता है वहाँ घटादिकार्य के कुम्भार आदि कत्तों की उपलब्धि प्रत्यक्ष से ही होती है। स्थावरादि स्थल में जो कत्तो है वह केवल अपने चैतन्य से ही स्थावरादि के उपादान कारणों को अधिष्टित कर लेता है, अतः वहाँ प्रत्यक्ष का क्या चल सकता है ? 'यदि स्थावरादि का कोई शरीरी कर्ता नहीं है तो कर्ता भी मानना कैसे युक्त होगा' ? ऐसा प्रश्न नहीं करना चाहिये, क्योंकि कार्य शरीरद्रोही भी देखा जाता है। जैसे कि-सभी जीवात्मा अपने शरीर का प्रवर्तन-निवर्तन करते हैं और प्रवर्तन-निवर्त्तन कार्यभूत ही हैं / किन्तु यह Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 एतेनैतदपि पराकृतं यदाहुरेके-"अचेतनः कथं भावस्तदिच्छामनुवर्तते ?" [ ] / अचेतनस्य शरीरादेरात्मेच्छानुत्तित्वदर्शनात् / न चाऽचेतनस्य तदिच्छाननुत्तिनोऽपि प्रयत्नप्रेर्यत्वं परिहार इति वक्तव्यम् , यत ईश्वरस्यापि प्रयत्नसद्भावे न काचित् क्षतिः / न च 'शरीराभावात् कथं प्रयत्नः' इति वक्तु यूक्तम् , शरीरान्तराभावेऽपि शरीरस्य प्रयत्नयंत्वदर्शनात् / तत् कत्तु : शरीराभावादकृष्टोत्पत्तिषु स्थावरेश्वग्रहणम् , न तत्राऽदर्शनेन हेतोर्व्यभिचारः / येऽपि प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनं कार्य-कारणभावम् आहुः तेषामपि कस्यचित् कार्यकारणभावस्य तत्साधनत्वे यथेन्द्रियाणामदृष्टस्य च तो विना कारणत्वसिद्धिस्तथेश्वरस्यापि / अतो न व्याप्त्यभावः / __ अत एव न सत्प्रतिपक्षताऽपि, नैकस्मिन् साध्यान्विते हेतौ स्थिते द्वितीयस्य तथाविधस्य तत्रावकाशः, वस्तुनो द्वरूप्याऽसम्भवात् / नापि बाधः, अबुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वस्य प्रमाणेनाऽग्रहणात् , साध्याभावे हेतोरभावः स्वसाध्यव्याप्तत्वादेव सिद्धः। नापि धर्म्यसिद्धता, कार्य-कारणसंघातस्य पृथिव्यादेर्भूतग्रामस्य च प्रमाणेन सिद्धत्वात् / तदाश्रयत्वेन हेतोर्यथा प्रमाणेनोपलम्भस्तथा पूर्व प्रशितम् / अतोऽस्मादीश्वरावगमे न तत्सिद्धौ प्रमाणाभावः / भी आत्मा कार्य कर सकता है, वह कार्य चाहे स्वशरीरवर्ती हो या परशरीरवर्ती, इससे कोई मतलब नहीं। [जडवस्तु में इच्छानुवर्तित्व की प्रसिद्धि ] अशरीरी कर्ता सम्भव है इस उक्ति से इस प्रश्न का भी निराकरण हो जाता है जो किसी ने कहा है-पाषाणादि जड वस्तु अशरीरी ईश्वर की इच्छा का अनुवर्तन कैसे कर सकता है ?- इसका निराकरण यह है कि शरीरादि भी जड ही है, फिर भी वह जीव की इच्छा का अबुवर्तन करता हुआ दिखाई देता है / यदि कहें कि-"शरीर जड होने पर भी वह जीव प्रयत्न से प्रेरित होकर जीव की इच्छा का अनुवर्तन कर सकता है"-तो यह कहने की कोई जरूर ही नहीं है क्योंकि ईश्वरात्मा में भी प्रयत्न का सद्भाव मान लेने में हमारी कोई क्षति नहीं है। 'शरीर के विना ईश्वरात्मा में प्रयत्न कैसे होगा?' यह भी कहने जैसा नहीं है, क्योंकि जीवात्मा का शरीर भी अन्य शरीर के विना ही जीव प्रयत्न से प्रेरित होता है यह देखा जाता है। निष्कर्ष:-विना कृषि से ही उत्पन्न होने वाले स्थावरों का कर्ता शरीराभाव के कारण ही नहीं दिखता है, अतः उसका वहाँ दर्शन नहीं होता इतने मात्र से वहाँ कर्ता का अभाव नहीं सिद्ध होता जिससे कि कार्यत्व हेतु को साध्यद्रोही कहा जा सके। जो लोग यह कहते हैं कि 'कार्य-कारण भाव की सिद्धि प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ से ही हो सकती है। ईश्वर में यह सम्भव नहीं है अत: उससे कारणता कैसे सिद्ध होगी?' उनसे यह प्रश्न है कि-यद्यपि कहीं कहीं प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ से कारणाभाव की सिद्धि होती है फिर भी इन्द्रिय और अष्ट ये दोनों अतीन्द्रिय हैं, अतः वहाँ प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ का संभव नहीं है तो उन दोनों में ज्ञानादि की कारणता कैसे सिद्ध होगी ? जैसे इन दोनों में प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ के विना कारणता सिद्ध होगी वैसे ईश्वर में भी हो सकेगी ? निष्कर्ष:-कार्यत्व और कर्ता की व्याप्ति असिद्ध नहीं है। [कार्यत्व हेतु में सत्प्रतिपक्षतादि का निराकरण ] जब हेतु में व्याप्ति सिद्ध है तब प्रतिहेतु से यहाँ सत्प्रतिपक्षिता दोष होने की सम्भावना ही नहीं है / जब एक पक्ष में अपने साध्य के साथ व्याप्ति वाला हेतु सिद्ध हुआ तब उसी पक्ष में साध्यविरोधी Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 395 नापि हेतोविशेषविरुद्धता, तद्विरुद्धत्वे हेतोविशे ( ? दू )षणेऽभ्युपगम्यमाने न कश्चिद्धेतुरविरुद्धो भवेत् , प्रसिद्धानुमानेऽपि विशेषविरुद्धानां सुलभत्वात् / यथाऽयं धमो दहनं साधयति तथैतद्देशावच्छिन्नवह्नयभावमपि साधयति / नहि पूर्वधूमस्यैतद्देशावच्छिन्नेन वह्निना व्याप्तिः / एवं कालाद्यवच्छेदेन हेतोविरुद्धता वक्तव्या / अथ देश कालादीन् विहाय वह्निमात्रेण हेतोाप्तेन विरुद्धता, तर्हि तद्वत त्रस्य बद्धिमत्कारणपर्वकत्वेन व्याप्तेर्यद्यपि दृष्टान्तेऽनीश्वरोऽसर्वज्ञः कृत्रिमज्ञानसम्बन्धी सशरीरः क्षित्याधुपविष्ट: कर्ता तथापि पूर्वोक्तविशेषणानां धमिविशेषरूपाणां व्यभिचारात तद्विपर्ययसाधकत्वेऽपि न विरुद्धता / विरुद्धो हि हेतुः साध्यविपर्ययकारित्वाद् भवति / न चैतेषां साध्यता, बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वमात्रस्यास्माद् हेतोः साध्यत्वेनेष्टत्वात् / यथा च विशेषविरुद्धादीनामदूषणत्वं तथा 'सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः' [ न्यायद० 1-2-6 ] इत्यत्र सूत्रे निर्णीतम् / कार्यम दूसरे किसी हेतु की सत्ता सम्भव ही नहीं है। क्योंकि एक ही पक्षभूत भाव साध्यवान् और साध्याभाववान् उभयात्मक नहीं हो सकता। कार्यत्व हेतु बाधित भी नहीं हो सकता, क्योंकि पक्ष में साध्य का अभाव प्रमाणसिद्ध होने पर हेतु बाधित होगा, यहाँ पृथ्वी आदि में बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व का अभाव किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है और जहाँ साध्य का अभाव रहेगा वहाँ हेतु का अभाव तो अनायास सिद्ध होमा ही, क्योंकि कार्यत्व हेतु बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वरूप स्वसाध्य का व्याप्य है यह सिद्ध हो चुका है। अतः यदि पक्ष में साध्य का बाध होगा तो हेतु का भी अभाव होने से हेतु बाधित होने की सम्भावना ही नहीं है / कर्तृत्वसाधक अनुमान में पक्षाऽसिद्धि भी नहीं है, क्योंकि कार्यत्व हेतु का अधिकरण पृथ्वी आदि प्रमाणप्रसिद्ध ही है और उसके कारणभूत जीवसमूह भी प्रमाणसिद्ध है / पृथ्वी आदि आश्रय में हेतुभूत कार्यत्व का सद्भाव जिन प्रमाणों से उपलब्ध है वह सब पहले ही दिखा दिया है / जब इस रीति से कार्यत्व हेतु से ईश्वर का पता लगाया जा सकता है तो ईश्वरसिद्धि में प्रमाण नहीं होने की बात में तथ्य नहीं। - [विशेषविरुद्धता सद्धेतु का दूषण नहीं है ] ___ कार्यत्वहेतु में विशेषविरुद्धता दोष भी नहीं है / विशेषविरुद्धता को हेतु का दूषण मानने पर कोई भी हेतु निविरोध सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि प्रसिद्ध धूमहेतुक अग्नि अनुमानस्थल में भी विशेषविरुद्धादि दूषण सुलभ हैं / जैसे देखिये-धूम से अग्नि की सिद्धि जैसे हो सकेगी वैसे एतद्देश (पर्वत) से अवच्छिन्न अग्नि का अभाव भी सिद्ध होगा। कारण, पूर्वदृप्ट पाकशालादिगत धूम में जैसे अग्नि की व्याप्ति है वैसे पर्वतीय अग्नि के अभाव की व्याप्ति है / इसी तरह कालावच्छिन्न विशेष विरुद्धता भी कह सकते हैं-अर्थात् पूर्वदृष्ट धूम में एतत्कालावच्छिन्न अर्थात् एतत्कालीन अन्नि की व्याप्ति नहीं है, अतः एतत्कालीन अग्नि की सिद्धि में विरोध होगा। यदि ऐसा कहें कि-'धूम हेतु में अग्नि सामान्य की ही व्याप्ति है देशविशिष्ट या कालविशिष्ट अग्नि की नहीं, अतः पर्वतादि में सामान्य अग्नि की सिद्धि में तो कोई विरोध नहीं है'-तो उसी तरह प्रस्तुत में कार्यमात्र की बुद्धिमत्पूर्वकत्व के साथ ही व्याप्ति है अतः सामान्यतः कर्ता की सिद्धि में विरोध नहीं होगा। यद्यपि दृष्टान्त जो घटादि है उसका कर्ता अनीश्वर, असर्वज्ञ, अनित्यज्ञानवान् , सशरीरी, पृथ्वी आदि के ऊपर बैठकर कार्य उत्पन्न करने वाला होता है, फिर भी ये सब जो पूर्वोक्त अनैश्वर्य असर्वज्ञत्वादि विशेषण हैं वे सामान्य कर्ता रूप धर्मी के विशेष धर्मरूप हैं और वे जगत्कर्ता ईश्वर में व्यभिचारी हैं अतः उन विशेषणों से विद्ध ऐश्वर्यशाली, सर्वज्ञता Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 15 इतश्चैतददूषणम्-पूर्वस्माद्धेतोः स्वसाध्यसिद्धावुत्तरेण पूर्वसिद्धस्यैव साध्यस्य a किं विशेषः साध्यते ? b उत पूर्वहेतोः स्वसाध्यसिद्धिप्रतिबन्धः क्रियते ? न तावत् पूर्वो विकल्पः, यदि नाम तत्रापरेण हेतुना विशेषाधानं कृतं किं तावता पूर्वस्य हेतोः साध्यसिद्धिविधातः ? यथा कृतकत्वेन शब्दस्यानित्यत्वसिद्धौ हेत्वन्तरेण गुणत्वसिद्धावपि न पूर्वस्य क्षतिस्तद्वदत्रापि / b अथोत्तरो विकल्पस्तथापि स्वसाध्यसिद्धिप्रतिबन्धो व्याप्त्यभावप्रदर्शनेन क्रियते व्याप्त्यभावश्च हेतुरूपाणामन्यतमाभावेन / न च धर्मिविशेषविपर्ययोद्धावनेन कस्यचिदपि रूपस्याभावः कथ्यते / न च हेतुरूपाभावाऽसिद्धावगमकत्वम् / तन्न विशेषविरुद्धता। विशेषास्तु धर्मिणः स्वरूपसिद्धावुत्तरकालं प्रमाणान्तरप्रतिपाद्या न तु पूर्वहेतुबलादभ्युपगम्यन्ते / तच्च प्रमाणान्तरमागमः पूर्वहेतोर्हेत्वन्तरं च / तच्चआदि स्वरूप वैपरीत्य की सिद्धि की जाय तो भी हेतु को साध्यविरोधी नहीं कहा जा सकता / साध्य के वैपरीत्य को सिद्ध करने वाला हेतु ही साध्यविरोधि हो सकता है / कार्यत्व हेतु से हमें केवल बुद्धिमत्कारणत्वरूप साध्य की सिद्धि ही अभिप्रेत है, उसकी असर्वज्ञता या सर्वज्ञता आदि की सिद्धि कार्यत्व हेतु से अभिप्रेत नहीं है। तदुपरांत, विशेष विरुद्धादि किस रीति से दूषणरूप नहीं है इसका नि भलीभांति "सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः" इस न्यायसूत्र की तात्पर्य टीका में किया गया है / सूत्र का अर्थ यह है कि अभ्युपगत सिद्धान्त का यानी प्रतिज्ञात अर्थ का विरोधी हो वही हेतु विरुद्ध है / आशय यह है कि यहाँ प्रतिज्ञात अर्थ केवल बुद्धिमत्पूर्वकत्व ही है, कार्यत्व हेतु का विरोध नहीं होने से विशेषविरुद्ध दोष को अवसर नहीं है। जिस धर्मविशेष या धमि विशेष के साथ हेतु का विरोध दिखाया जाता है वह विशेष यहाँ प्रतिज्ञात अर्थरूप नहीं है, वह तो केवल प्रतिज्ञात अथ का आनुषंगिक अर्थ है। [विशेषविरुद्धता दूषण क्यों नहीं ? उत्तर ] विशेषविरुद्धता दूषण नहीं यह बात विकल्पद्वय के विश्लेष से भी समझ सकते हैं। a पूर्वोक्त हेतु से साध्यसिद्धि दिखाने के बाद विशेषविरुद्धता साधक हेतु क्या पूर्वसिद्ध साध्य के अन्य विशेष को सिद्ध करेगा ? या पूर्व हेतु से होने वालो साध्यसिद्धि का प्रतिबन्ध करेगा ?.a प्रथम विकल्प से कोई इष्टविधात नहीं है, क्योंकि यदि दूसरे हेतु से पूर्वसिद्ध साध्य में कोई विशेषाधान किया जाय तो इतने मात्र से पूर्वकथित हेतु से साध्यसिद्धि होने में कोई विघ्न की उपस्थिति नहीं हो जाती। जैसेः शब्द में कृतकत्व हेतु से अनित्यत्व सिद्ध होने के बाद अन्य किसी हेतु से शब्द में गुणत्व की सिद्धि की जाय तो इससे कृतकत्वहेतुक अनित्यतासिद्धि में कोई विघ्न नहीं आता / इसी तरह प्रस्तुत में भी है। b दूसरा विकल्प पूर्वहेतु से की जाने वाली साध्य सिद्धि में प्रतिबन्ध लगाना, यहाँ भी साध्यसिद्धि का प्रतिबन्ध तब तक नहीं हो सकता जब तक 'कार्यत्वहेतु में कर्तृत्व के साथ व्याप्ति नहीं है' ऐसा न दिखाया जाय / व्याप्ति का अभाव भी, हेतु के पांच रूपों में से किसी एक के अभाव को दिखाने से ही दिखाया जा सकता है / केवल पूर्वहेतु से सिद्ध किये जाने वाले कर्तृधर्मी के, किसी एक विशेष अशरीरीत्व का विपर्यय दिखा देने मात्र से, कार्यत्व हेतु के पक्षवृत्तित्वादि किसी भी एकरूप का विरह फलित नहीं हो सकता / जब तक हेतु के किसी एक-दो रूपों का अभाव प्रदर्शित न किया जाय तब तक वह हेतु साध्य का अबोधक नहीं कहा जा सकता। इस रीति से विशेषविरुद्धता कहने पर भी कोई दोष नहीं है। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकतृ त्वे पूर्वपक्षः "अन्वयव्यतिरेकिपूर्वककेवलव्यतिरेकिसंज्ञम् / यथा गन्धाधुपलब्ध्या तत्साधनकरणमात्रप्रसिद्धौ प्रसक्तप्रतिषेधे करणविशेषसिद्धिः केवलव्यतिरेकिनिमित्ता, तथेहापि कार्यत्वात् बुद्धिमत्कारणमात्रप्रसिद्धौ प्रसक्तप्रतिषेधात् कारणविशेषसिद्धि : केवलव्यतिरेकिनिमित्ता। तथाहि-कार्यत्वाद् बुद्धिमत्कारणमात्रसिद्धौ प्रसक्तानां कृत्रिमज्ञान-शरीरसंबद्धत्वादीनां धर्माणां प्रमाणान्तरेण बाधोपपत्तौ विशिष्टबुद्धिमत्कारणसिद्धिय॑तिरेकिबलात्" इति केचित् / - अन्ये मन्यन्ते-"यत्रान्वयव्यतिरेकिणो हेतोर्न विशेषसिद्धिः तत्र तत्पूर्वकात केवलव्यतिरेकिंणो विशेषसिद्धिर्भवत यथा घ्राणादिष अत्रत पर्वस्माद्धतोविशेषसिद्धौ न हेत्वन्तरपरिकल्पना / यथा धमस्य वह्निनाऽन्वय-व्यतिरेकसिद्धौ ‘अत्र देशे वह्निः' इति पक्षधर्मत्वबलात् प्रतिपत्तिः, नान्वयाद् व्यतिरेकाद्वा, तयोातद्देशावच्छिन्नेन वह्निनाऽसम्भवात्-यद्यपि व्याप्तिक ले सकलाक्षेपेण तद्देशस्याप्याक्षेपोऽन्यथात्र व्याप्तेरसंभवात्-तथापि व्याप्तिग्रहणवेलायां सामान्यरूपतया तदाक्षेपः न विशेषरूपेण, इति विशेषावगमो नान्वय-व्यतिरेकनिमित्तः अपि तु पक्षधर्मत्वकृतः / अत एव प्रत्युत्पन्नकारगजन्यां स्मृतिमनुमानमाहुः। प्रत्युत्पन्नं च कारणं पक्षधर्मत्वमेव-तथा कार्यत्वादेबुद्धिमत्कारणमात्रेण व्याप्तिसिद्धावपि कारणविशेषप्रतिपत्तिः पक्षधर्मत्वसामर्थ्यात् / य इत्थंभूतस्य पृथिव्यादेः कर्ता, नियमेनासावकृत्रिमज्ञानसम्बन्धी शरीररहितः सर्वज्ञः एकः-इति / एवं यदा पक्षधर्म वबलाद् विशेषसिद्धिः तदा न विशेषविरुद्धादीनामवकाशः। [ ईश्वर के देहाभावादि विशेषों की सिद्धि में प्रमाण ] धर्मी ईश्वर की कार्यत्वहेतु से सिद्धि होने के बाद उत्तरकाल में उसके अशरीरीत्वादि विशेषों की सिद्धि अन्य प्रमाण से प्रदर्शित की जाती है, पूर्वकथित कार्यत्व हेतु के बल से ही हमें उनकी सिद्धि अभिनेत नहीं होती / वह अन्य प्रमाण आगम भी हो सकता है और धर्मीसाधक हेतु से भिन्न दूसरा हेतु भी हो सकता है / यहाँ दो-तीन पक्ष हैं वे क्रमशः दिखाये जाते हैं (1) दूसरे हेतुरूप उस अन्य प्रमाण को संज्ञा है-'अन्वयव्यतिरेकिपूर्वक केवलव्यतिरेकी' / * -- उदा० गन्धादि-उपलब्धिरूप अन्वयव्यतिरेकी हेतु से पहले उसके साधनभूत करण ( यानी सामान्यतः इन्द्रिय) की सिद्धि होती है / तदनन्तर पांचों नेत्रादि इन्द्रियों में क्रमशः गन्धग्राहकत्व की सम्भावना की जाती है, जिस में वह नहीं घट सकता उनमें तत्तद् हेतु से उस सम्भावना का निषेध किया जाता है और जिसमें (घ्राण में) सम्भावना करने पर कोई निषेधक हेतु प्राप्त नहीं होता उस कारणविशेष द्रय की गन्धग्राहकत्व रूप से प्रतिष्ठा की जाती है, यहाँ हेतु केवल व्यतिरेकी ही होता है। प्रस्तुत में भी, अन्वयव्यतिरेकी कार्यत्व हेतु से बुद्धिमत्कारणमात्र की सिद्धि हो जाने पर सम्भवित विशेषों का बाधादि से निराकरण करने पर कारणभूत सर्वज्ञादि कर्तृ विशेष की सिद्धि केवलव्यतिरेकी हेतु से होती है / जैसे देखिये, कार्यत्व हेतु से तो पहले मात्र बुद्धिमत्कारण (कर्ता) ही सिद्ध होगा। तदनन्तर उस कर्ता में अनित्यज्ञानवत्ता, शरीरसंबन्धिता आदि धर्मों की सम्भावना प्रसक्त होगी, किन्तु तब अन्य प्रमाणों से वहाँ बाध भी उपस्थित होगा, अतः केवलव्यतिरेको हेतु के बल से नित्यज्ञानादिविशिष्ट बुद्धिमत्कारण की सिद्धि फलित होगी। यह विद्वानों के एक वर्ग का अभिप्राय है / [पक्षधर्मता के बल से विशेष सिद्धि ] (2) दूसरे वर्ग का कहना है-जहाँ धर्मिगत विशेष की सिद्धि अवय-व्यतिरेकी हेतु से शक्य Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ अन्वयसा श्यदपि विशेषसिद्धिम् अन्ये मन्यन्ते / यथा धूममात्रस्य वह्निमात्रेण व्याप्तिः एवं धूमविशेषस्य वह्निविशेषेण इति धूमविशेषप्रतिपत्तौ न वह्निमात्रेणान्वयानुस्मृतिः किन्तु वह्निविशेषेण, एवं विशिष्टकार्यत्वदर्शनाद न कारणमात्रानुस्मृतिः किन्तु तथाविधकार्यविशेषजनककारणविशेषानु. स्मृतिः / तदनुस्मृतावत्रान्वयसामर्थ्यादेव कारणविशेषप्रतिपत्तिरिति न विशेषविरुद्धावकाशः। - एतेषां पक्षाणां युक्तायुक्तत्वं सूरयो विचारयिष्यन्तीति नास्माकमत्र निर्बन्धः, सर्वथा विशेषविरुद्धस्याऽदूषणत्वमस्माभिः प्रतिपाद्यते तद्विरुद्धलक्षणपर्यालोचनया / प्रसक्तानां च विशेषाणां प्रमाणान्तरबाधया, अन्वयव्यतिरेकिमूलकेवलव्यतिरेवि बलाद्वा, पक्षधर्मत्वसामर्शेन वा कार्यविशेषस्य कारणविशेषान्वितत्वेन वा, नात्र प्रयत्यते, सर्वथा प्रस्तुतहेतौ न व्याप्त्यसिद्धिः / न हो वहाँ तत्पूर्वक केवलव्यतिरेकी हेतु से विशेष की सिद्धि भले ही की जाय, जैसे कि घ्राणेन्द्रियादि स्थल में / किन्तु प्रथमोक्त हेतु से ही यदि धर्मीगत विशेष की भी सिद्धि होती हो तब अन्य हेतु की कल्पना आवश्यक नहीं है / जैसे देखिये-धूमहेतु का अग्नि के साथ अन्वय-व्यतिरेक सिद्ध हो जाने पर 'इस देश में अग्नि है' इस प्रकार एतद्देशावच्छिन्न अग्नि की सिद्धि एतद्देश रूप पक्ष में धूम हेतु की वृत्तिता के बल से ही-अर्थात् पक्षधर्मत्व बल से ही हो जाती है, धूम हेतु के एतद्देशावच्छिन्न अग्नि के साथ धम के अन्वय-व्यतिरेक का सम्भव ही नहीं है। यद्यपि व्याप्तिग्रहकाल में सर्वदेशकार अन्तर्भाव से व्याप्ति ग्रह होते समय एतद्देश का भी अन्तर्भाव हो ही जाता है अन्यथा वह व्याप्ति ही नहीं कही जा सकती। किन्तु वह व्याप्तिग्रह सर्वदेशान्तर्गत सामान्यरूप से हुआ रहता है, एतद्देशत्वरूपेण नहीं होता / अतः हेतु के अन्वय-व्यतिरेक से एतद्देशावच्छिन्नस्वरूप अग्निविशेष का ग्रहण शक्य नहीं है, केवल अग्निसामान्य का ही ग्रहण शक्य है / किन्तु पक्षधर्मता के प्रभाव से एतद्देशावच्छिन्न का ग्रहण होता है / इसीलिये, प्रत्युत्पन्नकारणजन्य स्मृति को अनुमान कहा गया है। यहाँ प्रत्युत्पन्न कारण पक्षधर्मता ही है / उक्त रीति से बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व के साथ कार्यत्व की व्याप्ति सिद्ध होने पर भी सर्वज्ञादिक रूप कारणविशेष का बोध पक्षधर्मता के प्रभाव से ही फलित होता है कि जो इस प्रकार के पृथ्वी आदि का कर्ता होगा वह नियमत: नित्यज्ञानसंबंधी, शरीरविहीन एवं एक और सर्वज्ञ ही होगा। जब पक्षधर्मता के बल से ही विशेष की सिद्धि की जाती है तब विशेषविरुद्ध अनमानों को विरोध का अवकाश ही नहीं रहता। [विशेषव्याप्ति के बल से विशेषसाध्य की सिद्धि ] (3) तीसरे वर्ग का कहना है कि-अन्वय (अर्थात् विशेष व्याप्ति) के सामर्थ्य से ही धर्मीविशेष की सिद्धि होती है जैसे धूम सामान्य की अग्निसामान्य के साथ व्याप्ति होतो है। वैसे धूमविशेष की अग्निविशेष के साथ भी व्याप्ति सिद्ध होती है क्योंकि यह नियम है कि जिन सामान्यों व्याप्यव्यापक भाव होता है वह उनके विशेषों में भी होता है / अतः इस नियम के अनुसार धूम विशेष यानी पर्वतीयधम को देखने पर केवल अग्निसामान्य के साथ व्याप्ति का स्मरण नहीं होता, अपि त अग्निविशेष यानी पर्वतीय अग्नि के साथ व्याप्ति का स्मरण होता है। ठीक इसी प्रकार, विशिष्ट कार्यत्व को देखने पर केवल कारण सामान्य की स्मृति नहीं होती किन्तु तथा प्रकार के कार्यविशेष के जनक कारणविशेष की यानी सर्वज्ञत्वादिविशिष्ट कर्ता की ही स्मृति फलित होती है। उसका स्मरण होने पर अन्वय के सामर्थ्य से ही कारणविशेष के अनुमिति बोध का उदय होता है। अतः विशेषविरुद्ध अनुमानों को अवकाश ही नहीं। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 366 'प्रसक्तानां विशेषाणां प्रमाणान्तरबाधया विशेषविरुद्धताऽनवकाश' इत्युक्तं तत्र कतमस्य प्रसक्तस्य विशेषस्य केन प्रमाणेन निराकृतिः ? शरीरसम्बन्धस्य तावद व्याप्त्यभावेन, शरीरान्तररहितस्याऽप्यात्मनः स्वशरीरधारण-प्रेरणक्रियासु यथा / अथात्मनः प्रयत्नवत्त्वाद् धारणादिक्रियासु शरीराद्याधारासु कर्तृत्वं युक्तम् नेश्वरस्य, तद्रहितत्वात् तथा च भवतां मुख्यं कर्तृ लक्षणम्-"ज्ञान-चिकीर्षाप्रयत्नानां समवायः कर्तृता" [ ] इति / केनेश्वरस्य तद्रहितत्वात (इति)प्रयत्नप्रतिषेधः कृतः ! 'आत्म-मनःसंयोगजन्यत्वात् प्रयत्नस्य ईश्वरस्य तदसम्भवात् कारणाभावात् तनिषेधः' / बुद्धिस्तोंश्वरे कथं तस्या अपि मनःसंयोगजन्यतैव ? 'साऽपि मा भूत का नः क्षतिः' ? ननु तदसत्तैव न त्वन्या चत / 'साऽपि भवत'। तदभावे कस्य विशेषः शरीरादिसंयोगलक्षणः साध्यते ? अत एवान्यरुक्तम् ___उक्त तीन पक्षों में से कौन सा युक्तियुक्त है या नहीं यह विचार तो विशेषज्ञ सूरिवर्ग करेगा, हमारा इनमें से किसी में भी कोई आग्रह नहीं है, हमें तो यही कहना है कि जब साध्यविरोधी हेतुओं या अनुमानों के ऊपर विशेष पर्यालोचन किया जायेगा तब किसी भी पक्ष को मानने पर इतना तो अवश्य सिद्ध होता है कि विशेषविरुद्ध किसी भी रीति से दूषणरूप नहीं है। विशेषविरुद्ध अनुमानों से प्रसक्त विशेषों का चाहे प्रमाणान्तरबाध से निराकरण माना जाय, या अन्वयव्यतिरेकीमूलक केवलव्यतिरेकीबल से निराकरण हो, अथवा तो पक्षधर्मता के प्रभाव से या कारणविशेष के साथ कार्यविशेष की व्याप्ति के बल से निराकरण हो-हम इस विषय में प्रयत्न नहीं करते हैं / तात्पर्य यही फलित होता है कि कार्यत्वहेतु में कर्ता की व्याप्ति किसी भी रीति से असिद्ध नहीं है। [शरीररूप आपादितविशेष का निराकरण ] - पूर्वपक्षीः-प्रसक्तविशेषों में अन्य प्रमाण का बोध होने से विशेषविरुद्धता दोष निरवकाश हैयह जो कहा, तो कौन से प्रसक्त विशेष का किस प्रमाण से निराकरण हुआ, यह दिखाओ ! नैयायिकः-शरीरसम्बन्ध की प्रसक्ति की जाती है तो उसका विघटन व्याप्ति-अभावप्रदर्शन से किया जाता है / कार्यत्व को शरीरसम्बन्ध के साथ व्याप्ति ही नहीं है / जैसे देखिये-आत्मा अपने शरीर में जो धारण-प्रेरणादि क्रिया को उत्पन्न करता है वह भी कार्य है किन्तु न तो वह उस शरीर सम्बन्ध से जन्य है, न तो अन्य शरीरसम्बन्ध से। पूर्वपक्षीः-आत्मा तो प्रयत्नवान् है अत: शरीरादि सम्बन्धी धारणादिक्रिया का वह कर्ता बन सकता है, ईश्वर प्रयत्नहीन होने से कर्ता नहीं हो सकता / कर्ता का प्रमुख लक्षण ही आपने यह कहा है-"ज्ञान, चिकीर्षा (करने की इच्छा) और प्रयत्न का समवाय संबंध यही कर्तृत्व है।" नैयायिक:-'ईश्वर प्रयत्नरहित है' ऐसा प्रयत्ननिषेध किसने दिखाया ? पूर्वपक्षीः-प्रयत्न आत्मा और मन के संयोग से उत्पन्न होता है यह आपका सिद्धान्त है, ईश्वर में मन न होने से, कारणभूत मन के अभाव से प्रयत्नरूप कार्य का निषेध स्वतः फलित होता है। नैयायिकः-तब ज्ञान भी आत्मा और मन के संयोग से जन्य होने से ईश्वर में ज्ञान भी कैसे घटेगा? पूर्वपक्षी:-मत मानीये, हमें क्या नुकसान है ? ' नैयायिकः-ईश्वर का ही अभाव प्रसक्त होगा यही, और कोई नहीं। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 "नातीन्द्रयार्थप्रतिषेधो विशेषस्य कस्यचित् साधनेन निराकरणेन वा कार्यः-तदभावे विशेषसाधनस्य तन्निराकरणहेतोर्वाऽऽश्रयासिद्धत्वात्-किन्त्वतीन्द्रियमर्थमभ्युपगच्छंस्तसिद्धौ प्रमाणं प्रष्टव्यः / स चेत् तत्सिद्धौ प्रयोजकं हेतु दर्शयति 'ओम्' इति कृत्वाऽसौ प्रतिपत्त यः / अथ न दर्शयति, प्रमारणाभावादेवासौ नास्ति, न तु विशेषाभावात्" [ ) तस्माद् ज्ञान-चिकोर्षा-प्रयत्नानां समवायोऽस्तीश्वरे, ते तु ज्ञानादयोऽस्मदादिज्ञानादिभ्यो विलक्षणाः, वैलक्षण्यं च नित्यत्वादिधर्मयोगात् / तन्नेश्वरशरीरस्य कर्तृ विशेषस्य व्याप्त्यभावात् सिद्धिः। __ नाऽप्यसर्वज्ञत्वं विशेषः कुलालादिषु दृष्टस्तत्र साध्यते, तत्सिद्धावपि विशेषविरुद्धस्य व्याप्त्यभाव एव / न ह्यसर्वविदा क; कुलालादिना किंचित कार्य क्रियते / ननु कुलालादेः सर्ववित्त्वे नेदानी कश्चिदसर्ववित् / एवमेव, यद् यः करोति स तस्योपादानादिकारणकलापं प्रयोजनं च जानाति, अन्यथा तक्रियाऽयोगात् / सर्वज्ञत्वं च प्रकृतकार्यतन्निमित्तापेक्षम् , अतः कुलालादिर्यथा कर्ता स्वकार्यस्य सर्व जानात्युपादानादि एवमीश्वरोऽपि सर्वकर्ता सर्वस्य करण-प्रयोजनं विवादविषयस्य सर्वस्योपादानकारणादि च कर्तृत्वादेव जानाति, अतः कथमसावसर्ववित ? पूर्वपक्षी:-वह भी हमें मान्य है। नैयायिक:-जब आपके मत से ईश्वर ही नहीं है तब शरीरादिसंयोग को आप किस के विशेषरूप में सिद्ध करेंगे? यहाँ आश्रयासिद्धि दोष है इसीलिये दूसरे वादीओंने भी यह कहा है-- [अतीन्द्रिय अर्थ के निषेध का वास्तव उपाय ] "अतीन्द्रिय अर्थ का निषेध उसके किसी अनिष्ट विशेषधर्म के साधन से या इष्ट किसी विशेष के निराकरण के द्वारा नहीं करना चाहिये, क्योंकि जब निराकरण करनेवाले के मत में वह अर्थ ही असिद्ध है तो उसके विशेष का साधन या निराकरण करने वाला हेतु ही आश्रयासिद्धिदोष से दूषित हो जायेगा। तो क्या करना ! करना यह चाहिये कि अतीन्द्रिय अर्थ मानने वाले को उसकी सिद्धि में 'क्या प्रमाण है' यह पूछना चाहिये। यदि वह उसकी सिद्धि में तर्कपुष्ट प्रमाण प्रस्तुत करे तो 'हाँ' कह कर उसका स्वागत कर लेना चाहिये / यदि प्रमाण न दिखा सके तो प्रमाण के अभाव से ही उस अर्थ का निषेध सिद्ध होगा, विशेषों के न घटने से नहीं।" अन्यवादीओं के उक्त कथन से फलित यह होता है कि ईश्वर सिद्धि में यदि प्रमाणभूत हेतु है तो उसका निषेध शक्य न होने से उसमें कर्तृत्व की उपपत्ति के लिये ज्ञान-चिकीर्षा और प्रयत्न का समवाय भी उसमें मानना ही पडेगा / हमारे ज्ञानादि से उनके ज्ञानादि को कुछ विलक्षण मानना पडे तो यह भी मानना होगा / वह वैलक्षण्य यही होगा कि हमारा ज्ञानादि आत्ममनः संयोगजन्य होने से अनित्य है और ईश्वर को मन न होने के कारण उसका ज्ञानादि नित्य, व्यापक इत्यादि है / इस प्रकार जब कर्ता के विशेषस्वरूप शरीर को कार्य के साथ व्याप्ति ही नहीं है तब ईश्वर में शरीरसिद्धि का आपादन अशक्य है। [ असर्वज्ञत्वरूप आपादितविशेष का निराकरण ] शरीररूप विशेष जैसे ईश्वर में सिद्ध नहीं किया जा सकता उसी तरह असर्वज्ञत्वरूप विशेष कुम्भकारादि में दिखता है उसका भी ईश्वर में आपादन अशक्य है / ईश्वर में कार्य हेतु से असर्वज्ञत्व Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 401 अन्ये त्वाहुः-क्षेत्रज्ञानां नियतार्थविषयग्रहणं सर्वविदधिष्ठितानां, यथा प्रतिनियतशब्दादिविषय. ग्राहकाणामिन्द्रियाणामनियतविषयसर्वविदधिष्ठितानां जोवच्छरीरे / तथा चेन्द्रियवृत्त्युच्छेदलक्षणं केचिद् मरणमाहुश्चेतनानधिष्ठितानाम् / अस्ति च क्षेत्रज्ञानां प्रतिनियतविषयग्रहणम् तेनाप्यनियतविषयसर्वविदधिष्ठितेन भाव्यम् / योऽसौ क्षेत्रज्ञाधिष्ठायकोऽनियतविषयः स सर्वविदीश्वरः / नन्वेवं तस्यैव सकलक्षेत्रेष्वधिष्ठायकत्वात् किमन्तर्गडुस्थानीयैः क्षेत्रज्ञैः कृत्यम् ? न किंचित् प्रमाणसिद्धतां मुक्त्वा / नन्वेवमनिष्ठा-यथेन्द्रियाधिष्ठायकः क्षेत्रज्ञस्तदधिष्ठायकश्चेश्वर एवमन्योऽपि तदधिष्ठायकोऽस्तु / भवत्वनिष्ठा यदि तत्साधकं प्रमाणं किंचिदस्ति, न त्वनिष्ठासाधकं किंचित् प्रमाणमुत्पश्यामः तावत एवानुमानसिद्धत्वात्। की सिद्धि किये जाने में भी विशेषविरुद्धानुमान में व्याप्तिविरह ही दोष है / ईश्वर में जो सर्वज्ञत्वरूप विशेष अभिप्रेत है.उसके विरुद्ध असर्वज्ञत्व को यदि कुम्भकार के दृष्टान्त से सिद्ध करने जायेंगे तो दृष्टान्त में साध्य का अभाव होने से व्याप्ति ही न बन सकेगी क्योंकि असर्वज्ञ कर्ता कुम्भकार किसी भी कार्य को नहीं कर सकता। शंका:-कुम्भकार को अगर सर्वज्ञ मानेंगे तो फिर असर्वज्ञ कोई रहेगा ही नहीं। उत्तर:-ऐसा ही है / आशय यह है कि कोई भी कर्ता जो कुछ भी कार्य उत्पन्न करता है वह उस कार्य के उपादानादिकारणसमूह को और उस कार्य की निष्पत्ति के प्रयोजन को जानता ही है, अन्यथा, उस कर्ता से तत्कार्य के उत्पादनार्थ कोई क्रिया ही नहीं हो सकेगी। [ सर्वज्ञता का अर्थ हम यह नहीं कहना चाहते कि सारे विश्व का ज्ञाता हो किन्तु ] प्रस्तुत घटादि कार्य के जितने निमित्त (कारणवर्ग) हैं उन सर्व को वह जानता है इस अपेक्षा से ही यहाँ कुम्भकार को सर्वज्ञ मानते हैं। इस से यह फलित होता है कि जैसे कुम्भकारादि कर्ता स्वकार्य में उपयोगी उपादानादि सभी को जानता है, उसी तरह ईश्वर सर्वजगत् का कर्ता होने से सारे ही जगत् के करण यानी उत्पादन का प्रयोजन एवं विवादविषयभूत सभी पृथ्वी आदि के उपादान कारणादि को, स्वयं कर्ता होने से जानता ही होगा, तो फिर वह असर्वज्ञ कैसे होगा? [सचेतन देह में ईश्वर के अधिष्ठान की सिद्धि / अन्य विद्वान् कहते हैं-परिमित ही पदार्थ यानी अमुक ही पदार्थ को विषय करनेवाला ज्ञान जिन को होता है वे क्षेत्रज्ञ यानी जीवात्मा सर्वज्ञ पुरुष से अधिष्ठित ही होते हैं। जैसे, जीते हुए (जिन्दे) शरीर में परिमित-नियत शब्दादि विषय को ग्रहण करने वाली इन्द्रियाँ अनियतविषयवाले सर्वज्ञाता पुरुष से अधिष्ठित ही होती हैं / अत एव किसीने कहा है-चेतन से अनधिष्ठित-अर्थात् चेतनाशून्य शरीर का इन्द्रियप्रवृत्तिविनाशरूप ही मरण है / तात्पर्य, इन्द्रिय चेतनाधिष्ठित होने पर ही नियतार्थग्रहण में प्रवृत्ति करती हैं, इसी प्रकार आत्मा को भी नियतार्थविषयक ही ग्रहण होता है अतः वह भी अनियतार्थ विषय वाले सर्वज्ञाता पुरुष ईश्वर से अधिष्ठित होना चाहिये। जो यह अनियतविषयवाला चेतनाधिष्ठाता होगा वही सर्वज्ञ ईश्वर है। प्रश्न:-ऐसे तो सकलक्षेत्रों का अधिष्ठाता ईश्वर ही हो गया, फिर इन्द्रियादि को अन्तर्गड़ यानी देहगत निष्प्रयोजन ग्रन्थिरूप अंग तुल्य क्षेत्रज्ञ जीवात्मा से अधिष्ठित मानने की जरूर ही क्या है ? Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 आगमोऽप्यस्मिन् वस्तुनि विद्यते-तथा च भगवान् व्यास:द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च / क्षरः सर्वाणि भूतानि, कटस्थोऽक्षर उच्यते // उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।। [ गीता-१५/१६-१७ ] इति / तथा श्रुतिश्च तत्प्रतिपादिका उपलभ्यते - [ शुक्लयजुर्वद 17-16] विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो, विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात् / सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैवाभूमि जनयन् देव एक आस्ते // [ श्वेताश्व० 3-3 ] न च स्वरूपप्रतिपादकानामप्रामाण्यम् , प्रमाणजनकत्वस्य सद्भावात् / तथाहि-प्रमाजनकत्वेन प्रमाणस्य प्रामाण्यं न प्रवृत्तिजनकत्वेन, तच्चेहास्त्येव / प्रवृत्ति-निवृत्ती तु पुरुषस्य सुख-दुःखसाधनत्वाध्यवसाये समर्थस्यार्थित्वाद् भवत इति / अथ विधावङ्गत्वादमीषां प्रामाण्यं न स्वरूपार्थत्वादिति उत्तरः-वह भी प्रमाणसिद्ध है इसीलिये उसको मानने की जरूर है, और तो कोई नहीं है।'' शंकाः-यदि ऐसा मानेंगे तो अनवस्था प्रसक्त होगी, जैसे इन्द्रियों का अधिष्ठाता हुआ क्षेत्रज्ञ, उसका भी अधिष्ठाता हुआ ईश्वर, तो उस ईश्वर का भी कोई अधिष्ठायक प्रसक्त क्यों नहीं होगा? उत्तरः-यदि ईश्वर के भी अधिष्ठाता का साधक कोई प्रमाण है तो अनवस्था होने दो, सच बात यह है कि ईश्वर के अधिष्ठाता का साधक कोई प्रमाण ही नहीं देखते हैं, केवल जीवात्मा के अधिष्ठाता ईश्वर तक ही अनुमान प्रमाण से सिद्ध होता है, फिर अनवस्था कैसे हो सकती है ? ! [ ईश्वर की सिद्धि में आगम प्रमाण ] इस विषय में आगम प्रमाण भी मौजूद है / जैसे की व्यास भगवान् ने गीता में लिखा है लोक में ये दो पुरुष हैं-एक क्षर, दूसरा अक्षर। सभी जीवात्मा क्षरपुरुष है और जो कूटस्थ है उसे अक्षर कहते हैं। तथा-(हे अर्जुन ! ) अन्य (-संसारी जीव से भिन्न) और उत्तम (=सर्वज्ञादि स्वरूपवाला) पुरुष ही परमात्मा कहा गया है, जो ऐश्वर्यशाली, अव्यय है और लोकत्रय में आविष्ट हो कर उसका धारण और भरण करता है। तदुपरांत, ईश्वरस्वरूप का प्रतिपादक वेदवाक्य भी उपलब्ध है-'विश्वत' इत्यादि, इस वेदवाक्य का अर्थ ऐसा है "जिसका नेत्र विश्वाभिमुख है [ अर्थात् जो सर्वज्ञ है ], तथा जिसका मुख विश्वाभिमुख है [ अर्थात् जो संपूर्ण जगत् का प्रतिपादक है ], जिसका बाहु विश्वाभिमुख है [ अर्थात् जो सारे जगत् का सहकारी कारण है ], जिसका पैर विश्वाभिमुख है [ अर्थात् जो सारे जगत् में व्यापक है ] ऐसा एक ही देव (ईश्वर) स्वर्ग और भूमि की रचना करता हुआ, जीवों के धर्म-अधर्मरूप दो बाह के सहाय से पतत्रों अर्थात् परमाणुओं को प्रेरित करता है।" [स्वरूपप्रतिपादक आगम भी प्रमाण है ] मीमांसक सकलवेदवाक्यों को प्रमाण नहीं मानते किन्तु विधि-निषेधपरक प्रवर्तक-निवर्तक वाक्यों को ही प्रमाण मानते हैं, केवल वस्तुस्वरूपमात्रप्रतिपादक वाक्यों को प्रमाण नहीं मानते-किन्तु Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 403 चेत् ? तदसत् , स्वार्थप्रतिपादक त्वेन विध्यत्वात / तथाहि-स्तुतेः स्वार्थप्रतिपादकत्वेन प्रवर्तकत्वम् , निन्दायास्तु निवर्तकत्वमिति / अन्यथा हि तदर्थाऽपरिज्ञाने विहित-प्रतिषिद्धेष्वविशेषेण प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा स्यात् / तथा विधिवाक्यस्यापि स्वार्थप्रतिपादनद्वारेणैव पुरुषप्ररकत्वं दृष्टम् एवं स्वरूपपरेष्वपि वाक्येषु स्यात् , वाक्यस्वरूपताया अविशेषात विशेषहेतोश्चाभावादिति / . तथा, स्वरूपार्थानामप्रामाण्ये "मेध्या आपः, दर्भाः पवित्रम् , अमेध्यमशुचि" इत्येवंस्वरूपाऽपरिज्ञाने विध्यंगतायामप्यविशेषेण प्रवृत्ति-निवृत्तिप्रसंगः / न चैतदस्ति, मेध्ये वेव प्रवर्तत अमेध्येषु च निवर्तत इत्युपलम्भात् / तदेवं स्वरूपार्थेभ्यो वाक्येभ्योऽर्थस्वरूपावबोधे सति, इष्टे प्रवृत्तिदर्शनादनिष्टे च निवृत्तेरिति ज्ञायते-स्वरूपार्थानां प्रमाजनकत्वेन प्रवृत्तौ निवृत्तौ वा विधिसहकारित्वमिति, अपरिज्ञानात्तु प्रवृत्तावतिप्रसंगः। अथ स्वरूपार्थानां प्रामाण्ये 'ग्रावाण: प्लवन्ते' इत्येवमादीनामपि यथार्थता स्यात् / न, मुख्ये बाधकोपपत्तेः / यत्र हि मुख्य बाधकं प्रमाणमस्ति तत्रोपचारकल्पना, तदभावे तु प्रामाण्यमेव / न चेश्वरयह ठीक नहीं है, क्योंकि उन वाक्यों में भी प्रमाणजनकत्व अर्थात् प्रमात्मकबोधजनकत्व विद्यमान है / जैसे देखिये-कोई भी प्रमाण (=प्रमा का करण) प्रमात्मक ज्ञान का जनक होने से ही प्रमाण होता है, प्रवृत्तिजनक होने से नहीं / और प्रमाजनकत्व तो स्वरूपप्रतिपादक वेदवाक्यों में भी अबाधित है ही / यदि कहें कि-स्वरूपप्रतिपादक वेदवाक्यों विधि के अंगभूत यानी विध्यर्थ साधन में उपयोगी होने से ही प्रमाण हैं, स्वरूपप्रतिपादक होने से नहीं तो यह कथन मिथ्या है क्योंकि कोई भी वाक्य विधि का अंगभूत तभी हो सकता है जब वह स्ववाच्यार्थ का सम्यक् प्रतिपादन करे / देखिये स्ववाच्यार्थ का प्रतिपादक होने से ही स्तुतिवाक्य प्रवृत्तिकारक बनता है और निन्दा वाक्य अनिष्ट के बोधक द्वारा निवर्तक बनता है / यदि वाक्य से उसके अर्थ का ही परिज्ञान न होगा तो विहित और निषिद्ध कार्यों में इष्टानिष्टसाधनता का बोध न होने के कारण किसी भी पक्षपात के विना ही प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों होने लगेगी। तदुपरांत, विधिवाक्य भी अपने अर्थ के सम्यक् प्रतिबोधन के द्वारा ही अर्थी पुरुष की प्रवृत्ति में प्रेरक बनता हुआ दिखता है, तो ऐसा स्वरूपमात्र प्रतिपादक वाक्यों में भी सम्भव है, क्योंकि पदसमूहरूप वाक्य का स्वरूप दोनों स्थानों में समान है, और ऐसी कोई विशेषता नहीं है जिसके सद्भाव और अभाव से एक को प्रमाण और अन्य को अप्रमाण कहा जा सके। [ स्वरूपार्थक आगम अप्रमाण मानने पर आपत्ति ] तदुपरांत, यदि स्वरूपमात्रार्थ के वाचक वाक्य को प्रमाण नहीं मानेंगे तो 'मेध्या आप..... इत्यादि वाक्य से 'जल पवित्र है, दर्भ पवित्र है, अशुचि अपवित्र है' इस प्रकार का प्रमाणभूत स्वार्थपरिज्ञान नहीं होने से, विधि के अंगभूत वस्तु में भी समानरूप से प्रवृत्ति-निवृत्ति का अतिप्रसंग होगा। किन्तु ऐसा तो है नहीं क्योंकि सब लोग पवित्र वस्तु में ही प्रवृत्ति और अपवित्र में निवृत्ति करते हैं, यही दिखाई देता है। अतः इस प्रकार स्वरूप अर्थ वाचक वाक्यों से अर्थ के स्वरूप का बोध होने पर ही इष्ट कार्य में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति के दर्शन से यह स्पष्टरूप से ज्ञात होता है कि-स्वरूपार्थवाचक वाक्य प्रमाजनक होने पर ही प्रवृत्ति या निवृत्ति करने में विधिवाक्यों के सहकारी बनते हैं, अन्यथा नहीं। यदि उन से स्वार्थ का बोध न होने पर भी वे विधिवाक्य के सहकारी बनेंगे तो कोई भी वाक्य विधिवाक्य का सहकारी बन जाने की आपत्ति होगी। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ सद्भावप्रतिपादनेषु किंचिदस्ति बाधकमिति स्वरूपे प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यमिति-भागमादपि सिद्धप्रामाण्यात् तदवगमः। ईश्वरस्य च सत्तामात्रेण स्वविषयग्रहणप्रवृत्तानां क्षेत्रज्ञानामधिष्ठायकता यथा स्फटिकादीनामुपधानाकारग्रहणप्रवृत्तानां सवितृप्रकाशः / यथा तेषां सावित्रं प्रकाशं विना नोपधानाकारग्रहण- .. सामर्थ्य तथेश्वरं विना क्षेत्रविदां न स्वविषयग्रहणसामर्थ्यमित्यस्ति भगवानीश्वरः सर्ववित्। ___ इतश्चासौ सर्ववित्-ज्ञानस्य सन्निहितसदर्थप्रकाशकत्वं नाम स्वभावः, तस्यान्यथामावः कुतश्चिद्दोषसद्भावात , एतत्तावद् रूपं चक्षुराद्याश्रयाणां ज्ञानानाम् / यत् पुनश्चक्षुरनाश्रितं न च रागादिमलावृतं तस्य विषयप्रकाशनस्वभावस्य विषयेषु किमिति प्रकाशनसामर्थ्य विधातः यथा दीपादेरपवरकान्तर्गतस्य? नन रागादेरावरणस्य कथं तत्राभावोऽवगतः? तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात् / 'प्रमाणस्याभावे संशयोऽस्तु रागादीनां न त्वभावः' / विपर्यासकारणा रागादयः, एषां कारणाभावे कथं तत्र भावः? विपर्यासश्चाधर्मनिमित्तः, न च भगवत्यधर्मः तत्सद्धावे वा इत्थंविधस्यास्मदादिभि मप्यशक्यस्य कार्यस्य कथं तस्मादुत्पादः अनेकादृष्ट कल्पनाप्रसंगात ? किंच रागादयः इष्टानिष्टसाधनेषु विषयेषपजायमाना दृष्टाः / न च भगवतः कश्चिदिष्टानिष्टसाधनो विषयः, अवाप्तकामत्वात् / [ 'पत्थर तैरते हैं। इस प्रयोग के प्रामाण्य का निषेध ] शंकाः-स्वरूपार्थ में वाक्यों को प्रमाण मानने पर तो 'पत्थर तैरते हैं' इत्यादि वाक्यों को. भी यथार्थ मानना पड़ेगा। उत्तरः-नहीं मानना पड़ेगा, क्योंकि इसके मुख्यार्थ में बाधक विद्यमान है। जहाँ मुख्यार्थ में बाधक प्रमाण की सत्ता हो वहाँ वह प्रयोग औपचारिक होने की कल्पना करना युक्त है और जहाँ बाधक प्रमाण न हो उस प्रयोग को यथार्थ ही मानना चाहिये। ईश्वरसद्भाव के प्रतिपादन करने वाले वेदादिवाक्यों के मुख्यार्थ में कोई बाधक प्रमाण नहीं है अतः उन वाक्यों का स्वरूप अर्थ में प्रामाण्य स्वीकारना होगा। इस रीति से सिद्ध प्रामाण्य वाले आगम से भी ईश्वर का बोध किया जा सकता है। अपने विषयों के ग्रहण में प्रवृत्त क्षेत्रों में ईश्वर स्वत: अपनी सत्तामात्र से ही [ शरीर के विना भी ] अधिष्ठित है। उदा० उपाधि (जपाकुसुमादि) के आकारग्रहण में प्रवृत्त स्फटिकादि में सूर्यप्रकाश जैसे स्वत: अधिष्ठित होता है / सूर्यप्रकाश के विना स्फटिकादि, उपाधि के आकारग्रहण में समर्थ नहीं हो सकते, ऐसे ही ईश्वर के विना क्षेत्रज्ञ भी अपने विषयों के ग्रहण में समर्थ नहीं हो सकते। इस प्रकार भगवान ईश्वर सर्वज्ञ है यह सिद्ध होता है / [ सर्वज्ञता की साधक युक्ति ] ईश्वर सर्वज्ञ इस रीति से भी है-नेत्रादि साधन से होने वाले ज्ञान का स्वरूप ऐसा है कि वह निकटवर्ती सद्भूतअर्थ का प्रकाशक होता है, कदाचित् कोई दोष भी ज्ञानसामग्रीअन्तर्भूत हो जाय तब वह दूरवर्ती असद्भूत अर्थ का भी प्रकाश कर देता है। नेत्रादिनिरपेक्ष जो ज्ञान है उसका स्वभाव तो विषय प्रकाशन का है ही, उपरांत वह रागादिमल से अनावृत भी है तो अब यह सोचना होगा कि उसके विषयप्रकाशनसामर्थ्य में कौन विघात करेगा जिससे कि वह सन्निहित एवं परिमित Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 405 या तु प्रवृत्तिः शरीरादिसर्गे सा कैश्चित् क्रोडार्थमुक्ता, सा चावाप्तप्रयोजनानामेव भवति न त्वन्येषाम् / अतो यदुक्तं वात्तिककृता- “क्रीडा ही रतिमविन्दताम् , न च रत्यर्थी भगवान् , दुःखाभावात्" [न्या०वा० 4-1-21], तत् प्रतिक्षिप्तम् , न हि दुःखिताः क्रीडासु प्रवर्तन्ते, तस्मात् कोडार्था प्रवृत्तिः / अन्ये मन्यन्ते-कारुण्याद भगवतःप्रवत्तिः। नन्वेवं केवलः सखरूपःप्राणिसर्गोऽस्त / नैवं. निरपेक्षस्य कर्तृत्वेऽयं दोषः, सापेक्षत्वे तु कथमेकरूपः सर्गः ? ! यस्य यथाविधः कर्माशयः पुण्यरूपोऽपुण्यरूपो वा तस्य तथाविधफलोपभोगाय तत्साधनान् शरीरादीस्तथाविधांस्तत्सापेक्षः सृजति इति / न चेश्वरत्वव्याघातः सापेक्षत्वेऽपि, यथा सवितृप्रकाशस्य स्फटिकाद्यपेक्षस्य, यथा वा करणाधिष्ठायकस्य क्षेत्रज्ञस्य सापेक्षत्वेऽपि तेषु तस्येश्वरता (त)द्वदत्रापि नेश्वरताविधातः।- इति केचित् / ही अर्थ का प्रकाशक हो ? ! जब दीपक का वस्तुप्रकाशनस्वभाव है तब किसी कक्ष में उसको रखा जाय तब तो अपरिमितार्थप्रकाशन में चार दीवार ही अन्तरायभूत हैं किंतु ईश्वर के ज्ञान में तो कोई अन्तराय ही नहीं है, अत: वह सर्वार्थ प्रकाशक ही सिद्ध होता है। शंकाः-ईश्वर में रागादि आवरण का अभाव है यह कैसे जान लिया ? उत्तरः-रागादि के सद्भाव का प्रतिपादक कोई प्रमाण नहीं है। शंकाः-कोई प्रमाण नहीं है तो भी वहाँ संशय को अवकाश है, अत: रागादि का अभाव नहीं हो सकता। उत्तरः-रागादि का कारण बुद्धिविपर्यास है, जब यह कारण ही ईश्वर में नहीं है तो यहाँ रागादिभाव कैसे होंगे / विपर्यास इसलिये नहीं है कि उसका निमित्त अधर्म (अदृष्ट) है जो भगवान में नहीं है / यदि भगवान में अधर्ममूलक विपर्यास होता तो, जिसको हम बुद्धि से सोच भी नहीं सकते इतने बडे बडे ऐसे कार्य की उससे उत्पत्ति ही कैसे हो सकती ? ईश्वर को अधर्म वाला मान कर भी उससे बड़े बड़े अचिन्त्य कार्यों की उत्पत्ति मानने पर अनेक प्रकार की अदृष्ट कल्पनाएँ करनी होगी क्योंकि अधर्मवाले किसी भी जीव से नदी-समुद्रादि बड़े कार्य की उत्पत्ति दृष्ट नहीं है। तदुपरांत, रागादि की उत्पत्ति इष्ट-अनिष्ट विषयों में ही होती है, भगवान तो कृतकृत्य होने से उनके लिये कोई विषय इष्ट-अनिष्ट ही नहीं रहा तो उनको रागादि कैसे हो सकते हैं ? ! रागादि के अभाव में सर्वज्ञता निर्बाध सिद्ध हो जायेगी। . [ ईश्वर की क्रीडाहेतुक प्रवृत्ति भी निर्दोष ! ] कोई विद्वान कहते हैं कि शरीरादि सृष्टि के उत्पादनार्थ जो ईश्वर की प्रवृत्ति है वह क्रीडा के हेतु है / क्रीडा वे लोग ही कर सकते हैं जो कृतकृत्य हो गये हो, जिनके सब प्रयोजन सिद्ध हो गये हो / असिद्ध प्रयोजनवाले कभी क्रीडा में संलग्न नहीं हो सकते / अत एव, न्यायवात्तिककार उद्योतकरने जो यह कहा है-"जिनको चैन न पड़ता हो वे ही क्रीडा में प्रवृत्त होते हैं, भगवान को रति का कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि प्रभु को कोई दुःख ही नहीं है। ( जिसकी निवृत्ति हेतु क्रीडा करे )।"यह बात परास्त हो जाती है / दीन-दुखिये लोग कभी क्रीडा में संलग्न नहीं होते ( वे तो अपने दुःख'निवारण की चिन्ता में ही पड़े रहते हैं कृतकृत्य लोग ही क्रीडा कर सकते हैं) / अतः ईश्वर की प्रवृत्ति क्रीडानिमित्त है यह कहा जा सकता है। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अन्ये मन्यन्ते-यथा प्रभुः सेवाभेदानुरोधेन फलभेदप्रदो नाऽप्रभुस्तथेश्वरोऽपि कर्माशयापेक्षः फलं जनयतीति 'अनीश्वरः' इति न युज्यते वक्तुम् / भाष्यकारः कारुण्यप्रेरितस्य प्रवृत्तिमाह / तन्निमित्तायामपि प्रवृत्तौ न वात्तिककारीयं दूषणम्'संसजेत् शुभमेवैकमनुकम्पाप्रयोजितः' [ श्लो० वा० ५-स० 50 श्लो० 52 ] इत्येवमादि, यतः कर्माशयानां कुशलाऽकुशलरूपाणां फलोपभोग विना न क्षय इति भगवानवगच्छंस्तदपभोगाय प्राणिसगं करोति / उपभोगः कर्मफलस्य शरीरादिकृतः, कस्यचित्तु अशुभस्य कर्मणः प्रायश्चित्तात् प्रक्षयः / तत्रापि स्वल्पेन दुःखोपभोगेन दीर्धकालदुःखप्रदं कर्म क्षीयते, न तु फलमदत्त्वा कर्मक्षयः / येषामपि मतं सम्यग्ज्ञानाद् विपर्यासनिवृत्तौ तज्जन्यक्लेशक्षये कर्माशयानां सद्भावेऽपि सहकार्यभावान्न शरीराद्या. [भगवान की प्रवृत्ति करुणामूलक !] . अन्य विद्वान कहते हैं-भगवान् की प्रवृत्ति करुणामूलक है / ( निरुपाधिक परदुःखभंजन की इच्छा को करुणा कहते हैं ) / प्रश्न:-करुणामूलक प्रवृत्ति से केवल सुखी प्राणियों की ही सृष्टि होगी, दुःखसृष्टि क्यों ? उत्तरः-दुःखसृष्टि का दोष नहीं है, क्योंकि कर्ता यदि निरपेक्ष ( सर्वथा स्वतन्त्र ) हो तब यह दोष सावकाश है, जब ईश्वर भी जीव के अदृष्ट को सापेक्ष ( पराधीन ) है तब एक प्रकार की सृष्टि का सम्भव कैसे होगा ? ! जिस आत्मा का जैसा भी पुण्यात्मक या पापात्मक कर्मसंचय होगा, उसको वैसे ही फलोपभोग संपन्न कराने के लिये उसके साधनभूत वैसे ही शरीरादि की रचना पुण्य-पाप को सापेक्ष रह कर ईश्वर करता है। कुछ विद्वान् यहाँ कहते हैं कि-पुण्य पाप की सापेक्षता से ऐश्वर्य का कोई व्याघात नहीं है। जैसे स्फटिक को उपाधि के वर्ण से उपरक्त करने में सूर्यप्रकाश को स्फटिक की अपेक्षा रहती ही है / अथवा इन्द्रिय के अधिष्ठाता को ज्ञानादि में बाह्यान्तर करण (इन्द्रिय) की अपेक्षा रहती ही है, इन कार्यों में सापेक्षता होने पर भी जैसे जीव व ऐश्कार्य रहता है उसी प्रकार अदृष्ट की सापेक्षता होने पर भी भगवान् के ऐश्वर्य में व्याधात नहीं है। दूसरे विद्वान् कहते हैं जैसे नृपादि स्वामी भिन्न भिन्न प्रकार के सेवा कार्य को लक्ष्य में रखकर अपने सेवकों को भिन्न भिन्न फल प्रदान करता है, इससे उसके स्वामित्व में कोई क्षति नहीं आती; उसी प्रकार ईश्वर भी कर्मसंचय की अपेक्षा से फलोत्पत्ति करता हो तो इससे उसको अनीश्वर कहना योग्य नहीं है। [ केवल सुखत्मक सोत्पत्ति न करने में हेतु] भाष्यकार ने भी करुणाप्रेरित हो कर ईश्वर की प्रवृत्ति होने का कहा है। प्रवृत्ति को करुणामूलक मानने पर भी तन्त्रवात्तिककर्ता कुमारील भट्ट ने जो यह दोष दिया है-'यदि करुणा से प्रेरित होकर प्रवृत्ति करने का मानेंगे तो सभी को एकमात्र सुखी ही बनाता'-इस दूषण को अवकाश नहीं है। कारण, शुभाशुभ कर्मराशि का फलोपभोग के विना नाश अशक्य है। यद्यपि किसी अशुभ कर्म का प्रायश्चित से भी विनाश होता है, किन्तु वहां भी दीर्घकाल तक दुख देने की शक्तिवाला कर्म अत्यल्प दुःखोपभोग से क्षीण होता है यही माना गया है, अतः फल दिये विना किसी भी कर्म का विनाश नहीं Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पू० 407 क्षेपकता, तत्रापि कुशलं कर्म समाधि वाऽन्तरेण न तत्त्वज्ञानोत्पत्तिः, तयोस्तु संचये प्रवृत्तस्य यमनियमानुष्ठानेऽनेकविधदुःखोत्पत्तिः प्रतः कथं केवलसुखिरूपः प्राणिसर्गः ? नारक-तिर्यगादिसर्गोऽपि प्रकृतप्रायश्चित्तानां तत्रत्यदुःखानुभवे पुनर्विशिष्टस्थानावाप्तावभ्युदयहेतुरिति सिद्धं दुःखिप्राणिसृष्टावपि करुणया प्रवर्तनम्-तन्नाऽसर्वज्ञत्वं विशेषः। नापि कृत्रिमज्ञानसम्बन्धित्वम् , तज्ज्ञानस्य प्रत्यर्थनियमाऽभावात् / यद् ज्ञानमनित्यं तत् शरीरादिसापेक्षं प्रत्यर्थनियतम् , तज्ज्ञानस्य तु शरीराद्यभावे कुतः प्रत्यर्थनियतता ? भवतु तज्ज्ञानं प्रतिनियतविषयं, न तस्य प्रतिनियतविषयत्वेऽस्माकं पक्षक्षतिः / कथं न क्षतिः? तस्य तथाविधत्वे पत् स्थावरानुत्पादप्रसंगः तदनुत्पादे च कर्तृत्वाऽसिद्धिः, तदसिद्धौ कस्य कृत्रिमज्ञानसम्बन्धिताविशेषः ? अथ युगपत्कार्यान्यथानुपपत्त्या प्रत्यर्थनियतामनेकां बुद्धिमीश्वरे प्रतिपद्येत तत्रापि संतानेन वा तथाभूता बुद्धयः, युगपद्वा भवेयुः ? प्राच्ये विकल्पे पुनरपि युगपत्कार्यानुत्पादप्रसंगः। युगपदुत्पत्तौ वा बुद्धीनां शरीरादियोगस्तस्यैषितव्यः, स च पूर्व प्रतिक्षिप्तः। होता। जिन लोगों का ऐसा मत है कि-'सम्यग्ज्ञान से विपर्यास निवृत्त होने पर विपर्यासजन्य क्लेश भी निर्मूल हो जाते हैं अतः वहाँ कर्मसंचय होने पर भी क्लेशात्मक सहकारी न होने से नूतनशरीर का जन्म नहीं होता'....उस मत में भी सम्यग्ज्ञान यानी तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति, कुशल कर्म या समाधि के विना नहीं होती है, और कुशलकर्म का संचय या समाधि की साधना में प्रवृत्ति करने वाले को यमनियमों के पालन में अनेक प्रकार के दुःख तो भुगतना ही होगा / अतः केवल सुखभोगी ही जीवसमूह की सृष्टि रचने का संभव ही कहाँ है ? ! ... प्रश्न:-नारक और तिर्यंच को तो केवल दुखानुभव ही करना है तो उसमें करुणा कैसे ? उत्तर:-वहाँ भी करुणा अस्खलित है, जैसे: जिन लोगों ने पाप का प्रायश्चित्त नहीं किया है उन को नारक-तिर्यंच भवों में जन्म दे कर वहाँ दुखानुभव कर लेने के बाद फिर से आबादी के हेतुभूत विशिष्टस्थान को प्राप्त करायेगा। इस प्रकार, दुखी प्राणिसमूह के सृजन में भी करुणा से ही ईश्वर प्रवृत्त होता है यह सिद्ध हुआ / निष्कर्षः-असर्वज्ञत्वरूप विशेष का ईश्वर में आपादन अशक्य है। [ ईश्वर का ज्ञान अनित्य नहीं हो सकता ] ईश्वर में कृत्रिम (अनित्य) ज्ञानसंबन्धरूप विशेष का भी आपादन शक्य नहीं है। कारण, ईश्वरज्ञान में प्रत्यर्थनियम नहीं है, अर्थात् परिमित और अमुक ही विषयों से ईश्वर ज्ञान प्रतिबद्ध नहीं है। जो अनित्य ज्ञान होता है वह तो शरीरादिसापेक्ष और प्रत्यर्थनियत ही होता है / जब ईश्वर को शरीर ही नहीं है तो प्रत्यर्थनियतता भी उस के ज्ञान में कैसे होगी। शंका:-प्रत्यर्थनियत न होने से आप ईश्वर ज्ञान को नित्य दिखा रहे हैं किन्तु ईश्वर ज्ञान को प्रतिनियतविषयक भी माना जाय तो क्या बाध है ? प्रतिनियत विषयक ईश्वरज्ञान को मानने में हमारे पक्ष की कोई क्षति नहीं है। उत्तरः-क्षति क्यों नहीं होगी ? यदि उसका ज्ञान प्रतिनियतार्थविषयक ही होगा तो एक साथ सकल स्थावर भावों की उत्पत्ति ही न हो सकेगी। उत्पत्ति न हो सकने पर उसमें कर्तृत्व ही असिद्ध हो जायेगा। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ कार्यस्य बहुत्व-महत्त्वाभ्यां बहवो बुद्धिमन्तः कर्तारो भवन्तु, न त्वेकः सर्वज्ञः सर्वशक्तियुक्तः / नन्वेतस्मिन्नपि पक्षे ईश्वरानेकत्वप्रसंगः / 'भवतु, को दोषः' ? व्याहतकामानां स्वतन्त्राणामेकस्मिन्नर्थे प्रवृत्तिः। अथ तन्मध्येऽन्येषामेकायत्तता, तदा स एवेश्वरः, अन्ये पुनस्तदधीना अनीश्वराः / अथ स्थपत्यादीनां महाप्रासादादिकरणे यथैकमत्यं तद्वदत्रापि / नैतदेवम् , तत्र कस्यचिदभिप्रायेण नियमितानामैकमत्यम् , न त्वत्र बहूनां नियामकः कश्चिदस्ति, सद्भावे वा स एवेश्वरः / एवं यस्य यस्य विशेषस्य साधनाय वा निराकृतये वा प्रमाणमुच्यते तस्य तस्य पूर्वोक्तेन न्यायेन निराकरणं कर्त्तव्यम् / तन्न विशेषविरुद्धता ईश्वरसाधकस्य / शंकाः-हो जाने दो, हमारा क्या बिगडैगा ? उत्तरः-तब तो ईश्वर ही सिद्ध नहीं होगा तो आप किस व्यक्ति में कृत्रिमज्ञानसम्बन्ध विशेष की सिद्धि कर रहे हो ? ! शंकाः-युगपत् (एक साथ) कार्यों की उत्पत्ति अन्यथा न घट सकने के कारण, ईश्वर में प्रतिनियतार्थविषयक अनेक बुद्धि को ही क्यों नहीं मान लेते ? उत्तर:-यहाँ विकल्पद्वय का निराकरण नहीं हो सकेगा / जैसे, उन अनेक बुद्धियों का होना सन्तान से यानी क्रमिक मानेंगे या एक साथ ही ? पहले विकल्प में तो फिर से एक साथ कार्यों की अनुत्पत्ति का दोष प्रसंग आयेगा / एक साथ सकल बुद्धि की उपत्ति मानेंगे तो उत्पत्ति के लिये शरीरयोग भी मानना पड़ेगा और शरीरादियोग का तो पूर्वग्रन्थ में निराकरण हो चुका है। [ अनेक बुद्धिमान् कर्ता मानने में आपत्ति ] शंकाः-यदि बडे बडे अनेक कार्यों की एक साथ उपत्ति करना है तो एक सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ की कल्पन क्यों करते हो, अनेक बुद्धिमान कर्ता को मान लो। उत्तरः- ऐसा मानने में तो अनेक ईश्वर मानने की आपत्ति है। . शंका:-अनेक ईश्वर को मान लिजीये ! क्या आपत्ति है ? उत्तरः-वे यदि स्वतन्त्र होंगे तो परस्पर विरुद्ध ईच्छा प्रगट होने पर एक बड़े कार्य में प्रवृत्ति ही नहीं करेंगे / यदि उनमें से कोई एक, दूसरों को स्वाधीन रखेगा तब तो वही ईश्वर हुआ, शेष सब तो उनके पराधीन होने से ईश्वर नहीं हुए। शंका:-जैसे शिल्पी आदि अनेक मिल कर बडे राजभवन के निर्माण में एकमत हो कर कार्य करते हैं, वैसे यहाँ भी होगा। उत्तरः-ऐसा नहीं है, वहाँ तो किसी एक नपादि के अभिप्राय से वे सब नियन्त्रित हो कर एक अभिप्राय वाले होते हैं, यहाँ अनेक ईश्वर का कोई नियामक तो है नहीं, यदि 'है' ऐसा माना जाय तब तो वही मुख्य ईश्वर हुआ। उपरोक्त रीति से, अनीश्वरवादी की ओर से जिस जिस विशेष का आपादन या निराकरण करने के लिये प्रमाण दिया जाय उन सभी का पूर्वोक्त युक्ति से ही निराकरण समझना चाहिये / निष्कर्षः-ईश्वरसाधक किसी भी हेतु में विशेषविरुद्धता दोष को अवकाश नहीं है। . Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 409 प्रसंग-विपर्यययोरप्यनुत्पत्तिः / प्रसंगस्य व्याप्त्यभावात् , तन्मूलत्वात् तद्विपर्ययस्य, तथेष्टविधातकृतश्च / यच्च नित्यत्वादकर्तृ कत्वमुच्यते शाक्यैस्तदपि क्षणभंगभंगे प्रतिक्षिप्तम् / यदपि व्यापार विना न कर्तत्वं तदपि ज्ञान-चिकीर्षाप्रयत्नलक्षणस्य व्यापारस्योक्तत्वान्निराकृतम्। वात्तिककारेणापरं प्रमाणद्वयमुपन्यस्तं तत्सिद्धये-(१) महाभूतादिव्यक्तं चेतनाधिष्ठितं प्राणिनां सुख-दुःखनिमित्तम् , रूपादिमत्त्वात् , तुर्यादिवत् / तथा. (2) पृथिव्यादीनि महाभूतानि बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितानि स्वासु धारणाद्यासु क्रियासु प्रवर्तन्ते, अनित्यत्वात्, वास्यादिवत् / [ न्या० वा०४-१-२१] अविद्धकर्णस्तु तत्सिद्धये इदं प्रमाणद्वयमाह - (1) द्वीन्द्रियग्राह्याऽग्राह्य विमत्यधिकरणभावापन्नं बुद्धिमत्कारणपूर्वकम् स्वारम्भकावयवसनिवेशविशिष्टत्वात , घटादिवत् , वैधhण परमाणवः इति / तत्र द्वाभ्यां दर्शनस्पर्शनेन्द्रियाभ्यां ग्राह्य महदनेकद्रव्यवत्त्वरूपाद्युपलब्धिकारणोपेतं पृथिव्युदकज्वलनसंज्ञकं त्रिविधं द्रव्यं द्वीन्द्रियग्राह्यम् / अग्राह्य वाय्वादि, यस्माद् महत्त्वमनेकद्रव्यवत्त्वं रूपसमवायादिश्वोपलब्धिकारणमिष्यते, तच्च वाय्वादौ नास्ति / यथोक्तम् - [इश्वर में प्रसंग-विपर्यय भी बाधक नहीं ] ईश्वरकर्तृत्वसाधक अनुमान के सामने शरीरादि को लेकर * प्रसंग-विपर्यय का प्रतिपादन भी शक्य नहीं / प्रसंग-विपर्यय की सम्भावना इस तरह की जाय कि-जो कर्ता होता है वह शरीरी होता है, ईश्वर शरीरी नहीं है, अत एव वह कर्ता नहीं हो सकता ।-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि प्रसंग व्याप्ति-मूलक होता है, यहाँ कर्तृत्व में शरीर की व्याप्ति ही असिद्ध है, यह पहले ही कह दिया है। विपर्यय भी प्रसंगमूलक होने से यहाँ निरवकाश है। कार्यत्व हेतु की कर्तृत्व के साथ व्याप्ति दृढमूल होने से हेतु इष्टविधातकृत् भी नहीं है, क्योंकि कार्यत्व हेतु से कर्तृत्वमात्र ही साध्य इष्ट है / बौद्धों की ओर से जो कहा जाता है कि-ईश्वर नित्य होगा तो वह कर्ता नहीं होगा। क्योंकि नित्य पदार्थ में अर्थक्रियाकारित्व घटता नहीं है-यह भी, पूर्वग्रन्थ में स्थायी आत्मसिद्धि के प्रकरण में क्षणभंगवाद का भंग किये जाने से ही परास्त हो जाता है। जो मीमांसकादि यह कहते हैं कि-व्यापार के विना कर्तृत्व नहीं घट सकता और ईश्वर व्यापारहीन होने से कर्ता नहीं हो सकता-यह भी परास्त हो जाता है क्योंकि ईश्वर में ज्ञान-क्रिया-इच्छा और प्रयत्न स्वरूप व्यापार दिखा दिया है। [वातिककार के दो अनुमान ] न्यायवात्तिककार उद्द्योतकर ने ईश्वर की सिद्धि में और भी दो प्रमाण दिये हैं (1) महाभूतादि व्यक्त पदार्थ चेतनाधिष्ठित होने पर ही जीवों के सुख-दुःख में निमित्त बन सकता है क्योंकि महाभूतादि पदार्थ रूपादिमान् है जैसे वस्त्रोत्पादन में निमित्तभूत तुरी ( =जुलाहों का एक औजार) आदि / इस प्रकार अधिष्ठाता ईश्वर सिद्ध होता है। (2) पृथ्वी आदि महाभूत, बुद्धिवाले कारण से अधिष्ठित हो कर ही अपनी धारणादि क्रिया में संलग्न होते हैं, चूंकि अनित्य है जैसे कुठारादि / यहाँ बुद्धिमान् अधिष्ठाता के रूप में ईश्वर सिद्ध होता है। * प्रसंग-विपर्यय के परिचय के लिये देखिये पृ० 300 / Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 : महत्यनेकद्रव्यवत्त्वाद् रूपाच्चोपलब्धिः [ वै० 80 4-1-6 ] रूपसंस्काराभावाद् वायावनुपलब्धिः [ वै० द०४-१-७] रूपसंस्कारो रूपसमवायः द्वयणुकादीनां त्वनुपलब्धिरमहत्त्वादिति / अन्ये तु-वायोरपि स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्षग्राह्यत्वम् इच्छन्ति, द्वीन्द्रियग्राह्यत्वापेक्षया तु रूपसमवायाभावादनुपलब्धिरित्युक्तम् / तत्र सामान्येन द्वीन्द्रियग्राह्याऽग्राह्यस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वसाधने सिद्धसाध्यतादोषः, घटादिभयसिद्धेविवादाभावात् / अभ्युपेतबाधा च, अण्वाकाशादीनां तथाऽनभ्युपगमात् , तेषां च नित्यत्वात् प्रत्यक्षादिबाधा। अतस्तदर्थ विमत्यधिकरणभावापन्नग्रहणम् / विविधा मतिविमतिः विप्रतिपत्तिरिति यावत् , तस्या अधिकरणभावापन्न, विवादास्पदीभूतमित्यर्थः / एवं च सति शरीरेन्द्रियभुवनादय एवात्र पक्षीकृता इति नाण्वादिप्रसंगः / कारणमात्रपूर्वकत्वेऽपि साध्ये सिद्धसाध्यता मा भूदिति बुद्धिमत्कारणग्रहणम / सांख्यं प्रति मतबर्थानुपपत्तेन सिद्धसाध्यता, अव्यतिरिक्ता हि बद्धिः प्रधानात सांख्यरुच्यते। न च तेनैव तदेव तद्वद् भवति / स्वारम्भकाणामवयवानां सन्निवेशः प्रचयात्मकः संयोगः, तेन विशिष्ट व्यवच्छिन्नं तद्भावस्तस्मात् / अवयवसंनिवेशविशिष्टत्वं गोत्वादिभिर्व्यभिचारीत्यत: स्वारम्भकग्रहणम् / गोत्वादीनि तु द्रव्यारम्भकावयवसन्निवेशेन विशिष्यन्ते न तु स्वारम्भकावयवसन्निवेशेनेति / तेन योऽसौ . बुद्धिमान् स ईश्वरः-इत्येकम् / [ अविद्धकर्ण का प्रथम अनुमान ] अविद्धकर्णसंज्ञक विद्वान् ईश्वर की सिद्धि में ये दो प्रमाण दिखा रहा है (1) विमत्यधिकरणभावापन्न (=विवादास्पदीभूत) इन्द्रियद्वय से ग्राह्य और अग्राह्य वस्तु (-यह पक्ष निर्देश हुआ) बुद्धिमत्कारणपूर्वक होती है (यह हुआ साध्य निर्देश, अब हेतु दिखाते हैं.) क्योंकि स्व के आरम्भक अवययों के सन्निवेश से विशिष्ट है। जैसे कि घटादि, ( यह साधर्म्य दृष्टान्त हुआ ) और वैधर्म्य से परमाणु आदि। यहाँ दर्शनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय दो इन्द्रियों से ग्राह्य, परमाणु और द्वयणुक से भिन्न पृथ्वीजल और तेज द्रव्य ये तीन ही हैं क्योंकि उनमें ही महत्त्व, अनेक द्रव्य ( अवयव )वत्ता और रूपादि ये तीनों उपलब्धि कारण विद्यमान हैं। परमाणु में केवल रूप ही है शेषद्वय नहीं है और द्वयणुक में महत्त्व नहीं है शेष दोनों हैं, अत: उपलब्धि के उक्त तीन कारणों के न होने से उनकी उपलब्धि नहीं होती है / शेष रह गया वायु द्रव्य, उसको 'अग्राह्य' पद से पक्ष बनाया है, क्योंकि महत्त्वादि तीन जो उपलब्धि कारण हैं उन में से वायु में रूपसमवाय उपलब्धिकारण न होने से द्वीन्द्रिय ग्राह्यपद से उसका संग्रह शक्य नहीं है / वैशेषिक दर्शन के सूत्र पाठ में कहा भी है-"महत्त्ववाले में अनेक द्रव्यवत्ता और रूप के कारण उपलब्धि होती है। और रूपसंस्कार न होने से वायु में उपलब्धि नहीं होती" / यहाँ रूप संस्कार का अर्थ रूपसमवाय समझना / द्वयणुकादि में महत्त्व न होने से उपलब्धि नहीं होती। , अन्य विद्वान तो वायु को भी स्पर्शनेन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष से ग्राह्य मानते हैं / तब सूत्र पाठ में जो उसकी अनुपलब्धि को कहा है वह इसलिये कि रूपसमवाय न - होने से वह इन्द्रियद्वय से ग्राह्य नहीं . बन सकता ( केवल एक ही स्पर्शनेन्द्रिय से ही ग्राह्य बनता है.)। . Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 411 (2) द्वितीयं तु तनुभुवनकरणोपादानानि (चेतनाऽचेतनानि)* चेतनाधिष्ठितानि स्वकार्यमारभन्त इति प्रतिजानीमहे, रूपादिमत्त्वात् / यद् यद् रूपादिमत् तत् तत् चेतनाधिष्ठितं स्वकार्यमारभते यथा तन्त्वादि, रूपादिमच्च तनु-भुवन-करणादिकारणम् , तस्माच्चेतनाधिष्ठितं स्वकार्यमारभते / योऽसौ चेतनस्तनु-भुवनकरणोपादानादेरधिष्ठाता स भगवानीश्वरः इति / उद्द्योतकरस्तु प्रमाणयति-भवनहेतवः प्रधान-परमाण्वदृष्टाः स्वकार्योत्पत्तावतिशयबुद्धिमन्तमधिष्ठातारमपेक्षन्ते, स्थित्वा प्रवृत्तेः, तन्तुतुर्यादिवत् / [ न्या. वा. 4-1-21 ] इति / [प्रथम अनुमान के पक्षादि का विश्लेषण ] यहाँ सामान्य रूप से इन्द्रियद्वयग्राह्य और अग्राह्य में ही यदि बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व सिद्ध किया जाय तो वहाँ सिद्धसाध्यता दोष प्रसक्त होगा क्योंकि घटादि में वादी-प्रतिवादी दोनों के मत से साध्य सिद्ध होने से कोई विवाद ही नहीं रहेगा। तदुपरांत, अपने ही सिद्धान्त का बाध भी होगा क्योंकि अग्राह्य जो अणु-आकाशादि हैं उनमें न्यायमत से बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व स्वीकृत ही नहीं है क्योंकि वे नित्य हैं, अतः प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधादि होंगे। इन दोषों के निवारणार्थ यहाँ 'विमत्यधिकरणभावापन्न' विशेषण लगाया है। उसका अर्थ:-विविध मति विमति अर्थात् विप्रतिपत्ति / उसके अधिकरणभाव को प्राप्त हो, तात्पर्य कि जो विवादास्पदीभूत हो। अणु-आकाशादि में कोई विवाद नहीं है अत: उक्त कोई दोष निरवकाश है, केवल देह-इन्द्रिय और भूवनादि पदार्थ ही यहाँ पक्षरूप से अभिप्रेत हैं-यह उक्त विशेषण का फल है / ___केवल कारणमात्रपूर्वकत्व को साध्य करे तो देहादि के दृष्ट कारण से ही सिद्धसाध्यता न हो इसलिये बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व साध्य किया है। यहाँ बुद्धिरूपकारणपूर्वक ऐसा न कहकर बुद्धिमत्कारण पूर्वक ऐसा मतुपप्रत्ययार्थ गभित साध्य किया है जो सांख्यमत में सिद्ध न होने से सिद्धसाध्यता दोष नहीं होने देता है। सांख्यवादी प्रधान (=प्रकृति) को सारे कार्यों का कारण मानते हैं किन्तु वह प्रधानतत्त्व बुद्धिमत् पदार्थ नहीं है, क्योंकि बुद्धि उसके मत से प्रधान से अभिन्न कही जाती है, जो वस्तु जिससे अभिन्न हो वह उससे ही तद्वान् नहीं कहीं जाती। अपने आरम्भक अवयवों का प्रचयात्मक संयोग यही संनिवेश है, उससे विशिष्ट यानी व्यवच्छिन्न ( अर्थात् तथाविधसंनिवेश वाला ), उसको भाव अर्थ में त्वप्रत्यय लगा है। यह हेतु है। यदि 'स्वारम्भक' ऐसा न कहें तो सामानाधिकरण्य होने के कारण अवयवसंनिवेशविशिष्टता गोत्वादि में भी है और वहाँ साध्य नहीं है अत: हेतु व्यभिचारी बन जायेगा, इस व्यभिचार के निवारणार्थ 'स्वारम्भक' विशेषण लगाना होगा। गोत्वादि यद्यपि द्रव्यारम्भक अवयव संनिवेश से विशिष्ट है किन्तु नित्य होने से उसके अपने कोई आरम्भक अवयव ही नहीं है, अतः स्वावयवारम्भक संनिवेशविशिष्टता हेतु वहाँ से निवृत्त हो जाने पर व्यभिचार निरवकाश है / इस प्रकार निर्दोष हेतु से जो बुद्धिमान् सिद्ध होगा वही ईश्वर है। यह एक प्रमाण हुआ। [अविद्धकर्ण का दूसरा अनुमान ] (2) दूसरा प्रमाण-"शरीर, भुवन और करण (इन्द्रियादि) के उपादानभूत परमाणु आदि * 'चेतनाऽचेतनानि' इति पाठः तत्त्वसंग्रह श्लो० 46 पंजिकायां प्रमेयकमलमार्तण्डे चोद्धृतपाठेऽपि नोपात्तः, बहषु चाऽदर्शषु नास्ति, एकस्मिंश्च सन्नपि छिन्नः, ततश्चाधिक इव प्रतिभाति / Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 प्रशस्तमतिस्त्वाह-'सर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारोऽन्योपदेशपूर्वकः, उत्तरकालं प्रबुद्धानां प्रत्यर्थनियतत्वात , अप्रसिद्धवाग्व्यवहाराणां कुमाराणां गवादिषु प्रत्यर्थनियतो वाग्व्यवहारो यथा मात्राापदेशपूर्वकः।' इति / प्रबुद्धानां प्रत्यर्थनियतत्वादिति-प्रबुद्धानां सतां प्रत्यर्थ नियतत्वादित्यर्थः / यदुपदेशपूर्वकश्च स सर्गादौ व्यवहारः स ईश्वरः प्रलयकालेऽप्यलुप्तज्ञानातिशयः इति सिद्धम् / तथाऽपराण्यपि उद्द्योतकरेण तसिद्धये साधनान्युपन्यस्तानि-बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितं महाभूतादिकं व्यक्तं सुख-दुःखनिमित्तं भवति, प्रचेतनत्वात् , कार्यत्वात् , विनाशित्वात् , रूपादिमत्त्वात् , वास्यादिवत् / [ न्या० वा० 4-1-21 ] इति / अथ भवत्वस्माद्धेतुकदम्बकादीश्वरस्य सर्वजगद्धेतुत्वसिद्धिः, सर्वज्ञत्वं तु कथं तस्य सिद्धम् येनासौ निश्रेयसाभ्युदयकामानां भक्तिविषयतां यायात् ? ( चाहे वह चेतन हो या अचेतन ), चेतनात्मा से अधिष्ठित होकर ही अपने कार्य को जन्म देते हैंऐसी हम प्रतिज्ञा करते हैं, क्योंकि वे रूपादिवाले हैं / जो जो रूपादिवाले होते हैं वे सब चेतनाधिष्ठित होकर ही अपने कार्य को उत्पन्न करते हैं, जैसे तन्तु आदि / शरीर-भुवन-करणादि के उपादान कारण भी यतः रूपादिवाले ही हैं, अतः चेतनाधिष्ठित होने पर ही अपने कार्य को उत्पन्न कर सकते हैं / शरीर-भुवन-करणादि के उपादान का जो भी चेतन अधिष्ठाता सिद्ध होगा वही भगवान् ईश्वर है।" यह अविद्धकर्ण कथित दूसरा प्रमाण हुआ। [उद्योतकर और प्रशस्त मति के अनुमान ] उद्द्योतकर भी एक प्रमाण देता है-भुवन के हेतुभूत प्रधान, परमाणु और अदृष्ट ये सभी अपने कार्य के उत्पादन में सातिशयबुद्धिवाले अधिष्ठाता की आशा करते हैं, क्योंकि मिलकर प्रवृत्ति करते हैं जैसे तन्तु-तुरी आदि। प्रशस्तमति कहता है- सृष्टि के प्रारम्भ में पुरुषों का व्यवहार दूसरे किसी के उपदेशपूर्वक था क्योंकि, तदनन्तर प्रबुद्ध होकर ( जो व्यवहार करते हैं वह ) प्रत्येक अर्थ के प्रति नियत होता है, जैसे: जिनको वाणीव्यवहार नहीं आता है उन कुमारों का धेनु आदि प्रत्येक अर्थ में नियत वाणीव्यवहार उनकी माता के उपदेशपूर्वक होता है। यहां ग्रन्थ में 'प्रबुद्धानां प्रत्यर्थनियतत्वात्' यह कहा है उसका अर्थ है जब प्रबुद्ध होते हैं तब उनका व्यवहार प्रत्येक अर्थ में नियत होता है। प्रस्तुत में सृष्टि के प्रारम्भ में जिसके उपदेश से व्यवहार प्रयुक्त होगा वही ईश्वर है और सृष्टि के पूर्व प्रलय काल में भी उसका ज्ञानातिशय अविलुप्त था यह सिद्ध होता है / - उद्द्योतकर ओर भी ईश्वरसिद्धि में चार प्रमाणों का उपन्यास करता है-महाभूतादि व्यक्त पदार्थ बुद्धिमत्कारण से पूर्वाधिष्ठित होकर ही सुख-दु:ख के निमित्त बनते हैं, क्योंकि (1) वे स्वयं अचेतन हैं, (2) कार्यरूप हैं, (3) विनाशी हैं (4) रूपादिवाले हैं। जैसे कुठारादि / [ सर्वज्ञता के विना भक्ति का पात्र कैसे ?] प्रश्नः-आपने जो हेतु वृद दिया, उन से ईश्वर में समग्रजगत् की हेतुता सिद्ध होती है ऐसा मान ले तो भी उस में सर्वज्ञत्व कैसे सिद्ध हुआ जिससे कि वह मुमुक्षुओं और आबादी इच्छनेवालों की भक्ति का पात्र बने ? Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 413 जगत्कर्तृत्वसिद्धरेवेति ब्रमः / तथा चाहुः प्रशस्तमतिप्रभृतयः-“कर्तुः कार्योपादानोपकरणप्रयोजनसम्प्रदानपरिज्ञानात्" / इह हि यो यस्य कर्ता भवति स तस्योपादानानि जानीते, यथा कुलाल: कुण्डादीनां कर्ता, तदुपादानं मत्पिण्डम् , उपकरणानि चक्कादीनि, प्रयोजनमुद काहरणादि, कुटुम्बिनं च सम्प्रदानं जानीत इत्येतत् सिद्धम् , तथेश्वरः सकलभवनानां कर्ता, स तदुपादानानि परमाण्वादिलक्षणानि, तदुपकरणानि धर्म-दिक-कालादीनि, व्यवहारोपकरणानि सामान्य-विशेष-समवायलक्षणानि, प्रयोजनमुपभोगं. सम्प्रदानसंज्ञकांश्च पुरुषान् जानीत इति, अतः सिद्धमस्य सर्वज्ञत्वमिति / ____अत एव नात्रैतत् प्रेरणीयम्-सर्वज्ञपूर्वकत्वे क्षित्यादीनां साध्ये साध्यविकलो दृष्टान्तः, हेतुश्च विरुद्धः, असर्वज्ञकर्तृ पूर्वकत्वेन कुम्भादेः कार्यस्य व्याप्तिदर्शनात् , किचिज्ज्ञपूर्वकत्वे क्षित्यादिनां साध्येऽभ्युपेतबाधा, कारणमात्रपूर्वकत्वे साध्ये कर्मणा सिद्ध साधनमिति / यतः सामान्येन स्वकार्योपादानोपकरणसम्प्रदानाभिज्ञकर्तृ पूर्वकत्वं साध्यते, तत्र चास्त्येव वस्त्रादिदृष्टान्तः। तस्य ह्य पादानोपकरणाद्यभिज्ञकर्तृ पूर्वकत्वं सकललोकप्रसिद्ध कथमन्यथाकत शक्यतेऽपह्नोतु वा ? न तु कर्मणा सिद्धसाध्यता, तस्य सकलजगल्लक्षणकार्योपादानाद्यनभिज्ञत्वात् , तदभिज्ञत्वे वा तस्यैव भगवतः 'कर्म' इति नामान्तर कृतं स्यात / शेषं त्वत्र चिन्तितमेव / तदेवं सकलदोषरहितादुक्तहेतुकलापाद् ज्ञानाद्यतिशयवद्गुणयुक्तस्य सिद्धेः तस्य च शासनप्रणेतृत्वं नान्येषां योगिनामिति ‘भवजिनानां शासनम्' अयुक्तमुक्तमिति स्थितम्-इति पूर्वपक्षः // उत्तरः-जगत्कर्तृत्व की सिद्धि से ही हम सर्वज्ञता की सिद्धि कहते हैं / जैसे कि प्रशस्तमति आदि ने कहा है-'कर्ता को कार्य के उपादान, उपकरण, प्रयोजन, सम्प्रदान ये सब ज्ञात रहते हैं' इस हेतु से सर्वज्ञता सिद्ध होती है। विश्व में जो जिसका कर्ता होता है वह उसके उपादानादि को जानता होता है, जैसे: कुम्भकार कुण्डादि का कर्ता है तो कुण्ड के मृत्पिडरूप उपादान चक्र-चीवरादि, उपकरण, तत्साध्यकार्यभूत जलाहणादि प्रयोजन तथा उसके उपयोग करने वाले कुटुम्बिजन रूप सम्प्रदान, इन सभी को वह जानता है, यह प्रसिद्ध है। ठीक उसी प्रकार, ईश्वर सकल भुवन का का है तो वह उसके उपादान परमाणु आदि रूप तथा उसके उपकरण धर्म (अदृष्ट)-दिशा-कालादि, तथा सामान्य-विशेष और समवाय रूप व्यवहार प्रयोजक उपकरण, जीवों के भोगोपयोगरूप प्रयोजन तथा सम्प्रदानभूत पुरुषादि सभी को जानता ही होगा, इसलिये वह सर्वज्ञ है यह सिद्ध होता है / [ नैयायिक के पूर्व पक्ष का उपसंहार ] उपादानादिज्ञातृत्वरूप से सर्वज्ञता सिद्ध है इसीलिये यहाँ ऐसे किसी भी विक्षेप को अवसर नहीं है कि.....सर्वज्ञपूर्वकत्व यदि साध्य करेंगे तो दृष्टान्त साध्यशून्य होगा और हेतु भी विरोधी बनेगा; क्योंकि असर्वज्ञकर्तृपूर्वकत्व के साथ कार्यत्व की व्याप्ति कुम्भादि में दृष्ट है। यदि अल्पज्ञपूर्वकत्व साध्य करेंगे तो साध्य ईश्वर में स्वीकृत सर्वज्ञता का बाध होगा। यदि कारणमात्रपूर्वकत्व साध्य करेंगे तो कर्म (अदृष्ट) से ही सिद्धसाधन है। इत्यादि....ऐसे किसी भी विक्षेप को अब इसलिये अवसर नहीं है कि जब हम कार्यत्व हेतु से सामान्यतः स्वकार्य-उपकरण-(प्रयोजन)-संप्रदानाभिज्ञकर्तृ पूर्वकत्व को साध्य करते हैं तो दृष्टान्तभूत वस्त्रादि साध्यशून्य नहीं है / वस्त्रादि की उत्पत्ति उपादान-उपकरणादि को जानने वाले कर्ता से होती है वह तो सर्वलोक में प्रसिद्ध है, इस स्थिति को कैसे पलटायी जा सकती है या उसका अपलाप भी कैसे हो सकता है ? कर्म ( अदृष्ट ) से भी Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अत्र प्रतिविधीयते / यत् तावदुक्तम्-'सामान्यतोदृष्टानुमानस्य तत्र व्यापाराभ्युपगमात् प्रत्यक्षपूर्वकानुमाननिषेधे सिद्धसाधनम्' इति, तदसंगतम्-सामान्यतोदृष्टानुमानस्यापि तत्साधकत्वेनाऽप्रवृत्तेः / तथाहि, तनु-भवन-करणादिकं बुद्धिमत्कारणपूर्वकम् , कार्यत्वात् , घटादिवत्-इत्यत्र धर्यसिद्धराश्रयासिद्धस्तावत् कार्यत्वलक्षणो हेतुः / तथाहि-प्रवयविरूपं तावत् तन्वादि अवभासमानतनु न युक्तम् , देशादिभिन्नस्य तन्वादेः स्थूलस्यैकस्याऽनुपपत्तेः / न ह्यनेकदेशादिगतमेकं भवितुं युक्तम् , विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदलक्षणत्वात् , देशादिभेदस्य च विरुद्धधर्मरूपत्वात् / तथाप्यभेदे सर्वत्र भिन्नत्वेनाभ्युपगते घटपटादावपि भेदोपरतिप्रसंगात् / नहि भिन्नत्वेनाभ्युपगते तत्राप्यन्यद् भेदनिबन्धनमुत्पश्यामः / 'प्रतिभासभेदात्तत्र भेद' इति चेत् ? न, विरुद्धधर्माध्यासं भेदकमन्तरेण प्रतिभासस्यापि भेदानुपपत्तेः। सिद्धसाध्यता दोष नहीं हो सकता. क्योंकि उसमें समग्रजगतस्वरूप कार्य के उपादानादि की अभिज्ञता सिद्ध नहीं है / यदि ऐसी अभिज्ञता उसमें मान ली जाय, तब तो आपने भगवान का ही 'कर्म' ऐसा नामान्तर कर दिया, तो ईश्वर सर्वज्ञ ही सिद्ध हुआ। प्रतिपक्षीयों की शेष युक्तियों का विचार तो हो चुका है। ___इस प्रकार सर्वदोषशून्य पूर्वोक्त हेतुकलाप से ज्ञानादि सातिशयगुणवाला ईश्वर सिद्ध होने पर उसीको शासनप्रणेता मान लेना उचित है किन्तु अन्य किसी रागादिविजेता योगियों को नहीं / अत: आपने जो कहा है ‘भवविजेताओं का शासन'-वह अयुक्त कहा है. यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार ईश्वरकतृ त्वपूर्वपक्ष पूरा हुआ। [ ईश्वरकर्तृत्वपूर्वपक्ष समाप्त ] [ ईश्वरकर्तृत्ववादसमालोचना] अब ईश्वर में कर्तृत्व का प्रतिषेध किया जाता है पूर्वपक्षी ने जो कहा है-'ईश्वर सिद्धि में हम सामान्यतोदृष्ट अनुमान का ही. सामर्थ्य मानते हैं, अतः प्रतिवादी के 'प्रत्यक्षपूर्वक अनुमान ईश्वरसाधक है नहीं' ऐसे प्रतिपादन में सिद्धसाधन दोष है'- [ पृ० 383 पं० 1 ] वह असंगत है, क्योंकि सामान्यतोदृष्ट अनुमान भी ईश्वर की सिद्धि के लिये नहीं प्रवर्त्त सकता / कारण, आपने जो यह अनुमान कहा है-'देह-भुवन-कारणादि बुद्धिमत्कारणमूलक है क्योंकि कार्य है जैसे घटादि'- इस अनुमान में कार्यत्व हेतु आश्रयासिद्ध है, क्योंकि अवयवी रूप देहादि ही असिद्ध है। [संदर्भ:-अब व्याख्याकार 'तथाहि'....इत्यादि से लेकर अवयविनोऽसिद्धेराश्रयासिद्धो हेतू ... [ पृ० 427 पं० 7 ] यहां तक अवयवी का प्रतिषेध प्रस्तुत करते हैं ] देहादि अवयवी असिद्ध होने से आश्रयासिद्धि ] जैसे देखिये-शरीरादि यदि अवयवोरूप है तो उसके स्वरूप का अवभास हो नहीं सकता। क्योंकि शरीरादि वस्तु हस्त-पादादि देशभेद के कारण भिन्न भिन्न है, अतः एक और स्थूल ऐसा अवयवी मानने में कोइ युक्ति नहीं है / जो वस्तु अनेक देश को व्याप्त कर के रहती है वह एकात्मक नहीं हो सकती। ( जैसे कोई महान् धान्यराशि ) / भेद का लक्षण यानी ज्ञापक चिह्न विरुद्धधर्माध्यास Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वराकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 415 अथ 'अवयवी एको न भवति, धिरुद्धधर्माध्यासितत्वात्' इत्येतत् किं 1 स्वतन्त्रसाधनम् 2 उत प्रसंगसाधनमिति ? न तावत् स्वतन्त्रसाधनं युक्तम् , अवयविनः प्रमाणाऽसिद्धत्वेन हेतोराश्रयासिद्धत्वदोषात् , प्रमाणसिद्धत्वे वा तत्प्रतिपादकप्रमाणबाधितपक्षनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन तस्य कालात्ययापदिष्टत्वदोषदुष्टत्वात / न च परस्यावयवी सिद्ध इति नाश्रयासिद्धत्वदोष इति ववतु युक्तम् , यतः परस्य कि प्रमाणतोऽसौ सिद्ध: b उताप्रमाणत: ? a प्रमाणतश्चेत हि भवतोऽपि कि न सिद्धः, प्रमाणसिद्धस्य सर्वान् प्रत्यविशेषात् ? तथा च तदेव कालात्ययापदिष्टत्वं हेतोः / b अथाऽप्रमाणतस्तदा न परस्यापि सिद्धं इति पुनरप्याश्रयासिद्धत्वम् / तन्न प्रथमः पक्षः / नाऽपि द्वितीयः, यतो व्याप्याभ्युपगमो यत्र व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकः प्रदर्श्यते तत् प्रसंगसाधनम् / न च परस्य भेद-विद्धधर्माध्यासयोाप्य व्यापकभावः सिद्धः, देशादिभेदलक्षणविरुद्धधर्माध्यासाऽभावेऽपि रूप-रसयोर्भेदाभ्युपगमात् / तद्भावेऽपि सामान्यादावभेदस्य प्रमाणसिद्धत्वाद् इति न वक्तव्यम् , है और यहाँ जो एकत्वेन अभिप्रेत अवयवी है उसमें देशादिभेद ही विरुद्धधर्मरूप है, अतः अवयवी एक कैसे हो सकता है ? यदि विरुद्धधर्माध्यास होने पर भी अभेद मानेंगे तब तो जो घट-पटादि वस्तु भिन्न भिन्न ही मानी गयी हैं उनमें भी भेदकथा समाप्त हो जायेगी, अर्थात् घट-पटादि एक हो जायेंगे। भिन्न भिन्न माने गये घट पटादि में देशादिभेद मूलक ही भेद प्रसिद्ध है, और तो कोई भेदसाधक वहां हम नहीं देखते हैं। यदि कहें कि-'घट और पट का प्रतिभास ही भिन्न भिन्न होता है अत: उसीसे वहाँ भेद सिद्ध होगा'-तो यह भी संगत नहीं, क्योंकि विरुद्धधर्माध्यासरूप भेदक के विना तो प्रतिभासों में भी भेद नहीं हो सकता। [अवयवी का विरोध स्वतन्त्रसाधन या प्रसंगसाधन ?] पूर्वपक्षीः-आपने जो कहा कि विरुद्धधर्माध्यास होने से अवयवी एक वस्तु नहीं है-इसके ऊपर प्रश्न है कि 1 यह आपका स्वतन्त्र साधन है या 2 प्रसंगसाधन? अर्थात आप अवयवी में स्व स्वतन्त्ररूप से एकत्वाभाव सिद्ध करना चाहते हैं. या केवल प्रतिवादी को अनिष्ट का आपादन ही करना चाहते हैं ? . 1 स्वतंत्रसाधन तो सम्भव नहीं है क्योंकि जब पक्षभूत अवयवी ही प्रमाण से असिद्ध है तो उसमें एकत्वाभावसाधंक हेतु को आश्रयासिद्धि दोष लगेगा। यदि आप उसको प्रमाणसिद्ध मानते हैं, तब तो अवयवी साधक जो प्रमाण है उसीसे उसमें एकत्व भी सिद्ध है [ क्योंकि अवयवों से अतिरिक्त एक अवयवी की ही प्रमाण से सिद्धि की जाती है ] अत: उससे ही पक्ष में एकत्वाभाव का निर्देश बाधित हो जाने के बाद प्रयुक्त होने वाला हेतु कालात्ययापदिष्ट दोष से दुष्ट बन जायेगा। यदि ऐसा कहें कि-हमारे मत से पक्षभूत अवयवी असिद्ध होने पर भी दूसरे के मत में तो सिद्ध है, अतः आश्रयासिद्धि दोष को अवकाश नहीं रहेगा- तो यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि दूसरे के मत में तो वह a प्रमाणसिद्ध है या b अप्रमाणसिद्ध है ? यदि a प्रमाणसिद्ध है तब तो वह आपके लिये भी सिद्ध हो हुआ / जो प्रमाणसिद्ध होता है वह सभी के लिये किसी भेदभाव के विना सिद्ध ही होता है / अतः हेतु में कालात्ययापदिष्ट दोष तदवस्थ ही रहेगा। b यदि अवयवी अप्रमाणसिद्ध है, तब तो वह दूसरे के मत में भी सिद्ध कसे कहा जाय ? अतः फिर से वही आश्रयासिद्धि दोष को याद करो। तात्पर्य, प्रथम पक्ष तो युक्त नहीं है। 2 दूसरा पक्ष भी अयुक्त है / कारण, प्रसंग साधन का अर्थ है कि जिसमें यह दिखाया जाय कि-व्याप्य के स्वीकार में व्यापक का स्वीकार अनिवार्य है। किन्तु यहाँ प्रतिवादि के पक्ष में भेद और विरुद्धधर्माध्यास में व्याप्य-व्यापक भाव ही सिद्ध नहीं Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 .......... सम्मतिप्रकरण-जयकाण्ड-१ --- यतः प्रथमः पक्षस्तावदनभ्युपगमादेव निरस्तः / प्रसंगसाधनपक्षे तु यद् दूषणमभिहितम्-देशभेदलक्षणविरुद्धधर्माध्यासाभावेऽपि रूप-रसयोर्भेद इति, तद् व्याप्यव्यापकभावाऽपरिज्ञानं सूचयति न पुनयाप्यव्यापकभावाभावम् , यतो देशभेदे सति यद्यभेदः क्कचित् सिद्धः स्यात् तदा व्यापकाभावेऽपि विरुद्धधर्माध्यासस्य भावान्न तस्य तेन व्याप्तिः स्यात् / यदा तु देशाऽभेदेऽपि रूप-रसयो दस्तदा देशभेदो भेदव्यापको न स्यात् , न पुनरेतावता भेदो विरुद्धधर्माध्यासव्यापको न स्यात् / यदि हि भेदव्यावृत्तावपि देशादिभेदो न व्यावर्तेत तदा व्यापकव्यावृत्तावपि व्याप्यस्याऽव्यावृत्तेन भेदेन देशादिविरुद्धधर्माध्यासो व्याप्येत. न चैतत क्वचिदपि सिद्धम। यत्त 'सामान्यादावभेदस्य प्रमाणत: सिद्धर्भेदव्यावत्तावपि न देशादिभेदलक्षणविरुद्धधर्माध्यासस्य निवृत्तिः' इति, तदयुक्तम्-सामान्यादेः प्रमाणतोऽभिन्नरूपस्याऽसिद्धेः। उक्तं च-'यदि विरुद्धधर्माध्यासः पदार्थानां भेदको न स्यात् तदान्यस्य तद्भ दकस्याभावाद् विश्वमेकं स्यात्" / प्रतिभासभेदस्यापि तमन्तरेण भेदव्यवस्थापकस्याऽभावादिति व्याप्यव्यापकभावसिद्धेः कथं न प्रसंगसाधनस्यात्रावकाशः ? ! : है। कारण, देशभेद, कालभेद आदि विरूद्धधर्माध्यास न होने पर भी रूप और रस का भेद प्रतिवादी मानता है। और देशादिभेद सिद्ध होने पर भी जाति आदि में अभेद भी प्रमाणसिद्ध है / अतः प्रसंग साधन भी युक्त नहीं है। ___ उत्तरपक्षीः-ऐसा नहीं कहना चाहिये / [ कारण आगे कहते हैं ] / [अवयवी का विरोध प्रसंगसाधनात्मक है ] कारण यह है कि स्वतंत्रसाधन वाला प्रथम पक्ष तो हमें मान्य न होने से ही परास्त है। दूसरे प्रसंगसाधन पक्ष में जो यह दूषण दिखाया-'देशभेदस्वरूप विरुद्धधर्माध्यास न होने पर भी रूप-रस में भेद है'-इसमें तो आपको व्याप्य-व्यापकभाव की जानकारी नहीं है यही सूचित होता है, व्याप्य-व्यापकभाव का अभाव नहीं। क्योंकि, देशभेद होने पर भी कहीं यदि अभेद सिद्ध होता तब तो यह मानते कि व्यापक (भेद) न होने पर भी विरुद्धधर्माध्यास रहता है अत: भेद के साथ विरुद्धधर्माध्यास की व्याप्ति नहीं है / जब देशभेद न होने पर भी रूप-रस का भेद है तब तो इससे इतना ही फलित होगा कि देशभेद वस्तुभेद का व्यापक नहीं है, किन्तु इससे यह तो फलित नहीं हुआ कि वस्तुभेद विरुद्धधर्माध्यास का (यानी देशभेद का) व्यापक नहीं है ! वह तो तब फलित होता यदि वस्तु की निवृत्ति होने पर भी देशभेद निवृत्त न होता। हाँ ऐसा होता तब तो, व्यापक वस्तुभेद निवत्त होने पर भी व्याप्यरूप से अभिमत देशभेद की निवत्ति न होने से, वस्तुभेद के साथ देशभेदादि विरुद्धमध्यिास की व्याप्ति सिद्ध न होती, किन्तु ऐसा तो कहीं सिद्ध नहीं है कि वस्तुभेद न होने पर भी देशादिभेद रहता हो। पूर्वपक्षीः-ऐसा भी है-घटत्वादि सामान्य में अभेद तो प्रमाण सिद्ध है अत: वस्तुभेद न होने पर भी देशभेद स्वरूप विरुद्धधर्माध्यास तो वहाँ रहता है, उसकी निवृत्ति नहीं है यह पहले कहा है। उत्तरपक्षी:-यह जो कहा है वह गलत है / 'सामान्यादि पदार्थ का अभेद प्रमाणसिद्ध है' यह बात असिद्ध है। कहा भी है "अगर विरुद्धधर्माध्यास पदार्थों का भेदक न होता तो दूसरा कोई भेदक न होने से सारा विश्व एक हो गया होता।" भेद की Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः . 417 अथैकत्वप्रतिभासाद् देशादिभेदेऽपि तन्वादेरेकता। न, देशभेदेन व्यवस्थितानामवयवानां * प्रतिभासभेदेन भेदात् / न ह्ये करूपा भागा भासन्ते, पिण्डस्याणुमात्रताऽऽपत्तेः, तयतिरिक्तस्य चापरस्य तन्वाद्यवयविनो द्रव्यस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलम्भेनाऽसत्त्वात् / न च तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तता परै भ्युपगम्यते / “महत्यनेकद्रव्यवत्त्वात् रूपाच्चोपलब्धिः' [ वै० द०-४-१६ ] इतिवचनात् / तत् सिद्धमनुपलब्धेः 'उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य' इति विशेषणम् / न च मध्यो दिभागव्यतिरिक्तवपुर्षहिमा॑ह्याकारतां बिभ्राणस्तन्वादिद्रव्यात्मा दर्शने चकास्तीत्यनुपलब्धिरपि सिद्धा। ___ न च समानदेशत्वादवयविनोऽवयवेभ्यः पृथगनुपलक्षणमिति वक्तु शक्यम् , समानदेशत्वादिति विकल्पानुपपत्तेः / तथाहि-समानदेशत्वमवयवाऽवयविनो: कि a पारिभाषिकम् , लौकिकं वा? 3 यदि पारिभाषिकम् , तदनुद्घोष्यम् , परिभाषाया अत्रानधिकारात् / न च तत् तत्र भवदभिप्रायेण पूर्वपक्षीः-प्रतिभासभेद ही पदार्थों का भेदक है। उत्तरपक्षीः विरुद्धधर्माध्यास के विना वस्तुभेदव्यवस्थापक प्रतिभासभेद भी नहीं घट सकता, क्योंकि प्रतिभासों का भेद भी विरुद्धधर्माध्यासमूलक ही हो सकता है / अतः विरुद्धधर्माध्यास और भेद में व्याप्य-व्यापकभाव जब इस रीति से सिद्ध होता है तो तन्मूलक प्रसंगसाधन यहाँ लब्धप्रसर क्यों नहीं होगा? - [प्रतिभास भेद से भेदसिद्धि ] पूर्वपक्षीः हस्त-पादादि में देशादिभेद होने पर भी शरीरादि में एकत्व का भान होता है अतः शरीरादि में एकत्व सिद्ध होगा। उत्तरपक्षी:-यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि जो दिखते हैं वे तो अवयव ही हैं और देशभेद से अवस्थित हस्त-पादादि अवयवों का प्रतिभास भी भिन्न भिन्न होता है अत: वहाँ एकता नहीं किन्तु भेद ही सिद्ध होगा / हस्त-पदादि जो अंश भासते हैं वे यदि एकरूप होकर भासेंगे तब तो पूरा पिण्ड केवल अणुमात्र ही प्रसक्त होगा, क्योंकि अन्तिम अवयव तो अणु ही है ओर अवयवान्तर्गत सर्व अणु यदि एकरूप भासंगे तब तो एकाणु का ही भास होगा और जैसा भास हो वैसी वस्तु मानी जाय तब तो पिण्ड भी अणु रूप ही रह जायेगा। अवयवसमूह से भिन्न दूसरा कोई शरीरादि एक अवयवी द्रव्य तो है ही नहीं, क्योंकि यदि उसकी सत्ता मानेंगे तब तो उसे उपलब्धिलक्षणप्राप्त भी मानना होगा और उस अवयवभिन्न अवयवी द्रव्य का उपलम्भ तो होता नहीं। 'अवयवी द्रव्य को प्रतिवादी उपलब्धिलक्षणप्राप्त नहीं मानते हैं' ऐसा तो है नहीं, क्योंकि यह प्रतिपक्षी के शास्त्र का वचन है कि"अनेक द्रव्यवत्ता और रूप होने के कारण महान् वस्तु की उपलब्धि होती है" / वैशेषिकसूत्र में ऐसा कहा गया है / अतः हमने जो कहा है कि-'उपलब्धिलक्षणप्राप्त है फिर भी उसका उपलम्भ नहीं है' इसमें 'उपलब्धिक्षणप्राप्त यह विशेषणाँश उक्त सूत्रवचन से सिद्ध है / अनुपलब्धि भी इस प्रकार सिद्ध है कि-वस्तु के दर्शन में, मध्य-उर्व इत्यादि भागों से भिन्नस्वरूपवाला और बाह्यत्वेन जयाकारता को धारण करने वाला, ऐसा कोई शरीरादि द्रव्यरूप अवयवी स्फुरता नहीं है। [ अवयव-अवयवी की समानदेशता असिद्ध है ] - पूर्वपक्षीः-अवयवों और अवयवी समानदेशवर्ती होने से ही अवयवी का स्वतंत्र उपलम्भ नहीं होता। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 सिद्धम् / तथाहि अन्य एव पाण्यादय आरम्भका देशास्तन्वाद्यवयविनो भवद्भिः परिभाष्यन्ते, अन्ये च पाण्यादीनां तदवयवानामारम्भका देशाः, आरभ्यारम्भकवादनिषेधात् / तन्न पारिभाषिक समानदेशत्वम् / b नापि लौकिकं आकाशस्य लोकप्रसिद्धस्य समानदेशस्याऽस्मान प्रत्यसिद्धत्वात् / प्रकाशादिरूपस्य च देशस्य तत्सिद्धस्य समानत्वेऽपि भिन्नानां व ताऽऽतपादीनां भेदेनोपलब्धः / तथाहि-समानदेशा अपि भावा वाताऽऽतपादयो भिन्नतनवः पृथक् प्रथन्ते; न चैवमवर्यावनिर्भासः / तन्नावयवी तन्वादिभिन्नोऽस्ति / अथ मन्दमन्दप्रकाशे अवयवप्रतिभासमन्तरेणाप्यवयविनि प्रतिभास उपलभ्यते तत्कथं प्रतिभासाभावात् तस्याभावः ? असदेतत् नहि तथाभूतोऽस्पष्टप्रतिभासोऽवयविस्वरूपव्यवस्थापको युत्तः, तत्प्रतिभासस्याऽस्पष्टरूपस्य स्पष्टज्ञानावभासितत्स्वरूपेण विरोधात / अथ स्वरूपद्वयमेतदवयविन:स्पष्टम् अस्पष्टं च / तत्राऽस्पष्टं मन्दालोकज्ञान विषयः, स्पष्टं तु सालोकज्ञानभूमिः / नन्वेतत् स्वरूपद्वयं केनावयविनो गृह्यते ? न तावद् मन्दालोकज्ञानेन, तत्र सालोकज्ञानविषयस्पष्टरूपानवभासनात् , उत्तरपक्षी:-यह कहना शक्य नहीं, क्योंकि 'समान देशवर्ती होने से इसकी विकल्पों से उपपत्ति नहीं होती। जैसे देखिये-अवयव अवयवी की समानदेशता a पारिभाषिक ( अर्थात् स्वतंत्र संकेत वाली ) मानते हो या b लोकप्रसिद्ध ? a अगर पारिभाषिक मानते हो तो उसकी उद्घोषणा यहाँ करने की जरूर नहीं क्योंकि यहाँ स्वतंत्र सांकेतिक वस्तु के विचार का प्रकरण नहीं है / उपरांत, पारिभाषिक समानदेशता भी आपके मत से यहां सिद्ध नहीं है। कारण, पारिभाषिक समानदेशता का अर्थ है दोनों का देश=अधिकरण एक होना, किन्तु न्यायवैशेषिकमत में अवयव-अवयवी का अधिकरण एक नहीं है। हस्त-पादादि अवयवों ही शरीरादि अवयवी का आरम्भक देश है ऐसी न्याय-वैशेषिकों की परिभाषा है, और हस्तपादादि देहावयव के आरम्भक देश भी अलग ही हैं। ऐसा इसलिये है कि न्याय-वैशेषिक मत में आरभ्यारम्भकवाद का निषेध किया है / आशय यह है कि दो अणुवों से वे लोग द्वयणुक की उत्पत्ति मानते हैं, किन्तु उसमें तीसरे अणु के मिलने पर त्र्यणुक की उत्पत्ति नहीं मानते हैं, अर्थात् पूर्व पूर्व कार्य द्रव्य में एक-एक अणु के संयोग से नये नये द्रव्य की उत्पत्ति का निषेध करते हैं / अत: अवयवी के अवयवों को और अवयवों के स्वावयवों को अलग अलग ही मानते हैं / अतः पारिभाषिक समान देशता घट नहीं सकती। लौकिक समानदेशता भी नहीं घट सकती क्योंकि आकाश ही लोक प्रसिद्ध समान देश है जिसको हम मानते ही नहीं है / [ यह बौद्धमत के अनुसार कहा है ] / प्रकाशादि लोकप्रसिद्ध समान देश को लिया जाय तो भी वहाँ पवन और आतप आदि समानदेशवर्ती होने पर भी भिन्न भित्र उपलब्ध होते ही हैं जैसेः पवन और आतप धूमस इत्यादि भाव समान देशवाले होने पर भी स्वतन्त्र वस्तुरूप में ही अलग प्रतीत होते हैं, किन्तु अवयवी का इस प्रकार अलग निर्भास नहीं होता सारांश, शरीरादि कोई स्वतंत्र अवयवी नहीं है। [ अवयवी का स्वतन्त्रप्रतिभास विरोधग्रस्त है ] पूर्वपक्षी:-मन्द मन्द प्रकाश में जब वस्तु के अवयवों का आकलन नहीं हो पाता तब भी 'यह कुछ है' ऐसा अवयवी का प्रतिभास दिखता है, तो क्यों ऐसा माने कि प्रतिभास न होने से अवयवी भी नहीं है ? Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 412 अस्पष्टतत्स्वरूपप्रतिभासं हि तदनुभूयते / नापि सालोकज्ञानेन स्पष्टतत्स्वरूपावभासिना, तत्र मन्दालोकज्ञानावभासितत्स्वरूपानवभासनात् / न हि परिस्फुटप्रतिभासवेलायामविशदरूपाकारोऽवयव्यर्थः प्रतिभाति, तत कथमसाववयविनः स्वरूपम? अथ 'मन्दालोकदृष्टमवयविनः स्वरूपं परिस्फुटमिदानी पश्यामि' इति तयोरेकता। ननु a किमपरिस्फुटरूपतया परिस्फुटरूपमवगम्यते, b आहोस्वित् परिस्फुट तयाऽपरिस्फुटम् ? a तत्र यद्याद्यः पक्ष:, तदाऽपरिस्फुटरूपसम्बन्धित्वमेवावयविनः प्राप्नोति, परिस्फुटस्य रूपस्याऽस्फुटरूपताऽनुप्रवेशेन प्रतिभासनात् / b अथ द्वितीयः पक्षः, तथा सति स्पष्टस्वरूपसम्बन्धित्वमेव, अस्पष्टस्य विशदस्वरूपाऽनुप्रविष्टत्वेन प्रतिभासनात् / तन्न स्वरूपद्वयावगमोऽवयविनः / एकत्वप्रतिभासनं तु प्रतिभासरहितमभिमानमात्र स्पष्टाऽस्पष्टरूपयोः, अन्यथा सालोकज्ञानवद् मन्दालोकज्ञानमपि परिस्फुटप्रतिभासं स्यात् / उत्तरपक्षी-यह प्रश्न गलत है, मन्द प्रकाश मे जो फीका अवभास होता है उसको अवयविस्वरूप का प्रतिष्ठापक मानना अयुक्त है। कारण, अस्पष्टरूप से होने वाले अवयविप्रतिभास को स्पष्टज्ञान में भासित होने वाले अवयविस्वरूप के साथ विरोध होगा। पूर्वपक्षीः-अवयवी के दो स्वरूप हैं-स्पष्ट और अस्पष्ट, इसमें जो अस्पष्ट है वह मन्दप्रकाश से होने वाले ज्ञान का विषय है और स्पष्टरूप है वह पर्याप्त (तीव्र) प्रकाश में होने वाले ज्ञान की आधार भूमि है। उत्तरपक्षीः-अवयवी के ये दो स्वरूप किससे गृहीत होते हैं ? मन्दप्रकाशभाविज्ञान से तो नहीं हो सकते, क्योंकि उसमें तीव्रप्रकाशभाविज्ञान के विषयभूत स्पष्टरूप का अवभास नहीं हो सकता है, मन्दप्रकाशवाले ज्ञान में तो केवल अवयवी के अस्पष्टस्वरूप का अवभास ही अनुभूत होता है / अवयवी के स्पष्टस्वरूप के अवभासक तीव्रप्रकाशवाले ज्ञान से भी अवयवी के दो स्वरूप का प्रतिभास अशक्य है, क्योंकि मन्दप्रकाश वाले ज्ञान में भासित होने वाला अवयवी का अस्पष्ट स्वरूप तीव्रप्रकाशभावि ज्ञान में अवभासित नहीं होता है / जब अवयवी का परिस्फुट स्वरूप भासित होता है उस वक्त अस्पष्टाकार वाला अवयवोभूत पदार्थ भासित नहीं होता है। तो फिर इस अस्पष्टाकार को अवयवी का स्वरूप कसे माना जाय ? [ स्पष्ट-अस्पष्ट स्वरूपद्वय में एकता असिद्ध ] पूर्वपक्षीः-अवयवी के स्वरूपद्वय का ग्राहक ऐसा अनुभव होता है कि- "मन्द प्रकाश में देखे हुए अवयवी को अब मैं स्पष्ट रूप से देख रहा हूँ"। इस अनुभव से उन दोनों का एकत्व सिद्ध होता है। ___ उत्तरपक्षी:-यहाँ दो विकल्प है, a क्या अस्पष्टस्वरूप से स्पष्टरूप का अनुभव होता है ? या b स्पष्टरूप से अस्पष्टस्वरूप का अनुभव होता है ? a यदि प्रथम पक्ष अंगीकार करें, तब तो 'जो जिसरूप से भासमान होता है वह तद्रूप होता है' इस नियमानुसार अस्पष्टरूप से भासमान स्पष्टरूपावयवी अस्पष्टरूपसम्बन्धि ही प्राप्त हुआ, क्योंकि परिस्फुट रूप यदि उसमें है तो भी वह अस्फुटरूप में अनुप्रविष्ट होकर ही भासित होता है, स्वतंत्र नहीं / b यदि दूसरे पक्ष का स्वीकार करें तो अवयवी स्फुटरूप का संबन्धी ही सिद्ध होगा, क्योंकि अस्फुटरूप तो स्फुटरूप में अनुप्रविष्ट Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथालोकभावाऽभावकृतस्तत्र स्पष्टाऽस्पष्टप्रतिभास भेदः / नन्वालोकेनाऽप्यवयविस्वरूपमेवोद्भासनीयम् , तच्चेदविकलं मन्दालोके प्रतिभाति, कथं न तत्र तदवभासकृतः स्पष्टावभासः ? अन्यथा विषयावभासव्यतिरेकेणाऽपि ज्ञानप्रतिभासभेदे न ज्ञानावभासभेदो रूप-रसयोरपि भेदव्यवस्थापक: स्यात / अथावयविस्वरूपमेकमेवोभयत्र प्रतीयते, व्यक्ताव्यक्ताकारौ तु ज्ञानस्यात्मा तदप्यसत् , यतो यदि ज्ञानाकारौ तौ कथमवयविरूपतया प्रतिभातः ? तद्रूपतया च प्रतिभासनादवयव्याकारौं तावभ्युपगन्तव्यौ / न हि व्यक्तरूपतामव्यक्तरूपतां च मुक्त्वाऽवयविस्वरूपमपरमाभाति / तत् तस्यानवभासादभाव एव / व्यक्ताऽव्यक्तैकात्मनश्चावयविनो व्यक्ताऽव्यक्ताकारवद् भेदः / नहि प्रतिभासभेदेऽप्येकता, अतिप्रसंगात् / तन्न अस्पष्टप्रतिभासमन्धकारेऽवयविनो रूपमवयवाःप्रतिभासेऽपि प्रतिभातोति वक्तुयुक्तम् , उक्तदोषप्रसंगाद् / होकर ही भासित होगा। इस प्रकार दोनों पक्ष में अवयवी का किसी एक रूप ही प्रमाणित होता है अतः अवयवी के दोनों स्वरूप का अनुभव असिद्ध है। आपने जो दोनों स्वरूप के एकत्व का अनुभव दिखाया वह प्रतिभासशून्य, ( स्पष्ट और अस्पष्ट रूप का ) केवल अभिमान ही है / यदि अभिमान न होकर वहाँ सच्चा अनुभव होता तब तो तीव्रप्रकाशभाविज्ञान के जैसे मन्दप्रकाशभाविज्ञान भी स्पष्टरूप के प्रतिभास वाला हो जाता। [ अथवा मन्दप्रकाशभाविज्ञान के जैसे तीव्रप्रकाशभाविज्ञान भी अस्पष्टरूप के प्रतिभासवाला हो जाता।] [प्रतिभासभेद विषयभेदमूलक ही होता है ] पूर्वपक्षीः अवयवी एक होने पर भी आलोक के होने पर स्पष्ट, और आलोक के न होने पर अस्पष्ट, इस रीति से भिन्न भिन्न प्रतिभास हो सकता है। उत्तरपक्षी:-जब अवयवी एक है और प्रकाश से उसके स्वरूप का ही उद्भासन करना है तो वही परिपूर्णस्वरूप मन्द आलोक में भी स्फुरित होता है, तब मन्दालोकभाविज्ञान से उसका स्पष्ट प्रतिभास क्यों नहीं होगा ? यदि विषयावभास के विना भी ज्ञान में अवभासभेद शक्य होगा तब तो ज्ञान में अवभासभेद से जो रूप और रस का भेद स्थापित किया जाता है वह नहीं होगा। पर्वपक्षी:-अवयवी तो दोनों ( मन्द-तीव्रप्रकाशभावि ) ज्ञानों में एक ही स्वरूपवाला भासित होता है / तब जो व्यक्त अथवा अव्यक्त ( = अस्पष्ट) आकार भासित होता है वह विषयगत नहीं है किन्तु ज्ञानात्मक ही है। उत्तरपक्षी.-यह भी जूठा है / कारण, यदि वे दोनों आकार ज्ञान के हैं तो फिर विषयभूत अवयवीरूप से क्यों भासते हैं ? जब कि वे अवयविरूप से भासते हैं तब तो अवयवी के ही वे आकार मानने पड़ेंगे, क्योंकि व्यक्तरूपता और अव्यक्तरूपता को छोडकर तीसरा तो कोई अवयवीस्वरूप भासित होने का आप मानते नहीं है / तात्पर्य यह हुआ कि दृश्यमान पदार्थ व्यक्त या अव्यक्त भासता है किन्तु अवयवीरूप से तो नहीं भासता है अत: अवयवी का अभाव ही प्रसक्त हुआ। यदि उस अवयवी को व्यक्ताव्यक्तउभयस्वरूप मान लेंगे तब तो जैसे व्यक्त अव्यक्त आकारों में भेद प्रसिद्ध है वैसे तदाकार अवयवी में भी भेद ही प्रसक्त होगा, तो एक अवयवी कैसे सिद्ध होगा? प्रतिभास भिन्न भिन्न होने पर भी वस्तु को 'एक' मानेंगे तब तो रूप-रस के भेद की कथा समाप्त हो जायेगी। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 421 किं च, a कतिपयावयवप्रतिभासे सति अवयवी प्रतिभातीत्यभ्युपगम्यते, b आहोस्वित् समस्तावयवप्रतिभासे ? a यद्याद्यः पक्षः, स न युक्तः, जलमग्नमहाकायस्तम्भादेरुपरितनकतिपयावयवप्रतिभासेऽपि समस्तावयवव्यापिनः स्तम्भाद्यवयविनोऽप्रतिमासनात / b अथ द्वितीयः पक्षः, सोऽपि न युक्तः, मध्य-परभागवत्तिसमस्तावयवप्रतिभासाऽसम्भवेनावयविनोऽप्रतिभासप्रसंगात् / अथ भूयोऽवयवग्रहणे सत्यवयवी गृह्यते इत्यभ्युपगमः, सोऽपि न युक्तः, यतोऽग्भिागभाव्यवयवग्राहिणा प्रत्यक्षण परभागभाव्यवयवाऽग्रहणाद् न तेन तद्व्याप्तिरवयविनो ग्रहीतु शक्या, व्याप्याऽग्रहणे तेन तद्व्यापकत्वस्यापि ग्रहीतुमशक्तेः, ग्रहणे वाऽतिप्रसंगः / तथाहि यद येन रूपेण अवभाति तत्तेनैव रूपेण सदिति व्यवहारोवषयः-यथा नीलं नीलरूपतया प्रतिभासमानं तेनैव रूपेण तद्विषयः, अग्भिागभाव्यवयवसम्बन्धितया चाऽवयवी प्रतिभातीति स्वभावहेतः। न च परभागभाविव्यवहितावयवाऽप्रतिभासनेऽप्यव्यवहितोऽवयवी प्रतिभातीति वक्तु शक्यम् , तदप्रतिभासने तद्गतत्वेनाऽप्रतिभासनात् / यस्मिंश्च प्रतिभासमाने यद् रूपं न प्रतिभाति, तत् ततो भिन्नम्-यथा घटे भासमानेऽप्रतिभासमानं पटस्वरूपमान प्रतिभाति चार्वाग्भागभाव्यवयवसम्बन्ध्यवय निष्कर्ष:-'अन्धकार में अवयवों का प्रतिभास न होने पर भी अवयवी का अस्पष्टावभासवाला रूप भासता है'-ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि इसमें अनेक दोष आते हैं जो ऊपर कहे हैं / [ अवयवी के प्रतिभास की दो विकल्प से अनुपपत्ति ] दूसरी बात यह है कि-a कुछ अवयवों का प्रतिभास होने पर अवयवी भासित होने का माना जाता है या b सभी अवयवों का प्रतिभास होने पर? a यदि प्रथम पक्ष माना जाय तो वह अयुक्त है। कारण, जलान्तर्गत विशाल स्तम्भादि का जब कुछ ही ऊपर का भाग दिखता है, उस वक्त भी समस्तावयवों में व्यापक एक स्तम्भादि अवयवी का अनुभव नहीं होता है। यदि दूसरा पक्ष माना जाय तो वह भी अयुक्त है क्योंकि वस्तु के मध्यभागवर्ती एवं पृष्ठभागवर्ती अवयवों का प्रतिभास सम्भव ही नहीं, तब अवयवी का प्रतिभास ही नहीं होगा। पूर्वपक्षीः-हम मानते हैं कि जब बहुत अवयवों का अनुभव होता है तब अवयवी भासित होता है, न तो अल्प और न तो सर्व / उत्तरपक्षी -यह भी ठीक नहीं है / कारण, सम्मुखभागवर्ती अवयवों के ग्राहक प्रत्यक्ष से पृष्ठभागवर्ती अवयवों का ग्रहण न होने से, उस प्रत्यक्ष से 'पृष्ठभागवर्ती अवयवों में भी यह अवयवी व्याप्त है' ऐसी व्याप्ति का ग्रहण शक्य नहीं है / जब व्याप्यभूत अवयवों का ग्रहण नहीं है तब उन में व्याप्त होकर रहने वाले अवयवी का व्यापकत्वरूप से ग्रहण हो नहीं सकता, यदि होगा तो फिर सर्वत्र अतिप्रसंग होगा / वह इस प्रकार-जो जिसरूप से भासित होता है वह उसी रूप से सत् व्यवहार का विषय बन सकता है, जैसे नील वस्तु नीलरूप से भासित होती है तो नीलरूप से ही उसके सत् होने का व्यवहार होता है / यहाँ भी अवयवी सम्मुखभागवर्ती अवयवों के सम्बन्धीरूप से ही प्रतिभास का विषय बनता है / तथाविध प्रतिभासविषयत्व यह अवयवी का स्वभाव हेतु बनकर केवल अग्रभागवृत्तिरूप से ही सत्व्यवहारविषयत्व को सिद्ध करेगा। अन्यथा नील का भी नीलेतररूप से सत्व्यवहार होने का अतिप्रसंग आ सकता है। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 र विस्वरूपे प्रतिभासमाने परभागभाव्यवयवसम्बन्ध्यवयविस्वरूपम् , इति कथं न तत् ततो भिन्नम् ? तथाऽप्यभेदेऽतिप्रसंगः प्रतिपादितः / नापि परभागभाव्यवयवाऽवयविग्राहिणा प्रत्यक्षेणार्वाग्भागभाव्यवयवसम्बन्धित्वं तस्य गृह्यते, तत्र तदवयंवानां प्रतिभासात् तत्सम्बन्ध्येवावयविस्वरूपं प्रतिभासेत नाऽर्वाग्भागभाव्यवयवसम्बन्धि, तेषां तत्राऽप्रतिभासनात् / तदप्रतिभासने च तत्सम्बन्धिरूपस्याऽप्यप्रतिभासनात, व्याप्याऽप्रतिपत्ती तदव्यापकत्वस्याप्यप्रतिपत्तेः। नापि स्मरणेन अर्वाक परभागभाव्यवयवसम्बन्ध्यवयविस्वरूपग्रहः, प्रत्यक्षानुसारेण स्मरणस्य प्रवृत्त्युपपत्तेः, प्रत्यक्षस्य च तद्ग्राहकत्वनिषेधात / नाप्यात्मा अर्वाक्परभागावयवव्यापित्वमवयविनो ग्रहीतु समर्थः- सत्तामात्रेण तस्य तद्ग्राहकत्वानुपपत्तेः, अन्यथा स्वाप-मद-मूर्छाद्यवस्थास्वपि तत्प्रतिपत्तिप्रसंगात-किन्तु दर्शनसहायः, तच्च दर्शनं न अवय विनोऽवयवव्याप्तिग्राहकं प्रत्यक्षादिकं सम्भवतीति प्रतिपादितम् / [अग्र-पृष्ठभागवत्ती अवयवी का प्रतिभास अशक्य ] पूर्वपक्षीः-पृष्ठभागवर्ती अर्थात् व्यवहित अवयवों का प्रतिभास न होने पर भी अवयवी अव्यवहित होने से भासता है। उतरपक्षी:-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि जब पृष्ठभागवर्ती अवयवों का ही भास नहीं होता तो तद्गत अवयवी का अवभास भी कैसे होगा? जिस रूप का, अन्य किसी के अवभास होने पर भी अनुभव नहीं होता वह उससे भिन्न होता है / जैसे: घट भासता है तब उससे भिन्न पट भासित नहीं होता / अग्रभागवर्ती अवयवों से सम्बद्ध अवयवी जब भासता है तब पृष्ठभागवर्ती अवयवों से सम्बद्ध अवयवी का स्वरूप नहीं भासता है, तो वह उससे भिन्न क्यों नहीं होगा? उपरोक्त नियम को तोड कर आप यदि अभेद मानेंगे तो घट भी पट से भिन्न नहीं होगा यह अतिप्रसंग उक्तप्रायः ही है। पष्ठभागवर्ती अवयवों से सम्बद्ध अवयवी के ग्राहक प्रत्यक्ष से अग्रभागवर्ती अवयवों से सम्बद्ध अवयवी का ग्रहण भी नहीं हो सकता / कारण, उस प्रत्यक्ष में पृष्टभाग के अवयव ही भासते हैं अतः उनसे सम्बद्ध अवयवी का स्वरूप ही भास सकता है, किन्तु पृष्ठभागवाला अवयवी नहीं भास सकता क्योंकि उसके अवयव उस प्रत्यक्ष में भासित नहीं होते। जब वे पृष्ठभाग के अवयव ही भासित नहीं होते तो उनसे सम्बद्ध अवयवी का रूप भी भास नहीं सकता क्योंकि अवयवी से व्याप्त अवयवों का भास न होने पर उन अवयवों में व्यापकीभूत अवयवी का तद् व्यापकत्वरूप से भास शक्य नहीं है। [स्मरण से अवयवी का ग्रहण अशक्य ] पूर्वपक्षी:-प्रत्यक्ष को छोड़ दो, स्मरण से अग्र-पृष्ठभागवर्ती अवयवों से सम्बद्ध संपूर्ण अवयवी. स्वरूप का ग्रहण होगा। उत्तरपक्षी:- यह भी अशक्य है, क्योंकि स्मरण की प्रवृत्ति तो पूर्वानुभूत प्रत्यक्षानुसारो ही हो सकती है, प्रत्यक्ष से तो वैसे अवयवी स्वरूप गृहीत नहीं है यह तो अभी ही कह आये हैं। पूर्वपक्षीः-स्मरण को छोड दो, आत्मा ही अग्र-पृष्ठभाग के अवयवों में व्यापकीभूत अवयवी का ग्रहण कर सकेगा। उत्तरपक्षी:-यह भी शक्य नहीं, क्योंकि अपनी सत्ता के ही प्रभाव से आत्मा अवयवी का ग्राहक नहीं बन सकता, अन्यथा सुषुप्ति, नशा और मूर्छा इत्यादि दशा में भी सत्ता अखंडित होने Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उ० .. 423 ___ अथ अर्वाग्भागदर्शने सत्युत्तरकालं परभागदर्शनेऽनन्तरस्मरणसहकारीन्द्रियजनितं स एवायम्' इति प्रत्यभिज्ञाज्ञानमध्यक्षमवयविनः पूर्वापरावयवव्याप्तिग्राहकम् , तदयुक्तम्-प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्यैतद्विषयस्य प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः। अक्षानुसारि हि प्रत्यक्षम् , न चाक्षाणामर्वाक्-परभागभाव्यवयवग्रहणे व्यापारः सम्भवति, व्यवहिते तेषां व्यापाराऽसम्भवात् , सम्भवे वाऽतिव्यवहितेऽपि मेरुपृष्ठादौ व्यापारः स्यात् / तन्न तदनुसारिणोऽध्यक्षरूपस्य प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्य तत्र व्यापारः / न च स्मरणसहायस्या. पोन्द्रियस्याऽविषये व्यापारः सम्भवति / यद् यस्याऽविषयः न तत्तत्र स्मरणसहायमपि प्रवर्तते यथा परिमलस्मरणसहायमपि लोचनं गन्धादौ / अविषयश्च व्यवहितोऽक्षाणां परभागभाव्यवयवसम्बन्धित्वलक्षणोऽवयविनः स्वभाव इति नाक्षजस्य प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्यावयविस्वरूपग्राहकत्वम् / न च स एवायम्' इति प्रतीतिरेका, 'सः' इति स्मृतेः रूपम् 'अयम्' इति तु दृशः स्वरूपम् / तत् परोक्षाऽपरोक्षाकारत्वाद् नैकस्वभावावेतौ प्रत्ययौ। अथ ‘स एवायम्' इत्येकाधिकरणतया एतौ प्रतिभात इत्येकं प्रत्यभिज्ञाज्ञानम् / न, आकारभेदे सति दर्शन-स्मरणयोरिव सामानाधिकरण्याध्यवसायेऽप्येकत्वानुपपत्तेः / अन्यत्राप्याकारभेद एव भेदः, स चात्रापि विद्यत इति कथमेकत्वम् ? किं च, 'सः' इत्याकारः 'अयम्' इत्याकारानुप्रवेशेन प्रतिभाति आहोस्विद् अननुप्रवेशेनेति ? यदि अनुप्रवेशेन, से आत्मा अवयवी का ग्राहक बन बैठेगा / दर्शन की सहायता से ही आत्मा किसी का भी ग्राहक बन सकता है, वह दर्शन यहाँ कोई भी प्रत्यक्षादि-प्रमाणरूप होने का सम्भव नहीं है जिससे कि अवयवों में अवयवी की व्याप्ति का ग्रह हो-यह तो कह चुके हैं। [प्रत्यभिज्ञा ज्ञान से अवयवी की सिद्धि अशक्य ] पूर्वपक्ष:-अग्रभाग को देखने के बाद, उत्तरकाल में पृष्ठभाग का दर्शन होने पर तदनन्तरभाविस्मरणसहकृतइन्द्रिय से जन्य 'यह वही है' ऐसा प्रत्यभिज्ञासंज्ञक प्रत्यक्षज्ञान अवयवी की अग्रपृष्ठभाग में व्याप्ति को ग्रहण करेगा। . उत्तरपक्षीः- यह कथन अयुक्त है, क्योंकि व्याप्तिविषयक प्रत्यभिज्ञाज्ञान प्रत्यक्षरूप नहीं घट सकता / प्रत्यक्ष तो इन्द्रियानुसारी होता है, अग्र-पृष्ठभागवर्ती अवयवों के ग्रहण में इन्द्रियों का व्यापार ही सम्भव नहीं है, क्योंकि व्यवहित वस्तु के ग्रहण में इन्द्रियों का व्यापार असम्भव है। यदि वैसा सम्भव होता तब तो अतिशय व्यवहित मेरु के पृष्ठ देशादि के ग्रहण में भी इन्द्रियाँ सक्रिय बन जायेगी / तात्पर्य, इन्द्रियानुसारी प्रत्यक्षात्मक प्रत्यभिज्ञा ज्ञान का व्यवहित अवयवी के ग्रहण में सामर्थ्य नहीं है। जो अपना विषय नहीं है उसमें स्मरण की सहायता से भी इन्द्रियों का व्यापार सम्भव नहीं है। जो जिस का विषय ही नहीं उसमें वह स्मरण की सहायता से भी प्रवृत्ति नहीं कर सकता, जैसेः परिमल के स्मरण की सहायता से भी नेत्रेन्द्रिय गन्धादि के ग्रहण में प्रवृत्त नहीं होती। पृष्ठभागवर्तीअवयवों से सम्बद्धता रूप अवयवि का स्वभाव व्यवहित होने से इन्द्रियों का विषय नहीं है, अत: स्मरणसहकृत इन्द्रियजन्य प्रत्यभिज्ञा ज्ञान अवयवी के स्वरूप का ग्राहक नहीं हो सकता। [ ‘स एव अयम्' यह प्रतीति एक नहीं है ] दूसरी बात, स एवायम्-यह वही है' यह प्रत्यभिज्ञा कोई एकज्ञानरूप नहीं है, 'सः' ऐसा उल्लेख स्मृति का रूप है और 'अयम्' यह उल्लेख दर्शन का स्वरूप है / एक परोक्ष है और दूसरा Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ 'सः' इत्याकारस्य 'अयम्' इत्याकारेऽनुप्रविष्टत्वादभाव इति 'अयम्' इत्याकार एव केवल प्राप्त इति कुतः 'सोऽयम्' इत्येका प्रत्यभिज्ञा ? अथ 'अयम्' इत्याकारः सः' इत्येतस्मिन्ननुप्रविष्टस्तदा सः' इत्येव प्राप्तो न 'अयम्' इत्यपि, इति कथमेका प्रत्यभिज्ञा ? अथ ‘स एव'-'अयम्' इत्याकारौ परस्पराऽननुप्रविष्टौ प्रतिभातः तथापि भिन्नाकारौ भिन्नविषयौ च द्वौ प्रत्ययाविति कथमेकार्था एका प्रत्यभिज्ञा प्रतिभासभेदस्य विषयभेदव्यवस्थापकत्वात ? न च प्रतिभासभेदेऽपि विषयाऽभेदः, प्रतिभासाऽभेदव्यतिरेकेण विषयाऽभेदव्यवस्थायां प्रमाणं विना प्रमेयाभ्युपगमः स्यात् , तथा च सर्व सर्वस्य सिध्येत् / तन्न प्रत्यभिज्ञातोऽप्यवयव्येकत्वग्रहः / अनुमानस्य च अवयविस्वरूपग्राहकस्य प्रत्यक्षनिषेधे तत्पूर्वकस्य निषेधः कृत एव / सामान्यतोदृष्टस्य चावयविप्रतिषेधप्रस्तावे निषेधो विधास्यत इत्यास्तां तावत् / अथ 'एको घटः' इति द्रव्यप्रतीतिरस्ति तदवयवव्यतिरेकिणी तत् कथमभावोऽवयविनः ? न, घटावसायेऽपि तदवयवाध्यवसायः नामोल्लेखश्चाध्यवसोयते नावयवि द्रव्यम् , वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यस्य तद्रूपस्य केनचिदप्यननुभवात् / वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यं चा(?ना) वयविस्वरूपमभ्युपगभ्यते / न च अपरोक्ष है, परोक्षापरोक्ष आकार परस्पर विरुद्ध होने से ये दो ज्ञान एकस्वभाववाले नहीं हो सकते / (यद्यपि एक प्रत्यभिज्ञाज्ञान का पहले समर्थन किया है, तथापि यहाँ एकान्तभित एकत्व का निराकरण करने हेतु बौद्धमत का समर्थन किया जा रहा है) पूर्वपक्षीः- ‘स एवाऽयम्' इस प्रतोति में तदाकार (सः) और इदमाकार (अयम् ) दोनों एक ही अधिकरण के धर्म हो ऐसा अवबोध होता है अतः ये एक ही प्रत्यभिज्ञारूप ज्ञान को सिद्ध करते हैं। ____ उत्तरपक्षी:-एकाधिकरणता का अध्यवसाय होने पर भी दूसरी ओर आकारभेद स्पष्ट होने से प्रत्यभिज्ञा में एकत्व नहीं घट सकता, जैसे कि पृथक् पृथक् होने वाले दर्शन और स्मरण ये दो ज्ञान एकरूप नहीं होते / दूसरी जगह भी आकारभेद से ही वस्तुभेद को माना जाता है, यदि वह आकारभेद प्रत्यभिज्ञा में भी मौजूद है तो उसका एकत्व कैसे हो सकता है ? तदुपरांत, a 'सः' ऐसा आकार 'अयम्' ऐसे आकार में अनुप्रविष्ट-मम्मिलित हो कर भासता ? b या अनुप्रविष्ट हुए विना ही ? a यदि अनुप्रविष्ट हो कर भासता है तब तो 'सः' ऐसा आकार 'अयम्' आकार में विलीन हो जोने से शून्य ही हो गया, शेष केवल 'अयम्' ऐसा ही आकार बचा तो फिर 'सोऽयम्' ऐसी प्रत्यभिज्ञा एक कैसे होगी ? अथवा, 'अयम्' ऐसा आकार 'स:' ऐसे आकार में विलीन हो गया तो केवल ‘सः' ऐसा आकार ही शेष बचा, 'अयम्' आकार तो नहीं बचा, फिर प्रत्यभिज्ञा एक कैसे ? b यदि दूसरे पक्ष में कहा जाय कि-'स एव' और 'अयम्' ये दोनों आकार अन्योन्य अमिलितरूप में ही भासित होते हैं तो भी यह प्रश्न तो रहेगा कि जब दो ज्ञान के भिन्न भिन्न ही आकार और विषय हैं तब प्रत्यभिज्ञा एक और समानविषयक कैसे हो सकती है, जब कि विषय- . भेद का व्यवस्थापक प्रतिभासभेद मौजूद है ? प्रतिभास भिन्न होने पर भी विषय का भेद न हो ऐसा नहीं हो सकता / यदि प्रतिभास का अभेद न होने पर भी विषयों के अभेद का अंगीकार करेंगे तब तो उसका मतलब यह हुआ कि प्रमाण के अभाव में भी प्रमेय माना जा सकता है, फिर तो सभी के लिये सब कुछ सिद्ध हो जायेगा। निष्कर्ष : - प्रत्यभिज्ञा स्वयं एकज्ञानात्मक न होने से, उससे अवयवी के एकत्व का ग्रहण शक्य नहीं है / Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उ०पक्षः 425 तेन रूपेण कल्पनाज्ञानेऽपि तत प्रतिभाति. न चान्याकारः प्रतिभासोऽन्याकारस्य वस्तस्वरूपस्य व्यवस्थापकः, अन्यथा नीलप्रतिभासः पीतस्य व्यवस्थापकः स्यादिति न वस्तुव्यवस्था स्यात् / तस्माद न कल्पनोल्लिख्यमानवपुरप्यवयवी बहिरस्ति, केवलमनादिरयमेकव्यवहारो मिथ्यार्थः / न च व्यवहारमात्राद् बहिरेक वस्तु सिध्यति, 'नीलादीनां स्वभावः' इत्यत्रापि व्यवहाराभेदादेकताप्राप्तेः स्वभावस्य। अथ तत्र प्रतिनीलादिस्वभावं दर्शनभेदादेकत्वं बाध्यत इहापि तहि वहीरूपस्योधिोमध्यादिनिर्भासस्य भेदादेकता तन्वादीनां प्रतिदलतु / तन्नावयविरूपो बाह्योऽर्थोऽस्ति / अथ "अवयविनोऽभावे तदवयवानामपि पाण्यादीनां दिग्भेदादिविरुद्धधर्माध्यासाद भेदः, तदवयवानामप्यंगुल्यादीनां तत एव भेदात् तावत् भेदो यावत् परमाणवः, तेषां च स्थूलप्रतिभासविषय जब एक अवयवी स्वरूप के ग्राहकरूप में प्रत्यक्ष निषिद्ध हो गया तो प्रत्यक्षमूलक प्रवृत्त होने वाले अनुमान का तो निषेध हो ही जाता है। रह जाती है सामान्यतोदृष्ट अनुमान की बात, वह भी अवयवी के प्रति 1ध के प्रकरण में निषिद्ध हो जायगा, यहाँ अब रहने दो। [ ‘एको घटः' प्रतीति से स्थूल द्रव्य की सिद्धि अशक्य ] पूर्वपक्षी:-'एको घट:=एक घट है' ऐसी, उसके अवयवों से भिन्नता का उल्लेख करती हुयी घटादि द्रव्य की प्रतीति सभी को होती है फिर अवयवी का अभाव कैसे ? उत्तरपक्षीः-घट विषयक बोध में भी द्रव्य के अवयवों का अध्यवसाय और उसके नाम का ('घट' आदि का) उल्लेख ही अनुभव में आता है, तद्भिन्न कोई अवयवी द्रव्य का स्वतन्त्रानुभव नहीं होता / जब भी घट पटादि द्रव्य का बाध होता है तब उसका वर्णाकृति-अक्षराकार से शून्य द्रव्य के किसी भी रूप का किसी को भी अनुभव नहीं होता। आप अवयवी के स्वरूप को वर्णाकृति-अक्षराकार से शून्य मानते हो / उक्त आकारों से शून्य केवल अवयवित्वरूप से कल्पनात्मक ज्ञान में भी अवयवी स्फुरित नहीं होता / एक आकार वाला प्रतिभास किसी अन्य आकार वाली वस्तु के स्वरूप की व्यवस्था नहीं कर सकता / यदि ऐसा हो सकता तब तो नील प्रतिभास भी पीतवस्तु का व्यव'स्थापक बन सकेगा। फिर कोई नियत रूप से वस्तु की व्यवस्था ही न हो सकेगी। निष्कर्ष यही आया कि कदाचित् कल्पना से अवयवी का उल्लेख किया भी जाय फिर भी वैसा अवयवी बाहर तो नहीं है / तब जो अनादि काल से 'एक घट है' ऐसा एकत्व का व्यवहार चला आता है वह अर्थशून्य यानी मिथ्या है / केवल व्यवहार के बल से बाह्य लोक में किसी वस्तु की सिद्धि नहीं हो जाती। व्यवहार तो 'नीलादि का स्वभाव' इस प्रकार भी होता है, यहाँ नील-पीतादि सभी का भिन्न भिन्न स्वभाव होने पर भी उन स्वभावों में अभेद का व्यवहार उक्त रीति से लोक में होता है, यदि व्यवहार से ही वस्तु सिद्ध मानी जाती तब तो उक्त व्यवहार से नील-पीतादि के स्वभावों में भी एकता की आपत्ति हो जायेगी। पूर्वपक्षीः-वहाँ तो प्रत्येक नील-पीतादि स्वभावों का भिन्न भिन्न दर्शन भी होता है, उनसे स्वभावों की एकता का व्यवहार बाधित हो जाता है, अतः एकता को प्रमाणसिद्ध नहीं मानेंगे। उत्तरपक्षी:- तो यहाँ भी बाह्यलोक में वस्तु के ऊर्ध्व, अधः, मध्यादि प्रत्येक भागों का भिन्नभिन्न दर्शन होता है उनसे देहादि (अवयवी) की एकता बाधित हो जायेगी। फलतः यही सिद्ध होगा कि अवयवीस्वरूप कोई भी बाह्यपदार्थ प्रमाणसिद्ध नहीं है / Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '426 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 त्वानुपपत्तिः / स्थूलतनुश्च बहिर्नीलादिरूपः प्रतिभासः स्फुटमुद्भाति / न च स्थूलरूपं प्रत्येकं परमाणुषु सम्भवति, तथात्वे परमाणुत्वाऽयोगात् / नापि समुदितेषु स्थूलरूपसम्भवः, समुदितावस्थायामप्यणनां * स्वरूपेण सूक्ष्मत्वात् / न च तद्व्यतिरिक्तः समुदायोऽस्ति, तथात्वे द्रव्यवादप्रसंगात् , तत्र चोक्तो दोषः / तन्न स्थूलता परमाणुषु कथंचिदपि सम्भवति / न चान्याहग निर्भासोऽन्यादृक्षस्यार्थस्य प्रकाशकः, नीलदर्शनस्यापि पोतव्यवस्थापकत्वापत्तेः, तथा च नियतविषयव्यवस्थोच्छेदः / किं च परमाणोरपि नानादिक्सम्बन्धादेकता नोपपन्नव / तथा चाह-'षटकेन युगपद्योगात परमाणोः षडंशता।'- [विज्ञप्ति० का० 12 ] इति / पुनस्तदंशानामपि नानादिक्सम्बन्धात् सांशताऽपत्तिः, तथा चानव.. स्था। तस्मान्न परमाणूनामपि सत्त्वम्-इत्यवयव्यग्रहणे सर्वाऽग्रहणप्रसंगः इति प्रतिभासामावापत्तेन प्रसंगसाधनस्यावकाशः।"-असदेतद् , - अवयव्यभावेऽपि निरन्तरोत्पन्नानां घटाद्याकारेण परमाणनां सद्भावात् तद्ग्राहकरणामपि ज्ञानपरमाणूनां तथोत्पन्नानां तद्ग्राहकत्वात् न बहिरर्थाभावः, नापि तत्प्रतिभासाभावः, इति कथं प्रसंग. [ अवयवी के विना स्थूलप्रतिभास अनुपपत्ति-पूर्वपक्ष ] पूर्वपक्षीः-अवयवी नहीं है तब तो उसके हस्त-पादादि अवयवों में भी देशभेदादिस्वरूप विरुद्धधर्माध्यास से भेद प्रसक्त होगा। उसी प्रकार हस्तादि के अवयव अंगुली-नखादि का भी भेद होगा, यावत् त्र्यणुक-द्वयणुक कोई भी अवयवी न होकर परमाणु ही शेष रहेंगे। परमाणुवों में स्थूलता के प्रतिभास की विषयता घट नहीं सकती / बाह्य लोक में स्थूलता को विषय करने वाले नीलादिस्वरूपग्राहक प्रतिभास का उदय तो स्पष्ट ही होता है / एक एक परमाणु में स्थूलता का तो सम्भव ही नहीं है, क्योंकि उसमें स्थूलता मानने पर तो वह 'परमाणु ही कैसे कहा जायेगा? अन्योन्य मिलित परमाणुवों में भी स्थूलता का सम्भव नहीं है क्योंकि समुदित अवस्था में भी उन अणुओं का स्वरूप तो सूक्ष्म यानी अणु ही रहता है, स्थूल नहीं। परमाणुसमूह से भिन्न तो कोई समुदाय माना नहीं जाता, यदि वैसे समुदाय को मानेंगे तब तो वहीं द्रव्यवाद यानी अवयवीवाद प्रसक्त होगा, जिसका खण्डन कर आये हैं। [ पृ० 414 पं. 5 ] / इस कारण, परमाणुवों में किसी भी रीति से स्थूलता का सम्भव नहीं है / किसी एक (स्थूलादि) प्रकार के प्रतिभास से अन्यप्रकार की वस्तु का प्रकाशन शक्य नहीं है, अन्यथा नील के अनुभव से पीत वस्तु की व्यवस्था होने लगेगी फिर तो 'ज्ञान से विषयों को नियत प्रकार की व्यवस्था' का ही उच्छेद हो जायेगा। दूसरी बात, जैसे अवयवी असंगत है वैसे परमाणु भी संगत नहीं होता, जैसेः परमाणु को भी भिन्न भिन्न दिशा का संपर्क रहता है अतः विरुद्ध दिशासंसर्ग के कारण परमाण में एकता नहीं घट सकेगी। जैसे कि विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि में कहा गया है- 'परमाणु एक साथ ही अन्य छ परमाणुओं से युक्त होता है, अत: उसके छ अंश सिद्ध होते हैं।' उपरांत, उन अंशों में भी पुन: अन्य अन्य दिशा के साथ संपर्क होने के कारण सांशता आपन्न होगी-इस प्रकार सांशता का कहीं अन्त ही नहीं आने से परमाणु भी असिद्ध रहेगा, उसकी सत्ता ही सिद्ध नहीं होगी। इस प्रकार विरुद्ध धर्माध्यास दिखाकर (अवयवी को न मानने पर) सभी वस्तु का अग्रहण प्रसक्त होगा, फिर प्रतिभास भी स्वयं असद् हो जायेगा तो प्रसंगसाधन को भी अवकाश नहीं रहेगा, तो उसके भेद से अवयवी की एकता का खंडन कैसे हो सकेगा? ! Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकतृ त्वे उ०पक्षः 427 साधनस्य नावकाशः स्थूलैकरूपावयव्यभावेऽपि ? यदि चावयविनोऽभावे परमाणूनामप्यभावप्रसक्तेः प्रतिभासाभावेन प्रसंगसाधनानवकाशः प्रतिपाद्यत तदा सुतरां परमाणुरूपस्य ज्ञानरूपस्य चार्थस्याभावे कार्यत्वादिलक्षणस्य हेतोराश्रयासिद्धतादोषः।। ___ बाह्यार्थनयेन चास्माभिराश्रयासिद्धतादोषात् कार्यत्वलक्षणाद्धेतोर्नेश्वरसिद्धिरिति प्रतिपादयितुमभिप्रेतम् , यदि पुनविज्ञान-शून्यवादानुकूलं भवताऽप्यनुष्ठीयते तदा साध्य-दृष्टान्तमि-साध्यसाधनधर्मादीनामनुमित्यङ्गभूतानां सर्वेषामप्यसिद्धेः कुतः उपन्यस्तप्रयोगादीश्वरसिद्धिः ? ! तदेवं तन्वादिलक्षणस्य कार्यत्वादिहेत्वाश्रयस्यावयविनोऽसिद्धेराश्रयाऽसिद्धो हेतुः। ___तथा 'बुद्धिमत्कारणम्' इति साध्यनिर्देशे 'बुद्धिमत्' इति मतुबर्थस्य साध्यधर्मविशेषणस्यानुपपत्तिः, तज्ज्ञानस्य ततो व्यतिरेकेऽकार्यत्वे च तस्य' इति सम्बन्धानुपपत्तेः / तद्गुणत्वात् तत्तस्य' इति चेत् ? न, कार्यत्वे व्यतिरेके च 'तस्यैव तद्गुणो नाकाशादेः' इति व्यवस्थापयितुमशक्तेः। 'समवायो व्यवस्थाकारी'ति चेत? न, तस्यापि ताभ्यामर्थान्तरत्वे स एव दोष:-व्यतिरेके समवायस्यापि सर्वत्राऽविशेषाद न ततोऽपि तद्वयवस्था / अथ 'ईश्वरात्मकार्यत्वाद ईश्वरात्मगुणस्तज्ज्ञानम्। उत्तरपक्षी:- यह संपूर्ण कथन तथ्यहीन है। - [ निरन्तर उत्पन्न परमाणुवों से स्थूलादि प्रतिभास की उपपत्ति ] अवयवी न होने पर भी निरन्तर उत्पन्न अर्थात् विना किसी व्यवधान से अवस्थित, एक-दूसरे से संलग्न, घटादि आकार में परिणत ऐसे परमाणु तो विद्यमान हैं, उनके ग्राहकरूप में ज्ञानपरमाणु भी उसी ढंग से उत्पन्न होते हैं और वे उन परमाणुओं का ग्रहण करते हैं / इस रीति से न तो बाह्यार्थ के अभाव का प्रसंग ही है, न तो उसके प्रतिभास के अभाव का प्रसंग है, तो फिर तन्मूलक प्रसंगसाधन को अवकाश क्यों नहीं होगा ?, स्थूल-एक स्वरूपवाला अवयवी भले न हो ! / अगर आप कहते हैं कि'अवयवो न होने पर परमाणु का अभाव प्रसक्त होगा, उससे प्रतिभास का अभाव आ पडेगा, अत: प्रसंगसाधन अवकाश नहीं रहेगा'- इत्यादि, तब तो हमारी इष्टसिद्धि अत्यंत सम्भवारूढ बन जाती है क्योंकि परमाणु और ज्ञानरूप अर्थ के अभाव में ईश्वरकर्तृत्व साधक कार्यत्वरूप हेतु भी आश्रयासिद्धि स्वरूपादि आदि दोषों से ग्रस्त हो जायेगा। उपरांत, हमने तो यहाँ बाह्यार्थ के अभ्युपगम से प्रतिपादन करने का अभिप्राय रखा है कि 'आश्रयासिद्धिदोषग्रस्त होने से कार्यत्वरूप हेतु से ईश्वर की सिद्धि अशक्य हैं'। किन्तु जब आप स्वयं ही विज्ञानवाद और शून्यवाद को सहायक स्थिति पैदा कर रहे हैं, तब तो साध्यधर्मी, दृष्टान्तधर्मी, साध्य-हेतु आदि धर्म ये सब जो अनुमिति के अंगभूत हैं उनकी भी असिद्धि अनायास आपन्न होती है, तब आपने जो ईश्वरसिद्धि के लिये अनुमान प्रयोग का उपन्यास किया है उससे वह कैसे हो सकेगी? __इस प्रकार कार्यत्वादि हेतु का आश्रय देहादिरूप पक्षभूत अवयवी की असिद्धि के कारण कार्यत्व हेतु आश्रयासिद्ध है / [समवाय की असिद्धि से बुद्धिमत् शब्दार्थ की अनुपपत्ति ] तदुपरांत, ईश्वरसाधक अनुमान प्रयोग में 'बुद्धिमत्कारण' ऐसा जो साध्य में निर्देश किया है उसमें साध्यधर्म का मतुप् प्रत्ययार्थक जो बुद्धिमत् ऐसा विशेषण है वह नहीं घटता। कारण, ईश्वर Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 कुत एतत् ? तस्मिन् सति भावाद' इति चेत् ? प्राकाशादावपि सति तस्य भावात् तत्कार्यता किं न स्यात् ? अथ 'तदभावेऽभावात् तत्कार्यत्वम्' / तन्न, नित्य-व्यापित्वाभ्यां तस्य तदयोगात् / तदात्मन्युस्कलितस्य तस्य दर्शनात् तत्कार्यते'ति / किमिदं तस्य तत्रोत्कलितत्वम् ? 'तत्र समवेतत्वं तस्य' इति चेत् ? नन्विदमेव पृष्टं-किमिदं समवेतत्वं नाम ? 'तत्र समवायेन वर्तनम्' इति चेत् ? ननु कि a व्याप्त्या समवायेन वर्तनम् b पाहोस्विदव्याप्त्या? ___ यदि a व्याप्त्या तदाऽस्मदादिज्ञानवैलक्षण्यं यथा तज्ज्ञानस्याऽदृष्टस्यापि कल्प्यते तथाऽकृष्टोत्पत्तिषु वने वनस्पत्यादिषु घटादौ कर्म-कर्तृकरणनिर्वयं कार्यत्वमुपलब्धमपि चेतनकर्तृ रहितमपि भविष्यतीति कार्यत्वलक्षणो हेतुर्बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वे साध्ये स्थावरैर्व्यभिचारीति लाममिच्छतो मूल का ज्ञान यदि उससे भिन्न ( पृथक् ) और अकार्यरूप है तो 'उस की' यहाँ जो छट्ठी विभक्ति से सम्बन्ध द्योतित होता है वह नहीं घटता / [ 'बुद्धि' शब्द को 'उस की ( ईश्वर की ) बुद्धि' इस अर्थ में मत् ( मतुप् ) प्रत्यय लगाने से 'बुद्धिमत्' शब्द बनता है ] पूर्वपक्षी:-वह बुद्धि ईश्वर का गुण है अतः 'वह बुद्धि उस की है' ऐसा षष्ठी विभक्ति के प्रयोग से कह सकते हैं। उत्तरपक्षीः-यह बात अयुक्त है, जब वह बुद्धि ईश्वर से भिन्न और अकार्यभूत है तो वह ईश्वर का ही गुण है, आकाशादि का नहीं ऐसी व्यवस्था ही नहीं की जा सकती। पूर्वपक्षीः-समवायनामक सम्बन्ध से ऐसी व्यवस्था हो सकेगी। . उत्तरपक्षीः-यह ठीक नहीं है, ईश्वर और उसके ज्ञान से वह समवाय भिन्न होगा तो वही दोष लगता है कि समवाय भिन्न होने पर वह व्यापक होने से सर्वत्र वर्तमान है अतः ,उससे यह व्यवस्था होना शक्य ही नहीं है कि ज्ञान केवल ईश्वर से ही सम्बन्ध रखे / पूर्वपक्षी:- वह ज्ञान ईश्वरात्मा का कार्य है अतः वह ईश्वरात्मा का ही गुण हो सकता है / यदि प्रश्न करें कि वह ईश्वरात्मा का ही कार्य कैसे? तो उत्तर यह है कि ईश्वर के होने पर ही ऐसा ज्ञान उत्पन्न होता है। उत्तरपक्षीः-ईश्वर के समान ही, आकाशादि के होने पर ही होने वाला वह ज्ञान आकाश का ही कार्य क्यों न माना जाय ? 'आकाश के अभाव में उस का अभाव होने से वह ज्ञान आकाश का कार्य नहीं है' ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि आकाश नित्य एवं व्यापक द्रव्य होने से उसका कहीं भी कभी अभाव नहीं होता। पूर्वपक्षी:-'ज्ञान ईश्वरात्मा में ही उत्कलित है ऐसा देखने से वह ईश्वर का ही कार्य माना जायेगा। उत्तरपक्षीः- 'ज्ञान ईश्वर में ही उत्कलित है' इसमें उत्कलित का क्या अर्थ है ईश्वर में ही समवेत है' ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि यही तो हमारा प्रश्न है कि 'ईश्वर में ही समवेत है' इसका क्या अर्थ ? पूर्वपक्षी:-समवाय सम्बन्ध से ईश्वर में रहना / उत्तरपक्षीः-यहाँ दो प्रश्न हैं-a ईश्वर में समवायसम्बन्ध से ज्ञान व्यापक होकर रहता है b या व्यापक न होकर ? ( अर्थात् संपूर्ण ईश्वरात्मा में रहता है या उसके किसी एक भाग में ?) Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उ०पक्षः 429 क्षतिरायातेति / b अथ अव्याप्त्या तत्तत्र वर्तते तदा देशान्तरोत्पत्तिमत्सु तन्वादिषु तस्याऽसंनिधानेऽपि यथा व्यापारस्तथाऽदृष्टस्याप्यन्यादिदेशेष्वसंनिहितस्यापि ऊर्ध्वज्वलनादिविषयो व्यापारो भविष्यति / इति "अग्नेरूद्धज्वलनम् , वायोस्तिर्यपवनम् , अणु-मनसोश्चाद्यं कर्माऽदृष्टकारितम्" [वैशे० द०५-२-१३ ] इत्यनेन सूत्रेण सर्वगतात्मसाधकहेतुसूचनं यत् कृतं तदसंगतं स्यात् , ज्ञानादिविशेषगुणवददृष्टगुणस्य तत्रासंनिहितस्याप्यन्यायव्रज्वलनादिकार्येषु व्यापारसम्भवात् / न च सामान्यगुण-विशेषगुणत्वलक्षणोऽपि विशेषो गुण-गुणिनोभेंदे सम्भवति / किंच समवायस्य सर्वत्राऽविशेषे 'तत्रैव तेन वर्तनं नान्यत्र' इति कुतोऽयं विभागः? अथ तत्राऽऽधेयत्वं समवेतत्वं, तदा आत्मवद गगनादेरपि सर्वगतत्वे 'तदात्मन्येव तदाधेयत्वं, नान्यत्र' इति दुर्लभोऽयं विभागः / ततस्तज्ज्ञानस्य तदात्मनो व्यतिरेके 'तस्यैव तज्ज्ञानम्' इति सम्बन्धानुपपत्तिः। .[ ज्ञान ईश्वर में व्यापकरूप से नहीं रह सकता ] a अगर व्यापकरूप से, तब तो अपने ज्ञान से विलक्षण अर्थात् भिन्न स्वरूप वाला वह ज्ञान हुआ (क्योंकि अपना ज्ञान तो शरीर सम्बद्ध भाग में ही होता है अतः ) यह तो अदृष्ट कल्पना हुयी, जब आप ज्ञान के.लिये ऐसी अदृष्ट कल्पना कर लेते हैं तो- ऐसी भी कल्पना कर सकते हैं कि यद्यपि घटादि में कर्म-कर्ता-करणादि से प्रयुक्त कार्यव उपलब्ध होता है, फिर भी जंगल की हरियाली आदि जो कि बिना खेडे ही उत्पन्न है, वह चेतनकर्ताशून्य भी हो सकेगी। अदृष्ट कल्पना तो दोनों मत में तुल्य है / फलतः लाभ इच्छने वाले को नुकसान आ पड़ेगा क्योंकि स्थावर वनस्पति आदि में त्व की सिद्धि करने में व्यभिचारी है। .. [अव्यापक ज्ञान मानने पर आत्मव्यापकता का भंग] ___b यदि ज्ञान को ईश्वर में व्यापक नहीं मानते हैं ( दूसरा पक्ष ), तब तो, देशान्तर में उत्पन्न होने वाले देहादि के प्रति ईश्वरज्ञान असन्निहित होने पर भी आपको उसका व्यापार मानना पड़ेगा। जब असंनिहित (दूरवर्ती) का भी व्यापार मानेंगे तब अग्नि आदि के प्रदेश में जीवों का अदृष्ट असंनिहित होने पर भी उध्वं ज्वलनादि क्रिया में उसका व्यापार घट सकेगा। फिर जो आपके वैशेषिक दर्शन के सूत्र में "अग्नि का उर्ध्व ज्वलन, वायु का तिरछा गमन, अणु और मन में आद्य क्रिया अदृष्ट से उत्पादित हैं"-ऐसा कह कर सर्वत्र व्यापक आत्मा के साधक हेत का सचन किया है वह असंगत हो जायेगा / क्योंकि जैसे ज्ञानादि विशेष गुण अव्यापक होते हुये भी दूरवर्ती पदार्थ को विषय कर सकते हैं वैसे अग्नि आदि के उर्ध्व ज्वलनादि त्रियाओं के प्रति दूरवर्ती अदृष्ट गुण का भी व्यापार हो सकता है। यदि ऐसा कहें कि-'ज्ञानादि तो विशेष गुण है अतः दूरवर्ती होने पर भी वह कार्य कर सकता है, जब कि अदृष्ट गुण तो सामान्यगुण है अतः उससे वैसा नहीं हो सकता'-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जब गुणि से गुण सर्वथा भिन्न है तब यह विशेष गुण और यह सामान्यगुण' ऐसा विभाजन भी संगत नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि-जब समवाय सर्वत्र विद्यमान है तब ऐसा विभाग ही कैसे हो सकता है कि 'समवाय से ज्ञान ईश्वर में ही रहता है, अन्य में नहीं ? यदि ईश्वर में ज्ञान आधेय होने से ही वह उसमें समवेत माना जाय, तब तो आत्मा की तरह गगन भी सर्वत्र व्यापक है तो फिर 'वह ज्ञान Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 430 सम्मतिप्रकरण-नयकापड..१ [प्रसंगतः समवायसमीक्षा] .: ... अथ 'ततस्तज्ज्ञानस्य भेदेऽपि संबन्धस्य समवायरूपस्य भावान्नायं दोषः' / असदेतत्-समवाय स्यानुपपत्तेः। तथाहि-A कि सतां समवायः ? B आहोस्विद् असताम् ? इति / तत्र यदि A असतामिति पक्षः, स न युक्तः, शशविषाण-व्योमोत्पलादीनामपि तत्प्रसंगात / अथात्यन्तासत्त्वात् तेषां न तत्प्रसंगः। ननु तदात्मतज्ज्ञानयोरत्यन्ताऽसत्त्वाभावः कुतः ? 'तत्समवायादी'ति चेत् ? इतरेतराश्रयत्वम्-सिद्धे तत्समवाये तयोरत्यन्ताऽसत्त्वाभावः , तदभावाच्च तत्समवाय इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / अथ B सतां समवायः / ननु तेषां समवायात प्राक कुतः सत्त्वम् ? यदि अपरसमवायात, तदसव, तस्यैकत्वाभ्युपगमात् / अनेकत्वेऽपि यद्यपरसमवायात्प्राक् तेषां सत्त्वम् , सम (तत्सम) वायादपि प्रागपरसमवायात् तेषां सत्त्वमभ्युपगन्तव्यमित्यनवस्था। अथ समवायात प्राक् तेषां स्वत एव सत्त्वमिति नानवस्था; तर्हि समवायव्यतिरेकेणाऽपि सत्त्वाभ्युपगमे व्यर्थं समवायपरिकल्पनमिति 'सत्तासम्बन्धात पदार्थानां सत्ता' इत्युच्यमानं न शोभामावहति / ईश्वर में ही आधेय है, अन्य में नहीं' यह विभाजन भी दुष्कर बन जाता है। सारांश, ईश्वर का ज्ञान ईश्वरात्मा से भिन्न ( पृथक् ) होने पर 'वह ज्ञान उस का है' यहाँ षष्ठी विभक्ति से सम्बन्ध का निरूपण नहीं घट सकता। [समवाय सत्पदार्थों का, असतपदार्थो का?] पूर्वपक्षीः-ईश्वर और उसका ज्ञान भिन्न भिन्न होने पर भी दोनों के बीच समवाय सम्बन्ध होने से कोई दोष नहीं है। उत्तरपक्षी:-यह बात गलत है क्योंकि विचार करने पर भी समवाय की उपपत्ति नहीं होती। जैसे देखिये-समवाय किनका माना जाय, A दो सत् वस्तु का या B दो असत् वस्तु का ? यदि B दूसरा पक्ष माना जाय, तो वह युक्त नहीं, क्योंकि खरगोशसींग और गगनकमलादि असत पदार्थों में भी समवाय सम्बन्ध की आपत्ति होगी। यदि कहें कि 'ये दो अत्यन्त असत् होने से वह आपत्ति नहीं आयेगी-तो हम पूछेगे कि ईश्वरात्मा और उसका ज्ञान इन दोनों में, और * उपरोक्त युगल में (खरगोशसींग और गगनकमल में ) ऐसी क्या विलक्षणता है जिससे खरगोशसींग और गगनकमल में अत्यन्त असत्त्व को माना जाय और ईश्वरात्मादि में उसका अभाव माना जाय ? यदि सत्त्व के समवाय से उनमें अत्यन्त असत्त्व का अभाव मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष लगेगा- सत्ता का समवाय सिद्ध होगा तभी उन दोनों में अत्यन्तासत्त्व का अभाव माना जा सकेगा और ऐसा अभाव सिद्ध होने पर सत्ता के समवाय की सिद्धि होगी। ___B यदि दूसरे पक्ष में दो सत् वस्तु का ही समवाय मानते हैं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि समवाय सम्बन्ध होने के पूर्व भी वे दोनों वस्तु सत् है-तो यह प्रश्न है कि समवाय सम्बन्ध होने के पूर्व उनका सत्त्व किस तरह होगा? यदि दूसरे समवाय से मानते हैं तो वह गलत है क्योंकि आपके दर्शन में समवाय को एकव्यक्तिरूप ही माना है। कदाचित् उसे अनेकव्यक्तिरूप मानेंगे तो भो यहाँ निस्तार नहीं है क्योंकि यदि वस्तु का पूर्व सत्त्व द्वितीय समवाय से मानेगे तो द्वितीय समवाय के पूर्व में भी वस्तु का सत्त्व ततीय समवाय से मानना पडेगा, फिर तो तीसरा-चौथा....इस प्रकार कहीं अन्त ही नहीं होगा। यदि कहें कि-'समवायसम्बन्ध होने से पहले वस्तु की सत्ता स्वतः होती Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उ०पक्षे समवाय० 431 अथ समवायात प्राक् पदार्थानां न सत्त्वम् नाप्यसत्त्वम् , सत्तासमवायः सत्त्वम् / असदेतत्यतो यदि तत्समवायात् प्राक पदार्थाः योगिज्ञानमपि न जनयन्ति तदा कथं तेषां नाऽसत्त्वम् ? अथ तद् जनयन्ति तदा कथं तेषां न सत्त्वम् ? कि च. अन्योऽन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकनिषेधस्यापरसद्धावनान्तरीयकत्वात् कथमसत्त्वनिषेधे न सत्त्वविधानम् ? तद्विधाने वा कथं नाऽसत्त्वनिषेधः? इत्ययुक्तमुक्तमुद्द्योतकरेण-गोत्वसम्बन्धात् प्राग न गौः, नाप्यगौः, गोत्वयोगाद् गौः' [ न्या. वा०२-२-६५ ] / अपि च समवायाद यदि पदार्थानां सत्त्वम् समवायस्य कुतः सत्त्वम्-इति वक्तव्यम् / याद अपरसमवायात् , अनवस्था / अथ स्वत एव समवायस्य सत्त्वम् , पदार्थानामपि तत् स्वत एवास्तु, पुनरपि व्यर्थ सत्तासमवायकल्पनम् / अथ यदि ताम समवायस्य स्वतः सत्त्वमिति रूपम् कथमन्यपदार्थानामपि तदेव रूपम इति सचेतसा वक्तु युक्तम् ? नहि लवणस्य स्वतो लवणत्वे सूपादेरपि तव्यतिरेकेण तद् भवति / असदेतद्-यतोऽध्यक्षतः सिद्धे पदार्थस्वभावे युज्येततद् वक्तुम् , न च समवायादेः स्वरूपतः सत्त्वम् अन्यपदार्थानां तु तत्सद्भावात् सत्त्वमित्यध्यक्षात् सिद्धम् / है, अतः उसके लिये नये नये समवाय मानने की कल्पना का अन्त आ जायेगा।'-तब तो समवाय की परिकल्पना ही व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि समवाय सम्बन्ध के विना भी आप वस्तु का सत्त्व मानते हैं। अत एव यह कथन भी शोभाविकल ही ठहरेगा कि-'सत्ता के समवाय से वस्तुओं की सत्ता होती है। . [ सत्तासमवाय से पदार्थसत्त्व की अनुपपत्ति ] पूर्वपक्षीः-समवाय के पहले पदार्थों न तो सत् है और न असत् हैं, जब सत्ता का समवाय से सम्बन्ध होता है तब सत् बनते हैं। - उत्तरपक्षीः-यह बात गलत है, कारण-यदि सत्ता समवाय के पूर्व में पदार्थों से योगिओं को भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता तो वे अत्यन्त असत् क्यों नहीं होंगे? अगर योगिज्ञान को उत्पन्न करते हैं तब वे सत् ही क्यों नहीं होंगे ? दूसरी बात यह कि दो पदार्थ यदि अन्योन्य के व्यवच्छेदकारी होते हैं, तो उनमें से एक का निषेध दूसरे के सद्भाव का अविनाभावी होता है (जैसे प्रकाश और अन्ध.' 'कार), तब यदि आप असत्त्व का निषेष करेंगे तो सत्त्व का विधान क्यों फलित नहीं होगा ? अथवा सत्त्व का विधान करेंगे तो असत्त्व का निषेध क्यों नहीं होगा ? तब यह जो न्यायवात्तिक में उद्योतकरने कहा है-गोत्वसम्बन्ध के पहले ‘गौ है' ऐसा भी नहीं है और 'गौ नहीं है' ऐसा भी नहीं है, गोत्वसम्बन्ध होने पर वह गौ होता है। यह अयुक्त ही ठहरता है। [नमक के उदाहरण से समवाय का स्वतः सत्व अनुपपन्न ] तदुपरांत, पदार्थों का सत्त्व यदि समवायप्रयुक्त है तो समवाय का सत्त्व किंप्रयुक्त है यह दिखाईये। यदि दूसरे समवाय से मानेगे तो फिर तीसरे-चौथे....इत्यादि कल्पना का अन्त नहीं आयेगा। समवाय का यदि स्वतः सत्त्व होता है तब पदार्थों का सत्त्व भी स्वतः ही मान लो। मान लेने से, फिर से सत्ता के समवाय की कल्पना निरर्थक है। . प्रवपक्षीः यह कैसी बात करते हो कि समवाय का सत्त्वस्वरूप स्वतः है तो दूसरे पदार्थों का भी सत्त्व स्वतः ही मानना पडै-बूद्धिमान होकर ऐसा कहना ठीक नहीं है / अरे ! नमक अपने आप लवणरसवाला है तो इस का मतलब यह नहीं कि सूप (दाल) आदि को भी अपने आप ही लवण स्वाद वाला मान लिया जाय ! वे तो नमक पडने पर ही लवणस्वादवाले बन सकते हैं। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ अपि चायं समवायः a कि समवायिनोः परिकल्प्यते b उताऽसमवायिनोरिति विकल्पद्वयम् / b तत्र यद्यसमवायिनोरिति पक्षः स न युक्तः, घट-पटयोरत्यन्तभिन्नयोस्तत्प्रसंगात् / न चाऽसमवायिनोभिन्नसमवायेन समवायित्वं तदभिन्नं विधातु शक्यम् , विरुद्धधर्माध्यासेन ताभ्यां तस्य भेदप्रसंगात् / नापि भिन्नम् , तत्करणे तयोः तत्सम्बन्धित्वानुपपत्तेः, भिन्नस्योपकारमन्तरेण तदयोगात् / उपकारेऽपि तद्भिन्नसमवायित्वकरणे पुनरपि तयोरसमवायित्वम् अन्यान्योपकारकरणे त्वनवस्था / a स्वत एव तु समवायिनोः किं समवायेन तद्धेतुना परिकल्पितेन ? अथ समवायेन तयोस्तव्यवहारः क्रियते / ननु यदि समवायिनोः स्वरूपं प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरस्तदा तत एव तद्व्यवहारस्यापि सिद्धेयर्थमेव तदर्थ तत्परिकल्पनम् / उत्तरपक्षी:-यह भी गलत है, क्योंकि पदार्थों का जो स्वभाव प्रत्यक्षसिद्ध है उसके लिये ऐसा कहा जा सकता है। समवायादि में स्वतः सत्त्व और अन्यपदार्थों में सत्तासमवाय के योग से सत्त्व-ऐसा प्रत्यक्ष से तो सिद्ध नहीं, फिर कैसे माना जाय? (जब कल्पना ही करनी है तब समवाय के द्वारा पदार्थों की सत्ता मान लेने के बदले समवायवत् पदार्थों को ही स्वतः सत्स्वभाव क्यों न मान लिया जाय ?) [समवाय दो समवायी का होगा या असमवायी का ? ] यह भी विचारना पड़ेगा कि-समवाय की कल्पना किस के सम्बन्धरूप में की जाती है ? a दो समवायी वस्तु के सम्बन्धरूप में या b दो असमवायी वस्तु के ? ये दो विकल्प हैं, उनमें से यदि (दूसरा पक्ष) b दो असमवायी वस्तु का समवाय मानेंगे तो वह अयुक्त है, क्योंकि इसमें अत्यन्तभिन्न घट और पट के भी समवाय सम्बन्ध की आपत्ति है / दूसरी बात यह है कि समवाय से दो असमवायी वस्तु मे समवायित्व का अभेद सम्बन्ध से आधान करना शक्य नहीं है क्योंकि तब तो असमवायित्व और समवायित्व ये दो विरुद्धधर्मों के अध्यास से उन दो असमवायी में से प्रत्येक वस्तु का भी भेदप्रसंग आ पडेगा। भेद सम्बन्ध से भी आधान करना शक्य नहीं है क्योंकि तब तो वह समवायित्व असमवायि दो वस्तु से भिन्न ही रहेगा, ऐसे भिन्न समवायित्व के करने पर असमवायि दो वस्तु में अन्योन्यसम्बन्धिता की उपपत्ति नहीं हो सकेगी। कारण, भिन्न पदार्थ कुछ उपकार के आधान विना दो वस्त में सम्बन्धिता का स्थापन नहीं कर सकता / यदि उपकार को मानेंगे तो भी यह प्रश्न तो खडा ही है कि उससे होने वाला समवायित्व उन दो असमवायिवस्तु से भिन्न होगा या अभिन्न ? यदि भिन्न मानगे तब तो उसमें असमवायित्व ही रहेगा, और उसके लिये फिर नया नया उपकार मानते रहेंगे तो अन्त कहाँ आयेगा? यदि समवाय से दो समवायी का ही सम्बन्धित होना मानेंगे तो वह न मानना ही श्रेयस्कर हैं क्योंकि जो विना समवाय भी स्वयं ही समवायी हैं वहाँ अतिरिक्त समवाय को सम्बन्धकारक रूप में कल्पना क्यों की जाय? पूर्वपक्षी:-इसलिये कि अतिरिक्त समवाय से उन दो समवायी का 'समवायी' ऐसा व्यवहार किया जा सके। उत्तरपक्षी:- अरे भाई ! जब दोनों समवायी का स्वरूप, प्रत्यक्षादिप्रमाण का विषय है तब उस प्रमाण से ही 'समवायी रूप से उनका व्यवहार सिद्ध हो जायेगा, अतः व्यवहार के लिये समवाय की कल्पना व्यर्थ है / सर्वत्र यथार्थव्यवहार प्रमाणाधीन ही होता है / Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उ० समवाय० 433 अथ प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धत्वात् समवायस्य एवं विकल्पनमयुक्तम् / तद्सत्-यदि हि तत्सिद्धत्वं तस्य स्यात् तदाऽयुक्तमेतत् , न च प्रत्यक्षप्रमाणे तत्स्वरूपावभासः-न हि तदात्मा, ज्ञानम् , तत्समवायश्चेति त्रितयमिन्द्रियजाध्यक्षगोचरः, नापि स्वसंवेदनाध्यक्षविषयः, तस्य भवताऽनभ्युपगमात् / नाऽप्येकार्थसमवेतानन्तरमनोऽध्यक्षविषयः, तस्य प्रागेव निषिद्धत्वात् / न च बाह्यष्वपि घट-रूपादिष्वर्थेषु 'अयं घट, एते च तत्समवेता रूपादयः, अयं च तदन्तरालवतॊ भिन्नः समवायः' इति त्रितयमध्यक्षप्रतीतौ विभिन्नस्वरूपं प्रतिभाति / तत्प्रतिभाने वा द्रव्य-गुण-समवायानामध्यक्षसिद्धत्वाद् विभिन्नस्वरूपतया न गुण-गुणिभावे समवाये वा कस्यचिद् विवादः स्यात् / नाप्येकत्वविभ्रमो घट-रूपादीनाम् , ततश्च तन्निराकरणार्थ शास्त्रप्रणयनमपार्थकं स्यात् / ननु यथा प्रत्यक्षेण प्रतिपन्नेऽप्यकनेकान्ते जैनेन,स्वलक्षणे वा बौद्धन स्वदुरागमाहितवासनाबलाल्लोकस्य तेन तदप्रतिपन्नताविभ्रमः तन्निराकरणाथं च शास्त्रप्रणयनम् तथाऽत्रापि स्यादिति / तर्हि तथाविधशास्त्ररहितानामबला-बालादीनां न समवायप्रत्यक्षताविभ्रम इति तेषां 'शुक्लः पटः' इति प्रतीतिर्न स्थात . अपि तु 'अयं पटः, एते शुक्लादयो गुणाः, अयं च तदन्तरालवर्ती अपरः समवायः' इति प्रतीतिः स्यात / अथ समवायस्य सूक्ष्मत्वात् प्रत्यक्षत्वेऽप्यनुपलक्षणात् तत्रस्थत्वेन रूपादीनामुपचारात् 'शुक्ल: . [समवाय की सिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण से अशक्य ] पर्वपक्षीः-समवाय तो प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध है, अतः उसके ऊपर उपरोक्त विकल्प जाल फैलाना अयुक्त है। उत्तरपक्षी:-यह बात गलत है, यदि वह प्रत्यक्ष से सिद्ध होता तब तो विकल्पजाल अवश्य अयक्त होता, किन्तु प्रत्यक्षप्रमाण में तो कभी भी उसके स्वरूप का भास नहीं होता / 'ईश्वरात्मा, ज्ञान और उनका समवाय' ऐसी त्रिपुटी इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष का तो विषय नहीं होती / स्वयंप्रकाशी प्रत्यक्ष का विषय भी नहीं है, क्योंकि आप ज्ञान को स्वप्रकाश नहीं मानते / उसी ज्ञान के अधिकरण में समवेत अन्य मानसप्रत्यक्ष (अनुव्यवसाय) का भी वह विषय नहीं होता क्योंकि ज्ञान की ज्ञानान्तरवेद्यता को पहले [पृ. 344 पं० 1] परास्त कर दिया है। बाह्यजगत् की बात करें तो घट और रूपादि पदार्थों में "यह घट है, ये उसमें समवेत रूपादि हैं और उन दोनों का मध्यवती यह अलग समवाय है" इस प्रकार विभिन्न स्वरूप वाली त्रिपुटी प्रत्यक्षज्ञान में भासित नहीं होती है / यदि ऐसी प्रतीति वास्तव में होती हो तब तो द्रव्य, गुण और समवाय तीनों ही प्रत्यक्ष से सिद्ध हो जाने के कारण विभन्नस्वरूप से गणगुणीभाव और समवाय के बारे में किसी को विवाद ही नहीं रहता, उपरांत गणगुणी अर्थात रूपादि और घट में एकत्व का विभ्रम होना भी सम्भव नहीं है, तो फिर गुण-गुणी के एकत्व को तथा समवाय में विवाद को परास्त करने के लिये शास्त्रों की रचना निरर्थक हो जायेगी। [आगमवासनाशून्य बालादि को भी समवाय प्रतीत नहीं होता ] पर्वपक्षीः जैनों मानते हैं कि अनेकान्त प्रत्यक्ष सिद्ध है, बौद्ध भी मानते हैं कि स्वलक्षण वस्तु प्रत्यक्षसिद्ध है, फिर भी अपने अपने मिथ्या आगम से उत्पन्न वासना के प्रभाव से जिन लोगों को अनेकान्त और स्वलक्षण प्रत्यक्षसिद्ध न होने का विभ्रम हुआ करता है उनके विभ्रम को तोडने के लिये जैन और बौद्धों की ओर से शास्त्रों की रचना की जाती है-आप उनको निरर्थक नहीं मानते है-तो वैसे ही हम भी समवाय की सिद्धि के लिये शास्त्रनिर्माण करते हैं / इस में क्या दोष हुआ ? ! Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 पट:' इति प्रतिपत्तिः स्यात् / नैतद् एवं, दण्डेऽपि 'पुरुषः' इति प्रतिपत्ति: स्यात् / उपचाराच्चेयं प्रतिपत्तिरुपजायमाना स्खलद्रूपा स्याद् , वाहोके गोबुद्धिवत् / न च समवेतमिदं वस्तु अत्र' इति प्रतिपत्ती विशेषणभूतः समवायः प्रतिभाति इति वक्तु युक्तम् , बहिष्प्रतिभासमानरूपादिव्यतिरेकेण अन्तश्चाभिजल्पमन्तरेणापरस्य वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यस्य ग्राह्याकारतां बिभ्राणस्य बहिः समवायस्वरूपस्याऽप्रतिभासनात् / वर्णाद्याकाररहितं च परैः समवायस्वरूपमभ्युपगम्यते / न च तत्कल्पनाबद्धावपि प्रतिभाति / न चान्यादृशः प्रतिभासोऽन्यादृक्षस्यार्थस्य व्यवस्थापकः, अतिप्रसंगात / तन्न समवायोऽध्यक्षप्रमाणगोचरः। ___यस्त्वाह-नित्यानुमेयत्वात् समवायस्यानुमानगोचरता, तेनायमदोषः इति / तच्चानुमानम्'इह तन्तुषु पटः' इति बुद्धिस्तन्तु-पटव्यतिरिक्तसम्बन्धपूर्विका, 'इह' इति बुद्धित्वात् , इह कंसपात्र्यां जलबुद्धिवत्-इत्येतत् ; 'सोऽप्ययुक्तवादी, 'समवायस्यान्यस्य वा पदार्थस्य नित्यैकरूपस्य कारणत्वाऽसम्भवात् क्वचिदपि' इति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् / न च 'तन्तुषु पट:-शृङ्ग गौः-शाखांयां वृक्षः' इति लौकिको प्रतीतिरस्ति, 'पटे तन्तवः-गवि शृङ्गम्-वृक्ष शाखा' इत्याकारेण प्रतीत्युत्पत्तेः संवेदनात , तस्याश्च समवायनिबन्धनत्वे तन्त्वादीनां पटाद्यारब्धत्वप्रसंगः।। उत्तरपक्षी:-यदि ऐसा कहेंगे तब तो बालक-अबला आदि जिन लोगों को तथाविध आगम से कोई वासना उत्पन्न नहीं हुयी है उन लोगों को तो समवाय की प्रत्यक्षता के बारे में कोई विभ्रम नहीं हो सकता, अतः श्वेत वस्त्र को देख कर उन लोगों को 'शुक्ल वस्त्र' ऐसा प्रत्यक्ष न हो क वस्त्र, ये शुक्लादि गुण और यह उनका मध्यवत्ता अलग समवाय" ऐसा ही प्रत्यक्ष होना चाहिये / किन्तु ऐसा होता नहीं है, अत: पूर्वपक्ष का कथन व्यर्थ है। पूर्वपक्षीः समवाय बहुत सूक्ष्म है, देखने पर भी वह स्फुट उपलक्षित नहीं होता, दूसरी ओर शुक्ल रूपादि गुण वस्त्र में रहने वाले हैं अतः 'शुक्ल वस्त्र' ऐसी गुण-गुणी के अभेद भाव से प्रतीति होती है। उत्तरपक्षी:-यह ऐसा नहीं है, यदि उपचार से ऐसी प्रतीति होने का कहेंगे तो दंडवाले पुरुष को देख कर उपचार से दंड में भी 'यह पुरुष है' ऐसी बुद्धि हो जायेगी / और यदि 'शुक्ल वस्त्र' इस प्रतीति को उपचार से होने का मानेंगे तो वह स्खलद्रूप, यानी बैलवाहक में बैल की बुद्धि की तरह अवास्तव हो जायेगी जो किसी को भी मान्य नहीं है / पूर्वपक्षी:-'यह वस्तू इस में समवेत है' इस प्रकार की प्रतीति में समवाय ही वस्त्रादि के विशेषणरूप में प्रतीत होता है। उत्तरपक्षी.-ऐसा भी कहना अयुक्त है क्योंकि उक्त प्रतीति में, बाह्यजगत् के तो केवल रूपादि ही भासते हैं और समवाय को तो आप अपनी वासना से अन्तर्जल्प के द्वारा उसमें जोड कर वैसा बोलते हैं, वास्तव में ग्राह्याकार को धारण करने वाले, वर्ण-आकृति और अक्षराकार से शून्य ऐसे समवाय का स्वरूप बाह्य जगत् में किसी को भी नहीं भासता है / समवाय को तो आप वर्णादिआकार से शुन्य स्वरूपवाला मानते हो, और वैसा समवाय कभी कल्पना में भी स्फूरित नहीं होता। एक प्रकार का प्रतिभास कभी अन्यप्रकार की वस्तु का व्यवस्थापक नहीं बन सकता, अन्यथा रूपआकार का प्रतिभास रस का स्थापक हो जायेगा। निष्कर्ष:-समवाय प्रत्यक्षप्रमाण का विषय नह Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकतृ त्वे उ०समवाय० 435 किंच, समवायस्य समवायिभिरनभिसम्बन्धे तस्य तत्र 'संबद्धबुद्धिजननं तेषां सम्बन्ध एव च' [ ] इति च न युक्तम् , न हि दण्ड-पुरुषयोः संयोगः सह्य-विन्ध्याभ्यामनभि. सम्बन्ध्यमानस्तत्र संबद्धबुद्धिहेतुः तत्सम्बन्धो वा / तैस्तदभिसम्बन्धे वा स्वतः, द्रव्य-गुण-कर्मणां स्वाधारैः स्वतः सम्बन्धः किं न स्यात् यतः समवायपरिकल्पनाऽऽनर्थक्यमश्नुवीत / 'इह समवायिषु समवायः' इति च बुद्धिरपरनिमित्तका प्रकृतस्य हेतोरनेकान्तिकत्वं कथं न साधयेत् , स्वतस्तत्सम्बन्धाभ्युपगमें ? समवायान्तरेण तस्य तदभिसम्बन्धेऽनवस्थालता गगनतलावलम्बिनी प्रसज्येत / विशेषणविशेष्यभावलक्षणसम्बन्धबलात् तस्य तदभिसम्बन्धे तस्यापि तैः सम्बन्धोऽपरविशेषणविशेष्यभावलक्षणसम्बन्धबलाद यदि सैवानवस्था। समवायबलात् तस्य तत्सम्बन्धे व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / स्वत. स्तैस्तस्याभिसम्बन्धे बुद्धयादीनामपि स्वत एव स्वाधारैः सम्बन्धो भविष्यतीति व्यर्थ सम्बन्धपरिकल्पनम् / तन्न समवायः कस्यचित् प्रमाणस्य गोधरः पुनरपि चैनं यथास्थानं निषेत्स्यामः, इत्यास्तां तावत् / तदेवं बुद्धस्तदात्मनो व्यतिरेके सम्बन्धाऽसिद्धेर्मतुबर्थानुपपत्तिः।। [समवायसाधक अनुमान निर्दोष नहीं है ] जिसने ऐसा कहा है कि-समवाय नित्य और हमेशा के लिये अनुमेय ही है, अत. वह अनुमान का ही विषय है, प्रत्यक्ष का विषय न होने में कोई दोष नहीं है। अनुमान इस प्रकार है:-'यहां तन्तुओं में वस्त्र है' ऐसी बुद्धि तन्तु और वस्त्र दोनों से अतिरिक्त सम्बन्ध से उत्पन्न है, क्योंकि यह बुद्धि 'यहाँ इस तरह से होती है / उदा० 'यहाँ कंसपात्री में जल है' ऐसी बुद्धि ।-ऐसा जिसने कहा है वह भी मिथ्यावादी है। कारण हम आगे दिखायेंगे कि समवाय या अन्य कोई भी पदार्थ यदि नित्यैकस्वरूप होगा तो वह किसी भी कार्य के प्रति कारण नहीं बन सकेगा। "तन्तुओं में वस्त्र है-सींग में गाय हैशाखा में वृक्ष है" ऐसी प्रतीतियाँ लोक में किसी को नहीं होती है, सभी लोगों को 'वस्त्र में तन्तु हैंगाय में सींग है-वृक्ष में शाखा है' ऐसे आकारवाली प्रतीति की उत्पत्ति का ही संवेदन होता है। यदि समवाय को इन प्रतीतिओं का विषय मानेंगे तब तो वस्त्र, गाय और वृक्ष द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से कमशः तन्तु, सींग और शाखा द्रव्य के आरम्भ की आपत्ति होगी। [ समवाय का समवायि के साथ सम्बन्ध है या नहीं ? ] तदुपरांत, A समवाय का समवायी पदार्थों के साथ अभिसम्बन्ध है या B नहीं ये दो प्रश्न दुरुत्तर है / B यदि अभिसम्बन्ध नहीं है तो यह कहना व्यर्थ है कि-'समवाय उनका सम्बन्ध है और उससे 'सम्बद्ध' बुद्धि की उत्पत्ति होती है' / दण्ड और पुरुष का संयोग, सह्याद्रि और विन्ध्याद्रि के थ संलग्न नहीं है तो वह दोनों के बीच सम्बन्ध भी नहीं बन सकता और उससे उन दोनों में 'सम्बद्ध' बुद्धि का भी जन्म होना शक्य नहीं है। A यदि समवायी पदार्थों के साथ समवाय का स्वत: हो अभिसम्बन्ध विद्यमान है, तब तो द्रव्य-गुण और कर्म का भी अपने आधार के साथ समवाय की कल्पना को निरर्थक सिद्ध करने वाला स्वतः ही सम्बन्ध क्यों नहीं हो सकता? तथा, आपने पहले 'इह'....इत्यादि बुद्धि में अतिरिक्त सम्बन्धमूलकत्व को साध्य बना कर 'इह-इति बुद्धित्वात्' यह हेतु कहा था, किन्तु "इह समवायिषु समवायः" इस बुद्धि में आपका अभिमत अतिरिक्त सम्बन्धरूप साध्य तो है नहीं (क्योंकि आप समवायी और समवाय का अलग समवायसम्बन्ध नहीं मानते हैं) तो फिर इस बुद्धि से 'इह इति बुद्धित्वात्'-यह हेतु अनैकान्तिक क्यों नहीं सिद्ध होगा?! Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ अव्यतिरिक्ता तदात्मनस्तबुद्धिस्तथापि तदनुपपत्तिः, न हि तदेव तेनैव तद्वद् भवति / किं च, तदात्मनस्तबद्धेरव्यतिरेके यदि तदात्मनि तद्बुद्धेरनुप्रवेशस्तदा बुद्धरभावाद् बुद्धिविकलो गगनादिवद् जडस्वरूपस्तदात्मा कथं जगत्स्रष्टा स्यात् ? बुद्धयादिविशेषगुणगणवैकल्ये च तदाऽत्मनः, अस्मदाद्यात्मनोऽप्यात्मत्वेनैव तद्वैकल्याद् मुक्तात्मनः इव संसारित्वं न स्याव , नवानां विशेषगुणानामात्यन्तिकक्षयोपेतस्यात्मनो मुक्तत्वाभ्युपगमात् तस्य चास्मदाद्यात्मस्वपि समानत्वात् भवदभ्युपगमेन / अथ आत्मत्वाऽविशेषेऽपि तदात्मा अस्मदाद्यात्मभ्यो विशिष्टोऽभ्युपगम्यते तहि कार्यत्वाऽविशेषेऽपि घटादिकार्येभ्यः स्थावरादिकार्यमकर्तृ कत्वेन विशिष्टं कि नाभ्युपगम्यते ? तथा च न कार्यत्वादिलक्षणो हेतुरनुपलभ्यमानकर्तृ कैः स्थावरादिभिरव्यभिचारी स्यात् / जब कि आप वहां अतिरिक्त सम्बन्ध को न मान कर स्वत: ही समवाय और समवायी का सम्बन्ध मानते हो। यदि दूसरे समवाय से उनका अभिसम्बन्ध मानेंगे तो उस समवाय को सम्बन्ध करने के लिये नये नये समवाय की कल्पना लता ( =अनवस्था) इतनी फैलेगी जो आकाशतल को जा मिलेगी। यदि 'समवायी विशेष्य और समवाय विशेषण' इस प्रकार विशेषणविशेष्यभावात्मक सम्बन्ध के बल से उनका अभिसम्बन्ध मानेंगे तो यहाँ विशेषण-विशेष्यभावात्मक सम्बन्ध के सम्बन्ध के लिये भी अन्य-अन्य विशेषण-विशेष्यभावात्मक सम्बन्ध की खोज करनी पड़ेगी-इस प्रकार उसी अनवस्था का पुनरवतार होता रहेगा। यदि विशेषण-विशेष्यभावात्मक सम्बन्ध का अभिसम्बन्ध पूर्वोक्त समवाय से मान लेंगे तो दोनों एक दूसरे के आधीन बन जाने से स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय दोष लगेगा। यदि उसका सम्बन्ध स्वतः हो मान लगे तो पूर्ववत् बुद्धि आदि का भी अपने अपने आधार में सम्बन्ध हो जायेगा अत: समवाय की कल्पना निष्फल है। सारांश, समवाय किसी भी प्रमाण का विषय नहीं है। अग्रिम ग्रन्थ में उचित स्थान पर और भी उसके निषेध की युक्तियां दिखायेंगे अतः अब उसको रहने दो। कहना तो यही है कि उपरोक्त रीति से बुद्धि यदि ईश्वरात्मा से भिन्न ( पृथक् ) होगी तो सम्बन्ध की घटना न होने से मत् (मतुप्) प्रत्यय की संगति नहीं हो सकेगी। [समवाय की प्रासंगिक चर्चा समाप्त ] [ ईश्वरात्मा और बुद्धि का अभेदं असंगत ] ___ यदि ईश्वरात्मा से उसकी बुद्धि को अभिन्न (अपृथक् ) माना जाय तो भी मतुप् प्रत्यय को संगति नहीं है क्योंकि वह एक वस्तु अपने से ही कभी तद्वत् ( यानी अपनेवाली ) नहीं हो सकती। तदुपरांत, ईश्वरात्मा से उसकी बुद्धि का भेद न होने पर a ईश्वर में बुद्धि का अनुप्रवेश मानेंगे या b बुद्धि में ईश्वर का अनुप्रवेश मानेंगे? a यदि बुद्धि का ईश्वर में ही अनुप्रवेश मानगे तो बुद्धि जैसा कुछ भी नहीं रहेगा अत: आकाशादि की तरह ईश्वरात्मा भी बुद्धिशून्य जडस्वरूप हो जायेगा, फिर वह जगत् का निर्माता कैसे हो सकेगा? उपरांत, ईश्वरात्मा यदि बुद्धि आदि विशेषगुण से शून्य होगा तो आत्मत्व दोनों जगह समान होने से अपने लोगों का आत्मा भी उससे शून्य ही होगा, फलतः जैसे मुक्तात्मा विशेषगुणों के उच्छेद के कारण संसारी नहीं माना जाता उसी तरह अपने लोगों में भी संसारीत्व नहीं घटेगा। बुद्धि-सुख-दुख-इच्छा-द्वेष प्रयत्न-भावना और धर्माधर्म ये नव Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 437 अथ तबुद्धौ तदात्मनोऽनुप्रवेशस्तदा बुद्धिमात्रमाधारशून्यमभ्युपगन्तव्यं भवति / तथा चास्मदादिबुद्धे रपि तद्वदाधारविकलत्वेन मतुबर्थाऽसम्भवाद् घटादावपि बुद्धिमत्कारणत्वस्याऽसिद्धत्वात् साध्यविकलो दृष्टान्तः / अथास्मदादिबुद्धिभ्यो बुद्धित्वे समानेऽपि तबद्धेरेवानाश्रितत्वलक्षणो विशेषोऽभ्युपगम्यते तहि घटादिकार्येभ्यः पृथिव्यादिकार्यस्य कार्यत्वे समानेऽपि अकर्तृ पूर्वकत्वलक्षणो विशेषोऽभ्युपगन्तव्यः इति पुनरपि कार्यत्वलक्षणो हेतुस्तैरेव व्यभिचारी। ___कि चासौ तद्बुद्धिः क्षणिकाऽbक्षणिका वेति वक्तव्यम् / यदि क्षणिकेति पक्षः तदात्मानं समवायिकारणम. प्रात्ममन संयोगं चाऽसमवायिकारणम, तच्छरीरादिकं च निमित्तकारणमन्तरेण कथं द्वितीयक्षणे तस्या उत्पत्तिः? तदनुत्पत्तौ चाऽचेतनस्याण्वादेशचेतनानधिष्ठितस्य कथं भूधरादि करणे प्रवृत्तिः वास्यादेरिवाऽचेतनस्य चेतनानधिष्ठितस्य प्रवृत्त्यनभ्युपगमात् ? ततश्चेदानी भूरुहादीनामनुत्पत्तिप्रसंगात् कार्यशून्यं जगत् स्यात् / अथ समवाय्यादिकारणमन्तरेणाऽपि तबुद्धरस्मदादिबुद्धिवैलक्षण्यादुत्पत्तिरभ्युपगम्यते / नन्वेवं घटदिकार्यवैलक्षण्यं भूधरादिकार्यस्य किं नाभ्युपगम्यते इति तदेव विशेषगुणों के अत्यन्त उच्छेद से ही आप आत्मा को मुक्त मानते हैं और आपके माने हुए बुद्धि के अव्यतिरेक पक्ष में तो अपने लोगों के आत्मा में भी वह (उच्छेद) समान ही है। [घटादिकार्य और स्थावरादि में वैलक्षण्य ] पूर्वपक्षी:-आत्मत्व समान होने पर भी ईश्वरात्मा को अपने लोगों की आत्मा से विलक्षण मानते हैं / अतः संसारीत्व न होने की कोई आपत्ति नहीं होगी। उत्तरपक्षीः-तो फिर घटादि और जंगलीवनस्पति आदि में कार्यत्व समान होने पर भी घटादि से जंगली वनस्पति आदि स्थावर कार्यों में अकर्तृ कत्वरूप विलक्षणता का भी क्यों अस्वीकार करते हैं ? यदि स्वीकार करें तब तो अनुपलब्धकर्ता वाले स्थावरादि में आपका कार्यस्वरूप हेत व्यभिचारी बनेगा। .. b यदि ईश्वर के आत्मा में बुद्धि के अनुप्रवेश के बदले बुद्धि में ईश्वर के आत्मा का अनुप्रवेश मानेंगे तो आधारशून्य केवल बुद्धि मात्र का ही स्वीकार फलित होगा / जैसे ईश्वरबद्धि आधारशन्य हो सकेगी वैसे ही बुद्धित्व को समानता के कारण अपने लोगों की बुद्धि भी आधारशून्य रह सकेगी. फलतः 'बुद्धिमान्' इस प्रयोग में 'मान्' प्रत्यय का असम्भव यानी निरर्थक हो जायेगा / आशय यह है कि घटादि कार्य का भी बुद्धिमान् कर्ता असिद्ध हो जाने से दृष्टान्त साध्यविरहित बन जायेगा। .. पूर्वपक्षी:-ईश्वरबुद्धि और अपने लोगों की बुद्धि में बुद्धित्व समान होने पर भी ईश्वरबद्धि में आधारशून्यतारूप विशेषता की कल्पना करते हैं, अपने लोगों की बुद्धि में नहीं / उत्तरपक्षीः-तब तो यह भी कहो कि घटादिकार्य और क्षिति आदि में कार्यत्व समान होने पर भी अकर्त पूर्वकत्वरूप विशेषता क्षिति आदि में हो मानेंगे / जब ऐसा कहेंगे तब तो क्षिति आदि में कार्यत्व हेतु फिर से एक बार साध्यद्रोही सिद्ध होगा। [ ईश्वरबुद्धि में क्षणिकत्व-का विकल्प असंगत ] . तदुपरांत, यह बुद्धि A क्षणिक है या B अक्षणिक-यह दिखाईये / A यदि क्षणिकपक्ष को मानते हैं तो प्रश्न होगा कि उस बुद्धि के नष्ट हो जाने पर, द्वितीयक्षण में समवायी कारण आत्मा, Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ चोद्यम् / किंच, यदीशबुद्धिः समवाय्यादिकारणनिरपेक्षवोत्पत्तिमासादयति तहि मुक्तानामप्यानन्दादिकं शरीरादिनिमित्तकारणादिव्यतिरेकेणाप्युत्पत्स्यत इति न बुद्धि-सुखादिविकलं जडात्मस्वरूपं मुक्तिः स्यात् / - bअथाऽक्षणिका तबुद्धिः / नन्वेवमस्मदादिबुद्धिरप्यक्षणिका कि नाभ्युपगम्यन्ते ? अथ प्रत्यक्षादिप्रमाणविरोधाद् नास्मदादिबुद्धिरक्षणिका, तहि तद्विरोधादेवाऽकृष्टोत्पत्तिषु स्थावरेषु कार्यत्वं बुद्धिमत्कारणपूर्वकं नाभ्युपगन्तव्यम् / अथास्मदादिबुद्धेः क्षणिकत्वसाधकमनुमानमक्षणिकत्वाभ्युपगमबाधकं प्रवर्तते न पुनरकृष्टोत्पत्तिषु स्थावरेषु / कि पुनस्तदनुमानम् ? अथ 'क्षणिका बुद्धिः अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणत्वात् , शब्दवत्' इत्येतत् / ननु यथा अस्यानुमानस्यास्मदादिबुद्ध्यक्षणिकत्वाभ्युपगमबाधकस्य सम्भवस्तथाऽकृष्टोत्पत्तिषु स्थावरेषु कर्तृ पूर्वकत्वाभ्युपगमबाधकस्य तस्य सम्भवः प्रतिपादयिष्यत इति नात्र वस्तुनि भवतीत्सुक्यमास्थेयम् / यथा च बुद्धिक्षणिकत्वानुमानस्यानेकदोषदुष्टत्वं तथा शब्दस्य पौद्गलिकत्वविचारणायां प्रतिपादयिष्यत इत्येतदप्यास्तां तावत् / असमवायी कारण आत्म-मन का संयोग और निमित्त कारण शरीरादि, के विना नयी बुद्धि कैसे उत्पन्न होगी ? (यहाँ बुद्धि में आत्मा का अनुप्रवेश होने से आत्मा तो रहा ही नहीं, उसका मन के साथ संयोग भी न रहा और तब शरीर भी नहीं हो सकता, फिर अनित्य बुद्धि की उत्पत्ति कैसे होगी ? ) यदि कहें कि-द्वितीयक्षण में बद्धि ही उत्पन्न नहीं होती है, तब तो चेतना के अभाव में तदनधिष्ठित अणु आदि की भूधरादिकार्योत्पादन में सक्रियता कैसे हो सकेगी? कुठार की तरह जो अचेतन एवं चेतन से अनधिष्ठत होते हैं उनसे किसी भी प्रवृत्ति का जन्म तो आप मानते नहीं है। इसका दुष्परिणाम यह योगा कि वृक्षादि-किसी भी कार्य की उत्पत्ति न होने से पूरा जगत् कार्यशून्य हो जायेगा। पूर्वपक्षी:-समवायी आदि कारण के विना भी ईश्वरबुद्धि की उत्पत्ति को हम मान लेंगे, क्योंकि ईश्वरबुद्धि अपने लोगों की बुद्धि से विलक्षण है। उत्तरपक्षीः-तब पर्वतादि कार्यों को भी घटादि कार्य से विलक्षण अर्थात् अकर्तृ पूर्वक ही क्यों नहीं मान लेते हैं ? ! यही प्रश्न फिर से उठेगा। दूसरी बात यह है कि क्षणिक ईश्वरबुद्धि का यदि समवायी आदि कारण सामग्री से निरपेक्ष यानी उनके विना ही उत्पत्ति मानेंगे तो मुक्तात्माओं में सुख-ज्ञानादि भी शरीरादिनिमित्तकारणों के विना ही उत्पन्न हो जायेंगे / अतः मुक्ति का स्वरूप बुद्धिसुखादि से शून्य जडमात्ररूप नहीं होगा। [ईश्वरबुद्धि में अक्षणिकत्व का विकल्प असंगत ] B यदि ईश्वरबुद्धि को अक्षणिक मानते हैं तो फिर अपने लोगों की बुद्धि को अक्षणिक क्यों नहीं मान लेते ? पूर्वपक्षी:-अपने लोगों की बुद्धि को अक्षणिक मानने में प्रत्यक्षादि प्रमाणों का विरोध आता है अतः उसे अक्षणिक नहीं मानते हैं। उत्तरपक्षी:-ऐसे तो कृषि के विना उत्पन्न स्थावरकार्यों में बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व मानने में भी प्रत्यक्षादि का विरोध है तो फिर उन कार्यों में उसको नहीं मानना चाहिये। पूर्वपक्षी:- अपने लोगों की बुद्धि में अक्षणिकत्व मानने जाय तो क्षणिकत्वसाधक अनुमान रूप बाधक बीच में आता है, कृषि के विना उत्पन्न स्थावरकार्यों में वह बीच में नहीं आता। वह Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 439 यथा वा बुद्धित्वाविशेषेऽपीशास्मदादिबुद्ध्योरयमक्षणिकत्वक्षणिकत्वलक्षणो विशेषस्तथा भूरुहघटादिकार्ययोरप्यकर्तृ-कर्तृ पूर्वकत्वलक्षणो विशेषः किं नाभ्युपगम्यते ? इति पुनरपि तदेव दूषणं कार्यत्वादेर्हेतोरनैकान्तिकत्वलक्षणं प्रकृतसाध्ये। तदेवं बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वलक्षणे साध्ये मतुबर्थाऽसम्भवात् तन्वादीनामनेकधा प्रमाणबाधासम्भवाच्च शास्त्रव्याख्यानादिलिंगानुमीयमानपाण्डित्यगुणस्य देवदत्तस्येव मूर्खत्वलक्षणे साध्येऽनुमानबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तस्य कार्यत्वादेहेतोः कालात्ययापदिष्टत्वेन तत्पुत्रत्वादेरिवाऽगमकत्वम् अनुमानबाधितत्वं वा पक्षस्येति स्थितम् / तथा 'कार्यत्वात्' इति हेतुरप्यसिद्धः / तथाहि-किमिदं तन्वादीनां कार्यत्वम् ? 'प्रागसतः A स्वकारणसमवाय:' B सत्तासमवायो वा' इति चेत् ? कुतः प्रागिति ? कारणसमवायादिति चेत् ? कौनसा बाधक अनुमान है-इसका उत्तर यह रहा 'ज्ञान क्षणिक है' क्योंकि वह अपने लोगों के प्रत्यक्ष का विषय और विभु आत्म द्रव्य का विशेषगुण है, उदा० शब्द / यह अनुमान बुद्धि के अक्षणिकत्व में बाधा डाल रहा है। उत्तरपक्षी:-अपने लोगों की बुद्धि को अक्षणिक मानने में जैसे उपरोक्त बाधक अनुमान का सम्भव है, वैसे ही कृषि के विना उत्पन्न स्थावरकार्यों में कर्तृ पूर्वकत्व को मानने में भी बाधक अनुमान का सम्भव कैसे है यह हम दिखाने वाले हैं अतः इस विषय में अभी आप अधृति मत कीजिये। तथा, बुद्धि के क्षणिकत्व का अनुमान कितने दोषों से दुष्ट है यह भी हम शब्द की पुद्गलमयता के विचार प्रस्ताव में दिखायेंगे, अतः उसकी चर्चा को भी अब मौकूफ रखें। [ कार्यत्व हेतुक अनुमान बाधित है ] यह भी हम पूछ सकते हैं कि जब बुद्धित्व समान होने पर भी ईश्वर और अपने लोगों को बुद्धि में क्रमशः अक्षणिकता और क्षणिकत्व की विशेषता मानी जाती है। तब घटादि और वृक्षादि कार्यों में क्रमशः कर्तृ पूर्वकता और कर्तृ विरह रूप विशेषता क्यों नहीं मानते हैं ? इस विशेषता के कारण फिर से एक बार बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व साध्य के साधक कार्यत्व हेतु में अनैकान्तिकत्व का दूषण उभर आयेगा। ऊपर जो चर्चा की गयी उससे यह सार निर्गलित होता है कि बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वरूप साध्य में मतुप् (मत्) प्रत्यय का अर्थ संभव न होने से और शरीरादि अवयवी के विषय में अनेक प्रकार के प्रमाणों की बाधा उपस्थित होने से, साध्यनिर्देश के बाधित हो जाने पर कहे गये कार्यत्वादि हेतु कालात्ययापदिष्ट दोष से दूषित हो जायेगा। जैसे कि (उदाहरण)- देवदत्त में 'शास्त्रों के सही व्याख्यान' आदि लिंग से उत्थित अनुमान द्वारा पांडित्य गुण की सिद्धि हो जाने पर कोई ऐसा अनुमान प्रयोग करे देवदत्त मूर्ख है क्योंकि स्थूलकाय है-तो यहां मूर्खरूप साध्य पूर्वोक्त अनुमान से बाधित है अत: स्थलकाय हेतु कालात्ययापदिष्ट हो जाता है। कालात्ययापदिष्टता के कारण, जैसे 'वह मूर्ख है क्योंकि मूर्ख का पुत्र है' ऐसे अनुमान मे मूर्खपुत्रत्व और मूर्खत्व को व्याप्ति न होने से मूर्खतनयत्व हेतु मूर्खत्व रूप साध्य का साधक नहीं बन सकता वैसे यहाँ भी कार्यत्व हेतु साध्य का गमक नहीं बन सकेगा। अथवा कृषि के विना उत्पन्न स्थावर कार्यरूप पक्ष में बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वविरह साधक अनुमान प्रवृत्त होने से पक्ष बाधित हो जायेगा। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ननु तत्समवायसमये प्रागिव स्वरूपसत्त्ववैधुर्ये 'प्राक्' इति विशेषणमनर्थकम् , सति सम्भवे व्यभिचारे च विशेषणमुपादीयमानमर्थवद् भवति अत्र तु व्यभिचार एव, न सम्भवः / तथाहि-यदि कारणसमवायसमये स्वरूपेण सद भवति तन्वादि. तदा तत्काल इव तस्य प्रागपि सत्त्वे कार्यत्वं न विशेषणमुपादीयते 'प्रागसतः' इति / यदा पुनः प्रागिव कारणसमवायवेलायामपि स्वरूपसत्त्वविकलता तदा 'प्राक्' इति विशेषणं न कचिदर्थं पुष्णाति, 'असतः' इत्येवास्तु / A न चाऽसतः कारणसमवायोऽपि युक्तः, शशविषाणदेरपि तत्प्रसंगात् / 'तस्य कारणविरहान्न तत्प्रसंग' इति चेत् ? कुत एतत् ? असत्त्वात् , तनुकरणादेरपि तद्वदसत्त्वे कि कृतोऽयं विभागः-अस्य कारणमस्ति न शशशङ्गादेरिति ? तन्वादेः कारणमुपलभ्यते नेतरस्येत्यपि नोत्तरम् , यत काय-कारणयोरुपलम्भे सत्येतत् स्यात् 'इदमस्य कारणं कार्य चेदमस्य' इति / न च परस्य तदुपलम्भः प्रत्यक्षतः, उपलम्भकारणमुपलम्भविषय इति नैयायिकानां मतम्-'अर्थवत् प्रमाणम्' [ वा. भा. प्रारम्भे ] इत्यत्र भाष्ये प्रमातृ-प्रमेयाभ्यामर्थान्तरमव्यपदेश्याऽव्यभिचारिव्यवसायात्मकज्ञाने कर्तव्येऽर्थः सहकारी विद्यते यस्य तद् अर्थवत् प्रमाणम्' इति व्याख्यानात् / [कार्यत्व हेतु की समालोचना का आरम्भ ] पक्ष मीमांसा और साध्यमीमांसा के बाद अब कार्यत्व हेतु की परीक्षा की जाती है-'कार्यत्वात्' यह हेतु असिद्ध है / जैसे देखिये देहादि में कार्यत्व क्या है ? जो 'पहले' असत् था उसका अपने कारणों में समवाय अथवा उसमें सत्ता का समवाय-इसे यदि कार्यत्व कहा जाय तो सर्वप्रथम यही प्रश्न है कि 'पहले' यानी किसके पहले ? कारणसमवाय के पहले ऐसा यदि कहते हैं तो 'पहले' यह विशेषण व्यर्थ हो जायेगा क्योंकि कारणसमवाय के पहले वस्तु जैसे स्वरूपसत्त्व से शून्य है वैसे उस के बाद भी शून्य है तो 'पहले' ऐसा कहने का क्या हेतु ? विशेषण का प्रयोग तभी सार्थक होता है जब वह संभवित हो और व्यभिचारी भी हो / [ जैसे 'नील कमल' प्रयोग में नील विशेषण कमल में सम्भवित भी है और श्वेतादि कमल में व्यभिचारी भी है। ] यहाँ तो जैसे पहले असत् है वैसे ही पीछे भी, असत् ही है। जैसे देखिये-कारणसमवाय काल में यदि देहादिकार्य स्वरूप से सत् होते हो और उस काल के जैसे पूर्वकाल में भी यदि वैसा सत्त्व रहता हो तब तो कार्यत्व न घट सकने से आप 'पहले असत्' ऐसा प्रयोग करते हो / किन्तु कारणसमवाय काल में भी यदि कार्य स्वरूप सत्त्व से विधुर ही रहता हो तब 'प्राक -पहले' यह विशेषण किसी विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकता / अतः 'प्राक् असतः पहले असत्' ऐसा कहने के बजाय 'असत्' इतना ही कहना चाहिये / [ कारणों में असद् वस्तु का समवाय सम्भव नहीं ] A यह भी देखिये कि जो असत् है उसका कारणों में समवाय होना अयुक्त है, क्योंकि इस पक्ष में शशसींगादि का भी कारणों में समवाय हो जाने का अतिप्रसंग है / यदि कहें कि-असत् शससोंग का कोई कारण नहीं है अत: प्रसंग नहीं है ।-तो यहाँ प्रश्न होगा कि उसके कारण क्यों नहीं है ? यदि असत् होने से उसके कारण न होने का कहा जाय तो देहेन्द्रियादि भी शशसींगवत् असत् ही तो हैं तो यह विभाग कैसे किया जा सकेगा कि 'देहादि के कारण हैं और शससींगादि के नहीं हैं ?' 'देहादि के कारण का उपलम्भ होता है, शशसींग के कारणों का नहीं होता' ऐसा उत्तर ठीक नहीं है, क्योंकि Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वराकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 441 न चाऽजनकं सहकारि, 'सह करोतीति सहकारि' इति व्युत्पत्तेः / न चाऽसत् शशविषाणसमं ज्ञानस्यान्यस्य वा कारणम् , विरोधात् / अपि च, इन्द्रियार्थसंनिकर्षात प्रत्यक्षं ज्ञानमुत्पत्तिमत् , कार्यकारणादिना चेन्द्रियसंनिकर्षः संयोगः, सोऽपि कथं तेनाऽसता जन्यत इति चिन्त्यम् / संयोगाभावे च 'रूपादिनेन्द्रियस्य संयुक्तसमवायः, रूपत्वादिना तु संयुक्तसमवेतसमवायः' इति सर्व दुर्घटम / एतेन द्रव्यत्वादिसामान्यसम्बधोऽपि तस्य निरूपितः / तन्न तन्वादिविषयमध्यक्षम् / अत एव नानुमानमपि / तदेवं खरविषाणादिवत् कार्य-कारणादेरनुपलम्भान्न युक्तमेतत्-शरीरादेः कारणमस्ति, न शशशृङ्गादेरिति / यदि पुनस्तनुकरणादिः सन वन्ध्यासुतादिपरिहारेणेति मतिः, तत्र कुतः स एव सन् ? कारणसमवायात् , सोपि कुतः ? सत्त्वात् , अन्योन्यसंश्रयः तत्समवायात सत्त्वम् अतश्च तत्समवाय इति / B 'प्रागसतः सत्तासमवायात स एव सन्' इति चेत् ? कुतः प्राक् ? सत्तासमवायात् / ननु तत्समवायकाले प्रागिव स्वरूपसत्त्वविरहे 'प्राग' इति विशेषणमनर्थकमित्यादि सर्वं वक्तव्यम् / असतश्च कार्य और कारण उपलब्ध होने पर यह कहा जा सकता है कि-यह इसका कारण है और यह इसका कार्य है, प्रतिवादी नैयायिकमत में कार्य-कारण का उपलम्भ प्रत्यक्ष से तो होता नहीं / नैयायिकों का मत तो यह है कि जो उपलम्भ का कारण बने वही उपलम्भ का विषय होता है / न्यायसूत्र के वात्स्यायन कृत भाष्यग्रन्थ के प्रारम्भ के 'अर्थवत् प्रमाणम्' इस अंश की व्याख्या में ऐसा कहा गया है कि जो 'प्रमाता और प्रमेय' से भिन्न है एवं अव्यपदेश्य-अव्यभिचारि-व्यवसायात्मक ज्ञान करने में अर्थ जिस को सहकार देता है और जो सप्रयोजन है वही प्रमाण है / इस प्रकार के व्याख्यान से यह फलित होता है कि उपलम्भ का कारण बने वही उपलम्भविषय हो सकता है, कार्य-कारण का प्रत्यक्ष तो नैयायिक मानते नहीं फिर उसका उपलम्भ कैसे होगा ? जब कार्य-कारण का उपलम्भ ही अघटित है तो 'देहादि के कारण उपलब्ध होते हैं, शशसींग के नहीं यह बात असद् उत्तररूप बन जाती है। . [ असत् वस्तु किसी का कारण भी नहीं होता ] . . आशय यह है कि कार्य और कारण उपलम्भ के जनक नहीं है अत एव वे 'सहकारि' भी नहीं कहे जा सकते, क्योंकि 'सहकारि' पद की व्युत्पत्ति यानी पद के विभाजन से प्राप्त अर्थ ही ऐसा है कि जो 'साथ में रहता हुआ करे'। जो स्वयं ही असत् है वह शशविषाणतुल्य होने से ज्ञान (उपलम्भ) अथवा तदन्य किसी भी पदार्थ का कारण ही नहीं बन सकता चूकि इसमें विरोध आयेगा / असत्त्व और कार्यकारित्व का विरोध प्रसिद्ध ही है। दूसरी बात, प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति इन्द्रिय-अर्थ के संनिकर्ष से होती है / कार्य-कारण के प्रत्यक्ष के लिये भी उन के साथ इन्द्रियसंनिकर्षात्मक संयोग अपेक्षित होगा / जब कार्य असत् ही है तो उससे संयोग का जन्म ही कैसे होगा? यह विचारणीय प्रश्न है / जब कार्य के साथ संयोग असिद्ध हुआ तो कार्यगत रूपादि के साथ इन्द्रिय का संयुक्त समवाय संनिकर्ष घटाना मुश्किल है और रूपादिगत रूपत्वादि के साथ संयुक्तसमवेतसमवाय संनिकर्ष घटाना भी दुष्कर है / इस रीति से जब कारणों में असत् कार्य का समवाय नहीं घट सकता तो इस से यह भी फलित हो जाता है कि असत कार्य में द्रव्यत्व-पृथ्वीत्वादि सामान्य का सम्बन्ध घटाना भी दुष्कर ही है / निष्कर्ष, देहादि (अवयवी) को सिद्ध करने वाला प्रत्यक्षप्रमाण कोई है नहीं इसीलिए अनुमान भी नहीं हो सकता। इससे यह सिद्ध होता है कि शशसींगतुल्य कार्य-कारण आदि का उपलम्भ न होने, 'शरीरादि के कारण उपलब्ध हैं और शससींग का नहीं यह बात अयुक्त है। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 सत्तासमवाये खरशृङ्गादेरपि सम्भवेद् अविशेषात् / 'प्राग्' इति च विशेषणं शशशृङ्गादिव्यवच्छेदार्थ परेणोक्तम् , सत्तासम्बन्धसमये च तन्वादेः स्वरूपसत्त्वाभावे कस्ततो विशेषः ? अयमस्ति विशेषः-कर्मरोमादिकमत्यन्ताऽसत् , इतरत पुनः स्वयं न सत , नाऽप्यसत् , अत एव सत्तासम्बन्धात् तदेव 'सत्' इत्युच्यत इति-तदेतज्जडात्मनो भवतः कोऽन्यो भाषते ! तथाहि-'न सत्' इति वचनात् तस्य सत्तासम्बन्धात प्रागभाव उक्तः सत्प्रतिषेधलक्षणत्वादस्य। 'नाप्यसत्' इत्यभिधानात् भावः, असत्त्वनिषेधरूपत्वाद भावस्य रूपान्तराभावात। तथैव वैयाकरणानां न्यायः-'द्वौ प्रतिषेधौ प्रकृतमथं गमयतः' इति / कथमन्यथा 'नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरम् , प्राणादिमत्त्वात्' इत्यत्र नैरात्म्यनिषेधः सात्मकः सिध्येत् ? [ देहादि को सत् मानने में अन्योन्याश्रय ] कार्य देहेन्द्रियादि को असत् मानने पर आपत्ति आती है इसलिये यदि वन्ध्यापुत्रादि असत् को छोड कर देहादि को सत् मान लिये जाय-तो भी यह प्रश्न होगा कि क्यों वन्ध्यापुत्र सत् नहीं है और देहादि ही सत् हैं ? इसके उत्तर में यह कहें कि कारणों में देहादि का समवाय है अतः देहादि सत् हैं तो यहाँ फिर से प्रश्न होगा कि कारण समवाय देहादि का ही क्यों है, वन्ध्यापुत्रादि का क्यों नहीं ? इसके उत्तर में यदि कहेंगे कि देहादि सत् है इसीलिये उनका ही कारणों में समवाय होता है तो यहाँ अन्योन्याश्रय दोष लगेगा- कारणसमवाय से देहादि का सत्त्व और सत्त्व से कारणसमवाय / [प्राक् असत् वस्तु सत्तासमवाय से सत नहीं हो सकती ] ____B यदि कहें कि प्राक् काल में असत् होने पर भी सत्ता के समवाय से देहादि ही सत् होते हैंतो प्राक् काल में यानी किसके प्राक् काल में ? 'सत्तासमवाय के प्राक् काल में'-ऐसा कहेंगे तो, यह सोचना होगा कि सत्तासमवाय होने पर पूर्वकालवत् उस काल में देहादि यदि स्वरूपसत्त्व से विधुर होंगे तब तो पूर्वोत्तर उभय काल में असत् होने से 'प्राक्' विशेषण निरर्थक है-इत्यादि जो पहले कारणसमवाय के विकल्प में दूषण दिये हैं वे सब यहाँ भी कहे जा सकते हैं। [ पृ० 436 ] फलित यह हुआ कि असत् का सत्तासमवाय होता है, अतः खरसींग का भी सत्तासमवाय सम्भवारूढ हो जायेगा क्योंकि देहादि असत्-खरसींग असत्- इन दोनों में कोई विशेषता तो है नहीं। बात यह है कि 'प्राग' यह विशेषण तो शशसींगादि से देहादि का व्यवच्छेद करने हेतु नैयायिक लगाते हैं, किन्तु सत्ता के सम्बन्धकाल में भी यदि देहादि में स्वरूपत: सत्त्व नहीं है तो खरशृङ्ग और उसमें विशेषता क्या हुयी? [न सत् न असत् कहना परस्परव्याहत है ] नैयायिकः-विशेषता यह है - कुर्मरोम (केंचुए के रोंगटे) अत्यन्त असत् होते हैं, देहादि अपने आप न तो सत् होते हैं और न असत् होते हैं, इसीलिये सत्ता के सम्बन्ध से देहादि 'सत्' कहे जाते हैं / __उत्तरपक्षी:-आपके जैसे जडात्मा को छोडकर कौन दूसरा ऐसा कहेगा? जब 'न सत्' ऐसा कहा तो सत्तासम्बन्ध के पहले उसके अभाव का प्रतिपादन हुआ, क्योंकि इसमें सत् का आप प्रतिषेध करते हैं / 'नाऽपि असत्' इस कथन से भाव का विधान हुआ, क्योंकि भाव असत्त्व के निषेधरूप होता है। तीसरी कोई राशि ही नहीं है। व्याकरणवेत्ताओं में भी यह न्याय प्रचलित है कि 'दो निषेध Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः .443 अत्र केचिद् ब्रुवते-नैवं प्रयोगः क्रियते, अपि तु 'सात्मकं जीवच्छरीरम् , प्राणादिमत्त्वात इति / तैरपि एवं प्रयोग कर्वदिः सात्मकत्वाभावो नियमेन प्राणादिमत्त्वाभावेन व्याप्तोऽभ्युपर न्तिव्यः, अन्यथा व्यभिचाराशंका न निवर्तेत / तदभ्युपगमे चेदमवश्यं वक्तव्यम् जीवच्छरीरे प्रारमदिमत्त्वं प्रतीयमानं स्वाभावं निवर्तयति, स च निवर्तमानः स्वव्याप्यं सात्मकत्वाभावमादाय निवर्तते, इतरथा तेनाऽसौ व्याप्तो न स्यात् / यस्मिन्निवर्तमाने यन्न निवर्तते न तेन तद् व्याप्तम् , यथा निवर्तमानेऽपि प्रदीपेऽनिवर्तमानः पटादिन तेन व्याप्तः, न निवर्तते च प्राणादिमत्त्वाभावे निवर्तमानेऽपि सात्मकत्वाभाव इति / निवर्तत इति चेत् तन्निवृत्तावपि यदि सात्मकत्वं न सिध्यति न तहि तदभावो निवर्तते, सात्मकत्वाभावाभावेऽपि तदभावस्य तदवस्थत्वात् / सिध्यतीति चेत् आयातमिदम्-'द्वौ प्रतिषेधौ प्रकृतमथं गमयतः' इति / तथा चेदमपि युक्त-'नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरम् , प्राणादिमत्त्वात्' इति / __ अन्ये तु मन्यन्ते-अन्यत्र दृष्टो धर्मः क्वचिद्धर्मिणि विधीयते, निषिध्यते च-इति वचनात् केवलं घटादौ नैरात्म्यमप्राणादिमत्त्वेन व्याप्तं दृष्टम् . तदेव निषिध्यते जीवच्छरीरे प्राणादिमत्त्वाभावेन, न पुनः सात्मकत्वं विधीयते, तस्याऽन्यत्राऽदर्शनात् इति / तेषां, घटादौ नैरात्म्यं प्रतिपन्नं प्रस्तुत अर्थ के विधायक होते हैं।' यदि यह नहीं मानगे तो 'यह देह निरात्मक नहीं है क्योंकि प्राणादिवाला है' इस प्रयोग में 'निर्' और 'न' दो पद से नैरात्म्य के निषेध से सात्मकत्व की सिद्धि कैसे करेंगे ?! [ नजद्वय गर्भित प्रयोग से बचने के लिये व्यर्थ उपाय ] कितने लोग ऐसा प्रयोग कर दिखाते हैं जिसमें दो नत्र पद का प्रयोग न करना पड़े। जैसे: वे कहते हैं कि दो नत्र का प्रयोग नहीं करना किन्तु-'जीवंत देह आत्मसहित है क्योंकि प्राणवंत है' ऐसा प्रयोग करना चाहिये / व्याख्याकार कहते हैं कि ऐसे प्रयोग करने वाले को भी सात्मकत्व का अभाव प्राणादिमत्त्व के अभाव से व्याप्त तो अवश्य मानना पड़ेगा। वरना, व्यभिचार की शंका -यदि सात्मकत्व के न रहने पर भी प्राणादिवत्ता रहे तो क्या बाध ?-यह शंका निवृत्त नहीं होगी। जब उसको व्याप्त मानेंगे तब ऐसा जरूर कहना होगा-जीवंत शरीर में प्रतीत होने वाला प्राणादिमत्त्व अपने अभाव को दूर करता है, दूर होने वाला प्राणादिमत्त्वाभाव अपने व्याप्यभूत सात्मकत्व के अभाव को भी वहाँ से दूर करता है। वरना वह (सा० अ०) उस (प्रा० अ०) का व्याप्त हो नहीं कहा जा सकता। जिस के दूर होने पर भी जो दूर नहीं हो जाता वह उसका व्याप्त नहीं होता. जैसे: दीपक दूर होने पर भी वस्त्रादि दूर नहीं होते अतः वस्त्रादि दीपक के व्याप्त नहीं होते / आपके मत में प्राणादिमत्त्व का अभाव दूर होने पर भी सात्मकत्व का अभाव दूर नहीं होता है / यदि कहें कि वह उसका व्याप्य होने से निवृत्त होगा-अर्थात् सात्मकत्वाभाव दूर होगा, तो भी सात्मकत्व की सिद्धि यदि नहीं मानेंगे तो उसका अभाव निवृत्त नहीं होगा क्योंकि सात्मकत्व के अभाव का अभाव होने पर भी सात्मकत्वाभाव को दूर होना नहीं मानते हैं ( जैसे कि आप 'न असत्' कथन द्वारा सत्त्वाभाव का अभाव होने पर भी सत्त्वाभाव का दूर होना यानी सत्त्व का होना नहीं मानते है ) / यदि सात्मकत्व की सिद्धि मानेंगे तब तो यह फलित हो ही गया कि 'दो नत्र पद से प्रस्तुत अर्थ का विधान होता है / तब तो 'यह देह निरात्मक नहीं है क्योंकि प्राणादिवाला है' इस प्रयोग में भी औचित्य मानना पडेगा। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 प्रतिषिध्यते इति भवतु सूक्तम् , तथापि तनिषेधसामर्थ्याद यदि जीवच्छरीरे सात्मकत्वं न स्यात् न तहि तत्र तनिषेधः-यदा हि नैरात्म्यनिषेधो न सात्मकः किन्तु यथात्मनोऽभावो नैरात्म्यं तथाऽस्या ऽपि तुच्छरूपः प्रात्मनोऽन्यत्वाद भंग्यन्तरेण नैरात्म्यमेव, पुनस्तनिषेद्धव्यम्, पूनरपि तनिषेधः तुच्छरूपो नैरात्म्यमित्यपरस्तनिषेधो मृग्यः तथा च सति अनवस्थानान्न नैरात्म्यनिषेधः / कि च यदि नाम घटादौ नैरात्म्यमुपलब्धं किमित्यन्यत्र निषिध्यते ? इतरथा देवदत्ते पाण्डित्यमुपलब्धं यज्ञदत्तादौ निषिध्येत / 'तत्र प्राणादिमत्त्वदर्शनादिति चेत् , युक्तमेतद् यदि प्राणादिमत्त्वं नैरात्म्यविरुद्धं स्यादग्निरिव शीतविरुद्धः, न चैवम् , अन्यथा सर्वमशेषविरुद्धं भवेत् / "प्राणादिमत्वेन स्वाभावो नैरात्म्यव्यापको विरुद्धः, ततः प्राणादिमत्त्वभावात् तदभावो निवर्तते, वह्निभावादिव शीतम् , स च निवर्तमानः स्वव्याप्यं नैरात्म्यमादाय निवर्तते यथा धूमाभावः पावकाभावमिति / " दत्तमत्रोत्तरम्-यदि नैरात्म्याभावः सात्मको न भवेत् , तदवस्थं नैरात्म्यमिति / [अन्यमत में नैरात्म्य के निषेध की अनुपपत्ति ] दूसरे विद्वान् कहते हैं-'अन्य स्थान में देखे गये धर्म का किसी एक मि में विधान या निषेध किया जाता है'-इस उक्ति के अनुसार मात्र घटादि में अप्राणादिमत्त्व के साथ व्याप्तिवाला नैरात्म्य देखा जाता है तो जीवंत देह में अप्राणादिमत्त्व के अभाव से नैरात्म्य का ही निषेध करते हैं, सात्मकत्व का विधान नहीं करते हैं, क्योंकि [ आत्मा दृष्टिअगोचर होने से ] सात्मकत्व अन्य स्थान में दृष्टिगोचर नहीं है। व्याख्याकार कहते हैं कि इन लोगों ने 'घटादि में दृष्ट नैरात्म्य का देह में प्रतिषेध करते हैं' यह तो ठीक ही कहा है, फिर भी नैरात्म्य के निषेध के बल से जीवंत देह में यदि सात्मकत्व को नहीं मानेंगे तो वहां नैरात्म्य का निषेध ही संगत नहीं होगा। क्योंकि जब आप नैरात्म्य के निषेध को सात्मक नहीं मानते है, किन्तु आत्मा का अभाव जैसे तुच्छ होता है वैसे नैरात्म्य का अभाव भी तुच्छ ही मानते है तब तो प्रकारान्तर से यह नैरात्म्य का निषेध नैरात्म्यस्वरूप ही फलित हुआ क्योंकि आत्मा से तो नैरात्म्य का अभाव भी अन्य ही है। अत: फिर से आपको एक बार जीवंत देह में अप्राणादिमत्त्व के अभाव से उस (नैरात्म्यनिषेधस्वरूप ) नैरात्म्य का निषेध करना पड़ेगा। वह निषेध भी तुच्छस्वरूप होने से नैरात्म्यरूप होगा तो उस का फिर से नया निषेध ढूंढना पड़ेगा। इस प्रकार निषेध का अन्त ही नहीं आयेगा / फलत: नैरात्म्य का निषेध अशक्य बन जायेगा। नैरात्म्य का अभाव को सात्मकत्वरूप ही है ] यह भी एक प्रश्न है कि घटादि में नैरात्म्य यदि उपलब्ध हुआ तो जीवंत देह में उसके निषेध की क्या जरूर ? यदि वैसे निषेध को मानेंगे तो देवदत्त में पांडित्य उपलब्ध होगा और यज्ञदत्त में उसका निषेध किया जा सकेगा। यदि कहें कि जीवंत देह में प्राणादि का दर्शन होता है अत: नैरात्म्य का निषेध करते हैं तो यह तभी युक्त होगा यदि प्राणादि नैरात्म्य का विरोधी हो, जैसे कि अग्नि शीत का विरोधी होता है। किन्तु वहाँ विरोध तो है नहीं, फिर भी यदि मानेंगे तो सब सभी का विरुद्ध बन जायेगा। * किन्तु शब्द का अन्वय 'नरात्म्यमेव' इसके साथ लगाना है। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकतृ त्वे सत्तासमीक्षा 445 'भवतु तहि नैरात्म्यनिषेधः सात्मकः' / तथा सति सत्तासम्बन्धात् प्राक् तन्वादि (दिना)ऽसत्-इति वचनात्तदा तस्य सत्वमुक्तम् , 'न सत्' इत्यभिधानादसत्त्वमिति विरोधः / ततोऽसदेव तदभ्युपगन्तव्यमिति न वन्ध्यासुतादेस्तनु-करणादेविशेषः / 'भवत्वेवं तथापि तन्वादेरेव सत्तासम्बन्धात् सत्त्वम् न खरश गादेः तथादर्शनादिति चेत् ? उक्तमत्र तथादर्शनोपायाभावादिति / / [ सत्तापदार्थसमीक्षा] अपि च सत्ताऽपि यदि असती, कथं ततो वन्ध्यासुतादेरिवाऽपरस्य सत्त्वम् ? सती चेद् यदि अन्यसत्तातः, अनवस्था, स्वतश्चेत , पदार्थानामपि स्वत एव सत्त्वं स्यादिति व्यर्थं तत्परिकल्पनम् / कि च यदि स्वत एव सत्ता सती उपेयते तदा प्रमाणं वक्तव्यम् / अथ स्वतः सत्ता सती, तत्सम्बन्धात् तन्वादीनां सत्त्वाऽन्यथानुपपत्तेः / तान्योन्याश्रयः, तत्सम्बन्धात् तन्वादिसत्त्वे सिद्ध सत्तासत्त्वसिद्धिः, ततस्तत्सम्बन्धात् तन्वादिसत्त्वसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / अथ सत्ता स्वतः सती, सदभिधानप्रत्ययविषयत्वात् , अवान्तरसामान्यादिवत् / न, द्रव्यादिना व्यभिचारः; द्रव्यादिरपि 'सद् द्रव्यम् , सन् गुणः, सत् कर्म' इत्येवं सदभिधानप्रत्ययविषयो भवति, न चासौ परेण स्वतः सन्नभ्युपगतः, सत्ताप्रकल्पनवैफल्यप्रसंगात्। पूर्वपक्षीः-प्राणादिमत्त्व नैरात्म्य से इस प्रकार विरुद्ध है कि-नैरात्म्य का व्यापक प्राणादिमत्त्वाभाव प्राणादि से विरुद्ध है यह तो सिद्ध ही है / अतः प्राणादि के सद्भाव से प्राणादिमत्त्व का अभाव दूर हो जायेगा जैसे कि अग्नि के सद्भाव से शीत दूर हो जाता है। जब प्राणादिमत्त्व का अभाव दूर होगा तो उसका व्याप्य नैरात्म्य भी दूर हो ही जायेगा, जैसे धूम का अभाव दूर होने पर अग्नि का अभाव भी दूर होता ही है। इस प्रकार जीवंत देह में नैरात्म्य का निषेध फलित क्यों नहीं होगा? - उत्तरपक्षी:-इसका उत्तर हमने पहले ही दे दिया है [ पृ० 444 पं० 2 ] कि नैरात्म्य का अभाव यदि सात्मक-रूप नहीं मानेंगे तो नैरात्म्य तदवस्थ ही रहेगा, उसका निषेध संगत नहीं हो सकेगा। __यदि नैरात्म्य के निषेध को सात्मक-रूप मान लेते हैं तो आप के पूर्वोक्त वचन में ऐसा विरोध फलित होगा कि 'सत्ता के सम्बन्ध से पहले देहादि असत् नहीं होते' इस वचन से सत्त्व का प्रतिपादन फलित होगा, और 'सत् भी नहीं होता' इस वचन से असत्त्व का। इस प्रकार असत्त्व और सत्त्व दोनों के प्रतिपादन में स्पष्ट विरोध होगा / सत्त्व तो आप मान ही नहीं सकेंगे, अतः सत्ता के सम्बन्ध से पहले असत् ही कहना होगा। निष्कर्ष:-देह करणादि और वन्ध्यासुतादि असत् पदार्थों में कोई विशेषता सिद्ध नहीं हुयी। यदि कहें कि-'विशेषता सिद्ध भले न हो फिर भी देहादि में ही सत्ता के सम्बन्ध से सत्त्व आता है, खरसींग आदि में नहीं, क्योंकि एक का सत्त्व और दूसरे का असत्त्व जाता है ।'-तो इसके प्रतिकार में पहले ही यह कहा जा चुका है कि ऐसा देखने का कोई उपाय ही नहीं है / जो उपलम्भ का कारण नहीं होता वह उसका विषय नहीं होता, असत् देहादि उपलम्भ के कारण न होने से उसके साथ सत्ता का सम्बन्ध कभी उपलम्भ का विषय नहीं बन सकेगा। [न्यायमत में सत्तापदार्थ की असंगति ] सत्-असत् की बात चलती है तो यह भी सोचना चाहिये कि सत्ता असत् है या सत् ? यदि वह Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च 'द्रव्यादौ तद्विषयत्वं परापेक्षं, न सत्तायामिति वक्तुं युक्तम् , तस्यामपि तदपेक्षत्वसंभवात् / अथ तत्र तस्य तदपेक्षत्वे किं तदपरमिति वक्तव्यम् / नन्वेतद् द्रव्यादावपि समानम् / 'तत्र सत्ता' इति चेत् ? 'अत्रापि द्रव्यादिकम्' इति तुल्यम् , यथैव हि सत्तासम्बन्धात् द्रव्यादिकं सत् न स्वतः, तथा द्रव्यादिस्वरूपसत्त्वसम्बन्धात् सत्ता सती न स्वतः / 'द्रव्यादेः स्वरूपसत्त्वं नास्ति तेनाऽयमदोषः'-तदस्तित्वे को दोष इति वाच्यम् ! ननु तस्या (स्य)स्वतः सत्त्वेऽवान्तरसामान्याभावप्रसंगो दोषः / ननु स्वतोऽसत्त्वे खरविषाणादेरिव सुतरां तदभावदोषः। वन्ध्यापुत्रादितुल्य स्वयं ही असत् है तो उस से दूसरा पदार्थ सत् कैसे हो सकेगा? यदि सत् है तो अन्य एक सत्ता से मानने पर, उस अन्य सत्ता को भी तृतीय सत्ता से सत् मानना होगा, फिर चतुर्थ पंचम....सत्ता की कल्पना का अन्त ही नहीं आयेगा। यदि स्वतः ही सत्ता को सत् मान लेंगे तो पदार्थों ने क्या अपराध किया है ? उनको भी स्वत: सत् माना जा सकता है, सत्ता की व्यर्थ कल्पना. क्यों करें ? ! दूसरा यह भी प्रश्न आयेगा कि सत्ता को स्वत: सत् मानने में प्रमाण क्या है ? पूर्वपक्षी:-'सत्ता स्वतः सत् है, क्योंकि अन्यथा उसके सम्बन्ध से देहादि के सत्त्व की उपपत्ति शक्य नहीं है'-यह अनुमान प्रमाण है। उत्तरपक्षी:-यहाँ अन्योन्याश्रय दोष लगता है-देहादि का सत्त्व सत्ता के सम्बन्ध से है यह सिद्ध होने पर सत्ता का स्वतः सत्त्व सिद्ध होगा और सत्ता का स्वतः सत्त्व सिद्ध होने पर उसके सम्बन्ध से देहादि का सत्त्व सिद्ध होगा। इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष प्रगट है। पूर्वपक्षी:-'सत्ता स्वतः सत् है, क्योंकि 'सत्' इस प्रकार के अभिधान और प्रतीति का विषय है, जैसे द्रव्यत्वादि अवान्तरसामान्य।' [ द्रव्यत्वादि 'द्रव्यत्व' इस प्रकार के अभिधान और प्रतीति के विषय होते हुए स्वत: ही द्रव्यत्वरूप होता है ] इस अनुमान से सत्ता में स्वत: सत्त्व सिद्ध किया जायेगा। उतरपक्षी:-यह बात ठीक नहीं, द्रव्यादिस्थल में व्यभिचार है। द्रव्यादि पदार्थ 'द्रव्य सत् है, गुण सत् है, क्रिया सत् है' इस प्रकार अभिधान और प्रतीति के विषय हैं किन्तु आप उन्हें स्वत: सत् नहीं मानते हैं / यदि उन्हें स्वतः सत् मानेंगे तब तो अतिरिक्त सत्ता की कल्पना ही वन्ध्य हो जायेगी। [ द्रव्यादिसम्बन्ध से सत्ता के सत्त्व की आपत्ति ] "द्रव्यादि में सद्बुद्धिविषयता पराधीन यानी स्वान्य सत्ता को अधीन है, सत्ता में ऐसा नहीं है। सत्ता अपने आप ही सत्-बुद्धिविषय बनती है।"-ऐसा भी कहना ठीक नहीं है, सत्ता में भी सत्बुद्धिविषयता परापेक्ष होने का सम्भव है। 'सत्ता को परापेक्ष मानेंगे तो वह पर= अन्य कौन है जिसके | 'सत्'बुद्धिविषय बनती है ?' इस प्रश्न के सामने यह प्रश्न है कि द्रव्यादि में भी वह पर अन्य कौन है ? यदि यहाँ द्रव्यादि में सत्ता को पर मानेंगे तो तुल्य रीति से सत्ता में भी द्रव्यादि को पर मान सकते हैं / जैसे आप द्रव्यादि को सत्ता के सम्बन्ध से स्वतः सत् नहीं किन्तु सत् मानेंगे वैसे हम सत्ता को भी स्वत: सत् नहीं किन्तु द्रव्यादि के सम्बन्ध से सत् मानेंगे / यदि कहें कि-'द्रव्यादि में स्वरूप सत्त्व है नहीं अतः उसके सम्बध से सत्ता को सत् मानने की आपत्ति ही नहीं है तो यह दिखाओ कि द्रव्यादि में स्वरूप सत्त्व मानने में दोष क्या है ? Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-सत्तापदार्थसमीक्षा 447 अपि च यो हि तत्र सत्तासम्बन्धं नेच्छति स कथमवान्तरसामान्यसम्बन्धमिच्छेत् ? न चात्र प्रमाणं स्वतोऽसन्तो द्रव्यादयो नाऽवान्तरसामान्यमिति / अथैतत्-द्रव्यादयो न स्वतः सन्तः, अवान्तरसामान्यवत्त्वात् , यत् पुनः स्वतः सत् न तदवान्तरसामान्यववद् यथा सामान्य-विशेष-समवाया इति व्यतिरेकी हेतुः / नैतद्-यदि हि द्रव्यादयो धर्मिणः, कुतश्चित् प्रतीति-गोचरचारिणेत्सन्तो भवन्ति [ स कथमवान्तरसामान्यसम्बन्धमिच्छेत् ? न चात्र प्रमाणं, स्वतोऽसन्तो द्रव्यादयो नाऽवान्तरसामान्यमिति / अथैतत्-द्रव्यादयो न स्वतः सन्तोऽवान्तरसामान्य ]वद्यथा सामान्यप्रतीतिः सत्त्वं साधयन्ती स्वत इति.प्रतिज्ञां तदसत्त्वविषयाबाधने चेद कमत्रोत्तरम्-'न स्वतः सन्तस्ते प्रतीतिविषयाः किंतु सत्तासम्बन्धाद'-इति, यतो 'न स्वयमसन्तस्तत्सम्बन्धात तद्विषया भवन्ति' इत्युक्तम् / किं च द्रव्यादेरेकान्तेन यस्य भिन्नान्यवान्तरसामान्यानि कथं तस्य तानि स्युः, यतोऽवान्तरसामान्यवत्त्वादिति हेतुः सिद्धः स्यात् ? अथ तथापि तस्या (स्ये)ति, न, परस्परमपि स्युरिति 'सामा पूर्वपक्षी:-द्रव्यादि को अपने आप ही सत् माना जायेगा तो द्रव्यत्वादि अवान्तर सामान्य को मानने की आवश्यकता ही मिट जायेगी. क्योंकि सत्तायोग के विना जैसे वह स्वतः सत् माना जायेगा / ऐसे द्रव्यत्वादियोग के विना स्वतः द्रव्यादिरूप भी माना जा सकेगा / यही दोष है। उत्तरपक्षीः-यदि द्रव्यादि को स्वरूपतः सद्रूप न मान कर असद्रूप मानते हैं तब तो गर्दभसींग आदि की भांति द्रव्यादि का नितान्त अभाव ही प्रसक्त होता है यह उससे भी बड़ा भारी दोष है / [द्रव्यादि स्वतः सत् नहीं है-इस अनुमान का भंग] यह भी आप सोचिये कि जो अतिरिक्त सत्ता के सम्बन्ध को ही नहीं मानते वे अवान्तरसामान्य के सम्बन्ध को भी क्यों मानेंगे ? 'द्रव्यादि स्वतः असत् हैं और अवान्तरसामान्य स्वतः असत् नहीं है' ऐसा भेद करने में कोई प्रमाण नहीं है, जिससे कि अवान्तरसामान्य को मानने के लिये बाध्य होना पड़े। पूर्वपक्षी:-द्रव्यादि स्वतः सत् नहीं क्योंकि द्रव्यत्वादि अवान्तरसामान्यवाले हैं। जो स्वतः सत् होता है वह अवान्तरसामान्य वाला नहीं होता जैसे सामान्य, विशेष और समवाय / यह व्यतिरेकी हेतु का प्रयोग है / इस अनुमान से द्रव्यादि के स्वतः सत्त्व का निषेध करेंगे। उत्तरपक्षी:- यह ठीक नहीं है, जब द्रव्यादि धमि पदार्थ किसी भी प्रकार से 'सत्' प्रतीति के विषय होते हैं तो वे अपने स्वतः सत्त्व को सिद्ध करते हुए 'वे स्वतः सत् नहीं है' इस प्रकार की उनके . असत्त्व का प्रतिपादन करने वाली आपकी प्रतिज्ञा को बाध क्यों नहीं करेंगे ? पूर्वपक्षीः द्रव्यादि स्वतः सत् होकर प्रतीतिविषय नहीं बनते किन्तु सत्ता के सम्बन्ध से 'सत्' प्रतीति के विषय बनते हैं / अतः बाध नहीं होगा। उत्तरपक्षी- यह उत्तर ठीक नहीं है, क्योंकि यदि वे स्वयं असत् होंगे तो सत्ता के सम्बन्ध से भी 'सत्' ऐसी प्रतीति के विषय नहीं बन सकते- यह पहले दिखा दिया है। * पुष्पिकान्तर्गतः पाठोऽशुद्ध इव, तत्रापि [ ] कोष्ठान्तर्गतस्तु पुनरावृत्तः, अतः सम्यग्विचार्याऽस्य स्थाने- "प्रतीतिगोचरीभवन्ति, कथं स्वतः सत्त्वं साधयन्तः 'न स्वतः सन्तस्ते' इति प्रतिज्ञां तदसत्त्वविषयां न बाधन्ते ? न चेद"-इति पाठः परामष्टः / तदनुसारेण च व्याख्याऽवलोक्या। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न्य-समवाया-त्परि(? यवि)शेषवत्' इति वैधर्म्यनिदर्शनमयुक्तम् / यदि मतम्-द्रव्यादौ तानि समवेतानि ततस्तस्य तानि न सामान्यादेविपर्ययादिति / तन्न सम्यक , 'तत्र समवेतानि' इति समवायेन सम्बद्धानीति यद्यर्थः, स न युक्तः, समवायस्य निषिद्धत्वानिषेत्स्यमानत्वाच्च / भवतु वा समवायः, तथापि यत्र द्रव्ये गुणे कर्मणि च द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वं चाऽवान्तरसामान्यं तत्रैव पृथिवीत्वादिनि रूपत्वादीनि गमनस्वादीनि च तथाविधानि सामान्यानि, समवायोऽपि तत्रैव सामान्यवत्तस्य सर्वगतत्वाच्च द्रव्यादिवदन्योन्यसत्तानीति न द्रव्यादेः स्वतः सत्त्वबाधनमित्याशंका न निवर्तेत-कि द्रव्यादिसम्बन्धात सत्ता सती, किं वा तया द्रव्यादिकं सत् ? इति / तन्न सत्तातः तन्वादेः सत्त्वम् , तस्या एवाऽसिद्धत्वात् / सत्ताप्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धत्वात् सत्तायाः, प्रत्यक्षबाधिविषयत्वेनैवमुपन्यस्यमानस्य प्रसंगसाधनस्यानवकाशः। न च द्रव्यप्रतिभासवेलायां प्रत्यक्षबुद्धौ परिष्फुटरूपेण व्यक्तिविवेकेन सत्ता न प्रतिभातीति शक्यं वक्तुम् , अनुगताकारस्य व्यावृत्ताकारस्य च प्रत्यक्षानुभवस्य संवेदनात् / न चानुगत [एकान्तभेद पक्ष में वैपरीत्य की उपपत्ति ] यह भी सोचने लायक है कि-जब द्रव्यादि से अवान्तरसामान्य को एकान्त भिन्न मानते हो तब 'अवान्तरसामान्य का द्रव्यादि' ऐसा न होकर 'द्रव्यादि का अवान्तरसामान्य' ऐसा कैसे होगा? तात्पर्य यह है कि द्रव्यादि को अवान्तरसामान्यवाले न मान कर अवान्तरसामान्य को ही द्रव्यादिवाला मान सकते हैं। तब 'अवान्तरसामान्य वाला होने से' यह पूर्वोक्त हेतु कैसे सिद्ध हो सकेगा ? यदि एकान्तभेद होने पर भी 'द्रव्यादि को ही अवान्तरसामान्यवाला' मानना चाहते हैं तो यह नहीं हो सकता क्योंकि परस्पर दोनों में मानना पड़ेगा, अर्थात् एकान्त भिन्न अवान्तरसामान्य जैसे द्रव्यादि में मानते हैं वैसे नियामकाभाव के कारण सामान्य-विशेष-समवाय में भी मानना पडेगा, अतः आपने जो व्यतिरेकि हेत प्रयोग करके सामान्यविशेष और समवाय को वैधर्म्य दृष्टान्त बनाया है वह भी अयुक्त ही ठहरेगा। यदि ऐसा मानेंगे कि-अवान्तर सामान्य द्रव्यादि में ही समवेत हैं अत: द्रव्यादि के ही अवान्तर सामान्य हो सकते हैं किन्तु विपरीतरूप से सामान्य-विशेष-समवाय के नहीं माने जा सकते ।-तो यह भी ठीक नहीं है / कारण, 'उनमें समवेत हैं' इस का यदि ऐसा मतलब है कि 'द्रव्यादि में समवाय से सम्बद्ध है -तो यह अयूक्त है क्योंकि समवाय का पहले प्रतिकार कर आये हैं और अग्रिम ग्रन्थ में किया भो जायेगा / अथवा मान लिजीये कि समवाय है, फिर भी सभी की सभी में अन्योन्य सत्ता हो जाने की आपत्ति इस प्रकार आती है कि जिन द्रव्य-गुण-कर्म में द्रव्यत्व गुणत्व कर्मत्व अवान्तरसामान्य रहता है उन्हीं में पृथ्वित्वादि - रूपत्वादि-गमनत्वादि अवान्तर सामान्य भी रहता है और उन्हीं में समवाय भी रहता है, तथा समवाय सामान्य की भाँति सर्वगत यानी व्यापक है अत: कौन सा अवान्तर सामान्य किस में रहे और किस में न रहे यहाँ कोई नियामक न होने से जैसे द्रव्यादि में द्रव्यत्वादि की सत्ता मानी जाती है वैसे ही सभी की सभी में समवाय से सत्ता मानी जा सकेगी। इस आपत्ति के कारण व्यतिरेकि हेतु प्रयोग से द्रव्यादि के स्वतः सत्त्व को कोई बाध नहीं पहुँच सकेगा। फलतः यह आशंका तदवस्थ रहेगी कि 'द्रव्यादिसम्बन्ध से सत्ता को सत् माने या सत्ता के सम्बन्ध से द्रव्यादि का सत् माने ?' निष्कर्ष, सत्ता के योग से देहादि का सत्त्व मानना अयुक्त है क्योंकि सत्ता का ही उपरोक्त रीति से कुछ ठीकाना नहीं है / Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उ०जाति० 449 व्यावृत्तवस्तुव्यतिरेकेण व्याकारा बुद्धिर्घटते / न हि विषयव्यतिरेकेण प्रतीतिरुत्पद्यते, नीलादिस्वलक्षणप्रतीतेरपि तथाभावप्रसंगात् / अथ तैमिरिकस्य बाह्यार्थसन्निधिव्यतिरेकेणाऽपि केशोण्डुकादिप्रतीतिरुदेति तथैवानुगतरूपमन्तरेणापि भिन्नवस्तुष्वनुगताकारा बुद्धिरुदेष्यतीति न ततः सत्ताव्यवस्था। तदयुक्तम्-तैमिरिकप्रतीतौ हि प्रतिभासमानस्य केशोण्डुकादेर्बाधक-कारणदोषपरिज्ञानादतत्त्वम् , सत्तादर्शने तु न बाधकप्रत्ययोदयः नापि कारणदोषपरिज्ञानमिति न तद्ग्राहिणो विज्ञानस्य मिथ्यात्वम् / तथाहि-विभिन्नेष्वपि घट-पटादिष्वर्थेषु ‘सत् सत्' इत्यभेदमुल्लिखन्ती प्रतीतिरुदयमासादयति, न चासौ कालान्तरादौ विपर्ययमुपगच्छन्ती लक्ष्यते, सर्वदा सर्वेषां घट-पटादिषु 'सत सत्' इति व्याहृतेः / व्यवहारमुपरचयन्ती च प्रतीति: परैरपि प्रमाणमभ्युपगम्यते / यथोक्तं तैः-'प्रामाण्यं व्यवहारेण' इति / तदेवमवस्थितम्-अनुगताकारा हि बुद्धिावृत्तरूपप्रतीत्यनधिगतं साधारणरूपमुल्लिखन्ती [सत्ताग्राही प्रत्यक्ष प्रमाणभूत है-पूर्वपक्ष ] नैयायिक की ओर से यहाँ दीर्घ पूर्वपक्ष प्रस्तुत होता है नैयायिकः-सत्ताग्राहक प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सत्ता प्रसिद्ध है। अत: सत्ता को असिद्ध करने के लिये आपने जो विस्तृत प्रसंग साधन दिखाया है वह निरवकाश है। प्रतिपक्षीः-द्रव्य को देखते हैं उस वक्त प्रत्यक्षबुद्धि में द्रव्यभिन्न सत्ता का स्पष्टरूप से भास होता नहीं है। - नैयायिकः-यह नहीं कह सकते क्योंकि द्रव्य को देखने पर द्रव्य का जो प्रत्यक्षानुभव होता है उसमें अनुगताकार का और व्यावृत्ताकार का संवेदन सभी को होता है। किसी अनुगत और व्यावृत्त वस्तु के विना बुद्धि में तदुभयाकारता की संगति नहीं की जा सकती। विषय के अभाव में कभी प्रत्यक्ष बुद्धि का जन्म नहीं हो पाता। विषय के अभाव में यदि बुद्धि का जन्म मान्य करेंगे तो नीलादि स्वलक्षण के विना भी उसके निविकल्प प्रत्यक्ष की उत्पत्ति शक्य हो जाने से नीलादि स्वलक्षण भी असिद्ध हो जायेगा। प्रतिपक्षी:-तिमिररोगवाले को बाह्यार्थ की सत्ता न होने पर भी केशोण्डुकादि की प्रतीति होती है [ रोगी जब खुले आकाश में देखता है तब उसको वहाँ बाल के विविध गुच्छ दिखाई देता है ] उसी तरह अनुगत रूप के विना भी विविध वस्तु में अनुगताकार प्रतीति का उदय हो जायेगा। अतः प्रतीति के बल पर सत्ता की व्यवस्था सिद्धि अशक्य है / नैयायिक:- यह बात अयुक्त है। तिमिररोग वाले की प्रतीति में दिखाई देने वाले केशोण्डुकादि का पीछे बाधकज्ञान होता है और नेत्ररूपकारण में तिमिर दोष का भी ज्ञान होता है, अत: उस प्रतीति के विषयभूत केशोण्डुकादि को मिथ्या मान सकते हैं / सत्ता को देखने के बाद किसी बाधक ज्ञान का उदय नहीं होता है, नेत्र में किसी दोष का भी उपलम्भ नहीं होता है, अतः सत्ताग्राहक प्रत्यक्ष विज्ञान को मिथ्या यानी भ्रमात्मक नहीं मान सकते। [ 'सत्-सत्' अनुगताकारप्रतीति से सत्तासिद्धि ] सत्ताग्राहक विज्ञान मिथ्या नहीं है यह इस प्रकार-घट पटादि विविध अर्थों में 'सत्-सत्' ऐसी अभेदोल्लेखवाली प्रतीति का उदय होता है, यह प्रतीति अन्य काल में भी वैपरीत्य को प्राप्त होती Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 सुपरिनिश्चितरूपा बाधाऽयोगात प्रमाणम् / सा च अक्षान्वय-व्यतिरेकानुसारितया प्रत्यक्षम् / तथाहिविस्फारितलोचनस्य घट-पटादिषु ( ? स्व) रूपमारूढां सत्तामुहिलखन्ती 'सत् सत्' इति प्रतीतिः, तदभावे च न भवतीति तदन्वय-व्यतिरेकानुविधायितया कथं न प्रत्यक्षम् ? तस्माद् बहुषु व्यावृत्तेषु तुल्याकारा बुद्धिरेकतामवस्यति / यच्चात्र विभिन्नेषु घटादिषु प्रतिनियतमेकमनुगतस्वरूपं सैव जातिः। अथ व्यक्तिव्यतिरिक्ता जातिरुपेयते, न च व्यक्तिदर्शनवेलायां तद्रूपसंस्पर्शविषयव्यतिरिक्तवपुरपरमनुगतिरूपं प्रतिभाति तत् कथं तत् सामान्यम् ? नैतदस्ति, यस्मादगृहीतसंकेतस्यापि तनुभृतः प्रथममुद्भाति वस्तु, द्वितीये तुल्यरूपतामनुसरति बुद्धिः, क्वचिदेव न सर्वत्र / प्रतिपत्त्यन्यता च सर्वत्र भेदव्यवहारनिबन्धनं तुल्यदेश-कालेऽपि रूप-रसादौ च / प्रतिपत्त्यन्यता च जातावपि विद्यते इति कथं न सा भिन्नाऽस्ति ? तथाहि-व्यक्त्याकारविवेकेन विशदमनुगतिरूपता भाति तद्विवेकेन च व्यावृत्तरूपतेति कथं व्यक्तिस्वरूपाद भिन्नावभासिनी जातिभिन्ना नाभ्युपगमविषयः ? हुयी नहीं दिखाई देती, क्योंकि सर्वकाल में सभी लोग घट पटादि में 'सत्-सत्' इस रूप से व्यवहार करते आये हैं / जिस प्रतीति से व्यवहार सिद्ध होता है उसको तो प्रतिवादी भी प्रमाण मानते ही हैं / जैसे कि प्रतिवादिओं ने ही कहा है-'प्रतीति का प्रामाण्य व्यवहार को अधीन है।' इस से यह सिद्ध होता है कि व्यावत्तरूपग्राहक प्रतीति से जिस का वेदन नहीं होता ऐसे साधारणरूप का उल्लेख करने वाली अत्यन्त निश्चयारूढ अनुगताकार प्रतीति प्रमाणभत है क्योंकि उसका कभी बाध नहीं होता। अब जो यह अनुगताकार प्रतीति है वह इन्द्रियों के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण करती है अतः उसे प्रत्यक्षात्मक ही मानना होगा / जैसे देखिये-खुले नेत्रवाले को घटपटादिस्वरूप पर आरूढ सत्ता का उल्लेख करने वाली 'सत-सत्' ऐसी प्रतीति होती है और आंख मंद देने वाले को नहीं होती है, इस प्रकार जब यह अनुगताकार प्रतीति नेत्रेन्द्रिय के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण करती है तो उसे प्रत्यक्ष क्यों न माना जाय ? अत: निष्कर्ष यह है कि भिन्न-भिन्न अनेक वस्तु में तुल्याकारावगाही बुद्धि एकरूपता का निश्चय करती है। भिन्न भिन्न घटादि में जो यह नियत रूप से एक अनुगतस्वरूप भासता है वही जाति कही जाती है / [ जाति की प्रतीति व्यक्ति से भिन्न होती है ] प्रतीपक्षीः-आप जाति को व्यक्ति से अलग मानते हैं, किन्तु व्यक्ति को जब देखते हैं तब व्यक्तिस्वरूप संस्पर्श यानी ज्ञान का जो विषय, उससे अलग स्वरूप वाला कोई भी अनुगतरूप भासमान नहीं होता तो फिर उस अनुगतरूप को अलग सामान्य रूप में कैसे माना जाय ? ___ नैयायिकः-ऐसा नहीं है, सामान्य में 'यही सामान्य है' ऐसे संकेत का जिसे भान नहीं है ऐसे ज्ञाता को भी पहले तो वस्तु का स्वरूप भासित होता है और बाद में वस्तु की तुल्य रूपता को बुद्धि ग्रहण करती है, हाँ ऐसा सर्वत्र नहीं किन्तु कभी कभी ही होता है यह बात अलग है / भेदव्यवहार का प्रयोजक सर्वत्र प्रतीतिभेद ही होता है जैसे कि समानकालीन एवं समानदेशवर्ती रूप और रस में प्रतीतिभेद के अलावा और कोई भेदप्रयोजक नहीं है। यदि व्यक्ति और सामान्य के विषय में भी उक्त रीति से प्रतीतिभेद मौजूद है तो जाति को भिन्न हो क्यों न माना जाय ? स्पष्ट ही बात है कि व्यक्तिस्वरूप से अतिरिक्तरूप में अनुगतरूपता का स्पष्ट भान होता है और अनुगतरूपता से अति Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उजाति० 451 अथैकेन्द्रियावसेयत्वात् जातिव्यक्त्योरेकता रूप-रसादौ तु भिन्नेन्द्रियग्राह्यत्वात् भेदः / तद'यसंगतम् , यतः एकेन्द्रियग्राह्यमपि वाताऽऽतपादिकं समानदेशं च भिन्न प्रतिभातीति भिन्नवपुरभ्यूपेयते तथा प्रतिनियतेन्द्रियविषयमपि जाति-व्यक्तिद्वयं भिन्न, भिन्नप्रतिभासादेव / तथाहि-घटमन्तरेणापि पटग्रहणे 'सत्-सत्' इति पूर्वप्रतिपन्ना सत्ताऽवगतिईष्टा, यदि तु व्यक्तिरेव सती न जातिः तत्सत्वेऽपि तदव्यतिरेका च, तथा सति व्यक्तिरूपवत् तदननुगतिरपि व्यक्त्यन्तरे प्रसज्येत / प्रतीयते च सदरूपता युगपद घट-पटादिषु परस्परविविक्ततनुष्वपि सर्वदा / तेनैकरूपैव जातिः, प्रत्यक्ष तथाभूताया एव तस्याः प्रतिभासनात् , शब्द-लिंगयोरपि तस्यामेव सम्बन्धग्रहणमिति ताभ्यामपि सा प्रतीयते / तदेवं प्रत्यक्षादिप्रमाणावसेयत्वात् सत्तायाः न तन्निराकरणाय प्रसंगसाधनानुमानप्रवृत्तिरिति / __ असदेतत्-यतो न व्यक्तिदर्शनवेलायां स्वरूपेण बहि ह्याकारतया प्रतीतिमवतरन्ती जातिरुद्भाति / नहि घट-पटवस्तुद्वयप्रतिभाससमये तदैव तव्यवस्थितमूतिभिन्नाऽभिन्ना वा जातिराभाति, रिक्तरूप में व्यावृत्तरूपता का भान होता है तो फिर व्यक्तिस्वरूप से भिन्नरूप में भासमान जाति को अलग रूप में ही मान्यता प्रदान क्यों न को जाय ? [समानेन्द्रियग्राह्य होने पर भी जाति--व्यक्ति भिन्न है] प्रतिपक्षी:-जाति और व्यक्ति ये दोनों सामान इन्द्रिय से ग्राह्य है अतः उनमें अभेद होता है, रूप और रसादि सामानदेश-कालवर्ती होने पर भी भिन्न भिन्न इन्द्रिय से ग्राह्य है अत: उसमें भेद होता है। नैयायिक:-यह भी असंगत है क्योंकि वात और आतप दोनों समानदेशवर्ती है इतना ही नहीं, समानेन्द्रिय (स्पर्शन) से ग्राह्य भी होते हैं, फिर भी उन का प्रतिभास भिन्न भिन्न होने से उन दाना को भिन्नस्वरूप माना जाता है। तो इसी प्रकार प्रतिनियत ( किसी अमूक ही ) इन्द्रिय के विषय होते हुए भी भिन्न प्रतिभास के कारण जाति और व्यक्ति को अलग अलग ही मानना चाहिये / जैसे देखिये-घट न होने पर भी घट में 'सत्-सत्' इस प्रकार पूर्वोपलब्ध सत्ता जाति का उपलम्भ पट के उपलम्भ में होता हुआ देखा जाता है / यदि केवल व्यक्ति ही परमार्थरूप होतो, जाति नहीं, अथवा जाति पारमार्थिक होने पर भी व्यक्ति से अभिन्न ही होती तब तो पट के उपलम्भ में जैसे व्यक्तिस्वरूप का अननुगम होता है तथैव जाति का भी अननुगम ही होता, दिखता तो अनुगम है। परस्पर भिन्न स्वरूपवाले घट-पटादि में भी एक साथ ही अनुगत रूप से सद्रूपता का उपलम्भ सदा होता है / इससे यह सिद्ध होता है कि व्यक्ति भिन्न होने पर भी सत्ता आदि जाति एकरूप ही होती है / प्रत्यक्ष में भी वह एकरूप ही भासित होती है। शब्द के संकेत का ग्रहण भी जाति में ही होता है और लिंग में भी जो लिंगी के अविनाभाव सम्बध का ग्रहण होता है वह भी जाति के साथ ही होता है व्यक्ति के साथ नहीं, अत एव समान जातीय भिन्न भिन्न शब्द से समान अर्थ भासित हो सकता है और समानजातीय लिंग से समानजातीय लिंगी का भान होता है उसमें जाति भी भासित हुए विना नहीं रहती। निष्कर्षः-सत्ता जाति प्रत्यक्षादि प्रमाणों से उपलब्ध होती है अतः उसके खण्डन के लिये प्रसंग साधनरूप अनुमान की प्रवृत्ति सार्थक नहीं है / [ पूर्वपक्ष समाप्त ] Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ तदाकारस्यापरस्य ग्राह्यतया बहिस्तत्राऽप्रतिभासनात् / बहिर्गाहावभासश्च बहिरर्थव्यवस्थाकारी, नान्तरावभासः। यदि तु सोऽपि तव्यवस्थाकारी स्यात् तथासति हृदि परिवर्तमानवपुषः सुखादेरपि प्रतिभासाद् बहिस्तव्यवस्था स्यात् , तथा च 'सुखाद्यात्मकाः शब्दादयः' इति सांख्यदर्शनमेव स्यात् / अथ सुखादिराकारो बाह्यरूपतया न प्रतिभातीति न बहिरसौ, जातिरपि तहिन बहीरूपतया प्रति भातीति न बहीरूपाऽभ्युपगन्तव्या। यतः कल्पनामतिरपि दर्शनदृष्टमेव घटादिरूपं बहिरुल्लिखन्ती तगिरं चान्तः प्रतिभाति, न तु तद्वयतिरिक्तवपुषं जातिमुद्द्योतयति / तन्न तदवसेयापि बहिर्जातिरस्ति। तैमिरिकज्ञाने बहिष्प्रकाशमानवपुषोऽपि हि केशोण्डकादयो न तथाऽभ्युपेयन्ते, बाध्यमानज्ञानविषयत्वात् / जातिस्तु न बहोरूपतया क्वचिदपि ज्ञाने प्रतिभातीति कथं सा सत्त्वाभ्युपगमविषयः ? बुद्धिरेव केवलं घट-पटादिषु प्रतिभासमानेषु 'सत सत्' इति तुल्यतनुराभाति / यदि तहि न बाह्या जातिरस्ति बुद्धिरपि कथमेकरूपा प्रतिभाति, न हि बहिनिमित्तमन्तरेण तदाकारोत्पत्तिमती सा युक्ता ? ननु केनोच्यते बहिनिमित्तनिरपेक्षा जातिमतिरिति, किन्तु बहिर्जातिन निमित्तमिति / बाह्यास्तु व्यक्तयः काश्चिदेव जातिबुद्धेनिमित्तम् / [व्यक्ति को देखते समय जाति का भान नहीं होता-उत्तरपक्ष / नैयायिक ने जो दीर्घ पूर्वपक्ष स्थापित किया है उसके सामने अब उत्तरपक्षी अपनी बात प्रस्तुत करते हुए कहता है कि नैयायिक का यह प्रतिपादान गलत है-कारण यह है कि, जब व्यक्ति को देखते हैं तब बाह्यरूप से ग्राह्याकारवाली जाति का अपने स्वतन्त्ररूप से प्रतीति में अवतार देखा नहीं जाता / जिस समय में घट और पट दो वस्तु का प्रतिभास होता है उसी वक्त घटादि से भिन्न या अभिन्न ऐसी किसी जाति का भास नहीं होता जो घटादि में ही विद्यमानस्वरूपवाली हो। क्योंकि, घटादि से अन्य कोई सामान्याकार वहाँ बाह्यदेश में ग्राह्यरूप से लक्षित ही नहीं होता / और यह तो निर्विवाद है कि बाह्य अर्थों की व्यवस्था को बाह्यदेश में ग्राह्यरूप से प्रतीत होने वाली वस्तु का अवभास ही कर सकता है, भीतरी अवभास नहीं / यदि भीतरी अवभास को भी बाह्यवस्तु की व्यवस्था का संपादक मानेंगे तब तो जिसका स्वरूप हृदय के भीतर में भासित होता है वैसे सुखादि का प्रतिभास भी सुखादि को बाह्यपदार्थ के रूप में ही स्थापित करेगा, परिणाम यह होगा कि सांख्यदर्शन में जो यह माना जाता है कि बाह्यरूप से भासमान शब्दादि से सुखादि भिन्न नहीं है-उसी का समर्थन हो जायेगा। आशय यह है कि शब्दादि को तो सब बाह्य मानते हैं, सुखादि को नहीं। किन्तु सांख्यदर्शन में सुखादि को आत्मा का नहीं, प्रकृति ( बुद्धि ) रूप बाह्यपदार्थ का ही गुण धर्म माना जाता है / इसका समर्थन हो जायेगा। यदि ऐसा कहें कि-सुखादि आकार बाह्यरूप से भासित नहीं होता अत एव बाह्य नहीं हो सकता ।-तो उसी तरह जाति भी घटादिवत् बाह्यरूप से भासित नहीं होती है अत: उसे बाह्यपदार्थ के रूप में मानना असंगत है। कारण, सविकल्पज्ञान ( जिसको बौद्ध प्रमाण ही नहीं मानते वह ) भी निर्विकल्पज्ञान में दृष्ट घटादि पदार्थ को और उसकी प्रतिपादकवाणी को बाह्यरूप में भासित करता हुआ स्वयं भीतर में अनुभूत होता है, किन्तु कहीं भी बाह्यरूप से जाति का उद्भासन नहीं करता है। सारांश, बाह्यरूप में जाति सविकल्पबोधगम्य भी नहीं है। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1- ईश्वरकर्तृत्वे उ०जाति० 453 ननु यदि व्यक्तिनिबन्धनाऽनुगताकारा मतिः, तथा सति यथा खण्ड-मुण्डव्यक्तिदर्शने 'गौगौं:' इति प्रतिपत्तिरुदेति तथा गिरिशिखरादिदर्शनेऽपि 'गौगौंः' इत्येतदाकारा प्रतिपत्तिर्भवेत् व्यक्तिभेदाऽविशेषात् / तदयुक्तम् -भेदाऽविशेषेऽपि खण्ड-मुण्डादिव्यक्तिषु 'गौगौंः' इत्याकारा मतिरुदयमासादयन्ती समुपलभ्यत इति ता एव तामुपजनयितु समर्था इत्यवसीयते, न पुगिरिशिखरादिषु 'गौगौः' इति मतिहष्टेति न ते तन्निबन्धनम् / यथा च आमलकीफलादिषु यथाविधानमुपयुक्तेषु व्याधिविरतिलक्षणं फलमुपलभ्यत इति तान्येव तद्विधौ समर्थानोत्यवसीयते, भेदाऽविशेषेऽपि न पुनस्त्रपुष-दध्यादीनि / अथ भिन्नेष्वपि भावेषु 'सत्-सत' इति मतिरस्ति, विभिन्नेषु च भावेषु यदेकत्वं तदेव जातिः / तत्रोच्यते-तदेकत्वं घट-पटादिषु किमन्यत् उताऽनन्यत् ? न तावदन्यत् , तस्याऽप्रतिभासनादित्युक्तेः / नाप्यनन्यत , एकरूपाऽप्रतिभासनात् , नहि घटस्य पटस्य चैकमेव रूपं प्रतिभाति, सर्वात्मना प्रतिद्रव्यं भिन्नरूपदर्शनात् / तस्मादप्रतीतेरभिन्नाऽपि जाति स्ति, बुद्धिरेव तुल्याकारप्रतिभासा 'सत्-सत्' इति शब्दश्च दृश्यत इति तदन्वय एव युक्तः न जात्यन्वयः, तस्याऽदर्शनात् / न च बुद्धिस्वरूपमप्यपरबुद्धिस्वरूपमनुगच्छति इति न तदपि सामान्यमित्येकानुगतजातिवादो मिथ्यावादः / [वाह्यार्थ के रूप में जाति का भान नहीं होता ] केशोण्डुकादि तिमिर रोगी के ज्ञान में बाह्यरूप से प्रकाशित होने पर भी उत्तरकालीन बाधक से उस ज्ञान का विषय बाधित होने के कारण केशोण्डुकादि को कोई वास्तव नहीं मानते / जाति की बात तो इससे भी निराली है, किसी भी ज्ञान में बाह्यरूप से जाति भासित ही नहीं होती तो उसको सत्रूप से स्वीकृति का पात्र कैसे माना जाय ? सच बात यह है कि घट-पट का जब प्रतिभास होता है तब 'सत्-सत्' इस तुल्य आकार से अपनी बुद्धि ही भासित होती है। - नैयायिक:-जब जाति जैसा कोई बाह्य पदार्थ ही नहीं है तब बुद्धि का एकरूप प्रतिभास भी कैसे होगा? बाह्यनिमित्त के विना ही एकरूपाकार बुद्धि की उत्पत्ति भी संगत नहीं है / . उत्तरपक्षीः-कौन कहता है कि जाति की बुद्धि बाह्य किसी निमित्त के विना ही होती है ? निमित्त तो है ही किन्तु वह जातिरूप नहीं है / बाह्य घट-पटादि कुछ व्यक्तियाँ ही जाति की बुद्धि यानी एकाकार प्रतीति में निमित्त बनती हैं / [ सर्वत्र समानाकार प्रतीति की आपत्ति मिथ्या है ] नैयायिकः-अनुगताकारवाली बुद्धि यदि केवल व्यक्तिमूलक ही होती है तो जैसे खंड और मंड गो-व्यक्ति को देखने पर गाय-गाय'-इस प्रकार अनगताकार बद्धि होती है, उसी तरह गिरि-शिखरादि को देखने पर भी 'गाय गाय' इस प्रकार अनुगत बुद्धि होनी चाहिये, क्योंकि व्यक्तिभेद तो खंड और मुंड गो-व्यक्ति में है वैसे ही गो और गिरि-शिखरादि में भी है-उसमें कोई विशेषता नहीं है / उत्तरपक्षी:-यह बात गलत है / व्यक्तिभेद -तुल्य होने पर भी खंड-मुंडादि व्यक्ति ही 'गायगाय' ऐसी समानाकार प्रतीति के उत्पाद में समर्थ प्रतीत होती है, गिरि-शिखरादि समर्थ प्रतीत नहीं होते, क्योंकि खंड-मुंड व्यक्ति को देखने पर ही 'गाय-गाय' इस प्रकार की बुद्धि का उदय देखा जाता है, गिरि-शिखरादि को देखने पर 'गाय-गाय' ऐसी बुद्धि का उदय नहीं देखा जाता है / उदा० आमला के फल और गडूची आदि में परस्पर भेद होने पर भी विधि अनुसार उसका प्रयोग करने पर रोग Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अपि च, अनेकव्यक्तिव्यापि सामान्यं तद्वादिभिरभ्युपगम्यते / न च तद्व्यापित्वं तस्य केनचित ज्ञानेन व्यवस्थापयितु शक्यम् / तथाहि-संनिहितव्यक्तिप्रतिभासकाले जातिस्तद्व्यक्तिसंस्पशिन मवभाति न व्यक्त्यन्तरसम्बन्धितया, तस्यास्तथाऽसन्निधानेन प्रतिभासाऽयोगात् / तदप्रतिभासे च तन्मिश्रताऽपि नावगतेति कथमसन्निहितव्यक्त्यन्तरसम्बद्धशरीरा जातिरवभाति / यदेव हि परिस्फुटदर्शने प्रतिभाति रूपं तदेव तस्या युक्तम् , दर्शनाऽसंस्पशिनः स्वरूपस्याऽसंभवात , सम्भवे वा तस्य दृश्यस्वभावाद् भेदप्रसंगात , तदेकत्वे सर्वत्र भेदप्रतिहतेः अनानक जगत् स्यात् / दर्शनगोचरातीतं च. व्यक्त्यन्तरसम्बद्धं जातिस्वरूपमप्रतिभासनादसत् प्रतिभासने वा तस्य तत्सम्बद्धानां व्यवहितव्यक्त्यन्तराणामपि प्रतिभासप्रसंग इति सकलजगत्प्रतिभासः स्यात् / अथ मतम्-संनिहितव्यक्तिदर्शनकाले व्यक्त्यन्तरसम्बन्धिनी जातिन भाति, यदा तु व्यक्त्यन्तरं दृश्यते तदा तद्दर्शनवेलायां तद्गतत्वेन जातिराभातीति साधारणस्वरूपपरिच्छेदः पश्चात् सम्भवतीति, ततश्च पश्चादर्थान्वयदर्शने कथं न तस्यास्तव्यापिताग्रहः ? असदेतत्-यतो व्यक्त्यन्तरदर्शनकालेऽपि विनाशरूप फल प्राप्त होता है अतः आमला के फल आदि ही रोगविनाशकार्य में समर्थ जाने जाते हैं, व्यक्तिभेद तो ककडी और दहीं आदि में भी है किन्तु वे रोगविनाशक नहीं देखे जाते / [भिन्नव्यक्ति में तुल्याकारप्रतीति का आलम्बन बुद्धि है ] नैयायिकः-भिन्न पदार्थों में भी 'सत्-सत्' ऐसी बुद्धि तो होती ही है / अतः उनमें एकरूपता होनी ही चाहिये, भिन्न पदार्थों में यह जो एकरूपता है वही जाति है। उत्तरपक्षी:-इसमें यह कहना है कि घट-पटादि से व एकत्व भिन्न है या अभिन्न ? भिन्न नहीं मान सकते क्योंकि व्यक्ति से भिन्न जाति का दर्शन ही नहीं होता यह पहले कह दिया है [पृ० 451-10] अभिन्न भी नहीं कह सकते क्योंकि वह एकाकार व्यक्ति से अलग ही भासित होने का आप मानते हैं। घट और पट का कहीं भी एक स्वरूप भासित नहीं होता, प्रत्येक द्रव्य सर्वथा एक-दूसरे से भिन्न ही भासित होते हैं। इससे यह फलित होता है कि प्रतीत न होने के कारण, व्यक्ति से अभिन्न भी कोई जाति पदार्थ नहीं है / तब जो तुल्याकार प्रतिभास होता है वह बुद्धिस्वरूप हो है, जिसको दिखाने के लिये 'सत्-सत्' ऐसा शब्दप्रयोग किया जाता है / अत: भिन्न भिन्न व्यक्तिओं में तुल्याकार बुद्धि का ही अन्वय मानना युक्त है, स्वतन्त्र एक जाति का नहीं, क्योंकि वैसा दिखता नहीं है / एकबुद्धिस्वरूप दूसरे बुद्धिस्वरूप से कभी अनूगत प्रतीत नहीं होता इसलिये सामान्य को बुद्धिस्वरूप भी नहीं माना जा सकता / निष्कर्ष:-एक अनुगत जाति का प्रतिपादन मिथ्या प्रतिपादन है / जाति में अनेक व्यक्तिव्यापकता की अनुपपत्ति ] दूसरी बात यह है कि नैयायिकवादि लोग सामान्य को अनेक व्यक्ति में व्यापक एक तत्त्व मानते हैं। किंतु उसकी अनेकव्यक्तिव्यापकता किसी भी ज्ञान से स्थापित नहीं की जा सकती। देखिये-निकटवर्ती व्यक्ति के प्रतिभासकाल में उस व्यक्ति से सम्बद्ध जाति का ही स्पष्ट भान हो सकता है, अन्य व्यक्ति के सम्बन्धीरूप में उस जाति का उसी काल में भान नहीं हो सकता, क्योंकि अन्यव्यक्ति उस काल में निकटवर्ती न होने से उसका बोध शक्य नहीं है / उस अन्य व्यक्ति का बोध न होने से उसमें मिश्रित रूप से अर्थात् तवृत्तित्वरूप से जाति का भी भान नहीं हो सकता, तब अनिकटवर्ती अन्य व्यक्ति से सम्बद्ध स्वरूपवाली जाति का भान कैसे हो सकता है ? स्पष्ट दर्शन में Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उ०पक्षे जाति० 455 तत्परिगतमेव जातेः स्वरूपं प्रतिभाति न पूर्वव्यक्तिसंस्पर्शितया, तस्याः प्रत्यक्षगोचरातिकान्ततया तत्सम्बद्धस्यापि रूपस्य तदतिकान्तत्वात् / तत् कथं सन्निहिताऽसन्निहितव्यक्तिसम्बद्धजातिरूपावगमः ? अथ प्रत्यभिज्ञानादनेकव्यक्तिसम्बन्धित्वेन जातिः प्रतीयते / ननु केयं प्रत्यभिज्ञा ? यदि प्रत्यक्षम् , कुतस्तदवसेया जातिरेकानेकव्यक्तिव्यापिनी प्रत्यक्षा? अथ नयनव्यापारानन्तरं समुपजायमाना प्रत्यभिज्ञा कथं न प्रत्यक्षम् , निर्विकल्पकस्याप्यक्षान्वय-व्यतिरेकानुविधानात् प्रत्यक्षत्वं तदत्रापि तुल्यम् ? असदेतद् , यदि अक्षजा प्रत्यभिज्ञा, तथा सती प्रथमव्यक्तिदर्शनकाले एव समस्तव्यक्तिसम्बद्धजातिरूपपरिच्छेदोऽस्तु / अथ तदा स्मतिसहकारिविरहान्न तत्त्वावगतिः, यदा तु द्वितीयव्यक्तिदर्शनं तदा पूर्वदर्शनाहितसंस्कारप्रबोधसमुपजातस्मतिसहितमिन्द्रियं तत्त्वदर्शनं जनयति / तदप्यसत्यतः स्मरणसचिवमपि लोचनं पुरःसंनिहितायामेव व्यक्तौ तत्स्थजातौ च प्रतिपत्ति जनयितुमीशम् , न पूर्वव्यक्ती, असंनिधानात् / तन्न तत्स्थितां जाति दर्शनं परिदृश्यमाने व्यक्त्यन्तरे संधत्ते। उसका जैसा स्वरूप भासित होता हो, उसीको उसका स्वरूप मानना युक्तियुक्त है, क्योंकि जो स्वरूप दर्शन में नहीं भासता उसकी सम्भावना ही नहीं की जा सकती। यदि उस अदृश्य रूप की भी सम्भावना की जाय तो दृश्यस्वभाव वाली वस्तु से उसको भिन्न ही मानना होगा, यदि उनमें दृश्यत्व और अदृश्यत्व का विरोध होने पर भी एकत्व मानेंगे तो सर्वत्र भेद का विलोप हो जाने से जगत् में वैविध्य न रह कर केवल एकरूपता ही प्रसक्त होगी। अन्य व्यक्ति से सम्बद्ध माने जाने वाली जाति का स्वरूप : दर्शन की विषयमर्यादा से बाह्य होने से असत् है क्योंकि उसका प्रतिभास नहीं हो सकता। यदि उसका प्रतिभास होने का मानेंगे तो उससे सम्बद्ध अन्य अनेक दूरवर्ती व्यक्तियों का भी प्रतिभास होने लग जायेगा। फलतः एक सत्त्व जाति के द्वारा सारे जगत् का प्रतिभास प्रसक्त होगा। [ पूर्वोत्तरव्यक्ति में जाति की साधारणता अनुभवबाह्य ] - कदाचित् नैयायिकों का मत ऐसा हो कि-निकट की व्यक्ति के दर्शन काल में अन्यव्यक्तिसम्बन्धिरूप में जाति का भान नहीं होता, किन्तु पीछे जब अन्य व्यक्ति को देखते हैं तब उसके दर्शनकाल में तद्वृत्तित्वरूप से जाति भी दिखाई देती है, इस प्रकार वह जाति पूर्वदृष्ट और पश्चाद् दृष्ट व्यक्तिद्वय का साधारण तत्त्व है ऐसा बोध पोछे से हो जाता है। जब इस प्रकार जाति में पीछे से भिन्न भिन्न व्यक्ति में अन्वय का दर्शन सम्भव है तो जाति अनेक व्यक्ति में व्यापक है ऐसा ज्ञान क्यों नहीं होगा? किन्तु ऐसा मत ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यव्यक्ति के दर्शनकाल में भी तद्वृत्तित्वरूप से ही जाति का स्वरूप उपलब्ध होता है, 'पूर्वव्यक्ति में भी यह जाति आश्रित है' ऐसा बोध उस वक्त शक्य नहीं है, क्योंकि पूर्वव्यक्ति उस वक्त प्रत्यक्ष को विषयमर्यादा से बाहर है, अतः तदाश्रित जाति भी प्रत्यक्षविषयमर्यादा से बाहर हो है / तो अब प्रश्न खड़ा रहता है कि जाति का स्वरूप निकटवर्ती एवं दूरवर्ती व्यक्तिओं में एक साथ आश्रित है यह कैसे जाना जाय ? [प्रत्यभिज्ञा से अनेकव्यक्तिवृत्तित्व का बोध अशक्य ] नैयायिकः-जाति अनेकव्यक्तिओं में सम्बद्ध है ऐसी प्रतीति प्रत्यभिज्ञा से हो सकती है। उत्तरपक्षी:-प्रत्यभिज्ञा क्या है ? यदि प्रत्यक्षप्रमाणात्मक उसे मानते हैं तो उससे अनेक व्यक्ति में व्यापक प्रत्यक्ष जाति का अवबोध कैसे होगा ? अनेक व्यक्ति का प्रत्यक्ष तो होता नहीं। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथेन्द्रियवृत्तिर्न स्मरणसमवायिनी करणत्वादिति नासौ संधानकारिणी, पुरुषस्तु कर्तृतया स्मृतिसमवायोति चक्षषा परिगतेऽर्थे तदुपदशितपूर्वव्यक्तिगतां जाति संधास्यतीति / तदसत् यतः सोऽपि न स्वतन्त्रतयाऽर्थग्राहकः किन्तु दर्शनसहायः / यदि पुनः स्वतन्त्र एवार्थग्राहकः स्यात् तथा सति स्वापमद-मूर्छादिष्वपि सर्वव्यक्त्यनुगतजातिप्रतिपत्तिः स्यात् / तस्मादात्माऽपि दर्शनसहाय एवाऽर्थवेदी। दर्शनं च पुरः संनिहितं व्यक्तिस्वरूपमनुसरति, न हि स्मृतिगोचरमपि पूर्वदृष्टव्यक्तिगतं जात्यादिकमिति न दर्शनसहायोऽपि तदनुसन्धानसमर्थ आत्मा। अथ स्मरणोपनीतं जातिरूपमात्मा तत्र संधास्यति / नन्वत्रापि स्मृतिः परिहृतपुरोवत्तिव्यक्तिदर्शनविषया पूर्वदृष्टमर्थमनुसरन्ती संलक्ष्यते, तत्कथं पुरोत्तिन्यप्रवर्त्तमाना स्वविषयान् सामान्यादीन् तत्र संघटयितु क्षमा? तदस्मतं च संघटनं कथमात्मापि कर्तुं क्षमः ? तथाहि-दर्शने सति द्रष्टरि नैयायिकः-नेत्रव्यापार के बाद उत्पन्न होने वाली प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष क्यों नहीं ? निर्विकल्प ज्ञान इन्द्रिय के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण करता है इसलिये तो उसे प्रत्यक्ष माना जाता है, प्रत्यभिज्ञा में भी यही बात तुल्य है। उत्तरपक्षीः-यह भी गलत है। यदि प्रत्यभिज्ञा इन्द्रियजनित है तब तो प्रथम व्यक्ति के दर्शनकाल में ही 'जाति सकलव्यक्तिओं से सम्बद्ध है' ऐसा बोध हो जाना चाहिये। नैयायिकः-सकलव्यक्तिओं से सम्बद्धरूप में जाति के दर्शनात्मक प्रत्यभिज्ञा ज्ञान में स्मृति सहकारी कारण है अत एव उसके विरह में प्रथमव्यक्ति को देखने से सकलव्यक्ति सम्बन्धितया जाति के भान नहीं होता / जब दूसरे व्यक्ति को देखते हैं तब पूर्वदर्शनजनित संस्कार के उद्बोध से उत्पन्न होने वाली स्मृति के सहकार से इन्द्रिय सकलव्यक्तिसम्बन्धितया जाति के दर्शन को उत्पन्न कर देती है / उत्तरपक्षीः-यह भी गलत है। क्योंकि, नेत्रेन्द्रिय को स्मृति का सहकार मिलने पर भी सम्मुखवर्ती व्यक्ति और तदाश्रित जाति का ही बोध उससे उत्पन्न होने की शक्यता है, पूर्वव्यक्ति का अथवा पूर्वव्यक्ति में आश्रितरूप से जाति का बोध शक्य नहीं है, क्योंकि उस वक्त उसका संनिधान ही नहीं है / प्रत्यक्ष में विषय का संनिधान प्रथम आवश्यक है / अतः यह मानना होगा कि दर्शन पूर्वव्यक्ति में आश्रित जाति का दृश्यमान व्यक्ति में अनुसन्धान नहीं कर सकता। [कर्ता से जाति का अनुसन्धान अशक्य ] नैयायिकः-इन्द्रिय की वृत्ति से अनुसंधान न होने की बात ठीक है। कारण, इन्द्रियवृनि में समवाय से स्मृति नहीं रहती क्योंकि इन्द्रिय तो करण है। किन्तु पुरुष तो कर्ता होने से स्मृति का समवायी भी है अतः वह नेत्र से उपलब्ध द्वितीय व्यक्ति में स्मृति से उपलब्ध पूर्वव्यक्तिगत जाति का अनुसंधान कर सकेगा। उत्तरपक्षी:-यह बात गलत है। कारण, आत्मा स्वतन्त्र रूप से अर्थ का ग्राहक नहीं होता किन्तु दर्शन की सहायता से होता है / यदि वह स्वतन्त्ररूप से ही अर्थ का ग्राहक होता तब तो निद्रा, उन्माद और बेहोश दशा में भी सकल व्यक्ति अनुगत जाति का भान करते रहता। अत: आत्मा भी दर्शन की सहायता से ही अर्थवेदी होता है। यह तो प्रसिद्ध ही है कि दर्शन सम्मुखवर्ती व्यक्ति स्वरूप को ही भासित करता है / पूर्वदृष्ट व्यक्ति में आश्रित जाति स्मृति का विषय होने पर भी. दर्शन उसको प्रकाशित नहीं करता है अतः दर्शन की सहायता से भी आत्मा, जाति के अनुसन्धान में सशक्त नहीं है। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 457 तस्य स्वरूपे जाते तन्निमग्नं न स्मृतिकृतं स्मर्तृ रूपं भाति / यदि तु भाति तथा सति द्रष्टरूप एवासी, न स्मर्ता / अथ स्मर्तृरूपे दृष्टस्वरूपमनुप्रविष्टं प्रतिभाति, तथापि स्मत्तवासौ न द्रष्टा / अथ द्रष्टस्मर्तृ स्वरूपे विविक्ते भातः, तथा सति तयोर्भेदो इति नैकत्वम् / तथाहि-द्रष्टस्वरूपं दग्विषयावभासि प्रतिभाति. स्मर्तृ स्वरूपमपि पुंसः स्मृतिविषयमवतीर्णमवभाति, तत् कुतः पूर्वापरयोर्जातिरूपयोः सन्धानम् ? __ यत् पुनरुक्तम्- ‘स्मरतः पूर्वदृष्टार्थानुसंधानादुत्पद्यमाना मतिश्चक्षुःसम्बद्धत्वे प्रत्यक्षम्' इतिएतदप्यसत्, नेन्द्रियमतिः स्मृतिगोचरपूर्वरूपग्राहिणी, तत् कथं सा तत्संधानमात्मसात्करोति ? पूर्वदृष्टसंधानं हि तत्प्रतिभासनम् , तत्प्रतिभाससम्बन्ध चेन्द्रियमतेः परोक्षार्थग्राहित्वात् परिस्फुटप्रतिभासनम् असंनिहितविषयग्रहणं च. तत् कुतस्तयोरैक्यम् ? अथ परोक्षग्रहणं स्वात्मना नेन्द्रियमतिः संस्पृशति, एवं तहिं तद्विविक्तेन्द्रियमतिरिति कथं तत्संघायिका सामग्री अभ्युपेयते ? यदि च स्मतिविषयस्वभावतया दृश्यमानोऽर्थः प्रत्यक्षबुद्धिभिरवगम्यते, तथा सति स्मतिगोचरः पूर्वस्वभावो वतमानतया भातीति विपरीतख्यातिः सर्व दर्शनं भवेत् / / [स्मृति की सहायता से अनुसंधान अशक्य ] नैयायिकः-दर्शन से भले ही जाति का अनुसन्धान न हो किन्तु आत्मा ही स्मृति में प्रस्फुरित जातिस्वरूप का व्यक्ति में अनुसन्धान कर लेगा। उत्तरपक्षीः- अरे ! स्मृति भी सम्मुखवर्ती व्यक्ति जो कि दर्शन का विषय है उसका त्याग करती हुयो केवल पूर्वदृष्ट व्यक्ति का ही अनुसरण करती दिखाई देती है, जब संमुखवर्ती विषय में उसकी प्रवृत्ति ही नहीं होती तब अपने विषयभूत सामान्यादि का सम्मुखस्थित व्यक्ति के साथ मिलान करने में वह कैसे सशक्त होगी ? पूर्वदृष्ट व्यक्ति में आश्रित जाति का सम्मुखवर्ती व्यक्ति में मिलान जब स्मृति से अछूत है तब आत्मा भी उस मिलान को कैसे कर सकेगा? इस बात को जरा स्पष्ट समझें कि-जब दर्शन का उदय होता है तब आत्मा में दर्शकस्वरूप का जन्म होता है, उस वक्त स्मृतिप्रयुक्त स्मारकस्वरूप का आत्माश्रित रूप में भास नहीं होता है / यदि वह भासेगा तो भी दर्शकरूप में ही विलीन हो जाने से केवल दर्शकस्वरूप ही शेष रहेगा, स्मारकस्वरूप नहीं। अगर स्मारकस्वरूप में विलीन हो कर दर्शकस्वरूप भासेगा तब वह केवल स्मारक ही रहेगा द्रष्टा नहीं रहेगा। यदि कहें कि स्मर्त्ता और द्रष्टा दोनों रूप अलग अलग भासित होता है, तब तो उन दोनों का भेद ही प्रसक्त हुआ, एक व तो गायब हो गया। जैसे. दर्शकस्वरूप दर्शन के विषय रूप में भासेगा, आत्मा का स्मारकस्वरूप स्मृति के विषयरूप में अवतीर्ण हो कर भासेगा / फिर कैसे पूर्वापर जातिरूपों का अनुसंधान सम्भव होगा? [प्रत्यक्ष से पूर्वरूप का अनुसंधान अशक्य ] यह जो कहा जाता है कि-स्मरण करने वाले को पूर्वदृष्ट अर्थ के अनुसन्धान से, नेत्र का अर्थ के साथ सम्बन्ध रहने पर जो बुद्धि प्रकट होती है वह प्रत्यक्ष हो हो सकती है-यह बात भी गलत है, क्योंकि इन्द्रिय से जन्य बुद्धि स्मृति के विषयभूत पूर्वस्वरूप का ग्रहण ही नहीं कर सकती तो पूर्वरूप के अनुसंधान को वह बुद्धि आत्मसत् कैसे कर सकती है ? अर्थात् वह बुद्धि अनुसंधान में परिणत कैसे हो सकती है ? पूर्वदृष्ट वस्तु के संधान का मतलब है उसका तत्काल में प्रतिभास होना तथा इस Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ यत्तदा तत्राऽविद्यमानमर्थमवैति ज्ञानं तत्र विपरीतख्यातिः, प्रत्यक्षप्रतीतिस्तु पूर्वसन्धानादप्युपजायमाना पुरः सदेव वस्तु गृह्णती कथं विपरीतख्यातिर्भवेत् ? ननु पूर्वरूपग्राहितया तस्याः सदर्थग्रहणमेव न सम्भवति, स्मरणोपनेयं हि रूपं प्रतियती वर्तमानतया प्रत्यक्षबुद्धिर्न प्रतिभासमानवपुषः सत्ता साधयितुमलं. प्रत्यस्तमितेऽपि रूपे स्मृतेरवतारात् / तदनुसारिणी चाक्षमतिरपि तदेवानुसरन्ती न सत्ताऽऽस्पदम् / तस्मादिन्द्रियमतिः सकला पूर्वरूपग्रहणं परिहरन्ती वर्तमाने परिस्फुटे वर्तत इति तदैव तद्गतां जतिमुद्भासयितु प्रभुरिति न पूर्वापरव्यक्तिगता जातिः समस्ति / यदेव हि द्वितीयव्यक्तिगत रूपं भाति तदेव सत् , पूर्वव्यक्तिगतं तु रूपं न भातोति न तत् सत् / ततश्चानेकव्यक्तिव्यापिकाया जातेरसिद्धिरिति न तत्र लिंग-शब्दयोरपि प्रवृत्तिरिति न ताभ्यामपि तत्प्रतिपत्तिः / यथा च व्यक्तिभिन्नाऽनुस्यूता जातिर्न सम्भवति तथा यथास्थानं प्रतिपादयिष्यत इत्यास्तां तावत / प्रतिभास से सम्बन्ध होने पर ही इन्द्रियजन्य बुद्धि परोक्षअर्थग्रहणशील बनने से स्पष्ट प्रतिभास उत्पन्न होगा और अनिकटवर्ती पदार्थ का ग्रहण होगा, इस प्रकार अनुसंधान और इन्द्रियजन्य बुद्धि दोनों का कार्यक्षेत्र ही अलग है तो उन दोनों का ऐक्य कैसे सम्भव है ? - नैयायिक:-परोक्षार्थग्रहण को इन्द्रियजन्य बुद्धि अपने आप आत्मसात् नहीं करती है। उत्तरपक्षीः-तब तो इन्द्रियबुद्धि उससे पृथग् ही हो गयी फिर इन्द्रियजन्य बुद्धि को अनुसन्धानात्मक दिखाने के लिये अनुसंधानकारक सामग्री को वहाँ क्यों दिखाते हैं ? दूसरी बात यह है कि जिस वस्तु का स्वभाव स्मृति के विषयरूप में दृश्यमान है वह यदि प्रत्यक्ष बद्धियों से भी अवगत हो जायेगा तब तो स्मति का विषयभूत वह पूर्वस्वभाव अतीत होने पर भी प्रत्यक्ष में वर्तमानरूप में भासने से वह प्रत्यक्ष विपरीतख्याति (अन्यथाख्याति) स्वरूप बन जायेगा / फलतः दर्शनरूप सभी प्रत्यक्ष अतीत वस्तु को वर्तमानरूप में ग्रहण करने के कारण विपरीतख्याति यानी भ्रमात्मक हो जाने की आपत्ति होगी। [पूर्वरूपग्राही बुद्धि सत्पदाथग्राही नहीं हो सकती ] नैयायिकः-ज्ञान जब स्वदेशकाल में अविद्यमान अर्थ का ग्रहण करता है तब विपरीतख्याति में परिणत होता है, प्रत्यक्षबुद्धि भले पूर्वसंधान से उत्पन्न होती हो, फिर भी वह संमुख देश में विद्यमान जात्यादि वस्तु को ग्रहण करती है, फिर विपरीतख्यातिरूप कैसे होगी? उत्तरपक्षीः-अरे, जब वह पूर्वदृष्टरूप का ग्रहण करती है तब वह सदर्थ की ग्राहिका ही कैसे हो सकती है ? स्मृति से उपस्थित रूप को वर्तमानरूप में प्रतीत करनेवाली प्रत्यक्षबुद्धि भासमानस्वरूपवाले पदार्थ की विद्यमानता को सिद्ध नहीं कर सकती है, क्योंकि नष्टस्वरूपवाले पदार्थ के ग्रा में स्मृति ही सक्रिय बनती है, प्रत्यक्षबुद्धि नहीं। स्मृति की अनुगामी प्रत्यक्षबुद्धि भी उस पूर्वरूप का ही ग्रहण करेगी तो वह सत्ताविषयक नहीं कही जा सकेगी। अर्थात् वह विद्यमानवस्तुग्राहक नहीं हो सकेगी। निष्कर्ष, सर्व इन्द्रियजन्यबुद्धि पूर्वदृष्टरूप का त्याग करती हुयी स्पष्ट एवं वर्तमान रूप में ही प्रवृत्त होती है अतः वर्तमानरूपान्तर्गत जाति के उद्भासन करने में ही वह सशक्त बनेगी, किन्तु पूर्वदृष्टपदार्थान्तर्गत जाति के ऐक्य का उद्भासन नहीं कर सकेगी। इस से यही फलित होगा कि पूर्वापरव्यक्तियों में कोई अनुगत जाति नहीं है। द्वितीयव्यक्ति में आश्रित जिस रूप का भान होता है उसी को सत् मानना होगा और पूर्वव्यक्ति में आश्रित रूप का भान नहीं होता, अतः उसको असत् मानना पडेगा। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 459 तदेवं सत्ता-समवाययोः परपरिकल्पितयोरसिद्धः 'प्रागसतः कारणसमवायः सत्तासमवायो वा कार्यत्वम्' इति कार्यत्वस्याऽसिद्धत्वात् स्वरूपाऽसिद्धोऽपि कार्यत्वलक्षणो हेतुः। ___ अथ स्यादेष दोषो यदि यथोक्तलक्षणं कार्यत्वं हेतुत्वेनोपन्यस्तं स्यात् , यावताऽभूत्वाभवनलक्षणं कार्यत्वं हेतुत्वेनोपन्यस्तं तेनाऽयमदोषः / नन्वेवमपि भू भूधरादेः कथमेवंभूतं कार्यत्वं सिद्धम् ? अथ यद्यत्र विप्रतिप्रत्तिविषयता तदानुमानतस्तेषु कार्यत्वं साध्यते / तच्चानुमानम्-भू-भूधरादयः कार्यम् रचनावत्त्वात घटादिवत्-इति कथं न तेषु कार्यत्वलक्षणो हेतुः सिद्धः ? असदेतत्-यतोऽत्रापि प्रयोगे भू भूधरादेरवयविनोऽसिद्धराश्रयासिद्धः 'रचनावत्त्वात्' इति हेतुः, तदसिद्धत्वं च प्राक् प्रतिपादितम् / किं च, किमिदं रचनावत्त्वम् ? यदि अवयवसंनिवेशो रचना तद्वत्त्वं च पृथिव्यादेस्तदुत्पाद्यत्वम् तदाऽवयवसंनिवेशस्य संयोगापरनाम्नोऽसिद्धत्वादसिद्धविशेषणो रचनावत्त्वादिति हेतुः। तथा, पृथिव्यादिषु संयोगजन्यत्वस्य विशेष्यस्याऽसिद्धत्वादसिद्धविशेष्यश्च प्रकृतो हेतुः। फलतः अनेक व्यक्ति में व्यापक जाति की प्रत्यक्ष से सिद्धि न होने से उसके अनुमान के लिये लिंग की अथवा शाब्दबोध के लिये शब्द की प्रवृत्ति भी शक्य नहीं है, अतः लिंग और शब्द से भी जाति का ग्रहण शक्य नहीं / व्यक्तिओं में अनुविद्ध व्यक्तिभिन्न जाति का कैसे सम्भव ही नहीं है यह बात आगे भी उचित अवसर पर कही जायेगी अतः यहाँ उसको अभी जाने दो। . [कार्यत्व रचनावत्व से भी सिद्ध नहीं है ] उपरोक्त रीति से नैयायिकों का कल्पित सत्ता और समवाय असिद्ध बन जाता है, अत: 'पहले जो. असत् है उसका कारणों में समवाय अथवा उसमें सत्ता का समवाय यह कार्यत्व है' ऐसा कार्यत्व भी असिद्ध बन जाता है, अतः ईश्वरसिद्धि के लिए उपन्यस्त कार्यत्वरूपहेतु स्वरूपासिद्धि दोषग्रस्त होने से जगत्कर्तृत्व की सिद्धि दुष्कर है। नैयायिकः-यदि हम कारणसमवाय अथवा सत्तासमवाय रूप कार्यत्व को हेतु करे तब यह दोष हो सकता है, किन्तु जब हम 'अभूत्वाभवन' अर्थात् 'पहले न होने के बाद होना' यही कार्यत्व का लक्षण मान कर उसे हेतु करेंगे तब तो कोई असिद्धि दोष नहीं है। उत्तरपक्षी:-यहाँ प्रश्न है कि भूमि और पर्वतादि पक्ष में ऐसे कार्यत्व हेतु को कैसे सिद्ध करोगे? नैयायिक:-यदि आप ऐसे कार्यत्व में असम्मति दिखायेंगे तो हम अनुमान से उसको सिद्ध कर बतायेंगे। यह रहा वह अनुमान:-भूमि-पर्वतादि कार्य हैं क्योंकि रचनावाले (अवयवों की विशिष्ट रचनावाले) हैं / इस अनुमान से कार्यत्वरूप हेतु भूमि-पर्वतादि में क्यों सिद्ध न होगा? उत्तरपक्षी:-आप की बात गलत है। कारण, इस अनुमान प्रयोग में एक तो भूमि-पर्वतादि अवयवी सिद्ध न होने से 'रचनावत्त्व' जो हेतु है वह आश्रयासिद्धि दोष वाला है तथा आश्रय असिद्ध कैसे है यह पहले ही दिखाया है / [ पृ० 414-5 ] - 'रचनावत्त्व' क्या है यह भी सोचना होगा। यदि अवयवसंनिवेश ही रचना है और तद्वत्ता का मतलब यह हो कि पृथ्वी आदि का उससे उत्पन्न होना, तो अवयवसंनिवेश जिस का अपरनाम संयोग है वह स्वयं असिद्ध होने से विशेषणांश रचना अवयवसंनिवेश असिद्ध होने से रचनावत्त्व हेतु भी असिद्ध Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [ संयोगपदार्थपरीक्षणम् ] कथं संयोगाऽसिद्धत्वम् येनोक्तदोषदुष्टः प्रकृतो हेतुः स्यात् ? उच्यते, तद्ग्राहकप्रमाणाभावाद बाधकप्रमाणोपपत्तेश्च / तथाहि-"संख्या-परिमाणानि पृथक्त्वम् संयोग-विभागौ परत्वाऽपरत्वे कर्म च रूपि (द्रव्य) समवायात् चाक्षुषाणि"[ वैशे०८०४/१/११ ] इति-वचनात् दृश्यवस्तुसमवेतस्य संयोगस्य परेण प्रत्यक्षग्राह्यत्वमभ्युपगतम् / न च निरन्तरोत्पन्नवस्तुद्वयप्रतिभासकालेऽध्यक्षप्रतिपत्ती तद्व्यतिरेकेणापरः संयोगो बहिर्ग्राह्यरूपतां बिभ्राणः प्रतिभाति / नापि कल्पनाबुद्धौ वस्तुद्वयं यथोक्तं विहाय शब्दोल्लेखं चान्तरम् अपर वर्णाकृत्यक्षराकाररहितं संयोगस्वरूपमुद्भाति / तदेवमुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य संयोगस्यानुपलब्धेरभावः, शशविषाणवत् / तेन यदाह उद्द्योतकर: यदि संयोगो नार्थान्तरं भवेत् तदा क्षेत्र-बीजोदकादयो निविशिष्टत्वात् सर्वदेवांकुरादिकार्य कुर्युः, न चैवम् , तस्मात् सर्वदा कार्यानारम्भाव क्षेत्रादीन्यंकुरोत्पत्तौ कारणान्तरसापेक्षाणि, यथा मत्पिडादिसामग्री घटादिकरणे कुलालादिसापेक्षा, योऽसौ क्षेत्रादिभिरपेक्ष्यः स संयोग इति सिद्धम् / किं च, असौ संयोगो द्रव्ययोविशेषणभावेन प्रतीयमानत्वात् ततोऽर्थान्तरत्वेन प्रत्यक्षसिद्ध एव / बन जायेगा / तथा पृथ्वीआदि में तद्वत्तारूप जो संयोगजन्यत्व विशेष्यअंश है वह भी असिद्ध है इसलिये 'रचनावत्त्व' हेतु भी असिद्धविशेष्यवाला हो जाता है / [ नैयायिकाभिमत संयोग पदार्थं की आलोचना ] नैयायिकः-संयोग कैसे असिद्ध है जिससे कि रचनावत्त्व हेतु उक्त असिद्धिदोष से दूषित बने ? उत्तरपक्षी:-संयोग के अस्तित्व का कोई साधकप्रमाण नहीं है, दूसरी ओर बाधकप्रमाण सिर उठाता है। जैसे देखिये "संयोग, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्वापरत्व और कर्म (ये सब) रूपी द्रव्य में समवेत होने से चक्षग्राह्य हैं ऐसे वैशेषिकदर्शन के वचनानुसार आपने दृश्य (यानी) रूपिवस्तू में समवेत संयोग को ही प्रत्यक्षग्राह्य माना है। किन्तु जब बीच में विना किसी अन्तर से उत्पन्न दो द्रव्य का प्रतिभास होता है उस वक्त प्रत्यक्षप्रतीति में दो द्रव्य से भिन्न और बाह्यपदार्थ के रूप में ग्राह्यता को धारण करने वाला कोई नया संयोग दिखता नहीं है / कल्पना बुद्धि में भी दो पदार्थ और आन्तरिक शब्दोल्लेख के अलावा और कोई वर्णाकृति-अक्षराकारशून्य संयोग का स्वरूप भासित नहीं होता है। इस तरह उपलब्धिलक्षणप्राप्त (यानी दृश्यस्वभाव) होने पर भी संयोग की उपलब्धि नहीं होती है अतः शशसींग के जैसे उस का भी अभाव सिद्ध होता है। [ उद्योतकरकथित संयोगसाधक युक्तियाँ ] उद्योतकरने जो यह कहा है कि संयोग यदि स्वतंत्रपदार्थ न होता तब क्षेत्र, बीज और जलादि कारण जो मिलकर ही कार्य करते हैं वे एकत्रित हुये विना ही हमेशा अंकूरादि को करते रहेंगे। किंतु ऐसा देखा नहीं जाता, अत: हमेशा कार्योत्पादन न करने से क्षेत्रादि कारण, अंकुर की उत्पत्ति में और भी एक कारण की अपेक्षा Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकतृ त्वे उ०समवाय० 4615 तथाहि-कश्चित् केनचित् 'संयुक्ते द्रव्ये प्राहर' इत्युक्तो ययोरेव द्रव्ययोः संयोगमुपलभते ते एवाहरति न द्रव्यमात्रम् / कि च, दूरतरत्तिनः पुंसः सान्तरेऽपि वने निरन्तररूपावसायिनी बुद्धिरुदयमासादयति, सेयं मिथ्याबुद्धिः मुख्यपदार्थानुभवमन्तरेण न क्वचिदुपजायते / न ह्यननुभूतगोदर्शनस्य गवये 'गौः' इति विभ्रमो भवति / तस्मादवश्यं संयोगो मुख्योऽभ्युपगन्तव्यः / तथा, 'न चैत्रः कुण्डली' इत्यनेन प्रतिषेधवाक्येन न कुण्डल प्रतिषिध्यते, नापि चैत्र:, तयोरन्यत्र देशादौ सत्त्वात् / तस्मात चैत्रस्य कुण्डलसंयोगः प्रतिषिध्यते / तथा, 'चैत्र: कुण्डली' इत्यनेनापि विधिवाक्येन न चैत्रकुण्डलयोरन्यतरविधानम् , तयोः सिद्धत्वात् , पारिशेष्यात् संयोगविधानम् / तस्मादस्त्येव संयोगः / " [ द्रष्टव्यं न्यायवात्तिके 2/1/33 सूत्रे पृ० 219-222 ] __-तन्निरस्तं द्रष्टव्यम् , संयुक्तद्रव्यस्वरूपावभासव्यतिरेकेरणापरस्य संयोगस्य प्रत्यक्ष निर्विकल्पे सविकल्पके वाऽप्रतिभासस्य प्रतिपादितत्वात् / / न च संयुक्तप्रत्ययान्यथानुपपत्त्या संयोगकल्पनोपपन्ना, निरन्तरावस्थयोरेव भावयोः संयुक्तप्रत्ययहेतुत्वात् / यावच्च तस्यामवस्थायां संयोगजनकत्वेन संयुक्तप्रत्ययविषयौ ताविष्यते तावत् संयोगमन्तरेण संयुक्तप्रत्ययहेतुत्वेन तद्विषयौ किं नेष्यते किं पारम्पर्येण ? न सान्तरे वने निरन्तरावभासिनी करते हैं, जैसे मिट्टीपिंडादि सामग्री घटादि के उत्पादन में कुम्हार आदि की अपेक्षा करते हैं। तो क्षेत्रादि जिस कारण की अपेक्षा करते हैं वही संयोग है यह सिद्ध हुआ। दूसरी बात, यह संयोग दो द्रव्य के विशेषणरूप से प्रतीत होता है अतः दो द्रव्य से वह अलग रूप में प्रत्यक्ष से सिद्ध ही है। जैसे देखिये- कोई किसी को कहता है 'भाई ! संयुक्त दो द्रव्य को ले आव !' तो वह आदमी जिन दो द्रव्य के संयोग को प्रत्यक्ष देखता है उन्हीं दो द्रव्य को ले आता है, नहीं कि केवल संयोगरहित द्रव्यमात्र / / तीसरी बात, अरण्य से दूर रहे हुए पुरुष को अरण्य में हर पेड के बीच अन्तर होने पर भी नरन्तर्यस्पर्शी बुद्धि का उदय होता है / यह बुद्धि प्रमाणभूत नहीं है किन्तु भ्रमात्मक ही है / भ्रमबुद्धि मुख्यापदार्थ के पूर्वानुभव विना उत्पन्न नहीं होती। जिसने धेनुदर्शन का ही अनुभव नहीं किया है उसको अरण्य में गवय को देखने पर कभी भी 'गो' का विभ्रम नहीं होता। अतः संयोग रूप मुख्य पदार्थ को यहाँ अवश्य मानना होगा। तदुपरांत, 'चैत्र कुडलवाला नहीं है' इस निषेधप्रयोग से कुडल का अथवा चैत्र का निषेध कोई नहीं करता है क्योंकि वे दोनों अन्यत्र अपने स्थान में अवस्थित हैं, तब यही मानना होगा कि यहाँ कुडल और चैत्र के संयोग का ही निषेध किया जाता है / तदुपरांत 'चैत्र कुडलीवाला है' इस विधिवाक्य प्रयोग से न तो चैत्र का विधान किया जाता है, न कुडल का, दोनों में से किसी का भी नहीं, क्योंकि वे दोनों सिद्ध ही है, तब परिशेष से संयोग का विधान ही मानना होगा। निष्कर्षः-सयोग अबाधित रूप से सिद्ध है। यह उद्योतकर का कथन भी पूर्वोक्त रीति से परास्त हो जाता है / पहले ही यह कह दिया है कि संयुक्त दो द्रव्य के स्वरूपावभास से अतिरिक्त कोई नया संयोग निर्विकल्पक या सविकल्पक प्रत्यक्ष में भासित नहीं होता। [उद्योतकर की संयोगसाधक युक्तियों का निरसन ] 'ये दो संयुक्त हैं'-ऐसी बुद्धि अन्यथा उपपन्न न होने से संयोग की कल्पना करना संगत नहीं है, क्योंकि संयुक्त की प्रतीति में निरन्तर अवस्थित भावद्वय ही हेतु हैं / निरन्तर अवस्थित दो द्रव्य से, Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ बुद्धिमुख्यपदार्थानुभवपूर्विका, प्रस्खलत्प्रत्ययत्वेनानुपचरितत्वात् / 'न चैत्रः कुण्डली' इत्यादौ चैत्रसम्बन्धिकुण्डलं निषिध्यते विधीयते वा न संयोगः / न च सम्बन्धव्यतिरेकेण चैत्रस्य कुण्डलसम्बन्धानुपपत्तिरिति वक्तु शक्यम् , यतश्चैत्र-कुण्डलयोः किं सम्बन्धिनोः स सम्बन्धः, उताऽसम्बन्धिनोः ? नाऽसम्बन्धिनोः, हिमवद्विन्ध्ययोरिवाऽसम्बन्धिनोः सम्बन्धानुपपत्तेः, न चाऽसम्बन्धिनोभिन्नसम्बन्धन तदभिन्न सम्बन्धित्वं शक्यं विधातुम, विरुद्धधर्माध्यासेन भेदात् / नापि भिन्नम् , तत्सद्भावेऽपि तयोः स्वरूपेणाऽसम्बन्धित्वप्रसंगात, भिन्नस्य तत्कृतोपकारमन्तरेण तत्सम्बन्धित्वाऽयोगात , ततोऽपरोपकारकल्पनेऽनवस्थाप्रसंगात् / सम्बन्धिनोस्तु सम्बन्धपरिकल्पनं व्यर्थम् , सम्बन्धमन्तरेणापि तयोः स्वत एव सम्बन्धिस्वरूपत्वात् / यत्तूक्तम् 'विशिष्टावस्थाव्यतिरेकेण क्षिति-बीजोदकादीनां नांकुरजनकत्वम् , सा च विशिष्टावस्था तेषां संयोगरूपा शक्तिः' तदसारम् , यतो यथा विशिष्टावस्थायुक्ताः क्षित्यादयः संयोगमुत्पादयन्ति तथा तदवस्थायुक्ता अंकुरादिकमपि कार्य निष्पादयिष्यन्तीति व्यथं संयोगशक्तेस्तदन्तरालवत्तिन्या: परिकल्पनम् / अथ संयोगशक्तिव्यतिरेकेण न कार्योत्पादने कारणकलापः प्रवर्तते इति निर्बन्ध तृतीय संयोग की उत्पत्ति की कल्पना कर के 'संयुक्त' बुद्धि को संगत करना, उससे अच्छा तो यही है निरन्तर अवस्थित दो द्रव्य से ही 'संयुक्त' बुद्धि को संगत करना / तो आप ऐसा न मान कर परम्परया संयोग की बीच में फिजुल उत्पत्ति मान कर उसके द्वारा संयुक्त बुद्धि होने की गुरुभूत कल्पना क्यों करते हैं ! अरण्य में एक-दूसरे के बीच अन्तर होने पर भी जो नरन्तयं की भासक वृद्धि होती है वह मुख्य पदार्थ के अनुभव पूर्वक है यह जो उद्योतकर ने कहा है वह भी अयुक्त है, क्योंकि यहाँ नैरन्तर्य की बुद्धि मिथ्या अर्थात् औपचारिक नहीं होती किन्तु वास्तव ही होती है। कारण, उस बुद्धि का विषय नैरन्तर्य वहाँ अस्खलित है, बाधित नहीं है / विषय अस्खलित होने पर बुद्धि भी अस्खलद् रूप से ही होती है अतः औपचारिक नहीं है / 'चैत्र कुडलवाला है अथवा नहीं है' यहाँ भी किसी नये संयोग का निषेध या विधान नहीं होता किन्तु चैत्रसम्बन्धि कुडल का ही निषेध या विधान किया जाता है। [चैत्र और कुण्डल के सम्बन्ध की समीक्षा ] नैयायिक:-सम्बन्ध के विना चैत्र में कुंडल के सम्बन्ध का विधान या निषेध कैसे संगत होगा? उत्तरपक्षी:-ऐसा प्रश्न नहीं कर सकते। कारण, चैत्र और कंडल का सम्बन्ध आप कैसे मानेंगे? (1) दोनों सम्बन्धी होने पर (2) या असम्बन्धि होंगे तब भी? दूसरा विकल्प अयुक्त है, हिमवंत और विन्ध्य दोनों के जैसे असम्बन्धि का कभी सम्बन्ध नहीं होता। उपरांत, जो स्वयं असम्बन्धि है उनमें भिन्न सम्बन्ध से उन दोनों से अभिन्न सम्बन्धिता का आरोपण शक्य ही नहीं है, विरुद्धधर्माध्यास से, अर्थात् असम्बन्धित्व और सम्बन्धित्व दो विरुद्ध धर्मों के अध्यास से भिन्नता की आपत्ति आयेगी / भिन्न सम्बन्धिता का आरोपण भी व्यर्थ है क्योंकि वंसा करने पर भी वे दोनों स्व. रूप से तो असम्बन्धि ही रह जायेंगे / भिन्न पदार्थ जहाँ आरोपित किया जाता है वहाँ उसके कुछ उपकार के विना वह तत्सम्बद्ध नहीं हो सकता। यदि कुछ उपकार मानेगे तो उसके ऊपर भी फिर से भिन्न-अभिन्न विकल्पों के लगने से अनवस्था चल पडगी। जब उन दोनों को स्वतः सम्बन्धी मान लेंगे तब तो सम्बन्ध की कल्पना ही निरर्थक है। कारण, सम्बन्ध के विना भी वे स्वतः ही सम्बन्धिस्वरूप लिये बैठे हैं। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उ० समवाय० 463 स्तर्हि संयोगशक्त्युत्पादनेऽप्यपरसंयोगशक्तिव्यतिरेकेण नासौ प्रवर्तते इत्यपरा संयोगशक्तिः परिकल्पनीया, तत्राप्यपरेत्यनवस्था। अथ तामन्तरेणाऽपि शक्तिमत्पादयन्ति तहि कार्यमपि तामन्तरेणैवांकरादिकं निवर्तयिष्यन्तीति व्यर्थ संयोगशक्तेस्तदन्तरालवत्तिन्याः कल्पनम् / न च विशिष्टावस्थाव्यतिरेकेण पृथिव्यादयः संयोगशक्तिमपि निवर्तयितु क्षमाः, तथाऽभ्युपगमे सर्वदा तन्निवर्तनप्रसंगादंकुरादेरप्यनवरतोत्पत्तिप्रसंगः / न चान्यतरकर्मादिसव्यपेक्षाः संयोगमुत्पादयन्ति क्षित्यादयः इति नायं दोषः, कर्मोत्पतावपि संयोगपक्षोक्तदूषणस्य सर्वस्य तुल्यत्वात् / तस्मादेकसामग्र्यधीनविशिष्टोत्पत्तिमत्पदार्थव्यतिरेकेण नापरः संयोगः, तस्य बाधकप्रमारणविषयत्वात् साधकप्रमाणाभावाच्च / यस्तु 'संयुक्ते द्रव्ये एते' इति, 'अनयोर्वाऽयं संयोगः' इति व्यपदेशः स भेदान्तरप्रतिक्षेपाऽप्रतिक्षेपाभ्यां (?) तथाऽवस्थोत्पन्नवस्तुद्वयनिबन्धन एव, नाऽतोऽपरस्य संयोगस्य सिद्धिः / न चाऽक्षणिकत्वे तयोः स सम्बन्धी युक्तः / तत्सम्बन्धस्य समवायस्य निषिद्धत्वात् निषेत्स्यमाणत्वाच्च / न च तज्जन्य [विशिष्ट अवस्थावाले क्षिति-बीज-जलादि से अंकुर जन्म ] उद्योतकरने जो यह कहा था-'विशिष्टावस्था के विना पृथ्वी, बीज और जलादि अंकुरोत्पादन नहीं कर सकता / जो यह विशिष्टावस्था यहाँ आवश्यक है उसी शक्ति का नाम संयोग है' यह बात भी असार है, संयोग कोई नित्य पदार्थ तो नहीं है अत: असकी उत्पत्ति के लिये भी संयोग से अतिरिक्त विशिष्टावस्थावाले पृथ्वी आदि को कारण मानना होगा, तब उचित यह है कि विशिष्टावस्थावाले पृथ्वी आदि को सीधे ही अंकुरादि कार्योत्पत्ति के कारण माने जाय, बीच में संयोगशक्ति की उत्पत्ति की कल्पना व्यथ क्यों की जाय ? - नैयायिक:-संयोगशक्ति के विना कार्योत्पत्ति में कारणसमूह प्रवृत्त नहीं हो सकता इसलिये संयोग का आग्रह है। उत्तरपक्षी:-तब तो संयोगशक्ति के उत्पादन में भी वह कारणसमूह अन्यसंयोगशक्ति के विना प्रवृत्त नहीं हो सकेगा, अत: अन्य संयोगशक्ति की कल्पना करनी पडेगी, फिर उस संयोग की उत्पत्ति के लिये भी अन्य अन्य संयोगशक्ति की कल्पना करते ही जाओ, कहीं अन्त नहीं आयेगा। यदि कहें कि कारणसमूह प्रथम संयोगशक्ति को द्वितीय शक्ति के विना ही उत्पन्न कर लेगा, तब तो यह भी कहो कि प्रथम संयोगशक्ति के विना ही कारणसमूह अंकुरादि को भी उत्पन्न कर सकेगा, व्यर्थ ही बीच में संयोगशक्ति की कल्पना क्यों करते हो? यह भी तो सोचिये कि पृथ्वी आदि कारणसमूह विशिष्टावस्था के विना संयोग को भी उत्पन्न नहीं कर सकता है, यदि विशिष्टवस्था के विना ही संयोग की उत्पत्ति मान लेंगे तब तो हमेशा संयोग की उत्पत्ति और तन्मूलक अंकुरादि की उत्पत्ति होती ही रहेगी। नैयायिकः-हम तो मानते ही हैं कि पृथ्वी आदि किसी में भी क्रिया उत्पन्न हो जाय तब उस क्रिया का सहकार रूप विशिष्टावस्थावाले पृथ्वी आदि से संयोग की उत्पत्ति होती है, अत: हमेशा संयोग की उत्पत्ति का दोष नहीं लग सकता। उत्तरपक्षी:-संयोगशक्ति की पृथ्वी आदि से उत्पत्ति मानने में जो दोष दिखाये हैं वे सब समानरूप से कर्म की उत्पत्ति में भी अब लागू होंगे / अत: जिस सामग्री से आप कर्म की या संयोग की उत्पत्ति मानेंगे, उसी सामग्री से हम विशिष्ट पथ्वी आदि की उत्पत्ति मान लेंगे अतः विशिष्टोत्पत्ति Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 स्वादसौ तत्सम्बन्धी, अक्षणिकत्वे जनकत्वविरोधस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् / क्षणिकत्वेऽपि तयोरेकसामग्रयधीना नरन्तर्योत्पत्तिरेव, नापरः संयोग इति 'रचनावत्त्वात्' इत्यत्र हेतोविशेषणस्य संयोगविशेषस्य रचनालक्षणस्याऽसिद्धेस्तद्वतो विशेष्यस्याप्यसिद्धिरिति स्वरूपाऽसिद्धत्वम्। अथ प्रथिव्यादेः कार्यत्वं बौद्धैरभ्युपगम्यत एवेति नाऽसिद्धत्वं तैरस्य हेतोः प्रेरणीयम् / नन्वत्रापि यादृग्भूतं बाद्धमत्पूवकत्वेन देवकुलादिष्वन्वय-व्यतिरेकाभ्यां व्याप्त कायंत्वमपलब्धम यक्रियादशिनोऽपि जीर्णदेवकुलादावुपलभ्यमानं लौकिक परीक्षकादेस्तत्र कृतबुद्धिमुत्पादयति-ताहरभूतस्य क्षित्यादिषु कार्यत्वस्याऽनुपलब्धरसिद्धः कार्यत्वलक्षणो हेतुः / उपलम्भे वा तत्र ततो जीर्णदेवकुलादिष्विवाऽक्रियादशिनोऽपि कृतबुद्धिः स्यात् / न ह्यन्वय व्यतिरेकाभ्यां सुविवेचितं कार्य कारणं व्यभिघरति, तस्याऽहेतुकत्वप्रसंगात् / अतः क्षित्यादिषु कार्यत्वदर्शनाद क्रियाशिनः कृतबुद्धयनुपपत्तेर्यद बुद्धिमत्कारणत्वेन व्याप्त कार्यत्वं देवकुलादिषु निश्चितं तत् तत्र नास्तोत्यसिद्धो हेतुः, केवलं कार्यत्वमात्र प्रसिद्धं तत्र। वाले पथ्वी आदि पदार्थ से भिन्न कोई संयोग मानना संगत नहीं है क्योंकि उसकी मान्यता उपरोक्त रीति से बाधक प्रमाण का विषय बन जाती है और साधक प्रमाण तो उद्योतकर आदि ने जितने बताये वे सब निरस्त हो जाने से कोई साधक प्रमाण भी अब नहीं बचा है। [ संयोग का वचनप्रयोग वस्तुद्वयमूलक ही है ] ऐसा जो वचन प्रयोग होता है कि 'ये दो द्रव्य संयुक्त हैं' अथवा 'इन दोनों का यह संयोग है' इत्यादि वह भेदान्तर के प्रतिक्षेप और अप्रतिक्षेप से विशिष्ट अवस्था में उत्पन्न वस्तुद्वय मूलक ही है, अतः उन से अतिरिक्त संयोग की सिद्धि शक्य नहीं है / दूसरी बात, वस्तुद्वय यदि क्षणिक नहीं हैं, तब तो चिर काल तक संयोग उन दोनों का सम्बन्धी नहीं हो सकता क्योंकि उनके साथ सम्बद्ध रहने के लिये अपर सम्बन्ध की आवश्यकता रहेगी, वहाँ समवाय को सम्बन्ध नहीं मान सकते क्योंकि उसका खण्डन किया गया है और आगे भो होने वाला है। यह भी नहीं कह सकते कि वस्तद्वय से जन्य होने से उन वस्तूद्वय का वह सम्बन्धो हो सकेगा, क्योंकि अक्षणिक वस्तु में जनकता ही विरोधग्रस्त है यह आगे दिखाया जायेगा / यदि वस्तुद्वय को क्षणिक मान लगे तब तो जिस सामग्री से सयोग की उत्पत्ति आपको मान्य है उस सामग्री से वह वस्तुद्वय ही नैरन्तयविशिष्ट उत्पन्न हो जायेगी जो संयुक्तबद्धि और संयुक्तव्यपदेश का निमित्त भी बनेगी, अत: स्वतन्त्र संयोग पदार्थ संगांतमान् नहीं है / अत: 'रचना वत्त्व' हेतु में रचनारूप संयोगविशेष को विशेषण किया गया है वही असिद्ध होने से तद्वान् विशेष्य भी असिद्ध हो जाता है अर्थात् आपका 'रचनावत्त्व' हेतु असिद्ध है। [ कृतवुद्धिजनक कार्यन्व पृथ्वी आदि में असिद्ध ] नैयायिकः-जब आप बौद्धमत का अवलम्बन करके 'रचनावत्त्व' का खण्डन करते हैं तब भी आप कार्यत्व हेतु को असिद्ध नहीं कह सकते / कारण, रचनावत्त्व हेतु तो हमने पृथ्वी आदि में जिस को कार्यत्व असिद्ध है उसको सिद्ध कर दिखाने के लिये कहा है / बौद्ध मत में 'अभूत्वाभवन' स्वरूप कार्यत्व तो पृथ्वो आदि में प्रसिद्ध ही है अतः आप कार्यत्व हेतु को असिद्धि नहीं दिखा सकते हैं। उत्तरपक्षीः-ठीक बात है, किन्तु जैसा कार्यत्व बुद्धिमत्कर्तृत्व का व्याप्य है वैसा कार्यत्व क्षिति आदि में बौद्ध भी नहीं मानते हैं / देवकुलादि में अन्वय-व्यतिरेक से बुद्धिमत्पूर्वकत्व से व्याप्त ऐसा Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उत्तरपक्षः 465 न च प्रकृत्या परस्परमर्थान्तरत्वेन व्यवस्थितोऽपि धर्मः शब्दमात्रेणाऽभेदी हेतुत्वेनोपादीयमानोऽभिमतसाध्यसिद्धये पर्याप्तो भवति, साध्यविपर्ययेऽपि तस्य भावाऽविरोधात् , यथा वल्मीके मिणि कुम्भकारकृतत्वसिद्धये मृद्विकारमात्रं हेतुत्वेनोपादीयमानमिति / यद् बुद्धिमत्कारणत्वेन व्याप्तं देवकुलादौ कार्यत्वं प्रमाणतः प्रसिद्धं, तच्च क्षित्यादावसिद्धं यच्च क्षित्यादौ कार्यत्वमात्रं हेतुत्वेनोपन्यस्यमानं सिद्धं तत् साध्यविपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् संदिग्धव्यतिरेकत्वेनानकान्तिकम् , न ततोऽभिमतसाध्यसिद्धिः। नन्वेतत् कार्यसमं नाम जात्युत्तरम् / तथाहि-'कृतकत्वादनित्यः शब्दः' इत्युक्ते जातिवाद्यत्रापि प्रेरयति-किमिदं घटादिगतं कृतकत्वं हेतुत्वेनोपन्यस्तं कि वा शब्दगतम् अथोभयगतमिति ? प्राद्ये पक्षे हेतोरसिद्धिः न ह्यन्यधर्मोऽन्यत्र वर्तते / द्वितीयेऽपि साधनविकलो दृष्टान्तः / तृतीयेऽप्येतावेव दोषाविति / एतच्च कार्यसमं नाम जात्युत्तरमिति प्रतिपादितम् यथोक्तम् , 'कार्यत्वान्यत्वलेशेन यत् साध्याऽसिद्धि दर्शनं तत् *कार्यसमम्' [ ] इति / कार्यत्वसामान्यस्याऽनित्यत्वसाधकत्वेनोपन्यासेऽभ्युपगते धमिभेदेन विकल्पवद् बुद्धिमत्कारणत्वे क्षित्यादेः कार्यत्वमात्रण साध्येऽभीष्टे धमिभेदेन कार्यत्वादेविकल्पनात्। कार्यत्व उपलब्ध होता है कि जिन्होंने उत्पत्ति क्रिया को नहीं देखी है उन साधारण लोग और परीक्षक लोगों को भी जीर्ण देवकुलादि में वैसे कार्यत्व को देख कर 'यह किसी का बनाया हुआ है'-ऐसी कर्तृजन्यत्व की बुद्धि उत्पन्न होती है / ऐसा कार्यत्व रूप हेतु क्षिति आदि में उपलब्ध नहीं होने से असिद्ध है / यदि वहाँ वैसा कार्यत्व होता तब तो उत्पत्ति क्रिया न देखने पर भी जीर्णदेवल आदि को देखकर जैसे निर्विवाद सभी को कृतबुद्धि होती है वैसे क्षिति आदि में भी सभी को होती / कार्य की यदि अन्वयव्यतिरेक से जाँच पड़ताल की गयी हो तो वह कार्य बाद में कभी कारण का व्यभिचार नहीं दिखाता / नहीं तो उसमें अहेतुजन्यत्व की आपत्ति लगेगी। इस कारण से, क्षिति आदि में कार्यत्व को देखने पर उत्पत्तिक्रिया न देखने वाले को कृतबुद्धि उत्पन्न न होने से, यह सिद्ध होता है कि जैसा कार्यत्व देवकुलादि में बुद्धिमत्पूर्वकत्व के व्याप्यरूप में सुनिश्वित है वैसा कार्यत्व क्षिति आदि में नहीं ही है / इस प्रकार आपका कार्यत्व हेतु असिद्ध ही है। केवल व्याप्तिशून्य कार्यत्व क्षिति आदि में प्रसिद्ध है इसका कोई इनकार नहीं करता। [कार्यत्व हेतु की असिद्धि का समर्थन ] स्वभाव से जो धर्म परस्पर में भिन्नरूप से अवस्थित होते हैं उनमें शब्दमात्र का अभेद हो इतने मात्र से उसको हेतु कर देने पर इष्ट साध्य की सिद्धि में वह समर्थ नहीं बन जाता। क्योंकि साध्य का अभाव होने पर भी उस हेतु के वहाँ होने में कोई विरोध नहीं है / उदा० वल्मीक (=दीमकों के द्वारा लगाये गये मिट्टी के ढेर ) में कुम्भकारकर्तृत्व साध्य सिद्ध करने के लिये मिट्टी के घट को दृष्टान्त बनाकर मृद्विकारत्व ( मिट्टी के विकार ) को हेतु किया जाय तो उतने मात्र से वल्मीक में कुम्भकारकर्तृत्व सिद्ध नहीं हो जाता / अतः यह विवेक करना चाहिये कि बुद्धिमत्कारणत्व से व्याप्त जो कार्यत्व है वह देवलादि में प्रमाणसिद्ध है किन्तु क्षिति आदि में असिद्ध है, क्षिति आदि में हेतुरूप से प्रयुज्यमान जैसा कार्यत्व सिद्ध है उसमें साध्याभावसामानाधिकरण्य की शंका की जाय तो उसका न्याय दर्शन के 5.1-37 सूत्र में कार्यसम का अन्य ही उदाहरण प्रस्तुत है। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 असदेतत्-यतः सामान्येन कार्यत्वाऽनित्यत्वयोविपर्यये बाधकप्रमाणबलात् व्याप्तिसिद्धौ कार्यत्वसामान्यं शब्दादौ मिण्युपलभ्यमानमनित्यत्वं साधयतीति कार्यत्वमात्रस्यैव तत्र हेतुत्वेनोपन्यासे मिविकल्पनं यत् तत्र क्रियेत तत् सर्वानुमानोच्छेदकत्वेन कार्यसमजात्युत्तरतामासादयति, न त्वेवं क्षित्यादेबुद्धिमत्कारणत्वे साध्ये कार्यत्वसामान्यं हेतुत्वेन सम्भवति तस्य विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेनाऽनैकान्तिकत्वात् / यच्च बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन व्याप्तं देवकुलादौ कार्यत्वं प्रतिपन्नम्-यद क्रियाशिनोऽपि जीर्णप्रासादादौ कृतबुद्धिमुत्पादयति-तत् तत्राऽसिद्धमिति प्रतिपादितम् / निवारक कोई बाधक प्रमाण न होने से वैसा संदिग्धव्यतिरेक वाला कार्यत्व हेतु अनैकान्तिक हो जाता है अतः उससे इष्ट साध्य की सि [कार्यसम जात्युत्तर की आशंका ] नैयायिक यहाँ कार्यसम नामक जाति-उत्तर की शंका करता है-[ असद् असमीचीन उत्तर को जाति-उत्तर कहते हैं ] जैसे कि - 'शब्द अनित्य है क्योंकि कृतक (प्रयत्नजन्य) है' यहाँ असद् उत्तर देने वाले ऐसे विकल्प करते हैं-घटादिआश्रित कृतकत्व को यहाँ हेतु करते हैं या शब्दाश्रित कृतकत्व को अथवा घट-शब्द उभयगत कृतकत्व को हेतु करते हैं ? यदि घट के कृतकत्व को हेतु करेंगे तो वह पक्षभूत शब्द में न होने से स्वरूपासिद्धि दोष लगेगा, क्योंकि घट का ही जो धर्म है वह घटेतर शब्दादि में नहीं रह सकता / यदि शब्दगत कृतकत्व को हेतु करेंगे तो घटादि दृष्टान्त में शब्दगत कृतकत्व न होने से दृष्टान्त साध्यशून्य बन जायेगा यह दोष होगा। शब्द-घट उभयगत कृतकत्व को हेतु करेंगे तो एक एक विकल्प में कहे गये दोनों दोष आ पडेंगे / इसी को कार्यसम नामक असद् उत्तर कहते हैं जैसे कि कहा गया है-कार्यत्व के अन्यत्वलेश ( अर्थात् भेद विकल्प ) से साध्य की असिद्धि का प्रदर्शन करना यह कार्यसम (जाति) है / आशय यह है कि सामान्य कार्यत्व को हेतु करके ही अनित्यत्व की सिद्धि अभिप्रेत है, कार्यत्वविशेष के दो-तीन विकल्प करके जो प्रत्युत्तर देता है ( अर्थात् अनित्यत्व का खण्डन करता है ) यही कार्यसम असद् उत्तर हो जाता है। नैयायिक कहता हैं कि प्रस्तुत हमारे कार्यत्व हेतु को भी आप ऐसे ही तोड रहे हैं अनित्यत्व के साधकरूप में सामान्यतः कार्यत्व हेतु के अभिप्राय होने पर कार्यत्व के धर्मी (घट-शब्दादि) का भेद करके जैसे विकल्प किये जाते हैं उसी तरह क्षिति आदि में सामान्यतः कार्यत्व हेतु से बुद्धिमत्कारणत्व को सिद्ध करने का हमारा अभिप्राय होने पर आप कार्यत्व के धर्मीयों ( देवकुल-क्षित्यादि ) का भेद करके कार्यत्व हेतु के विकल्प करते हैं, अतः यह भी असद् उत्तर ही फलित हुआ। [ कार्यसमत्व की आशंका का प्रत्युत्तर ] नैयायिकों की यह बात ही गलत है। कार्यसमजाति के उदाहरण के साथ हमारे उत्तर में जो साम्य दिखाया है वही असिद्ध है-उदाहरण में तो नित्यत्व के साथ सामान्यतः कार्यत्व की व्यप्ति में वैपरीत्य का उद्भावन करें तो वहाँ बाधक प्रमाण के बल से वैपरीत्य को हटाकर व्याप्ति सिद्ध की जा सकने से शब्दादि धर्मी में उपलब्ध कार्यत्वसामान्य हेतु द्वारा अनित्यत्व की सिद्धि की जा सकती है / अतः यहाँ हेतुरूप से उपन्यस्त कार्यत्वमात्र के धर्मी का भेद करके यदि पूर्वोक्त रीति से Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 467 अपि च यद्यत्र व्यापकनित्यैकबुद्धिमत्कारणं क्षित्यादेः कारणत्वेनाऽभिप्रेतं कार्यत्वलक्षणाद्धेतोः, तथा सति घटादौ दृष्टान्तर्मिणि तत्पूर्वकत्वेन कार्यत्वस्याऽनिश्चयात् साध्यविकलो दृष्टान्तः विरुद्धश्च हेतुः स्पात , अनित्यबद्धयाधाराऽव्यापकाऽनेककर्तपूर्वकत्वेन व्याप्तस्य कार्यत्वस्य घटादौ निश्चयात् / अथ बुद्धिमत्कारणत्यमानं साध्यत्वेनाऽभिप्रेतं क्षित्यादौ तहि नित्यबुद्ध्याधार-व्यापककर्तृ पूर्वकत्वलक्षणस्य विशेषस्य क्षित्यादावसिद्धिर्नेश्वरसिद्धिः / अथ बुद्धिमत्कारणत्वसामान्यमेव क्षित्यादौ साध्यते, तच्च पक्षधर्मताबलाद् विशिष्टविशेषाधारं सिध्यति निविशेषस्य सामान्यस्याऽसम्भवात् , अनित्यज्ञानवत शरीरिणः क्षित्यादिविनिर्माणसामर्थ्यरहितत्वेन घटादावुपलब्धस्य विशेषस्य बुद्धिमत्कारणत्वसामान्याधारस्य तत्राऽसम्भवात् / नन्वेवं सामान्याश्रयत्वेन यद् घटादौ व्यक्तिस्वरूपं प्रतिपन्नं तस्य क्षित्यादावसम्भवात् / अन्यस्य च व्यक्तिस्वरूपस्य विवक्षितसामान्याश्रयत्वेनाऽप्रसिद्धत्वात् , निराधारस्य च सामान्यस्याऽसम्भवात् , बुद्धिमत्कारणत्वसामान्यस्यैव क्षित्यादौ न सिद्धिः स्यात् / न हि क्वचिद् गोत्वाधारस्य खण्डादिव्यक्तिविशेषस्याऽसम्भवेऽन्यरूपमहिष्यादिव्यक्तिसमाश्रितं गोत्वं कुतश्चिद् हेतोः सिद्धिमासादयति। कार्यत्व का विकल्प किया जाय तो ऐसा सभी अनुमान में हो सकने से अनुमानमात्र के उच्छेद की आपत्ति का सम्भव है अतः उसे कार्यसम असद् उत्तर कहा जा सकता है, किन्तु प्रस्तुत में क्षिति आदि में बुद्धिमत्कारणत्व साध्य की सिद्धि के लिये प्रयुक्त कार्यत्वसामान्य, हेतु ही नहीं बन सकता है क्योंकि यहाँ व्याप्ति के वैपरीत्य का उद्भावन्न करने पर उसका निवारक कोई बाधक प्रमाण मौजूद नहीं अतः यहाँ कार्यत्वसामान्य हेत की विपक्ष से व्यावत्ति संदिग्ध हो जाने से हेतु में अनैकान्तिकता दोष लगता है / जिस कार्यत्व को देख कर अदृश्योत्पत्तिवाले जीर्णकूप-प्रासादादि में भी 'यह किसी का बनाया हुआ है' ऐसी कृतबुद्धि तुरन्त ही हो जाती है ऐसे कार्यत्व में ही बुद्धिमत्कारणता के साथ देवकुलादि में व्याप्ति गृहीत है, कार्यत्वसामान्य मे व्याप्ति गृहीत नहीं है / और कृतबुद्धिजनक कार्यत्व हेतु क्षिति आदि में तो असिद्ध है यह कह ही दिया है। [व्यापक, नित्यबुद्धिवाला, एक कर्त्ता असिद्ध ] दूसरी बात यह है कि आप क्षिति आदि के कारण रूप में व्यापक, एक, एवं नित्य बुद्धिमान् कर्ता कार्यत्वरूप हेतु से सिद्ध करना चाहते हैं। किन्तु घटादि दृष्टान्तधर्मी का कार्यत्व व्यापकादिस्वरूपकर्तृ मूलक है यह निश्चय ही अशक्य है, अत: घटादि दृष्टान्त साध्यशून्य ठहरा। हेतु भी अब विरुद्ध हुआ, क्योंकि घटादि में व्यापकादि से विरुद्ध यानी अव्यापक अनित्य बुद्धिमत्अनेककर्तृ पूर्वकत्व के साथ ही व्याप्ति वाले कार्यत्व का निश्चय होता है / नैयायिकः-पृथ्वी आदि में हमारा साध्य केवल बुद्धिमत्कारणत्व ही है। उत्तरपक्षीः-तब तो क्षिति आदि में नित्यबुद्धिवाले, व्यापक, एक कर्ता से जन्यत्व-यह विशेष सिद्ध नहीं होगा, फलत: वैसा ईश्वर भी सिद्ध नहीं होगा। [पक्षधर्मता के बल से विशेष व्यक्ति की सिद्धि दुष्कर ] नैयायिक:-क्षिति आदि में कार्यत्वहेतु से तो केवल सामान्यत: बुद्धिमत्कारणता ही सिद्ध की जाती है / तथापि ईश्वर-असिद्धि नहीं होगी क्योंकि पक्षधर्मता के बल से ही बुद्धिमत्कारणत्व, व्यापक Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 * सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ___ अथ कार्यत्वस्य क्षित्यादौ बुद्धिमत्कारणत्वाभावेऽभावप्रसंगाद् विलक्षणव्यक्त्याश्रितस्यापि तत्सामान्यस्य तत्र सिद्धिर्भवत्येव, यथा महानसविलक्षणगिरिशिखराद्याधारस्याग्निसामान्यस्य धूमात प्रसिद्धिः। स्यादेतत् यद्यधूमव्यावृत्तं धूममात्रमनग्निव्यावृत्तेनाऽग्निना व्याप्तं यथा प्रत्यक्षानुपलम्भलक्षणात् प्रमाणात् प्रसिद्धं तथाऽत्राप्यबुद्धिमत्कारणव्यावृत्तेन बुद्धिमत्कारणत्वमात्रेणाऽकार्यव्यावृत्तस्य कार्यमात्रस्य कुतश्चित् प्रमाणाद् व्याप्तिः सर्वोपसंहारेण निश्चिता स्यात् , यावता सैव न सिद्धा। अथ यथा कार्यधर्मानुवृत्तेः कार्य हुतभुजो धूमः, स तदभावेऽपि भवन् हेतुमत्तां विलंघयेत् इति नाग्निव्यतिरेकेण धूमस्य सद्भाव इति सर्वोपसंहारेण व्याप्तिसिद्धिस्तथाऽत्रापि भूधरादि कार्यधर्मानुवृत्तितो बुद्धिमत्कारणकार्यम् , तदभावे तद् भवद् निर्हेतुकं स्यादिति सर्वोपसंहारेण व्याप्तिसिद्धिः / ननु घटादिलक्षणः कार्यविशेषो बुद्धिमदन्वय-व्यतिरेकानुविधायो य उपलभ्यमानस्तत्समानेषु पदार्थेष्व त्वादि विशिष्ट प्रकार के व्यक्तिविशेषरूप आधार ही सिद्ध होगा, क्योंकि विशेषविनिमुक्त केवल. सामान्य का सम्भव ही नहीं है / जो अनित्यज्ञान वाला देहधारी है वह क्षिति आदि बड़े-बड़े पदार्थों के निर्माण में समर्थ न होने से घटादि के कर्तारूप में उपलब्ध जो अनित्यबुद्धिमत्ता आदि वाला व्यक्ति विशेष उसमें क्षिति आदि में सिद्ध बुद्धिमत्कारणत्वरूप सामान्य की आश्रयता सम्भवारूढ नहीं है। . . उत्तरपक्षीः-तब तो इसका मतलब यह हुआ कि घटादि में जैसा सामान्याश्रित व्यक्तिस्वरूप ( अनित्यबद्धिमत्ता आदि ) गृहीत किया है उसका क्षिति आदि में सम्भव नहीं है और तटिव व्यक्तिस्वरूप ( नित्यबुद्धिमत्ता आदि ) तो उपरोक्त सामान्य के आश्रयरूप में कहीं भी प्रसिद्ध नहीं है और निराश्रित सामान्य का तो सम्भव ही नहीं है-इस प्रकार तो क्षिति आदि में किसी भी प्रकार के ( सामान्यतः ) बुद्धिमत्कारणत्व की सिद्धि नहीं होगी। ऐसा कहीं भी नहीं होता कि गोत्वसामान्य के आधार रूप में किसी भी खण्डमुंडादिव्यक्ति विशेष का कहीं सम्भव न लगता हो तब तद्भिन्नस्वरूप महिषीआदिव्यक्ति को ही गोत्व का आधार किसी हेतु से सिद्ध किया जाय ! [विलक्षणव्यक्ति-आश्रित बुद्धिमत्कारणत्वसामान्य की सिद्धि अशक्य] .. नैयायिकः-यदि क्षिति आदि में बुद्धिमत्कारणता का अभाव प्रसंग दिखायेंगे तब तो कार्यत्व का भी अभाव प्रसक्त होगा, कार्यत्व तो वहां प्रसिद्ध ही है अत: अव्यापकादि से विलक्षण अर्थात् व्यापकादिव्यक्ति में आश्रित ही बुद्धिमत्कारणत्वसामान्य की सिद्धि माननी पड़ेगी। उदा० धूम से पर्वत में जो अग्नि सामान्य सिद्ध होगा वह पाकशाला के अग्नि से विलक्षण पर्वतीय शिखर में आश्रित रूप से ही सिद्ध होता है। उत्तरपक्षीः-धूमादि के जैसे अगर यहाँ भी होता तब तो आपकी बात ठीक मानते, किन्तु ऐसा है नहीं / देखिये-'अधूम से विलक्षण धूमसामान्य यह अनग्नि से विलक्षण अग्नि से व्याप्त है' यह तो प्रत्यक्ष अनुपलम्भ यानी अन्वय-व्यतिरेकग्रहरूप प्रमाण से सिद्ध है। यदि ऐसे प्रस्तुत में अबुद्धिमत्कारण से व्यावृत्त बुद्धिमत्कारणत्वसामान्य के साथ अकार्यविलक्षणकार्यत्वसामान्य की व्याप्ति किसी प्रमाण से सर्वदेश-कालान्तर्भाव से सिद्ध होती तब तो नैयायिक की बात ठीक थी, किन्तु वही अद्यापि असिद्ध है / जब बुद्धिमत्कारणत्वसामान्य और कार्यत्व के बीच व्याप्ति ही असिद्ध है तब कैसे बद्धिमत्कारणत्वसामान्य की व्यापकादिव्यक्तिविशेष-आश्रित रूप में सिद्धि मानी जाय ? ! Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वराकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 469 क्रियादशिनोऽपि कृतबुद्धिमुत्पादयति, स एव बुद्धिमत्कारणकार्यत्वात् तदभावे भवन् निर्हेतुकः स्यादिति वक्तुं शक्यम् , न पुनः कार्यत्वमात्रं कारणमात्रहेतुकं बुद्धिमत्कारणाभावे भवन्निर्हेतुकमासज्यते, तद्धि कारणमात्राऽभावे भवद् निर्हेतुकं स्यात् / न च कार्यविशेषः कर्तारमन्तरेण नोपलब्ध इति कार्यत्वमात्रमपि कर्तृ विशेषानुमापकमिति न्यायविता ववतु युक्तम् , अन्यथा धूमविशेषस्तत्कालवयव्यभिचरितो महानसादावुपलब्ध इति धूपघटिकादौ धूममात्रमपि तत्कालवह्नयनुमापकं स्यात् / अथ तत्र तत्कालवह्नयनुमाने ततः प्रत्यक्षविरोधः / स तहि भूरुहादावप्यकृष्टजाते कर्बनुमाने कार्यत्वलक्षणाद्धेतोः समानः / 'अथ तत्कर्तुरतीन्द्रियत्वाभ्युपगमाद न प्रत्यक्षविरोधः' / धूपघटिकादावपि वह्नरतीन्द्रियत्वाभ्युपगमे को दोषो येन प्रत्यक्षविरोध उद्भाव्येत? * [ सहेतुकत्व के अतिक्रम की आपत्ति का प्रतिकार ] नैयायिक:-कार्य का जो लक्षण होता है-कारण के अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान, वह धूम में अनुवर्तमान होने से धूम को अग्नि का कार्य माना जाता है, अतः यदि अग्नि के अभाव में भी वह रह जायेगा तो सहेतुकत्व का अतिक्रमण कर देगा, अर्थात् निर्हेतुक हो जायेगा, (द्र. प्र०वा० 3-34) इस कारण, अग्नि के विना धूम का सद्भाव नहीं माना जाता, अतः सर्वोपसंहार से व्यप्ति की सिद्धि धूम में होती है-उसी तरह पर्वतादि में भी कार्यधर्म यानी कारण के अन्वय व्यतिरेक का अनुविधान सिद्ध होने से पर्वतादि को बुद्धिमत्कारणजन्य मानना ही होगा, यदि बुद्धिमत्कारण के विना भी पर्वतादि कार्य निष्पन्न होगा तब निर्हेतुक ही बन जायेगा, इस प्रकार यहाँ भी सर्वोपसंहार से व्याप्ति की सिद्धि निर्बाध होती है। उत्तरपक्षी:-बुद्धिमत्कारण के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान जिस में दृष्ट है वैसे घटादि रूप जो कार्यविशेष, अपने से समान पदार्थों में उत्पत्तिक्रिया न देखने वाले को भी कृतबुद्धि उत्पन्न करता है, वही कार्यविशेष बुद्धिमत्कारणजन्य होने से उसके लिये यह कहा जा सकता है कि बुद्धिमत्कारण के अभाव में भी यदि वैसा कार्यविशेष उत्पन्न होगा तो निर्हेतुक हो जायेगा। कार्यत्वसामान्य तो केवल कारणसामान्यहेतुक ही होता है, अतः वहाँ यह नहीं कह सकते कि 'यदि वह बुद्धिमत्कारणजन्य नहीं होगा तो निर्हेतुक हो जायेगा'। केवल इतना ही यहाँ कहा जा सकता है कि यदि कारणसामान्य के विना कार्यसामान्य उत्पन्न होगा तो वह निर्हेतुक हो जायेगा। [ कार्यस्वसामान्य से कारण विशेष का अनुमान मिथ्या है ] न्यायवेत्ता कभी ऐसा नहीं कहेगा कि-'कर्तारूप विशेषकारण के विना कोई एक कार्यविशेष उपलब्ध नहीं होता इतने मात्र से कार्यत्वमात्र से भी कर्तृ विशेष का अनुमान किया जा सकता है।' यदि कार्यत्वमात्र से भी कर्तृ विशेष का अनुमान किया जा सकता तब तो पाकशालादि में तत्कालीन अग्नि से अविनाभूत धूमविशेष की उपलद्धि होती है तो इतने मात्र से धूमघटिका में धूमसामान्य से तत्कालीन (पाकशालागत) अग्नि का अनुमान प्रसक्त होगा। नैयायिकः-धूपघटिका में पाकशालागत तत्कालीन अग्नि का अनुमान करने में प्रत्यक्षविरोध है / . . . . . .. . Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड.. अथ 'यदि तत्र तत्कालसम्बन्ध्यनलो भवेत् तदा भास्वररूपसम्बन्धित्वात् प्रत्यक्षः स्यात्' इत्यप्रत्यक्षत्वलक्षणो दोषः। ननु 'भास्वररूपसम्बन्धित्वादनलो यदि तत्कालं स्यात् प्रत्यक्ष एव भवेत्' इत्येतदेव कुतोऽवसितम् ? 'महानसादौ तथाभूतस्यैव तस्य दर्शनात्' इति चेत् ? नन्वेवं भूरुहादावपि यदि कर्ता स्यात् तदा शरीरवान् दृश्य एव स्यात् , घटादौ कर्तु स्तथाभूतस्यैव तोपलम्भात्-इति समानं पश्यामः। अथ वृक्ष-शाखाभंगादिकार्यस्याऽदृश्यः पिशाचादिः कर्ता यथाऽभ्युपगतः, स्वशरीराऽवयवानां वाऽपरशरीरव्यतिरेकेणाऽपि यथावा प्रेरको देवदत्तादिः तथा भूरुहादिकार्यकर्ताऽदृश्यः शरीरादिरहितश्च यदि स्यात को दोषः? न कश्चिद् दृष्टव्यतिक्रमव्यतिरेकेण / तथाहि-देवदत्तादेरपि स्वशरीरावयवप्रेरकत्वं विशिष्टशरीरसम्बन्धव्यतिरेकेण नोपलब्धमित्येतावन्मात्रमेव तत्र तस्य कर्तुत्वनिबन्धनम् , नापरशरीरसम्बन्धस्तत्र तस्योपयोगी इति भूरुहादिकर्तु रपि शरीरसम्बद्धस्यैव कार्यकरणे व्यापारो युक्तः, नान्यथा / तत्सम्बन्धश्च तस्य यदि तत्कृतोऽभ्युपगम्यते तदा.शरीरसम्बन्धरहितस्य तदकरणसामर्थ्य मित्यपरशरीरसम्बन्धोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा शरीरसम्बन्धरहितस्य कथं प्रस्तुतकार्यकरणम् ? तथा, तदभ्युपगमे वाऽपरापरशरीरनिर्वर्त्तने क्षोणव्यापारत्वादीशस्य न भूरुहादिकार्यनिर्वर्तनम् / उत्तरपक्षी:-तो अरण्य में विना कृषि से उत्पन्न वृक्षादि में कार्यत्व हेतु से कर्ता का अनुमान करने में भी प्रत्यक्षविरोध तुल्य है। नैयायिकः-उस वृक्षादि के कर्ता को हम अतीन्द्रिय मानते हैं अतः कोई प्रत्यक्षविरोध सम्भव नहीं है। उत्तरपक्षीः-हम भी धूपघटिका में अतीन्द्रिय तत्कालीन अग्नि को मान लेंगे तो क्या प्रत्यक्षविरोध होगा? नैयायिकः-धूपघटिका में यदि उस काल का सम्बन्धीभूत अग्नि हो सकता तब तो वह भास्वर-. रूपवाला होने से अवश्य प्रत्यक्ष होता है, अतः अप्रत्यक्षत्वरूप दोष तदवस्थ ही है / . उत्तरपक्षीः-यह आपने कैसे जाना कि 'भास्वररूपवाला होने से अग्नि यदि उस काल में धूपघटिका में होता तो अवश्य प्रत्यक्ष ही होता' ? नैयायिक:-पाकशाला में उसी प्रकार के ही अग्नि को पहले देखा है। 'उत्तरपक्षी:-वृक्षादि का भी यदि कर्ता होता तो वह शरीरी और दृश्य ही होता क्योंकि घटादि दृष्टान्त में उसी प्रकार के कर्ता की उपलब्धि होती है-इस प्रकार दोनों जगह साम्य दिखता है। [ शरीर के विना कर्ता को मानने में दृष्टव्यतिक्रम]. . नैयायिकः-यकायक जो वृक्षभंग या शाखाभङ्ग आदि कार्य देखते हैं तब वहाँ जैसे अदृश्य पिशाचादि कर्ता को मान लेते हैं, अथवा देवदत्तादि पुरुष अन्यशरीर के विना ही अपने शरीर के अवयवों का जैसे संचालन करता है, उसी तरह वृक्षादि का शरीररहित अदृश्य कर्ता मान लेने में क्या हानि है ? उत्तरपक्षीः-दृष्ट का व्यतिक्रम होता है यही दोष है, और कोई नहीं। देखिये-देवदत्तादि पुरुष का जो स्वदेहावयवों का संचालन है वह विशिष्ट प्रकार के शरीरसंबंध विना नहीं देखा जाता Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 471 अथ तदनिवत्तितं तच्छरीरं, तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-किं तत् कार्यम् , उत नित्यमिति ? यद्याद्यः पक्षः, तदा तस्य कार्यत्वे सत्यपि न कर्तृ पूर्वकत्वम्, ततस्तेनैव कार्यत्वलक्षणो हेतुर्व्यभिचारी। अथ नित्यम् , तदा यथा तच्छरीरस्य शरीरत्वे सत्यपि नित्यत्वलक्षणः स्वभावातिकमोऽभ्युपगम्यते तथा भूरुहादेः कार्यत्वे सत्यप्यकर्तृ पूर्वकत्वमभ्युपगन्तव्यमिति पुनरपि तैहेतुर्व्यभिचारी प्रकृतः। पिशाचादेस्तु शरीरसम्बन्धरहितस्य कार्यकर्तृत्वं मुक्तात्मन इवानुपपन्नम् / अथास्त्येव तस्य शरीरसम्बन्धः, किन्त्वदृश्यशरीरसम्बन्धादसावदृश्यः कर्ताऽभ्युपगम्यते / ननु कुलालादेरपि शरीरसम्बन्ध एव दृश्यत्वं नापरम् , स्वरूपेणात्मनोऽदृश्यत्वात् / अथ दृश्यशरीरसम्बन्धात् तस्य दृश्यत्वम् , ननु पिशाचादिशरीरस्य शरीरत्वे सत्यपि कथमदृश्यत्वम् ? 'अस्मदादिचक्षुापारेण तस्याऽनुपलम्भादिति चेत् ? ननु यथा शरीरत्वे सत्यप्यस्मदादिशरीरविलक्षणं पिशाचादिलक्षणं शरीरमनुपलभ्यत्वेनाभ्युपगम्यते तथा घटादिविलक्षणं भूरुहादि कार्यत्वे सत्यप्यकर्तृकत्वेन किं नाभ्युपगम्यते ? तथाऽभ्युपगमे च पुनरपि प्रकृतो हेतुळभिचारी / तदेवमसिद्धत्वाऽनैकान्तिकत्व-विरुद्धत्वदोषदुष्टत्वाद् नास्माद्धेतोः प्रस्तुतसाध्यसिद्धिः / तेन यदुक्तम्-'पृथिव्यादिगतस्य कार्यत्वस्याऽप्रतिपत्तेन तस्मादीश्वरावगम.' इति तद्युक्तमेवोक्तम् / -इतना ही यहाँ कर्तृत्वप्रतिपादन का मूल है, अन्य शरीर का सम्बन्ध हो या न हो, किसी उपयोग का नहीं / (तात्पर्य यह है कि शरीर योग के विना स्वदेहावयवादि किसी का भी कोई संचालन नहीं कर सकता, वह संचालन उसी शरीर से चाहे करे या अन्य शरीर से यह कोई महत्त्व की बात नहीं है, निष्कर्ष:-कर्तृत्व के लिये शरीर योग चाहिये ) अत: वृक्षादि कार्य उत्पादन में किसी कर्ता का व्यापार मानना हो तो शरीरसंबद्ध ही उसे मानना होगा ईश्वर में यह देहसंबन्ध भी यदि ईश्वरकृत ही मानेंगे तो उसके उत्पादन में देहसम्बन्धशून्य ईश्वर उपरोक्त रीति से समर्थ न बन सकने से अन्य देहसम्बन्ध मानना पड़ेगा, वरना देहसम्बन्ध के विना वह देहसम्बन्धरूप कार्य को भी कैसे कर सकेगा? यदि प्रथम देहसम्बन्ध के लिये दूसरा देह सम्बन्ध मानेंगे तो दूसरे के लिये तीसरा, तीसरे के चौथा.... इस प्रकार अपने शरीर के निर्माणकार्य में ही ईश्वर का व्यापार क्षीण हो जायेगा तो वृक्षादि कार्य का निर्माण कब और कैसे करेगा? यदि यह कहें कि ईश्वरदेह ईश्वर निर्मित नहीं है तो यहाँ दो प्रश्न का उत्तर दीजिये-वह कार्य (जन्य) है ? या नित्य है ? यदि प्रथम पक्ष माना जाय तो, ईश्वरदेह कार्यत्मक होने पर भी कर्तृ मूलक नहीं है यह फलित होने से ईश्वरदेह में ही आपका कार्यत्वरूप हेतु साध्यद्रोही हुआ। यदि उसके शरीर को नित्य मानेंगे तो यह निवेदन है कि जैसे उसके देह में शरीरत्व होने पर भी अनित्यत्वस्वभाव का अतिक्रमण करने वाला नित्यत्व आप मानते है वैसे ही वृक्षादि में कार्यत्व रहने पर भी अकर्तृ मूलकता मान लेनी चाहिये, अर्थात् कार्यत्व हेतु फिर से एक बार वृक्षादि में साध्यद्रोही सिद्ध होगा। [शरीरसम्बन्ध के विना करत्व की अनुपपत्ति ] वृक्षादि भंग की जो बात कही है वहाँ पिशाचादि में भी शरीर के सम्बन्ध विना मुक्तात्मा को तरह कार्यकर्तृत्व नहीं घट सकता / (शरीर के अभाव में मुक्तात्मा किसी भी कार्य का कर्ता नहीं होता)। यदि कहें कि उसको भी देहसम्बन्ध है ही, किन्तु वह शरीरसम्बन्ध अदृश्य होने से अदृश्य Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यत्तूक्तम्-'पृथिव्यादीनां बौद्धः कार्यत्वमभ्युपगतम् ते कथमेवं वदेयुः' इति तदसारम् , प्रकृतसाध्यसिद्धिनिबन्धनस्य कार्यत्वस्य तेष्वसिद्धत्वप्रतिपादनात् / यच्चाभाषि 'येऽपि चार्वाकास्तेषां कार्यत्वं नेच्छन्ति तेषामपि विशिष्टसंस्थानयुक्तानां कथमकार्यता' इति, तदप्ययुक्तम् , संस्थानयुक्तत्वस्याऽसिद्ध त्वादिदोषदुष्टत्वप्रतिपादनात् / यच्च ‘संस्थानशब्दवाच्यत्वं केवलं घटादिभिः सामान्यं पृथिव्यादीनाम्, न त्वर्थः कश्चिद् द्वयोरनुगतः समानो विद्यते' तदेवमेव / यत्तुक्तम् 'धमादावपि पूर्वापरव्यक्तिगतो नैव कश्चिदनुगतोऽर्थः समानोऽस्ति' इत्यादि, तदसंगतम् , घटादिसंस्थानेभ्यः पृथिव्यादिसंस्थानस्य वैलक्षण्येन हेतोरसिद्धत्वप्रतिपादनात्। यदप्युक्तम्-'व्युत्पन्नानामस्त्येव पृथिव्यादिसंस्थानवत्त्वकार्यत्वादेहेंतोर्मिधर्मतावगम, अव्युत्पन्नानां तु प्रसिद्धानुमाने धूमादावपि नास्ति'-इति, तदप्य चारु, यतो यद्यनुमाननिमित्तहेतु-पक्षधर्मत्वप्रतिबन्धलक्षणां व्युत्पत्तिमाश्रित्य व्युत्पन्ना अभिधीयन्ते तदा पृथिव्यादिगतसंस्थानकार्यत्वादौ घटादिसंस्थानलक्षण्ये प्रकृतसाध्यसाधके व्युत्पत्तिर्न केषाञ्चिदपि भवति, यथोक्तसाध्यव्याप्तस्य पृथिव्यादौ पिशाचादि कर्ता माना जाता है / तो यहाँ निवेदन है कि कुलालादि आत्मा स्वरूप से तो अदृश्य ही होता है केवल देहसम्बन्ध से ही वह दृश्य माना जाता है तो पिशाच और कुलाल में वैलक्षण्य क्यों ? पति कहें कि-कलालादि में जो देहसम्बन्ध है वह दृश्य है इसलिये कूलाल को दृश्य मानते हैं-तो यहाँ यही तो प्रश्न है कि पिशाचादि का देह भी आखिर तो शरीर ही है तो उसे अदृश्य क्यों मानते हैं ? हम लोगों के नेत्र व्यापार से पिशाच का उपलम्भ न होने से यदि वह अदृश्य माना जाता है. तो यह अब सोचिये कि दोनों जगह शरीरत्व तुल्य होने पर भी पिशाचादि का शरीर उपलब्ध न होने से हम लोगों के शरीर से उनके शरीर को विलक्षण माना जाता है, उसी तरह घटादि से विलक्षण वृक्षादि में कार्यत्व भले रहे, उसे कर्तृ रहित क्यों नहीं मानते हैं ? यदि कर्तृ रहित मान लेंगे तब तो कार्यत्व देत फिर से एक बार वृक्षादि में साध्यद्रोही हो गया। इस प्रकार असिद्ध-अनैकान्तिक और विरुद्ध दोषों ईश्वर सिद्धि की आशा नहीं की जा सकती / अत: प्रारम्भ में जो हमने कहा था [50 383-3] कि पृथ्वी आदि के कार्यत्व की उपलब्धि न होने से उससे ईश्वर की सिद्धि अशक्य हैयह सच्चा कहा है। [ पूर्वपक्षी कथित बातों का क्रमशः निराकरण ] यह जो कहा है-बौद्ध तो पृथिवी आदि में कार्यत्व मानते हैं, वे कैसे यह कह सकेंगे कि पृथ्वी आदि में कार्यत्व उपलब्ध नहीं होता ? [ पृ० ३८३-३]-यह भी असार ही है, प्रस्तुतसाध्यसिद्धिकारक कार्यत्व को बौद्ध भी पृथ्वी आदि में असिद्ध ही मानते हैं। यह जो कहा था-जो चार्वाक पृथ्वी आदि में कार्यत्व को नहीं मानते हैं उनके मत से भी विशिष्टसंस्थानवाले पृथ्वी आदि में भी अकार्यता कैसे कही जाय?-[१० 383-4 ] वह भी अयुक्त है, पृथ्वी आदि में संस्थानवत्ता हेतु असिद्धत्व आदि दोषग्रस्त होने का कह दिया है / यह जो कहा है-पृथ्वी आदि और घटादि में संस्थानशब्द का प्रयोग होता है इतनी ही समानता है, दोनों में अनुगत कोई समान अर्थ नहीं है-यह तो यथार्थ ही है। किन्तु यह जो कहा था-कि अनुगत संस्थान न मानने वाले के मत में तो धूमादि पूर्वापर व्यक्ति में भी अनुगत कोई समान अर्थ नहीं है-इत्यादि [ पृ० 383-8 ] यह जूठा है, क्योंकि धूमादि पूर्वापरव्यक्ति में अनुगत अर्थ उभय सम्मत है जब कि पृथ्वी आदि का संस्थान घटादिसंस्थान से सर्वथा विलक्षण है, इस कारण से पृथ्वी आदि में संस्थानवत्त्व हेतु को असिद्ध कहा है। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उ० संयोग० 473 संस्थानादेरभावात् / भावे वा शरीरादिमतोऽस्मदादीन्द्रियग्राह्यस्यानित्यबुद्धयादिधर्मपेतस्य घटादौ संस्थानादिहेतुव्यापकत्वेन प्रतिपन्नस्य कर्तुः पृथिव्यादौ ततः प्रतिपत्तिः स्यात् , न हि हेतुव्यापकमपहायाऽव्यापकस्य विरुद्धधर्माक्रान्तस्याऽपरस्य साध्यधर्मस्य प्रतिपत्ति: साध्यमिणि यथोक्तलक्षणलक्षितहेतुबलसमुत्थेत्यनुमानविदां व्यवहारः। कारणमात्रप्रतिपत्तौ, तु ततः तत्र न विप्रतिपत्तिरिति सिद्धसाध्यता। ____ अथ हेतुलक्षणव्युत्पतिव्यतिरिक्तां व्युत्पत्तिमाश्रित्य 'व्युत्पन्नानाम्' इत्युच्यते तदा 'केनचित् स्रष्ट्रा जगत सृष्टम्' इति निर्मूलदुरागमाहितवासनानामस्त्येव पृथिव्यादिसंस्थानवत्त्वकार्यत्वादेहेतोधमिधर्मताऽवगमादिः, न च तथा भूतमिधर्मताद्यवगमात् साध्यसिद्धिः, वेदे मीमांसकस्याऽस्मर्यमाणकर्तृ कत्वादेः धमिधर्मताऽवगमादेर्यथाऽपौरुषेयत्वस्य / 'अव्युत्पन्नानां तु प्रसिद्धानुमाने धूमादावपि नास्ति' इत्युक्तमेव, अस्माभिरप्यभ्युपगमात् / [ व्युत्पन्न को भी संस्थानादि से बुद्धिमत्कारणानुमान नहीं होता] यह जो कहा है-व्युत्पन्न लोगों को पृथ्वी आदि और संस्थानवत्त्व में तथा पृथ्वी आदि और कार्यत्व में धर्मि-धर्मभाव का बोध होता ही है, जो लोग अव्युत्पन्न ( बुद्धिहीन ) हैं उन को तो प्रसिद्ध अनुमान स्थल में धूम-अग्नि-पर्वतादि में भी व्याप्ति आदि का ग्रह नहीं होता [ पृ. 384 पं. 7 ]-यह बात भी अरुचिकर है ? कारण, अनुमानप्रयोजक हेतु, पक्षधर्मता, व्याप्ति आदि स्वरूप व्युत्पत्ति को लक्ष्य में रखकर आप से व्युत्पन्न लोगों की बात की जाय तो यह कहना होगा कि घट आदिगत संस्थान और कार्यत्व से विलक्षण, पृथ्वी आदिगत संस्थान-कार्यत्व कर्त्तारूप साध्य का साधक है ऐसी व्युत्पत्ति किसी भी व्युत्पन्न को नहीं होती, क्योंकि क रूप साध्य से व्याप्त जो संस्थानादि है वह पृथ्वी आदि में नहीं है / यदि पृथ्वी आदि में घटादि जैसा ही संस्थानादि होगा तो, घटादि में संस्थानादिहेतु का व्यापक जैसा कर्ता उपलब्ध है-देहधारी, अपने लोगों को इन्द्रिय से ग्राह्य, अनित्यबुद्धि इत्यादिधर्म समूह वाला-ऐसा ही कर्ता पृथ्वी आदि में मानना होगा। कारण, अनुमानवेत्ताओं में ऐसा व्यवहार नहीं है कि-हेतु के जो लक्षण कहे गये हैं ऐसे लक्षणों से अलंकृत हेतु के बल से साध्यधर्मी (पक्ष) में, हेतु के व्यापक साध्यधर्म की उपलब्धि न हो कर अव्यापक और विरुद्ध धर्मों से आक्रान्त किसी अन्य ही साध्य की उपलब्धि हो / यदि साधारण कार्यत्वहेतु के बल से पथ्वी आदि में मात्र सकारणकत्व ही सिद्ध करना हो तो वहाँ कोई विवाद नहीं अपितु सिद्धसाध्यता ही है / [केरल धर्मिधर्म भाव से साध्यसिद्धि अशक्य ] अब यदि हेतू के लक्षणों की व्युत्पत्ति से भिन्न किसी प्रकार की व्युत्पत्ति को लक्ष्य में रख कर व्युत्पन्न लोगों को मिधर्मभाव के बोध होने का कहते हो तब निवेदन है कि जिन लोगों को निर्मूल अविश्वसनीय आगम से 'किसी निर्माता ने जगत् का निर्माण किया है' ऐसी वासना हो गयी है उन लोगों को पृथ्वी आदि और संस्थान तथा पृथ्वी आदि और कार्यत्वादि में धमि-धर्मभाव का अवबोध होने का हम भी मानते हैं-किन्तु ऐसे निर्मूल धमिधर्मभावबोध से अभ्रान्त साध्यसिद्धि हो नहीं जाती, जैसे कि मीमांसकों को वेद और तद्विषयक कर्ता के अस्मरण में धमि-धर्मभाव का बोध है किन्तु उससे नैयायिकों के मतानुसार अपौरुषेयत्व की वेद में सिद्धि नहीं हो जाती। यह जो अन्त में Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1..." . . - यत्तु 'प्रासादादिसंस्थानादेलक्षण्येऽपि पृथिव्यादिसंस्थानादेः, कार्यत्वादि पृथिव्यादीनामिष्यते, कार्य च कर्तृ-करणकर्मपूर्वकं दृष्टम्' इत्यादि, तदप्यसंगतम् , यतो नाम घटादेविशिष्ट कार्यस्य कर्तृपूर्वकत्वमुपलब्धं नैतावताऽविशिष्टस्यापि भूरुहादिकार्यस्य कर्तृ पूर्वकत्वमभ्युपगन्तु युक्तम् , अन्यथा पृथिवीलक्षणस्य कार्यस्य रूप-रस गन्ध-स्पर्शगुणयोगित्वमुपलब्धं भूतत्वे सति. वायोरपि तद्योगित्वमभ्युपगमनीयं स्यात् , तत्त्वादेव / अथात्र प्रत्यक्षादिबाधः स भूरुहादिकार्येष्वपि समान इति प्राक् प्रतिपादितम् / ___यत्तूक्तम् - 'कर्तृ पूर्वकस्य कार्यत्वादेस्तद्वलक्षण्याद् न ततः साध्यावगमः' इत्यादि, तत् सत्यमेव, तद्वैलक्षण्यस्य प्रसाधितत्वात् / अत एव सिद्धम् 'यादृगधिष्ठातृभावाभावानुवृत्तिमत् सन्निवेशादि' इत्यादिग्रन्थप्रतिपादितस्य दूषणस्य कार्यत्वादौ सर्वस्मिन्नीश्वरसाधके हेतौ समानत्वाद् न कस्यचित् तत्साधकता / 'यद्येवमनुमानोच्छेदप्रसङ्गः, धूमादि यथाविधमग्न्यादिसामग्रीभावाभावानुवृत्तिमत् तथाविधमेतद् यदि पर्वतोपरि भवेत् स्यात् ततो वह्नयाद्यवगमः' इत्यादिकस्तु पूर्वपक्षग्रन्थः पूर्वमेव . विहितोत्तरः। यथा कहा है कि-'अव्युत्पन्न लोगों को धूमादि हेतुक प्रसिद्ध अनुमान में भी आवश्यक व्युत्पत्ति नहीं होती है'-यह तो ठीक ही है, हम भी ऐसा मानते ही हैं। [साधर्म्य मात्र से कर्ता का अनुमान दुःशक्य ] . यह जो कहा है - [ पृ. 384 पं. 9 ] प्रासादादि के संस्थान से पृथ्वी आदि का संस्थान विलक्षण होने पर भी उससे पृथ्वी आदि में कार्यत्व की सिद्धि होती है और कार्य तो हमेशा कर्ता, करण और कर्म पूर्वक ही देखा जाता है। यह भी संगत नहीं है / कारण, विशिष्ट प्रकार के घटादि कार्य कर्तृ पूर्वक दिखते हैं इतने मात्र से सामान्य कोटि के वृक्षादि कार्यों को कर्तृ पूर्वक मान लेना युक्तियुक्त नहीं है, वरना भूतत्ववाले पृथ्वीरूप कार्य में रूप-रस-गन्ध-स्पर्शगुण का योग दिखता है तो वायु में भी भूतत्व के साधर्म्य से रूप-गन्धादि का अस्तित्व नैयायिक को मानना पडेगा। यदि कहें कि-उसमें तो प्रत्यक्षबाध है अतः नहीं मानेंगे-तो यह बात वृक्षादिकार्यों के लिये भी समान है-यह पहले ही कह दिया है। [ पृ. 438 पं. 5 ] यह जो कहा है-[ पृ. 384 पं. 11 ] पृथ्वी आदि के कार्यत्वादि, कर्तृ पूर्वक जो कार्यत्व होता है उससे विलक्षण है अतः उससे कर्ता का अनुमान नहीं हो सकता यह तो ठीक ही है / वैलक्षण्य कैसे है वह तो हमने कह दिया है कि एक जगह कृतबुद्धिजनक कार्यत्व है और अन्यत्र वैसा नहीं है / इसीलिये यह भी सिद्ध होता है-जैसा संनिवेशादि अधिष्ठाता के भावाभाव का अनुविधायी है वैसे ही उसे देखने पर कर्ता का अनुमान हो सकता है-इत्यादि पूर्वोक्त ग्रन्थ से कार्यत्वादि में जो दूषण दिखाये हैं वे ईश्वरसाधक प्रत्येक हेतु में समान रूप से संलग्न होने से कोई भी हेतु ईश्वर की सिद्धि करने में समर्थ नहीं है। इसके विरुद्ध वहाँ ही पूर्वपक्षी ने जो यह कहा था-[ पृ. 385 पं. 1 ] कि ऐसा मानेंगे तब तो सभी अनुमानों के उच्छेद का प्रसंग होगा, उदाहरण देखिये-जैसा धूमादि अग्निआदि सामग्री के भावाभाव का अनुविधायि है वैसा ही यदि पर्वत के ऊपर हो तभी अग्नि का अनुमान होगा। [किन्तु पर्वत के ऊपर पाकशाला के जैसा धूम तो नहीं होता अत: अनुमान नहीं हो सकेगा।] Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 475 यथाभूतोऽधूमव्यावृत्तो धूमोऽनग्निव्यावृत्तेनाऽग्निना व्याप्तो विपर्यये बाधक प्रमाणबलादवसितो गिरिशिखरादावुपलभ्यमानस्तद्देशमग्निसामान्यमनियततार्ण--पार्णाद्यग्निव्यक्तिसमाश्रितमनुमापयति; नैवं कार्यत्वमात्रं बुद्धिमत्कारणसामान्येन व्याप्तं विपर्यये बाधकप्रमाणबलाद निश्चितं किंतु कारणत्वमा(णमा)त्रेण व्याप्तं तत् तबलाद निश्चितम् , तच्चोपलभ्यमानं क्षित्यादौ कारणमात्रमनुमापयति यथा गिरिशिखरादावुपलभ्यमानो धूमस्तत्सम्बद्धमग्निमात्रमनियतव्यक्तिनिष्ठम् , तेन 'पृथिव्यादिगतकार्यदर्शनात् कर्बदशिनस्तदप्रतिपत्तिवत् शिखर्यादिगतवह्नयाद्यदर्शिनां धूमादपि तदप्रतिपत्तिरस्तु' इति कोऽन्योऽनुमानस्वरूपविदो भवतो वक्तु क्षमः ? ! यदि हि कार्यविशेषाद्धमलक्षणादुपलभ्यमानाद् गृहीताऽविनाभावस्य पुसोऽग्निलक्षणकारणविशेषप्रतिपत्तिगिरिशिखरादौ भवति तदा कार्यमात्रात् पृथिव्यादावुपलभ्यमानाद (नाद) बुद्धिमत्कारणविशेषस्य तत्र प्रतिपत्तौ किमायातम् ? कारणमात्रप्रतिपत्तिस्तु ततस्तत्र भवत्येव, 'सुववेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरति' इतिन्यायात् / अत एवान्यस्य सम्बद्धस्यान्यतः प्रतिपत्तौ कार्य-कारणावगमादौ प्रयत्नः कार्यः, अन्यथा तदुत्थप्रमाणस्य प्रमाणाभासता स्यात् / यत्तु 'न चाऽत्र शब्दसामान्यं वस्त्वनुगमो नास्तीति युक्तं वक्तुम् , धूमादावपि शब्दसामान्यस्य वक्तु शवयत्वाद्' इति, तदप्यसंगतम् , धूमादिवैलक्षण्येन पृथिव्यादौ कार्यत्वस्य बुद्धिमत्कारणत्वाऽव्याप्तेः शब्दसामान्यस्य साधितत्वात् / इस पूर्वपक्ष की आपत्ति का प्रतिकार पहले ही कर दिया है। [ देखिये-पृ. 466 ] यहाँ भी दिखाते हैं [कार्यत्व केवल कारणत्व का ही व्याप्य है ] विपरीत शंका बाधक प्रमाण के बल से, जिस प्रकार का अधूमभिन्न धूम अनग्निभिन्न अग्नि के साथ व्याप्तिवाला ज्ञात किया है उसी प्रकार का ( अधूम यावृत्त ) धूम यदि गिरि-शिखरादि के ऊपर ऊपलब्ध होता है तो वहाँ किसी भी प्रकार के तृणजन्य या पर्णजन्य अग्निव्यक्ति में आश्रित अग्निसामान्य का अनुमान करा देता है / कार्यत्व स्थल में ऐसा नहीं है, विपरीत शंका में बाधक प्रमाण के बल से कार्यत्व को बुद्धिमत्कारणसामान्य के साथ व्याप्ति होने का निश्चय ही नहीं है, यहाँ तो विपरीत शंका में बाधक प्रमाण के बल पर कार्यत्व की केवल सकारणकत्व के साथ ही व्याप्ति निश्चित हो सकती है। अत: पृथ्वी आदि में उपलब्ध कार्यत्व से केवल कारण सामान्य का ही अनमान हो सकता है जैसे कि गिरिशिखरादि ऊपर उपलब्ध धूम से केवल गिरिशिखरादिसम्बद्ध अनियत व्यक्ति आश्रित अग्नि सामान्य का ही अनुमान होता है / अतः आपने जो यह कहा है-पृथ्वी आदि गत कार्य के दर्शन से कर्ता न देखने वाले को यदि कर्ता का अनुमान नहीं मानेंगे तो पर्वतादिगत अग्नि न देखने वाले को धूम देख कर भी अग्नि का बोध नहीं होगा-यह तो आप से अतिरिक्त और कौन कहने का साहस करेगा यदि अनुमानस्वरूप को वह जानता होगा? [बुद्धिमत्कारणविशेष की उपलब्धि निमूल है ] यह तो सोचिये कि-व्याप्तिज्ञानवाले पुरुष को धूमात्मक कार्यविशेष के उपलम्भ से यदि गिरिशिखरादि के ऊपर रहे हुए अग्निरूप कारण विशेष की अनुमिति होती है तो इतने मात्र से पथ्वी आदि में उपलब्ध कार्यत्वसामान्य से बुद्धिमान् कारणविशेष की उपलब्धि कहाँ से हो सकती है ? हाँ, कारणसामान्य की उपलब्धि कार्यत्व सामान्य से वहाँ होने की बात ठीक है, क्योंकि सुपरीक्षित Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 . यच्च-घटादिवत् पृथिव्यादि स्वावयवसंयोगैरारब्धमवश्यं तद्विश्लेषाद् विनाशमनुभविष्यति, इत्यादि-तदप्यसंगतम् , अवयवसंयोगवत् तद्विश्लेषस्यापि विभागलक्षणस्य विनाशं प्रति हेतुत्वेनोपन्यस्तस्याऽसिद्धत्वात . तदसिद्धत्वं च संयोगवद् वक्तव्यम् / ‘एवं विनाशाद् वा संभावितात् कार्यत्वानुमान रचनास्वभावत्वाद्वा' इत्यादि सर्व निरस्तं दृष्टव्यम् / यत्तु चार्वाकं प्रति कार्यत्वसाधनायोक्तम्-'यथा लौकिक-वैदिक्यो रचनयोरविशेषात् कर्तृ पूर्वकत्वं तथा प्रासादादि-पृथिव्यादिसंस्थानयोरपि तद्रूपताऽस्तु, अविशेषात्'-तदप्यचारु, तद्विशेषस्य प्रतिपादितत्वात् ततः कार्यत्वादिलक्षणस्य हेतोरसिद्धव / यच्चाऽभाषि 'सिद्धत्वेऽपि नास्माद्धेतोः साध्यसिद्धिर्युक्ता, न हि केवलात् पक्षधर्माद् व्याप्तिशून्यात साध्यावगमः' तत् सत्यमेव, व्याप्तिरहिताद्धेतोः साध्यसिद्धरसम्भवात् / कार्य कभी कारणद्रोही नहीं होता-यह न्याय है। आशय यह है कि किसी एक वस्तु के माध्यम से यदि अन्य किसी सम्बद्ध वस्त का ज्ञान करना हो तो उन दोनों में कार्य-कारणभावादि सम्बन्ध है या नहीं यही खोजना चाहिये, वरना उस एक वस्तु के माध्यम से प्रयोजित अनुमान प्रमाण न होकर प्रमाणाभास हो जाने का सम्भव है। यह जो आपने कहा था-अनीश्वरवादी का ऐसा कहना उचित नहीं है कि-'घटादिगत कार्यत्व और पृथ्वी आदिगत कार्यत्व में केवल शब्द का ही साम्य है, अनुगत यानी समान कार्यत्व दोनों में नहीं है'-क्योंकि पाकशाला और पर्वत के धूम के लिये भी ऐसा कहा जा सकेगा - यह भी ईश्वरवादी का कथन असंगत है क्योंकि धूमादि स्थल में वास्तव साम्य है और कार्यत्वस्थल में केवल शब्दसाम्य ही है यह हमने इस युक्ति से दिखा दिया है कि पृथ्वी आदि गत कार्यत्व को बुद्धिमत्कारण के साथ व्याप्ति ही नहीं है। [संयोग की तरह विभाग भी असिद्ध है] ___ कार्यत्व की पृथ्वी आदि में सिद्धि हेतु आपने यह जो कहा था-[ पृ. 386 पं. 1 ] पृथ्वो घटादि की तरह अपने अवयवों के संयोग से जन्य है अतः अवयवों के विश्लेष से घटादि की तरह पृथ्वी आदि का भी अवश्यमेव विनाश होगा-यह भी असंगत है, क्योंकि-संयोग जैसे कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है उसी प्रकार विभाग स्वरूप अवयव विश्लेष भी कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है अत: कार्यत्व की सि के लिये उपन्यस्त विश्लेष हेतु ही असिद्ध है। जैसे हमने संयोग को असिद्ध दिखाया है [ पृ. 461 पं. 1 ] उन युक्तियों से ही विभाग को भो असिद्ध समझ लेना चाहिये / अत: आपका तत्रोक्त यह कथन-'इस रीति से सम्भावित विनाश से अथवा रचनास्वभाव से पृथ्वी आदि में कार्यत्व का अनुमान हो सकता है'-भी निरस्त हो जाता है / तथा, चार्वाक के प्रति पृथ्वी आदि में कार्यत्वसिद्धि के लिये आपने जो यह कहा है-लौकिक और वैदिक वाक्य रचनाओं में किसी भेदभाव के विना ही कर्तृ पूर्वकता मानी जाती है वैसे प्रासादादि और पृथ्वी आदि के संस्थानों में भी कर्तृ पूर्वकता मानी जाय, क्योंकि यहाँ भी समानता है [ पृ. 387 पं. 4 ]-यह भी रुचिकर नहीं है क्योंकि यहाँ समानता नहीं है किन्तु विशेषता है और वह कह दी गयी है। अतः बुद्धिमत्कारण से व्याप्त कार्यत्व तो पृथ्वी आदि में असिद्ध ही रहता है / हमारी ओर से आपने जो यह कहा था-पृथ्वी आदि में कार्यत्व सिद्ध हो जाय तो भी उससे साध्यसिद्धि नहीं हो सकती, केवल पक्षधर्मता के बल पर व्याप्तिशून्य हेतु से साध्यसिद्धि का सम्भव नहीं है [ पृ. 387 पं. 7 ]-यह बात सत्य है, क्योंकि व्याप्तिशून्य हेतु से साध्य की सिद्धि का असम्भव ही है / Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 477 यच्च ‘घटादौ कर्तृ पूर्वकत्वेन कार्यत्वाऽवगमेऽपि केषाञ्चित् कार्याणामकर्तृ पूर्वकाणां कार्यत्वदर्शनात् न सर्व कार्य कर्तृ पूर्वकम् . यथा वनेषु वनस्पत्यादिनाम्' इति तदपि सत्यमेव 'तस्माद् नेश्वरसिद्धौ कश्चिद्धतुरव्यभिचार्यस्ति' इत्येतत्पर्यन्तम् / यदप्युक्तम् 'नाकृष्टजातैः स्थावरादिभिर्व्यभिचारो व्याप्त्यभावो वा, साध्याभावे हेतुर्वर्तमानो व्यभिचारी उच्यते, तेषु कत्रग्रहणं न कञभावनिश्चय.' इति तदप्यसारम् , सर्वप्रमाणाऽविषयत्वेऽपि यदि स्थावरादिषु कर्बभावनिश्चयो न भवति तथा सति आकाशादौ रूपाद्यभावनिश्चयो मा भूत् / अथ तत्र रूपादिसद्भावबाधकप्रमाणसद्भावात् तदभावनिश्चयः, सोऽत्रापि समानः / तच्च प्रमाणं प्रदर्शयिष्यामोऽनन्तरमेव / यत्तूक्तम् - क्षित्याद्यन्वय-व्यतिरेकानुविधानदर्शनात् तेषाम तदतिरिक्तस्य कारणत्वकल्पनेऽतिप्रसंगदोष इति, एतस्यां कल्पनायां धर्माधर्मयोरपि न कारणता भवेत्'....इत्यादि, तदयुक्तम् , धर्मा. ऽधर्मादेः कारणत्वं जगद्वैचित्र्यान्यथाऽनुपपत्त्या व्यवस्थाप्यते / तथाहि-सर्वानुत्पत्तिमतः प्रति भूम्यादेः साधारणत्वात्तदन्याऽदृष्टास्यविचित्रकारणकृतं कार्यवैचित्र्यम। न चैवमीश्वरस्य कारणत्वपरिकल्पनायां किञ्चिनिमित्तं संभवति, तद्व्यतिरेकेण कस्यचिदर्थस्यानुपपद्यमानस्याऽदृष्टेः / न च चेतनं कर्तारं विना कार्यस्वरूपानुपपत्तिरिति शक्यं वक्तुम् , दृष्टस्यैव सुगतसुतैश्चैतन्यस्य जगद्वैचित्र्यकर्तृ कत्वेनाभ्युपगमात् , तदा तद्व्यतिरिक्तान्येश्वरस्य कल्पनायां निमित्ताभावात् / [सभी कार्य कत पूर्वक नहीं होते यह ठीक कहा है ] यह जो आपने पूर्वपक्ष के रूप में कहा था कि-घटादि में कर्तृ पूर्वकत्वरूप से कार्यत्व का बोध होता है फिर भी कई कार्यों में अकर्तृ पूर्वक भी कार्यत्व दिखता है अतः सभी कार्य कर्तृ पूर्वक नहीं होते, जैसे वन में उत्पन्न वनस्पति आदि कर्ता के विना ही होते हैं....इत्यादि [ 388-1 ] वह तो बीलकुल ठीक ही कहा है, यावत्....'इसलिये ईश्वरसिद्धि में कोई अव्यभिचारी हेतु नहीं है'....यहाँ तक [पृ. 389 पं. 27 ] ठीक ही कहा है / __यह भी जो कहा था-"विना कृषि से उत्पन्न स्थावरादि से व्यभिचार नहीं है या व्याप्तिशून्यता भी नहीं है, हेतु तो तब व्यभिचारी कहा जाय जब साध्य न रहने पर भी स्वयं रहे, स्थावरादि में कर्तारूप साध्य का ग्रहण (प्रत्यक्ष) नहीं है यह बात ठीक है किन्तु उसके अभाव का निश्चय नहीं है।"....इत्यादि, [ पृ. 390-1] वह असार है, स्थावरादि का कर्ता किसी भी प्रमाण का विषय न बनने पर भी यदि कर्ता के अभाव को निश्चित नहीं कहेंगे तो फिर गगनादि में रूपादि अभाव का भी निश्चय मत हो / यदि कहें कि-वहाँ रूपादि मानने में बाधक प्रमाण मौजूद होने से रूपाभाव का निश्चय मान सकते हैं तो यह बात यहाँ स्थावरादि में कर्ता के विषय में भी समान है / और उस प्रमाण को-अर्थात् स्थावरादि में कर्तृ बाधक प्रमाण को थोडै ही समय में हम दिखायेंगे। [धर्माधर्म की कारणता सलामत है ] यह जो कहा था-अकृष्टजात स्थावरादि के उत्पादन में सिर्फ भूमि आदि के ही अन्वय-व्यतिरेक दिखाई देने से भूमि आदि के अतिरिक्त कारण की कल्पना में अतिप्रसंग दोष होगा-(इस प्रकार के पूर्वपक्ष के सामने आपने जो कहा था कि) ऐसे दोष की कल्पना करने पर तो धर्माधर्म में भी कारणता सिद्ध नहीं होगी....इत्यादि, [ पृ. ३६०-पं. 4 ] वह तो अयुक्त है कारण, जगत् की विचित्रता अन्य प्रकार से न घट सकने से धर्माधर्म में कारणता स्थापित की जाती है। देखिये - भूमि आदि तो सभी Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नचा (च) दृष्टस्य चेतनेष्वपि सकलजगदुपादानोपकरणसम्प्रदानाद्यभिज्ञाता न सम्भवतीति तद्व्यतिरिक्तोऽपरो महेशस्तज्ज्ञः कल्पनीय इति वक्तु युक्तम् , तज्ज्ञानवत्त्वेन तस्याऽप्यसिद्धेः / न च सकलजगत्कर्तृत्वादेव तज्ज्ञत्वं तस्य सिद्धम् , इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात् / तथाहि-सिद्धे सकलजगदुपादानाद्यभिज्ञत्वे सकलजगत्कर्तृत्वसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तस्य तदभिज्ञत्वसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम / अथ यद्यत कार्य तत्तद उपादानाद्यभिज्ञकर्त पूर्वकम्पलब्धं घटादिवत, पृथिव्याद्यपि कार्यम् , तेन तदपि तदभिज्ञकर्तृ पूर्वकं युक्तमिति नेतरेतराश्रयदोषः / ननु घटादिकार्यकर्तुरपि कुलालादेर्यदपि (? यदि) सर्वथा घटाधुपादानाद्यभिज्ञत्वं सिद्धं स्यात् तदा युज्येताप्येतद् वक्तुम , न च तस्यापि घटाधुपादानोपकरणादेः परिमाणावयवसंख्येयत्वाद्यनेकधर्मसाक्षात्करणज्ञानमस्ति, तत्त्वं सिद्धम् ( ? तन्मात्रसिद्धयर्थं कि )चिन्मात्रपरिज्ञानं तु चेतनत्वेऽदृष्टस्यापि तदाधारस्य वा सत्वस्य तदष्ट निर्वत्तितफलोपभोक्तुः प्रतिनियतशरीराधिष्ठायकस्य विद्यत इति व्यर्थ व्यतिरिक्तापरज्ञानवतो महेशस्य परिकल्पनम् / न चायमेकान्त: सर्व कार्य तदुपादानाद्यभिज्ञेनैव का निवर्त्यत इति, स्वापमदावस्थायां शरीराद्यवयवप्रेरणस्य कार्यस्य तदुपादानाभिज्ञानाऽभावेऽपि तत्कृतत्वेनोपलब्धेः / उत्पन्न होने वाले कार्यों का साधारण कारण है, साधारण कारणों से होने वाला कार्य समान ही होना चाहिये किन्तु कार्यों में वैचित्र्य प्रसिद्ध है, अत. कार्यवैचित्र्य से विचित्र (असाधारण) कारण की भी कल्पना करनी पड़ेगी. उस विचित्र कारण का ही नाम आपने 'अदृष्ट' किया है। अदृष्ट की स्थापना में जैसे कार्यवैचित्र्य बड़ा निमित्त है ऐसा ईश्वर की स्थापना में कोई भी निमित्त सम्भव नहीं है, क्योंकि ईश्वर को कारण न माने तो अमुक अर्थ नहीं घटेगा'-ऐसा कहीं दिखता नहीं है / यह नहीं कह सकते कि-[द्र० पृ० 391-4] 'चेतन कर्ता के विना कार्य का स्वरूप ही उपपन्न नहीं होता-क्योंकि बौद्धमत में दृष्ट चैतन्य को जगत् की विचित्रता के कर्त्तारूप में माना ही गया है / अत: दृष्ट चैतन्य से अतिरिक्त अन्य अदृष्ट ईश्वर चैतन्य की कल्पना का अब कोई निमित्त नहीं रहता। [ सकल उपादानादि के ज्ञातारूप में ईश्वर असिद्ध ] यदि यह कहा जाय कि-दृष्ट जो चेतनवर्ग है उसमें कोई भी एक व्यक्ति समुचे जगत् के उपादान कारण (परमाणु आदि), उपकरण, सम्प्रदानादि कारणों का अभिज्ञाता हो यह सम्भव न होने से दृष्ट चेतनों से भिन्न महेश्वर की उपादानादिकारण के अभिज्ञाता के रूप में कल्पना करनी ही पडेगी। तो यह कहना शक्य नहीं है / कारण, सकल जगत् के अभिज्ञाता के रूप मैं ईश्वर भी सिद्ध नहीं है। यदि सकल जगत् का कत्र्ता होने से उसे सर्वज्ञ माना जाय तो अन्योन्याश्रय दोष प्रसंग होगा ये, सकल जगत् के उपादानादि कारणों की अभिज्ञता सिद्ध होने पर सकल जगत् का कतत्व सिद्ध होगा, और इसकी सिद्धि होने पर उक्त अभिज्ञता सिद्ध होगी। अन्योन्याश्रय स्पष्ट ही है / यदि यह कहें कि “जो जो कार्य उपलब्ध होता है वह घटादि की तरह उपादानादिज्ञान वाले कर्त्ता से जन्य ही होता है, यह व्याप्ति है, पृथ्वी आदि भी कार्य ही है अतः वह भी तज्ज्ञ कर्ता से जन्य होना युक्तियुक्त हैं / इस प्रकार सकलजगत्कर्तृत्व और तदभिज्ञत्व दोनों की सिद्धि एक ही अनुमान से करने पर अन्योन्याश्रय नहीं होगा तो यह ठीक नहीं है। ऐसा कहना तो तभी युक्तियुक्त होता अगर, घटादि कार्य के कर्ता कुम्हार आदि में सम्पूर्णतया घटादि के उपादानादिकारणों की अभिज्ञता सिद्ध होती। अरे कुम्हार को भी घटादि के उपादान और उपकरणों का Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 479 यच्चोक्तं-'न चाकृष्टजातेषु स्थावरादिषु तस्याऽग्रहणेन प्रतिक्षेपः, अनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाददृष्टवत्' इति, तदप्यचारु, यतो यदि तस्य शरीरसम्बन्धरहितस्य कर्तृत्वमभ्युपेयते तन्न युक्तिसंगतम् , तत्सम्बन्धरहितस्य मुक्तात्मन इव जगत्कर्तत्वानुपपत्तेः। अथ ज्ञान-प्रयत्न-चिकीर्षा-समवायाभावाद मुक्तात्मनोऽकर्तृत्वं न पुनः शरोरसम्बन्धाभावादिति विषमो दृष्टान्तः / तदयुक्तम्-ज्ञानादिसमवायस्य कर्तृत्वेनाभ्युपगतस्य तत्रापि निषिद्धत्वात् / तस्माच्छरोरसम्बन्धादेव तस्य जगत्कर्तृत्वमभ्युपगन्तव्यं कुलालस्येव घटकर्तृत्वम् / तत्सम्बन्धश्चेदभ्युपगम्यते, कथं न तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वम् ? कुलालादेरपि शरीरसम्बन्धादेवोपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वम् न पुनः तत्सम्बन्धरहितस्यात्मनो दृश्यत्वम् / तच्चेश्वरेऽपि शरीरसम्बन्धित्वं कर्तृत्वादभ्युपगन्तव्यमित्युपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेस्तकर्तुः स्थावरादिष्वभावः सिद्ध इति कथं न तैः कार्यत्वलक्षणो हेतुर्व्यभिचारी ?! वास्तव परिमाण, उन के अवयव, उनकी संख्या आदि अनेक धर्मों को साक्षात् करने वाला ज्ञान नहीं है। [ Note-चेतनत्वेऽदृष्टस्यापि तदाधारस्य वा सत्त्वस्य-इस पाठ की शूद्धि के लिये विशेष शुद्ध प्रति आवश्यक है। ] सिर्फ घट को उत्पन्न करने के लिये कुछ मात्रा में आवश्यक ज्ञान तो कुम्हारादि चेतन के अदृष्ट के प्रभाव से, अथवा उस अदृष्ट के आश्रय रूप सत्त्व (जीव) को, जो कि अपने अदृष्ट से फल का उपभोक्ता एवं किसी एक नियत शरीर का अधिष्ठाता है, उसको, भी विद्यमान है, अत: दृष्ट चेतनों से अतिरिक्त अन्य कोई संपूर्णज्ञानवान् महेश्वर की कल्पना करना निरर्थक है। यह कोई एकान्त नियम भी नहीं है कि सभी कार्य अपने उपादानादिकारणों को जानने वाले कर्ता से ही उत्पन्न होवे / सुषुप्ति और उन्मत्तावस्था में शरीरादि के अवयवों का चालन आदि कार्य (सुषुप्ति आदि दशा में) अपने उपादानादि को न जानने वाले कर्ता से भी होते हुए दिखाई देते हैं / [शरीर के विना कतृत्व की अनुपपत्ति से हेतु साध्यद्रोही ] यह जो कहा था-विना कृषि से उत्पन्न स्थावरादि में कर्ता के अग्रहणमात्र से उसका निषेध नहीं हो सकता क्योंकि अदृष्ट की तरह कर्ता भी वहाँ उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्व से शून्य है [ पृ 390 ]वह भी ठीक नहीं है क्योंकि शरीरसम्बन्ध के विना ही ईश्वर में कर्तृत्व मान लेना युक्तिसंगत नहीं है। देह सम्बन्ध के विना जैसे मुक्तात्मा कर्ता नहीं होता वसे ईश्वर भी जगत्कर्ता नहीं घट सकता। यदि यह कहें कि-'आप मुक्तात्मा को दृष्टान्त करते हो वह विषम यानी साधर्म्यविहीन है। कारण, मुक्तात्मा में तो ज्ञान, यत्न और उत्पादनेच्छा का समवाय न होने से हम उसको अकर्ता मानते हैं, शरीर नहीं है इसलिये नहीं'-तो यह भी अयुक्त है क्योंकि आप जो ज्ञानादि के समवाय को ही कर्तत्व मानते हैं उसका पहले ही निषेध कर दिया है (क्योंकि समवाय ही अवास्तव है। ) अत: देहयोग से ही ईश्वर में जगत् कर्तृत्व मानना होगा, जैसे कि देह के योग से कुम्हार में घटकर्तृत्व होता है। अब यदि ईश्वर में देहसम्बन्ध मान लेते है तब तो वह उपलब्धिलक्षणप्रान्तिशून्य है यह कैसे कह सकेंगे? कुम्हार आदि में भी शरीर के योग से ही उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्व होता है, अन्यथा भी अर्थात् शरीर सम्बन्ध के विना भी उसकी आत्मा दृश्य कभी नहीं होती। यदि आप ईश्वर को कर्ता मानते हैं तो उसमें शरीरसम्बन्ध भी मानना होगा, तब तो वह यदि स्थावरादि का कर्ता होगा तो उपलब्धिलक्षणप्राप्त होने से उसकी उपलब्धि अवश्य होती, किन्तु नहीं होती है, अतः स्थावरादि में ईश्वरादिकर्तृत्व का अभाव ही सिद्ध हुआ, तो फिर कार्यत्व हेतु स्थावरादि में साध्यद्रोही क्यों नहीं होगा ? ! Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48.. सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ अथाऽदृश्यं तच्छरीरमतस्तत्र सदपि नोपलभ्यत इत्ययमदोषः / नन्वेवमपि 'अस्मिन् सति इदं स्थावरादिकं जातम्' इति प्रतिपत्तिर्माभूत , तथाऽन्य (ऽप्यन्य) कारणभावेऽपि यथातीन्द्रियस्येन्द्रियर याभावे रूपादिज्ञानं नोपजायते तथा पृथिव्यादिकारणसाकल्येऽपि कदाचित तच्छरीरविरहे तत्स्थावरादिकार्य नोपजायत इति व्यतिरेकात् प्रतीतिः किं न स्यात् ? य(दा)द्यत्र तच्छरीरं नियमेन संनिहितमिति चा(?ना)यं दोषस्तहि युगपद्धाविषु त्रिलोकाधिकरणेष भावेष का वार्ता? न द्यकस्य मतस्य सावयवस्य महेश्वरवपुषोऽपि युगपत्सकलव्याप्तिः सम्भवति / अमूर्त्तत्वे निरंशप्रसंगादाकाशमेव तच्छरीरम् , तस्य तच्छरोरत्वेनाद्याप्यसिद्धत्वात् / ___अथ यावन्ति (अ) क्रमभावीन्यकुरादिकार्याणि तावन्ति तथाविधानि तच्छरीराणि कल्प्यन्ते तर्हि तच्छरीरैः सकलं जगदापूरितमिति नाकुरादिकार्यरुत्पत्तव्यम् तदुत्पत्तिदेशाभावात् / नापि माहेश्वरैः क्वचित्प्रवत्तितव्यम् कुतश्चिद्वा निवत्तितव्यम् तच्छरीराणां पादाद्यभिघातभयात् / अपि च, तान्यपि कार्याणि, सावयवत्वात् कुम्भवत , ततस्तत्करणे तावन्त्येवाऽपराणि तस्य शरीराणि कल्पनोयानि, पुनस्तत्करणेऽपि नानवस्थातो मुक्तिः / तन्न शरीरव्यापारसहायोऽप्यसौ स्थवरादिकार्य करोतीति कल्पयितुयुक्तम् , अनेकदोषप्रसंगात् / [ईश्वर का शरीर अदृश्य होने की बात असंगत ] यदि कहें-उसके शरीर को भी अदृश्य ही मान लेने से अनुपलब्धिमूलक कोई दोष नहीं होगातो यहाँ भी, 'इसके होने पर यह स्थावरादि उत्पन्न हुए' ऐसा अन्वयबोध यद्यपि नहीं होगा, किन्तु व्यतिरेकबोध क्यों नहीं होगा? आशय यह है कि, जैसे नेत्रेन्द्रिय यद्यपि अतीन्द्रिय है फिर भी चाक्षुष प्रत्यक्ष के सभी कारण उपस्थित रहने पर भी नेत्रेन्द्रिय के अभाव में रूपादिज्ञान उत्पन्न नहीं होता ऐसा व्यतिरेक बोध होता है उसी प्रकार ईश्वर शरीर अदृश्य होने पर भी 'पृथ्वी आदि सब कारण ___ स्थत रहने पर ईश्वरदेह के अभाव में यह स्थावरादि कार्य उत्पन्न नहीं हुआ' इस रीति से व्यतिरेक से उसका बोध क्यों नहीं होगा? यदि ऐसा कहें कि-'यहाँ उसका शरीर नियमतः ( अचूक ) संनिहित रहता है, अतः व्यतिरेक से उसका बोध नहीं हो पाता / '- तब तो तीन लोक के अधिकरण में रहे हुए समानकालभावि अन्य पदार्थ का जन्म कसे होगा ? जब कि ईश्वरदेह तो केवल उक्त स्थावरादिकार्यों के देश में ही संनिहित है, सर्वत्र तो है नहीं / मूर्त, सावयव एवं एक ही ईश्वरदेह एक साथ सभी देशों में उपस्थित नहीं रह सकता। (मूर्त पदार्थ कभी व्यापक नहीं होता है / ) यदि उसके देह को अमूर्त मानेंगे तो सावयव नहीं किन्तु निरंश ही मानना होगा, तात्पर्य आकाश को ही उसके सर्व व्यापक देह के रूप में मानना पड़ेगा, किन्तु अब तक किसी ने भी यह सिद्ध नहीं कर दिखाया कि आकाश ईश्वर का शरीर है। [ ईश्वर के अनेक शरीर की कल्पना अयुक्त ] यदि कहें-'एक साथ होने वाले अंकुरादि जितने कार्य हैं, उत्पत्ति के लिये उसके उतने ही शरीर मान लेंगे / अतः भिन्न भिन्न देश में एक साथ सब कार्य उत्पन्न हो सकेंगे।'-तो यह कल्पना मिथ्या है, क्योंकि विश्व के सभी देश में कुछ न कुछ कार्य तो पल पल उत्पन्न होते ही रहते हैं अतः प्रत्येक पल में सर्व देश में ईश्वर का एक एक शरीर मानना होगा, इस प्रकार सारा जगत् उसके शरीरों से ही आक्रान्त हो जाने से अंकुरादि कार्यों को उत्पन्न होने के लिये रिक्त स्थान न रहने से Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 481 नापि सत्तामात्रेणासो स्वकार्य करोतीति कल्पयितु युक्तं, शरीरकल्पनवैयर्थ्यप्रसंगात् / अथ सर्वोत्पत्तिमतामीश्वरो निमित्तकारणम् , तस्य तत्कारणत्वं सकलकार्यकारणपरिज्ञाने नान्यथा. तत्परिज्ञान (स्य) चानित्यस्येन्द्रियशरीरमन्तरेणानुपपत्तेरतस्तदर्थ तत्परिकल्पनमिति चेत् ? न, सकलहेतुफलविषयं तस्या)स्येन्द्रियशरीरजं जानन सम्भवति. इन्द्रियाणां यगपत्सर्वार्थसंनिकर्षाभावात: इन्द्रियार्थसंनिकर्षजं च नैयायिकैः प्रत्यक्षमभ्युपगम्यते / तदुक्तम् - [ न्यायद० 1-1-4 ] इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।" सामग्री-फल स्वरूपविशेषणपक्षत्रयेऽपीन्द्रियार्थसंनिकर्षजस्य तस्य प्रामाण्याभ्युपगमात , तथा "प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तो प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणम्" [ वात्स्या० भा० पृ० 1 ] इत्यत्र भाष्यम्"प्रमातृ-प्रमेयाभ्यामर्थान्तरं प्रमितिलक्षणे फले साधकतम (व? )त्वाद् , इति अर्थः सहकारि प्रमाणं" प्रतिपादितम् / सहकारित्वं चार्थस्य प्रमाणस्य फलजनने व्याप्रियमाणस्य फलजनकत्वेन तस्यापि सहायभावः, 'सह करोतीति सहकारि' इति व्युत्पत्तेः / न चाऽसंनिहितस्यार्थस्यातीतस्याऽनागतस्य वा प्रमितिलक्षणफलजननं प्रति व्यापारः सम्भवति / न च प्रमित्यजनकोऽर्थः, तदभ्युपगमे न प्रमाणविषयतान्यतः (तेत्यतः) सेन्द्रियशरीरजनितप्रत्यक्षज्ञानवत्त्वाभ्युपगमे महेशस्य न सकलकार्यकारणविषयज्ञानसम्भव इति शरीरसम्बन्धात् तस्य जगत्कर्तृत्वाभ्युपगमे तदकर्तृत्वमेव प्रसक्तम् , इति न तस्याऽदृश्यशरीरसम्बन्धोऽभ्युपगन्तुयुक्तः। उनकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी। दूसरी बात, माहेश्वरवृन्द (ईश्वरभक्त गण) कहीं भी एक कदम न तो आगे बढ सकेंगे, न पीछे हठ सकेंगे, कारण, सर्वत्र ईश्वरशरीर विद्यमान होने से उसको पादाभिघात होने का भय रहता है। तदुपरांत, वे शरीर भी सावयव होने के कारण घटादि की तरह कार्यरूप ही है अतः उनके उत्पादन में और भी नये शरीरों की कल्पना कीजिये, उन नये शरीरों के लिये भी नये नये शरीरों की कल्पना करते ही रहो, अन्त नहीं आयेगा। निष्कर्ष, 'शरीर व्यापार की सहायता से ईश्वर स्थावरादि कार्य उत्पन्न करता है' यह कल्पना अनेक दोष उपनिपात के कारण अयुक्त है। - [इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान सम्पूर्ण नहीं हो सकता ] ईश्वर केवल अपनी सत्ता के प्रभाव से ही सब कार्य उत्पन्न करता है यह कल्पना अयुक्त है क्योंकि शरीर की कल्पना निरर्थक हो जाने का दोष प्रसंग आता है / यदि कहें कि-'हर कोई उत्पत्ति'शील कार्य का निमित्त कारण ईश्वर है, यदि उसे सभी काय-कारण का ज्ञान होगा तभी वह निमित्त कारण बन सकता है, अन्यथा नहीं। सकल कारण का ज्ञान अनित्य होने से शरीर और इन्द्रिय के विना सम्भव नहीं, अत: उसके लिये उस की कल्पना व्यर्थ नहीं होगी।'- यह बात ठीक नहीं है, इन्द्रिय-शरीर से उत्पन्न कोई भी ज्ञान सकल कार्य कारण विषयक हो यह कभी सम्भव नहीं है / कारण, सकल अर्थों के साथ इन्द्रियों का एक ही काल में संनिकर्ष नहीं हो सकता। नैयायिक तो इन्द्रिय-अर्थ दोनों के संनिकर्ष से उत्पन्न होने वाले को ही प्रत्यक्ष मानते हैं / जैसे कि न्यायसूत्र में कहा है- .. •पाठद्वयमिदं पूर्वमद्रिते क्रमशः 'तत्परिज्ञान (ज्ञान)वा (चा)नित्य (त्यं)स्ये (से)न्द्रियशरीरमन्तरेणानुपपत्तेः (पन्नम्)' - इति तथा 'तस्या (तस्याऽनित्यं)स्ये (से )न्द्रियशरीरज' इति च वर्तते, लिम्बडीहस्तप्रतानुसारेण चात्र शोधितम् / Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अपि च घटादिकार्य दृश्यशरीरसम्बद्धपुरुषपूर्वकमुपलब्धम् इत्यंकुरादि कार्यमपि तथा कल्पनीयम् / अथ तत्परिकल्पने प्रत्यक्षबाधाऽनवस्थादिदोषादंकुरादिकार्यस्य कर्तृ पूर्वक्तैव विशीर्यत इति न तथाकल्पनम् / ननु तद्वि (व? )शरणे को दोष? * अथांकुरादेः कार्यतानेककरणमात्राभावे समुपजायमानस्य तस्याऽकार्यताप्रसक्तिः, न पुनः कर्तृ भावे, अन्यथा गोपालघटिकादो तत्कालाग्न्यभावे धूमस्याप्यभावप्रसक्तिः, न पुनः कर्तृ भावेनानलपूर्वकत्वं व्याप्तिग्रहणकाले धूमस्य प्रतिपन्नम् , तेन ततस्तत्र तत्कारणमनलानुमानम् / नन्वेवं कार्यमानं कारणमात्रपूर्वकत्वेन व्याप्तं व्याप्तिग्रहणकाले प्रतिपन्न .... [ऐन्द्रियक ज्ञान सर्वविषयक न होने में युक्ति ] "इन्द्रिय-अर्थ के संनिकर्ष से उत्पन्न अव्यपदेश्य अव्यभिचारी व्यवसायात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है।" यहाँ सामग्री, फल और स्वरूप विशेषण के तीनों पक्ष में इन्द्रिय-अर्थ के संनिकर्ष से उत्पन्न ज्ञान में ही प्रत्यक्षप्रामाण्य का आपने स्वीकार किया है। तदुपरांत, 'प्रमाण से अर्थ गृहीत होने पर प्रमाण अर्थवत् सार्थक होता है' इस वात्स्यायन भाष्य वाक्य का यह अर्थ प्रतिपादित किया गया है कि-'प्रमाता और प्रमेय भिन्न होता हआ प्रमितिस्वरूप फल में साधकतम होने के कारण अथ सहकारिरूप प्रमाण है ।'-अर्थ इस प्रकार सहकारी होता है कि फलोत्पादन में प्रमाण जब सक्रिय होता है तब फलजनक होने से अर्थ भी उसको सहायताप्रदान करता है। क्योंकि-'साथ में रह कर कार्य को करना' यह सहकारी शब्द की व्युत्पत्ति है। इससे यह फलित होता है कि अतीत और अनागत पदार्थ असंनिहित होने से प्रमितिस्वरूपफलोत्पादन में उसका कोई योगदान नहीं हो सकता। जो प्रमिति को उत्पन्न न करे वह अर्थ भी नहीं कहा जा सकता और 'प्रमिति को उत्पन्न नहीं करता है उसमें प्रमाणविषयता भी नहीं मान सकेंगे। इस लिये ईश्वर को इन्द्रियसहितशरीर से उत्पन्न प्रत्यक्ष ज्ञानवाला मानेंगे तो असंनिहित अतीत-अनागत पदार्थों के ज्ञान के अभाव में ईश्वर को सकल-कार्यकारणसम्बन्धी ज्ञान होने का सम्भव नहीं रहता। फलतः, ईश्वर में जगत्कर्तृत्व मानने के लिये आप शरीरसंबन्ध को मानने गये तो उल्टा उसमें अकर्तृत्व ही प्रसक्त हुआ। निष्कर्ष, अदृश्यशरीर का ईश्वर में सम्बन्ध मानना भी अयुक्त है। [अंकुरादि दृश्यशरीरसम्बद्ध पुरुष से ही होने की आपत्ति ] दूसरी बात यह है कि-घटादि कार्य सर्वत्र दृश्य शरीर से सम्बद्ध पुरुषमूलक ही दिखता है अतः अंकुरादिकार्य को भी दृश्यदेहमूलक ही मानना होगा। यदि कहें कि-वैसा मानने में तो प्रत्यक्ष से बाध है और अनवस्थादि दोष है अत: अंकुरादिकार्य में कतृ मूलकता ही उच्छिन्न हो जाती है। इसलिये वैसा नहीं मानेंगे ।-तो हम पूछते हैं कि कर्तृ मूलवता के उच्छेद में क्या दोष है ? यदि अंकुरादि में कार्यता के भंग को दोष कहा जाय तो वह ठीक नहीं, वहाँ कार्यताभंग तो तभी कह * पुष्पिकागतपाठशुद्धयेऽपेक्ष्यते शुद्धा प्रतिः / तदभावे संगत्यर्थं त्वित्थं पाठानुमानम्-“अथांकुरादेरकार्यता, न, कारणमात्राभावे समुपजायमानस्य तस्याऽकार्यताप्रसक्तिः न पुनः कर्बभावे, अन्यथा गोपालघटिकादौ तत्कालाग्न्यभावे धूमस्याप्यभावप्रसक्तिः / न पुनः तत्कालानलपूर्वकत्वं व्याप्तिग्रहणकाले धूमस्य प्रतिपन्नम् तेन न ततस्तत्र तत्कालानलानुमानम्"-एतत्पाठानुसारेण व्याख्यातमति विभावनीयं सुधीभिः / Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर०उ०पक्षः 483 मंकुरादावुपलभ्यमानं कारणमात्रमिदमनुमापयतु न पुनर्बुद्धिमत्कारणविशेषम् , तेन कार्यमात्रस्य व्याप्तेरनिश्चयात् / न च दृश्यशरीरसम्बद्धबुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वं कार्यविशेषस्योपलब्धमंकुरादौ तु कार्यत्वमुपलभ्यमानं तथाभूतकर्तृ पूर्वकत्वानुमाने तत्र प्रत्यक्षविरोध इत्यदृश्यसम्बद्धशरीरकर्तृ पूर्वकस्वमनुमापयतीति वक्तु शक्यम् , तथाभ्युपगमे गोपालघटिकादावपि तत्कालादृश्याऽनलानुमापको धूमः किं न स्यात् ? न च वह्निरदृश्यो न संभवतीति वक्तुं शक्यम् , नायनरश्मिष्वदृश्यस्य तस्य सद्भावाभ्युपगमात् / __ अथाऽव्यवहितरूपोपलब्ध्यन्यथानुपपत्त्या तस्य तथाभूतस्य परिकल्पनम् / नन्वेवं धूमसद्भावान्यथाऽनुपपत्त्या तत्र तस्य तथाभूतस्य कि न परिकल्पनम् ? अपि च, यथाऽनलस्य भास्वररूपसम्बन्धित्वे सत्यपि तस्योदभूतत्वाऽनुभूतत्वाभ्यां दृश्यत्वाऽदृश्यत्वे परिकल्प्येते तथा प्रासादांकुरादीनां कार्यत्वे किं न परिकल्प्येते न्यायस्य समानत्वात् ? तन्नादृश्यशरीरसम्बन्धात् तस्यांकुरादिकार्योत्पादकत्वं युक्तम् / दृश्यशरीरसम्बन्धात तत्कर्तृत्वे उपलभ्यानुपलम्भात् कथं तस्य नाऽभावः ? यत्तूक्तम्-'न च सर्वा कारणसामग्र्युपलब्धिलक्षणप्राप्ता' इत्यादि, तत् सत्यमेव, इदं त्वसत्यम्-ईश्वरस्य कारणत्वेऽपि न तत्स्वरूपग्रहणं प्रत्यक्षेण, अदृष्टवत् कार्यद्वारेण तत्प्रतिपत्तेः इति, अष्टप्रतिपत्ताविवेश्वरप्रतिपत्ती कार्यत्वादेहँतोनिर्दोषस्याऽसम्भवादिति प्रतिपादितत्वात / सकते हैं यदि अंकुरादि को कारणमात्र के अभाव में उत्पन्न होने का कहा जाय, केवल कर्ता के विरह में वह दोष नहीं हो सकता। अन्यथा, गोपालघटिकादि में तत्कालीन (व्याप्तिग्रहकालीन) वह्नि न होने पर धूमाभाव की प्रसक्ति होगी / यदि कहें कि-"व्याप्तिग्रह के समय धूम में सिर्फ अग्नि का ही व्याप्तिरूप सम्बन्ध गृहीत किया है तत्कालीनाग्निसम्बन्ध नहीं गृहीत किया, अत: गोपालघटिका में धूम से तत्कालीन अग्नि के अनुमान का न होना कोई दोष नहीं है"-तो फिर यहाँ भी व्याप्तिग्रहकाल में कार्यमात्र में कारणपूर्वकत्व का ही ग्रहण किया है अतः कार्य केवल कारणपूर्वकत्व का ही अनुमान करायेगा, बुद्धिमत्कारणविशेष का नहीं करा सकता, क्योंकि उसके साथ कार्यमात्र की व्याप्ति ही अनिश्चित है। यह भी आप नहीं कह सकते कि- कार्यविशेष में दृश्य शरीर-सम्बद्ध बुद्धिमान् कर्त्तारूप कारण उपलब्ध होता है, अतः अंकुरादि कार्यविशेष में कार्यत्व हेतु से, यद्यपि दृश्य शरीरी कर्ता प्रत्यक्षबाधित है, फिर भी अदृश्यशरीरसम्बद्ध बुद्धिमान कर्ता का अनुमान किया जा सकेगा ।-यह इसलिये नहीं कह सकते कि, ऐसा मानने पर, गोपालवटिकादि में भी यह कहा जा सकेगा कि धूम हेतु से वहां दृश्य तत्कालीन अग्नि बाधित होने से अदृश्य-तत्कालीन (व्याप्तिग्रहकालीन) अग्नि का अनुमान किया जा सकता है / यह भी आप नहीं कह सकते कि 'अग्नि अदृश्य होना सम्भव नहीं है।'-क्योंकि आप ही नेत्ररश्मि में अदृश्य अग्नि (तेज) का सद्भाव मानते हैं / [ इन्द्रिय और अदृश्य तत्कालीन अग्नि की कल्पना में साम्य ] यदि कहें कि-व्यवधान के अभाव में सम्मुखवस्तुगत रूप की उपलब्धि की अन्यथा ( नेत्रेन्द्रिय के अभाव मे) उपलब्धि न घट सकने से, वहाँ दृश्य नहीं तो आखिर अदृश्य नयनरश्मि की कल्पना करनी पड़ती है-तो प्रस्तुत में भी कह सकते हैं कि गोपालघटिका में धूम का अस्तित्व अन्यथा न घट सकने से वहाँ दृश्य नहीं तो आखिर अदृश्य तत्कालीन अग्नि की कल्पना क्यों नहीं करते ? यह भी Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यत्तूक्तम्-'स्थावरेषु कर्बग्रहणं कर्बभावात् आहोस्विद्विद्यमानत्वेऽपि तस्याऽग्रहणमनुपलभ्यस्वभावत्वेन, एवं संदिग्धव्यतिरिक्तत्वे न कश्चिद्धेतुर्गमकः धूमादेरपि सकलव्यक्त्याक्षेपेण व्याप्त्युपलम्भकाले न सकला वह्निव्यक्तयो दृश्या'....इत्यादि यावत्.... सर्वमुत्पत्तिमत् कर्तृ करणपूर्वकं दृष्टम् , तस्य सकृदपि तथादर्शनाव तज्जन्यतास्वभावः, तस्यैवं स्वभावनिश्चितावन्यतमाभावेऽपि कथं स्वभावः'....इति, तदप्यसंगतम्-यतो यादृग्भूतमेव घटादिकार्य तत्पूर्वकमुपलब्धं तस्य सकृदपि तथादर्शनात् तज्जन्यः स्वभावो व्यवस्थित इति तदन्यतमाभावेऽपि तस्य भावे सकृदपि ततस्तद्भावो न स्यादिति युक्तं च वक्तुम् , न पुनस्तद्विलक्षणं भूरुहादिकं कर्तृ करणपूर्वकं कदाचनाप्युपलब्धम् किन्तु कारणमात्रपूर्वकम् , प्रतस्तद्भा(तदमा)वे तस्य भवतोऽहेतुकत्वप्राप्तेस्तदेव तद् गमयतीत्यसकृदावेदितम् / दिखाईये कि अग्नि भास्वर शुक्ल रूपवाला मान कर भी उसके रूप को उद्भूत और अनुभूत दो प्रकार का मानकर अग्नि में दृश्यत्व और अदृश्यत्व की कल्पना कर लेते हो उसी प्रकार प्रासा अंकुरादि कार्यों में भी कर्तृ जन्य और कर्तृ अजन्य द्वैविध्य की कल्पना क्यों नहीं करते जब की युक्ति तो दोनों जगह तुल्य ही है ? निष्कर्ष, अदृश्यशरीर के योग से ईश्वर में अंकुरादि कार्यजनकता को मानना अयुक्त है। यदि दृश्यशरीर के योग से ईश्वर में कर्तृत्व घटाया जाय तब तो उपलब्धियोग्य होने पर भी उसकी उपलब्धि न होने से उसका अभाव क्यों नहीं सिद्ध होगा? ! यह जो कहा था-[ पृ. 391-6 ] संपूर्ण कारणसामग्री कभी उपलब्धिलक्षणप्राप्त नहीं होती इत्यादि....वह तो ठीक है, किन्तु यह जो कहा है-ईश्वर कारण होने पर भी प्रत्यक्ष से उसके स्वरूप का उपलम्भ नहीं होता किन्तु अदृष्ट की तरह उसके कार्य से ही उसका अवबोध होता है [प. 391-8] -यह तो गलत ही कहा है। कारण, अदृष्ट के अवबोध में जैसे कार्यवैचित्र्यादि निर्दोष हेतु है वैसे ईश्वर के बोधनार्थ प्रयुक्त कार्यत्वादि हेतु निर्दोष नहीं है-इस बात को पहले हम दिखा चुके हैं। [ कर्तृ -करणपूर्वकत्व सभी कार्य में सिद्ध नहीं है ] यह जो आपने.... (362-1) “स्थावरों में कर्ता का अग्रहण कर्ता के न होने से है या कर्ता विद्यमान होने पर भी उसका स्वभाव उपलब्धियोग्य न होने से वह गृहीत नहीं होता इस प्रकार यदि यहाँ संदिग्धव्यतिरेक (व्यभिचार) की शंका करेंगे तो कोई भी हेतु साध्य का गमक नहीं बचेगा क्योंकि सकल व्यक्ति का अन्तर्भाव कर के धूमादि में अग्निनिरूपित व्याप्तिग्रहण करते समय वे सब अग्निव्यक्ति दृश्य तो नहीं है" इत्यादि से लेकर...."उत्पन्न होने वाला सब कुछ कर्तृ-करणपूर्वक ही दिखता है अतः एक बार भी उसकी उससे (कर्तृकरणादि से) उत्पत्ति को देखने पर उसमें तज्जन्यता स्वभाव आ गया, ऐसा स्वभाव निश्चित हो जाने पर कर्तादि में से किसी एक के अभाव में कार्य का सद्भाव कैसे हो सकेगा?"...इत्यादि, (393-2) यहाँ तक जो कहा था वह सब गलत है / कारण, जिस प्रकार का (कृतबुद्धिउत्पादक) घटादि कार्य कर्तृ-करणादिपूर्वक उपलब्ध है वह कार्य एक बार भी कर्तादि से उत्पन्न दिखायी देने पर उसमें तज्जन्यतास्वभाव सिद्ध हो जाता है अत: कर्तृआदि एक के अभाव में भी यदि वह उत्पन्न हो जाय तब तो उस प्रकार के कार्य में तज्जन्यता स्वभाव भंग होने की आपत्ति देना ठीक है। किन्तु, उस प्रकार के कार्य से विलक्षण अरण्य वृक्षादि कार्य कहीं भी कर्तृ-करणपूर्वक होता हुआ नहीं देखा गया, सिर्फ कारणपूर्वक ही देखा गया है, ( कर्तृ पूर्वक नहीं देखा गया) अतः यदि वृक्षादि कार्य, कारण के अभाव में उत्पन्न होगा तो वह निर्हेतुक हो जाने की Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उत्तरपक्षः 485 यथा (यच्च) 'अनुपलभ्यमानकरी केषु स्थावरेषु कर्तुरनुपलम्भः शरीराद्यभावात् न त्वसस्वात्' इत्यादि, तदपि प्रतिक्षिप्तम् उक्तोत्तरत्वात् / यदप्युक्तम् 'चैतन्यमात्रेणोपादानाद्यधिष्ठानाद, कथं प्रत्यक्षव्यापृतिः' ? तदसंगतम् , तथोपादानाद्यधिष्ठायकत्वस्य क्वचिदप्यदर्शनात् अदृष्टस्यापि तस्य कल्पने बुद्धचनधिष्ठितस्यापि भूरुहाधुपादानस्य तत्कर्तृत्वं किं न कल्प्यतेऽदर्शनाऽविशेषात ? * यच्चाभ्यधायि 'कार्यस्य शरीरेण सह व्यभिचारो दृश्यते, स्वशरीरावयवानां हि शरीरान्तरमन्तरेणापि प्रवृत्ति-निवृत्ती केवलो विदधाति' इति, तदप्ययुक्तम् , यतः शरीरसम्बन्धव्यतिरेकेण चेतस्य स्वशरीरावयवेष्वन्यत्र वा कार्यनिर्वतकत्वं न दृष्टमित्यन्यत्रापि तत तस्य न कल्पनीयमित्येतावमात्रमेव प्रतिपाद्यते न त्वपरशरीरसम्बन्धपरिकल्पनमत्रोपयोगि। यदि च शरीररहितस्यापि तस्य भूरुहादिकार्ये व्यापारः परिकल्प्यते तहि मुक्तस्यापि तदन्तरेण ज्ञानसमवायिकारणत्वपरिकल्पनं किं न क्रियते ? तथाऽभ्युपगमे न ज्ञान-सुखादिगुणरहितात्मस्वरूपावस्थितिमुक्तिः संभवतीति तदर्थमीश्वराऽऽराधनमसंगतमासज्येत / आपत्ति होने से वृक्षादिगत कार्यत्व केवल अपने कारणों का ही अनुमान करा सकता है ( कर्ता का नहीं ) यह बात आपको कितनी बार कह चुके हैं। [ केवल चैतन्यमात्र से वस्तु का अधिष्ठान असंगत ] यह जो कहा था-कर्ता की अनुपलब्धि वाले स्थावरादि में कर्ता उपलब्ध न होने का कारण शरीरादि का अभाव है किन्तु कर्ता का असत्त्व नहीं है / इसका तो उत्तर हो गया है अतः वह निरस्त हो गया / और भी जो कहा था-वह केवल अपने चैतन्य से ही उपादानादि को अधिष्ठित कर देता है (अतः शरीर की जरूर नहीं रहती) तो फिर (शरीर के अभाव में) प्रत्यक्ष का चलन वहाँ कैसे शक्य है ?....यह भो असंगत है, क्योंकि केवल चैतन्यमात्र से ही कोई किसी को अधिष्ठित करता हुआ नहीं दिखाई देता / न दिखायी देने पर भी यदि उसकी कल्पना करते हैं तब वृक्षादि उपादानकारणों में बुद्धि (चैतन्य) के अधिष्ठान विना ही ईश्वर को वृक्षादि का कर्ता क्यों नहीं मान लेते जब कि 'न दिखायी देना' यह बात तो दोनों में समान है ? [ कार्य शरीर का द्रोही नहीं है ] यह जो कहा है-कार्य का शरीर के साथ तो व्यभिचार दिखता है, उदा० अन्य शरीर के विना भी अपने शरीर के अंगों का हलन-चलन केवल चेतन करता ही है / यह भो अयुक्त है / कारण, हमारे प्रतिपादन का आशय इतना ही है कि शरीरसम्बन्ध के विना आत्मा अपने शरीरावयवों का या दूसरी चीज वस्तुओं का, किसी का भी हलन चलनादि कार्य करता हो यह देखने में नहीं आता, अतः अन्यत्र ईश्वर में भी शरीरसम्बन्ध के विना यत्किचित्कार्य कर्तृत्व की कल्पना नहीं करनी चाहिये / अपने शरीर के संचालन में अन्य शरीर का योग है या नहीं यह विचार यहाँ उपयुक्त नहीं है। दूसरी बात यह है कि शरीर के विना भी ईश्वर में वृक्षादिउत्पादन का व्यापार जब मानते हो तब अशरीरी मुक्तात्मा में ज्ञानसमवायिकारणता की कल्पना क्यों नहीं करते हो ? यदि यह भी कल्प लेंगे तब तो 'ज्ञान-सुखादिगुण रिक्त हो जाने पर आत्मस्वरूपमात्र की अवस्थिति' को 'मुक्ति' कहना सम्भव नहीं हो सकेगा। फलतः वैसो मुक्ति के लिये ईश्वराराधना भी असंगत हो जायेगी। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदपि 'कार्य शरीरेण विना करोतीति नः साध्यम् , तत् स्वशरीरगतं अन्यगतं वेति नानेन किचित्' इति, तदप्यसारम् , शरीरव्यतिरेकेण कार्यकरणाऽदर्शनात् , स्वशरीरप्रवृत्तिस्वरूपेऽपि कार्ये तच्छरीरसम्बद्धस्यैव व्यापारात् , अतः “अचेतनः कथं भावस्तदिच्छामनुवर्तते" इति दूषणं व्यवस्थितमेव, अचेतनस्य शरीरादेः शरीराऽसम्बद्धेच्छामात्रानुवर्त्तनाऽदर्शनात् / तदसम्बद्धस्येच्छाया अप्यभावात् मुक्तस्येव कुतस्तदनुवर्त्तनमचेतनकार्येण ? अथाऽदृष्टापीच्छाऽशरीरस्य स्थाणोः परिकल्प्यते, किमिति भूरुहादिकं कार्य कर्तृ विकलं दृष्टमपि न कल्प्यते ? एतेन 'ईश्वरस्यापि प्रयत्नसद्भावे न काचित् क्षतिः' इति निरस्तम् , शरीराभावे मुक्तात्मन इव प्रयत्नाऽसम्भवात् / अपरशरीररहितस्वशरीरावयवप्रेरणप्रयत्नसद्भावोऽपि न शरीराभावे प्रयत्नसद्भावावेदकः, सर्वथा शरीररहितस्य तस्य क्वचिदप्यदर्शनात् ; दृष्टानुसारिण्यश्च कल्पना भवन्ति / ततः स्थावरेषु शरीराभावाद् न तत्कर्तुरनुपलब्धिः किन्तु कर्तुरभावादिति कथं न तैः कार्यत्वादेर्हेतोर्व्यभिचारः ? [ शरीर के विरह में कार्योत्पादन का असम्भव ] यह जो आपने कहा था-हमारा तो इतना ही साध्य है कि जगत्कर्ता कार्य को शरीर के विना ही करता है, वह कार्य चाहे स्वशरीरगत हो या अन्यवस्तुगत इस से हमें कोई प्रयोजन नहीं है। यह तो असार है, शरीर के विना कार्य का उत्पादन किसी भी कर्ता में देखा नहीं जाता / अपने शरीर के प्रवर्तनरूप कार्य में भी अपने शरीर से सम्बद्ध कर्ता का ही व्यापार सम्भव है / इस लिये आपने ही पूर्वपक्षी के मुख से जो यह दूषणोल्लेख किया था-"अचेतन पदार्थ (शरीर के विना) ईश्वर की इच्छा का अनुवर्तन कैसे कर सकता है ?"-यह दूषण वास्तविक ठहरा / कारण, आपने जो अचेतन भी शरीर इच्छा का अनुवर्तन करता है यह कहा था उसके परिहार में हम कहते हैं कि शरीर से असम्बद्ध कर्ता की इच्छा मात्र का अनुवर्तन तो अचेतन शरीर में भी नहीं दिखता है / सच बात यह है कि शरीर सम्बन्ध के विना किसी भी व्यक्ति में इच्छा नहीं हो सकती, तो फिर शरीररहित मुक्तात्मा का जैसे अचेतनकार्य अनुवर्तन नहीं करता वैसे शरीरविहीन ईश्वर का भी अचेतनकार्य अनुवर्तन कैसे करेगा? यदि कहें कि-अशरीरी में यद्यपि ईच्छा अदृष्ट है फिर भी हम ईश्वर में इच्छा की कल्पना करते हैंतो वृक्षादि कार्य में दृष्ट कर्तृ विरह को क्यों नहीं मानते हैं ? [ शरीर के विरह में प्रयत्न का असंभव ] आपका यह कथन भी अब निरस्त हो जाता है कि 'ईश्वर में प्रयत्न मान लेने में कोई हानि नहीं'। कारण, शरीर के विरह में मुक्तात्मा में जैसे प्रयत्न नहीं होता वैसे ईश्वर में भी नहीं हो सकता। अन्य शरीर के विना ही अपने शरीर के अंगो के संचालन में होनेवाले प्रयत्न को पकडकर आप ऐसा मत दिखाना कि शरीर के विना भी प्रयत्न होता है, क्योंकि सर्वथा शरीरशून्य व्यक्ति अपने शरीर का या परायी किसी भी वस्तु का संचालन नहीं कर सकता। [ अपने शरीर के अंगों का संचालन भी अपने शरीर से सम्बद्ध रह कर ही हम कर सकते हैं। ] अत: कोई भी कल्पना दृष्ट वस्तु के मुताबिक ही की जानी चाहिये। [ जैसी तैसी बेबुनियाद कल्पना का कोई अर्थ नहीं है / ] फलित यह हुआ कि स्थावरों में शरीर के अभाव से कर्ता उपलब्ध नहीं होता ऐसा नहीं है किन्तु कर्ता स्वयं न होने से ही उपलब्ध नहीं होता / अब आप ही कहिये कि स्थावरादि में कार्यत्वादिहेतु व्यभिचारी क्यों न कहा जाय? ! Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 487 न च यथाऽदृष्टस्येन्द्रियस्य चाऽन्वय-व्यतिरेकयो: कार्यकारणभावव्यवस्थापकयोरभावेऽपि कारणत्वसिद्धिय॑तिरेकमात्रात तथा महेश्वरस्थापि ततस्तत्सिद्धिः, तस्य नित्यव्यापकत्वाभ्यपगमेन व्यतिरेकाऽसम्भवात् / अतो न व्याप्तिसिद्धिः कार्यत्वादेस्तत्साधकत्वेनोपन्यस्तस्य हेतोः / “अत एव न सत्प्रतिपक्षताऽपि, नैकस्मिन् साध्यान्विते हेतौ स्थिते द्वितीयस्य तथाविधस्य तत्रावकाश" इति सत्यम् , किंतु स्थाणुसाधकस्य कार्यत्वादेः साध्यान्वितत्वमेव न संभवतीति प्रतिपादितम् / यच्चोक्तम्-'नाऽपि बाधा, अबुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वस्य प्रमाणेनाऽग्रहणात्' इति-तदसाम्प्रतम् , बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वाभावप्रतिपादकस्य प्रमाणस्यांकुरादावकृष्टोत्पत्तौ सद्भावात् / अथांकुरादितुरतीन्द्रियत्वाद् न प्रत्यक्षात्तदभावसिद्धिः न, प्रत्यक्षात्तदभावाऽसिद्धावप्यनुमानस्य तत्र तदभावग्राहकस्य भावात् / तथाहि-यद् यस्याऽन्वय-व्यतिरेको नाऽनुविधत्ते न तत् तत्कारणम् , यथा न पटादयः कुलालकारणाः, नानुविदधति चांकुरादयो बुद्धिमत्कारणान्वयव्यतिरेको-इति [ व्यतिरंकबल से ईश्वर में कारणतासिद्धि अशक्य ] यदि कहें-कि अदृष्ट और इन्द्रिय ये दोनों अतीन्द्रिय होने से वहाँ कार्य-कारणभाव साधक अन्वय-व्यतिरेक दोनों के न होने पर भी 'इन्द्रिय के अभाव में ज्ञान नहीं होता और अदृष्ट के अभाव में इष्ट कार्य की सिद्धि नहीं होती' इसप्रकार के केवल व्यतिरेक से भी अदृष्टादि की सिद्धि होती है, ठीक वैसे ईश्वर की सिद्धि व्यतिरेक मात्र से हो सकेगी-तो यह ठीक नहीं है। कारण आपके नुसार ईश्वर नित्य होने से तथा व्यापक होने से किसी भी काल में या देश में उसका व्यतिरेक ही सम्भव नहीं है / इसलिये ईश्वरसिद्धि के लिये उपन्यस्त कार्यत्वादि हेतु में अपने साध्य के साथ संपूर्णतया व्याप्त सिद्ध हो जाने पर विरुद्ध साध्य के साधक अपर हेतु को वहाँ अवकाश ही नहीं है, अत एव सत्प्रतिपक्षता जैसा कोई दोष नहीं है [ पृ. ३९४-८]-यह बात तो सत्य है किन्तु आपके लिये उपयुक्त नहीं, क्योंकि ईश्वरसिद्धि के लिये उपन्यस्त कार्यत्वादि हेतु में संपूर्णतया साध्य के साथ व्याप्ति ही उपरोक्त रीति से सम्भव नहीं है। यह भी जो कहा है-“कार्यत्व हेतु में बाध भी नहीं है क्योंकि अकुरादि में बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वस्वरूप साध्य का अभाव प्रमाणसिद्ध नहीं है।"-[ पृ. 394-9 ] यह अवसरोचित नहीं कहा है, क्योंकि विना कृषि से उत्पन्न अंकरादि में बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वरूप साध्य के अभाव का साधक अनुपलब्धिरूप प्रमाण विद्यमान है जो अभी ही दिखायेंगे। [अंकूरादि में कर्ता के अभाव की अनुमान से सिद्धि] यदि कहें कि-अंकुरादि का कर्ता तो अतीन्द्रिय है अतः प्रत्यक्ष से उसके अभाव की सिद्धि नहीं होगी। तो यह ठीक नहीं है / प्रत्यक्ष से उस के अभाव की सिद्धि न होने पर भी अनुमान से अंकुरादि में कर्ता के अभाव को सिद्धि होती है-देखिये, जो काय जिसके अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण नहीं करता, उस कार्य का वह कारण नहीं होता, जैसे पटादि कार्य का कुम्हार कारण नहीं है। अंकुरादि भी बुद्धिमान् कारण के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण नहीं करता है-इस प्रकार व्यापकीभूत अन्वयव्यतिरेक के अनुसरण की अनुपलब्धि से अंकुरादि में बुद्धिमत्कारणरूप व्याप्य की भी निवृत्ति हो जाती है / जो जिस कार्य का कारण होता है वह कार्य उसके अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण अवश्य करता है जैसे घटादि कार्य कुम्हारादि का / प्रस्तुत में ऐसा कोई भी उपलब्धिमत् (बुद्धिमत्) कारण उपलब्ध नहीं है जिस के संनिधान में ही पूर्वानुपलब्ध अंकुरादि का उपलम्भ हो और उसके व्यतिरेक में इतर Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 व्यापकानुपलब्धिः / यच्च यत्कारणं तत्तस्यान्वयव्यतिरेको अनुविधत्ते यथा घटादयः कुलालस्य / न चोपलब्धिमत्कारणसंनिधाने प्रागनुपलब्धस्यांकुरादेरुपलम्भस्तदभावे चाऽपरकारणसाकल्येऽपि तस्यानुपलम्भ इत्यन्वय-व्यतिरेकानुविधानमंकुरादिकार्याणाम् / / अथांकुरादिकर्तु रुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वस्याऽभावाद् न प्रत्यक्षेण सद्भावाऽभावप्रतीतिरिति नांकुरादेस्तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानस्योपलब्धियुक्ता / ननु मा भूत् तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानोपलब्धिः, व्यतिरेकानुविधानानुपलब्धिस्तु युक्ता, यथा रूप-पालोक-मनस्कारसाकल्येऽपि कदाचिद् विज्ञानकार्यानुपपत्त्या कारणान्तरस्यापि तत्र सामर्थ्यमवसीयते, यच्च तत्कारणान्तरं सा इन्द्रियशक्तिः, तदभावाद् रूपज्ञानं न संजातमित्यनुपलभ्यस्वभावस्यापि कारणस्य व्यतिरेकः कार्येणाऽनुविधीयमान उपलभ्यते, न चेहोपलब्धिमत्कारणस्य व्यतिरेकोऽकुरादिकार्येणानुविधीयमान उपलभ्यते, बुद्धिमत्कारणव्यतिरिक्तपृथिव्यादिसामग्रीसकला (ग्रीसाकल्ये )ऽङ्कुरादेरवश्यं भावदर्शनात् / "इन्द्रियशक्तेरनित्यत्वाऽव्यापकत्वेन व्यतिरेकसम्भवात तदव्यतिरेकानविधानस्योपलब्धिर्यक्ता, न बद्धिमत्कारणव्यतिरेकानविध स्य, तस्य नित्यत्वव्यापकत्वेन व्यतिरेकानुविधानाभावादि"ति चेत् ? अस्तु नामवम् , तथापीश्वरस्य ज्ञान-प्रयत्न-चिकीर्षासमवायोऽङ कुरादिकार्यकरणे व्यापारः, तस्य सर्वदा सर्वत्राऽभावात् तदनुविधानं स्यात् / सकल कारण होते हुए भी अंकुरादि की उपलब्धि न हो / इस प्रकार, अंकुरादि कार्य में बुद्धिमत्कारण के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण नहीं है / - [व्यतिरेकानुसरण की उपलब्धि की आवश्यकता ] यदि कहें-अंकुरादि का कर्ता उपलब्धिलक्षणप्राप्त न होने से प्रत्यक्ष से उसके अस्तित्व के अभाव की प्रतीति शक्य नहीं है अत एव अंकुरादि कार्य में उसके अन्वय-व्यतिरेक के अनुसरण की उपलब्धि न होने में कोई दोष नहीं है / तो यहाँ निवदेन है कि अन्वयव्यतिरेक दोनों के अनुसरण की उपलब्धि भले न हो किंतु व्यतिरेक के अनुसरण की उपलब्धि तो होनी ही चाहिये / उदा० रूप, प्रकाश, मनोयोग आदि सकल कारण के रहते हुए भी कभी विज्ञान की अनुत्पत्ति दिखती है, अतः वहाँ अधिक एक कारण का सामर्थ्य मानना पडता है, जो यह अधिक कारण होगा वही इन्द्रियशक्तिरूप में सिद्ध होता है / अत: इन्द्रिय के अभाव में जब रूप ज्ञान नहीं होता तब उपलब्धिलक्षणप्राप्त न होने पर भी इन्द्रियरूप कारण के व्यतिरेक का अनुसरण कार्य में उपलब्ध होता है / उसी तरह अंकुरादि में बुद्धिमत्कारण के व्यतिरेक का अनुसरण उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि बुद्धिमत्कारण के विरह में भी पथ्वी आदि दृष्ट सकल कारणों को उपस्थिति में अंकुरादि की उत्पत्ति नियमत: दिखायी देती है। [ व्यापार के व्यतिरेकानुसरण की अनुपलब्धि ] यदि कहें-इन्द्रियशक्ति और ईश्वररूप बुद्धिमत्कारण में वैषम्य है, इन्द्रियशक्ति अनित्य और अध्यापक है जब कि ईश्वर तो नित्य एवं व्यापक है / अत: इन्द्रिय का व्यतिरेक सम्भव होने से रूपज्ञान में उसके व्यतिरेक का अनुसरण युक्तियुक्त है किंतु यहाँ ईश्वरात्मक बुद्धिमत्कारण के व्यतिरेक का अनुसरण उपलब्ध नहीं हो सकता क्योंकि वह नित्य और व्यापक है। तात्पर्य, वहाँ कत्तो की अनुपलब्धि अभावमूलक नहीं है / तो यह भी ठीक नहीं है / कारण, ईश्वर को नित्य और व्यापक भले ही मानो, फिर भी ईश्वर का व्यापार तो उसमें ज्ञान-इच्छा और प्रयत्न का समवाय ही है, और यह Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 489 अथ तत्समवायस्यापि सर्वत्र सर्वदा भावाद् नायं दोषः / न, तस्य नित्यत्व-व्यापकत्वे सत्यपि तद्विशेषणानामीश्वरज्ञान-प्रयत्न-चिकीर्षादीनामनित्यत्वात् अव्यापकत्वाच्च व्यतिरेकानुविधानमुपलभ्येत / अथ तज्ज्ञानादेरपि नित्यत्वाद नायं दोषः। सर्वदा ता कुरादिकार्योत्पत्तिः स्यात् / 'सर्वदा सहकारिणामसंनिधानाद् न' इति चेत् ? ननु तेऽपि तज्ज्ञानाद्यायत्तजन्मानः किं न सर्वदा सन्निधीयन्ते ? अथ 'नैव ते तदायत्तोत्पत्तयः' / तहि तैरेव कार्यत्वादिहेतुरनैकान्तिकः / 'तत्सहकारिणामपि सर्वदा स्वोत्पत्तिहेतूनां सकार्याणामसन्निधानाद् न सर्वदोत्पद्यन्ते' इति चेत् ? अनवस्था / तथा च अपरापरसहकारिप्रतीक्षायामेवोपक्षीणशक्तित्वात् तज्ज्ञानादेः प्रकृतकार्यकर्तृत्वं न कदाचिदपि स्यात् / अतः सुदूरमपि गत्वा क्वचिदवस्थामिच्छता नित्यत्वं सहकारिणाम् अतदायत्तोत्पत्तिकत्वं वाऽभ्युपगमनीयम् , तदायत्तोत्पत्तिकार्यस्यापि तज्ज्ञानादिव्यतिरेकेणाऽप्युत्पत्तिरभ्युपगन्तव्या, इति वृथा तत्परिकल्पना। नित्यत्वे वा पुनरपि सहकारिणां तज्ज्ञानादीनां च नित्यत्वात् सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसंगः। व्यापार तो सर्वदा सर्वत्र नहीं होता, अतः उसके व्यापार के व्यतिरेक का अनुसरण तो दिखाई देना चाहिये / [ समवाय सर्वदा सर्वत्र नहीं होता इस विकल्प में यह बात कही गयी है, वह सर्वत्र सर्वदा होता है इस विकल्प के ऊपर अब कहते हैं ] . [ समवाय सर्वदा-सर्वत्र होने पर भी अनुपपत्ति ] यदि कहें कि-समवाय भी सर्वत्र सर्वदा उपस्थित होने से व्यतिरेकाणुसरणाभाव का दोष नहीं होगा-तो यह ठीक नहीं, समवाय नित्य और व्यापक भले हो किन्तु ईश्वर का ज्ञान, प्रयत्न और ईच्छा तो अनित्य और अव्यापक होने से व्यतिरेकानुसरण के अभाव का दोष रहेगा ही। (यह अनित्य पक्ष में दोष कहा, अब) यदि कहें कि-उसके ज्ञानादि भी नित्य (और व्यापक) है अतः कोई दोष नहीं होगा-तो भो यह आपत्ति होगी कि अंकुरादि कार्य की भी हर हमेश उत्पत्ति होती रहेगी / यदि सहकारीयों का सनिधान सदा न होने से इस आपत्ति को टालना चाहे तो यह शक्य नहीं है, क्योंकि जब सहकारियों को भी ईश्वर के ज्ञानादि से ही जन्म लेना है तब ईश्वरज्ञानादि नित्य होने से अंकुरादि की उत्पत्ति में सहकारो कारण भी ईश्वरज्ञानादि से उत्पन्न हो कर सदा संनिहित क्यों नहीं रहेंगे ? यदि सहकारियों को ईश्वरज्ञानादि से उत्पन्न नहीं मानेंगे तो कार्यत्व हेतु उन सहकारियों में ही साध्यद्रोही बन जायेगा। यदि कहें-सहकारीवर्ग सदा संनिहित न होने का कारण यह है कि उसके अपने उत्पादक कारणों का कार्यसहित सदा संनिधान नहीं होता, अर्थात् सहकारीयों का कारण सदा संनिहित न होने से कार्यभूत (-अंकुरादि के,) सहकारी भी सदा संनिहित नहीं रहते-तो यहाँ अनवस्था दोष होगा, क्योंकि सहकारीयों के हेतु को भी ईश्वरज्ञान से ही जन्म लेना है तो वे क्यों सदा उत्पन्न नहीं होंगे इस प्रश्न के उत्तर में आपको फिर से यह कहना पडेगा कि सहकारियों के हेतुओं की उत्पत्ति में भी उनके सहकारोकारण सदा संनिहित नहीं रहते है इसलिये / तो इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा, फलत: ईश्वरज्ञानादि तो अंकुरादि के पूर्व पूर्व कारणों को उत्पन्न करने में ही क्षीणशक्तिवाला हो जाने से कभी भी अंकुरादि कार्य का कर्तृत्व तो ईश्वर में आयेगा ही नहीं / इसलिये कितने भी दूर जा कर अनवस्थादोष का अन्त लाने के लिये (A) कहीं तो सहकारीयों को नित्य मान लेना ही पडेगा, अथवा (B) कुछ सहकारीयों को ईश्वर ज्ञान के विना ही उत्पन्न मान लेना होगा। इस प्रकार जब दूसरे Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ तदेवं तज्ज्ञानादीनां च नित्यत्वात् सर्वदा कार्यस्योत्पत्तिरनुत्पत्तिर्वा स्यात् इत्यनित्यास्तज्ज्ञानादयोऽभ्युपगन्तव्या। तथा च सति तदन्यसामग्रीसाकल्येऽप्यंकुराद्यनुत्पत्तिः कदाचित् स्यात् / 'सकलतदन्यसामग्रीसंनिधानानन्तरमेवः तज्ज्ञानाद्युत्पत्तेर्न कार्यानुत्पत्तिः कदाचित् सामग्रीसाकल्येऽपि' इति चेत् ? सहकारिकारणसंभवास्तहि तज्ज्ञानादयः प्राप्ताः अन्यथा तदनन्तरोत्पत्तिनियमाभावात सहका. रिषु सत्स्वपि कदाचिदंकुराद्यनुत्पत्तिः स्यात् / ते तु सहकारिणस्तज्ज्ञानाद्यप्रेरिता एव तज्ज्ञानादि जनयन्तोऽकुरादि जनय (? यिष्य )न्ति किमन्तर्गडुतज्ज्ञानादिकल्पनया? तज्ज्ञानादिसहकृता एव तज्ज्ञानादिकं जनयन्तीत्यभ्युपगमे तज्ज्ञानाद्यन्तरं सहकारिकारणजन्यमजन्यात्वा (? मजात्वा) तदनन्तरमनुत्पद्यमान कार्यमपि तज्ज्ञानादिकं तदनन्तरं नोत्पादयति, इत्यायातः स एव कारणान्तरसाकल्येऽप्यंकुरादिकार्याद्यनुत्पत्तिप्रसंगः, सहकारिभ्यस्तज्ज्ञानाद्यन्तरोत्पत्तौ स एव प्रसंग अनवस्था च / तस्यां चाऽपरापरज्ञानोत्पादन एव सहकारिणां सर्वदोपयोगान्न कार्ये कदाचिदप्युपयोगो भवेत् / विकल्प में कुछ सहकारीयों को ईश्वरज्ञानादि के विना उत्पन्न मान लेंगे तब तो उन सहकारीयों को अधीन उत्पत्ति वाले अंकुरादि को भी ईश्वरज्ञानादि के विना ही उत्पन्न मान सकते हैं, फिर ईश्वरादि की कल्पना निरर्थक है / (A) यदि प्रथम विकल्प में उन सहकारियों को नित्य मान लेंगे तब तो अंकरादि कार्य की सदा उत्पत्ति होने की आपत्ति वापस लौट आयेगी, क्योंकि ईश्वरज्ञानादि तो नित्य ही है, सहकारी भी नित्य होने से उपस्थित है, फिर क्या बाकी रहा जो अंकुरादि पुनः पुन: उत्पन्न न हो। [ईश्वरज्ञानादि को अनित्य मानने पर व्यतिरेकानुपलब्धि ] इस प्रकार ईश्वरज्ञानादि को नित्य मानने पर सर्वदा कार्य की उत्पत्ति का अथवा पूर्वोक्तरीति से क्षीणशक्तिवाले हो जाने से कभी भी उत्पत्ति न होने का जो प्रसंग है, उसके कारण ईश्वरज्ञानादि को अनित्य ही मानना पडेगा / इस का अर्थ यह हुआ कि अन्य संपूर्ण सामग्री उपस्थित रहने पर भी ईश्वरज्ञानादि के व्यतिरेकसम्भव से कार्य की उत्पत्ति कभी कभी नहीं भी होगी। यदि ऐसा कहें किअन्य संपूर्ण सामग्री का संनिधान होने पर ईश्वरज्ञानादि भी नियमतः उत्पन्न होकर उपस्थित रहता ही है, अतः अन्य संपूर्णसामग्री की उपस्थिति में कार्य की अनुत्पत्ति का दोष नहीं रहेगा-तो इस का मतलब यह हुआ कि ईश्वर का ज्ञानादि, अंकुराद्युत्पादक सहकारीकारणों का जन्य हुआ। यदि ऐसा न माने तब तो सहकारिकारण सब एकत्रित होने पर ईश्वरज्ञान की उत्पत्ति होने का नियम नहीं बन सकेगा, फलत: सहकारीयों की उपस्थिति में कभी कभी अंकुरादि की अनुत्पत्ति के प्रसंग का पुनरावर्तन होगा। जब नियमतः ईश्वरज्ञानादि की उत्पत्ति मानेंगे तब यह निवेदन है कि ईश्वरज्ञानादि से अप्रेरित भी सहकारिकारण ईश्वरज्ञानादि की उत्पत्ति कर सकते हैं तो सीधे ही अंकरादि की उत्पत्ति भी क्यों नहीं करेंगे ? 'तद्धतोरस्तु किं तेन' इस न्याय से तब बीच में ईश्वरज्ञानादि की उत्पत्ति को मानना अन्तर्गडु-निरर्थक देहग्रन्थिवत् निरर्थक है। [ सहकारिकारणजन्य ईश्वरज्ञान मानने पर आपत्ति ] ___ यदि कहें-ईश्वरज्ञानादि के उत्पादक सहकारी भी ईश्वरज्ञानादि के सहकार से ही ईश्वरज्ञानादि को उत्पन्न करेंगे-तब तो बडी आपत्ति है, क्योंकि स्थिति अब ऐसी हुई कि सहकारीकारणों से प्रथम एक ज्ञानादि उत्पन्न होगा, फिर उसके सहकार से वे सहकारीकारण दूसरे (अंकुरजनक) ज्ञानादि को उत्पन्न करेंगे, बाद में अंकुरोत्पत्ति होगी-इस स्थिति में जब सहकारिकारण जन्य वह अन्य ज्ञानादि Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 491 'सहकारिभिः सह तज्ज्ञानादिकं नियमेनोत्पत्तिमदिति चेत् ? तहि सहकारिणां तज्ज्ञानादेश्चैकसामग्र्यधीनत्वमभ्युपगन्तव्यम् . अन्यथाऽसहभावात् / तथैकसामग्रीलक्षणं कारणं तज्ज्ञानादिभिरन्यैर्जनितमजनितं वा तज्जनयति ? न चाजनितम् , तथैव कार्यत्वादेर्हेतोयभिचारित्वप्रसंगात् / *जनितं तज्ज्ञानादिकमभ्युपगन्तव्यं, तच्च तेन जन्येन सह नियमेनोत्पद्यमानं तदेकसामग्र्यधीनत्वमभ्युपनन्तरं सामग्र्यधीनं स्यात् / सा च सामग्री तज्ज्ञानान्तरेणोत्पादिता(न)चेति विकल्पद्वये पूर्वोक्तदोषद्वयप्रसङ्गः। प्रागनन्तरोत्पत्तिनियमाभ्युपगमे सहकारिहेतुभिरेकसामग्र्यधीनतया स्यात् तत्रापि सैकसामग्री तज्ज्ञानाद्यन्तरेण प्रेरिता जनयतीत्यभ्युपेयम् , अन्यथा ('ऽचेतनस्या)चेतनानधिष्ठितस्य वास्यादरिव जनकत्वाऽसम्भवात, ज्ञानाद्यन्तर च प्रयोत सामग्रोविशेषात प्राग (नन्तरं नियमेनोत्प. द्यमानं तद्धतभिरेकसामग्रयधीनं स्यात, अन्यथा प्रागनन्तरं नियमेनोत्पत्तिर्न स्यात / सामनयन्तरं च प्रेरितमप्रेरितं वा जनयतीति विकल्पद्वये दोषद्वयप्रसङ्ग, तेनेमं दोषं परिजिहीर्षता न तज्ज्ञानाद्युत्पत्तिः तदनन्तरं, सह, प्राग्वाऽनन्तरमभ्युपगन्तव्या / तदनन्तरं सह, प्राग्वानन्तरमुत्पत्तिनियमाभावे चांकुरादिकार्यस्य तव्यतिरेकानुविधानमुपलभ्येत, न चोपलभ्यते, क्षित्युदक-बीजादिकारणसामग्रीसंनिधाने (अर्थात् प्रथम ज्ञानादि) स्वयं उत्पन्न न होगा तब तक स्वोत्तरकाल में ( अंकुरजनक) दूसरे ज्ञानादि को उत्पन्न न कर सकेगा, अत: वही पूर्वोक्त प्रसंग ( व्यतिरेक प्रयुक्त ) कदाचित् अनुत्पत्ति का और अनवस्था का पुनः प्राप्त हुआ। अनवस्था इस रीति से कि अंकुरजनकज्ञानादि की उत्पत्ति के लिये तो आपने एक नये ज्ञानादि को मान लिया, फिर उस ज्ञानादि की उत्पत्ति के लिये नये ज्ञानादि को मानना पड़ेगा....इस प्रकार कहीं अन्त नहीं आयेगा / दूसरा यह होगा कि अन्य अन्य ज्ञान के उत्पादन में ही उन सहकारीकारणों की शक्ति क्षीण हो जाने से अंकुरोत्पादन में तो वे कुछ भी उपयोगी नहीं रहेंगे। [सहकारीवर्ग और ईश्वरज्ञान की एक सामग्रीजन्यता में आपत्ति ] ___ यदि कहें-ईश्वरज्ञानादि सहकारीयों से उत्पन्न नहीं होता किन्तु नियमतः उनके साथ ही उत्पन्न होता है अत: व्यतिरेक वाला दोष नहीं होगा।-तो यहाँ निवेदन है कि आपको सहकारीवर्ग और ईश्वरज्ञानादि दोनों एक सामग्री से उत्पन्न मानना होगा अन्यथा भिन्न भिन्न सामग्री मानने पर एक साथ उत्पन्न होने की बात नहीं घटेगी / अब दो विकल्प खड़े होंगे-A वह एकसामग्रीस्वरूप कारण भी ईश्वरज्ञानादि से जन्य होगा, B या अजन्य ? यदि B अजन्य मानेंगे तो कार्यत्व हेतु यहाँ ही साध्यद्रोही हो जाने को आपत्ति आयेगी। ___*[ यदि उसे A जन्य मानेंगे तो उसके जनक ईश्वरज्ञानादि के ऊपर दो विकल्प होंगे कि वह ज्ञानादि जन्य होगा या अजन्य, यदि अजय मानेंगे तब तो पूर्वोक्त आपत्ति परम्परया आयेगी, अर्थात् अंकुरादि की उत्पत्ति सदा होगी। ] यदि उस ज्ञानादि को जन्य मान कर चलेंगे तो भी पूर्वोक्त दोष आयेंगे, आखिर आप कहेंगे कि यह ज्ञानादि और उसके सहकारी भो एक साथ ही उत्पन्न होते हैं, * पुष्पिकाद्वयमध्यगत संस्कृत पाठ कहीं कहीं खंडित होने का पूर्व सम्पादक का अनुमान है। बात सत्य है, फिर भी हमने संदर्भ के अनुसार उसका जो हिन्दी विवेचन किया है उसको वाचकगण ध्यान से पढे और त्रुटि का यथा सम्भव परिमार्जन करें। 1. लिंबडी ग्रन्थागारादर्श कोष्ठगतपाठो नास्ति, न चावश्यकः / Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 प्रतिबन्धे चाऽसति अंकुरादिकार्यस्यावश्यंभावदर्शनात् / अतस्तज्ज्ञानाद्यनुविधानस्य तत्कारणत्वव्यापकस्यानुपलभ्मात् तत्कारणत्वाभावोऽङ्कुरादिकार्यस्यानुमीयते / अतो बाधा व्यापकानुपलब्च्या बुद्धिमकारणानुमानस्य / बुद्धिमत्कारणानुमानेनैव व्यापकानुपलब्धिः कस्मान्न बाध्यते ? लोहलेख्यं वज्रम् , पार्थिवत्वात् काष्ठवत्-इत्यनुमानेन प्रत्यक्षं तस्य तदलेख्यत्वग्राहकं किं न बाध्यते-इति समानम् / 'प्रत्यक्षेण तद्विषयस्य बाधितत्वाद् न तेन तद बाध्यते' इति चेत् ? बुद्धिमत्कारणत्वानुमानस्यापि तहि व्यापकानुपलब्ध्या विषयस्य बाधितत्वात् कथं तद्बाधकत्वम् ? 'बुद्धिमत्कारणत्वानुमानेनैव व्यापकानुपलब्धेविषयस्य बाधितत्वात् न तद्बाधकत्वमिति चेत् ? न, पार्थिवत्वानुमानेन तदलेख्यत्वग्राहकस्य प्रत्यक्षस्य बाधितविषयत्वाद् न तद्बाधकत्वमित्यपि वक्तुं शक्यत्वात् / अथ तदनुमानस्य तदाभासत्वात् न जब नियम से ऐसा ही मानेंगे तब तो फिर से वहाँ सहभाव बनाये रखने के लिये एक सामग्री जन्यता भी माननी पड़ेगी। फिर उस सामग्री के ऊपर ही दो विकल्प होंगे कि वह भी ईश्वरज्ञानादि से जन्य है या अजन्य ? दोनों विकल्प में पूर्वोक्त दोषप्रसंग आयेगा। [ ईश्वरज्ञानादि को सहकारी हेतु सहोत्पन्न मानने में आपत्ति ] अब यदि ऐसा कहें कि-ईश्वरज्ञानादि सहकारीयों के साथ नहीं किन्तु प्रागनन्तर अर्थात् पूर्वकाल में उत्पन्न होता है'-तब तो इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वरज्ञानादि सहकारीयों के साथ नहीं किन्तु सहकारी के उत्पादक हेतुओं के साथ उत्पन्न होते हैं [ क्योंकि पूर्वक्षण में दोनों की सत्ता नियमतः माननी पड़ेगी ] फलतः ईश्वरज्ञानादि और सहकारि के हेतु वर्ग-दोनों को एकसामग्री जन्य ही मानना होगा। अब फिर से यह विकल्प होंगे कि वह सामग्री भी ईश्वरज्ञानादि से जन्य है या अजन्य? वहाँ जन्य नहीं मानना पड़ेगा अन्यथा चेतन से अनधिष्ठित कुठारादि की तरह वह सामग्री भी अपना कार्य नहीं कर सकेगी। उस ईश्वरज्ञानादि को भी सामग्री-उत्पादन के लिये सामग्री के प्रागनन्तर (अर्थात् पूर्वकाल में) ही नियम से उत्पन्न मानना होगा। अतः उस सामग्री के हेतु और उस ईश्वरज्ञानादि को पुनः एक सामग्री-अधीन मानना पड़ेगा, क्योंकि उसको माने विना नियमत: उस ईश्वरज्ञानादि की प्राक्काल में उत्पत्ति नहीं होगी। अब फिर से उस एक सामग्री के ऊपर ईश्वरज्ञानादि से जन्य-अजन्य दो विकल्प और उन में पूर्वोक्त दोषों का प्रसंग परावत्तित होगा। तात्पर्य, इस दोष को हठाना हो तो आप ईश्वरज्ञानादि को न तो अंकूर के सहकारीयों के उत्तरकाल में उत्पन्न मान सकते हैं, न साथ में उत्पन्न मान सकते हैं, न तो अव्यवहित पूर्वकाल में उत्पन्न मान सकते हैं / जब उत्तरकाल में, साथ में और पूर्वकाल में ईश्वरज्ञानादि की उत्पत्ति का कोई ठीकाना ही नहीं है तब तो कभी उसके अभाव में अंकुरादि कार्य का अभाव दिखायी देना आवश्यक बन गया। किन्तु वह तो नहीं दिखता है / कारण, प्रतिबन्ध न होने पर पृथ्वी-जल-बीजादिकारणसामग्री के संनिधान में अंकरादि कार्य की उत्पत्ति नियमत: देखी जाती है। अतः तत्कारणत्व का व्यापक तज्ज्ञानादि के व्यतिरेक का अनुसरण उपलब्ध न होने से तत्कारणत्वरूप व्याप्य के अभाव का अनुमान फलित होता है। निष्कर्षः-कार्यत्व हेतु से बुद्धिमत्कारण के अनुमान करने में व्यापकानुपलब्ध्रिरूप बडी बाधा होने से ईश्वर सिद्धि दुष्कर है / Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 493 प्रकृतप्रत्यक्षविषयबाधकत्वम् / नैतद्-इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् / तथाहि-प्रत्यक्षबाधितविषयत्वात् तदनुमानस्य तदाभासत्वम् , तस्य तदाभासत्वात् प्रत्यक्षस्य तद्बा (देबा) धितविषयत्वेनाऽतदाभासत्वात् तद्विषयबाधकत्वम् इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / अथानुमानाऽबाधितविषयत्वनिबन्धनं न तत्प्रत्यक्षस्याऽतदाभासत्वम् / कि तहि ? स्वपरिच्छेद्याऽव्यभिचारनिबन्धनम् / नन्वेवमनुमानस्यापि स्वसाध्याऽव्यभिचारनिबन्धनं किं नाऽतदाभासत्वमप्यभ्युपगमविषयः ? ___अथाऽबाधितविषयत्वे सति तस्य तदेव स्वसाध्याऽव्यभिचारित्वं परिसमाप्यते / नन्वेवमबाधितविषयत्वस्य प्रतिपत्तुमशक्तेन क्वचिदपि स्वसाध्याऽव्यभिचारित्वस्यानुमानेऽतदाभासत्वनिबन्धनस्य प्रसिद्धिः। न हि बाधाऽनुपलम्भाद् बाधाऽभावः, तस्य विद्यमानबाधकेष्वप्यनुत्पन्नबाधकप्रतिपत्तिषु भावात् / [बुद्धिमत्कारणानुमान व्यापकानुपलब्धि का अबाधक ] यदि पूछे कि 'आप व्यापकानुपलब्धि से हमारे बुद्धिमत्कारण के अनुमान को बाधित कहते हो तो बुद्धिमत्कारणानुमान से व्यापकानुपलब्धि को ही बाधित क्यों नहीं कहते हो ?'- इसके सामने तो यह प्रश्न भी समान है कि-'वज्र भी काष्ठ की तरह लोहलेख्य है क्योंकि पार्थिव है' इस अनुमान के द्वारा, वज्र में लोहअलेख्यत्वग्राहक प्रत्यक्ष का ही बाध क्यों नहीं माना जाता है ? यदि कहें कि यहाँ अनुमान का विषय प्रत्यक्षबाधित है अतः वह बाधित अनुमान प्रत्यक्ष का बाधक कैसे बन सकता है ? ! -तो प्रस्तुत में बुद्धिमत्कारणत्व के अनुमान का विषय भी व्यापकानुपलब्धि से बाधित है, अतः अनुमान व्यापकानुपलब्धि का बाधक कैसे होगा? / यदि इस से उलटा कहें कि व्यापकानुपलब्धि का विषय ही बुद्धिमत्कारण के अनुमान से बाधित है अतः व्यापकानुपलब्धि कैसे अनुमान की बाधक होगी?-तो वहाँ भी कह सकते है कि पार्थिवत्व के अनुमान से, लोहअलेख्यत्वसाधक प्रत्यक्ष का विषय ही बाधित है अतः वह प्रत्यक्ष अनुमान का बाधक नहीं बनेगा। _ [ लोहलेख्यत्वानुमान से प्रत्यक्ष का बाध क्यों नहीं ?] यदि कहें-लोहलेख्यत्व का अनुमान सच्चा नहीं किंतु तदाभासरूप है अत. उससे लोहलेख्यत्वसाधक प्रत्यक्ष का बाधित होना असम्भव है-तो यह ठीक नहीं क्योंकि इतरेतराश्रय दोष लगता है। देखिये, अनुमान क्यों तदाभासरूप है ? प्रत्यक्ष से बाधितविषयवाला होने से / अनुमान, प्रत्यक्ष से बाधितविषयवाला क्यों है ? अनुमान अनुमानाभासरूप होने से, प्रत्यक्ष का विषय अबाधित है अतः यह प्रत्यक्ष तदाभासरूप नहीं है, इसलिये उससे अनुमान का विषय बाधित है / स्पष्ट ही यहाँ अन्योन्या. श्रय लग जाता है। यदि इस दोष से बचने के लिये ऐसा कहा जाय कि “प्रत्यक्ष में प्रत्यक्षाभासरूपता का निषेध, अनुमान से उसका विषय अबाधित होने के आधार से नहीं करते है / 'तो किस आधार से करते हैं इसका उत्तर यह है कि स्वग्राह्यविषय के अव्यभिचार के आधार से करते हैं, अर्थात प्रत्यक्ष अपने विषय का व्यभिचारी-विसंवादी नहीं हैं ।"-तो यहाँ भी प्रश्न है कि स्वग्राह्यविषयाऽव्यभिचार के आधार पर अनुमान में भी अनुमानाभासरूपता का निषेध क्यों नहीं करते हैं ? . इसके उत्तर में यदि कहें कि-"अपना विषय अबाधित होने पर ही अनुमान में उक्त स्वसा' ध्याऽव्यभिचारिता परिसमाप्त यानी पर्यवसित होती है, फलित होती है, अन्यथा नहीं।"-तब तो Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ यत्र बाधकसद्भावस्तत्र प्रागबाधकानुपलम्भेऽप्युत्तरकालमवश्यंभाविनी बाधकोपलब्धिः; यत्र तु न कदाचिद् बाधकोपलब्धिस्तत्र न तद्भावः / असदेतत्-न ह्यर्वाग्दृशा बाधकानुपलम्भमात्रेण 'न कदाचनाप्यत्र बाधकोपलब्धिर्भविष्यति' इति ज्ञातुं शक्यम् , स्वसम्बन्धिनोऽनुपलम्भस्यानकान्तिकत्वात् , सर्वसम्बन्धिनोऽसिद्धत्वात् / न ह्यसर्ववित् 'सर्वेणाप्यत्र बाधकं नोपलभ्यते उपलप्स्यते वा' इत्यवसातु क्षमः / नाऽपि बाधकाभावोऽभावग्राहिप्रमाणावसेयः, तस्य निषिद्धत्वात् , निषेत्स्यमानत्वाच्च / न चाऽज्ञातो बाधकाभावोऽनुमानाङ्गं पक्षधर्मत्वादिवत् / न च स्वसाध्याऽव्यभिचारित्वनिश्चयादेव बाधकाभावनिश्चयः, तनिश्चयमन्तरेण त्वदभिप्रायेण स्वसाध्याऽव्यभिचारित्वस्याऽपरिसमाप्तत्वेन निश्चयाऽयोगात् / तस्मात् पक्षधर्मत्वान्वय-व्यतिरेकनिश्चयलक्षणस्वसाध्याऽविनाभावित्वस्य प्रकृतानुमानेऽपि सद्भावात् प्रत्यक्षवद् न तस्यापि तदाभासत्वम् / अथ विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् पार्थिवत्वानुमानस्य नान्ताप्तिरिति तदभासत्वम् , एवं तहि कार्यत्वानुमानेऽपि विपर्यये बाधकप्रमाणाऽभावाद् व्याप्त्यभावतस्तदभासत्वमिति न व्यापकानुपलब्धिविषयबाधकता / अथ प्रत्यक्षं नानुमानेन बाध्यते इति लोहलेख्यत्वानुमानस्य न तदलेख्यत्वग्राहकप्रत्यक्षबाधकता, कथं तहि देशान्तरप्राप्तिलिङ्गजनिताऽनुमानेन स्थिरचन्द्रार्कग्राहिप्रत्यक्षबाधा ? अनुमान में तदाभासता का निषेधक स्वसाध्याऽव्यभिचारिता कभी सिद्ध ही नहीं हो सकेगी, क्योंकि अनमान की अबाधितविषयता का ग्रहण ही दृष्कर हो जाता है। यदि प्रत्यक्ष से उसकी बाधितविषयता है या नहीं यह देखने जाय तो अन्योन्याश्रय दोष होता है ।-'वहाँ बाध की अनुपलब्धि होने पर तो अबाधितविषयता हो सकेगी' यह नहीं कह सकते, क्योंकि केवल बाध की अनुपलब्धि से बाधाभाव सिद्ध नहीं हो जाता / कारण, जहाँ बाधक का ज्ञान नहीं है वहाँ बाधक विद्यमान होने पर भी उसकी अनुपलब्धि हो सकती है। [ भावी बाधकानुपलम्भ का निश्चय अशक्य ] पूर्वपक्षीः-जहाँ बाधक की सत्ता है वहाँ प्रारम्भ में बाधक का उपलम्भ न होने पर भी उत्तरकाल में कभी न कभी अवश्यमेव बाधक का उपलम्भ हो कर ही रहेगा। जहाँ, कभी भी बाधक का उपलम्भ न हो वहाँ समझ लेना कि बाधक है ही नहीं। उत्तरपक्षीः-यह बात गलत है / जो वर्तमानमात्रदर्शी है उसके लिये यह निश्चय अशक्य है कि यहाँ भावि में कभी भी बाधक उपलम्भ होने वाला नहीं। सिर्फ अपने को बाधक का उपलम्भ नहीं है इतने मात्र से तदभाव का निश्चय अनैकान्तिकदोषग्रस्त हो जायेगा और किसी को भी बाधक का उपलम्भ नहीं होगा यह जान लेना हमारे लिये अशक्य होने से असिद्ध है। जो असर्वज्ञ है वह ऐसा कभी नहीं जान सकता कि इस स्थल में किसी को भी बाध का उपलम्भ नहीं है अथवा भावि में भी नहीं होगा / अभावग्राहक प्रमाण से भी बाधक के अभाव का निश्चय शक्य नहीं, क्योंकि मीमांसकसम्मत अभाव प्रमाण वास्तव में कोई प्रमाण ही नहीं है यह पहले कह चुके हैं [ प.१०४ ], अगले ग्रन्थ में भी कहा जायेगा / जब तक बाधाभाव का ज्ञान नहीं होगा तब तक वह अज्ञात बाधकाभाव अनमान का अंग भी नहीं बन सकता, जैसे कि अज्ञात पक्षधर्मता से कभी पक्ष में साध्य का अनुमान नहीं होता / यह भी नहीं कह सकते कि-'अपने साध्य को अव्यभिचारिता के निश्चय से ही बाधकाभाव का निश्चय फलित होगा'-क्योंकि आपके पूर्वोक्त कथनानुसार बाधकाभाव का निश्चय हुए विना Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 495 अथ तस्य प्रत्यक्षाभासत्वादनुमानेन बाधा। ननु कुतस्तस्य तदाभासत्वम् ? 'अनुमानेन बाधितविषयत्वादिति चेत् ? ननु तदेवेतरेतराश्रयत्वम् - अनुमानेन बाधितविषयत्वात् तस्य तदाभासत्वम् , तस्य तदाभासत्वे च तेनाऽबाधितविषयत्वादनुमानस्याऽतदाभासत्वेन तद्विषयबाधकत्वम् इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम्। तस्मात स्वग्राह्याऽव्यभिचार एव सर्वत्र प्रामाण्यनिबन्धनम् / स च व्यापकानुपलब्धौ पक्षधर्माऽन्वयव्यतिरेकस्वरूपः प्रमाणपरिनिश्चितो विद्यते इति तस्या एव स्वसाध्यप्रतिपादकत्वेन प्रामाण्यम् न पुनर्बुद्धिमत्कारणानुमानस्य, तत्र स्वसाध्याऽव्यभिचाराभावस्य प्रदर्शितत्वात् / स्वसाध्याऽव्यभिचारिता ही परिसमाप्त नहीं हो सकेगी अत. दोनों निश्चय दुष्कर ही है / इससे तो यही फलित होगा कि-(१) तज्ज्ञानादिअन्वय-व्यतिरेक के अनुविधानरूपव्यापक को अनुपलब्धि यह हेतु अंकूरादि पक्ष में वृत्ति होने से, तथा, (2) जहाँ तज्ज्ञानादिअन्वय अननुविधान होता है वहाँ बुद्धिमत्कारणाजन्यत्व होता है और जहाँ बुद्धिमत्कारणाजन्यत्व नहीं होता वहाँ तज्ज्ञानादि० नहीं होता इस प्रकार अन्वय-व्यतिरेकस्वरूप स्वसाध्याऽविनाभावित्व भी इस अनुमान में विद्यमान होने से, अनुपलब्धि हेतुक बुद्धिमत्कारणाभाव का अनुमान भी अनुमानाभासरूप नहीं है-जैसे प्रत्यक्ष स्वग्राह्याऽव्यभिचारी होने पर तदाभासरूप नहीं होता है। [बुद्धिमत्कारणानुमान में विपक्ष में बाधक का अभाव ] यदि ऐसा कहें-“पार्थिवत्वहेतुक अनुमानस्थल में यदि कोई विपरीत शंका करें कि पार्थिवत्व के होने पर भी लोहलेख्यत्व न माना जाय तो क्या बिगड़ा ? तो इस शंका का बाधक प्रमाण कोई न होने से, वज्र में लोहलेख्यत्व के साथ पार्थिवत्व की अन्तर्व्याप्ति नहीं है, अत एव यहाँ व्याप्तिशून्य अनुमान तदाभासरूप माना जाता है।"-तो इसी प्रकार हम भी यह कह सकते हैं कि कार्यत्वहेतुक अनुमान में भी यदि विपरीत शंका करें कि कार्यत्व के होने पर भी बुद्धिमत्कारण न माना जाय तो क्या बिगडा ? इस में भी कोई बाधक प्रमाण न होने से कर्ता के साथ कार्यत्व की व्याप्ति सिद्ध न होगी, फलतः कर्तृत्व का अनुमान ही तदाभासरूप होगा, इसलिये उससे व्यापकानुपलब्धि के विषय का बाध नहीं होगा। यदि यह कहा जाय कि-'प्रत्यक्ष बलवत होने से अनुमान उसका नहीं हो सकता. अतः लोहलेख्यता का अनुमान लोह-अलेख्यत्व के ग्राहक प्रत्यक्ष का बाधक नहीं हो सकता'-तो उत्तर किजीये कि देशान्तरप्राप्तिरूप लिंग से उत्पन्न गति-अनुमान को चन्द्र और सूर्य के स्थैर्यग्राही प्रत्यक्ष का बाधक क्यों माना जाता है ? यदि कहें यह प्रत्यक्ष प्रत्यक्षाभासात्मक होने से अनुमान उस का बाध कर सकता है। तो वह प्रत्यक्षाभासात्मक है यह कैसे सिद्ध हुआ यह कहो ! यदि अनुमान से उसका विषय बाधित होने से प्रत्यक्ष को आभास रूप कहेंगे तो पूर्वोक्त इतरेतराश्रय दोष हठेगा नहीं। अनुमान से विषय बाधित होने के कारण प्रत्यक्ष आभासरूप सिद्ध होगा, और वह आभासरूप सिद्ध होने पर अनुमान से उसका विषय बाधित होगा-इस रीति से प्रगट ही अन्योन्याश्रय दोष लगता है। __ [विषय का अविसंवाद प्रामाण्य का मूल ] सारांश, अपने विषय का अविसंवाद ही सर्व प्रतीतियों के प्रामाण्य का मूल है / अंकुरादिस्थल में कर्तृत्वाभाव सिद्धि के लिये जो व्यापकानुपलब्धि हमने दिखायी है उसमें, अंकुरादि पक्ष में बुद्धिमत् ज्ञानादि के अनुसरण का अभावरूप धर्म विद्यमान होने से, तथा जहाँ ज्ञानादि के अनुसरण का अभाव Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1.... . न च व्यापकानुपलब्धावपि पक्षधर्मत्वाऽन्वय-व्यतिरेकनिश्चयस्य स्वसाध्याऽव्यभिचारित्वनिश्चयलक्षणस्याभाव इति वक्त यक्तम, यतो व्यापकानपलब्धेस्तावत पक्षव्यापकत्वनिश्चयःप्रागेवोक्तः। विपक्ष बाधकप्रमाणसद्भावाद् अन्वयव्यतिरेकावपि तत्राऽवगम्येते, तत्कारणेषु हि कुम्भादिषु तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानस्योपलब्धिस्तदनुपलब्धेबर्बाधकं प्रमाणम् / अथवा तत्कारणत्वं तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानेन व्याप्तम् , तदभावे तत्कारणत्वाऽसम्भवात , तदभावेऽपि भवतस्तत्कारणत्वे सर्व सर्वस्य कार्य कारणं च स्यात् , न क्वचित कार्यकारणभावव्यवस्था। अन्वय-व्यतिरेकानुविधानं हि कार्य-कारणभावव्यवस्थानिबन्धनम् , तदभावेऽपि कार्यकारणभावं कल्पयतः किमन्यत्तद्व्यवस्थानिबन्धनं स्याद् इति ? अतोऽतिव्याप्तिपरिहारेण क्वचिदेव कार्य कारणभावव्यवस्थामिच्छता तदभावे कार्य-कारणभावो नाऽभ्युपगन्तव्य इत्यन्वय-व्यतिरेकानुविधानेन कार्यकारणभावो व्याप्तः, स यत्रोपलभ्यते तत्रान्वय-व्यतिरेकानुविधानसंनिधापनेन तदभावं बाधत इत्यनुमानसिद्धो व्यतिरेकः, तत्सिद्धेश्चान्वयोऽपि सिद्धः / रूप धर्म विद्यमान हो वहाँ बुद्धिमत्कारणत्व का अभाव होता है, इत्यादि अन्वय-व्यतिरेक भी पूर्वोक्त रीति से सिद्ध होने से प्रमाणनिश्चित पक्षधर्माऽन्वय-व्यतिरेकरूप स्वसाध्य का अविसंवाद व्यापकानुपलब्धि प्रमाण में प्रसिद्ध है, जब कि कार्यत्व हेतु में वैसा नहीं है, अतः व्यापकानुपलब्धि अपने साध्य की सिद्धि में ठोस प्रमाण है किंतु बुद्धिमत्कारण का अनुमान ठोस प्रमाणरूप नहीं है, क्योंकि यहाँ अपने साध्य के साथ अविसंवाद का कार्यत्वहेतु में अभाव है यह पहले दिखाया है। [द्र०प० 437-4] [ व्यापकानुपलब्धि में पक्षधर्मत्वादि का अभाव नहीं ] यह कहना उचित नहीं है कि जिस व्यापकानुपलब्धि प्रमाण से आप अंकूरादि में कर्ता का बाध सिद्ध करते हैं वह व्यापकानुपलब्धि पक्षधर्मत्व के निश्चय से और अन्वय-व्यतिरेकनिश्वय से शून्य है, अत एव स्वसाध्याऽव्यभिचारिता के निश्चय से भी शून्य होने से उसमें प्रामाण्य भी नहीं है, अतः उससे अंकूरादि में कर्ता का बाध नहीं हो सकता-यह इसलिये उचित नहीं है कि-यहाँ व्यापकानुपलब्धि में पक्षव्यापकता का यानी पक्षधर्मता का निश्वय तो पहले दिखा चुके हैं | पृ०४८६ / / तथा अन्वय-व्यतिरेक का निश्चय भी विपक्ष में बाधक प्रमाण से सिद्ध होता है. विपक्ष में बाधक प्रमाण इस प्रकार है-बुद्धिमत्कारणजन्य कुम्भादि विपक्ष हैं, उनमें ज्ञानादि के अन्वयव्यतिरेक के अनुविधान की अनुपलब्धि नहीं किन्तु उपलब्धि ही है / अतः अनुपलब्धिरूप हेतु विपक्ष में अवृत्ति ही है / [ व्यापकानुपलब्धि हेतु में साध्य के अन्वयादि की सिद्धि ] अथवा अन्वय-व्यतिरेकानुविधानानुपलब्धिरूप हेतु में अपने साध्यभूत तत्कारणत्वाभाव के अन्वय-व्यतिरेक इस प्रकार सिद्ध किये जा सकते हैं-जिस में (घटादि में) यत्कारणता (=यज्जन्यता) होती है उसमें तत् (कुम्हार) के अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान होता है यह नियम है / अतः तदन्वय व्यतिरेकानूविधान रूप व्यापक के न होने पर तत्कारणता रूप व्याप्य का भी सम्भव नहीं है। यदि आपको तदन्वय-व्यतिरेकानुविधान के अभाव में भी तत्कारणता मान्य होगी तब तो प्रत्येक वस्तु अन्य सकल वस्तु का कारण और कार्य बन जायेगी क्योंकि अब कार्य-कारणभाव के ऊपर अन्वय-व्यतिरेक का नियन्त्रण नहीं है / फलतः मर्यादित (नियत) कार्य-कारणभावव्यवस्था तूट जायेगी। कार्यकारणभाव की नियत व्यवस्था करने वाला तो अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण ही है, उसके विना कार्यकारणभाव की कल्पना कर लेने पर अन्य किस के आधार पर व्यवस्था होगी ? यदि सभी में सभी की Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकतत्वे उत्तरपक्ष: 467 तथाहि-य एव सर्वत्र साध्याभावे साधनाभावलक्षणो व्यतिरेकः स एव साधनसद्भावेऽवश्यतया साध्यसद्भावस्वरूपोऽन्वयः, इति व्यापकानुपलब्धेः पक्षधर्मत्वान्वयव्यतिरेक लक्षणः साध्याऽव्यभिचारः प्रमाणतः सिद्धः / न चैवं कार्यत्वादेरयमविनाभावः सम्भवति, पक्षव्यापकत्वे सत्य (प्य)न्वय-व्यतिरेकयोरभावस्य विपर्यये बाधकप्रमाणाभावतः प्रतिपादितत्वात् / ____ अपि च, बुद्धिमत्कारणत्वे तन्वादीनां साध्ये तद्विपर्ययोऽबुद्धिमत्कारणाः परमाण्वादयः, न च तेभ्यो बुद्धिमत्कारणसाध्यव्यावृत्तिनिमित्तकार्यत्वादिनिवृत्ति प्रतिपादकप्रमाणप्रवृत्तिः सिद्धा, घटादेरवयवित्वनिराकरणेन विशिष्टावस्थाप्राप्तपरमाणुरूपत्वात् / न च तेभ्यो बुद्धिमत्कारणव्यावृत्ति. कृता कार्यत्वव्यावत्तिः प्रत्यक्षतः सिद्धा, बद्धिमत्कारणनिमित्तकार्यत्वग्राहकत्वेन प्रत्यक्षस्य प्रत्यक्षानपलम्भशब्दवाच्यस्य तत्र प्रवृत्तेः, परमाण्वन्तराऽसंसृष्ट-परमाणूनां च प्रत्यक्षबुद्धावप्रतिभासनाद् न ततः साध्यव्यावृत्तिप्रयुक्तसाधनव्यावृत्तिप्रतिपत्तिः / नाप्यबुद्धिमत्कारणेषु कार्यत्वादेरदर्शनात् साकल्येन ततो व्यतिरेकसिद्धिः स्वसम्बन्धिनोऽदर्शनस्य परचेतोवृत्तिविशेषैरनेकान्तिकत्वात् सर्वसम्बन्धिनोऽसिद्धत्वात् ; न ततो विपक्षाद्धेतोाप्त्या व्यतिरेकसिद्धिः / कारणता प्रसक्ति के अनिष्ट के निवारणार्थ मर्यादाबद्ध ही कार्यकारणभाव को आप चाहते हैं तब अन्वय-व्यतिरेक के अभाव में कारणकार्यभाव को नहीं मानना चाहिये / इस प्रकार कार्यकारणभाव में अन्वयव्यतिरेकानुविधान की व्याप्ति सिद्ध हुयी, अतः जहाँ कुम्भादि में कार्यकारणभाव उपलब्ध हो वहाँ कर्ता के ज्ञानादि के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान सिद्ध हो जाने से उसका अभाव बाधित हो जायेगा। अर्थात् विपक्ष (कुम्भादि) में अन्वय-व्यतिरेकानुविधान की अनुपलब्धिरूप हेतु का व्यतिरेक सिद्ध हो गया / व्यतिरेक सिद्ध होने पर अन्वय तो अनायास ही सिद्ध हो जायेगा / जैसे देखिये- सभी जगह जहाँ साध्य (व्यापक) नहीं होता वहाँ साधन (व्याप्य) नहीं होता इस प्रकार का जो व्यतिरेक है-वही 'साधन के होने पर साध्य नियमत: होता है' इन दूसरे शब्दों में अन्वयात्मक कहा जाता है। इस प्रकार व्या रकानुपलब्धि हेतु में पक्षधर्मता और अन्वय-व्यतिरेक दोनों सिद्ध है अतः तद्रूप साध्याऽव्यभिचार भो प्रमाण से सिद्ध होता है। कार्यत्वादि हेतु में इस प्रकार अपने साध्य का अव्यभिचार सम्भवित नहीं है। कारण, पक्षधर्मता होने पर भी, साध्य (बुद्धिमत्कारणत्व) न होने पर भी हेतु (कार्यत्व) का रह जाना- इस प्रकार के विपर्यय की सम्भावना में कोई भी बाधक प्रमाण न होने से, कार्यत्व हेतु में अपने साध्य के साथ अन्वय-व्यतिरेक का सद्भाव नहीं है-यह पहले कहा गया है। [ परमाणु आदि से कार्यत्व की निवृत्ति असिद्ध ] यह भी विचार कीजिये-जब आपको देहादि में बुद्धिमत्कारणता सिद्ध करना है तो आप के मत से उसका विपर्यय अर्थात् विपक्ष होगा परमाणु आदि / परमाणु आदि में बुद्धिमत्कारणात्मकसाध्याभावमूलक कार्यत्वादि हेतु के अभाव' को सिद्ध करने के लिये किसी प्रमाण की प्रवृत्ति होनी चाहिये किन्तु वही असिद्ध है / कारण, हमने पहले अवयवी का खण्डन कर दिया है अत: घटादि पदार्थ 'विशिष्टावस्था को प्राप्त परमाणु समूह' रूप ही हुआ और उस में तो कार्यत्व सिद्ध ही है / आशय यह है कि घटादिअवस्थावाले परमाणुओं में बुद्धिभत्कारणाभावमूलक कार्यत्वाभाव प्रत्यक्ष से तो सिद्ध * नहीं है, अपि तु प्रत्यक्ष-अनुपलभ्भ (अन्वय-व्यतिरेक) शब्दवाच्य प्रत्यक्ष की तो बुद्धिा कारणमूलक Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 ... सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 - नापि परमाण्वादीनामनुमानान्नित्यत्वसिद्धरकार्यत्वस्य कार्यत्वविरुद्धस्य तेषु सद्भावात् ततो व्यावर्त्तमानः कार्यत्वलक्षणो हेतुबं द्धिमत्कारणत्वेनाऽन्वितः सिध्यति, कार्यत्वस्याऽबुद्धिमत्कारणत्वेन विरोधाऽसिद्धरंकुरादिष्वबुद्धिमत्कारणनिष्पाद्येष्वपि तस्य सम्भवात् / अथ नित्येभ्योऽकृतत्वादेव कार्यत्वं व्यावृत्तम् , उत्पत्तिमतां चांकुरादीनां बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन पक्षीकृतत्वान्न तहतोय॑भिचार आशंकनीय इति तेषु वर्तमानः कार्यत्वलक्षणो हेतुर्बुद्धिमत्कारणत्वेनाऽन्वितः सिद्धः, स्यादेतत-यदि पक्षीकरणमात्रेणैवाऽबुद्धिमत्कारणत्वाभावस्तेषु सिद्धः स्यात् , तथाऽभ्युपगमे वा पक्षीकरणादेव साध्यसिद्धे. हेतूपादानं व्यर्थम् / कार्यत्व के ग्राहकरूप प्रवृत्ति ही यहां प्रसिद्ध है। यदि विशिष्ट दशावाले परमाणु को छोडकर अन्य परमाणु से असंसृष्ट मुक्त परमाणु का विचार किया जाय तो ऐसे परमाणु प्रत्यक्ष में भासित नहीं होते हैं अत: उनमें बुद्धिमत्कारणाभावमूलक कार्यत्वाभाव का ग्रहण शक्य ही नहीं है। कोई कोई बुद्धिमत्कारणशून्य पदार्थों में कार्यत्वादि के न देखने मात्र से सकल बुद्धिमत्कारणशून्य पदार्थों में कार्यत्वादि का अभाव सिद्ध नहीं हो जाता / कारण, अन्यव्यक्तिसम्बन्धी चित्तवृत्ति यानी ज्ञान में स्वसम्बन्धी अदर्शन अनैकान्तिक है / तात्पर्य, बुद्धिमत्कारणशून्य वस्तु में कार्यत्व का स्वसम्बन्धी अदर्शन होने पर भो दूसरे लोगों को उसमें कार्यत्व का दर्शन हो सकता है / तथा, सभी लोगों को वहां कार्यत्व का दर्शन नहीं होता-ऐसी बात अल्पज्ञ नहीं कर सकता, अर्थात् सर्वसम्बन्धी अदर्शन असिद्ध है, अतः कहीं कहीं कार्यत्व के अदर्शन मात्र से विपक्षभूत परमाणु आदि में व्यापक रूप से कार्यत्वहेतु के व्यतिरेक की सिद्धि अशक्य है। [नित्य होने मात्र से कार्यत्व की निवृत्ति अशक्य ] __ यदि यह कहा जाय-परमाणु आदि में धर्मीसाधक अनुमान से ही नित्यत्व सिद्ध है। नित्यत्व से उनमें अकार्यत्व सिद्ध होगा और वह कार्यत्व से विरुद्ध है। अतः परमाणु में नित्यत्व के होने से कार्यत्वरूप हेतु उसमें नहीं रह सकेगा, इस प्रकार विपक्ष से कार्यत्वहेतु की व्यावृत्ति सिद्ध होने पर बुद्धिमत्कारणजन्यत्व के साथ उसकी अन्वयव्याप्ति सिद्ध हो जायेगी। तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि कार्यत्व को अकार्यत्व के साथ विरोध होने के कारण खरविषाणादि में से उसको निवृत्ति मान लेने पर भी, अबुद्धिमत्कारणत्व के साथ कार्यत्व का विरोध सिद्ध न होने से अबुद्धिमत्कारणजन्य ऐसे नित्य परमाणु आदि में तो वह है ही, और अंकुरादि में बुद्धिमत्कारणजन्यत्व न होने पर भी वह हो सकता है / यदि ऐसा कहें-नित्य पदार्थ तो अजन्य होने से ही कार्यत्व की वहाँ से व्यावृत्ति सिद्ध हो जाती है, और अनित्य अर्थात् उत्पन्न होने वाले अंकुरादि का हमने पक्ष मे अन्तर्भाव कर लिया है क्योंकि उसमें बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व सिद्ध करने का हमारा उद्देश्य है। अतः अंकुरादि में कार्यत्व हेतु का अबुद्धिमत्कारणत्व के साथ सहभाव दिखा कर व्यभिचार की शंका करना ठीक नहीं है। इसलिये अंकुरादि में वर्तमान कार्यत्वरूप हेतु में बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व के साथ अवयव्याप्ति सिद्ध हो जाती है ।-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा तब कह सकते थे यदि अंकुरादि का पक्ष में अन्तर्भाव कर देने मात्र से वहां अबुद्धिमत्कारणत्वाभाव सिद्ध हो जाता / यदि अंकुरादि को पक्ष कर देने मात्र से ही अबुद्धिमत्कारणत्वाभाव सिद्ध हो जाता तब तो फलित ऐसा होगा कि किसी भी वस्तु को पक्ष कर देने मात्र से ही वहाँ साध्याभाव की निवृत्ति अथवा साध्य की सिद्धि हो जाती है। अतः हेतु का प्रयोग निरर्थक हो जायेगा। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 499 अथ तत्सहिताव साध्यनिर्देशात् तदभावसिद्धिः, कथं साकल्येनाऽनिश्चितव्यतिरेकात कार्यत्वानित्यव्यतिरिक्तानां सर्वेषामंकुरादीनामबुद्धिमत्कारणत्वाभावसिद्धिः ? तदभावाऽसिद्धौ च न साकल्येन व्यतिरेकनिश्चय इति इतरेतराश्रयदोषः कथं न स्यात् ? तदेवं व्याप्त्या व्यतिरेकाऽसिद्धौ न साकल्येना. न्वयसिद्धिः, तदसिद्धौ च न व्यतिरेकसिद्धिरिति न कार्यत्वादेर्हेतोः प्रकृतसाध्यसाधकत्वम् / ____ न च सर्वानुमानेष्वेष दोषः समानः अन्यत्र विपर्यये बाधकप्रमाणबलाद-वय-व्यतिरेकसिद्धेः / न च प्रकृते हेतौ तदस्तीत्यसकृदावेदितम् / तेन 'साध्याभावे हेतोरभाव: स्वसाध्यव्याप्तत्वादेव सिद्धः' इति निरस्तम् , यथोक्तप्रकारेण स्वसाध्यव्याप्तत्वस्य प्रकृतहेतोरसंभवात् / 'नापि धर्म्यसिद्धता' इत्येतदपि निरस्तम्-धर्म्यसिद्धत्वस्य प्राक् प्रतिपादितत्वात् / कार्यकारणसंघात' इत्यादिकस्तु ग्रन्थोऽयुक्तत्वेन प्रतिपादितः / अत एवेश्वरावगमे प्रमाणाभावः, तत्प्रतिपादकप्रमाणस्य समानदोषत्वेनान्यस्याऽप्यचेतनोपादानत्वादेनिसकृतत्वात् / [विपक्ष में हेतु के अभाव की सिद्धि में अन्योन्याश्रय ] यदि कहें केवल पक्ष में अन्तर्भाच मात्र से साध्याभाव की निवृत्ति सिद्ध नहीं होगी किन्तु हेतुप्रयोग के साथ जिसका पक्षरूप से निर्देश करेंगे, उसमें साध्याभाव की निवृत्ति अथवा साध्य की सिद्धि अवश्य होगी - तो यहाँ प्रश्न है कि जब अबुद्धिमत्कारणजन्य सभी पदार्थ से कार्यत्व की निवृत्ति सिद्ध नहीं है सिर्फ नित्य अबुद्धिमत्कारणक पदार्थ से ही कार्यत्व की निवृत्ति सिद्ध है तो नित्यभिन्न अंकुरादि सकल पदार्थों से अबुद्धिमत्कारणकत्व की निवृत्ति किस तरह सिद्ध होगी ? जब तक यही असिद्ध है तब तक सकल विपक्ष से हेतु की व्यावृत्ति भी कैसे सिद्ध होगी ? अर्थात् यहाँ इतरेतराश्रय दोष क्यों नहीं होगा ? इतरेतराश्रय इस प्रकार होगा-सर्व विपक्ष में से हेतु की निवृत्ति सिद्ध होने पर ही अंकुरादि में कार्यत्व हेतु से अबुद्धिमत्कारणत्वाभाव सिद्ध होगा, और उसके सिद्ध होने पर अंकुरादि विपक्ष न रहने से अन्य सकल विपक्ष में से हेतु की निवृत्ति सिद्ध होगी, फलतः दोनों में से एक भी सिद्ध नहीं होगा / इस प्रकार सकल विपक्ष से हेतु (कार्यत्व) का व्यतिरेक ही जब सिद्ध नहीं ..है तब सर्वत्र बुद्धिमत्कारणत्व के साथ उसकी अन्वयव्याप्ति भी कैसे सिद्ध होगी? अन्वय असिद्ध होने पर उसके बल से भी व्यतिरेक की सिद्धि नहीं होगी। अत: कार्यत्व हेतु से बुद्धिमत्कारणत्व रूप साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती। [प्रसिद्ध अनुमानों में विपक्ष में बाधक का सद्भाव ] 'यह दोष सभी अनुमान में प्रसक्त हो सकता है'-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि विपक्ष में धूमादि हेतु के रह जाने में बाधक प्रमाण के बल से धूमादि हेतु में अग्नि के अन्वय-व्यतिरेक की सिद्धि निर्बाध होती है। आपके कार्यत्व रूप हेतु में विपक्षबाधक प्रमाण न होने से अन्वय-व्यतिरेक का अभाव कितनी बार दिखा चुके हैं। इससे यह कथन भी-हेतु अपने साध्य के साथ व्याप्तिवाला होने से ही, 'साध्य न होने पर हेतु का न होना' इस प्रकार का व्यतिरेक सिद्ध हो जाता है-यह कथन [ पृ० 394.-10 ] भी परास्त हो जाता है पूर्वोक्त रीति से प्रकृत हेतु में अपने साध्य की व्याप्ति ही सम्भव नहीं है / अत एव “धर्मी भी असिद्ध नहीं है" ऐसा जो आपने कहा है [ पृ० 364-10 वह भी परास्त हो जाता है, क्योंकि धर्मी भी असिद्ध है यह पहले कह दिया है। [ प० ४१'इसलिये पृथ्वी आदि कार्य-कारण समूह प्रमाणसिद्ध है' यह कथन भी अयुक्त फलित हुआ / तात्पर्य, Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यच्चोक्त 'नाऽपि हेतोविशेषविरुद्धता'....इत्यादि, तदप्यसंगतम् , यतो यदि कार्यमात्रात कारणमात्रं तन्वादेः साध्यते तदा व्याप्तिसिद्धेर्न विरुद्धावकाशः / अथ बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वं साध्यते, तदा तत्र व्याप्तेरसिद्धत्वं प्रतिपादितमेव / यदि पुनर्घटादौ कार्य वं बुद्धिमत्कारणसहचरितमुपलब्धमिति पृथिव्यादावपि तत् साध्यते, तथा सति दृष्टान्तेऽनीश्वराऽसर्वज्ञ-कृत्रिमज्ञानशरीरसम्बन्धिकर्तृ पूर्वकत्वं कार्यत्वस्योपलब्धमिति ततस्तादृग्भूतमेव क्षित्यादौ सिद्धिमासादयति, न तु तत्सहचरितत्वेनाऽदृष्टमीश्वरत्वादिविरुद्धधर्मकलापोपेतबुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वम् / न हि महानसप्रदेशेऽग्निसहचरितमुपलब्धं धममात्रं गिरिशिखरादावपलभ्यमानमग्निविरुद्धधर्माध्यासितोदकगमकं युक्तम् , अतिप्रसंगात् / यच्चोक्तम्-पूर्वोक्तविशेषणानां धर्मिविशेषरूपाणां व्यभिचारात-इत्यादि,तदप्यसंगतम् , यादृग्भूतं हि कार्यत्वं घटादावनीश्वर (स्वादिधर्मोपेतबद्धिमत्कारणत्वेन व्याप्तमपलब्धं ताहाभतं तदा तदन्यत्राऽपि जीर्णप्रासादादावुपलभ्यमानमक्रियादशिनोऽपि तथाभूतकर्तृ पूर्वकत्वप्रतिपत्ति जनयति / न च तत्र केनचिदनीश्वरत्वादिधर्मेण व्यभिचार: कदाचित केनाऽप्युपलभ्यते / तथाभूतसाध्यव्याप्तहेतूपलम्भ एव तत्र. तदव्यभिचारः, स चेदस्ति कथमनीश्वरत्वादिधर्माणां व्यभिचारादसाध्यत्वं सचेतसा वक्तु युक्तम् , अन्यथा धूमादग्निप्रतिपत्तावपि भास्वररूपसम्बन्धादिधर्माणां व्यभिचारात तथाभूतस्याग्नेर साध्यत्वं स्यात् / ईश्वर की सिद्धि में कोई प्रमाण नहीं है, तथा अचेतनोपादानत्वादिहेतुवाला ईश्वरसाधक अनुमान भी धर्मी-असिद्धि आदि समानदोषों से परास्त हो जाता है / [हेतु में विशेषविरुद्धता का प्रबल समर्थन ] यह जो कहा था-कार्यत्व हेतु में विशेषविरुद्धता यह कोई दोष नहीं....इत्यादि [ पृ. 365 ] -वह भी संगत नहीं है / कारण, यदि देहादि में कार्यत्व हेतु से सिर्फ सकारणत्व ही सिद्ध करना हो तब तो ठीक है कि यहां विशेषविरुद्ध को अवकाश नहीं है, क्योंकि सकारणत्व के साथ कार्यत्व की प्राप्ति असिद्ध है / यदि बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व सिद्ध करना हो तब तो व्याप्ति ही असिद्ध है यह कहा हुआ है / तथा, घटादि में बुद्धिमत्कारण के साथ कार्यत्व का सहचार दृष्ट है इतने मात्र से यदि पृथ्वी आदि में भी उसको सिद्ध करना है, तो घटादि दृष्टान्त में अनीश्वरत्व, असर्वशत्व, अनित्यज्ञान, शरीरसम्बन्ध इत्यादि सहित ही कर्तृ पूर्वकत्व कार्यत्व में उपलब्ध है अतः पृथ्वी आदि में भी अनीश्वरत्वादिधर्मविशिष्ट बुद्धिमत्पूर्वकत्व ही सिद्ध किया जा सकता है किन्तु कार्यत्व के सहचरितरूप में अदृष्ट ऐसा ईश्वरत्वादि जो विरुद्ध धर्मसमूह, उससे युक्त बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व की सिद्धि नहीं की जा सकती / पाकशाला में अग्नि से सहचरित देखा गया धूममात्र पर्वतादि में यदि उपलब्ध हो तो उससे अग्निविरुद्ध शीतत्वादिधर्मविशिष्ट जलादि का बोध (अनुमान) नहीं हो सकता, अन्यथा सभी से सभी के बोध का अतिप्रसंग होने लगेगा। [ अनीश्वरत्वादि के साथ कार्यत्व का व्यभिचार नहीं ] यह जो कहा था-मिविशेषरूप पूर्वोक्तविशेषणों के साथ कार्यत्व का व्यभिचार होने से.... इत्यादि (पृ. 395 पं. 6 )-वह भी असंगत है / कारण, अनीश्वरत्वादिधर्मविशिष्ट बुद्धिमत्कारणत्व के साथ जिस प्रकार के कार्यत्व की व्याप्ति है, वैसा ही कार्यत्व जब जीर्ण-शीर्ण राजभवनादि में देखा जाता है, तब उसकी उत्पत्ति न देखने वाले को भी अनीश्वरत्वादिधर्मवाले कर्ता की ही प्रतीति Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-इश्वर० उ०पक्ष: 501 एतेन 'पूर्वस्माद्धेतोः स्वसाध्यसिद्धावुत्तरेण पूर्वसिद्धस्यैव साध्यस्य किं विशेषः साध्यते, आहोस्वित् पूर्वहेतोः स्वसाध्यसिद्धिप्रतिबन्धः क्रियते ?' इत्यादि सर्व निरस्तम् , यतो यदि कार्यत्वमात्रं हेतुत्वेन क्षित्यादौ साध्यसाधकत्वेनोपादीयते तदा तस्य संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेन बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वाऽसाधकत्वम् / अथ घटादौ बुद्धिमत्कारणत्वेन व्याप्तं यत कार्यत्वं तत् तत्र हेतुत्वेनोपादीयते तत् तत्रासिद्धमिति कथं तत् तत्र बुद्धिमत्कारणत्वस्यापि गमकम् ? इत्य विशिष्टस्य कार्यत्वस्य व्याप्त्यभावादेवापर विशेषसाधकहेतुव्यापारमन्तरेणाऽपि कार्यत्वस्य हेतोः स्वसाध्यसाधकत्वव्याघातः संभवत्येव, कार्यत्वविशेषस्य तु तत्राऽसिद्धत्वादेव साध्याऽसिद्धिलक्षणस्तद्विघातः। यत्तु-शब्दस्य कृतकत्वादनित्यत्वसिद्धौ हेत्वन्तरेण गुणत्वसिद्धावपि न पूर्वस्य क्षतिः' इतितदप्यचारु, गुणत्वं हि द्रव्याश्रितत्वादिधर्मयुक्तत्वमुच्यते, तच्चेच्छन्दे सिद्धिमासादयति तदा पूर्वहेतुसाधितमनित्यत्वं तत्र व्याहन्यत एव न a ह्यनुत्पन्नस्य तस्याऽसत्त्वादेव द्रव्याश्रितत्वम् गुणत्वसमवायो वा संभवति, b उत्पन्नस्याप्यत्पत्त्यनन्तरध्वंसित्वेन तन्न संभवति / न च तदाश्रितस्य उत्पत्त (अनुमिति) उत्पन्न होती है / ऐसे स्थलों में कहीं भी किसी भी व्यक्ति को अनीश्वरत्वादि किसी भी व्यभिचार कार्यत्व में उपलब्ध नहीं हुआ। अनीश्वरत्वादिधर्म से व्याप्त हेतु का उपलम्भ यही तो यहाँ अव्यभिचार है और जब वह यहाँ अबाधितरूप से बैठा है तब कोई भी बुद्धिमान यदि यह कहेगा कि-अनीश्वरत्वादि धर्मों के साथ कार्यत्व का व्यभिचार होने से वे धर्म सिद्ध नहीं हो सकते-तो यह उचित नहीं होगा। इस तथ्य को यदि नहीं मानेंगे तो भास्वर रूपादि धर्मों के साथ भी धूम का व्यभिचार मान लिया जायेगा, फिर धूम हेतु से अग्नि का बोध होने पर भी भास्वररूपवाले अग्नि की सिद्धि नहीं होगी। [कार्यत्व हेतु में संदिग्धविपक्षव्यावृत्ति और असिद्धि दोष ] कार्यत्व हेतु अनीश्वरत्वादिधर्मों का भी व्याप्य है इसीलिये पूर्व-पक्षी का यह सब कहा हुआ परास्त हो जाता है कि-प्रथमोक्त हेतु से जब अपना साध्य सिद्ध है तब उत्तरकाल में कथित हेतु से * पूर्वसिद्ध साध्य की ही विशेषता सिद्ध करने का अभिप्राय है या पूर्वहेतु के साध्य की सिद्धि का प्रतिबन्ध करना है ?,-[ पृ० 396 ] इत्यादि....यह सब इसलिये निरस्त है कि-यदि क्षिति आदि पक्ष में सिर्फ कार्यत्व मात्र का ही हेतुरूप में साध्यसिद्धि के लिये प्रयोग करते हैं तब वह बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व को सिद्ध नहीं कर सकेगा क्योंकि हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति ही संदिग्ध है / यदि घटादि में जैसा कार्यत्व बुद्धिमत्कारण का व्याप्त है वैसे कार्यत्व का हेतुरूप में प्रयोग करेंगे तो वैसा कार्यत्व क्षिति आदि में तो असिद्ध है फिर वहां उससे बुद्धिमत्कारणत्व की सिद्धि कैसे होगी ? सारांश, सामान्य कार्यत्व को बुद्धिमत्कारणत्व के साथ व्याप्ति न होने से सामान्य कार्यत्व हेतु से अपने साध्य की सिद्धि करने जायेंगे तो व्याघात ही होगा, फिर वहाँ अन्य विशेष के साधक हेतु का प्रयोग भले ही न किया जाय / यदि विशिष्ट प्रकार के कार्यत्व को हेतु करेंगे तो वह क्षिति आदि में असिद्ध होने से ही साध्यसिद्धि में व्याघात प्राप्त होगा / अतः किसी भी रीते से क्षिति आदि में बुद्धिमत्कारणपर्वकत्व सिद्ध नहीं होता। [गुणत्व की सिद्धि से अनित्यत्व का ध्रुव व्याघात ] यह जो कहा था-कृतकत्व हेतु से शब्द में अनित्यत्व की सिद्धि होने पर अन्य हेतु से उसमें Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तव, खरविषाणादेरपि तत्त्वप्रसंगादित्यादि आश्रयादावसिद्धत्वं हेतोः प्रतिपादयद्धिनिर्णीतमिति न पुनरुच्यते। सर्वथोत्पादककारणव्यक्तिव्यतिरिक्तस्य क्षणमात्रस्थितेर्गुणत्वं न संभवति तत्संभवे च क्षणिकत्वं व्याहन्यते इति प्रतिपादयिष्यामः / द्वितीये तु विकल्पे 'न च मिविशेषविपर्ययोद्धावनेन कस्यचिदपि रूपस्याऽभावः कथ्यते' इति यदुक्तम् , तदप्यसंगतम् , यतो यद्यन्यादृशस्य धर्मिणः कुतश्चिद्धेतोः क्षित्यादौ सिद्धिः स्यात् तदा युज्येताऽपि वक्तुम्-'मिविशेषविपर्ययोद्धाक्मेन न कस्यचिद्धेतुरूपस्याभाव' इति, तथाभूतस्य तु मिणो न प्रकृतसाधनादवगम इति प्रतिपादितम् / अत एघागमाद् हेत्वन्तराद्वा न तत्र विशेषसिद्धिः, बुद्धिमत्कारणस्यैव धर्मिण: क्षित्यादिकर्तृत्वेनाऽसिद्धत्वात् / ततः 'तच्चाऽन्वय व्यतिरेकि पूर्व केवलव्यतिरेकिसंज्ञकं तदेव चाऽन्वयव्यतिरेकिलक्षणं पक्षधर्मताप्रसादाद् विशेषसाधनम्' इति प्रतिपादनं दूरापास्तम् , धर्म्यसिद्धौ तद्विशेषसिद्धेर्दू रोत्सारितत्वात् / अत एव 'य इत्थम्भूतस्य पृथिव्यादेः कर्ता नियमेनाऽसावकृत्रिमज्ञानसम्बन्धी शरीररहितः सर्वज्ञ एक इत्येवं यदा विशेषसिद्धिस्तदा न विशेषविरुद्धानामवकाशः इति निःसारतया व्यवस्थितम् / गुणत्व की सिद्धि की जाय तो इससे कृतकत्व हेतु को कोई क्षति नहीं पहुंचती [ पृ. 396-3 ]यह बात गलत है / कारण, गुणत्व का स्वरूप है द्रव्याश्रितत्वादिधर्मवत्त्व / यदि वह शब्द में सिद्ध होगा तो कृतकत्व से साधित अनित्यत्व का व्याघात अवश्य होगा। वह इस रीति से-a अनुत्पन्न अनित्य गुण में तो उसके असत् होने के कारण ही वहाँ द्रव्याश्रितत्व या गुणत्व का समवाय होना शक्य नहीं है। b उत्पन्न पक्ष में शब्द अनित्य क्षणिक गुण रूप होने से उत्पत्ति के दूसरे क्षण में ही ध्वस्त हो जाने से गुणत्वादि का समवाय सम्भव नहीं है। यदि द्रव्याश्रितरूप से उसकी उत्पत्ति को ही द्रव्याश्रितत्व कहा जाय तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि गर्दभसींग आदि में भी द्रव्याश्रितत्व रूप से उत्पत्ति की आपत्ति होगी, क्योंकि उत्पत्ति के पूर्व अनुत्पन्न गुण और खरविषाण दोनों ही समान हैं.... इत्यादि यह बात, हेतु आश्रयादि में असिद्ध है इस बात के अचसर में निश्चित की गयी है अतः पुनरुक्ति नहीं करते हैं। तदुपरांत, उत्पादक कारण व्यक्ति से सर्वथा एकान्ते भिन्न क्षणमात्रस्थायी पदार्थ में गुणत्व ही नहीं घट सकता और गुणत्व मानने पर क्षणिकत्व का व्याघात कैसे होता है-यह बात आगे कहेंगे। [विशेषविपर्ययोद्भावन सार्थक नहीं है ] द्वितीय विकल्प में यह जो कहा था [ पृ. 396-5 ]-र्मिविशेष के विरुद्ध उद्भावन कर देने मात्र से हेत के किसी आवश्यक रूपविशेष का अभाव प्रदर्शित नहीं हो जाता यह भी असंगत है। कारण, प्रसिद्ध व्यक्ति से भिन्न प्रकार का धर्मी कर्तारूप में यदि पृथ्वी आदि में सिद्ध होता तब. तो ऐसा कहना ठीक था कि-'धमि विशेष के विरुद्ध उद्भावन से हेतु के किसी रूप का अभाव फलित नहीं हो जाता।' किन्तु हमने यह दिखा दिया है कि सर्वज्ञत्वादिविशेष वाले धर्मी के बोध में प्रकृत कार्यत्व हेतु असमर्थ है / इसीलिये अन्य किसी हेतु से या आगम से भी ईश्वर की या उसके सर्वज्ञत्वादि विशेष धर्मों की सिद्धि दूर है, क्योंकि पृथ्वी आदि के कर्तारूप में बुद्धिमत्कारणस्वरूप धर्मी ही अप्रसिद्ध होने से वे भी कार्यत्व की तरह ही असमर्थ है। अब तो वह कथन भी-अन्वयव्यतिरेकिपूर्वक केवलव्यतिरेकीसंज्ञक प्रमाण से ईश्वर की सिद्धि और उसी अन्वयव्यतिरेकी प्रमाण से पक्षधर्मता के प्रभाव से सर्वज्ञत्वादिविशेषों की सिद्धि होगी Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1 ईश्वरकर्तृत्वे उ०पक्षः 503 . यत्तूक्तम्-शरीरसम्बन्धस्य तावद् व्याप्त्यभावेन तत्र निराकृतिः शरीरान्तररहितस्याऽप्यात्मनः शरीरधारण-प्रेरणक्रियासु यथा व्यापारस्तथेश्वरस्यापि क्षित्यादिकार्ये' इति तदप्ययुक्तम् , अपरशरीररहितत्वेऽप्यात्मनः शरीरसम्बद्धस्यैव तद्धारणादिकर्तृत्वोपलब्धेरीश्वरस्यापि शरीरसम्बद्धस्यैव कार्यकर्तृत्वमभ्युपगन्तव्यमिति प्रतिपादितत्वात् / यदि च शरीरसम्बन्धाभावेऽपि तस्य क्षित्यादिकार्यक्र्तृत्वं तदा वक्तव्यम्-किं पुनस्तत् तत्र? 'ज्ञान-चिकीर्षा-प्रयत्नानां समवायः तत्तत्रोक्तमेवेति चेत् ? न, समवायस्य निषिद्धत्वात् / न च कुम्भकारादौ शरीरसम्बन्धव्यतिरेकेणान्यत् कर्तृत्वमुपलब्धमितीश्वरेऽपि तदेव परिकल्पनीयम् , दृष्टानुसारित्वात कल्पनायाः / न च शरीरव्यतिरेकेण ज्ञान-चिकीर्षाप्रयत्नानामपि सद्भावः क्वचिदुपलब्ध इति नेश्वरेऽपि तदभावेऽसावभ्युपगन्तव्यः। तथाहि-ज्ञानादीनामुत्पत्तावात्मा समवायिकारणम् , आत्म-मनःसंयोगोऽसमवायिकारणम् , शरीरादि निमित्तकारणम् , न च कारणत्रयाभावे परेण कार्योत्पत्तिरभ्यपगम्यते / न चासमवायिकारणात्म-मनः-संयोगादिसद्भाव ईश्वरेऽभ्युपगत इति न ज्ञानादेरपि तत्र भावः / - अथाऽसमवायिकारणादेरभावेऽपि तत्र ज्ञानाद्युत्पत्तिस्तहि निमित्तकारणेश्वरव्यतिरेकेरणांकुरादेः किमिति नोत्पत्तियुक्ता ? अथ ज्ञानाद्यभावे तदनधिष्ठितानां कथमचेतनानां तदुपादानादीनां प्रवृत्तिः [पृ. 397 ]-निरस्त हो जाता है, क्योंकि पूर्वोक्त रीति से जब धर्मी भी असिद्ध है तो उसके विशेषों की सिद्धि की बात ही कहां? इसीलिये यह जो आपने कहा था - इस प्रकार के पृथ्वी आदि का जो कर्ता होगा वह अवश्यमेव नित्यज्ञान का आश्रय, अशरीरी, सर्वज्ञ और एक ही होगा-इस रीति से विशेषों की सिद्धि होने पर विशेषविरुद्धानुमानों को अवकाश नहीं है [ 367-13 ]-यह भी सारहीन सिद्ध होता है। [ देहधारणादिक्रिया में देहयोग अविनाभावि है ] यह जो कहा था-ईश्वर में शरीर का योग व्याप्ति न होने से ही व्याहत हो जाता है, व्याप्ति इसलिये नहीं है कि अन्य शरीर न होने पर इस शरीर की धारण-प्रेरणादि क्रियाओं में आत्मा की प्रवृत्ति दिखती है, तो ईश्वर भी पृथ्वोआदि के उत्पादन में विना शरीर प्रवृत्त होगा [ 366-2] -यह भी अयुक्त ही है क्योंकि पहले ही हमने कह दिया है कि अन्य देह न होने पर भी सदेह आत्मा ही शरीर के धारणादि का कर्ता बनता हुआ उपलब्ध होता है अतः ईश्वर को सदेह मान कर ही कार्य का कर्ता माना जा सकता है, अन्यथा नहीं। यदि कहें कि शरीरसम्बाध के विना भी ईश्वर में पृथ्वी आदि कार्य का कर्तृत्व है- तो यहाँ प्रश्न है कि उसमें कर्तृत्व क्या है ? यदि कहें कि ज्ञानचिकीर्षा और प्रयत्न का समवाय ही ईश्वर का कर्तृत्व है- तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि समवाय का पहले खण्डन किया जा चुका है [ पृ. 123 ] कुम्हार में शरीरसंबन्ध के विना कभी भी कर्तृत्व नहीं देखा गया, अत: ईश्वर में भी शरीरसम्बन्ध से ही कर्तत्व मानना उचित है क्योंकि कल्पना दृष्ट पदार्थ के अनुसार ही की जा सकती है, उच्छृङ्खलरूप से नहीं। शरीर के विना कहीं भी ज्ञान-इच्छा और प्रयत्न का सद्भाव मानना उचित नहीं है। देखिये-ज्ञानादि की उत्पत्ति में आत्मा को समवायिकारण, आत्मा-मन के संयोग को असमवायिकारण और शरीर को निमित्तकारण आप भी मानते हैं। तीन कारणों के अभाव में आप भी कार्य की उत्पत्ति नहीं मानते हैं। फिर भी ईश्वर में आपने असमवायिकारणभूत आत्म-मन के संयोगादि का सद्भाव नहीं माना है तो ज्ञानादि भी वहाँ नहीं हो सकते यह स्पष्ट ही है। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 वास्यादिवदचेतनस्य चेतनानधिष्ठितस्य प्रवृत्त्यदर्शनात् ? प्रवृत्तावपि निरभिप्रायाणां देशकालाकारनियमो न स्यात् , तदधिष्ठितस्यैव तस्य तन्नियतत्वदर्शनात् / नन्वेवं चेतनस्यापि चेतनान्तरानधिष्ठितस्य कर्मकरादेरिव स्वाम्यनधिष्ठितस्य कथं प्रवृत्तिः ? अथ स्वामिन एवान्यानधिष्ठितस्य चेतनस्य प्रवृत्तिरुपलभ्यते, किमंकुरादेरकृष्टोत्पत्तरुपादानस्य तदनधिष्ठितस्य सा नोपलभ्यते ? अथ घटादेरुपादानस्य तदनधिष्ठितस्य तत्करणे प्रवृत्तिर्नोपलभ्यत इत्यंकुरायुपादानस्यापि तदधिष्ठितस्यैव सा प्रसाध्यते तर्हि कर्मकरादेरपि स्वाम्यनधिष्ठितस्य सा नोपलभ्यत इति स्वामिनोऽप्यपरचेतनान्तराधिष्ठितस्य सा साध्यताम् / यदि पुनः स्वामिनोऽप्यधिष्ठाता चेतनो महेशः परिकल्प्यते तहि तस्याप्यपर इत्यनवस्था। न च चेतनस्याप्यपरचेतनाधिष्ठितस्य प्रवृत्त्यभ्युपगमे 'अचेतनं चेतनाधिष्टितम्' इति प्रयोगे 'प्रचेतनम्' इति धमिविशेषणस्य 'अचेतनत्वादेः' इति हेतोश्चाव्यर्थमुपादानम् , अचेतनवच्चेतनस्यापि चेतनाधिष्ठितस्य प्रवृत्त्यभ्युपगमे व्यवच्छेद्याभावात् / न चाऽचेतनानामपि स्वहेतुसंनिधिसमासादितोत्पत्तीनां चेतनाधिष्ठातृव्यतिरेकेणाऽपि देश-कालाकारनियमोऽनुपपन्नः, तनियमस्य स्वहेतुबलायातत्वात अन्यथाऽधिष्ठातृज्ञानकृतोऽपि स न स्यात् / तज्ज्ञानस्य सर्वाऽचेतनाधिष्ठायकत्वे क्षणिकत्वे च तज्ज्ञेयत्व [अचेतनवत् चेतन में भी चेतनाधिष्ठान की आपत्ति ] यदि असमवायिकारणादि के अभाव में भी वहाँ ज्ञानादि की उत्पत्ति को उचित मानेगे तो निमित्तकारणभूत ईश्वर के विना अंकुरादि की उत्पत्ति को उचित क्यों न कही जाय ? ! यदि यह कहा जाय-ज्ञानादि के अभाव में ईश्वर से अनधिष्ठित अचेतन उपादनादिकारण क्रियान्वित कैसे होंगे? जों अचेतन होता है वह चेतन से अधिष्ठित हुए विना क्रियान्वित होते हुए नहीं दिखते हैं जैसे कुठारादि / यदि चेतनाधिष्ठान के विना भी उनमें क्रियान्वय मानेंगे तो किसी चेतन की इच्छा का नियन्त्रण न रहने से उनमें देशनियम, कालनियम और आकारनियम नहीं घटेगा / चेतनाधिष्ठित पदार्थों में ही ये नियम देखे जाते हैं। तो यहाँ प्रश्न है कि मालिक से अनधिष्टित यानी अप्रेरित कर्मचारी आदि की प्रवृत्ति जैसे नहीं होती वैसे चेतनानधिष्ठित चेतन की ( = ईश्वर की ) भी प्रवृत्ति कैसे होगी ? यदि कहें कि- जो मालिक होता है उसकी तो अन्य चेतन की प्रेरणा के विना भी प्रवृत्ति उपलब्ध होती ही है-तो फिर विना कृषि से उत्पन्न अंकुरादि के उपादान में भी चेतन की प्रेरणा विना क्रिया की उपलब्धि होने का क्यों नहीं मानते हैं ? यदि कहें-चेतन की प्रेरणा के विना घटादि के उपादान कारणों की घटादि कार्य करने की प्रवृत्ति नहीं देखी जातो, इसीलिये अंकुरादि के उपादान में भी चेतन की प्रेरणा से ही अकुरजनक प्रवत्ति सिद्ध करना चाहते हैं ।-तब तो हम भी कहेंगे कि मालिक की प्रेरणा के विना चेतन कर्मचारी की प्रवृत्ति अनुपलब्ध है इसलिये मालिक की प्रवृत्ति भी उससे भिन्न अन्य चेतन की प्रेरणा से ही होती है ऐसा भी आप को सिद्ध मानना होगा। यदि कहें कि -मालिक को प्रेरणा करने वाले अन्य महेश्वर चेतन की सिद्धि हमें इष्ट ही है तो उस ईश्वर के प्रेरक अन्य चेतन की कल्पना का कहीं अन्त ही नहीं आयेगा। [ 'अचेतन' विशेषण में नैरर्थक्य की आपत्ति ] दूसरी बात यह है कि यदि चेतन भी अन्य चेतन से अधिष्ठित होकर ही प्रवृत्त होने का मानेंगे तो आपने जो पहले [ द्र० 412-6 ] यह प्रशस्तमतिके अनुमान का प्रयोग किया था-'अचेतन Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 505 मेव तदधिष्ठितत्वम् तेषां [इति] सर्वकालभाविकार्ये तदैव प्रवृत्तिरिति एकक्षण एवोत्तरकालभाविकार्योत्पत्तिप्रसंगः, अपरक्षणेऽपि तथाभूततज्ज्ञानसद्भावे पुनरप्यनन्तरकालकार्योत्पत्तिः सदैव, इति योऽयं क्रमेणांकुरादिकार्यसद्भावः स विशीर्यत / कतिपयाऽचेतनविषयत्वे च तज्ज्ञानादेः तदविषयाणां स्वकार्ये प्रवृत्तिर्न स्यात् इति तत्कार्यशून्यः सकलः संसारः प्रसक्तः, न हि तज्ज्ञानादिविषयत्वव्यतिरेकेणा परं तेषां तदधिष्ठित वं परेणाऽभ्युपगम्यते / अथ नित्यं तज्ज्ञानादि, नन्वेवं 'क्षणिकं ज्ञानम् , अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणत्वात् शब्दवत्' इत्यत्र प्रयोगे महेशज्ञानेन हेतोयभिचारः। अथ तज्ज्ञानादिव्यतिरेके सति' इति विशेषणानायं दोषः / न विपक्षविरुद्ध विशेषणं हेतोस्ततो व्यावर्तकं भवति, अन्यथा तव्यावर्तकत्वायोगात् / न चाऽक्षणिकत्वेन तद्व्यतिरिक्तत्वं विरुद्धं, द्विविधस्यापि विरोधस्यानयोरसिद्धः। न च विपक्षाऽविरद्धविशेषणोपादानमात्रेण हेतोय॑भिचारपरिहारः, अन्यथा न कश्चिद् हेतुर्व्यभिचारी स्यात्, सर्वत्र व्यभिचारविषये 'एतद्व्यतिरिक्तत्वे सति' इति विशेषणस्योपादातु शक्यत्वात् / न च नैयायिकमतेनाऽक्षणिक ज्ञानं सम्भवति, 'अर्थवत् प्रमाणम्' [ वात्स्या० (महाभूतादि) चेतनाधिष्ठित होकर ही प्रवृत्ति करते हैं क्योंकि वे अचेतन हैं'-इस प्रयोग में अचेतन ऐसा जो धमि का विशेषण किया गया है, तथा 'अचेतनत्वादि' हेतु का प्रयोग किया गया है ये दोनों अव्यर्थ नहीं रहेंगे, अर्थात् व्यर्थ हो जायेंगे, क्योंकि अब तो आप अचेतन की तरह चेतन को भी चेतनाधिष्ठित हो कर ही प्रवृत्त होने का मानते हैं, अत: 'अचेतन' पद में नत्र पद से कोई व्यवच्छेद्य : तो रहा नहीं / विशेषण तो तभी सार्थक होता है जब उसका कोई व्यवच्छेद्य हो / यह बात भी विचारणीय ही है कि अपने हेतुओं के संनिधान से उत्पन्न होने वाले अचेतन पदार्थों में चेतन अधिष्ठाता के विना देशनियम, कालनियम और आकारनियम की उपपत्ति न हो सके ऐसा है ही नहीं, अपने हेतुओं के बल से ही वह नियम होने वाला है। यदि उन हेतुओं से वह नियम नहीं होगा तो अधिष्ठाता के ज्ञान से भी वह नियम कैसे होगा यह प्रश्न ही है। [सकल कार्यों की एक साथ पुनः पुनः उत्पत्ति का प्रसंग] तथा ज्ञान से अधिष्ठितत्व का अर्थ तो यही है कि ज्ञान की विषयता से अर्थात् ज्ञान निरूपित ज्ञेयता से आक्रान्त होना / अब यदि आप अचेतनों की प्रवृत्ति के लिए ईश्वरज्ञान को क्षणिक एवं सभी अचेतन वस्तु में अधिष्टि त मानेंगे तो उन अचेतनों की, भावि सकल कार्यों की उत्पत्ति के लिये उस क्षण में ही प्रवृत्ति हो जायेगी जिस क्षण में वे ईश्वरज्ञान से अधिष्ठित हैं, अर्थात् एक ही क्षण में उत्तरोत्तरकाल भावि सकल कार्यों की उत्पत्ति का अतिप्रसंग होगा। तथा, दूसरे क्षण में भी यदि उन अचेतनों को क्षणिक ईश्वरज्ञान से अधिष्टित होने का मानेंगे तो पुन: उत्तरक्षण में भावि सकल कार्यों की ( जो पूर्व क्षण में एकबार तो उत्पन्न हो चुके हैं उनकी फिर से ) उत्पत्ति होगी, अर्थात् प्रत्येक क्षण में सकल कार्यों की बार बार उत्पत्ति होती रहेगी / फलतः, अंकूरादि की क्रमिक उत्पत्ति होने के सत्य का विलोप होगा / यदि ईश्वरज्ञान का विषय सर्व अचेतन नहीं किन्तु कुछ ही अचे. तन पदार्थ मानेंगे तो, ईश्वरज्ञान के विषय जो नहीं होंगे उन अचेतन पदार्थों की अपने कार्यों में प्रवृत्ति हो न होने से सारा संसार उन कार्यों से विकल हो जायेगा। ईश्वरज्ञानविषयता को छोड कर किसी अन्य प्रकार के अधिष्ठितत्व को तो नैयायिक भी नहीं मानता है। यदि-ईश्वरज्ञान को नित्य मानेंगेतो ज्ञान में शब्द के दृष्टान्त से क्षणिकत्व को सिद्ध करने के लिये प्रयुक्त हेतु (अपने लोगों के ) प्रत्यक्ष Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 - सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ : भा० पृष्ठ 1 ] इति वचनात अर्थकार्य ज्ञानं तद्विषयमभ्युपगतम् , अर्थश्च क्रमभावी अतीतोऽनागतश्च / यच्च क्रमवज्ज्ञेयविषयं ज्ञानं तत् क्रमभावि, यथा देवदत्तादिज्ञानं ज्वालादिगोचरम् , क्रमवद्विज्ञेयविषयं चेश्वरज्ञानमिति स्वभावहेतुः। , “प्रसंगसाधनं चेदम् , तेनाश्रयासिद्धता हेतो शंकनीया / न च विपर्यये बाधकप्रमाणभावाद् व्याप्य-व्यापकभावाऽसिद्धर्न प्रसंगसाधनावकाशोऽत्रेति वक्तव्यम् , तस्य भावात् / तथाहि-यदि कमवता विषयेण तद ईश्वरज्ञानं स्वनिर्भासं जन्यते तदा सिद्धमेव क्रमित्वम् / अथ न जन्यते तदा प्रत्यासत्तिनिबन्धनाभावाद् न तद् जानीयात , विषयमन्तरेणापि च भवतः प्रामाण्यमभ्युपगतं हीयेत, अतीतानागते विषये निविषयत्वप्रसंगादिति विपर्ययबाधकसद्भावः सिद्धः / का विषय होते हुए वह विभुद्रव्य का विशेष गुण है-यह हेतु ईश्वर के ज्ञान में ही व्यभिचारी बन जायेगा क्योंकि वहाँ क्षणिकत्व नहीं है / - [विपक्षविरोधी विशेषण के विना व्यभिचार अनिवार्य ] . यदि यह कहा जाय-हेतु में 'ईश्वरज्ञानभिन्नत्व' विशेषण लगा देने पर वह हेतु ईश्वरज्ञान में नहीं रहेगा क्योंकि स्व में स्व का भेद नहीं रहता, अतः व्यभिचार नहीं होगा।-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति करने के लिये उसमें विशेषण ऐसा होना चाहिये जिसको विपक्ष के साथ विरोध हो, अन्यथा वह विशेषण विपक्ष से व्यावत्ति नहीं करा सकता / तो वहाँ विपक्ष है अक्षणिक वस्तु, विशेषण है ईश्वरज्ञानभिन्नत्व, अक्षणिकत्व और ईश्वरज्ञानभिन्नत्व इन में न तो सहानवस्थान रूप विरोध प्रसिद्ध है और न तो 'एक दूसरे को छोड कर रहना' ऐसा विरोध सिद्ध है / विपक्ष से अविरुद्ध विशेषण लगा देने मात्र से कभी हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति फलित नहीं हो जाती, वरना, जैसे तैसे विशेषण को लगा देने पर कोई भी हेतु व्यभिचारी नहीं रहेगा, क्योंकि जहाँ जहाँ व्यभिचार की सम्भावना होगी वहाँ वहाँ 'तद्भिन्नत्व' रूप विशेषण लगा देना सरल है। उपरांत, नैयायिक मत में, ज्ञान में अक्षणिकता का सम्भव ही नहीं है क्योंकि वात्स्यायनभाष्य के 'अर्थवत् प्रमाणम्' इस वचन से तो ज्ञान जिस अर्थ का कार्य हो वही उसका विषय होता है-ऐसा माना गया है। अर्थ तो सभी समानकालीन नहीं होते किन्तु क्रमिक होते हैं, अत एव कुछ अतीत होते हैं, कुछ अनागत (भावि) होते हैं / क्रमिक ज्ञेय अर्थ को विषय करने वाला ज्ञान भी वात्स्यायन वचनानुसार क्रमिक ही हो सकता है, उदा० ज्वालादि वस्तु को विषय करने वाला देवदत्तादि का ज्ञान क्रमिक ही होता है। ईश्वरज्ञान का भी यही स्वभाव है क्रमिक अर्थ को विषय करना, अतः इस स्वभावात्मक हेतु से उसमें भी क्रमवत्ता यानी क्षणिकता ही सिद्ध होगी। [प्रसंगसाधन में आश्रयासिद्धि दोष नहीं होता ] उपरोक्त हेतु में आश्रयासिद्धि की शंका करना व्यर्थ है क्योंकि हमें स्वतन्त्ररूप से ईश्वरज्ञान में क्षणिकता की सिद्धि अभिप्रेत नहीं है किन्तु पर को मान्य ईश्वरज्ञान में क्षणिकत्वरूप अनिष्ट का आपादन यानी प्रसंगसाधन ही करना है / यदि कहें कि-'ईश्वरज्ञान में क्रमिकज्ञेयविषयता मानने पर भी क्षणिकता के बदले अक्षणिकता को ही मानें तो उसमें कोई बाधकप्रमाण न होने से, क्षणिकत्व और क्रमिकज्ञेयविषयता में व्याप्य-व्यापक भाव ही असिद्ध होने से, उक्त प्रसंगसाधन निरवकाश है'-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि विपर्यय की शंका में बाधक प्रमाण विद्यमान है / वह इस प्रकार:-यदि क्रमिक Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 507 तज्ज्ञानादेश्च नित्यत्वे तद्विषयत्वमन्तरेणापरस्य चेतनाधिष्ठितत्वस्याभावाद विकलकारणस्य जगतो युगपदुत्पत्तिप्रसंगः / तथाहि-यद् अविकलकारणं तद् भवत्येव, यथाऽन्त्यावस्थाप्राप्तायाः सामग्र्याः अविकलकारणो भवनकुरः, अविकलकारणं च सर्वदा सर्वमीश्वरज्ञानादिहेतुकं जगत् इति युगपद् भवेत् / ___ स्यादेतत्-नेश्वरबुद्धयादिकमेव केवलं कारणम् अपितु धर्माऽधर्मादिसहकारिकारणमपेक्ष्य तत् तत् करोति, निमित्तकारणत्वादीश्वरबुद्धचादेः / अतो धर्मादेः सहकारिकारणस्य वैकल्यादविकलकारणत्वमसिद्धम् / असदेतत् -यदि हि तस्य सहकारिभिः कश्चिदुपकारः क्रियेत तदा स्यात् सहकारिसव्यपेक्षता, यावता नित्यत्वात् परैरनाधेयातिशयस्य न किंचित् तस्य सहकारिभ्यः प्राप्तव्यमस्ति, किमिति तत् तथाभूतान् अनुपकारिणोऽपेक्षेत ? किंच, तेऽपि सहकारिणः किमिति सततं न संनिहिता भवन्ति यदि तज्जन्याः ? 'अपरस्वसंनिधिहेतुप्सहकारिवैकल्यादिति नोत्तरम् तेषामपि तत्संनिधिसहकारिणां तदायत्तोत्पत्तीनां तदैव संनिधिप्रसक्तेः कथमसिद्धता हेतोः ? अथ नित्यत्वे तबुद्धयादिकं सहकारिकारणमुत्पाद्य पश्चादङकुरादिकार्यमुपजनयतीत्यभ्युपगमस्तीपरापरसहकारिजनने एवोपक्षीणशक्तित्वात तस्य नांकुरादिकार्यजननम् / अथाऽतज्जन्या एव धर्माऽधर्मादिसहकारिण अतोऽयमदोषः / नन्वेवं तैरेव 'अचेतनोपादानत्वात्' इति हेतुरनैकान्तिकः स्यात् , अतस्तदायत्तसंनिधयो धर्मादिसहकारिण इति नाऽविकलकारणत्वाख्यो हेतुरसिद्धः। विषयों से स्वविषय ईश्वरज्ञान उत्पन्न होगा तो क्रमवत्ता यानी क्षणिकता उसमें अनायास ही सिद्ध होगी। यदि वह उत्पन्न नहीं होगा तो ईश्वरज्ञान और विषय में कार्यकारणभाव से अतिरिक्त दूसरा कोई सम्बन्ध घटक न होने से ईश्वरीय ज्ञान वस्तु को नहीं जान सकेगा। विषय के विना भी यदि ईश्वरीय ज्ञान मानेंगे तो रज्जू में सर्प के ज्ञान की भांति उसमें स्वीकृत प्रामाण्य की हानि होगी, क्योंकि अतीत-अनागत विषयों का ज्ञान तो निविषयक ही होगा, सविषयक नहीं। इस प्रकार विपरीत शंका में अर्थात् ईश्वरज्ञान में क्षणिकत्व के विना भी क्रमिकज्ञेयविषयता मानने में बाधक प्रमाण की सत्ता सिद्ध है। - [नित्यज्ञान पक्ष में एक साथ जगत् उत्पत्ति का प्रसङ्ग] यदि ईश्वरज्ञानादि नित्य ही है-तो सभी वस्तु में तद्विषयता रहेगी, और तद्विषयता से अन्य कोई चेतनाधिष्ठितत्व नहीं है अत: सारा जगत् एक साथ चेतनाधिष्ठित हो जाने से सारे जगत् की उत्पत्ति एक साथ होने की आपत्ति होगी। देखिये, जिस वस्तु के कारण अविकल यानी संपूर्णतया उपस्थित रहते हैं वह वस्तु अवश्य उत्पन्न होती है। उदा० जब अंकुर की सामग्री अन्त्यावस्था को प्राप्त हो जाती है तब अंकुर अविकलकारणवाला हो जाने से उत्पन्न होता ही है / ईश्वरज्ञानादि हेतुक सारा जगत् भी अविकलकारणवाला ही होता है, अतः एक साथ ही उसकी उत्पत्ति होनी चाहिये। . [ अविकलकारणत्व हेतु में असिद्धिदोष की आशंका ] कदाचित् आप यह कहेंगे कि जगत् का कारण सिर्फ ईश्वर ज्ञानादि ही नहीं है, किन्तु धर्मअधर्म आदि सहकारिकारण को सापेक्ष हो कर ही ईश्वरज्ञानादि जगत् को उत्पन्न करता है, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान अनेक निमित्त कारणों में से एक कारण है / अतः जब सहकारिकार णभूत धर्माधर्मादि उपस्थित नहीं रहते तब आपका हेतु अविकलकारणता असिद्ध बन जायेगा, अर्थात् जगत् की एक साथ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न चानकान्तिकोऽपि अविकलकारणत्वहानिप्रसंगात् , अविकलकारणस्याप्युत्पत्तौ सर्वदेवाऽनुपनिप्रसंगाच्च विशेषाभावात / एतेन यदप्युदद्योतकरेणोक्तम "यद्यपि नित्यमीश्वराख्यं कारणम विकलं भावानां संनिहितं तथापि न युगपदुत्पत्तिः, ईश्वरस्य बुद्धिपूर्वकारित्वात् / यदि हीश्वरः सत्तामात्रेणेवाऽबुद्धिपूर्व भावानामुत्पादकः स्यात्तदा स्यादेतच्चोद्यम् , यदा तु बुद्धि पूर्व करोति तदा न दोषः, तस्य स्वेच्छया कार्येषु प्रवृत्तेः, अतोऽनैकान्तिकतैव हेतोः" [ * / इति, तदपि निरस्तम् / न हि कार्याणां कारणस्येच्छाभावाभावापेक्षया प्रवृत्ति-निवृत्ती भवतः येनाऽप्रतिबद्धसामर्थ्यऽपीश्वराख्ये कारणे सदा संनिहिते तदीयेच्छाऽभावाद् न प्रवर्तेरन् , कि तहि कारणगतसामर्थ्यभावाभावानुविधायिनो भावाः / तथाहि-इच्छावतोऽपि कर-चरणादिव्यापाराऽक्षमात् कुलालादेरसमर्थाद् नोत्पद्यन्ते घटायो भावाः, समर्थाच्च बीजादेरनिच्छावतोऽपि समुत्पद्यमाना उपलभ्यन्तेऽङकुरादयः / तत्र यदी. साकारण कार्योत्पादकालवदप्रतिहतशक्ति सदैवावस्थितं भावानां तत कमिति तदीयामनुपकारिणी तामिच्छामपेक्षन्ते येनोत्पादकालवद् युगपन्नवोत्पद्यरन् ? एवं हि तैरविकल कारणत्वमात्मनो दशितं भवेत् यदि युगपद् भवेयुः / न चापीश्वरस्य परैरनुपकार्यस्य काचिदपेक्षाऽस्ति येनेच्छामपेक्षेत / न च बद्धिविशेषव्यतिरेकेणापरा इच्छा तस्य सम्भवति / उत्पत्ति की आपत्ति नहीं रहेगी। किन्तु यह गलत है। यदि नित्यज्ञान के ऊपर सहकारियों को कोई उपकार करना होता तब तो उसे सहकारियों की अपेक्षा हो सकती, किन्तु ईश्वरज्ञान तो नित्य होने से अपरिवर्तनशील है अतः उसमें कुछ भी नये अतिशय (संस्कार) का आधान शक्य ही नहीं है फिर सहकारियों से उसको कुछ भी लेना देना नहीं है तो अनुपकारक सहकारियों की वह क्यों अपेक्षा रखेगा? दूसरी बात यह है कि-वे सहकारि भी ईश्वरज्ञान से जन्य हैं या अजन्य ? A यदि जय मानेंगे तो वे ईश्वरज्ञान रूप नित्यकारण से उत्पन्न होकर सारे जगत् की उत्पत्ति में संदा संनिहित ही क्यों नहीं रहेंगे ? यदि कहें कि सहकारियों के संनिधान के हेतु भी अन्य सहकारी हैं तो वे सहकारि भी ईश्वरज्ञान जन्य मानने पर सदा संनिहित रहेंगे अतः तदधीन उत्पत्ति वाले सहकारी भी सदा संनिहित ही रहेंगे। तात्पर्य, सहकारीयों को ईश्वरज्ञान जन्य मानने पर उनकी संनिधि सदा उपस्थित रहने से अविकलकारणत्व हेतु असिद्ध नहीं होगा। यदि कहें कि-ईश्वरज्ञान तो नित्य है किन्त पहले उसने सहकारी कारण की उत्पत्ति होगी, बाद में अंकूरादि कार्य की उत्पत्ति होगी ऐसा हम मानते हैं अतः एक साथ उत्पत्ति की आपत्ति नहीं है तो यहां अंकुरादि कार्य कभी उत्पन्न न होने की आपत्ति आयेगी। कारण, सहकारीयों को उत्पत्ति करने के लिये भी अन्य सहकारीयों की अपेक्षा होगी, उन को उत्पन्न करने में अन्य अन्य सहकारीयों की अपेक्षा होगी,- इस प्रकार पूर्व पूर्व सहकारीयों को उत्पन्न करने में ही ईश्वरज्ञानादि की शक्ति क्षीण हो जाने पर अंकुरादि की उत्पत्ति का अवसर ही नहीं रहेगा। यदि दूसरा पक्ष धर्माधर्मादि सहकारीयों को ईश्वरज्ञान से अजन्य मानेंगे तो प्रथम पक्ष में प्रयुक्त कोई भी दोष नहीं होगा, किन्तु 'अचेतनोपादानत्वात्' यह हेतु यहाँ व्यभिचारी हो जायेगा क्योंकि वहाँ हेतु रहेगा किन्तु चेतनाधिष्टि तत्वरूप साध्य तो नहीं रहेगा। इस कारण से धर्माधर्मादि सहकारि के संनिधान को अन्य सहकारी सापेक्ष न मान कर ईश्वरज्ञानाधीन ही मानना होगा और * न्यायसूत्र 4-1-21 न्यायवात्तिके 'तत्स्वाभाव्यात् सततप्रवृत्तिः.'' इत्यादि द्रष्टव्यम् / Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उत्तरपक्ष: 509 बुद्धिश्चेश्वर यदि नित्या व्यापिकैका चाऽभ्युपगम्येत तदा सेवाऽचेतनपदार्थाधिष्ठात्री भविध्यतीति किमपरतदाधारेश्वरात्मपरिकल्पनया ? अथानाश्रितं तज्ज्ञानं न सम्भवतीति तदात्मपरिकल्पना। नन तदात्माऽप्यनाश्रितो न संभवतीति अपरापराश्रयपरिकल्पनयाऽनन्तेश्वर प्रसङ्गः / अथ द्रव्यत्वात्तस्याऽनाश्रितस्यापि सद्भावः न बुद्धेः- गुणत्वात्-इति नायं दोषः / ननु कुतस्तस्या गुणत्वम् ? 'तत्र समवेतत्वादिति नोत्तरम्, तस्यैवाऽनिश्चयात् / 'तदाधेयत्वात्तस्याः तत्समवेतत्वमिति चेत् ? ननु केनैतत् प्रतीयते ? न तावदीश्वरेण, तेनात्मनो ज्ञानस्य चाऽग्रहणात् इदमत्र समवेतम्' इति तस्य प्रतीतेरयोगात / 'तज्ज्ञानस्य तत्र समवेतत्वमेव तदग्रहणमित्यपि नोत्तरम, अन्योन्यसंश्रयात-सिद्धे 'इदमत्र' इति ग्रहणे तत्र तत्समवेतत्वसिद्धिः, अस्याश्च तद्ग्रहणसिद्धिरित्यन्योन्याश्रयः / तन्नेश्वरस्तज्ज्ञानमात्मनि समवेतमवैति, यश्चात्मीयमपि ज्ञानमात्मनि व्यवस्थितं न वेत्ति स सर्वजगदुपादानसहकारिकारणादिकमवगमयिष्यतीति कः श्रद्धातुमर्हति ?! तब तो हमारा अविकलकारणत्व हेतु असिद्ध नहीं होगा। अतः सारे जगत् की एक साथ उत्पत्ति की आपत्ति भी तदवस्थ रहेगी। [अविकलकारणत्व हेतु में अनैकान्तिकतादोष नहीं ] अविकलकारणत्व हेतु को अनैकान्तिक भी नहीं दिखा सकते, क्योंकि यदि कार्य अवश्य उत्पन्न नहीं होगा तो वहाँ अविकलकारणत्व ही नहीं रह सकेगा, (क्योंकि दोनों समव्यापक है,)। यदि अविकलकारणत्व के रहने पर भी कार्योत्पत्ति नहीं मानेंगे तब तो कभी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं हो पायेगी, क्योंकि कारण की उत्पत्ति के लिये अविकलकारणता से अधिक तो कोई विशेष है नहीं जिस की अनुपस्थिति से कदाचित् कार्य की अनुत्पत्ति कही जा सके / उद्योतकरने भी जो यह कहा है-हालाँ कि ईश्वरस्वरूप अविकल कारण नित्य होने से सदा सर्व भावों को संनिहित ही है, फिर भी सभी की एक साथ उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि ईश्वर बुद्धिपूर्वक कार्य करता है / यदि वह अपनी सत्तामात्र से अबुद्धिपूवक ही भाव का उत्पादक होता तब तो वह आपादन शक्य था किंतु जब वह बुद्धिपूर्वक करता है तब कोई दोष नहीं है, क्योंकि वह अपनी इच्छा से ही कार्यों के लिये प्रवृत्त होगा / अतः हेतु में अनैकाकान्तिकता का दोष नहीं है।"-यह उद्योतकर का कथन भो परास्त हो जाता है / कारण, कार्यों की प्रवृत्ति और निवृत्ति कारण की इच्छा के भावाभाव को आधीन यदि होती तब तो अप्रतिहत सामर्थ्यवाले ईश्वरस्वरूप कारण सदा संनिहित होने पर भी उसकी इच्छा के अभाव में कार्यों की अप्रवृत्ति मानना संगत है, किंतु वैसा नहीं है, सभी भाव कारणगत सामर्थ्य के ही भावाभाव का अनुसरण करते हैं। जैसे देखिये, इच्छा के होने पर भी कर-चरणादि के संचालन में अशक्त कुम्हारादि असमर्थ होने से घटादि भाव उत्पन्न नहीं होते। और किसी की इच्छा न होने पर भी सामर्थ्यवाले बीज से अंकुरादि की उत्पत्ति दिखाई देती है अब यदि ईश्वरस्वरूप कारण कार्योत्पादक काल के जैसे अप्रतिहत शक्तिवाला सदैव भावों का संनिहित होगा तो फिर स्व की अनुपकारक ईश्वरेच्छा की अपेक्षा क्यों रहेगी ? जब अपेक्षा नहीं होगी तो उत्पादक काल की भाँति सदा संनिहित ईश्वरस्वरूप कारण से एक साथ सभी भावों की उत्पत्ति क्यों नहीं होगी ? यदि उनकी एक साथ उत्पत्ति होती तब तो यह दिखाई देता कि अपने कारण अविकल हैं। तथा, नित्य ईश्वर किसी का भी उपकार्य नहीं है जिससे कि उसको किसी की अपेक्षा रहे, फिर इच्छा की भी अपेक्षा क्यों मानी जाय? तथा, इच्छा भी 'मैं ऐसा Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नापि तज्ज्ञानमवैति 'स्थाणावहं समवेतम्' इति, तेनाऽत्मनोऽवेदनात आधारस्य च / न च तदग्रहणे 'इदं मम रूपमत्र स्थितम्' इति प्रतीतिः संभवति / न च तत आत्मानमप्यवैति, अस्वसंवि दितत्वाभ्युपगमात् / न चापरं तद्ग्राहकं नित्यं ज्ञानं तस्येश्वरस्यापि संभवति- येनकेन सकलं पदार्थजातमवगमयति अपरेण तु तज्ज्ञानम्-समानकालं यावद्रव्यभाविसजातीयगुरणद्वयस्यान्यत्रानुपलब्धेस्तत्रापि तत्कल्पनाऽसंभवात् / तत्कल्पने वाऽकर्तृ कमंकुरादिकार्य किं न कल्प्येत ? करूं' ऐसी एक प्रकार की बुद्धि के अलावा और कुछ नहीं है / और उसकी बुद्धि तो नित्य ही है अतः सदा कार्योत्पत्ति का प्रसङ्ग ज्यों का त्यों रहेगा। [ बुद्धि के आधाररूप में ईश्वरकल्पना निरर्थक ] दूसरी बात यह है-ईश्वर की बुद्धि को अगर नित्य, व्यापक और एक मानते हैं तो वही सकल अचेतन पदार्थों की अधिष्ठात्री भी बन जायेगी तो फिर इस बुद्धि के आधाररूप में ईश्वरात्मा की कल्पना क्यों की जाय? यदि कहें कि-आश्रय के विना निराधार ज्ञान सम्भव नहीं है अतः उसके आधाररूप में ईश्वर की कल्पना करते हैं / तो यहाँ अनन्त ईश्वर की कल्पना आ पड़ेगी क्योंकि निराधार ईश्वर भी सम्भव नहीं है इसलिये एक ईश्वर के आधाररूप में अन्य अन्य ईश्वर की कल्पना करनी होगी। यदि कहें कि-बुद्धि गुणात्मक होने से वह निराधार नहीं हो सकती किन्तु ईश्वर द्रव्यात्मक होने से वह निराधार भी हो सकता है, अतः उसके आधाररूप में अनन्त ईश्वर की कल्पना का दोष नहीं होगा ।-तो यहाँ प्रश्न है कि बुद्धि में गुणात्मकता की सिद्धि कैसे होगी? [बुद्धि में गुणरूपता की सिद्धि कैसे ?] ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि 'ईश्वरात्मा में समवेत होने से बुद्धि गुणरूप है'-क्योंकि बुद्धि उसमें समवेत है या नहीं यही निश्चय नहीं है / यदि कहें कि-ईश्वर में आधेयरूप होने से बुद्धि उसमें समवेत होने का निश्चय होगा-तो यहाँ भी प्रश्न है कि ऐसा निश्चय कौन करेगा? a ईश्वर या b उसका ज्ञान ? a ईश्वर तो ऐसा निश्चय नहीं कर सकता, क्योंकि वह ( स्वयं ज्ञानात्मक न होने से ) अपना और अपने ज्ञान का ग्रहण ही जब नहीं कर सकता तो 'यह ज्ञान ईश्वर में समवेत है' ऐसा निश्चय होने की सम्भावना ही नहीं है। यदि कहें कि-'उसका ज्ञान उसमें समवेत होना' यही उसका ग्रहण है-तो यह उत्तर ठीक नहीं, क्योंकि यहाँ अन्योन्याश्रय दोष इस प्रकार है-'यह इस में है' ऐसा ग्रहण सिद्ध होने पर उसमें ज्ञान का समवेतत्व सिद्ध होगा और उसमें ज्ञान का समवेतत्व सिद्ध होने पर ही उक्त ग्रहण की सिद्धि होगी। इस प्रकार अन्योन्याश्रय स्पष्ट है / अत: ईश्वर यह नहीं जान सकता कि-'ज्ञान मेरे में समवेत है'। जब वह इतना भी नहीं जान सकता कि मेरी आत्मा में ज्ञान है तब सारे जगत् के उपादान और सहकारी कारण आदि को वह जान पाता होगा-यह श्रद्धा कौन करेगा? [ ज्ञान से समवेतत्व का निश्चय अशक्य ] _b ईश्वर का ज्ञान भी यह नहीं जानता कि मैं स्थाणु (शंभु) में समवेत हूं', क्योंकि वह भी न अपने को जानता है और न अपने आधार को, और यह न जानने पर 'मेरा यह स्वरूप यहाँ अवस्थित है' ऐसी भी प्रतीति का संभव नहीं है। वह अपने को इसलिये नहीं जानता कि न्यायमत में Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्व उत्तरपक्षः 511 अस्तु वा तत्र यथोक्तं ज्ञानद्वयम् तथापि तयोर्ज्ञानयोरन्यतरेण स्वग्रहणविधुरेण न स्वाधारस्य, न सहचरस्य ज्ञानस्य, नाप्यन्यस्य गोचरस्य ग्रहणम् / तथाहि यत् स्वग्रहणविधुरं तन्नान्यग्रहणम् , यथा घटादि, स्वग्रहणविधुरं च प्रकृतं ज्ञानम् , ततोऽनेन सहचरस्याऽग्रहणात कथं तेनाऽस्य ग्रहणम् ? तेनापि ग्रहणविरहितेनाऽस्य वेदने तदेव वक्तव्यम् इति न कस्यचिद् ग्रहणम् इति न तत्समवेतत्वेन तबुद्धगुणत्वम् , नापि तदाधारस्य द्रव्यत्वं सिद्धिमुपगच्छति / तस्मान्नित्यबुद्धिपूर्वकत्वेऽकुरादीनां किमिति युगपदुत्पादो न भवेत् ईश्वरवत् तदबद्धरपि सदा संनिहितत्वात ? अनित्यबद्धिसव्यपेक्षस्यापीश्वरस्याचेतनाधिष्ठायकत्वेन जगद्विधातृत्वे तस्य नित्यत्वेन तबुद्धेरपि सदा संनिहितत्वम् , अविकलकारणयोः सर्वदा संनिहितत्वाद्युगपदंकुरादिकार्योत्पत्तिप्रसंगः / तस्मात् 'बुद्धिमत्त्वात्' इति विशेषणकिंचित्करमेव इति नाऽनैकान्तिकता हेतोः। ज्ञान को स्वसंविदितत्व नहीं माना जाता। और अन्य कोई नित्य ज्ञान ईश्वर में संभव नहीं है जिससे कि वह प्रथम ज्ञान का ग्रहण करें। यदि वैसा होता तब तो-एक ज्ञान से ईश्वर सकल पदार्थसमूह को जानता और दूसरे से पहले ज्ञान को जान लेता-ऐसा हो सकता था, किन्तु ऐसी कल्पना का सम्भव नहीं, क्योंकि यावद्रव्य भावि दो सजातीय गुण एक साथ कहीं भी उपलब्ध नहीं है / यदि अन्यत्र अनुपलब्ध होने पर भी वैसी कल्पना की जाय तो फिर अंकुरादि कार्य अकर्तृक होने की कल्पना भी हो सकेगी। [ स्त्र के अग्राही ज्ञान से पर का ग्रहण अशक्य ] कदाचित् दो ज्ञान का एककाल में सहास्तित्व मान लिया जाय तो भी उनमें से एक भी अपने आधार का, अपने सहचारि ज्ञान का अथवा अन्य किसी विषय का ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि वह अपने ग्रहण से विकल है / देखिये, यह नियम है कि-जो स्वग्रहणशून्य होता है वह दूसरे किसी का ग्रहण नहीं करता, उदा० घटादि, प्रस्तुत ईश्वरीयज्ञान भी स्वग्रहणशून्य ही है / अतः उससे अपने सहचारि का ग्रहण शक्य नहीं है, तो फिर दूसरे ज्ञान से प्रथम ज्ञान का ग्रहण कैसे होगा ? प्रथम ज्ञान के लिये भो, स्वग्रहणशून्य होने से दूसरे ज्ञान को, वह ग्रहण नहीं कर सकता इत्यादि वही बात लागु होगी। फलतः किसी का भी ग्रहण हो जब सिद्ध नहीं होगा तो 'ज्ञान ईश्वर में समवेत है' ऐसा भी ग्रहण नहीं हो सकेगा / तात्पर्य, तत्समवेतत्व के आधार पर बुद्धि में गुणरूपता की, और उसके आधार में द्रव्यत्व की, सिद्धि नहीं की जा सकती। अब फिर से वह प्रश्न आयेगा ही की, जब ईश्वर की तरह उसकी बुद्धि भी सदा उपस्थित है और अंकुरादि नित्यबुद्धि पूर्वक ही उत्पन्न होते हैं तो अंकुरादि सारे जगत् की एक साथ उत्पत्ति होने का दोष क्यों नहीं होगा? यदि ईश्वर की बद्धि को अनित्य मान कर, ईश्वर में अनित्यबुद्धिसापेक्ष अचेतनाधिष्ठायकता मानी जाय और ऐसे ईश्वर को जगत् का कर्ता कहा जाय तो भी उपरोक्त आपत्ति-अंकुरादि को एक साथ उत्पत्ति की आपत्ति तदवस्थ ही है, क्योंकि-अनित्यबुद्धि का उत्सादक ईश्वररूप कारण नित्य होने से वह बुद्धि भी नयी नयी उत्पन्न हो कर सदा संनिहित ही रहेगी / अत: उद्योतकर ने जो यह कहा था कि 'ईश्वर बुद्धिवाला ( अर्थात् बुद्धि पूर्वक कर्ता ) होने से सकलभावों को एकसाथ उत्पत्ति की आपत्ति नहीं होगी'-यहाँ 'बुद्धिवाला होने से' ऐसा कथन उपरोक्त रीति से अकिंचित्कर सिद्ध हुआ। इस लिये हमने जो कहा था कि जो अविकलकारणवाला होता है वह उत्पन्न होता ही है-यहाँ हेतु में कोई अनैकान्तिकता दोष नहीं रहता। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 भाव: न चापि विरुद्धता, सपक्षे भावात् / चैवं (? तदेवं) भवति तस्माद् विपर्ययप्रयोगः-यद् यदा न भवति न तत् तदानीमविकलकारणम् यथा कुशूलावस्थितबीजावस्थायामनुपजायमानोंऽकुरः, न भवति चैकपदार्थोत्पत्तिकाले सर्व विश्वम इति व्यापकानुपलब्धिः / न च सिद्धसाध्यता, ईश्वरस्य तज्ज्ञा. नादेर्वा कारणत्वे विकलकारणत्वानुपपत्तेः प्रसाधितत्वात् / तन्न नित्यज्ञान प्रयत्न-चिकीर्षाणां तत्समवायस्य वा नित्यस्य कर्तृत्वं युक्तम् / तस्मात् शरीरसम्बन्धस्यैव कुम्भकारादौ कर्तृत्वव्यापकत्वेन प्रतीतेस्तदभावे कर्तृत्वस्यापि व्याप्यस्याभावप्रसंगः। तच्च a क्वचित् करादिव्यापारेण कारकप्रयोक्तृत्वलक्षणम्-यथा कुम्भकारस्य दण्डादिकारणप्रयोक्तृत्वम् , b अपरं वाग्व्यापारेण-यथा स्वामिनः कर्मकरादिप्रयोक्तत्वस्वरूपम्, c अन्यच्च प्रयत्नव्यापारेण-यथा जाग्रत: स्वशरीरावयवप्रेरकत्वस्वभावम् , d किंचिच्च निद्रा-मद प्रमादविशेषेण ताल्वादि-करादिप्रेरकत्वम्, सर्वथा शरीरसम्बन्ध एव कर्तृत्वस्य व्यापकः, स चेदीश्वरान्निवर्तते स्वव्याप्यमपि कर्तृत्वमादाय निवर्तते इति न तस्य कर्तृत्वमभ्युपगन्तव्यमिति प्रसंगः। . ___ अथ तस्य जगत्कर्तृत्वमभ्युपगम्यते तदा शरीरसम्बन्धः कर्तृत्वव्यापकोऽभ्युपगन्तव्य इति प्रसंगविपर्ययः। न च कारकशक्तिपरिज्ञानलक्षणं तस्य कर्तत्वम-येन प्रसंग-विपर्यययोर्याप्त्यसि स्यात्-कुम्भकारादौ मुद्दण्डादिकारकशक्तिपरिज्ञानेऽपि शरीरव्यापाराभावे घटादिकार्यकर्तृत्वाऽदर्शनात् [प्रसंगसाधन के बाद विपर्ययप्रयोग] अविकलकारणत्व हेतु विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि अंकुरादि सपक्ष में विद्यमान है / अब तो प्रसंग साधन प्रयोग की तरह विपर्यय प्रयोग भी इस प्रकार किया जा सकता है जो जब नहीं उत्पन्न होता वह उस काल में अविकलकारणवाला नहीं होता। उदा० बीज की कुशूल ( कोठार ) गत अवस्था में अंकर उत्पन्न नहीं होता है। (प्रस्तूत में, किसी एक वस्तु की उत्पत्ति काल में सारा जगत् उत्पन्न नहीं होता / इस विपर्यय प्रयोग में व्यापक ( उत्पत्ति ) की अनुपलब्धि को हेतु किया गया है। यदि ऐसा कहें कि इसमें सिद्धसाध्यता दोष है क्योंकि हम भी अंकुरादि की उत्पत्ति के विरह में ईश्वरज्ञानादि के विरह को मानते ही हैं तो यह बात गलत है क्योंकि जब विश्व का कारण ईश्वर और उसका ज्ञानादि है तब विकलकारणता की उपपत्ति करना ही कठीन है, यह बात विस्तार से कह दी गयी है / निष्कर्षः-नित्य ज्ञान, प्रयत्न और इच्छा अथवा तो उनके नित्य समवाय से कर्तृत्व की बात युक्त नहीं है। [शरीरसम्बन्ध कतृत्व का व्यापक ] उपरोक्त चर्चा का सार यह है कि कुम्भकारादि में कर्तृत्व के व्यापक रूप में शरीर का सम्बन्ध दिखाई देता है, अतः ईश्वर में यदि व्यापकभूतशरीरसम्बन्ध नहीं मानना है तो उसके व्याप्यभूत कर्तृत्व के अभाव की आपत्ति होगी / कर्तृत्व के भी विविध प्रकार हैं, वे कहीं कहीं हस्तादि के व्यापार से शेष कारकों को प्रेरित (संचालित) करना यही कर्तृत्व है, उदा० दण्डादि कारणों का संचालन करने वाला कुम्हार घट का कर्ता होता है। b कहीं, वाणी के व्यापार से भी कर्तत्व होता है उदा० मालिक अपने मौखिक आदेशों से कर्मचारिगण को क्रियान्वित करता है। कहीं सिर्फ प्रयत्न के व्यापार से ही कर्तृत्व होता है-उदा० जाग्रत् दशा में अपने हस्त-पादादि के संचालन का कर्तृत्व सिर्फ प्रयत्न व्यापार से होता है / d कहीं, निद्रा-उन्माद-प्रमादादि विशेष अवस्था से ओष्ठ-तालु Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 513 सुप्त प्रमत्तादौ च ताल्वादिकारणपरिज्ञानाभावेऽपि तद्व्यापारे प्रयत्नलक्षणे सति तत्प्रेरणकार्यदर्शनात् / यदप्यभिधानमात्रेण विषापहारादिकार्यकर्तृत्वम् तदपि न ज्ञानमात्रनिबन्धनम् किंतु शरीरसम्बन्धाऽविनाभूतविशिष्टात्मप्रयत्नहेतुकमेव / अपि च, विशिष्टधर्माऽधर्माद्युपदेशविधायीश्वरः सर्वज्ञत्वेन मुमुक्षुभिरुपास्यः, अन्यथा अज्ञोपदेशानुष्ठाने तेषां विप्रलम्भशंकया तत्र प्रवृत्तिर्न स्यात् / तदुक्तम्-[ प्रमाणवा० 1-32 ] "ज्ञानवान् मृग्यते कश्चित्तदुक्तप्रतिपत्तये / अज्ञोपदेशकरणे विप्रलम्भनशंकिभिः // " तस्य च सर्वज्ञत्वे सत्यप्यशरीरिणो वक्त्राभावादुपदेष्टत्वाऽसम्भव इति तत्कृतत्वेन तदुपदेशस्य प्रामाण्याऽसिद्धेर्न मुमुक्षूणां तत्र प्रवृत्तिः स्यादिति उपदेशकर्तृत्वे तस्य शरीरसम्बन्धोऽप्यवश्यमभ्युपगन्तव्यः, व्याप्याभ्युपगमस्य व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकत्वात् / शरीरसम्बन्धाभावे तु व्याप्यस्याप्युपदेशविधातृत्वस्याभाव इति प्रसंग-विपर्ययौ / व्याप्यव्यापकभावप्रसाधकं च प्रमाणं ताल्वादिव्यापाराभावेऽप्युपदेशस्य सद्भावे तस्य तद्धतकत्वं न स्यादिति कार्य कारणभावप्रसाधकं प्रागेव प्रशितमिति न पुनरुच्यते। आदि और हस्त-पादादि के संचालन का कर्तृत्व होता है। ये सभी प्रकार के कर्तृत्व का व्यापकभूत है शरीरसम्बन्ध, क्योंकि उसके विना उपरोक्त चार में से एक भी प्रकार का कर्तृत्व नहीं होता। यदि ईश्वर में शरीरसम्बन्ध नहीं रहेगा तो उसका व्याप्य कर्तृत्व भी निवृत्त होगा-फलतः ईश्वर में कर्तृत्व नहीं माना जा सकेगा-यह प्रसंग साधन हुआ। ___उसका विपर्यय भी इस प्रकार है कि-यदि ईश्वर में जगत्कर्तृत्व मानते हैं तो उसका व्यापक शरीरसम्बन्ध भी मानना ही होगा। [कारकशक्तिज्ञान स्वरूप कतृत्व अनुपपन्न ] यदि कहें कि-कर्तृत्व कारकों की शक्ति का परिज्ञानरूप है और ऐसे कर्तृत्व के साथ देहसम्बन्ध का व्याप्य-व्यापक भाव नहीं, अर्थात् व्याप्ति के विरह में प्रसंग और विपर्यय दोनों का उत्थान भग्न हो जायेगा। तो यह ठीक नहीं, क्योंकि कुम्हारादि दृष्ट कर्ताओं में मिट्टो-दण्डआदि कारकों की शक्ति का ज्ञान होते हुए भी देह व्यापार के विना घटादि कार्य का कर्तृत्व नहीं देखा जाता। उपराँत, सुषुप्ति और प्रमत्तावस्था में ओष्ठ-तालू आदि कारकों का ज्ञान न रहने पर भी उसके संचालक प्रयत्न के होने पर उनका संचालनरूप कार्य दिखता है अतः कारकशक्तिज्ञान यह कर्तृत्वरूप नहीं माना जा सकता / तदुपरांत, जहाँ किसी पवित्र पुरुष के नाम मात्र के उच्चारणादि से विष का उत्तारण आदि कार्य का कर्तृत्व दिखता है वहाँ केवल कारकज्ञान ही कतत्व का मूल नहीं है किन्तु देहसम्बन्धाविनाभावि विशिष्ट प्रकार का आत्मप्रयत्न ही कर्तृत्व में हेतुभूत होता है। [ मुखादि के अभाव में वक्तृत्व की अनुपपत्ति ] दूसरी बात यह है विशिष्ट धर्माधर्मादि पदार्थ का उपदेशक ईश्वर सर्वज्ञत्व के आधार पर ही मुमुक्षुओं के लिये उपास्य होता है। यदि वह सर्वज्ञ नहीं होगा तो अज्ञानी के उपदेश से अनुष्ठान करने पर फलविसंवाद की शंकावाले मुमुक्षुओं की प्रवृत्ति ही रुक जायेगी। जैसे कि कहा है . अज्ञानी के उपदेश से प्रवृत्ति करने में फलविसंवाद की शंकावाले ( मुमुक्षुओं ) शास्त्रोक्त अर्थों को जानने के लिये ज्ञानी का अन्वेषण करते हैं। .... Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तत् स्थितमेतत्-न शरीराभावे महेशस्य कर्तृत्वमिति / तेन शरीरमनःसम्बन्धाभावे प्रयत्न. बद्धचादेरभावादीश्वरसत्तैवाऽसिद्धा। अतः "तदभावे कस्य विशेषः शरीरादियोगलक्षणः साध्यते?".... इत्यादिपर्वपक्षवचनं निःसारतया व्यवस्थितम / प्रसंगविपर्ययोनिमित्तभूतव्याप्तिप्रदर्शनस्य विहितत्वात् / यदप्युक्तम 'ज्ञान चिकीर्षा-प्रयत्नानां समवायोऽस्तीश्वरे, ते तु ज्ञानादयस्तत्र नित्याः' तदप्ययुक्तत्वेन प्रतिपादितम् / यच्चोक्तम्-'तत्र शरीरसम्बन्धस्य व्याप्त्यभावादसिद्धिः' तदप्यसत् , शरीरसम्बन्धस्य कर्तृत्वव्यापकत्वप्रतिपादनात् / यदप्यूक्तम्-'नाप्यसर्वज्ञत्वं विशेषः कुलालादिषु दृष्टस्तत्र साध्यते' इत्यादि, तदप्ययुक्तम् , कुलालादेर्घटादिकार्यस्योपादानाद्यभिज्ञत्वे कर्मादिनिमित्तकारणाभिज्ञत्वप्राप्तेः सर्वज्ञत्वप्रक्तिः इति व्यर्थमपरेश्वरसर्वज्ञपरिकल्पनम् , तन्निर्वर्तकातीन्द्रियाऽदृष्टपरिज्ञानवत तस्यापि सकलपदार्थपरिज्ञानप्रसक्तेः / अथाऽदृष्टाऽपरिज्ञानेऽपि कुलालो मत्पिण्डदण्डादिकतिपयकारकशक्तिपरिज्ञानादेव घटादिलक्षणं स्वयकार्य निर्वतयतीति / तीश्वरोऽप्यतीन्द्रियाशेषपदार्थपरिज्ञानमन्तरेणाऽपि कतिपयकारकशक्तिपरिज्ञानादेव स्वकार्य निर्वर्तयिष्यति इति न सकलकार्यकर्तृत्वान्यथाऽनुपपत्त्या तस्यातीन्द्रियाद्यशेषपदार्थज्ञत्वलक्षणसर्वज्ञत्वसिद्धिः। यदि वह सर्वज्ञ होने पर भी अशरीरी होगा तो मुख के विरह में उपदेश का सम्भव नहीं रहेगा, अतः सर्वज्ञकथितत्व के आधार पर उपदेश का प्रामाण्य सिद्ध नहीं हो सकेगा, फलतः शास्त्र से ममक्षओं की प्रवत्ति रुक जायेगी। इस अनिष्ट के निवारणार्थ सर्वज्ञ ईश्वर में उपदेश कर्तृत्व घटाने के लिये देहसम्बन्ध भी अवश्य मानना पड़ेगा, क्योंकि व्याप्य का स्वीकार व्यापकस्वीकार का अविनाभावी होता है। तथा, देहसम्बन्ध को यदि नहीं मानेगे तो उसका व्याप्य उपदेशकर्तृत्व भी नहीं मान सकते ।-इस प्रकार प्रसंग और विपर्यय से दोनों ओर नैयायिक को बन्धन प्राप्त है। उपदेशकर्तृत्व और देहसम्बन्ध के बीच व्याप्य-व्यापक भाव की सिद्धि के लिये पहले हमने कार्य-कारणभावर्भित यह प्रमाण दिखाया ही है कि यदि तालु-ओष्ठादि की क्रिया के विना भी उपदेश की सम्भावना करेंगे तो उपदेश में ओष्ठ-तालुक्रिया की कारणता का ही भंग हो जायेगा, [ पृ. . पं. ] अब फिर से इस का प्रदर्शन करना आवश्यक नहीं है। [देहादि के विरह में ईश्वरसत्ता की असिद्धि ] इस तरह यह सिद्ध हुआ कि शरीर के अभाव से ईश्वर में कतृत्व भी नहीं है। फलतः, देह और मन के संयोग विना प्रयत्न और बुद्धि न होने से ईश्वर की सत्ता ही सिद्ध नहीं हो सकती। इसलिये पर्वपक्षी का यह वचन ईश्वर के अभाव में आप किस व्यक्ति के विशेषरूप में देहादिसम्बन्ध सिद्ध करेंगे? [ 399-8 ] इत्यादि, यह सारहीन सिद्ध हुआ, क्योंकि प्रसंग और विपयय की प्रयोजक व्याप्ति (=कर्तत्व में देह की व्याप्ति) का प्रदर्शन हो चुका है / यह जो कहा था ईश्वर में भी ज्ञान. उत्पादनेच्छा और प्रयत्न का समवाय है, और ईश्वर के ये ज्ञानादि नित्य हैं [ 400-5 ] यह भी भयत प्रतिपादन ही है क्योंकि नित्यज्ञानादि किसी भी प्रकार नहीं घटते यह दिखा चुके हैं / यह जो कहा था-'कर्तृत्व में शरीरसम्बन्ध की व्याप्ति ही न होने से शरीर असिद्ध है' [ 392-2 ] यह भी जूठा है क्योंकि देहसम्बन्ध कर्तृत्व का कैसे व्यापक है यह हम दिखा चुके हैं। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 515 यच्चोक्तम् क्षेत्रज्ञानां नियतार्थविषयग्रहणं सर्वविदधिष्ठितानाम् , यथा प्रतिनियतशब्दादिविषयग्राहकाणामनियतविषयसर्वविदधिष्ठितानां जीवच्छरीरे....इत्यादि-तदप्यसंगतम् , यतः शब्दादिविषयग्राहकाणामिति दृष्टान्तत्वेनोपन्यासो यदीन्द्रियाणां तदा तेषां करणत्वाद् वेदनलक्षणकियाऽनाश्रयत्वात् कथं नियतशब्दादिविषयग्रहणम् ? अथ ग्रहणाधारत्वेन न तेषां नियतशब्दादिविषयग्रहणम् किंतु करणत्वेन / नन्वेवं क्षेत्रज्ञानामपि विषयग्रहणे करणत्वम न कर्तत्वमिति घटादि कुलालकर्तृ कं तत्कारणशक्तिपरिज्ञानेन न सिद्धमिति कुतस्तदृष्टान्तात् क्षित्यादेर्शानाधारकर्तृकत्वं सिद्धिमुपगच्छति ? ! यदि पुनर्ज्ञानसमवायेन चक्षुरादीनां नियतविषयाणां कर्तृत्वेऽप्यनियतविषयाऽपरक्षेत्रज्ञकर्बधिष्ठितत्वमंगीक्रियते तहि चेतनानामपि क्षेत्रज्ञानां नियतविषयाणां यथा परोऽनियतविषयश्चेतनोऽधिष्ठाताऽभ्युपगन्तव्यः, तस्याप्यपर इत्यनवस्थाप्रसक्तिः / तथा, चेतनानामपि क्षेत्रज्ञानां यदा चेतनोऽधिष्ठाताऽभ्युपगम्यते तदा 'अचेतनं चेतनाधिष्ठितं प्रवर्तते, अचेतनत्वात् , वास्यादिवत्' इति प्रयोगेऽचेतन ग्रहणं मि-हेतुविशेषणं नोपादेयं स्यात् , व्यवच्छेद्याभावात् / [ कुम्हारादि में सर्वज्ञत्व की प्रसक्ति ] यह जो कहा था-कुलालादि में दृष्ट असर्वज्ञतारूप विशेष को ईश्वर में सिद्ध नहीं किया जा सकता....इत्यादि-[ 400-7 ] वह भी अयुक्त है / कारण, कुम्हार आदि को यदि घटादि कार्य के उपादानादि सभी कारणों का ज्ञान होगा तो कर्म आदि निमित्तकारणों का भी ज्ञान न्यायप्राप्त होने से कुम्हारादि में ही सर्वज्ञता की प्रसक्ति होगी, फिर अन्य सर्वज्ञ ईश्वर की कल्पना व्यर्थ हो जायेगी। क्योंकि ईश्वर को घटादिनिर्वर्तक अतीन्द्रिय अदृष्ट का ज्ञान जैसे होगा वैसे ही कुम्हार को भी सकल पदार्थ का ज्ञान प्रसक्त है / यदि कहें कि-अदृष्ट के ज्ञान विना भी मिट्टोपिण्ड दंडादि कुछ कारकों की शक्ति के ज्ञान से ही कुम्हार घटादिरूप कार्य को उत्पन्न कर देगा-तो फिर ईश्वर भी अतीन्द्रियसकलपदार्थ के ज्ञान विना सिर्फ कुछ कुछ कारकों की शक्ति के ज्ञान से ही अपने कार्य को कर देगा, अत: सकलकार्यनिष्पादकत्व की अन्यथा अनुपपत्ति के बल से ईश्वर में अतीन्द्रिय सर्वपदार्थज्ञातृत्वरूप सर्वज्ञत्व की सिद्धि नहीं हो सकेगी। [ क्षेत्रज्ञ में सर्वज्ञ के अधिष्ठितत्व के अनुमान की परीक्षा ] यह जो कहा था क्षेत्रज्ञों (=आत्मा) का नियतार्थविषयग्रहण सर्वज्ञ से अधिष्टित होने के कारण होता है, जैसे जिदे शरीर में प्रतिनियत शब्दादिविषय के ग्राहक, अनियतविषयवाले सर्वज्ञ से अधिष्ठित होते हैं....इत्यादि [ प० 401 ] वह भी असंगत है। कारण, दृष्टान्तरूप में उपन्यस्त शब्दादिविषयों के ग्राहकरूप में अगर आपको इन्द्रिय अभिप्रेत हैं तो वे संवेदनरूपक्रिया के आश्रय ही नहीं है फिर नियतशब्दादिविषय का ग्रहण कैसे संगत कहा जाय ? यदि कहें कि-ग्रहण (=वेदन) के आश्रयरूप में उन्हें ग्राहक नहीं मानते किन्तु कारण होने से ग्राहक मानते हैं / तो इस तरह के दृष्टान्त से क्षेत्रज्ञ में भी विषयग्रहण में कारणत्वरूप ही ग्राहकत्व मानना होगा, कर्तृत्वरूप नहीं। इस स्थिति में कारकशक्तिपरिज्ञानमूलक घटादिकर्तृत्व कुम्हार में ही सिद्ध नहीं होगा तो उसके दृष्टान्त से पृथ्वी आदि में भी ज्ञानवान् कर्ता की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? तथा, यदि नियतविषयवाले नेत्रादि को ही ज्ञान के समवाय से कर्ता मान लेंगे और उनमें अनियतविषयवाले अन्य क्षेत्रज्ञ कर्ता से अधिष्ठितत्व का अंगीकार करेंगे तब तो नियतविषयवाले चेतन क्षेत्रज्ञों को जैसे अनियतविषयवाले अन्य चेतन से Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 516 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यत्तुक्तम् 'भवत्वनिष्ठा यदि तत्प्रसाधकं प्रमाणं किंचिदस्ति, तावत एवाऽनुमानसिद्धत्वात' इति, तदप्यसंगतम् , यतः प्रमाणमन्तरेण हेत्वाभासाद् यद्येकस्य सिद्धिरभ्युपगम्यते अपरस्यापि तत एव सा कि नाभ्युपगम्यते? प्रमाणसिद्धत्वं तु तावतोऽपि नास्ति, अनिष्ठया तत्प्रसाधकस्य प्रमाणस्याऽप्रामाण्याऽऽसञ्जनाद् / यदप्युक्तम् 'पागमोऽप्यस्मिन् वस्तुनि विद्यते'.... इत्यादि, तदप्ययुक्तम्, प्रागमस्य तत्प्रणीतत्वेन प्रामाण्यं तत्प्रामाण्याच्च ततस्तत्सिद्धिरितीतरेतराश्रयप्रसक्तेः / नित्यस्य स्वागमस्य प्रामाण्यं वैशेषिकै भ्युपगतम् , ईश्वरकल्पनावैयर्थ्यप्रसंगात् / नाप्यन्येश्वरकृततदागमात् , तत्रापि तत्कतत्वेन प्रामाण्ये इतरेतराश्रयदोषात / अपरेश्वरप्रणीतापरागमकल्पनेऽपि तदेव वक्तव्यमित्यनिष्ठाप्रसक्तिः। तदेवं स्वरूपेऽर्थे आगमस्य प्रामाण्येऽपि न तत ईश्वरसिद्धिः। यत्तक्तम् 'तस्य च सत्तामात्रेण स्वविषयग्रहणप्रवृत्तानां क्षेत्रज्ञानामधिष्ठायकता यथा स्फटिकादीनामुपधानाकारग्रहणप्रवृत्तानां सवितृप्रकाशः' तदयुक्तम् , सत्तामात्रेण सवितृप्रकाशस्यापि स्फटिकाद्यधिष्ठायकत्वाऽसंभवात्-तदसंभवश्चाकाशादेरपि सत्तामात्रस्य सद्भावात् तदधिष्ठायकता स्यात्किंतु सवितप्रकाशस्य तद्विशिष्टावस्थाजनकत्वेन तदधिष्ठायकत्वम् , तच्चेत् क्षेत्रज्ञेष्वीश्वरस्य परिअधिष्ठित मानेंगे वैसे समान युक्ति से उस अनियतविषयवाले चेतन क्षेत्रज्ञ को भी अन्य अनियतविषयवाले चेतन से अधिष्ठित मानने की आपत्ति आयेगी। इस प्रकार अन्य अधिष्ठाता की कल्पना का अन्त ही नहीं आयेगा। तदुपरांत, चेतन क्षेत्रज्ञों के यदि आप अन्य अधिष्ठाता चेतन को मानते ही हैं तब तो आपने जो यह प्रयोग किया था - 'अचेतन वस्तु चेतन से अधिष्ठित होकर ही प्रवृत्त होती है क्योंकि अचेतन है, उदा० कुठारादि'-इस प्रयोग में पक्ष और हेतु में 'अचेतन' विशेषण व्यर्थ हो जायेगा क्योंकि अचेतन पद के व्यवच्छेद्य चेतन को भी आप चेतनाधिष्ठित तो मानते ही हैं अत: वास्तव में वह व्यवच्छेद्य ही नहीं रहा। [अनवस्थादोष से पूर्वसिद्ध में अप्रामाण्य का ज्ञापन ] अधिष्ठाता के रूप में ईश्वर की कल्पना करने पर जो अनवस्था दोष लगता है उसके संबन्ध में पर्वपक्ष में जो कहा था....नये नये अधिष्ठाता की कल्पना में यदि कोई प्रमाण विद्यमान हो तब तो अनवस्था को भी होने दो। किन्तु वैसा कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि अनुमान प्रमाण से केवल एक ही अधिष्ठाता सिद्ध होता है [ 401-7 ]....यह भी असंगत है / क्योंकि अनवस्था दोष के कारण अधिमाता का प्रसाधक हेतू ही हेत्वाभासरूप हो जाता है / अत: अन्य प्रमाण के विना यदि इस हेत्वाभास से एक अधिष्ठाता की सिद्धि मानेंगे तो उसीसे दूसरे की सिद्ध भी क्यों नहीं मानी जायेगी ? प्रथम अधिष्ठाता भी कहीं प्रमाणसिद्ध तो है नहीं क्योंकि अधिष्ठाता का साधक जो प्रथम अनुमान है उसमें तो अनवस्था दोष से अप्रामाण्य प्रसक्त है। [ सर्वज्ञ की सिद्धि में आगम प्रमाण कैसे ? ] नैयायिक ने जो यह कहा है कि.....ईश्वरसिद्धि में आगम भी प्रमाण है ... [ पृ० 402 ] यद भी ठीक नहीं क्योंकि आगम तो ईश्वर रचित मानने पर ही प्रमाण माना जा सकेगा और तब उसके प्रामाण्य से ईश्वर सिद्ध हो सकेगा, किन्तु इस रीति से तो अन्योन्याश्रय दोष लगेगा। वैशेषिक और नैयायिक मत में आगम प्रमाण को नित्य तो माना ही नहीं जाता जिससे कि इतरेतराश्रय दोष टाला जा सके। तथा आगम को यदि नित्य मानेगे तो ईश्वर की कल्पना व्यर्थ हो पड़ेगी। इतरेतराश्रय दोष Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1- इश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्ष: 517 कल्प्यते तदा तेषां तत्कार्यताप्रसक्तिः, तथा च यथा क्षेत्रज्ञानामात्मत्वेऽविशिष्टेऽपि कार्यता तथेश्वरस्यात्मत्वाऽविशेषात् कार्यतेति तदधिष्ठायकोऽपरस्तत्कर्ताऽभ्युपगन्तव्यः, तत्राप्यपर इत्यनवस्था। अथ तस्य कार्यत्वे सत्यप्यनधिष्ठितस्यैव स्वकार्ये प्रवृत्तिस्तहि जगदुपादानादेरपि तदनधिष्ठितस्य प्रवृत्तिरिति व्यभिचारी अधिष्ठातृसाधकत्वेनोपन्यस्यमानस्तेनैव हेतुः। अपि च, सत्तामात्रेण तस्य तदधिष्ठायकत्वे गगनस्येव न सर्वज्ञत्वम् इति सर्वज्ञत्वसाधकहेतोस्तद्विपर्ययसाधनाद् विरुद्धत्वम् / न च सर्वविषयज्ञानसमवायात् तत्र तस्यैव सर्वज्ञत्वं नाऽऽकाशादेरिति वक्तु युक्तम् , समवायस्य निषिद्धत्वात् , सत्त्वेऽपि नित्यव्यापकत्वेनाकाशादावपि भावप्रसंगात् / न च समवायाऽविशेषेऽपि समवायिनोविशेष इति वक्तु शक्यम् , तद्विशेषस्यवाऽसिद्धत्वात् , सिद्धत्वेऽपि समवायपरिकल्पनावैयर्थ्यप्रसंगादिति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् / न च सत्तामात्रेण तस्य तदधिष्ठायकत्वे ज्ञानमात्रमप्युपयोगि आस्तां सकलपदार्थसार्थकारकपरिज्ञानम्। के भय से यदि यह कहें कि-ईश्वर की सिद्धि तत्कृत आगम से नहीं किन्तु अन्य ईश्वर रचित अन्य आगम से ही मानेंगे-तो वहां उस ईश्वर की सिद्धि और उसके आगम के प्रामाण्य की सिद्धि में भी उपरोक्त बात की पुनरावृत्ति होने से वही इतरेतराश्रय दोष लौट आयेगा। यदि उस नये ईश्वर की सिद्धि के लिये भी अन्य ईश्वर रचित अन्य आगम को प्रमाण मानेंगे तो ऐसे नये नये ईश्वर और आगम की कल्पना का अन्त कहाँ होगा ? इस प्रकार, आगम से तो ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती, भले ही उसे स्वरूपार्थ में प्रमाण माना जाय / ___ [ सत्तामात्र से ईश्वराधिष्ठान की अनुपपत्ति ] यह जो कहा था-अपने विषय के ग्रहण में प्रवृत्त क्षेत्रज्ञों का, ईश्वर केवल अपनी सत्तामात्र से ही अधिष्ठायक होता है। उदा०-उपाधि-आकार के ग्रहण में प्रवृत्त स्फटिकादि का जैसे सूर्यप्रकाश अधिष्ठायक होता है। [ 404-3 ]-यह बात गलत है, केवल सत्तामात्र से ईश्वर स्फटिकादि का अधिष्ठायक बने यह संभव नहीं है। असंभव इस लिये कि ऐसे तो सत्तामात्र से आका• शादि भी स्फटिकादि के अधिष्ठायक होने की आपत्ति है / सूर्य प्रकाश तो इस लिये अधिष्ठायक कहा जा सकता है कि वह स्फटिक की अपने संपर्क से विशिष्ट अवस्था का जनक है। यदि क्षेत्रज्ञों में ईश्वर का विशिष्टावस्थाजनकत्वरूप अधिष्ठायकत्व मान लिया जाय तब तो क्षेत्रज्ञों में भी ईश्वरजन्यत्व की आपत्ति होगी तब तो जैसे आत्मत्व समान होने पर भी क्षेत्रज्ञों में कार्यत्व होगा वैसे आत्मत्व के समान होने से ईश्वर में भी कार्यत्व होगा। अतः उसके भी जनकरूप में अन्य ईश्वरअधिष्ठायक को मानना पडेगा, फिर उसमें भी कार्यता की प्रसक्ति से अन्य ईश्वर की कल्पना का अन्त ही नहीं होगा। यदि कहें कि-उसमें कार्यत्व होने पर भी वह तो अन्य से अधिष्ठित हुये विना ही अपने कार्यों में प्रवर्तेगा-तो फिर जगत् के उपादान कारणों की भी ईश्वर से अधिष्टित हुये विना ही प्रवृत्ति मान लेने में क्या कठिनाई है ? आपने जो अधिष्ठाता का साधक हेतु दिखाया है वह आप के ईश्वर में ही व्यभिचारी बन जायेगा क्योंकि वहां कार्यत्व तो आपने मान लिया और अन्य ईश्वर से अधिष्ठितत्व को नहीं माना। [ सत्तामात्र से अधिष्ठान में असर्वज्ञता] सदुपरांत, ईश्वर को केवल सत्तामात्र से ही अधिष्ठायक मान लेने पर गगन की तरह उसमें Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 ___ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदप्युक्तम् 'ज्ञानस्य स्वविषयसदर्थप्रकाशत्वं नाम स्वभावः, तस्यान्यथाभावः कुतश्चिद्दोषसद्भावात'-तत् सत्यमेव / यच्चोक्तम् 'यत् पुनश्चक्षुराद्यनाश्रितं न च रागादिमलावृतं तस्य विषयप्रकाशनस्वभावस्य'....इत्यादि, तदप्यसंगतम , यतो न चक्षराधनाश्रितं ज्ञानं परस्य सिद्धम, तत्सिद्धौ चक्षराद्यनाश्रितस्य ज्ञानस्येव सुखस्यापि सिद्धेरानन्दरूपता कथं मुक्तानां न संगच्छते येन 'सुखादिगुणरहितमात्मनः स्वरूपं मुक्तिः' इत्यभ्युपगमः शोभेत ? न च रागादेरावरणस्याभावो महेशे सिद्धः येन तज्ज्ञानमनावृतमशेषपदार्थविषयं तत्र सिद्धिमुपगच्छेत् , तत्स्वरूपस्यैवाऽसिद्धत्वात् तत्र रागाद्यभावप्रतिपादकस्याऽव्यभिचरितस्य हेतोस्त्वदभ्युपगमविचारणया दूरापास्तत्वाच्च / यत्तुक्तम् विपर्यासकारणा रागादयः, विपर्यासश्चाऽधर्मनिमित्तः न च भगवत्यधर्मः....इति तदप्यसारम् , अधर्मवत् धर्मस्यापि तद्धेतोश्च सम्यग्ज्ञानादेस्तत्राऽसंभवस्य प्रतिपादितत्वात् / यच्चोक्तम्-रागादयः इष्टानिष्टसाधनेषु विषयेषूपजायमाना दृष्टाः, न च भगवतः कश्चिदिष्टाऽनिष्टसाधनो विषयः, अवाप्तकामत्वात....इति तदप्यसारम् , यतो यदि इष्टानिष्टसाधनो न तस्य कश्चिद्विषयः, कथं तहि असाविष्टाऽनिष्टोपादान-परिवर्जनार्थ प्रवर्तते, बुद्धिपूविकायाः प्रवृत्तेहेयोपादेयजिहासोपादित्सापूर्वकत्वेन सर्वज्ञता भी नहीं रह सकेगी अतः सर्वज्ञ के अधिष्ठान का साधक हेतु उसके अभाव को ही सिद्ध करेगा इसलिये वह हेतु भी विरोधी हो गया। यह नहीं कह सकते कि-गगन और ईश्वर दोनों में उक्त समानता होने पर भी सर्वविषयक ज्ञान का समवाय ईश्वर में ही होता है अत एव ईश्वर में ही सर्वज्ञता रहेगी, आकाशादि में नहीं-ऐसा इस लिये नहीं कह सकते, कि समवाय का पहले ही निषेध किया जा चुका है / कदाचित् उसको मान लिया जाय तो भी वह नित्य और व्यापक होने से ईश्वरवत गगन में भी ज्ञान का समवाय अक्षुण्ण होने से सर्वज्ञता भी माननी होगी। यदि कहें कि-यद्यपि ईश्वर और आकाश दोनों में समवाय की समानता होने पर भी समवायिभूत ईश्वर और गगन ही अन्योन्य ऐसे विलक्षण है कि सर्वज्ञता केवल इश्वर में ही रहेगी-तो यह भी कहना शक्य नहीं / कारण. वह अन्योन्यविलक्षणता ही असिद्ध है। यदि उसको सिद्ध मानें तो फिर समवाय की कल्पना दी निरर्थक हो जाने का आगे दिखाया जायेगा। तथा सत्तामात्र से ही अधिष्ठान मानने पर किसो भी ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं रहती तो फिर सर्व पदार्थवृद के कारकों के ज्ञान की भी क्या आवश्यकता रहेगी ? कुछ नहीं ! [ इन्द्रियनिरपेक्ष ज्ञानवत् मुक्ति में सुखादि की प्रसक्ति ] यह जो पूर्व पक्ष में कहा था-अपने विषयभूत सदर्थ का प्रकाशत्व यह ज्ञान का स्वभाव है और किसी दोष के सद्भाव में वह स्वभाव विपरीत हो जाता है [ ४०४-६]-यह तो ठीक ही है। किन्त यह जा कहा है-जा नेत्रादि से निरपेक्ष एवं रागादिमल से अनावृत ज्ञान होता है वह जब विषयप्रकाशनस्वभाववाला है तब विषयों के प्रकाशनसामथ्र्य में कसे विधात हो सकता है ? - इत्यादि ४०४-७]-वह तो असंगत ही है क्योंकि आपके मत में नेत्रादिनिरपेक्ष ज्ञान ही सिद्ध नहीं है। नामनिरपेक्ष ज्ञान को सिद्ध माना जाय तो फिर नेत्रादि इन्द्रियनिरपेक्ष सूख को भी सिद्ध में मान लेने से मक्तात्माओं में आनन्दरूपता क्यो संगत नहीं होगी? फिर सूखादिगुणशून्य आत्मस्वरूप कोनि मानना कैसे शोभास्पद कहा जायेगा तथा आपके ईश्वर में रागादि आवरण का अभाव भी सिद्ध नहीं है जिससे कि उसमें अनावृत और सकलपदार्थविषयक ज्ञान की सिद्धि हो सके, क्योंकि Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वराकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 519 व्याप्तत्वात् ? तदभावेऽपि प्रवृत्तावन्मत्तकप्रवृत्तिवद् न बुद्धिपूर्वकेश्वरप्रवृत्तिःस्यात्, हेयोपादेयजिहा. सोपादित्से अप्यनाप्तकामत्वेन व्याप्ते, अवाप्तकामस्य हेयोपादेयजिहासोपादित्साऽनुपपत्तेः / अनाप्तकामत्वमप्यनीश्वरत्वेन व्याप्तम , ईश्वरस्याऽनाप्तकामत्वाऽयोगात , इति यत्र बुद्धिपूर्विका प्रवृत्तिरिष्यते तत्र हेयोपादेयजिहासोपादित्से अवश्यमंगीकर्तव्ये, यत्र च ते तत्रानाप्तकामत्वम् , यत्र च तव तत्रानोश्वरत्वम् इति प्रसंगसाधनम् / ईश्वरत्वे चावाप्तकामत्वम् , अवाप्तकामत्वाच्च न हेयोपादेयविषये तद्धानोपादानेच्छा, तदभावे न बुद्धिपूर्विका प्रवृत्तिरिति प्रसंगविपर्ययः / अत एव स्वत. न्त्रसाधनपक्षे यदाश्रयासिद्धत्वादिहेतुदोषोद्भावनम् तदसंगतम, व्याप्तिप्रसिद्धिमात्रस्यैवात्रोपयोगात्, सा च प्रतिपादिता / 'या तु प्रवृत्तिः शरीरादिसर्गेसा कोडार्था, अवाप्तकामानामेव च क्रीडा भवति' इति यदक्तम तदसंगतम . "रतिमविन्दतामेव क्रीडा भवति, न च रत्यर्थी भगवान द.खाभावात" इति [4-121 ] वात्तिककृतैव प्रतिपादितत्वात् / यच्चोक्तम् न हि दुःखिता: क्रीडासु प्रवर्तन्ते इतितत् प्रक्रमानपेक्षं वचनम् दुःखाभावेऽपि क्रीडावतां रागाद्यासक्तिनिमित्तेष्टसाधनविषयव्यतिरेकेण -- तस्याऽसम्भवात्। एक तो ईश्वर का स्वरूप ही सिद्ध नहीं है और दूसरे, आप की मान्यता के ऊपर विचार करने पर तो उस में अव्यभिचरित रागादि-अभावसाधक हेतु भी कितना दूर भग जाता है / [धर्म के विरह में सम्यग्ज्ञानादि का अभाव ] यह जो कहा था-रागादि का कारण विपर्यास है और विपर्यास का कारण अधर्म है / भगवान् में अधर्म नहीं है [ 404-10 ] इत्यादि वह भी असार है / कारण, अधर्म की तरह ईश्वर से धर्म भी न होने से तद्धेतुक सम्यग्ज्ञानादि का भी वहाँ असंभव है यह पहले कहा है। तथा, यह जो कहा है-इष्ट और अनिष्ट के साधनभूत विषयों में ही रागादि उत्पन्न होते हुए दिखते हैं / भगवान् को तो कोई इष्ट-अनिष्ट का साधनभूत विषय ही नहीं है क्योंकि वह कृतकृत्य है / ....[ 404-12 ] इत्यादि, यह भी असार है, क्योंकि जब ईश्वर को कोई इष्टानिष्टसाधनभूत विषय ही नहीं है तो ष्ट के उपादान और अनिष्ट के वर्जन के लिये क्यों प्रवृत्ति करता है ? जो प्रवृत्ति बुद्धिपूर्वक की जाती है वह अवश्यमेव हेय की त्यागेच्छा से व्याप्त ही होती है यह नियम है। इसलिये यदि त्यागेच्छा और ग्रहणेच्छा के विना भी ईश्वर की प्रवृत्ति होगी तो वह बुद्धिपूर्वक नहीं किन्तु उन्मत्त लोगों की तरह उन्मादपूर्वक ही होगी। तदुपरांत, हेय की त्यागेच्छा और उपादेय की ग्रहणेच्छा ये दोनों अनाप्तकामत्व-'अपूर्ण इच्छावत्त्व' से व्याप्त है, क्योंकि जिसकी सभी इच्छा समाप्त हो गयी है ऐसा समाप्तकाम जो होता है उसे हेय की त्यागेच्छा और उपादेय की ग्रहणेच्छा कभी शेष नहीं रहती। [अनाप्तकामता से अनीश्वरत्व का आपादन] तथा, अनाप्त कामता अनीश्वरत्व का व्याप्य है अर्थात् जहाँ अनाप्तकामता होगी वहाँ ऐश्वर्य नहीं होगा, क्योंकि जो ईश्वर होता है वह कभी अनाप्तकाम नहीं होता। इस प्रकार, ऐसा प्रसंगसाधन दिखाया जा सकता है कि जिसकी बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति मानेगे उसमें हेय की त्यागेच्छा और उपादेय की ग्रहणेच्छा अवश्य मानी होगी, ऐसी दो इच्छा मानेंगे उसमें अनैश्वर्य भी मानना होगा। इस प्रसंग का यह विपर्यय फलित होगा कि ईश्वर में यदि अवाप्तकामता है तो उसमें हेयविषय की त्यागेच्छा और उपादेयविषय की ग्रहणेच्छा नहीं मान सकेंगे, और उक्त ईच्छाद्वय के अभाव में बुद्धि Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ यच्च 'कारुण्यात् तस्य तत्र प्रवृत्तिः' इत्यादि, तदप्यनालोचिताभिधानम् , न हि करुणावतां यातनाशरीरोत्पादकत्वेन प्राणिगणदु खोत्पादकत्वं युक्तम् / न च तथाभूतकर्मसव्यपेक्षस्तथा तेषां दुःखोत्पादकोऽसौ निमित्तकारणत्वात् तस्येति ववतुयुक्तम् , तत्कर्मण ईश्वरानायत्तत्वे कार्यत्वे च तेनैव कार्यत्वलक्षणस्य हेतोर्व्यभिचारित्वप्रसंगात् / तत्कृतत्वे वा कर्मणोऽभ्युपगम्यमाने प्रथम कर्म प्राणिनां विधाय पुनस्तदुपभोगद्वारेण तस्यैव क्षयं विदधतो महेशस्याऽप्रेक्षाकारिताप्रसक्ति , न हि प्रेक्षापूर्वकारिणो गोपालादयोऽपि प्रयोजनशून्य विधाय वस्तु ध्वंसयन्ति / तन्न करुणाप्रवृत्तस्य कर्मसव्यपेक्षस्यापि प्राणिदुःखोत्पादकत्वं युक्तम् / किंच प्राणिकर्मसव्यपेक्षो यद्यसौ प्राणिनां दुःखोत्पादक इति न कृपालत्वव्याघातः-तहि कर्मपरतन्त्रस्य प्राणिशरीरोत्पादकत्वे तस्याभ्युपगम्यमाने वरं तत्फलोपभोवतृसत्त्वस्य तत्सव्यपेक्षस्य तदुत्पादकत्वमभ्युपगन्तव्यम, एवमदृष्टेश्वरपरिकल्पना परिहता भवति ।-'यथा प्रभः सेवाभेदानुरोधात फलप्रदो नाप्रभः, तथा महेश्वरोऽपि कर्मापेक्षफलप्रदो नाऽप्रभः'- इत्यप्ययक्तम यतो यथा राज्ञः सेवा पूर्वक प्रवृत्ति भी नहीं मानी जा सकेगी। इस प्रकार निर्दोष प्रसंगसाधन और विपर्ययप्रदर्शन में हमारा अभिप्राय होने से ही, स्वतन्त्रसाधन पक्ष में जो आश्रयासिद्धि आदि हेतदोषों का उद्धावन किया गया है वह असंगत ठहरता है / क्योंकि पक्षादि की आवश्यकता स्वतन्त्र साधन में होती है किन्तु प्रसंगविपर्यय दिखाने में नहीं होती। यहां तो केवल व्याप्ति प्रसिद्ध हो इतना ही उपयोगी है और वह तो दिखायी हुई है। [ क्रीड़ा के लिए ईश्वरप्रवृत्ति की बात अनुचित ] तथा यह जो कहा था-देहादि के सृजन में ईश्वर की प्रवृत्ति क्रीडा के प्रयोजन से ही होती है और क्रीडा भी संपूर्ण अभिलषितवाले ही करते हैं....इत्यादि [ पृ. 405 ] वह भी असंगत ही है, क्योंकि न्यायवात्तिककारने ही इस का यह कहते हुए खण्डन किया है "जिन को चैन नहीं पडता वे ही क्रीडा करते हैं, ईश्वर चैन-सुख का अर्थी नहीं क्योंकि उसको कोई भी दुःख ही नहीं है / " तथा यह जो कहा है कि-दुखी लोग कभी क्रीडा में संलग्न नहीं होते-यह तो प्रस्तावित अर्थ की उपेक्षा करके कहा है, क्योंकि ईश्वर को दुःख भले न हो किंतु जो क्रीडा करने वाले हैं वे भी रागादि आसक्ति के निमित्तभूत जो इष्टसाधनभूत विषय हैं (जैसे बच्चों के लिये खिलौना आदि) उनके विना क्रोडा का सम्भव ही कहाँ है ? अत: ईश्वर को क्रीडार्थी मानने पर उसे इष्ट या अनिष्ट हो ऐसे विषयों को भी मानने की आपत्ति होगी। [ ईश्वर में करुणामूलक प्रवृत्ति असंगत ] यह भी जो कहा है-करुणा से देहादिसृजन में ईश्वर की प्रवृत्ति होती है / वह तो विना सोचे कह दिया है। जो करुणावन्त है वह यातनामय देह का सृजन करके प्राणिओं को दुःख उत्पन्न करे यह अघटित है। यदि कहें कि-जीवों के दुःखोत्पादक कर्मों की अधीनता से ईश्वर दुःख को उत्पन्न करता है, क्योंकि वह तो केवल निमित्तकारण ही है-तो यह कहने लायक नहीं, यदि वे कर्म ईश्वर को आधीन यानी ईश्वरकृत नहीं है और कार्यभूत हैं तब तो कार्यत्व हेतु उन कर्मों में ही अपने साध्य (सकर्तृकत्व) का द्रोही बन जाने का अतिप्रसंग होगा / यदि इस के निवारणार्थ उन कर्मों को ईश्वरकृत माना जाय तब तो ईश्वर में प्रेक्षाकारित्व यानी बुद्धिमत्ता की हानि का प्रसंग होगा, क्योंकि वह / Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर०उ०पक्षः 521 ऽऽयत्तफलप्रदस्य रागादियोगः नैघृण्यम् सेवाऽऽयत्तता च प्रतीता तथेशस्याप्येतत् सर्वमभ्युपगमनीयम् , अन्यथाभूतस्यान्यपरिहारेण क्वचिदेव सेवके सुखादित्वानुपपत्तेः / तदेवं कर्मपरतन्त्रत्वे तस्यानीशत्वम् , करुणाप्रेरितस्य कर्तृत्वे "सृजेच्च शुभमेव सः" इति वात्तिककारीयदूषणस्य व्यवस्थितत्वम् / __ यच्च 'नारक-तिर्यगादिसर्गोऽप्यकृतप्रायश्चित्तानां तत्रत्यदुःखानुभवे पुनविशिष्टस्थानावाप्तावभ्युदयहेतुरिति सिद्धं दुखिप्राणिसृष्टावपि करुणया प्रवर्तनमीशस्य' इति, तदपि प्रतिविहितमेव, यतः कर्म प्राणिनां दःखप्रदं विधाय तत्फलोपभोगविधानद्वारेण क्षयनिमित्तं प्राणिनामभ्युदयं विदधतस्तस्याऽशुचिस्थानपतितगृहीतप्रक्षालितमोदकत्यागविधायिनो (?ना) (न? )समानबुद्धित्वप्रसक्तिः / अपि च, यदि प्राणिकर्मपरवशस्तेषां दुःखादिकं तत्क्षयनिमित्तप्रायश्चित्तकल्पमुपजनयतीत्यभ्युपगमस्तदा तत्कर्मकार्यत्वं तस्य प्रसक्तम्-तत्कृतोपकारामावे तदपेक्षाया अयोगात् , उपकारस्य च तत्कृतस्य तद्भेदे तेन सम्बन्धायोगात् , अभिन्नस्य तत्करणे तस्यैव करणमिति कथं न तत्कार्यत्वम् ? पहले तो जीवों के कर्मों का सृजन करता है फिर उपभोग के द्वारा उनका ध्वंस करवाता है, किंतु बुद्धिपूर्वक कार्य करने वाला गोप आदि कोई भी विना प्रयोजन वस्तुनिर्माण कर के उसका ध्वंस नहीं. करता है। इसलिये कर्मों की अधीनता से करुणापूर्वक ईश्वर प्राणिओं को दुःख उत्पन्न करता है यह बात श्रद्धेय नहीं है। [ ईश्वर में कमपरतन्त्रता की आपत्ति ] तदुपरांत, कर्मों की अधीनता से ईश्वर जीवों को दुःख उत्पन्न करता है इसलिये कृपालुता खंडित नहीं होती-इसका अर्थ तो यह हुआ कि आप जीवशरीर के उत्पादक ईश्वर को कर्मपरतन्त्र मानते हैं-इससे तो यह मानना अच्छा है कि कर्मफल के उपभोग करने वाले जीव ही कर्म की अधीनता से अपने अपने दुःखों के उत्पादक होते हैं, क्योंकि दु:ख के कर्ता जीवसमूह प्रसिद्ध है, अत: अप्रसिद्ध ईश्वर की कल्पना नहीं करनी पड़ेगी। तथा यह जो आपने कहा है-मालिक जैसे भिन्न भिन्न प्रकार की सेवा को लक्ष्य में रख कर भिन्न भिन्न फलदाता होता है, भिन्न फलदातृत्व से उसकी मालिकी मिट नहीं जाती, इसी तरह महेश्वर भी कर्म को लक्ष्य में रखकर फलदाता माना जाय तो उसके प्रभुत्व की कोई हानि नहीं होती-[ पृ. 406 ] यह भी अघटित है, क्योंकि सेवाधीन फल देने वाले राजादि में जैसे रागादियोग, निर्दयता और सेवापरतन्त्रता अनिवार्य है। उसी तरह ईश्वर में भी ये सब मानने होंगे / यदि ईश्वर सेवापरतन्त्र नहीं होगा तो वह किसी एक सेवाकादि को ही सुख प्रदान करे और सेवा न करने वाले को सुख प्रदान न करे ऐसा पक्षपात घटेगा नहीं / निष्कर्ष, ईश्वर को कर्मसापेक्ष कर्ता मानने में ऐश्वयं खण्डित होगा और यदि करुणामूलक कर्तृत्व मानेंगे तो श्लोकवात्तिककारने जो यह दूषण दिया था [ द्र०पृ० 406 ] कि 'एकमात्र सुखात्मकसर्ग का ही वह सृजन करेगा' वह तदवस्थ ही रहेगा। . [ दुखसृष्टि में करुणामूलकता की असंगति ] तथा यह जो कहा था [ ४०७/२]-नारक-तिर्यंचादि गति का उत्पादन भी प्रायश्चित्त न करने वालों को वहाँ दुःखानुभव के पश्चात् विशिष्टस्थान की प्राप्ति द्वारा आबादी का ही परम्परया हेतु हैअतः यह सिद्ध हुआ कि दुखी जीवों की सृष्टि में भी ईश्वर की प्रवृत्ति करुणामूलक ही है-इसका तो प्रतिकार हो ही चुका है / कारण, ईश्वर पहले जीवों के दुःखप्रद कर्म का सृजन करता है, बाद में जीवों को Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '522 - सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड अथ यद् यदा यत्र कर्मादिकं सहकारिकारणमासादयति तेन सह संभूय तत् तदा तत्र सुखादिक कार्य जनयति, एककार्यकारित्वमेव सहकारित्वमिति न कार्यत्वलक्षणस्तस्य दोषः / ननु कर्मादि सहकारिसव्यपेक्षः कार्यजननस्वभावस्तस्य कर्मसहकारिसंनिधानाद्यदि प्रागप्यस्ति तदा-सहकारिसंनिधानेऽपि स्वरूपेणैवाऽसौ कार्य निर्वर्तयति पररूपेण जनकत्वे सर्वस्य स्वरूपेणाऽजनकत्वात कार्यानुत्पादप्रसंगः, तस्य चाविकलस्य तज्जननस्वभावस्य भावादुत्तरकालभाविसमस्तकार्योत्पत्तिस्तदैव स्यात् / तथाहि-यद् यदा यज्जननसमर्थ तत् तदा तद् जनयत्येव यथाऽन्त्यावस्थाप्राप्तं बीजमंकुरम् . प्रजनने वा तदा तस्य तद् जननस्वभावमेव न स्यात् , तज्जननस्वभावश्च कर्मादिसामग्र्यसंनिधानेऽप्येकस्वभावतयाऽभ्युपगम्यमानो महेश इति स्वभावहेतुः। __ अथ कर्मादिसामग्र्यभावे तत्स्वभावोऽप्यसौ विवक्षितकार्य न जनयति, न तहि तज्जनकस्वभावः-यो हि यदा यन्न जनयति स तज्जनकस्वभावो न भवति, यथा शालिबीजं यवांकुर स्य, अतज्जनकस्यापि तत्स्वभावत्वेऽतिप्रसंगः, न जनयति च कर्मादिसामग्र्यभावे विवक्षितं कार्यमीश इति व्यापकानुपलब्धिः / अथ कर्मादिसामग्र्यभावे स स्वभावस्तदपेक्षकार्यजनकत्वलक्षणो नास्ति तहि स्वभावउसका फलोपभोग करवाता है जिससे कि उस कर्म का नाश हो जाय, फिर विशिष्टस्थान प्राप्ति द्वारा जीवों का अभ्युदय करता है-जैसे कि कोई व्यक्ति पहले मिष्ट लड्डु को अशुचि में डालता है फिर उसको बाहर निकाल कर शुद्ध करता है फिर उसको छोड देता है, ऐसे व्यक्ति की बुद्धि और ईश्वर की बुद्धि में क्या असमानता हुयी ? तथा, यदि वह प्राणिओं के कर्म को परवश बन कर प्राणिओं के दुख को उत्पन्न करता है अथवा दुःखजनक कर्म क्ष यहेतु प्रायश्चितसंहिता की रचना करता है तो ऐसे ईश्वर में तथाविध कर्म की कार्यता भी प्रसक्त होगी। क्योंकि कर्मों के ईश्वर के ऊपर कुछ न कुछ उपकार के विना ईश्वर में कर्म की अपेक्षा नहीं घट सकती। तथा, उपकार के द्वारा कार्यता इस रीति से होगी यह कर्मकृत उपकार यदि ईश्वर से भिन्न ही होगा तो ईश्वर के साथ उसका कोई सम्बन्ध ही नहीं घटेगा, इसलिये यदि उपकार को अभिन्न मानेंगे तो तदभिन्न ईश्वर भी कर्मकृत हो जाने से वह कर्म का कार्य क्यों नहीं होगा? [सहकारी संनिधान से सुखादिक त्व के ऊपर विकल्प ] . यदि यह कहा जाय कि-जब जहाँ जो जो कर्मादि सहकारी कारण उपस्थित हो जाते हैं उनके साथ मिलकर ईश्वर वहाँ उस वक्त सुखादि कार्य को करता है। एक दूसरे से मिलकर किसी एक कार्य को करना यही सहकारित्व है, आपने जो उपकाररूप कार्यत्व यह सहकारित्व का अर्थ किया है वैसा नहीं हैं / अतः ईश्वर में कोई कार्यत्वापत्तिरूप दोष नहीं है ।-तो इसके ऊपर प्रश्न है कि इस प्रकार का कर्मादिसहकारिसापेक्ष जो ईश्वर में कार्योत्पादनस्वभाव है वह कर्मादिमहकारि की उपस्थिति के पूर्व भी था या नहीं ? यदि विद्यमान था, तब सहकारि के संनिधान में भी ईश्वर अपरावत्त स्वस्वभाव से ही कार्य का जनक सिद्ध हुआ, क्योंकि यदि परस्वरूप से किसी को कार्यजनक मानगे तो सभी में स्वस्वरूप से कार्य की अजनकता का प्रसंग होने से कार्य की अनुत्पत्ति का प्रसंग आयेगा। ईश्वर में तो स्वस्वरूप से कार्यजननस्वभाव सहकारी-उपस्थिति के पहले भी जैसा था वैसा अक्षण्ण ही है अतः उत्तरकाल में होने वाले सभी कार्यों की एक साथ उसी वक्त उत्पत्ति हो जायेगी। जैसे देखिये-जो जब जिसके उत्पादन में समर्थ होता है वह उस वक्त उसे उत्पन्न करता ही है, जैसे अन्त्यावस्था को प्राप्त अर्थात् चरमक्षणवर्ती बीज, अंकुर के उत्पादन में समर्थ होता है तो वह उसे उत्पन्न Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1 ईश्वरकर्तृत्वे उ०पक्षः 523 भेदात् कथं न तस्य भेदः अपरस्य तन्निबन्धनस्याभावात् ? तथा च क्रमवय॑नेकमंकुरादिकार्य नाऽनमैकेश्वरविहितमिति नैकत्वं तस्य सिद्धिमासादयति / तन्न सर्वज्ञत्वाऽशरीरित्वैकत्वादिधर्मयोगस्तस्य सिद्धिमपढौकते। नापि कृत्रिमज्ञानसंबन्धित्वं तज्ज्ञानस्य प्रत्यर्थनियमाभावात' इत्यादि यदक्तम तदपि निरस्तम् , नित्यसर्वपदार्थविषयज्ञानसम्बन्धित्वस्य तत्र प्रतिषिद्धत्वात् / यच्च-'यथा स्थपत्यादीनां महाप्रासादादिकरणे एकाभिप्रायनियमितानामैकमत्यं तद्वदत्रापि यदि क्षित्याद्यनेककार्यकरणे बहूनां नियामकः कश्चिदेकोऽस्ति, स एवेश्वरः' इत्युक्तम् , तदप्यसंगतम् , यतो न ह्ययं नियमः-एकेनैव सर्व कार्य निर्वर्तनीयम् एकनियमितैर्वा बहुभिरिति, अनेकधा कार्यकर्तृत्वदर्शनात् / तथाहि-a क्वचिदेक एवैककार्यस्य विधाता उपलभ्यते यथा कुविन्दः कश्चिदेकस्य पटस्य, b क्वचिदेक एव बहूनां कार्याणाम् यथा घट-शरावोदञ्चनानामेकः कुलालः 'c क्वचिदनेकोऽप्यनेकस्य यथा घट-पट-शकटादीनां कुलालादिः, d क्वचिदनेकोऽप्येकस्य यथा शिबिकोद्वहनादेरनेकः पुरुषसंघातः / न च प्रासादादिलक्षणेऽप्यनेकस्थपत्यादिनिर्व]ऽवश्यंतयैकसूत्रधारनियमितानां तेषां तत्र व्यापार करता ही है / यदि वह उसे उत्पन्न न करेगा तो उसमें उस वक्त तज्जननस्वभाव ही नहीं हो सकेगा। सर्वदा एक स्वभाववाला ईश्वर तो कर्मादिसामग्रीसंनिधान के पहले भी सर्वकार्यों के प्रति उत्पादक स्वभाववाला ही है अत: इस स्वभावात्मक हेतु से, ईश्वर से एक साथ सर्वकार्यों की उत्पत्ति की आपत्ति आयेगी। [ ईश्वर में स्वभावभेदापत्ति ] अब यदि ऐसा कहें कि-ईश्वर में वैसा स्वभाव होने पर भी कर्मादि सामग्री के अभाव में वह प्रस्तुत कार्य को उत्पन्न नहीं करता है-तब तो कहना होगा कि वह उस कार्य के जनकस्वभाववाला नहीं है / यह नियम है कि जब भी जो जिस कार्य को उत्पन्न नहीं करता उस समय वह तत्कार्य के जनकस्वभाववाला नहीं होता जैसे शालीबीज यव-अंकुर के जनकस्वभाववाला नहीं होता / यदि तत्कार्य के अजनक को भी तत्कार्य के प्रति जनकस्वभाववाला मानेंगे तो यवांकुर का अजनक भी शालीबीज यवजन कस्वभाववाला माना जा सकेगा, यह अतिप्रसंग होगा। (प्रस्तुत में) कर्मादिसामग्री के अभाव में ईश्वर विवक्षित कार्य को नहीं उत्पन्न करता है अतः इस व्यापक की अनुपलब्धिरूप हेतू से उस में व्याप्यभूत तत्कार्यजनकस्वभाव का अभाव ही सिद्ध होगा। यदि कहें कि कर्मादिसामग्री के अभाव में हम कर्मादिसापेक्ष जनकत्वस्वभाव का अभाव ही मानते हैं तब तो कर्मादि सहकारि के संनिधान में उसका यह स्वभाव बदल जाने से, स्वभावभेद प्रयुक्त व्यक्तिभेद भी ईश्वर में क्यों प्रसक्त नहीं होगा? स्वभावभेद के विना अन्य कोई व्यक्तिभेद का प्रयोजक नहीं है / व्यक्तिभेद सिद्ध होने पर यह कहा जा सकता है कि-क्रमिक अनेक अंकुरादि कार्यों को अक्रमिक एक ईश्वर नहीं कर सकता, फलत: अंकुरादि कार्यों को करने वाले एक ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकेगी। सारांश, ईश्वर में सर्वज्ञता, अशरीरित्व, एकत्व आदि धर्मों का योग सिद्धिपदारूढ नहीं है / अत: यह जो पूर्वपक्षी ने कहा था-कृत्रिमज्ञान संबन्धिता रूप विशेष भी ईश्वर में सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि कृत्रिमज्ञान में अमुक ही अर्थ की विषयता का नियम नहीं हो सकता-[ 407-5 ] यह भी परास्त हो जाता है, क्योंकि ईश्वर में सकलपदार्थविषयक नित्यज्ञान का सम्बन्ध नहीं घट सकता यह पहले कह आये हैं। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 उपलब्धः, प्रतिनियताभिप्रायाणामप्येक सूत्रधाराऽनियमितानां तत्करणाऽविरोधात् इति नैकः कर्ता क्षित्यादीनां सिद्धिमासादयति / अत एव न तन्निबन्धना सर्वज्ञत्वसिद्धिरपि तस्य युक्ता। तदेवं नित्यत्वादिविशेषसाकल्यसाधकानुमानाऽसंभवात् तद्विपर्ययसाधकस्य च प्रसंगसाधनस्य तत्र भावात् कथं न विशेषविरुद्धावकाशः ? अथ शरीरादिमबुद्धिमत्कारणत्वव्याप्तं यदि क्षित्यादौ कार्यत्वमुपलभ्येत तदा ततस्तत्र तत् सिद्धिमासादयत् तथाभूतमेव सिध्येदिति भवेत् कार्यत्वादेविरुद्धत्वम् , साध्यविपर्ययसाधनात , न च तथाभूतं तत् तत्र विद्यत इति कथं विरुद्धता? न, परप्रसिद्धपक्षधर्मत्वम् विपर्ययव्याप्तिं वाऽऽश्रित्य विरुद्धताभिधानात् / परमार्थतस्तु कार्यत्वविशेषस्य क्षित्यादावसिद्धत्वम् तत्सामान्यस्य त्वनैकान्तिकत्वम् इति प्रतिपादितम् / सर्वेषु चेश्वरसाधनायोपन्यस्तेष्वनुमाने. ध्वसिद्धत्वादिदोषः समान इति कार्यत्वदूषणेनैव तान्यपि दूषितानि इति न प्रत्युच्चार्य दृष्यन्ते / महेश्वरस्य च नित्यत्वं तद्वादिभिरभ्युपगम्यते, न चाऽक्षणिकस्य सत्त्वं संभवति इति प्रतिपादयिष्यामः / [शिविकावहनादि एक कार्य की अनेक से उपपत्ति ] यह जो कहा है-महान् राजभवन आदि के निर्माण में लगे हुए अनेक शिल्पीयों में किसी एक नियामक व्यक्ति के अभिप्राय से ही ऐकमत्य (तुल्याभिप्रायता) होता है, उसी तरह प्रस्तुत में भी पृथ्वी आदि अनेककार्यों के निर्माण में लगे हुए अनेक व्यक्तियों का भी कोई एक नियामक होना जरूरी है और वही ईश्वर है'-[ 408-4 ] वह भी असंगत है। कारण, ऐसा नियम ही नहीं है कि सर्व कार्यों को करनेवाला कोई एक ही होना चाहिये अथवा अनेक करने वाले हो तो उसका कोई एक नियामक होना ही चाहिये / कार्यकर्ताओं में अनेक प्रकार देखे जाते हैं, जैसे: a कभी तो एक कार्य का एक हो निर्माता होता है जैसे एक वस्त्र का एक जुलाही / b कभी अनेक कार्यों का एक निर्माता होता है जैसे घट-शराव-उदंचनादि कार्यों का एक कुम्हार / 0 कभी अनेक कार्यों के अनेक निर्माता होते हैं जैसे घट-वस्त्र और बैलगाडी आदि का कुम्हार, जुलाहा, सुथार / d कभी एक ही कार्य के अनेक कर्ता होते हैं जैसे एक ही शिबिका-वहन कार्य में अनेक सेवक लगे होते हैं। तथा, राजभवनादि अनेक शिल्पी संपाद्य कार्य में भी एक सूत्रधार से नियन्त्रित होकर ही वे सभी भवन निर्माण के लिये उद्यम करते हों ऐसा नियम नहीं देखा गया। क्योंकि एकसूत्रधार का नियन्त्रण न होने पर भी परस्पर मिलकर किसी एक निश्चित अभिप्रायवाले बनकर भवनादि का निर्माण वे कर सकते हैं-इस में कोई विरोध नहीं है। अतः एक सूत्रधार की कल्पना के दृष्टान्त से पृथ्वी आदि के एक कर्त्ता की सिद्धि होना दुष्कर है / फलतः, एककर्तृ मूलक सर्वज्ञता की सिद्धि भी ईश्वर में अयुक्त है। [नित्यत्वादिविशेष के विरुद्ध अनुमानों का औचित्य ] उपरोक्त चर्चा से यह सिद्ध होता है कि ईश्वर में नित्यत्व सर्वज्ञत्वादि सकल विशेषों का साधक कोई बलिष्ठ अनुमान संभव नहीं है, दूसरी ओर असर्वज्ञत्वादि का साधक प्रसंगसाधनादिरूप अनमान प्रमाण विद्यमान है-अतः इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है कि-विशेषविरुद्ध अनमानों को क्यों अवकाश नहीं ? यदि कहें-"पृथ्वी यदि में सशरीरिबुद्धिमत्कर्तृकत्व का व्याप्य ऐसा कर्तृत्व यदि उपलब्ध होता तब तो वहाँ कर्त्ता सिद्ध होने के साथ शरीरी कर्ता की ही सिद्धि हो जाती, फलत: अशरीरीकर्ता से विपरीत शरीरीकर्ता की सिद्धि करने वाला हेतु कार्यत्व, विरुद्ध नामक हेत्वाभास बन जाता, किन्तु बात यह है कि शरीरिबुद्धिमत्कर्तृ कत्व का व्याप्यभूत कार्यत्व पथ्वी आदि में उपलब्ध Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 525 'यच्च पृथ्व्यादिमहाभूतानि स्वासु क्रियासु बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितानि प्रवर्तन्ते अनित्यत्वात् , वास्यादिवत्' इति, तत्र कुलालादिबुद्धावप्यनित्यत्वलक्षणस्य हेतोः सद्भावात्तत्राप्यपरबुद्धिमत्कारणाधिष्ठितत्वप्रसक्तिः, तथाऽभ्युपगमे महेशबुद्धेरप्यनित्यत्वस्य प्रसाधनात तस्याप्यपरबुद्धिमदधिष्ठितत्वम् , तबुद्धावप्येवम् इत्यनवस्था / अथ बुद्धेरनित्यत्वे सत्यपि न बुद्धिमदधिष्ठितत्वं तदा व्यभिचारी हेतुः, अपरं चात्र प्रतिविहितत्वान्नाशंक्यते / यच्च कार्यत्वहेतोर्दूषणमसिद्धत्वादि तदत्रापि समानम् / तथाहियादृशमनित्यत्वं बद्धिमदधिष्ठितं (त) वास्यादौ सिद्धं तादृशं तन्वादिष्वसिद्धम् / अनित्यत्वमात्रस्य प्रतिबन्धाऽसिद्धय॑भिचारः / प्रतिबन्धाभ्युपगमे सतीष्टविपरीतसाधनाद् विरुद्धत्वम् / साधर्म्यदृष्टान्तस्य साध्यविकलता, नित्यैकबुद्धिमदधिष्ठितत्वेन साध्यधर्मेणान्वयासिद्धेः / सामान्येन साध्ये सिद्धसाध्यता, विशेषेण व्यभिचारः, घटादिष्वन्यथादर्शनादिति / एवं सर्वेषु प्रकृतसाध्यसाधनायोपन्यस्तेषु हेतुषु योज्यम्। ही नहीं है, तो फिर उसे विरुद्ध कैसे कहा जाय ?"-तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि प्रतिवादी ने जिस कार्यत्व हेतु का पृथ्वी आदि पक्ष में उपन्यास किया है उसी हेतु में हम विरुद्धता का आपादन करते हैं, अथवा प्रतिवादी को कार्यत्व हेतु में जिस प्रकार के साध्य की व्याप्ति अभिमत है उससे विपरीत साध्य की व्याप्ति का हेतु में प्रसंजन दिखाकर हम कार्यत्व हेतु को विरुद्ध कह रहे हैं। वास्तव में तो यही कहना है कि यदि घटादि में प्रसिद्ध कृतबुद्धिजनक कार्यत्वविशेष को हेतु किया जाय तो वह पथ्वी आदि में असिद्धदोषग्रस्त है और यदि सामान्यतः कार्यत्व को हेतु किया जाय तो वह विना कृषि के उत्पन्न वृक्षादि में अनैकान्तिकदोषग्रस्त है यह तो हमने पहले ही कह दिया है। तथा ईश्वर की सिद्धि में जो जो अनुमान दिखाया जाता है उन सभी में असिद्धत्वादि दोष तो समानरूप से प्रसक्त है अत: कार्यत्वहेतु के दोष दिखा देने से उन अनुमानों के दोष भी प्रदर्शित हो जाते हैं, अतः एक को लेकर दोष दिखाने की आवश्यकता नहीं रहती। तदुपरांत, ईश्वरवादीवृद महेश्वर को नित्य मानते हैं, किन्तु जो क्षणिक (=अनित्य) नहीं है उसकी सत्ता भी दुर्घट है यह हम अग्रिम ग्रन्थ में दिखाने वाले हैं। [ अनित्यत्वहेतु से बुद्धिमदधिष्ठितत्व की असिद्धि ] यह जो कहा है-पृथ्वी आदि महाभूत बुद्धिमत्कारण से अधिष्ठित होकर ही अपनी अपनी क्रियाओं में संलग्न होते हैं क्योंकि अनित्य है, जैसे अनित्य कुठार बढई से अधिष्ठित होकर ही छेदन क्रिया में संलग्न होते हैं। [पृ. 406-5]- इसके ऊपर यह आपत्ति है कि कुम्हार की बुद्धि में अनित्यत्व हेतु विद्यमान होने से उसमें भी एक अन्य बुद्धिमत्कारणाधिष्टितत्व की प्रसक्ति होगी। यहाँ सिद्धसाधन कर लेने पर ईश्वरबुद्धि में भी पूर्वोक्त प्रकार से अनित्यत्व सिद्ध होने से अन्य बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितत्व की आपत्ति होगी, फिर उस नये कल्पित ईश्वर में भी अन्य अन्य बुद्धिमत् अधिष्ठाता की कल्पना का अन्त नहीं आयेगा। यदि कहें कि-हम बुद्धि को अनित्य होने पर भी बुद्धिमान से अधिष्ठित नहीं मानेंगे-तो अनवस्था दोष निकल जाने पर भी बुद्धिमत्कारणाधिष्ठानसाधक अनित्यत्व हेतु बुद्धि में ही साध्यद्रोही बन जायेगा। यहां जो अन्य बचाव शक्य है उसका पहले ही प्रतिकार हो गया है अतः उसको पुनः पुन: आशंका के रूप में प्रस्तुत कर उसके प्रतिविधान की आवश्यकता नहीं। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 . यच्च-'स्थित्वा प्रवृत्तेः' इति साधनमुक्तम् , तत्रान्यदपि दूषणं वाच्यं-सर्वभावानामुदयसमनन्तराऽपगितया क्षणमात्रमपि न स्थितिरस्ति इति कुतः स्थित्वा प्रवृत्तिः ? तस्मात् प्रतिवाद्यसिद्धो हेतुः अनैकान्तिकश्चेश्वरेणैव / यतः सोऽपि क्रमवत्सु कार्येषु स्थित्वा प्रवर्तते अथ च नासौ चेतनावताऽधिष्ठितः अनवस्थाप्रसंगात् / अथ 'अचेतनत्वे सति' इति सविशेषणो हेतुरुपादीयते यथा प्रशस्तमतिनोपन्यस्तस्तथापि संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकतयाऽनैकान्तिकत्वमनिवार्यम् यदेव हि विशेषणं विपक्षाद्धेतु निवर्त्तयति तदेव न्याय्यम् , यत् पुनविपक्षे संदेहं न व्यावर्त्तयति तदुपादानमप्यसत्कल्पम् , पूर्वोक्तश्चासिद्धतादिदोषः सविशेषणत्वेऽपि तदवस्थ एव / यच्चोक्तम् 'सर्गादौ व्यवहारश्च' इत्यादि, तत्रापि 'उत्तरकालं प्रबुद्धानाम्' इत्येतद् विशेषणमसिद्धम् / तथाहि-नास्मन्मते प्रलयकाले प्रलुप्तज्ञान-स्मतयो वितनु-करणाः पुरुषाः संतिष्ठते किन्त्वाभास्वरादिषु स्पष्टज्ञानातिशययोगिषु देवनिकायेषत्पद्यन्ते, ये तु प्रतिनियतनिरयादिविपाकसंवर्तनीयकर्माणस्ते लोकधात्वन्तरेषुत्पद्यन्ते इति मतम् / विवर्तकालेऽपि तत एव आभास्वरादेश्चुत्वा इहाऽलुप्तज्ञानस्मृतय एव संभवन्ति, तस्मात 'उत्तरकालं प्रबुद्धानाम्' इति विशेषणमसिद्धम् / अनेकान्तिकश्च हेतुः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वात् / [अनित्यत्वहेतु में असिद्ध-विरुद्धादि दोष प्रसंग] उपरांत कार्यत्व हेतु में जो असिद्धत्वादि दूषण लगाये हैं वे यथासम्भव यहाँ अनित्यत्व हेतु में भी समानरूप से लग सकते हैं / जैसे देखिये-बुद्धिमत् से अधिष्ठित कुठारादि में जैसा अनित्यत्व प्रसिद्ध है वैसा अनित्यत्व देहादि में सिद्ध नहीं है। और सामान्यतः अनित्यत्व को हेतु माने तो उसमें बुद्धिमदधिष्ठितत्व की व्याप्ति ही सिद्ध नहीं है क्योंकि विना कृषि के उत्पन्न अनित्य वनस्पति आदि में हेतु व्यभिचारी है। कदाचित् व्याप्ति भी मान ली जाय तो भी सर्वज्ञतादि विशेषों के विपरीत असर्वज्ञतादि का साधक होने से अनित्यत्व हेतु विरुद्ध दोष से ग्रस्त है / तथा साधर्म्यदृष्टान्त के रूप में उपन्यस्त कुठार में तो अनित्यबुद्धिमदधिष्ठित्व होने से नित्यबुद्धिमदधिष्ठितत्वरूप साध्य का विरह ही रहेगा क्योंकि कुठार में जो अनित्यत्व है उसमें साध्यधर्मभूत नित्यैकबुद्धिमदधिष्ठितत्व के साथ अन्वयव्याप्ति ही असिद्ध है / यदि सामान्यत: बुद्धिमदधिष्टितत्व ही सिद्ध करना हो तो यह प्रतिवादी के मत में सिद्ध होने से सिद्धसाधन दोष लगेगा। यदि विशेषरूप से ( नित्यबुद्धिमत रूप से ) साध्य किया जाय तो घटादि में व्यभिचार होगा क्योंकि विशेषरूप से विपरीत अनित्यबुद्धिमत् का अधिष्ठान ही वहाँ दिखता है। इस प्रकार नित्यबुद्धिमत् साध्य की सिद्धि के लिये उपन्यस्त सभी हेतुओं में विरुद्ध और व्यभिचार दोष की योजना की जा सकेगी। . ____ उद्योतकर ने जो यह प्रमाण दिखाया था- भुवनहेतुभूत प्रधान प्ररमाणु आदि बुद्धिमान् से अधिष्ठित होकर अपने कार्यों को उत्पन्न करते हैं क्योंकि अवस्थित रह कर प्रवृत्ति करते हैं [ 411-5 ] -इसमें अवस्थित रह कर-इस हेतु में अन्य भी एक दूषण कह सकते हैं कि जब भावमात्र उत्पत्ति के दूसरे क्षण में ही नाशाभिमुख हैं तब एक क्षण भी उसकी स्थिति असम्भव है तो फिर अवस्थित रह कर कार्य के लिये प्रवृत्ति की बात ही कहाँ ? [ उत्पत्तिक्षण और नाशक्षण के मध्य कोई स्थिति क्षण है नहीं इसलिये क्षणमात्र भी स्थिति न होने का कहा है] / अतः 'स्थित्वा प्रवृत्तेः' यह हेतु प्रतिवादी के प्रति असिद्ध है। इतना ही नहीं, ईश्वर में वह अनैकान्तिक भी है क्योंकि वह अवस्थित रह कर ही क्रमिक कार्यों में प्रवृत्त होता है किन्तु वह कोई अन्य चेतनावन्त से अधिष्ठित नहीं है क्योंकि वैसा माने तो नये नये अधिष्ठायक ईश्वर की कल्पना का अन्त नहीं आयेगा। यदि कहें कि-'अचेतन है Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 527 कि च, अन्योपदेशपूर्वकत्वमात्रे साध्ये सिद्धसाध्यता, अनादेर्व्यवहारस्य सर्वेषामेवान्योपदेशपूर्वकत्वस्येष्टत्वात् / अथेश्वरलक्षणपुरुषोपदेशपूर्वकत्वं साध्यते तदाऽनकान्तिकता, अन्यथापि व्यवहारसंभवात् , दृष्टान्तस्य च साध्यविकलता। एतच्चान्यहेतुसामान्यं दूषणं पूर्वमुक्तम् / विरुद्धश्च हेतुः अभ्युपेतबाधा च प्रतिज्ञायाः, निर्मु खस्योपदेष्टुत्वाऽसंभवात् यदि ईश्वरोपदेशपूर्वकत्वं व्यवहारस्य संभवेत् तदा स्यादविरुद्धता हेतोः यावताऽसौ विगतमुखत्वादुपदेष्टा न युक्तः, तच्च विमुखत्वं वितनुत्वेन तदपि धर्माधर्मविरहात , तथा चोद्दयोतकरेणोक्तम् -"यथा बुद्धिमत्तायामीश्वरस्य प्रमाणसंभवः नैवं धर्मादिनित्यत्वे प्रमाणमस्ति" [ न्या० वा. 4-1-21 ] इति / तस्मादीश्वरस्योपदेष्टत्वाऽसंभवात् तदुपदेशपूर्वकत्वं व्यवहारस्य न सिध्यति किन्त्वीश्वरव्यतिरिक्तान्यपुरुषोपदेशपूर्वकत्वम् , अत इष्टविघातकारित्वाद् विरुद्धो हेतुः। और अवस्थित रह कर प्रवृत्ति करता है इसलिये' ऐसा विशेषणयुक्त हेतु करेंगे जैसे कि प्रशस्त मतिने या है तो यह देत ईश्वर में नहीं रहने से साध्यद्रोही नहीं बनेगा-तो यहाँ निवेदन है कि पूर्वोक्त साध्य द्रोह न रहने पर भी, इस प्रकार का हेतु विपक्ष में से निवृत्त है या नहीं-ऐसा संदेह सावकाश होने से हेतु में विपक्षव्यावृत्ति संदिग्ध होने से संदिग्धानकान्तिकत्व दोष तो लगेगा ही। कारण, विना किसी प्रयत्न से उत्पन्न मेघादि में हेतु के रहने पर भी वह बुद्धिमान् से अधिष्ठित है या नहीं इस संदेह का कोई निवर्तक पुष्ट तर्क न होने से मेघादि ही विपक्षरूप में संदिग्ध हो जाता है और उसमें हेतु रहता है। तथा 'अचेतन है' ऐसा विशेषण लगा देने मात्र से हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति सिद्ध नहीं हो जाती। अतः जो विशेषण हेतु को विपक्ष से निवृत्त करे वैसा ही विशेषण न्याययुक्त है, जो विपक्ष में संदेह की निवृत्ति न करे उसका प्रयोग करना मिथ्या है [ यह पहले भी कहा है- ] तदुपरांत उक्त, विशेषण लगाने पर भी पूर्वोक्त रीति से असिद्ध-विरुद्धादि दोष तो यहाँ भी ज्यों के त्यों हैं। [ 'उत्तरकाल में प्रबुद्ध' होने की बात असिद्ध है ] तथा प्रशस्तमति ने जो यह अनुमान किया था-सृष्टि के प्रारम्भ में होने वाला व्यवहार अन्य के उपदेश से होता है क्योंकि उत्तरकाल में प्रबुद्ध होने वालों का वह व्यवहार प्रति अर्थ नियत होता है [ पृ०४१२ ]-यहाँ भी 'उत्तरकाल में प्रबुद्ध' यह विशेषण प्रतिवादी के प्रति असिद्ध है। कारण, हमारे सिद्धान्त में ऐसा नहीं है कि-प्रलयकाल में जीववर्ग ज्ञान और स्मृति को खो देते ही हैं और शरीर-इन्द्रिय से विमुक्त रहते हैं किन्तु हमारा सिद्धान्त तो यह है कि उस काल में पुण्यशाली जीववर्ग अत्यन्तभास्वररूपवाले और स्पष्ट ज्ञानातिशय वाले देवनिकायों में उत्पन्न होते हैं, अथवा नियत प्रकार के नरकादि फलों को देने वाले पाप कर्म जिन्होंने किया है वे लोकधातु के ( नरकों के ) मध्य में उत्पन्न होते हैं / और वहाँ फलभोग काल समाप्त होने पर आभास्वरादि स्थान से बाहर निकल कर इस लोक में ज्ञान और स्मृति सहित ही उत्पन्न होते हैं इस प्रकार प्रलयकाल में वे मूच्छित थे और बाद में प्रबुद्ध बने यह बात हमारे मत में असिद्ध है / तथा इस हेतु में भी हेतु की विपक्ष से निवृत्ति संदेहग्रस्त होने से हेतु में अनैकान्तिकत्व दोष लगेगा। [ व्यवहार में ईश्वरोपदेशपूर्वकत्व की असिद्धि ] तदुपरांत, यदि व्यवहार में सिर्फ अन्योपदेशपूर्वकत्व ही सिद्ध करना हो तो वह हमारे प्रति 'सिद्ध का ही साधन हुआ क्योंकि अनादिकाल से चलता आया व्यवहार पूर्व पूर्व पुरुषों के उपदेश से ही Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 प्रथेश्वरस्योपदेष्तृत्वमंगीक्रियते तदा विमुखत्वमभ्युपेतं हीयत इत्यभुपेतबाधः। एवमन्येष्वपि सर्वज्ञत्वादितद्विशेषसाधकेषु हेतुष्वसिद्धत्वाऽनैकान्तिकत्व-विरुद्धत्वादिदोषजालं स्वमत्याऽभ्यूह्य दिङ्मात्र दर्शनपरत्वात् प्रयासस्य / अत एव-"सप्त भुवनान्येकबुद्धिनिर्मितानि, एकवस्त्वन्तर्गतत्वात , एकावसथान्तर्गतानेकापवरकवत् / यथैकावसथान्तर्गतानामपवरकाणां सूत्रधारकबुद्धिनिर्मितत्वं दृष्टं तथ. कस्मिन्नेव भुवनेऽन्तर्गतानि सप्त भुवनानि, तस्मात तेषाममप्येकबुद्धिनिमितत्वं निश्चीयते, यबुद्धिनिमितानि चैतानि स भगवान् महेश्वरः सकलभुवनैकसूत्रधारः" [ ] इत्यादिकाः प्रयोगाः प्रशस्तमतिप्रभृतिभिरुपन्यस्तास्तेष्वपि हेतुरसिद्ध , न ह्य के भुवनम् आवसथादिर्वास्ति, व्यवहारलाघवार्थ बहुब्वियं संज्ञा कृता, अत एव दृष्टान्तोऽपि साधनविकलः, एकसौधाद्यन्तर्गतानामपवरकादीनामनेकसूत्रधारघटितत्वदर्शनाच्चानकान्तिको हेतुः। चलता है यह सभी को मान्य है। यदि ईश्वरात्मकपुरुषकृतउपदेशपूर्वकत्व को सिद्ध करना चाहते हो तब तो हेतु अनैकान्तिक हो जायेगा क्योंकि आधुनिक पुरुषोपदेश से प्रवृत्त नये व्यवहार में आप का इष्ट साध्य नहीं है और प्रत्यर्थनियतत्वरूप हेतु वहाँ रहता है। तथा, कुमारादि के धेनुआदिसंबधी वाणीप्रयोग को आपने दृष्टान्त किया है उसमें तो माताकृत उपदेशपूर्वकत्व है, ईश्वरोपदेशपूर्वकत्वरूप साध्य नहीं है अत: साध्यवैकल्य यह दृष्टान्तदोष हुआ। यह दूषण अन्य हेतुओं में भी समान है यह पहले भी कह चुके हैं। तथा, मुख के विना उपदेश का संभव न होने से हेतु में विरुद्धता दोष और स्वीकृत प्रतिज्ञा में स्वाभ्युपगमबाध ये नये दो दोष हैं-(१) जो मुखविहीन है वह उपदेश नहीं कर सकता यह बात सर्वगम्य है / व्यवहार में अगर ईश्वरोपदेशपूर्वकत्व का संभव होता तब तो विरुद्धता दोष न होता, किन्तु ईश्वर मुखरहित होने से वह उपदेश करे यह बात अनुचित है / मुखरहित इसलिये है कि वह देहधारी नहीं है। देह इसलिये नहीं है कि उसको धर्म और अधर्म का संपर्क नहीं है / जैसे कि उद्योतकर ने कहा है-"ईश्वर की ज्ञानवत्ता में जैसे प्रमाण है वैसे उसमें नित्य धर्म होने में कोई प्रमाण नहीं है।" [ न्यायवात्तिक 4-1-21 ] / अतः ईश्वर में उपदेशकर्तृत्व सम्भव न होने से व्यवहार में तदपदेशमूलकता की सिद्धि का भी संभव नहीं किंतु अन्य किसी पुरुष कृतोपदेशमलकता की ही सिद्धि होगी। इस प्रकार हेतु इष्ट का विघात करने वाला होने से विरुद्ध हुआ। (2) अब यदि ईश्वर में उपदेशकर्तृत्व मानना है तो देह और मुख भी मानना होगा, परिणामत: ईश्वर में जो मुखहीनता मानी है उसकी हानि होगी यह अभ्युपगमबाध हुआ। इस प्रकार ईश्वर के सर्वज्ञतादि अन्य विशेषों के साधक हेतुओं में भी असिद्धता-अनैकान्तिकता-विरुद्धतादि दोषवृद बुद्धिमानों को अपनी अपनी बुद्धि से समझ लेना चाहिये, यह प्रयास तो केवल दिशासूचक ही है। [ सप्तभुवन में एकव्यक्तिकत कत्व की अनुपपत्ति ] प्रशस्तमति आदि नैयायिकों ने जो अन्य प्रयोग दिखलाये हैं जसे सात भुवन एक व्यक्ति की बुद्धि से निर्मित हैं कि एक वस्तु (विश्व) के अन्तर्गत हैं। उदा० एक मकान के अन्तर्गत अनेक कक्ष / एक बडे राजभवनादि के अन्तर्गत अनेक कक्ष होते हैं वे सब एक ही सूत्रधार की बुद्धि से निर्मित होते हुए दिखते हैं, तो उसी तरह एक ही भुवन (विश्व) में अन्तर्गत सात भुवन हैं अतः वे सब एक ही पुरुष की बुद्धि से निर्मित होने का निश्चय किया जा सकता है / जिस पुरुष की बुद्धि से ये निर्मित होंगे वही एक सारे विश्व का निर्माता सूत्रधार भगवान् विश्वकर्मा सिद्ध हुए। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वराकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 529 यच्च-'एकाधिष्ठाना ब्रह्मादयः पिशाचान्ताः, परस्परातिशयवृत्तित्वात , इह येषां परस्परातिशयवृत्तित्वं तेषामेकायत्तता दृष्टा यथेह लोके गृह-ग्राम-नगर-देशाऽधिपतीनामेकस्मिन् सार्वभौमनरपतौ; तथा च भजग-रक्षो-यक्षप्रभतीनां परस्परातिशयवत्तित्वमतेन मन्यामहे तेषामप्येकस्मिन्नीश्वरे पारतन्त्र्यम्" इति-तदेतद् यदि 'ईश्वराख्येनाधिष्ठायकेनकाधिष्ठानाः' इत्ययमर्थः साधयितुमिष्टस्तदानकान्तिकता हेतोः, विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् प्रतिबन्धाऽसिद्धः। दृष्टान्तस्य च साध्यविकलता / अथ 'अधिष्ठायकमात्रेण साधिष्ठानाः' इति साध्यते तदा सिद्धसाध्यता, यत इष्यत एव सुगतसुतैर्भगवता संबुद्धेन सकललोकचूडामणिना सर्वमेव जगत् करुणावशादधिष्ठितम्, यत्प्रभावादद्याप्यभ्युदय-निःश्रेयससंपदमासादयन्ति साधुजनसार्थाः। सर्वेष्वपि च सर्वज्ञसाधनेषु परोपन्यस्तेषु यदि सामान्येन 'कश्चित् सर्वज्ञः' इति साध्यमभिप्रेतं तदा नाऽस्मान् प्रति भवतामिदं साधनं राजते, सिद्धसाध्यतादोषात् / किन्तु ये सर्वज्ञाऽपवादिनो जैमिनीयाश्चार्वाका वा तेष्वेव शोभते / अथेश्वराख्यः सर्वज्ञः साध्येत तदोक्तप्रकारेण प्रतिबन्धासिद्धेहेतू प्रशस्तमति ने यह और इसके जैसे अन्य प्रयोग जो दिखाये हैं उनमें भी हेतु असिद्ध है, क्योंकि सारा विश्व अथवा मकान भी कोई एक वस्तुरूप है ही नहीं, अनेकवस्तुसमूहात्मक ही यह विश्व है और मकान भी। उन सभी का भिन्न अनेक शब्दों से प्रयोग न करना पड़े इसलिये लाघव के लिये समस्तवस्तु-समूह की 'विश्व' अथवा 'मकान' ऐसी एक संज्ञा की गयी है। इसलिये दृष्टान्तरूप में उपन्यस्त राजभवनादि के अनेक कक्षों में एक वस्तु अन्तर्गतत्वरूप हेतु ही नहीं है / तदुपरांत, जिसको आप 'एक' मानते हैं उस राजभवनादि के अन्तर्गत अनेक कक्षों का कोई एक नहीं किन्तु अनेक सूत्रधार निर्माता होते हैं यह दिखता है इसलिए यहाँ हेतु रह जाय फिर भी साध्य न होने से हेतु साध्यद्रोही बनेगा। [ परस्परातिशयवृत्तित्व हेतुक अनुमान भी सदोष है ] यह भी एक ईश्वरसाधक प्रयोग किसी ने किया है-"ब्रह्मा से लेकर पिशाच तक सब एक व्यक्ति से अधिष्ठित हैं चूंकि एक दूसरे से अपकर्ष-उत्कर्ष रूप अतिशय यानी तरतमभाव से अवस्थित हैं / उदा० जो अन्योन्य तरतमभाववाले होते हैं वे किसी एक को अधीन होते हैं जैसे इस लोक में तरतमभाव से अवस्थित गृहपति, ग्रामस्वामी, नगरपति, देशाधिपति ये सब एक सार्वभौम चक्रवर्ती राजा को आयत्त अधीन होते हैं। इसी प्रकार, सर्प राक्षस-यक्षादि भी तरतमभाव से अवस्थित हैं, अतः मानते हैं कि वे भी किसी एक ईश्वर को परतन्त्र हैं।"-.. किन्तु इस अनुमान प्रयोग में साध्यद्रोहितादि दोष हैं, जैसे देखिये-यदि आपको ईश्वरात्मक एकाधिष्ठायक का अधिष्ठान सिद्ध करना है तो 'ऐसा साध्य न होने पर भी हेतु रहे तो क्या बाध'इस विपक्ष की शंका का कोई बाधक प्रमाण न होने से व्याप्ति असिद्ध होने पर हेतु में अनैकान्तिकता दोष लगेगा / तथा दृष्टान्त में तो आपने एक सार्वभौम राजा का पारतन्त्र्य दिखाया है ईश्वर का नहीं, अतः दृष्टान्त साध्यशून्य हुआ / यदि किसी भी प्रकार से अधिष्ठायक का अधिष्ठान' सिद्ध करना चाहते हैं तब तो बौद्धमत के अनुसार सिद्धसाध्यता दोष होगा। कारण, बुद्ध का अनुयायी वर्ग यह मानता है कि सारा ही विश्व सकललोकशिरोमणितुल्य स्वयंबुद्ध भगवान से अपनी करुणा के द्वारा अधिष्ठित है, जिसके प्रभाव से ही साधुओं का समूह आबादी और मोक्षसंपत्ति को प्राप्त करते हैं। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नामनैकान्तिकता, दृष्टान्तस्य च साध्यविकलतेति / शेषस्तु पूर्वपक्षग्रन्थो निःसारतयोपेक्षितः / प्रतः ईश्वरसाधकस्य तन्नित्यत्वादिधर्मसाधकस्य च प्रमाणस्याभावात् "क्लेश-कर्म-विपाकाऽऽशयरपरामष्ट: पुरुषविशेष ईश्वरः" [ यो० द० 1-24 ] इत्यादि सर्वमयुक्ततया स्थितम् / अतो भवहेतुरागादिजयात् शासनप्रणेतारो जिनाः सिद्धाः / अतः सुव्यवस्थितमेतद भवजिनानां शासनम्' इति / [ईश्वरकर्तृत्ववादः समाप्तः ] ननु यदि तेषां भवनिबन्धनरागादिजेतृत्वं तदा शासनप्रणेतृत्वानुपपत्तिः, तज्जयानन्तरमेवा. पवर्गप्राप्तेः शरीराभावे वक्तृत्वाऽसम्भवात् / अथ रागादिक्षयानन्तरं नापवर्गप्राप्तिस्तहि रागादिजयो न भवक्षयलक्षणापवर्गप्राप्तिकारणम् , न हि यस्मिन सत्यपि यन्न भवति तत् तदविकलकारणं व्यवस्थापयितुं शक्यम् , यवबीजमिव शाल्यंकुरस्य / अथ निरवशेषरागाद्यजयाद् अपवर्गप्राप्तेः प्रागेव तत्प्रणेतृत्वाददोषः, नन्वेवं तच्छाशनस्य रागलेशाऽऽश्लिष्ट पुरुषप्रणीतत्वेन नैकान्तिकं प्रामाण्यं, कपिलादि. पुरुषप्रणोतस्येव इत्याशंक्याह सूरिः-ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' इति / [ भवविजेताओं का शासन-यह कथन सुस्थित है ] परवादी ने सर्वज्ञ की सिद्धि के लिये जितने अनुमान प्रयोग किये हैं उन सभी में यदि सामान्यत! 'कोई एक सर्वज्ञ' पुरुष की सिद्धि अभिप्रेत हो तब तो हमारे प्रति वैसा अनुमान प्रयोग करना शोभायुक्त नहीं क्योंकि सर्वज्ञवादी हमारे प्रति उस में सिद्धसाध्यता दोष है / उन लोगों के प्रति ही वह शोभास्पद होगा जो सर्वज्ञ का अपलाप करते हैं, उदा० मीमांसक और नास्तिक / अब यदि ईश्वर को ही सर्वज्ञ सिद्ध करना चाहते हैं तब उक्त रीति से व्याप्ति की असिद्धि के कारण, सभी हेतु अनैकान्ति दोष से दूषित हो जाते हैं और दृष्टान्त भी साध्यशून्य बन जाते हैं। इस प्रकार पूर्वपक्षोक्तग्रन्थ का बहु भाग निरस्त हुआ। जो शेष है वह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, असार है इसलिये उसकी उपेक्षा ही उचित है। उपसंहारः-ईश्वर का और उसके नित्यत्वादि धर्मों का साधक कोई भी प्रमाण न होने से, जो यह प्रारम्भ में पूर्वपक्षी ने कहा था-क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से अस्पृष्ट पुरुषविशेष ईश्वर हैइत्यादि, [ पु० 281], यह सब अयुक्त सिद्ध हुआ। फलत: भगवान् जिनेन्द्र संसारहेतुभूत रागादि के विजय से ही शासन के प्रणेता हैं यह सिद्ध हुआ / इसलिये मूलकारिका में ग्रन्थकार श्रीसिद्धसेनसूरिमहाराज ने जो यह कहा है 'भवजिनों का शासन' यह भलीभाँति ठीक ही सिद्ध हुआ। [ईश्वर कर्तृत्ववाद समाप्त ] [ 'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं" पदों की सार्थकता] . शंका:-जिनेन्द्र भगवान यदि संसार के बीजभूत रागादि के विजेता हैं, तो उन में शासन का प्रस्थापकत्व सगत नहीं है / कारण यह है कि भवबीजभूत रागादि का क्षय होने पर तुरन्त ही मोक्षलाभ हो जाने से शरीर के अभाव में वक्तृत्व ही संभव नहीं है / यदि रागादिक्षय होने पर भी मोक्षलाभ नहीं हुआ, तब तो भवक्षयात्मक मोक्ष की प्राप्ति का वह कारण ही नहीं माना जा सकेगा। 'जिस के होते हुए भी जो उत्पन्न होता नहीं, वह उसका परिपूर्ण कारण है'-ऐसी व्यवस्था अशक्य है / उदा० जव के बीज में चावल के अंकुर की कारणता स्थापित नहीं हो सकती / यदि कहें-'रागादि का संपूर्ण Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-शासनप्रणयनोपपत्तिा 531 अस्याभिप्राय:-यद्यपि सर्वज्ञताप्रतिबन्धिघातिकर्मचतुष्टयक्षयाविर्भूतकेवलज्ञानसम्पदो जिनास्तथापि भवोपनाहिशरीरनिबन्धनस्य कर्मणः सद्धावादपस्थितिकस्य न शरीराद्यभावात् शासनप्रणेतृत्वाऽनुपपत्तिः, नापि रागादिलेशसद्भावात् तत्प्रणीतस्यागमस्याऽप्रामाण्यम् , विपर्यासहेतो_तिकमणोऽत्यन्तक्षयात् न च कर्मक्षयादपरस्थाऽप्रवृत्तिनिमित्तत्वम् भवोपग्राहिणोऽद्यापि सामस्त्येनाऽक्षयात् तत्क्षये चापवर्गस्यानन्तरभावित्वात् कर्मक्षयस्यैवापवर्गप्राप्तावविकलकारणत्वादिति। * अवयवार्थस्तु-तिष्ठन्ति सकलकर्मक्षयावाप्तानन्तज्ञानसुखरूपाध्यासिताः शुद्धात्मानोऽस्मिन्निति स्थानं लोकाग्रलक्षणं विशिष्टक्षेत्रम् न विद्यत उपमा स्वाभाविकात्यन्तिकत्वेन सकलव्याबाधारहितत्वेन च सर्वसुखातिशायित्वाद् यस्य तत् सुखमानन्दरूपं यस्मिन् तत् तथा, तत् 'उप' इति कालसामीप्येन गतानां प्राप्तानां, यद्वा 'उप' इत्युपसर्गः प्रकर्षेऽप्युपलभ्यते यथा “उपोढरागेण' इति / तेन स्थानमनुपमसुखं प्रकर्षण गतानामिति / "परार्थे प्रयुज्यमानाः शब्दा वतिमन्तरेणापि तमर्थ गमयन्ति" इति न्यायादनुभूयमानतीर्थकृन्नामकर्मलेशसद्भावेऽपि तद् गता इव गता इत्युक्तास्तेन शासनप्रणेतृत्वं तस्यामवस्थायां तेषामुपपन्नमेव / तया विजय नहीं किया है अत: मोक्षप्राप्ति के पूर्व में ही शासन की स्थापना करते हैं-इस में कोई दोष नहीं है तो उस शासन में ऐकान्तिक प्रामाण्य नहीं घटेगा चूकि वह आंशिकरागलिप्त पुरुष से उपदिष्ट है, जैसे कि कपिलादिऋषिपुरुषों का शासन / समाधान: इस शंका के समाधानार्थ सूरीश्वर श्री सिद्धसेनदिवाकरजी ने प्रथम मूलकारिका में जिनेन्द्र के विशेषणरूप में 'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' ऐसा प्रयोग किया है / [सावशेषअघातिकर्ममूलक शासनस्थापना की संगति ] ___ अभिप्राय यह है कि-यद्यपि जिनेन्द्र भगवान के सर्वज्ञताप्रतिबन्धक घाति चार कर्म-ज्ञानावरणदर्शनावरण-मोहनीय और अंतराय कर्म, संपूर्ण क्षीण हो जाने से केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की सम्पत्ति प्राप्त हो चुकी है। फिर भी अल्पकालीन संसारस्थिति के तथा देहादिअवस्थान कारणभूत अघाति भवोपग्राही आयुषादि कर्म (क्षयाभिमुख होने पर भी) संपूर्णतया क्षीण न होने से शरीरादिअभावमूलक शासनस्थापना में कोई असंगति नहीं है / तथा मोहनीय के क्षय से रागादि संपूर्ण क्षीण हो गये हैं, अत: 'उसके आंशिक रह जाने से उसका स्थापित आगम प्रमणाभूत न होने की भी कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि आगम में वैपरीत्य ( =अयथार्थत्व) के हेतु घाति कर्म ही हैं और वे तो संपूर्ण क्षीण हो गये हैं। किसी भी व्यक्ति की प्रवृत्ति सर्वथा बन्द हो जाने में संपूर्ण कर्मक्षय ही निमित्तभूत है, दूसरा कोई नहीं / जिनेद्र भगवान जब शासनस्थापना करते हैं तब उनके संपूर्ण कर्म क्षीण हुए नहीं रहते है। और जब ( शासन स्थापना के बाद ) वे कर्म संपूर्ण क्षीण हो जाते हैं उसी वक्त जिनेन्द्र भगवान को मोक्षलाभ भी हो जाता है। तात्पर्य, संपूर्णकर्मक्षय ही मोक्षप्राप्ति का परिपूर्ण कारण है-ऐसा हमारा सिद्धान्त है। [शासनस्थापना कार्य की उपपत्ति अबाधित ] ठाणमणोवम०-इसका शब्दार्थ इस प्रकार है-सकलकर्मों का क्षय कर के प्राप्त किये गये अनन्तज्ञान-अनन्तसुखस्वरूप से आश्लिष्ट शुद्धात्मा जहाँ जा कर रहते हैं वह 'स्थान' है, वह एक विशिष्ट क्षेत्र है जो लोक के उर्ध्व अग्रभागरूप है। तथा, ऐसा सुख जो स्वाभाविक, आत्यन्तिक Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ यद्वा-"मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति व्योमवत् तापजिताः" इत्येतस्य दुर्नयस्य निरासार्थमाह सूरि:'ठाणमणोवमहमूवगयाणं'। अत्र च स्थानमनपमसुखम् प्रकर्षण प्रपुनरावृत्त्या गतानाम्-उपगतानामिति व्याख्येयम् / अथवा "बुद्धचादीनां नवानां विशेषगुणाननामात्यन्तिकः क्षयः आत्मनो मुक्तिः" इति मतव्यवच्छेदार्थमाचार्येरण 'ठाणमणोवमसुहमुमवगयाणं' इति सूत्रमुपन्यस्तम् / अस्य चायमर्थःस्थितिः स्थानं स्वरूपप्राप्तिः. तद अनपमसखम 'उप' इति सकलकर्मक्षयानन्तरमव्यवधानेन गतानां प्राप्तानाम्-शैलेश्यवस्थाचरमसमयोपादेयभूतमनन्तसुखस्वभावमात्मनः कथंचिदनन्यभूतं स्वरूप प्राप्तानामिति यावत् / [ आत्म-विभुत्वस्थापनपूर्वपक्षः] अत्राहुः वैशेषिकाः-सर्वमेतदनुपपन्नम् , प्रात्मनो विभुत्वेन विशिष्टस्थानप्राप्तिनिमित्तगत्यसंभवात् , कर्मक्षये च शरीराद्यभावे मुक्तात्मनां सुखस्य तद्धेतुनिमित्ताऽसमवायिकाररणाभावेनोत्पत्त्यसंभवात , नित्यस्य चानन्दस्याऽवैषयिकस्यानुपलम्भेनाऽसत्त्वात् / न चाऽऽत्मनो विभुत्वमसिद्धम् , अनुमानात् तत्सिद्धः / तथाहि-बुद्ध्यधिकरणं द्रव्यं विभु, नित्यत्वे सत्यस्मदाद्युपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वात् यद् यद् नित्यत्वे सत्यस्मदाद्युपलभ्यमानगुणाधिष्ठानं तत् तद् विभु यथाऽऽकाशम् , तथा च बुद्ध्यधिकरणं द्रव्यं, तस्माद् विभुः / न च बुद्धेर्गुणत्वाऽसिद्धहेतुविशेषणाऽसिद्ध्या हेतोरसिद्धिरभिधातु शक्या, बुद्धिगुणत्वस्यानुमानात् सिद्धेः / तथाहि और सकल व्याघात शून्य एवं अन्य सभी सुखों को टक्कर मारने वाला है, अत एव जिसको किसी की उपमा नहीं दी जा सकती, ऐसा सुख जहाँ है वैसा स्थान / 'उप' यानी काल का समीप्य, अर्थात् निकट के काल में ही जो वहाँ गये, अर्थात् जिन्होंने वह स्थान प्राप्त किया है / ( अर्थात् अल्पकाल में जो वहाँ जाने वाले हैं ) अथवा 'उप' इस उपसर्ग शब्द का 'प्रकर्ष' अर्थ भी उपलब्ध है जैसे 'उपोढराग' इस प्रयोग में। इसलिये, अनुपमसुखवाले स्थान को प्रकृष्टरूप से जिन्होंने प्राप्त किया है। यहाँ 'उपगतवताम् , ऐसा वत्प्रत्ययान्त प्रयोग न करके 'उपगतानां' ऐसा जो प्रयोग किया है वह इस न्याय के अनुसरण से कि 'वत् प्रत्यय के विना भी अन्यार्थ में प्रयुक्त शब्द उसी अर्थ का बोधक होता है' [ जो वत् प्रत्ययान्त से बोधित होता है ] / इससे यह कहना है कि वर्तमान में अनुभवारूढ तीर्थंकर नाम कर्म का अंश विद्यमान होने पर भी मानों कि वे वहाँ पहुंच गये न हो। तात्पर्य, 'अनुपम सुख के स्थान को प्राप्त' ऐसा कह देने पर भी (वास्तव में जीवन्मुक्तावस्था पूर्ण नहीं हुई है इसलिये) इस अवस्था में शासनस्थापना का कार्य संगतियुक्त ही है। [आत्मविभुत्व, मुक्ति में सुखाभाव-मतद्वय का निरसन ] अथवा, जिन लोगों का मत ऐसा है कि "आकाश की तरह मुक्तात्मा भी तापरहित होकर सर्वत्र रहते हैं"-इस दुर्नय के निरसनार्थ सूरीश्वरजीने 'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' ऐसा सूत्र बनाया है। उस का अर्थ अब यह होगा कि अनुपम सुखवाले स्थान में 'वापस न लौटना पड़े' ऐसे प्रकर्ष से जो चले गये हैं अर्थात् अब यहां संसार में नहीं रहे हैं / अथवा, जिन लोगों का ( न्याय-वैशेषिकों का ) मत ऐसा है "सुखसहित बुद्धि आदि नव विशेषगुणों का अत्यन्त नाश हो जाना यही आत्मा को मुक्ति है" इस मत के उच्छेदार्थ आचार्य श्री ने 'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' ऐसा सूत्र बनाया है / उसका अर्थ यह है-स्थिति यही स्थान है, अर्थात् अपने ही स्वरूप में स्थिति अथवा अपने स्वरूप की प्राप्ति / Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे पूर्वपक्षः गुणो बद्धिः, प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्मभावे सति सत्तासम्बन्धित्वात् , यो यः प्रतिषिध्यमानद्रव्यममावे सति सत्तासम्बन्धी स स गणः यथा रूपादिः, तथा च बद्धिः, तस्माद गणः / न च प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मत्वसिद्धं बुद्धः / तथाहि-बुद्धिद्रव्यं न भवति, एकद्रव्यत्वात् , यद् यदेकद्रव्यं तत् तद् द्रव्यं न भवति यथा रूपादि, तथा च बुद्धिः, तस्माद न द्रव्यम् / न चाऽयमसिद्धो हेतुः / तथाहि एकद्रव्या बुद्धिः, सामान्यविशेषवत्त्वे सत्येकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् , यद् यत् सामान्य-विशेषवत्त्वे सत्येकेन्द्रियप्रत्यक्ष तत् तद् एकद्रव्यम् यथा रूपादिः, तथा बुद्धिः, तस्मादेकद्रव्या। यह स्थान अनुपम सुख वाला है। 'उपगत' यहाँ 'उप' यानी सकल कर्मों का क्षय हो जाने पर किसी भी अन्तर के विना 'गत' यानी प्राप्त / 'प्राप्त' का तात्प क शैलेशी अवस्था के अन्तिम समय में उपादेयभूत अनन्तसुखमय स्वभाव जो आत्मा से कथंचित् अभिन्न ही है-ऐसे स्वरूप को प्राप्त करने वाले। [आत्मा सर्वव्यापी है-वैशेषिकपूर्वपक्ष ] यहाँ वैशेषिक पंडितों का कहना है कि-आपकी यह पूरी बात असंगत है क्योंकि आत्मा विभु= सर्वव्यापी होने से किसी विशिष्टस्थान की ओर पहुंचाने वाली गति का सम्भव ही नहीं है / तथा कर्म क्षीण हो जाने के बाद देहादि के अभाव में मुक्तात्माओं में सुख के हेतुभूत असमवायिकारणात्मक निमित्त भी नहीं रहता अत: सूख की उत्पत्ति भी असंभव है। विषय निरपेक्ष नित्य सुख अप्रसिद्ध होने से असत् ही है। - आत्मा की सर्वव्यापिता असिद्ध नहीं है-अनुमान से उसकी सिद्धि शक्य है / जैसे देखिये"बुद्धि का अधिकरण द्रव्य विभु सर्वव्यापी है क्योंकि वह नित्य एवं अपने लोगों को उपलभ्यमान (ज्ञायमान ) गुणों का अधिष्ठान है। जो जो नित्य एवं अपने लोगों को उपलभ्यमान गुणों का अधिष्ठान होता है वह विभु होता है, उदा० (शब्दगुण का अधिष्ठान ) आकाश / बुद्धि का अधिकरण आत्मद्रव्य भी वैसा है, अतः वह विभु है / " यदि कहें कि-बुद्धि में गुणात्मकता असिद्ध है, अत: हेतु में प्रयुक्त 'गुण' विशेषण की असिद्धि से आप का हेतु भी असिद्ध हो गया-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि * बुद्धि में अनुमान से गुणरूपता सिद्ध है / जैसे देखिये [बुद्धि में गुणात्मकता सिद्धि के लिये अनुमान ] "बुद्धि गुणात्मक है-क्योंकि उसमें द्रव्यत्व और कर्मत्व निषिद्ध होने के साथ सत्ता का सम्बन्ध भी है। जिसमें द्रव्यत्व-कर्मत्व के निषेध के साथ सत्तासम्बन्ध होता है वह गुण होता है, उदा० रूपरसादि / बुद्धि भी ऐसी ही है अतः गुणात्मक सिद्ध होती है।"-इस अनुमान में, बुद्धि में हेतु का विशेषण प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मत्व असिद्ध नहीं है। वह इस प्रकार:-(१) 'बुद्धि द्रव्यरूप नहीं है, क्योंकि वह एक द्रव्यवाली है-अर्थात् एक ही द्रव्य में रहने वाली है / जो भी एकद्रव्यवाला होता है वह द्रव्यरूप नहीं होता, उदा० रूप-रसादि, [ एक रूप या एक रस किसी एक ही द्रव्य में रहता है, अनेक द्रव्य में नहीं ] / बुद्धि भी एकद्रव्यवाली ही है। अतः वह द्रव्य रूप नहीं है।" इस प्रयोग में भी हेतु असिद्ध नहीं है। वह इस प्रकार:-"बुद्धि एकद्रव्यवाली है, क्योंकि सामान्यविशेषवाली (=अवान्तर सामान्यवाली) होती हुयी एक इन्द्रिय से प्रत्यक्ष है / जो सामान्यविशेष वाले होते हुए एकइन्द्रिय से प्रत्यक्ष होते हैं वे एकद्रव्यवाले होते हैं जैसे रूप- रसादि, बुद्धि भी वैसी ही है अतः एकद्रव्य वाली सिद्ध होती है।" Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ ___ नच 'एकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्' इत्युच्यमाने आत्मना व्यभिचारः, तस्येकैन्द्रियप्रत्यक्षत्वे विवादात् / नापि वायुना, तत्रापि तत्प्रत्यक्षत्वस्य विवादास्पदत्वात् / तथापि रूपत्वादिना व्यभिचारः, तन्निवृत्त्यर्थ 'सामान्य विशेषवत्त्वे सति' इति विशेषणोपादानम् / न च रूपस्यान्तःकरणग्राह्यतया द्वीन्द्रियग्राह्यता, चक्षुरिन्द्रियस्यैव 'चक्षुषा रूपं पश्यामि' इति व्यपदेशहेतोस्तत्र करणत्वसिद्धिः, मनसस्त्वान्तरार्थप्रतिपत्तावेवाऽसाधारणकरणत्वात्। अथवा, एकद्रव्या बुद्धिः सामान्य-विशेषवत्त्वे अगुणवत्त्वे च सत्यचाक्षुषप्रत्यक्षत्वात् , शब्दवत् / तथा, न कर्म बुद्धिः, संयोग-विभागकारणत्वात् , यद् यत् संयोगविभागाकारणं तत तत कर्म न भवति, यथा रूपादि, तथा च बुद्धिः, तस्माद् न कर्म / तस्मात् सिद्धः प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मभावो बुद्धेः। न च सत्तासम्बन्धित्वमसिद्धं बुद्धेः, तत्र 'सत्' इति प्रत्ययोत्पादात् / न च सत्ता भिन्ना न सिद्धा, तदप्रतिपादकप्रमाणसद्भावात् / तथाहि-यस्मिन भिद्यमानेऽपि यन्न भिद्यते तत ततोऽर्थान्तरम यथा भिद्यमाने वस्त्रादावभिद्यमानो देहः, भिद्यमाने च बुद्धचादौ न भिद्यते सत्ता, द्रव्यादौ सर्वत्र सत् सत'. इति प्रत्ययाभिधानदर्शनात् अन्यथा तदयोगात् / सा च बुद्धिसम्बद्धा, ततस्तत्र विशिष्टप्रत्ययप्रतीतेः / तथाहि-यतो यत्र विशिष्टप्रत्ययः स तेन सम्बद्धः यथा दण्डो देवदत्तेन, भवति च बुध्यादौ सत्तातस्तत्प्रत्ययः, ततस्तया संबद्धेति / [ सामान्यविशेषवत्व विशेषण की सार्थकता] केवल 'एकेन्द्रियप्रत्यक्ष' इतना ही हेतु किया जाय तो आत्मा में हेतु है और साध्य एकद्रव्यता तो नहीं है अत: हेत साध्यद्रोही हआ-ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि-आत्मा एकडन्द्रिय प्रत्या विषय है' इसीमें विवाद है / वायु में भी हेतु साध्यद्रोही नहीं है क्योंकि उस में भी आत्मा को तरह प्रत्यक्ष होने से विवाद है / हाँ रूपत्वादि में हेतु साध्यद्रोही हो सकता है क्योंकि वह एकमात्र नेत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष है किन्तु एक ही द्रव्य में रहने वाला नहीं, अनेकद्रव्य में रहता है-अत: इसके वारण के लिये विशेषण किया है 'सामान्यविशेषवाला' / इस विशेषण के लगाने से हेत रूपत्वादि में साध्यद्रोही नहीं बनेगा क्योंकि रूपत्वादि में कोई अवान्तर सामान्य रहता ही नहीं / यह भी नहीं कह सकते कि-'रूपत्व में तो नेत्रग्राह्यता की तरह मनोग्राह्यता भी रहती है अतः एकेन्द्रियग्राह्यता हेतु वहाँ नहीं रहेगा तो उक्त विशेषण लगाने की क्या जरूरत ?'-जरूरत यह है कि 'मैं नेत्र से रूप को देखता हूँ' इस व्यवहार के बीजभूत नेत्रेन्द्रिय में ही चाक्षुषप्रत्यक्षकरणत्व की सिद्धि होती है अतः, उसमें मन करणरूप न होने से रूप को इन्द्रियग्राह्य नहीं कहा जा सकता। मन भी असाधारण कारण होता है किन्तु वह केवल आन्तरिक सुखादि के बोध मे ही, बाह्य वस्तु के बोध में नहीं। अथवा बुद्धि में एकद्रव्यत्वसाधक यह भी एक अनुमान है बुद्धि एकद्रव्य वाली है, क्योंकि उसमें सामान्यविशेषवत्ता होने पर भी गुणवत्ता एवं चाक्षुषप्रत्यक्षत्व नहीं है, उदा० शब्द / [ बुद्धि में क्रियारूपता का निषेधक अनुमान ] बुद्धि में गुणरूपता के निषेध की तरह कर्मरूपता का निषेध भी इस तरह हो सकता है "बुद्धि कर्मरूप नहीं है क्योंकि वह संयोग या विभाग में कारण नहीं होती, जो जो संयोग-विभाग में कारण नहीं बनते वे कर्मरूप नहीं होते, उदा० रूप-रसादि, बुद्धि भी संयोग विभाग की कारणभूत नहीं है Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1 आत्मविभुत्वे पूर्वपक्षः 535 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मत्वात्' इत्युच्यमाने सामान्यादिना व्यभिचारस्तनिवृत्त्यर्थ 'सत्तासम्बन्धित्वात्' इति वचनम् / 'सत्तासम्बन्धित्वात्' इत्युच्यमाने द्रव्य-कर्मभ्यामनेकान्तस्तनिवृत्त्यर्थ 'प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्मभावे सति' इति विशेषणम् / तदेवं भवत्यतोऽनुमानाद् बुद्धेर्गुणत्वसिद्धिः। प्रस्मदाधुपलभ्यमानत्वं च बुद्धस्तदेकार्थसमवेतानन्तरज्ञानप्रत्यक्षत्वाद् नासिद्धम् / नित्यत्वं चात्मन: 'अकार्यत्वात . आकाशवत' इत्यनमानप्रसिद्धम् / अतो नित्यत्वे सत्यस्मदाद्यपलभ्यमानगरपाधिष्ठानत्वात' इति हेतुर्नाऽसिद्धः / नाप्यनैकान्तिकः, विपक्षेऽस्याऽप्रवृत्तेः / नापि विरुद्धः, विभुन्याकाशेऽस्य वृत्युपलम्भात् / नापि बाधितविषयः, प्रत्यक्षागमयोरात्मन्यविभुत्वप्रदर्शकयोरसम्भवात् / नापि प्रकरणसमः, प्रकरणचिन्ताप्रवर्तकस्य हेत्वन्तरस्याऽभावात् / इति भवति सकलदोषरहितादतो हेतोः सर्वगताऽऽत्मसिद्धिः / अतः कर्मरूप भी नहीं है / " इस प्रकार बुद्धि में गुणरूपता की सिद्धि में उपन्यस्त हेतु का आद्य अंश प्रतिषिध्यमान द्रव्य-कर्म भाव सिद्ध हुआ / दूसरा अंश सत्तासम्बन्धित्व यह भी बुद्धि में असिद्ध नहीं है, क्योंकि बुद्धि के विषय में 'सत्' ऐसी प्रतीति उत्पन्न होती है। 'सत्ता ही स्वतंत्ररूप से सिद्ध नहीं' ऐसा नहीं कह सकते, स्वतन्त्र सत्ता का प्रतिपाद्य प्रमाण मौजूद है जैसे-जिसके भिन्न भिन्न होते हुए भी जो अभिन्न रहता है वह उससे स्वतन्त्र होता है, उदा० वस्त्रादि के भिन्न भिन्न रहते हुए भी अभिन्न रहने वाला देह / इसी तरह बुद्धि भिन्न भिन्न होते हुए भी सत्ता भिन्न नहीं होती, क्योंकि द्रव्य-गुणादि भिन्न भिन्न होते हुए भी 'सत्-सत्' ऐसा सत्ता का अनुगत अनुभव और संबोधन होता : हुआ दिखता है। यदि सत्ता द्रव्यादि से भिन्न (स्वतन्त्र) न होती तो ऐसा अनुगत अनुभव नहीं होता। इस प्रकार स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध हुयी, और उसके साथ बुद्धि का सम्बन्ध भी सिद्ध है, क्योंकि सत्ता से बुद्धि में वैशिष्ट्य का अनुभव प्रतीत होता है। जिससे जिसमें वैशिष्ट्य अनुभव होता है वह उसके साथ सम्बद्ध होता है जैसे दण्ड देवदत्त के साथ सम्बद्ध होने पर 'दण्डवाला देवदत्त' ऐसा वैशिष्ट्य अनुभूत होता है। बुद्धि में भी सत्ता के द्वारा 'सत्' ऐसा विशिष्टानुभव होता है अतः सत्ता बुद्धि के साथ सम्बद्ध है यह सिद्ध हुआ। [ हेतु में असिद्धि आदि का निरसन ] बुद्धि में गुणरूपता की सिद्धि के लिये उपन्यस्त हेतु में 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मत्वात्' इतना ही यदि कहा जाय तो जातिओं में हेतु रह जाता है अतः वहाँ साध्यद्रोहिता दोष के निवारण के लिये 'सत्तासम्बन्धित्व' भी कहना आवश्यक है, जातिओं में सत्तासम्बन्धित्व' नहीं है। सिर्फ 'सत्तासम्बन्धित्वात्' इतना ही यदि कहा जाय तो द्रव्य और कर्म में भी वह रह जाने से साध्यद्रोहिता फिर से सावकाश होगी, उसके निवारण के लिये 'प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्मत्व' कहना आवश्यक है. दव्य में द्रव्यत्व का और कर्म में कर्मत्व का प्रतिषेध शक्य नहीं है। इस प्रकार के अनुमान से बुद्धि में गुणात्मकता सिद्ध हुई / अब जो बुद्धि के अधिकरण द्रव्य को व्यापक सिद्ध करने वाला मूल अनुमान है उसमें जो अस्मदाद्युपलभ्यमानत्व यह हेतु अंश है उसकी भी चिन्ता की जाती है कि वह भी असिद्ध नहीं है क्योंकि बुद्धि का प्रत्यक्ष, बुद्धि के ही अधिकरण में समवेत उत्तरकाल में उत्पन्न अनुव्यवसायनामक ज्ञान से होता है / नैयायिकों के मत में ज्ञान को उत्तरकालीन समानाधिकरण ज्ञान से प्रत्यक्ष, माना गया है / हेतु का दूसरा अंश है नित्यत्व, उसकी सिद्धि के लिये यह अनुमान प्रयोग है-आत्मा नित्य है क्योंकि वह कार्यरूप नहीं है, उदा० आकाश / इस प्रकार 'नित्य होते हुए हम लोगों को Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [ आत्मविभुत्वनिरसनं-उत्तरपक्षः] असदेतत् , बुद्धेर्गुणत्वासिद्धावात्मनस्तदधिष्ठानत्वासिद्धरसिद्धो हेतुः / यच्च 'प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्मत्वे सति सत्तासम्बन्धित्वात्' इति गुणत्वं बुद्धेः प्रसाध्यते तत्र सत्तायाः तत्समवायस्य च निषिद्धस्वात् निषेत्स्यमानत्वाच्च सत्तासम्बन्धित्वात्' इति तत्र हेतुरसिद्धः / समवायाभावे च बुद्धरात्मनो व्यतिरेके तेन तस्याः सम्बन्धाभावात् 'आत्मनो द्रव्यत्वं गुणाश्रयत्वेन, तस्याश्च तदाश्रितत्वेन गुणत्वम्' इति दूरोत्सारितम्। भवतु वा समवायसम्बन्धस्तथापि प्रात्मगुण (त्व)वत् तस्या अन्यगुणत्वस्याप्यप्रतिषेधात् तस्यास्तदगणत्वस्यैवाऽसिद्धिः। व्यतिरेकाऽविशेषेऽपि 'आत्मन एव गुणो ज्ञानम नाकाशादेः' इति किकतोऽयं विभागः ? न समवायकृतः, तस्यापि ताभ्यां व्यतिरेके तयोरेवासौ समवायः नाकाशादेः' इति विभागो दुर्लभः स्यात् , तस्य स्वरूपेण सर्वत्राऽविशेषात् / अथात्मकार्यत्वादात्मगुणो बुद्धिः, कुत एतत् ? आत्मनि सति भावात् , आकाशादावपि सति भावात् तस्यास्तत्कार्यताप्रसक्तिः। नाप्यात्मनोऽभावेऽभावात् तस्याः तत्कार्यत्वम, तन्नित्यत्व-व्यापित्वाभ्यां तत्र तस्याऽयोगात् / नापि तत्र तस्याः प्रतीतेः तत्कायेंबासौ नाकाशादिकार्या, तत्र तत्प्रतीतेरसिद्धेः / उपलभ्यमान गुणों का अधिष्ठान वाला है' ऐसा संपूर्ण हेतु असिद्ध नहीं किन्तु सिद्ध है / यह हेतु विपक्ष में न रहने से अनैकान्तिक दोष निरवकाश है / हेतु विभु द्रव्य आकाश में वत्तमान है अतः उसे विरुद्ध नहीं कह सकते / हेतु बाघज्ञान का विषय भी नहीं है क्योंकि आत्मा में अव्यापकत्व का साधक न तो कोई प्रत्यक्ष है, न तो किसी आगम का सम्भव है / प्रकरणसम यानी हेतु सत्प्रतिपक्ष भी नहीं है क्योंकि जिससे प्रकरण में चिन्ता उपस्थित हो ऐसा विरोधी साध्य साधक अन्य कोई हेतु नहीं है / इस प्रकार सकल दोष से शून्य इस हेतु से आत्मा में सर्वगतत्व सिद्ध होता है। [पूर्वपक्ष समाप्त ] [ आत्मा व्यापक नहीं है-उत्तरपक्ष ] आत्मा के विभुत्व की बात गलत है। बुद्धि में गुणत्व ही असिद्ध होने से आत्मा में बुद्धि का अधिष्ठान भी असिद्ध हो जाने से आत्मविभुत्वसाधक हेतु ही असिद्ध हो जाता है। वह इस प्रकार:सत्ता का और उसके समवायसंबंध का पहले हम प्रतिकार कर आये हैं और आगे भी किया जाने वाला है, अतः बुद्धि में गुणत्व सिद्धि के लिये प्रयुक्त 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मत्वे सति सत्तासम्बन्धित्वात्' इस हेतु में 'सत्तासम्बन्धित्व' अंश से हेतु असिद्ध है। समवाय के निषिद्ध हो जाने पर बुद्धि को यदि आत्मा से भिन्न मानेंगे तो आत्मा के साथ बुद्धि का सम्बन्ध न घटने पर गुण की आश्रयता से आत्मा में द्रव्यत्व की और द्रव्य में आश्रित होने से बुद्धि में गुणत्व की सिद्धि भी दूर से ही प्रतिक्षिप्त हो जाती है। [बुद्धि आकाश का गुण क्यों नहीं ? ] अथवा समवायसम्बन्ध मान लिया जाय, तो भी बुद्धि में आत्मगुणता की तरह अन्य द्रव्यगुणता की कल्पना भी संभावित होने से बुद्धि सिर्फ आत्मा का ही गुण होने की बात असिद्ध है। जब बुद्धि आत्मा से भिन्न ही है तब आत्मा और बुद्धि के बीच ही समवाय है और आकाश-बुद्धि Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 537 तथाहि-न तावद् आत्मात्मनि बुद्धि प्रत्येति, तस्य स्वसंविदितत्वानभ्युपगमात् / ज्ञानान्तरप्रत्यक्षत्वेऽपि विवादात् / तन्न तेनात्मस्वरूपमपि गृह्यते दूरत एव स्वात्मव्यवस्थितत्वं बुद्धः। नापि बुद्ध्या तयवस्थितत्वं स्वात्मनो गृह्यते, तयात्मनः स्वकीयरूपस्य वाऽग्रहणात, बुद्ध्यन्तरग्राह्यत्वाऽसम्भवात् , स्वसविदितत्वस्य चाऽनिष्टेः, अज्ञातायाश्च घटादेरिवापरग्राहकत्वानुपपत्तेर्न तयाप्यात्मनि व्यवस्थितं स्वरूपं गृह्यते / न च तदुत्कलितत्वम् , तदाधेयत्वम् , तत्समवेतत्वं वा आकाशादिपरिहा. रेणात्मगुणत्वनिबन्धनम् , सर्वस्य निषिद्धत्वात् / न च कार्येणाननुकृतव्यतिरेकं नित्यमात्मलक्षणं वस्तु कस्यचित् कारणं सिध्यति अतिप्रसंगात् / यथा च नित्यस्यैकान्तत प्रात्मनोऽन्यस्य वा न कारणत्वं सम्भवति तथा प्रतिपादयिष्यते / तन्न बुद्धरात्मनो व्यतिरेके तस्यैवासौ गुणो नाकाशादेः' इति व्यवस्थापयितु शक्यम् / के बीच नहीं है-ऐसा विभाग दुष्कर है, क्योंकि समवाय अपने स्वरूप से सभी के साथ विना किसी भेदभाव के संलग्न है / यदि आत्मा का कार्य होने से बुद्धि को उसका गुण माना जाय तो यह प्रश्न होगा कि बुद्धि आत्मा का कार्य कैसे ? 'आत्मा के होने पर बुद्धि का होना' ऐसा अन्वय तो 'आकाश के होने पर बुद्धि का होना' यहाँ भी मौजूद है तो आकाश का कार्य भी बुद्धि को कहना होगा / 'आत्मा के न होने पर बुद्धि भी नहीं होतो' ऐसा व्यतिरेक दुर्लभ है क्योंकि आत्मा तो नित्य एवं आपके मत में व्यापक माना हुआ है, अत: आत्मा का व्यतिरेक ही असम्भव है / यह भी नहीं कह सकते कि. 'बुद्धि की आत्मा में प्रतीति होती है इसलिये वह आत्मा का ही कार्य है'- क्योंकि आत्मा में उसकी प्रतीति की बात असिद्ध है। [बुद्धि और आत्मा को अन्योन्यप्रतीति का असंभव ] असिद्ध इस प्रकार -आत्मा अपने में बुद्धि का अनुभव नहीं करता है क्योंकि आप आत्मा को स्वसंविदित नहीं मानते / अन्य ज्ञान से आत्मा अपने को प्रत्यक्ष होता है यह बात तो विवादग्रस्त हैइस प्रकार जब आत्मा अपने स्वरूप को भी नहीं जानता तो अपनी आत्मा में बुद्धि की अवस्थिति को जानने की तो बात ही दूर रही / बुद्धि भी यह नहीं जान सकती कि 'मैं आत्मा में अवस्थित हूँ। क्योंकि न तो वह आत्मा को जान सकती है, न तो अपने स्वरूप को / कारण, अन्य बुद्धि से आत्मा या बुद्धि ग्राह्य बने यह सम्भव नहीं है और बुद्धि में स्वसंविदितत्व तो आपको अनिष्ट है / जब वह स्वयं अज्ञात है तब घटादि की तरह दूसरे का भी ग्रहण नहीं कर सकती। अतः बुद्धि से 'आत्मा में अवस्थित अपने स्वरूप' का ग्रहण अशक्य है। ___ "बुद्धि आत्मा में उत्कलित होने से, अथवा (अर्थात् ) आत्मा में आधेय (वृत्ति) होने से अथवा समवेत होने से वह आत्मा का हो गुण है, अन्य किसी आकाशादि का नहीं"-ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि ये तीनों पक्ष पूर्वोक्त ग्रन्थ में ही निषिद्ध हो चुके हैं (428-3) / तथा जब तक स्वव्यतिरेक से कार्य का व्यतिरेक सिद्ध न हो तब तक आत्मादि किसी भी नित्य पदार्थ में कारणता ही सिद्ध नहीं हो सकती / व्यतिरेक अनुसरण के विना भी कारणता मानी जाय तो फिर आकाश में भी माननी होगी। तथा एकान्त नित्य आत्मा या किसी भी अन्य वस्तु में कारणता का सम्भव ही नहीं है यह बात आगे कही जायेगी / इस प्रकार, आत्मा से बुद्धि के भिन्नतापक्ष में वह आत्मा का ही गुण है, आकाशादि का नहीं-यह व्यवस्था नहीं की जा सकती। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अव्यतिरेके च ततस्तद्वदेव तस्या अपि द्रव्यत्वमिति 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यत्वे सति' इति विशेषणमसिद्धम् / अपि च बुद्धेर्गुणत्वसिद्धावनाधारस्य गुणस्याऽसंभवात् तदाधारभूतस्याऽऽत्मनो द्रव्यत्वसिद्धि , तत्सिद्धेश्च द्रव्यकर्मभावप्रतिषेधे सति तदाश्रितत्वेन तस्था गुरण त्वसिद्धिरीतीतरेतराश्रयत्वम् / किंच, आत्मनोऽप्रत्यक्षत्वे बुद्ध स्तद्विशेषगुणत्वेऽस्मदाद्युपलभ्यमानत्वविरोधः / तथाहि-येऽत्यन्तपरोक्षगुणिगुणा न तेऽस्मदादिप्रत्यक्षाः यथा परमाणुरूपादयः, तथा च परेणाभ्युपगम्यते बुद्धिः, तस्माद् नास्मदादिप्रत्यक्षा। न च वायुस्पर्शेन व्यभिचारः, वायोः कश्चिद् तदव्यतिरेकेण तद्वत् प्रत्यक्षत्वात् , स्पर्शविशेषस्यैव तत्वात् / अस्मदादिप्रत्यक्षे च बुद्ध रत्यन्तपरोक्षात्मविभुद्रव्य विशेषगुणत्वविरोधः / तथाहि यद् अस्मदादिप्रत्यक्षं, न तद् अत्यन्तपरोक्षगुणिगुणः, यथा घटरूपादि, तथा च बुद्धिः / न च वायुस्पर्शेन व्यभिचारः, पूर्वमेव परिहतत्वात् / ततोऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वे बुद्ध नात्यन्तपरोक्षात्मविशेषगुणत्वम् / तत्त्वे वा नास्मदादिप्रत्यक्षत्वमित्यसिद्धोऽस्मदाद्युपलभ्यमानलक्षणविशेषणोऽपि हेतुः / प्रथात्मनः प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमाद नायं दोषः, नन्वेवं तस्य प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमे हर्ष-विषादाद्यनेक-. विवर्तात्मकस्य देहमात्रव्यापकस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वाद् न युगपत् सर्वदेशावस्थिताशेषमूर्त्तद्रव्य बद्धि यदि आत्मा से अव्यतिरिक्त ही मानी जाय तब तो आत्मा की तरह बद्धि भी द्रव्यरूप सिद्ध होगी। फिर 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यत्व' यह विशेषण असिद्ध हो जायेगा। तथा इस प्रकार अन्योन्याश्रय भी है-बुद्धि में गुणत्व सिद्ध होने पर, निराधार गुण असम्भव होने से उसके आधारभूत आत्मा में द्रव्यत्व की सिद्धि होगी और आत्मा में द्रव्यत्व सिद्ध होने पर, बुद्धि में द्रव्यरूपता और कर्मरूपता का प्रतिषेध कर के, आत्मद्रव्याश्रित होने से बुद्धि में गुणरूपता की सिद्धि होगी। [बुद्धि में परोक्षात्मगुणता असंगत ] दूसरी बात, आत्मा यदि अप्रत्यक्ष है और बुद्धि उसका विशेषगुण है तो 'हम लोगों से उपलभ्यमानत्व' का विरोध होगा। वह इस प्रकार:-अत्यन्तपरोक्षगुणी वस्तु के गुण हमलोगों के प्रत्यक्ष का विषय नहीं होते, उदा० परमाणु के रूपादि / बुद्धि को भी प्रतिवादी अत्यन्त परोक्ष आत्मा का गुण मानता है अतः वह हमारे प्रत्यक्ष का विषय नहीं होगी / यदि कहें-वायु परोक्ष होने पर भी उसके स्पर्श का प्रत्यक्ष होने से हेतु साध्यद्रोही है-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि वायु और उसका स्पर्श कथंचिद् अभिन्न है अत: स्पर्शवत् वायु भी प्रत्यक्ष ही है / तथा मतविशेष के अनुसार स्पर्शविशेष ही वायु है, वायु किसी द्रव्य का नाम नहीं है / तथा बुद्धि यदि हम लोगों को प्रत्यक्ष होगी तो उसमें अत्यन्त परोक्ष विभु आत्मद्रव्य के विशेषगुणत्व का विरोध होगा। देखिये, जो हम लोगों को प्रत्यक्ष है वह अत्यन्तपरोक्ष गुणी का गुण नहीं होता, उदा० घट के रूपादि बुद्धि भी हम लोगों को प्रत्यक्ष है / यहाँ भी वायु के स्पर्श में साध्यद्रोह का उद्भावन शक्य नहीं क्योंकि पहले ही उसका परिहार हो चुका है। इस प्रकार बद्धि को हम लोगों के प्रत्यक्ष का विषय मानने पर उसमें अत्यात परोक्ष पात्मविशेषगुणत्व सिद्ध नहीं होगा। यदि उसे आत्मा का विशेषगुण मानना है तो वह हम लोगों के प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकती। और तब आत्मा में विभूत्व का साधक अस्मदाद्यपलभ्यमानत्व विशेषणवाला हेतु असिद्ध हो जायेगा। [ आत्मा को प्रत्यक्ष मानने में देहपरिमाण की सिद्धि ] यदि कहें कि-आत्मा को प्रत्यक्ष ही मानते हैं अत: कोई पूर्वोक्त दोष नहीं है- तो इस प्रकार Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उत्तरपक्ष: सम्बन्धलक्षणस्य विभत्वस्य साधनमनमानतो यक्तम. अन्यथा घटादिभिर्मेदिस्तेन च घटाटीनां तथा संयोगः किं नेष्यते यत: सांख्यदर्शनं न स्यात् ?' 'प्रत्यक्षबाधनाद् नैवम्' इति चेत् , किमत्र प्रत्यक्षबाधनं काकैक्षितम् ? अथात्र पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणयुक्तहेतुसद्भावात तथाभ्युपगमः, अन्यत्र विपर्ययाद् नेति चेत् ? तहि पक्वान्येतानि फलानि एकशाखाप्रभवत्वात उपयुक्तफलवत्' इत्यत्र तथाविधहेतुसद्भावात्तथाभ्युपगमः किं न स्यात् ? पक्षस्य प्रत्यक्षबाधा हेतोर्वा कालात्ययापदिष्टत्वमन्यत्रापि समानम् / * न च स्वसंवेदनप्रत्यक्षमेवानुमानेन प्रकृतेन बाध्यत इति वक्तुयुक्तम् , प्रत्यक्षपूर्वकत्वाभ्युपगमादनुमानस्य प्रत्यक्षाऽप्रामाण्ये तस्याऽप्रवृत्तिप्रसंगात् / न च तथाभूतात्मग्राहकस्य स्वसंवेदनाध्यक्षस्याप्रामाण्यनिबन्धनमपरमुत्पश्यामः / न चान्यादृक्षस्यात्मनो विभुत्वसाधनाय हेतूपन्यासः सफलः, तस्य प्रमाणाऽविषयत्वेनाऽसिद्धत्वाद् हेतोराश्रयासिद्धताप्रसंगात / तदेवमस्मदाद्युपलभ्यत्वे बुद्धिलक्षणस्य गुणस्य हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वम् , अनुपलभ्यत्वे विशेषणाऽसिद्धत्वम् / आत्मा को प्रत्यक्ष मानने पर, अनुमान से उसमें एक साथ सकल देश में रहे हुए मूर्त द्रव्यों के सम्बन्धरूप विभुत्व की सिद्धि करना अयुक्त है क्योंकि हर्ष-खेदादि अनेक विवत्तों से विशिष्ट देहमात्रव्यापी आत्मा ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्ध होता है / प्रत्यक्ष से देहमात्रव्यापिता सिद्ध होने पर भी यदि उस को आपके सिद्धान्तानुसार सर्वगत व्यापक मानेंगे तो 'सर्वं सर्वत्र विद्यते' इस मत के अनुसार सांख्य दर्शन में घटादि का मेरु आदि के साथ और मेरु आदि का घटादि के साथ जैसे संयोग माना जाता है वैसा आप भी क्यों नहीं मानते हैं ? इस मत में प्रत्यक्ष बाधक है इस लिये यदि वह अमान्य है तो फिर आत्मा के विभूत्व में भी 'देहमात्रव्यापिता का प्रत्यक्ष बाधक है उसे क्या कौवे खा गये हैं ? यदि ऐसा कहें कि-पक्षधर्मता और साध्य के साथ अन्वय-व्यतिरेक लक्षण से युक्त हेतु का आत्मविभुत्व की सिद्धि में सद्भाव है, अतः आत्मा को विभु मानते हैं, घटादि और मेरु के संयोग का साधक कोई लक्षणयुक्त हेतु नहीं है, इस लिये उसे नहीं मानते हैं तो यहाँ आपको ऐसी आपत्ति होगी कि 'ये फल पक्व हैं क्योंकि एक शाखा में उत्पन्न हुए हैं जैसे इसी शाखा में उत्पन्न पूर्व भुक्त फल' इस अनुमान में भी एकशाखाप्रभवत्व' हेतु पक्ष में वृत्ति है और अपने साध्य के साथ अन्वय-व्यतिरेकवाला भी है तो आपको वे अपक्व फल भी पक्व मानना होगा / यदि कहें कि यहाँ तो पक्षभूत फलों में पक्वता का प्रत्यक्ष बाध है और उसके बाद हेतु का प्रयोग करने पर कालात्ययापदिष्टता का दोष है-तो यह कथन आत्मविभुत्वसिद्धि में भी समान है, वहाँ भी कहेंगे कि आत्मा में विभुत्व का प्रत्यक्ष बाध है और उसके बाद प्रयुक्त हेतु में कालात्ययापदिष्ट दोष भी है। [ अनुमान से प्रत्यक्ष वाध अयुक्त ] ऐसा भी'हमारे विभुत्वसाधक अनुमान से आपका देहमात्रव्यापिता का प्रत्यक्ष ही बाधित है'नहीं कह सकते, क्योंकि अनुमान की प्रवृत्ति प्रत्यक्षमूलक होती है, यदि प्रत्यक्ष को अप्रमाण कह देंगे तो अनुमान की प्रवृत्ति ही रुक जायेगी / और देहमात्रव्यापी आत्मा के ग्राहक स्वसंवेदनप्रत्यक्ष को अप्रमाण मानने में कोई भी निमित्त नहीं दीखता हैं। हर्षविषादादिविवर्त्तरहित आत्मा को व्यापक सिद्ध करने के लिये यदि आप हेतु-उपन्यास करे तो वह असफल रहेगा, क्योंकि हर्षविषादादिविवर्त्तरहित आत्मा प्रमाण का विषय न होने से असिद्ध है। अत: हेतु भी आश्रयासिद्धता दोष दुष्ट हो जायेगा। इस प्रकार, बुद्धिरूप गुण को यदि हम लोगों के प्रत्यक्ष का विषय माने तब तो देहमात्रव्यापिता के Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 परमाणूनां च नित्यत्वे सत्यस्मदाधुपलभ्यमानपाकजगुणाधिष्ठानत्वे सत्यपि न विभुत्वमिति व्यभिचारः / परमाणुपाकजगुणानामस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वे विवादास्पदं बुद्धिमत्कारणम् , कार्यत्वात् घटा. दिवत्' इत्यत्र प्रयोगे व्याप्तिग्रहणं दुर्लभमासज्येत / तथाहि-कार्यत्वेनाभिमतानां परमाणुपाकजरूपादीनां व्याप्तिज्ञानेनाऽविषयीकरणे बुद्धिमत्कारणत्वेन व्याप्तिसिद्धिर्न स्यात् , तथा चैतैरेव कार्यत्वहेतो यभिचाराशंका स्यात / अथ 'नित्यत्वे सत्यस्मदादिबाद्यन्द्रियोपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वात' इति हेतुरभिधीयते, तर्हि बाह्य न्द्रियोपलभ्यमानत्वस्य बुद्धावसिद्धेः पुनरपि विशेषणाऽसिद्धो हेतुः प्रसक्तः / साध्यसाधनधर्मविकलश्चाकाशलक्षणः साधर्म्यदृष्टान्तः, नित्यत्वे सत्यस्मदाधुपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वस्य साधनधर्मस्य, विभुत्वलक्षणसाध्यधर्मस्य तत्राऽसिद्धेः / अथ 'शब्दाधिकरणं द्रव्यं विभु, नित्यत्वे सत्यस्मदाधुपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वात् आत्मवत्' इत्यत्र हेतोस्तत्र विभुत्वस्य सिद्धेर्न साध्यविकलो दृष्टान्तः / नापि साधनविकलः, अस्मदादिप्रत्यक्षशब्दगुणाधिष्ठानत्वस्य तत्र सिद्धत्वात् / न च शब्दस्यास्मदादिप्रत्यक्षत्वं गुणत्वं वाऽसिद्धम् , श्रोत्रव्यापारेणाध्यक्षबुद्धौ शब्दस्य परिस्फुटरूपतया प्रतिभासनात , निषिध्यमानद्रव्यकर्मत्वे सति सत्तासम्बन्धित्वात् पृथिव्यादिवृत्तिबाधकप्रमाणसद्भावे सति गुणस्याऽश्रितत्वेनाकाशाऽऽश्रितत्वसिद्धेश्च न साधनविकलताप्याकाशस्य। प्रत्यक्ष से पक्षभूतआत्मद्रव्य में व्यापकता का बाध होने पर प्रयुक्त 'अस्मदाद्युपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्व' हेतु कालात्ययापदिष्ट हो जायेगा / और यदि हम लोगों के प्रत्यक्ष का विषय बुद्धि को न माने तो हेतु में वह विशेषण अंश ही असिद्ध रहेगा। [ परमाणुपाकजगुणों में कार्यत्वव्यभिचार की आशंका ] तदुपरांत 'नित्य होते हुए हमलोगों को उपलभ्यमान गुण का अधिष्ठान है' ऐसा हेतु परमाणु में रह जाता है क्योंकि पाकजन्य रूपादि गुण हम लोगों को उपलभ्यमान है और वह परमाणु में रहता है, परमाणु में साध्य विभुत्व नहीं रहता, अतः हेतु साध्यद्रोही हुआ। यदि परमाणु के पाकज गुणों का हमलोगों को प्रत्यक्ष नहीं है ऐसा कहेंगे तो, यह जो प्रयोग है-'विवादास्पद वस्तु बुद्धिमत्कारणपूर्वक है क्योंकि कार्य है, उदा० घटादि'-इसमें व्याप्ति का ग्रह दुष्कर बन जायेगा / जैसे देखिये-परमाणु के पाकजन्य रूपादि में कार्यत्व इष्ट है किन्तु वे यदि व्याप्तिज्ञान के विषय नहीं होंगे तो बुद्धिमत्कारणता के साथ व्याप्ति की सिद्धि नहीं होगी। फलतः, यहाँ ही कार्यत्व हेतु में साध्यद्रोही होने की आशंका उठेगी / अब यदि हेतु में ऐसा संस्कार किया जाय 'नित्य होते हुए हम लोगों को बाह्येन्द्रिय से उपलभ्यमान गुण का अधिष्ठान है'-तो बुद्धि में बाह्येन्द्रिय-उपलभ्यमानत्व असिद्ध होने से हेतु भी विशेषणांश से असिद्ध बन गया। तथा साधर्म्यदृष्टान्तरूप आकाश में A साध्यधर्मशून्यता और B साधनधर्मशून्यत्व प्रसक्त है। चूंकि 'नित्य होते हुए हम लोगों को उपलभ्यमान गुण (शब्द) का अधिठानत्व रूप साधन धर्म, आकाश में हमारे मत से असिद्ध है और विभुत्वरूप साध्य धर्म भी असिद्ध है / [ दृष्टान्त में साध्य-साधनविकलता न होने की शंका ] यदि यह कहा जाय-A शब्द का आश्रय द्रव्य व्यापक है, क्योंकि नित्य होते हुए हम लोगों Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड का० १-ई० शब्दद्रव्यत्वसाधनम् 541 असदेतत्-सिद्ध ह्यात्मनो विभुत्वे तनिदर्शनादाकाशस्य विभुत्वसिद्धिः, तत्सिद्ध श्चात्मनो विभुत्वसिद्धिरितोतरेतराश्रयदोषप्रसंगात नाप्याकाशस्य विभुत्वसिद्धिरिति साध्यविकलता तदवस्थैव / यच्च शब्दस्य गुणत्वसाधकमनुमानं, तत्र 'सत्तासम्बन्धित्वात्' इति हेतौ सत्तायाः तत्संबन्धित्वहेतोः समवायस्य चासिद्धत्वादसिद्धता, 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मत्वे सति' इति विशेषणस्य चाऽसिद्धता, शब्दस्य द्रव्यत्वात् / [शब्दो द्रव्यं क्रियावत्वात् ] ___तथाहि-द्रव्यं शब्दः क्रियावत्वात् , यद्यत् क्रियावत् तत्तद् द्रव्यं यथा शरः, तथा च शब्दः, तस्माद् द्रव्यम् / निष्क्रियत्वे श्रोत्रेणाऽग्रहणप्रसंगः, तेनाऽनभिसम्बन्धात् / तथापि ग्रहणे श्रोत्रस्याप्राप्यकारित्वप्रसक्तिः / तथा च, 'प्राप्यकारि चक्षुः बाह्य न्द्रियत्वात् त्वगिन्द्रियवत्' इत्यस्य श्रोत्रेणानैकान्तिकत्वप्रसक्तिः / संबन्धकल्पनायां वा, श्रोत्रं वा शब्ददेशं गत्वा शब्देनाभिसम्बध्येत शब्दो वा श्रोत्रदेशमागत्य तेनाऽभिसम्बध्येत ? न तावत् प्रथमः पक्षः, स्वधर्माऽधर्माभिसंस्कृतकर्णशष्कुल्यवरुद्धनभो. देशलक्षणश्रोत्रस्य शब्दोत्पत्तिदेशे निष्क्रियत्वेन तथाप्रतीत्यभावेन च गत्यसम्भवात् / गत्यभ्युपगमे वा विवक्षितशब्दापान्तरालत्तिनामन्यान्यशब्दानामपि ग्रहणप्रसंगः, सम्बन्धाऽविशेषात् / अनुवातप्रतिवातको उपलभ्यमान गुण का अधिष्ठान है, उदा० आत्मा। इस हेतु से आकाश में विभुत्व ( व्यापकत्व) सिद्ध होने से आत्मा में विभुत्व की सिद्धि में दृष्टान्त भूत आकाश में साध्यशून्यता दोष नहीं है। B तथा साधनशून्यता भी नहीं है-हम लोगों को प्रत्यक्ष ऐसे शब्दगुण का अधिष्ठानत्व आकाश में सिद्ध है। शब्द में a हम लोगों के प्रत्यक्ष की विषयता अथवा b गुणत्व असिद्ध नहीं है। a श्रोत्रे के व्यापार से प्रत्यक्ष बद्धि में स्पष्टरूप से शब्द का प्रतिभास होता है। b तथा, 'शब्द गुण है क्योंकि उसमें द्रव्यत्व या कर्मत्व प्रतिषिद्ध हैं और वह सत्ता का संबन्धि है' इस अनुमान से शब्द में गुणत्व की सिद्धि होने पर, पृथ्वी आदि का उसे गुण माने तो बाधक प्रमाण के होने से तथा निराश्रित गुण असिद्ध होने से आखिर उसे आकाश में ही आश्रित मानना चाहिये-यह सिद्ध होगा, इस प्रकार आकाशरूप दृष्टान्त में साधनशून्यता भी नहीं ।-तो, [ दृष्टान्त में अन्योन्याश्रय दोषापत्ति ] यह बात गलत है-क्योंकि यहाँ एक तो अन्योन्याश्रय दोष प्रसंग है-आत्मा विभु सिद्ध होने पर उसके दृष्टान्त से आकाश का विभुत्व सिद्ध होगा और उसके सिद्ध होने पर आत्मा में विभुत्व सिद्ध हो सकेगा, फलतः आकाश में भी विभुत्व की सिद्धि न होने से दृष्टान्त में साध्यशून्यता दोष तदवस्थ रहा / तथा दूसरा, जो शब्द में गुणत्व साधक अनुमान दिखाया उसमें सत्तासम्बन्धित्व यह हेत अंश असिद्ध है क्योंकि सत्ता और तत्सम्बन्धिताकारक समवाय दोनों ही असिद्ध है। में 'द्रव्यत्व प्रतिषिद्ध होने से' यह हेतु का विशेषण अंश भी असिद्ध है, क्योंकि जैन मत से शब्द द्रव्यरूप है। [शब्द में द्रव्यत्वसाधक चर्चा ] वह इस प्रकार:-'शब्द द्रव्य है क्योंकि क्रियाशील है, जो जो सक्रिय होता है वह द्रव्य होता है जैसे तीर, शब्द भी सक्रिय है अत: द्रव्यरूप है / ' यदि शब्द को निष्क्रिय मानेंगे तो दूरदेशोत्पन्न शब्द का श्रोत्र के साथ सम्बन्ध न होने से श्रोत्र से उसका ग्रहण नहीं होगा। तथापि यदि ग्रहण मानेंगे तो Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तिर्यग्वातेषु च प्रतिपत्त्यप्रतिपत्तीषत्प्रतिपत्तिभेदाभावप्रसंगश्न, श्रोत्रस्य गच्छतस्तस्कृतोपकाराद्ययोगात् / नापि शब्दस्य श्रोत्रदेशागमनसम्भवः, गुणत्वेन तस्य निष्क्रियत्वोपगमाद् आगमने वा सक्रियत्वाद् द्रव्यत्वमेव / ___ अथापि स्याद्-न आद्य एवाकाशतद्वेणुमुखसंयोगात् समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणादुद्भूतः शब्द: श्रोत्रेरणागत्य सम्बध्यते येनायं दोषः स्यात् , अपि तु जलतरंगन्यायेनापरापर एवाकाश-शब्दा. दिलक्षणात समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणादुपजातस्तेनाभिसम्बध्यत इति / नन्वेवं बाणादयोऽपि पूर्व: पूर्वसमानजातीयक्षणप्रभवा अन्ये एव लक्ष्येणाभिसम्बध्यन्त इति किं नाभ्युपगम्यते ? तथा च क्रियायाः सर्वत्राभाव इति क्रियावद् द्रव्यम्' इति द्रव्यलक्षणं न क्वचिद् व्यवतिष्ठेत / अथ प्रत्यभिज्ञानाद् बाणादौ नित्यत्वसिद्धयं कल्पना / नन्वेवं शन्देऽपि मा भूदियम् , तत्राप्येकत्वग्राहिणः प्रत्यभिज्ञानस्य 'देवदत्तोच्चारितं शब्दं शणोमि' इत्येवमाकारेणोपजायमानस्याऽबाधितस्वरूपस्यानुभवात् / न च लनपुनर्जातकेश-नखादिष्विव सदृशापरापरोल्पत्तिनिबन्धनमेतत्प्रत्यभिज्ञानमिति वक्तु शक्यम् , बाणादावपि तस्य तथात्वाऽविशेषात् / (नेत्रवत् ) श्रोत्र में भी अप्राप्यकारिता का प्रसंग होगा। फलतः, नेत्र प्राप्यकारी है क्योंकि बाह्येन्द्रिय है, उदा० त्वचाइन्द्रिय' इस अनुमान का हेतु श्रोत्र में साध्य का द्रोही बन जायेगा। यदि श्रोत्र और शब्द में संयोग संबंध की कल्पना करेंगे तो उसमें संभवित दो प्रकार के प्रश्न होंगे-A श्रोत्र शब्ददेश में जाकर उसमें संबद्ध होता है या B शब्द श्रोत्रदेश में आकर श्रोत्र से संबद्ध होता है ? प्रथम पक्ष तो ठीक नहीं है, क्योंकि आपके मत में श्रोत्रेन्द्रिय तो धर्माधर्म से संस्कृत कर्णशष्कुली से अभिव्याप्त आकाशभागरूप ही है जो निष्क्रिय होने से दूर देशोत्पन्न शब्द के पास जा नहीं सकता, न तो ऐसी प्रतीति किसी को होती है / फिर भी श्रोत्र की गति मानेंगे तो दूर देशोत्पन्न शब्द और श्रोत्र के मध्यवर्ती अन्य अन्य सभी शब्दों के साथ भी पक्षपात के विना श्रोत्र का सम्बन्ध होने से उन सभी शब्दों के ग्रहण का प्रसंग होगा। किन्तु यह अनुभवविरुद्ध है। तथा कर्णदेशाभिमुख वात का संचार होने पर शब्द की स्पष्ट बुद्धि होती है, कर्णदेश विरुद्ध दिशा में पवन का झपाटा होने पर शब्द सुनाई ही नहीं देता, और तिरछी दिशा में ( न अभिमुख और न प्रतिमुख किन्तु मध्यवर्ती दिशा में ) वातसंचार होने पर शब्द अस्पष्ट सुन पड़ता है यह अनुभव सिद्ध है इसकी संगति आपके मत में नहीं होगी क्योंकि शब्द में जाने वाले श्रोत्र को उन वातों से कोई उपकार-अपकार तो होने वाला है नहीं। B तथा आपके मत में शब्द गुणात्मक होने से श्रोत्र देश में उसके आगमन का असम्भव है, यदि फिर भी उसका आगमन मानेंगे तो सक्रियता से ही द्रव्यत्व की सिद्धि हो जायेगी। [ जलतरंगन्याय से अनेक शब्दों की कल्पना सदोष ) यदि यह कहा जाय-शब्द की उत्पत्ति में आकाश समवायी कारण, आकाश और वेणु का मुख से संयोग असमवायिकारण है और निमित्त कारण है वात, इन से जो प्रथम शब्द उत्पन्न होता है वही श्रोत्र के पास आ कर सम्बद्ध होता है ऐसा हम नहीं मानते जिससे कि द्रव्यत्व प्रसंग हो / किन्तु जल में जैसे एक से दूसरे तरंग होते हैं उसी तरह एक से दूसरे दूसरे शब्द उत्पन्न होते हुए श्रोत्रदेश में भी समवायीकारण आकाश, असमवायिकारण पूर्वशब्द और निमित्तकारण वात से नया शब्द उत्पन्न होता है और उसी का श्रोत्र से सम्बन्ध होता है / Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ई० शब्दद्रव्यत्वसाधनम् 543 अथ शब्दे बाधकसद्भावात् तथा तत्परिकल्पनम् न बाणादौ विपर्ययात् / ननु न शब्दकत्वविषयं प्रत्यक्षं तावदस्य बाधकम् , समानविषयत्वेन तस्य तद्बाधकत्वाऽयोगात् / क्षणिकत्वविषयं तु शब्देऽन्यत्र वा विवादगोचरचारीति न तद्बाधकं युक्तम् / न चानुमानं प्रत्यभिज्ञानबाधकम् , प्रत्यभिज्ञानस्य मानसप्रत्यक्षत्वाभ्युपगमात् , तदेव हनुमानस्यैकशाखाप्रभत्वादेर्बाधकमुपलब्धम् , न पुनरनुमानं तस्य / अथ शब्दकत्वग्राहकप्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षस्य तदाभासत्वादनुमानं स्थिरचन्द्रादिग्राहकस्येव देशान्तरप्राप्तिलिंगजनितानुमानवद् बाधकं भविष्यति / कथं पुनरस्य प्रत्यक्षाभासत्वम् ? 'अनुमानेन बाधनाद्' इति चेत् ? अनेनाप्यनुमानस्य बाधनादनुमानाभासत्वं किं न स्यात् ? अथानुमानबाधितविषयत्वाद् नैतदनुमान बाधकम् / अनुमानमप्येतद्बाधितविषयत्वाद् नास्य बाधकमिति प्रसक्तम् / अथ साध्याऽविनाभाविलिंगजनितत्वान्नानुमानमेतबाध्यम् / एकशाखा प्रभवत्वानुमानमपि तामताग्राहिप्रत्यक्षबाध्यं न स्यात् / अथ पक्षे एव व्यभिचाराद् न साध्याविनाभूतहेतुप्रभवत्वमेकशाखाप्रभवत्वानुमानस्य / तत् शब्दक्षणिकत्वानुमानेऽपि समानम् / किन्तु यह बात मान लेने पर यह आपत्ति है कि बाणादि भी पूर्वपूर्व से उत्तर उत्तर क्षण और देश में नये नये सजातीय उत्पन्न हो यावत् लक्ष्य के समीप में उत्पन्न अन्तिम बाण लक्ष्य से सम्बद्ध होता है ऐसा भी क्यों न माना जाय ? और ऐसा तो सभी सक्रिय द्रव्य के लिये माना जा सकेगा, फलतः क्रिया ही नामशेष हो जाने से 'क्रियावाला हो वह द्रव्य' ऐसा द्रव्य का लक्षण भी संगत न हो सकेगा। यदि कहें कि-प्रत्यभिज्ञा से बाणादि में नित्यत्व (स्थायित्व) सिद्ध होने से नये नये की उत्पत्ति वाली कल्पना नहीं करेंगे तो फिर शब्द में ऐसी कल्पना मत कीजिये। वहाँ भी एकत्व ग्राहक 'देवदत्तभाषित शब्द सुनता हूँ' ऐसे आकार की प्रत्यभिज्ञा की उत्पत्ति अबाधितरूप से अनुभवसिद्ध है। ऐसा नहीं कह सकते कि 'यह प्रत्यभिज्ञा तो 'काट देने पर नवजात केश-नखादि' के समान अपर अपर उत्पत्तिमूलक होने वाली एकत्वप्रत्यभिज्ञा से तुल्य है अतः वह प्रमाणभूत नहीं-ऐसा कहेंगे तो बाणादि की प्रत्यभिज्ञा में भी अप्रामाण्य की आपत्ति होगी। [ शब्द में एकत्व की प्रत्यभिज्ञा निर्बाध है ] पूर्वपक्षी:-शब्द में एकत्वग्राहक प्रत्यभिज्ञा का बाधक विद्यमान होने से, जलतरंगन्याय से नयेनये शब्द के उत्पाद की कल्पना ठीक है, बाणादि स्थल में कोई बाधक नहीं है तो नये नये की कल्पना क्यों करे ?- . ___उत्तरपक्षी:-शब्दस्थल में कौन बाधक है ? शब्दकत्वविषयक प्रत्यक्ष तो प्रत्यभिज्ञा का बाधक हो नहीं सकता क्योंकि वह तो प्रत्यभिज्ञा का समान विषयक होने से उसका बाधक बन नहीं सकता। शब्द में क्षणिकत्व का प्रत्यक्ष तो स्वयं ही विवादग्रस्त है अत: उसे एक वप्रत्यभिज्ञा का बाधक मानना अयुक्त है। अनुमान भी उसका बाधक नहीं है, क्योकि प्रत्यभिज्ञा मानसप्रत्यक्षरूप हो वही अनुमान का बाधक बनेगा जैसे कि फल में अपक्वता का प्रत्यक्ष एकशाखाप्रभवत्वहेतूक पक्वता के अनुमान का बाधक होता है / वहाँ अनुमान को प्रत्यक्ष का बाधक नहीं माना जाता। पर्वपक्षी:-शब्द में एकत्वबोधक प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षाभासरूप होने से अनमान उसका बाधक हो सकेगा, जैसे कि देशान्तरप्राप्तिहेतुक गति अनुमान चन्द्र-सूर्यादि में स्थिरताबोधकप्रत्यक्ष का बाधक होता है। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च शब्दक्षणिकत्वप्रसाधकमनुमानं पराभ्युपगमे संभवति / यच्च 'क्षणिकः शब्दः, अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणत्वात् , यो योऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणः स स क्षणिकः, यथा ज्ञानादिः, तथा च शब्दः, तस्मात् क्षणिकः' इत्यनुमानम् , तदेकशाखाप्रभवत्वानुमानवद् मानसप्रत्यक्षाभिमतप्रत्यभिज्ञानबाधितकर्मनिर्देशानन्तर प्रयुक्तत्वात कालात्ययापदिष्टहेतुप्रभवत्वाद् न साध्यसिद्धिनिबन्धनम् / किंच धर्मादेविभुद्रव्यविशेषगुणत्वेऽपि न क्षणिकत्वमिति हेतोर्व्यभिचारः / तस्यापि पक्षीकरणे सर्वत्र व्यभिचारविषये पक्षीकरणाद् न कश्चिद् हेतुर्व्यभिचारी स्यात् 'अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति' इति च विशेषणमनर्थकम् , व्यवच्छेद्याभावात् / धर्मादेः क्षणिकत्वे च स्वोत्पत्तिसमयानन्तरमेव ध्वस्तत्वाद् न ततो जन्मान्तरफलप्राप्तिः / शब्दात शब्दोत्पत्तिवद् धर्मादेर्धमाद्युत्पत्तावभ्युपगमबाधा "परस्य अनुकलेष्वनुकुलाभिमानजनितोऽभिलाषोऽभिलषितुराभिमुखनियाकारणमात्मविशेषगुणमाराध्नोति, अनुकूलेष्वनुकूलाभिमानजनिताभिला उत्तरपक्षी:-एकत्वबोधक प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षाभासरूप कैसे सिद्ध हुी ? यदि अनुमान का बाध है इसलिये, तो फिर वह प्रत्यक्ष, अनुमान का भी बाधक होने से, अनुमान भी अनुमानाभासरूप क्यों नहीं होगा? यदि कहें कि-प्रत्यक्ष को आप अनुमान का बाधक कहते हैं उसका ही विषय अनुमानबाधित है अतः वह प्रत्यक्ष अनुमान का बाधक नहीं हो सकता-तो इसके विरुद्ध यह भी कह सकते हैं कि बाधक अनुमान का ही विषय प्रत्यक्षबाधित होने से वह अनुमान प्रत्यक्ष का बाधक नहीं हो सकता। यदि कहें-शब्द में एकत्वविरोधी अनुमान, साध्य के अविनाभावी हेतु के बल से उत्पन्न है अतः मानसप्रत्यक्ष से उसका बाध अशक्य है / तो एकशाखाप्रभवत्वहेतुक अनुमान भी वैसा ही होने से अपक्वताबोधकप्रत्यक्ष से बाधित नहीं होगा। यदि कहें कि-फल में पक्वता का अभाव प्रत्यक्ष सिद्ध है और हेतु एक शाखाप्रभवत्व वहाँ रहता है अत: पक्ष में ही हेतु साध्यद्रोही होने से एकशाखाप्रभत्वहेतुक अनुमान साध्य के अविनाभावी हेतु से उत्पन्न नहीं माना जा सकता / तो शब्द के क्षणिकत्वानुमान के लिये भी यही बात कह सकते हैं कि शब्द में प्रत्यक्ष से स्थायित्व (एकत्व) अर्थात् क्षणिकत्व का अभाव सिद्ध होने से उसमें क्षणिकत्व साधक हेतु रहेगा तो साध्यद्रोही बन जायेगा अतः क्षणिकत्व का अनुमान भी साध्याविनाभावि हेतुबल से उत्पन्न नहीं हो सकता। [शब्द में क्षणिकत्वसाधक अनुमान का असंभव ] तथा नैयायिकमत में शब्द में क्षणिकत्व का साधक अनुमान भी सम्भवारूढ नहीं है / यह जो अनुमान कहा जाता है-"शब्द क्षणिक है, क्योकि हमलोगों को प्रत्यक्ष होने के साथ विभद्रव्य का विशेष गुण है / जो जो हमलोगों को प्रत्यक्ष और विभुद्रव्य का विशेष गुण होता है वह क्षणिक होता है, उदा० ज्ञानादि, शब्द भी ऐसा ही है अतः क्षणिक सिद्ध होता है"-यह अनुमान साध्यसिद्धि में समर्थ नहीं, क्योंकि कालात्ययापदिष्ट हेतु से जन्य है। कारण, जैसे एकशाखाप्रभवत्वानुमान का साध्य प्रत्यक्ष से बाधित होता है उसी तरह मानसप्रत्यक्ष माने गये प्रत्यभिज्ञान से शब्दपक्षक अनुमान के कर्म (साध्य) का निर्देश भी बाधित होने के बाद आपने हेतु का प्रयोग किया है / तदुपरांत धर्माऽधर्म भी विभुद्रव्य के ही विशेषगुण है अतः उसमें हेतु रहा और क्षणिकत्व नहीं है इसलिये वह साध्यद्रोही बना। (अस्मदादि० विशेषण से साध्यद्रोह का वारण निरर्थक है यह आगे कहा जायेगा। ) यदि उसका भी पक्ष में अन्तर्भाव करेंगे तो अन्यत्र सभी साध्यद्रोहस्थलों का पक्ष में अन्तर्भाव कर लेने से कोई भी हेतु Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्म विभुत्वे पूर्वपक्षः 545 षत्वात् , आत्मनोऽनुकलाभिमानजनिताभिलाषवत्" इत्यस्य च विरोधः, यतो योऽसौ परस्यानुकलेष्वनुकलाभिमानजनिताभिलाषोत्पादित आत्मविशेषगुणो नासावभिलषितुराभिमुख क्रियाकारणम् , तत्समानतत्कारणत्वात् , यश्च तरिक्रयाकारणम् नासौ यथोक्ताभिलाषेणारब्ध इति / तथा प्रवर्तक-निवर्तकाविच्छा-द्वेषनिमित्तौ धर्माऽधमौ, अव्यवधानेन हिताऽहितविषयप्राप्तिपरिहारहेताः कर्मणः कारणत्वे सत्यात्मविशेषगणत्वात, प्रवर्तकनिवर्तकप्रयत्नवत' इत्यत्र हेतोर्व्यभिचारश्च, जन्मान्तरफलप्रदयोधर्माधर्मयोरव्यवधानेन हिताहितप्राप्तिपरिहारहेतोः कर्मणः कारणत्वे सत्यात्मविशेषगुणत्वेऽपीच्छा-द्वेषजनितत्वाभावात् / किंच, धर्मादिवद् अपरापरतत्कार्योत्पत्तिप्रसंगश्च / ततो न शब्दात् शब्दोत्पत्तिवद् धर्मादधर्माद्युत्पत्तिः, तस्य क्षणिकत्वे न जन्मान्तरे ततः फलमित्यक्षणिकत्वं तस्याभ्युपगन्तव्यमतस्तेन व्यभिचारी हेतुः / साध्यद्रोही नहीं बनेगा। तथा धर्माधर्म को क्षणिक मानने पर हेतु में 'हम लोगों को प्रत्यक्ष होने के साथ ऐसा जो विशेषण लगाया है वह व्यवच्छेद्य के अभाव से निरर्थक हो जायेगा, क्योंकि धर्मादि का ही उससे व्यवच्छेद शक्य था और आपको तो वह इष्ट नहीं है / [धर्मादि में क्षणिकत्व नहीं हो सकता ] तथा धर्मादि को भी यदि क्षणिक मान लेंगे तो अपनी उत्पत्ति के बाद त्वरित ही उसका ध्वंस हो जाने पर उससे जन्मान्तर में फल प्राप्त न होगा। यदि उसके लिये सतत पूर्वपूर्व धर्मादि से अन्य अन्य धर्म की उत्पत्ति मानते रहेंगे तो आपके सिद्धान्त का भंग होगा। उपरांत आपके ही निम्नोक्त धर्मसाधक अनुमान में विरोध आयेगा -"पर व्यक्ति को अनुकूल पदार्थों के विषय में अनुकूलता के अभिमान से उत्पन्न जो अभिलाष है वह अभिलाषकर्ता की अर्थाभिमुख क्रिया के कारणभूत आत्मा के विशेष गुण (धर्म) की आराधना= उत्पत्ति करता है क्योंकि वह अनुकूल पदार्थविषयक अनुकूलताभिमानजन्याभिलाषात्मक है / जैसे कि अपना अनुकूल (भोग्य)पदार्थ विषयक अनुकूलत्वाभिमानजनित अभिलाष अपनी भोग्यपदार्थग्रहणाभिमुखक्रिया के जनक आत्मगुणविशेष (प्रयत्न) की आराधना करता है।" इसमें विरोध इसलिये है कि अनुकूलवस्तुविषयक अनुकूलत्वाभिमानजन्याभिलाष से उत्पन्न जो आत्मविशेषगुण (धर्म) है वह अभिलाषकर्ता की अर्थाभिमुख क्रिया का साक्षात् कारण नहीं है किन्तु उस विशेष गुण से उत्तर उत्तर क्षणों में उत्पन्न सजातीय धर्मादि ही उस क्रिया का साक्षात् कारण है। वह जो सजातीय धर्मादि उस क्रिया का कारण होता है वह तो पूर्वक्षण वाले धर्मादि से ही उत्पन्न हुआ है अतः वह पूर्वोक्त अभिलाष से उत्पन्न नहीं है। इस प्रकार प्रयत्न के दृष्टान्त से आत्मविशेषगुणरूप में धर्म की सिद्धि के लिये प्रयुक्त अनुमान में विरोध आ पड़ेगा। ___ [धर्माधर्म में इच्छा-द्वेषनिमित्तकत्व-अभाव की आपत्ति ] तदुपरांत, आपके निम्नोक्त अनुमान में हेतु साध्यद्रोही सिद्ध होगा। अनुमान-'प्रवर्तक और निवर्तक धर्म-अधर्म (क्रमशः) इच्छा एवं द्वेष के निमित्त से जन्य होते हैं क्योंकि व्यवधान (अंतर) के विना हितप्राप्ति-अहितपरिहारसमर्थ कर्म (क्रिया) का कारण होते हए वे आत्मविशेषगूणरूप होते हैं, उदा० प्रवर्तक-निवर्त्तक प्रयत्न / ' यहाँ हेतु साध्यद्रोही इस प्रकार है जन्मान्तर में फलप्रद जो धर्माधर्म हैं ( वे पूर्व क्षण के धर्माधर्म से उत्पन्न हैं ) उनमें व्यवधान के विना हितप्राप्ति-अहितपरिहारसमर्थ क्रिया की उत्पादकता के साथ साथ आत्मविशेषगुणरूपता यह हेतु तो है, किन्तु उन Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथास्मदादिप्रत्यक्षत्वविशेषणविशिष्टस्य विभुद्रव्यविशेषगुणत्वस्य धर्मादावसंभवाद् न व्यभिचारः / असदेतत् , विपक्षविरुद्ध हि विशेषणं ततो हेतु निवर्तयति, यथा( सहेतुकत्वं) अहेतुक्त्वविरुद्ध ततः कादाचित्कत्वं निवर्तयति / न चास्मदादिप्रत्यक्षत्वमक्षणिकत्वविरुद्धम् , अक्षणिकेष्वपि सामान्यादिषु भावात् , ततो यथाऽस्मदादिप्रत्यक्षा अपि केचित् क्षणिका प्रदीपादयः, अपरेऽक्षणिकाः सामान्यादयस्तथाऽस्मदादिप्रत्यक्षा अपि विभुद्रव्यविशेषगुणाः केचित् क्षणिकाः, अपरेऽक्षणिका भविव्यन्तीति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनकान्तिको हेतः / न चाऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वविशेषणविशिष्टस्य विभुद्रव्यविशेषगुणत्वस्याक्षणिकेऽदर्शनात्ततो व्यावत्तिसिद्धिः, प्रदर्शनस्यात्मसम्बन्धिनः परलोकादिनाऽनैकान्तिकत्वात् , सर्वसम्बन्धिनोऽसिद्धत्वात् / न च कृतकत्वादावप्ययं दोषः समानः, तत्र विपक्षे हेतोः सद्भावबाधकप्रमाणभावात् प्रकृतहेतोश्च तस्याभावात् / धर्माधर्म में इच्छा-द्वेषजन्यता-साध्य नहीं है / तदुपरांत, धर्माधर्म को जैसे आप उत्तरोत्तरक्षण में नये नये उत्पन्न मानते हो उसी प्रकार उससे उत्पन्न भोगादि कार्य भी उत्तरोत्तरक्षण में नये नये उत्पन्न होते रहेंगे-यह अतिप्रसंग होगा। फलतः यही मानना उचित है कि शव्द से शब्द की उत्पत्ति की तरह धर्मादि से धर्मादि की उत्पत्ति नहीं होती। अतः यदि उसे क्षणिक मानेंगे तो जन्मान्तर में उससे फलप्राप्ति न हो सकेगी। इसलिये धर्मादि को अक्षणिक ही मानना होगा, अतः उसके फलस्वरूप शब्द में क्षणिकत्व साधक विभुद्रव्यविशेषगुणत्वरूप हेतु धर्मादि में साध्यद्रोही ठहरेगा। .: . [ अस्मदादिप्रत्यक्षत्वविशेषण की निरर्थकता ] यदि यह कहा जाय-'हम लोगों को प्रत्यक्ष होने के साथ ऐसे विशेषण से विशिष्ट विभुद्रव्यविशेषगुणत्व हेतु धर्मादि में नहीं रहता है अतः वहाँ साध्यद्रोह निवृत्त हो जायेगा ।-तो यह गलत है विभूद्रव्यविशेषगुणत्व को धर्मादि में से निवृत्त करने के लिये आप अस्मदादिप्रत्यक्षत्व (=हम लोगों को प्रत्यक्ष होने के साथ) ऐसा विशेषण लगाते हैं किन्तु इससे विभूद्रव्यविशेषगुणत्व की धर्मादि में से व्यावृत्ति तो नहीं हो जाती, वह तो वहाँ पडा ही रहता है / (विशिष्ट शुद्ध से अतिरिक्त नहीं होतायह न्याय भी यहाँ स्मरणीय है) / जो विपक्षविरोधी विशेषण हो उसके लगाने से ही हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति हो सकती है जैसे कि किसी एक वस्तु में अनित्यत्व की सिद्धि के लिये कादाचित्कत्व को हेतु किया जाय तो वह विपक्षभूत नित्य अहेतुक पदार्थों में भी रह जाता है अतः सहेतुकत्व विशेषण लगा देने पर वह अहेतुकत्व का विरोधी होने से कादाचित्कत्व की अहेतुक विपक्ष से व्यावृत्ति कर देता है / यहाँ अक्षणिकत्व विपक्ष है, अस्मदादिप्रत्यक्षत्व उसका विरोधी नहीं है, क्योंकि अक्षणिक घटत्वादि सामान्य में वह रहता है / सच बात यह है कि जैसे हम लोगों को प्रत्यक्ष होने पर भी दीपादि कुछ पदार्थ क्षणिक होते हैं और घटत्वादि सामा य अक्षणिक होते हैं। अत: शब्द हम लोगों को प्रत्यक्ष होने पर भी अक्षणिक होने का संदेह हो सकता है अतः वही विपक्षरूप में संदिग्ध हुआ और उसमें हेतु रहने से संदिग्धविपक्षव्यावृत्ति के कारण हेतु साध्यद्रोही बना रहेगा / यह नहीं कह सकते किअस्मदादिप्रत्यक्षत्वविशेषणविशिष्ट विभुद्रव्यविशेषगुणत्व हेतु अक्षणिक किसी भी पदार्थ में अहाट है अत: अक्षणिकवस्तु से उसकी व्यावृत्ति सिद्ध हो जायेगी क्योंकि अपने अदर्शनमात्र से यदि किसी की निवृत्ति हो जाती हो तो परलोकादि भी निवृत्त हो जायेंगे किन्तु वे निवृत्त नहीं होते अतः अपना अदर्शन तो निवृत्ति का विद्रोही हुआ। यदि सर्वसम्बन्धी अदर्शन कहेंगे तो वही असिद्ध है / यदि कहें. Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे पूवपक्षः 547 यदि पुनविपक्षे हेतोरदर्शनमात्रादेव ततो व्यावृत्तिस्तथा सति-[श्लो० वा० अ०७-३६६] बेदाध्ययनं सर्व तदध्ययनपूर्वकम् / वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा // इत्यस्यापि विपक्षेऽदर्शनात ततो व्यावृत्तिसिद्धिरित्यपौरुषेयत्वसिद्धर्न तस्येश्वरप्रणीतत्वं स्यात् / धर्माऽधर्मादेश्चास्मदाद्यप्रत्यक्षत्वे 'देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः पश्वादयो देवदत्तगुणाकृष्टाः, देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवत्वात, यद् यद् देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवत् तत् तद् देवदत्तगुणाकृष्टं यथा ग्रासादिः, तथा च पश्वादयः, तस्माद् देवदत्तगुणाकृष्टाः' इत्यनुमानमसंगतं स्यात , व्याप्तेरग्रहणात् / तथाप्यनुमाने यतः कुतश्चिद् यतकिंचिदवगम्येत। ग्रासादेर्देवदत्तं प्रत्युपसर्पणस्य देवदत्तप्रयत्नगुणाकृष्टत्वेन व्याप्तिप्रदर्शनात् तस्यैव तत्पूर्वकत्वानुमानं स्यात , तस्य च वैयर्थ्यम् / अथ पश्वादेरपि देवदत्तं प्रत्युपसर्पणस्य देवदत्तप्रयत्नसमानगुणाकृष्टत्वेन व्याप्तिः प्रतीयते तहि प्रयत्नसमानगुणस्य पश्वादेर्देवदत्तं प्रत्युपसर्पणस्य वाऽप्रतिपत्तो कथं तदाकृष्ट त्वेन व्याप्तिसिद्धिः ? नहि प्रयत्नाऽप्रतिपत्तौ तदाकृष्टत्वेन प्रतिपन्नस्य ग्रासादेर्देवदत्तं प्रत्युपसर्पणस्य व्याप्तिप्रतिपत्तिः / तत्प्रतिपत्त्यभ्युपगमश्च यदि तेनैवानुमानेन, अन्योन्याश्रयदोषः-व्याप्तिसिद्धावनुमानम् ततश्च व्याप्ति कि-शब्द में नित्यत्व के संदेह से कृतकत्व हेतु में भी ऐसे संदिग्धविपक्षव्यावृत्ति दोष लगाया जा सकेगा।-तो यह अयुक्त है क्योंकि कृतकत्व को विपक्षभूत नित्य-गगनादि में वृत्ति मानने में बलवान बाधक प्रमाण की सत्ता है जब कि वह प्रस्तुत हेतु में नहीं है। [अदर्शनमात्र से विपक्षनिवृत्ति असिद्ध ] विपक्ष में अदशनमात्र से यदि हेतु की वहाँ से निवृत्ति हो जाती हो तब तो मीमांसकों का जो यह अनुमान है-सकल वेदाध्ययन वेदाध्ययनपूर्वक ही होता है क्योंकि वह वेदाध्ययनपदवाच्य है जैसे कि आधुनिक वेदाध्ययन / तो इस अनुमान में भी हेतु का अदर्शनमात्र विपक्ष में सुलभ होने से विपक्ष से उसकी व्यावृत्ति सिद्ध होने पर अपौरुषेयत्वसिद्धि नैयायिक को भी हो जायेगी। फिर वेद ईश्वररचित नहीं माना जा सकेगा। तथा धर्माधर्मादि को यदि आप हम लोगों के प्रत्यक्ष का विषय नहीं मानते हैं तो निम्नोक्त अनुमान असंगत हो जायेगा-देवदत्त के प्रति खिचे जा रहे पशू आदि देवदत्त के गुण (धर्म) से आकृष्ट हैं, क्योंकि वे देवदत्त के प्रति ही खिचे जा रहे हैं जो जो देवदत्त के प्रति खिचे जाने वाले होते देवदत्त के गुण से (चाहे प्रयत्न से या धर्म से) आकृष्ट होते हैं जैसे कवलादि / पशु आदि भी वैसे ही हैं अतः वे देवदत्त के ही गुण से आकृष्ट सिद्ध होते हैं" [ पशु आदि के खिंचाने में प्रयत्न तो बाधित है इसलिये अदृष्ट धर्मगुण सिद्ध होगा ]-किन्तु यह अनुमान संगत नहीं होगा क्योंकि यहाँ साध्य देवदत्तगुण धर्मादि है और उसके साथ व्याप्ति का ग्रहण किया नहीं है। व्याप्तिग्रहण के विना भी अनुमान करना हो तब तो किसी भी वस्तु से जिस किसी का अनुमान करते ही रहो। आपकी दिखायी हुई व्याप्ति में तो देवदत्त के प्रति ग्रासादि के उपसर्पण में देवदत्तप्रयत्नगुणाकृष्टत्व का सहचार ही दिखाया है अत: पक्ष में भी देवदत्त के ( अदृष्ट)प्रयत्नगुणाकृष्टत्व ही सिद्ध हो सकेगा, और वह तो आपके लिये व्यर्थ है। यदि कहें-देवदत्त के प्रति खिचे जाने वाले पशु आदि में देवदत्त के 'प्रयत्न जैसे (अन्य किसी) गुण से आकृष्टत्व' की व्याप्ति प्रतीत होती है तो यहाँ प्रश्न है कि प्रयत्न जैसा कोई गुण और देवदत्त के Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 सिद्धिरिति / अनुमानान्तरेण तत्प्रतिपत्तावनवस्था। प्रमाणान्तरेण च तत्प्रतिपत्तौ वैशेषिकस्य द्वे प्रमाणे, नैयायिकस्य चत्वारि प्रमाणानि इति प्रमाणसंख्याव्याघातः। ततो मानसप्रत्यक्षेण व्याप्ति. गुह्यत इत्यभ्युपगन्तव्यम् / तथा च प्रयत्नसमानगुरणस्य समाकर्षकस्य, तत्समाकृष्यमाणस्य च पश्वादेस्तत्प्रत्यक्षत्वमित्यस्मदादिप्रत्यक्षत्वं धर्मादेरपि परैरभ्युपगन्तव्यम् / ___यदि पुनः 'बाह्यन्द्रियप्रभवास्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति' इति हेतुविशिष्यते तदा साधनविकलता दृष्टान्तस्य, सुखादेस्तथाऽप्रत्यक्षत्वात् / विभुद्रव्यं च यद्यत्राकाशमस्मदाद्यप्रत्यक्षं विवक्षितं तदा तद्वत् तद्गुणस्याप्यस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वमिति 'अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति' इति विशेषरणाऽसिद्धिहेतोः, गुणिनोऽप्रत्यक्षत्वे तद्विशेषगुणस्याप्यप्रत्यक्षत्वेन प्रतिपादितत्वात् / / प्रति खिचे जाने वाले पशु आदि को देखे विना 'प्रयत्न जैसे गुण द्वारा आकृष्टत्व' के साथ देवदत्त के प्रति उपसर्पण (=खिचा जाना) की व्याप्ति सिद्ध कैसे होगी? जैसे देखिये-प्रयत्न की प्रतीति न होने पर देवदत्तप्रयत्न से आकृष्ट माने जाने वाले कवलादि में देवदत्त के प्रति उपसर्पण की व्याप्ति का बोध नहीं होता है। यदि 'प्रयत्न जैसे गुण से आकृष्टत्व' की व्याप्ति का ग्रहण उसी अनुमान से ( जिससे आप धर्म की सिद्धि करना चाहते हों) मानेंगे तब तो इतरेतराश्रयदोष होगा-व्याप्ति सिद्ध होने पर अनुमान का उत्थान होगा और अनुमान होने पर व्याप्ति की सिद्धि होगी। यदि नये किसी अनुमान से व्याप्ति की सिद्धि मानेंगे तो उस अनुमान की हेतुभूत व्याप्ति की सिद्धि के लिये नये नये अनुमान करते ही जाओ, अन्त नहीं आयेगा / यदि कहें कि-जैनमत में तर्क से व्याप्तिग्रह माना जाता है ऐसे हम भी किसी नये प्रमाण से व्याप्ति का ज्ञान मानेंगे-तो, वैशेषिकों ने प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण माने हैं तथा नैयायिकों ने तदुपरांत उपमान और शब्द चार प्रमाण माने हैं उसमें प्रमाणसंख्या का व्याघात होगा, क्योंकि प्रमाणसंख्या में तर्क जैसे किसी नये प्रमाण की वृद्धि हुयी है / फलतः आपको मानसप्रत्यक्ष से ही व्याप्ति का ज्ञान मानना होगा। फिर तो पशु आदि का आकर्षक प्रयत्न जैसा गुण ( धर्मादि ) और उससे आकृष्ट होने वाले पशु आदि का भी मानसप्रत्यक्ष मानना होगा, इस प्रकार धर्मादि में हम लोगों के प्रत्यक्ष की विषयता के रह जाने से धर्मादि को भी प्रत्यक्ष मानना ही होगा / अतः शब्द में क्षणिकत्व की सिद्धि के लिये उपन्यस्त हेतु धर्मादि में ही साध्यद्रोही सिद्ध होगा। यदि हेतु के आद्य अंश में नया विशेषण जोड कर ऐसा हेतु करे कि 'बाह्येन्द्रियजन्य हम लोगों के प्रत्यक्ष का विषय होता हुआ विभुद्रव्यविशेषगुण है' तो दृष्टान्तभूत ज्ञान-सुखादि में बाह्येन्द्रियजन्यप्रत्यक्षग्राह्यता न होने से दृष्टान्त हेतुशून्य बन जायेगा / तथा हेतु का विशेष्य अंश विभद्रव्यविशेषगुणत्व-इसमें यदि विभूद्रव्य आकाश विवक्षित हो और यदि उसे आप हम लोगों के प्रत्यक्ष का भविषय कहते हो तब तो धर्मी प्रत्यक्ष न होने से उसका गुण शब्द भी प्रत्यक्ष न हो सकेगा / फलतः 'हम लोगों को प्रत्यक्ष होता हुआ' इस विशेषण अंश से हेतु ही असिद्ध बन जायेगा। गुणी(धर्मी) प्रत्यक्ष न होने पर उसके गुण का भी प्रत्यक्ष नहीं होता यह बात पहले कह दी गयी है [ [ शब्द में गुणत्व सिद्ध करने में चक्रक दोष ] तदुपरांत, शब्द 'गुण' है यह सिद्ध होने पर, आधार के विना गुण का अवस्थान न घटने से, उसके आधार की सिद्धि होगी। आधार सिद्ध होने पर 'नित्य होते हुए हम लोगों के प्रत्यक्ष के विषय Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभूत्वे पूर्वपक्षः 546 कच सिद्धे हि शब्दे गुणे तदाधारसिद्धिः-गुणस्याधारमन्तरेणानवस्थानात्-तत्सिद्धौ च तदाधारस्य नित्यत्वे सत्यस्मदादिप्रत्यक्षशब्दगुणाधारत्वेन विभुद्रव्यत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्च शब्दस्य क्षणिकत्वसिद्धिः क्रियावत्त्वप्रतिषेधेन द्रव्यत्वाभावं साधयेत् ततश्च गुणत्वम् , ततो विभुद्रव्याश्रितत्वम् , ततोऽपि क्षणिकत्वं इति चक्रकमासज्येत / साधनशून्यश्च साधर्म्यदृष्टान्तः, बुद्धरपि विश्वात्मविशेषगुणत्वाऽसिद्धेः / न च शब्ददृष्टान्तेन तत् साध्यते, तस्याद्याप्यसिद्धत्वात् , इतरेतराश्रयदोषप्रसंगतः / न च विभ्वात्मविशेषगुणो ज्ञानम् ,तत्कार्यत्वात् , शब्दवत्' इत्यतोऽनुमानात् तस्य तद्विशेषगुण. त्वसिद्धिः, कार्यत्वस्येश्वरनिराकरणे परप्रसिद्धस्यासिद्धत्वेन प्रतिपादितत्वाद् इतरेतराश्रयस्य च तदवस्थस्वात्-सिद्धे हि शब्दस्य विभुद्रव्यविशेषगुणत्वे दृष्टान्तत्वम् , ततो ज्ञानस्य तत्सिद्धिः, ततश्च शब्दस्य तत् इति कथं नेतरेतराश्रयदोषः इति साधनविकलो दृष्टान्तः / तथा साध्यविकलश्च, बुद्धेः क्षणिकत्वासंभवात् , तथात्वे वा तस्याः न ततः संस्कारः, तदभावाद न स्मरणम् , तदभावाच्च न प्रत्यभिज्ञादिव्यवहारः। न हि विनष्टात् कारणात् कार्यम् , अन्यथा चिरतरविनष्टादपि ततस्तत्प्रसंगात् / अनन्तरस्य कारणत्वे सर्वमनन्तरं तत्कारणमासज्येत। भूत (शब्द) गुण का आधार होने से' इस हेतु से आधारभूत द्रव्य में विभुत्व की सिद्धि हो सकेगी। विभुत्व सिद्धि होने पर शब्द में पूर्वोक्त हेतु से क्षणिकत्व की सिद्धि होगी। तथा क्षणिकत्व की सिद्धि से, शब्द में आशंकित क्रियावत्ता का निषेध फलित होगा ( क्योंकि क्षणिक पदार्थ में क्रिया नहीं घट सकती ) / क्रिया के निषेध से द्रव्यत्व का निषेध सिद्ध होगा। द्रव्यत्व निषिद्ध होने पर अन्ततः शब्द में गुणत्व की सिद्धि होगी, और ऐसे गूणत्व की सिद्धि होने पर विभुद्रव्यात्मक आधार की सिद्धि और उससे क्षणिकत्वादि की सिद्धि होगी....इस प्रकार चक्रक दोष स्पष्ट लगेगा। तथा ज्ञानादि साधर्म्यदृष्टान्त में हेतु असिद्ध है, क्योंकि बुद्धि में भी अब तक विभुद्रव्यविशेषगुणत्व कहाँ सिद्ध है ? ( वह तो आत्मा के विभुत्व की सिद्धि पर अवलम्बित है ) शब्द को दृष्टान्त करके उक्त हेतु से बुद्धि में विभुद्रव्यविशेषगुणत्व सिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि शब्द में ही अब तक वह असिद्ध है / यदि शब्द में ज्ञान के दृष्टान्त से उसकी सिद्धि करने जायेंगे तो अन्योन्याश्रय व्यक्त होगा। [ज्ञान में विभुद्रव्यविशेषगुणत्व की सिद्धि दुष्कर ] तथा, 'ज्ञान विभुआत्मा (विभुद्रव्य) का विशेषगुण है क्योंकि उसका कार्य है, उदा० शब्द' इस अनुमान से भी ज्ञान में विभुआत्मविशेषगुणत्व सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि ईश्वरनिराकरणप्रसंग में प्रतिवादि को अभिमत कार्यत्व कसे असिद्ध है यह कहा जा चुका है और पहले जो इतरेतराश्रय एष्टान्त के साथ दिखाया है वह ज्यों का त्यों है / जैसे: शब्द में विभुद्रव्यविशेषगुणत्व सिद्ध हो तभी वह दृष्टा त बनेगा और तब उसके दृष्टान्त से ज्ञान में विभुद्रव्यविशेषगुणत्व सिद्ध होगा, तथा, ज्ञान में वह सिद्ध होने पर उसके दृष्टान्त से शब्द में विभुद्रव्यविशेषगुणत्व सिद्ध होगा-तो इतरेतराश्रय दोष क्यों नहीं होगा ? तात्पर्य, ज्ञानात्मक दृष्टान्त हेतुशून्य है। तथा साध्यशून्य भी है क्योंकि बुद्धि में क्षणिकत्व का सम्भव ही नहीं है / यदि वह क्षणिक होगी तो उससे संस्कार का उद्भव ही अशक्य बन जायेगा। संस्कार का लोप होने पर स्मरण नहीं होगा और स्मरण के लोप होने से प्रत्यभिज्ञा आदि का व्यवहार भी नामशेष हो जायेगा। संस्कार का उद्भव इसलिये अशक्य है कि क्षणवार में वृद्धि नष्ट हो जायेगी, फिर नष्ट कारण से कोई कार्य नहीं हो सकता, अन्यथा दीर्घकाल पहले नष्ट हुए Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथैकार्थसमवायिज्ञानमनन्तरं तत्कारणम् , न, ज्ञानस्यात्मनो भेदे समवायस्य सर्वत्राऽविशेषात तषिद्धत्वाच्च 'एकार्थसमवाय' इत्यसिद्धम / विनष्टाच्च कारणात कथमनन्तरं कार्य येनानन्तर्य कार्य-कारणभावनिबन्धनत्वेन कल्प्येत ? न हि तत् कारणम् नापि तत् तस्य कार्यम् , तदभाव एव भावात् / नहि यदभावेऽपि यद् भवति तत् तस्य कार्यमितरत् कारणमिति व्यवस्था, अतिप्रसंगात् / 'विनश्यदवस्थं कारणमिति चेत् ? न सापि विनश्यदवस्था यदि ततो भिन्ना हि तया तदभिसम्बन्धाभावादनुपकाराद् ‘विनश्यदवस्थम्' इति कुतो व्यपदेशः, अतिप्रसंगादेव ? उपकारे वा सोऽपि यदि ततो व्यतिरिक्तः, अतिप्रसंगोऽनवस्थाकारी। अव्यतिरेके विनश्यदवस्थैव तेन कृता स्यात् / तामपि यद्यविनश्यदवस्थमेव कारणमुत्पादयेत् कि प्रकृतेऽपि विनश्यदवस्थाकल्पनेन ? पदार्थ से भी अपने कार्यों को अभी उत्पत्ति हो जायेगी / यदि कालिक आनन्तर्य से (=पूर्वक्षणवृत्तित्व से) कारणता मानेंगे तो पूर्वक्षणवर्ती सभी पदार्थ उसके अनन्तर होने से वे सभी संस्कार के कारण बन जायेंगे। [क्षणिकबुद्धि पक्ष में कारण-कार्यभाव की अनुपपत्ति ] यदि कहें-कि हम सिर्फ अनन्तरभाव को ही कारण नहीं कहते किंतु कार्य का एकार्थसमवायी हो ऐसा जो अनन्तर भाव वही संस्कार का कारण होगा अर्थात् ( संस्कार का एकार्थसमवायी और अनन्तरपूर्ववर्ती ज्ञान ही है अत: ) ज्ञान ही कारण बनेगा-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि ज्ञान आत्मा से सर्वथा भिन्न होगा तो समवाय सम्बन्ध एक होने से उससे वह सर्वत्र आकाशादि में भी रह सकता है अतः ज्ञान को ही एकार्थसमवायी नहीं कहा जा सकता, तथा समवाय का भी पहले निषेध हो चका है। अतः 'एकार्थसमवायी' ऐसा कहना अयुक्त है। तदुपरांत, यह भी समस्या है कि जो कारण विनष्ट है उससे अनन्तर कार्य कैसे होगा ? जिससे कि आनन्तर्य को आप कारणकार्यभाव का बीज दिखा रहे हो ? जो विनष्ट है वह कारण ही नहीं है और इसीलिए कोई संस्कारादि उसका कार्य भी नहीं है, क्योंकि संस्कारादि तो उसके न होने पर भी होते हैं तो वे उसके कार्य कैसे माने जाय ? 'जिस वस्तु के अभाव में भी जो पदार्थ उत्पन्न होता है वह पदार्थ उस वस्तु का कार्य हो और वह वस्तू (जिसका अभाव कहा जाता है वह) उस पदार्थ का कारण हो' ऐसी व्यवस्था अतिप्रसंग के कारण शक्य ही नहीं है। _ 'जो विनश्यदवस्था वाला (यानी जो नष्ट हो रहा है-नष्ट हुआ नहीं है ऐसा) हो उसको कारण मानेंगे तो नष्ट पक्ष में जो दोष दिखाये हैं वे नहीं होंगे' ऐसा यदि कहा जाय तो यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि, वह विनश्यदवस्था उस व्यक्ति से A भिन्न है या B अभिन्न ? यदि भिन्न है तो उस व्यक्ति का स्वकृत उपकार के विना उस अवस्था के साथ कोई सम्बन्ध न होने से उस व्यक्ति के लिए 'विनश्यदवस्थावाला' ऐसा व्यवहार कैसे किया जा सकेगा? करने पर सभी के लिये वैसे व्यवहार का अतिप्रसंग होगा / यदि कुछ उपकार माना जाय तो वह उपकार भी उस अवस्था से a भिन्न है या b अभिन्न ? a यदि भिन्न मानेंगे तो पूर्ववत् अतिप्रसंग की अनवस्था चलेगी। b यदि अभिन्न मानेंगे तब तो उस व्यक्ति ने स्वभिन्न विनश्यदवस्था को ही उपकार के माध्यम से उत्पन्न किया इतना फलित हआ-अब उसके ऊपर फिर से प्रश्न है कि उस विनश्यदवस्था को 1. अविनश्यदवस्थावाले कारण ने उत्पन्न किया या 2. विनश्यदवस्थावाले? 1. यदि अविनश्यदवस्थावाला कारण Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-अ 551 विनश्यदवस्थं चेत् तां कुर्यात् , अन्या तहि ततोऽर्थान्तरभूता विनश्यवस्था कल्पनीया, तया तदभिसम्बन्धाभावः अनुपकारात् / उपकारे वा तदवस्थः प्रसंगः अनवस्था च / तथा चापरापरविनश्यदवस्थोत्पादनेनोपक्षीणशक्तित्वात प्रकृतकार्योत्पादनमनवसरं प्रसक्तम् / विनश्यदवस्था यास्तत्र समवायाव तद् विनश्यदवस्थम्' इत्यपि वार्तम्, विहितोत्तरत्वात् / प्रथाभिन्ना तहि विनश्यदवस्था कारणकसमयसंगता, एवं च विनश्यदवस्थं कारणं कार्य करोतीति कोऽर्थः ? स्वोत्पत्तिकाल एव करोतीत्यर्थः समायातः / तथा च कार्य-कारणयोः सव्येतरगोविषाणवदेककालत्वाद् न कार्य-कारणभावः / तथापि तद्भावे सकलकार्यप्रवाहस्यकक्षणवत्तित्वम्। अथ न सौगतस्येवाणोरण्वन्तरव्यतिक्रमलक्षणेन क्षणेन क्षणिकत्वम्-येनायं दोषः, किंतु षट्समय-- स्थित्यनन्तरनाशित्वं तत् / ननु कालान्तरस्थायिनि तथा व्यवहारं कुर्वन् सहस्रक्षणस्थायिन्यपि तत्र तं कि न कुर्यात् ? अपि च, पूर्वपूर्वक्षणसत्तात उत्तरोत्तरक्षणसत्ताया भेदाभ्युपगमे तदेव सौगतप्रसिद्ध क्षणिकत्वमायातम् / प्रभेदाभ्युपगमे पूर्वक्षणसत्तायामेवोत्तरक्षणसत्तायाः प्रवेशादेकक्षणस्थायित्वमेव, न षटक्षणस्थायित्वं बुद्ध : परपक्षे संभवति / भेदेतरपक्षाभ्युपगमे चानेकान्तसिद्धिः, षट्क्षणस्थानानन्तरं . च निरन्वयविनाशे न ततः किंचित् कार्य संभवतीत्युक्तम् / . विनश्यदवस्था को उत्पन्न कर सकता है तो फिर प्रस्तुत कार्य को भी कर लेगा, बीच में विनश्यदवस्था की कल्पना करने से क्या फायदा ? [विनश्यदवस्थावाले कारण से कार्योत्पत्ति असंगत ] 2. यदि विनश्यदवस्थावाला कारण प्रथम विनश्यदवस्था को उत्पन्न करता है तो वह द्वितीयः विनश्यदवस्था भी उससे भिन्न ही मानेंगे, फिर स्वकृत उपकार के विना उसके साथ कोई सबन्ध नहीं हो सकेगा, अतः उपकार को मानेगे तो वही पूर्वोक्त अतिप्रसंग होगा और उसकी भी परम्परा चलेगी। फलतः अन्य अन्य विनश्यदवस्था को उत्पन्न करने में ही कारणशक्ति उपक्षीण हो जाने से प्रस्तुत कार्य की उत्पत्ति का तो अवसर ही दुर्लभ बना रहेगा। यदि कहें कि उपकार के विना ही विनश्यदवस्था के. समवाय से उस कारण में 'विनश्यदवस्थावाला' ऐसा व्यवहार किया जा सकेगा-तो यह प्रलापमात्र है, समवाय ही असिद्ध है यह पहले बार बार तो कह दिया है। B यदि कहें कि वह विनश्यदवस्था कारण से अभिन्न है-तब तो कारणसमान समयवाली ही विनश्यदवस्था हुई तो अब यह कहिये कि विनश्यदवस्थावाला कारण कार्य करता है इसका क्या अर्थ ? अपनी उत्पत्ति के काल में करता है यही अर्थ कहना होगा। इस प्रकार उत्पत्ति काल में ही कारण और उससे कार्य दोनों उत्पन्न होंगे तो दायें-बायें गोशृङ्गों की तरह उनमें कारण-कार्य भाव ही नहीं घटेगा क्योंकि समानकालीन भावों में कारण-कार्य भाव नहीं हो सकता। यदि फिर भी आप समानकाल में कारण-कार्य भाव मानते हैं तब तो वह कार्य भी जिसका कारण है उस कार्य को उसी काल में (अपनी उत्पत्ति के काल में) कर देगा, वह भी जिस का कारण होगा उस कार्य को उसी पल में कर देगा, इस प्रकार तो सकल भावि कार्य सन्तान की उसी एक क्षण में उत्पत्ति आपन्न होगी। [ ज्ञान में षट्क्षणस्थिति भी अनुपपन्न ] नैयायिक:-आपने जो क्षणिकत्व के ऊपर दोष दिये वे बौद्धमत में लगते हैं हमारे मत में नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट गति से एक अणु दूसरे निरन्तरवर्ती अणु के स्थान में पहुंच जाय उतने काल को क्षण Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 552 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न चैवं बुद्धिक्षणिकत्ववादिनः क्वचित् कालान्तरावस्थायित्वं सिध्यति, तद्ग्रहणाभावात् / तथाहि-पूर्वकालबुद्ध स्तदैव विनाशाद् नोत्तरकालेऽस्तित्वमिति न तेन तया सांगत्यं कस्यचित् प्रतीयते, अतिप्रसंगात् / उत्तरबुद्धेश्च पूर्वमसंभवाद् न पूर्वकालेन तत् तयापि प्रतीयते / 'उभयत्रात्मनः सद्भावात् ततस्तत्प्रतीतिरि'त्यपि नोत्तरम् , 'आकाशसद्भावात् तत्प्रतीतिरि'त्यस्यापि भावात् / 'तस्याऽचेतनत्वाद् ने ति चेत स्वयं चेतनत्वे आत्मनः, स येन स्वभावेन पूर्व रूपं प्रतिपद्यते न तेनोत्तरम्, न हि नीलस्य ग्रहणमेव पीतग्रहणम् , तयोरभेदप्रसंगात / अथान्येन स्वभावेन पूर्वमवगच्छति, अन्येनोत्तरमिति मतिस्तथा सत्यनेकान्तसिद्धिः / स्वयं चात्मनश्चेतनत्वे किमन्यया बुद्धचा यस्याः क्षणिकत्वं साध्यते ? मानने वाले बौद्ध हैं और ऐसी एक क्षण से ही सर्व वस्तु को वह क्षणिक कहता है / जब कि हम तो छह समय तक अवस्थान के बाद नष्ट हो जाना-इसको क्षणिकत्व कहते हैं। जैन:-जब आप अन्य द्वितीयादि क्षणों में रहने वाले पदार्थ में भी क्षणिकत्व का व्यवहार करते. हैं तो फिर हजारों क्षण तक जीने वाले पदार्थ में भी क्षणिकत्व का व्यवहार क्यों नहीं करते ? ! तथा, आप यदि वस्तु की पूर्वपूर्वक्षण की सत्ता को उत्तरोत्तरक्षणसत्ता से भिन्न मानेंगे तब तो सत्ताभेद मूलक वस्तुभेद प्रसक्त होने से बौद्ध का क्षणिकत्व ही स्वीकार लिया। यदि उन सत्ताओं का अभेद मानेंगे तब भी उत्तरक्षण की सत्ता अभिन्न होने के नाते पूर्वपूर्वक्षण की सत्ता में समाहित हो जायेगी तो वस्त की एकक्षणमात्र स्थिति ही प्रसिद्ध रहेगी-फिर बुद्धि में षट्क्षणस्थायित्व का संभव नहीं रहेगा। यदि कहें कि-पूर्वपूर्व और उत्तरोत्तर सत्ता क्षणों में भेदाभेद है-तब तो अनायास ही अनेकान्तमत की सिद्धि हो जायेगी। तदुपरांत, षट् क्षण अवस्थिति के बाद यदि वस्तु का निरवशेष नाश मानेंगे तो (अंतिम क्षण में अर्थक्रियाकारित्व के अभाव से सत्त्व असिद्ध हो जाने पर) फलित यह होगा कि क्षणिकवाद में किसी भी कार्य का उद्भव संभव नहीं है। _ [बुद्धिक्षणिकत्वपक्ष में कालान्तरावस्थान की अप्रसिद्धि ] ___तथा, बुद्धि को क्षणिक माननेवाले के मत में कहीं भी कालान्तरस्थायित्व सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि बुद्धि कालान्तरस्थायी न होने से अन्य वस्तुगत कालान्तरस्थायिता का ग्रहण ही शक्य नहीं है। जैसे देखिये-जो पूर्वकालीन बुद्धि है वह तो नष्ट हो जाने से उत्तरकाल में उसका अस्ति ही नहीं है, इस लिये उत्तर काल के साथ किसी भी वस्तु की संगति सम्बन्ध पूर्वकालीनबुद्धि से ज्ञात नहीं किया जा सकता / अन्यथा पूर्वकालबुद्धि में भावि सकल पदार्थों के प्रतिभास का अतिप्रसंग होगा। तथा, उत्तरकालीन बुद्धि का पूर्वकाल में अस्तित्व न होने से पूर्वकाल के साथ किसी भी वस्तु के सम्बन्ध का उससे ग्रहण नहीं हो सकता। यदि कहें कि आत्मा उभयकाल में है अतः वही पूर्वोत्तरकाल के साथ वस्तु के सम्बन्ध को जान पायेगा-तो यह भी गलत उत्तर है क्योंकि वैसे तो आकाश भी उभयकाल में है तो वह भी क्यों नहीं जान पायेगा ? 'आकाश अचेतन होने से नहीं जान सकता है' ऐसा कहें तो यहाँ निवेदन है कि वह जिस स्वभाव से पूर्वरूप को जानता है उसो स्वभाव से तो उत्तर रूप को नहीं जान सकता क्योंकि नील का ग्रहण ही पीतग्रहणरूप तो नहीं हो सकता, अन्यथा उन दोनों का अभेद ही प्रसक्त होगा। यदि अन्य स्वभाव पूर्व रूप को जानता है और दूसरे ही स्वभाव से उत्तररूप को जानता है ऐसा मानेंगे तब तो अनायास ही अनेकान्तवाद सिद्ध हो जायेगा, क्योंकि स्वभावभेद से कथंचित् वस्तुभेद को मानना यही अनेकान्तवाद है। यदि आत्मा स्वयं चेतन Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे पूर्वपक्षः अथ स्वयं न चेतन प्रात्मा अपि तु बुद्धिसम्बन्धाच्चेतयत इति, अत्राप्यचेतनस्वभावपरित्यागेऽनित्यता आत्मनोऽन्यबुद्धिकल्पनावैफल्यं च, स्वयमपि तत्सम्बन्धात् प्रागपि तथाविधस्वभावाऽविरोधात् / तत्सम्बन्धेऽपि तत्स्वभावाऽपरित्यागे 'ज्ञानसम्बन्धादात्मा चेतयते' इत्यपि विरुद्धमेव / अथ तत्समवायिकारणत्वात् चेतयते न स्वयं चेतनस्वभावोपादानादिति, तहि येन स्वभावेन पूर्वज्ञानं प्रति समवायिकारणमात्मा तेनैव यद्युत्तरं प्रति, तथा सति पूवमेव तत्कायं ज्ञानं सकलं भवेत् , नाविकले कारणे सति कार्यानुत्पत्तियुक्ता, तस्याऽतत्कार्यप्रसंगात् / अथ पूर्व सहकारिकारणाभावाद्न तत् कार्यम् / किं पुनः स्वयमसमर्थस्याकिंचित्करेण सहकारिणा ? किंचित्करत्वेपि यदि तत् ततो भिन्न क्रियते, प्रतिबन्धाऽसिद्धिः अनवस्था वा : अभिन्नस्य करणेऽप्यात्मनः एव करणमिति कार्यता / कथंचिदभिन्नस्य करणे तद्बुद्धिरपि ततः कथंचिदभिन्नेति नैकान्तेन तस्याः क्षणिकता। तदेवं पक्षहेतु दृष्टान्तदोषदुष्टत्वाद् नातोऽनुमानात् शब्दस्य क्षणिकत्वमिति सक्रियत्वं सिद्धम् , अतोऽपि द्रव्यत्वम् / (ज्ञाता) है तब तो जिस का क्षणिकत्व आप सिद्ध करना चाहते हैं उस आत्म भिन्न बुद्धि को मानने की जरूर ही क्या है ? - [बुद्धि के सम्बन्ध से आन्मचैतन्य की कल्पना अयुक्त ] यदि कहें कि-आत्मा स्वयं चेतन नहीं किन्तु बुद्धि के योग से उसमें चेतना आती है-तो पूर्वकालीन अचेतन स्वभाव त्याग कर बुद्धियोग से चेतनस्वभाव धारण करने में आत्मा की अनित्यता प्रसक्त होगी, तथा आत्मा को भिन्न बुद्धि के योग से चेतनस्वभाव मानने के बदले बुद्धियोग के पूर्व स्वयं चेतनस्वभाव मानने में भी विरोध नहीं है अत: अन्य बुद्धि के योग की कल्पना भी व्यर्थ हो जायेगी। तथा, बुद्धि का योग होने पर यदि अचेतनस्वभाव का त्याग नहीं मानेंगे तो ज्ञान के सम्बन्ध से आत्मा में चेतन स्वभाव आने की बात भी विरोधग्रस्त हो जायेगी / चेतनस्वभाव को अचेतनस्वभाव के साथ स्पष्ट ही विरोध है। पूर्वपक्षीः-आत्मा बुद्धि के योग से स्वयं चेतनस्वभाव को धारण कर लेता है ऐसा हम नहीं कहते, किन्तु वह ज्ञान का समवायि कारण होने से चेतनावंत होता है यही कहना है / ____उत्तरपक्षी:--जिस स्वभाव से आत्मा पूर्वकालीन ज्ञान का समवायिकारण होता है, यदि उसी स्वभाव से वह उत्तरकालीन ज्ञान का भी समवायी कारण बनेगा तो, पूर्वकाल में उत्तरकालीन ज्ञान को समवायी कारणता का प्रयोजक स्वभाव अक्षुण्ण होने से, सकल उत्तरकालीन ज्ञानों की उत्पत्ति पर्वकाल में ही प्रसक्त होगी। 'कारण यदि संपूर्ण हो तो कार्य उत्पन्न न होवे' यह बात नहीं घट सकती क्योंकि तब उन दोनों में एक दूसरे के प्रति कारण-कार्य भाव का ही भंग हो जायेगा। [सहकारियों से उपकार की बात असंगत ] पूर्वपक्षी:--पूर्वकाल में उत्तरकालीन ज्ञानों के प्रति समवायिकारणता का स्वभाव तदवस्थ होने पर भी उन की उत्पत्ति न होने का कारण यह है कि उस वक्त उन ज्ञानों के सहकारिकारण उपस्थित नहीं रहते है। - उत्तरपक्षी:-यदि तथाविध स्वभाववाला आत्मा भी असमर्थ है तो फिर सहकारियों भी आ कर क्या करने वाले हैं ? यदि वे उपस्थित हो कर कुछ उपकार करते हैं (जिससे आत्मा समर्थ होता है ) ऐसा कहेंगे तो वह उपकार आत्मा से भिन्न होगा या अभिन्न, यदि भिन्न होगा तो वह Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 गुणवत्त्वाच्च द्रव्यं शब्द:--'गुणवान् ध्वनिः, स्पर्शवत्त्वात् , यो यः स्पर्शवान् स स गुणवान् यथा लोष्टादिः, तथा च ध्वनिः, तस्माद् गुणवान्' इति / स्पर्शवत्त्वाभावे कंसपात्र्यादिध्वानाभिसम्बन्धेन कर्णशष्कुल्याख्यस्य शरीरावयवस्याभिघातो न स्यात् , न ह्यस्पर्शवताऽऽकाशेनाभिसम्बन्धात् तदभिघातो दृष्टः, भवति च तच्छब्दाभिसम्बन्धे तदभिघातः, तत्कार्यस्य बाधिर्यस्य प्रतीतेः / ननु स्पर्शवता शब्देन कर्णविवरं प्रविशता वायुनेव तद्वारलग्नतूलांशुकादेः प्रेरणं स्यात् / न, धूमेनानेकान्तात्--धमो हि स्पर्शवान , तदभिसम्बन्धे पांशुसम्बन्धवच्चक्षुषोऽस्वास्थ्योपलब्धेः, न च तेन चक्षष्प्रदेशं प्रविशता तत्पक्ष्ममात्रस्यापि प्रेरणमुपलभ्यते / न च स्पर्शवत्त्वे शब्दस्य वायोरिव प्रदेशान्तरेण ग्रहणप्रसंगः, धमस्यापि चक्षुरादिप्रदेशव्यतिरिक्तशरीरप्रदेशेन ग्रहणप्रसक्तेः / 'धूमवत् चक्षुषा तस्य ग्रहणं स्यादिति चेत ? न, जलसंयुक्तेनानलेन व्यभिचारात् तस्योष्णस्पर्शोपलभेडाप चक्षुषा भास्वररूपानुपलम्भात् / अनुभूतत्वमुभयत्र समानम् / / आत्मा का सम्बन्धी न हो सकेगा और सम्बन्धी बनने के लिये अन्य संबन्ध की कल्पना करेमे तो अन्य अन्य संबन्ध की कल्पना अविरत रहेगी। यदि आत्मा से अभिन्न उपकार को सहकारीगण करेगे तो इसका अर्थ हुआ कि आत्मा को ही वे करते हैं / फलतः आत्मा में कार्यता और तन्मूलक अनित्यता प्रसक्त होगी। यदि सहकारिगण आत्मा से कथंचिद् अभिन्न उपकार को करते हैं ऐसा कहेंगे तो उसके बदले यही कह दो कि कथंचिद् अभिन्न बुद्धि को ही करते हैं / फलतः आत्मा से कथंचिद् अभिन्न बुद्धि भी आत्मवत् नित्य होने से क्षणिक मानने की जरूर नहीं रहेगी / तो इस प्रकार शब्द में क्षणिकत्व की सिद्धि के लिये उपन्यस्त ज्ञान के दृष्टान्त में साध्य शुन्यता फलित हयी। इसका नतीजा यह है किपक्षदोष, हेतुदोष और दृष्टान्तदोष से दुष्ट अनुमान से शब्द में क्षणिकत्व की सिद्धि दुष्कर बन जाने से निष्क्रियता भी सिद्ध नहीं हो सकेगी। अतः सक्रियत्व हेतु सिद्ध होने से शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि निर्बाध हो सकेगी। [शब्द में गुणहेतुक द्रव्यत्व की सिद्धि ] गुणवान् होने से भी शब्द द्रव्यात्मक है उसका अनुमान इस प्रकार है-शब्द गुणवान् है क्योंकि स्पर्शवाला है, जो भी स्पर्शवाला होता है वह गुणवान् होता ही है जैसे कि मिट्टी का लौंदा। शब्द भी स्पर्शवाला ही है अत: वह गुणवान् सिद्ध होता है। शब्द को यदि स्पर्शवाला नहीं मानेंगे तो देहावयवभूत कर्णशष्कुलो को कंसपात्री आदि के प्रचण्ड ध्वनि के सम्बन्ध से जो अभिघात होता है वह नहीं होगा। स्पर्शरहित है आकाशद्रव्य, तो उस के सम्बन्ध में किसी भी अंग को अभिघात होता हो ऐसा नहीं देखा जाता। जब कि शब्द के सम्बन्ध से तो अभिघात होने का स्पष्ट अनुभव है जिस के फलस्वरूप बधिरता महसूस होती है। पूर्वपक्षीः-वायु जब किसी छिद्र में प्रवेश करता है तो छिद्र के मुख में संलग्न तूल-अंशुकादि प्रेरित होकर वहाँ से हठ जाते हैं ऐसा दिखता है, यदि शब्द भी स्पर्शवान् द्रव्य है तो फिर वह जब कर्णछिद्र में प्रवेश करेगा तब कर्णमुख में रहे हुए तूलादि को भी प्रेरित करेगा ही, किन्तु वैसा कहाँ दिखता है ? [शब्द में स्पर्शवत्ता का समर्थन ].. उत्तरपक्षी:-आपने कहा वैसा कोई नियम नहीं है क्योंकि धूम में ऐसा नहीं होता। धूम Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1 आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः 'जलसहचरितेनाऽनलेनोष्णस्पर्शवता शरीरप्रदेशदाहवत् तथाविधेन शब्दसहचरितेन वायुना श्रवणाख्यशरीरावयवाभिघातः' इति चेत् ? न, शब्देन तदभिघाते को दोषो येनेयमदृष्टपरिकल्पना समाश्रीयते ? न च तस्य गुणत्वेन निर्गुणत्वात् स्पर्शाभावाद् न तदभिघातहेतुत्वमिति वक्तु युक्तम् , चक्रकदोषप्रसंगात् / तथाहि--गुणत्वमद्रव्यत्वे तदप्यस्पर्शत्वे, तदपि गुणत्वे, तदप्यद्रव्यत्वे, तदप्यस्पर्शत्वे, तदपि गुणत्वे -इति दुरुत्तरं चक्रकम् / शब्दाभिसम्बन्धान्वय-व्यतिरेकानुविधाने तदभिघातस्यान्यहेतुत्वकल्पनायां तत्रापि क: समाश्वास: ? शक्यं हि वक्तुम् न वाय्वभिसम्बन्धात् तदभिघातः, किन्त्वन्यतः, न ततोऽपि अपि त्वन्यत इत्यनवस्थाप्रसक्तिर्हेतूनाम् / तस्मात् सिद्धं स्पर्शवत्त्वाच्छब्दस्य गुणवत्त्वम् / ___ अल्प-महत्त्वाभिसम्बन्धाच्च, स च 'अल्पः शब्दः महान् शब्द.' इति प्रतीतेः / न च शब्दे मन्दतीव्रताग्रहणम् इयत्तानवधारणात्- यथा द्रव्येषु / -- 'अणुः शब्दोऽल्पो मन्दः' इत्येतस्य धर्मस्य मन्दत्वस्य ग्रहणम् 'महान् शब्दः पटुस्तीवः' इत्येतस्य तीव्रत्वस्य धर्मस्य ग्रहणं न पुनः परिमाणस्य इयत्तानवधारस्पर्शवाला द्रव्य ही है, जैसे धूलो के रजकणों के सम्बन्ध से चक्षु अस्वस्थ हो जाती है वैसे धूम के सम्बन्ध से भी होती है। किन्तु धूम नेत्र में प्रवेश करता है तब नेत्र के एक भी सूक्ष्म बाल को प्रेरित करता हुआ दिखता नहीं है / यदि ऐसा कहें कि शब्द यदि स्पर्शवाला होगा तो वायु का जैसे अन्य अन्य देहावयवों से भी अनुभव होता है वैसे शब्द का भी कर्मभिन्न देहावयवों से अनुभव होने लगेगा।तो यह आपत्ति तो धूम में भी आयेगी, धूम भी स्पर्शवान् द्रव्य है किन्तु नेत्रभिन्न देहावयव उसका ग्रहण कहां होता है ? यदि कहें कि-स्पर्शवान् धूम का जैसे नेत्रेन्द्रिय से ग्रहण होता है वैसे स्पर्शवान् शब्द का भी हो जायेगा-तो यह भी अयुक्त है, जलसंयुक्त अग्निकणों में ऐसा नहीं होता है। उन में उष्णस्पर्श उपलब्ध होने पर भी नेत्र से उसका भास्वर रूप गृहीत नहीं होता है / यदि वहाँ आप भास्वररूप को अनुभूत मानेंगे तो हम भी शब्द के रूप को अनुभूत ही मानेंगे अतः चाक्षुषप्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं होगी। [श्रोत्र का अभिघात शब्दकृत ही है ] यदि यह कहा जाय-जलसंयुक्त ( जलान्तर्गत ) उष्णस्पर्श-वाले अग्नि से जैसे देहावयवों को दाह होता है, तथैव शब्दान्तर्गत स्पर्शवाले वायु द्रव्य से श्रोत्ररूप शरीर अवयव का अभिघात होता है किन्तु शब्द से नहीं ।-तो यह अयुक्त है, क्योंकि शब्द से ही अभिघात होने का अनुभवसिद्ध है तो उसको मानने में क्या दोष है जिससे कि तदन्तर्गत अदृष्ट वायु की कल्पना का सहारा लिया जाय / यदि कहें कि-शब्द गुण होने से निर्गुण होने के नाते उसमें स्पर्श नहीं हो सकता, अर्थात् स्पर्श के अभाव में द्रव्यत्व असिद्ध होने से वह अभिघात का हेतु भी नहीं हो सकता--तो यहाँ चक्रकदोष होने से बोलने जैसा ही नहीं है। जैसे देखो-शब्द को गुण मान कर ही आप उसको अद्रव्य कहेंगे, अद्रव्यत्व के आधार पर स्पर्श का अभाव कहेंगे, स्पर्शाभाव से ही गुणत्व सिद्ध करेंगे, उससे फिर अद्रव्यत्व दिखायेंगे, अद्रव्यत्व से स्पर्शाभाव को और स्पर्शाभाव से गुणत्व को सिद्ध करेंगे, इस प्रकार चक्रकदोष का लंघन अशक्य है / तदुपरांत, शब्दसंयोग के साथ ही अभिघात का अन्वय-व्यतिरेक प्रसिद्ध है फिर भी उसके प्रति आंखें मुंद कर अभिघात को अन्य हेतुक (वायुहेतुक) मानेंगे तो उस अन्य हेतु में भी विश्वास कैसे होगा? वहाँ भी कह सकेंगे कि वायू के योग से अभिघात नहीं होता किन्तु वाय के अन्तर्गत अन्य किसी द्रव्य से होता है, फिर उसमें भी कोई अविश्वास करे तो तदन्तर्गत अन्य अन्य द्रव्य को Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 556 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 णात, न हि अयं 'महान शब्दः' इत्यवस्यन 'इयान' इत्यवधारयति यथा द्रव्यान्तराणि बदराऽऽमलक-- बिल्वादीनि--इति वक्तु शक्यम् , यतो वक्तव्यमत्र का पुनरियं शब्दस्य मन्दता तीव्रता वा ? अवान्तरजातिविशेषः, कथम् ? "गुणवृत्तित्वात् शब्दत्ववत् / एतदेवोक्तं भगवता परमषिणोलक्येन "गुरणे भावाद् गुणत्वमुक्तम्" [ वैशे 1-2-1-14 ] / अस्थायमर्थः-- यो यो गुणे वर्तते स स जातिविशेषः यथा गुणत्वमिति ।"--असदेतत्-यतः कथं शब्दस्य गुणत्वसिद्धिर्येन तत्र वर्तमानत्वाज्जातिविशषत्वं मन्दत्वादेः ? अद्रव्यत्वादिति चेत् ? तदपि कथम् अल्पमहत्त्वपरिमारणाऽसम्बन्धात् सोऽपि गुणत्वात् / ननु तदेव पूर्वोक्तं चक्रकमेतत् / . 'न गुणत्वात्तस्याल्प महत्त्वपरिमाणाऽसम्बन्धं ब्रमः येनायं दोषः स्यात् . अपि तु द्रव्यान्तरवदियत्तानवधारणात' इति चेत? न, वायोरियत्तानवधारणेऽप्यल्प-महत्त्वपरिमाणसम्बन्धसः ही हेतु मानते रहने में अन्त कहाँ होगा ? निष्कर्ष, अभिघात का हेतु स्पर्शवान् शब्द ही है और स्पर्शवत्त्व हेतु से ही शब्द में गुणवत्त्व की सिद्धि भी निर्बाध है / [ परिमाण से शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि ] शब्द में अल्पपरिणाम और महत्परिमाण के सम्बन्ध से भी द्रव्य सिद्ध हो सकता है / 'यह शब्द अल्प है, यह महान् है' (=अमुक व्यक्ति का घोष छोटा है अथवा मोटा है) ऐसी प्रतीति से अल्प और महत्परिमाण शब्द में सिद्ध होता है / यदि कहें--'यह इतना है' इस प्रकार इयत्ता का अवधारण द्रव्यों में जैसे होता है वैसा शब्द में नहीं होता है / अतः अल्प--महान् उल्लेख से सिर्फ शब्दगत मन्दता और तीव्रता का ही ग्रहण सिद्ध होता है, परिमाणगुण का नहीं। 'शब्द अणु है--अल्प है मन्द है' इस प्रकार शब्दगत मन्दत्वधर्म का ग्रहण होता है और 'शब्द बड़ा है, पटु है, तीव्र है' -इस प्रकार शब्दगत तीव्रता धर्म का ग्रहण होता है / अर्थात् परिमाण का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि 'शब्द इतना है' ऐसा अनुभव नहीं होता है / 'शब्द बड़ा है' ऐसा अनुभव करने वाला 'इतना है' ऐसा नहीं दिखाता है, बेर-आमले-बिल्व आदि अन्य द्रव्यों के लिए तो यह इतना बड़ा है' ऐसा प्रयोग सब लोग करते हैं। यह कथन भी न बोलने जैसा ही है। क्योंकि शब्द में मन्दता या तीव्रता परिमाणरूप नहीं है तो और क्या है यह तो कहिये / यदि अवान्तर जातिविशेषरूप है तो वह भी कैसे ? यदि यहाँ ऐसा उत्तर किया जाय कि--"मन्दता तीव्रता धर्म शब्दत्व को तरह गुण में रहते हैं अत: शब्दत्व के जैसे अवान्तर सामान्यरूप हैं / भगवान् उलूक महर्षि ने भी ऐसा कहा है कि-'गुण में रहता है इसलिये गुणत्व को ( सामान्यात्मक ) कहा।' [ वैशे० 1-2-14 ] - इसका अर्थ ऐसा है--जो धर्म गुण में रहता है वह जातिविशेषरूप है,卐उदा० गुणत्व ।"--किन्तु यह उत्तर गलत है, शब्द में गुणत्व ही कहाँ सिद्ध है जिसके दृष्टान्त से उसमें वर्तमान मन्दतादि धर्म को जातिवशेषरूप कहा जाय? यदि अल्पमहत्परिमाण का सम्बन्ध न होने से उसको गुण कहेंगे तो उस परिणाम के सम्बन्ध को भी गुणत्व के आधार से ही सिद्ध करना होगा, फलतः वही पूर्वोक्त चक्रक दोष आवत्तित होगा। चन्द्रानन्दवृत्तौ ‘गुणेषु गुणानामवृत्तेः गुणत्वं च गुणेषु वर्तते, तस्मान्न गुणः' इति व्याख्यातमिदं सूत्रम् / उपस्कारकर्तृकवृत्तौ च गुणेष्वेव भावात् समवायात् गुणत्वं द्रव्य-गुण-कर्मभ्यो भिन्नं सत्तावदेवोक्तमित्यर्थः' इति व्याख्यातम् / प्रतात्पर्य यह है कि गुण या क्रिया में जो अखण्ड भावात्मक धर्म होता है वह द्रव्यादिरूप न घट सकने से परिशेषात् जातिरूप माने जाते हैं यदि कोई बाध न हो। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः 557 कान्तः / न हि बिल्व बदरादेरिव वायोरियत्ताऽवधार्यते / 'वायोरप्रत्यक्षत्वात् इयत्ता सत्यपि नावधार्यते, न शब्दस्य विपर्ययात्' / न, उक्तमत्र 'स्पर्शविशेषस्य वायुत्वात् , तस्य च प्रत्यक्षत्वात् इति / इयत्ता चेयं यदि परिमाणादन्या, कथमन्यस्यानवधारणेऽन्यस्याभावः ? न हि घटानवधारणे पटाभावो युक्तः / परिमाणं चेत् तहि 'इयत्तानवधारणात परिमाणं नास्ति' इति किमुक्तम् ?, परिमाणं नास्ति परिमाणानवधारणात् / तस्मिन्नल्प-महत्त्वपरिमाणावधारणे कथं न तदवधारणम् ?, बिल्वादावपि तत्प्रसंगात् / - मन्द-तीव्राभिसम्बन्धादल्प-महत्वप्रत्ययसंभवे मन्दवाहिनि गंगानोरे 'अल्पमेतत्' इति प्रत्ययोत्पत्तिः, स्यात, तीववाहिगिरिसरिन्नीरे महत इति च प्रतीतिप्रसंगः / न चैवम , तस्मान्न मन्दतोवतानिबन्धनोऽयं प्रत्यय अपि तु अल्पमहत्त्वपरिमाणनिमित्तः, अन्यथा घटादावपि तन्निबन्धनो न स्यात। घटादीनां द्रव्यत्वेन तन्निबन्धनत्वे परिमाणसंभवात तत्प्रत्ययस्य, शब्दस्यापि तथाविधत्वेन स तथाविधोऽस्तु, विशेषाभावात् / कारणगतस्याल्पमहत्त्वपरिमाणस्थ शब्दे उपचारात तथा संप्रत्यय इत्यपि वैलक्ष्यभाषितम् , घटादावपि तथाप्रसंगात् / अपरे मन्यन्ते-यथाऽश्वजवस्य पुरुष उपचारात परुषो याति' इति प्रत्ययस्तथा व्यञ्जकगतस्याल्प महत्वादेः शब्द उपचारात 'शब्दोऽल्पो महान' इति च व्यपदेशः-तदप्यसारम् , शब्दाभिव्यक्तेरपौरुषेयत्वनिराकरणे प्रतिषिद्धत्वात् / ततो घटादाविवाल्पमहत्त्वपरिमारणसम्बन्धः पारमाथिकः शब्दे इति सिद्धं गुणवत्त्वम् / [इयत्ता के अनवबोध से परिमाण का निषेध अनुचित ] ___-"गुणत्व के आधार से हम अल्प-महत्त्वपरिमाण का अयोग नहीं दिखाते हैं जिससे कि आप का दिखाया चक्रक दोष लब्धप्रसर बने, किन्तु अन्य द्रव्यों में जैसे इयत्ता का अवबोध प्रसिद्ध है वैसा शब्द में न होने से कहते हैं।"-ऐसा कहना भी असंगत है--वायु में इयत्ता का अवधारण कहाँ होता है ? फिर भी उसमें अल्प--महत्परिमाण का योग माना जाता है अत. आप की बात में अनेकान्त दोष प्रसक्त है / बिल्व-बेर आदि में जैसे इयत्ता का अवबोध होता है वैसे वायू में कभी नहीं होता / यदि कहें कि-'वायु द्रव्य तो प्रत्यक्ष नहीं है अतः उसमें इयत्ता का अनवबोध प्रत्यक्षाभावमूलक * है, शब्द में ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि वह प्रत्यक्ष है- तो यह ठीक नहीं / पहले ही हम कह आये हैं कि 'वायु' किसी द्रव्य का नहीं किन्तु स्पर्श विशेष का ही नाम है और वह स्पर्शात्मक वायु प्रत्यक्ष ही है। तथा यह सोचिये कि इयत्ता परिमाण से भिन्न है या परिमाणरूप ही है ? यदि भिन्न है तो इयत्ता का अवबोध न होने पर इयत्ता का ही निषेध करना उचित है, परिमाण का निषेध कैसे ? घट का अवबोध न हो तो पट का निषेध करना उचित नहीं। यदि इयत्ता परिमाणरूप ही है तो इयत्ता का अवबोध न होने से परिमाण नहीं है' इस का अर्थ क्या होगा - यही तो, कि 'परिमाण का अवबोध न होने से परिमाण का ( शब्द में) अभाव है', अब यह तो सोचिये कि जब अल्प-महत्परिमाण का शब्द में अवबोध अनुभवसिद्ध है तो फिर 'उसका अवबोध न होने से परिमाण नहीं है' ऐसा कहना कहाँ तक उचित है ? बिल्वादि में भी फिर तो ऐसा कह सकेंगे कि परिमाण का अवबोध न होने से उन में भी परिमाण का अभाव है। [ अल्प-महान् प्रतीति तीव्रमन्दतामूलक नहीं] आप के पूर्वकथनानुसार मंदत-तीव्रता के योग से 'अल्प है' 'महान् है' ऐसी प्रतीति का उपपादन किया जाय तो मंदवेग से बहने वाले विपुल गंगा नदी के जल में मंदता के योग से यह Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ संयोगाश्रयत्वाच्च, तदपि वायुनाऽभिघातदर्शनात्-संयुक्ता एव हि पांश्वादयो वायुनाऽन्येन वाऽभिहन्यमाना दृष्टाः, तेन च तदभिघातः पाश्वादिवदेव देवदत्तं प्रत्यागच्छतः प्रतिकलेन वायना प्रतिनिवर्तनात् , तदप्यन्यदिगवस्थितेन श्रवणात् / ननु गन्धादयो देवदत्तं प्रत्यागच्छन्तस्तेन निवर्त्यन्ते, न च तेषां तेन संयोगः निर्गुणत्वात् गुणत्वेन / न, तद्वतो त्यस्यैव तेन निवर्तनम् , केवलानां तेषामागमन-प्रतिनिवर्तनाऽसम्भवात निष्क्रियत्वेनोपगमात् / केवलागमन-प्रतिनिवर्तनसंभवे वा द्रव्याश्रितत्वमेतेषां गुणलक्षणं व्याहन्येत / न चात्रापि तद्वतो निवर्त्तनम् , प्राकाशस्यामूर्त्तत्व-सर्वगतत्वेन तदसंभवात् अन्यस्य चानभ्युपगमात् / तस्माच्छब्द एव तेन संयुज्यते साक्षादित्यभ्युपेयम् / गुणत्वेन चाऽसंयोगे चक्रकमुक्तम् / न चाऽसंयुक्तस्यैव तेन निवर्त्तनम् , सर्वस्य निवर्तनप्रसंगात् / प्रतिक्षणं शब्दाच्छब्दोत्पत्तिः पूर्वमेव निरस्ता। अल्प है' ऐसी प्रतीति की आपत्ति होगी, तथा तीव्रवेग से बहने वाले अल्पपरिणाम गिरिनदी के जल में भी तीव्रता के योग से 'यह महान् है' ऐसी प्रतीति की आपत्ति होगी। वास्तव में ऐसी प्रतीति' होती नहीं है इससे फलित होता है कि अल्प-महान् प्रतीति मन्दता--तीव्रतामूलक नहीं है, किन्तु अल्पमहत्परिमाण मुलक है। ऐसा यदि नहीं मानेंगे तो घटादि में भी अल्प-महत् की प्रतीति को परिमाणमूलक नहीं मान सकेंगे। यदि कहें कि-'द्रव्यात्मक होने के कारण घटादि में परिमाण का संभव निर्बाध होने से अल्पमहान्प्रतीति को परिमाणमूलक मान सकते हैं'-तो शब्द भी द्रव्यात्मक होने से उसमें होने वाली अल्पमहत्प्रतीति को भी परिमाणमूलक ही मानी जाय, दोनों स्थल में और कोई विशेषता नहीं है। यदि कहें कि-शब्द में अल्प-महान् प्रतीति उसके कारण में रहे हये अल्प-महत्परि.. माण के उपचार से होती है अतः वास्तव में नहीं है तो यह कथन उलझन की निपज है, घटादि के परिमाण में भी औपचारिकता की आपत्ति दूर नहीं है। दूसरे वादी कहते हैं-अश्व के वेग का पुरुष में उपचार करके 'पुरुष जा रहा है' ऐसी प्रतीति करते हैं उसी तरह व्यंजकवायुगत अल्प महत्त्व का शब्द में उपचार करने से शब्द में भी अल्प-महान् शब्दप्रयोग किये जाते हैं / किन्तु यह भी असार है क्योंकि अपौरुषेयतानिराकरणप्रकरण में शब्द की अभिव्यक्ति का पक्ष भी निषिद्ध हो चुका है / निष्कर्षः-घटादि की तरह शब्द में भी अल्प-महत्परिमाण का योग पारमार्थिक सिद्ध होता है और उससे शब्द में गुणवत्ता की भी सिद्धि निर्बाध है / [संयोग के आश्रयरूप में द्रव्यत्व की सिद्धि ] 'शब्द द्रव्य है क्योंकि संयोग का आश्रय है' इससे भी शब्द का द्रव्यत्व सिद्ध है। वायू के झोके से शब्द का अभिघात देखा जाता है अतः उसमें संयोगाश्रयता भी सिद्ध है। जैसे देखिये ; वाय से या दूसरे किसी के संयोग से ही धूलिकण आदि का अभिघात होता हुआ दिखता है। धूलीकण के ही अभिघात की तरह वायु से शब्द का भी अभिघात होता है, यह इसलिये कि देवदत्त की ओर आने वाला शब्द भी प्रतिकूल वायु के वेग से दूसरी दिशा में चला जाता है, और उस दिशा में रहे हुए अन्य आदमी को वह सुनाई भी देता है। यदि यह कहा जाय कि-देवदत्त के प्रति आनेवाली पुष्पादि की सुगन्धि भी वायु के वेग स दूसरी दिशा में बह जाती है, किन्तु इतने मात्र से गन्धादि के साथ वायु का संयोग नहीं सिद्ध हो सकता, गन्धादि तो गुण है और वे निर्गुण होते हैं तो यह ठीक नहीं है, वायु के वेग से गन्ध दूसरी Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः 559 एकादिसंख्यासम्बन्धित्वाच्च गुणवत्त्वम् , तदपि 'एक: शब्दः द्वौ शब्दौ बहवः शब्दाः' इति प्रत्ययदर्शनात् / न चाधारसंख्यायास्तत्रोपचारात् तथा व्यपदेश इति वक्तुयुक्तम् , आकाशस्याधारत्वाभ्युपगमात् तस्य चैकत्वात् 'एकः शब्दः' इति सर्वदा प्रत्ययप्रसंगात् / कारणमात्रस्य संख्योपचारे 'बहवः' इति प्रत्ययो स्यात् , तस्य बहुत्वात् / विषयसंख्योपचारे गगनाऽऽकाशव्योमशब्दा बहुव्यपदेशभाजो न स्यः, गगनादिलक्षणस्य विषयस्यैकत्वात , पश्वादिलक्षणविषयस्य बहत्वात 'एको गोशब्दः' इति स्वप्नेऽपि प्रत्ययः व्यपदेशो वा न स्यात् / 'यथाऽविरोधं संख्योपचारः' इति बालजल्पितम् , स्वयं संख्यावत्तयैवाऽविरोधात् / 'अत्रापि गुणत्वं विरुध्यते' इति न वक्तव्यम् , इष्टत्वात् / ततः क्रियावत्त्वाद् गुणवत्वाच्च शब्दो द्रव्यम् , इत्यसिद्धं 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यभावे' इति हेतुविशेषणम् / दिशा में बह जाती है इसी से सिद्ध है कि गन्ध के आश्रयभूत द्रव्य का ही अन्य दिशा में प्रतिगमन होता है। गन्ध तो गुण है और गुण निष्क्रिय होता है अतः स्वतन्त्ररूप से उसका आगमन या अन्य दिशा में बहना संभव नहीं है / यदि स्वतंत्ररूप से गुणभूत गन्धादि का आगमन-प्रतिगमन मानेगे तब तो वे द्रव्याश्रित भी नहीं हो सकते, फलतः गुण का जो लक्षण है द्रव्याश्रितत्व, उसका गन्धादि में भंग हो जायेगा। [आश्रय की गति से शब्दगुण की गति अयुक्त ] यह नहीं कह सकते कि 'शब्दस्थल में द्रव्य का आश्रित हो कर ही शब्दात्मक गुण गमनागमन करता है' / कारण, शब्द का आश्रय आपके मत में आकाश है और वह तो अमूर्त एवं सर्वगत है इस लिये उसका गमनागमन संभव नहीं है और आकाश से अन्य कोई शब्द का आश्रय आप मानते नहीं है। अत: यही मानना होगा कि द्रव्यात्मक शब्द ही स्वयं वायु के साथ साक्षात् संयुक्त होता है / 'वह गुण है इसलिये उसमें संयोग का संभव नहीं है' ऐसा कहने में स्पष्ट ही चक्रक दोष लगता है यह पहले कह दिया है / 'वायु से संयुक्त हुए विना ही शब्द दूसरी दिशा में चला जाता है' ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि तब तो शब्दवत् अन्य अन्य द्रव्यों को भी वह संयोग के विना ही दूसरी दिशा में ले जा सकेगा। पल पल एक शब्द से दूसरे दूसरे शब्द की उत्पत्ति का पक्ष तो तीर के दृष्टान्त से पहले ही निरस्त हो चुका है। [संख्या के सम्बन्ध से शब्द में गुणवत्ता की सिद्धि ] शब्द गुणवान् है क्योंकि एकत्व द्वित्वादि संख्या का सम्बन्धी है / 'शब्द एक है, दो हैं, बहत हैं' ऐसी प्रतीति से उसमें एकत्वादिसंख्या का भान होता है। ऐसा कहना कि 'अपने आश्रय की संख्या के उपचार से शब्द में ऐसा व्यवहार होता है'-उचित नहीं है क्योंकि शब्दगुणत्व पक्ष में उसका आधार एक ही आकाश है अतः द्वित्वादि के उपचार का तो संभव नहीं रहता, सदा के लिये 'शब्द एक है" ऐसा ही भान होता रहेगा / यदि कहें कि -'हम सिर्फ समवायिकारण का ही नहीं कारणमात्रगत संख्या का उपचार करेंगे'-तो फिर 'शब्द बहुत है' ऐसा ही भान हो सकेगा, 'एक है' ऐसा भान नहीं हो सकेगा च कि कारण अनेक हैं। यदि कहें-'हम शब्द के अर्थभूत विषय की संख्या का उपचार करेंगे' तो आपत्ति यह है कि गगन, आकाश, व्योमादि शब्दों का बहुवचनान्तप्रयोग नहीं हो सकेगा क्योंकि गगनादिशब्द का अर्थ एक ही व्यक्ति है, तथा दूसरा दोष यह होगा कि स्वप्न में भी 'गोशब्द एक है' ऐसा भान या व्यवहार नहीं हो सकेगा क्योंकि गोशब्द का विषय अनेक पशु है। यदि किसी भी रीति Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ ननूक्तम् शब्दो न द्रव्यम् , एकद्रव्यत्वात् , रूपादिवत्' इति / सत्यम् उक्तम् किन्तु नोक्तिमात्रेण तत् सिध्यति, अतिप्रसंगात् / 'एकद्रव्यत्वात्' इति च तत्र हेतुरसिद्धः / तथाहि-यदि 'एकं द्रव्यं संयोगि अस्येत्येकद्रव्यः शब्दः' इत्येकद्रव्यत्वं हेतुत्वेनोपादीयते तदा विरुद्धो हेतुः, संयोगित्वस्य द्रव्य एव भावात् / अथ 'एकं द्रव्यं समवायि अस्य इत्येकद्रव्यस्तद्भाव एकद्रव्यत्वम्' तदाऽसिद्धो हेतुः, समवा. यस्य निषिद्धत्वात् निषेत्स्यमानत्वाच्च अभावेन, एकद्रव्यसमवायित्वस्याऽसिद्धत्वात् / अपि च, गुणत्वे सिद्ध गगने एकत्र समवायेन तस्य वृत्तिः सिध्यति, तत्सिद्धेश्च द्रव्यत्वनिषेधे सति गणत्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वम् / यत् पुनरुक्तम् 'एकद्रव्यः शब्दः, सामान्यविशेषवत्त्वे सति बाह्य केन्द्रियप्रत्यक्षत्वात् , रूपादिवत' इति, तदपि प्रत्यनुमानेन बाधितम-अनेकद्रव्यः शब्दः, अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति स्पर्शवत्त्वात , घटा दिवत् / स्पर्शवत्त्वं साधितत्वाद नासिद्धम् / 'स्पर्शवत्त्वात्' इत्युच्यमाने परमाणुभिरनेकान्त इति तन्निरासार्थम् 'अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति' इति विशेषणोपादानम, अस्मदादिप्रत्यक्षत्वात्' इत्युच्यमाने रूपा.. दिभिर्व्यभिचार इत्युभयमुक्तम् / से संख्या का उपचार इस तरह किया जाय कि जिस से कोई विरोध को अवकाश न रहे-तो यह केवल बालिशता ही होगी, क्योंकि स्वयं उसको ही वास्तव संख्या का आश्रय मान लेने में भी कोई विरोध नहीं है फिर जैसे तैसे उपचार की कल्पना क्यों कि जाय? ऐसा मत कहना कि-स्वयं उसको संख्याश्रय मानने में गुणत्व के साथ विरोध होगा-ऐसा विरोध तो हमें इष्ट ही है अत: उसमे गुणत्व को ही मत मानीये। निष्कर्ष-क्रिया और गुण की आधारता से सिद्ध है कि शब्द द्रव्य है / अतः उसमें गुणत्व की सिद्धि के लिये-'चूकि उसमें द्रव्यत्व प्रतिषिद्ध है' यह हेतुविशेषण असिद्ध ठहरा। ' [एकद्रव्यत्वहेतु से द्रव्यत्व की सिद्धि अशक्य ] अरे ! आपको कहा तो है--शब्द द्रव्य नहीं है कि एकद्रव्यवाला है जैसे रूपादि, फिर उसमें द्रव्यत्व का प्रतिषेध असिद्ध कैसे ? --ठीक है, कहा तो है किंतु कह देने मात्र से कोई सिद्ध नहीं हो जाता, अन्यथा सब कुछ सिद्ध हो जाने का अतिप्रसंग होगा। 'एकद्रव्यत्व' यह आपका हेतु भी असिद्ध है। जैसे देखिये--'एक द्रव्य जिस शब्द का संयोगि है उस शब्द को एकद्रव्य' कहा जाय तो ऐसा एक द्रव्यत्व हेतु करने पर विरोध दोष आयेगा क्योंकि आपके मत से शब्द गुण है उसमें संयोग तो रहता नहीं है, द्रव्य में ही संयोग रहता है। यदि 'एकद्रव्य' शब्द का विग्रह ऐसा करें कि 'एक द्रव्य है समवायि जिस का वह एकद्रव्य' उसको भाव अर्थ में त्वप्रत्यय लगा कर एकद्रव्यत्व शब्द बनाया जाय तो हेतु असिद्ध बन जायेगा कि समवाय का तो निषेध हो चुका है और आगे किया भी जायेगा इस लिये संमवाय तो है ही नहीं, अतः एकद्रव्यसमवायिता ही असिद्ध है / तदुपरांत यहाँ अन्योन्याश्रय दोष भी है- शब्द 'गुण' है यह सिद्ध होने पर वह समवाय सम्बन्ध से एक ही द्रव्य में रहता है यह सिद्ध होगा और एकद्रव्यत्व सिद्ध होने पर द्रव्यत्व का निषेध फलित होने से शब्द में गुणत्व की सिद्धि होगी। [शब्द में अनेकद्रव्यत्वसाधक प्रति-अनुमान ] ___ यह जो कहा था--शब्द एकद्रव्यवाला है क्योंकि सामान्यविशेषवाला होता हुआ बाह्य-एकइन्द्रिय से प्रत्यक्ष होता है जैसे रूपादि ।--यह अनुमान भी विपरीत अनुमान से बाधित हो जाता है, Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ई० शब्दद्रव्यत्वसाधनम् 561 तथा, सामान्यविशेषवत्त्वे सति बाह्य केन्द्रियप्रत्यक्षत्वेऽपि वायु कद्रव्य इति व्यभिचारश्च, तस्य तदप्रत्यक्षत्वे न किंचिद् बाह्य न्द्रियप्रत्यक्षं स्यात् / 'दर्शन-स्पर्शनग्राह्य घटादिकं तदिति चेत् ? न, वायुना कोऽपराधः कृतो येन स्पर्शनेन्द्रियग्राह्यत्वेऽपि प्रत्यक्षो न भवेत् ? 'स्पर्श एव तेन प्रतीयते' इति चेत् ? तहि दर्शन-स्पर्शनाभ्यामपि रूप-स्पर्शावेव प्रतीय (ये)ते इति न द्रव्यप्रत्यक्षता नाम / अथ यदेवाहमद्राक्षं तदेव स्पृशामि इति प्रतोतेस्तत्प्रत्यक्षता-'खरो मृदुरुष्णः शीतो वायुमें लगति' इति प्रतीतेस्तत्प्रत्यक्षता कल्प्यताम् , अविशेषात् / चक्षुषैकेन चास्मदादिभिः प्रतीयमानाश्चन्द्रार्कादयः सामान्यविशेषत्त्वेऽपि नैकद्रव्याः / अस्मदादिविलक्षणैर्बाह्य न्द्रियान्तरेण तत्प्रतीतौ शब्देऽपि तथा प्रतीतिः किं न स्यात् ? अत्र तथानुपलम्भोऽन्यत्रापि समानः / 'देशान्तरे कालान्तरे सत्त्वान्तरे च बाह्य केन्द्रियग्राह्यत्वे सति विशेषगुणत्वात् , रूपादिवत्' इति चेत् ? असदेतत्-शब्दस्य गुणत्वेन निषिद्धत्वात् 'विशेषगुणत्वात्' इति हेतुरसिद्धः / चन्द्रादेरस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वे प्रतीतिविरोध: इत्यास्तामेतत् / . जैसेः 'शब्द अनेक द्रव्यवाला है क्योंकि हम लोगों को प्रत्यक्ष होता हुआ स्पर्शवाला है जैसे घटादि / ' शब्द में कैसे स्पर्शवत्ता है यह पहले दिखाया है अतः वह असिद्ध नहीं है / सिर्फ 'स्पर्शवाला है' इतना कहें तो परमाणुओं में साध्यद्रोह हो जाय क्योंकि परमाणु अनेक द्रव्यवाला नहीं है और स्पर्शवाला है, अत: उसको हठाने के लिए 'हम लोगों को प्रत्यक्ष होता हुआ ऐसा विशेषण कहा है। और यदि हम लोगों को प्रत्यक्ष होता हुआ इतना ही कहें तो रूपादि में साध्यद्रोह है क्योंकि रूपादि अनेकद्रव्यवाले नहीं है किन्तु हमें प्रत्यक्ष होते है, अतः विशेषण पद के साथ 'स्पर्शवाला' यह विशेष्य पद दोनों का प्रयोग किया है। [ वायु का स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्ष प्रतीतिसिद्ध है ] तदुपरांत, वायु एकद्रव्यवाला नहीं है, फिर भी उसमें सामान्यविशेष रहता है और वह बाह्य एक स्पर्शनेन्द्रिय से प्रत्यक्ष है इसलिये हेतु साध्यद्रोही बना। यदि आप वायु को स्पर्शनेन्द्रियप्रत्यक्ष न मानेंगे तो बाह्य न्द्रियप्रत्यक्ष कोई होगा ही नहीं। यदि कहें कि-दर्शन और स्पर्शन उभय इन्द्रिय से ग्राह्य जो घटादि, वही बाह्य न्द्रियप्रत्यक्ष है-तो पूछना पड़ेगा कि वायु ने क्या आपका अपराध किया जो स्पर्शनेन्द्रियग्राह्य होने पर भी प्रत्यक्ष न माना जाय ? ! 'उसका स्पर्श ही प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है, स्वयं वायु द्रव्य नहीं' ऐसा यदि मानेंगे तो दर्शन-स्पर्शनेन्द्रिय से भी द्रव्यों के रूप और स्पर्श ही प्रतीत होता है, स्वयं द्रव्य प्रत्यक्ष नहीं होता ऐसा भी क्यों न माना जाय ? यदि ऐसा कहें'जिसको मैंने देखा था उसी को छू रहा हूँ' ऐसी प्रतीति से द्रव्य को प्रत्यक्ष मानना ही पड़ेगा-तो फिर 'प्रखर अथवा कोमल, शोत अथवा उष्ण वायु मुझे स्पर्श कर रहा है' ऐसी प्रतीति से वायु का भी प्रत्यक्ष मानना ही पडेगा, दोनों ओर यूक्ति की समानता है। ... [चन्द्रसूर्यादिस्थल में हेतु साध्यद्रोही ] तथा, चन्द्र-सूर्यादि को तो हम छू भी नहीं सकते, अत: वे केवल चक्षु इन्द्रिय से ही हम लोगों को प्रत्यक्ष हो सकते हैं, और चन्द्र-सूर्यादि सामान्यविशेषवाला भी है, इस प्रकार हेतु उसमें रह गया है, 'एकद्रव्यवाला' यह साध्य तो वहाँ नहीं रहता अतः हेतु वहाँ साध्यद्रोही ठहरा / यदि हम लोगों से भिन्न देवतादि को चन्द्र-सूर्यादि का चक्षुभिन्न स्पर्शनेन्द्रिय से प्रत्यक्ष होने का माना जाय तो फिर उन Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 'सत्तासम्बन्धित्वात्' इत्यत्र च यदि 'स्वरूपसत्तासम्बन्धित्वात्' इति हेतुस्तदाऽनकान्तिकः सामान्य-समवायादिभिः, एषां प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्मभावे सति तथाभूतसत्तासम्बन्धित्वेऽपि गुणत्वाऽसिद्धेः / न च सामान्यादेः स्वरूपसत्ताऽभावः, खरविषाणादेरविशेषप्रसंगादिति प्रतिपादितत्वात् / अथ 'भिन्नसत्तासम्बन्धित्वात्' इति हेतुस्तदाऽसिद्धः, भिन्नसत्ताऽभावेन खरविषाणादेरिव शब्दस्यापि तत्संबन्धित्वाऽसिद्धेः / यत्तु भिन्नसत्तासद्भावे तत्सम्बन्धात् सत्प्रत्ययविषयत्वे च शब्दादेः प्रयोगद्वयमुपन्यस्तम् , तत्र यदेव चेतनस्य सत्त्वं तदेव यद्यचेतनस्यापि स्यात् तदा चेतनाऽचेतनेषु सत्प्रत्ययविषयत्वात् स्याद भिन्नसत्तासंबन्धित्वम, न च यदेव चेतनस्य सत्त्वं तदेवाऽचेतनस्य, तत्सदृशस्यापरस्यान्यत्र भावादिति सदृशपरिणामलक्षणं सामान्यं प्रतिपादयिष्यन्तो निर्णेष्यामः / तदेवं शब्दस्य गुणत्वाऽसिद्धेः नित्यत्वे सत्यस्मदाद्युपलभ्यमानगुणाऽधिष्ठानत्वाऽसिद्धरम्बरस्य, साधनविकलो दृष्टान्त इति स्थितम / लोगों को शब्द भी अन्य इन्द्रिय से प्रतीत होने का मान सकते हैं अत: हेतु ही शब्द में असिद्ध बन गया / यदि कहें कि उन लोगों को शब्द का भले ही श्रवण भिन्न इन्द्रिय से प्रत्यक्ष होता हो किन्तु हम लोगों को तो नहीं ही होता है तो इसी तरह चन्द्र-सूर्यादि के लिये भी कह सकते हैं कि देवताओं को भले ही दर्शनभिन्न इन्द्रिय से चन्द्र-सूर्य का ग्रहण होता हो, हम लोगों को तो नहीं ही होता / अब यदि ऐसा अनुमानप्रयोग करें कि-सभी देश में सभी काल में सभी लोगों को शब्द का सिर्फ एक ही बाह्य न्द्रिय से प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि वह बाह्य न्द्रिय का विषय होता हुआ विशेषगुण है / तो यह अनुमान भी असत् है। कारण, शब्द में गुणत्व का निषेध किया जा चुका है अत: 'विशेषगुण' हेतु ही असिद्ध है। यदि कहें कि हम चन्द्र-सूर्यादि को हम लोगों के प्रत्यक्ष का विषय ही नहीं मानते हैं तो इस में स्पष्ट ही अनुभवबाध है अतः इस अनुमान की बात ही जाने दो। [सत्तासम्बन्धित्वघटित हेतु में अनेक दोष ] ' ___ शब्द में गुणत्व की सिद्धि के लिये प्रयुक्त किये गये हेतु में जो 'सत्तासम्बन्धित्वात्' यह अंश है वहाँ भी यदि 'सत्ता' शब्द से स्वरूप सत्ता को लेकर यह हेतु किया गया हो तब तो वह सामान्य और समवायादि में साध्यद्रोही बन जायेगा, क्योंकि सामान्यादि में द्रव्यत्व और कर्मत्व तो प्रतिषिद्ध ही है और स्वरूपसत्ता तो सामान्य-विशेष और समवाय में होती ही है, किन्तु वे गुणात्मक नहीं है / ऐसा मत कहना कि-'सामान्यादि में स्वरूपसत्ता का अभाव है'-क्योंकि तब तो वे गर्दभसींग के जैसे ही असत् हो जाने का प्रसंग होगा-यह तो पहले भी कह दिया है। [ द्र. पृ. 441-11 ] यदि हेतु के 'सत्ता' पद से द्रव्यादिभिन्न स्वतन्त्र सत्ता को लेकर 'भिन्नसत्तासम्बन्धिता' को हेतु किया जाय तो वैसी भिन्न सत्ता गर्दभसींग की तरह स्वयं ही असत् होने से शब्द के साथ उसका संबन्ध ही असिद्ध होगा, अर्थात् अप्रसिद्धि दोष हो जायेगा। तथा आपने भिन्न(=स्वतन्त्र) सत्ता सिद्ध करने के लिये तथा उसके सम्बन्ध से शब्द और बुद्धि आदि में सत्-इत्याकार बुद्धिविषयता को सिद्ध करने के लिये जो प्रयोगयुगल इस तरह दिखाया था-जिनके भिन्न भिन्न होते हुए भी जो अभिन्न रहता है वह उससे पृथक् होता है, उदा० वस्त्रादि बदलते रहते हैं किन्तु अपना देह नहीं बदलता, तो देह वस्त्रादि से पृथक् होता है। बुद्धि आदि के भिन्न भिन्न होते हुए भी उन में सत्ता तो अभिन्न ही प्रतीत होती है क्योंकि सर्वत्र द्रव्यादि में 'यह सत् है-यह सत् है' इस प्रकार का भान और संबोधन एकरूप से होता आया है ।....इत्यादि, उसके Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उत्तरपक्ष: 563 एतेनेदमपि प्रत्युक्तम् 'ज्ञानं परममहत्त्वोपेतद्रव्यसमवेतम् , विशेषगुणत्वे सति प्रदेशवृत्तित्वात् , शब्दवत् / ' अत्रापि ज्ञानस्य परममहत्त्वोपेतद्रव्यसमवेतत्वे सति ततः शब्दस्य तसिद्धिः, तत्सिद्धेश्च ज्ञानस्य परममहत्त्वोपेतद्रव्यसमवेतत्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयदोषः / न च दृष्टान्तान्तरमस्ति यतोऽन्यतरप्रसिद्धरयमदोष स्यात / ज्ञानस्य चात्मनोऽव्यतिरेकित्वे तदव्यापित्वम्, 'यद यस्मादव्यतिरिक्तं तत तत्स्वभावं यथाऽऽत्मस्वरूपम् , आत्माऽव्यतिरिक्तं चैतत् , ततस्तव्यापि' इति न प्रदेशवृत्तित्वम् / तथापि तवृत्तित्वे ज्ञानेतरस्वभावतयाऽऽत्मनोऽनेकान्तसिद्धिः / व्यतिरेके आत्मगुणत्ववदन्यगुणत्वस्याप्यप्रतिषेधाद् विशेषगुणत्वाऽसिद्धिः। ___ व्यतिरेकाऽविशेषेऽप्यात्मन एव गुणो ज्ञानं नाकाशादेरिति किंकृतोऽयं विशेषः ? 'समवायकृत.' इति चेत् ? न, तस्यापि ताभ्यामर्थान्तरत्वे तदवस्थो दोषः, व्यतिरेके समवायस्य सर्वत्राऽविशेषाद न ततोऽपि विशेषः / अव्यतिरेके तस्यैवाऽभाव इति न ततो विशेषः / न च समवायः संभवति इति प्रतिऊपर यह निवेदन है कि चेतन और अचेतनों में सत्ता यदि एक ही होती तब तो चेतनअचेतन पदार्थों में एकरूप से होने वाली 'सत्' बुद्धि की विषयता से द्रव्यादि में भिन्नसत्ता का सम्बन्ध सिद्ध किया जा सकता था, किन्तु हमें यह कहना है कि चेतन और अचेतनों में रहने वाली सत्ता एक नहीं है किन्तु चेतनगत सत्ता के तुल्य अन्य सत्ता हो अचेतनों में रहती है-इस बात का हम आगे निर्णय करायेंगे जब सामान्य सदृशपरिणामरूप ही है इस के प्रतिपादन का अवसर आयेगा। निष्कर्ष, शब्द में गुणत्व ही सिद्ध नहीं है, फलतः आकाश रूप दृष्टान्त में 'नित्य होते हुए. हम लोगों को उपलब्ध होने वाले गुण (शब्द) का आश्रय होने से ' ऐसा हेतु भी असिद्ध है, तो फिर हेतुशून्य आकाश के दृष्टान्त से आत्मा में विभुपरिमाण की सिद्धि कैसे होगी ? [ आत्मविभुत्वसाधक अन्य अनुमान का निरसन ] उपरोक्त चर्चा से अब यह भी निरस्त हो जायेगा जो नैयायिकों ने कहा है कि-ज्ञान परममहत्परिमाणवाले द्रव्य में समवेत है चूंकि वह विशेषगुण होते हुए प्रदेश वृत्ति वाला है [ यानी अव्याप्यवत्ति है 1. जैसे शब्द। यह अनमान इस लिये निरस्त है कि यहाँ अन्योन्याश्रय दोष लगा है-ज्ञान में परममहत्परिमाणवद्रव्यसमवेतत्व की सिद्धि होने पर ज्ञान के दृष्टान्त से शब्द में उसकी सिद्धि होगी और शब्द में उसकी सिद्धि के आधार से ज्ञान में परममहत्परिमाणवद्रव्यसमवेतत्व की सिद्धि हो सकेगी-स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय हो जाता है। शब्द से भिन्न तो कोई इन्टान्त खोजा नहीं गया जिसके आधार पर ज्ञान या शब्द में साध्य की सिद्धि करके अन्योन्याश्रय दोष को हठाया जा सके। तदुपरांत, यह भी सोच सकते हैं कि ज्ञान आत्मा से अपृथक् है या पृथक् है ? यदि अपृथक होगा तब तो आत्मवत् वह भी व्यापक ही होगा, नियम:-जो जिससे अपृथक् होता है वह उसके स्वभावरूप यानी तद्रूप होता है जैसे आत्मा और उसका स्वरूप / ज्ञान भी आत्मा से अव्यतिरिक्त (=अपृथक्) है अत: आत्मवत् व्यापक ही सिद्ध होगा। फलतः, ज्ञान में प्रदेशवृत्तित्व ही नहीं रहा फिर भी यदि उसे प्रदेशवृत्ति मानेंगे तो आत्मा में ज्ञान स्वभाव तो है ही और ज्ञान के प्रदेशवृत्तित्व के बल से में ज्ञानेतरस्वभाव भी सिद्ध होने से अनेकान्तवाद को हा विजय होगी। यदि ज्ञान को आत्मा से पृथक् माना जाय तो इस पक्ष में, वह जैसे आत्मा का गुण माना जाता है वैसे अन्य द्रव्य का भी * माना जाय तो कौन निषेध कर सकेगा ? फलत: वह सामान्य गुण बन जायेगा, विशेषगुण नहीं रहेगा। ही उस Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 पादितम् / न चात्मनो व्यापित्वे नित्यत्वे च ज्ञानादिकार्यकारित्वमपि संभवति / तन्न तत्कार्यत्वादपि तद्विशेषगुणो ज्ञानम् / न चात्मनः प्रदेशाः सन्ति येन प्रदेशवृत्तित्वं ज्ञानस्य सिद्धं स्यात् / कल्पिततप्रदेशाभ्युपगमे च तवृत्तित्वमपि हेतुः कल्पित इति न कल्पितात् साधनात् साध्यसिद्धियुक्ता, सर्वतः सर्वसिद्धिप्रसंगात् / संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वं च हेतोः विपर्यये बाधकप्रमाणावृत्त्याऽत्रापि समानमिति / तथा स्वदेहमात्रव्यापकत्वेन हर्ष-विषादाद्यनेकविवर्तात्मकरय 'अहम्' इति स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वादात्मनो विभुत्वसाधकत्वेनोपन्यस्यमानः सर्व एव हेतुः प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टः / सप्रतिपक्षश्चायं हेतुरित्यसत्प्रतिपक्षत्वमप्यस्य लक्षणमसिद्धम् / स्वदेहमात्रात्मप्रसाधकश्च प्रतिपक्षहेतुरत्रैव प्रदर्शयिष्यते / तन्नातोऽपि हेतोरात्मनो विभुत्वसिद्धिः / [ज्ञान आत्मा का विशेषगुण कैसे ? / तात्पर्य इस प्रश्न में है कि जब आत्मादि सभी द्रव्य से ज्ञान सर्वथा पृथक ही है तब यह तफावत कैसे किया जाय कि ज्ञान आत्मा का ही गुण है और आकाशादि का नहीं है ? समवाय से यह तफावत नहीं किया जा सकता क्योंकि समवाय उन दोनों से पृथक् पदार्थ होने पर वह उन दोनों के बीच ही हो और अन्य पदार्थ के बीच न हो यह तफावत कैसे होगा? अर्थात पूर्वोक्त दोष तदवस्थ ही रहेगा। तात्पर्य, पृथक् समवाय सर्वत्र समानरूप से होने से, उससे वह तफावत नहीं हो सकता। यदि समवाय दो समवायि से अपृथक् होगा तो वह समवायीरूप ही हो जाने से समवाय का नामोनिशां मिट जायेगा। अतः समवाय से कोई विशेष नहीं हो सकता। तथा समवाय सिद्ध भी नहीं किया जा सकता यह कह दिया है / तथा दूसरी बात यह है कि आत्मा को व्यापक एवं कूटस्थ नित्य मानने पर वह ज्ञानादि कार्यों को कभी नहीं कर सकेगा। इसलिये आत्मा का कार्य होने से ज्ञान को आत्मा का विशेषगुण मानने का तर्क भी नहीं टिकेगा / तथा न्यायमत में आत्मा अप्रदेशी है अतः ज्ञान की उसमें प्रदेशवृत्तिता भी सिद्ध होने का संभव नहीं है / यदि आत्मा के कल्पित प्रदेशों को मानेंगे तो प्रदेशवृत्तिता भी कल्पित हो गयी, तो इस कल्पितप्रदेशवृत्तिता के साधन से साध्यसिद्धि का होना युक्तियुक्त नहीं है, अन्यथा जिस किसी भी वस्तु से जैसे तैसे पदार्थों की सिद्धि को जा सकेगी। तथा 'प्रदेशवत्तित्व' हेतु परममहत्परिमाणशून्य द्रव्य में समवेत पदार्थ में रह जाय तो कोई इसमें बाधक प्रमाण दिखा सकने से हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति भी संदिग्ध हो जाने का दोष यहाँ भी समानरूप से लागू होगा। [आत्मविभुत्वसाधक हेतुओं में बाध दोष ] दूसरी बात यह है कि आत्मा में विभुपरिमाणसाधक हर कोई हेतु कालात्ययापदिष्ट दोषवाला हो जाता है / देखिये-आत्मा 'अहम्' इस प्रकार के स्वप्रकाशप्रत्यक्षसंवेदन से सिद्ध है, इस संवेदन में आत्मा अपने देह मात्र में व्याप्त और हर्षविषादादि अनेक विवर्तों के अधिष्ठानरूप में संविदित होता है, इस प्रत्यक्ष संवेदन से विभुत्वरूप साध्य का निर्देश बाधित होने के बाद जो भी हेतु प्रयुक्त किया जायेगा वह कालात्ययापदिष्ट ही होगा। तथा उक्त संवेदन के आधार पर ही देहमात्रव्यापित्वसाधक प्रति अनुमान (हेतु) से आपका हेतु सत्प्रतिपक्ष दोषवाला हो जायेगा, अर्थात् उसमें 'असत्प्रतिपक्षितत्व' लक्षण ही असिद्ध हो जायेगा / वह प्रति-अनुमान, यानी देहमात्रव्यापिता का साधक प्रतिपक्षी हेतु इसी प्रस्ताव में दिखाया भी जायेगा / तात्पर्य, आपके कथित हेतु से आत्मा में विभुत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ई० शब्दद्रव्यत्वसाधनम् 565 यदप्यात्मनो विभुत्वसाधनं कश्चिदुपन्यस्तम्-"अदृष्टं स्वाश्रयसंयुक्ते प्राश्रयान्तरे कर्म आरभते, एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणत्वात् , यो य एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणः स स स्वाश्रयसंयुक्ते आश्रयान्तरे कर्म प्रारभते यथा वेगः, तथा चाऽदृष्टम् , तस्मात् तदपि स्वाश्रयसंयुक्त आश्रयान्तरे कर्म प्रारभते इति / न चाऽसिद्ध क्रियाहेतुगुणत्वम् , 'अग्नेरूद्धज्वलनम् , वायोस्तिर्यपवनम् , अणु-मनसोश्चाद्यं कर्म देवदत्तविशेषगुणकारितम् , कार्यत्वे सति देवदत्तस्योपकारकत्वात् , पाण्यादिपरिस्पन्दवत्' / एकद्रव्यत्वं चैकस्यात्मनस्तदाश्रयत्वात् , 'एकद्रव्यमदृष्टम् विशेषगुणत्वात् , शब्दवत्' / / ___ 'एकद्रव्यत्वात्' इत्युच्यमाने रूपादिभिर्व्यभिचारः, तन्निवृत्त्यर्थ 'क्रियाहेतुगुणत्वात' इत्युक्तम् / 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्युच्यमाने मुशल-हस्तसंयोगेन स्वाश्रयाऽसंयुक्तस्तम्भादिचलनहेतुना व्यभिचारः, तन्निवृच्यर्थम् ‘एकद्रव्यत्वे सति' इति विशेषणम् / 'एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुत्वाद्' इत्युच्यमाने स्वाश्रयाऽसंयुक्तलोहादिक्रियाहेतुनाऽयस्कान्तेन व्यभिचारः, तन्निवृत्त्यर्थम् ‘गुणत्वात्' इत्यभिधानम् / .. [ अदृष्ट का आश्रय व्यापक होने का अनुमान-पूर्वपक्ष ] कुछ विद्वानों ने आत्मा में विभुपरिमाण की सिद्धि के लिये यह अनुमान दिखाया हैअदृष्ट अपने आश्रय से संयुक्त ही अन्य द्रव्य में क्रिया को उत्पन्न करता है, क्योंकि वह एक द्रव्य में समवेत होने के साथ क्रिया का हेतुभूत गुण है / (व्याप्ति:-) जो जो एक द्रव्य में समवेत और क्रिया के भूत गुणरूप होता है वह अपने आश्रय से संयुक्त ही अन्य द्रव्य में क्रिया को उत्पन्न करता है, उदा० वेग नाम का गुण / अदृष्ट भी वैसा ही है, अत: वह भी अपने आश्रय से संयुक्त ही अन्यद्रव्य में क्रिया को उत्पन्न करेगा। इस अनुमान का आशय यह हुआ कि दूर रही हुयी चीज वस्तु यदि अदृष्ट के सहारे अपने को हस्तगत हो जाती है तो वहाँ आत्मा का विभूत्व इसलिये सिद्ध होता है कि अदृष्ट का आश्रय आत्मा व्यापक है तभी तो वह अन्य द्रव्य उस के साथ संयुक्त होगा और तभी उसमें अदृष्ट से क्रिया उत्पन्न होगी जिस के फलस्वरूप वह अपने हाथों में आ पडेगा। इस अनुमान में 'क्रियाहेतुगुणत्व' असिद्ध नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसकी भी अनुमान से सिद्धि शक्य है-देखिये, अग्नि का ज्वलन हमेशा उर्ध्व दिशा में, वायु का संचरण हमेशा तिरछी दिशा में होता है और अणु तथा मन में आद्य क्रिया की उत्पत्ति जो होती है यह सब देवदत्तआदि के विशेषगुण का फल है, (हेतु:-) क्योंकि ये सब कार्यरूप है और देवदत्तादि के उपकारक हैं, उदा० देवदत्त के हाथ-पैर का संचालन / [ देवदत्त के हाथ-पैर का संचालन कार्यभूत है और देवदत्त को उपकारक है, तथा वह देवदत्त के ही विशेषगुण (प्रयत्न) से जन्य है / अग्नि के उद्धज्वलन आदि में देवदत्त का प्रयत्न तो नहीं होता, अत: उसके अदृष्ट गुण की सिद्धि होगी। तदुपरांत, अदृष्ट में एकद्रव्यत्व भी, उसका आश्रयभत आत्मा एक होने से है। उसकी सिद्धि इस अनुमान से हो सकती है कि अदृष्ट एकद्रव्य में आश्रित है क्योंकि विशेषगुण है, उदा० शब्द / _[ अदृष्ट में एकद्रव्यत्व के अनुमान का पृथक्करण ] यदि उक्त विभुत्वसाधक अनुमान में सिर्फ 'एकद्रव्यत्वात्' इतना ही हेतु किया जाय तो रूपादि में साध्यद्रोह होगा क्योंकि रूपादि गुण भी एक द्रव्य में ही रहते हैं, संख्यादि की तरह अनेक द्रव्य में नहीं रहते, और रूपादि में 'अपने आश्रय के साथ संयुक्त ही द्रव्य में क्रिया को उत्पन्न करना' यह साध्य तो नहीं रहता / इस दोष को निवृत्ति के लिये 'कियाहेतुगुणत्वात्' ऐसा जोडा गया है। रूपादि Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 एतदपि प्रत्यक्षबाधितप्रतिज्ञासाधकत्वेन एकशाखाप्रभवत्वानुमानवदनुमानाभासम् / 'एकद्रव्यत्वे' इति च विशेषणं किमेकस्मिन् द्रव्ये संयुक्तत्वात , उत तत्र समवायात ? तत्र यद्याद्यः पक्षः, स न युक्तः, संयोगगुणेनादृष्टस्य गुणवत्त्वाद् द्रव्यत्वप्रसक्तेः 'क्रियाहेतगुणत्वाद' इत्येतस्य बाधाप्रसंगात / अथ द्वितीयः तदा द्रव्येण सह कथंचिदेकत्वमदृष्टस्य प्राप्तम् नान्यस्यान्यत्र समवायः, घट रूपादिषु तस्य तथाभूतस्यैवोपलब्धेः / न हि घटाद् रूपादयः तेभ्यो वा घटः तदन्तरालवर्ती समवायश्च भिन्नः प्रतीतिगोचरः, अपि तु कथंचिद् रूपाद्यात्मकाश्च घटादयः तदात्मकाश्च रूपादयः प्रतीतिगोचरचारिणोऽनुभूयन्ते, अन्यथा गुण-गुणिभावेऽतिप्रसंगाद् घटस्यापि रूपादयः पटस्य स्युः / तेषां तत्राप्यप्रतीतेरितरेषां तु प्रतीतेः' इत्यादिकं प्रतिविहितत्वाद् नात्रोद्घोष्यम् / तेन समवायेनैकत्रात्मनि वर्तनाददृष्टस्यैकद्रव्यत्वं वादि-प्रतिवादिनोरसिद्धम् , एकान्तभेदे समवायाभावेनैकद्रव्यत्वस्याऽसिद्धेः। क्रिया के हेतु ही नहीं है अतः उसमें हेतु निवृत्त हो जाने से साध्य न रहने पर भी दोष नहीं है। यदि 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इतना. ही हेतु किया जाय तो भी मुशल-और हस्त के संयोगस्थल में साध्यद्रोह होगा, क्योंकि वह भी अपने आश्रय हस्त या मुशल से असंयुक्त स्तम्भादि की चलनक्रिया का हेतु है किन्तु मुशल या हस्त के साथ स्तम्भादि का संयोग नहीं होता / इस साध्यद्रोह के निवारणार्थ 'एक ही द्रव्य में आश्रित हो कर' यह विशेषण किया है / संयोग दो द्रव्य में आश्रित है, अत: कोई दोष नहीं है। 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' ऐसा न कहें और सिर्फ 'क्रियाहेतुत्वात्' इतना ही कहेंगे तो लोहचुंबकस्थल में साध्यद्रोह होगा, क्योंकि लोहचुंबक अपने आश्रय से असंयुक्त भी लोहादि में आकर्षण क्रिया को उत्पन्न करता है, अत: वहाँ क्रियाहेतुत्व है किन्तु 'स्वाश्रयसंयुक्त' यह साध्य अंश नहीं है। इसके निवारणार्थ 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' ऐसा कहा है। लोहचुंबक तो द्रव्यात्मक है, गुणरूप नहीं है, अतः कोई दोष नहीं है, [ कुछ विद्वानों का कथित अनुमान पूर्ण ] / [अदृष्ट के आश्रय की व्यापकता के अनुमान में आपत्तियाँ-उत्तरपक्ष ] कुछ विद्वानों की ओर से उक्त यह अनुमान भी प्रत्यक्ष से बाधित प्रतिज्ञावाला होने से अनुमानाभास है, जैसे कि पूर्व में एकशाखाजन्य फल में माधुर्य का अनुमानाभास दिखाया गया है / आत्मा देहमात्रव्यापी है यह तो प्रत्यक्ष संवेदन से सिद्ध होने का कुछ समय पहले ही कहा हुआ है। तदुपरांत यह अनुमान विकल्पसह भी नहीं है, जैसे: 'एकद्रव्य में आश्रित होकर, ऐसा कहा है उसका अर्थ (1) 'एकद्रव्य में संयुक्त होकर' ऐसा करना है या (2) 'एक द्रव्य में समवेत होकर' ऐसा ? प्रथम पक्ष अयुक्त है क्योंकि अदृष्ट में यदि संयोग गुण रहेगा तो वह द्रव्यरूप सिद्ध होगा और 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' यहाँ गुणशब्दार्थ में बाध आयेगा। यदि दूसरा अर्थ किया जायेगा तो द्रव्य के साथ अदृष्ट का कथंचिद् अभेद प्रसक्त होगा, क्योंकि अन्य वस्तु का अन्य किसी वस्तु में समवाय घटित नहीं है / घट से कथंचिद् अभिन्न रूपादि का ही घट में समवाय दिखाई पडता है / आशय यह है कि घट से सर्वथा भिन्न रूपादि, रूपादि से अत्यन्त भिन्न घट, अथवा उनके बीच रहे हुए सर्वथा भिन्न समवाय कभी भी दृष्टिगोचर नहीं होता। बल्कि, कथंचिद् रूपादिआत्मक घटादि, अथवा घटादिस्वरूप रूपादि ही दृष्टिगोचर होते हुए अनुभव में आते हैं। यदि रूपादि और घटादि में कथंचिद् अभेद नहीं मानेगे तो रूपादि का सिर्फ घट के साथ ही नहीं, पट अथवा आकाशादि के साथ भी गुण-गुणिभाव प्रसक्त होने की आपत्ति *मुशल के प्रहार से जहाँ स्तम्भादि को गिराया जाय वहाँ यह साध्यद्रोह हो सकता है / Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 567 अथ गुणिनो गुणानामनर्थान्तरत्वे गुण-गुणिनोरन्यतर एव स्यात् , अर्थान्तरत्वे परपक्ष एव सथितः स्यादिति समवायः सिद्धः / कथंचिद् वादोऽपि न युक्तः अनवस्थादिदोषप्रसंगात् / अयुक्तमेतत् , पक्षान्तरेऽप्यस्य समानत्वात् / तथाहि-द्वित्वसंख्या-संयोगादिकमनेकेन द्रव्येणाभिसम्बध्यमानं यदि सर्वात्मनाऽभिसम्बध्यते द्वित्वसंख्यादिमात्रम् द्रव्यमानं वा स्यात् , एकेनैव वा द्रव्येण सर्वात्मनाऽभिसम्बन्धात न द्रव्यान्तरेण प्रतीतिः / अथैकेन देशेनैकत्र वर्ततेऽन्येनाऽन्यत्र, तेऽपि देशा यदि ततो भिन्नास्तेष्वपि स तथैव वर्त्तते इत्यनवस्था / अभिन्नाश्चेत् उक्तो दोषः / कथंचित्पक्षे परवाद एव सथितः स्यादित्यात्मना सहादृष्टस्य कथंचिदनन्यभाव एव एकद्रव्यत्वमित्यविभुत्वात् गुणानां तदव्यतिरिक्तस्यात्मनोऽप्यविभुत्वमिति विपक्षसाधकत्वादेकद्रव्यत्वलक्षणस्य हेतुविशेषणस्य विरुद्धत्वम् / होगी और घट के रूपादि वस्त्र के भी हो जायेंगे। यहाँ ऐसा कहना कि-जिन लोगों को शास्त्रीयव्युत्पत्ति नहीं है उन्को तो रूपादि के आश्रय में भी उनके समवाय की प्रतीति नहीं होती और जिन को शास्त्रीयव्युत्पत्ति होती है उनको समवाय की प्रतीति होती ही है-यह उद्घोषणा करने लायक नहीं है क्योंकि इसका उत्तर पहले दे दिया है कि शास्त्रीय व्युत्पत्ति वालों को भी स्वरस से समवाय की . प्रतीति नहीं होती निष्कर्ष यही है कि 'समवाय से एक द्रव्य में रहना' ऐसा एकद्रव्यत्व अदृष्ट में, वादी प्रतिवादि उभय सिद्ध नहीं है, क्योंकि एकान्तभेदपक्ष में समवाय ही असिद्ध होने से एकद्रव्यत्व ही सिद्ध नहीं किया जा सकता। [गुण-गुणी में कथंचिद् भेदाभेदवाद से आत्मव्यापकता असिद्ध ] यदि यह कहा जाय-"गुण गुणी से अर्थान्तर रूप है या नहीं ? यदि अर्थान्तर नहीं है तब तो दो में से एक ही व्यवहारयोग्य हआ, अर्थात दूसरे का लोप हो जायेगा। यदि अथ रूप मानेंगे तब तो उन दोनों के बीच सम्बन्ध भी मानना ही पड़ेगा-इस प्रकार परपक्ष की यानी हमारे पक्ष की अनायास सिद्धि होने से समवाय असिद्ध नहीं है"-तो यह बात ठीक नहीं है / ऐसे विकल्प तो आपके पक्ष में भी समानरूप से हो सकता है। जैसे देखिये-द्वित्वसंख्या और संयोगादि जब अनेक द्रव्य के साथ सम्बद्ध होते हैं तो क्या संपूर्णरूप से सम्बद्ध हो जाते हैं या एक अंश से ? यदि संपूर्णरूप से कहेंगे तब तो द्वित्वसंख्यादि में से केवल एक ही व्यवहार योग्य रहेगा, दूसरे का विलोप होगा, अथवा घटपटगत द्वित्वादि संख्या संपूर्णरूप से एक घट के साथ सम्बद्ध हो जाने पर अन्य पटद्रव्य के साथ उसके सम्बन्ध की प्रतीति ही नहीं होगी। अगर कहें-एक देश से ही सम्बद्ध होते हैं, अर्थात् एक देश से घट के साथ और अन्य देश से पट द्रव्य के साथ सम्बद्ध होती है तो यहाँ प्रश्न होगा कि वे देश द्वित्वादि से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न होंगे तब तो उन देशों में वह द्वित्वादि संख्या सम्पूर्णरूप से सम्बद्ध हैं या एक अंश से? ऐसे प्रश्नों की परम्परा का अन्त नहीं आयेगा / यदि उन अंशों को द्वित्वादि से अभिन्न मान लेंगे तब तो पहले जो दोष कहा है वही वापस आयेगा / बचने के लिए अगर कथंचिद् भिन्नाभिन्न पक्ष का स्वीकार करेंगे तब तो परकीय पक्ष ही पुष्ट हो जाने से अदृष्ट का भी आत्मा के साथ कथंचिद् अभेदभाव मानने पर ही एकद्रव्यत्व यानी एक द्रव्य में समवेतत्व का कथन सच्चा ठहरेगा / गुणभूत अदृष्ट को तो आप विभु नहीं मानते हैं अतः उससे कथंचिद् अभिन्न आत्मा में भी अविभुत्व ही मानना पड़ेगा। इस प्रकार एकद्रव्यत्व रूप हेतुविशेषण विभुत्व के बदले अविभुत्व का साधक होने से विरुद्ध साबित हुआ। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्यत्रापि यदि देवदत्तसंयुक्तात्मप्रदेशे वर्तमानमदृष्टं द्वीपान्तरत्तिषु मुक्ताफलादिषु देवदत्तं प्रत्युपसपर्णवत्सु क्रियाहेतुः-तदयुक्तम् , अतिदूरत्वेन द्वीपान्तरत्तिभिस्तैस्तस्याऽनभिसबन्धित्वेन तत्र क्रियाहेतुत्वाऽयोगात , तथापि तद्धेतुत्वे सर्वत्र स्यात् , अविशेषात् / अथानभिसम्बन्ध तदेव तेनाऽऽकृष्यते न सर्वमिति नातिप्रसंगः। न, चक्षषोऽप्राप्यकारित्वेऽपि यदेव योग्यं तदेव तद्ग्राह्यमिति / यदुक्तं परेण-"अप्राप्यकारित्वे चक्षुषो दूरव्यवस्थितस्यापि ग्रहणप्रसंग:" [ ] इत्ययुक्तं स्यात् / अथ स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धसंभवात् 'अनभिसम्बन्धात्' इत्यसिद्धम् / तथाहियमात्मानमाश्रितमदृष्टं तेन संयुक्तानि देशान्तरत्तिमुक्ताफलादीनि दवदत्तं प्रत्याकृष्यमाणानि / न, सर्वस्याऽऽकर्षणप्रसंगात् तेनाऽभिसम्बन्धाऽविशेषात् / न च यददृष्टेन यज्जन्यते तत् तेनाऽऽकृष्यते इति कल्पना युक्तिमती, देवदत्तशरीरारम्भकपरमाणूनां तददृष्टाऽजन्यत्वेनाऽनाकर्षणप्रसंगात , तथाप्याकर्षणेऽतिप्रसंगः प्रतिपादित एव / यथा च कारणत्वाऽविशेषे घटदेशादौ सन्निहितमेव दण्डादिकं घटादि. कार्य जनयति अदृष्टं त्वन्यथेत्यभ्युपगमस्तथा बाह्य न्द्रियत्वाऽविशेषेऽपि त्वगिन्द्रियं प्राप्तमर्थमवभासयति, लोचनं त्वन्यथेत्यभ्युपगमः किं न युक्तः ? ! [क्रियाहेतुगुणत्वात्-इस हेतु की परीक्षा ] __ 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इस हेतु में भी, देवदत्त के आत्मप्रदेशों में विद्यमान अदृष्ट को, देवदत्त के प्रति खिचे जाने वाले अन्यद्वीप वर्ती मोतीओं की क्रिया का हेतु यदि माना जाय तो यह युक्त नहीं। कारण, वे मोती अन्य द्वीप में अति दूर रहे हुए होने से उनके साथ अदृष्ट का कोई सम्बन्ध ही नहीं बन सकता, अतः उन की क्रिया में वह हेतु भी नहीं हो सकता। फिर भी यदि अदृष्ट को उन मोतीयों की क्रिया का कारण मानेंगे तो हर कोई चीज की क्रिया में कारण मानना होगा, क्योंकि सम्बन्ध का अभाव तो सर्वत्र समान है / यदि ऐसा कहा जाय कि-सम्बन्ध न होने की बात सर्वत्र समान होने पर भी जो आकर्षणयोग्य होते हैं उनका ही देवदत्त के अदृष्ट से आकर्षण होता है, सभी का नहीं होता, ऐसा मानने पर कोई अतिप्रसंग दोष नहीं है / तो यह भी ठीक नहीं है / कारण, चक्षुअप्राप्यकारिता वादी भी कह सकेगा कि चक्षु अप्राप्यकारी होने पर भी व्यवहित पदार्थों के ग्रहण का अतिप्रसंग निरवकाश है क्योंकि सम्बन्ध के विना भी जो योग्य होता है वही उसका ग्राह्य होता है, सभी नहीं। फिर आपके मत में जो यह कहा गया है कि 'चक्षु यदि अप्राप्यकारि होगा तो दूर रहे हुए पदार्थ के ग्रहण का प्रसंग होगा' [ ] यह अयुक्त ठहरेगा। यदि ऐसा कहें कि-अन्य द्वीप के मोतीयों के साथ देवदत्त के अदृष्ट का स्वाश्रयसंयोग सम्बन्ध बन सकता है / स्व यानी देवदत्त का अदृष्ट, उसका आश्रय देवदत्तात्मा, वह व्यापक होने से मोतीयों के साथ उसका संयोग सम्बन्ध है। इस लिये आपने कहा था कि संबन्ध नहीं है यह बात असिद्ध है। तात्पर्य यह है कि अदृष्ट जिस आत्मा में आश्रित है उस आत्मा के साथ संयुक्त अन्यदेशवर्ती मोती आदि पदार्थ देवदत्त के प्रति आकृष्ट होते हैं। तो यह बात भी व्यर्थ है क्योंकि इस प्रकार का सम्बन्ध हर एक चीजों के साथ बन सकता है अतः सभी चीजों के आकर्षण की आपत्ति होगी / यदि ऐसी कल्पना करें कि जिस के अदृष्ट से जो उत्पन्न हुआ हो वही उस व्यक्ति के अदृष्ट से आकृष्ट होगा अतः *यह बात भी अभ्युपगमवाद से कही गयी है / अन्यथा, आत्मा का व्यापकत्व ही अब तक सिद्ध नहीं है तो स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध की बात ही कैसे बन सकती है ? Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः - 566 नापि द्वीपान्तरवत्तिमुक्तादिसंयुक्तात्मप्रदेशे वर्तमानं तं प्रत्युपसर्पणहेतुः, विकल्पानुपपत्तेः।। तथाहि-यथा वायुः स्वयं देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवान् अन्येषां तृणादीनां तं प्रत्युपसर्पणहेतुस्तथा यद्यदृष्ट, मपि तं प्रत्युपसर्पत स्वयमन्येषां तं प्रत्युपसर्पणहेतुः तथा सति अदृष्टस्येव मुक्तादेरपि तथैव तं प्रत्युपसर्पणाऽविरोधाद व्यर्थमदृष्टपरिकल्पनम् / तथाभ्युपगमे च 'यद् देवदत्तं प्रत्युपसर्पति तद् देवदत्तगुणाकृष्टं तं प्रत्युपसर्पणात्' इति हेतुरनैकान्तिकः अदृष्टेनैव / वायुवच्च सक्रियत्वमदृष्टस्य गुणत्वं बाधते।' शब्दवच्चापरस्योत्पत्तावपरमदृष्टं निमित्तकारणं तदुत्पत्तौ प्रसक्तम् , तत्राप्यपरमित्यनवस्था, अन्यथा शब्देऽपि किमदृष्टलक्षणनिमित्तपरिकल्पनया ? अदृष्टान्तरात् तस्य तं प्रत्युपसर्पणे तदप्यदृष्टान्तरं तं प्रत्युपसर्पत्यदृष्टान्तरात, तदपि तदन्तरादित्यनवस्था / सभी चिजों के आकर्षण की आपत्ति नहीं होगी-तो यह कल्पना भी अयुक्त है क्योंकि देवदत्त के शरीर के आरम्भक परमाणु ( नित्य होने से ) देवदत्तादृष्टजन्य नहीं है तो उनका देवदत्त के प्रति आकर्षण : न होने को आपत्ति आ जायेगी। फिर भी यदि उन परमाणुओं का आकर्षण मानेंगे तो परमाणुवत् / ही देवदत्त-अदृष्ट से अजन्य सभी चीजों के आकर्षण को पूर्वोक्त आपत्ति लगी ही रहेगी। जब आप मानते हैं कि दण्डादि और अदृष्ट में घट के प्रति कारणता समान होने पर भी घटोत्पत्तिदेश में विद्यमान रहकर ही दण्डादि घटादि कार्यों को उत्पन्न करता है जब कि दूरवर्ती अदृष्ट उस देश में संनिहित न रहने पर भी घटादि कार्य को उत्पन्न करता है-इसी तरह अन्य वादी भी नेत्र के लिये मान सकते हैं कि नेत्र और अन्य त्वचादि इन्द्रियों में बाह्य न्द्रियत्व समान होने पर भी त्वचादि / इन्द्रिय, संयुक्त अर्थ को ही प्रकाशित करता है जब कि नेत्रेन्द्रिय अपने से असंयुक्त अर्थ को भी प्रकाशित करता है-ऐसा माने तो क्या अयुक्त है ?! .. [अन्यत्र वर्तमान अदृष्ट की हेतुता अनुपपन्न ] -यदि ऐसा कहें कि-देवदत्तसंयुक्तात्मप्रदेशों में नहीं किन्तु अन्यद्वीपवर्ती मोतीयों से संयक्त आत्मप्रदेशों में विद्यमान अदृष्ट ही देवदत्त के प्रति मोतीयों के आकर्षण में हेतु है-तो यह भी विकल्पसह न होने से अयुक्त है। जैसे देखिये-(१) मोतीसमूहसंयुक्त आत्मप्रदेशों में विद्यमान अदृष्ट देवदत्त के प्रति स्वयं आकृष्ट होता हुआ मोतीयों को देवदत्त के प्रति खिंच लाता है ? (2) या वहाँ रहा हुआ ही मोतीयों को देवदत्त के प्रति धकेल देता है ? पहले विकल्प में यदि कहा जाय कि जैसे वाय स्वयं देवदत्त के प्रति आता हुआ अन्य तृणादि को उसके प्रति खिंच लाता है उसी तरह अदृष्ट भी स्वयं देवदत्त के प्रति खिच ले जाता है-तो ऐसा कहने पर अदृष्ट की कल्पना ही व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि दि आप स्वतः आकर्षणक्रिया मान लेते हैं तो मोतीयों में भी स्वत: आकर्षणक्रिया मानी जाय उसमें कोई विरोध नहीं है, फिर उनके आकर्षण के लिये अदृष्ट की कल्पना क्यों करें ? तदुपरांत, 'जो देवदत्त के प्रति खिंचा जा रहा है वह देवदत्त के गुण से आकृष्ट है क्योंकि वह देवदत्त के प्रति ही आकृष्ट होता है' इस अनुमान का हेतु 'देवदत्त के प्रति खिचा जाना'-यह अहाटस्थल में ही साध्यद्रोही बन जायेगा, क्योंकि अदृष्ट देवदत्त की ओर खिंचा जाता है फिर भी वह देवदत्त के किसी भी गण से आकृष्ट नहीं होता। . तदुपरांत, जब आप वायु की तरह अदृष्ट को स्वतः गमनक्रियाशील मानेंगे तो उसकी गुणरूपता का भंग हो जायेगा। यदि उस को गतिशील न मानना पडे इस लिये आप शब्द की तरह Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 570 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ तत्रस्थमेव तत तेषां तं प्रत्यपसणे हेतः / तदपि न यक्तम. अन्यत्र प्रयत्नादावात्मगणे तथाऽदर्शनाव , न हि प्रयत्नो ग्रासादिसंयुक्तात्मप्रदेशस्थ एव हस्तादिसंचलनहेतुर्गासादिकं देवदत्तमुखं प्रति प्रापयन् दृष्टः, अन्तरालप्रयत्नवैफल्यप्रसंगात् / अथ प्रयत्नवैचित्र्यदृष्टेरदृष्टेऽप्यन्यथा कल्पनम् / तथाहि-कश्चित प्रयत्न: स्वयमपरापरदेशवानपरत्र क्रियाहेतुर्यथाऽनन्तरोदितः, अपरश्चान्यथा यथा शरासनाऽध्यासपदसंयुक्तात्मप्रदेशस्थ एव शरीरा(? शरा) दीनां लक्ष्यप्रदेशप्राप्तिक्रियाहेतुः / यद्येवम् , इयं चित्रता एकद्रव्याणां क्रियाहेतुगुणानां स्वाश्रयसंयुक्ताऽसंयुक्तद्रव्यक्रियाहेतुत्वेन किं नेष्यते विचित्रशक्तित्वाद्धावानाम् ? 'तथाऽदृष्टेः' इति नोत्तरम् , अयस्कान्तभ्रामकस्पशगुणस्यैकद्रव्यस्य स्वाश्रयाऽसंयुक्तलोहद्रव्यक्कियाहेतुत्वेऽप्याकर्षकाख्यद्रव्यविशेषव्यवस्थितस्य तथाविधस्यैव तस्य स्वाश्रयसंयुक्तलोहद्रव्य क्रियाहेतृत्वदर्शनात् / अग्र अग्र भाग में नये नये अदृष्ट की उत्पत्ति को मानेंगे तो प्रथम अदृष्ट की उत्पत्ति में भी अन्य अदृष्ट की निमित्त कारण के रूप में कल्पना करनी पड़ेगी। उसकी उत्पत्ति के लिये भो अन्य अन्य अदृष्ट की कल्पना करने पर अनवस्था दोष लगेगा। यदि अदृष्ट के लिये निमित्तकारणरूप में अन्य अदृष्ट को नहीं मानेंगे तो फिर शब्द के निमित्त कारणरूप में अन्य भी अदृष्ट को कारण मानने की आवश्यकता नहीं रहेगी। तथा यह भी सोचिये कि अदृष्ट की गति को यदि स्वतः प्रेरित न मानकर अन्य अदृष्ट प्रेरित मानेंगे तो उस अदृष्ट की भी देवदत्त के प्रति गमनक्रिया अन्य अदृष्ट प्रेरित ही माननी पड़ेगी। अन्य अदृष्ट की गमनक्रिया भी अन्य अदृष्ट प्रेरित ही माननी पड़ेगी। इस प्रकार अनवस्था चलेगी। [ अचल अदृष्ट से आकर्षण की अनुपपत्ति ] यदि दूसरा विकल्प ले कर यह कहें कि मोतीयों से संयुक्त आत्मप्रदेशों में अवस्थित अदृष्ट वहाँ रहा हआ ही मोतीयों को देवदत्त के प्रति धकेल देता है-तो यह भी युक्त नहीं है। कारण, प्रयत्न आदि अन्य आत्मगुणों में वैसा कहीं भी देखा नहीं जाता। आशय यह है कि जब आहार का केवल देवदत्त मुख के प्रति गति करता है तब उस कवलसंयुक्त आत्मप्रदेशों में अवस्थित प्रयत्न वहाँ रहा रहा ही हस्तसंचालन करता हुआ कवल को देवदत्त के प्रति नहीं धकेल देता किन्तु जैसे जैसे हस्त की गति मुखाभिमूख बढ़ती है वैसे वैसे वह प्रयत्न भी हस्त में रहा हुआ आगे बढ़ता जाता ही है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो मध्यवर्ती देश में हस्तादिगत प्रयत्न निरर्थक हो जाने की आपत्ति आयेगी। यदि यह कहा जाय कि-हम प्रयत्न वैचित्र्य के दर्शन से अदृष्ट में भी वैचित्र्य की कल्पना करेंगे / आशय यह है कि कोई प्रयत्न ऐसा होता है कि वह अपने आश्रय के साथ अन्य अन्य देश में गति करता हुआ ही अन्य किसी कवलादि वस्तु में क्रिया का उत्पादक होता है जैसे कि अभी ही ऊपर आपने दिखाया है / दूसरा कोई प्रयत्न ऐसा होता है जैसा कि शरासन ( यानी तीरों का भाथा ) और अध्यासपद (यानी धनुष्य) से संयुक्त आत्मप्रदेशों में अवस्थित प्रयत्न, जो उसी देश में रहा हआ प्रक्षिप्त तीर में, लक्ष्यस्थानप्राप्ति में हेतुभूत नयी नयी क्रिया को उत्पन्न करता रहता है / इसी तरह अदृष्ट में भी वैचित्र्य मानेंगे तो मोतीयों से संयुक्त आत्मप्रदेशों में अवस्थित प्रयत्न भी वहाँ रहा रहा ही मोतीयों की देवदत्ताभिमुख नयी नयी क्रिया का उत्पादक बन सकेगा ।-यदि इस रोति से पन में वैचित्र्य मानने के लिये तय्यार है तो क्रिया के हेतुभूत गुणमात्र में ही आप ऐसा वैचित्र्य क्यों नहीं मानते हैं कि एक द्रव्य में आश्रित क्रिया के हेतुभूत कोई गुण अपने आश्रय से संयुक्त द्रव्य Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः 571 अथ द्रव्यं क्रियाकारणमन स्पर्शादिगुणः, द्रव्यरहितस्य, क्रियाहेतत्वाऽदर्शनात। न, वेगस्य क्रियाहेतुत्वम् क्रियायाश्च संयोगनिमित्तत्त्वम् तस्य च द्रव्यकारणत्वं तत एव न स्यात् , तथा च 'वेगवत्' इति दृष्टान्ताऽसिद्धिः / अथ द्रव्यस्य तत्कारणत्वे वेगादिरहितस्यापि तत्प्रसक्तिः, स्पर्शादिरहितस्यायस्कान्तस्यापि स्पर्शस्याऽकारणत्वेऽन्यत्र क्रियाहेतुत्वप्रसक्तिः / तद्रहितस्य तस्याऽदृष्टे यं दोष'स्तहि लोहद्रव्यकियोत्पत्तावुभयं दृश्यत इत्युभयं तदस्तु, अविशेषात् / एवं सति एफद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणत्वात्' इति व्यभिचारी हेतुः। - एतेन यदुक्तं परेण-''अदृष्ट मेवायस्कान्तेनाकृष्यमाणलोहदर्शने सुखवत्पुसो निःशल्यत्वेन तक्रियाहेतुः" [ ] इति तन्निरस्तम् , सर्वत्र कार्यकारणभावेऽस्य न्यायस्य समानत्वात प्रदृष्टमेव कारणं स्यात् , यस्य शरीरं सुखं दुखं चोत्पादयति तददृष्टमेव तत्र हेतुरिति न तदारम्भमें क्रिया को उत्पन्न करता है और कोई वैसा गुण अपने आश्रय से संयुक्त द्रव्य में भी क्रिया को उत्पन्न कर सकता है / पदार्थों में शक्ति भिन्न भिन्न प्रकार की होती है अतः ऐसा वैचित्र्य क्रियाहेतु गुणमात्र में मान सकते हैं / फलतः दूसरे प्रकार में आत्मा व्यापक न होने पर भी तद्गत अदृष्ट से दूरस्थ वस्तु से क्रिया उत्पन्न हो सकती है। यदि ऐसा कहें कि प्रयत्न के सिवा अन्य किसी गुण में ऐसा देखा नहीं गया, अत: अद्दष्ट में वसा वैचित्र्य नहीं माना जा सकता ।-तो यह ठीक उत्तर नहीं है। अन्यत्र भी ऐसा देखा जाता है, उदा०-अयस्कान्त नामक द्रव्य का जो भ्रामकस्पर्श ( एक विशेष प्रकार का स्पर्श ) गुण होता है वह एक द्रव्य में ही आश्रित होता है और अपने आश्रय से असंयुक्त लोहद्रव्य में आकर्षणक्रिया का हेतु होता है, जब कि आकर्षक द्रव्य विशेष में अवस्थित स्पर्शगुण अपने आश्रय से संयुक्त ही लोहद्रव्य में क्रिया को उत्पन्न करता है-इस प्रकार स्पर्शगुण में ही प्रयत्न की तरह वैचित्र्य देखा जा सकता है / [क्रिया का कारण अयस्कान्त का स्पर्शादि गुण ही है ] ___यदि यह कहा जाय-अयस्कान्तद्रव्य ही वहां आकर्षण क्रिया का कारण है, तदाश्रित स्पर्शादिगण नहीं, क्योंकि द्रव्य से विनिर्मुक्त केवल स्पर्शादि गुण से क्रिया की उत्पत्ति देखी नहीं जाती।-तो यह ठीक नहीं। कारण, यदि वैसा माना जाय तब तो द्रव्यविनिमुक्त केवल वेग से क्रिया की उत्पत्ति न दिखने से वेग की क्रियाहेतुता का भंग होगा, तथा द्रव्य-विनिर्मुक्त केवल क्रिया से संयोग की उत्पत्ति न दिखने से क्रिया में संयोगनिमित्त कत्व का भंग होगा, और अवयवद्रव्य से से विनिमुक्त केवल संयोग से अवयविद्रव्य की उत्पत्ति न दिखने से संयोग में द्रव्यकारणत्व का भंग होगा। तात्पर्य, सर्वत्र द्रव्य-कारणता की स्थापना होगी और गुण-क्रिया की कारणता का भंग होगा। फलत: 'वेग' का जो आपने दृष्टान्त दिखाया है वह भी हेतुशून्य होने से असिद्ध हो जायेगा / यदि ऐसा कहें कि-द्रव्य को ही यदि क्रियादि का कारण मानेंगे तो वेगादिरहित द्रव्य से भी क्रियादि की उत्पत्ति हो जाने की आपत्ति आती है अतः इस आपत्ति के निवारणार्थ वेगादि को भी हेतु मानना ही पडेगातो इसी तरह हम भी अन्यत्र कह सकते हैं कि स्पर्शगुण को कारण न मान कर केवल अयस्कान्त को कारण मानेंगे तो स्पर्शशून्य अयस्कान्त से भी क्रिया की उत्पत्ति हो जाने की आपत्ति आयेगी। यदि कहें कि-अयस्कान्त कभी स्पर्शशून्य देखा नहीं है इसलिये यह आपत्ति नहीं होगी-तो हमारा कहना यह है कि जब लोहद्रव्य की क्रिया के साथ दोनों (अयस्कान्त और स्पर्शगुण) का अन्वय दिखता है तो Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 572 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 कावयवक्रियासंयोगादयः / अपि च, तददृष्टस्य कथं तद्धेतुत्वम् ? 'तस्य भावे भावादभावेऽभावाद' इति चेत् ? किं पुनरयस्कान्तस्पर्शाद्यभाव एव तक्रिया दृष्टा येनैषां तत्र कारणत्वाऽक्लप्ति: ? ! ततो न दृष्टानुसारेण तत्रस्थस्यैवाऽदृष्टस्य तं प्रति तक्रियाहेतुत्वम् / प्रयत्नवैचित्र्याभ्युपगमे च हेतोरनैकान्तिकत्वम् / अथ सर्वत्रादृष्टस्य वृत्तिस्तहि सर्वद्रव्यक्रियाहेतुत्वम् / यददृष्टं यद् द्रव्यमुत्पादयति तव तत्रैव क्रियामुपरचयतीत्यभ्युगपमे शरीरारम्भकेषु परमाणुषु ततः क्रिया न स्यादित्युक्तम् / न च . गुणत्वमप्यदृष्टस्य सिद्धमिति ‘क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्यसिद्धो हेतुः / अथ 'अदृष्टं गुणः प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्म-भावे सत्ति सत्तासम्बन्धित्वात् , रूपादिवत्' / न च प्रतिषिध्यमानद्रव्यत्वमसिद्धम् / तथाहि'न द्रव्यमदृष्टम् , एकद्रव्यत्वात् रूपादिवत् इति / असदेतत्-एकद्रव्यत्वस्याऽसिद्धताप्रतिपादनाव , सत्तासम्बन्धित्वस्य चेति / दोनों में क्रियाहेतुत्व मानना होगा, कोई विशेष विनिगमक तो है नहीं। जब स्पर्शगुण में भी इस प्रकार क्रिया की हेतुता सिद्ध हुयी तो 'एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणत्वात्' यह हेतु उसमें रह गया किन्तु वहाँ साध्य नहीं है क्योंकि स्पर्शगुण तो अपने आश्रय अयस्कान्त से असंयुक्त लोहद्रव्य में क्रिया को उत्पन्न करता है / अतः हेतु साध्यद्रोही बन गया। [ अयस्कान्त से लोहाकर्षण में अदृष्टहेतुता का निरसन ] अन्य किसी ने जो यह कहा है-पुरुष के देह में से शल्य के निकल जाने पर जो सुखानुभव : होता है वह शल्यनिःसरण से नहीं किन्तु अदृष्ट से ही उत्पन्न होता है, उसी तरह अयस्कान्त से खिचे जाने वाले लोहे को जब देखते है तब भी लोहद्रव्य की क्रिया में अद्दष्ट ही हेतु होता है, अयस्कान्त नहीं। यह कथन भी परास्त हो जाता है, क्योंकि शल्यनिःसरण से होने वाले अदृष्टजन्य सुख के दृष्टान्त को सर्वत्र लागू किया जा सकता है, फलतः हर कोई पदार्थ के कार्यकारणभाव के निर्धारण करते समय वहां अदृष्ट को ही कारण मान लिया जायेगा तो अद्दष्टभिन्न पदार्थों में कारणता का भंग हो जायेगा / शरीर जिस आत्मा को सुख-दुख उत्पन्न करेगा, वहाँ भी शरीर के. बदले अदृष्ट को मान लेने से देश की कल्पना करने की जरूर न रहने से देहारम्भक अवयवों में क्रिया और संयोगादि की उत्पत्ति की कथा ही समाप्त हो जायेगी। तदुपरांत, यह भी एक प्रश्न है कि 'देवदत्तात्मा का अदृष्ट देवदत्त के सुखादि का हेतु है' ऐसा निर्णय कैसे होगा ? देवदत्तअदृष्ट के रहने पर देवदत्त को सुखादि होता है, न रहने पर नहीं होता है-ऐसे अन्वय व्यतिरेक से वैसा निर्णय यदि किया जाय तो क्या वहाँ ऐसा कभी देखा है कि अयस्कान्त के स्पर्शगुण के अभाव में भी लोह का आकर्षण होता हो ? यदि नहीं, तो फिर उसके स्पर्शादि को कारण क्यों न माने जाय? निष्कर्ष यह है कि दूसरे विकल्प में मोतीयों से संयुक्त आत्मप्रदेशों में ही रहा हुआ अदृष्ट, वायू दृष्टान्त के अनुसार देवदत्त के प्रति मोतियों की गमनक्रिया का हेतु नहीं माना जा सकता। तथा धनुर्धर के दृष्टान्त से आपने जो कहा है कि प्रयत्न अपने स्थान में रहकर ही अपने आश्रय शरीरादि से असंयुक्त ही बाण में क्रिया उत्पन्न करता रहता है-तो ऐसा कहने पर यहाँ क्रियाहेतूगुणत्व हेत रह गया और साध्य नहीं रहा, अत: प्रयत्नवैचित्र्य मानने पर हेतु साध्यद्रोही हुआ। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः 573 यदपि तद्गुणत्वसाधनमुक्तम् , देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः पश्वादयो देवदत्तविशेषगुणाकृष्टाः, तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वात , प्रासादिवत्' इति तदप्ययुक्तम्-यतो यथा तद्विशेषगुणेन प्रयत्नाख्येन समाकृष्टास्तं प्रत्युपसर्पन्तो ग्रासादयः समुपलभ्यन्ते तथा नयनाञ्जनादिद्रव्यविशेषेणाऽपि समाकृष्टाः स्त्र्यादयस्तं प्रत्युपसर्पन्तः समुपलभ्यन्ते एव, ततः किं प्रयत्नसधर्मणा केनचिदाकृष्टाः पश्वादयः उत नयनाञ्जनादिसधर्मणा' इति संदेहः, शक्यते ह्येवमनुमानमारचयितु परेणाऽपि-'नयनाञ्जनादिसधर्मणा विवादगोचरचारिणः पश्वादयः माकृष्टाः देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्ति, तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वात् स्यादिवत् / अथ तदभावेऽपि प्रयत्नादपि तद्दृष्टेरनैकान्तिकत्वम् / प्रयत्नसधर्मणो गुणस्याभावेऽप्यञ्जनादेरपि तदृष्टेभवदीयहेतोरनैकान्तिकत्वम् / न चात्रानुमीयमानस्य प्रयत्नसधर्मणो हेतोः सद्भावादव्यभिचारः, अन्यत्राप्यञ्जनादिसधर्मणोऽनुमोयमानस्य सद्भावेनाऽव्यभिचारप्रसंगात् / तत्र प्रयत्नसामर्थ्यादस्य वैफल्येऽन्यत्राप्यञ्जनादिसामर्थ्याद वैफल्यं समानम्। . [ अदृष्ट को पूरे आत्मा में मानने पर आपत्ति ] यदि अदृष्ट को समग्र आत्मा में व्याप्त मानेंगे तो आपके मत में आत्मा व्यापक होने से तत्संयुक्त सकल द्रव्य में वह क्रिया का उत्पादक होगा। यदि ऐसा माना जाय कि जिस अदृष्ट से जो द्रव्य उत्पन्न होगा उसी द्रव्य में वह अदृष्ट क्रिया का उत्पादन करेगा-तो आपत्ति यह होगी कि शरीर के आरम्भक परमाणुओं में अदृष्ट क्रिया को उत्पन्न नहीं कर सकेगा क्योंकि परमाणु अदृष्टजन्य नहीं है-यह पहले भी कहा है। तथा अदृष्ट में गुणत्व भी सिद्ध नहीं होने से 'क्रियाहेतुगुणत्व' हेतु भी असिद्ध हो जायेगा। यदि ऐसा अनुमान दिखाया जाय कि 'अदृष्ट गुण है क्योंकि उसमें द्रव्यत्व और क्रियात्व निषिद्ध है और वह सत्ता का सम्बन्धी है, उदा० रूपरसादि' / 'द्रव्यत्व अदृष्ट में निषिद्ध है' यह बात असिद्ध नहीं है क्योंकि यह अनुमान है-'अदृष्ट द्रव्यरूप नहीं है, क्योंकि वह एक द्रव्य में आश्रित है, उदा० रूपादि' ।-तो ये दोनों अनुमान असत् है, क्योंकि 'एकद्रव्यत्व असिद्ध है' ऐसा पहले कहा जा चुका है / तथा 'सत्तासंबन्धित्व' भी असिद्ध होने का पहले कह दिया है। [ अदृष्ट में गुणत्वसाधक हेतु में संदिग्धसाध्यद्रोह ] तदुपरांत, आपने अदृष्ट को गुण सिद्ध करने के लिये जो यह कहा है-देवदत्त के प्रति खिचे जा रहे पशु आदि देवदत्त के विशेष गुणों से आकृष्ट हैं, क्योंकि देवदत्त की ओर ही खिंचे जा रहे हैं, उसकी ओर खिचे जा रहे आहार कवलादि। यह भी युक्त नहीं है। कारण, जैसे देवदत्त के विशेषगुण प्रयत्न से आहार का कवल देवदत्त के प्रति आकृष्ट होता हुआ दिखता है वैसे ही नयन में लगाये गये अञ्जनादि द्रव्य विशेष से ही देवदत्त की ओर स्त्री आदि का आकर्षण उपलब्ध होता है। अतः यह संदेह होना सहज है कि प्रयत्न के समान किसी गुण से पशु आदि का आकर्षण होता है ? या नयनाञ्जनादि के समान किसी द्रव्य से होता है ? आपने जैसे अनुमान दिखाया है वैसे हम भी अब तो दिखा सकते हैं-विवादास्पदीभूत पशुआदि नयनाञ्जन के तुल्य (द्रव्य) पदार्थ से आकृष्ट हो कर देवदत्त की ओर खिंच आते हैं, क्योंकि वे देवदत्त की ओर ही आते हैं, उदा० स्त्री आदि / यदि यह कहें कि देवदत्त की ओर कवलादि का आकर्षण अञ्जनादि से असमान प्रयत्न गुण से होने का दिखता है / अतः आपका हेतु यहां साध्यद्रोही होगा। तो ठीक इसी प्रकार अञ्जनादि द्रव्य से आकृष्ट Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 574 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ . अथाऽञ्जनादेरेव तद्धेतुत्वे सर्वस्य तद्वतः स्व्याद्याकर्षणप्रसक्तिः, न चाजनादौ सत्यप्यविशिष्टे तद्वतः सर्वान् प्रति तदागमनम् , ततोऽवसीयते 'तविशेषेऽपि यद्वैकल्यात् तन्नेति तदपि कारणम् नाऽञ्जनादिमात्रम्' इति / तदेतत् प्रयत्नकारणेऽपि समानम् , न हि सर्व प्रयत्नवन्तं प्रति ग्रासादय उपसर्गन्ति, तदपहारादि दर्शनात् / ततोऽत्राप्यन्यत् कारणमनुमीयताम , अन्यथा न प्रकृतेऽपि, अविशेषात् / ततः प्रयत्नवदञ्जनादेरपि तं प्रति तदाकर्षणहेतुत्वात् कथं न संदेहः ? अञ्जनादेः स्त्र्याद्यकर्षणं प्रत्यकाररपत्वे गन्धादिवतु तदथिनां न तदुपादानम् / न च दृष्टसामर्थ्यस्याप्यञ्जनादेः कारणत्वक्लप्तिपरिहारेणान्यकारणत्वकल्पने भवतोऽनवस्थामुक्तिः / अथाजनादिकमदृष्टसहकारित्वात तत्कारणं न केवलमिति / नन्वेवं सिद्धमदृष्टवदञ्जनादेरपि तत्र कारणत्वम् , ततः संदेह एव 'कि ग्रासादिवत् प्रयत्नसधर्मणाऽऽकृष्टाः पश्वादयः, किं वा स्व्यादिवदञ्जनादिसधर्मणा तत्संयुक्तेन द्रव्येण' इति संदिग्धं 'गुणत्वात्' इत्येतत् साधनम् / सपरिस्पन्दात्मप्रदेशमन्तरेण ग्रासाद्याकर्षणहेतोः प्रयत्नस्यापि देवदत्तविशेषगुणस्य परं प्रत्यसिद्धत्वात् साध्यविकलता चात्र दृष्टान्तस्य / ..... होने वाले स्त्री आदि स्थल में प्रयत्न के समान किसी गुण के न रहने पर भी अञ्जनादि द्रव्य से आकर्षण दिखता है अतः आपके अनुमान का हेतु भा साध्यद्राहा बन जायेगा। यदि ऐसा कह किहम स्त्री आदिस्थल में भी कवलादि के दृष्टान्त से प्रयत्न समान (अदृष्ट) गुणात्मक हेतु (कारण) से ही आकर्षण होने का अनुमान करेंगे अतः वहाँ साध्य सिद्ध होने से हेतु साध्यद्रोही नहीं होगा-तो इसी तरह हम भी कहेंगे कि कवलादि स्थल में हम भी अञ्जनादि द्रव्य के समानधर्मी (द्रव्य) पदार्थ से ही आकर्षण होने का अनुमान, स्त्री आदि के दृष्टान्त से करेंगे, तो वहां भी हमारा साध्य सिद्ध होने से हेतु साध्यद्रोही नहीं बनेगा / यदि ऐसा कहें कि कवलादिस्थल में तो प्रयत्न का सामर्थ्य दृष्ट है अतः आकर्षणहेतुभूत द्रव्यविशेष की कल्पना व्यर्थ है-तो हम भी स्त्री आदि स्थल में कहेंगे कि वहां अञ्जनद्रव्य का सामर्थ्य दृष्ट है अतः वहाँ आकर्षणहेतुभूत गुणविशेष की कल्पना करना व्यर्थ है। कल्पना की व्यर्थता दोनों जगह समान है। [ अञ्जन और प्रयत्न दोनों स्थल में अन्य की कारणता समान ] यदि यह कहा जाय-अञ्जनादि ही यदि आकर्षण हेतु होता तो अञ्जनादि लगाने वाले सभी .. के प्रति स्त्री आदि का आकर्षण दिखाई देना चाहिये / किन्तु, समानरूप से अंजनादि के सर्वत्र होते हए भी सभी अञ्जन लगाने वालों की ओर स्त्री आदि का आगमन होता नहीं है, अत: मालूम होता है - कि अञ्जनादि समानरूप से होने पर भी जिसके अभाव से सभी की ओर स्त्री आकर्षण नहीं होता -वर भी उसका कारण है, सिर्फ अंजनादि ही नहीं / इस प्रकार प्रयत्नसमान गुण अदृष्ट की गूणरूप में सिद्धि हो सकती है। तो यह बात प्रयत्नकारणता स्थल में अर्थात् कवल के लिये भी समान है। देखिये. प्रयत्न वाले सभी के प्रति कवलादि का संचरण देखा नहीं जाता, कभी कभी प्रयत्न के रहने पर भी कवल का अपहरण दिखाई देता है / अत: कवलादि के देवदत्त की ओर संचरण में अन्य भी कोई (द्रव्यभूत) कारण है यह अनुमान किया जा सकेगा। यदि यहाँ ऐसा अनुमान नहीं मानेंगे तो स्त्री आदि स्थल में भी वह नहीं हो सकेगा, क्योंकि दोनों ओर अनुमान की उद्भावना समान है। जब इस प्रकार प्रयत्न की तरह अंजनादि में भी आकर्षणहेतुता अभंग है तब पूर्वोक्त संदेह क्यों नहीं होगा? यदि अंजनादि को स्त्री-आकर्षण का कारण नहीं मानेंगे तो सुगन्ध के अभिलाषी जैसे Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः यच्च 'यद् देवदत्तं प्रत्युपसर्पति' इत्युक्तम् तत्र कः पुनरसौ देवदत्तशब्दवाच्यः? यदि शरीरम् , तदा शरीरं प्रत्युपसर्पणात् शरीरगुणाकृष्टाः पश्वादयः इत्यात्मविशेषगुणाकृष्टत्वे साध्ये शरीरगुणाकृष्टत्वस्य साधनाद विरुद्धो हेतुः / अथात्मा, तस्य समाकृष्यमाणपदार्थदेश-कालाभ्यां सदाऽभिसम्बन्धाद् न तं प्रति कस्यचिदुपसर्पणम् , अन्यदेशं प्रत्यन्यदेशस्योपसर्गणदर्शनाद् अन्यकालं प्रत्यन्यकालस्य च, यथांकुरं प्रत्यपरापरशक्तिपरिणामप्राप्तेर्बीजादेः / न चैतदुभयं नित्यव्यापित्वाभ्यामात्मनि सर्वत्र सर्वदा सन्निहिते संभवति अतो 'देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः' इति धमिविशेषणम् , 'देवदत्तगुणाकृष्टाः' इति साध्यधर्मः 'देवदत्तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वात्' इति साधनधर्मः परस्य स्वरुचिरचितमेव / न च शरीरसंयुक्त आत्मा सः, तस्यापि नित्य व्यापित्वेन तत्र सन्निधानेनाऽनिवारणात् , . न हि घटयुक्तमाकाशं मेर्वादौ न संनिहितम् / सुगन्धि द्रव्यों को ग्रहण करते हैं उसी तरह स्त्री-आकर्षण अभिलाषी अंजनादि को ग्रहण करते हैं यह नहीं करेंगे / आकर्षण का सामर्थ्य अंजन में देखने पर भी उसमें कारणता की कल्पना का त्याग करके अन्य किसी में कारणता की कल्पना करेंगे तो फिर उस अन्य में भी कारणता न मानकर अन्य ही किसी में कारणता की कल्पना करते रहने में अनवस्था दोष आयेगा, उससे आपका छूटकारा कैसे होगा? यदि ऐसा,कहें कि-अंजनादि स्वतः आकर्षण का कारण नहीं है किन्तु अदृष्ट के सहकारीरूप में कारण है ।-तो इस रीति से अदृष्ट की तरह अंजन में भी आकर्षण की कारणता सिद्ध हो गयी। फलतः इस संदेह को अब पूरी तरह अवकाश है कि प्रयत्नसमानधर्मी गुण से पशु आदि का देवदत्त की ओर आकर्षण होता है ? या स्त्री आदि स्थल के समान अंजनादिसमानधर्मी आत्मसंयुक्त द्रव्य से होता है ? निष्कर्ष, 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इस हेतु में गुणत्व अदृष्ट में संदिग्ध है / तथा, हमारे जैन मत में. आत्मा में प्रयत्न का सद्भाव भी स्पन्दनशील आत्मप्रदेशों के विना संभव नहीं है अतः कवलादि. आकर्षणहेतुभूत देवदत्तविशेषगुणात्मक प्रयत्न भी हमारे मत में असिद्ध है इसलिये आपका दृष्टान्त साध्यविकल हो जाता है। [न्यायमत में देवदत्त शब्द के वाच्यार्थं की अनुपपत्ति ] तदपरांत आपने देवदत्त की ओर जिसका संचार होता है....इत्यादि जो कहा है उसमें देवदत्त शब्द से वाच्य कौन है ? A देवदत्त का शरीर या B आत्मा ? A यदि देवदत्त का शरीर 'देवदत्त' पद का अर्थ है तो आपके कथित अनुमान में पशु आदि, 'देवदत्त की यानी शरीर की ओर खिचे जाते हैं' इस हेतू से शरीरगुणाकृष्ट हुए। इस प्रकार आत्मविशेषगुणाकृष्टत्व की सिद्धि में प्रयुक्त हेत से शरीरगुणाकृष्टत्व सिद्ध होने पर हेतु विरुद्ध साबित हुआ। B यदि 'देवदत्त' पद का अर्थ देवदत्त की आत्मा-ऐसा किया जाय तो (आत्मव्यापकत्वमत में) आकृष्ट होने वाले पदार्थ से सर्वदेश सर्व काल में सदा के लिये आत्मा तो सम्बद्ध है, अत: उसकी ओर किसी का भी संचरण शक्य नहीं है। भिन्न देश में रहे हए पदार्थ की ओर भिन्न देशवी अन्य पदार्थ का संचरण शक्य है, तथा भिन्न कालवर्ती पदार्थ की ओर भिन्न कालवर्ती पदार्थ का संचरण हो सकता है जैसे कि अंकुरावस्था की ओर अपरअपर शक्ति परिणाम की प्राप्ति से आगे बढ़ने वाला बीज / किन्तु आत्मा तो न्यायमत में नित्य और व्यापक होने से सर्वत्र सर्वदा संनिहित है अतः दैशिक या कालिक संचार किसी भी तरह संभवित नहीं के तात्पर्य, 'देवदत्त की ओर खिचे जाने वाले' ऐसा धमिविशेषण, 'देवदत्तगुण से आकृष्ट' यह साध्य Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 576 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 / अथ शरीरसंयुक्त प्रात्मप्रदेशो देवदत्तः / स काल्पनिक: पारमाथिको वा ? काल्पनिकत्वे 'काल्पनिकात्मप्रदेशगुणाकृष्टाः पश्वादयः, तथाभूतात्मप्रदेशं प्रत्युपसर्पणवत्त्वात्' इति तद्गुणानामपि काल्पनिकत्वं साधयेत् / तथा च सौगतस्येव तद्गुणकृतः प्रेत्यभावोऽपि न पारमाथिकः स्यात् / न हि कल्पितस्य पावकस्य रूपादयः तत्कार्य वा दाहादिकं पारमार्थिक दृष्टम् / पारमाथिकाश्चेदात्मप्रदेशाः तेऽपि यदि ततोऽभिन्नास्तदात्मैव ते इति न पूर्वोक्तदोषपरिहारः। भिन्नाश्चेत् तहि तद्विशेषगुणाकृष्टाः पश्वादय इति तेषामेवात्मत्वप्रसक्तिरित्यन्यात्मपरिकल्पना व्यर्था / तेषां च न द्वीपान्तरतिभिर्मुक्तादिभिः संयोग इति 'अदृष्टं स्वाश्रयसंयुक्तेऽन्यत्र क्रियाहेतुः' इति व्याहतम् / संयोगे वा आत्मवत् इत्यनिवृत्तो व्याघातः। अथ तेषामध्यपरे शरीरसंयुक्ताः प्रदेशाः देवदत्तशब्दवाच्याः, तत्राप्यननन्तरदूषणमनवस्थाकारि / अथात्मानमन्तरेण कस्य ते प्रदेशाः स्युरिति तत्प्रदेश्यपर आत्मेत्यभ्युपगमनीयम् / नन्वर्थान्तरधर्म, यह सब प्रतिवादी को स्वरुचि का विलासमात्र है। यदि यह कहें कि शरीरसंयुक्त आत्मा यह' 'देवदत्त' पद का अर्थ है-तो भी निस्तार नहीं है क्योंकि आत्मा नित्य और व्यापि होने से उसके शाश्वत संनिधान को कोई हठा नहीं सकता। यह तो स्पष्ट है कि आकाश को घटसंयुक्त कह देने मात्र से वह मेरुपर्वतादि का असंनिहित नहीं हो जाता। [शरीरसंयुक्त आत्मप्रदेशों को 'देवदत्त' नहीं कह सकते ] यदि ऐसा कहें कि शरीर से संयुक्त आत्मा के जितने आत्मप्रदेश हैं वे ही. 'देवदत्त' पदवाच्य है।-तो यहाँ प्रश्न है कि वे आत्मप्रदेश काल्पनिक है या पारमार्थिक ? यदि काल्पनिक होंगे तब तो 'पशु आदि देवदत्त के गुण से आकृष्ट हैं' इसका अर्थ हुआ 'पशु आदि काल्पनिक आत्मप्रदेशों के गुण से आकृष्ट हैं, क्योंकि पशु आदि का आकर्षण काल्पनिक आत्मप्रदेश स्वरूप देवदत्त के प्रति होता है। तात्पर्य, कल्पित आत्मप्रदेशों के गुण भी काल्पनिक हो जायेगे / फलत: बौद्ध के मत में जैसे पारमार्थिक कुछ भी परलोक जैसा नहीं होता वैसे काल्पनिकगुणनिष्पन्न परलोक भी आपके मत में पारमार्थिक नहीं होगा / कल्पित अग्नि के रूपादि अथवा कार्यभूत दाह पाकादि कभी पारमार्थिक दिखता नहीं। यदि आत्मप्रदेशों को वास्तविक मानेंगे तो आत्मा से वे भिन्न हैं या अभिन्न यह सोचना पड़ेगा। यदि अभिन्न मानेंगे तब तो आत्मा ही शरीर से संयुक्त आत्मप्रदेशरूप हुआ, और शरीर संयुक्त आत्मा को देवदत्तपदवाच्य मानने में जो दोष है वह तो अभी कह आये हैं, उसका परिहार नहीं हो सकेगा। यदि उन्हें भिन्न मानेंगे तो आपके अनुमान से इतना ही सिद्ध होगा कि (आत्मा से भिन्न) आत्मप्रदेशों के विशेषगुण से, देवदत्त की ओर पशु आदि आकृष्ट होते हैं। तात्पर्य, आत्मप्रदेशों का ही अपर नाम आत्मा हआ, फिर आत्मप्रदेशों से भिन्न स्वतंत्र आत्मा की कल्पना निरर्थक हो जायेगी। तदुपरांत, शरीर संयुक्त उन (आत्मभिन्न) आत्मप्रदेशों का द्वीपान्तरवर्ती मोतीयों के साथ संयोग भी नहीं है, इसलिये आपने जो अनुमान में कहा है कि 'अदृष्ट अपने आश्रय से संयुक्त अन्य वस्तु में क्रियाजनक होता है-यह कथन खंडित हो जायेगा। यदि उन आत्मप्रदेशों का दूरस्थ मोतीयों के साथ संयोग मानेंगे तो उनको व्यापक मानना पडेगा, फलत. आत्मा की व्यापकता मानने में पहले जैसे विरोध कहा है वही यहाँ भी प्रसक्त होगा। [ अन्य अन्य आत्मप्रदेश मानने में अनवस्था दोष ] यदि ऐसा कहें कि हम उन व्यापक आत्मप्रदेशों के भी नये आत्मप्रदेश देहसंयुक्त मानेंगे, Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ई० आत्मविभुत्वे उ०पक्षः 577 भूतत्वे आत्मनः कथं तस्य ते' इति व्यपदेशः ? अथ तेषु तस्य वर्तनात् तथा व्यपदेशः, न सदेतत् ; तथाऽभ्युपगमेऽवयविपक्षभाविदूषणावकाशात् / यथा च तेषां सदूषणत्वं तथा प्रतिपादितम् प्रतिपादयिष्यते चेत्यास्तां तावत् / तन्न परस्य देवदत्तशब्दवाच्यः कश्चिदस्ति यं प्रत्युपसर्गणवन्तः पश्वादयः स्वक्रियाहेतोगुणत्वं साधयेयुः / अतो नैतदपि साधनमात्मनो विभुत्वप्रसाधकम् / यदपि 'सर्वगत आत्मा सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात् , आकाशवत्' इति साधनम् , तदप्यचारु, यतो यदि 'स्वशरीरे सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात्' इति हेतुस्तथा सति तत्रैव ततस्तस्य सर्वगतत्वसिद्धेविरुद्धो हेत्वाभासः। अथ स्वशरीरवत् परशरोरे अन्यत्र वोपलभ्यमानगुणत्वं हेतुस्तदाऽसिद्धः, तथोपलम्भाभावात्-न हि बुद्धयादयः तद्गुणास्तथोपलभ्यन्ते, अन्यथा सर्वसर्वज्ञताप्रसंगः / अथैकनगरे उपलब्धा बुद्धयादयो नगरान्तरेऽप्युपलभ्यन्ते, मनुष्यजन्मवज्जन्मान्तरेऽपीति कथं न सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वम् ? न, वायोरपि स्पर्शविशेषगुण एकत्रकदोपलब्धोऽन्यत्रान्यदोपलभ्यमानस्तस्यापि सर्वगतत्वं प्रसाधयेत् , अन्यथा तेनैव हेतोय॑भिचारः। अथ तांस्तान् देशान् क्रमेण गतस्य तस्य तद्गुण उपलभ्यते, आत्मनोऽपि तथैव तद्गुणस्योपलम्भ इति समानं पश्यामः / न च तद्वत् तस्यापि सक्रियत्वप्रसक्तेरयुक्तमेवं कल्पनमिति वाच्यम् , इष्टत्वात् / और उसीको 'देवदत्त' कहेंगे-तो फिर यहां भी काल्पनिकादिविकल्पों से पूर्ववत् दोष प्रसक्त होने से नये नये आत्मप्रदेशों की कल्पना करते रहने से अनवस्था दोष लगेगा। यदि फिर से ऐसा कहें किआत्मा के विना किसके वे प्रदेश माने जायेंगे यह प्रश्न होने से प्रदेशवाले किसी अन्य आत्मा का स्वीकार करना पडेगा-तो यहाँ भी प्रश्न तो होगा ही कि प्रदेशवाला आत्मा यदि उन प्रदेशों से अर्थान्तरभत होगा तो 'उसके ये प्रदेश' ऐसा व्यवहार कैसे हो सकेगा? यदि उन प्रदेशों में आत्मा के रहने के कारण 'उसके प्रदेश' ऐसा कहा जाय तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर आत्मा उन प्रदेशों में अपने एक अंश से रहता है या सर्वांश से ? ऐसे विकल्पों से वे दोष लागु हो जायेंगे जो कि अवयवी वादी के मत में लागु होते हैं। एक अंश से या सर्वांश से वृत्ति मानने में जो दोष आते हैं उनका कथन पहले किया है और आगे भी किया जायेगा, अतः यहाँ इस बात को रहने दो। निष्कर्ष यह है कि नैयायिकादि के मत में देवदत्तादि शब्द का वाच्य ही कोई घट नहीं सकता, जिसके प्रति खिचे जाने वाले पशु आदि अपनी क्रिया के कारणभूत तत्त्व में गुणत्व की सिद्धि कर सके। सारांश, विभुत्व की आत्मा में सिद्धि करने के लिये प्रयुक्त हेतु स्वसाध्यसिद्धि के लिये समर्थ नहीं है / / सर्वत्र उपलभ्यमानगुणत्व हेतु विरुद्ध या असिद्ध ] यह जो किसी ने अनुमान कहा है-आत्मा सर्वगत है, क्यों कि उसके गुण सर्वत्र उपलब्ध होते हैं, जैसे आकाश ।-यह अनुमान भी बेकार है / कारण, 'आत्मा के गुण अपने शरीर में सर्वत्र उपलब्ध होते हैं'- इस अर्थ में यदि आपके हेतु का तात्पर्य हो, तब तो सिर्फ शरीर में ही आत्मा के सर्वगतत्व की सिद्धि होगी, अर्थात् विश्वव्यापकता के विरुद्ध सिर्फ देहव्यापकता साधक हेतु हेत्वाभास बन जायेगा / यदि हेतु का अर्थ यह हो कि-'अपने शरीर में जैसे आत्मा के गुण उपलब्ध होते हैं वैसे दूसरे के देह में अथवा अन्य किसी स्थान में भी उसके गुण उपलब्ध होते हैं'-तो यह बात असिद्ध है क्योंकि अपने आत्मा के गुणों की दूसरे के शरीर में उपलब्धि कभी नहीं होती। बुद्धि आदि आत्मा के गुण कभी भी अपने देह से अन्यत्र उपलब्ध होते हुए दिखाई नहीं देते, यदि सभी पदार्थों में आत्मा के बुद्धिगुण की उपलब्धि मानेंगे तो सभी आत्मा में सर्वज्ञता को भी मानना पड़ेगा। Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 578 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ लोष्टवत् ततो मूर्तत्वप्रसंगस्तस्य दोषः। ननु केयं मूत्तिः ? 'असर्वगतद्रव्यपरिणाम सा' इति चेत् ? नाऽयं दोषः, असर्वगतात्मवादिनोऽभीष्टत्वात् / 'रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवत्त्वं सेति चेत् ? न तादृशीं मूत्तिमात्मनः सक्रियत्वं साधयति, व्याप्त्यभावात् , रूपादिमन्मूर्त्यभावे सक्रियत्वात् / 'यो यः सक्रियः स रूपादिमन्मूत्तिमान यथा शरः, तथा चात्मा, तस्माद् रूपादिमन्मूत्तिमान्' इति कथं न व्याप्तिसंभव: ?-प्रसदेतत , मनसाऽपि व्यभिचारात् / न च तस्यापि पक्षीकरणम् 'रूपादिविशेषगुणानधिकरणं सद् मनोऽथ प्रकाशयति, शरीराधनान्तरत्वे सति सर्वत्र ज्ञानकारणत्वात , आत्मवत्' इत्यनुमानविरोधप्रसंगात् / न च सक्रियत्वं रूपादिमन्मूर्त्यभावेन विरुद्धं यतस्ततस्तनिवर्तमानमात्मनि तथाविधां मूत्ति साधयेत् / न च तथाविधमूत्तिरहितेऽम्बरादौ तददर्शनात् सिद्धो विरोधः, एकशाखाप्रभवत्वस्याप्यन्यत्र पक्षेऽदर्शनाद् विरोधसिद्धिप्रसवतेः / 'पक्ष एव व्यभिचारदर्शनात् सा तत्र न' इति चेत् ? न, सक्रियत्वस्यापि तथा व्यभिचारः समानः, पक्षीकृत एवात्मनि रूपादिमन्मूत्तिरहिते तदर्शनात् / 'अनेनैव यदि ऐसा कहें कि-आत्मा के गुण जैसे एक नगर में उपलब्ध होते हैं वैसे ही अन्य नगर में भी उपलब्ध होते हैं, तथा इस जन्म की तरह जन्मान्तर में भी उपलब्ध होते हैं तो फिर आत्मा के गुणों की सर्वत्र उपलब्धि क्यों न मानी जाय ?-तो यह भी ठीक नहीं है / वायु का स्पर्शविशेष गुण एक बार किसी एक स्थल में उपलब्ध होता है, दूसरी बार दूसरे स्थल में भी उपलब्ध होता है-इतने मात्र से यदि आप व्यापकता मानेंगे तो वायु में भी व्यापकता की सिद्धि हो जायेगी। यदि आप उसमें व्यापकता नहीं मानेंगे तो आपका हेतु वहां उपरोक्त रीति से रहता है अत: साध्यद्रोही बन जायेगा। यदि ऐसा कहें कि-वायु तो क्रमश: एक स्थान से दूसरे स्थान में गति करता है इसलिये उसका स्पर्श विशेष गुण अन्य अन्य स्थान में उपलब्ध होता है, उसके व्यापक होने से नहीं-तो इसी तरह आत्मा भी देह के साथ अन्य अन्य स्थान में जाता है इसलिये ही उसके गुण अन्यत्र उपलब्ध होते हैं, उसके व्यापक होने से नहीं-यह बात हमारे मत में भी समान दिखाई देती है / यदि कहें कि-वायु की तरह मानेंगे तो आत्मा में सक्रियत्व मानने की आपत्ति होगी।-तो यह हमारे लिये तो इष्टापत्ति ही है / जैनमत में आत्मा में सक्रियता मान्य है। [ आत्मा में मृतत्व की आपत्ति का निरसन ] यदि यह कहें कि-आत्मा को सक्रिय मानेंगे तो पत्थर की तरह उसमें मूर्तता माननी होगी यही दोष है / तो यहाँ प्रश्न है कि-मूत्ति यानी क्या ? अव्यापकद्रव्यपरिमाण को मूत्ति कहा जाय तो कोई दोष नहीं है बल्कि इष्ट है क्योंकि हम आत्मा को अव्यापकपरिमाणवाला ही मानते हैं। रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवत्ता को मूत्ति कहा जाय तो सक्रियता से ऐसी मूर्तता की आत्मा में सिद्धि अशक्य है क्योंकि सक्रियता के साथ रूपादिमत्ता का कोई नियम नहीं है, रूपादिमत्तारूप मूर्तता के अभाव में भी सक्रियता हो सकती है। अगर कहें कि-जो जो सक्रिय होता है वह रूपादिमूत्तिमान् होता है, उदा० बाण, आत्मा भी सक्रिय है अतः रूपादिमूत्तिमान् होना चाहिये-इस प्रकार नियम का संभव क्यों नहीं ?-तो यह कथन गलत है क्योंकि इस नियम का मन में ही भंग हो जाता है / यदि मन का भी आप पक्ष में अन्तर्भाव कर लेगे तो उसमें निम्नोक्त अनुमान का विरोध होगा रूपादिगुण के अभाववाला ही मन अर्थ का प्रकाशन करता है, क्योंकि वह शरीरादि से भिन्न होता हुआ सर्वत्र ज्ञान Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उत्तरपक्ष: 579 तत्साधनाद् न व्यभिचारः' इत्येकशाखाप्रभवत्वानुमानेऽपि समानम् / प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टत्वमुभयत्र तुल्यम् / तन्न सक्रियत्वमात्मनो रूपादिमन्मूतित्वं साधयतीति व्यवस्थितम् / अथ सक्रियत्वे तस्याऽनित्यत्वम् / तथाहि-'यत् सक्रियं तदनित्यम् यथा लोष्टादि, तथा चात्मा, तस्मादनित्य' इति, एतदपि न सम्यक् , परमाणुभिरनैकान्तिकत्वात् कथंचिदनित्यत्वस्येष्टत्वात् सिद्धसाधनं च / सर्वात्मनाऽनित्यत्वस्य लोष्टादावष्यसिद्धत्वात् साध्यविकलता दृष्टान्तस्य / तन्न सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वमात्मनः सिद्धम् / अपरे सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वमात्मनोऽतोऽनुमानात् साधयन्ति-"देवदत्तोपकरणभूतानि मणिमुक्ताफलादीनि द्वोपान्तरसंभूतानि देवदत्तगुणकृतानि, कार्य वे सति देवदत्तोपकारकत्वात् , शकटादिवत् / न च तद्देशेऽसन्निहिता एव तद्गुणास्तान् व्युत्पादयितु क्षमाः / प्रात्मगुणानां च तद्देशसन्निधानं न तद्गुणिसन्निधिमन्तरेण संभवि, प्रगुणत्वप्राप्तेः, ततस्तस्यापि तद्देशस्वम्"-असदेतत् तत्कार्यत्वेऽपि तेषां न "अवश्यतया कार्यदेशसन्निधिमद् निमित्तकारणम्" इति नियम उपलब्धिगोचरः, कारणभूत होता है जैसे आत्मा / आत्मा शरीरादि से भिन्न है और हर कोई ज्ञान में कारण है यह तो नैयायिक भी मानता है, मन भी ऐसा है अतः रूपादिशून्य होना चाहिये / [ सक्रियता के द्वारा मूर्त्तत्व की सिद्धि दुष्कर ] यह भी सोचिये कि रूपादिममूर्त्यभाव के साथ सक्रियता को क्या विरोध है ? कुछ नहीं, तो फिर सक्रियता की निवृत्ति से निवृत्त होने वाले रूपादिमत् मूत्ति-अभाव से आत्मा में रूपादिमत्तास्वरूपमतता की सिद्धि भी कैसे हो सकती है ? यह नहीं कह सकते कि-रूपादिमतमत्ति का अभाव जहाँ आकाश में सिद्ध है वहाँ सक्रियता नहीं है इसलिये उन दोनों का विरोध सिद्ध हो जायेगा क्योंकि यदि अन्यत्र विपक्ष में हेतु के अदर्शनमात्र से विरोधसिद्धि मानेगे तो एकशाखाप्रभवत्व हेतु भी अन्यत्र विपक्ष में अर्थात् तथाविधरूपादिसाध्यशून्य (अन्यशाखाजन्य ) फलादि में नहीं रहता है, तो वहाँ भी तथाविधरूपादि अभाव के साथ एकशाखाप्रभवत्व हेतु का विरोध सिद्ध हो जायेगा / यदि ऐसा कहें कि-एकशाखाप्रभवत्व हेतु का तथाविधरूपादिशून्य उसी शाखा के फल में व्यभिचार देखा जाता है अतः वहाँ विरोधसिद्धि नहीं होगी।-तो उसी तरह सक्रियत्व के लिये व्यभिचार की बात यहाँ भी समान है। पक्षभूत आत्मा में रूपादिमत्मूत्ति का अभाव है और वहाँ सक्रियत्व दिखता है। अर्थात वह उसका विरोधी सिद्ध नहीं हुआ। यदि कहें कि-हम सक्रियता से ही वहाँ रूपादिमत्मृत्ति की सिद्धि करेंगे अत: व्यभिचार नहीं होगा-तो ऐसा एकशाखाप्रभवत्व हेतुक अनुमान में भी समानरूप से कहा जा सकता है कि हम भी वहाँ तथाविधरूपादि की एकशाखाप्रभवत्व हेतु के बल से सिद्धि मानेंगे अत: व्यभिचार नहीं हो सकेगा। कदाचित् आप ऐसा कहें कि वहाँ पक्षभूत फल में अन्य प्रकार के रूपादि दिखते हैं अतः तथाविधरूपादि की सिद्धि करने जायेंगे तो हेतु कालात्ययापदिष्ट बाधित हो जायेगा-तो ऐसा प्रस्तुत में भी कह सकते हैं कि आत्मा में रूपादिमत् मूत्ति का अभाव सिद्ध होने से, यदि रूपादिमतमत्ति को सिद्ध करने जायेंगे तो हेतु बाधित हो जायेगा। निष्कर्ष यह फलित हआ कि आत्मा में सक्रियता मानने पर भी रूपादिममूर्तता की सिद्धि नहीं की जा सकती है। Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 580 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अन्यदेशस्यापि ध्यानादेरन्यस्थितविषाद्यपनयनकार्यकर्तृत्वस्योपलब्धिविषयत्वात् / तन्नातोऽपि सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वसिद्धिरित्यसिद्धो हेतुः / एतेन 'विभत्वात् महानाकाशः तथा चात्मा' इति निरस्तम् , विभुत्वस्यात्मन्यसिद्धेः / तथाहिसर्वमूतैर्युगपत्संयोगो विभुत्वम् / न च सर्वमूत्तिमद्भिर्युगपत्संयोगस्तस्य सिद्धः / अथक देशवृत्तिविशेषगुणाधारत्वात्तस्य सर्वमूत्तैर्युगपत्संयोग आकाशस्येव सिद्धः। असदेतत् , एकदेशवृत्तिविशेषगुणाधिष्ठानत्वस्य साधनस्य सर्वमूत्तिमत्संयोगाधारत्वस्य च साध्यस्याकाशेऽप्यसिद्धरुभयविकलो दृष्टान्तः / न चात्मदृष्टान्तादाकाशे साध्य-साधनोभयधर्मसम्बन्धित्वं सिद्धमिति शक्यं वक्तुम् , इतरेतराश्रयदोष. प्रसंगात् / [ सक्रियता के द्वारा अनित्यत्व की आपत्ति का निरसन ] यदि यह कहा जाय-आत्मा को सक्रिय मानेगे तो उसे अनित्य भी मानना पड़ेगा। देखिये'जो सक्रिय होता है वह अनित्य होता है, उदा० पत्थर आदि, आत्मा भी वैसा ही सक्रिय है अतः वह अनित्य है-इस अनुमान से आत्मा में अनित्यत्व को मानना होगा / तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि (1) परमाणु में अनित्यत्व नहीं है फिर भी सक्रियत्व है अतः हेतु साध्यद्रोही ठहरा। (2) यदि कथंचिद् अनित्यता को सिद्ध करना चाहते है तो वह हमारा इष्ट होने से सिद्धसाधन दोष लगेगा। अब आपको यदि सर्वांश से अनित्यत्व की सिद्धि करनी है तो दृष्टान्त भी साध्यशून्य हो जायेगा चूंकि पत्थर आदि में सर्वांश से अनित्यता असिद्ध है, ( हम मानते ही नहीं है।) साराँश, 'आत्मा के गुण की सर्वत्र उपलब्धि होती है' यह बात असिद्ध होने से पूर्वोक्त अनुमान में हेतु भो असिद्ध ठहरा / अन्य वादी 'आत्मा के गुण की सर्वत्र उपलब्धि' को निम्नोक्त अनुमान से सिद्ध करने को कोशिश करते हैं 'देवदत्त के उपकरणभूत मणि-मोती आदि जो अन्य द्वीप में उत्पन्न हुए हैं वे देवदत्तगुण जन्य हैं, कार्य होते हुए देवदत्त के उपकारी हैं इसलिये। उदा० बैलगाड़ी आदि / ' अब यह सोचना होगा कि अन्यद्वीप के मणि-मोती आदि से दूर रहे हुए देवदत्त के गुण उन मणि-मोती आदि का उत्पादन करने में समर्थ नहीं बन सकते / जैसे, वस्त्रोत्पत्ति देश से दूर रहे हुए तंतु-तुरी-जुलाहा आदि दूर देश में वस्त्र के उत्पादन में समर्थ नहीं बनते हैं। अत: सोचिये कि देवदत्त की आत्मा के गुण, अपने गुणी= आत्मा की व्यापकता के विना मणि-मोती वाले देश में कैसे सम्बद्ध हो सकेंगे? यदि वे स्वयं क्रियाशील बन कर वहाँ जायेगे तो सक्रिय होने से द्रव्यत्व आपन्न होगा और गुणत्व का भंग हो जायेगा / अतः देवदत्त की आत्मा को विभु मानेंगे तभो देवदत्त के गुण भी उन मणि-मोती वाले देश से सम्बद्ध हो सकते हैं। किन्तु यह अनुमान गलत है। देवदत्त के गुणों को दूरदेशवर्ती मणि-मोती के (निमित्त) कारण मान ले तो भी यह नियम दृष्टिगोचर नहीं है कि-'निमित्त कारण को कार्यदेश में अवश्य हाजिर रहना चाहिये'-जिससे कि देवदत्त की आत्मा को विभु मानने के लिये बाध्य होना पड़े। इस देश में कोई ध्यान लगाता है तो अन्य किसी देश में किसी का जहर उत्तर जाता है इस प्रकार दूसरेदेशवर्ती कार्य का कर्तृत्व भी दृष्टिगोचर होता है / निष्कर्ष, उपरोक्त अनुमान से भी 'आत्मा के गुण सर्वत्र उपलब्ध होते है' इस की सिद्धि नहीं होती है अतः हेतु असिद्ध ही रहा / Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-ई० आत्मविभुत्वे उ०पक्षः 581 यदपि “विभुरात्मा, अणुपरिमाणानधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यत्वात् , यद् यद् अणुपरि. माणानधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यं तत् तद् विभु यथाऽऽकाशम् , तथा चात्मा, तस्माद् विभुः' इति / तदप्यसारम् , तन्नित्यत्वाऽसिद्धेर्हेतोरसिद्धत्वात , अणुपरिमाणानधिकरणत्वस्य च विशेषणस्यात्मनो द्रव्यत्वासिद्धरसिद्धिः, तदसिद्धिश्च इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः / तथाहि अणुपरिमाणान्यगुणस्य गुणत्वे सिद्धेऽनाधारस्य तस्याऽसम्भवादात्मनो गुणवत्त्वेन द्रव्यत्वसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तदाश्रितत्वेनाणुपरिमाणान्यगुणस्य गुणत्वसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / न चाकाशस्याप्यणुपरिमाणानधिरकणत्वे सति नित्यद्रव्यत्वं विभुत्वं च सिद्ध मिति साध्य साधनविकलो दृष्टान्तः / न चात्मदृष्टान्तबलात् तस्य तदुभयधर्मयोगित्वं सिद्धमिति वक्तुयुक्तम् , अत्रापीतरेतराश्रयदोषप्रसंगस्य व्यक्तत्वात् / अपि च, अणुपरिमाणानधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यत्वं भविष्यति अविभुत्वं च, विपक्षे हेतोर्बाधकप्रमाणाऽसत्त्वेन ततो व्यावृत्त्यसिद्धेः संदिग्धानकान्तिकश्च हेतुः / न च विपक्षे हेतोरदर्शनं बाधकं प्रमाणम् , सर्वात्मसम्बन्धिनस्तस्याऽसिद्धाऽनकान्तिकत्वप्रतिपादनात् / [विभुत्व के द्वारा आत्मा में महत् परिमाण की सिद्धि दुष्कर ] जब आत्मा में विभूत्व ही असिद्ध है तब किसी ने जो यह कहा है कि-विभू होने से आकाश महान् है और आत्मा भी विभु ही है अत: महान् है-यह कथन निरस्त हो जाता है। देखिये-सर्वमूर्त पदार्थों के साथ एक साथ संयुक्त होना' यही विभुत्व का अर्थ है किन्तु आत्मा में सकलमूर्त पदार्थों का एक साथ संयोग ही सिद्ध नहीं है। यदि कहें कि-आत्मा सकल मूर्तों के साथ संयुक्त है क्योंकि एकदेश में रहने वाले विशेषगुण ( ज्ञानादि ) का आधार है, उदा० आकाश, [ तथाविधविशेषगण शब्द का आधार है 1 इस अनमान से आत्मा का विभूत्व भी सिद्ध हो जायेगा।-तो यह भी गलत है क्योंकि शब्द में गुणत्व असिद्ध होने से एक देशवृत्तिविशेषगुण की आधारता रूप साधन भी आकाश में असिद्ध है / तथा सर्वमूर्त पदार्थों के संयोग की आधारतारूप साध्य भी उसमें असिद्ध है। इस प्रकार दृष्टान्त साध्य-साधन उभय शून्य है / यह भी नहीं कह सकते-आत्मा के दृष्टान्त से आकाश में साध्य-साधन उभयधर्मसम्बन्धिता को सिद्ध करेंगे-यदि ऐसा मानेंगे तो इतरेतराश्रय दोषप्रसंग स्पष्ट हो लग जायेगा। [आत्मविभुत्वसाधक पूर्वपक्षी के अनुमान की असारता] यह जो अनुमान कहा जाता है-आत्मा विभु है क्योंकि वह अणुपरिमाण का अनधिकरणीभूत नित्य द्रव्य है, उदा० आकाश, आत्मा भी वैसा ही है अत: विभु ही है ।-यह अनुमान भी सारहीन है। कारण, आत्मा में नित्यत्व असिद्ध होने से हेतु ही असिद्ध है। उपरांत, अणुपरिमाणानधिकरणत्व विशेषण भी आत्मा में द्रव्यत्व ही सिद्ध न होने से असिद्ध है, द्रव्यत्व इसलिये सिद्ध नहीं कि यहाँ इतरेतराश्रय दोष लगता है / जैसे देखिये-अणुपरिमाण से अन्य आत्म गुणों में गुणत्व की सिद्धि की जाय तब निराधार गुणों को संभावना न होने से उनके आधारभूत आत्मा की गुणवान् होने से द्रव्यरूप में सिद्धि होगी। आत्मा में द्रव्यत्व की सिद्धि होने पर आत्मा में आश्रितत्व के आधार पर अणुपरिमाणभिन्न गुणों में गुणत्व की सिद्धि होगी-इस प्रकार इतरेतराश्रय दोष होने से आत्मा में अणुपरिमाणानधिकरणत्व विशेषण असिद्ध रहेगा / इसी प्रकार आकाश में भी अणुपरिमाणानधिकरणत्व और नित्यद्रव्यत्व असिद्ध है एवं विभुत्व भी असिद्ध है, अतः दृष्टान्त भी साध्य-साधनशून्य हो गया। 'आत्मा के दृष्टान्त Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 582 सम्मतिप्रकरण -नयकाण्ड 1 अपि च, आत्मनः स्वदेहमात्रव्यापकत्वेन सुख-दुखादिपर्याक्रान्तस्य स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धत्वात तद्विभुत्वसाधकस्य हेतोरध्यक्षबाधितपक्षानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्ट त्वम् / अन्यस्य च 'अहम्' इत्यध्यक्षसिद्धस्य प्रमाणाऽविषयत्वेनाऽसत्वादाश्रयाऽसिद्धो हेतुरिति / अनया दिशाऽन्येऽपि तद्विभुत्वसाधनायोपन्यस्यमाना हेतवो निराकर्तव्याः, प्रस्य निराकरणप्रकारस्य सर्वेषु तत्साधकहेतुषु समानत्वात् / तन्नात्मनः कुतश्चिद्विभुत्वसिद्धिः / ___अथापि स्यात् यथाऽस्माकं तद्विभुत्वसाधकं प्रमाणं न संभवति तथा भवतामपि तदविभुत्व- . साधकप्रमाणाभाव इति नानुपमसुखस्थानोपगतिस्तेषां सिद्धेति तदवस्थं चोद्यम्, न हि परपक्षे दोषो. द्भावनमात्रतः स्वपक्षाः सिद्धिमुपगच्छन्ति अन्यत्र स्वपक्षसाधकत्वलक्षणपरप्रयुक्त हेतुविरुद्धतोद्भावनात् , न चासौ भवता प्रदर्शितेति / न सम्यगेतत् , तदभावाऽसिद्धेः / तथाहि देवदत्तात्मा 'देवदत्तशरीरमात्रव्यापकः, तत्रैव व्याप्त्योपलभ्यमानगुणत्वात् , यो यत्रैव व्याप्त्योपलभ्यमानगुणः स तन्मात्रध्यापकः, यथा देवदत्तस्य गृह एव व्याप्त्योपलभ्यमानभास्वरत्वादिगुणः प्रदीपः, देवदत्तशरीर एव व्याप्त्योपलभ्यमानगुणस्तदात्मा' इति / तदात्मनो हि ज्ञानादयो गुणास्ते च तद्देहे एव व्याप्त्योपलभ्यन्ते, न परदेहे, नाप्यन्तराले। से आकाश में साध्य-साधनशून्य की सिद्धि करेंगे' ऐसा तो बोल ही नहीं सकते क्योंकि स्पष्ट ही यहां अन्योन्य पराधीनता हो जाने से इतरेतराश्रय दोष लगेगा। तदुपरांत हेतु में निम्नोक्त रीति से संदिग्ध अनैकान्तिकता दोष भी है-देखिये, आत्मा में अणुपरिमाणानधिकरण व विशिष्ट नित्यद्रव्यत्व रहेगा और अविभुत्व भी रहेगा तो क्या बाध है, इस प्रकार आत्मा की ही विपक्षरूप में सम्भावना करेंगे तो उसमें हेतु तो रहेगा ही और विपक्षत्व की शंका का निवारक कोई बाधक प्रमाण ही नहीं है, फलतः विपक्ष से हेतु को व्यावृत्ति में संदेह हो जाने से विपक्षावृत्तित्व ही असिद्ध ही जाता है और हेतु संदिग्धव्यभिचारी हो जाता है। विपक्ष में हेतु का अदर्शन यह कोई बाधक प्रमाणरूप नहीं है / क्योंकि सभी को विपक्ष में हेतु का अदर्शन होने की बात तो असिद्ध है, और अपने को विपक्ष में हेतु का अदर्शन तो अनैकान्तिक भी हो सकता है यह पहले कहा ही है। [ देहमात्रव्यापक आत्मा स्वसंवेदनसिद्ध है ] तदुपरांत, सुखदुखादिविवर्तों से आक्रान्त स्वदेहमात्र में व्यापक आत्मा स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से ही सिद्ध है, इसलिये आत्मा में विभुत्व की सिद्धि के लिये प्रयुक्त हेतु, प्रत्यक्षबाधित पक्ष के बाद प्रयुक्त होने से कालात्ययापदिष्ट हो जायेगा / तथा अव्यापक से भिन्नप्रकार का (व्यापक) आत्मा 'अहम्' इस प्रकार के प्रत्यक्ष से सिद्ध हो यह बात प्रमाण की विषयभूत न होने से व्यापकात्मा असिद्ध है, अत: उसमें विभुत्वसाधक हेतु आश्रयासिद्धि दोष से दूषित हो जायेगा। विभुत्व की सिद्धि के लिये जितने भी हेतु कहे जाय उन सभी का उक्त दिशा से निराकरण हो सकता है, क्योंकि स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्ध देहमात्रव्यापक आत्मा और तत्प्रयुक्त बाध और आश्रयासिद्धि दोषों का उक्त प्रकार, आत्मविभूत्वसाधक सभी हेतुओं में समान है / निष्कर्ष, किसो भी प्रकार से आत्मा में विभुत्व की सिद्धि अशक्य है / [ अविभुत्वसाधक प्रमाण का अभाव नहीं ] यदि ऐसा कहें कि-"हमारे पास विभूत्व का साधक कोई प्रमाण नहीं है तो आपके पास अविभुत्व का साधक प्रमाण भी कहाँ है ? अविभुत्वसाधक प्रमाण के अभाव में जिन भगवान को Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभूत्वे उत्तरपक्षः 583 प्रत्र केचिद् हेतोरसिद्धतामुद्भावयन्तः ‘शरीरान्तरेऽपि तदंगनासम्बन्धिनि तद्गुणा उपलभ्यन्ते" इत्यभिदधति / तथाहि-देवदत्तांगनांगं देवदत्तगुणपूर्वकम्, कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्, ग्रासादिवत् / कार्यदेशे च सन्निहितं कारणं तज्जनने व्याप्रियतेऽन्यथातिप्रसंगादिति तदगनांगप्रादुर्भावदेशे तत्कारणतद्गुणसिद्धिः। तथा, तदन्तराले च प्रतीयन्ते / तथाहि-अग्नेरू ज्वलनम् , वायोस्तिर्यक् पवनं तद्गुणपूर्वकम् , कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात् , वस्त्रादिवत् / यत्र च तद्गुणास्तत्र, तद्गुण्यप्यनुमोयते इति 'स्वदेह एव देवदत्तात्मा' इति प्रतिज्ञा अनुमानबाधिता / ततोऽनुमानबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टो हेतुः।। अनुपमसुखवाले स्थान में पहुंचे हुए नहीं कह सकते, अर्थात् वह पुराना प्रश्न तो तदवस्थ ही रहा / पराये मत में दोषों का उद्भावन कर देने मात्रा से अपना मत सिद्ध नहीं हो जाता। वह तभी हो सकता यदि पराये मत के साधक हेतु में विरोध का उद्भावन किया जाता, जिससे कि अपने मत की भी अनायास सिद्धि हो / [तात्पर्य यह है कि दूसरे के हेतु में इस प्रकार विरोधी युक्ति को दिखाना चाहिये जिससे दूसरे के मत से विपरीत ही पक्ष की यानी अपने ही पक्ष की पुष्टि हो / आपने तो ऐसे कोई विरोध का प्रदर्शन किया नहीं है।"] किन्तु यह बात अयुक्त है क्योंकि आत्मा में अविभुत्वसाधक प्रमाण का अभाव असिद्ध है। जैसे देखिये-देवदत्त की आत्मा देवदत्त के देहमात्र में ही व्यापक है, क्योंकि देवदत्त देह में ही संपूर्णतया उसके गुण उपलब्ध होते हैं। जिसके गुण संपूर्णतया जिस देश में उपलब्ध होते हैं वह उतने में ही व्यापक होता है, उदा० देवदत्त के गृह में संपूर्णतया उपलब्ध होने वाले भास्वरतादि गुणों वाला दीपक। देवदत्त की आत्मा के गुण भी संपूर्णतया देवदत्त के शरीर देश में ही उपलब्ध होते हैं अतः वह देहमात्रव्यापक सिद्ध होता है / देवदत्त की आत्मा के ज्ञानादि गुणों की उपलब्धि देवदत्तदेहदेश में ही होती है, यज्ञदत्तादि के देहदेश में अथवा उन दोनों के मध्यवर्ती देश में नहीं होती है ।-यही अनुमान प्रमाण आत्मा में अविभुत्व को सिद्ध करता है। [हेतु में असिद्धता का उद्भवन-पूर्वपक्ष] . कुछ वादी लोक यहाँ हमारे अनुमान के हेतु में असिद्धि की उद्भावना करते हुए कहते हैं-देवदत्त की पत्नी के देहदेश में देवदत्त के गुणों की उपलब्धि होती है। यह अनुमान देखिये देवदत्त की पत्नी का देह देवदत्तगुणमूलक है क्योंकि वह कार्यभूत है और देवदत्त का उपकारी है, उदा० आहार का कवलादि / अब यह नियम है कि 'कार्यदेश में संनिहित कारण ही कार्य के उत्पादन में कुछ करता है', यदि इस नियम को नहीं मानेंगे तो पर्वतीय अग्नि से भी घर में रसोईपाक हो जाने का अतिप्रसंग आयेगा / अत: इस नियम को मानना पड़ेगा। उससे यह सिद्ध होगा कि देवदत्त की पत्नी के जन्मदेश में भी उसके कारणीभूत देवदत्त के गुण (अदृष्टादि) संनिहित हैं। गुण निराधार तो रह नहीं सकता। अतः वहाँ देवदत्त के आत्मा का विस्तार भी मानना पड़ेगा। . . उपरांत, मध्यवर्ती भाग में भी देवदत्त के गुणों की उपलब्धि होती है। वह इस प्रकार:अग्नि का ऊर्ध्वज्वलन और वायु की तिरछी गति देवदत्तगुणमूलक है, क्योंकि वह कार्य है और देवदत्त के उपकारी है, उदा० वस्त्रादि / जहाँ देवदत्त के गुण हो वहां उसके गुणी आत्मा की सत्ता भी अनुमानसिद्ध है / अत: 'देवदत्त की आत्मा सिर्फ उसके देह में ही व्यापक है' यह प्रतिज्ञा उपरोक्त अनुमान Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ननु केऽत्र देवदत्तात्मगुणा ये तदंगनांगे तदन्तराले च प्रतीयन्ते ? यदि ज्ञान दर्शन सुख-वीर्यस्वभावाः- सहत्तिनो गुणाः' इति वचनात्-इति पक्षः, स न युक्तः, ज्ञान-दर्शन-सुखानि संवेनदरूपाणि न तदंगनांगजन्मनि व्याप्रियमाणानि प्रतीयन्ते, नापि सत्तामात्रेण तद्देशे प्रतीतिगोचराणि / वीर्य तु शक्तिः क्रियानुमेया, साऽपि तदेह एवानुमीयते, तत्रैव तल्लिगभूतपरिस्पन्ददर्शनात / तस्याश्च तदंगन देहनिष्पत्तौ देवदत्तस्य भार्या दुहिता स्यात् / ततस्तज्ज्ञानादेस्तदेह एव तत्कार्यजननविमुखस्य प्रतीतेः प्रत्यक्षतः तद्बाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टः 'कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्' इति हेतुः। अथ धर्माधमौ तदंगनादिकार्यनिमित्तं तद्गुणः / तदयुक्तम् , न धर्माधमौ तदात्मनो गुणौ, . प्रचेतनत्वात शब्दादिवत / न सखादिना व्यभिचारः, तत्र हेतोरवर्तनात-तद्विद्धन स्वसंवेदनला चैतन्येन तस्य व्याप्तत्वात् अभिमतपदार्थसम्बन्धसमय एव स्वसंवेदनरूपालादस्वभावस्य तदात्मनोऽनुभवात् , अन्यथा सुखादेः स्वयमननुभवात् अनवस्थादोषप्रसंगात् अन्यज्ञानेनाप्यनुभवे सुखस्य परलोकप्रख्यताप्रसक्तिः / प्रसाधितं चैतत् प्राक् / न चाऽसिद्धता 'अचेतनत्वात्' इति हेतोः। तथाहि-अचेतनौ तौ अस्वसंविदितत्वात् , कुम्भवत् / न बुद्धयाऽस्य व्यभिचारः अस्याः स्वसंवेदनसाधनात् / 'स्वग्रहणात्मिका बुद्धिः, अर्थग्रहणात्मकत्वात् , यत् स्वग्रहणात्मकं न भवति न तद् अर्थग्रहणात्मकम् , यथा घटः' इति व्यतिरेको हेतुः। से बाधित हो गयी। अनुमानबाधित साध्यनिर्देश के बाद में प्रयुक्त हेतु-'देवदत्त के देहमात्र में संपूर्णतया उसके आत्मा के गुणों की उपलब्धि होती है' यह हेतु कालात्ययापदिष्ट हो गया। [देवदत्त के गुणों की अन्यत्र सत्ता असिद्ध-उत्तरपक्ष ] कुछ वादी लोक के उक्त अनुमान के समक्ष यह प्रश्न है कि ऐसे कौन से देवदत्तात्मा के गुण हैं जो उसकी पत्नी के अंग में और मध्यवर्ती भाग में आपको प्रतीत होते हैं ? "जो सहवर्ती धर्म हो वे गुण" इस उक्ति के आधार पर यदि आप ज्ञान-दर्शन-सुख और वीर्य स्वभाव इत्यादि देवदत्त के गुणों की अन्यत्र उपलब्धि मानेंगे तो वह युक्त नहीं है / कारण, देवदत्त की पत्नी के देह की उत्पत्ति में, देवदत्त के ज्ञान-दर्शन-सुखस्वरूपसंवेदनात्मकगुणों का कुछ भी व्यापार प्रतीत नहीं होता है। वहाँ उनका कुछ व्यापार भले न हो किन्तु वहाँ उनकी मूक सत्ता है ऐसा भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ। वीर्य जो है वह संवेदनात्मक नहीं किन्तु शक्तिस्वरूप है, तज्जन्यक्रियारूप कार्यात्मक लिंग से उसका अनुमान होता है, यह परिस्पन्दात्मक लिंग भूत क्रिया का दर्शन सिर्फ देवदत्तात्मा में ही होता है अत: तज्जनक शक्ति भी सिर्फ उसके देह मात्र में ही अनुमान से सिद्ध होती है / यदि देवदत्त को शक्ति से देवदत्त पत्नी के शरीर की उत्पत्ति मानेंगे तो वह देवदत्त पत्नी देवदत्तपुत्री बन जायेगी। क्योंकि उसके देह का जनक देवदत्त है। निष्कर्ष, देवदत्तपत्नी के देह के उत्पादन में उदासीन देवदत्तात्मा के ज्ञानादि गुणों की सिर्फ देवदत्तदेहदेश में ही प्रत्यक्ष से प्रतीति होती है, इस प्रतीति से प्रतिवादी का साध्यनिदेश बाधित हो जाने के बाद उनकी ओर से प्रतिपादित 'क्योंकि कार्यभूत है और देवदत्त का उपकारी है' यह हेतु कालात्ययापदिष्ट सिद्ध हुआ। [ धर्माधर्म आत्मा के गुण नहीं है ] यदि देवदत्त के धर्म-अधर्म गुण को उसकी पत्नी के अंग का निमित्त कारण मानते हो तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि धधिर्म (जैन मत के अनुसार द्रव्य रूप है अत:) वे देवदत्तात्मा के गुण नहीं Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः .585 न च धर्माधर्मयोनिरूपत्वात् बौद्ध दृष्ट्या ज्ञानस्य च स्वग्रहणात्मकत्वादसिद्धो हेतुरिति वक्तव्यम् , तयोः स्वरूपग्रहणात्मकत्वे सुखादाविव विवादाभावप्रसक्तेः / अस्ति चासो अनुमानोपन्यासान्यथानुपपत्तेस्तत्र / न च लौकिक-परीक्षकयोः 'प्रत्यक्ष कर्म' इति व्यवहारसिद्धम् / न चाऽविकल्पबोधविषयत्वात् स्वग्रहणात्मकत्वेऽपि तयोविवादः क्षणिकत्वादिवत् , तथाऽनिश्चयात् तद्विषयेऽतिप्रसंगात् / तथाहि-अविकल्पाध्यक्षविषयं जगत् जन्तुमात्रस्य तथाऽनिश्चयस्तु क्षणिकत्ववत् निर्विकल्पाध्यक्षविषयत्वात् / न च मूषिकालकविषविकारवत् तदनन्तरं तत्फलाऽदर्शनात् न तदृर्शनव्यवहार: इति, स्वसत्तासमये स्वकार्यजननसामर्थ्य तस्य तदैव तत्कार्यमिति तदनन्तरं तत्फलाऽदर्शनान्न तद्दर्शनव्यवहार इति / स्वसत्तासमये स्व कार्यजननसामर्थ्य तस्य सदैव तत्कार्यमिति तदनन्तरं तदृष्टिप्रसक्तेः अन्यदा तु स एव नास्तीति कुतस्ततस्तस्य भावः ?! है क्योंकि अबेतन हैं, उदा० शब्द / यहाँ सुखादि में साध्यद्रोह नहीं कहा जा सकता क्योंकि सुख अचेतन न होने से हेतु ही वहाँ नहीं रहता है / अचेतनत्वविरुद्ध स्वसंवेदनमयचैतन्य से ही सुख व्याप्त है / जब इष्ट वस्तु को प्राप्ति होती है उसी समय स्वसंवेदनमय आह्लादस्वरूप सुख का अनुभव सभी को होता है। यदि सूख-दुःख को स्वतः संवेदनमय नहीं मानेंगे तो सूखादि का अनुभव ही नहीं होगा, यदि अन्य संवेदन से उसका अनुभव मानेंगे तो उस अन्य संवेदन के लिये अन्य अन्य संवेदन की कल्पना करने का अन्त नहीं आयेगा, अर्थात् अनवस्था दोष लगेगा। उपरांत, सुख का अनुभव यदि अन्य ज्ञान मानेगे तो उसमें परलोक तुल्यता यानी परोक्षता की आपत्ति भी आयेगी-यह तथ्य पहले ही सिद्ध किया गया है। धर्माधर्म में अचेतनत्व हेतु असिद्ध भी नहीं है, अनुमान से सिद्ध है / देखिये-धर्म-अधर्म अचेतन है क्योंकि स्वसंविदित नहीं है, उदा० कुम्भ / जो लोग बुद्धि को असंविदित मानते हैं किन्तु चेतन मानते हैं वे बुद्धि में हेतु को साध्यद्रोही दिखाना चाहे तो उसके सामने बुद्धि स्वसंविदितत्व की सिद्धि इस प्रकार है-बुद्धि स्वग्रहणात्मक ही है क्योंकि वह अर्थग्रहणस्वरूप है। हेतु यहाँ व्यतिरेकी है इसलिये घट दृष्टान्त है। व्यतिरेक व्याप्ति इस प्रकार है-जो स्वग्रहणात्मक नहीं होता वह अर्थग्रहणस्वरूप भी नहीं होता जैसे घट ।-इस प्रकार धर्म-अधर्म में अचेतनत्व हेतु से आत्मगुणत्व का निषेध सिद्ध होता है। [धर्माधर्म स्वसंविदित ज्ञानरूप नहीं है] यदि यह कहा जाय-धर्म और अधर्म ज्ञानरूप ही है, तथा बौद्धदृष्टि से ज्ञान स्वग्रहणस्वरूप ही है अत: आपने उन में अचेतनत्वसिद्धि के लिये जो अस्वसंविदितत्व हेतु का प्रयोग किया वह असिद्ध हो गया-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि धर्म और अधर्म यदि स्वसंविदित होता तो उसके होने-न होने में किसी को विवाद न होता जैसे कि सुख-दुःख के अस्तित्व में किसी को भी विवाद नहीं है / धर्म और अधर्म के बारे में तो विवाद है ही, अन्यथा उसकी सिद्धि के लिये नास्तिकादि के समक्ष अनुमान का उपन्यास नहीं करना पड़ता / 'कर्म (धर्म-अधर्म) प्रत्यक्ष है' यह बातं न तो लोक व्यवहार में सिद्ध है, न तो परीक्षक विद्वान् लोगों के व्यवहार में सिद्ध है। यदि यह कहें कि धर्म-अधर्म स्वग्रहणात्म तो है ही, फिर भी उसमें विवाद होने का कारण यह है कि वे निर्विकल्प ज्ञान के विषय हैं। सविकल्पज्ञान के विषय होते तो विवाद न होता / जैसेः क्षणिकत्व बौद्धमत से निर्विकल्पज्ञान का विषय होता है अत: प्रत्यक्षसिद्ध ही है किन्तु क्षणिकत्व विषय का सविकल्प ज्ञान नहीं होता इसलिये यह विवाद होता है Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ तयोरचेतनत्वेऽपि तदात्मगुरणत्वे को विरोधः ? अचेतनस्य चेतनात्मगुणत्वमेव / चेतनश्च तदात्मा स्वपरप्रकाशकत्वात् अन्यथा तदयोगात् कुड्यादिवत् / न च धर्माऽधर्मयोरभावादाश्रयाऽसिद्धो हेतुः, अनुमानतस्तयोः सिद्धेः / तथाहि-चेतनस्य स्वपरज्ञस्य तदात्मनो हीनमातृगर्भस्थानप्रवेशः तत्सम्बद्धान्यनिमित्तः, अनन्यनेयत्वे सति तत्प्रवेशात् , मत्तस्याऽशुचिस्थानप्रवेशवत् , योऽसावन्यः स द्रव्यविशेषो धर्मादिरिति / न च कस्यचित् पूर्वशरीरत्यागेन शरीरान्तरगमनाभावात् तत्प्रवेशोऽसिद्धः, अनुमानात् तत्सिद्धेः / तथाहि-तदहर्जातस्य स्तनादौ प्रवृत्तिस्तदभिलाषपूविका, तत्त्वात् , मध्यदशावत् / यथा च परलोकाऽऽगाम्यात्मा अनुमानात् सिद्धिमुपगच्छति तथा प्राक प्रतिपादितम् / सुखसाधनजलादिदर्शनानन्तरोद्भूतस्मरणसहायेन्द्रियप्रभवप्रत्यभिज्ञानक्रमोपजायमानाभिलाषादेर्व्यवहारस्यैककर्तृ पूर्वकत्वेन प्राक् प्रसाधितत्वात् नात्र प्रयोगे व्याप्त्यसिद्धिः। अत एव स्तनादिप्रवृत्तेरभिलाष: सिद्धिमासादयन् संकलनाज्ञानं गमयति, तदपि स्मरणम् , तच्च सुखादिसाधनपदार्थदर्शनम्। 'कारणव्यतिरेकेण . कि वस्तु क्षणिक है या नहीं?-तो यह भी ठीक नहीं है / कारण, धर्माधर्म का निश्चय ( सविकल्पज्ञान) तो होता नहीं है, फिर भी आप यदि उन्हें प्रत्यक्ष (निर्विकल्पज्ञान) का विषय मानेंगे तो अतिप्रसंग दोष इस प्रकार होगाः-अर्थात् यह भी कहा जा सकेगा कि सारा ही जगत् जीवमात्र के निर्विकल्प प्रत्यक्षज्ञान का विषय है, हाँ, उसका निश्चय ( सविकल्पक ज्ञान ) नहीं होता, उसका कारण यह है कि वह सिर्फ निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का ही विषय होता है जैसे क्षणिकत्व / मषकविष और अलर्कविष यह स्लो पोइझन है, अतः तात्कालिक उसके फलरूप किसी विक्रिया का दर्शन नहीं होता, किन्तु इतने मात्र से उसका अपलाप नहीं किया जाता है। उसी तरह जगत् का जीवमात्र को निर्विकल्पज्ञान (= दर्शन) होता है, फिर भी उसके फलस्वरूप निश्चय का जन्म नहीं होता इतने मात्र से जगत मात्र के दर्शन का व्यवहार न किया जाय ऐसा तो नहीं है। यदि अपने सत्ताकाल में अपने कार्य के उत्पादन का सामर्थ्य हो तब उसी समय उसको कर देना चाहिये, अत: तुरन्त ही उसके दर्शन का प्रसंग प्राप्त है और अन्यकाल में तो वह है ही नहीं तो उससे उसकी उत्पत्ति की बात ही कहाँ ? [अचेतन धर्माधर्म का साधक प्रमाण ] यहि यह प्रश्न किया जाय कि धर्माधर्म दोनों अचेतन भले हो, फिर भी उसे आत्मा के गुण मानने में क्या विरोध है ? तो इसका उत्तर यह है कि अचेतन पदार्थ चेतनात्मा का गुण होने में ही विरोध है / आत्मा स्वपरप्रकाशक होने के कारण चेतन है, स्वपरप्रकाशकत्व के अभाव में चैतन्य भी नहीं हो सकता जैसे कि दिवार आदि में वह नहीं होता है। नास्तिक यदि ऐसा कहें कि-धर्म और अधर्म जैसी कोई वस्तु ही नहीं है, अत: उनमें अचेतनत्व की सिद्धि के लिये प्रयुक्त 'अस्वसंविदितत्व' हेतु में आश्रयासिद्धि दोष लगेगा-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि निम्नोक्त अनुमान से उसको सिद्धि की जा सकती है / देखिये-स्वपरज्ञाता से अभिन्न चेतनात्मा का माता के निकृष्ट गर्भस्थान में जो प्रवेश होता है वह उससे सम्बद्ध अन्य किसी वस्तु के प्रभाव से होता है, क्योंकि और तो कोई उसे वहाँ ले नहीं जाता फिर भी वहाँ उसको जाना पड़ता है, उदा० कोई मदिरामत्त पुरुष अशुचि स्थान में गिरता है तो वहाँ उस पुरुष से सम्बद्ध मद्य द्रव्य का प्रभाव होता है। इस अनुमान से चेतनात्मा से संयुक्त जो अन्य वस्तु की सिद्धि होगी वही धर्मादि द्रव्यविशेष है जिसे जैन परिभाषा में कर्म पुद्गल कहते हैं। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्ष! 587 कार्योत्पत्तौ तस्य निर्हेतुकत्वप्रसक्तिः' इति अत्र विपर्ययबाधकं प्रमाणं व्याप्तिनिश्चायकं प्रदर्शितम् / अपूर्वप्राणिप्रादुर्भावे च सर्वोऽप्ययं व्यवहारः प्रतिप्राणिप्रसिद्धः उत्सोदेत् , तज्जन्मनि सुखसाधनदर्शनादेरभावात् ; न हि मातुरुदर एव स्तनादेः सुखसाधनत्वेन दर्शनं यतः प्रत्यग्रजातस्य तत्र स्मरणादिव्यवहारः सम्भवेदिति पूर्वशरीरसम्बन्धोऽप्यात्मनः सिद्धः।। न च मध्यावस्थायां सुखसाधनदर्शनादिक्रमेणोपजायमानोऽपि प्रवृत्त्यन्तो व्यवहारो जन्मादावन्यथा कल्पयितु शक्यो विजातीयादपि गोमयादेः कारणाच्छालुकादेः कार्योत्पत्तिदर्शनादिति वक्तु शक्यम् , जलपाननिमित्ततृविच्छेदादावप्यनलनिमित्तत्वसम्भावनया तदथिनः पावकादौ प्रवृत्तिप्रसंगात सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्ते: / __अथ 'देहिनो देहाद देहान्तरानुप्रवेशस्तदभिलाषपूर्वकः, गृहाद् गृहान्तरानुप्रवेशवत्' इत्यतोऽन्यथासिद्धो हेतुरिति न द्रव्यविशेषं साधयति / तदुवतं सौगतै:-[ "दुखे विपर्यासमतिस्तृष्णा वाऽवन्ध्यकारणम् / जन्मिनो यस्य ते न स्तो न स जन्माधिगच्छति" // इति / [प्राग्भवीयशरीरसम्बन्ध की आत्मा में सिद्धि ] - यदि यह कहा जाय कि-'गर्भ में प्रवेश की बात ही असिद्ध है क्योंकि पहले के शरीर को छोडकर दूसरे देह में जाने वाला कोई तत्त्व ही नहीं है'-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि अनुमान से उस तत्त्व की सिद्धि की जा सकती है। जैसे देखिये-'अभिनव जात बालक की स्तनपान में प्रवृत्ति अभिलाष पूर्वक ही होती है क्योंकि वह इष्ट प्रवृत्तिरूप है, उदा० जन्म के बाद मध्यकाल में होने वाली स्तनपान की प्रवृत्ति / ' इस अनुमान से अभिलाष की सिद्धि होने पर इष्टसाधनता के स्मरण को हेतू करके उस बालक के आत्मा की पूर्वकालसम्बन्धिता भी सिद्ध की जा सकती है। फलतः आत्मा के पूर्वदेह में से वर्तमान देह में प्रवेश की बात सिद्ध होती है / जिस अनुमान से आत्मा का परलोक से आगमन सिद्ध होता है उस अनुमान का पहले नास्तिकमतनिराकरण अवसर पर प्रतिपादन हो चुका है। अर्थात् पहले यह सिद्ध किया जा चुका है कि तृप्ति सुख के साधनभूत जलादि का दर्शन उसके बाद इष्टसाधनता का स्मरण, उसके बाद उस स्मरण की सहायता से दृश्यमान जलादि में इष्टसाधनरूप से प्रत्यभिज्ञाज्ञान का उद्भव और उसके बाद उस जल को पीने का अभिलाष-यह पूरी व्यवहार प्रक्रिया एककर्तृक ही होती है, अतः एक कर्ता के रूप में आत्मा की सिद्धि होने से हमारे पूर्वोक्त कर्मसाधक अन्तिम अनुमान प्रयोग में व्याप्ति की असिद्धि को अवकाश ही नहीं। इस प्रकार के अनुमान में स्तनादि में प्रवृत्ति के द्वारा सिद्ध होता हुआ अभिलाष अपने पूर्वगामी प्रत्यभिज्ञारूप संकलनाज्ञान की सिद्धि करेगा, उससे तत्पूर्वगामी स्मरण की सिद्धि होगी, उससे पूर्वकाल में सुखादि के पदार्थ के दर्शन की सिद्धि होगी, अर्थात् यह सिद्ध होगा की उस बालक देहवर्ती आत्मा ने पहले भी ऐसा कहीं देखा है / यहाँ सर्वत्र यदि विपर्यय की शंका की जाय कि-अभिलाष के विना ही प्रवृत्ति को, अथवा प्रत्यभिज्ञा के विना ही अभिलाष को....इत्यादि माना जाय तो क्या बाध ? तो इस शंका का बाधक प्रमाण यही तर्क है कि अभिलाष और प्रवृत्ति इत्यादि में सर्वत्र कारण कार्यभाव प्रसिद्ध है अतः कारण के विना यदि कार्य का उद्भव मानेंगे तो कार्य में निहेतृकत्व प्रसक्त होगा। यह तर्क पहले दिखाया जा चुका है / यदि अभिनवजात प्राणी को आप अपूर्व यानी सर्वथा नया ही उत्पन्न मानेंगे तो हर कोई जीव को अनुभव सिद्ध उक्त व्यवहार-इष्ट साधन वस्तु के दर्शन से स्मरण के द्वारा प्रत्य Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 588 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ‘हुआ असदेतत् , इह जन्मनि प्राणिनां तदभिलाषस्य परलोकेऽभावान्न ततः स इति युक्तम् / नापि मनुष्यजन्मा होनशुन्यादिगर्भसम्भवमभिलषति यतस्तत्र तत्सम्भवः स्यात् / तदेवं धर्माधर्मयोस्तदात्मगुणत्वनिषेधात् तनिषेधानुमानबाधितमेतत् 'पावकार्बज्वलनादि देवदत्तगुणकारितम्' इति / यत् पुनरुक्तम् ‘गुणवद् गुणी अप्यनुमानतस्तद्देशेऽस्तीत्यनुमानबाधितस्वदेहमात्रव्यापकात्मकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेनाद्यो हेतः कालात्ययापदिष्टः' इति तदपि निरस्तम , तत्र तत्सद्धावाऽसिद्ध यच्चान्यत् 'कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्' इति , तत्र किं तद्गुणपूर्वकत्वाभावेऽपि तदुपकारकत्वं दृष्टं येन 'कार्यत्वे सति' इति, विशेषणमुपादीयेत, सति सम्भवे व्यभिचारे च विशेषणोपादानस्यार्थवत्त्वात् ? 'कालेश्वरादौ दृष्टमिति चेत् ? न. कालेश्वरादिकमतदगुणपूर्वकमपि यदि तदुपकारकम् , कार्यमपि किश्चिदन्यपूर्वकं तदुपकारकं स्यादिति संविग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनकान्तिको हेतुः / सर्वज्ञभिज्ञा इत्यादि व्यवहार- का अवसान ही हो जायेगा। अर्थात् स्तनपान की प्रवृत्ति का भी उच्छेद हो जायेगा क्योंकि अभिनव जात शिशु को इस जन्म में तो सुखसाधनता का ज्ञान तत्काल होता नहीं है। जब वह माता के उदर में था तब तो उसे इष्टसाधनता के रूप में स्तनादि का दर्शन ही नहीं है फिर नवजात शिशु को इष्टसाधनता के स्मरणादि की बात का सम्भव ही कहाँ रहेगा ? यदि उसकी उपपत्ति करना हो तो पूर्वदेह का सम्बन्ध अनायास सिद्ध हो जायेगा। [ दर्शनादिव्यवहार से विपरीत कल्पना में वाधप्रसंग ] __ यदि यह कहा जाय-मध्यकाल में इष्टसाधनता के दर्शन से स्मरण-प्रत्यभिज्ञा द्वारा अभिलाष, और उससे प्रवृत्ति पर्यन्त व्यवहार होता है, तथापि जन्म के आदिकाल में शिशु की प्रवृत्ति विना ही अभिलाष आदि से होती है इस कल्पना में कोई बाधक नहीं है। अन्यत्र भी ऐसा दिखता है कि मेंढक से जैसे मेंढक की उत्पत्ति होती है वैसे मेंढक से सर्वथा भिन्न गोबर आदि कारण से भी मेंढक उत्पन्न होता है। तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसी भी सम्भावना की जा सकती है कि तृषा का विच्छेद अन्यत्र भले ही जलपान के निमित्त से होता हो किन्तु कहीं पर जलविजातीय अग्नि से भी हो सकेगा। यदि ऐसी सम्भावना को मान ली जाय तो फिर सभी कारण-कार्यव्यवहारों का उच्छेद प्रसक्त होगा। यदि ऐसा कहें कि-गर्भ में प्रवेश अन्य द्रव्य निमित्तक होने की बात ठीक नहीं, क्योंकि देहान्तर में प्रवेश अन्यनिमित्तक भी कहा जा सकता है, जैसे यह अनुमान है कि- आत्मा का एक देह से अन्यदेह में प्रवेश अभिलाषनिमित्तक होता है जैसे एक गृह से अन्य गृह में प्रवेश / तो इस प्रकार अभिलाषहेतु से आपका उक्त अन्यद्रव्यसंसर्गरूप हेतु अन्यथासिद्ध हो जाने से उसकी सिद्धि नहीं हो सकेगी / बौद्धों ने भी कहा है कि-दुःख का अवन्ध्य कारण बुद्धिविपर्यास अथवा तृष्णा ( अभिलाष ) है। जिस आत्मा में वृद्धिविपर्यास अथवा तप्णा ये दो नहीं होते उसको जन्म नहीं लेना पड़ता ।तो यह बात भी गलत है। कारण, इस जन्म में प्राणियों को होने वाला अभिलाष जन्मान्तर में अनु. वर्तमान नहीं होता, अतः जन्मान्तर के देह में प्रवेश इस जन्म के अभिलाष से होने की बात युक्त नहीं कही जा सकती। तदुपरांत, मनुष्यजन्म वाला प्राणी कदापि कुत्ती आदि के नीच गर्भस्थान में उत्पन्न होने का अभिलाष करे यह सम्भव ही नहीं, अत: अभिलाष के निमित्त से जन्मान्तर के देह में प्रवेश की बात अघटित है। निष्कर्ष यह है कि, धर्माधर्म आत्मा के गुण होने की बात का उक्त Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः 589 स्वाभावसाधने वागादिवन्निविशेषणस्यैव तस्याभिधाने को दोषः ? 'व्यभिचारः कालेश्वरादिना' इति चेत् ? न, नित्यकस्वभावात् कस्यचिदुपकाराभावात् / अपि च, शत्रुशरीरप्रध्वंसाभावस्तद्विपक्षस्योपकारको भवति सोऽपि तदगुण ऽपि तद्गुणनिमित्तः स्यात् / तदभ्युपगमे वा तत्र कार्यत्वाऽसम्भवेन सविशेषणस्य हेतोरवर्तनाद् भागाऽसिद्धो हेतुः / अतद्गुणनिमित्तत्वे तस्यान्यदप्यतद्गुणपूर्वकं तदुपकारकं तद्वदेव स्यादिति न तद्गुणसिद्धिः। यत् पुनः 'ग्रासादिवत्' इति निदर्शनम् , तत्र यदि तदात्मगुणो धर्मादिर्हेतुः, साध्यवत्प्रसंगः / प्रयत्नश्चेत् ? न, तत्स्वरूपाऽसिद्धेः-शरीराद्यवयवप्रविष्टानामात्मप्रदेशानां परिस्पन्दस्य चलनलक्षणक्रियारूपत्वान्न गुणत्वम् , तत्त्वे वा गमनादेरपि तत्त्वात न कर्मपदार्थसद्भावः क्वचिदपीति न युक्त 'क्रियावत्' इति द्रव्यलक्षणम् / 'निष्क्रियस्यात्मनो न स' इति चेत् ? कुतस्तस्य निष्क्रियत्वम् ? अमूतत्वात् इति चेत् ? प्रत्यक्षनिराकृतमेतत्-प्रत्यक्षेण हि देशाद्देशान्तरं गच्छन्तमात्मानमनुभवति लोकः / तथा च व्यवहार:- अहमद्य योजनमात्रं गतः' / न च मनः शरीरं वा तद्वयवहारविषयः, तस्याहंप्रत्ययवेद्यत्वात् / तदेवं परस्य साध्य विकलं निदर्शनमिति स्थितम् / रीति से निषेध सिद्ध होता है अतः इस निषेध साधक अनुमान से पूर्वपक्षी का यह अनुमान कि-अग्निआदि का ऊर्ध्वज्वलनादि देवदत्त के गुण से निष्पन्न है'-बाधित हो जाता है। [ देहमात्रव्यापी आत्मसाधक अनुमान में वाध दोष का निरसन ] तथा, आपने जो यह कहा है कि-अग्नि आदि के उप्रज्वलन से, अग्निदेश में अनुमित होने वाले देवदत्त के गुण से गुणवान् आत्मा का भी अनुमान से उस देश में अस्तित्व सिद्ध होता है अतः आपका स्वदेहमात्रव्यापक आत्मा रूप कर्म का निर्देश आत्मव्यापकता साधक अनमान से जायेगा, उसके बाधित होने के बाद आपने जो पहले हेतु का प्रयोग किया है-'क्योंकि देवदत्तदेह में ही व्यापकरूप से उसकी आत्मा का उपलम्भ होता है'-यह हेतुप्रयोग कालात्ययापदिष्ट हो जायेगा [ 147-4 ]-यह सब अब निरस्त हो जाता है। क्योंकि अग्निदेश में देवदत्तात्मा का सद्भाव असिद्ध है। दूरी बात, अग्निज्वलन में देवदत्तणजन्यत्वसिद्धि के लिये "क्योंकि कार्य होते हुए देवदत्त के प्रति उपकारक है" ऐसा जो हेतुप्रयोग किया है वहाँ प्रश्न है कि 'कार्य होते हुए' ऐसा विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता है ? विशेषण तो क्वचित् सम्भव और क्वचित् व्यभिचार इन दोनों के होने पर लगाया जाय तभी सार्थक होता है / तो क्या आपने देवदत्तगुणजन्यत्व के विरह में कहीं भी देवदत्त के प्रति उपकारकत्व देखा है जिससे व्यभिचार की शंका पडे और उसके वारण के लिये 'कार्यत्वे सति' ऐसा कहना पडे ? यदि कहें कि-काल और ईश्वरादि में देवदत्त के प्रति उपकारकत्व दिखता है और देवदत्तगुणजन्यत्व कालादि में नहीं है अतः व्यभिचार होता है, उसके वारण के लिये 'कार्य होते हुए' ऐसा कहा है, कालादि कार्यात्मक नहीं है, अतः पूरा सविशेषण हेतु कालादि में न रहने से व्यभिचार नहीं होगा ।-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि काल-ईश्वरादि देवदत्तगुणपूर्वक न होने पर भी यदि देवदत्त के उपकारी बनेंगे तो यत्किचित् कार्य (अग्निज्वलनादि) भी देवदत्तगुणजन्य न होने पर भी देवदत्त के उपकारी बन सकते हैं। अर्थात् अग्निज्वलनादि में हेतु के रहने पर भी साध्य न होने की शंका होने पर हेतु में विपक्षव्यावृत्ति संदिग्ध हो जाने से हेतु अनैकान्तिक हो जायेगा। तथा Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 590 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तेन यदुक्तम्-'यस्मात् तदात्मनो गुणा अपि दूरदेशभाविनि तदंगनांगेऽन्तराले चोपलभ्यन्ते तस्मात् सिद्धं तस्य सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वम् , अतः 'सर्वगत पात्मा, सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात् आकाशवत्' इत्यनुमानबाधिता तदात्मस्वशरीरमात्रप्रतिज्ञा' इति, तन्निरस्तम् , सर्वेषां सर्वगतात्मप्रसाधकतनां पूर्वमेव निरस्तत्वात / अतोन स्वदेहमात्रव्यापकात्मप्रसाधकहेतोरसिद्धिः / नाप्यनमानेन तत्प क्षबाधा / न च तद्देहव्यापकत्वेनैवोपलभ्यमानगुणोऽपि तदात्मा सर्वगतो निजदेहैकदेशवृत्तिर्वा स्थान अविरोधात् संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनकान्तिको हेतुः इति युक्तम् ; वाय्वादावपि तथाभावप्रसंगत: प्रतिनियतदेशसम्बद्धपदार्थव्यवहारोच्छेदप्रसवतेः / तथाहि-यद्यथा प्रतिभाति तत्तथैव सद्व्यवहारपथमवतरति, यथा प्रतिनियतदेशकालाकारतया प्रतिभासमानो घटादिकोऽर्थः, अन्यथा प्रतिभासमाननियतदेशकालाकारस्पर्शविशेषगुणोऽपि वायुः सर्वगतः स्यात् / न चात्र प्रत्यक्षबाधः, परेण तस्य परोक्षत्वोपवर्णनात्। यह भी प्रश्न है कि 'देवदत्त सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वह वक्ता है' इस प्रकार विशेषणरहित ही वक्तृत्व' हेतु का जैसे नास्तिक की ओर से प्रयोग किया जाता है वैसे यहाँ भी आप विशेषण के विना ही हेतुप्रयोग करें तो दोष क्या है ? -'अरे ! कहा तो है कि काल-ईश्वरादि में व्यभिचार होगा' हाँ कहा तो है किन्तु वह ठीक नहीं है क्योंकि कालादि तो नित्यस्वभाववाले है अत: वे तो किसी के भी उपकारक नहीं हो सकते।। तदुपरांत, शत्रुशरीर के प्रध्वंस का अभाव उसके प्रतिपक्षीयों के लिये कुछ न कुछ उपकारक कर्ता होता है तो वह ध्वंसाभाव भी प्रतिपक्षीयों के गुणनिमित्तक मानना पडेगा / यदि वैसा मानेंगे तो विशेषणयुक्त हेतु वहाँ रहता न होने से हेतु भागाऽसिद्ध हो जायेगा क्योंकि अभावनित्य होने से वहाँ कार्यत्व (विशेषण) रहता नहीं है। यदि उक्त ध्वंसाभाव को देवदत्तगुणनिमित्तक नहीं मानेगे तो अग्निज्वलनादि को भी उसी तरह देवदत्तगुणपूर्वकत्व के विना ही देवदत्त के प्रति उपकारक मान लिया जायेगा। अत: अग्निज्वलनादि के बल से देवदत्त के गुण की सिद्धि निरवकाश हो जायेगी। [ आहार कवल के दृष्टान्त में साध्यशून्यता ] तथा, आपने जो आहारकवल का दृष्टान्त दिया है उसमें जो देवदत्तगुणपूर्वकत्व आप सिद्ध मानते हैं वहाँ देवदत्तात्मा के कौन से गुण को हेतु मानेंगे ? यदि धर्मादि को, तो वह भी सिद्ध करना होगा क्योंकि उसमें विवाद है। अगर, प्रयत्न को हेतु मानेंगे तो वह स्वरूपासिद्ध है इसलिये उसका सम्भव नहीं है। जैसे देखिये-शरीरादि अवयवों में आविष्ट आत्म प्रदेशों के स्पन्दन को प्रयत्न रूप नहीं माना जा सकता क्योंकि स्पन्दन तो चलनक्रियारूप होने से गुणरूप नहीं है। यदि चलनक्रिया को गुणरूप मानेंगे तो गमनादि क्रिया भी गुणरूप ही मानी जायेगी। फलत: कर्म (=क्रिया) जैसा कहीं भी कोई पदार्थ ही नहीं रहेगा / उसके फलस्वरूप, द्रव्य का जो 'क्रियावत्त्व' लक्षण किया गया है वह अयुक्त हो जायेगा। यदि कहें कि 'आत्मा निष्क्रिय होने से उसमें कर्म जैसे किसी भी पदार्थ का सद्भाव न हो इसमें इष्टापत्ति है'-तो यहां प्रश्न है कि आत्मा में निष्क्रियत्व कैसे सिद्ध हुआ ? यदि अमूर्त होने से, तो यह बात प्रत्यक्षबाधित है, क्योंकि सभी लोगों को प्रत्यक्ष से यह अनुभव होता है कि 'हम एक देश से दूसरे देश में जाते-आते हैं' / देखिये, यह व्यवहार भी होता है कि 'मैं आज सीर्फ एक योजन ही गया हूँ' / ऐसा नहीं कह सकते कि 'यहाँ गमनक्रिया की प्रतीति का विषय आत्मा नहीं किन्तु Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्म विभुत्वे उत्तरपक्ष: 591 यदि च स्वदेहैकदेशस्थितः, कथं तत्र सर्वत्र सुखादिगुणोपलब्धिः ? इतरथा सर्वत्रोपलभ्यमानगुणोऽपि वायुरेकपरमाणुमात्रः स्यात् / न च क्रमेण सर्वदेहभ्रमणात् तस्य तथा तत्रोपलब्धिः , युगपत् तत्र सर्वत्र सुखादेर्गुणस्योपलम्भात् / न चाशुवृत्तेयौंगपद्याभिमान:, अन्यत्रापि तथाप्रसक्तेः, शक्यं हि वक्तु घटादिरप्येकावयववृत्तिः आशुवृत्तेयुगपत् सर्वेष्ववयवेषु प्रतीयत इति / अत एव सौगतोऽपि तत्रैकं *निरंशं ज्ञानं कल्पयन्निरस्तः, प्रत्यवयवमनेकसुखादिकल्पने सन्तानान्तरवत् परस्परमसंक्रमात अनुस्यूतकप्रतीतिविलोपः 'सर्वत्र शरीरे मम सुखम्' इति / अथ युगपद्भाविभिरेकशरीरवत्तिभिरनेकनिरंशक्षणिकसखसंवेदनरेकपरामर्शविकल्पजननादयमदोषः। असदेतत, अनेकोपादानस्य परामर्शविकल्पस्यैकत्वसम्भवे चार्वाकाभिमतैकशरीरव्यपदेशभागनेकपरमाणपादानानेकविज्ञानाभावेऽपि तद्विकल्पसम्भवात् / ततो यदुक्त धर्मकीत्तिना तं प्रति-"अनेकपरमाणपादानमनेकं चेद् विज्ञानं सन्तानान्तरवदेकपरामर्शाभावः" [ ] इति, तत्तस्य न सुभाषितं स्यात् / मन या शरीर है' क्योंकि मन या शरीर 'अहं' इस प्रतीति का विषय नहीं है। इससे यह सिद्ध हुआ कि आहार कवल के दृष्टान्त में देवदत्तगुणपूर्वकत्व रूप साध्य गायब है / [आत्मा के गुण देह से अन्यत्र उपलब्ध नहीं होते ] उपरोक्त रीति से जब देवदत्तगुणपूर्वकत्व ही कहीं सिद्ध नहीं हो सकता तो आपने जो पहले यह कहा था कि-जब देवदत्तात्मा के गुण भी दूरदेशवर्ती उसकी पत्नी के अंगदेश में और बीच में भी उपलब्ध होते हैं तो इससे यह सिद्ध होगा कि उसके गुण सर्वत्र उपलब्ध है / फलतः ‘आत्मा सर्वगत (व्यापक) है क्योंकि उसके गुण सर्वत्रोपलब्ध हैं, उदा० आकाश" इस अनुमान से, देवदत्तात्मा उसके देहमात्र में व्यापक होने की प्रतिज्ञा बाधित हो जाती है... इत्यादि, यह सब इसलिये निरस्त हो जाता है कि सर्वगत आत्मा के साधक सभी हेतुओं का पहले ही निरसन किया जा चुका है / इसलिये अब अपने देह मात्र में आत्म-व्यापकता के साधक हेतु में असिद्धि दोष नहीं हो सकता / अनुमान से भी देहव्यापकता वाले पक्ष में कोई बाधा प्रसक्त नहीं है / यदि यह कहा जाय कि-'देवदत्त आत्मा के गुण सीर्फ देवदत्त के देह में ही व्यापक भाव से उपलब्ध भले होते हो, फिर भी 'वह सर्वगत हो सकता है अथवा देह के किसी एक अवयव में ही संकुचित होकर रहने वाला हो सकता है' ऐसी शंका को अवकाश है, क्योंकि सीर्फ देह में ही व्यापकभाव से गुणों के उपलम्भ को सर्वगतत्व के साथ अथवा 'संकुचितवृत्तित्व' के साथ विरोध नहीं है / इस प्रकार विपक्षरूप से संदिग्ध आत्मा में से हेतु की व्यावृत्ति भी संदिग्ध हो जाने से देहमात्र व्यापकत्व साधक हेतु अनैकान्तिक हो जाता है"-तो यह ठीक नहीं है। कारण, वायु आदि अन्य पदार्थों में भी इस प्रकार की शंका के प्रसंग से पदार्थों के विषय में यह अमुकदेश से ही सम्बद्ध है' इत्यादि व्यवहारों का उच्छेद हो जायेगा। जैसे देखिये-जो जैसे प्रतीत होता है वह उसी रूप से सत् व्यवहार का विषय होता है / जैसे-अमुक ही देश-काल और आकार के रूप में भासमान घटादि अर्थ का उसी देश-काल और आकार के रूप में व्यवहार होता है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो, वायु का स्पर्शविशेष ण नियत देश-काल-आकार से भासमान होने पर भी उसको सर्वदेशव्यापक मानने की आपत्ति होगी। *उपा० यशोविजयविरचिते न्यायालोके [ पृ० 47--2 ] 'निरंश' इत्यस्य स्थाने 'निरंतरं' इति पाठः / Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 592 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यच्च 'सावयवं शरीरं प्रत्यवयवमनुप्रविशंस्तदात्मा सावयव: स्यात् , तथा, पटवत् समानजातीयारब्धत्वाच्च तद्वद् विनाशवांश्च स्यात्' इति, तदपि न सम्यक् , घटादिना व्यभिचारात्-घटादिहि सावयवोऽपि न तन्तुवत प्राक्प्रसिद्धसमानजातीयकपालसंयोगपूर्वकः, मत्पिण्डात प्रथममेव सावयवत्वरूपाद्यात्मनः प्रादुर्भावादिति निरूपयिष्यमाणत्वात् / अपि च, यदि तदात्मनः कथंचिद्विनाशः प्रतिपादयितुमिष्टः समानजातीयावयवारब्धत्वात् तदा सिद्धसाधनम् , तदभिन्नसंसार्यवस्थाविनाशेन तद्रूपतया तस्यापि नष्टत्वात् / अथ सर्वात्मना सर्वथा नाशः, स घटादावप्यसिद्ध इति साध्यविकलो दृष्टान्तः / यदि च तदहर्जातबालात्मा प्रागेकान्तेनाऽसंस्तथाऽवयवैरारभ्येत तदा स्तनादौ प्रवृत्तिन स्यात, तदभिलाष-प्रत्यभिज्ञान-स्मरण-दर्शनादेरभावात् / 'तदारम्भकावयवानां प्राक्सतां विषयदर्शनादिकम्' इति चेत् ? तर्हि तेषामेव तदहर्जातवेलायां तन्वन्तराणामिव तत्र प्रवृत्तिः स्यानात्मनः, स्मरणाद्य भावात् / ' कारणगमने तस्यापि सर्वत्र सा स्यात् , “कारणसंयोगिना कार्यमवश्यं संयुज्यते" [ ] इति वचनात् न तस्य विषयानुभवाभावः, भेदैकान्ते चास्याः प्रक्रियायाः समवायनिषेधेन निषेधात् / / यदि कहें कि-वाय तो प्रत्यक्ष से हो नियत देश-काल-आकार से उपलब्ध होता है अतः आपकी आपत्ति का विषय प्रत्यक्षबाधित है-तो यह ठीक नहीं क्योंकि आप तो वाय परोक्ष होने का वर्णन करते आये हैं। [ देह में आत्मा की संकुचित वृत्ति मानने में बाधक ] तथा यह भी प्रश्न है कि आत्मा को यदि संकुचितरूप से देह के किसी एकभाग में पर्याप्त मानेंगे तो सारे देह में सुखादि गुणों की उपलब्धि होती है वह कैसे होगी ? गुणों की उपलब्धि विवक्षित देश में सर्वत्र होने पर भी यदि गुणी को उसके एक भाग में ही अवस्थित कहेंगे तो विवक्षित देश में सर्वत्र वायु के स्पर्शविशेष गुण की उपलब्धि होने पर भी उस देश के एक सूक्ष्म भाग में परमाणुरूप से ही वायु की सत्ता मानने की आपत्ति होगी। यदि कहें कि-आत्मा देह के एक भाग में होने पर भी सारे देह में घुमता रहता है इसलिये उसके गुणों की सारे देह में उपलब्धि होती है-तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि देह के सभी भागों में एक साथ ही सुखादि गुणों की उपलब्धि होती है। यदि कहें कि-एक साथ सुखादि गुणों की उपलब्धि यह वास्तव में शीघ्रता के कारण एकसाथ 3 का अभिमान मात्र है-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि दूसरे स्थलों में भी ऐसा तर्क प्रसक्त होगा। तात्पर्य यह है कि कोई ऐसा भी कहेगा कि घटादि अवयवी सर्व अवयवों में नहीं रहता किन्तु एक ही अवयव में रहता है, सीर्फ शीघ्रभ्रमण के कारण सभी अवयवों में वह उपलब्ध होता है। इसी तर्क से बौद्ध भी कल्पना करता हआ निरस्त हो जाता है। शरीर के एक एक अवयवों में एक और निरंश ज्ञान होने की बौद्ध के कथनानसार यदि प्रत्येक शरीर अवयवों में अनेक ज्ञान-सुखादि की कल्पना करेंगे तो, जैसे एक सन्तान से अन्य संतान में वासना का संक्रम नहीं होता उसी तरह एक अवयव में से अन्य अवयवों में सुखादि का संक्रम न हो सकेगा, फलतः 'मुझे सारे देह में सुख हुआ' यह समग्र देह में अनुगत एक सुखानुभव प्रतीति का विलोप हो जायेगा। यदि कहें कि-एक शरीर के भिन्न भिन्न अंशों में एक साथ होने वाले अनेक निरंश सुखसंवेदनों से एक परामर्शस्वरूपविकल्प के उत्पादन से उक्त प्रतीति के विलोप का दोष नहीं होगा तो यह ठीक नहीं क्योंकि यदि इस प्रकार अनेक उपादानों से एक परामर्शविकल्प का उद्भव माना जाय तो चार्वाक के मत में भी एकशरीररूप में प्रसिद्धिवाले : अनेक परमाणुओं के उपादानों से अनेक विज्ञान उत्पन्न होने पर भी एक परामर्शविकल्प का उद्भव Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः 563 प्रथ कारणगुणप्रकमेण तत्र दर्शनादयो गुणा वर्ण्यन्ते, तेऽपि प्रागसन्त एव जायन्त इति, एवमपि न किचित् परिहृतम् / एतेन "अवयवेषु क्रिया, क्रियातो विभागः, ततः संयोगविनाशः, ततोऽपि द्रव्यविनाश." [ ] इति परस्याकृतं पूर्वभवान्ते तथा तद्विनाशे आदिजन्मनि स्मरणाद्यभावप्रसंगानिरस्तम् / न चायमेकान्तः-कटकस्य केयूरभावे कुतश्चिद् भागेषु क्रिया, विभागः, संयोगविनाशः, द्रव्यनाशः, पुनस्तदवयवाः केवलाः, तदनन्तरं कर्म-संयोगक्रमेण केयूरभावः प्रमाणगोचरचारी। केवलं सुवर्णकारव्यापारात् कटकस्य केयूरीभावं पश्यामः, अन्यथाकल्पने प्रत्यक्षविरोधः। नहि पूर्व विभागः ततः संयोगविनाश इति, तद्भदानुपलक्षणाच्चैतन्य-बुद्धिवत् / न चैकान्तेन तस्याऽक्षणिकत्वे सुखसाधनदर्शनादयः सम्भवन्तीत्यसकृदावेदितमावेदयिष्यते चेत्यास्तां तावत / ततो नानकान्तिको हेतः, विपक्षेऽसम्भवात् / अत एव न विरुद्धोऽपि इति भवत्यत सर्वदोषरहितात् केशनखादिरहितशरीरमात्रव्यापकस्य विवादाध्यासितस्यात्मनः सिद्धिरिति साधक्तम्-'ठाणमणोवमसुहमुवगयाणं' इति / सम्भव हो सकेगा। फिर धर्मकीत्ति का जो यह कथन है कि अनेक परमाणु उपादानों से विज्ञान यदि अनेक उत्पन्न होने का मानगे तो अन्य सन्तान के साथ जैसे एक परामर्श नहीं होता वैसे उन विज्ञानों में भी एक परामर्श नहीं हो सकेगा-यह कथन दुर्भाषित हो जायेगा, सुभाषित नहीं। [ आत्मा में नश्वरता की आपत्ति नहीं है ] यह जो कहा जाता है कि-शरीर सावयव होता है, आत्मा का अनुप्रवेश यदि प्रत्येक देहावयव में मानेंगे तो आत्मा को भी देहवत् सावयव मानना पड़ेगा, आत्मा को सावयव मानने पर उसे समान जातीय अवयवों से जन्य भी मानना होगा जैसे कि वस्त्र। अत एव आत्मा को भी वस्त्र की तरह विनाशशील मानना होगा ।-तो यह ठीक नहीं है। कारण, घटादि में ही आपका नियम तूट जाता है / घटादि सावयव तो होता है किन्तु तन्तुरूप अवयवों के संयोग से उत्पन्न वस्त्र की तरह वह समानजातीय अवयवों से आरब्ध नहीं होता, अर्थात् पूर्व में प्रसिद्ध समानजातीय कपालों के संयोग से घट उत्पन्न नहीं होता किन्तु मिट्टीपिंड में से अपने अवयवों से अभिन्नरूप में पहले ही घट की उत्पत्ति होती हैं इसका हम आगे निरूपण करेंगे / और यदि आप समानजातीय अवयवों से जन्यत्व हेतु से देवदत्तात्मा के कथंचिद् विनाश का प्रतिपादन करना चाहते हैं तो हमारे प्रति यह सिद्धसाधन होगा। कारण देवदत्तात्मा से अभिन्न संसारी अवस्था के विनाश से तद्रुप से देवदत्तात्मा का नाश भी हो ही जाता है [ और मुक्तावस्था से उत्पत्ति भी होती है ] | यदि आप सर्वात्मना सर्वरूप से आत्मा के विनाश की बात करेंगे तो ऐसा नाश दृष्टान्तभूत घटादि में ही असिद्ध होने से दृष्टान्त साध्यशून्य फलित होगा। एकान्त नाश जैसे अघटित है वैसे एकान्त से उत्पत्ति भी अघटित है / कारण, उसी दिन पैदा हुए बालात्मा को पूर्वकाल में यदि एकान्त से असत् होता हुआ अपने अवयवों से उत्पन्न होने वाला मानेंगे तो उस दिन उसको स्तन्यपान में प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि उसके पूर्व-पूर्व कारणभूत अभिलाष, प्रत्यभिज्ञा, स्मरण, दर्शनादि का सद्भाव ही नहीं है। यदि कहें कि-पूर्वकाल में सत्तावाले उसके जनक अवयवों को विषय का दर्शन-स्मरणादि सब हो गया है अतः स्तन्यपान की प्रवृत्ति घटित होगी। -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अन्य शरोरों में पूर्वप्रवृत्तविषयदर्शनादि से सीर्फ उन शरीरों में ही प्रवत्ति होती है न कि अन्य किसी में, तो उसी तरह पूर्वतन सत्तावाले अवयवों के विषयदर्शनादि से नवजात बाल की जन्म वेला में उन अवयवों की ही प्रवृत्ति हो सकती है, नवजात बालक आत्मा की नहीं, क्योंकि उसको पूर्व में स्मरणादि कारण का अभाव है / यदि ऐसा कहा जाय कि-कारणभूत अव Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ यवों के विषयदर्शनादि से हम कार्यभूत नवजात बालात्मा में प्रवृत्ति होने का कारणकार्यभाव मानेगे, तो इस तरह सर्वत्र प्रवृत्ति मानने की आपत्ति आयेगी क्योंकि आपका ही यह वचन है कि 'कारण के साथ जिसका संयोग होता है उसका कार्य के साथ संयोग हो ही जाता है। अतः किसी में भी विषयानुभव का अभाव नहीं रहेगा। तदुपरांत, दर्शनादि को आत्मा से यदि एकान्त भिन्न मानेंगे तो आत्मा के साथ उसका कोई सम्बन्ध न हो सकने से दर्शन-स्मरणादि प्रक्रिया का ही उच्छेद प्रसक्त होगा, क्योंकि समवायसम्बन्ध का तो निराकरण हो चुका है। [क्रियादि क्रम से द्रव्यनाश की प्रक्रिया का निरसन ] यदि नवजात शिशु में दर्शनादि गुणों की उत्पत्ति कारणगतगुणों की परम्पग से ( अर्थात् (कारणगत गुणों से कार्यगत गुणों की उत्पत्ति, इस प्रकार) मानेंगे, और यह उत्पत्ति भी यदि सर्वथा. पूर्वकाल में अविद्यमान ही गुणों की मानेंगे तो-इससे भी पूर्वोक्त दोष का परिहार नहीं होता, क्योंकि इस प्रकार से भी स्मरणादि की उपपत्ति नहीं की जा सकती। किसी भी वस्तु का एकान्त विनाश और सर्वथा पूर्व में असत् की उत्तरकाल में उत्पत्ति मानने पर स्मरणादि अभाव का दोष प्रसक्त होता है इसी लिये वैशेषिक विद्वानों की जो यह प्रक्रिया है कि-प्रथम अवयवी द्रव्य के अवयवों में क्रिया की उत्पत्ति, तदनन्तर उन अवयवों में विभागगुण का उद्भव, उसके बाद अवयवीद्रव्यजनक संयोग का विनाश और उससे द्रव्य का विनाश होता है-इस प्रक्रिया का अभिप्राय भी निरस्त हो जाता है। क्योंकि अवयवजन्य आत्म पक्ष में, पूर्वभव के अन्त में तो अवयवी आत्मा का सर्वथा नाश हो जायेगा फिर इस जन्म के प्रारम्भ में बालक आत्मा को स्मरणादि कैसे होगा ? नहीं हो सकेगा। तथा, वैशेषिकों का दिखाया हुआ क्रम-कटक (अलंकारविशेष) द्रव्य से केयूर की उत्पत्ति में लक्षित भी नहीं होता, अर्थात् कटकद्रव्य के कुछ अवयवों में क्रिया का उद्भव, उससे उन में विभागगुण की उत्पत्ति उससे आरम्भक संयोग का ध्वंस, उससे कटकद्रव्य का विनाश और सीर्फ अवयवों की ही सत्ता उसके बाद फिर से उनमें क्रिया-संयोगादि क्रम से केयूर की उत्पत्ति, ऐसा क्रम किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है / सीर्फ सुवर्णकार के प्रयत्न से कटकद्रव्य से ही केयूर का उद्भव दिखाई देता है, अतः विपरीत कल्पना करने में प्रत्यक्ष का विरोध मोल लेना होगा / तथा पहले विभाग गुण का उद्भव और उससे संयोगनाश-इन दोनों में भी कोई अन्तर नहीं है सीर्फ शब्दभेद ही है, जैसे की चैतन्य और बुद्धि शब्द में शब्दभेद के अलावा कुछ अन्तर नहीं है। तथा आत्मा को सांख्यमत की तरह एकान्त अक्षणिक मानने में सुखसाधना और दर्शन-स्मरणादि का सम्भव भी नहीं रहता है-यह बात कई पहले कह दी गयी है और आगे भी कही जायेगी इस लिये अभी उसको जाने दो। प्रस्तुत बात यह है कि आत्मा के देहपरिणाम की सिद्धि के लिये उपन्यस्त हेतु विपक्ष में न रहने से अनैकान्तिक दोष निरवकाश है / जब अनैकान्तिक दोष का संभव नहीं तो विरोध दोष का तो संभव सुतरां निषिद्ध हो जाता है क्योंकि अनैकान्तिक दोष विरोध का व्यापकीभूत है / इस प्रकार सर्वदोषविनिमुक्त हेतु से विवादाध्यासित आत्मा केश और नखादि को छोडकर सारे देहमात्र में ही व्यापक परिमाण वाला है-यह सिद्ध होता है / निष्कर्ष, मूल ग्रन्थकार ने जो 'जिनों का विशेषण कहा है 'अनुपमसुखवाले स्थान में पहुँचे हुए' यह देह व्यापक आत्म पक्ष में अत्यन्त संगत ही कहा है इसमें कोई संदेह नहीं है। [ आत्मविभुत्वनिराकरणवाद समाप्त ] Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा 595 [मुक्तिस्वरूपमीमांसा] यदपि 'आत्यन्तिकबुद्धयादिविशेषगुणोच्छेदविशिष्ट आत्मा मुक्तिः' इति तदप्यप्रमाणकम् / अथ तथाभूतमुक्तिप्रतिपादकं प्रमाणं विद्यते / तथाहि-नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमच्छिद्यते, सन्तानत्वात, यो यः सन्तानः स सोऽत्यन्तमच्छिद्यते, यथा प्रदीपसंतानः, तथा चायं सन्तानः, तस्मादत्यन्तमुच्छिद्यते इति / सन्तानत्वस्य च व्याप्त्या बुद्धयादिषु सम्भवात् पक्षधर्मतयाऽसिद्धताऽभावः। तत्समानर्धामणि मिणि प्रदीपादावुपलम्भादविरुद्धत्वम् / न च विपक्ष परमाण्वादावस्तोत्यनैकान्तिकत्वाभावः, विपरीतार्थोपस्थापकयोः प्रत्यक्षाऽऽगमयोरनुपलम्भाव न कालात्ययापदिष्टः, न चायं सत्प्रतिपक्ष इति पश्चरूपत्वात प्रमाणम् / / न च निर्हेतुकविनाशप्रतिषेधात सन्तानोच्छेदे हेतुर्वाच्यः यतः समुच्छिद्यत इति, तत्त्वज्ञानस्य विपर्ययज्ञानव्यवच्छेदकमेण निःश्रेयसहेतुत्वेन प्रतिपादनात् / उपलब्धं च सम्यग्ज्ञानस्य मिथ्याज्ञाननिवृत्तौ सामर्थ्य शुक्तिकादौ-न च मिथ्याज्ञानेनाप्युत्तरकालभाविना सम्यग्ज्ञानस्य विरोधः सम्भवति, सन्तानोच्छितेविवक्षितत्वात् / यथा हि सम्यग्ज्ञानात् मिथ्याज्ञानसन्तानोच्छेदः नैवं मिथ्याज्ञानात् सम्यग्ज्ञानसन्तानस्य, तस्य सत्यार्थत्वेन बलीयस्त्वात्-निवृत्ते च मिथ्याज्ञाने तन्मूलत्वाद् रागादयो न भवन्ति कारणाभावे कार्यस्यानुत्पादाद , रागाद्यभावे च तत्कार्या प्रवृत्तिावर्तते, तदभावे च धर्माऽधर्म :, आरब्धकार्ययोश्चोपभोगात् प्रक्षय इति, सञ्चितयोश्च तयोः प्रक्षयस्तत्त्वज्ञानादेव / तदुक्तम्[ भ० गी० 4-37 ] 'यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात् कुरुते क्षणात् / ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात कुरुते तथा" | योर [ आत्मा की मुक्तावस्था कैसी होती है !] . न्यायमत में कहा जाता है कि आत्मा में से बुद्धि आदि विशेषगुणों का सर्वथा उच्छेद हो जाय ऐसी अवस्था से विशिष्ट आत्मा ही मुक्ति है / व्याख्याकार कहते हैं कि यह बात प्रमाणशून्य है। अब नैयायिक विद्वान् अपने मत का समर्थन करते हुए कहते हैं [विशेषगुणोच्छेदस्वरूपमुक्ति-नैयायिक पूर्वपक्ष ] .. पूर्वोक्त स्वरूप वाली मुक्ति का समर्थक अनुमान प्रमाण मौजुद है। देखिये-"आत्मा के नव विशेषगुणों ( बुद्धि-सुख-दुख-इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-संस्कार-धर्म-अधर्म ) की परम्परा का सर्वथा विनाश भी होता है क्योंकि वह सन्तानात्मक है, जो जो सन्तानात्मक होता है उसका कभी सर्वथा ध्वंस होता ही है जैसे दीप का संतान, विशेष गुणों की परम्परा भी सन्तानात्मक है अतः उसका भी सर्वथा विनाश होता है ।"-इस अनुमान से मुक्तिदशावाले आत्मा में बुद्धि आदि का सर्वथा ध्वंस सिद्ध होता है / यहाँ हेतु में असिद्धि दोष नहीं है क्योंकि बुद्धि आदि विशेषगुणों में व्यापकरूप से सन्नातात्मकता सम्भवित है और प्रसिद्ध भी है अत: हेत सन्तानात्मकता बुद्धि आदि पक्ष में विद्यमान धर्म रूप हैं। हेतु में विरोध दोष भी नहीं है क्योंकि बुद्धि आदि पक्ष का समान धर्मी (यानी सपक्ष) रूप प्रदीपादि धर्मी में सन्तानात्मकता और सर्वथा ध्वस ये दोनों हेतु-साध्य का सामानाधिकरण्य प्रसिद्ध है। साध्य जहाँ नहीं है ऐसे विपक्षभूत परमाणु आदि में सन्तानात्मकता भी नहीं होती अत: हेतु में साध्यद्रोह का दोष भी नह दि सन्तान में साध्य से विपरीत अर्थ का प्रतिपादक कोई भी प्रत्यक्ष Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथोपभोगादपि प्रक्षये "नाऽभुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि" [ ] इत्यागमोऽस्ति, तथा च विरुद्धार्थत्वादुभयोरेकत्रार्थे कथं प्रामाण्यम् ? उपभोगाच्च प्रक्षयेऽनुमानोपन्यासमपि कुर्वन्ति'पूर्वकर्माण्युपभोगादेव क्षीयन्ते, कर्मत्वात् , यद् यत् कर्म तत् तद् उपभोगादेव क्षीयते, यथाऽरब्धशरीरं कर्म, तथा चैतत् कर्म, तस्मादुपभोगादेव क्षीयते' इति / न चोपभोगात् प्रक्षये कर्मान्तरस्यावश्यंभावात या आगम प्रमाण उपलब्ध नहीं है अत: हेतु में कालात्ययापदिष्ट (बाध) दोष भी नहीं है / तथा विपरीतार्थ का साधक कोई प्रतिपक्षी हेतु भी नहीं है। इस प्रकार पक्षवृत्तित्व, सपक्षवृत्तित्व, विपक्ष में अवृत्तित्व, अबाधितत्व और असत्प्रतिपक्षितत्व ये पाँच हेतु के रूप प्रस्तुत हेतु में विद्यमान होने से, यह अनुमान बुद्धिआदि विशेषगुण शून्य मुक्ति की सिद्धि में ठोस प्रमाण है। [मुक्ति का हेतु तत्त्वज्ञान ] ऐसा कहने की जरूर नहीं है कि-'नैयायिक विद्वानों ने नाश निर्हेतुक होने का निषेध किया है अतः जिस हेतु से उक्त सन्तान का उच्छेद होता हो ऐसे हेतु को दिखाना चाहिये / ' जरूर न होने का कारण यह है कि हमने (नैयायिकों ने) विपरीत ज्ञान के क्रमशः व्यवच्छेद से, प्रमाणादि सोलह तत्त्वों के ज्ञान को मोक्ष का हेतु कहा ही है। सीप आदि स्थल में, रजत के मिथ्याज्ञान को निवृत्ति करने का सामर्थ्य सम्यग्ज्ञान में ही होता है यह देखा हुआ है / पूर्वकालीन मिथ्याज्ञान से उत्तरकालीन सम्यग्ज्ञान का ही विरोध होने को तो सम्भावना ही नहीं है, क्योंकि यहाँ विरोध का तात्पर्य सन्तानो. च्छेद की विवक्षा में है / अर्थात् , मिथ्याज्ञान के सन्तान का सम्यग्ज्ञान से उच्छेद होता है यह सुविदित है किन्तु मिथ्याज्ञान से सम्यग्ज्ञान के सन्तान का कभी उच्छेद नहीं होता है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान सत्य अर्थ पर अवलंबित होने से बलवान् होता है। मिथ्याज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर मिथ्याज्ञानमूलक रागादि का उद्भव भी रुक जाता है, क्योंकि कारण न होने पर कार्योत्पत्ति नहीं होती। रागादि के न होने पर तन्मूलक प्रवृत्ति भी रुक जाती है / प्रवृत्ति के विरह में धर्म और अधर्म का उद्भव रुक जाता है / ऐसे धर्म और अधर्म जिन के विपाक से उन का फलजनन शुरु हो गया है ऐसे धर्म-अधर्म का उपभोग से ही क्षय होता है। जब कि संचित (सुषुप्त) धर्माधर्म का क्षय तो तत्त्वज्ञान से ही हो जाता है / गीता शास्त्र में कहा भी है कि जैसे समृद्ध अग्नि पलमात्र में इन्धन को जला देता है वैसे ज्ञानरूप अग्नि भी सभी कर्मों को भस्मसात् कर देता है। [ उपभोग से ही कर्मविनाश की उपपत्ति ] संचित कर्म का विनाश तत्त्वज्ञान से होने का कहा उसमें यह विवेकपूर्ण मीमांसा करना आवश्यक है कि उपभोग से भी कर्म क्षीण होते हैं इस तथ्य का प्रतिपादक यह आगम वचन है कि'अब्जों युग बीत जाने पर भी भोग के विना कर्म का क्षय नहीं होता है। दूसरी और तत्त्वज्ञान से कर्मक्षय दिखाया जाता है। एक ही अर्थ के विषय में परस्पर विरुद्ध अर्थ के प्रतिपादक दोनों विधान में प्रामाण्य कैसे हो सकता है ? तथा उपभोग से ही कर्मक्षय होता है-इस तथ्य में अनुमान प्रमाण भी दिखाया जाता है-पूर्व कर्म उपभोग से ही क्षीण होते हैं क्योंकि वे कर्म हैं, जो जो कर्म होता है Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा 597 संसारानुच्छेदः, समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्यावगतकर्मसामोत्पादितयुगपदशेषशरीरद्वारावाप्ताशेषभोगस्य कर्मान्तरोत्पत्तिनिमित्तमिथ्याज्ञानजनितानुसन्धानविकलस्य कर्मान्तरोत्पत्त्यनुपपत्तेः / न च मिथ्याज्ञानाभावेऽभिलाषस्यैवाऽसम्भवाद् भोगानुपपत्तिः, तदुपभोगं विना कर्मणां प्रक्षयानुपपत्तेर्ज्ञानतोऽपि तदथितया प्रवृत्तेः वैद्योपदेशादातुरस्येवौषधाद्याहरणे, ज्ञानमप्येवमशेषशरीरोत्पत्तिद्वारेणोपभोगात कर्मणां विनाशे व्यापारादग्निरिवोपचर्यते इति व्याख्येयम्, न तु साक्षात / न चैतद वाच्यम्-तत्त्वज्ञानिनां कर्मविनाशस्तत्त्वज्ञानात् इतरेषां तूपभोगादिति, ज्ञानेन कर्मविनाशे प्रसिद्धोदाहरणाभावात् / न च मिथ्याज्ञानजनितसंस्कारस्य सहकारिणोऽभावात् विद्यमानान्यपि कर्माणि न जन्मान्तरशरीराण्यारभन्ते इत्यभ्युपगमः श्रेयान , अनुत्पादितकार्यस्य कर्मलक्षणस्य कार्यवस्तुनोऽप्रक्षयान्नित्यत्वप्रसवतेः / अथ अनागतयोर्धर्माधर्मयोरुत्पत्तिप्रतिषेधे तज्ज्ञानिनो नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं कथम् ? प्रत्यवायपरिहाराथम् / तदुक्तम्-[ ] नित्य-नैमित्तिकैरेव कुर्वाणो दुरितक्षयम् / ज्ञानं च विमलीकुर्वन्नभ्यासेन तु पाचयेत् // अभ्यासात् पक्वविज्ञान: कैवल्यं लभते नरः / केवलं काम्ये निषिद्धे च प्रवृत्तिप्रतिषेधतः / तदुक्तम्-नित्यनैमित्तिके कुर्यात् प्रत्यवायजिहासया। मोक्षार्थी न प्रवर्तते तत्र काम्य-निषिद्धयोः।। __ अत एव विपर्ययज्ञानध्वंसादिक्रमेण विशेषगुरणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूपमुक्त्यभ्युपगमे न तत्त्वज्ञानकार्यत्वादनित्यत्वं वाच्यम् , विशेषगुणोच्छेदस्य प्रध्वंसत्वात् तदुपलक्षितात्मनश्च नित्यत्वादिति, कार्यवस्तुनश्चाऽनित्यत्वम् / न च बुद्ध्यादिविनाशे गुणिनस्तथाभावः, तस्य तत्तादात्म्याभावात् / वह उपभोग से ही नष्ट होता हैं, उदा० शरीरजनक कर्म, पूर्व कर्म भी कर्मात्मक ही हैं इसलिये उपभोग से ही वे नष्ट हो सकते हैं। यदि शंका हो कि-उपभोग से यदि कर्मक्षय मानेंगे तो उपभोग से अन्य कर्मों का बन्ध भी अवश्य होने से संसार की परम्परा चलती ही रहेगी-तो यह ठीक नहीं है, समाधिबल से जिसने तत्त्वज्ञान कर लिया है वह कर्म के सामर्थ्य को (यह कर्म कितना उपभोग कराने में समर्थ है ऐसा) जानकर उसके अनुसार एक साथ उतने शरीरों को धारण कर लेता है और इस तरह कर्मफल का उपभोग कर लेता है फिर भी उसको नये कर्मों का बन्ध नहीं होता, क्योंकि नये कर्म की उत्पत्ति का निमित्त मिथ्याज्ञानजन्य 'देह में आत्मवृद्धि' स्वरूप अनुसन्धान है जो तत्त्वज्ञानी को नहीं होता है। [ तत्त्वज्ञानी की भी भोग में प्रवृत्ति युक्तियुक्त ] तत्त्वज्ञानी को भोगाभिलाषा होने का सम्भव ही नहीं है फिर वह भोग करेगा ही कैसे ? इस का उत्तर यह है कि तत्त्वज्ञानी यह जानता है कि उपभोग के विना कर्मक्षय होने वाला नहीं है, स्वयं कर्मक्षयार्थी होने के कारण तत्त्वज्ञानी की उक्त ज्ञान से ही उपभोग में प्रवृत्ति हो जाती है, उसके लिये भोगाभिलाषा की आवश्यकता नहीं है / जैसे दर्दी को कटु औषध पान की अभिलाषा न होने पर भी वैद्य के उपदेश से रोगनाश के लिये उसमें प्रवृत्ति होती है। तत्त्वज्ञान से मोक्ष होने का जा गीता में कहा है उसकी भी यही व्याख्या है कि कर्मनाश के लिये आवश्यक संपूर्ण कर्मव्यूह के द्वारा उस कर्म का भोग कर के नाश करने में तत्त्वज्ञान व्यापार रूप है इसीलिये उपचार से उसको अग्नि जैसा कहा है / वास्तव में वह अग्नि की तरह साक्षात् कर्मविनाशक नहीं है / अत: 'तत्त्वज्ञानीओं को कर्मनाश तत्त्वज्ञान से होता है और दूसरों को उपभोग से होता है'-यह कहने लायक नहीं रहा, क्योंकि ज्ञान से कर्म का नाश होने में कोई भी प्रसिद्ध उदाहरण ही नहीं है। कर्म की सत्ता रहने पर तत्त्वज्ञानी का Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ मोक्षावस्थायां चैतन्यस्याप्युच्छेदान्न कृतबुद्धयस्तत्र प्रवर्त्तन्त इत्यानन्दरूपात्मस्वरूप एव मोक्षोऽभ्युपगन्तव्यः / यथा तस्य चित्स्वभावता नित्या तथा परमानन्दस्वभावताऽपि / न चात्मनः सका. शाच्चित्स्वभावत्वमानन्दस्वभावत्वं वाऽन्यत् , अनन्यत्वेन श्रुतौ श्रवणात् "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" [बृहदा० उ०प्र०३, ब्रा०९ मं० 28 ] इति / तस्य तु परमानन्दस्वभावत्वस्य संसारावस्थायामविद्या पुनर्जन्म क्यों नहीं होता ऐसे प्रश्न का यह मानकर यदि समाधान किया जाय कि तत्त्वज्ञानी को मिथ्याज्ञानमूलक संस्कार रूप सहकारी कारण न होने से, पूर्व कर्मों के रहने पर भी नया जन्म नहीं लेना पडता है-तो यह समाधान ठीक नहीं है। क्योंकि कर्म स्वयं कार्यरूप है, जब तक उसका फल - - उत्पन्न नहीं होगा तब तक उसका विनाश भी नहीं होगा तो वे कर्म नित्य अवस्थित हो जाने की आपत्ति होगी / अर्थात् तत्त्वज्ञानी कभी कर्ममुक्त नहीं हो सकेगा। [नित्यनैमित्तिक अनुष्ठान का प्रयोजन ] यदि पूछा जाय कि जब आप तत्त्वज्ञान के बाद भावि धर्म-अधर्म की उत्पत्ति रुक जाने का कहते हैं तो फिर तत्त्वज्ञानी को नित्य (संध्योपासनादि) और नैमित्तिक (ग्रहण के दिन दानादि) कृत्यों को करने की जरूर क्या ? तो उत्तर यह है कि नित्य और नैमित्तिक कृत्य न करने पर जो नुकसान होने वाला है यानी अशुभ कर्मबन्ध होता है उससे बचने के लिये नित्य-नैमित्तिक कृत्य ज्ञानी को भी करना होता है / कहा है "नित्य और नैमित्तिक कृत्यों से पापकर्म का क्षय करता हुआ (साधक आत्मा) ज्ञान को निर्मल करता हुआ, अभ्यास से ज्ञान को परिपक्व करें।” “अभ्यास से ज्ञान परिपक्व हो जाने पर मनुष्य कैवल्य को प्राप्त करता है, काम्य और निषिद्ध कार्यों में प्रवृत्ति के रुक जाने से केवल होता है।" तथा कहा है कि-"नुकसान से बचने के लिये नित्य-नैमित्तिक कृत्य करते रहें, काम्य और निषिद्ध कृत्यों में मुमुक्षु की प्रवृत्ति नहीं होती है।" पूर्वोक्त अनुमान से इस प्रकार बुद्धि आदि विशेषगुणों के उच्छेद विशिष्ट आत्मस्वरूप मुक्ति का स्वीकार करने पर यदि कोई ऐसा कहें कि-विपर्ययज्ञान के क्रमश: नाश से तत्त्वज्ञान द्वारा उत्पन्न होने वाली मूक्ति तत्त्वज्ञान का कार्य होने से स्वयं भी (अनित्य%D) विनाशी होने की आपत्ति आयेग तो यह ठीक नहीं क्योंकि विशेषगुणोच्छेद तो ध्वंसात्मक है, इसलिये वह सदा स्थायी ही होता है और उससे उपलक्षित आत्मा स्वयं ही नित्य होता है। अनित्य वही होता है जो कार्यभूत होते हुए वस्तु (भाव)स्वरूप हो / ध्वंस कार्य होने पर भी भावात्मक नहीं है और आत्मा भावात्मक होने पर भी कार्यभूत नहीं है अत: अनित्यत्व की आपत्ति कहीं भी नहीं है। यह भी नहीं कह सकते कि-'बुद्धि आदि गुणों का नाश होने पर गुणवान् आत्मा भी नष्ट हो जायेगा'-क्योंकि गुण और गुणी का न्यायमत में तादात्म्य नहीं होता जिस से कि गुण के नाश से गुणी के नाश की आपत्ति हो / [ मुक्ति परमानन्दस्वरूप-वेदान्तपक्ष ] मोक्षावस्था में सुख की सत्ता मानने वाले प्रतिवादि यहाँ नैयायिक के समक्ष वाद प्रस्तुत करते कहते हैं कि-मोक्षावस्था में यदि चैतन्य का उच्छेद माना जाय तो फिर वुद्धिमान लोग मोक्ष के लिये प्रवृत्ति ही नहीं करेंगे, अतः आनन्दमय आत्मस्वरूप को ही मोक्ष मानना चाहिये / आत्मा में चैत Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्डका० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा संसर्गादप्रतिपत्तिरात्मनोऽव्यतिरिक्तस्यापि, यथा रज्ज्वादेव्यस्य तत्त्वाऽग्रहणाऽन्यथाग्रहणाभ्यां स्वरूपं न प्रकाशते यदा त्वविद्यानिवृत्तिस्तदा तस्य स्वरूपेण प्रकाशनम् , एवं ब्रह्मणोऽपि तत्त्वाऽग्रहाऽन्यथाग्रहाभ्या भेदप्रपञ्चसंसगोदानन्दादिस्वरूप न प्रकाशते / मुमुक्षयत्नेन तु यदाऽनाद्यविद्याव्यावृत्तिस्तदा स्वरूपप्रतिपत्तिः, सैव मोक्षः। अत एवोक्तम् - . "प्रानन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते" [ ] इति, 'ब्रह्मणः' इति च सुखस्य षष्ठया व्यतिरेकाभिधानेऽपि न भेदस्तन्महत्त्ववत , संसारावस्थायां स्वप्रतिभासात तया तस्य व्यतिरेकाभिधानम् / यथाऽऽत्मनो महत्त्वं निजो गुणो न च संसारावस्थायामात्मग्रहणेऽपि प्रतिभाति तद्वन्नित्य सुखमविद्यासंसर्गात् मुक्तेः पूर्वमात्माऽव्यतिरिक्त तद्धर्मो वा न प्रतिभाति / महत्त्ववत् सर्वेश्वरत्वं सदा प्रबुद्धत्वं सत्यसंकल्पादित्वं च ब्रह्मस्वभावमपि न प्रकाशते अविद्यासंसर्गात् / अनाद्यविद्योच्छेदे तु स्वरूपावस्थे ब्रह्मणि तेषां प्रतिभासस्तद्वत् परमानन्दस्वभावत्वस्यापीति / असदेतद्-अप्रमाणकत्वात् / तथाहि-न तावदेवंविधोऽभ्युपगमः प्रेक्षावताऽप्रमाणकोऽङ्गीकत्त युक्तः, अतिप्रसंगात् / प्रमाणदत्त्वे च प्रत्यक्षानुमानागमेभ्योऽन्यतमद् वक्तव्यम् / तत्र न तावत् प्रत्यक्षमेतदर्थव्यवस्थापकम् , अस्मदादीन्द्रियजन्यप्रत्यक्षस्यात्र वस्तुनि व्यापारानुपलम्भात् / 'योगिप्रत्यक्ष त्वेवं प्रवर्तते उतान्यथा' इत्यद्यापि विवादगोचरम् / न्यस्वभाव जैसे नित्य होता है वैसे परमानन्दस्वभाव भी नित्य ही होता है / तथा, आत्मा से चैतन्यस्वभाव अथवा सुखस्वभाव भिन्न नहीं है, उपनिषद् में उसे अभिन्न ही दिखाया गया है, जैसे कि बृहदारण्यक में कहा है कि 'ब्रह्म विज्ञान (मय) और आनन्द (मय) है'। यदि कहें कि-आनन्दस्वभाव नित्य है तो उसका अनुभव क्यों नहीं होता ?-तो उत्तर यह है कि आत्मा परमानन्दस्वभाव होने पर भी सांसारिक अवस्था में अनादिकालीन अविद्या के कुसंग के कारण आत्मा से अभिन्न होते हुए भी सुखस्वभाव का अनुभव संसारदशा में नहीं होता है। उदा०-कुछ तिमिर के संसर्ग से रज्जुद्रव्य के रज्जुत्व का ग्रहण नहीं होता है और सर्प के साथ सादृश्य के कारण उस से विपरीत सर्पत्व का ग्रहण होता है इसलिये रज्जु का स्वरूप विद्यमान होते हुए भी उसका प्रकाश नहीं होता है / जब अविद्या-तिमिर का विलय हो जाता है तब रज्जु के अपने यथार्थस्वभाव का प्रकाशन होता है / उसी तरह ब्रह्म का भी अपने स्वरूप से बोध न हो कर विपरीत स्वरूप से बोध जब होता है तब विविध वस्तुप्रपंच के संसर्ग से आनन्दमय स्वरूप प्रकाशित नहीं होता किंतु जब मुमुक्षु उद्यम करता है तब अविद्या का विलय होने पर आनन्दमय स्वभाव की अनुभूति होती है-यही वास्तव मोक्ष है / इसी लिये कहा गया है-"आनन्द ब्रह्म का रूप है और उसकी अभिव्यक्ति मोक्ष में होती है।" यहाँ 'ब्रह्म का आनन्द' इस प्रकार षष्ठी विभक्ति का प्रयोग कर के ब्रह्म और आनन्द का पृथक् पृथक् विधान होने पर भी वास्तव में उन दोनों में कोई भेद नहीं है, जैसे महत्त्व (महत्परिमाण) पथक नहीं होते / भेद न होने पर भी षष्ठो विभक्ति से आनन्द का पृथक विधान करने का प्रयोजन यह है कि संसारावस्था में उसका प्रतिभास नहीं होता है / उदाहरणरूपमें देखिये कि महत्त्व आत्मा का अपना गुण है. संसारावस्था में आत्मा का अनभव होने पर भी तद्गत महत्त्व का भान नहीं होता है, उसी तरह आत्मा से अभिन्न अथवा आत्मा के * धर्मभूत नित्य सुख का भो अविद्या के प्रभाव से मोक्ष के पूर्व अनुभव नहीं होता है / महत्त्व का जैसे Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 600 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 किंच, नित्यस्य सुखस्य तस्यामवस्थायामभिव्यक्तिरवश्यं संवेदनम्-अन्यथाऽभिव्यक्त्यभावात्तत्र च विकल्पद्वयं-नित्यमनित्यं वा तद् भवेत् ? A नित्यत्वे तस्य मुक्ति-संसारावस्थयोरविशेषप्रसंगः, संसारावस्थस्यापि नित्यसुखसंवेदनस्य नित्यत्वात् मुक्तावस्थायामपि तत्संवेदनादेव मुक्तत्वम् , तच्च संसार्यवस्थायामप्यविशिष्टम् / अपि च, करणजन्येन सुखेन साहचर्य संसार्यवस्थायां तस्य गृह्यत ततश्च सुखद्वयोपलम्भः, सर्वदा भवेत्। अथ धर्माधर्मफलेन सुखादिना नित्यसखसंवेदनस्य संसारावस्थायां प्रतिबद्धत्वान्नानुभवः, शरीरादिना वा प्रतिबन्धात् तन्नानुभूयते तेन न द्वयोरवस्थयोरविशेषः / नाऽपि युगपत सुखद्वयोपलम्भः / अयुक्तमेतत्-शरीरादे गार्थत्वान्न तदेव नित्यसुखानुभवप्रतिबन्धकारणम् , न हि यद् यदर्थं तत् तस्यैव प्रतिबन्धकं दृष्टम् / न च वषयिकसखानुभवेन नित्यसखानुभवप्रतिबन्धः सम्भवति / तथाहि-न तावत सुखस्य नापि तदनुभवस्य प्रतिबन्धोऽनुत्पत्तिलक्षणो विनाशलक्षणो वा युक्तः, द्वयोरपि. नित्यत्वाभ्युपगमात् / नापि संसारावस्थायां बाह्यविषयव्यासंगाद् विद्यमानस्याप्यनुभवस्याऽसंवेदनम् तदभावात्तु मोक्षावस्थायां संवेदनमित्यप्यस्ति विशेषः, नित्यसुखे ह्यनुभवस्यापि नित्यत्वाद् व्यासंगानुपपत्तेः। भान नहीं होता उसी तरह सर्वेश्वर्य, प्रबुद्धत्व और सत्यसंकल्पता आदि भी ब्रह्म के स्वभावभूत ही है किन्तु अविद्या के प्रभाव से उन का अनुभव नहीं होता है / अनादिकालीन अविद्या का ध्वंस होने पर ब्रह्म जब स्वस्वरूप में अवस्थित हो जाता है तब सर्वैश्वर्य प्रबुद्धत्व-सत्यसंकल्पता का जैसा अनुभव होता है वैसे परमानन्दस्वभाव का भी अनुभव होता है / [मुक्तिसुखवादिवेदान्तीमत का निरसन ] नैयायिक कहते हैं कि मुक्ति सुखस्वभावमय होने की बात गलत है चूंकि उसमें कोई प्रमाण ही नहीं है / जैसे देखिये-मुक्ति में सुख होने का मत प्रमाणशून्य होने से बुद्धिमानों के लिये स्वीकार पात्र नहीं है, प्रमाण के विना भी यदि कुछ भी मान लेंगे तो गर्दभसींग को भी मानने का अतिप्रसंग होगा। यदि मुक्ति के सुख में कोई प्रमाण है तो वह प्रत्यक्ष है, अनुमान है या आगमप्रमाण है यह कहना होगा / इनमें से प्रत्यक्षप्रमाण तो मुक्ति में सुख का सद्भाव सिद्ध नहीं कर सकता है / कारण, हम लोगों का इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ऐसे अतीन्द्रिय पदार्थ के ग्रहण में सक्रिय ही नहीं है / योगी का प्रत्यक्ष यद्यपि अतीन्द्रियार्थस्पर्शी होने पर भी वह 'मुक्ति में सुख का ग्राहक है या सुखाभाव का' इस विषय में अब भी विवाद जारी है। __ तदुपरांत, मुक्तावस्था में नित्य सुख की अभिव्यक्ति होने का जो कहा गया है उसमें अभिव्यक्ति का यही अर्थ करना होगा कि सुख का अवश्यमेव संवेदन = अनुभव करना, संवेदन से अन्य अथ को 'अभिव्यक्ति' ही नहीं कहा जा सकता। अब यहाँ दो विकल्प हैं-A नित्यसुख का संवेदन नित्य है या B अनित्य ? यदि वह नित्य होगा तो संसारावस्था में और मुक्ति दशा में कुछ भी फर्फ नहीं रहेगा। कारण, नित्यसुख का संवेदन भी नित्य होने से संसारावस्था में भी रहेगा, मुक्त दशा में भी मुक्तत्व तो नित्यसुखसंवेदनमय ही है और वह संसारावस्था में भी नित्य होने से ज्यों का त्यों है। तथा, संसारावस्था में हर हमेश दो प्रकार के सुख का एक साथ अनुभव प्रसक्त होगा नित्य सुख का संवेदन तो नित्य होने से है ही और दूसरा इन्द्रियजन्य सुख भी नित्यसुख के सहन्नारी रूप में अनुभव में आयेगा / जब कि दो सुखों का एक साथ उपलम्भ तो अनुभवविरुद्ध है / Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे पूर्व० 601 तथाहि-आत्मनो रूपादिविषयज्ञानोत्पत्तौ विषयान्तरे ज्ञानानुपपत्तिासङ्गः, एवमिन्द्रियस्याप्येकस्मिन् विषये ज्ञानजनकत्वेन प्रवृत्तस्य विषयान्तरेज्ञानाजनकत्वं व्यासङ्गः / न चैवमात्मनोरूपादिविषयज्ञानोत्पत्तौ नित्यसखे ज्ञानानुत्पत्तिः, तज्ज्ञानस्यापि नित्यत्वात् / शरीरादेस्तु सखप्रतिबन्धकत्वाभ्युपगमे तदपहन्तुहिंसाफलं न स्यात् / तथाहि-प्रतिबन्धविधातकृदुपकारक एवेति दृष्टान्तेन नित्यसुखसंवदेनप्रतिबन्धकस्य शरीरादेर्हन्तुहिंसाफलस्याभावः। B अथाऽनित्यं तत्संवेदनं तदा तदवस्थायां तस्योत्पत्तिकारणं वाच्यम् / अथ योगजधर्मापेक्षः पुरुषान्तःकरणसंयोगोऽसमवायिकारणम् / न, योगजधर्मस्याप्यनित्यतया विनाशेऽपेक्षाकारणाभावात् / अथाद्यं योगजधर्मादुपजातं विज्ञानमपेक्ष्योत्तरं विज्ञानं तस्माच्चोत्तरमिति सन्तानत्वम् / तन्न, प्रमाणाभावात् / तथा च शरीरसम्बन्धानपेक्षं विज्ञानमेवात्मान्तःकरणसंयोगस्यापेक्षाकारणमिति न दृष्टम् , न च दृष्टविपरीतं शक्यमनुज्ञातुम् / प्राकस्मिकं तु कार्य न भवत्येव / अथ मतम्-शरीरादिरहितस्यापि तस्यामवस्थायां योगजधर्मानुग्रहात सुखसंवेदनमुत्पद्यते। तथाहि-मुमुक्षुप्रवृत्तिरिष्टाधिगमार्था, प्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्तित्वात , कृषिबलादिप्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्तिवत्, एवं तेषां शास्त्रीय उपदेश इष्टाधिग [नित्यसुखसंवदेन में प्रतिबन्ध की अनुपपत्ति ] यदि ऐसा कहा जाय-"नित्य सुख का संवेदन संसारावस्था में धर्माधर्मफलभूत सुख-दुःख से अथवा तो शरीर से ही प्रतिरुद्ध हो जाता है इसलिए नित्य सुख का अनुभव उस वक्त नहीं होता। इस स्थिति में न तो संसारदशा-मुक्तदशा के तुल्यता की आपत्ति है, न तो एक साथ दो सुख ( नित्य और धर्म जन्य) के उपलम्भ होने की आपत्ति है-" तो यह बात अयुक्त है क्योंकि शरीरादि तो भोग के लिये ही उत्पन्न हुआ है ( अर्थात् सुखादिसाक्षात्कार का हेतु है ) अत: उनको नित्यसुखानुभव के प्रतिरोध का कारण नहीं कहा जा सकता, जो जिसके लिये (उत्पन्न) है वह उसका प्रतिरोधक बने ऐसा देखा नहीं है / तथा वैषयिक सुख का अनुभव भी नित्यसुख के अनुभव का विरोधी बने यह संभव नहीं। देखिये-प्रतिरोध का अर्थ है या तो वस्तु की उत्पत्ति को रोक देना, या उसका विनाश कर देना, यहां मुक्ति का सुख भी नित्य माना है, और उसका संवेदन भी नित्य माना है अत: दोनों में से किसी का भी प्रतिरोध शक्य नहीं है। यदि ऐसा कहें संसारावस्था में बाह्य विषय के व्यापंग से, विद्यमान भी सुखानुभव का संवेदन नहीं होता है जब कि मुक्तदशा में व्यापंग के न होने से नित्यसुखानुभव का संवेदन होता है यह संसारदशा और मुक्तदशा में फर्क है / तो यह ठीक नहीं, क्योंकि नित्यसुख का अनुभव भी नित्य होने पंग की बात ही अघटित है / देखिये-जब जीवों को एक रूपादिविषय का ज्ञान उत्पन्न होता है तब अन्य रसादिविषय का ज्ञान उत्पन्न नहीं होता- इसी का नाम व्यापंग है। अथवा, एक घटरूपादि विषय के ग्रहण में प्रवृत्त नेत्रेन्द्रिय का अन्य पटरूपादि विषय के ग्रहण में आभिमुख्य न होना इसीको व्यापंग कहते हैं / किन्तु यहाँ तो आत्मा के नित्यसुख का अनुभवज्ञान भी नित्य ही है, उसको उत्पन्न नहीं होना है, फिर रूपादिविषयक ज्ञान की उत्पत्ति के काल में नित्यसुखविषयक ज्ञान की उत्पत्ति न होने की बात ही संगत नहीं है / तथा शरीरादि को यदि सुख का प्रतिबन्धक मानेगे तो फिर सुख या सुखानुभव में विघ्न भूत शरीर का घात करने वाले को हिंसा का पाप नहीं लगेगा अर्थात् उसका फलभोग भी नहीं करना पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि विघ्न का नाश करने वाला तो उपकारक ही कहा Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 602 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 मार्थः, उपदेशत्वात् , तदन्योपदेशवत् , तदेतत् प्रतिपादितम्-"नोभयमनर्थकम्" [ इति, मोक्षसुखसंवेदनानभ्युपगमे प्रवृत्त्युपदेशयोन किंचित् फलं भवेत् / एतच्चाऽयुक्तम्-प्रवृत्त्युपदेशयोरन्यथासिद्धत्वात् / भवेत् साध्यसिद्धियथोक्ताद्धेतुद्वयात् यद्येकान्तेनैव प्रवृत्तेरुपदेशस्य च इष्टाधिगमार्थत्वं भवेत, तयोस्त्वन्यथापि दर्शनात नाभिमतसाध्यसाधकत्वम् / तथाहि-प्रातराणां चिकित्साशास्त्रा निष्ठायिनामनिष्टप्रतिषेधार्था प्रवत्तिदृश्यते उपदेशश्च, प्रतः कथमिष्टप्राप्त्यर्थता प्रवत्त्युपदेशयोः? ! किंच, इष्टाऽनिष्टयोः साहचर्यमवश्यम्भावि, अतो यदीष्टाधिगमार्था प्रवत्तिस्तदा बलात तस्यामधस्थायामनिष्टसंवेदनमापतति, न हीष्टमनिष्टाननषक्तं क्वचिदपि विद्यते / तस्मादनिष्टहानार्थायामपि प्रवृत्ताविष्टं हातव्यम् , तयोविवेकहानस्याऽशक्यत्वात् / किंच, दृष्टबाधश्न तुल्यः / तथाहि-यथा मुक्त्यवस्थायामनित्यं सुखमतिक्रम्य नित्यमुपेयते प्रमाणशून्यं तद्विरुद्धं च, तथा शरीरादिन्यपि नित्यसुखभोगसाधनानि वरं कल्पितानि, एवं मुक्तस्य नित्यसुखप्रतिपत्तिः साध्वी स्यात् / अथ जाता है-इस न्याय से नित्यसुख के संवेदन में विघ्नभूत शरीरादि का ध्वंस कर देने वाले को हिंसा (पाप) का फल (दुःख) नहीं भुगतना पड़ेगा। [ अनित्य सुखसंवेदन की मुक्ति में अनुपपत्ति ] __B अब यदि कहें कि-'नित्यसुख का संवेदन अनित्य है'-तो मुक्तावस्था में उसका उत्पादक कौन है यह कहना होगा / यदि योगजनितधर्म से सापेक्ष आत्मा-अन्त:करण का संयोग असमवायिकारण उत्पादक बनेगा-ऐसा कहा जाय तो यह संगत नहीं है क्योंकि योगजनित धर्म स्वयं ही अनित्य होने से नाशवंत है अतः उस अपेक्षाकारण के अभाव में वह कैसे उत्पन्न होगा? यदि कहें कि-योगजधर्म भले ही नाशवंत हो किन्तु उससे जो आद्य संवेदन (विज्ञान) उत्पन्न होगा उस विज्ञान से ही अपर अपर विज्ञान सन्तानक्रम से उत्पन्न होता रहेगा-तो यह ठीक नहीं क्योंकि इस बात में कोई प्रमाण ही नहीं है / तात्पर्य यह है कि देहसम्बन्ध के अभाव में आद्य विज्ञान ही उत्तर-विज्ञान की उत्पत्ति में आत्मा अन्तःकरणसंयोगरूप असमवायिकारण का ( योगजधर्म के बदले ) अपेक्षा कारण बन जाय ऐसा कहीं दृष्ट नहीं है और दृष्ट विपरीत कल्पना में सम्मति नहीं दी जा सकती। और कार्य की अकस्मात् (विना किसी हेतु से) उत्पत्ति हो जाय यह भो शक्य नहीं। [ मुमुक्षु की प्रवृत्ति इष्ट प्राप्ति के लिये या अनिष्टत्याग के लिये ] कदाचित् यह अभिप्राय हो कि-मोक्षावस्था में शरीरादि के न होने पर भी योगजनित धर्म के प्रभाव से सुख का संवेदन हो सकता है / देखिये, मुमुक्ष की प्रवृति इष्ट की प्राप्ति के लिये ही होती है, क्योंकि मुमुक्षु बुद्धिपूर्वक काम करता है / उदा० बुद्धिपूर्वक काम करने वाले किसान की प्रवृत्ति / तथा यह भी एक अनुमान है कि शास्त्रों का उपदेश इष्ट को प्राप्त कराने के लिये है क्योंकि यह उपदेश है जैसे माता-पिता का उपदेश / इससे यह कहना है कि मुमुक्षु की प्रवृत्ति और शास्त्र का उपदेश दोनों निरर्थक नहीं (किन्तु सार्थक होते) हैं। अब यदि मुक्तिदशा में सुख का संवेदन नहीं स्वीकारेंगे तो मुक्ति के लिये उपदेश और तदर्थ प्रवृत्ति दोनों व्यर्थ हो जायेंगे क्योंकि सुख के सिवा उनका और तो कोई संभवित फल ही नहीं। किन्तु यह अभिप्राय युक्त नहीं है क्योंकि उपदेश और प्रवृत्ति दोनों का सुख ही अन्तिम फल माना जाय और अन्य कुछ नहीं ऐसा कोई बन्धन नहीं है, अर्थात् अन्य (दुखाभावादि) फल से उप Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे पूर्व० शरीरादोनां कार्यत्वात् कथं नित्यता ? प्रमाणबाधितत्वाच्छरीरादीनां नित्यत्वमशक्यं साधयितुम् / नन्वेतत् सुखेऽपि समानम् , दृष्टस्य सुखस्योपजननाऽपायधर्मकस्य तद्वैकल्यं प्रमाणबाधितत्वात् कथं परिकल्पयितुं शक्यम ? अथ स्यादेष दोषः यदि दृष्टस्येव सखस्य नित्यत्वमस्माभिरुपेयेत यावता दृष्टसखव्यतिरिक्तमात्मधर्मत्वेनाभिमतं नित्यं ततश्च कथं दृष्टविरोधः? असदेतत् , तत्र प्रमाणाऽभावादित्युक्तत्वात् / यदप्यनुमानं तत्सिद्धये प्रदर्शितं तदपि प्रवृत्तेरनिष्टप्रतिषेधार्थत्वान्नैकान्तेनाऽभिमतसाध्यसाधकम् / मा भूदनुमानम्, आगमस्तु नित्यसुखसाधकस्तस्यामवस्थायां भविष्यति, तथा च पूर्वमुक्तम् "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" इति, असदेतत् ; तदागमस्यैतदर्थत्वाऽसिद्धः / अथापि कथंचिद् नित्यसुखप्रतिपादकत्वं तस्याभ्युपगम्यते तथाप्यात्यन्तिके संसारदुःखाभावे सुखशब्दो गौणः, न तु नित्यसुखप्रतिपादकत्वाद् मुख्यः / अथ कथं दु खाभावे सुखशब्द उपेयते ? लोकव्यवहाराद्धि शब्दार्थसम्बन्धावगमः, सुखशब्दश्च दुःखाभावे लोकेऽनवगतसम्बन्धः कथमागमे दुःखाभावं प्रतिपादयति ? नंषः दोषः, न हि लोके मुख्य एवार्थे प्रयोगः शब्दानां किन्तु गौणेऽपि / तथाहि-दुःखाभावेऽपि सुखशब्दं प्रयुञ्जानाः लोका उपलभ्यते, यथा ज्वरादिसन्तप्ता यदा ज्वरादिभिविमुक्ता भवन्ति तदाऽभिदधति 'सुखिनः संवृत्ता स्मः' इति / किंच, इष्टार्थाधिगमार्थायां च मुमुक्षोः प्रवृत्तौ रागनिबन्धना तस्य प्रवृत्तिर्भवेत् , ततश्च न मोक्षावाप्तिः, क्लेशानां बन्धहेतुत्वात् / देशादि की व्यर्थता दूर हो जाने से सुख के प्रति वे अन्यथासिद्ध है। उपरोक्त दो अनुमान से तो साध्यसिद्धि का तभी संभव था यदि प्रवृत्ति और उपदेश एकान्ततः इष्ट प्राप्ति के लिये ही होने का नियम होता / इष्टप्राप्ति का उद्देश न होने पर उपदेश और प्रवृत्ति देखी जाती है अत: पूर्वोक्त दोनों हेतु साध्यद्रोही होने से उनसे इष्ट साध्य की सिद्धि होना दूर है। देख लो, चिकित्साशास्त्रोक्त उपायों को आचरने वाले रुग्ण मानवों की प्रवृत्ति अनिष्टभूत रोग के प्रतिकार के लिये ही होती है, कुछ पाने के लिये नहीं। उपरांत, चिकित्साशास्त्रों का उपदेश भी रोगनाश के लिये ही है। फिर कैसे कहा जाय कि उपदेश और मुमुक्षु की प्रवृत्ति इष्टप्राप्ति के लिये ही होती है और अन्य किसी के लिये नहीं ??! [अनिष्टाननुषक्त इष्ट का सद्भाव नहीं होता] तथा, यह भी अवश्य मानना पड़ेगा कि इष्ट और अनिष्ट दोनों एक-दूसरे के अवश्य सहचारी है, फलतः यदि इष्ट प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति करेंगे तो उस अवस्था में अनिष्ट का संवेदन न इच्छने पर भी आ पड़ेगा, क्योंकि अनिष्ट से सर्वथा असम्बद्ध ऐसा कोई इष्ट है ही नहीं। [ इष्टमात्र अनिष्टानुषंगी ही है। ] अतः अनिष्ट से बचने के लिये प्रवृत्ति करने पर तदनुषंगी इष्ट को भी छोडना ही होगा क्योंकि इष्ट से अनिष्ट को अलग करके उसका त्याग करना शक्य नहीं है / तथा दृष्ट बाध भी प्रसक्त है / अर्थात् मुक्ति में अनित्यसुख से विपरीत नित्य सुख मानने में प्रत्यक्ष बाध भी है / यदि अनित्यसख को न मान कर मुक्ति अवस्था में नित्य सख मानना है जिसमें न केवल प्रमाण अभाव ही है अपितु प्रमाणविरोध भी है, तो फिर नित्यसखभोग के साधनभूत नित्यशरीरादि की कल्पना भी सुन्दर ही कही जायेगी, वाह ! कितनी सुन्दर है आपकी नित्यसुख की मान्यता !!! इस प्रकार नित्य शरीर और नित्य सुख की कल्पना में दृष्टबाध तो समान ही है / यदि कहें कि-शरीरादि तो काय हैं वे कैसे नित्य हो सकते हैं ? शरीरादि की नित्यता प्रमाणबाधित होने से सिद्ध करना अशक्य है। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 604 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ वदेत्-यथा सुखरागनिबन्धनायां प्रवृत्तौ रागस्य बन्धनहेतुत्वात् मोक्षाभावस्तथा दुखाभावार्थायामपि, तत्रापि दुःखे तत्साधने वा दोषदर्शनाद् द्विष्टस्तदभावाय प्रवर्तते / यथा च रागक्लेशो बन्धनहेतुस्तथा द्वेषोऽपीत्यविशेषः / यच्चोक्तम् 'दुखाभावे सुखशब्दप्रयोगात्, तदभाव एव सुखम्'तदयुक्तम् , युगपत् सुख-दुःखयोरनुभवात् यथा ग्रीष्मे सन्तापतप्तस्य क्वचिच्छीते हृदे निमग्नार्द्धकाय-तो फिर क्या यह बात सुख के लिये भी समान नहीं है ? जो दृष्ट सुख है वह तो उत्पत्तिविनाशधर्मक ही है, तो फिर सुख में प्रमाण से बाधित उत्पत्तिविनाश शून्यता की कल्पना भी कैसे की जाय ? कदाचित् ऐसा कहें कि-यदि हम दृष्ट सुख में ही नित्यत्व की कल्पना करे तब तो उक्त दोष का प्रसंग ठीक है, किन्तु हम तो दृष्ट सुख से सर्वथा विजातीय आत्मधर्मरूप नित्य सुख को मान लेते हैं तो उसमें दृष्टविरोध कैसे ?-तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि पहले ही हमने कह दिया है कि नित्य सुख में कुछ प्रमाण नहीं है / तथा नित्य सुख की सिद्धि में जो अनुमान आपने दिखाया है वह भी एकान्त से आपके इष्ट साध्य का साधक नहीं हो सकता क्योंकि प्रवृत्ति सीर्फ इष्ट प्राप्ति के लिये ही नहीं, अनिष्ट के प्रतिकार के लिये भी होती है। [आगम से नित्यसुख की सिद्धि अशक्य ] __यदि कहें कि-अनुमान से सिद्धि न होने पर भी मुक्ति दशा में नित्य सुख के साधक आगम का तो अभाव नहीं है, पहले कहा ही है-"ब्रह्म विज्ञानमय और आनन्दमय है" यह वेदवाक्य है। तो यह गलत है, क्योंकि इस आगम वाक्य का 'मुक्ति में नित्य सुख है' ऐसा अर्थ ही नहीं / कदाचित् आपका आग्रह हो कि उक्त आगम वाक्य का 'मुक्ति में नित्य सुख है' ऐसा ही अर्थ है, तो फिर सुख शब्द को आत्यन्तिक दुःखाभावरूप अर्थ में औपचारिक समझना होगा, नहीं कि नित्यसुख के अर्थ में मुख्य / यदि कहें कि-सुखशब्द का दुःखाभाव अर्थ कैसे माना जाय ? शब्द और अर्थ के सम्बन्ध का अवबोध लोकव्यवहार से ही होता है। सुख शब्द का दुखाभाव अर्थ के साथ सम्बन्ध लोक में प्रसिद्ध नहीं है तो फिर आगम में प्रयुक्त सुख शब्द से दुःखाभावरूप अर्थ का प्रतिपादन कैसे होगा?-तो यह कोई दोष जैसा नहीं है क्योंकि लोक में सीर्फ मुख्य अर्थ में ही शब्दों का प्रयोग नहीं होता किन्तु गौण अर्थ में भी होता है / जैसे देखिये कि लोक में दुखाभाव अर्थ में भी सुखशब्द का प्रयोग देखा जाता है / जब ज्वरादिरोगग्रस्त लोग ज्वरादि के पंजे में से छूटते हैं तब बोलते हैं कि 'अब हम सुखी हुए' / तदुपरांत यह तो सोचिये कि यदि इष्ट प्राप्ति के लिये मुमुक्षु की प्रवृत्ति को मानेंगे तो वह प्रवृत्ति रागमूलक हो होगी, तो रागमूलक प्रवृत्ति से मोक्ष कैसे प्राप्त होगा? राग तो क्लेश है और क्लेश तो बन्धहेतु है। [दुःखाभावार्थक प्रवृत्ति मानने में मोक्षाभाव की आपत्ति ] मुक्तिसुखवादी यहां पूर्वपक्ष करते हैं- . - "सुखरागमूलक प्रवृत्ति मानने में मुक्ति नहीं प्राप्त होगी क्योंकि राग बन्धन का कारण हैऐसा जो नैयायिकने कहा है उसके सामने यह भी कहा जा सकता है कि दु:खाभाव के लिये प्रवृत्ति मानने में भी मुक्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि दुःख या उसके साधन के दोषदर्शन से द्वेष जगने पर ही दुःखनाश के लिये प्रवृत्ति होगी, तो रागात्मक क्लेश जैसे कर्मबन्धकारक है वैसे द्वेष भी कर्मबन्धकारक ही है / यह भी जो कहा है कि सुखशब्द का प्रयोग दुःखाभाव अर्थ में किया गया होने से दुःखाभाव ही सुख है / यह ठीक नहीं है, क्योंकि सुख और दुःख का एक साथ अनुभव होता है ( दुःख Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे पूर्व० स्याङ्के निमग्ने सुखमन्यत्र दुःखम् / अथ मतम्-यत् तदर्धे निमग्ने तद् दुःखाभावः सुखमन्यत्र दुःखम् इति, तर्हि नारकाणां सुखित्वप्रसंगः, क्वचिन्नरके दुःखानुभवादन्यनरकसम्बन्धिदुःखाभावाच्च / तथा, अनेकेन्द्रियद्वारस्य दुःखस्य केनचिदिन्द्रियेण दुःखोत्पादेऽन्येनाऽजनने सुखित्वप्रसङ्गः। अपि च, प्रदुःखितस्यापि विशिष्टविषयोपभोगात सुखं दृष्टं तत्र कथं दुःखाभावः सुखम् ? यत्रापि दुःखसंवेदनपूर्व यथा क्षुददःखे भोजनप्राप्तौ तृप्तस्य तद्विनिवृत्तः, तत्राप्यन्नपानयोविशेषात सुखविशेषो न भवेत् , दृश्यते च - लौकिकानां तदर्थमन्नादिविशेषोपादानम् , अन्यथा येन केनचिदन्नमात्रेण च क्षुदुखनिवृत्तौ नानपानविशेष लौकिका उपाददोरन् / सुखस्य च भावरूपत्वात सातिशयत्वे तत्साधनविशेषो युज्यते, दुःखाभावस्य तु सर्वोपाख्याविरहलक्षणत्वात् कि साधनविशषेण ? येप्येवमुपागमन् 'यदाऽपि पूर्व दुःखं नास्ति तदाप्यभिलाषस्य दुःखस्वभावत्वात् तन्निबर्हरणस्वभावं सुखम्" तेऽपि न सम्यक् प्रतिपन्नाः, यतोऽनभिलाषस्य विषयविशेषसंवित्तौ न सुखिता स्यात् , दृश्यते तस्यामप्यवस्थायां रमणीयविषयसम्पर्के ह्लादोत्पत्तिः। तत्रैतत् स्यात्-, “यत्रैवाभिलाषः स एव विषयोपभोगेन सुखी, नान्यः, तदभिलाषनिवृत्त्यैव विषयाः सुखयितारोऽन्यथा यदेकस्य सुखसाधनं तदविशेषेण सर्वेषां स्यात् / यदा तु कामनिवृत्त्या सुखित्वं तदा यस्यैवाभिलाषो यत्र विषये स एव तस्य सुखसाधनं नान्यः, अतश्च यदुक्तम् 'अकामस्यापि क्वचिद्विषयोपभोगे सुखित्वदर्शनान्न कामाख्यदुःखनिवृत्तिरेव सुखम्' तदयुक्तम् , तत्राऽकामस्यापि विशिष्टविषयोपभोगात कामाभिव्यक्ती तन्निवृत्तेरेव सुखत्वादिति ।"-एतदप्ययुक्तम्, यतो नावश्यं विषयोपभोगोऽभिलाषनिबर्हणः / यथोक्तम्-| महाभा० आ० 50 प्र०७६ श्लो० 12] न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति / हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते / / और दु:खाभाव का कभी एक साथ अनुभव नहीं हो सकता ) / उदा० ग्रीष्मऋतु में सन्ताप से उत्तप्त पुरुष किसी शितल जलकुंड का अवगाहन करते हैं तब जल में निमग्न अर्ध देह में तो सुखानुभव होता है और बहार रहे अर्ध देह में दुःखानुभव होता है। यदि ऐसा माने कि-जलनिमग्न अर्धदेह में ख है वह दुःखाभावरूप ही है और बाहर के अर्धदेह में तो दुःख ही है, सुख जैसा कुछ है नहीं"तो फिर नारकी के जीवों को 'सुखी' मानने की आपत्ति होगी क्योंकि किसी एक नरक में जब जीव को दुःखानुभव हो रहा है उसी वक्त अन्य नरक के दुख के अभाव का अनुभव भी है अत: वे जैसे दुःखी कहे जाते हैं वैसे सुखी भी क्यों न कहे जाय ? उपरांत, दुःख क्रमशः अनेक इन्द्रियों से होता है, किन्तु कभी एक इन्द्रिय से दुःख होने पर यदि अन्य इन्द्रियों से दुःखोत्पाद नहीं होगा तो दु:खाभाव अर्थात् सुखी होने की आपत्ति होगी। यह भी सोचिये कि जो तनिक भी दुःखी नहीं है उसे भी उत्कृष्ट विषयोपभोग से सुख होने का प्रसिद्ध ही है, अब वहां दुःखाभाव ( यानी दुःखध्वंस ) न होने पर यह सुख कैसे होगा ? तथा जहाँ दुःखसंवेदन के बाद विषयोपभोग से सुख होता है, जैसे कि भूख के दुःख को कुछ देर तक सहन करने के बाद भोजन प्राप्ति होने पर तृप्ति होने से दुःख संवेदन टल जाने पर सुख होता है, वहाँ यदि सिर्फ दुःखानुभव को ही मान्य किया जाय तो वहाँ विशिष्ट अन्न-पान से जो विशिष्ट-सुखानुभव होता है वह नहीं होगा। विशिष्ट सुखास्वाद के लिये लोक में विशिष्ट अन्नादि का उपभोग देखते भी हैं / सिर्फ भूख के दुःख को टालने का ही प्रयोजन होता तब सामान्य कोटि के अन्नादि से भी Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तथा तत्र भगवता पतञ्जलिनाऽप्युक्तम्-भोगाभ्यासमनुवर्धन्ते रागा:, कौशलानि चेन्द्रियाणाम् [पात० यो० पा० 2 स० 15 व्यासभाष्ये ] इति / अपि च, अन्यथाप्यभिलाषनिवृत्तिष्टा यथा विषयदोषदर्शनात , तत्रापि भवतां मते विषयोपभोगतुल्यं सुखं भवेत् , तुल्ये चाभिमतार्थलाभे सुखविशेषो न स्यात् , अभिलाषनिवृत्तेरविशेषात् / / उसकी निवृत्ति शक्य होने पर भी विशिष्ट मिष्टान्नादि के लिये लोगों की प्रवृत्ति होती है वह न होती। तथा, सुख भावरूप होने से उसमें तर-तमभाव हो सकता है अतः विशिष्ट (सातिशय) सुख के लिये विशिष्ट प्रकार के साधनों की खोज करना युक्तियुक्त है किंतु दुःखाभाव तो सर्व उपाख्या ( अवान्तर जातिभेद) से शून्य है, तो उसके लिये विशिष्टि साधनों की क्या आवश्यकता ? [ रमणीयविषयों से सुखविशेष की सिद्धि ] जिन लोगों ने ऐसा माना है कि-"पूर्व में जब दुःख संवेदन नहीं होता और विषयोपभोग से सुखानुभव होता है वहाँ भी विषयोपभोग की इच्छा जो कि दुःखस्वरूप ही है उसका निवर्तन ही सुखस्वभावरूप में संविदित होता है-" तो यह उनकी मान्यता गलत है, क्योंकि जिसको विषयोपभोग की इच्छा तक नहीं है और विशिष्ट विषय का संवेदन होता है उसको सुखानुभव न होने की आपत्ति होगी क्योंकि वहाँ इच्छानिवत्तन स्वरूप दुःखाभाव का सम्भव ही नहीं है। अभिलाष न होने की . दशा में भो मनोहर विषय के सम्पर्क से सुखानुभव होता है यह तो प्रसिद्ध हो है। [ अभिलापनिवृत्ति द्वारा सुखानुभव की शंका ] अगर यहाँ शंका करें कि-- - जहाँ विषयाभिलाष होता है वहाँ ही विषयोपभोग से सुखानुभव होता है, दूसरे को नहीं होता ऐसा नियम है / कारण, विषयभोग के अभिलाष की निवृत्ति के द्वारा ही विषयवृद सुखानुभव कारक होता है / यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो एक व्यक्ति को जिस साधन से सुखानुभव होता है उस साधन से सभी को समानरूप से सुखानुभव होने की आपत्ति होगो ( वास्तव में यह देखा जाता है कि एक वस्तु से किसी को सुख होता है तो दूसरे को दुःख भी होता है ) / इच्छा की निवृत्ति से ही सुखानभव का नियम माना जाय तब यह उक्त आपत्ति नहीं होगी क्योंकि जिस व्यक्ति को जिस विषय का अभिलाष होगा, उस व्यक्ति के लिये ही वह विषय सुख का साधन होगा अन्य के लिये नहीं। अतएव यह जो आप कहते हैं कि निष्काम व्यक्ति को भी कभी कभी विषयोपभोग से सुखानुभव होने का प्रसिद्ध होने से 'कामस्वरूप दुःख की निवृत्ति' यही सुखरूप नहीं है। यह बात गलत है, क्योंकि निष्काम व्यक्ति को भी विशिष्ट विषय के उपभोग से इच्छा उत्पन्न हो जाती है यह उक्त नियम के बल से मानना ही पड़ेगा, अत: कामनिवृत्ति को ही सुखस्वरूप मानने में कोई आपत्ति नहीं है / [भोग से इच्छानिवृत्ति अशक्य ] किन्तु यह शंका भी गलत है क्योंकि विषयोपभोग से विषयभोगेच्छा की निवृत्ति होने का कोई सुदृढ़ नियम ही नहीं है / जैसे कि महाभारत में कहा गया है ___'कमनीय विषयों के उपभोग से कामना कभी शान्त नहीं होती / जैसे कि इन्धन से कभी अग्नि शान्त नहीं होता, उलटे उसकी अत्यधिक वृद्धि होती है ।'-योगसूत्रकार भगवान् पतंजली ने भी कहा है कि बार बार भोग करने से राग की वृद्धि होती है और इन्द्रियों के कौशल की भी। . Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे पूर्व० 607 अथ वदेव-अभिलाषातिरेके तन्निवृत्तौ सुखातिरेकाभिमानोऽन्यत्रान्यथेति। तदप्यसाम्प्रतम् , यतोऽभिलाषातिरेकात प्रयस्यन्तं प्राप्तोऽर्थो न तथा प्रीणयति यथाऽप्रार्थितो विना प्रयासादुपनतः। एवमेव च लोकव्यवहारः-यत्नशतावाप्तेऽर्थे क्ले शप्राप्तोऽयमिति न तेन तथा सुखिनो भवन्ति यथाऽनाशंसितप्राप्तेन / तन्न दुःखाभावमात्रं सुखं किन्तु तव्यतिरेकेण स्वरूपतः सुखमस्तीति / . तदसमीचीनम्-न हि अस्माकं दुःखाभाव एव सुखम् , तथा च भाष्यकृता तत्र तत्राऽभिहितम्"न सर्वलोकसाक्षिकं सुखं प्रत्याख्यातु शक्यम्" [ ] / तथाऽन्यत्राप्युक्तम्-"न प्रत्यात्मवेदनीयस्य सुखस्य प्रतीतेः प्रत्याख्यानम्" [ ] / एवं चानभ्युपगतस्य पक्षस्योप (1)लम्भः, प्रकृते तु सुखे प्रतिपाद्यते दुःखाभावमात्रे सुखशब्दो न तु सुखे एव, तस्य प्रमाणतोऽनुपपत्तेः। तथा च मुक्तस्य नित्यसुखाभिव्यक्ती प्रत्यक्षाऽनुमानयोनिषेधे आगममात्रमवशिष्यते तस्य च गौणत्वेनाप्युपपत्तेन मुख्यस्य सुखस्य सम्भवः / / नित्यसुखाभ्युपगमे च विकल्पद्वयम्-A किं तद् प्रात्मस्वरूपं स्वप्रकाशम् , B उतस्वित् तद्व्यतिरिक्तं प्रमाणान्तरप्रमेयम् ? A पूर्वस्मिन् विकल्पे प्रात्मस्वरूपवत् स्वप्रकाशसुखसंवित्तिः सर्वदा भवेत, ततश्च बद्ध-मुक्तयोरविशेषः / तत्रतत् स्यात-'अनाद्यविद्याच्छादितत्वात् स्वप्रकाशानन्दसंवित्तिः न संसारिणः, यदा तु यत्नादनादेरविद्यातत्त्वस्यापगमस्तदाच्छदकाभावात् स्वप्रकाशानन्दसंवेदनम्' ।एतदपेशलम् प्राच्छाद्यते ह्यप्रकाशस्वभावम् , यनु स्वप्रकाशरूपं तत् कथमन्येनाच्छाद्येत? ___ तदुपरांत, विषयभोग के विना भी कामना को निवृत्ति प्रसिद्ध है जैसे कि विषयों के दोषों का चिन्तन करने से / आप तो कामना की निवृत्ति को ही सुख मानते हैं अतः आपके मत से तो विषयदोष चिन्तन से भी इच्छानिवृत्तिरूप सुख का अनुभव प्रसक्त होगा / तथा दो व्यक्ति को इष्ट वस्तु की प्राप्ति तुल्यरूप से होने पर, दोनों को जो तरतमभाव से सुखानुभव होता है वह नहीं होगा क्योंकि कामना की निवृत्ति तो दोनों को समान है। - [ अभिलाषतीव्रता से तीव्रमुखाभिमान की शंका गलत ] ... यदि कहें कि-"सुख में जो न्यूनाधिकता का अनुभव होता है वह अभिमानमात्र है। तात्पर्य यह है कि जब विषयोपभोग की इच्छा तीव्र होती है और विषयभोग से उसकी निवृत्ति होती है तब सुख (दुखाभाव) में अधिकता का अभिमान होता है और इच्छा मन्द रहने पर सुख में न्यूनता का अभिमान होता है / अतः वास्तव में न्यूनाधिकता के बल से सख की दुःखाभाव से अतिरिक्त रूप में सिद्धि नहीं हो सकती।"-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि तीव्र कामना से प्रयास करने के बाद जो अर्थप्राप्ति होती है उससे इतना आह्लाद नहीं होता जितना इच्छा न होने पर भी अनायास अर्थप्राप्ति सेहोता है / लौकिक व्यवहार भी ऐसा ही है कि सैंकड़ों यत्न करने पर अगर अर्थप्राप्ति होती है तो कहते हैं कि महा कष्ट से यह प्राप्त हुआ, अर्थात् वहां मनुष्य इतना सुखी नहीं होता जितना इच्छा के विना ही प्राप्त हो जाने पर होता है। [ मुक्तिसुखवादी का पूर्वपक्ष समाप्त ] [दुःखाभाव अर्थ में भी सुखशब्दप्रयोग होता है-नैयायिक उत्तर पक्ष ] मुक्तिसुखवादी का यह पूर्वपक्षवक्तव्य असंगत है / कारण हम सिर्फ दुःखाभाव को ही सुख नहीं मानते हैं किन्तु तदतिरिक्त सुख भी मानते हैं जैसे कि भाष्यकार ने ही भिन्न भिन्न स्थल में कहा हैसर्वलोक जहाँ साक्षि है वैसे सुख का निषेध शक्य नहीं। तथा ओर भी एक स्थान में कहा है-प्रत्येक Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 608 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 येऽपि प्रतिपेदिरे "मेघादिना सवितृप्रकाशः, सविता वा स्वप्रकाश एवाऽऽच्छाद्यते" तेऽपि न सम्यक संचक्षते / न स्वप्रकाशस्य मेघादिनाऽऽवरणम , आवतत्वे हि तेनाहोरात्रयोरविशेषो भवेत दृश्यते च विशेषः, तस्मान्न कस्यचित् स्वप्रकाशस्यावृतिः / अपि च, मेघादेस्ततोऽर्थान्तरत्वादावारकत्वं युक्तम् , अविद्यायास्तु तत्त्वाऽन्यत्वेनाऽनिर्वचनीयत्वेन तुच्छस्वभावत्वात् न स्वप्रकाशस्वभावे आनन्दे आवरणशक्तिः / तत् सर्वदा स्वप्रकाशानन्दानुभवप्राप्तिः धर्माऽधर्मजनिताभ्यां च सुख-दुःखाभ्यां सह युगपत् संवेदनं प्रसक्तम् , न चैतद् दृश्यते, तस्मान्न पूर्वो विकल्पः / B नाप्युत्तरः, प्रतिपादकस्य प्रत्यक्षादेनिषिद्धत्वात् बाधकस्य च प्रदर्शितत्वात् / अतस्तत्प्रतिपादक आगमः प्रमाणविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वाद् गौणत्वेन व्याख्यायते शास्त्रदृष्टविरुद्धान्यवाक्यवत् / एतच्चाभ्युपगम्योक्तम् , न तु सुखस्य बोधस्वभावताऽपि विद्यते, तत्स्वभावतानिराकरणात् / जीव को अनुभव में आने वाले सुख का निषेध नहीं है। [ द्रष्टव्य वात्स्या० भा० 4-1-56 और न्यायवा० 1-1-21] / अतः पूर्व पक्षी ने प्रकृत सुख के प्रकरण में जो दोषारोपण किया है। वह हमारी मान्यता के ऊपर नहीं किन्तु हमें अमान्य सिद्धान्त के ऊपर ही हया। हमारा मत तो यह है कि सुख शब्द का प्रतिपादन सिर्फ सुख के लिये ही नहीं समस्त दुःखाभाव के लिये (भी) होता है, क्योंकि सीर्फ सुख में ही सुखशब्द का प्रयोग प्रमाण से सिद्ध नहीं है / जब दुःखाभाव के लिये भी सुख शब्द का प्रयोग होता है तो आगम में जो सुख शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है वह औपचारिक यानी दुःखाभाव विषयक भी माना जा सकता है, क्योंकि मुक्तात्मा को नित्य सुख की अभिव्यक्ति मानने में प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण तो निषिद्ध ही है, सिर्फ आगमप्रमाण ही बचता है। निष्कर्ष, प्रत्यक्ष और अनुमान से स्वतंत्र (मुख्य) नित्य सुख की सिद्धि न होने से तथा आगम से गौण सुख का प्रतिपादन होने से अब नित्य सख की संभावना नहीं रहती। तथा नित्यसुख को मानने में दो विकल्प हैं-A नित्यसुख क्या स्वयंप्रकाशी आत्मस्वरूप है B या आत्मस्वरूप से भिन्न एवं अन्यप्रमाण से बोध्य है ?A प्रथम विकल्प में आत्मस्वरूप का जैसे सदा संवेदन होता है वैसे नित्य स्वप्रकाश सख का भी सदा ही संवेदन होता रहेगा, फलतः संसार दशा में भी नित्यसुख की अनुभूति होने पर बद्ध और मुक्त दशा में कुछ भी फर्क नहीं रहेगा। कदाचित् ऐसा कहें कि-नित्यसुख स्वप्रकाश होने पर भी अनादिकालीन अविद्या से आच्छादित होने के कारण संसारी जीव को उसका सदा संवेदन नहीं होता है / जब उद्यम से अनादि अविद्यातत्त्व का विनाश होगा तब आवरण के न रहने से स्वप्रकाश आनंद की अनुभूति मुक्त दशा में होने लगेगी। किन्तु यह बात ठीक नहीं, जो अप्रकाशस्वरूप हो उसो का आच्छादन न्याययुक्त है किन्तु जो स्वप्रकाशमय है उसका दूसरे से आच्छादन कैसे होगा ? [ स्वप्रकाशवस्तु के आवरण की असंगति ] स्वयंप्रकाशी नित्य सुख के आवरण के समर्थन में जिन लोगों ने ऐसा कहा है कि मेवादि से सर्यप्रकाश अच्छादित होता है अथवा स्वयं प्रकाशी सूर्य आच्छादित होता है वे ठीक नहीं कहते क्योंकि स्वप्रकाश वस्तु का मेघादि से आवरण होता ही नहीं है / यदि प्रकाश ही सूर्य का आवरण होगा तो दिवस और रात्रि में कुछ फर्क ही नहीं रहेगा। फर्क तो दिखता ही है, अत: स्वप्रकाश किसी भी वस्तु का आवरण होना संगत नहीं है / कदाचित् आप मेघ को आवारक मानने का आग्रह करें तो Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा 601 यच्चोक्तम्--सुखरागेण प्रवृत्तस्य मुमुक्षोर्यथा बन्धप्रसंगः तथा द्वेषनिबन्धनायामपि प्रवृत्ताववश्यम्भावी बन्धः' तदयुक्तम्-मुमुक्षोhषाभावात् , स हि विषयाणां तत्त्वदर्शी तेष्वारोपितं सुखत्वं तत्साधनत्वं वा तत्त्वज्ञानाभ्यासादन्यथा प्रतिपद्यते / एवं च तस्याऽऽरोपिताकारमिथ्याज्ञानव्यावृत्तावुत्तरोत्तरकार्याभावादपवर्ग उच्यते, न तु तस्य दु.खसाधने द्वेषः, किन्त्वारोपिते सुखे तत्साधने वा तत्त्वज्ञानाभ्यासाद् रागाभावः / न च स एव द्वेषः, तस्य रागाभावसव्यतिरेकेण प्रत्यक्षेण स्वरूपसंवित्तः, अन्यथोपेक्षणीये वस्तुनि रागाभावे द्वेषः स्यात् , न चैतद् दृष्टम् , तस्मान्न मुमुक्षोद्वेषनिबन्धना प्रवृत्तिः / भवतु वा, तथापि न तस्य बन्धः, द्वेषो हि स बन्धहेतुर्य उत्पन्न: स्वविषये वाग्-मन:-कायलक्षणां शास्त्रविरुद्धां पुरुषस्य प्रवृत्ति कारयति, तस्य शास्त्रविरुद्धार्थाचरणेऽधर्मोत्पत्तिद्वारेण शरीरादिग्रहणम् तन्निबन्धनं च दुःखम् / अयं तु मुमुक्षोविषयेषु द्वेष: सकलप्रवृत्तिप्रतिपन्थित्वाद्धर्माधर्मयोरनुस्पत्तौ शरीराद्यभावान्न केवलं न बन्धाय किंतु स्वात्मघाताय कल्पते / तदिदमुक्तम्-“प्रहाणे नित्यसुखवह युक्त हो सकता है क्योंकि वह सूर्य से भिन्न वस्तु है जब कि अविद्या का तो आप आनन्दमय ब्रह्म से भिन्न या अभिन्न रूप में निर्वचन ही नहीं कर सकते, अत: उस तुच्छस्वभाववाली अविद्या में स्वप्रकाशस्वरूप आनंद का आवरण करने की शक्ति को मानना असंगत है। इस प्रकार यदि नित्य सुख स्वप्रकाश आत्मस्वरूप माना जाय तो सदा ही स्वप्रकाश सुख के अनुभव की आपत्ति लगी रहेगी और धर्माधर्म से जनित सुख-दुःख का उसके साथ सहसंवेदन एक साथ होने की आपत्ति भी लगी रहेगी। सदा नित्यसुख को अनुभूति या नित्य सुख के साथ सांसारिक सुख या दुःख की सहानुभूति कहीं भी दृष्ट नहीं है, अतः पहला विकल्प युक्त नहीं। . दूसरा विकल्प ( प्रमाणान्तरबोध्य आत्मभिन्न नित्य सुख-यह ) भी अयुक्त है क्योंकि उसको सिद्ध करने वाला कोई प्रत्यक्षादि प्रमाण तो है नहीं और उसको मानने पर जो बाधक आपत्ति है (सह-अनुभूति आदि) वह दिखायी गयी है। इसीलिये, नित्य सुख का प्रतिपादक जो भी आगमवाक्य है वह प्रत्यक्षादिप्रमाण से विरुद्धार्थ का प्रतिपादक होने से, नित्यसुख बोधक आगमवाक्य का विवरण उपचरितार्थ परक (यानी दुःखाभावपरक) करना होगा। जैसे कि दृष्ट वस्तु से विरुद्ध अन्य आगम वाक्यों का अर्थविवरण उपचार से करना पड़ता है। ऊपर जो स्वप्रकाश सुख की बात हुयी है वह भी हमने अभ्युपगमवाद से की है वास्तव में तो सुख में बोधस्वभावता भी नहीं है क्योंकि हमारे मत में तो सुख में ज्ञानस्वभावता का निराकरण किया गया है / [ मुमुक्षुप्रवृत्ति द्वेषमूलक नहीं होती] - यह जो कहा है-नित्य सुख के राग से प्रवृत्ति करने वाले मुमुक्षु को जैसे बन्ध की आपत्ति दिखायी जाती है वैसे द्वेषमलक प्रवत्ति करने वाले को भी बन्ध अवश्यमेव होने की आप वह अयुक्त है, क्योंकि मुमुक्षु को द्वेष होता ही नहीं। मुमुक्षु मनुष्य तो विषयों के तत्त्व (हानिकरत्व) को जानता है, यह भी जानता है कि विषयों में आरोपित सुखत्व या सुखसाधनत्व है, अतः तत्त्वज्ञान के अभ्यास से उसे यह पता चल जाता है कि विषयसमूह वास्तव में सुख से विपरीत यानी दुःखरूप अथवा दुःख का ही साधन है। इस प्रकार तत्त्वज्ञान से आरोपितआकारवाले मिथ्याज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर उत्तरोत्तर मिथ्याज्ञान के कार्यों की परम्परा भी रुक जाने पर आखिर जीव का मोक्ष हुआ ऐसा कहा जाता है / इस प्रकार मोक्षार्थी की प्रवृत्ति करने वाले को दु.ख के साधनों में द्वेष होने Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 रागस्याऽप्रतिकूलत्वम् / नास्य नित्यसुखाभावः ( नित्यसुखभावः ) प्रतिकूल इत्यर्थः / यद्येवं मुक्तस्य नित्यं सुखं भवति अथापि न भवति, नास्योभयोः पक्षयोर्मोक्षाधिगमाभावः" [ वात्स्या० भा० 1.1-22 ] अनेन च भाष्यवाक्येन न मुक्तस्य नित्यसुखसंवित्तिरुपेयते-तस्याः प्रमाणबाधितत्वात्-किन्तु सर्वथा यदर्थ शास्त्रभारब्धं तस्योपपत्तिरनेन प्रतिपाद्यते, वाक्यस्वाभाव्यात् / तद्धि किश्चिद्वस्त्वभिधानवृत्त्या प्रतिपादयदपि तात्पर्यशक्तेरन्यत्र भावान्न श्रयमाणार्थपरं परन्यायविद्धिः परिगह्यते, विषभक्षणादिवाक्यवत् / तन्न परमानन्दप्राप्तिर्मोक्षः। . नापि विशुद्धज्ञानोत्पत्तिः, रागादिमतो विज्ञानात् तद्रहितस्य तस्योत्पत्तेरयोगात् / तथाहियथा बोधाद बोधरूपता ज्ञानान्तरे तद्वद् रागादिरपि स्यात् , तादात्म्यात् , विपर्यये तदभावप्रसंगात् / न च विलक्षणादपि कारणाद विलक्षणकार्यस्योत्पत्तिदर्शनात् बोधाद् बोधरूपतेति प्रमाणमस्ति / अत एव ज्ञानान्तरहेतुत्वे न पूर्वकालभावित्वं समानजातीयत्वमेकसन्तानत्वं वा हेतुः, व्यभिचारात् / तथाहि-पूर्वकालत्वं तत्समानक्षणैः समानजातीयत्वं च सन्तानान्तरज्ञानैर्व्यभिचारीति / तेषां हि पूर्वः . कालत्वे तत्समानजातीयत्वेऽपि न विवक्षितज्ञानहेतुत्वमिति / एकसन्तानत्वं चात्यज्ञानेन व्यभिचरतीति / की बात ही नहीं है। सिर्फ इतना ही है कि आरोपित सुख में या उसके साधन में तत्त्वज्ञान के अभ्यास से राग नहीं होता। राग का न होना यही द्वेष के स्वरूप का संवेदन प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है / यदि रागाभाव को ही द्वेष कहेंगे तो अपेक्षणीय आकाशादि पदार्थों में किसी को राग न होने से द्वेष का सद्भाव मानना होगा, किन्तु ऐसा कोई कहता नहीं कि 'अमुक को आकाश में द्वेष है'। अत: यह फलित होता है कि मुमुक्षु की प्रवृत्ति द्वेषमूलक नहीं होती। [ मुमुक्षु में द्वेषसत्ता होने पर भी बन्धाभाव ] कदाचित् मुमुक्ष की प्रवृत्ति को द्वेषमूलक मान ले तो भी कोई बन्ध की आपत्ति नहीं है / कारण, वही द्वेष बन्धहेतु हो सकता है जो उत्पन्न हो कर शास्त्रविरुद्ध कायिक-वाचिक या मानसिक प्रवृत्ति करावे / यदि जीव शास्त्रनिषिद्ध अनुष्ठानों का आचरण करेगा तो उससे अधर्म की उत्पत्ति द्वारा शरीर का ग्रहण भी होगा, और तन्मूलक दुःख भी भोगना होगा। जब कि यहाँ मुमुक्षु को सर्व विषयों में द्वेष है वह तो प्रवृत्तिमात्र का विरोधी होने से धर्म की या अधर्म की उत्पत्ति को अवकाश न होने से शरीर ग्रहण का हेतु नहीं होगा। इसलिये विषयद्वेष सिर्फ बन्ध का हेतु ही नहीं होगा, इतना ही नहीं किन्तु अन्ततोगत्वा वह अपना भी नाशक ही होगा। जैसे कि भाष्यकार ने कहा है"प्रहाण में (मोक्ष में) नित्यसुख का राग अप्रतिकूल है। इसका अर्थ यह है कि मुमुक्षु को नित्यसुख का ( भाव या ) अभाव प्रतिकूल नहीं है। ( ऐसा यदि पूर्वपक्षी कहें तो उसके ऊपर भाष्यकार कहते हैं कि ) तब मुक्तात्मा को नित्य सुख होवे या न होवे-दोनों पक्ष में मोक्षप्राप्ति का अभाव ही प्रसक्त होगा।"-इस भाष्यवाक्य से यह फलित नहीं होता कि भाष्यकार को मुक्ति में नित्यसुखसंवेदन का होना मान्य है, क्योंकि मुक्ति में नित्यसुखसंवेदन प्रमाणबाधित है। इस भाष्यवाक्य से तो जिस के लिये शास्त्रप्रणयन किया जा रहा है उसको उपपत्ति संगति कैसे होती है यही दिखाना है, क्योंकि वाक्यस्वभाव ही ऐसा है / वाक्य का स्वभाव ऐसा है कि अभिधानवृत्ति (नामक सम्बन्ध) से किसी एक अर्थ का प्रतिपादन करता हुआ भी वह तात्पर्यशक्ति से अन्य ही किसी अर्थ का प्रतिपादन करता Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा अथ नेष्यत एवान्त्यज्ञानं सर्वदाऽऽरम्भात् / तथाहि-मरणशरीरज्ञानमपि ज्ञानान्तरहेतुः, जानदवस्थाज्ञानं च सुषुप्तावस्थाज्ञानस्येति / नन्वेवं मरणशरीरज्ञानस्यान्तराभवशरीरज्ञानहेतुत्वे गर्भशरीरज्ञानहेतुत्वे वा सन्तानान्तरेऽपि ज्ञानजनकत्वप्रसंगः, नियमहेतोरभावात् / 'अथेष्यत एवोपाध्यायज्ञानं शिष्यज्ञानस्य,' अन्यस्य कस्मान्न भवतीति ? अथ 'कर्मवासना नियामिके'ति चेत? न, तस्या विज्ञानव्यतिरेकेणाऽसम्भवात् / तथाहि-तादात्म्ये सति विज्ञानं बोधरूपतयाऽविशिष्टं बोधाच्च बोधरूपतेत्यविशेषेण विज्ञानं विदध्यात / है, अतः अच्छे न्यायवेत्ता उस वाक्य के यथाश्रुत अर्थ की ग्रहम नहीं करते हैं जैसे कि विषभक्षणादिप्रतिपादक वाक्य / सारांश, मुक्ति परमानन्दस्वभावरूप नहीं है / [ मुक्ति विशुद्धज्ञानोत्पत्तिस्वरूप भी नहीं है ] जो लोग मोक्ष में विशुद्धज्ञान की उत्पत्ति को मानते हैं वे भी ठीक नहीं कहते क्योंकि विज्ञानोत्पत्ति रागादिग्रस्त व्यक्ति को ही होती दिखाई देती है अतः रागादिरहित व्यक्ति को उसकी उत्पत्ति का सम्भव ही नहीं है / जैसे देखिये, यदि आप उत्तरज्ञान की बोधरूपता बोघहेतुक ही मानते हैं तो फिर उसी तरह रागादिरूपता भी माननी पड़ेगी क्योंकि ज्ञान और रागादि का आपके मत में भेद नहीं है / इसलिये यदि बोध से रागोपनि नहीं मानेंगे तो फिर बोध की उत्पत्ति का भी अभाव प्रसक्त होगा / तथा दूसरी बात यह है कि ज्ञान की उत्पत्ति ज्ञान से ही हो-इस में कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि असमान जातीय कारण से विलक्षण कार्यों की उत्पत्ति देखी जाती है / इसी लिये यदि आपसे पूछा जाय कि ज्ञान को ही उत्तरज्ञान का हेतु मानने में क्या हेतु है तो आप यह नहीं कह सकते कि उत्तरज्ञान का वह पूर्वकालभावि है अथवा समानजातीय है अथवा एकसन्तानगत है इसलिये वह उत्तरज्ञान का हेतु है ।-ऐसा इसलिये नहीं कह सकते कि- उक्त तीनों विकल्प में व्यभिचार दोष है / जैसे देखिये-यदि पूर्वकालभावि होने मात्र से उसको उत्तरज्ञान का हेतु माना जाय तो उत्तरज्ञान के समान क्षण में उत्पन्न अन्यज्ञानों में व्यभिचार होगा क्योंकि पूर्वकालभावित्व उनके प्रति होने पर भी उन ज्ञानों की हेतुता नहीं है। समानातीय होने से यदि पूर्वज्ञान को उत्तरज्ञान का हेतु मानेंगे तो उत्तरज्ञान के सन्तान से भिन्न संतान के ज्ञानों की भी समानजातीयता है किन्तु उनके प्रति हेतुत्व नहीं है, अत: यहां भी व्यभिचार हुआ। तथा, एक सन्तानगत होने से उत्तरज्ञान के प्रति पूर्वज्ञान को हेतु मानें तो उसी संन्तान के अन्त्यक्षण के प्रति उस ज्ञान में एक सन्तानता है किन्तु अंत्यक्षण के प्रति हेतुता नहीं है, तो यहाँ भी व्यभिचार ही हुआ। निष्कर्ष-किसी भी रीति से, ज्ञान से ही ज्ञानोत्पत्ति का समर्थन नहीं हो सकता। [ ज्ञानधारा अविच्छिन्न होने की शंका का निरसन ] ___यदि ऐसा कहें कि-अन्त्यज्ञान में जो व्यभिचार दिखाया है वह अयुक्त है क्योंकि हमें अन्त्यज्ञान ही मान्य नहीं है, हम तो ज्ञानधारा को निरन्तर ही मानते हैं। जैसे देखिये-मरणकालीन शरीर से जो ज्ञान होता है वह भी अन्यज्ञान का हेतु होता है और जाग्रत अवस्था में जो अन्तिमज्ञान होता है वह भी सुषुप्तावस्था के आद्यज्ञान का हेतु होता है ।-नैयायिक इसके ऊपर कहते हैं कि यदि ऐसा मानेंगे तो, अर्थात् मरणशरीरज्ञान को मध्यकालीन शरीर में ज्ञान का हेतु मानेंगे और गर्भकालीनशरीर में ज्ञान का भी हेतु मानेंगे तो फिर चैत्रसन्तान का ज्ञान मैत्र के सन्तान में भी ज्ञानोत्पत्ति कर Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 612 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यच्चेदम् सुषुप्तावस्थायां हि ज्ञानसद्भावे जानदवस्थाज्ञानं कारणम्' इति (अ) सतत् , सषुप्तावस्थायां हि ज्ञानसद्धावे जाग्रदवस्थातो न विशेषः स्यात् , उभयत्रापि स्वसंवेद्यज्ञानस्य सद्धावाडविशेषात् / मिद्धेनाभिभूतत्वं विशेष' इति चेत् ? असदेतत् , तस्यापि तद्धर्मतया तादाम्येनाभिभावकत्वाऽयोगात् / व्यतिरेके तु रूपादिपदार्थानामेव सत्त्वात् तत्स्वरूपं निरूप्यम् , अभिभवश्च यदि विनाशः, न विज्ञानस्य सत्त्वं विनाशस्य वा निर्हेतुकत्वम् / अथ तिरोभावः, न, विज्ञानस्य सत्त्वेन 'तत्सत्तैव संवेदनम्' इत्यभ्युपगमे तस्यानुपपत्तेः, अतः सुषुप्तावस्थायां विज्ञानाऽसत्त्वेनान्त्यज्ञानस्य सद्भावादेकज्ञानसन्तानत्वं व्यभिचारीति / देगा। जब कोई नियम ही नहीं है तो अन्य सन्तान में ज्ञानोत्पत्ति की आपत्ति क्यों नहीं होगी ? यदि कहें कि-हम तो उपाध्याय के ज्ञान से शिष्य सन्तान में ज्ञान की उत्पत्ति को मानते ही हैं अत: जो आपत्ति आपने कही है वह अनिष्टरूप नहीं है / तो इसके ऊपर भी प्रश्न है कि जैसे शिष्यों को ज्ञान उत्पन्न होगा वैसे दूसरे को भी क्यों उत्पन्न नहीं होगा, जब कोई नियामक ही नहीं है ? यदि अन्य सन्तान में ज्ञानोत्पत्ति का वारण करने के लिये कहा जाय कि कर्मवासना नियामक है-तात्पर्य यह है कि जिस सन्तान में ज्ञानोत्पादअनुकुल कर्मवासना विद्यमान होगी उसी सन्तान में नया विज्ञान उत्पन्न होगा, चैत्र सन्तान की कर्मवासना मैत्रसन्तान में न होने से वहाँ ज्ञानोत्पत्ति की आपत्ति नहीं होगी-तो यह भी अयुक्त है क्योंकि बौद्धमत से विज्ञान से विभिन्न कर्मवासना का स्वरूप ही कुछ नहीं है। देखिये-कर्मवासना का विज्ञान के साथ यदि तादात्म्य मानेंगे तो विज्ञान तो बोधरूपता से अतिरिक्त नहीं है अतः कर्मवासना यदि बोध से अभिन्न होगी तो उसमें भी बोधरूपता ही प्रसक्त है। अतः / चैत्र सन्तान के ज्ञान से मैत्र में ज्ञानोत्पत्ति किसी भेदभाव के विना ही होने की आपत्ति लगी रहेगी। [ सुषुप्तावस्था में ज्ञान की सिद्धि अशक्य ] 'तथा यह जो आपने कहा-सुषुप्तावस्था के साथ में जाग्रत् अवस्था का ज्ञान कारण है-यह भी गलत ही कहा है / कारण, यदि सुषुप्ति में भी ज्ञान मानेंगे तो फिर सुषुप्ति और जागृति में कोई भेदभाव ही नहीं रहेगा, क्योंकि दोनों अवस्था में स्वयंसंवेदी ज्ञान का सद्भाव समानरूप से है फिर सुषुप्ति कैसे ? यदि कहें कि वहाँ स्वसंवेदीज्ञान मिद्धदशा ( घेन ) से अभिभूत (दबा हुआ) है यही सषप्ति में विशेषता है तो यह बात गलत है क्योंकि मिद्धदशा भी बौद्धमत में ज्ञान का ही धर्म होने से ज्ञान से अभिन्न ही है। स्व से अभिन्न पदार्थ में स्व की अभिभावकता मानना संगत नहीं है। यदि उसे ज्ञान से भिन्न मानेगे तो वह बौद्ध मत में प्रसिद्ध रूपस्कन्धादि में से ही कोई न कोई मानना होगातो अब यही खोजना पडेगा कि वह रूपात्मक है या रसात्मक है इत्यादि / तथा अभिभव का अर्थ यदि विनाश किया जाय तो एक बात यह होगी कि विज्ञान का सत्त्व ही उपपन्न नहीं होगा क्योंकि विज्ञानोत्पादक सामग्रीकाल में उसकी नाशक सामग्री भी विद्यमान है अतः उसकी उत्पत्ति ही नहीं होगी तो सत्त्व कैसे मानेंगे? दूसरे, मिद्धदशा यदि विज्ञान से भिन्न और विज्ञान की नाशक होगी तब तो नाश को सहेतुक मानना पड़ेगा, अत: बौद्ध मत में नाश की निर्हेतुकता का भंग होगा। अभिभव का अर्थ यदि तिरोभाव किया जाय ( जैसे कि राजा होने पर भी भिखारी का वेष बना ले तो उसका राजत्व तिरोहित हो जाता है )-तो वह भी ठीक नहीं है क्योंकि विज्ञान को आप सत् मानते हैं और उसका सत्त्व यही उसका संवेदन मानते हैं फिर उसकत तिरोभाव Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे पूर्व० 613 यच्चेदम्-'विशिष्टभावनावशाद् रागादिविनाशः' इति-असदेतत् , निर्हेतुकत्वात् विनाशस्याभ्यासानुपपत्तेश्च / अभ्यासो ह्यस्थिते ध्यातरि अतिशयाधायकत्वादुपपद्यते न क्षणिके ज्ञानमात्रे इति / अत एव न योगिनां सकलकल्पनाविकलं ज्ञानमुत्पद्यते / न च सन्तानापेक्षयाऽतिशयः, तस्यैवाऽसम्भवाद् अविशिष्टाद् विशिष्टोत्पत्तेरयोगाच्च / तथाहि-पूर्वस्मादविशिष्टादुत्तरोत्तरं सातिशयं कथमुपजायत इति चिन्त्यम् / यच्च 'सन्तानोच्छितिनि.श्रेयसम्' इति, तत्र निर्हेतुकतया विनाशस्योपायवैयर्थ्यम् , प्रयत्नसिद्धत्वादिति / अन्ये तु "अनेकान्तभावनातो विशिष्टप्रदेशेऽक्षयशरीरादिलाभो निःश्रेयसम्” इति मन्यन्ते / तथा च नित्यभावनायां ग्रहः, अनित्यत्वे च द्वेष इत्युभयपरिहारार्थमनेकान्तभावना इति, एवं सदादिध्वपि योज्यम् / प्रत्यक्षं च स्वदेशकाल-कारणाधारतया सत्त्वम् परदेशादिष्वसत्त्वमित्युभयरूपता / तथा, घटादिमंदादिरूपतया नित्यः सर्वावस्थासूपलम्भात , घटादिरूपतया चानित्यस्तदपायात् , एवमात्माप्यात्मादिरूपतया नित्यः सर्वदा सद्भावात, सुखादिपर्यायरूपतया चानित्यस्तद्विनाशात् / एवं सर्वत्र स्वकार्येषु कर्तृत्वम् कार्यान्तरेषु चाकर्तृत्वमित्यूह्यम् , स्वशब्दाभिधेयत्वम् शब्दान्तरानभिधेयत्वं चेति / कैसे संगत होगा ? सारांश, सुषुप्ति अवस्था में विज्ञान की सत्ता संगत न होने से उसका पूर्ववर्ती ज्ञान अन्त्यज्ञान रूप में सिद्ध हुआ और इसीलिये एक सन्तानत्व का उसमें व्यभिचार भी तदवस्थ ही रहा। [अभ्यास से रागादिनाश की अनुपपत्ति ] यह जो कहते हैं कि विशिष्टभावना के अभाव से रागादि का विनाश होता है-यह भी गलत है क्योंकि नाश तो बौद्धमत में निर्हेतुक होने से विशिष्टभावनास्वरूप अभ्यास से उसके नाश की बात असंगत है / तथा क्षणिकवाद में अभ्यास भी घट नहीं सकता। यदि ध्याता स्थायि हो तभी एक ही व्यक्ति में नये नये अतिशय के उत्तरोत्तर आधान द्वारा अभ्यास की बात संगत हो सकती है किन्तु क्षणिकविज्ञानवाद में वह संगत नहीं है। जब अभ्यास क्षणिकवाद में संगत नहीं, तब योगियों को सकलकल्पनाजालविनिमुक्त ज्ञान की उत्पत्ति भी संगत नहीं हो सकती। यदि कहें कि-एक स्थायि व्यक्ति को न मानने पर भी सन्तान के आधार से अतिशयाधान द्वारा अभ्यास की बात संगत है-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि सन्तान ही सत्पदार्थरूप में सम्भव नहीं है, तथा पूर्वकालीन साधारण विज्ञान से उत्तरकालीनविशिष्ट ज्ञान की उत्पत्ति भी संगत नहीं है। फिर से देखिये कि पूर्वकालीन साधारण विज्ञानक्षण से उत्तरोत्तर सातिशय विज्ञान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? यह विचारणीय है। तदुपरांत, ऐसा जो बौद्धमत में कहा है कि-ज्ञानसन्तान का सर्वथा उच्छेद यही मोक्ष हैइस मत में यह दोष होगा कि नाश निर्हेतुक होने की मान्यता के कारण सन्तानोच्छेद के लिये कोई भी उपाय दिखाया जाय वह व्यर्थ ही होगा क्योंकि विनाश तो अनायास स्वयं ही सिद्ध होने वाला है। [ अनेकान्तभावना से मोक्षलाभ ] अन्य कुछ वादिलोग कहते हैं-अनेकान्त मत की भावना के बल से विशिष्ट स्थान में होने वाला अक्षय देह का लाभ यही मुक्ति है / जैसे देखिये वस्तु को यदि नित्य मान लेते हैं तो ग्रह (राग) हो जाता है और यदि अनित्य क्षणभंगुर मानते हैं तो द्वेष होने का सम्भव है, किन्तु नित्यानित्योभयरूप अनेकान्तमत की भावना से भावित हो जाने पर न राग होता है न द्वेष, दोनों का परिहार हो जाता है। इसी तरह सादि, अनादि, सान्त और अनन्त की चर्चा में भी अनेकान्त ही मानना चाहिये। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 614 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तदेतदसाम्प्रतम् , मिथ्याज्ञानस्य निःश्रेयसकारणत्वेन प्रतिषेधात् अनेकान्तज्ञानं च मिथ्येव, बाधकोपपत्तेः / तथाहि-नित्यानित्यत्वयोविधि प्रतिषेधरूपत्वादभिन्ने मिणि प्रभावः / एवं सदसत्त्वादेरपीति / यच्चेदम् ‘घटादिम दादिरूपतया नित्यः' इति, असदेतत् , मृदूपतायास्ततोऽर्थान्तरत्वात् / तथाहि-घटादर्थान्तरं मद्रूपता मृत्त्वं सामान्यम् , तस्य तु नित्यत्वे न घटस्य तथाभावस्ततोऽन्यत्वात् , घटस्य तु कारणाद् विलयोपलब्धेरनित्यत्वमेव / यच्चेदम् 'स्वदेशादिषु सत्त्वं परदेशादिष्वसत्त्वम्' तदिष्यते एव इतरेतराभावस्याभ्युपगमात् / तथाहि-इतरस्मिन् देशादावितरस्य घटस्याभावो नानुत्पत्तिः, न प्रध्वंसः, तत्र तस्य सर्वदाऽसत्त्वात् / द्वैरूप्ये तु स्वदेशादिष्वप्यनुपलम्भप्रसंगः / ____ एवमात्मनोऽपि नित्यत्वमेव, सुख-दुःखादेस्तद्गुणत्वेन ततोऽर्थान्तरस्य विनाशेऽप्यविनाशात् / कार्यान्तरेषु चाकर्तृत्वम् न प्रतिषिध्यते / तथाहि-यद् यस्यान्वय व्यतिरेकाभ्यामुत्पत्ती व्याप्रियते इत्युपलब्धं तत् तस्य कारणं नान्यस्येत्यभ्युपगम्यत एव / एवं शब्दानभिधेयत्वेऽपि 'न सर्व सर्वशब्दाभिधेयम्' इत्यभ्युपगमात् / न चानेकान्त भावनातो विशिष्टशरीरादिलाभेऽस्ति प्रतिबन्धः / न चोत्पत्ति- . धर्मणां शरीरादीनामक्षयत्वं न्याय्यम् / तथा, मुक्तावप्यनेकान्तो न व्यावर्तते इति मुक्तो न मुक्तश्चेति स्यात् / एवं च सति स एव मुक्तः संसारी चेति प्रसक्तम् / एवमनेकान्तेऽप्यनेकान्ताभ्युपगमो दूषणम् , वस्तुनः सदसद्रूपताऽनेकान्तः, तस्यानेकान्ताभ्युपगमे रूपान्तरमपि प्रसत्तम् / एवं नित्यानित्यरूपताव्यतिरिक्तं च रूपान्तरमित्यादि वाच्यम् / / अनेकान्त मत अयुक्त नहीं है, क्योंकि स्वदेश-स्वकाल-स्वकारण-स्वआधारादि की अपेक्षा से वस्तु का सत्त्व और पर देशादि की अपेक्षा असत्त्व इस प्रकार उभयरूपता प्रत्यक्ष से ही दिखती है। तथा, घटादि पदार्थ मिट्टी आदिरूप से नित्य है क्योंकि घट की सभी अवस्था में मिट्टीरूपता निरन्तर उपलब्ध होती है / घटादिरूप से वह अनित्य भी है क्योंकि उसका नाश होता है। इसी तरह आत्मा भी आत्मादिरूप से सर्वदा विद्यमान होने से नित्य है, किन्तु सुखादिपर्यायरूप से उसका विनाश भी दिखता है अत: अनित्य भी है इस प्रकार सर्वत्र अपने कार्यों की अपेक्षा उस में कर्तृत्व और तदन्य कार्यों के प्रति अकर्तृत्व भी सोच लेना चाहिये / तथा अपने वाचक शब्द की अपेक्षा से अभिषेयता और अन्य शब्दों की अपेक्षा से अनभिधेयत्व भी समझ लेना चाहिये / . [ अनेकान्तभावना से मोक्ष की बात असंगत ] यह जो अनेकान्तमत है वह अनुचित है- मिथ्याज्ञान कभी मोक्ष का कारण नहीं होता, और यह अनेकान्त का ज्ञान तो बाधकग्रस्त होने से मिथ्या ही है। जैसे देखिये-नित्यत्व और अनित्यत्व क्रमशः विधि निषेध रूप होने से एक अभिन्न धर्म में रह नहीं सकते / सत्त्व और असत्त्व भी उसी तरह नहीं रह सकते / तथा यह जो कहा कि-घटादि यह मृदादिरूप से नित्य है....इत्यादि, यह गलत है, क्योंकि मृदूपता तो घटादि से अन्यपदार्थरूप ही है। वह इस प्रकार, घट से अन्यपदार्थरूप मृदूपता मृत्त्वसामान्यरूप है, वह यदि नित्य हो तो उससे घट का नित्यत्व नहीं हो जाता, क्योंकि घट तो मृत्त्वसामान्य से अन्य ही है। घट का तो नाशक कारणों से नाश उपलब्ध होता है अत: वह अनित्य ही है / तथा स्व-देशादि में सत्त्व और पर-देशादि में असत्त्व की बात जो कही है वह तो इष्ट ही है, क्योंकि हम भी इतरेतराभाव ( यानी अत्यन्ताभाव ) को मानते ही हैं। वह इस प्रकारः-इतर देशादि में इतर यानी घट का जो अभाव है वह अनुत्पत्ति (प्रागभाव ) रूप या ध्वंसात्मक नहीं है Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे पूर्व० 615 अन्ये तु "आत्मैकत्वज्ञानात् परमात्मनि लयः सम्पद्यते" इति ब्रु वते / तथाहि-आत्मैव परमार्थसन्, ततोऽन्येषां भेदे प्रमाणाभावात् , प्रत्यक्षं हि पदार्थानां सद्भावनाहकमेव न भेदस्य इत्यविद्यासमारोपित एवायं भेदः-इति मन्यन्ते / तदप्यसत-आत्मैकत्वज्ञानस्य मिथ्यारूपतया निःश्रेयससाधकत्वानुपपत्तेः, मिथ्यात्वं चात्माधिकार एव वक्ष्यामः। एवं शब्दाद्वैतज्ञानमपि मिथ्यारूपतया न निःश्रेयससाधनमिति द्रष्टव्यम् / यथा चैतेषां मिथ्यारूपता तथा प्रतिपादयिष्यामः / तन्नानुपमसखावस्थान्तरप्राप्तिलक्षणात्मस्वरूपं मूक्तिः, तत्सद्धावे बाधकप्रमाणप्रदर्शनात, विशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूपमुक्तिसद्भावे च प्रदर्शितं प्रमाणमिति / क्योंकि प्रागभाव या ध्वंस का सत्त्व सार्वदिक नहीं होता जब कि इतरदेश में घटादि का अभाव तो सार्वदिक होता है / यदि घट का सत् और असत् उभयरूप मानेंगे तो असत् रूपता के कारण स्वदेशादि में भी उसका उपलम्भ न हो सकेगा। [आत्मा में नित्यत्वादि का एकान्त ] मृत्त्वसामान्य की तरह आत्मा भी नित्य ही है, सुख-दुःखादि तो उसके गुण हैं और उससे अन्य पदार्थरूप हैं अतः उनके विनाश से भी आत्मा का विनाश नहीं हो जाता। अन्य कार्यों के प्रति उसके अकर्तृत्व का तो हम भी निषेध नहीं करते हैं। तथा अन्य शब्दों से अनभिधेयत्व का भी हम निषेध नहीं करते क्योंकि हम सभी वस्तु को सभी शब्दों से अभिधेय नहीं मानते हैं। तथा यह जो कहा है कि अनेकान्त भावना से अविनाशी विशिष्ट शरीर का लाभ होता है इसमें कोई नियम नहीं है। अर्थात् विशिष्टशरीर के लाभ की बात असंगत है। क्योंकि उत्पत्तिशील देह आदि पदार्थ की अनश्वरता न्याययुक्त नहीं है / उत्पन्न भाव अवश्य विनाशी होता है। तदुपरांत, यदि अनेकान्तवाद को मान लिया जाय तो मुक्ति में भी अनेकान्त अनिवृत्त ही रहेगा, फलतः जो मुक्त है वही अमुक्त कहना होगा। अर्थात् ऐसा मानने पर जो मुक्त है उसीको संसारी मानने की आपत्ति होगी। तथा अनेकान्त में भी आपको अनेकान्त ही मानना पड़ेगा, यह भी एक दोष होगा। वह इस प्रकार-वस्तु को सदसद् उभयरूप मानना यह अनेकान्त है। किन्तु इसमें भी अनेकान्त प्रसक्त होने पर सदसत्त्व रूप से इतर अन्य कोई रूप मानना पड़ेगा / उसी तरह वस्तु में नित्यानित्यत्व और नित्यानित्यत्व से इतर अन्य किसी रूप को भी मानने की आपत्ति आयेगी। [ अद्वैतवादी अभिमत मोक्ष में असंगति ] अन्य वेदान्ती विद्वान कहते हैं-आत्मा एक ही है-ऐसा आत्मैकत्व का ज्ञान होने पर आत्मा का परमात्मा में लय हो जाता है / वे कहते हैं कि एकमात्र आत्मा की ही पारमार्थिक सत्ता है। शेष पदार्थों का आत्मा से भेद होने में कोई भी प्रमाण ही नहीं है, क्योंकि, प्रत्यक्ष तो पदार्थों के सद्भाव का ही ग्राहक है, उनके भेद का नहीं। अत: भेद का समारोपण सर्वत्र अविद्या के प्रभाव से ही होता है ।-किन्तु यह आत्माद्वैतवाद भी गलत है। आत्मा एक ही है-यह ज्ञान मिथ्याज्ञानरूप होने से उस ज्ञान में मोक्षसाधकता को मानना असंगत है / आत्मैकत्वज्ञान मिथ्या है यह आत्मा के प्रकरण में इसी ग्रन्थ में कहा जाने वाला है। सारांश, अनुपमसुखस्वरूप अवस्थान्तर की प्राप्ति वाले आत्मस्वरूप को मुक्ति मानना संगत नहीं है, क्योंकि मुक्ति में सुख मानने में जो बाधक है उसका प्रदर्शन किया हुआ है। विशेष गुणों के . उच्छेद स्वरूप मुक्ति की सिद्धि में तो प्रमाण दिखाया हुआ है। [ नैयायिकपूर्वपक्ष समाप्त ] / Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [ मुक्तिमीमांसायामुत्तरपक्षः ] अत्र प्रतिविधीयते-यत् . तावदुक्तम् 'नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, सन्तानत्वात' इति, अत्र बद्धयादिविशेषगणानां प्राक प्रतिषिद्धत्वात तत्सन्तानस्याभावादाश्रयाऽसिद्धो हेतुः / तथा, बुद्धचादीनां विशेषगुणानां परेण स्वसंविदितत्वेनानभ्युपगमाद् ज्ञानान्तरग्राह्यत्वे वाऽनव. स्थादिदोषप्रसक्तेरवेद्यत्वमित्यज्ञानस्य सत्त्वाऽसिद्धेः पुनरप्याश्रयाऽसिद्धः 'सन्तानत्वात' इति हेतः। किच, सन्तानत्वं हेतुत्वेनोपादीयमानं यदि सामान्यमभिप्रेतं तदा बुद्धयादिविशेषगुणेषु प्रदीपे च तेजोद्रव्ये सत्तासामान्यव्यतिरेकेणापरसामान्यस्याऽसम्भवात् स्वरूपासिद्धः / सत्तासामान्यरूपत्वे वा सन्तानत्वस्य 'सत सत' इति प्रत्ययहेतत्वमेव स्यात . न पूनः सन्तानप्रत्ययहेतत्वमेव, अन्यथा द्रव्य-गण-कर्मस्वरूपादेव 'सत्-सत्' इति प्रत्ययसम्भवात् सत्तापरिकल्पनावैयर्थ्यम् / अथ विशेषगुणाश्रिता जातिः सन्तानत्वं हेतुत्वेनोपन्यस्तम्, तदा द्रव्यविशेषे प्रदीपलक्षणे साधर्म्यदृष्टान्ते तस्याऽसम्भवात साधन विकलो दृष्टान्तः / न च सत्तादिलक्षणं सामान्यमेकं स्वाधारसर्वगतं वा प्रतिवादिनः प्रसिद्धमिति प्रतिवाद्यसिद्धो हेतुः। [विशेषगुणोच्छेदरूपमुक्ति की मान्यता का निरसन-उत्तरपक्ष ] अब नैयायिक के सिद्धान्त का प्रतिकार किया जाता है नैयायिकों ने जो यह कहा है-"आत्मा के नव विशेष गुणों के सन्तान का अत्यन्त उच्छेद हो सकता है क्योंकि वह सन्तानरूप है।" यहाँ सन्तानत्व हेतु आश्रयासिद्ध है क्योंकि बुद्धि आदि नैयायिकसम्मत विशेषगुणों का आत्मविभुत्ववाद में निराकरण कर दिया है अतः उनका सन्तान ही असिद्ध है, तो सन्तानत्व हेतु कहां रहेगा ? अन्य एक प्रकार से भी सन्तानत्व हेतु आश्रयासिद्ध हैनैयायिक बुद्धि आदि विशेषगुणों को स्वविदित नहीं मानता है, यद्यपि ज्ञानन्तरवेद्य मानता है किन्तु उसमें अनवस्थादि दोष आता है [ एक ज्ञान का ग्रहण करने के लिये दूसरा ज्ञान, दूसरे को ग्रहण करने के लिये तीसरा .. फिर चौथा...इस प्रकार अनवस्था दोष होता है ] / जब ज्ञान स्वसंविदित नहीं है और ज्ञानान्तरवेद्य भी नहीं हो सकता तो वह अवेद्य ही मानना पड़ेगा / जो अवेद्य अज्ञात होता है उसको सत्ता ही सिद्ध नहीं होगी। फिर बुद्धि आदि गुणों की सिद्धि न होने पर सन्तान भी असिद्ध ही हो जायेगा तो सन्तानत्व हेतु किस आश्रय में रहेगा ? तथा, हेतुरूप से प्रयुक्त सन्तानत्व यदि जाति रूप माना जाय तो हेतु स्वरूपासिद्ध हो जायेगा, क्योंकि बुद्धि आदि विशेषगुणों में तथा प्रदीपादि अग्निद्रव्य में सत्ता जाति के अलावा और किसी भी उभय साधारण अपर जाति का सम्भव ही न होने से उक्त सन्तानत्व जाति भी वहाँ नहीं रह सकेगी। यदि वहाँ सन्तानत्व को सत्ता जातिरूप ही मान लिया जाय तो फिर वह 'यह सत् है यह सत् है' ऐसी बुद्धि में हेतु होगी किन्तु 'यह सन्तान है' ऐसी बुद्धि के प्रति हेतु नहीं हो सकेगी। यदि सन्तानत्वजाति के विना भी आप वहाँ 'यह सन्तान है' ऐसी बुद्धि होने का मानेंगे तो सताजाति के विना ही द्रव्य-गुणकर्म में उनके स्वरूप से ही 'यह सत् है' ऐसी बुद्धि होने का मान लेने से सत्ता जाति को मानने की जरूर नहीं रहेगी अत: उसकी कल्पना व्यर्थ हो जायेगी। यदि कहें कि-हम सिर्फ विशेषगुणों में ही सन्तानत्व जाति को मान लेंगे और उसका हेतुरूप Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे उ. 617 न च सन्तानत्वं सामान्यं व्याप्त्या बुद्धयादिषु वृत्तिमत् सिद्धम् , तद्वत्तेः समवायस्य निषिद्धत्वात् , तत्सत्त्वेऽपि तबलात् सन्तानत्वस्य बुद्धयादिसम्बन्धित्वे तस्य सर्वत्राऽविशेषादाकाशादिष्वपि नित्येषु सन्तानत्वस्य वृत्तेरनैकान्तिकत्वम् / न च समवायस्याऽविशेषेऽपि समवायिनोविशेषात् सन्तानत्वं बुद्धयादिष्वेव वर्तते नाकाशादिष्विति वक्तुयुक्तम् , इतरेतराश्रयप्रसक्तेः-सिद्ध हि सन्तानत्वस्याकाशा. दिव्यवच्छेदेन बुद्ध्यादिवृत्तित्वे विशेषत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्चान्यपरिहारेण तवृत्तित्वसिद्धिरितोतरेतराश्रयत्वम् / अपि च, यदि समवायस्य सर्वत्राऽविशेषेऽपि बुद्धयादिविशेषगुण-सन्तानत्वयोः प्रतिनियताधाराधेयरूपता सिद्धिमासादयति तदा व्यर्थः समवायाभ्युपगमः, तद्व्यतिरेकेणापि तयोस्तद्रूपतासिद्धेः / अथ प्रमाणपरिदृष्टत्वात समवायस्याभ्युपगम: न पुनः समवायिविशेषरूपताऽन्यथानुपपत्तेः / असदेतत् , तद्ग्राहकप्रमाणस्यैवाभावात् / तथाहि-स सर्वसमवाय्यनुगतैकस्वभावो वाऽभ्युपगम्येत, तव्यावृत्तस्वभावो वा ? न तावत् तद्व्यावृत्तस्वभावः समवायः, सर्वतो व्यावृत्तस्वभावस्यान्याऽसम्बमें प्रयोग करेंगे-तो प्रदीपरूप साधर्म्य दृष्टान्त में हेतुविरह दोष हो जायेगा, क्योंकि द्रव्यविशेष (अग्नि)रूप प्रदीप में तो विशेषगणाश्रित सन्तानत्व जाति का संभव ही नहीं। उपरांत, प्रतिवादी के मत में, अपने सभी आधारों में विद्यमान हो ऐसा नैयायिकसम्मत एक सत्तादिरूप सामान्य मान्य ही नहीं है, अत: प्रतिवादी के प्रति जातिरूप सन्तानत्व हेतु असिद्ध हुआ। [ सन्तानत्वसामान्य के संबन्ध की अनुपपत्ति ] दूसरी बात यह है कि बुद्धयादि गुणों में व्यापकरूप से सन्तानत्व रूप सामान्य का सम्बन्ध भी सिद्ध नहीं है / समवाय का तो उसके सम्बन्धरूप में पहले ही निषेध किया हुआ है। कदाचित् समवाय की सत्ता मान ले तो भी, समवाय के आधार पर सन्तानत्व को यदि बुद्धि आदि से सम्बद्ध माना जाय तो समवाय सर्वत्र समानरूप से विद्यमान होने से आकाशादि के साथ भी सन्तानत्व का समवाय सम्बन्ध मानना होगा। फलतः सन्तानत्व हेतु आकाशादि में रह गया किन्तु वहाँ अत्यन्तोच्छेदरूप साध्य न होने से वह व्यभिचारी सिद्ध होगा। यदि ऐसा कहें कि-समवाय तो यद्यपि सर्वत्र समानरूप से विद्यमान है किन्तु समवायिओं में विशेषता होती है और वह विशेषता ऐसी है कि जिससे सन्तानत्व बुद्धि आदि में ही है और आकाशादि में नहीं है ।-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त है, सन्तानत्व आकाशादि में नहीं किन्तु बुद्धि आदि में ही रहता है यह सिद्ध होने पर उक्त विशेषता सिद्ध होगी और विशेषता सिद्ध होने पर सन्तानत्व आकाशादि में नहीं किन्तु बुद्धि आदि में ही रहता है यह सिद्ध होगा। तथा, समवाय सर्वत्र समान होने पर भी यदि बुद्धि आदि विशेषगुणों के साथ ही सन्तानत्व का नित्यरूप से आधाराधेयभाव सिद्ध होता है तो फिर समवाय की मान्यता व्यर्थ हो गयी क्योंकि आधाराधेयभाव के लिये तो उसकी कल्पना करते हैं और उसके विना भी आधाराधेयभाव तो सिद्ध होता है। [समवाय के विषय में प्रत्यक्षादि कोई प्रमाण नहीं है ] यदि ऐसा कहें कि-समवाय तो प्रमाण से सुनिश्चित होने से माना गया है, नहीं कि समवायिओं की विशेषरूपता को उपपन्न करने के लिये-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि समवाय को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण ही नहीं है। यह देखिये-वस्तुमात्र के दो स्वभाव होते हैं a अनुवृत्तस्वभाव और Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 618 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 धित्वेन नीलस्वरूपवत् समवायत्वानुपपत्तेः / नापि तदनुगतैकस्वभावः, सामान्यवत् तत्समवायत्वाऽयोगात्-नित्यस्य सतोऽनेकत्र वृत्तः सामान्यस्य परेण समवायत्वानभ्युपगमात् / न च समवायस्वरूपस्यापि ग्राहकत्वेन निर्विकल्पकं सविकल्पकं वाऽध्यक्षं प्रवर्तते, किमुत तस्यानेकसमवाय्यनुगतैकतद्विशेषरूपस्य, तदग्रहणे तदनुगतैकरूपस्यापि अप्रतिभासनादिति सामान्यप्रतिषेधप्रस्तावे प्रतिपादितत्वात् / नापि तत्र प्रत्यक्षाऽप्रवृत्तौ तत्पूर्वकस्यानुमानस्यापि प्रवृत्तिः। - अथ सम्बन्धत्वेनासावध्यवसीयते. तदयुक्तम् , यत: A कि 'सम्बन्धः' इति बुद्धयाऽध्यवसीयते, B आहोस्विद् 'इह' इति बुद्धया, C उत 'समवाय.' इति प्रतीत्या ? A तद् यदि सम्बन्धबुद्धया तदा वक्तव्यम्-कोऽयं सम्बन्धः ? किं a सम्बन्धत्वजातियुक्तः, b आहोस्विदनेकोपादानजनितः, c अनेकाश्रितो वा, d सम्बन्धबुद्धिविषयो वा, e सम्बन्धबद्धयुत्पादको वा? a तद् यदि सम्बन्धत्वजातियुक्तः स न युक्तः, समवायाऽसम्बन्धत्वप्रसंगात् / b अथाने कोपादानजनितस्तदा घटादेरपि सम्बन्धत्वप्रसंगः / c अथानेकाश्रितस्तदा घटजात्यादौ सम्बन्धत्वप्रसंगः / अथ सम्बद्धबुद्धयुत्पादकस्तदा लोचनादेरपि सम्बन्धत्वप्रसक्ति: / d अथ सम्बद्धबुद्धचवसे यस्तदा घटादिध्वपि सम्बन्धशब्दव्युत्पादने सम्बन्धज्ञानविषयत्वे सम्बन्धत्वप्रसंगः, तथा सम्बन्धेतरयोरेकज्ञानविषयत्वे इतरस्य सम्बन्धरूपताप्रसक्तिः। अथ सम्बन्धाकारः सम्बन्धः, संयोगाभेदप्रसंगः, अत्रान्तराकारभेदश्च न भेदकः, तस्याऽप्रसिद्धः। b व्यावृत्तस्वभाव / समवाय को आप कैसा मानंगे? a सकल समवायी पदार्थों में अनुगत एक स्वभाववाला मानगे या b उन से व्यावृत्तस्वभाववाला मानेगे? b उनसे व्यावृत्तस्वभाववाला मान नहीं सकते क्योंकि जो सकल पदार्थों से व्यावृत्तस्वभाववाला होगा वह अन्य किसी का भी सम्बन्धी न होने से समवायरूप ही नहीं हो सकता, जैसे नील का स्वरूप नीलेतर सभी पदार्थों से व्यावृत्त होने से समवायरूप नहीं होता। a सभी पदार्थों में अनुगत एक स्वभाव वाला भी उसे नहीं मान सकते क्योंकि अनुगतस्वभाववाली वस्तु समवायरूप नहीं घट सकती जैसे जाति अनुगतस्वभाववाली होती है तो उस में समवायत्व नहीं रहता है / तथा नित्य और एक होने पर जो अनेक में रहता है वह तो नैयायिक मत में जातिरूप माना जाता है, समवायरूप नहीं। उपरांत, निर्विकल्प और सविकल्प कोई भी प्रत्यक्ष समवाय के स्वरूप को भी ग्रहण करके जब प्रवृत्त होता नहीं है, तब उसके अनेक समवायि में अनगत एक स्वभावरूप विशेषता को तो ग्रहण करने की बात ही कहाँ ? सामान्यतत्त्व के निराकरण के प्रसंग में यह कहा ही है कि जिसके स्वरूप का भी ग्रहण नहीं होता उसके अनुगत एक स्वभाव का प्रतिभास नहीं हो सकता। जब प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति समवाय के विषय में नहीं है तो प्रत्यक्षमूलक अनुमान की भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। [संबन्धरूप से समवाय का अध्यवसाय विकल्पग्रस्त ] यदि ऐसा कहें कि-समवाय का सम्बन्धरूप से अध्यवसाय (=भान) होता है अत: वह असिद्ध नहीं है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ तीन विकल्प हैं-A क्या “सम्बन्ध"-इस आकार की बुद्धि से उसका भान होता है B या 'इह यहाँ (वह है)' ऐसी बुद्धि से भान होता है C या 'समवाय' ऐसी प्रतीति से उसका भान होता है। A अगर कहें कि-'सम्बन्ध' ऐसी बुद्धि से उसका भान होता है तो यहाँ पाँच प्रश्न हैं-a यह Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे उ० 616 B अथेहबुद्धयाऽवसेयः समवायः / न, इहबुद्धरधिकरणाध्यवसायरूपत्वात् / न चान्यस्मिन्नाकारे प्रतीयमानेऽन्याकारोऽर्थः कल्पयितुयुक्तः, अतिप्रसंगात् / ___C अथ समवायबुद्धया समवायः प्रतीयत इत्यभ्युपगमः, सोऽप्यनुपपन्नः, समवायबुद्धरनुपपत्तेः, न हि 'एते तन्तवः, अयं पटः, अयं समवायः' इति परस्परविविक्तं त्रितयं बहिर्गाह्याकारतया फस्याञ्चित् प्रतीतावुद्भाति, तथानुभवाभावात् / अथानुमानेन प्रतीयते / अयुक्तमेतत् , प्रत्यक्षाभावे तत्पूर्वकस्यानुमानस्याप्यप्रवृत्तः / सामान्यतोदृष्टाप नात्र वस्तुनि प्रवत्तंते, तत्प्रभवकार्यानुपलब्धः / न च इहबुद्धिरेव समवायज्ञापिका-"इह तन्तुषु पट: इति प्रत्ययः सम्बन्धनिमित्तः, अबाधितेहप्रत्ययत्वात् , 'इह कुण्डे दधि' इति प्रत्ययवत्" इति-विकल्पानुपपत्तेः। तथाहि-किं निमित्तमात्रमनेन प्रतीयते, उत सम्बन्धः ? यदि निमित्तमात्रं तदा सिद्धसाध्यता। अथ सम्बन्धः, स संयोगः समवायो वा ? सम्बन्ध क्या सम्बब्धत्वजातिवाला है ? b या अनेक उपादानों से जन्य है ? cया अनेक मे आश्रित है ? d या सम्बन्धाकार बुद्धि का विषय है ? e या सम्बन्धाकार बुद्धि का उत्पादक है ? ___a अगर कहें कि वह सम्बन्धत्वजातिवाला है तो यह अयुक्त है क्योंकि वह जातियुक्त होने से कभी समवायसम्बन्धरूप्र नहीं हो सकेगा। [ समवाय तो मात्र एक व्यक्ति रूप ही आपने माना है। ] b यदि कहें कि समवाय अनेक उपादानों से जन्य पदार्थ है तो वहाँ घटादि को भो समवाय सम्बन्ध रूप मानने की आपत्ति होगी क्योंकि घटादि भी अनेक उपादनों से जन्य होता है। यदि उसे अनेक : में आश्रित मानेंगे तो घट और जाति आदि में भी सम्बन्धत्व की अतिप्रसक्ति होगी क्योंकि घट और जात्यादि अनेक में आश्रित होते हैं। यदि उसे सम्बन्धाकार बुद्धि का उत्पादक कहा जाय तो लोचनादि भी सम्बन्धाकार बुद्धि के उत्पादक होने से लोचनादि को सम्बन्ध रूप मानना पड़ेगा। d यदि उसे सम्बन्धाकारबुद्धि ग्राह्य से मानेंगे तो घटादि में सम्बन्धत्व मानने की आपत्ति होगी, क्योंकि 'सम्बन्ध' शब्द का यदि घटादि अर्थ में आधुनिक संकेत किया जाय तो सम्बन्ध शब्द से होने वाली सम्बन्धाकारबुद्धि को विषयता घटादि में हो जायेगी। तदुपरांत, यदि सम्बन्ध और सम्बन्धभिन्न पदार्थों का एक साथ (समूहालम्बन) ज्ञान होगा तब सम्बन्धभिन्न वस्तु भी सम्बन्धाकार ज्ञान का विषय बन जाने से उसमें सम्बन्धत्व की आपत्ति होगी। यदि कहें कि-अन्तरात्मा में जो सम्बन्धाकार का अनुभव होता है वह सम्बन्धाकार ही सम्बन्धरूप है-तो समवाय और संयोग दोनों में अभेद प्रसक्त होगा क्योंकि संयोग का भो अन्तरात्मा में सम्बन्धाकार ही अनुभव होता है / आन्तर आकारभेद को दोनों का भेदक नहीं कह सकते, क्योंकि उन दोनों का अन्तरात्मा में सम्बन्धाकाररूप से ही अनुभव होता है अतः आन्तर आकारभेद ही असिद्ध है। [ इहबुद्धि और समवायबुद्धि से समवाय की प्रतीति अनुपपन्न ] __B यदि समवाय को 'इह' इस आकार की बुद्धि से ग्राह्य दिखाया जाय तो उससे समवाय की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि 'इह' यह बुद्धि तो अधिकरण को विषय करती है, समवाय को नहीं। जिस आकार की प्रतीति होती है उससे भिन्न आकार वाले अर्थ को उस प्रतीति का विषय मानना युक्त नहीं है, अन्यथा घटाकार प्रतोति को पटविषयक मानने को आपत्ति होगी। . C 'समवाय' इस आकार की बुद्धि से समवाय की प्रतीति होने की बात भी अयुक्त है, क्योंकि विचार करने पर 'समवाय' इस आकार की बुद्धि ही घट नहीं सकती। किसी भी प्रतीति में 'ये तन्तु, Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 620 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 संयोगप्रतिपत्तावभ्युपगमबाधा। समवायानुमाने सम्बन्धव्यतिरेकः, न चान्यस्य सम्बन्धे सत्यन्यस्य गमकत्वम् , अतिप्रसंगात् / न हि देवदत्तेन्द्रियघटसम्बन्धे यज्ञदत्तेन्द्रियं रूपादिकमर्थ करणत्वात् प्रकाशयद् दृष्टम् / तन्न समवायः कस्यचित् प्रमाणस्य गोचरः। न च तस्य समवायिभ्यामसम्बद्धस्य सम्बन्धरूपता / न च तत्सम्बन्धनिमित्तोऽपरः समवायोऽभ्युपगम्यते, अभ्युपगमे वाऽनवस्थाप्रसंगः। विशेषण-विशेष्यभावस्यापि तत्सम्बन्धनिमित्तस्य सम्बन्धाभ्युपगमेऽनवस्थादिदूषणं समानम् / न चाऽसम्बद्धस्याऽपि तस्य सम्बन्धरूपत्वादपरपदार्थसम्बन्धकत्वमिति वाच्यम् , विहितोत्तरत्वात् / न च समवायस्यान्यस्य वा एकान्तनित्यस्य कार्यजनकत्वं सम्भवति, नित्ये क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् / न च तदभावे पदार्थानां सत्त्वम् , सत्तासम्बन्धित्वेन तस्य निषिद्धत्वान्निषेत्स्यमानत्वाच्च / तदेवं समवायस्याभावात् सन्तानत्वं बुद्धयादिसन्तानेषु न वृत्तिमत् सिद्धमिति सन्तानत्वलक्षणे हेतुः कथं नाऽसिद्धः ? यह वस्त्र और यह समवाय' इस प्रकार परस्पर पृथक् रूप से बाह्यरूप में ग्राह्यआकारवाला त्रिपुटी . . का भान नहीं होता क्योंकि वैसा अनुभव ही किसी को नहीं होता है। ___ अनुमानात्मक प्रतीति में उक्त त्रिपुटी का भान मानने की बात भी अयुक्त है, क्योंकि त्रिपुटी का प्रत्यक्ष न होने पर प्रत्यक्षमूलक अनुमान की संभावना ही नहीं रहती। यदि कहें कि-प्रत्यक्षमूलक अनुमान भले न होता हो किन्तु 'सामान्यतोदृष्ट' अनुमान की समवाय के ग्रहण में प्रवृत्ति शक्य है-तो यह भो अयुक्त है क्योंकि समवायजन्य कोई ऐसा कार्य उपलब्ध नहीं है जिस के बल से अप्रत्यक्ष भी समवाय की सिद्धि हो सके। [ इहबुद्धि से समवायसिद्धि अशक्य ] __ यदि यह कहा जाय कि-'इह यहाँ” इस आकार की बुद्धि ही समवाय की साधक है, जैसे देखिये-'यहां तन्तुओं में वस्त्र है, ऐसो प्रतीति सम्बन्धनिमित्तक है क्योंकि वह बाधरहित 'यहाँ ऐसी प्रतीतिरूप है जैसे कि 'यहाँ कुण्ड में दहीं है' ऐसी बृद्धि (सयोग ) सम्बन्धमूलक होती है / तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस अनुमान में जो प्रतीत होता है उसके ऊपर एक भो विकल्प घटता नहीं है, जैसे देखिये-a निमित्तमात्र हा यहाँ प्रतीत होता है या b सम्बन्ध हो प्रतीत होता है ? a निमित्तमात्र की प्रतोति तो हम भी मानते हैं अतः पहले विकल्प में सिद्धसाधन दोष हुआ। b यदि सम्बन्ध प्रतीत होता है तो वह संयोग या समवाय में से कौनसा है ? संयोग को प्रतीति मानेंगे तो अपनी मान्यता के साथ विरोध होगा क्योंकि आप को वहाँ समवाय की प्रतीति इष्ट है। यदि समवाय की प्रतीति होने का मानेंगे तो सम्बन्ध की प्रतीति का अभाव प्रसक्त होगा। नियम है कि जिस का किसी के साथ सम्बन्ध हो वही उसका बोधक हो सकता है अन्य कोई नहीं। उदा० देवदत्त की इन्द्रिय का घट के साथ सम्बन्ध होने पर यज्ञदत्त की इन्द्रिय सिर्फ करण होने मात्र से ही घटरूपादि अर्थ का प्रकाश करती हुयी नहीं दिखती है। प्रस्तुत में उक्त अनुमान (हेतु) को यदि समवाय के साथ सम्बन्ध है तो वह समवाय का ही बोधक होगा, सम्बन्ध का नहीं, क्योंकि सम्बन्ध के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है / सारांश, समवाय किसी भी प्रमाण का विषय नहीं है। [समवाय के अभाव में सन्तानत्व हेतु की असिद्धि ] तथा, समवाय जब तक दो समवायि से असम्बद्ध रहेगा तब तक वह स्वयं सम्बन्धरूप नहीं हो सकता। दो समवायी के साथ उसे सम्बद्ध मानने के लिये सम्बन्धकारक एक नया सम्बन्ध मानना Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे उ० 621 अथोपादानोपादेयभूतबुद्धयादिलक्षणं प्रवाहरूपमेव सन्तानत्वं हेतुत्वेन विवक्षितम् / ननु एवं तस्य तथाभूतस्याऽन्यत्राननुवृत्तेरसाधारणानकान्तिकत्वम् अभ्युपगमविरोधश्च / न हि परेण बुद्धिक्षणोपादानोऽपरः सर्व एव बुद्धिक्षणोऽभ्युपगम्यते एकसन्तानपतितः / तथाभ्युपगमे वा मुक्तावस्थायामपि पूर्वपूर्वबुद्धयुपादानक्षणादुत्तरोत्तरोपादेयबुद्धिक्षणस्य सम्भवान्न बुद्धिसन्तानस्यात्यन्तोच्छेदः साध्यः सम्भवति, यथोक्त हेतु सद्भावबाधितत्वात् / अथ पूर्वापरसमानजातीयक्षणप्रवाहमानं सन्तानत्वं तेनाऽयमदोषः। ननु एवमपि हेतोरसाधारणत्वं तदवस्थम् / न ह्य कसन्तानरूपमन्यानुयायि, व्यक्तेर्व्यक्त्यन्तराननुगमाव , अनुगमे वा सामान्यपक्षभावी पूर्वोक्तो दोषस्तदवस्थः, अनैकान्तिकश्च पाकजपरमाणुरूपादिभिः तथाविधसन्तानत्वस्य तत्र सद्भावेऽप्यत्यन्तोच्छेदाभावात् / अपि च, सन्तानत्वमपि भविष्यति अत्यन्तानुच्छेदश्चेति विपर्यये हेतोर्बाधकप्रमाणाभावेन संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनकान्तिकः / विपक्षेऽदर्शनं च हेतोबर्बाधकं प्रमाणं प्रागेव प्रतिक्षिप्तम्। पडेगा जो आप तो नहीं मानते हैं, यदि मानेंगे तो उस नये सम्बन्ध को भी सम्बद्ध करने के लिये फिर नया-नया सम्बन्ध मानने में अनवस्था दूषण लगेगा। विशेषण-विशेष्य भाव को यदि समवाय का दो समवायी के साथ सम्बन्धकारक सम्बन्धरूप मानेंगे तो भी अनवस्था दूषण तो ज्यों का त्यों रहेगा ही। यदि ऐसा कहें कि-समवाय स्वयं असम्बद्ध होने पर भी सम्बन्धरूप है। इसीलिये दो समवायी पदार्थ के सम्बन्धकारकरूप में उस को मान सकते हैं-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसे तो दो समवायी को ही परस्पर सम्बन्धकारकरूप से मान सकते हैं यह उत्तर पहले भी दे दिया है। तदुपरांत, दो समवायी के बीच सम्बन्धकारकरूप में मान्य समवाय अथवा तो कोई भी अन्य पदार्थ यदि नित्य होगा तो वह किसी भी कार्य को जन्म नहीं दे सकता, क्योंकि नित्य पदार्थ विरोध के कारण क्रम से या एक साथ अर्थक्रियाकारक नहीं बन सकता यह हम आगे दिखायेंगे / जब पदार्थ में अर्थक्रियाकारित्व नहीं घटेगा तो उसका सत्त्व भी अमान्य हो जायेगा / यदि कहें कि-हम अर्थक्रियाकारित्वरूप सत्त्व को नहीं किन्तु सत्ताजातिसम्बद्धत्वरूप सत्त्व को मानेंगे-तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि सत्ताजातिसम्बद्धत्वरूप सत्त्व का पहले निषेध किया है और आगे भी किया जायेगा / निष्कर्ष, समवाय असिद्ध होने से यही सिद्ध होता है कि सन्तानत्व किसी भी सम्बन्ध से बुद्धिसन्तान में वृत्तिमत् नहीं है / अतः आपने जो अनुमान कहा था कि "बुद्धि आदि के सन्तान का अत्यन्त विनाश होता है क्योंकि उनमें सन्तानत्व है, जैसे प्रदीपसन्तान में"-इस अनुमान में सन्तानत्व हेतु असिद्ध कैसे नहीं है ? ! [ उपादानोपादेयबुद्धिप्रवाह रूप सन्तानत्व हेतु में दोष ] यदि कहें कि-सन्तानत्व हेतु को जातिस्वरूप न मान कर उपादान-उपादेयभावविशिष्टबुद्धि आदि की क्षणपरम्परारूप माना जाय तो उक्त कोई दोष नहीं है-तो यह बात गलत है क्योंकि यहाँ असाधारण अनैकान्तिक दोष सावकाश है / वह इस प्रकार:-जो हेतु सभी सपक्ष और विपक्ष से व्यावृत्त हो उसको असाधारणअनैकान्तिक कहा जाता है। प्रस्तुत में बुद्धि आदि क्षणपरम्परारूप सन्तानत्व हेतु प्रतिवादी के मत से विपक्षव्यावृत्त तो है ही, और सपक्ष व्यावृत्त इसलिये है कि बुद्धि आदि क्षणपरम्परारूप सन्तानत्व सिर्फ बुद्धि आदि में ही रहेगा, प्रदीपादि में उसकी अनुवृत्ति नहीं रहती, * बुद्धयादिक्षणप्रवाहरूपमेव-इति पाठशुद्धिरत्र गवेषणीया / Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 622 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 विरुद्धश्चायं हेतुः, शब्द-बुद्धि-प्रदीपादिष्वप्यत्यन्तानुच्छेदवत्स्वेव सन्तानत्वस्य भावात् / न ह्य कान्तनित्येष्विवाऽनित्येष्वप्यर्थक्रियाकारित्वलक्षणं सत्त्वं सम्भवतीति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् / न च प्रदीपादीनामुत्तरः परिणामो न प्रत्यक्षः इत्येतावता 'ते तथा न सन्ति' इति व्यवस्थापयितु शक्यम् , अन्यथा परमाणूनामपि पारिमाण्डल्यगुणाधारतया प्रत्यक्षतोऽप्रतिपत्तेस्तद्रूपतयाऽसत्त्वप्रसंगः / अथ तेषां तद्रूपताऽनुमानात् प्रतिपत्ते यं दोषः / ननु साऽनुमानात् प्रतिपत्तिः प्रकृतेऽपि तुल्या। यथा हि स्थूलकार्यप्रतिपत्तिस्तदपरसूक्ष्मकारणमन्तरेणाऽसम्भविनी परमाणुसत्तामवबोधयति तथा मध्यस्थितिदर्शनं पूर्वापरकोटिस्थितिमन्तरेणासम्भवि तां साधयतीति प्रतिपादयिष्यते / क्योंकि प्रदीपादि में प्रदीपक्षणपरम्परा रहती है / तदुपरांत, यहाँ नैयायिक को अपनी मान्यता के साथ विरोध भी आयेगा / कारण, नैयायिक मत में एकपरम्परागत सकल बुद्धिक्षणों का बुद्धिक्षणरूप उपादान नहीं माना जाता / तात्पर्य, जागृति के आद्यबुद्धिक्षण का पूर्व बुद्धिक्षण उपादान नहीं होता है और अन्तिमबुद्धिक्षण का कोई उत्तरबुद्धिक्षणरूप उपादेय नहीं होता है / यदि नैयायिक बुद्धि क्षणों में उपादान-उपादेयभाव आँख मुंद कर मान लेगा तो मुक्ति अवस्था में भी पूर्वपूर्वबुद्धिक्षणरूप उपादान से उत्तरोत्तरबूद्धिक्षणरूप उपादेय के उत्पाद का सम्भव हो जाने से 'बुद्धिसन्तान के अत्यन्तोच्छेदरूप' साध्य का ही असम्भव हो जायेगा / क्योंकि अखंडित पूर्वापरबुद्धिक्षणपरम्परारूप हेतु का पक्ष में सद्भाव होने पर अत्यन्तोच्छेदरूप साध्य का बाधित होना सहज है। [ पूर्वापरभावापन्नक्षणप्रवाहरूप सन्तानत्व हेतु में दोष ] यदि कहें कि-उपादान-उपादेय भूत क्षणपरम्परा को हम हेतु नहीं करेंगे किन्तु पूर्वापरभावापन्न समानजातीय क्षणपरम्परारूप सन्तानत्व को ही हेतु करेंगे। अतः उपादानोपादेयभाव मूलक जो दोष होता है वह नहीं होगा-तो यह कुछ ठीक है किन्तु पहला जो असाधारण अनैकान्तिक दोष है वह तो ज्यों का त्यों ही रहेगा / कारण, बुद्धि आदि क्षणपरम्परा बुद्धि आदि से अन्यत्र प्रदीप आदि में अनुवर्तमान नहीं है / कारण, नैयायिक मत में जातिरूप पदार्थ का अन्य व्यक्तिओं में अनुगम हो सकता है किन्तु व्यक्तिरूप पदार्थ का अन्य व्यक्तिओं में अनुगम सम्भव ही नहीं है / यदि व्यक्ति का भी अन्य व्यक्तिओं में अनुगम मानेंगे तो हमने पहले जो जाति के ऊपर दोषारोपण किया है वह यहाँ ज्यों का त्यों लागु हो जायेगा / तथा, हेतु में अनैकान्तिक दोष का भी सम्भव है, वह इस प्रकार:परमाणु के पाकजरूपादि में पूर्वापरसमानजातीयरूपादिक्षणपरम्पंगरूप सन्तानत्व हेतु रहने पर भी उस परम्परा का अत्यन्त उच्छेद नहीं होता है / अनेकान्तिक दोष यहाँ दूसरे प्रकार से भी लागू होता है, वह इस प्रकार:-सन्तानत्व भले हो, अत्यन्तोच्छेद का अभाव भी रहे, तो क्या बाध है-ऐसी विपरोत शंका करने पर कोई उसका बाधक प्रमाण नहीं है अत: बुद्धिआदि का सन्तान ही विपक्षरूप में संदिग्ध हो गया और हेतु उसमें रहता है अतः संदिग्धविपक्षव्यावृत्ति रूप अनैकान्तिक दोष प्रकट हुआ। विपक्ष में हेतु के अदर्शनमात्र को उक्त शंका के बाधक प्रमाणरूप में मान लेने की बात का तो पहले ही प्रतिकार हो चुका है। [ सन्तानत्व हेतु में विरोध दोष ] बुद्धि आदि में अत्यन्तोच्छेद की सिद्धि के लिये प्रयुक्त सन्तानत्व हेतु में पूर्वोक्त दोषों के उपरांत विरोध दोष भी है। कारण, सन्तानत्व उन्हीं में रहता है जिनका ( किंचिद् अंश से उच्छेद Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे उ० 623 न च ध्वस्तस्यापि प्रदीपस्य विकारान्तरेण स्थित्यभ्युपगमे प्रत्यक्षबाधा, वारिस्थे तेजसि भास्वररूपाभ्युपगमेऽपि तद्बाधोपपत्तेः / अथोष्णस्पर्शस्य भास्वररूपाधिकरणतेजोद्रव्याभावेऽसम्भवादनुभूतस्य तत्र परिकल्पनमनुमानतः, तर्हि प्रदीपादेरप्यनुपादानोत्पत्तिवत् न सन्ततिविपत्त्य भावमन्तरेण विपत्तिः सम्भवतीत्यनुमानतः किं न कल्प्यते तत्सन्तत्यनुच्छेदः ? अन्यथा सन्तानचरमक्षणस्य क्षणान्तराजनकत्वेनाऽसत्त्वे पूर्वपूर्वक्षणानामपि तत्त्वान्न विवक्षितक्षरणस्यापि सत्त्वमिति प्रदीपादेदृष्टान्तस्य बुद्धयादिसाध्यमिणश्चाभाव इति नानुमानप्रवृत्तिः स्यात् / तस्मात् शब्द-बुद्धि-प्रदीपादीनामपि सत्त्वे नात्यन्तिको व्युच्छेदोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा विवक्षितक्षणेऽपि सत्त्वाभावः / इति सर्वत्रात्यन्तानुच्छेदवत्येव सन्तानत्वलक्षणो हेतुर्वर्त्तत इति कथं न विरुद्धः ? विपरीतार्थोपस्थापकस्यानुमानान्तरस्य सद्भावादनुमानबाधितः पक्षः, हेतोर्वा कालात्ययापदिष्टत्वम् / यथा चानुमानस्य पक्षबाधकत्वम् अनुमानबाधितपक्षनिर्देशानन्तरं प्रयुक्तत्वेन हेतो कालात्ययापदिष्टत्वं तथाऽसकृत प्रतिपादितमिति न पुनरुच्यते / अथ किं तदनुमानं प्रकृतप्रतिज्ञायाः बाधकं येनात्रायमुक्तदोषः स्यात? उच्यते होने पर भी) अत्यन्त ( =सर्वथा ) उच्छेद नहीं होता जैसे कि शब्द, बुद्धि और प्रदीप का सन्तान / यह हम आगे दिखाने वाले हैं कि अर्थक्रियाकारित्वरूप सत्त्व का लक्षण जैसे एकान्तनित्य पदार्थों में नहीं घटता, वैसे एकान्त अनित्य पदार्थों में भी नहीं घटता है। प्रदीपादि का उत्तरकालीन परिणाम प्रत्यक्ष नहीं दिखता है इतने मात्र से 'वे नहीं है' ऐसी स्थापना शक्य नहीं / अन्यथा यह आपत्ति होगी कि पारिमाण्डल्य (=अणुपरिमाण) गुण के आधाररूप में परमाणुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता तो उन का भी असत्त्व हो मानना पड़ेगा / अगर कहें कि-अनुमान से अणुपरिमाण के आधाररूप में परमाणु सिद्ध हैं अतः उनके असत्त्व की आपत्ति का दोष निरवकाश है-तो प्रस्तुत में प्रदीपादि का भी उत्तरकालीन सत्त्व अनुमानसिद्ध होने से असत्त्वापत्ति दोष की निरवकाशता तुल्य है / दोनों जगह अनुमान से सिद्धि इस प्रकार हैं-अन्य सूक्ष्म अवयवात्मक कारणों के विना स्थूल अवयवी कार्य का भान होना सम्भव नहीं है अत: चरम सुक्ष्म अवयवात्मक कारण के रूप में परमाण स्थिति का दर्शन उसर्क पूर्वापरकोटि में स्थिति के विना सम्भव नहीं है, अत: प्रदीपादि का भी अप्रकाशकाल में पूर्वापर सत्त्व सिद्ध होता है-यह आगे दिखाया जायेगा। [सन्तानत्व हेतु में विरोध दोष का समर्थन ] बुझे हुए प्रदीप का अन्य विकाररूप से (यानी अन्धकार द्रव्यात्मकपरिणामरूप से) अवस्थान मानने में प्रत्यक्षबाध जैसा कुछ नहीं है। यदि यहाँ प्रत्यक्ष बाध मानेंगे तो उष्णजलान्तर्वर्ती अग्नि की भास्वररूपवत्ता मानने में भी प्रत्यक्ष बाध मानना पड़ेगा। यदि कहें कि-'भास्वररूपाधिकरणभूत अग्निद्रव्य के अभाव में, जल में उष्ण स्पर्श का सम्भव नहीं है अत: अनुमान से वहाँ अनुभूत भास्वररूप की कल्पना अनिवार्य है'-तो प्रस्तुत में यह कह सकते हैं कि उपादान के विना जसे अग्नि की उत्पत्ति सम्भव न होने से उपादान की कल्पना की जाती है, उसी तरह सन्तान का नैरन्तर्य न रहने पर उसका ध्वंस भी सम्भव नहीं है तो फिर अनुमान से प्रदीपादि के सन्ततभाव की कल्पना भी क्यों न की जाय? ! यदि आप प्रदीप सन्तान के अन्तिम क्षण को ऐसे ही ( नये विकार के जन्म के विना) ध्वस्त मान लेंगे तो उस में क्षणान्तरजनकत्व ( रूप अर्थक्रियाकारित्व ) के न रहने से सत्त्व Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 624 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 पूर्वापरस्वभावपरिहारावाप्तिलक्षणपरिणामवान् शब्द बुद्धि प्रदीपादिकोऽर्थः, सत्त्वात् कृतकत्वाद्वा, यावान् कश्चित् भावस्वभावः स सर्वः तादृशभावस्वभावविवर्त्तमन्तरेण न सम्भवति, तथाहि न तावत् क्षणिकस्य निरन्वयविनाशिनः सत्त्वसम्भवोऽस्ति स्वाकारानुकारि ज्ञानमन्यद्वा कार्यान्तरमप्राप्याऽऽत्मानं संहरतः सकलशक्तिविरहितस्य व्योमकुसुमादेरिव सत्त्वानुपपत्तेः / तादृशस्य न हि कार्यकालप्राप्तिः, क्षणभंगभंगप्रसक्तेः / नापि फलसमयमात्मानमप्रापयतस्तज्जननसामर्थ्य चिरतरविनष्टस्येव सम्भवति / न च समनन्तरभाविनः कार्यस्योत्पादने कारणं स्वसत्ताकाल एव सामर्थ्यमाप्नोति, कार्यकाले तस्य स्वभाव (वा) विशेषात् ततः प्रागपि कार्योत्पत्तिप्रसंगात् / तस्मिन् सत्यभवन्नसति स्वयमेव भवन्नयं भावः तत्कार्यव्यपदेशमपि न लभते, न हि समर्थे कारणे प्रादुर्भावमप्राप्नुवत् कार्यम इतरद्वा कारणम , अतिप्रसंगात / न च समनन्तरभावविशेषमात्रेण तत्कार्यत्वं युक्तम , समनन्तरप्रभवत्वस्यवाऽसम्भवात-इतरेतराश्रयप्रसक्तः इति प्रतिपादितत्वात / का अभाव प्रसक्त होगा / अन्तिम क्षण में सत्त्व का अभाव प्रसक्त होने पर उपान्त्यादिक्षण परम्परा में भी असत्त्व प्रसक्त होगा, इस प्रकार तो जिस क्षण में आपको प्रदीप का सत्त्व इष्ट है उस क्षण में भी उसका असत्त्व प्रसक्त होगा / फलत: दृष्टान्तभूत प्रदीपादि और पक्षभूत बुद्धि आदि धर्मी का ही अभाव हो जायेगा, तो अनुमान की प्रवृत्ति भी कैसे होगी ? ! यदि आपको इस दोष से बचना है अर्थात् शब्द, बुद्धि और प्रदीपादि का विवक्षित क्षण में सत्त्व मानना है तो फिर उनका अत्यन्त विच्छेद मत मानीये, यदि मानेंगे तो विवक्षित क्षण में भी असत्त्व की आपत्ति खडी है। सारांश, प्रदीपादि सब अत्यन्तविच्छेदरहित ही हैं और उनमें ही सन्तानत्व हेतु रहता है तो वह विरुद्ध क्यों नहीं होगा? . [सन्तानत्व हेतु में पक्षबाधा और कालात्ययापदिष्टता] , विरुद्ध दोष की तरह प्रतिपक्षी के अनुमान में अनुमानबाधितपक्षरूप दोष भी है क्योंकि उक्त साध्य से विपरीत अर्थ का साधक अन्य अनुमान मौजूद है। अथवा अनुमानबाध के बदले हेतु में कालात्ययापदिष्टता दोष भी कहा जा सकता है / अन्य अनुमान से पक्षबाधा कैसे है अथवा पक्ष के अनुमानबाधित होने का निर्देश करने के बाद हेतु प्रयोग किये जाने के कारण हेतु में कालात्ययापदिष्ट दोष कैसे लगता है यह तो बार बार कह चुके हैं इसलिये फिर से नहीं कहते हैं / यदि यह पूछा जाय कि हमारी सन्तान के अत्यन्तोच्छेद की प्रतिज्ञा में बाधक बनने वाला वह कौन सा अनुमान है जिस से पक्षबाधादि उक्त दोष होता है ? तो उत्तर में यह अनुमान है कि "शब्द-बुद्धि और प्रदीपादि पदार्थ पूर्वस्वभावपरिहार-उत्तरस्वभावधारणस्वरूप परिणामवाले होते हैं क्योंकि वे सत् हैं अथवा कृतक हैं / जो कुछ भावस्वभाव पदार्थ हैं उन सभी का तथाविधभावस्वभावविवर्त ( यानो पूर्वस्वभावत्याग-उत्तरस्वभावधारणरूप परिणामभाव ) के विना सम्भव नहीं होता।" जैसे देखिये [शब्दादि में परिणामवाद की सिद्धि ] [ शब्द में परिणामित्व की सिद्धि के लिये कथित अनुमान के बाद जो व्याप्ति कही गयोउसका अब विस्तार से समर्थन किया जा रहा है ] निरन्वयविनाशी क्षणिक वस्तु का सत्त्व सम्भवित नहीं है / कारण, अपने आकार से तुल्य ज्ञान को या अन्य किसी कार्य को उत्पन्न किये विना ही अपनी Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे उ० 625 उपचरितं चैवं तस्य कार्यत्वमितरस्य च कारणत्वं स्यात् प्रक्षणिकवत् / तत्कारणभावे सत्यभवन्तं प्रति पुनः कारणस्य भावाभावयोर्न कश्चिद्विशेषः, ततोऽक्षणिकादिव क्षणिकादपि सत्त्वादिर्वस्तुस्वभावो व्यावर्त्तत एव / न ह्यक्षणिके एव क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोध:, कि तहि ? क्षणभंगेऽपि / तथाहि-न तावत् कार्य-कारणयोः क्रमः सम्भवति, कालभेदात् जन्य-जनकभावविरोधात् , चिरतरोपरतोत्पन्नपितापुत्रवत् / न हि तादृशस्यापेक्षाऽपि सम्भवति, अनाधेयाऽप्रहेयातिशयत्वाद् अक्षणिकवत्, न हि कश्चिदतिशयं ततोऽनासादयत् भावान्तरमपेक्षते यतः क्रमः स्यात् , जन्यजनकयोराधेयविशेषत्वेऽपि न कमसम्भवः, कमिणोः कालभेदात् तत्त्वानुपपत्तेः / यौगपद्यं तु तयोर्हेतुफलभावतयैवाऽसम्भवि, समानकालयोहि न हेतुफलभावः सव्येतरगोविषाणवदपेक्षानुपपत्तेः / जात का संहरण करने वाले अतएव सकलशक्तिशून्य ऐसी वस्तु का सत्त्व सम्भवित नहीं है जैसे कि गगनकुसुमादि / (सत्त्व मानने के लिये उससे कुछ कार्य होने का मानना चाहिये किन्तु वह भी संगत नहीं होता, वह इस प्रकार:-) कार्योत्पत्ति काल के साथ क्षणिकभाव का योग सम्भव नहीं है, यदि सम्भव माने तो दूसरे क्षण में उसका सद्भाव हो जाने से क्षणिकवाद का भंग हो जायेगा। कार्यकाल के साथ जिसका योग न हो ऐसे पदार्थ में कार्योत्पादन के लिये सामर्थ्य भी नहीं घट सकता जैसे कि चिर पूर्व में विनष्ट पदार्थ वर्तमान में कार्योत्पादन के लिये असमर्थ होता है / यदि ऐसा कहें कि-समनन्तरभावि (=स्वोत्तरकालभावि) कार्य के उत्पादन के लिये कारणक्षण अपने सत्ताकाल में ही समर्थ होता है-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि कार्यकाल में कार्योत्पत्ति करने के लिये अपेक्षित जो स्वभाव है वह कारणकाल में भी समानरूप से विद्यमान है अत: कार्यकाल के पूर्वक्षण में, अर्थात् कारणक्षण में भी कार्योत्पत्ति हो जाने की आपत्ति आयेगी। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कारण की विद्यमानता में जो नहीं उत्पन्न होता और कारण की अविद्यमानता में (उत्तरक्षण में) जो स्वयं उत्पन्न होता है ऐसे पदार्थ को 'कार्य' संज्ञा ही प्राप्त नहीं है। समर्थ कारण की विद्यमानता में भी जो उत्पन्न नहीं होता वह कार्य ही कैसे कहा जाय? और उसके कारण को कारण भी कैसे कहा जाय ? यदि कहेंगे तो जिस किसी की भी कारण-कार्य संज्ञा की जा सकेगी। तथा तत् का समनन्तर भाव विशेष (स्वोत्तरक्षणवत्तित्व) मात्र होने से किसी को तत् पदार्थ का कार्य कहना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि यहाँ समनन्तरजन्यत्व (यानी तत् पदार्थ के उत्तरकाल में उत्पत्ति) की संगति ही नहीं बैठ सकती। कारण, 'समनन्तरजन्यत्व' का पृथक्करण करने पर इतरेतराश्रय दोष होता है यह कहा जा चुका है / कार्यत्व का आधार कारणानन्तये और कारणत्व का आधार कार्यानन्तर्य हो जाने से अन्योन्याश्रय स्पष्ट ही है। . [क्षणिकवाद में कारण-कार्यभाव की अनुपपत्ति ] ... तदुपरांत, कारण की अविद्यमानता में भी उत्पन्न होने वाले भाव की यदि आप 'कार्य' संज्ञा करेंगे तो वह वास्तव न होकर औपचारिक बन जायेगी, अत एव पूर्वभाव में कारणत्व भी ही बन जायेगा, जैसे कि क्षणिकवादी अक्षणिक भाव में कार्यत्व या कारणत्व को वास्तव नहीं किन्तु औपचारिक ही मानता है। तात्पर्य यह है कि, कारणत्वेन अभिमत भाव के होने पर भी कार्य यदि नहीं होता तो उसके प्रति कारण का सद्भाव हो या अभाव, कोई फर्क नहीं पड़ता। अतः अक्षणिक वस्तु में जैसे सत्त्वादिरूप वस्तुस्वभाव संगतियुक्त नहीं है वैसे क्षणिक पदार्थ में भी वह संगत नहीं है / ऐसा नहीं है कि सिर्फ अक्षणिक भाव को ही क्रमशः अथवा एकसाथ अर्थक्रियाकारित्व के साथ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अत एव कृतकत्वादयोऽपि हेतवो वस्तुस्वभावाः परिणामानभ्यपगमवादिनां न सम्भवन्ति / तथाहि-अपेक्षितपरव्यापारो हि भावः स्वभावनिष्पत्तौ कृतक उच्यते, सा च परापेक्षा एकान्तनित्यवदेकान्ताऽनित्येऽप्यसम्भविनी, तदंपेक्षाकारणकृतस्वभावविशेषेण विवक्षितवस्तुनः सम्बन्धोऽपि नोपपद्येत, स्वभावभेदप्रसक्तेः / अभेदे वाऽपेक्ष्यमाणादपेक्षकस्य सर्वथाऽऽत्मनिष्पत्तिप्रसंगात् / अतः स्वभावभिन्नयोः प्रत्यस्तमितोपकार्योपकारकस्वभावयोर्भावयोः सम्बन्धानुपपत्तेः 'अस्येदम्' इति व्यपदेशस्यानुपपत्तिः। यदि पुनरपेक्षमाणस्य तदपेक्ष्यमाणेन व्यतिरिक्तमुपकारान्तरं क्रियेत, तत्सम्बन्धव्यपदेशार्थ तत्राप्युपकारान्तरं कल्पनीयमित्यनवस्था सकलव्योमतलावलम्बिनी प्रसज्येत / तस्मानित्यानित्यपक्षयोरर्थक्रियालक्षणं सत्त्वम् कृतकत्वं वा न सम्भवतीति यत् किञ्चित् सत् कृतकं वा तत् सर्व परिणामि, इतरथाऽकिश्चित्करस्याऽवस्तुत्वप्रसङ्गानभस्तलारविन्दिनीकुसुमवत् / विरोध है, अरे, क्षणिक भाव का भी उसके साथ विरोध है ही। वह इस प्रकार:- क्षणिकवाद में कार्य और कारण में क्रमिकत्व का ही सम्भव नहीं है क्योंकि क्षणिकवाद में कारण-कार्य का समानकाल तो हो नहीं सकता और पूर्वापर भाव मानने में कालभेद हो जाता है, कालभेद से जन्य जनकभाव क्षणिक पदार्थ में विरुद्ध है। उदा० चिरपूर्व में स्वर्गत पिता (रूप से अभिमत व्यक्ति). और चिर भविष्य में उत्पन्न पुत्र (रूप से अभिमत व्यक्ति,) इन दोनों में पिता-पुत्र भाव (अर्थात् जन्यजनकभाव) विरुद्ध है। तथा भावि में उत्पन्न होने वाले पदार्थ को भूतकालीन भाव की अपेक्षा भी नहीं हो सकती क्योंकि भविष्यत्कालीन में भूतकालोन भाव न किसी अतिशय का आधान कर सकता है, न तो उसमें से किसी अतिशय का परिभ्रंश करा सकता है, जैसे नित्य पदार्थ में किसी भी अतिशय का आधान या परिभ्रंश शक्य नहीं होता / जो पदार्थ अन्यभाव से किसो भो अतिशय को प्राप्त नहीं करता वह उस अन्य भाव की अपेक्षा भी नहीं रखता है अतः उन दोनों में कम होने की सम्भावना भो नहीं रहती। यदि कहें कि उदासीन भाव से अतिशयाधान न होने पर भी जनक पदार्थ से जन्य पदार्थ में अतिशयाधान हो सकता है अत: उन दोनों में क्रम की सम्भावना हो सकेगी-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि क्रम मानने पर कालभेद मानना होगा और भिन्नकालीन दो पदार्थ में तो जन्यजनकभाव ही नहीं घट सकता, यह भी अभी कह आये हैं। क्रम का जैसे सम्भव नहीं है वैसे हो कारण-कार्य में समानकालता भी संभव नहीं है / समानकालीन दो वस्तु में अन्योन्य अपेक्षाभाव न होने से हेतु-फल भाव ही घटता नहीं है जैसे दायें बायें गोशृंग में। [ परिणामवादस्वीकार के विना कृतकत्वादि की अनुपपत्ति ] . क्षणिक भावों में अर्थक्रियाकारित्व का उपरोक्त रीति से सम्भव न होने से वस्तुस्वभावात्मक कृतकत्वादि हेतु भी परिणामवाद न मानने वाले क्षणिक वादीयों के मत में नहीं घट सकते / वह इस प्रकार:-जिस पदार्थ को अपने स्वभाव की निष्पत्ति में परकीय व्यापार की अपेक्षा रहे वह कृतक कहा जाता है। किन्तु एकान्तनित्यपदार्थ को परापेक्षा होना जैसे सम्भव नहीं है वैसे एकान्त अनित्य पदार्थ को भी वह सम्भव नहीं है / कदाचित् उसको परापेक्षा है यह मान ले फिर भी उसके अपेक्षाकारण से जिस स्वभाव विशेष का आधान किया जायेगा उस स्वभावविशेष के साथ विवक्षित अनित्य पदार्थ का सम्बन्ध भी घट नहीं सकता है, क्योंकि स्वभावविशेष का सम्बन्ध मानने पर स्वभावभेदमूलक वस्तुभेद की आपत्ति होती है। अपेक्षा कारण से आधान किये जाने वाले स्वभावविशेष को यदि Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे उ० 627 सन् कृतको वा शब्द-बुद्धि-प्रदीपादिरिति सिद्धः परिणामी। सत्त्वं चार्थक्रियाकारित्वमेव, अन्यस्य निषिद्धत्वात् , तच्चात्यन्तोच्छेदवत्सु न सम्भवत्येव, ततो व्यावर्त्तमानो हेतुः अनत्यन्तोच्छेदवस्वेव संभवतीति कथं न प्रकृतहेतपक्षबाधकत्वमाशंकनीयं प्रकृतसाध्यसाधकस्य हेतोरनेकदोषदृष्टत्वप्रतिपादनात् / न चाऽसत्प्रतिपक्षत्वमप्यस्य / तथाहि-बुद्धयादिसन्तानो नात्यन्तोच्छेदवान् सर्वप्रमाणानुपलभ्यमानतथोच्छेदत्वात् , यो हि सर्वप्रमाणानुपलभ्यमानतथोच्छेदो न स तत्त्वेनोपेयः, यथा पार्थिवपरमाणुपाकजरूपादिसन्तानः, तथा च बुद्धयादिसन्तानः, तस्मान्नात्यन्तोच्छेदवान् , इति कथं न सत्प्रतिपक्षत्वं 'सन्तानत्वात्' इत्यनुमानस्य ? न च प्रस्तुतानुमानत एव सन्तानोच्छेदस्य प्रतीतौ सर्वप्रमाणानुपलभ्यमानतथोच्छेदत्वमसिद्धम् , सन्तानत्वसाधनस्य सत्प्रतिपक्षत्वात् / न चास्य प्रतिपक्षसाधनस्य प्रमाणत्वे सिद्धे सन्तानत्वसाधनस्य सत्प्रतिपक्षत्वम् अस्य च सत्प्रतिपक्षत्वे विवक्षितानुपलब्धेः प्रतिपक्षसाधनस्य प्रमाणत्वमिति वाच्यम् , भवदभिप्रायेण सत्प्रतिपक्षत्वदोषस्योद्भावनात् , परमार्थतस्तु यथाऽयं दोषो न भवति तथा प्रतिपादितम् प्रतिपादयिष्यते च / सन्तानत्वहेतोस्त्वसिद्धाऽनैकान्तिकविरुद्धत्वान्यतमदोषदुष्टत्वेनाऽसाधनत्वम् , तच्च प्रतिपादितमित्यलमतिप्रसंगेन, दिङ्मात्रप्रदर्शनपरस्वात् प्रयासस्य / उस विवक्षित पदार्थ से अभिन्न मान लेंगे तो उस पदार्थ की ही उत्पत्ति अपेक्षा कारण से हुई ऐसा मानना पडेगा, फलतः वस्तुभेद प्रसक्त होगा। इस का नतीजा यही होगा कि जिन में कोई उपकार्यउपकारक भाव ही घट नहीं सकता ऐसे दो भिन्न स्वभाव वाले पदार्थों में कोई भी सम्बन्ध न घट सकने से “यह उसका है" ऐसे शब्द-व्यवहारों का उच्छेद प्रसक्त होगा। इस शब्दव्यवहार को घटाने के लिये यदि अपेक्षाकारण के द्वारा उस विवक्षित पदार्थ के ऊपर उससे भिन्न उपकार होने का मानेंगे तो उस उपकार का भी विवक्षित पदार्थ के साथ सम्बन्ध घटाने के लिये नये उपकार की कल्पना से ऐसी अनवस्था होगी जो संपूर्ण गगनतल पर्यन्त जा पहुंचेगी। सारांश, एकान्त नित्य-अनित्य उभय पक्ष में अर्थक्रियाकारित्वरूप सत्त्व अथवा अपेक्षाकारणाधीन-उत्पत्तिस्वरूप कृतकत्व का सम्भव ही नहीं है / इस लिये यही मानना चाहिये कि जो कुछ सत् या कृतक है वह सब परिणमनशील ही है, अन्यथा आकाशतलवत्तिकमलिनी पुष्प की तरह वह अकिञ्चित्कर बन जाने से अवस्तुरूप हो जाने की आपत्ति लगेगी। इस प्रकार शब्दादि में परिणामित्व साधक अनुमान में व्याप्ति का समर्थन हुआ, अब उपनय और निगमन दिखा रहे हैं-- - शब्द-बुद्धि-प्रदीपादि अर्थ भी सत् रूप अथवा कृतक है अतः परिणमनशील सिद्ध होता है। सत्त्व भी यहाँ अर्थक्रियाकारित्वरूप ही लेना है क्योंकि क्षणिकवाद में अन्य किसी सत्ताजातिसम्बन्धादिरूप सत्त्व का तो प्रतिषेध किया गया है। जिस वस्तु का अत्यन्तोच्छेद मानेगे उसमें वह सत्त्व घटेगा नहीं (क्योंकि अन्तिमक्षण में किसी नये क्षण के प्रति उत्पादकत्वरूप अर्थक्रियाकारित्व न घटने से सत्त्व भी नहीं घटेगा, अन्तिम क्षण में असत्त्व प्रसक्त होने पर तो फिर सारे सन्तानक्षणों में भी असत्त्व प्रसक्त होगा ) / अतः अत्यन्तोच्छेदी वस्तु से निवर्तमान सत्त्व या कृतकत्व, अत्यन्तोच्छेदी न हो ऐसी ही वस्तु में, घट सकता है / जब ऐसा है तब हमारा यह अनुमान, प्रतिपक्षी के सन्तानत्व हेतु और अत्यन्तोच्छेद साध्यवाले अनुमान के पक्ष का, बाधक होने की आशंका क्यों नहीं होगी, जब कि Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 628 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यच्च 'निर्हेतुकविनाशप्रतिषेधात् सन्तानोच्छेदे हेतुर्वाच्यः' इत्यादि, तदसंगतम् , सम्यग्ज्ञानाद् विपर्ययज्ञानव्यावृत्तिकमेण धर्माऽधर्मयोस्तत्कार्यस्य च शरीरादेरभावेऽपि सकलपदार्थविषयसम्यग्ज्ञानानन्ताऽनिन्द्रियजप्रशमसुखादिसन्तानस्य निवृत्त्यसिद्धेः / न च शरीरादिनिमित्तकारणमात्ममनःसंयोगं अत्यन्तोच्छेद साध्य के साधक आपके हेतु अनेक दोषों से दुष्टता के प्रतिपादन में हमने कोई कमी तो रखी नहीं है ? [सन्तानत्वहेतुक अनुमान में सत्प्रतिपक्षता ] सन्तानत्वहेतु में सत्प्रतिपक्ष दोष भी सावकाश है। प्रकृत साध्य वैपरीत्य के साधक अन्य किसी हेतु वाले अनुमान से प्रकृत हेतु सन्तानत्व सत्प्रतिपक्षित हो जाता है। अनुमान इस प्रकार हैबुद्धि आदि का सन्तान अत्यन्तोच्छेदवाला नहीं है क्योंकि अत्यन्तोच्छेद किसी भी प्रमाण से उपलब्ध नहीं होता। जिस वस्तु का किसी भी प्रमाण से अत्यन्तोच्छेद नहीं होता उस वस्तु का अत्यन्तउच्छेद नहीं मानना चाहिये जैसे कि पार्थिव परमाणुओं के पाकजन्यरूपादि का सन्तान / बुद्धि आदि का सन्तान भी वैसा ही है अतः अत्यन्तोच्छेदवाला नहीं हो सकता / जब यह प्रतिपक्षी अनुमान जागरूक है तब सन्तानत्व हेतु वाला अनुमान सत्प्रतिपक्षित क्यों नहीं होगा?. यदि कहें किसन्तानत्वहेतुवाले अनुमान प्रमाण से अत्यन्तोच्छेदरूप साध्य प्रतीयमान होने से किसी भी प्रमाण से उपलब्ध न होने की बात मिथ्या है-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि हमारे दिखाये हुए प्रति-अनुमान से आप का सन्तानत्व हेतु सत्प्रतिपक्ष हो गया है अत: उससे अत्यन्तोच्छेदरूप साध्य की प्रतीति होने की बात ही मिथ्या है / यदि ऐसा कहें कि-'किसी भी प्रमाण से अनुपलब्धि' रूप हेतु से किये जाने वाला प्रति-अनुमान प्रमाणभूत है यह सिद्ध होने पर ही सन्तानत्व हेतु में सत्प्रतिपक्ष दोष लग सकता है, किन्तु प्रतिपक्षसाधनभूत विवक्षितानुपलब्धिहेतु वाला प्रति-अनुमान का प्रामाण्य तो तभी सिद्ध होगा जब सन्तानत्व हेतु सत्प्रतिपक्ष से दूषित होने का सिद्ध हो / तात्पर्य, यहाँ सत्प्रतिपक्ष से दोष नहीं लग सकता ।-किन्तु यह बात ठीक नहीं, क्योंकि हम तो यहाँ आपकी मान्यता के अनुसार ही सत्प्रतिपक्ष दोष का आपादान करते हैं और आपके मत से तो साध्यवैपरीत्य साधक अन्य हेतु का प्रयोग करने पर हेतु सत्प्रतिपक्ष होता ही है इसलिये हमने सत्प्रतिपक्ष दोष का उद्भावन किया है। वास्तव में, हम तो उसे दोषरूप ही नहीं मानते हैं यह तथ्य पहले कहा है और आगे भी कहेंगे। अतः सन्तानत्व हेतु में सत्प्रतिपक्ष दोष यहाँ लगे या न लगे, किन्तु असिद्ध, अनैकान्तिक, विरुद्धत्वादि किसी भी एक दोष के लगने पर हेतु तो दूषित हो ही जाता है और असिद्धादि दोष का प्रतिपादन तो हमने किया ही है इसलिये अब प्रासंगिक बात को जाने दो, हमारा प्रयास तो सिर्फ दिशासूचनरूप ही है। [ तत्त्वज्ञान से सन्तानोच्छेद अशक्य ] आपने जो पहले (595-9) 'निर्हेतुक विनाश निषिद्ध ( = अमान्य) होने से सन्तान के उच्छेद में हेतु दिखाना चाहिये'....इत्यादि कह कर, तत्त्वज्ञान को सन्तानोच्छेद का हेतु दिखाया थावह भी संगत नहीं है, अर्थात् तत्त्वज्ञान ज्ञानादिसंतान के उच्छेद का हेतु नहीं बन सकता। सम्यग्ज्ञान से विपरीतज्ञान की निवृत्ति, उसके बाद धर्म-अधर्म का क्षय और धर्माधर्मकार्यभूत शरीर का वियोग, इतना तो हो सकता है, किन्तु सकलपदार्थसाक्षात्कारी सम्यग्ज्ञान के सन्तान की और इन्द्रिय से अजन्य अनन्त प्रशम सुखादि के सन्तान की निवृत्ति कथमपि सिद्ध नहीं है। यदि ऐसा कहें कि-मुक्तदशा में Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे उ० 629 चाऽसमवायिकारणमन्तरेण न ज्ञानोत्पत्ति:.परलोकसाधनप्रस्तावे "तस्माद्यस्यैव संस्कारं नियमेनानुवर्तते / तन्नान्तरीयकं चित्तमतश्चित्तसमाश्रयम्" इति न्यायेन ज्ञानस्य ज्ञानोपादानत्वप्रतिपादनात , अन्यथा परलोकाभावप्रसंगात् , नित्यस्यात्मनः समवायिकारणत्वेन ज्ञानादिकं प्रति निषिद्धत्वात आत्ममन:संयोगस्य वाऽसमवायिकारणस्य प्रतिषेत्स्यमानत्वात निषिद्धत्वाच्च संयोगस्य निमित्तकारणस्य वा, प्रतिनियतत्वेन शरीराद्यभावेऽपि देशकालादेरात्मनो ज्ञानादिस्वभावस्योत्तरज्ञानाद्यवस्थारूपतया परिणमतः सहकारित्वसम्भवात् / ईश्वरज्ञानं च शरीरादिनिमित्तकारणविकलमप्यभ्युपगच्छति-तज्ज्ञानेऽपि नित्यत्वस्य प्रतिषिद्धत्वात्न पुनर्मुक्त्यवस्थायामात्मनस्तत्स्वभावस्येति सुस्थितं नैयायिकत्वं परस्य / ___ यत्तूक्तम् 'प्रारब्धकार्ययोर्धर्माधर्मयोरुपभोगात् प्रक्षयः संचितयोश्च तत्त्वज्ञानात्' इत्यादि, तदपि न संगतम् , उपभोगात् कर्मणः प्रक्षये तदुपभोगसमयेऽपरकर्मनिमित्तस्याभिलाषपूर्वकमनो-वाक्-काय रस्वरूपस्य सम्भवादविकलकारणस्य च प्रचरतरकर्मणः सद्भावात कथमात्यन्तिकः कर्मक्षयः ? ! सम्यग्ज्ञानस्य तु मिथ्याज्ञाननिवृत्त्यादिक्रमेण पापक्रियानिवृत्तिलक्षणचारित्रोपब हितस्याऽऽगामिकर्मानुत्पत्तिसामर्थ्यवत् संचितकर्मक्षयेऽपि सामर्थ्य संभाव्यत एव-यथोष्णस्पर्शस्य भाविशोतस्पर्शानुत्पत्ती समर्थस्य पूर्वप्रवृत्ततत्स्पर्शादिध्वंसेऽपि सामर्थ्यमुपलब्धम्-किन्तु परिणामिजीवाजीवादिवस्तुविषयमेव सम्यग्ज्ञानं न पुनरेकान्तनित्यानित्यात्मादिविषयम् , तस्य विपरीतार्थग्राहकत्वेन मिथ्यात्वोपपत्तेः / यथा चैकान्तवादिपरिकल्पित आत्माद्यों न संभवति तथा यथास्थानं निवेदयिष्यते। मिथ्याज्ञानस्य च मुक्तिहेतुत्वं परेणापि नेष्यत एव / अतो यदुक्तं 'यथैधांसि...' इत्यादि-तत् सर्वसंवररूपचारित्रोपबंहितसम्यग्ज्ञानाग्नेरशेषकर्मक्षये सामर्थ्यमभ्युपगम्यते-तत् सिद्धमेव साधितम् / ज्ञान के निमित्तकारणभूत शरीरादि तथा असमवायि कारणभूत आत्म-मन:संयोग का अभाव होने से ज्ञानोत्पत्ति अशक्य है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि हमने परलोकसिद्धिप्रकरण में ( 316-6 ) 'ज्ञान ही ज्ञान का उपादानकारण है' इस बात का समर्थन यह कहते हुए किया था कि-"चित्त जिसके संस्कार का नियमत: अनुसरण करता है, उसीका अविनाभावि मानना चाहिये, अत: चित्त, चित्त का आश्रित ( अर्थात् उससे उत्पन्न होने वाला ) सिद्ध होता है।" (317-1) यदि इस पूर्वोक्त कथन के अनुसार ज्ञान को ज्ञान का उपादान नहीं मानेंगे तो परलोक की सिद्धि आपद्ग्रस्त हो जायेगी। समवायिकारणभूत नित्य आत्मा को आप ज्ञानादि का उपादान नहीं कह सकते क्योंकि नित्य आत्मा में उपादानकारणत्व की सम्भावना का निषेध हो चुका है / आत्म-मनःसंयोग की असमवायिकारणता का निषेध आगे किया जायेगा / अथवा संयोग का पहले निषेध किया जा चुका है अतः उसकी निमित्तकारणता का भी निषेध हो ही गया है। शरीरादि का मुक्तिदशा में अभाव होने के कारण वे तो यद्यपि ज्ञानादि के सहकारीकारण नहीं हो सकते किन्तु देश-काल तो प्रतिनियत ही है, अर्थात् मुक्तदशा में भी रहने वाले ही है, अत: पूर्वज्ञानादिस्वभावरूप आत्मा का उत्तरज्ञानादिस्वभावरूप परिणाम होने में देश-काल को सहकारी मान सकते हैं। तात्पर्य, मुक्तदशाकालीन ज्ञानोत्पत्ति में कारणाभावरूप दोष भी नहीं है। दूसरी ओर, ईश्वरज्ञान में हमने नित्यत्व का प्रतिषेध कर दिया है, फिर भी नैयायिकवर्ग शरीरादि के विरह में भी ईश्वरज्ञान के अवस्थान को मानता है, किन्तु ज्ञानस्वभाववाले मुक्तात्मा में मुक्तिदशा में ज्ञानसद्भाव मानने में इनकार करता है-कितना अच्छा है उसका नैयायिकत्व (=न्यायवेत्तृत्व) ? ! Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 630 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यच्चोपभोगादशेषकर्मक्षयेऽनुमानमुपन्यस्तम् , तत्र यदेवाऽऽगामिकर्मप्रतिबन्धे समर्थ सम्यग्ज्ञानादि तदेव सश्चितक्षयेऽपि परिकल्पयितुयुक्तमिति प्रतिपादितं सर्वज्ञसाधनप्रस्तावे। उपभोगात्तु प्रक्षये स्तोकमात्रस्य कर्मणः प्रचुरतरकर्मसंयोगसंचयोपपत्तेन तदशेषक्षयो युक्तिसंगतः। 'कर्मत्वात' इति च हेतुः सन्तानत्ववदसिद्धाद्यनेकदोषदुष्टत्वात् न प्रकृतसाध्यसाधकः / प्रसिद्धत्वादिदोषोद्भावनं च सन्तानत्वहेतुदूषणानुसारेण स्वयमेव वाच्यं न पुनरुच्यते ग्रन्थगौरवभयात् / यच्च 'समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्य' इत्यादि, तदप्ययुक्तम् / अभिलाषरूपरागाद्यभावे स्त्र्याउपभोगाऽसम्भवाद, सम्भवेऽपि चावश्यम्भावी ऋ(?ग)द्धिमतो भवदभिप्रायेण योगिनोऽपि प्रचरतरधर्माऽधर्मसम्भवोऽतिभोगिन इव नपत्यादेः / वैद्योपदेशप्रवर्त्तमानातुरदृष्टान्तोऽप्यसंगतः, तस्यापि निरुग्भावाभिलाषेण प्रवर्तमानस्यौषधाद्याचरणे वीतरागत्वाऽसिद्धेः / न च मुमुक्षोरपि मुक्तिसुखाभिलाषण ___ [उपभोग से सर्वकर्मक्षय अशक्य ] यह जो कहा था-'जिनके फलप्रदान का आरम्भ हो गया है ऐसे धर्म और अधर्म का क्षय फलोपभोग से होता है और सुषुप्तदशावाले संचित धर्माधर्म का क्षय होता है तत्त्वज्ञान से...'[ 595-15 ] इत्यादि वह भी असंगत कहा है। कारण, उपभोग से यद्यपि उस कर्म का क्षय हो जायेगा, किन्तु उपभोग काल में 'साभिलाष मन-वचन और काया की प्रवृत्ति' स्वरूप नूतनकर्मबन्ध का निमित्त विद्यमान होने से, समर्थकारणमूलक अतिप्रचुर कर्म का भी सद्भाव रहेगा ही, तब आत्यन्तिक यानी अपुनर्भावरूप से कर्मों का क्षय कैसे होगा? तात्पर्य, उपभोग से कर्मक्षय नहीं घट सकता। हमारे मत से, पापक्रियानिवृत्तिस्वरूप चारित्र से आश्लिष्ट सम्यग्ज्ञान, मिथ्याज्ञान की क्रमश: निवृत्ति इत्यादि द्वारा पुनः नये कर्म की उत्पत्ति को रोकने में जैसे समर्थ होता है वैसे पूर्व संचित कर्म के क्षय में भी समर्थ होने की पूरी सम्भावना है। उदा० उष्णस्पर्श भाविशीतस्पर्श की उत्पत्ति को रोकने में जैसे होता है वैसे पूर्वोत्पन्नशीतस्पर्श के ध्वंस में भी समर्थ होता ही है। इतना विशेष ज्ञातव्य है कि परिणामिजीवाजीवादिवस्तुसंबन्धिज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है, एकान्तनित्यअनित्य आत्मादि सम्बन्धि ज्ञान सम्यरज्ञानरूप नहीं है, क्योंकि विपरीतार्थग्राही होने से उस ज्ञान में मिथ्यात्व ही ठीक बैठता है / एकान्तवादीकल्पित आत्मादि अर्थ किसी भी तरह घटता नहीं-इस तथ्य का हम आगे यथास्थान निवेदन करेंगे / नैयायिकादि विद्वान भी मिथ्याज्ञान को मुक्ति का हेतु नहीं मानते हैं / ऊपर जो हमने चारित्र से आश्लिष्टसम्यग्ज्ञान से कर्मक्षय होने का कहा है उससे यह समझना चाहिये कि चौदहवे गुणस्थानक में होने वाले सर्वसंवररूप चारित्र से आश्लिष्ट सम्यग्ज्ञान यह ऐसा अग्नि है जिसमें सकल कर्मों को दग्ध करने का सामर्थ्य होता है / तात्पर्य, “अग्नि जैसे इन्धन को भस्मसात् कर देता है वैसे हे अर्जुन ! ज्ञानाग्नि भी सर्वकर्मों को भस्मसात् कर देता है" ऐसा जो आपने कहा था वह सिद्ध का ही साधन है / ( उसमें नया कुछ नहीं है)। [सम्यग्ज्ञान से संचितकर्मक्षय की युक्तता ] उपभोग से ही सकल कर्मनाश की सिद्धि में आपने जो अनुमानोपन्यास किया है [ 566-3 ] उसके प्रति हमारा निवेदन यह है कि भावि कर्मबन्ध को रोकने में समर्थ जो सम्यग्ज्ञान है उसी को संचितकर्मों के विनाश का हेतु मानना ठीक है, सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण में हमने इस बात का प्रतिपादन किया हुआ है / उपभोग से ही सकलकर्मों का क्षय मानना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि अल्पकर्मे वाला भी Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा प्रवर्त्तमानस्य सरागत्वम् , सम्यग्ज्ञानप्रतिबन्धकरागविगमस्य सर्वज्ञत्वान्यथानुपपत्त्या प्राक् प्रसाधितत्वात् / भवोपग्राहिकर्मनिमित्तस्य तु वाग्-बुद्धि-शरीरारम्भप्रवृत्तिरूपस्य सातजनकस्य शैलेश्यवस्थायां मुमुक्षोरभावात् प्रवृत्तिकारणत्वेनाभ्युपगम्यमानस्य सुखाभिलाषस्याप्यसिद्धेर्न मुमुक्षो रागित्वम् / प्रसिद्धश्च भवतां प्रवृत्त्यभावो भाविधर्माऽधर्मप्रतिबन्धकः / यश्च भाविधर्माधर्माभ्यां विरुद्धो हेतुः स एव सञ्चिततत्क्षयेऽपि युक्त इति प्रतिपादितम् / अत एव सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक एव हेतु विभूतकर्मसम्बन्धप्रतिघातकत्वाद् मुक्तिप्राप्त्यवन्ध्यकारणं नान्य इति / तेन यदुक्तम् 'तत्त्वज्ञानिनां कर्मविनाशस्तत्त्वज्ञानात्' इति तद्युक्तमेव / यत्तु 'इतरेषामुपभोगात्' इति तदयुक्तम् , उपभोगात् तत्क्षयानुपपत्तेः प्रतिपादितत्वात् / यत्त 'नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं केवलज्ञानोत्पत्तेः प्राक काम्य-निषिद्धानुष्ठानपरिहारेण ज्ञानावरणादिरितक्षयनिमित्तत्वेन केवलज्ञानप्राप्तिहेतुत्वेन च प्रतिपादितम्' तदिष्टमेवाऽस्माकम् / केवलज्ञानलाभोत्तरकालं तु शैलेश्यवस्थायामशेषकर्मनिर्जरणरूपायां सर्वक्रियाप्रतिषेध एवाभ्युपगम्यत इति न तन्निमित्तो धर्माधर्म यदि उपभोग करने जायेगा तो अतिप्रचुर नये कर्मों के संयोग का संचय हो जाने की आपत्ति होगी, जिनका कभी क्षय ही सम्भव नहीं रहेगा / तदुपरांत, उस अनुमान में प्रयुक्त कर्मत्व हेतु सन्तानत्वहेतु की तरह असिद्धि आदि अनेक दोषों से दुष्ट होने से कर्मक्षय में उपभोगजन्यत्व की सिद्धि नहीं कर सकता / असिद्धि आदि दोषों का उद्भावन सन्तानत्व हेतु के दूषणों के अनुसार अध्येता स्वयं कर सकता है, यहाँ ग्रन्थगौरवभय से उन का पुनरावर्तन नहीं किया जाता है / [ रागादि के विना उपभोग का असंभव ] * यह जो कहा था (५९७-१)-समाधि के बल से उत्पन्न तत्त्वज्ञानवाला मनुष्य अनेक शरीर द्वारा उपभोग कर लेता है....इत्यादि, वह ठीक नहीं है, क्योंकि स्त्रीआदि का उपभोग अभिलाषात्मक रागादि के विना सम्भव ही नहीं है / यदि तत्त्वज्ञानी को भी अनेककायव्यूह द्वारा स्त्री आदि भोग का सम्भव मानेंगे तो उसे गृद्धि (तीव्रमूर्छा) की अवश्यमेव उत्पत्ति होगी और योगी होने पर भी गृद्धिवाले को आपके मतानुसार अतिप्रचुरधर्माधर्म के बन्ध का भी सम्भव है जैसे कि अत्यन्तभोगमग्न राजादि को। इच्छा न होने पर भी वैद्य के परामर्श से रोगी की औषधग्रहण में प्रवृत्ति का आपने जो दृष्टान्त दिखाया है वह भी संगत नहीं होता क्योंकि वहाँ औषधग्रहण की इच्छा न होने पर भी प्रवृत्ति रोग विनाश की इच्छा से तो होती ही है अतः सर्वथा वीतरागता वहाँ भी असिद्ध है / मुक्ति सुख के अभिलाष से प्रवृत्ति करने वाले मुमुक्षु में आपने जो सरागता का आपादन किया है वह ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान को रोकने वाले राग का अभाव उसमें मानना ही पड़ेगा, अन्यथा किसी भी मुमुक्षु में सर्वज्ञता का आविर्भाव ही नहीं घटेगा-यह तथ्य सर्वज्ञसिद्धिप्रकरण में सिद्ध किया हुआ है। मुमुक्षु जब सर्वज्ञ हो जाता है उसके बाद जो भवोपग्राहि कर्म शेष रहते हैं उन से या वागप्रवृत्ति, बुद्धिपूर्वक शरीर के आरम्भ ( = संचालन) रूप प्रवृत्ति होती है किन्तु उससे सातावेदनीय के अलावा और किसी कर्म का बन्ध नहीं होता, जब भवोपनाही कर्म भी अत्यन्तनाशाभिमुख हो जाते हैं तब शैलेशी (मुक्ति के निकट काल की एक) अवस्था में सातावेदनीय कर्म का बन्ध भी रुक जाता है-और भवोपग्राहीकर्ममूलक वचनादि प्रवृत्ति भी रुक जाती है। जब प्रवृत्ति भी रुक गयी तब उसके कारणरूप से माने गये सुखाभिलाष भी वहाँ नहीं रहता तो फिर मुमुक्षु में सरागता Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ फलप्रादुर्भावः, प्रवृत्तिनिवृत्तरात्यन्तिक्यास्तत्क्षयहेतुत्वसिद्धेः / यच्चोक्तम् 'विपर्ययज्ञानध्वंसादिक्रमेण विशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूपमुक्त्यभ्युपगमे न तत्त्वज्ञानकार्यत्वादनित्यत्वं वाच्यम्' इत्यादि, तदप्ययुक्तम्, विशेषगुणच्छेदविशिष्टात्मनो मुक्तिरूपतया प्रतिषिद्धत्वात् , बुद्ध यादेः विशेषगुणत्वस्यात्यन्तिकतत्क्षयस्य च प्रमाणबाधितत्वात् / गुणव्यतिरिक्तस्य गुणिन प्रात्मलक्षणस्यकान्तनित्यस्य निषेत्स्यमानत्वात् तस्य बुद्ध यादिविशेषगुणतादात्म्याभावोऽसिद्धः / __यच्च 'मोक्षावस्थायां चैतन्यस्याप्युच्छेदान्न कृतबुद्धयस्तत्र प्रवर्तन्ते इत्यानन्दरूपात्मस्वरूप एव मोक्षोऽभ्युपगन्तव्यः' इति, एतत् सत्यमेव / यच्च 'यथा तस्य चित्स्वभावता नित्या तथा परमानन्दस्वभावताऽपि' इत्यादि, तदयुक्तम् , चित्स्वभावताया अप्येकान्तनित्यतानभ्युपगमात् , प्रात्मस्वरूपता तु चिद्रूपताया आनन्दरूपतायाश्च कथंचिदभ्युपगम्यत एव / यच्च अनन्यत्वेन श्रुतौ श्रवणम् 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इति, तदपि नास्मदभ्युपगमबाधकम् , समस्तज्ञेयव्यापिनो ज्ञानस्याऽवैषयिकस्य चानन्दस्य स्वसविदितस्य मुक्त्यवस्थायां सकलकमरहितात्मब्रह्मरूपाभेदेन कचिदभीष्टत्वात / की आपत्ति कैसे रहेगी? ! आपके मत में भी प्रवृत्ति के अभाव में भावि में धर्माधर्म की उत्पत्ति रुक जाने की बात प्रसिद्ध ही है / जो भावि धर्माधर्म की आपत्ति को रोक देता है वही संचित धर्माधर्म का भी नाशक मानना युक्त है यह तो पहले ही कह दिया है / [सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्ष का हेतु है / उपभोग से सर्वकर्मनाश की बात अयुक्त होने से ही हमारे मत में तो सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शनसम्यग्चारित्र इस त्रिपुटी को ही मुक्ति का अवन्ध्य कारण कहा गया है, अन्य किसी (उपभोगादि) को नहीं, क्योंकि उक्त त्रिपुटीरूप हेतु से ही भूत-भाविसकलकर्मसबन्ध का प्रतिघात होता है / यही कारण है कि आपने जो तत्त्वज्ञान से तत्त्वज्ञानीयों के कर्मों का विनाश कहा है वह कुछ ठीक है। किन्तु, दूसरे के कर्मों का विनाश उपभोग से होने का जो कहा है वह अयुक्त है क्योंकि हमने यह बता दिया है कि उपभोग से सकल कर्मों का नाश अशक्य है। तथा, 'नित्यनैमित्तिकैरेव".. इत्यादि तीन कारिकाओं से यह जो आपने कहा है कि-केवलज्ञान की उत्पत्ति न हो तब तक नित्यकर्म और नमित्तिक कर्म का अनुष्ठान काम्य कर्म और निषिद्ध कर्मों का त्याग कराने द्वारा ज्ञानावरणादि पाप कर्मों के क्षय का निमित्त बनता है और केवलज्ञान की उत्पत्ति में हेतु बनता है-यह कथन हमारे लिये इष्टहा है। केवलज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद तो सर्वकर्मविधटन क्रियास्वरूप शैलेशी अवस्था में हम क्रिया (प्रवृत्ति) मात्र का अभाव ही मानते हैं इसलिये क्रियामूलक धर्माधर्म की फलोत्पत्ति रुक जाती है / 'प्रवृत्ति से आत्यन्तिक निवृत्ति' रूप हेतु से सकल कर्मों का क्षय होता है यह तो सिद्ध ही है। यह जो आपने कहा है-विपरीतज्ञानध्वंसादि क्रम से आविर्भूत विशेषगुणोच्छेदविशिष्ट आत्मस्वरूप को मुक्तिरूप मानने में, तत्त्वज्ञान का कार्य होने से अनित्यत्व को आपत्ति जो पहले विशेषगुणध्वंसरूप मुक्ति मानने में लग सकती थी वह नहीं लगेगी....इत्यादि, [ 597-14 ] वह तो अयुक्त ही है क्योंकि पहली बात तो यह है कि मुक्ति विशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूप है ही नहीं, दूसरी बात यह है कि बुद्ध यादि गुण में विशेषगुणत्व प्रमाण से बाधित है, और तीसरी बात यह है कि बुद्ध यादि गुणों का आत्यन्तिक ध्वंस भी प्रमाण से बाधित है / तदुपरांत, गुणों से सर्वथा भिन्न और एकान्तत: नित्य ऐसा आत्मस्वरूप मान्य नहीं हो सकता-यह आगे कहा जायेगा, तदनुसार आत्मा Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा यदपि 'यदाऽविद्यानिवृत्तिः तदा स्वरूपप्रतिपत्तिः सैव मोक्षः' इति तदपि युक्तमेव, अष्टविधपारमाथिककर्मप्रवाहरूपानाद्यविद्यात्यन्तिकनिवृत्तेः स्वरूपप्रतिपत्तिलक्षणमोक्षावाप्तेरभीष्टत्वात् / अत एव 'आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते' इत्येतदपि नास्मत्पक्षक्षतिमुद्वहति, अभिव्यक्तेः स्वसंवि दस्वरूपतया तदवस्थायामात्मन उत्पत्तरभ्युपगमात / यच्च 'यथात्मनो महत्त्वं निजो गुणः' इत्यादि, तदसारम् , नित्यसुख-महत्त्वादेरात्माऽव्यतिरिक्तत्वेन तद्धर्मत्वेन वा प्रमाणबाधितत्वादनभ्युपगमाहत्वात् / अत एव 'संसारावस्थायामपि नित्यसुखस्य तत्संवेदनस्य च सद्भावात् संसार-मुक्त्यवस्थयोरविशेषः' इत्यादि यदूषणमत्र पक्षे उपन्यस्तं तदनभ्युपगमादेव निरस्तम्। ___यच्चानित्यत्वपक्षेऽपि तस्यामवस्थायां सुखोपपत्तावपेक्षाकारणं वक्तव्यम् , न ह्यपेक्षाकारणशून्यः आत्ममनःसंयोगः कारणत्वेनाभ्युपेयते' इत्यादि, तदप्यसंगतम् , ज्ञान-सुखादेश्चैतन्योपादेयत्वेन तद्धर्मानुवृत्तितः प्राक् प्रतिपादितत्वात , सेन्द्रियशरीरादेस्तु तदुत्पत्तावपेक्षाकारणत्वेनाभ्युपगम्यमानस्याऽव्यापकत्वात् / तथाहि-सेन्द्रियशरीराद्यपेक्षाकारणव्यापाररहितं विज्ञानमुपलभ्यत एव समरतज्ञेयमें बुद्धिआदि विशेषगुणों का तादात्म्य सिद्ध होने से उसका अभाव असिद्ध है / तात्पर्य, आत्मभिन्न बुद्धिआदि गुणों से शून्य आत्मस्वरूप को मुक्ति कहना असंगत है / - [चिदानंदरूपता भी एकान्तनित्य नहीं हैं ] नैयायिक के सामने पूर्वपक्षी का जो यह कहना था कि-मुक्तिदशा में चैतन्य का भी यदि उच्छेद मानेंगे तो बुद्धिमान लोग मुक्तिप्राप्ति के लिये प्रयत्न ही नहीं करेंगे, अत: आनन्दमयात्मस्वरूप को ही मोक्ष मानना चाहिये-यह पूर्वपक्षी का कथन नितान्त सत्य है। किन्तु उसने जो यह कहा था किआत्मा की चित्स्वभावता जैसे नित्य है वैसे उस की आनन्दस्वभावता भी नित्य है-यह बात गलत है क्योंकि हम आत्मा की चित्स्वभावता को भी एकान्तनित्य नहीं मानते है फिर आनन्दस्वभावता को नित्य कैसे माने ? हाँ, चिद्रूपता और आनन्दरूपता को कथंचिद् आत्मस्वरूप हम मानते हैं / यद्यपि वेद में 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इस कथन से चिद्रूपता और आनन्दरूपता का आत्मा से अभेद कहा गया है, किन्तु वह हमारी मान्यता में बाधक नहीं है क्योंकि सकलज्ञेयव्यापि स्वसंविदित ज्ञान और विषयनिरपेक्ष स्वसंविदित आनन्द मुक्तिदशा में सकलकर्मरहितब्रह्मात्मस्वरूप से कथंचिद् अभिन्न होने का हमें मान्य ही है। [ कर्मसन्तानरूप अविद्या के ध्वंस से मोक्ष ] यह जो कहा है-अविद्या की निवृत्ति जब होती है तब स्वरूपप्राप्ति होती है और यही मोक्ष है-वह भी युक्तिसंगत है, क्योंकि अष्ट प्रकार का पारमाथिक कर्मसन्तान ही अविद्या है और उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति होने पर स्वरूपप्राप्तिरूप मोक्ष का लाभ होता है यह हम भी मानते हैं / इसीलिये यह जो वेदवाक्य है कि 'आनन्द यह ब्रह्म का स्वरूप है और मोक्ष में उसको अभिव्यक्ति होती है' यह वाक्य भी हमारे पक्ष में क्षति-आपादक नहीं है, क्योंकि उक्त स्वरूप की अभिव्यक्ति यानी स्वसंविदितानन्दस्वरूप से मुक्तावस्था में आत्मा की कथंचिद् उत्पत्ति को हम मानते ही हैं / तथा, यह जो कहा है कि "महत्त्व आत्मा से अव्यतिरिक्त, आत्मा का अपना गुण है फिर भी संसारदशा में उसका जैसे ग्रहण नहीं होता वैसे नित्य सुख का भी नहीं होता"-वह भी अयुक्त है क्योंकि आत्मा से एकान्ततः अव्यतिरिक्त अथवा आत्मधर्मरूप में नित्यसुख अथवा महत्त्व को मानने में प्रमाणबाध जागरुक है अतः वह Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 विषयत्वेनाऽनियतविषयम् , यथाऽव्यापृतचक्षुरादिकरणग्रामस्य 'सदसती तत्त्वम्' इति ज्ञानं, सकलाक्षेपेण व्याप्तिप्रसाधकं वा / न चात्राप्यात्माऽन्तःकरणसंयोगस्य शरीराद्यपेक्षाकारणसहकृतस्य व्यापार इति वक्तुयुक्तम् , अन्तःकरणस्याणुपरिमाणद्रव्यरूपस्य प्रमाणबाधितत्वेनानभ्युपगमाहत्वात् संयोगस्य च निषिद्धत्वात् / शरीरादीनां तु ज्ञानोत्पत्तिवेलायां सन्निधानेऽपि तद्गुण-दोषाऽन्वय-व्यतिरेकानुविधानस्य तज्ज्ञानेऽनुपलम्भान्नापेक्षाकारणत्वं कल्पयितुयुक्तम् , तथापि तत्कल्पनेऽतिप्रसंगः / देशकालादिकं च विशद्धज्ञानक्षणस्यान्वयिनो ज्ञानान्तरोत्पादने प्रवर्त्तमानस्यापेक्षाकारणं न प्रतिषिध्यते मुक्त्यवस्थायामपि शरीरादिकं तु तस्यामवस्थायां कारणाभावादेवानुत्पन्नं नापेक्षाकारणं भवितुमर्हति / यदि च सेन्द्रियशरीरापेक्षाकारणमन्तरेण ज्ञानादेरुत्पत्ति भ्युपेयेत तदा तथाभूतापेक्षाकारणजन्यज्ञानस्य चक्षुरादिज्ञानस्येव प्रतिनियतविषयत्वं स्यादिति 'सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्बनः प्रमेयत्वात् , पंचांगुलिवत्' इत्यतोऽनुमानादनुमीयमानं सर्वज्ञज्ञानमपि प्रतिनियतविषयत्वान्न सर्वविषयं स्यात् / यदि पुनस्तज्ज्ञानं सकलपदार्थविषयत्वात् तज्जन्यं “अर्थवत् प्रमाणम्" इति वचनात सेन्द्रियः शरीरापेक्षाकारणाऽजन्यं वाऽभ्युपगम्यते अन्यथा सर्वविषयत्वं न स्यादिति तर्हि मुक्त्यवस्थायामपि देहा. मानने योग्य नहीं है / आत्मा से अव्यतिरिक्त नित्यसुख को जब हम मानते हो नहीं है तब आपने जो उसके ऊपर यह दोषारोपण किया है कि-नित्यसुख और उसका सवेदन संसारावस्था में भी रहने से मुक्ति और संसार अवस्था का भेदविच्छेद हो जायेगा-इस का नित्यसुख के अस्वोकार से ही तिरस्कार हो जाता है। [मुक्ति में सुख की उत्पत्ति का हेतु ] अनित्य सुखसंवेदन पक्ष में आपने जो यह कहा था कि-[ 601-6 ] मुक्ति अवस्था में अनित्यसुख की उत्पत्ति में कौन सा आपेक्षाकारण है यह दिखाना चाहिये, (शरीरादि) अपेक्षाकारणरहित सिर्फ आत्ममन संयोग को ज्ञानादि का कारण नहीं मान सकते....इत्यादि-वह भी असंगत है। शरीर को या आत्ममन:संयोग को हम ज्ञान-सुखादि का कारण नहीं मानते किन्तु चैतन्यधर्म के अनुयायी होने के कारण ज्ञान-सुखादि को चैतन्य का उपादेय मानते हैं यह पहले 'तस्माद्यस्यैव०' इस कारिका से कहा हुआ है / तात्पर्य, चैतन्य ही ज्ञानादि का कारण है / इन्द्रियसहितदेहादि को ज्ञानोत्पत्ति का कारण आप मानते हैं किन्तु सकलज्ञान के प्रति व्यापकरूप से वह कारण नहीं है। जैसे देखिये-इन्द्रियसहितदेहादि अपेक्षाकारण व्यापार के विरह में भी समस्तज्ञेयविषयक, अत एव अमर्यादितविषयवाले विज्ञान का उद्भव दिखता है, उदा० नेत्रादिइन्द्रियवंद की अक्रियदशा में भी 'सत और असत् ये दो तत्त्व हैं' ऐसा ज्ञान, अथवा वस्तुमात्र का अन्तर्भाव करने वाला सत्त्व-प्रमेयत्व की व्याप्ति का साधक ज्ञान / यह नहीं कह सकते कि-'वहाँ भी शरीरादिअपेक्षाकारण सहकृत आत्म-मनः संयोग का व्यापार होना चाहिये'-क्योंकि अणुपरिमाणविशिष्ट मनोद्रव्य का स्वीकार प्रमाणबाधित होने से अनुचित्त है और संयोग पदार्थ का भी पहले निराकरण हो चुका है / यद्यपि ज्ञानोत्पत्तिकाल में (संसारदशा में) शरीरादि का संनिधान अवश्य है फिर भी उसको अपेक्षाकारण मानना संगत नहीं है क्योंकि शरीरादि के गुण-दोष के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण ज्ञान में दिखता नहीं है। अन्वय-व्यतिरेक के विना भी यदि शरीरादि को ज्ञान का कारण मानेंगे तो सभी के प्रति सभी को कारण मानने की आपत्ति खडी है / हाँ, देशकालादि को मुक्तिदशा में भी आप अपेक्षाकारण माने तो Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा धपेक्षाकारणाऽजन्यं किं नाभ्युपगम्यते ? ! प्रसाधितं चानिन्द्रियजं सकलपदार्थविषयमध्यक्ष ज्ञानं सर्वज्ञसाधनप्रस्तावे इति न सेन्द्रियशरीरापेक्षाकारणजन्यत्वाभावे तज्ज्ञानस्य प्रतिनियत विषयत्वाभावादभाव एवाभ्युपगन्तु युक्तः / अपि च, सकलपदार्थप्रकाशकत्वं ज्ञानस्य स्वभावः स च सेन्द्रियदेहाद्यपेक्षाकारणस्वरूपावरणेनाच्छाद्यतेऽपवरकावस्थितप्रकाश्यपदार्थप्रकाशकस्वभावप्रदीप इव तदावारकशरावादिना, तदपगमे तु प्रदीपस्येव स्वप्रकाश्यप्रकाशकत्वं ज्ञानस्याऽयत्नसिद्धमिति कथमावरणभूतसेन्द्रियदेहाद्यभावे तदवस्थायां ज्ञानस्याप्यभावः प्रेर्यंत ? अन्यथा प्रदीपावारकशरावाद्यभावे प्रदीपस्याप्यभावः प्रेरणीयः स्यात् / न च शरावादेरावारकस्य प्रदीपं प्रत्यजनकत्वमाशंकनीयम् , तथाभूतप्रदीपरिणतिजनकत्वाच्छरावादेः, अन्यथा तं प्रत्यावारकत्वमेव तस्य न स्यात्, परिणामस्य च प्रसाधयिष्यमाणत्वात् / उपलभ्यते च संसारावस्थायामपि वासीचन्दनकल्पस्य मुमुक्षोः सर्वत्र समवृत्तेविशिष्टध्यानादिव्यवस्थितस्य सेन्द्रियशरीरव्यापाराऽजन्यः परमाह्लादरूपोऽनुभवः, तस्यैव भावनावशादुत्तरोत्तरामवस्थामासादयतः परमकाष्ठागतिरपि सम्भाव्यत एवेत्येतदपि सर्वज्ञसाधनप्रस्तावे प्रतिपादितमिति न पुनरुच्यते / यह ठीक है क्योंकि एक विशुद्धज्ञानक्षण से अपने अन्वयी दूसरे ज्ञान की उत्पत्ति में अन्वयप्रयोजकविधया देश-काल कारण बनते हैं, जब कि मुक्तिदशा में शरीरादि का कोइ उत्पादक कारण न होने से वह अनुत्पन्न ही रहेगा, फिर अपेक्षाकारण कैसे हो सकेगा? [ ज्ञानोपत्ति में देह की कारणता अनिवार्य नहीं ] यदि आप इन्द्रियसहितदेहरूप अपेक्षाकारण के विना ज्ञानादि के उद्भव को नहीं मानते हैं तो यह भी मानना पड़ेगा कि शरीरादिअपेक्षाकारणजन्य' ज्ञान मर्यादित विषयवाला ही होता है जैसे कि नेत्रादिइन्द्रियजन्यज्ञान / अब ऐसा मानने पर, "संपूर्ण सत्-असत् वस्तुवर्ग किसी एक ज्ञान का विषय है, क्योंकि प्रमेय हैं, उदा० अंगुलिपंचक" इस अनुमान से सिद्ध होने वाला सर्वज्ञज्ञान भी शरीरादिअपेक्षाकारणजन्य ही मानने से मर्यादितविषयवाला ही मानना पड़ेगा, सारांश, वह सर्वविषयक नहीं माना जा सकेगा। यदि आप कहें कि-"अर्थवत् प्रमाणम्” इस भाष्यवचन का अवलम्बन कर के हम सर्वज्ञ के ज्ञान को सकलपदार्थविषयक होने से सकलपदार्थजन्य मानेंगे। अथवा सर्वज्ञज्ञान को इन्द्रियसहित शरीररूप अपेक्षाकारणजन्य नहीं मानगे, क्योंकि शरीरजन्य मानने पर सर्व. विषयकता घटती नहीं है"-तो हम कहते हैं कि मुक्तिदशा में भी देहादि अपेक्षा कारण से अजन्य ज्ञान क्यों नहीं मानते हैं ? सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण में यह तो दिखा दिया है कि सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियजन्य न होने पर भी सकलपदार्थविषयक होता है। इसलिये, इन्द्रियसहित शरीररूप अपेक्षाकारण से अजन्य सर्वज्ञज्ञान मर्यादितविषयवाला न होने मात्र से उसका सर्वथा अभाव ही मान लेना युक्तियुक्त नहीं है। ....... [ ज्ञान का स्वभाव सकलवस्तु प्रकाशकत्व.] तदुपरांत, यह विचारणीय है कि सर्वपदार्थप्रकाशकारिता यह ज्ञान का स्वभाव है, इन्द्रियसहित देहादिअपेक्षाकारण यह उसका आवरण है और उससे वह स्वभाव आच्छादित हो जाता है। जैसे, किसी एक कक्ष में रहे हए प्रकाशयोग्य पदार्थों का प्रकाशन करना प्रदीप का स्वभाव है और शरावादि उसके लिये आवरणभूत है जिससे वह आच्छादित होता है। जब प्रदीप का आवरण शरा Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 636 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 परमार्थतस्त्वानन्दरूपताऽऽत्मनः स्वरूपभता तद्विबन्धककर्मक्षयात तस्यामवस्थायामृत्पद्यते / एकान्तनित्यस्य त्वविचलितरूपस्याऽऽत्मनो वैषयिकसुख-दुःखोपभोगोऽप्यनुपपन्नः, एकस्वभावस्य तत्स्वभावाऽपरित्यागे भिन्नसुख दुःखसंवेदनोत्पादेऽप्याकाशस्येव तदनुभवाऽभावात् / तत्समवेत तदुत्प. त्यादिकं तु प्रतिक्षिप्तत्वान्न वक्तव्यम् / 'ज्ञानं चोत्तरज्ञानोत्पादनस्वभावम् , यच्च यत्स्वभावम् न तव तदुत्पादनेऽन्यापेक्षम् , यथान्त्या बीजादिकारणसामग्री अंकुरोत्पादने, तत्स्वभावश्च पूर्वो ज्ञानक्षण उत्तरज्ञानक्षणोत्पादने' इति स्वभावहेतुः, अन्यथाऽसौ तत्स्वभाव एव न स्यात् / न च संसारावस्थाज्ञानानत्यक्षणस्योत्तरज्ञानजननस्वभावत्वमसिद्धम्, तथाभ्युपगमे सत्तासम्बन्धादेः सत्त्वस्य निषिद्धत्वात तदजनकत्वेन तस्यानर्थक्रियाकारित्वादवस्तुत्वापत्तेस्तज्जनकस्याप्यवस्तुत्वं ततस्तज्जनकस्येत्येवमशेषचित्तसन्तानस्याऽवस्तुत्वप्रसंगः। वादि हठ जाता है तब जैसे वह उस कक्ष में रहे हए प्रकाशयोग्य पदार्थों का प्रकाश करता है उसी तरह देहादि आवरण के हठ जाने पर मुक्ति दशा में, ज्ञान का सर्वार्थप्रकाशकत्व स्वभाव अनायास प्रगट होता है। इस स्थिति में, मुक्ति अवस्था में आवरणभूत इन्द्रिय सहितदेहादि के अभाव से ज्ञानमात्र का अभाव दिखाना कैसे उचित कहा जाय ? यदि मुक्ति में आप ज्ञान का अभाव मानने पर ही डटे हुए हैं तब तो कक्ष में शरावादि आवरण के हठ जाने पर प्रदीप का भी अभाव ही मानना पड़ेगा। यदि कहें कि-शरीर तो ज्ञान का कारण है, शराव प्रदीप का कारण नहीं है अत: शराव के हठ जाने पर प्रदीप का अभाव नहीं मानना पड़ेगा / तो यह भी अयुक्त है क्योंकि शरावादि प्रदीप के अल्पक्षेत्रप्रकाशकत्वस्वरूप परिणाम का जनक होने से, शरावादि में प्रदीप की अजनकता की शंका करना उचित नहीं है। यदि शराव को प्रदीप के प्रति उक्त रीति से जनक नहीं मानेंगे तो वह प्रदीप का आवारक भी नहीं कहा जा सकेगा। परिणाम की सिद्धि आगे की जायेगी। मुक्ति अवस्था की बात जाने दो, संसारदशा में भी वासीचन्दनकल्प समान सर्वत्र समभाववाले मुमुक्षु को विशिष्ट ध्यानादि में आरूढ हो जाय तब ऐसा उत्तम आनंदानुभव होता है जो इन्द्रियसहितशरीर व्यापार से अजन्य होता है। इस लिये यह भी सम्भावना की जा सकती है कि प्रबल भावना के प्रभाव से वही सूखानभव उत्तरोत्तर सोत्कर्षावस्था को प्राप्त करता हुआ अन्तिम सीमा को भी लाँघ जाता है-सर्वज्ञसिद्धि के प्रकरण में यह बात कह दी गयी है इसलिये यहाँ उसका पुनरावर्तन करना ठीक नहीं है, सिर्फ स्मरण कर लेना आवश्यक है। [ मुक्ति में आत्मस्वरूप आनन्द की उत्पत्ति ] परमार्थ दृष्टि से तो आनन्दरूपता आत्मा की स्वरूपभूत हो है जो उसके प्रतिबन्धक कर्म का क्षय होने पर मुक्तिदशा में आविर्भूत होती है / जो लोग आत्मा को एकान्त नित्य अपरिवर्तनशीलस्वभाववाला मानते हैं उन के मत में तो वैषयिक सुख-दुःख का भोग भी घट नहीं सकता, क्योंकि एक स्वभाववाला आत्मा उस स्वभाव का त्याग जब तक न करेगा तब तक उसमें स्वभिन्न सूख दुखादि का उद्भव होने पर भी आकाश को तरह वह उसका अनुभव नहीं कर पायेगा / "आत्मा और आकाश दोनों से सुखादि भिन्न होने पर भी आत्मा में ही सुखादि समवेत हो कर उत्पन्न होने से आत्मा को उसका अनुभव हो सकेगा"-ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि समवाय से उत्पत्ति आदि - बात का पहले ही प्रतिषेध हो चुका है। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा अथ स्वसन्तानवत्तिचित्तक्षणस्याऽजनकत्वेऽपि सन्तानान्तरवत्तियोगिज्ञानस्य जननान्नाशेषचित्तक्षणाऽवस्तुत्वप्रसक्तिः / ननु एवं रसादेरेककालस्य रूपादेरव्यभिचार्यनुमानं साश्रवचित्तसन्ताननिरोधलक्षणमुक्तिवादिनो बौद्धस्य न स्यात् , रूपादेरन्त्यक्षणवद् विजातीयकार्यजनकत्वेऽपि सजातीयकार्यानारम्भसंभवात् / एकसामग्र्यधीनत्वेन रूप-रसयोनियमेन कार्यद्वयारम्भकत्वेऽत्रापि कार्यद्वयारम्भकत्वं कि न स्यात् योगिज्ञानान्त्यक्षणयोरपि समानकारणसामग्रीजन्यत्वात ? कथमेकत्रानुपयोगिनश्चान्यत्रोपयोगश्चरमक्षणस्य? उपयोगे वा ज्ञानान्तरप्रत्यक्षवादिनोऽपि नैयायिकस्य स्वविषयज्ञानजननाऽसमर्थ- . स्यापि ज्ञानस्यार्थज्ञानजननसामर्थ्य कि न स्यात् ? तथा च नार्थचिन्तनमुत्सीदेव / अथ स्वसन्तानत्तिकार्यजननसामर्थ्यवद् भिन्नसन्तानवत्तिकार्यजननसामर्थ्यमपि नेष्यते, तहि सर्वथार्थक्रियासामर्थ्यरहितत्वेनान्त्यक्षणस्याऽवस्तुत्वप्रसक्तिः। तथाविधस्यापि वस्तुत्वे सर्वथाऽर्थक्रियारहितस्याऽक्षणिकस्यापि वस्तुत्वप्रसक्तिः / तथा च सत्त्वादयः क्षणिकत्वं न साधयेयुः अनैकान्तिकत्वात् / तस्मात् साश्रवचित्तसन्ताननिरोधलक्षणाऽपि मुक्तिविशेषगुणरहितात्मस्वरूपेवाऽनुपपन्ना। __ मुक्ति दशा में ज्ञानोत्पत्ति की सिद्धि में यह एक अनुमान प्रमाण है कि ज्ञान उत्तरज्ञान को उत्पन्न करने के स्वभाववाला है, जो जिसको उत्पन्न करने के स्वभाववाला होता है वह उसको उत्पन्न करने में पराधीन नहीं होता उदा० बीजादि अन्तिमकारणसामग्री अंकुर को उत्पन्न करने के स्वभाववाली होती है तो वह अंकुर को उत्पन्न करने में पराधीन नहीं होती, पूर्वज्ञानक्षण भी उत्तरज्ञान को उत्पन्न करने के स्वभाववाला होता है / यह स्वभावहेतुक अनुमान प्रयोग है / यदि ज्ञान उत्तरक्षण में ज्ञान को उत्पन्न न करेगा तो उसके उत्तरज्ञानोत्पादनस्वभाव का ही भंग हो जायेगा। "संसारदशा के अन्तिमक्षण के ज्ञान में उत्तरज्ञानजनकता असिद्ध है" ऐसा नहीं माना जा सकता, क्योंकि वैसा मानने पर पूरे ज्ञानसन्तान में अवस्तुत्व की आपत्ति होगी। वह इस प्रकारः-सत्त्व सत्ताजातिसम्बन्धरूप होने का प्रतिषेध किया गया है अतः अर्थक्रियाकारित्वरूप सत्त्व ही मानना होगा। यदि अन्तिमज्ञानक्षण को उत्तरज्ञानजनक नहीं मानेंगे तो उसमें अर्थक्रियाकारित्व न घटने से उसका असत्त्व फलित होगा। चरमज्ञानक्षण का असत्त्व होने पर उपान्त्य ज्ञानक्षण मे अर्थक्रियाकारित्व न घटने से उसके सत्त्व की प्रसक्ति होगी। इस प्रकार पूर्वपूर्वज्ञानक्षण में असत्त्व प्रसक्त होने से पूरे ज्ञानसन्तान के असत्त्व की आपत्ति आयेगी। . [ साश्रवचित्तसन्ताननिरोध मुक्ति का स्वरूप नहीं है ] यहाँ बौद्धवादी कहते हैं कि-अन्तिमज्ञानक्षण अपने सन्तान में उत्तरज्ञान को उत्पन्न न करे तो भी उसमें असत्त्व को आपत्ति नहीं है क्योंकि अन्य योगी के सन्तान में योगीज्ञानात्मक उत्तरज्ञान को उत्पन्न करने से ही वह सार्थक है-किन्तु यह ठीक नहीं। कारण, साश्रवचित्तसन्ततिनिरोधस्वरूप मक्ति दिखाने वाले बौद्ध के मत में भी समानकालीन रसादि से रूपादि का अभ्रान्त अनुमान होता है वह नहीं हो सकेगा / आशय यह है-रूप और रस दोनों अपने सन्तान में क्रमश: रूप और रस के उत्पादक होते हैं और परसन्तान में सहकारी रूप से क्रमशः रस और रूप के जनक होते हैं / अर्थात् रूप का सजातीय कार्य रूप है और विजातीय कार्य रस है / इसलिये रस को हेतु कर के समानकालीनरूप का अनुमान किया जाता है। किन्तु बौद्धवादी के कथनानुसार अन्तिमज्ञानक्षण की तरह विजातीयकार्योत्पत्ति के होने पर भी यदि सजातीयकार्योत्पत्ति न मानी जाय तो यह सम्भव है कि रूप से रससन्तान में रस Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 638 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 निराश्रवचित्तसन्तत्युत्पत्तिलक्षणा त्वभ्युपगम्यत एव, केवलं सा चित्तसन्ततिः सान्वया युक्ता, बद्धो हि मुच्यते नाऽबद्धः / न च निरन्वये चित्तसन्ताने बद्धस्य मुक्तिः सम्भवति, तत्र ह्यन्यो बद्धोऽन्यश्च मुच्यते / 'सन्तानक्याद् बद्धस्यैव मुक्तिरत्रापी ति चेत् ? यदि सन्तानार्थः परमार्थसंस्तदाऽऽत्मैव सन्तानशब्देनोक्तः स्यात् , अथ संवृतिसन् तदैकस्य परमार्थसतोऽसत्त्वादन्यो बद्धोऽन्यश्च मुच्यत इति बद्धस्य मुक्त्यर्थं न प्रवृत्ति: स्यात् / अथाऽत्यन्तनानात्वेऽपि दृढरूपतया क्षणानामेकत्वाध्यवसायात् 'बद्धमात्मानं मोचयिष्यामि' इत्यभिसन्धानवतः प्रवृत्तेयं दोष:, तहि न नैरात्म्यदर्शन मिति कुतस्तनिबन्धना मुक्तिः ? / अथाऽस्ति नैरात्म्यदर्शनं शास्त्रसंस्कारजम् , न ताकत्वाध्यवसायोऽस्खलद्रूप इति कुतो बद्धस्य मुक्त्यर्थं प्रवृत्तिः स्यात् ? तथा च-"मिथ्याध्यारोपहानार्थ यत्नोऽसत्यपि मोक्तरि" तत् प्लवते / तस्मादसति विज्ञानक्षणान्वयिनि जीवे बन्ध- मोक्षयोस्तदर्थ वा प्रवृत्तेरनुपपत्तेः सान्वया चित्तसन्ततिरभ्युपगन्तव्या। की (यानी विजातीय कार्य की) उत्पत्ति होने पर भी सजातीय रूप कार्य की उत्पत्ति न हो। तब रस से समानकालीन रूप का अनुमान करेंगे तो वह भ्रमरूप हो जायेगा / यदि ऐसा कहें कि रूप और रस दोनों की उत्पत्ति समानसामग्री से होने का नियम होने से रूप को सजातीय-विजातीय उभय कार्यजनक माने विना नहीं चल सकता-तो फिर प्रस्तुत में भी अन्तिमज्ञानक्षण में उभयकार्यजनकता क्यों नहीं होगी जब कि योगीज्ञान और अन्तिमज्ञानक्षण दोनों समान कारणसामग्री से जन्य है ?! यह प्रश्न है कि अन्तिमज्ञानक्षण उत्तरज्ञान की उत्पत्ति में अनुपयोगी है तो योगीज्ञान की उत्पत्ति में उपयोगी कैसे होगा? यदि बौद्धवादी को यह मान्य हो कि एक ओर अनुपयोगी वस्तु दूसरी ओर : उपयोगी बन सकती है, तब तो ज्ञान का अन्यज्ञान से प्रत्यक्ष माननेवाले नैयायिक के मत में ज्ञान को स्वविषयकज्ञानोत्पादन में असमर्थ मानने पर भी अर्थविषयकज्ञान के उत्पादन में समर्थ माना जाता है उसमें क्या दोष रहेगा? ज्ञान स्वविषयकज्ञान के उत्पादन में भले ही असमर्थ हो, अर्थ का ज्ञान करा देगा, फिर अर्थचिन्ता का उच्छेद हो जाने की आपत्ति तो नहीं रहेगी। यदि ऐसा कहें कि-अन्तिमज्ञानक्षण से अपने सन्तान में सजातीयज्ञान की उत्पत्ति को जैसे हम नहीं मानते वैसे भिन्नसन्तानवर्ती कार्य के उत्पादन का सामर्थ्य भी नहीं मानते हैं तो यह नितान्त गलत है क्योंकि तब तो अंत्यक्षण में किसी भी प्रकार का अर्थक्रियासामर्थ्य न रहने से वह अत्यन्त असत् मानना होगा। यदि अर्थक्रिया के विरह में भी आप उसको वस्तुभूत मानेंगे तो अक्षणिक पदार्थ में भी वस्तुत्व मानना होगा, भले ही उसमें अर्थक्रियासामर्थ्य न रहे ! फलतः आपका क्षणिकत्वसाधक सत्त्व हेतू अक्षणिक वस्तु में ही साध्यद्रोही बन जायेगा। सारांश, जैसे विशेषगुणशून्यात्मस्वरूप मुक्ति की मान्यता असंगत है वैसे साश्रवचित्तसन्तान के निरोधस्वरूप मुक्ति की मान्यता भी असंगत है। [चित्तसन्तान में अन्वयी आत्मा की उपपत्ति ] यदि साश्रवचित्तनिरोधपूर्वक निराश्रवचित्तसन्तान की उत्पत्ति को मुक्ति कहें तो उसे हम मानते ही हैं, सिर्फ उस चित्तसन्तान को सान्वय यानी एक अन्वयी से अनुविद्ध मानना आवश्यक है। कारण, बन्धवाले की मुक्ति होती है अबद्ध की नहीं। तात्पर्य यह है कि चित्तसन्तान को यदि सान्वय न मानकर निरन्वय मानेंगे तो 'बन्धवाले की ही मुक्ति होती है' यह सिद्धान्त नहीं घटेगा, क्योंकि निरन्वय चित्तसन्तानपक्ष में पूर्वकालीन क्षण को बन्ध होगा तो मुक्ति उत्तरक्षण को होगी-इस प्रकार Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा 636 न च 'यस्मिन् व्यावर्त्तमाने यदनुवर्तते तत् तत एकान्ततो भिन्नम् यथा घटे व्यावर्त्तमानेऽनुवर्तमानः पटः, व्यावर्त्तमाने च ज्ञानक्षणेऽनुवर्तते चेज्जीवस्ततस्ततो भिन्न एव'-अन्यथा विरुद्धधर्माध्यासेऽपि यद्येकान्ततो भेदो न स्यादन्यस्य भेदलक्षणस्याऽभावादभिन्नं सकलं जगत् स्यात्-इत्यतोऽनुमानात व्यावृताऽनुवृत्तयोर्भेदसिद्धेर्न सान्वया निरास्रवचित्तसन्ततिमुक्तिरिति वक्तुयुक्तम् , असति तत्र पूर्वापरज्ञानक्षणव्यापके आत्मनि स्वसंविदितैकत्वप्रत्ययस्य प्रत्यक्षस्यानुपपत्तेः / अथात्मन्यसत्यप्यध्यारोपितक(त्व) विषयः प्रत्ययः प्रादुर्भविष्यति / अयुक्तमेतत् , स्वात्मन्यनुमानात् क्षणिकत्वं निश्चिन्वतः समारोपितैकत्वविषयस्य विकल्पस्य निवृत्तिप्रसंगात निश्चयाऽऽरोपमनसोविरोधात , अविरोधे वा सविकल्पकप्रत्यक्षवादिनोऽपि सर्वात्मना प्रत्यक्षेणार्थनिश्चयेऽपि समारोपविच्छेदाय प्रवर्त्तमानं न प्रमाणान्तरमनर्थकं स्यात् / "निवर्त्तत एवैकत्वविषयो विकल्पोऽनुमानात् क्षणिकत्वं निश्चिन्वत" इति चेत् ? तर्हि सहजस्याऽऽभिसंस्कारिकस्य च सत्त्वदर्शनस्याभावात् तदैव तन्मूलरागादिनिवृत्तेमुक्तिः स्यात् / बन्ध-मोक्ष का सामानाधिकरण्य नहीं घटेगा। यदि ऐसा कहें कि "क्षण भिन्न भिन्न होने पर भी उनका सन्तान एक होने से जो बन्धवाला ( सन्तान ) है उसी की मुक्ति होती है यह सिद्धान्त संगत हो जायेगा"-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि यदि सन्तानरूप अर्थ को आप वास्तव मानेंगे तो जिसको हम अन्वयि आत्मा कहते हैं उसी का 'सन्तान' शब्द से आपने अभिलाप किया-यानी अन्वयी आत्मा सिद्ध हो जायेगा / यदि सन्तान की काल्पनिक सत्ता मानेंगे तो वास्तविक तो एक सन्तान जैसा कुछ रहा ही नहीं, फलतः बन्धवाला कोई अन्य है और मुक्ति किसी अन्य की होती है यही सार निकला। इस का दुष्परिणाम यह होगा कि बन्धवाला क्षण कभी भी मुक्ति के लिये प्रयास नहीं करेगा, क्योंकि वह प्रयास करेगा तो भी उसकी तो मुक्ति होने वाली नहीं है। .. यदि ऐसा कहें कि यद्यपि सन्तानवर्ती सभी क्षण पृथक् पृथक् हैं फिर भी वे ऐसे निबिड हैं कि उसमें कोई अन्तर उपलक्षित नहीं होता, फलतः उनमें ऐक्य का ही अध्यवसाय होता है, इसीलिये "बंधे हुए मेरे आत्मा को मैं मुक्त करूंगा” ऐसा अभिप्रायवाला बद्ध क्षण मुक्ति के लिये प्रयास करता है, कोई दोष इसमें अब नहीं रहता है"-तो यह ठीक नहीं क्योंकि मुक्ति तो बौद्धमतानुसार 'मैं ही नहीं हूं' ऐसे नैरात्म्यदर्शन से होती है, किन्तु "आप तो मैं मुक्त हो जाऊ” इस प्रकार आत्मदर्शन की बात कहते हैं तो फिर नैरात्म्यदर्शन के विरह में नैरात्म्यदर्शनमूलक मुक्ति कैसे होगी? यदि कहें किवहाँ शास्त्राभ्यास के संस्कार से नैरात्म्यदर्शन होगा-तो फिर एकत्व का अध्यवसाय भ्रान्त हुआ, अस्खलद्रूप नहीं हुआ, भ्रान्त प्रतीति से कभी भी अभ्रान्त प्रवृत्ति नहीं हो सकती तो फिर बद्ध आत्मा मुक्ति के लिये प्रवृत्ति कैसे करेगा? यह प्रश्न खड़ा ही रहा / उपरांत, आपका यह जो वचन है"आत्मा जैसे कोई मुक्त होने वाला तत्त्व न होने पर भी मिथ्या अध्यारोप (बुद्धि) से छूटने के लिये होती है"-यह वचन भी असत्य ठहरेगा क्योंकि उक्त रीति से मुक्ति के लिये प्रवृत्ति ही अनुपपन्न है। सारांश, विज्ञानक्षणों में एक अन्वयि आत्मतत्त्व को न मानने पर न तो बन्ध-मोक्ष घटता है, न मोक्ष के लिये प्रवृत्ति घटती है, इसलिये चित्तसन्तान को सान्वय ही मानना चाहिये। [ ज्ञान-आत्मा का भेदसाधक अनुमान प्रत्यक्ष बाधित ] यदि यह कहा जाय-जिसके निवृत्त होने पर जो अनुवर्तमान होता है वह उससे एकान्तभिन्न होता है, उदा० घट के निवृत्त होने पर अनुवर्तमान पटादि घट से भिन्न ही होते हैं। ज्ञानक्षण की Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 640 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न चायमेकत्वविषयः प्रत्ययः प्रतिसंख्यानेन निवर्त्तयितुमशक्यत्वान्मानसो विकल्पः / तथाहिअनुमानबलात् क्षणिकत्वं विकल्पयतोऽपि नैकत्वप्रत्ययो निवर्त्तते, शक्यन्ते तु प्रतिसंख्यानेन निवारयितु कल्पना: न पुनः प्रत्यक्षबुद्धयः / तस्माद् यथा अश्वं विकल्पयतोऽपि गोदर्शनान्न गोप्रत्ययो विकल्पस्तथा क्षरिणकत्वं विकल्पयतोऽप्येकत्वदर्शनान्नैकत्वप्रत्ययो विकल्पः / नाप्ययं भ्रान्तः, प्रत्यक्षस्याऽशेषस्यापि भ्रान्तत्वप्रसंगात् / बाह्याभ्यन्तरेषु भावेष्वेकत्वग्राहकत्वेनैवाऽशेषप्रत्यक्षेणानु (?क्षाणामुत्पत्तिप्रतीतेः, तथा च प्रत्यक्षस्याऽभ्रान्तत्वविशेषणमसम्भव्येव स्यात् / तस्मादेकत्वग्राहिणः स्वसंवेदनप्रत्यक्षस्याऽभ्रान्तस्य कथंचिदेकत्वमन्तरेणानुपपत्तेर्नानुगतरूपाभावः। निवृत्ति होने पर भी जीव यदि अनुवर्तमान रहेगा तो ज्ञान और आत्मा का भेद प्रसक्त होगा। यदि विरुद्ध धर्माध्यास स्पष्ट होने पर भी आप उनमें एकान्त भेद नहीं मानगे तो भेद का अन्य कोई लक्षण न होने से भेद को कहीं भी अवकाश ही नहीं मिलेगा, फलतः सारे जगत् के पदार्थों में अभेद ही अभेद प्रसक्त होगा / अतः उक्त अनुमान से जब व्यावृत्त और अनुवृत्त पदार्थ का ( यानी ज्ञान और आत्मा का) सर्वथा भेद सिद्ध है तो फिर सान्वय निरास्रवचित्तसन्तान को मुक्ति नहीं मान सकते / कारण, चित्तसन्तान से सर्वथाभिन्न आत्मा का क्षणों में अन्वय होना शक्य नहीं है / तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि आप सन्तान के पूर्वापरक्षणों में अनुविद्ध एक आत्मा का स्वीकार नहीं करगे तो हमें जो यह ऐक्यविषयक प्रत्यक्ष स्वसंविदित प्रतीति होती है-"मैं एक हूं"- यह नहीं हो सकेगी। यदि कहें कि-आत्मा तो असत् है फिर भी जो उसमें एकत्व को प्रतीति होती है वह तो आरोपित है, वास्तविक नहीं-तो यह अयुक्त है, क्योंकि आपके ( बौद्ध ) मत में तो क्षणिकत्व का आत्मा में अनुमान प्रसिद्ध है, उससे सन्तान में अनेकत्व का निश्चय होते समय ही आरोपित एकत्वविषयक विकल्प की तो निवृत्ति हो जायेगी, फिर भी एकत्व विषयक विकल्प होता है वह कैसे होगा जब कि निश्चयात्मकचित्त और आरोपितविषयकचित्त इन दोनों में प्रगट विरोध है। यदि इन में विरोध नहीं मानेंगे तो सविकल्पप्रत्यक्षवादी के मत में एक बार सभी प्रकार से एक अर्थ प्रत्यक्ष से निश्चित हो जाने के बाद भी समारोप निवृत्त न होने के कारण उसकी निवृत्ति के लिये अनुमानादि अन्य प्रमाण की प्रवृत्ति मानी जाती है-उसको आप निरर्थक नहीं मान सकेंगे किन्तु सार्थक मानना पड़ेगा। यदि कहें कि-"अनुमान से क्षणिकत्व का निश्चय होते समय एकत्व का विकल्प निवृत्त हो जाता है"तब तो उसी समय मुक्तिलाभ होने की आपत्ति होगी, क्योंकि उस वक्त न तो सहज सत्त्वदर्शन है न तो अविद्यादिसंस्कारजनित सत्त्वदर्शन है, सत्त्वदर्शन न होने से तन्मूलक रागादि उसी वक्त निवत्त हो जायेंगे तो मुक्ति क्यों नहीं हो जायेगी ? ! [एकत्वविषयक प्रत्यक्ष मिथ्या नहीं है ] एकत्वविषयक प्रतीति वास्तविक नहीं किन्तु मानसिक विकल्परूप है ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि प्रतिसंख्यान (=विरोधी विकल्प) से उसकी निवृत्ति हो ऐसी शक्यता नहीं है / जैसे सोचियेअनुमान के बल से क्षणिकत्व का विकल्प होते समय भी एकत्वप्रतीति का निवर्तन नहीं होता है, क्योंकि प्रतिसंख्यान से भी कल्पनाओं का ही निवर्त्तन शक्य है प्रत्यक्षात्मक बुद्धियों का नहीं। इसलिये अश्व के विकल्पकाल में गो का दर्शन ही होता है, तो गोविषयक विकल्पज्ञान उत्पन्न नहीं होता तरह क्षणिकत्व के विकल्पकाल में भी एकत्व का दर्शन ही होता है इसलिये एकत्वविषयक विकल्प की उत्पत्ति को अवकाश नहीं रहता। [ तात्पर्य यह है कि यदि एकत्व की प्रतीति विकल्पात्मक Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा 641 नाप्यनुगत-व्यावृत्तरूपयोरैकान्तिको भेदः, तद्भेदप्रतिपादकस्यानुमानस्य तदभेदग्राहकप्रत्ययबाधितत्वात् / न च प्रतीयमानस्य रूपस्य विरोधः, अन्यथा ग्राह्य-ग्राहकसंवित्तिलक्षणविरुद्धरूपत्रयाध्यासितस्य ज्ञानस्याप्येकत्वविरोध: स्यात् / तथा, एकनीलक्षणस्याप्येकदा स्व-परकार्यजनकत्वाऽजनकत्वविरुद्धधर्मद्वयाध्यासितस्यैकत्वविरोधप्रसक्तिः / नैयायिकेनापि प्रतीयमाने वस्तुनि न विरोधोद्भावनं विधेयम् , अन्यथा 'स्थाणुरयं पुरुषो वा' इत्याकारद्वयसमुल्लेखिसंशयप्रत्ययस्याप्येकत्वं विरुद्धमासज्येत / यच्चोक्तम्-'यदि योगजो धर्म आत्ममनःसंयोगस्यापेक्षाकारणम्'....इत्यादि, तदपि निरस्तम , सर्वस्यास्मान् प्रत्यनभ्युपगतोपालम्भमात्रत्वात् / यच्च 'मुमुक्षुप्रवृत्तिरिष्टाधिगमार्था, प्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्तित्वात्' इत्यनुमाने 'चिकित्साशास्त्रार्थानुष्ठायिनामातुराणामनिष्टप्रतिषेधार्थी प्रवृत्तिदृश्यते' इत्यनैकान्तिकोद्भावनं तत्राऽनिष्टनिषेधेनाऽऽरोग्यसुखप्राप्तिलक्षणेष्टाधिगमाथित्वेन तेषां तत्र प्रवृत्तेदर्शनान्नानकान्तिकत्वम् / नचास्माकमयं पक्षः-मोक्षसुखरागेण मुमुक्षवो वीतरागाः सन्त: प्रवर्त्तन्ते, "मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः" इत्यभ्युपगमात् / होती तो उसकी निवृत्ति शक्य थी किन्तु वह दर्शनात्मक यानि निर्विकल्पप्रत्यक्षात्मक होने से उसकी निवृत्ति अशक्य है / एकत्व के प्रत्यक्ष को भ्रान्त भी नहीं कह सकते। यदि विना किसी बाधक के भी प्रत्यक्ष को भ्रान्त कहेंगे तो सभी प्रत्यक्ष में भ्रान्तता की आपत्ति होगी / बाह्य अथवा अभ्यन्तर सभी भावों का प्रत्यक्ष उनके एकत्व को ग्रहण करता हुआ ही उत्पन्न होता है यह अनुभवसिद्ध है, इसलिये एकत्वप्रत्यक्ष को भ्रान्त कहने पर उन सभी प्रत्यक्षों में भ्रान्तता आपत्ति स्थिर रहेगी / फलत: 'अभ्रान्तं कल्पनापोढं प्रत्यक्षम्' ऐसा जो प्रत्यक्ष के लक्षण में अभ्रान्तं यह विशेषण दिया गया है वह असम्भवग्रस्त हो जायेगा। सारांश, एकत्वग्राहक प्रत्यक्ष स्वसंवेदनसिद्ध है, अभ्रान्त है, इसीलिये सन्तानवत्तिक्षणों में कथंचिद् एकत्व को मान्य किये विना उसकी उपपत्ति करना अशक्य है-इस से यह सिद्ध होता है कि उन क्षणों में एक अनुगत आत्मारूप पदार्थ का अभाव नहीं है। [विरोधापादन का निवारण ] .. अनुगतरूप और व्याक्त्तरूप में एकान्तभेद मानना भी अयुक्त है / आपने जो भेदसाधक अनुमान दिखाया है वह तो अभेदसाधक प्रत्यक्षप्रतीति से ही बाधित है / अनुगत रूप और व्यावत्त रूप दोनों की एक अधिकरण में प्रतीति होती है इसलिये उनमें विरोध मानना असंगत है। प्रतीति सिद्ध वस्तुद्वय में भी यदि विरोध मानेंगे तो ग्राह्यता-ग्राहकता और संवेदनरूपता तीन रूप से अधिष्टित ज्ञान को एक मानने में विरोध प्रसक्त होगा / इतना ही नहीं, एक ही नीलक्षण एकसाथ स्वकार्यजनकत्व और पर (सन्तानवर्ती) कार्य का (सहकारीरूप से) जनकत्व दो विरुद्ध धर्म से अध्यासित होने के कारण उसके एकत्व में भी बौद्ध को विरोध मानना होगा। प्रतीतिसिद्ध वस्तु में विरोध का उद्भावन नैयायिक को भी नहीं करना चाहिये / अन्यथा, “यह स्थाणु है या पुरुष है" इस संशयात्मक प्रतीति में स्थाण-आकार और पुरुषाकार दो विरुद्धाकार का उल्लेख होने से सशयज्ञान में भी एकत्व मानने में विरोध प्रसक्त होगा। . यह जो उपालम्भ आपने दिया है कि-आत्ममन:संयोग का अपेक्षाकारण योगज धर्म को यदि मानेंगे तो वह नहीं घटेगा क्योंकि वह अनित्य है.... इत्यादि, यह सब निरस्त हो जाता है क्योंकि हम वैसा मानते ही नहीं है / यह जो अनुमान कहा था-मुमुक्षु की प्रवृत्ति इष्ट प्राप्ति के लिये होती है Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 642 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यच्च 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इत्याद्यागमस्य गौणार्थप्रतिपादनपरत्वम् अभ्यधायि, तदत्यन्तमसंगतम् , मुख्यार्थबाधकसद्भावे तदर्थकल्पनोपपत्तेः / न च तत्र किचिद् बाधकमस्तीति प्रतिपादितम् / यच्च किंच, इष्टार्थाधिगमायां च' इत्याधुक्त तदपि सिद्धसाध्यतादोषाद् निःसारतया चोपेक्षितम् / यदपि 'नित्यसुखाभ्युपगमे च विकल्पद्वयम्' इत्याद्यभिहितं, तदप्यनभ्युपगमादेव निरस्तम् , नित्यस्य सुखस्यान्यस्य वा पदार्थस्यानभ्युपगमात् / यथाभूतं च स्वसंविदितं सुखं मोक्षावस्थायामात्मनस्तद्रूपतया परिणामिनः कथंचिदभिन्नमभ्युपगम्यते तथाभूतं प्राक प्रसाधितमिति / यच्च न रागादिमतो विज्ञानात् तद्रहितस्योत्पत्तियुक्ता' इत्यादि, तदप्यसारम् , रागादिरहितस्य सकलपदार्थविषयस्य ज्ञानोपादानस्य ज्ञानस्य सर्वज्ञसाधनप्रस्तावे प्रतिपादितत्वात् / यच्च विलक्षणादपि कारणाद विलक्षणकार्योत्पत्तिदर्शनाद् बोधाद बोधरूपतेति न प्रमाणमस्ति' इत्यादि, तदपि प्रतिविहितम् अचेतनाच्चेतनोत्पत्त्यभ्युपगमे चार्वाकमतप्रसक्तेः परलोकाभावप्रसक्त्या / परलोकसद्भावश्च प्राक् प्रसाधितः / यच्च 'ज्ञानस्य ज्ञानान्तरहेतुत्वे न पूर्वकालभावित्वं क्योंकि वह प्रवृत्ति बुद्धिमानों की प्रवृत्ति है-इस अनुमान में आपने जो अनैकान्तिक दोष का प्रतिपादन किया है कि चिकित्साशास्त्रविहित उपाय का अनुष्ठान करने वाले रोगीओं की औषधपानादि में प्रवत्ति अनिष्ट के निवारणार्थ होती है-यह अनैकान्तिक दोष वास्तव में यहाँ निरवकाश है क्योंकि वहाँ अनिष्ट (रोग) के निवारण द्वारा आरोग्यसुख की प्राप्ति स्वरूप इष्टप्राप्ति के लिये ही प्रवृत्ति होती है। दूसरी बात,-हम ऐसा नहीं मानते है कि वीतराग मुमुक्षुओं की मोक्षार्थ प्रवृत्ति मोक्षसुख के राग से होती है, क्योंकि हमारा सिद्धान्त है कि उत्तम साधक संसार या मुक्ति, सर्वत्र नि:स्पृह होता है। [ बाधक के विना गौणार्थं कल्पना असंगत ] तदुपरांत, 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इस वेदवाक्य को आपने मुख्यार्थक न मानकर गौणार्थक होने का कहा है वह भी असंगत है, मुख्यार्थ में बाधक प्रसिद्ध होने पर ही उसके गौणार्थक होने की कल्पना संगत हो सकती है, अन्यथा नहीं, उक्त वेदवाक्य को मुख्यार्थक मानने में कोई ठोस बाधक नहीं है यह तो कहा जा चुका है / तथा यह जो आपने कहा है कि इष्टार्थप्राप्ति के लिये मुमुक्षु की प्रवृत्ति रागमूलक हो जाने से मोक्षप्राप्ति नहीं हो सकेगी-यह तो सिद्धसाधनदोष के कारण नि:सार होने से उपेक्षणीय है / आशय यह है कि मुमुक्षु सर्वत्र निःस्पृह होता है, यदि वह इष्टप्राप्ति के लिये प्रवत्ति करेगा तो मुक्त नहीं हो सकेगा, यह निःसंदेह है। तथा, "नित्यसुख को मानने में दो विकल्प हैं.... नित्यसुख स्वप्रकाश आत्मरूप है या उससे भिन्न है” इत्यादि....जो आपने कहा था वह दोनों विकल्प नित्यसख के अस्वीकार से ही निरस्त हो जाता है। हम सुख या किसी भी अन्य वस्तु को एकान्त नित्य मानते ही नहीं / मुक्तावस्था में सुखरूप में परिणामिआत्मा से कथंचिद् अभिन्न ऐसे स्वसंविदित सुख को हम मानते हैं और उसकी पहले सिद्धि की जा चुकी है। यह जो आपने कहा है रागादिग्रस्त विज्ञान से रागरहित विज्ञान की उत्पत्ति युक्त नहीं है...इत्यादि, वह भी असार है, क्योंकि ज्ञान ही रागादिशून्य और सकल वस्तु को विषय करने वाले ज्ञान का उपादान कारण है यह सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण में हमने सिद्ध किया है / यह जो कहा था-विलक्षण कारण से भी विलक्षण कार्य की उत्पत्ति दीखती है इसलिये बोध से ही उत्तरकार्य में बोधरूपता होने की बात में कोई प्रमाण नहीं है-इस कथन का प्रतिकार पहले हो Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा 643 समानजातीयत्वम् एकसन्तानत्वं वा हेतुर्व्यभिचारात' इत्यादि, तदपि प्रतिविहितमेव 'तस्माद्यस्यैव संस्कारं नियमेनाऽनुवर्तते' इत्यादिना / तेन 'मरणशरीरज्ञानस्य गर्भशरीरज्ञानहेतुत्वे सन्तानान्तरेऽपि ज्ञानजनकत्वप्रसंगः, नियमहेतोरभावात्' इत्येतदपि स्वप्नायितमिव लक्ष्यते, नियमहेतोस्तत्संस्कारानुवर्तनस्य प्रदर्शितत्वात्। यच्च 'सुषुप्तावस्थायां विज्ञानसद्भावे जाग्रदवस्थातो न विशेषः स्यात्' इत्यादि, तदपि प्रतिविहितम् 'यस्य यावती मात्रा' इत्यादिना / तथाहि-मिद्धादिसामग्रीविशेषाद् विशिष्टं सुषुप्ताद्यवस्थायां गच्छत्तणस्पर्शज्ञानतुल्यं बाह्याध्यात्मिकपदार्थानेकधर्मग्रहणविमुखं ज्ञानमस्ति, अन्यथा जाग्रत प्रबद्धज्ञानप्रवाहयोरप्यभावप्रसक्तिरिति प्रतिपादितत्वात परिणतिसमर्थनेन / यथा चाश्वविकल्पनकाले प्रवाहेणोपजायमानमपि गोदर्शनं जानान्तरवेद्यमपि भवदभिप्रायेणानुपलक्षितमास्ते-अन्यथा अश्वविकल्पप्रतिसंहारावस्थायाम 'इयत्कालं यावन्मया गौष्टो न चोपलक्षितः' इति ज्ञानानुत्पत्तिप्रसक्तः प्रसिद्धव्यवहारोच्छेदः स्यात्-तथा सुषुप्तावस्थायां स्वसंविदितज्ञानवादिनोऽप्यनुपलक्षितं ज्ञानं भविष्यतीति न तदवस्थायां विज्ञानाऽसत्त्वात् तत्सन्तत्युच्छेदः / न च युगपज्ज्ञानानुत्पत्तरश्वविकल्पकाले ज्ञानान्तरवे चुका है, क्योंकि अचेतन से यदि चैतन्य की उत्पत्ति मानेंगे तो परलोकमान्यता का उच्छेद हो जाने से नास्तिकमत की आपत्ति होगी। परलोक की सिद्धि पहले की गयी है। यह जो विकल्प किया था-ज्ञान को ही अन्य ज्ञान का कारण मानने में क्या हेतु है-पूर्वकालभावित्व, समानजातीयता या एकसन्तानता? तीनों में व्यभिचार होने से ज्ञान ही अन्य ज्ञान का हेतु नहीं है-इत्यादि, उसका भी प्रतिकार "जो जिसके संस्कार का नियमतः अनुसरण करता है वह तत्समाश्रित है" इस कारिकार्थ से कर दिया गया है। इसी कारण से, आप का यह कथन-मरणशरीरवर्ती ज्ञान को अग्रिम जन्म के गर्भकालीनशरीरान्तर्गतज्ञान का हेतु मानेंगे तो फिर चैत्रसन्तानवत्ति ज्ञान से मैत्रसन्तान में ज्ञानोत्पत्ति की आपत्ति होगी क्योंकि कारण कार्य के सामानाधिकरण्यादि नियामक हेतु का तो अभाव है-यह कथन भी स्वप्नोक्तितुल्य लगता है, क्योंकि संस्कार के अनुवर्तन स्वरूप नियामक हेतु का सद्भाव तो हमने दिखा दिया है। [ सुषुप्ति में ज्ञान के सद्भाव की सिद्धि ] यह जो कहा था-सुषुप्तावस्था में विज्ञान की सत्ता मानने पर जागृतिदशा से कुछ भेद नहीं रहेगा-....इत्यादि,-इस का भी-जिस की जितनी मात्रा....इत्यादि [-10-27 ] से परिहार हो चुका है। जैसे देखिये-निद्रावस्था में एक ऐसा ज्ञान होता है जो बाह्याभ्यन्तर पदार्थों के अनेकधर्मों के ग्रहण से विमुख होता है, जो मिद्धता (=दर्शनावरणकर्मके उदय से प्रयुक्त जडता) आदि सामग्री विशेष से विशिष्ट यानी उत्पन्न होता है, जैसे कि चलते समय पैर के नीचे आनेवाले तृण का स्पर्शज्ञान / यदि इस ज्ञान को नहीं मानेंगे तो जागृतिदशा के अन्तिमज्ञान में अर्थक्रियाकारित्वरूप सत्त्व का अभाव प्रसक्त होने से संपूर्ण जागृतिदशाकालीन ज्ञानप्रवाह का और सुषुप्ति उत्तरकालीन ज्ञानप्रवाह का अभाव प्रसक्त होगा। परिणामवाद के समर्थन में उक्त तथ्य का समर्थन किया जा चुका है। सुषुप्ति में अनुपलक्षित भी ज्ञान होता है उसके लिये बौद्धमतमान्य गोदर्शन का हष्टान्त भी है अश्व के विकल्पकाल में प्रवाह से उत्पन्न होने वाला गोदर्शन उपलक्षित नहीं होता है किन्तु आपके मतानुसार वह ज्ञानान्तरवेद्य होता है-यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो अश्वविकल्प के प्रवाह का अन्त हो जाने पर जो यह Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 644 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 द्यगोदर्शनाऽसम्भवः, सविकल्पाऽविकल्पयोनियोयुगपद्वृत्तेरनुभवात्, अन्यथा प्रतिनिवृत्ताश्वविकल्पस्य तावत्कालं यावद् गोदर्शनस्मरणाध्यवसायो न स्यात् / क्रमभावेऽपि च तयोविज्ञानयोविज्ञानं ज्ञानान्तरविदितमप्यनुपलक्षितमवश्यं तस्यामवस्थायां परेणाभ्युपगमनीयम् , तदभ्युपगमे च यदि स्वापावस्थायां स्वसंविदितं यथोक्त ज्ञानमभ्युपगम्यते तदा न कश्चिद्विरोधः / शेषस्तु पूर्वपक्षग्रन्थोऽनभ्युपगमानिरस्तः / ___ यदपि 'अनेकान्तभावनातः इत्याद्यभ्युपगमे तज्ज्ञानस्य निःश्रेयसकारणत्वं प्रतिषिद्धम् , अनेकान्तज्ञानस्य बाधकसद्भावेन मिथ्यात्वोपपत्तेः' इत्यभिहितम् , तदप्यसम्यक् , अनेकान्तज्ञानस्यैवाऽबाधितत्वेन सम्यक्त्वेन प्रतिपादितत्वात् / यच्च 'नित्यानित्य (त्व) योविधि-प्रतिषेधरूपत्वादभिन्ने धर्मिण्यभावः' इत्यनेकान्तपक्षस्य बाधकमुपन्यस्तं तदबाधकमेव, प्रतीयमाने वस्तुनि विरोधाऽसिद्धः / न च येनैव रूपेण नित्यत्वविधिस्तेनैव प्रतिषेधविधिः येनैकत्र विरोधः स्यात् / कि तहि ? अनुस्यूताकारतया नित्यत्वविधिावृत्ताकारतया च तस्य प्रतिषेधः / न चान्यधर्मनिमित्तयोविधि-प्रतिषेधयोरेकत्र विरोधः अतिप्रसंगात् / न चानुगतव्यावृत्ताकारयोः सामान्यविशेषरूपतयाऽत्यन्तिको भेदः, पूर्वोत्तरकालभाविस्वपर्यायतादात्म्येन स्थितस्यानुगताकारस्य बाह्याऽऽध्यात्मिकस्यार्थस्याऽबाधितप्रत्यक्षप्रतिपत्तो प्रतिभासनात् / ज्ञान उत्पन्न होता है कि 'इतने काल से गाय को देखने पर भी मुझे वह उपलक्षित नहीं हुआ' यह ज्ञान उत्पन्न ही नहीं होगा, तथा इसप्रकार के ज्ञान होने का जो सर्वजनसिद्ध व्यवहार है उसका भी विलोप हो जायेगा / तो जैसे अनुपलक्षित भी गोदर्शनरूप ज्ञान अश्वविकल्प काल में होता है उसी तरह स्वसंविदित ज्ञानवादी के पक्ष में भी सुषुप्तिदशा में ज्ञान अनुपलक्षित हो सकता है, इसलिये : सुषुप्तिदशा में ज्ञानाभाव को मानने द्वारा सन्तान के उच्छेद की सिद्धि दुष्कर है। 'एकसाथ (दो) ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकते, इसलिये अश्वविकल्पज्ञानकाल में ज्ञानान्तर से वेद्य गोदर्शनरूप निर्विकल्पज्ञान के अस्तिव का सम्भव नहीं है'-ऐसा कहना व्यर्थ है क्योंकि सविकल्प और निर्विकल्प दो ज्ञान का एकसाथ अस्तित्व अनुभवसिद्ध है। यदि नहीं मानेंगे तो अश्वविकल्प की निवृत्ति होने पर उतने काल तक गोदर्शन का स्मरणात्मक अध्यवसाय जो होता है 'इतने काल देखने पर भी मेरे ध्यान में यह नहीं आया'-यह अध्यवसाय नहीं होगा। मान लो कि वहाँ दो ज्ञान एक साथ नहीं किन्तु शीघ्र क्रम से उत्पन्न होते हैं तो भी उन दो विज्ञानों को विषय करने वाला एक विज्ञान जो कि यद्यपि अन्यज्ञान से वेद्य होने पर भी उस अवस्था में अनुपलक्षित रहता है, वह आप को अवश्य मानना पडेगा / क्योंकि विज्ञान द्वयविषयकविज्ञान का अन्य ज्ञान से वेदन अनुभवसिद्ध है। ज़ब आप को वह मान्य है तो हमें सुषुप्तिदशा में स्वसंविदित किन्तु अनुपलक्षित ज्ञान मान्य होने में कोई विरोध नहीं रहता। इस विषय में अवशिष्ट पूर्वपक्षवचनों का भी उनके अस्वीकार से ही निरसन हो जाता है / [ अनेकान्तभावनाजनित ज्ञान असम्यक् नहीं ] तदुपरांत, अनेकान्तभावना से मोक्षप्राप्ति की मान्यता के खंडन में अनेकान्तज्ञान की मोक्षकारणता का निराकरण करते हुए जो कहा है कि बाधक विद्यमान होन से अनेकान्त ज्ञान में मिथ्यात्व ही घटता है-वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनेकान्तज्ञान ही अबाधित होने से वही सम्यक् है-इस तथ्य का प्रतिपादन हो चुका है / तथा यह जो बाधक कहा है-नित्यत्व और अनित्यत्व क्रमशः विधिनिषेधरूप होने से एक अभिन्न धर्मी में दोनों नहीं हो सकते-यह कोई ठोस बाधक नहीं है क्योंकि एक Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा 645 यच्चेदम् घटादिम दादिरूपतया नित्य इत्यत्र 'मद्रपतायास्ततोऽर्थान्तरत्वान्न ततो घटो नित्यः, मृद्रूपता हि मृत्त्वं सामान्यमर्थान्तरम् , तस्य नित्यत्वे न घटस्य तथाभावस्ततोऽन्यत्वात, घटस्य च कारणाद् विलयोपलब्धेरनित्यत्वमेव' इति-अयुक्तमेतत् , सामान्यस्य विशेषादर्थान्तरत्वानुपपत्तेः समानाऽसमानपरिणामात्मको घटाद्यर्थोऽभ्युपगन्तव्यः / तथा हि-न तावत् स्वाश्रयादर्थान्तरभूता मृत्त्वजातिः सत्ता वा, स्वाश्रयैः सम्बन्धाभावात-स्वसम्बन्धात प्रागसद्भिरपि स्वाश्रयैः सम्बन्धेऽतिप्रसंगात , स्वत एव सद्धिः सत्तासम्बन्धकल्पनावैयात् / समवायस्य सर्वगतत्वाद व्यक्त्यन्तरपरिहारेण व्यक्त्य व सर्वगतस्यापि सामान्यस्य सम्बन्धेऽतिप्रसंगपरिहारायाभ्युपगम्यमाना च प्रत्यासत्तिः प्रत्येक परिसमाप्त्या व्यक्त्यात्मभूता वाऽभ्युपगम्यमाना कथं समानपरिणामातिरिक्तस्य सामान्यस्य कल्पनां न निरस्येत् , शुक्लादिवच्च स्वाश्रये स्वानुरूपप्रत्ययादिहेतोः सामान्यात् सदादिप्रत्ययादिवृत्तिनं भवेत् ? / सामान्यस्य तु स्वत एव सदादिप्रत्ययविषयत्वे द्रव्यादिषु कः प्रद्वेषः ? परतश्चेदनवस्था / अनध्यारोपिततद्रूपे च तत्प्रत्ययादिवृत्तावतिप्रसंगः स्यात् / तद्रूपाध्यारोपेऽपि तत्प्रत्ययादिश्चान्यत्र भ्रान्त एव प्रसक्तः। मि में वास्तव में प्रतीत होने वाले दो धर्म में, चाहे वे विधि-निषेधरूप हो या न हो विरोध असिद्ध है। जिस (द्रव्यत्वादि) रूप से हम नित्यत्व का विधान करते हैं उसी रूप से हम नित्यत्व का प्रतिषेध करते ही नहीं जिस से कि विरोध को अवकाश मिले / 'तो फिर आप के विधि-निषेध किस रूप से हैं'-इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वस्तु का द्रव्यत्वादि जो अनुस्यूत (=अनुगत) आकार है उस रूप से नित्यत्व का विधान किया जाता है और जो कुडलत्वादि व्यावृत्ताकार है उस रूप से नित्यत्व का प्रतिषेध किया जाता है। एक स्थान में भिन्न भिन्न धर्म निमित्तक विधि और प्रतिषेध को मानने में विरोध नहीं है, अन्यथा एक शब्द से वाच्यत्व और अन्यशब्द से अवाच्यत्वादि मानने में भी विरोध आ जायेगा। तथा, यह भी ज्ञातव्य है कि सामान्यात्मक अनुगताकार और विशेषरूप व्यावृत्ताकार इन दोनों में अत्यन्त भेद नहीं है, कथंचिद् भेद है। कारण, अबाधित प्रत्यक्षप्रतीति में बाह्याभ्यन्तर प्रत्ये प्रत्येक अर्थ, पूर्वोत्तरकालभावि अपने पर्यायों से अभिन्नता धारण करने वाले अनुगताकार से उपश्लिष्ट होकर ही प्रतिभासित होता है। मिट्टी आदि रूप से घटादि नित्य है-इस विषय में यह जो आपने कहा है कि-मिट्टीरूपता घटादि से भिन्नपदार्थ रूप होने से मिट्टीरूपता के जरिये घट को नित्य नहीं मानना चाहिये, मिट्टीरूपता मृत्त्वसामान्यरूप यानी अन्यपदार्थरूप है, उसके नित्य होने पर भी घट में नित्यता नहीं आ जाती क्योंकि घट तो मृत्त्व सामान्य से अन्य है। विनाशक कारण से घट का नाश दिखता है इस लिये घट -अनित्य ही है यह सब अयुक्त है क्योंकि घटादिविशेष से मृत्त्वादि सामान्य अन्यपदार्थरूप मानना संगत नहीं होता इस लिये समान-असमान उभयपरिणाम से अभिन्न ही घटादि पदार्थ मानना चाहिये / यह इस तरहः-मृत्त्व जाति अथवा सत्ता, अपने आश्रय से अर्थान्तरभूत नहीं है / यदि उसे भिन्न मानेंगे तो आश्रय के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं घटेगा। सत्तादि जाति का सम्बन्ध होने के पहले जो असत् थे, उन आश्रयों के साथ बाद में यदि सत्तादि का सम्बन्ध मानेंगे तो खरविषाणादि के साथ भी मानना पड़ेगा। यदि सत्ता सम्बन्ध के पहले भी घटादि आश्रय को सत् मानेंगे तो फिर सत्तादि सम्बन्ध को कल्पना ही व्यर्थ हो जायेगी। ... नैयायिक मत में समवाय भी सर्वगत ( = व्यापक) है और घटत्वादि सामान्य भी सर्वगत है, Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 646 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ इतरतराश्रयशषण- वियाप्याश्रित समवायमपि च तादूप्यमेव समवायिनोः पश्यामः, अन्यथा तस्याप्याश्रिततया सम्बन्धान्तरकल्पनाप्रसंगात तत्र चानवस्थायाः प्रदर्शितत्वात् / विशेषण-विशेष्यभावसम्बन्धेऽप्यपरतत्कल्पनेऽनवस्था। समवायात तत्सम्बन्धकल्पने इतरेतराश्रयत्वम् / अनाश्रितस्य तत्सम्बन्धत्वेऽप्यतिप्रसंगः। तस्य स्वतः सम्बन्धे वा सामान्यस्यापि तथाऽस्तु विशेषाभावात् / सति च वस्तुद्वये सन्निहिते 'इदं सदिदं च सत्' इति समुच्चयात्मकः प्रत्ययोऽनुभूयते, न पुनः 'इदमेवेदम्' इति, सम्भवद्विवक्षितक (? तानेक)व्यक्त्याधेयरूपस्य च सामान्यस्याशेषाश्रयग्रहणाऽसम्भवान्न कदाचनापि तस्य सम्पूर्णस्य ग्रहणं स्यात् / तद्व्यक्त्यनाधेयरूपाऽसम्भवे तद्गतरूपादिवत् तन्मात्रमेव स्यात् / स्वाश्रयसर्वगतसामान्यवादस्तु परिणामसामान्यवादान्न विशिष्यते, प्रत्याश्रयं परिसमाप्तत्वस्यान्यथानुपपत्त्या सामान्यसम्बन्धशून्येष्वपि द्रव्यादिषु पदार्थादिप्रत्ययाद्यन्वयदर्शनाच्च / इस स्थिति में घटत्वादि जाति पटादिव्यक्ति को छोडकर सिर्फ घटादि व्यक्तिओं के साथ ही सम्बन्ध रखे तो पटादि के साथ भी सम्बन्ध रखने का अतिप्रसंग सावकाश है, उसके निवारण के लिये यदि आप प्रत्येक व्यक्ति में व्यापक और व्यक्ति से तादात्म्य रखने वाले सम्बन्ध की कल्पना करेगे तो वह सम्बन्ध 'समानपरिणाम' से अन्य कौन होगा? अर्थात् समानपरिणाम को जब मानना ही पड़ेगा तब उससे भिन्न सामान्य की कल्पना का उच्छेद क्यों न होगा? और शुक्लादिवर्ण जैसे अपने आश्रय की स्वानुरूप प्रतीति अर्थात् 'शुक्ल वस्त्र' ऐसी प्रतीति का हेतु बनता है वैसे वह समानपरिणामरूप सत्तादि सामान्य 'घट सत् है' इत्यादि सत्त्वविषयकप्रतीतियों का हेतु भी क्यों न हो सकेगा? तथा अतिरिक्त सामान्य पक्ष में, यदि आप सामान्य में सत्तादिजाति के विना भी 'सामान्यं सत्' इस प्रकार सामान्य को स्वतः सत्त्वादिप्रतीति का विषय मानते हैं तो द्रव्यादि के ऊपर आप को द्वेष क्यों है जिस से सामान्य के विना 'द्रव्यं सत्' इस प्रकार द्रव्यादि को स्वतः सत्त्वादिप्रतोति का विषय नहीं मान लेते ? यदि सामान्य में अपर सामान्य से सत्त्वादिप्रतीति का उपपादन करेंगे तो उस अपर सामान्य में भी नये नये सामान्य को मानकर तद्विषयक सत्त्वादिप्रतीति का उपपादन करना होगा जिस में अनवस्था दोष लगेगा / जिस रूप का जहाँ अध्यारोप नहीं किया गया, उसको तद्विषयक प्रतीति का यदि हेतु मानेंगे तो सारे जगत् को उस प्रतीति के हेतु मानने का अतिप्रप्रसंग होगा। यदि एकवस्तुगत सत्तादिरूप को अन्यत्र अध्यारोपित मान कर तद्विषयकप्रतीति का उपपादन करेंगे तो वह प्रतीति भ्रान्त मानने की आपत्ति खडी है। [समवायादिसम्बन्धकल्पना में अनवस्था ] समवाय भी दो समवायि का तादात्म्य ही दिखता है / यदि उसको भिन्न मानेंगे तो भी समवायियों में आश्रित तो मानना ही होगा और आश्रित मानने के लिये अन्य सम्बन्ध की कल्पना करनी पडेगी, फलतः यहाँ अनवस्था दोष होगा-यह पहले कह दिया है / समवाय के बदले यदि विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध मानेंगे तो उसको आश्रित मानने के लिये भी नये नये सम्बन्ध की कल्पना करने में अनवस्था दोष है। यदि विशेषण-विशेष्य भावसम्बन्ध को समवायीयों के साथ सम्बन्ध करने के लिये समवाय की कल्पना करेंगे और समवाय का समवायि के साथ सम्बन्ध करने के लिये विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध को मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष लगेगा। यदि कहें कि-समवाय को अनाश्रितरूप में ही सम्बन्ध मानेंगे तो यह आपत्ति होगी कि रूपादि को भी अनाश्रित मान कर ही घट में रूपादिवत्ता की बुद्धि का निमित्त मानना होगा। यदि समवाय को आप स्वतः सम्बन्ध मानने Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० 1- मुक्तिस्वरूपमीमांसा 647 नाप्यन्यस्य व्यावृत्तिः, स्वलक्षणगतायाः प्रत्येकपरिसमाप्तायाः परिणामसामान्यादभिन्नत्वात् व्यावृत्तेः। तदाश्रयान्यानेकव्यक्तिसाधारणी बुद्धिपरिकल्पिता ऽतज्जातीयव्यावृत्ति: सामान्यमिष्यते, तस्मिंश्चाऽवस्तुभूते शब्दप्रतिपादिते तथाविधे सामान्येऽस्वलक्षणविवक्षितेऽर्थक्रियार्थिनां स्वलक्षणे वृत्तिरपरिकल्पितरूपे कथं स्यात् ? दृश्य-विकल्प (प्य)योरेकीकरणेन प्रवृत्तौ गोबुद्धयाऽप्यश्वे प्रवर्तेत / न च पतस्य सामान्यस्याऽवस्तभततया केनचिद दृश्येन सारूप्यमस्ति, सद्भावे वा सारूप्यस्य कि दृश्यविकल्प्यकीकरणवाचोयुक्त्या ? तदेव दृश्यं सामान्यज्ञाने प्रतिभासते, तत्प्रतिभासाच्च तत्रैव वृत्तिरिति कि न स्फुटमेवाऽभिधीयते अवस्त्वाकारस्य वस्तुना सारूप्याऽसम्भवात् ? के लिये सज्ज हैं ( अर्थात् उसके लिये कोई अपर सम्बन्ध नहीं मानना है ) तो फिर सामान्यादि को भी स्वतः सम्बद्ध मान लिजीये, दोनों स्थल में क्या विशेष फर्क है ? ___तथा, दो वस्तु के होने पर 'यह सत् है और यह सत् है, ऐसी समुच्चयात्मक प्रतीति अनुभव में आती है, किन्तु 'यही यह है' ऐसी प्रतीति होने का अनुभव नहीं है / तथा सम्भवतः सामान्य' जितनी पक्ति में आधेय रूप से रहा है उन में से किसी एक व्यक्ति में उसका ग्रहण होने पर भी उसके जितने आश्रय हैं उन सभी का ग्रहण न हो सकने से तत्तद्व्यक्तिनिष्ठसामान्य का ग्रहण न होने पर सामान्य का संपूर्ण ग्रहण तो कभी होगा ही नहीं। यदि सामान्य में तत्तद्व्यक्ति-आधेयरूपता का ही सम्भव मानेंगे तो जैसे तत्तद्व्यक्तिगतरूपादि सिर्फ़ तत्तद् व्यक्ति के ही आधेय होने से तत्तद् व्यक्ति में ही पर्याप्तरूप से रहते हैं उसी तरह सामान्य भी तन्मात्ररूप यानी तत्तद्व्यक्तिमात्रपर्याप्त हो जाने की आपत्ति होगी। इससे यह फलित होना है कि-सामान्य के जितने आश्रय हैं उन सभी में सामान्य को व्यापक मानने वाला मत परिणामसामान्यवाद से अतिरिक्त नहीं हो सकता / तात्पर्य, वस्तुओं का समानपरिणाम यही सामान्य है ऐसा माने तभी सर्वगतत्व संगत हो सकता है, क्योंकि समानाकार परिणामरूप सामान्य ही प्रत्येक आश्रयव्यक्ति में पर्याप्त होकर रह सकता है / तथा यह दिखता है कि द्रव्यादि में पदार्थत्वादि सामान्य का सम्बन्ध न होने पर भी 'यह पदार्थ है-यह पदार्थ है' ऐसी अनुगत प्रतीति होती है। [ व्यावृत्ति सर्वथा भिन्न या असत् नहीं है ] __अन्य पदार्थ की व्यावृत्ति भी घटादिविशेष से सर्वथा भिन्न नहीं है, क्योंकि प्रत्येक में व्याप्त स्थलक्षणगत व्यावृत्ति यह परिणामसामान्यरूप ही है उससे भिन्न नहीं है / परिणामसामान्य के आश्रयभूत अन्य अन्य अनेक व्यक्तिओं में साधारण और बुद्धि से कल्पित जो अतज्जातीयव्यावृत्ति (अघटजातीयव्यावृत्ति घटत्व) यही सामान्य कहा जाता है। बौद्धवादी सामान्य को वस्तुभूत नहीं मानतें हैं (काल्पनिक मानते हैं) किन्तु यदि उसको वस्तुभूत नहीं मानेंगे तो अवस्तुभूत सामान्य का शब्द से प्रतिपादन किये जाने पर स्वलक्षण की तो विवक्षा ही नहीं है फिर अर्थक्रिया के चाहकों की अकल्पितरूपवाले (यानी वास्तविक) स्वलक्षण पदार्थ में प्रवृत्ति होती है वह कैसे होगी ? आशय यह है कि शब्द का प्रतिपाद्य सामान्य तो बौद्धमत में असत् है अतः उसमें तो प्रवृत्ति हो नहीं सकती। जों स्वलक्षणरूप वास्तविक पदार्थ है वह तो बौद्धमत में शब्द का प्रतिपाद्य ही नहीं है तो उस में भी प्रवत्ति नहीं होगी-इसतरह प्रवत्ति का ही उच्छेद हो जायेगा। यदि कहें कि दृश्य (स्वलक्षण पदार्थ ) और विकल्प्य (शब्दजन्य विकल्प का विषयभूत सामान्य पदार्थ) दोनों के 'एकीकरण' के कारण यानी Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 648 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 सन” मामा कि च, दृश्य-विकल्प्ययोरेकीकरणं दृश्ये विकल्प्यस्याऽध्यारोपः, स च गृहीतयोरगृहीतयो ? यदि गृहीतयोस्तदा दृश्य-विकल्प्ययोर्भेदेन प्रतिपत्तेर्न दृश्ये विकल्प्याध्यारोपः, नहि घटपटयोभिन्नस्वरूपतया प्रतिभासमानयोरेकस्याऽपरत्रारोपः, अतिप्रसंगात् / नाप्यगृहीतयोः स सम्भवति, अतिप्रसंगादेव / न च दृश्यबुद्धौ विकल्प्यं प्रतिभाति, नापि विकल्प्यबुद्धौ दृश्यम् / न चैकबुद्धावप्रतिभासमानयो रूप-रसयोरिव परस्पराध्यारोपः / सादृश्यनिबन्धनश्चान्यत्राध्यारोप: उपलब्धः, वस्त्ववस्तुनोश्च नीलखरविषाणयोरिव सारूप्याभावतो नाध्यारोप इति प्रतिपादितम् / न च दृश्याध्यवसायिविकल्प्यबद्धयत्पाद एव तदध्यारोपः, तबुद्धेः सदृशपरिणामसामान्यव्यवस्थापकत्वोपपत्तेरनन्तरमेव तस्या वस्तुस्वरूपग्राहिसविकल्पकाध्यक्षरूपत्वेन व्यवस्थापितत्वात् / तथा, अनुमानेनापि परिच्छिद्यमानेऽर्थान्तरव्यावत्तिरूपेऽनर्थरूपे सामान्ये बहिष्प्रवत्त्ययोग एव / 'नाऽतद्रूपव्यावृत्तिमात्रविषयमनुमानम् , अतद्रूपपरावृत्तवस्तुमात्रविषयत्वादिति चेत् ? किं तद् दृश्य में विकल्प्य के अध्यारोप से शब्द द्वारा स्वलक्षण में प्रवृत्ति हो सकती है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर गाय की बुद्धि होने पर एकीकरण के द्वारा अश्वाभिमुख. प्रवृत्ति होने की आपत्ति अचल है / तदुपरांत, एकीकरण की बात भी असंगत है क्योंकि विकल्पविषयीभूत सामान्य तो बौद्ध मत में अवस्तुभूत है, अतः दृश्य के साथ उसका कुछ भो सारूप्य (समानत्व) हो नहीं सकता। यदि उन दोनों में आप कुछ सारूप्य होने का मान्य करते हैं तब तो 'दृश्य-विकल्प्य का एकीकरण' इत्यादि वाग्जाल का क्या प्रयोजन है ? साफ साफ ऐसा ही क्यों नहीं कहते हैं कि वही स्वलक्षणरूप दृश्य वस्तु सामान्यज्ञान में भासित होती है और प्रतिभास होने से ही तदभिमुख प्रवृत्ति होती है / क्योंकि, अवस्तुभूत पदार्थ के साथ वस्तु का सारूप्य तो सम्भव ही नहीं है। [दृश्य-विकल्प्य का एकीकरण अशक्य ] तथा, दृश्य में विकल्प्य का अध्यारोप यही दृश्य और विकल्प्य का एकीकरण कहते हो तो यहाँ दो विकल्प हैं-a दोनों के-दृश्य और विकल्प्य के गृहीत रहने पर यह अध्यारोप मानते हो या b अगहीत रहने पर भी? a गृहीत रहने पर तो दृश्य और विकल्प्य का भिन्न भिन्नरूप से ग्रहण हो चुका फिर दृश्य में विकल्प्य के अध्यारोप की बात ही कहाँ रही? भिन्न-भिन्नस्वरूप से भासते हए घट-पट में, एक का दूसरे में आरोप होता नहीं है, यदि भिन्न भिन्नरूप में भासमान दो पदार्थ में भी एक का दूसरे में आरोप मानेंगे तो घट में भी पट का आरोप मानने की आपत्ति आयेगी। b दृश्य विकल्प्य अगृहीत रहने पर तो आरोप का नितान्त असंभव है, अन्यथा अगृहीत घट का भी अगृहीत पट में आरोप मानना पडेगा। दूसरी बात यह है कि दृश्य की बुद्धि में विकल्प्य भासित नहीं होता और विकल्प्य की बुद्धि में दृश्य का प्रतिभास नहीं होता तो फिर दोनों का एकीकरण कैसे करेंगे ? एक बुद्धि में जब तक रूप और रस का प्रतिभास न हो तब तक परस्पर के अध्यारोप की जैसे सम्भावना नहीं है इसी तरह दृश्य और विकल्प्य का भी परस्पर अध्यारोप सम्भव नहीं है। यह भी सूज्ञा है कि एक वस्तु का अन्यत्र आरोप सादृश्यमूलक होता है। किन्तु, वस्तु और अवस्तु में कोई सादृश्य ही नहीं है जैसे नील पदार्थ और खरविषाण में, इसलिये तन्मूलक अध्यारोप भी नहीं हो सकता हैयह पहले कहा जा चुका है / "दृश्य के अध्यवसायवाली विकल्प बुद्धि का उद्भव यही अध्यारोप है" ऐसा भी नहीं मान सकते, क्योंकि ऐसी बुद्धि से ही हम सदृशपरिणामात्मक सामान्य की सिद्धि करते हैं, तथा यह बुद्धि वस्तुस्वरूपस्पर्शी सविकल्पप्रत्यक्षरूप है यह हमने सिद्ध कर दिखाया है। - Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा 649 वस्तुमात्रमन्यत्र समानपरिणामाव ? / अनुभूयते च सामान्यम्-अलिंगजत्वान्नानुमानेन-अविसंवादित्वात प्रत्यक्षप्रमाणेन, प्रमाणान्तरानभ्युपगमात् / तथाहि-प्रत्यक्षेणैव ज्ञानेन शाखादिविभागपरिच्छिन्दताऽपि दवियसि देशे वृक्षादिमात्रप्रतिपत्तिदर्शनम् , तन्निराकरणे चानुभवविरोधः / न च सादृश्यम् , समानपरिणामाभावे तदसम्भवात् / ननु च यदि समानपरिणामः सामान्यम् , तस्य वस्तुनः सजातीयादपि परिणामाद् विभक्ततयाऽन्यत्राऽनन्वयात् क्वचित् गृहीतसम्बन्धेन शब्देन लिगेन वाऽन्यस्य तज्जातीयस्य प्रतिपादनं न प्राप्नोति / नैष दोषः, विभक्त ऽपि वस्तुतस्तस्मिन्ननाश्रितदेशादिभेदे समानपरिणाममात्रे शब्दस्य लिंगस्य वा तावन्मात्रस्यैव संकेतितत्वात् सम्बन्धं गहीतवतोऽन्यत्रापि तत्परिणाममात्रेण भेदप्रतिपत्तरजन्यत्वात् तत्तया प्रतिपत्त्यविरोधान्न दोषः / प्रतिपादयिष्यते च नित्यानित्याधनेकान्तरूपं वस्त्वेकान्तवादप्रतिषेधेनेति नानेकान्तज्ञानं मिथ्याज्ञानम् / - [सामान्य समानपरिणामरूप है ] यदि अवस्तुस्वरूप अर्थान्तरव्यावृत्तिभूत सामान्य को अनुमान से प्रसिद्ध होने का मानेंगे तो भी बाह्यवस्तु (स्वलक्षण) में प्रवृत्ति की अनुपपत्तिवाला दोष अचल हो रहेगा, क्योंकि जिस में प्रवृत्ति होती है वह तो उस अनुमान का विषय ही नहीं हुआ। यदि ऐसा कहें कि-हम सिर्फ अतद्रूप की व्यावृत्ति को ही अनुमान का विषय नहीं मानते किन्तु अतद्रूप से व्यावृत्तिवाले पदार्थ को ही अनुमान का विषय मानते हैं, अतः वस्तुविषयक अनुमान से वस्तु में प्रवृत्ति की उपपत्ति हो जायेगी।तो यहाँ प्रश्न है कि अतद्रूप से व्यावृत्त वह वस्तु समानपरिणामरूप सामान्य को छोड कर और कौनसी है ? दूसरी बात यह है कि आप प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण ही मानते हैं, इसमें से सामान्य का अनुभव अनुमान से होता नहीं है क्योंकि वह अनुभव लिंगजन्य नहीं है, किन्तु अविसंवादिप्रत्यक्षात्मक प्रमाण से ही उस सामान्य का अनुभव किया जाता है। वह इस प्रकार:-शाखाप्रशाखादि विभाग का अवलोकन करते समय दूर देश में प्रत्यक्षात्मक ज्ञान से सिर्फ़ वृक्षादिमात्र का बोध होता हुआ दिखता है यह अनुभव सिद्ध है-यदि यहाँ वृक्षसामान्य का बोध नहीं मानेंगे तो विरोध प्रसक्त होगा। ऐसा नहीं कह सकते कि-वहाँ केवल सादृश्य का बोध होता है, समानपरिणाम का नहीं-क्योंकि समानपरिणाम के विना कहीं भी सादृश्य ही नहीं हो सकता फिर उस बोध को समानपरिणामविषयक मानने के बदले सादृश्यविषयक क्यों मानें ?! यदि एसा कहें कि-सामान्य को यदि सामान्यपरिणामरूप मानेंगे तो वह समानपरिणाम तो वस्तु के सजातीय परिणाम से भी विभक्त ( =अतिरिक्त) होने से अन्य अन्य व्यक्तिओं में उसका अन्वय तो होगा नहीं, इस स्थिति में, एक व्यक्ति में शब्द का संकेत गृहीत रहने पर अथवा एक अधि.करण में लिंग का लिंगी के साथ सम्बन्ध गृहीत रहने पर, उस शब्द या लिंग से अन्य अन्य तज्जातीय व्यक्ति का प्रतिपादन शक्य न होगा-तो यह कोई दोष जैसा नहीं है। कारण, व्यक्ति व्यक्ति में वह विभक्तरूप से रहने पर भी, वास्तव में देशादिभेद का आश्रय न करके शब्द सामान्य और लिंग सामान्य का सिर्फ समानपरिणाममात्र के साथ ही संकेत यानी सम्बन्ध माना जाता है, वह समानपरिणाम यक्तिगत हो या अन्यव्यक्तिगत. यह बात अलग है। इस संबध का जिस को ग्रहण हआ होगा उसको अन्य स्थान में भी समानपरिणाममात्र से भेद यानी वस्तुविशेष का बोध उत्पन्न नहीं होगा किन्तु समानपरणितिरूप से वस्तुमात्र का बोध हो जायेगा अतः कोई दोष नहीं है / अग्रिम ग्रन्थ में Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 650 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदपि 'स्वदेशादिषु सत्त्वं परदेशादिष्वसत्त्वं वस्तुनोऽभ्युपगम्यत एव इतरेतराभावस्याभ्युपगमात्' इत्यादि तदप्ययुक्तम् , इतरेतराभावस्य घटवस्त्वभेदे घटविनाशे पटोत्पत्तिप्रसंगात् पटाद्यभावस्य विनष्टत्वात / अथ घटाद भिन्नोऽभावस्तदा घटादीनां परस्परं भेदो न स्यात् / यदा हि घटाभावरूप: पटो न भवति तदा पटो घट एव स्यात् , यथा वा घटस्य घटाभावाद भिन्नत्वाद घटरूपता तथा पटादेरपि स्यात् घटाभावादिन्नत्वादेव / नाप्येषां परस्पराभिन्नानामभावेन भेदः शक्यते कर्तुम् , तस्य भिन्नाभिन्नभेदकरणेऽकिचित्करत्वात् / न चाभिन्नानामन्योन्याभावः संभवति / नापि परस्परभिन्नानामभावेन भेदः क्रियते, स्वहेतुभ्य एव भिन्नानाममुत्पत्तेः / नाऽपि भेदव्यवहारः क्रियते, यतो भावानामात्मीयरूपेणोत्पत्तिरेव स्वतो भेदः, स च प्रत्यक्ष प्रतिभासनादेव भेदव्यवहारहेतुः, तेन 'वस्त्वसंकरसिद्धिश्च तत्प्रामाण्यसमाश्रिता' [ ] इति निरस्तम् / किंच, भावाभावयोर्भेदो नाऽभावनिबन्धन:, अनवस्थाप्रसंगात / अथ स्वरूपेण भेदस्तदा भावानामपि स स्यादिति किमपरेणाऽभावेन भिन्नेन विकल्पितेन ? तन्नकान्तभिन्नोऽभिन्नो वेतरेतराभावः संभवति / हम एकान्तवाद का प्रतिषेध करके यह दिखाने वाले हैं कि वस्तुमात्र नित्यानित्यादिअनेकान्तरूप ही है-इससे यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि अनेकान्तज्ञान मिथ्याज्ञानरूप नहीं है। [ इतरेतराभाव की अनुपपत्ति ] यह जो कहा था-[ 614-5 ] इतरेतराभाव ( एक वस्तु में अन्यवस्तु के अभाव ) को हम मानते ही हैं अत: 'वस्तु का स्वदेश-कालादि में सत्त्व और पर देश कालादि में असत्त्व' की बात को हम मानते ही हैं-यह बात भी गलत है। कारण, आपका माना हुआ इतरेतराभाव यूक्तिशून्य है। जैसे देखिये, घटवस्तु से इतरेतराभाव को यदि अभिन्न मानेंगे तो घट का विनाश होने पर वहाँ पटअन्योन्याभाव भी नष्ट हो जाने से पट की उत्पत्ति की आपत्ति आयेगी। यदि वह अभाव घट से भिन्न माना जाय तो घट-पटादि का परस्पर भेद मिट जायेगा / वह इसलिये कि पट अगर घटाभावरूप नही है तो इसका मतलब यही होगा कि पट घटरूप ही है / अथवा घटाभाव से भिन्न होने के कारण जैसे घट में घटरूपता मानी जाती है वैसे पटादि में भी घटरूपता माननी पड़ेगी क्योंकि पटादि भी घटाभाव से भिन्न ही है / तदुपरांत यहाँ दो विकल्प हैं-a अभाव द्वारा परस्परअभिन्न पदार्थ में भेद किया जाता है या b परस्पर भिन्न पदार्थों का ? a प्रथम विकल्प शक्य नहीं है क्योंकि अभाव द्वारा जो भेद किया जायेगा वह यदि उन वस्तुओं से भिन्न होगा तो फिजूल हो जायेगा, और यदि अभिन्न होगा तो कोई काम का न रहेगा। तथा, जो पहले से ही परस्पर अभिन्न हैं उनमें अभावों के द्वारा भेदापादन शक्य भी नहीं है। b अभाव के द्वारा परस्पर भिन्न पदार्थों का भेद किया जाय-यह विकल्प भी असंगत है क्योंकि वे अपने हेतुओं से ही भिन्नरूप में उत्पन्न हुए हैं। यदि कहें कि-भेद स्वतः होने पर भी उसका व्यवहार करने के लिये वह अभाव उपयोगी बनेगा-तो यह भी संगत नहीं है, क्योंकि पदार्थों की अपने स्वरूप से उत्पत्ति-यही स्वतः भेद पदार्थ है और प्रत्यक्ष प्रतीति में उसका अनुभव भी प्रसिद्ध है इसलिये स्वतः अपना व्यवहार भी करायेगा, तो अभाव की जरूर क्या है ? इससे यह भी जो किसी ने कहा है कि-अभाव की प्रामाणिकता के आधार पर वस्तु में असांकर्य (अन्योन्य असंकीर्णरूपता-भिन्नरूपता ) सिद्ध होता है-वह निरस्त हो जाता है / यह भी ज्ञातव्य है कि भाव और अभाव का भेद अभाव द्वारा नहीं हो सकता है क्योंकि जिस अभाव के द्वारा यह भेद Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा 651 न चाभाव एव अन्यापोहस्य, घटादेः सर्वात्मकत्वप्रसंगात् / तथाहि-यथा घटस्य स्वदेश-काला. ऽऽकारादिना सत्त्वं तथा यदि परदेश-कालाकारादिनाऽपि, तथा सति स्वदेशादित्ववत परदेशादित्वप्रसक्तः कथं न सर्वात्मकत्वम् ? अथ परदेशादित्ववत् स्वदेशादित्वमपि तस्य नास्ति तदा सर्वथाऽभाव, प्रसक्तिः / अथ यदेव स्वसत्त्वं तदेव पराऽसत्त्वम् / नन्वेवमपि यदि पराऽसत्त्वे स्वसत्त्वानुप्रवेशस्तदा सर्वथाऽसत्त्वम्, अथ स्वसत्त्वे परासत्त्वस्य, तदा पराऽसत्त्वाभावात सर्वात्मकत्वम्-यथा हि स्वाऽसत्त्वासत्त्वात स्वसत्त्वं तस्य तथा पराऽसत्त्वाऽसत्त्वात परसत्त्वप्रसक्तिरनिवारितप्रसरा, अविशेषात् / न च पराऽसत्त्वं कल्पितरूपमिति न तन्निवृत्तिः परसत्त्वात्मिकेति वाच्यम् , स्वाऽसत्त्वेऽप्येवंप्रसंगात् / .. ___ अथ नाऽभावनिवृत्त्या पदार्थो भावरूपः प्रतिनियतो वा भवति, अपि तु स्वहेतुसामग्रीत उपजायमानः स्वस्वभावनियत एवोपजायते, तथैवार्थसामर्थ्यभाविनाऽध्यक्षेण विषयीक्रियमाणो व्यवहारपथमवतार्यते किमितरेतराभावकल्पनया? न किञ्चित् , केवलं स्वसामग्रीतः स्वस्वभावनियतोत्पत्तिरेव परासत्त्वात्मकत्वव्यतिरेकेण नोपपद्यते, स्वस्वरूपनियतप्रतिभासनं च पराभावात्मक त्वप्रतिभासनमेव / अत एव "स्वकीयरूपानुभवान्नान्यतोऽन्यनिराक्रिया''-इत्येतदपि सदसदात्मक वस्तुप्रतिभासमन्तरेणानु- - किया जायगा उस का भी अन्य भावों से (या अभावों से) भेद करने के लिये नये नये अभाव की कल्पना अनिवार्य होने से अनवस्था प्रसक्त होगी। यदि भाव और अभाव का भेद अपने अपने स्व से ही मान लेंगे तो भाव-भाव का भेद भी स्वरूप से माना जा सकता है फिर भेदकरूप में अभाव की कल्पना क्यों करें? सारांश, एकान्त भेद पक्ष या एकान्त अभेदपक्ष में इतरेतराभाव की कुछ भी संगति नहीं हो सकती। - [भेद का अपलाप अशक्य ] अन्यापोह (=अन्यव्यावृत्ति) का सर्वथा अभाव मानना भी अयुक्त है, क्योंकि एक पदार्थ अन्य पदार्थों से यदि व्यावृत्त नहीं होगा तो वह सर्वपदार्थात्मक बन जायेगा। जैसे देखिये-स्व-देशकालादिरूप से घट जैसे सत् होता है वैसे यदि पर-देशकालादिरूप से भी सत् होगा तो घट में स्वदेशकालादिरूपता. की तरह पर-देशकालादिरूपता भी अबाधित होने से घट सर्वदेश में, सर्वकाल में और सर्वभाव में अनुगत हो जायेगा-यहो सर्वात्मकत्व हुआ। तथा, पर-देशकालादि रूप से वह जैसे असत् है वैसे यदि स्व-देशकालादिरूप से भी असत् होगा तो घट का किसी भी रूप से सत्त्व न होने से खरविषाणवत् उसका सर्वत्र सर्वदा अभाव प्रसक्त होगा। यदि कहें कि-स्वसत्त्व और पराऽसत्त्व एक ही बात है, उनमें कोई भेद नहीं तो यहाँ विकल्प होगा कि यदि स्वसत्त्व अभिन्न होने से परासत्त्व में विलीन हो जायेगा तो परासत्त्व ही रहेगा, स्वसत्त्व तो रहेगा नहीं, फलत: घट का अभाव ही प्रसक्त होगा। यदि अभिन्नता के कारण स्वसत्त्व में परासत्त्व विलीन हो जायेगा तो स्वसत्त्व ही शेष रहेगा, परासत्त्व के न रहने से घट में सकल पररूप को प्रसक्ति होने से सवोत्मकता की प्रसक्ति होगी-वह इस प्रकार:-स्व का असत्त्व न होने से जैसे स्वसत्त्व होता है वैसे पर का असत्त्व न होने पर परसत्त्व की प्रसक्ति अनिवार्य है, दोनों में कोई अन्तर नहीं है / यदि कहें कि-पराऽसत्त्व तो कल्पित है अत: उसके न होने से परसत्त्व की प्रसक्ति अशक्य है क्योंकि परासत्त्वका असत्त्व भी असत् रूप ही है-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि तब तो स्वसत्त्व का असत्त्व भी कल्पित है अतः उसकी निवत्ति स्वसत्त्वरूप नहीं हो सकेगी-ऐसा भी कोई कहेगा तो मानना पड़ेगा। Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 पपन्नमेव / यदा हि पारमार्थिकपररूपव्यावृत्तिमव तत्स्वरूपमध्यक्षे प्रतिभाति तदा स्वरूपमेव परतस्तस्य भेदः, तद्ग्रहणमेव चाध्यक्षतस्तद्भदग्रहणम् , अन्यथा पारमाथिकपराऽसत्त्वाभावे स्वसत्त्ववत् परसत्त्वास्मकत्वप्रसंगान्न तत्स्वरूपमेव भेदः, नापि स (तत्प्रतिभासनमेव भेदप्रतिभासनं स्यात् / प्रत एवाऽन्यापोहस्य पदार्थात्मकत्वेऽपरापराभावकल्पनया नानवस्था / नापि परग्रहणमन्तरेण तभेदग्रहणाभावादितरेतराश्रयत्वाद् भेदाऽग्रहणम् / न चाऽभावस्य तुच्छतया सहकारिभिरनुपकार्यस्य ज्ञानाऽजनकत्वम् , नापि भावाऽभावयोरनुपकार्योपकारकतयाऽसम्बन्धः, भावाभावात्मकस्य पदार्थस्य स्वसामग्रीत उत्पन्नस्य प्रत्यक्षे तथैव प्रतिभासनात् / न चाऽसदाकारावभासस्य मिथ्यात्वम् , सदाकारावभासेऽपि तत्प्रसंगात् / न चाऽसदवभासस्याऽभावः, अन्यविविक्तावभासस्यानुभवसिद्धत्वात् , विविक्तता चास्याभावरूपत्वात, तस्याश्च स्वसत्त्वात् कथंचिदभिन्नतया तद्वद ज्ञानजनकत्वेनाध्यक्षे प्रतिभासमानाया अन्यपरिहारेण तत्रैव प्रवृत्त्यादिव्यवहारहेतुत्वाद् भेदाऽभेदैकान्तपक्षस्योक्तदोषत्वात् कथंचिद् भेदाभेदपक्षस्य परिहृतविरोधत्वान्न सदसद्रूपत्वे स्वदेशादावप्यनुपलब्धिप्रसंगादिदोषः / / [परासत्त्व के विना स्वभावनैयत्य का अभाव ] यदि यह कहा जाय-अभाव की निवृत्ति की महीमा से पदार्थ भावरूप अथवा किसी नियतरूपवाला नहीं होता है, किन्तु अपनी कारणसामग्री से उत्पन्न होता हआ वह अपने नियतप्रकार के स्वभाव से विशिष्ट ही उत्पन्न होता है। तथा उस पदार्थ के सामर्थ्य से उत्पन्न होने वाला तद्विषयक प्रत्यक्ष ही अपने विषयभूत पदार्थ को व्यवहारपथ में ले आता है / जब ऐसा है तब पराऽसत्त्वरूप इतरेतराभाव की कल्पना से क्या लाभ ?-तो इसका उत्तर यह है कि यदि इतरेतराभाव की निःसार कल्पना ही की जाय तो कोई लाभ नहीं है, किन्तु हमारा आशय यह है कि अपनी अपनी कारणसामग्री से अपने अपने नियतस्वभाव से विशिष्ट पदार्थ की उत्पत्ति ही पराऽसत्त्व के विना संगत नहीं हो सकती। तथा अपने अपने नियतस्वरूप का प्रतिभास भी परासत्त्व के प्रतिभास से अभिन्न ही होता है / इसलिये जो यह कहा जाता है कि-अपने स्व-रूप का अनुभव होता है तब अन्यरूप का अनुभव न होने से उसका निराकरण नहीं हो सकता-इस बात का भी उपपादन तभी हो सकता है जब सद्-असत् उभय स्वरूप ही वस्तु का प्रतिभास होता है यह माना जाय / जब वास्तविकपररूपव्यावृत्तिवाला वस्तुस्वरूप प्रत्यक्ष में भासित होता है तो वह पररूपव्यावत्ति भी अर्थात् पर की अपेक्षा से भेद, यह भी वस्तु का स्वरूप ही हुआ। इसलिये पररूपव्यावृत्ति का प्रत्यक्ष से ग्रहण यही पर के भेद का ग्रहण फलित हुआ। तात्पर्य, पररूपव्यावृत्ति भी वस्तु का पारमार्थिक स्वरूप है, कल्पित नहीं / यदि वस्तु में वास्तविक पराऽसत्त्व नहीं रहेगा तो स्वसत्त्व जैसे वस्तु का स्व-रूप है वैसे परसत्त्व भी वस्तु का स्व-रूप हो जायेगा / तो फिर पराऽसत्त्वरूप भेद का उच्छेद हो जायेगा, और परसत्त्व का प्रतिभास ही भेदप्रतिभासरूप होता है वह नहीं रहेगा। [अन्यापोह को पदार्थरूप मानने में अनवस्थादि दोष नहीं] उपरोक्त चर्चा से यह भी निश्चित हो जाता है कि अन्यापोह कथंचित् पदार्थरूप है (सर्वथा तुच्छ नहीं है) इसलिये भाव से उसका भेद करने के लिये नये नये अभाव की कल्पना रूप अनवस्था दोष को अब अवकाश नहीं है / तथा 'पर वस्तु के ग्रहण के विना भेद का अग्रह और भेदग्रह के विना परवस्तु का अग्रह'-इस तरह अन्योन्याश्रय के कारण भेदग्रह का उच्छेद हो जाने की जो आपत्ति है Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा 653 यच्चोक्तम्-‘एवमात्मनोऽपि नित्यत्वमेव सुख-दुःखादे: तद्गुणत्वेन ततोऽर्थान्तरस्य विनाशेऽप्यविनाशात्' इत्यादि, तत् प्राक् प्रतिक्षिप्तम् / यदपि कार्यान्तरेषु चाऽकर्तृत्वं न प्रतिषिध्यते' इत्यादि तदप्यसारम् , एकान्तपक्षे कार्यकर्तृत्वस्यैवाऽसम्भवात् / यच्च न चानेकान्तभावनातो विशिष्टशरीरलाभे प्रतिबन्धः' इत्यादि तन्न प्रतिसमाधानमर्हति अनभ्युपगतोपालम्भमात्रत्वात् / यच्च मुक्तावप्यनेकान्तो न व्यावर्त्तते' इति तदिष्यत एव, स्वसत्त्वादिना मुक्तत्वेऽप्यन्यसत्त्वादिनाऽमुक्तत्वस्येष्टत्वात् / अन्यथा तस्य मुक्तत्वमेव न स्यात् इति प्रतिपादितत्वात् / वह भी अब नहीं रहतो क्योंकि परासत्त्व वस्तु का स्व-रूप होने से, पर का ग्रहण न होने पर भी वस्तुस्वरूप के ग्रहण से उसका ग्रहण हो सकेगा। हमारे पक्ष में अभाव सर्वथा अतिरिक्त पदार्थ नहीं है इसलिये-'अभाव तुच्छ होने से सहकारियों के द्वारा कुछ भी उपकार होने की सम्भावना न रहने से अभाव में ज्ञानजनकता नहीं हो सकेगी'-ऐसा दोष भी निवृत्त हो जाता है / तथा,-'भाव और अभाव में परस्पर उपकारक-उपकार्य भाव न होने से उन दोनों का कोई सम्बन्ध नहीं घट सकता'-यह दोष भी निवृत्त हो जाता है, क्योंकि हमारा मत यह है कि भाव और अभव सर्वथा भिन्न नहीं होते किन्तु भावाभावोभयस्वरूप ही पदार्थ अपनी कारणसामग्री से उत्पन्न होता है और वैसा ही प्रत्यक्ष में भासित होता है। ___असद् आकार के प्रतिभास को विना किसी अपराध ही मिथ्या कहना संगत नहीं, क्योंकि सद्आकार प्रतिभास को भी मिथ्या कहने की आपत्ति आयेगी / 'असद् आकार कोई प्रतिभास ही नहीं होता' ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि अन्य से विविक्तरूप में (=भिन्नरूप में) अर्थात् पररूप से असत् स्वरूपवालीवस्तु का अवभास अनुभवसिद्ध है। अन्य से विविक्तता तो अभावरूप अर्थात् पराऽसत्त्वरूप ही है और वह वस्तु के स्व-सत्त्व से कथंचिद् अभिन्न ही है इसलिये स्वसत्त्व की तरह वह भी ज्ञानजनक बने यह संगत है / यह विविक्तता ज्ञानजनक होने से प्रत्यक्ष में भासेगी। प्रत्यक्ष ज्ञान में उसके भासित होने के कारण, ज्ञाता उस अन्यपदार्थ से निवृत्त हो कर अपनी इष्ट वस्तु में प्रवृत्ति आदि व्यवहार करेगा / इस प्रकार एकान्तभेद या एकान्त अभेद पक्ष में उक्त अनवस्थादि दोष लग सकते हैं किन्तु कथंचित् भेदाभेद पक्ष में कोई विरोध नहीं है, आपाततः दिखने वाले विरोध का परिहार हो चुका है-इसलिये वस्तु को सद् असत् उभयस्वरूप मानने पर स्व-देशकालादि में वस्तु की असत्त्वमूलक अनुपलब्धि आदि होने का कोई दोष यहाँ अवसरप्राप्त नहीं है। ____ यह जो आपने कहा था,-आत्मा नित्य है और सुख-दुख उसके गुण हैं, उससे भिन्न हैं, अतः सुखादि के नाश से आत्मा का नाश नहीं हो जाता-इस का तो पहले ही प्रतिक्षेप हो चुका है। तथा यह जो कहा था कि-जिन कार्यों को वह नहीं करता उन कार्यों के प्रति आत्मा में अकर्तृत्व का हम प्रतिषेध नहीं करते हैं-यह भी असार है क्योंकि आप के एकान्तनित्यता के मत में तो आत्मा में कायकर्तृत्व ही नहीं घट सकता है। यह जो कहा था-अनेकान्तभावना से विशिष्टशरीर का लाभ अवश्य हो ऐसा कोई नियम नहीं...इत्यादि, वह समाधान को योग्यता भी नहीं रखता क्योंकि जो हमें अमान्य है उसके ऊपर वे सब उपालम्भ हैं, हमारी वैसी मान्यता ही नहीं है कि विशिष्टशरीर का लाभ हो / तथा, यह जो कहा था-'मुक्ति भी अनेकान्तवजित नहीं रहेगी'-यह तो हमें मान्य ही है क्योंकि वहाँ स्व सत्त्वादिरूप से मुक्तता होने पर भी परसत्त्वादिरूप से मुक्तता न होने Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 654 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदपि 'अनेकान्त' इत्यादि, तदप्यसंगतम् , अनन्तधर्माऽध्यासितवस्तुस्वरूपमनेकान्तः / न च स्वरूपमपरधर्मान्तरापेक्षमभ्युपगम्यते येन तत्र रूपान्तरोपक्षेपेणानवस्था प्रेर्येत तदपेक्षत्वे पदार्थस्वरूप. व्यवस्थैवोत्सोदेत् अपरापरधर्मापेक्षत्वेन प्रतिनियतापेक्षधर्मस्वरूपस्यैवाऽव्यवस्थितेः / ततश्चैकान्तस्यापि कथं व्यवस्था ? तथाहि-सदादिरूपतवैकान्तः तत्रैकान्ताभ्युपगमेऽपरं सदादिरूपं प्रसक्तम् , तत्राप्यपरमिति परेणाऽपि वक्तु शक्यम् / अथ पररूपानपेक्षं सत्त्वादित्वमेवैकान्तः, तमु नन्तधर्माध्यासितवस्तुस्वरूपमप्यनेकान्तः किं न स्यात? न चापरतद्रूपाभावे वस्तुनः स्वरूपमन्यथा भवति, अन्यथा अपरसत्त्वाद्यभावे सत्त्वादेरप्यन्यथात्वप्रसक्तिरित्यलं दुर्मतिविस्पन्दितेषत्तरप्रदानप्रयासेन / 'प्रात्मैकत्वज्ञानात्' इत्यादिग्रन्थस्तु सिद्धसाध्यतया न समाधानमहति / यथोक्तमुक्तिमार्गज्ञानादेरपरस्य तदुपायत्वेनाऽभ्युपगम्यमानस्य प्रमाणबाधितत्वेन मिथ्यारूपत्वान्न तत्साधकत्वमित्यलमतिप्रसगेन / . तत् स्थितमेतत्-'अनुपमसुखादिस्वभावामात्मनः कथंचिदव्यतिरिक्तां स्थितिमुपगतानाम्' इति / / प्रथमखंडः समाप्तः का हमें इष्ट ही है / यदि इस प्रकार नहीं मानेंगे तो मुक्तता ही असगंत बन जायेगी, यह पहले कह दिया है। [अनेकान्तवाद में अनवस्थादि का परिहार ] यह जो कहा था कि-'अनेकान्त में भी अनेकान्त को मानना पड़ेगा'-यह दोष भी असंगत है क्योंकि अनेकान्त का अर्थ है अनन्त धर्मों से अध्यासित वस्तुस्वरूप / वस्तु का स्वरूप अन्य धर्मान्तर को सापेक्ष हम नहीं मानते हैं जिस से उस अन्य धर्मान्तर में अन्य अन्य धर्मान्तरसापेक्षता के आपादन से अनवस्था का आरोपण हो सके। यदि पदार्थ के धर्मों को अन्य अन्य धर्मों की अपेक्षा मानेंगे तो पदार्थ के स्वरूप की व्यवस्था का ही उच्छेद हो जायेगा क्योंकि अन्य अन्य धर्म की अपेक्षा चालु रहने से किसी एक नियत आपेक्षिक धर्म की भी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। यह भी प्रश्न है कि उत्तरोत्तर अपेक्षा का आपादन करते रहने पर एकान्त भी कैसे व्यवस्थित हो सकेगा? देखिये- वस्तु एकान्त सत् है' इस एकान्त में भी यदि एकान्तवादी एकान्त को मानेगा तो वहाँ एकान्त सत्त्व को अन्य एकान्तसत्त्व की अपेक्षा माननी पड़ेगी, फिर वहाँ भी नये नये एकान्तसत्त्व की अपेक्षा होती रहेगी-ऐसा अनेकान्तवादी एकान्तवादी को भलीभाँति कह सकता है / यदि यहाँ अनवस्था को निवृत्त करने के लिये कहा जाय कि-पररूप से निरपेक्ष सत्त्व यही एकान्त है तो अनेकान्तवादी भी क्यों नहीं कह सकता कि अनन्तधर्मों से आक्रान्त वस्तुस्वरूप ही अनेकान्त है ? ! अपर वस्तु का ताद्रूप्य किसी एक वस्तु में न होने मात्र से वस्तु का अपना स्वरूप मिट नहीं जाता, बदल नहीं जाता / यदि ऐसा हो सकता तब तो अपर वस्तुगत सत्त्व के अभाव में किसी एक वस्तु का अपना सत्त्व भी समाप्त हो जाने की आपत्ति अचल है / दुबुद्धि के विलास जैसे कुविकल्पों का (यानी पूर्वपक्षी के वचनों का) इस से अधिक उत्तर देने का प्रयास करने की 3 करने का अब हमें आवश्यकता नहीं है / तथा, 'आत्मा एक है' ऐसे ज्ञान से आत्मा का परमात्मा में विलय हो जाय यह मुक्ति है इस मत का आपने जो प्रतिषेध किया है वह तो हमारे लिये सिद्धसाधन जैसा ही है इस लिये उसका नया समाधान देने की आवश्यकता नहीं। सारांश, सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्ररूप पूर्वप्रतिपादित मोक्षमार्ग से भिन्न प्रकार का मोक्षमार्ग जो नैयायिक आदि ने माना है वह घटता नहीं है, प्रमाण से बाधित है, अत एव मिथ्यास्वरूप होने से, उससे मोक्षप्राप्ति का सम्भव नहीं है, इतना कहना पर्याप्त है, अधिक विस्तार क्यों करें ? ! - Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-का० १-उपसंहार 655 उपरोक्त चर्चा से यह अब सिद्ध होता है कि मूल कारिका में "आत्मा से कथञ्चिद् अभिन्न अनुपमसुखादिस्वभाववाले स्थान को प्राप्त करने वाले" यह जिनों का विशेषण सर्वथा निर्दोष है / प्रथम कारिका विवरण समाप्त तर्कसम्राट्-आचार्यश्री सिद्धसेनदिवाकरसूरिजोविरचित श्री सम्मति प्रकरण की तर्कपश्चानन आचार्यश्री अभयदेवसूरिजीविरचिततत्त्वबोधविधायिनीव्याख्या का मुनि जयसुदरविजयकृतहिन्दीभाषा विवरण-प्रथमखंड समाप्त हुआ -: प्रथमखंड संपूर्ण : Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १-व्याख्यायामन्यग्रन्थोद्धतसाक्षिपाठांश-अकारादिक्रमः बिन्ध पृष्ठ उद्धरणांशः ग्रन्थसंकेत पृष्ठ उद्धरणांशः ग्रन्थसंकेत 429 अग्नेरूद्धज्वलनम् ( वैशे० 5-2-13 ) 85 एवं परीक्षकज्ञान ( त० सं०-२८७० ) . 394 अचेतनः कथं भावः / / 62 एवं परोक्तसम्बन्ध ( 136 अतीतानागतौ कालौ ( ') | 119 एकमेवेदं संविद्रूपं / 85 अथान्यदप्रयत्नेन ( त० सं० 2868 ) / 158 एक एव हि० ( अ०बि० उ० 12-15) 285 अनुमानमप्रमाणम् ( 201 एकेन तु प्रमाणेन ( श्लो०वा० 2-111 ) 192 अपाणिपादो जवनो० (श्वेता० 3-19) 259 एको भावस्तत्त्वतो ( 14 अयमेव भेदो भेदहेतुर्वा ( | 380 एगे आया ( स्थानांग 1-1.) 296 अर्थस्याऽसम्भवेऽभावात् ( 26 कस्यचित्तु यदीष्येत ( श्लो० वा० 2-76 ) 49 असंस्कायतया पुंभिः (प्र०वा०२/२३१) 92 कार्यकारणभावादि ( ) 194 अविनाभाविता चात्र (श्लो०वा०५-अर्था०३०) 234/238 कार्य धूमो हुतभुजः (प्र.वा. 3 34) 287 अवस्था-देश-कालानाम् (वाक्य० 1-32) 218 कल्पनीयास्तु सर्वज्ञा (श्लो वा०२-१३५) 287 अविनाभावसम्बन्धस्य ( 310 कार्य-कारणभावाद्वा ( प्र० वा०३-३१ ). 310 अश्यंभावनियमः (प्र० वा० 3-32) 405 क्रीडा हि रतिमविन्दताम् 332 अप्रत्यक्षोपलम्भस्य ( ( न्या०, वा० 4-1-21) 440/505 अर्थवत् प्रमाणम् ( वा० भाष्य ) | 465 कार्यत्वान्यत्वलेशेन ( 568 अप्राप्यकारित्वे चक्षुषः ( | 530 क्लेश कर्म-विपाका० ( यो० द० 1-24 ) 571 अदृष्टमेवायस्कान्तेना० ( 102 गत्वा गत्वा तु (श्लो० वा० 5 अर्था० 38) 591 अनेकपरमाणू पादान० ( 104 गृहीत्वा वस्तु-(श्लो० वा० 5 अ० 27 ) 563 अवयवेषु क्रिया ( | 287 गोमानित्येव म]न ( प्र० वा० 3-25) 597 अभ्यासात् पक्वविज्ञानः ( 360 गामहं ज्ञातवान् पूर्व (श्लोव्वा०५-१२२) 206 अग्निस्वभावः शक्रस्य ( 431 गोत्वसम्बन्धात् (न्या०वा०२-२-६५) 34 आशंकेत हि यो मोहात् (द्र०त०सं०-२८७१) 566 गुणे भावात् गुणत्व० (वशे० 1-2-1-14) 379 आम्नायस्य क्रियार्थत्वात् (जैमि० 1-2-1) 42 गुणेभ्यो दोषाणाम 0 (द्र० श्लो०वा० 2-65) 599 आनन्दं ब्रह्मणो रूपं ( 35 चोदनाजनिता बुद्धिः (श्लो० वा० 2-184) 230 इदानींतनमस्तित्वं (श्लो०वा०४-२३४) 179 चोदनैव च भूतं भवन्तम् (मीमां. शाब. सू. 2) 321 इन्द्रियाणां सत्सम्प्रयोगे (जैमि० 1-1-4) | 155 जातिभेदश्च तेनैव ( श्लो० वा० 6-80 ) 481 इन्द्रियार्थसंनिकर्षों (न्यायद० 1-1-4) 258 जे एगं जाणइ (आचारांग 1-3-4-122) 128 उदधाविव सर्व० (द्वात्रि० 4-15) | 20 जातेऽपि यदि विज्ञाने (श्लो० वा० 2-49) 245 उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् (त० सू०५-२६) 20 तत्र ज्ञानान्तरोत्पाद (श्लो० वा० 2-50) 402 उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः ( गीता-१५-१६) 20 तस्यापि कारणशुद्धे ( श्लो० वा० 2-51) 33 एवं त्रि-चतुरज्ञान० ( श्लो०वा० 2-61) / 44 तेन जन्मैव विषये ( श्लो० वा० 4-56 ) ) (न्या०वा० 2-2 व (जैमि० 1-2011 566 गुणे भाव Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-परिशिष्ट 657 पृष्ठ उद्धरणांश: ग्रन्थसंकेत | पृष्ठ उद्धरणांशः ग्रन्थसंकेत 58 तत्राऽपूर्वार्थविज्ञानं ( 607 न प्रत्यात्मवेदनीय / 76 तद्दृष्टावेव दृष्टेषु ( 46 प्रेरणाजनिता बुद्धिः (श्लो॰वा० 2-184) 84 तस्मात् स्वतः प्रमाणत्वं (तत्त्व सं० 2861) | 65/70 प्रमाणमविसंवादि० (प्र० वा० 1-3 ) 85 तत्रापि त्वपवादस्य ( तत्त्व सं० 2866) / 84 पराधीनेऽपि चैतस्मि० (त० सं०-२८६२) 85 ततो निरपवादत्वात् (, 2869) / 84 प्रमाणं हि प्रमाणेन ( , 2863) 87 तद्गुणैरपकृष्टानां ( श्लो० वा०२-६३ ) | 99 प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः (श्लो०वा० 5-11) 138 तस्यैव चैतानि (बृ० उ०२-४-१०) / | 102 प्रमाणपंचकं यत्र (, 5 अ०१) 155 तथान्यवर्णसंस्कार ( श्लो० वा० 6-81 ) 164 परोऽप्येवं ततश्चास्य (, 6-289 ) 155 तथा ध्वन्यन्तराक्षेपो (श्लो०वा०६-८२) 225 पित्रोश्च ब्राह्मणत्वेन ( 192 तस्माद्यत स्मर्यते (श्लोवा० उप०-३७) | 262 परिणाम-वर्तना० (प्र. रति-२१८) 194 तेन सम्बन्धवेलायां (श्लो॰वा०५-अर्था० 33) / 285 प्रमाणस्याऽगौणत्वा० / 303 ततः परं पुनर्वस्तु ( // 4-120 ) 289 परलोकिनोऽभावात् ( बा० सू० 17 ) 316/376/629 तस्मद्यसयैव संस्कार 311 पक्षधर्मतानिश्चयः / 332 अप्रत्यक्षोपलम्भस्य ( 328 तदिन्द्रियाऽनिन्द्रिय० ( त० सू० 1-14 ) 449 प्रामाण्यं व्यवहारेण 386 तत्त्वदर्शनं प्रत्यक्षतो ( 609 प्रहाणे नित्यसुख० (वा० भा० 1-1-22) 386 तेन यत्राप्युभौ धर्मो (श्लो०वा० अनु० 9) / 32 प्रामाण्यग्रहणात् पूर्वं (श्लो०वा०२-८३) 8 द्विष्ठसम्बन्धसंवित्ति० ( 85 बाधकप्रत्ययस्ताव० (त०सं०-२८६५) 193 दृष्टः श्रुतो वार्थो ( मी० शा० सूत्र 5) 85 बाधकान्तरमुत्पन्नं (त०सं०-२८६७ ) 402 द्वाविमौ पुरुषौ लोके ( गीता 15-16) 380 बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च (त०सू०६-१६) 587 दुखे विपर्यासमतिः ( ) 412 बुद्धिमत्कारण० ( न्या०वा० 4-1-21) 230 देशकालादिभेदेन ( श्लो०वा० 4-233 ) 43 भावान्तरविनिमुक्तो ( 44 न हि तत्क्षणमप्यास्ते (श्लो॰वा० 4-55) | 128 भई मिच्छदसण (सम्मति 3/70) 186 न चागमविधिः (, 2-118) | 135 भविष्यति न दृष्टं च (श्लो॰वा० 2-115) . 187 न चागमेन सर्वज्ञः (श्लो०वा० 2-116) / 169 भारतेऽपि भवेदेवं (श्लो॰वा०७-३६७) 211 नर्ते तदागमात् सिध्येत् (श्लोवा०२-१४२) | 411 भुवनहेतवः ( न्या० वा० 4-1-21) 259 निष्पत्तरपराधीनमपि ( 606 भोगाभ्यासमनुवर्धन्ते० 272 नक्षत्रग्रहपञ्जर० ( ( यो० सू० 2-15 व्यासभाष्ये ) 325 न ह्यस्य दृष्टुर्यदेतद् ( न्या.वा.पृ.३४१-पं.२३)| 162 मूतिस्पर्शादिमत्त्वं (श्लो०वा० 6-108) 343 नाऽगृहीतविशेषणा ( 406 महाभूतादिव्यक्तं (न्या० वा० 4-1-21) 400 नातीन्द्रियार्थप्रतिषेधो ( 410/417 महत्यतेकद्रव्यवत्त्वाद् (वै. द. 4-1-6) 597 नित्यनैमित्तिके ( 26 यथैव प्रथमं ज्ञानं ( त० सं०-२८५३ ) 596 नाऽभुक्तं क्षोयते कर्म ( 158 यो ह्यन्यरूपसंवेद्य० ( ) 605 न जातु कामः (महा.भा. आदि. 79-12) / 164 यत्नतः प्रतिषेध्या (श्लो०वा 6-260) 607 नं सर्वलोकसाक्षिकं ( ) / 192/202 यज्जातीयः प्रमाणैः (श्लो.वा.२-११३) Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 658 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 पृष्ठ उद्धरणांशः ग्रन्थसंकेत पृष्ठ उद्धरणांशः ग्रन्थसंकेत 201 यदि षड्भिः प्रमाणैः (श्लो०वा०२-१११) | 426 षट्केन युगपत् ( विज्ञप्ति० का० 12 ) 202 येऽपि सातिशयाः ( त० सं० 3159) 26 संवादस्याथ पूर्वेण ( ) 202 यत्राप्यतिशयो दृष्टः (श्लो०वा० 2-114) 71 स्वरूपस्य स्वतो गतिः। 370 यस्य यावती मात्रा ( ) | 92 सर्वेऽप्यनियमा ह्येते (. 386 येषामप्यनवगतो ( | 280 सन्ति पंच महन्भूया (सूत्रकृ०१-१-१-७). 508 यद्यपि नित्यमीश्वरा० (द्र.न्या.वा. 4-1-21) / 114 स्वभावेऽध्यक्षत 527 यथा बुद्धिमत्तायामी० (न्या० वा० // ) | 135/199-327 सत्संप्रयोगे पुरुष० (जैमि. 1-1-4) 565 यथैधांसि समिद्धोऽग्नि (भ०गी० 4-37) | 155 सामर्थ्य भेदः सर्वत्र ( श्लो०वा० 6-83) 138 याज्ञवल्क्य इति होवाच (बृ० 30 2-4-1) | 186 सर्वज्ञो दृश्यते ( श्लो० वा०२-११७) 151 यथैवोत्पद्यमानोऽयं (श्लो० वा० 6/84-85) | 218 सर्वज्ञोऽयमिति ह्येतत् (श्लो. वा. 2-134 ) 152 यच्छरीरसमीप० / | 216 सर्वज्ञो नावबुद्धश्चेद् ( श्लो. वा. 2-136 ) 410 रूपसंस्काराभावात् (वै०८०४-१-७) 231 संबद्धं वर्तमानं च ( , 4-84 ) 519 रतिमविन्दतामेव (न्या०वा०४-१-२१) 283 सर्वत्र पर्यनयोग० / 36 वस्तुत्वाद् द्विविधस्येह ( श्लो. वा. 2-54 ) | 306 स्वगृहानिर्गतो भूयो ( 155 व्यंजकानां हि वायूनां (, 6-76) 323 संवित्तिः संवित्तितयैव ( ) 105/650 वस्त्वसंकर० (श्लो० वा० 5 अ० 2) | 368 सुविवेचितं कार्य . ( 164 वक्ता न हि क्रम (5 अ०६-२८८) 365 सिद्धान्तमभ्युपेत्य (न्यायद० 1-2-6). 168 वेदाध्ययनमखिलं (, 7-366 ) 406 संसृजेत् शुभमेवैकं (श्लो.वा. 5 स. प. 52) 341 वस्तुभेदप्रसिद्धस्य ( ) 435 सम्बद्धबुद्धिजननं ( ) 402 विश्वतश्चक्षुरुत ( शुक्लयजु० 17-19) 460 संख्यापरिमाणानि ( वैशे०६० 4.1-12 ) 547 वेदाध्ययनं सर्वं (श्लो० वा० 7-336) 137/169/176 हिरण्यगर्भः सम० ( ऋग्वेद 599 विज्ञानमानन्दं ब्रह्म ( बृहदा० 3-6-28) (8-10-121) 73 श्रोत्रधीरप्रमाणं स्याद् ( श्लो॰वा 2-77 ) 110/221 क्षणिका हि सा न-( 87 शब्दे दोषोद्भवस्तावद् ( , 2-62 ) | 258 ज्ञो ज्ञेयें कथमज्ञः ( ) 162 शब्दस्यागम० (, 6-107) | 241 ज्ञानमप्रतिघं यस्य ( महा. भा. वन. 30) 223 शक्तयः सर्वभावानां (, 5-254) | 399 ज्ञान-चिकीर्षा-प्रयत्नानां ( Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // शुद्धिकरण // में जिन प्रयोजक पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध 7 1 धर्म धर्म के 74 32 है, नहीं नहीं है, 14 3 भेदहेतु र्वा भेदहेतुर्वा 78 6 व्यक्तिनां व्यक्तीनां 15 अथार्थता अयथार्थता 82 26 जिन में 15 प्रयोजन 84 17 प्रतीतिन्द्रिय अतीन्द्रिय 12 22 अयर्थोप० प्रयथार्थोप० 86 34 का होम होम 18 15 सापेक्ष सापेक्ष न 60 20 नन्तरीकत्व नन्तरीयकत्व 24 21 जा गी जायेगी 32 ऐसी ऐसे 27 9 पानावगहा / पानावगाहा 91 24 उसको उसकी 30 1 कालममर्थ - कालमर्थ 13 मेधवृष्टि मेघवृष्टि 16 B2e BLE 17 आध्यों साध्यों 21 B2e B2B 93 5 वह उस 32 6 प्रहणं - ग्रहणं 18. से निश्चय के निश्चय 33 1 प्रमाण्या प्रामाण्य 64 22 पक्षत व पक्षवत् 36 3 पृ० 1- . 10 13 95 23 का चार के चार 40 6 महात्म्या माहात्म्या 101 8 प्रदेक्ष प्रदेश 41 19 होता है।' होता है।'-तो 105 12 स्परण स्मरण 20 कारण पारतंत्र्य के 107 6 द्वितीयः द्वितीयः 44 25 है। अब प्रस्तुत] है। ] अब प्रस्तुत 116 21 प्रकाता प्रकाशता 46 24 में सभी सभी 122 13 संवदेन संवेदन 60. 15 किन्तु, इन्द्रिय किन्तु, मीमांसकों का 123 13 कि जाती की जाती कहना है कि इन्द्रिय | 124 3 भासमानात भासनात 17 अब मीमांसकों 127 1 हष्टं ਵਲਈ का कहना है कि 130 5 त्नोऽपि त्मनोऽपि इस इस 136 16 वृत्ति वात्तिक 63 4 संवदा 137 6 मूधरादि भूधरादि 33 है तो.... है तो क्या कारण 10 कारपूर्वक कारणपूर्वक गुणों की अपेक्षा 12 व्यक्ति व्याप्ति करते हैं.... 15 कारण करण 66 24 और इस 18 भावी भाव 68 9 उसके उस का 21 अन्याथा भूत अन्यथाभूत 71 14 तब प्रतः | 136 28 करा- क्यों नहीं करा संवाद और यह Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध 143 1 व्यक्तिनाम् व्यक्तीनाम् 152 34 होने से होने से वह 158 3 विषत्वं विषयत्वं 162 10 दौष दोब 166 1 त्वनुमाना त्वमनुमाना 168 13 जाने के जाने से 170 20 तीक्ष्ण तिक्ष्ण 172 26 अप्रमाण प्रमाण अप्रमाण है तत्त्व के 177 31 अवश्यक अवश्य 176 22 तुल्परूप तुल्यरूप 187 15 में अर्थ और अर्थ 191 29 सर्धज्ञा सर्वज्ञा 166 28 के तत्त्व 205 1 तक्तृत्वं वक्त त्वं 217 5 तीतता तीता 237 32 अतिषेध प्रतिषेध 224 23 संबद्ध सम्बन्ध 245 15 प्रतिनियत का प्रतिनियत 29 वह 262 7 जनेतद्वि जने तद्वि 266 26 यह है यह 31 विषय विषय विषय 267 20 'समय' में 'समय' 271 3 शत्त-यव शक्त्यव 21 का भी की भी 22 श्रीषधों को औषधों की 275 24 भान से से भान 276 3 इति इति इति 276 16 नहीं नहीं नहीं 285 22 दूसरे कोई दूसरे किसी 286 15 सदाय समुदाय 284 25 ज्ञान में के ज्ञान में 295 34 आदि) आदि का) 266 6 लणम लक्षणम | पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध 297 24 लोक लोक में 269 6 योग योगे 300 2 इत्येवं भूत इत्येवंभूत 310 25 भिन्न भिन्न भिन्न 312 5 पूर्वक्ष पूर्वपक्ष 314 3 स्यः 322 10 प्रत्क्षत्व प्रत्यक्षत्व 340 32 प्रमाण यमाण. 341 24 तब तब तब तक 346 11 चिदके चिदेक 356 12 ननु / . / ननु 361 ज्ञान पूर्व ज्ञान के पूर्व 372 5 न्नवृत्तः तन्निवृत्तिः 376 13 पूर्व का पूर्व जैसा 380 1 बह्यारम्भ बह्वारम्भ 380 24 ताणं कंताणं कडाणं 381 16 कर्तृत्वादी कर्तृत्ववादी 386 12 क्यों क्योंकि 33 श्लोक इस इस श्लोक 366 16 में में वैचित्र्यसाम्य 18 तभी सभी 362 32 प्रवचन प्रवर्तन पृष्ठ 393 में अन्तिम पंक्ति में 'किन्तु यह' इसके बाद इतना जोड़ना होगा-- [शरीर प्रवर्तन निवर्तनरूप कार्य अन्य शरीर से जीव करता हो ऐसा नहीं है, अतः यहां कार्य शरीरद्रोही हा / यदि कहें कि शरीर के विना भी कार्य का होना यह सिर्फ शरीर के लिये ही दिखाई देता है, अत: शरीर भिन्न पदार्थों का प्रवर्तन-निवर्त्तन शरीर के विना नहीं हो सकता-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि हमें तो इतना ही सिद्ध करना है कि शरीर के विना] 395 26 व्याप्ति है व्याप्ति भी है | 403 26 में निवृत्ति वस्तु से निवृत्ति Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमखण्ड-शुद्धिकरण 661 शुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध 406 21 व ऐश्कार्य का ऐश्वर्य 412 18 मिल कर स्थिर रह कर 416 3 क्कचित् क्वचित 23 सिद्धिस्वरूपादि सिद्धि 1 तद्सव तदसत __प्यकनेकान्ते प्यनेकान्ते 436 14 के सम्बन्ध के लिये के लिये 441 2 सम्बधो सम्बन्धो 461 21 मुख्या मुख्य 26 कुंडली कुंडल 471 21 तीसरे के . तीसरे के लिये 478 8 यत्वाद्य यत्त्वाद्य 487 - 8 कुरादितु कुरादिकर्तु 486 15 काणुसरणा कानुसरणा . 492 16 जन्य नहीं जन्य ही 594 10-11 तदभास तदाभास 500 21 प्राप्ति प्रसिद्ध व्याप्ति सिद्ध 514 11 स्वयकार्य स्वकार्य 519 32 मानी होगी. माननी होगी 524 18 जुलाही जुलाहा 31 यदि में में यदि 525 20. एक को एक एक को -527 17. अतः यतः 531 24 प्रमणाभूत प्रमाणभूत 532 3 गुणानना गुणाना 534 5 करण कारण 16 होने से होने में 535 12 प्रतिपाद्य प्रतिपादक a n ** * * - * * | पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध 544 13 कि कि-जिस 20 प्रभत्व प्रभवत्व 546 6 नकान्तिको नैकान्तिको 546 1 वच किं च 560 15 कि जाय की जाय 570 20 केवल कवल 583 22 उद्भवन उद्धावन 584 19 लोक के लोक का 585 20 बुद्धि बुद्धि में | 586 21 [147-4] [543-5] | 590 23 है है [583-2] 16. उपकारक उपकार 562 28 होने की होने के 595 28 सन्नाता सन्ताना 601 4-13 संवदेन संवेदन 606 8 विशिष्टि विशिष्ट 608 32 प्रकाश ही मेघ ही | 612 20 साथ ज्ञान 24 बौद्धमत बौद्धमत 619 16 ग्राह्य से से ग्राह्य 623 22 परमाणुस्थिति परमाणु की सत्ता का भान होता है। उसी तरह, वस्तु की मध्यकालीन स्थिति / 632 3 गुणच्छेद गुणोच्छेद dex - a f Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थसंकेतस्पष्टता अमृतबिन्दु उ० जैमि० सू० तत्त्व०/तत्त्व० सं० तत्त्वार्थात० सू० न्या०वा०/न्यायवा० न्यायद० पात यो प्र०वा०/प्रमाण वा० बा०सू० बृह० उ० भ० गी० महाभा० मीमां० शाबर मीमांसा० भाष्य यो दा/यो० सू० वा० भा/वात्स्या०भा० वाक्य विज्ञप्ति वै०६०/वैशे शास्त्रवार्ता० स्त श्लो० वा. सूत्रकृ० स्थाना० श्वेताश्व० - अमृतबिन्दु उपनिषद् - जैमिनिसूत्र तत्त्वसंग्रह - तत्त्वार्थाधिगमसूत्र न्यायवात्तिक न्यायदर्शन (न्यायसूत्र) पातंजल योगसूत्र प्रमाणवात्तिक बादरायणसूत्र बृहदारण्यक उपनिषद् भगवद्गीता महाभारत मीमांसा सूत्र-शाबरभाष्य योगदर्शन, योगसूत्र वात्स्यायनभाष्य वाक्यपदीय विज्ञप्तिद्वात्रिंशिका वैशेषिक दर्शन शास्त्रवार्तासमुच्चयस्तबक श्लोकवात्तिक सूत्रकृतांगसूत्र स्थानाङ्गसूत्र - श्वेताश्वतर उपनिषद् Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C