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________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः 573 यदपि तद्गुणत्वसाधनमुक्तम् , देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः पश्वादयो देवदत्तविशेषगुणाकृष्टाः, तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वात , प्रासादिवत्' इति तदप्ययुक्तम्-यतो यथा तद्विशेषगुणेन प्रयत्नाख्येन समाकृष्टास्तं प्रत्युपसर्पन्तो ग्रासादयः समुपलभ्यन्ते तथा नयनाञ्जनादिद्रव्यविशेषेणाऽपि समाकृष्टाः स्त्र्यादयस्तं प्रत्युपसर्पन्तः समुपलभ्यन्ते एव, ततः किं प्रयत्नसधर्मणा केनचिदाकृष्टाः पश्वादयः उत नयनाञ्जनादिसधर्मणा' इति संदेहः, शक्यते ह्येवमनुमानमारचयितु परेणाऽपि-'नयनाञ्जनादिसधर्मणा विवादगोचरचारिणः पश्वादयः माकृष्टाः देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्ति, तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वात् स्यादिवत् / अथ तदभावेऽपि प्रयत्नादपि तद्दृष्टेरनैकान्तिकत्वम् / प्रयत्नसधर्मणो गुणस्याभावेऽप्यञ्जनादेरपि तदृष्टेभवदीयहेतोरनैकान्तिकत्वम् / न चात्रानुमीयमानस्य प्रयत्नसधर्मणो हेतोः सद्भावादव्यभिचारः, अन्यत्राप्यञ्जनादिसधर्मणोऽनुमोयमानस्य सद्भावेनाऽव्यभिचारप्रसंगात् / तत्र प्रयत्नसामर्थ्यादस्य वैफल्येऽन्यत्राप्यञ्जनादिसामर्थ्याद वैफल्यं समानम्। . [ अदृष्ट को पूरे आत्मा में मानने पर आपत्ति ] यदि अदृष्ट को समग्र आत्मा में व्याप्त मानेंगे तो आपके मत में आत्मा व्यापक होने से तत्संयुक्त सकल द्रव्य में वह क्रिया का उत्पादक होगा। यदि ऐसा माना जाय कि जिस अदृष्ट से जो द्रव्य उत्पन्न होगा उसी द्रव्य में वह अदृष्ट क्रिया का उत्पादन करेगा-तो आपत्ति यह होगी कि शरीर के आरम्भक परमाणुओं में अदृष्ट क्रिया को उत्पन्न नहीं कर सकेगा क्योंकि परमाणु अदृष्टजन्य नहीं है-यह पहले भी कहा है। तथा अदृष्ट में गुणत्व भी सिद्ध नहीं होने से 'क्रियाहेतुगुणत्व' हेतु भी असिद्ध हो जायेगा। यदि ऐसा अनुमान दिखाया जाय कि 'अदृष्ट गुण है क्योंकि उसमें द्रव्यत्व और क्रियात्व निषिद्ध है और वह सत्ता का सम्बन्धी है, उदा० रूपरसादि' / 'द्रव्यत्व अदृष्ट में निषिद्ध है' यह बात असिद्ध नहीं है क्योंकि यह अनुमान है-'अदृष्ट द्रव्यरूप नहीं है, क्योंकि वह एक द्रव्य में आश्रित है, उदा० रूपादि' ।-तो ये दोनों अनुमान असत् है, क्योंकि 'एकद्रव्यत्व असिद्ध है' ऐसा पहले कहा जा चुका है / तथा 'सत्तासंबन्धित्व' भी असिद्ध होने का पहले कह दिया है। [ अदृष्ट में गुणत्वसाधक हेतु में संदिग्धसाध्यद्रोह ] तदुपरांत, आपने अदृष्ट को गुण सिद्ध करने के लिये जो यह कहा है-देवदत्त के प्रति खिचे जा रहे पशु आदि देवदत्त के विशेष गुणों से आकृष्ट हैं, क्योंकि देवदत्त की ओर ही खिंचे जा रहे हैं, उसकी ओर खिचे जा रहे आहार कवलादि। यह भी युक्त नहीं है। कारण, जैसे देवदत्त के विशेषगुण प्रयत्न से आहार का कवल देवदत्त के प्रति आकृष्ट होता हुआ दिखता है वैसे ही नयन में लगाये गये अञ्जनादि द्रव्य विशेष से ही देवदत्त की ओर स्त्री आदि का आकर्षण उपलब्ध होता है। अतः यह संदेह होना सहज है कि प्रयत्न के समान किसी गुण से पशु आदि का आकर्षण होता है ? या नयनाञ्जनादि के समान किसी द्रव्य से होता है ? आपने जैसे अनुमान दिखाया है वैसे हम भी अब तो दिखा सकते हैं-विवादास्पदीभूत पशुआदि नयनाञ्जन के तुल्य (द्रव्य) पदार्थ से आकृष्ट हो कर देवदत्त की ओर खिंच आते हैं, क्योंकि वे देवदत्त की ओर ही आते हैं, उदा० स्त्री आदि / यदि यह कहें कि देवदत्त की ओर कवलादि का आकर्षण अञ्जनादि से असमान प्रयत्न गुण से होने का दिखता है / अतः आपका हेतु यहां साध्यद्रोही होगा। तो ठीक इसी प्रकार अञ्जनादि द्रव्य से आकृष्ट
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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