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________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्व० 145 न चानुमेयत्व-वाच्यत्वसामान्य व्यक्तिव्यतिरेकेणानुपपद्यमानं तां लक्षयतीति लक्षणया प्रवृ. त्तिर्भविष्यतीति वक्तु शक्यम् , क्रमप्रतीतेरभावात् / न हि लिंगवाचक-जनित-लिगिवाच्यप्रतिभासे प्राक् सामान्यप्रतिभासः पश्चाद् व्यक्तिप्रतिभासः-इति क्रमप्रतीत्यनुभवः / न च लक्षणा संभवतीति प्रपंचतः प्रतिपादयिष्यामः-इत्यास्तां तावत् / एवं सामान्यविशिष्टधमादिलिंगस्य गमकत्ववद गत्वादिविशिष्टगादिवाचकत्वे न किंचिन्नित्यत्वेन, तदभावेऽपि धूमादिभ्य इवार्थप्रतिपत्तिसंभवात् / ___अथ धूमादौ सामान्यस्य संभवात् पूर्वोक्तेन न्यायेन गमकत्वमस्तु, शब्दे तु न किंचित् सामान्यमस्ति यद्विशिष्टस्य शब्दस्य वाचकभावः / 'शब्दत्वं' इति चेत् ? न, गोशब्दस्य शब्दत्वविशिष्टस्य स्ववाच्ये न संबंधग्रहः, न च शब्दत्वमपि गादिषु विद्यते, गोशब्दत्व-गत्वादीनां तु सत्त्वे का कथा ? ! शब्दत्वादीनां स्वभावो वर्णान्तरग्रहणे वर्णान्तरानसंधानाभावात / यत्र सामान्यमस्ति तत्रैकग्रहणेऽपरस्यानुसंधानं दृष्टम् यथा शाबलेयग्रहणे बाहुलेयस्य, वर्णान्तरे च गादौ गृह्यमाणे न कादीनामनुसंधानम् / तन्न तत्र शब्दत्वादिसम्भवः / एतदयुक्तम् यह भी ज्ञातव्य है कि-जैसे सामान्य विशिष्ट विशेष यानी अग्नित्वविशिष्टाग्नि आदि को ही अनुमेय अथवा शब्दवाच्य मानना पड़ता है, यदि विशिष्ट को अनुमेय अथवा वाच्य न मान कर अग्नि सामान्य को ही अनुमेय अथवा वाच्य माने तो अग्नि सामान्य से दाहादिरूप अर्थक्रिया का जन्म न होने से, तथा अग्निसामान्यसाध्यज्ञानादिरूप अर्थक्रिया का तो उसी समय उद्भव होने से, तथा दाहादि के अर्थी को अग्नि का प्रतिभास न होकर केवल अग्निसामान्यरूप अनुमेय अथवा वाच्यार्थ का भान होने से, दाहादि में प्रवृत्ति न होगी और दाहादिप्रवृत्ति रूप अर्थक्रिया सिद्ध न होने से उस सामान्यरूप अनुमेय अथवा वाच्यार्थ के प्रतिभास को अप्रमाण मानने का अनिष्ट होगा-इस लिये विशिष्ट को ही अनुमेय अथवा वाच्य मानना आवश्यक है-[ यह तो साध्य और वाच्य की बात हुई-अब हेतु और वाचक की बात-] उसी प्रकार, लिंग धूम और वाचक शब्द भी सामान्य रूप से वाचक न मान कर जातिविशिष्ट रूप से ही लिंग अथवा वाचक मानना ही पड़ेगा-क्योंकि 'अन्यथा अप्रामाण्यापत्ति'रूप युक्ति दोनों ओर समान है। तात्पर्य, जातिविशिष्ट शब्द में हो संकेतज्ञान आवश्यक है, केवल जाति अथवा व्यक्ति में नहीं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-"शब्द अथवा लिंग वाच्यत्वसामान्य अथवा अनुमेयत्वसामान्य को ही उपस्थित करता है, किन्त व्यक्ति के विना सामान्य की उपपत्ति न होने से व्यक्ति को भी लक्षित करता है यानी उपस्थापित करता है, इस प्रकार लक्षणा से व्यक्ति का बोध होने पर प्रवृत्ति भी उसमें हो सकेगी"-इस कथन की अवाच्यता का कारण यह है-उक्त प्रकार की क्रमप्रतीति किसी को होती नहीं है / तात्पर्य, लिंग अथवा वाचकशब्द से प्रथम सामान्य का प्रतिभास पश्चात व्यक्ति का प्रतिभास इस प्रकार के क्रम की प्रतीति का अनुभव लिंग और वाचक के प्रतिभास में किसी को भी नहीं होता / तथा, 'यहाँ ल.णा का संभव भी नहीं है' यह विस्तार से आगे दिखाया जायेगा, अभी शांति रक्खो। उपरोक्त रीति से, यानी जैसे धूमत्वादि सामान्य विशिष्ट धूमादि लिंग अग्नित्वविशिष्ट अग्नि . का बोध कराता है उस प्रकार, गत्वादिविशिष्ट गादि शब्द को अर्थ का वाचक भी माना जा
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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