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________________ 146 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ____ यतः किमिदमनुसंधानं भवतोऽभिप्रेतं यद् वर्णान्तरे गृह्यमाणे वर्णान्तरस्य नास्तीति प्रतिपाद्यते ? यदि गादी वर्णान्तरे गृह्यमाणे 'अयमपि वर्णः' इत्यनुसंधानाभावः-तदयुक्तम-एवंभूतानुसंधानस्यानुभूयमानत्वेनाऽभावाऽसिद्धः / अथ गादौ वर्णान्तरे गृह्यमाणे 'अयमपि कादिः' इत्यनुसंधानाभावान्न सामान्यसद्भावस्तदाऽत्यल्पमिदमुच्यते, शाबलेयादावपि व्यक्त्यन्तरे गृह्यमाणे 'अयमपि बाहुलेयः' इत्यनुसन्धानाभावाद् गोत्वस्याप्यभावः प्रसक्तः। अथ तत्र 'गौ गौः' इत्यनुगताकारप्रत्ययस्याऽबाधितस्य सद्भावाद् न गोत्वाऽसत्त्वम्-एतद्गादिष्वपि समानम् / तत्रापि 'वर्णो....वर्ण....' इत्यनुगताकारस्याबाधितस्य प्रत्ययस्य सद्भावात् कथं न वर्णेषु वर्णत्वस्य, गादिषु गत्वादेः, शब्दे शब्दत्वस्य संभवः, निमित्तस्य समानत्वात? सकता है तो फिर नित्यत्व से क्या प्रयोजन ? शब्द नित्य न होने पर भी अनित्य धूमादि से अग्निबोध की तरह अनित्य शब्द से अर्थबोध सरलता से हो सकता है। [शब्द में जाति का संभव ही न होने की शंका] नित्यत्ववादीः-धूमादि में धमत्व सामान्य का संभव है इस लिये पूर्वोक्त रीति से वह अग्निबोधक हो सकता है। किन्तु, शब्द तो सर्वथा सामान्यशून्य है तो सामान्यविशिष्ट हो कर शब्द का वाचकभाव कैसे माना जाय ? ! शब्द में शब्दत्वरूप सामान्य होने की शंका नहीं की जा सकती। चूंकि शब्दत्वजाति से विशिष्ट गोशब्द में किसी को भी धेनुअर्थ प्रतिपादक संकेत का ग्रह नहीं होता। [ यदि शब्दत्व जात्यवच्छेदेन धेनुअर्थ का संकेत माना जाय तो शब्दत्व जाति सर्वशब्दसाधारण होने से प्रत्येक शब्द धेनु अर्थ का बोधक हो जायगा ] दूसरी बात, गकारादि वर्गों में शब्दत्व जाति की भी विद्यमानता नहीं है तो तदव्याप्य गोशब्दत्व अथवा गत्व आदि जाति होने की बात ही कहाँ ? शब्दत्वादि जाति शब्द में न होने में तर्क यह है-यदि उसमें जाति होती तो एक वर्ण के ग्रहणकाल में अन्य वर्ण का भी अनुसंधान होता, किन्तु वह नहीं होता है / जैसे कि गोत्वादि जाति धेनु आदि में विद्यमान है तो एक चित्रवर्ण वाली धेनु को देखने पर अन्य श्यामादिवर्णविशिष्ट धेनु का भी सामान्यमूलक अनुसंधान होता है / तात्पर्य, जहाँ जाति होती है वहाँ एक व्यक्ति के ग्रहण काल में अन्य व्यक्तिओं का भी तन्मूलक अनुसंधान होता है, गकारादिवर्ण का श्रवण होने पर ककारादिवर्ण का अनुसंधान प्रतीत नहीं होता इसलिये उसमें कोई शब्दत्वादि जाति का संभव नहीं है / उत्तरपक्षी:-उपरोक्त कथन अयुक्त है। [वर्णान्तरानुसंधान की उपपत्ति ] [ अयुक्त इस प्रकार-] वह कौन सा अनुसंधान आपको चाहीये जो एकवर्ण के ग्रहण काल में अन्य वर्ण का ग्रहण नहीं होने का आप कहते हैं ? गकारादि अन्य वर्ण गृहीत होने पर यह भी वर्ण है' इस प्रकार का अनुसंधान न होने की बात यदि करते हो तो यह ठीक नहीं, क्योंकि जब गकारादि वर्णान्तर का अनुभव होता है तब 'यह भी वर्ण है' इस प्रकार का अनुसंधान स्पष्टतः अनुभूत होने से उसका अभाव असिद्ध है। नित्यत्ववादीः-गकारादिवर्णान्तर का जब ग्रहण होता है तब 'यह भी ककागदि है' ऐसा अनुसंधान न होने से सामान्य की सत्ता नहीं है / उत्तरपक्षी:-यह तो आपने बहुत कम कहा, इस प्रकार के अनुसन्धान की विवक्षा करने पर
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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