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________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्व० 147 तथाहि-समानाऽसमानरूपासु व्यक्तिसु क्वचित् समाना' इति प्रत्ययोऽन्वेति, अन्यत्र व्यावर्तते, यत्र च प्रत्ययानुवृत्तिस्तत्र सामान्यव्यवस्था, नान्यत्र / सा च प्रत्ययानुवृत्तिर्गादिष्वपिसमाना इति कथ न तत्र सामान्यव्यवस्था ? यदि पुनर्गादिष्वनुगताकारप्रत्ययसत्त्वेऽपि न गत्वादिसामान्यमभ्युपगम्यत तहि शाबलेयादिष्वपि न गोत्वसामान्यमभ्युपगमनीयम्, न हि तत्रापि तथाभूतप्रत्ययानुवृत्तिमन्तरेण साभान्याभ्युपगमेऽन्यद् निमित्तमुत्पश्यामः / अक्षजन्यत्वम्-अबाधितत्वादि च प्रत्ययस्योभयत्रापि विशेषः समानः। यदि चानुगताऽबाधिताऽक्षजप्रत्ययविशेषविषयत्वे सत्यपि गत्वादेरभावः, गादेरपि व्यावृत्ततथाभूतप्रत्ययविषयस्याभावः स्यात् , ततश्च कस्य दर्शनस्य परार्थत्वान्नित्यत्वं साध्येत ? अथ गादौ श्रोत्रग्राह्यत्वनिमित्तोऽनुगतः प्रत्ययो न सामान्यनिमित्तः / तदप्ययुक्तम् , श्रोत्रग्राह्यत्वस्यातीन्द्रियत्वेनानवगमे निमित्ताऽग्रहणे तद्ग्रहणनिमित्तानुगतप्रत्ययस्य गादावभावप्रसंगात् / तो गोत्व का भी सद्भाव लुप्त हो जायगा, क्यों कि जब चित्र वर्णवाली धेनु रूप अन्य व्यक्ति का ग्रहण होता है तब 'यह भी श्यामवर्ण वाली है' ऐसा अनुसंधान किसी को होता नहीं है / नित्यवादीः-धेनु में तो 'गौ....गौ....' इस प्रकार अबाधित अनुगताकार प्रतीति होती है इसलिये उसका सत्त्व सुरक्षित रहेगा। उत्तरपक्षीः-गकारादि में भी समान उत्तर है, वहाँ भी यह 'वर्ण....वर्ण....' इत्यादि अनुगताकार प्रतीति होती है जो अबाधित भी है तो वर्गों में वर्णत्व सामान्य का, गकारादि में गत्वादिसामान्य का और शब्द में शब्दत्व सामान्य का असंभव कैसे ? अनुगताकार प्रतीतिरूप निमित्त दोनों पक्ष में समान है। [ अनुगताकारप्रतीति के निमित्त का प्रदर्शन ] ... निमित्त समानता इस प्रकार है-गो-अश्व आदि अनेक प्रकार की व्यक्तिओं के समुदाय में कहीं कहीं तो 'ये सब समान है' इस प्रकार की प्रतीति होती है जैसे धेनु के समुदाय में, तथा कहीं कहीं 'ये सब समान है' ऐसी प्रतीति नहीं होती जैसे गो-अश्व-महिष आदि में / जहाँ समानाकार प्रतीति होती है वहाँ उसके निमित्तभूत सामान्य की कल्पना की जाती है, अन्यत्र नहीं की जाती / यह समानाकार प्रतीति का अन्वय गकारादि वर्ण में भी तल्य है तो उसमें सामान्य की कल्पना क्यों न की जाय ? समानाकार प्रतीति होने पर भी अगर गकारादि में सामान्य नहीं मानना है तो चित्रवर्ण वाली-श्यामवर्णवाली आदि सकल धेनु में एक गोत्व सामान्य की भी कल्पना मत करो। समानाकार प्रत्यय के अन्वय को छोड कर अन्य तो कोई निमित्त वहाँ दिखता नहीं है जो सामान्य को वहाँ मनावे / धेनु की समानाकार प्रतीति में जैसे यह विशेषता है कि वह इन्द्रियसंनिकर्ष जन्य और अबाधित होती है वैसे गकारादि की प्रतीति में भी यह विशेषता समान ही है / दूसरी बात यह है कि यदि समानाकार अबाधित इन्द्रियजन्य बुद्धि विशेष का विषय होते हुए भी वहाँ गत्वादि सामान्य को नहीं माना जायेगा तो असमानाकार अबाधित इन्द्रियजन्य बुद्धिविशेष का विषय होते हुए भी वहाँ गकारादि की सत्ता न मानने की आपत्ति होगी, कारण-अबाधित-इन्द्रियजन्य बुद्धिविशेष की विषयता दोनों ओर तुल्य होने पर भी एक ओर गकारादि की सत्ता मानी जाय और दूसरी ओर गत्वादि की सत्ता न मानी जाय इसमें केवल स्वमताग्रह ही निमित्त हो सकता है। यदि उक्त रीति से गकारादि शब्द को भी नहीं माना जायगा तो शब्द के अभाव में वेद के परार्थत्वरूप हेतु से आप किसका नित्यत्व सिद्ध करेंगे? !
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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