________________ 144 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 11 [शब्दानित्यत्वस्थापन-उत्तरपक्ष ] अत्र प्रतिविधीयते-यदुक्तम् ‘दर्शनस्य परार्थत्वान्नित्यः शब्दः, अनित्यत्वे पुनः पुनरुच्चारणाऽसम्भवाद् न समयग्रहः, तदभावे शब्दादर्थप्रतिपत्तिर्न स्यादिति परार्थशब्दोच्चारणान्यथानुपपनित्यः शब्दः'-तदयुक्तम् , अनित्यस्यापि धमादेरिवावगतसंबन्धस्यार्थप्रत्यायकत्वसम्भवात् शब्दस्य / न हि धूमादीनामप्येकैव व्यक्तिरग्न्यादिप्रतिपादिका किन्त्वन्यैव / न चानाश्रितसमानपरिणतीनां सर्वधूमादिव्यक्तीनामर्वाग्दृशा स्वसाध्येन सम्बन्धः शक्यो ग्रहीतुम् , असाधारणरूपेण सर्वधूमादिव्यक्तीनामदर्शनात् / . न च लिंगानुमेयसामान्ययोः तत्र संबन्धग्रहणं, शब्देऽप्यस्य न्यायस्य समानत्वात् / न च 'धूमत्वाद् मया प्रतिपन्नोऽग्निः' इति प्रतिपत्तिः किन्तु धमादिति / सा च लिंगानुमेययोः सामान्यविशिष्टव्यक्तिमात्रयोः संबन्धग्रहणे सति सामान्यविशिष्ट मान्यादग्निसामान्यस्य / यथा च-सामान्यविशिष्टस्य विशेषस्य अनुमेयत्वं वाच्यत्व वाऽभ्युपगमनीयम् अन्यथा सामान्यमात्रस्य दाहाद्यर्थक्रियाऽजनकत्वे ज्ञानाद्यर्थक्रियायाश्च सामान्यसाध्यायास्तदैव समुद्भः तेर्दाहार्थिनामनुमेयवाच्यप्रतिभासात् प्रवृत्त्यभावेन लिंगि-वाच्यप्रतिभासयोरप्रामाण्यप्रसंगः-तथा धूमशब्दयोस्तद्विशिष्टयोः तत्त्वमभ्युपगन्तव्यम् , न्यायस्य समानत्वात् / [शब्द अनित्य होने पर भी अर्थबोध की उपपत्ति ] शब्दनित्यत्ववाद का अब प्रतीकार किया जाता है-पूर्वपक्षी ने जो यह कहा-“दर्शन यानी वेद परावबोधार्थ होने से शब्द नित्य है। यदि वह अनित्य होगा तो उसका पुनरुच्चारण शक्य न होने से उसमें संकेतज्ञान न होगा। संकेतज्ञान के अभाव में शब्द से अर्थबोध नहीं होगा। इस प्रकार परार्थशब्दप्रयोग की अन्यथा अनुपपत्ति होने से शब्द नित्य सिद्ध होता है"-यह गलत है। जैसे धूमादि अनित्य होने पर भी व्याप्तिसम्बन्धज्ञाता को अग्निरूप अर्थ का बोध उत्पन्न करता है वैसे शब्द अनित्य होने पर भी अर्थबोधक हो सकता है। यह बात नहीं है कि जब जब अग्निबोध होता है तब एक ही धूमव्यक्ति हेतु होती है, किन्तु पृथक् पृथक् ही होती है। तथा, जिनकी समान परिणति का अवलम्बन नहीं किया गया है ऐसे सर्व धूमादि व्यक्तिओं का अपने साध्य के साथ व्याप्तिरूप संबंध ग्रहण वर्तमान दृष्टा के लिये शक्य नहीं है / क्योंकि वर्तमान दृष्टा को कभी समस्त धूमव्यक्तिओं का उनके असाधारणरूप से दर्शन ही नहीं होता तो उनका व्याप्तिरूप सम्बन्ध ग्रहण वह कैसे करेगा? यह नहीं कह सकते कि-'व्याप्तिरूप सम्बन्ध ग्रहण काल में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच संबंध ग्रहण नहीं होता किन्तु लिंग सामान्य का साध्य सामान्य के साथ ही ग्रहण होता है'-क्योंकि ऐसा तो शब्द के लिये भी कहा जा सकता है कि अर्थ सामान्य का शब्द सामान्य में ही संकेत ग्रह किया जाता हैशब्द व्यक्ति में नहीं। [जातिविशिष्ट में ही व्याप्य-व्यापकभावसंगति] दूसरी बात यह है कि धूम सामान्य से अग्नि सामान्य का बोध अनुभवविरुद्ध है क्योंकि-"मैंने धूमत्व से अग्नि का बोध किया" ऐसा अनुभव नहीं होता किंतु "धूम से मैंने अग्नि का बोध किया" ऐसा अनुभव होता है। यह अनुभव तभी संगत हो सकता है जब पूर्व में धूमत्व जाति विशिष्ट और अग्नित्वजातिविशिष्ट मात्र का व्याप्य-व्यापक भाव संबंध गृहीत किया हो और अभी उस संबंध के स्मरण से अग्नित्व जाति विशिष्टाग्नि का बोध होता हो / उसके बदले केवल धूमसामान्य (धूमत्व) से अग्नि सामान्य का बोध माने तो वह अनुभव संगत नहीं होगा।