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________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्वविमर्शः 143 किं च, किं गत्वादीनां वाचकत्वम् उत गादिव्यक्तिनाम् ? न तावद् गत्वादीनाम् , नित्यत्वेनास्मदभ्युपगमाश्रयणप्रसङ्गात् / नापि गादीनां वाचकत्वम् , विकल्पानुपपत्तेः / तथाहि-कि गत्वादिविशिष्टं व्यक्तिमानं वाचकम् , उत गादिव्यक्तिविशेषः ? तत्र न तावद् गादिव्यक्तिविशेषः, सामान्ययुक्तस्यापि तस्यानन्वयात् / अनन्विताच्च नार्थप्रतिभासः। नापि गादिव्यक्तिमात्रम् , यतस्तदपि व्यक्तिमात्रं कि सामान्यान्तर्भूतम् उत व्यक्त्यन्तभूतम् ? इति कल्पनाद्वयम् / यदि सामान्यान्तःपाति तदा पुनरपि नित्यस्य वाचकत्वमित्यस्मत्पक्षप्रवेशः / अथ व्यक्त्यन्तभूतमिति पक्षः तदाऽनन्वयदोषस्तदवस्थित इति / किं च, यद्यनित्यः शब्दः तदाऽऽलम्बनरहिताच्छब्दप्रतिभासमात्रादर्थप्रतिपत्तिरभ्युपगता स्यात् / तथाहि-शब्दश्रवणम् , ततः संकेतकालानुभूतस्मरणम् , ततः तत्सदृशत्वेनाध्यवसायः, न चेतावन्त कालं शब्दस्यावस्थानं भवत्परिकल्पनया, तद् वाचकशून्यात् तत्प्रतिभासादर्थप्रतिपत्तिः स्यात् / अतोऽर्थप्रतिभासाभावप्रसंगाद नानित्यत्वं शब्दस्य // जा सकती क्योंकि व्यक्तिभेद असिद्ध होने से तन्मूलक गत्वादि जाति का गकारादि में संभव ही नहीं है तो गकारादि में 'यह वही गकार है' इस प्रत्यभिज्ञा को गत्वादिजातिगतएकत्वमुलक कैसे माना जाय ? [गकारादि में वाचकता की अनुपपत्ति ] तदुपरांत, आपको यह सीधा प्रश्न है कि आप गत्वादि को वाचक मानते हैं ? या गकारादि व्यक्ति को ? गत्वादि जाति को आप वाचक नहीं मानते हैं चूंकि तब तो जाति नित्य होने से 'नित्य शब्द वाचक है' इस हमारे पक्ष में आप को चले आना पडेगा। गकारादि व्यक्ति इसलिये वाचक नहीं हैं कि उस पर लगाये जाने वाले विकल्प संगत नहीं होते। जैसे-गत्वादि जाति विशिष्ट व्यक्तिमात्र वाचक है ? या कोई विशिष्ट गकारादि व्यक्ति ? द्वितीय विकल्प में विशिष्ट गादि व्यक्ति वाचक नहीं हो सकती क्योंकि वह गत्वादिसामान्य युक्त होने पर भी उसका कोई संबंध अर्थ के साथ व्यक्ति आनन्त्य के कारण सम्भव नहीं है और संबंध के विना अर्थ का प्रतिभास शक्य नहीं है। गकारादि केवल व्यक्ति भी अर्थवाचक नहीं हो सकती चूंकि उसके ऊपर दो कल्पना होगी १-सामान्य में अन्तभूत व्यक्ति वाचक है ? २-व्यक्ति अन्तर्भूत व्यक्ति वाचक है ? इसमें प्रथम कल्पना सामान्यान्तः पाती व्यक्ति को वाचक माने तब तो सामान्यान्तर्भूत व्यक्ति सामान्यरूप होने से नित्य की ही वाचकता का घोष करने वाले हमारे मत में आप चले आये। दूसरी कल्पना-व्यक्ति में जो जाति रूप नहीं है ऐसी व्यक्ति को वाचक माने तो ऐसी व्यक्ति अनंत होने के कारण अर्थ के साथ उनके नियत सम्बन्ध की अनुपपत्ति का दोष तदवस्थ रहता है / - तदुपरांत-यदि शब्द को अनित्य यानी क्षणिक मानेंगे तो शब्द प्रतिभास काल में उसका आलम्बन शब्द तो रहेगा नहीं तो आलम्बनशून्य केवल शब्दप्रतिभास से ही अर्थबोध मानना पड़ेगा। वह इस प्रकार-सबसे पहले तो शब्द का श्रवण होगा, पश्चात् संकेतकाल में अनुभूत शब्द का स्मरण होगा, पश्चात् 'यह उसके समान है' ऐसा सादृश्याध्यवसाय होगा। इतने काल तक आप के मतानुसार शब्द का अवस्थान तो रहेगा नहीं। तो यही मानना पड़ेगा कि अर्थबोध वाचक शब्द से शुन्य शब्द प्रतिभास से ही हुआ है। यह तो हो नहीं सकता कि वाचक शब्द विना अर्थबोध हो जाय तात्पर्य, वाचक शब्द विना अर्थबोध ही नहीं होगा, इसलिये शब्द को नित्य मानना चाहिये / [ पूर्व पक्ष समाप्त ]
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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