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________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवादः 127 तन्नार्थसंवेदनस्वरूपमप्यपरोक्षं सामान्यतो हष्टं लिंगं प्राभाकररभ्युपगम्यमानं ज्ञातृव्यापारलक्षणप्रमाणानुमापमिति, मीमांसकमतेन प्रमाणस्यवासिद्धत्वात् कथं यथावस्थितार्थपरिच्छेदशक्तिस्वभावस्य प्रामाण्यस्य स्वतः सिद्धिः? न हि धमिणोऽसिद्धौ तद्धर्मस्य सिद्धियुक्ता। अतो न सर्वत्र स्वतः प्रामाण्यसिद्धिरिति स्थितम् / इसलिये भ्रान्त दृष्टिवालों का भ्रमज्ञान स्मृतिप्रमोषगभित है यह मानना ठीक नहीं है / सारांश, स्मृतिप्रमोष वाद यह कोई आदर योग्य पक्ष नहीं है / [ अर्थसंवेदन से ज्ञातव्यापारात्मक प्रमाण की असिद्धि ] उपरोक्त का सार यह निकला कि प्रभाकर के अनुगामीयों ने जो अपरोक्ष अर्थसंवेदन को सामान्य तो दृष्ट लिंगरूप से मानकर उससे ज्ञातृव्यापारस्वरूप प्रमाण की अनुमिति का होना कहा है वह नितान्त अयुक्त है। अरे ! जब मीमांसक के मत में प्रमाणरूप से अभिमत ज्ञातृव्यापार ही असिद्ध है तो यथावस्थितार्य की परिच्छेदशक्ति रूप स्वत: प्रामाण्य की सिद्धि ही कैसे? धर्मी प्रमाण ही जब सिद्ध नहीं हो सकता तो स्वतः प्रामाण्यरूप उसके धर्म की सिद्धि युक्त नहीं हो सकती। इसलिए, अन्ततः यही सिद्ध होता है कि उत्पत्ति आदि में कहीं भी स्वतः प्रामाण्य की सिद्धि नहीं है। [प्रामाण्यवाद समाप्त ]
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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