________________ 128 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [वेदापौरुषेयतावादप्रारम्भः] "शब्दसमुत्थस्य तु अभिधेयविषयज्ञानस्य यदि प्रामाण्यमभ्युपगम्यते तदा अपौरुषेयत्वस्याऽसंभवाद् गुणवत्पुरुषप्रणीतस्तदुत्पादकः शब्दोऽभ्युपगंतव्यः, अथ तत्प्रणीतत्वं नाऽभ्युपगम्यते तदा तत्समुत्थज्ञानस्य प्रामाण्यमपि न स्यादि"त्यभिप्रायवानाचार्यः प्राह-'जिनानाम् / रागद्वेषमोहलक्षणान् शत्रून् जितवन्त इति जिनास्तेषां 'शासन' तदभ्युपगन्तव्यमिति प्रसङ्गसाधनम् / न चात्रेदं प्रेर्यम्-"यदि-जिनशासनं जिनप्रणीत्वेन सिद्धं निश्चितप्रामाण्यमभ्युपगमनीयम्, अन्यथाप्रामाण्यस्याप्यमभ्युपगमनीयत्वात - इति प्रसंगसाधनमत्र प्रतिपाद्यत्वेनाऽभिप्रेतम्-तत्किमिति बौद्धयुक्त्याऽऽर्हतेन त्वया स्वतः प्रामाण्यनिरासोऽभिहितः ?"-यतः सर्वसमयसमूहात्मकत्वमेवाचार्येण प्रतिपादयितुमभिप्रेतम् / यद् वक्ष्यत्यस्यैव प्रकरणस्य परिसमाप्तौ, यथा भई मिच्छदसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स / जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स // [सम्मति० 3/70] . इत्यादि / अयमेवार्थो बौद्धयुक्त्युपन्यासेन सथितः / अन्यत्राप्यन्यमतोपक्षेपेणान्यमतनिरासेऽयमेवाभिप्रायो दृष्टव्यः, सर्वनयानां परस्परसापेक्षाणां सम्यग्मतत्वेन, विपरीतानां विपर्ययत्वेनाचार्यस्येष्टत्वात् / अत एवोक्तमनेनैव द्वात्रिंशिकायाम् उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः / न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरिस्विवोदधिः // [ 4/15 ] [ 'जिनानां' पदप्रयोग की सार्थकता का प्रदर्शन ] . ' प्रथम कारिका में जो 'जिनानां शासनं' यह कहा है उसकी सार्थकता के लिये व्याख्याकार महषि एक प्रसंगापादन दिखलाते हैं "अगर शब्द से उत्पन्न अभिधेयविषयक ज्ञान को प्रमाण मानना है तो उस प्रमाणज्ञान का उत्पादक शब्द अपौरुषेय यानी पुरुष प्रयत्न से अजन्य तीन काल में भी संभवित न होने से गुणवान् पुरुष के प्रयत्न से जन्य ही मानना चाहीये / " इस अभिप्राय को मनोगत रखकर आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकरजी ने 'जिनानाम् शासनं' यह प्रयोग किया है। राग-द्वेष और मोह ये तीन आत्मा के अनादिकालीन शत्र हैं, उन पर विजय पाने वाले प्रबुद्धात्मा को 'जिन' कहा जाता है। प्रमाणबोधजनक शब्दरूप 'शासन' उन्हीं का होता है यह मानना चाहीये / इस प्रकार यह प्रसंगसाधन हुआ। [बौद्धमतावलम्बन से स्वतः प्रामाण्य के प्रतीकार में अभिप्राय ] यह शंका नहीं करनी चाहीये कि-"यदि आप जिनशासन को जिनप्रणीत यानी जिनोपदिष्ट होने के कारण सिद्ध यानी सुनिश्चितप्रामाण्य विशिष्ट मानते हो और 'जिनप्रणीत न होने पर प्रामाण्य ही अस्वीकार्य हो जायगा' इस प्रकार के प्रसंगसाधन को 'जिनानां शासनं' इस प्रयोग से प्रतिपाद्य होने का अभिप्राय दिखलाते हो तो फिर आपने जो स्वतः प्रामाण्य का निराकरण, स्वयं आहत =अरिहंत के मतानुगामी होने पर भी बौद्धप्रतिपादित युक्तिओं से क्यों किया?" इस शंका के निषेध का कारण यह है कि आचार्य दिवाकरजी ने यहाँ 'सर्व दर्शनों के समूहा