________________ प्रथमखण्ड-का० १-अपौरुषेयविमर्शः 129 अथापि स्यात्-यदि प्रामाण्यापवादकदोषाभावो गुणनिमित्त एव भवेत् तदा स्यादेतत् प्रसङ्गसाधनम् , यावताऽपौरुषेयत्वेनापि तस्य सम्भवात् कथं प्रसङ्गसाधनस्यावकाशः ? असदेतत्-अपौरुषेयत्वस्याऽसिद्धत्वात् / तथाहि-किमपौरुषत्वं शासनस्य A प्रसज्यप्रतिषेधरूपमभ्युपगम्यते ? उत B पर्यु दासरूपम् ? तत्र यदि A प्रसज्यरूपं तदा किं C सदुपलम्भकप्रमाणग्राह्यम् / D उत अभावप्रमाणवेद्यम् ? यदि C सदुपलम्भकप्रमाणग्राह्यम् , तदयुक्तम्, सदुपलम्भकप्रमाणविषयस्थाभावत्वानुपपत्तेः, अभावत्वे वा न तद्विषयत्वम् , तस्य तद्विषयत्वविरोधाद् , अनभ्युपगमाच्च / त्मक ही जैन दर्शन है' यही प्रतिपादन करने का अभिप्राय रखा है। वे स्वयं ही इस सम्मतिप्रकरण की समाप्ति में कहेंगे ___ 'संविग्नजनों के लिये सुखबोध्य, मिथ्यादर्शनो के समूहात्मक, सुधानिष्यन्दतुल्य, ऐश्वर्यसमृद्ध जिनवचन का कल्याण हो !' इत्यादि...... / हमने जो बौद्धयक्ति के उपन्यास से स्वतः प्रामाण्यवाद का प्रतिवाद किया इस में भी उपरोक्त अर्थ का ही समर्थन किया गया है / अन्यत्र भी इस ग्रन्थ में जहाँ जहाँ एक मत की युक्ति से अन्यमत का खंडन किया गया है उसमें अंतनिहित आशय यही है कि परस्पर निरपेक्ष सभी नयवाद मिथ्या है और अन्योन्यसापेक्ष समूहात्मक सभी नयवाद ही जिनशासनरूप यानी प्रमाणभूत-सम्यक् हैं / आचार्य श्री को भी यही इष्ट है / जैसा कि उन्होंने ही द्वात्रिशिका ग्रन्थ में कहा है "हे नाथ ! जैसे समुद्र में सर्व सरिताओं का मिलन होता है वैसे आप में भी दृष्टिओं का मिलन हुआ है। हाँ, उन एक एक दृष्टि में आपका दर्शन नहीं होता, जैसे कि पृथक् सरिताओं में समुद्र का भी दर्शन नहीं होता।" [ ग्रन्थकार विरचित द्वात्रिंशिकाप्रकरणों में चौथी द्वा० श्लो० 15 ] [दोषाभावापादक अपौरुषेयत्व हो असिद्ध है ] यदि यह कहा जाय कि-किसी वाक्य में प्रामाण्य का अपवाद दोषप्रयुक्त होता है, दोष न रहने पर वाक्य स्वतः प्रमाण होता है / दोष का विरह गुण के होने पर ही हो ऐसा यदि कोई नियम होता तब तो आपने जो प्रसंगसाधन दिखाया है वह ठीक था किंत वाक्य को अपौरुषेय मानने पर भी दोष विरह का पूर्ण संभव है / तो आपके प्रसंगसाधन को अब कहाँ अवकाश रहेगा ? तो यह ठीक नहीं है / क्योंकि अपौरुषेय शासन ही सर्वथा असिद्ध है / वह इस प्रकार-शासन - में जो अपौरुषेयत्व अभिप्रेत है उसमें पौरुषेयत्व का प्रतिषेध [A] प्रसज्यप्रतिषेधरूप मानते हैं या [B] पर्यु दासप्रतिषेधरूप ? प्रसज्यप्रतिषेध मानने पर यह अर्थ होगा कि वेदशास्त्र पुरुष के प्रयत्न विना ही उत्पन्न है / तो यहाँ पुरुषप्रयत्नाभाव किस प्रमाण से ग्राह्य है-[C] सद् वस्तु के उपलम्भक प्रमाण से? या [D] अभाव प्रमाण से ग्राह्य है ? वेदापौरुषेयवादी मीमांसक के मत में प्रत्यक्ष से अर्थापत्ति तक पाँच सदुपलम्भक प्रमाण हैं और अभावप्रमाण अभावग्राही है / इनमें से [C] सदुपलम्भकप्रमाण से वाक्यजनक पुरुषाभाव को ग्राह्य बताना अयुक्त है, क्यों कि सदुपलम्भकप्रमाण का विषय कभी भी अभावात्मक नहीं घटता, अथवा अभाव में सदालम्भकप्रमाण की विषयता नहीं घट सकती। क्योंकि अभाव में सदुपलम्भक प्रमाण की विषयता विरुद्ध है और आप उसे मानते भी नहीं है /