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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 285 नात्मोत्पादकलिंगसम्बन्धग्राहकं तदेतरेतराश्रयत्वदोषः / अथानुमानान्तराद् गृहीतप्रतिबन्धाल्लिगादुपजायमानं तद्विषयं तदभ्युपगम्यते तदाऽनवस्था। तथा, सर्वमप्यनुमानमस्मान् प्रत्यसिद्धम् / तथाहि बृहस्पतिसूत्रम्-"अनुमानमप्रमारणम्" ] इति / अनेन प्रतिज्ञाप्रतिपादनं कृतम्, अनिश्चितार्थप्रतिपादकत्वाद[त्]सिद्धप्रमाणाभासवदिति हेतुदृष्टान्तावभ्यूह्यो। विषयविचारेण वाऽनुमानप्रामाण्यमयुक्तम्-धर्म-धम्र्यु भयस्वतन्त्रसाधने सिद्धसाध्यता यतः अतो विशेषण-विशेष्यभावः साध्यः / प्रमेयविशेषविषयां प्रमां कुर्वत् प्रमाणं प्रमाणतामश्नुते / इतरेतरावच्छिन्नश्च समुदायोऽत्र प्रमेयः, तदपेक्षया च पक्षधर्मत्वादीनामन्यतमस्यापि रूपस्याऽप्रसिद्धिः। नहि समुदायधर्मता हेतोः, नापि समुदायेनाऽन्वयो व्यतिरेको वा, धमिमात्रापेक्षया पक्षधर्मत्वे साध्यधर्मापेक्षया च व्याप्तौ गौणतेति / उक्तं च, "प्रमाणस्याऽगौणत्वादनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभः" [ ] इति / धर्मि-धर्मताग्रहणेऽपि न गौणतापरिहारः, प्रतीयमानापेक्षया गौण-मुख्यव्यवहारस्य चिन्त्यत्वात् , समुदायश्च प्रतीयते। [व्याप्तिग्रहण अशक्य होने से अनुमान का असम्भव ] (A) यदि यह कहा जाय कि-'जिस लिंग की अपने साध्य के साथ व्याप्ति गृहीत है वैसे लिंग से उत्पन्न अनुमान की परलोक सिद्धि में प्रवृत्ति होगी'-तो यह पक्ष भी युक्त नहीं है / कारण, उस लिंग की अपने साध्य के साथ व्याप्ति गृहीत होने का सम्भव ही नहीं / वह इस प्रकार: लिंग की परलोकादिफलवत्तारूप अपने साध्य के साथ व्याप्ति के ग्रहण में प्रत्यक्षरूप निमित्त तो है नहीं, अतः अनुमान को ही व्याप्ति का ग्राहक स्वीकारना पडेगा / अब यदि ऐसा कहें कि जो परलोकसाधक मुख्य अनुमान है वही अपने साध्यरूप में अभिमत परलोकस्वरूप अर्थ के साथ, अपने उत्पादक लिंग की व्याप्ति को ग्रहण करायेगा तो इसमें स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय दोष लगेगा, क्योंकि मुख्य अनुमान से व्याप्तिग्रहण का और व्याप्तिग्रह होने पर मुख्य अनुमान का उद्भव होगा। इसके परिहार के लिये यदि व्याप्तिग्रह का उद्भव दूसरे कोई अनुमान से मानेंगे तो उस दूसरे अनुमान की उद्भावक व्याप्ति का ग्रह तोसरे किसी अनुमान से मानना होगा, फिर चौथा ......पाँचवा....इस प्रकार कहीं अन्त न आने से अनवस्था दोष लग जायेगा। [नास्तिक मत में अनुमान अप्रमाण है। परलोक विषय में अनुमान का असम्भव तो है, उपरांत दूसरी बात यह है कि हमारे नास्तिकबिरादरों के प्रति कोई भी अनुमान ही असिद्ध यानी अविश्वास्य है। बृहस्पतिविरचित सूत्र में भी कहा गया है कि 'अनुमान प्रमाणभूत नहीं है' / सूत्र में यह प्रतिज्ञा के तौर पर कहा गया है, अतः उसमें हेतु और दृष्टान्त स्वयं जान लेना चाहिये जो क्रमश: इस प्रकार है-हेतु:- 'क्योंकि अनुमान अनिश्चित अर्थ का प्रतिपादक है / ' दृष्टान्त:-जैसे कि प्रमाणाभासरूप में प्रसिद्ध दीपकलिका में ऐक्य का प्रतिभास। [विषय के न घटने से अनुमान अप्रमाण ] * अनुमान के विषय का विचार करे तो भी यह प्रतीत होता है कि अनुमान का प्रामाण्य असंगत है / अनुमान का विषय होता है धमि और धर्म / अब यदि अनुमान से धर्म और धर्म की स्वतन्त्ररूप से
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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