________________ 284 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नाप्यनुमानं प्रत्यक्षपूर्वकं तत्र प्रवृत्तिमासादयति, प्रत्यक्षाऽप्रवृत्तौ तत्पूर्वकस्यानुमानस्यापि तत्राप्रवृत्तः। अथ यद्यपि प्रत्यक्षावगतप्रतिबन्ध लगप्रभवमनुमानं न तत्र प्रवर्तते तथापि सामान्यतोदृष्टं तत्र प्रतिष्यति / तदपि न युक्तम् , यतस्तदपि सामान्यतोदृष्टमवगतप्रतिबन्धलिंगोद्भवम् , आहोस्वित् अनवगतप्रतिबन्धलिंगसमुत्थम् ? यद्यनवगतप्रतिबन्धलिंगोद्भवमिति पक्षः, स न युक्तः, तथाभूलिंगप्रभवस्य स्वविषयव्यभिचारेण अश्वदर्शनानन्तरोदभूतराज्यावाप्तिविकल्पस्येवाऽप्रमाणत्वात् / अथ प्रतिपन्नसम्बन्धलिंगप्रभवं तत् तत्र प्रवर्तते इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः, प्रतिबन्धावगमस्यैव तत्र लिंगस्याऽसम्भवात् / तथाहि-प्रत्यक्षस्य तत्र लिंगसम्बन्धावगमनिमित्तस्याभावेऽनुमानं लिंगसम्बन्धग्राहकमभ्युपगन्तव्यम् / तत्र यदि तदेव परलोकसद्धावावेदकमनुमानं स्वविषयाभिमतेनार्थेचित् ऐसा कहो कि-'योगीओं का प्रत्यक्ष परलोक के विषय में प्रवृत्त है'-तो यह कहना शक्य ही नहीं, क्योंकि जैसे परलोक असिद्ध है वैसे ही अतीन्द्रिय पदार्थ को ग्रहण करने वाला योगिप्रत्यक्ष भी असिद्ध यानी अविश्वसनीय है। [ परलोक सिद्धि में अनुमान प्रमाण का अभाव ] परलोकसाधक कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है अत एव अतुमान प्रमाण की भी उसमें प्रवृत्ति नहीं है क्योंकि जिसका प्रत्यक्ष हो उसी का कभी अनुमान होता है / परलोकवादी:-जिस लिंग का अपने साध्य के साथ प्रतिबन्ध यानी व्याप्ति प्रत्यक्ष से गृहीत हो ऐसे लिंग से होने वाले अनुमान की परलोक के विषय में प्रवृत्ति नहीं हो सकती यह बात ठीक है, किन्तु जहाँ प्रत्यक्ष की आवश्यकता नहीं है ऐसे 'सामान्यतोदृष्ट' नामक अनुमान की प्रवृत्ति परलोक के विषय में हो सकती है। जैसे कि 'ऋषिमुनिओं की तपश्चर्या सार्थक [=सफल ] है क्योंकि वह प्रवृत्ति है, जो प्रवृत्ति होती है उसका कुछ न कुछ फल अवश्य होता है जैसे राजसेवादि प्रवृत्ति / ' इस अनुमान में विशेष फलरूप से परलोक को साध्य नहीं बनाया है किन्तु सामान्यतः फलवत्ता को ही साध्य बनाया है और प्रवृत्ति हेतु के साथ उसकी व्याप्ति प्रसिद्ध होने से कोई दोष नहीं है। जब तपश्चर्या में सफलता सिद्ध हुयी और इहलोक में उसका कोई फल देखा नहीं जाता तो यह कल्पना अवश्य करनी पड़ेगी कि उसका फल परलोक में मिलेगा, क्योंकि उस प्रवृत्ति को निष्फल तो मान नहीं सकते। इस प्रकार सामान स्कारेण व्याप्ति का ग्रहण होने पर विशेष फलरूप में परलोक की सिद्धि में सामान्यतोहाट अनुमान की प्रवृत्ति हो सकती है। चार्वाकः यह बात भी अयुक्त है, यहाँ भी दो प्रश्न है कि वह सामान्यतोदृष्ट अनुमान (A) साध्य के साथ जिसकी व्याप्ति गृहीत है ऐसे लिंग से जन्म लेता है ? (B) या व्याप्ति गृहीत न हो ऐसे भी लिंग से उत्पन्न होता है ? (B) यदि व्याप्तिग्रहणशून्य लिंग से सामान्यतोदृष्ट अनुमान की उत्पति वाला दूसरा पक्ष माना जाय तो वह अयुक्त है, क्योंकि वैसे लिंग से उत्पन्न होने वाले अनुमान का अपने विषय के साथ व्यभिचार यानी विसंवाद होने से वह प्रमाण नहीं है, जैसे कि अश्व को स्वप्नादि में देखने के बाद किसी को ऐसा विकल्प होता है कि मुझे राज्य प्राप्ति होगी, किन्तु उसे राज्यप्राप्ति नहीं होती है तो विसंवाद के कारण उसका अश्वदर्शनजन्य राज्यप्राप्ति का विकल्प प्रमाण नहीं होता।