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________________ प्रथमखण्ड-का०१ परलोकवाद: 283 न चात्रैतद् वक्तव्यम् भवतोऽपि कि तत्प्रतिक्षेपकं प्रमाणम् ?-यतो नास्माभिस्तत्प्रतिक्षेपकप्रमाणात तदभावः प्रतिपाद्यते किंतु परोपन्यस्तप्रमाणपर्यनुयोगमात्रमेव क्रियते / अत एव 'सर्वत्र पर्यनुयोगपराण्येव सूत्राणि बृहस्पतेः" [ ] इति चार्वाकरभिहितम् / स च परोपन्यस्तप्रमाणपर्यनुयोगः तदभ्युपगमस्य प्रश्नादिद्वारेण विचारणा न पुनः स्वसिद्धप्रमाणोपन्यासः येन 'अतीन्द्रियार्थप्रतिक्षेपकत्वेन प्रवर्तमानं प्रमाणमाश्रयासिद्धत्वादिदोषदुष्टत्वेन कथं प्रवर्तते' इत्यस्मान् प्रति भवताऽपि पर्यनुयोगः क्रियेत। अत एव परलोकसाधकप्रमाणाभ्युपगमं परेण ग्राहयित्वा तदभ्युपगमस्यानेन प्रकारेण विचारः क्रियते-तत्र न तावत् परलोकप्रतिपादकत्वेन चक्षुरादिकरणव्यापारसमासादितात्मलाभं सन्निहितप्रतिनियतरूपादिविषयत्वात् प्रत्यक्षं प्रवर्तते / नाप्यतीन्द्रियं योगिप्रत्यक्षं तत्र प्रवर्तत इति वक्तु शक्यम् , परलोकादिवत् तस्याप्यसिद्धेः।। या आगम ही होगा, क्योंकि स्वतन्त्र उपमानादि अन्य किसी को वे प्रमाण ही नहीं मानते हैं / [चार्वाकमत केवल दूसरे मत की कसौटी में तत्पर ] [यहाँजैन की ओर से बीच में एक आशंका को प्रस्तुत कर के नास्तिक उसका खंडन प्रस्तुत करता है-] 'आपके पास भी परलोक निषेध के लिये क्या प्रमाण है ?' ऐसा प्रश्न नास्तिक के प्रति करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि हम परलोक के निषेधक प्रमाण को ढूंढ कर परलोक के अभाव का प्रतिपादन करने में कटिबद्ध नहीं है किन्तु तटस्थ बनकर सीर्फ आपने परलोकसिद्धि में जो प्रत्यक्षादि प्रमाण का उपन्यास किया है उसकी कसौटी ही हमें करनी है / इसीलिये तो चार्वाकों ने कहा है कि "बृहस्पति के सभी सूत्रवचन दूसरों के सिद्धान्त में पर्यनुयोगपरक ही हैं।" दूसरे लोगों ने जिन प्रमाणों का उपन्यास किया है उनमें पर्यनुयोग करने का तात्पर्य भी यही है कि उनकी मान्यताओं के ऊपर प्रश्नादि करने द्वारा कुछ विचारणा की जाय, नहीं कि हमारे मत से जो कुछ सिद्ध यानी अभ्युपगत हो उसके लिये प्रमाणों का उपन्यास किया जाय ! अत: आप हमारे प्रति ऐसा पर्यनुयोग नहीं कर सकते कि "चार्वाक की ओर से अतीन्द्रिय परलोकादि अर्थ के निषेधमें जिस प्रमाण का प्रयोग किया जाता है उसमें आश्रयासिद्धि आदि दोष है क्योंकि उसके मत से वे अतीन्द्रिय अर्थ सिद्ध ही नहीं है तो उसमें निषेधक प्रमाण की प्रवृत्ति यानी उपन्यास कैसे किया जा सकता है........” इत्यादि-ऐसा पर्यनुयोग तभी सावकाश होता अगर हम प्रमाणविन्यास में तत्पर होते / [ परलोक सिद्धि में प्रत्यक्ष प्रमाण का अभाव ] चार्वाकवादी का अपनी ओर से किसी प्रमाण का विन्यास करने का कोई संकल्प न होने से ही हम नास्तिक लोग पहले दूसरे वादी की ओर से परलोकसाधक किसी प्रमाण का स्वीकार करवाने के बाद ही, अर्थात् दूसरे वादी वैसे प्रमाण का उपन्यास करे तभी हम इस प्रकार विचार करते हैं कि-जैन आदि लोगों ने जो तीन प्रमाण माने है उसमें से प्रत्यक्षप्रमाण की परलोक के प्रतिपादन में कोई गुंजाईश नहीं है / कारण, उसका जन्म नेत्रादि बाह्य करण-इन्द्रिय की कुछ हिलचाल-सक्रियता या व्यापार से होता है, अतएव प्रत्यक्ष केवल संनिहित यानी अपने से संबद्ध अमुक अमुक रूपरसादि विषय को ही स्पर्श करता है, परलोक को नहीं, क्योंकि वह इन्द्रियों से सम्बद्ध नहीं है / कदा
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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